पंद्रहवां प्रवचन
बुद्धपुरुष अर्थात जीवित मंदिर--मौन का
दिनांक 04 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूनाकथा:
एक झेन गुरु थे--सोइची। जिस दिन से सोइची ने तोफुकु के मंदिर में शिक्षण देना शुरू किया, उसी दिन से मंदिर का रूपांतरण हो गया।दिन आता, दिन जाता; रात आती, रात जाती; लेकिन तोफुकु का मंदिर सदा मौन ही खड़ा रहता। मंदिर एक गहन सन्नाटा ही हो गया। कहीं से कोई आवाज न उठती थी। सोइची ने सूत्रों का पाठ भी बंद करा दिया। यहां तक कि मंदिर के घंटे भी सदा सोए हुए रहते; क्योंकि सोइची के शिष्यों को सिवाय ध्यान के और कुछ नहीं करना था।
फिर बरसों तक ऐसा ही रहा। लोग भूल ही गए कि पड़ोस में मंदिर है। और सैकड़ों संन्यासी थे वहां; आत्मज्ञान के दीये जलते थे; और समाधि के फूल खिलते थे।
और अचानक एक दिन लोगों ने सुना कि मंदिर के घंटे बज रहे हैं और शास्त्रों के सूत्र पढ़े जा रहे हैं। लोग भागे मंदिर की तरफ। सोइची ने संसार छोड़ दिया था। उसके शव पर ही सूत्र पढ़े जा रहे थे, घंटे बज रहे थे।
ओशो, इस कथा पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
मौन की महिमा अपार है। उससे ज्यादा महिमावान कुछ और नहीं। जिसने उसे पा लिया, उसे पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता। क्योंकि मौन के क्षण में ही पता चलता है--तुम परमात्मा हो।
परमात्मा का अर्थ हैः जिसे पाने को कुछ भी शेष नहीं; जो सब पाया ही हुआ है। परमात्मा का अर्थ हैः जिसे कहीं जाना नहीं; जो अपनी मंजिल पर ही विराजमान है। परमात्मा का अर्थ हैः जो भी है, वह उससे परम तृप्त है; कोई अतृप्ति नहीं, कोई चाह नहीं; कोई प्यास नहीं, कोई क्षुधा नहीं; कोई मांग नहीं, कोई प्रार्थना नहीं। जिस दिन प्रार्थना मिट जाती है, उसी दिन तुम परमात्मा हो जाते हो। जिस दिन मांग खो जाती है, उसी दिन जो भी न पाने योग्य है, जो भी पाया जा सकता है, वह तुम्हें मिल गया। लेकिन मौन के क्षण में ही यह पता चलता है। मौन के बिना तुम अपने से अपरिचित ही रह जाते हो।
बहुत से तलों पर इस बात को समझ लो। फिर यह कहानी खुल जाएगी, जैसे कोई बंद द्वार खुल जाए; जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीया जला दे और सब प्रकाशित हो जाए।
पहली बातः बोलते हो तुम, जरूरी है। क्योंकि दूसरे से संबंधित होने का और कोई उपाय नहीं है। लेकिन अकेले में, जब दूसरा नहीं है, तब तुम क्यों बोले चले जाते हो? भीतर तुम क्यों बोले चले जाते हो? दूसरे से तो बोलना माध्यम है, लेकिन स्वयं से बोलना पागलपन है।
एक आदमी रास्ते पर चलता है, तो उसके पैर चलते हैं। लेकिन तुम बैठे हुए पैरों को हिलाते रहो और तुम रोकने में ही असमर्थ हो जाओ; और कोई तुम्हारे से कहे कि ‘अब तुम क्यों पैर हिला रहे हो! क्योंकि कहीं तुम जा नहीं रहे। जाने के लिए तो पैर चलाना जरूरी है। लेकिन बैठे-बैठे क्यों पैर हिलाते हो? सोते-सोते क्यों पैर हिलाते हो?’ और तुम कहो कि ‘मैं क्या करूं; पैर रुकते ही नहीं!’ तो तुम्हारा शरीर अस्वस्थ है। और तुम्हारा नियंत्रण खो गया; तुम मालिक नहीं हो। लेकिन मन की यही हालत है।
दूसरे से बोलते हो, समझ में आता है। लेकिन अपने से क्यों बोलते हो? भीतर क्यों बोलते हो? अंतरालाप क्यों चलता है? और क्या तुम्हारे वश में है कि तुम चाहो--मन को रोकना, तो रुक जाए! जब तुम कहो, तब रुक जाए। तुम्हारे वश में नहीं है। मन तुम्हारी सुनेगा नहीं। मन मालिक हो गया है। तुम उपेक्षित--तुम्हारी मालकियत उपेक्षित। मन ने सब नियंत्रण ले लिया है। तुम्हारा कोई काबू नहीं है।
पागल का और अर्थ क्या होता है? ‘पागल’ का इतना ही अर्थ होता है कि ‘जिसका अपने पर कोई काबू नहीं।’ जो हो रहा है--होगा; वह उसे बदल नहीं सकता। जो नहीं हो रहा है, वह नहीं होगा; वह उसे कर नहीं सकता। उसकी मालकियत खो गई है। इस अर्थ में तो हम सभी पागल हैं; मात्राओं के भेद होंगे; कम और ज्यादा पागल होंगे; लेकिन पागल सभी हैं।
जरूरत है दूसरे से बोलने के लिए--भाषा की, शब्द की। अपने से बोलने के लिए न भाषा की जरूरत है, न शब्द की। अपने से अगर बोलना हो, तो मौन की जरूरत है। पदार्थ को जानना हो, तो शब्द का उपयोग करना पड़ेगा। विज्ञान बिना शब्द के नहीं जी सकता।
कभी तुमने सोचाः सारे पुस्तकालय जल जाएं, सारे शास्त्र नष्ट हो जाएं, तो विज्ञान नष्ट हो जाएगा, धर्म नष्ट नहीं होगा। क्योंकि धर्म का शास्त्रों से कुछ लेना-देना नहीं है। वे हैं या नहीं हैं, कोई फर्क न पड़ेगा। अगर विज्ञान के सारे शास्त्र जल जाएं, तो तुम आइंस्टीन को पैदा न कर सकोगे आज। आइंस्टीन को पैदा होने में फिर कोई पांच हजार साल लगेंगे। जब पांच हजार साल तक फिर शास्त्र इकट्ठे होंगे, तब कहीं आइंस्टीन फिर से पैदा हो सकेगा। लेकिन सारी दुनिया के शास्त्र जल जाएं, तो भी बुद्ध को तुम आज ही पैदा कर सकोगे।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लोग धर्म को परंपरा समझते हैं, लेकिन धर्म परंपरा नहीं है। विज्ञान परंपरा है। और लोग धर्म को शास्त्र में आबद्ध समझते हैं। धर्म-शास्त्र में बिल्कुल आबद्ध नहीं है; विज्ञान शास्त्र में आबद्ध है। इसलिए विज्ञान की शिक्षा हो सकती है; धर्म की शिक्षा नहीं हो सकती। और तुमने अगर विज्ञान की किताब समझ ली तो और कुछ समझने को नहीं बचता। धर्म की किताब तुम कितनी ही समझ लो, सब कुछ ही बाकी रहता है।
पदार्थ को जानना हो, तो शब्द साधन है। परमात्मा को जानना हो, तो शून्य साधन है। वहां चुप होकर पहुंचना पड़ेगा। वहां बोलते हुए गए कि चूक जाओगे। क्योंकि जो बोल रहा है, वह अपने ही शब्दों से इतना भरा है--वह स्थूल से इतना भरा है कि सूक्ष्म कैसे उसकी पकड़ में आएगा?
बाजार का शोरगुल तुम अपने भीतर लिए चल रहे हो। तुम्हारे मंदिर भी बाजार के हिस्से हो गए हैं, तुम्हारी मस्जिदें भी बाजार के हिस्से हो गए हैं। वे भी दुकानें हैं; वहां भी बड़ा शोरगुल है। मंदिर तो मौन होना चाहिए। वहां तो जाने का अर्थ ही यह होना चाहिए कि तुम बाजार को पीछे छोड़ आए। वहां तो सन्नाटा होना चाहिए; वहां तो जहां तुम जूते उतारते हो, वहीं तुम्हें शब्द भी उतार देने चाहिए। मंदिर में शब्द ले जाने का क्या अर्थ है? और शब्द से बासा और क्या है?
कितनी बार तुम एक ही शब्द का उपयोग कर चुके हो! उससे ज्यादा गंदा और क्या है? जूता भी उतना गंदा नहीं है, शब्द जितना गंदा हो गया है।
शब्द का ही उपयोग करते हो। तुम गौर करो, तो तीन सौ से ज्यादा शब्द न पाओगे--जिनका तुम दिन-रात उपयोग करते हो। तीन सौ भी--जो बहुत ज्यादा शब्दों का जानकार हो। इसलिए कोई नई भाषा सीखना कठिन नहीं होना चाहिए। तीन सौ शब्द तुम ठीक से सीख लो, नई भाषा आ जाएगी। क्योंकि तीन सौ से ज्यादा शब्दों का कोई उपयोग ही कहां होता है! उन्हीं का तुम दिन-रात उपयोग करते रहते हो। वे बासे हो गए हैं; सड़ गए हैं। तुम्हारे ओंठों से गुजर-गुजर कर गंदे हो गए हैं।
जैसे कोई रुपया बाजार में चलते-चलते गंदा हो जाता है, घिस जाता है, ऐसे ही तुम्हारे शब्द घिस गए हैं। चांदी के भी नहीं हैं वे, कागज के नोट हैं; बहुत गंदे हो गए हैं। इनको लेकर तुम मंदिर में प्रवेश करते हो। इन्हें तुम मंदिर के बाहर छोड़ जाना, तो ही तुम्हारा प्रवेश हुआ; तो ही होगा प्रवेश। वहां तो तुम मौन होकर जाना। इसलिए वस्तुतः जो मौन हो गया, वह मंदिर में है। और जो बोलता रहा, वह मंदिर में बैठा हो, तो भी दुकान में है। तुम कहां हो, इससे फर्क नहीं पड़ता है। तुम्हारे भीतर क्या है, इससे ही फर्क पड़ता है।
लेकिन हमारे मंदिर और मस्जिद बाजार के हिस्से हैं। मंदिर और मस्जिद तुम्हें नहीं बदल पाए, तुमने उन्हें बदल दिया है।
एक बहुत बड़ा धनपति--रथचाइल्ड--बहुत परेशान था। अनेक तरह के लोग, अनेक तरह की चीजें बेचना चाहते--इंश्योरेंस के एजेंट, हजार तरह के सेल्समैन दरवाजे पर दस्तक देते। एक सेल्समैन महीनों से आता था। वह उसे कई दफा धक्के देकर निकलवा चुका था। लेकिन वह फिर-फिर आ जाता था। वह चाहता था, उसके धंधे का विज्ञापन, पत्रों में छापने के लिए। आखिर रथचाइल्ड ने कहाः ‘आज कोई मैं चालीस साल से धंधे में हूं--और बिना विज्ञापन के। तुम देख रहे हो कि मैंने बहुत कमाया है। और जो भी मैं बनाता हूं, वह बिकता है। अब मुझे विज्ञापन की कोई जरूरत नहीं है। विज्ञापन उनके लिए हैं, जिनकी चीजें बिकती न हों। तुम्हें हजार दफे कह दिया, तुम बार-बार मत आओ।’
सांझ का वक्त था, तभी पास के पहाड़ पर चर्च की घंटियां बजीं। उस विज्ञापन मांगने वाले ने कहाः ‘सुनें, क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि यह चर्च कितने साल से है--इस पहाड़ पर?’ रथचाइल्ड ने कहाः ‘होगा कोई पांच सौ साल पुराना।’ पर उसने कहाः ‘यह चर्च अभी भी रोज शाम घंटियां बजाता है, और खबर देता है कि मैं हूं। और आप केवल चालीस साल से धंधे में हैं। यह पांच सौ साल से धंधे में है; लेकिन विज्ञापन इसने बंद नहीं किया! जिस दिन इसकी घंटियां बंद होंगी, लोगों का जाना बंद हो जाएगा। लोग भूल जाएंगे कि मंदिर है अब।’
और कहते हैं, रथचाइल्ड प्रभावित हुआ और उसने विज्ञापन देना शुरू किया। उसको लगा कि भगवान की दुकान के लिए भी विज्ञापन की जरूरत होती है--घंटा बजाना पड़ता है!
घंटा बहुत पुराना विज्ञापन है। घंटा बजता रहता है, ताकि तुम्हें खबर रहे कि मंदिर है। बुलावा है कि आओ। अगर मंदिर घंटा बजाना बंद कर दें, तो तुम उन्हें भूल जाते हो।
तुम्हारे मंदिर-मस्जिद भी बाजार के हिस्से हो गए हैं। वे भी बिक्री के नियम मान कर चलते हैं। लेकिन तुम उनके द्वारा नहीं बदले जा सके हो। तुम उनके द्वारा तभी बदले जा सकोगे, जब तुम्हें मौन की महिमा समझ में आ जाए।
दूसरी बात ख्याल में ले लोः बच्चा पैदा होता है, तब वह मौन होता है। फिर मरेगा, तब भी मौन हो जाएगा। जीवन के इस छोर के पहले मौन है, जीवन के उस छोर के बाद मौन है। मौन से तुम उठते हो, मौन में तुम खो जाते हो। शब्द बीच का खेल है; जिंदगी का, समाज का, सभ्यता का दूसरे संबंध का नाता है। लेकिन तुम अपने निपट अकेलेपन में सदा मौन थे। जब तुम पैदा हुए तब, जब तुम मरोगे तब।
दूसरे से बातचीत उपयोगी है, लेकिन उससे तुम्हारा स्वभाव प्रकट न होगा। स्वभाव तो तुम्हारा तभी प्रकट होगा, जब तुम ‘दूसरे’ को बिल्कुल भूल जाओगे।
‘शब्द’ को भूलने का अर्थ है--दूसरा भूल गया। शब्द को छोड़ने का अर्थ है--समाज छूट गया। शब्द को हटाने का अर्थ है--सभ्यता हट गई। इधर शब्द गया, भाषा गई, वहां सब जो तुमने सीखा था--गया।
शब्द के बिना तो तुमने कुछ भी नहीं सीखा है। सभी सिखावन शब्द पर खुदी है। शब्द को छोड़ते ही सब सिखावन छूट जाती है। सब लघनग चली जाती है, सब पांडित्य, सब ज्ञान--सब चला जाता है। तुम रह जाते हो--निपट-निर्दोष, जैसे तुम थे--जन्म के पहले, और जैसे तुम हो जाओगे--मृत्यु के बाद। और अगर तुम इसमें एक डुबकी भी लगा लो--इस स्रोत में, मूल स्रोत में तो फिर तुम हंसोगे। तो फिर तुम कहोगे कि न कोई जन्म है और न कोई मृत्यु। मैं सदा था और सदा रहूंगा। मैं सनातन हूं, मैं शाश्वत हूं।
यह धारा अजस्र बन रही है। यह जन्म के पहले भी बहुत थी--छिपी होगी। जैसे नील नदी बहती है--इजिप्त में। सैकड़ों मील तक जमीन के नीचे बहती है; दिखाई नहीं पड़ती। फिर अचानक प्रकट होती है। लेकिन प्रकट कोई चीज शून्य से तो नहीं होती। जो भी प्रकट होता है, वह पहले अप्रकट रहा होगा। ऐसे ही एक दिन अचानक तुम्हारा जन्म होता है। जो नदी भूगर्भ में थी, छिपी थी, वह प्रकट हो गई। फिर एक दिन अचानक तुम भूगर्भ में खो जाते हो। फिर मौत तुम्हें समा लेती है।
जो जन्म के पहले था, जो मौत के बाद था, उसको ही पहचानो। वही धर्म है, वही ध्यान है। लेकिन तुम अपना सारा समय समाज में खोए दे रहे हो। तुम अपनी सारी ऊर्जा शब्द में चुकाए डाल रहे हो। तुम बोल-बोल कर नष्ट हुए जा रहे हो; सोच-सोच कर नष्ट हुए जा रहे हो!
ध्यान से बड़ा समाज विरोधी और कोई तत्व नहीं है। क्योंकि ध्यान का अर्थ है--पूरा समाज तुमने छोड़ा। शब्द छोड़ा कि समाज गया। तुम बाहर उतर जाते हो।
शब्द से उतर जाने की कला, समाज से बाहर उतर जाने की कला है। कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। हिमालय तो वे जाते हैं, जो नासमझ हैं। जो इस कला को नहीं जानते, वे हिमालय में भी उतर न पाएंगे।
तुम्हें पता हैः तुम अगर अकेले छोड़ दिए जाओ, तो पहले धीरे-धीरे अपने से बात करोगे। फिर जोर-जोर से बात करने लगोगे। फिर तुम पौधों से, पहाड़ों से बात करने लगोगे। कोई भी न मिलेगा, तो तुम परमात्मा से बातचीत शुरू कर दोगे। तुम्हीं बोलोगे, तुम्हीं जवाब दोगे! तुम ‘दूसरे’ को कल्पना से निर्मित कर लोगे।
हिमालय पर जाने से कुछ भी न होगा। जाते ही वे हैं, जो नहीं जानते। उन्हें छोटी सी कला आ गई--शब्द की नाव से उतर जाने की कला--वे ठीक यहीं, बीच बाजार में, जब चाहें तब हिमालय को खोज ले सकते हैं। जैसे ही वे शब्द का द्वार बंद करते हैं, मौन हो जाते हैं--बाहर हो गए।
संसार के हर स्थान से संसार के बाहर होने का द्वार है। कुंजी चाहिए। वह कुंजी मौन है। चुप होना इस जगत में सबसे बड़ी कला है। शेष सारी कलाएं शब्द पर निर्भर हैं।
बच्चा पैदा होता है, तो हम उसे शब्द सिखाते हैं। इसलिए जो बच्चा जितने जल्दी शब्द बोलता है, मां-बाप उतने ही ज्यादा प्रसन्न होते हैं। और ध्यान रहे, जो बच्चा जितने जल्दी शब्द बोलता है, उतना ही बुद्धिमान सिद्ध होता है; क्योंकि सारी कला शब्द से ही सीखनी है। जो बच्चा जितने देर से बोलेगा, उतना ही बुद्धू सिद्ध होगा। अगर पांच-सात आठ-दस साल तक बिना बोले रह गया, तो फिर आशा खो जाती है।
जितनी जल्दी बच्चा बोलता है, उतनी खबर देता है कि वह प्रतिभाशाली है। और तुम्हें ख्याल हैः समाज में सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली कौन लोग हैं? वे ही जो शब्द के कुशल कारीगर हैं। वे चाहे नेता हों, चाहे वैज्ञानिक हों, चाहे गुरु हों। जो शब्द के जितने कुशल कारीगर हैं, जो शब्द का जितना ढंग से उपयोग कर सकते हैं, वे ही तुम्हारी दुनिया में महान हैं!
तुम्हारा सारा खेल शब्दों का है। जो यहां अच्छा बोल सकता है, ढंग से बात कर सकता है, वह हर तरह की चीजें बेच पाता है। बोलने की कला जैसे संसार की सारी कलाओं का आधार है।
लेखक हैं, कवि हैं, संगीतज्ञ हैं--सभी, शब्द, ध्वनि उसका उपयोग कर रहे हैं। यहां अगर कोई बिल्कुल ही चुप रह जाए, तो तुम समझोगे कि जड़ है, तुम समझोगे कि मूढ़ है। इसलिए जल्दी से जल्दी मां-बाप कोशिश करते हैं कि बच्चा शब्द सीखे।
पहले बच्चे सात साल में स्कूल जाते थे, अब वे ढाई साल, तीन साल के हुए कि मांटेसरी में उनको प्रवेश मिल जाता है। और रूस में वे फिकर कर रहे हैं कि बच्चे को गर्भ में कैसे शिक्षण दिया जा सके। कुछ चीजें उसको गर्भ से सिखाई जा सकती हैं। कुछ कंडीशनिंग की जा सकती है--गर्भ में भी। और वे जल्दी उपाय खोज लेंगे। उनके परिणाम आ रहे हैं, उनके प्रयोग सफल हो रहे हैं--बहुत सी बातें बच्चे को गर्भ में ही सिखाई जा सकती हैं। उनके लिए क्यों रुकना! सिखाने की जल्दी है।
क्या सिखाते हैं हम? हम शब्द सिखाते हैं; फिर शब्द के माध्यम से सब कुछ सिखाते हैं। लेकिन ध्यान रहे, एक चीज शब्द के माध्यम से नहीं सिखा सकते--वह स्वभाव है, वह अस्तित्व की गहराई है। वह शब्द के पहले है। उसको शब्द से सिखाने का कोई मार्ग नहीं है। उसे अगर सीखना हो, तो जो भी तुमने सीखा है, उसे भूलना सीखना पड़ेगा। इसलिए रमण बार-बार दुहराते हैं, कि सारे धर्म की कला अनलघनग है।
तो एक तरफ संसार की सारी कलाएं हैं, उनको हम लघनग कहें--सीखना। और उन सबके मुकाबले दूसरे तराजू पर धर्म की कला है, उसे हम अनलघनग कहें--भूलना। स्मृति उपयोगी है--संसार में; विस्मृति उपयोगी है--धर्म में।
और ध्यान रहे, तुम्हारी स्मृति जितनी संसार से भर जाएगी, उतना ही परमात्मा विस्मरण हो जाएगा। और जितना तुम संसार को विस्मरण करोगे, उतना ही परमात्मा का स्मरण आएगा। क्योंकि जगह खाली होगी।
जो लोग भी ईश्वर को याद करना चाहते हैं, तो राम-राम दोहराने से कुछ न होगा। उन्हें संसार को भूलना सीखना पड़ेगा। पहले जगह खाली करो।
कहां है, वह रिक्त स्थान, जहां परमात्मा को निमंत्रण दिया जा सके? कहां है तुम्हारे घर में अतिथिगृह, जहां उसे ठहराया जा सके? तुम भरे हो--बुरी तरह भरे हो और कचरे से भरे हो। इस कचरे को हटाना ही होगा। इस कचरे को एक बार भी तुम हटा दोगे, तो तुम बहुत हंसोगे कि जिसको हमने ज्ञान समझ कर इकट्ठा किया था, वह कूड़ा था। उसका कोई भी मूल्य नहीं था।
इसलिए उपनिषदों ने शब्दों से जो सीखा जा सके, उसे ‘अविद्या’ कहा है। बड़े अदभुत लोग थे; उसको ‘विद्या’ नहीं कहा, उसको ‘अविद्या’ कहा है--जो शब्द से सीखा जा सके। तो तुमने जो भी सीखा है अब तक, वह सभी अविद्या है। और तुम्हारे विश्वविद्यालय अविद्यालय हैं--विद्यालय नहीं। क्योंकि वहां सभी कुछ शब्द से सिखाया जा रहा है।
उद्दालक का बेटा श्वेतकेतु लौटा सीख कर, गुरु के घर से, तो उसको बाप ने पूछाः ‘तुमने वह सीखा या नहीं, जिसे सीखने से सब जान लिया जाता है?’ उसके बेटे ने कहाः ‘वह तो कुछ गुरु ने बात नहीं की! वैसे तो सब सीख कर आ गया हूं--जो भी सीखा जा सकता है।’ बाप ने कहाः ‘तू वापस लौट जा। असली बात तो चूक ही गई। असली बात--उसको सीखा है या नहीं, जिसको सीख लेने से सब कुछ सीख लिया जाता है?’ मगर वह सीखना शब्द से हो ही नहीं सकता।
जब श्वेतकेतु वापस लौट गया और उसने अपने गुरु से कहा कि ‘मेरे पिता तो बहुत दुखी और नाराज हुए और उन्होंने कहा कि यह क्या कचरा लेकर तू आ गया! यह तो अविद्या है!’ और यह लड़का वेद में पारंगत होकर गया था! जो भी जाना जा सकता था वह कंठस्थ कर लिया था। गुरु ने कहा, ‘तेरे पिता ठीक कहते हैं। लेकिन अब अगर तुझे वह सीखना है, जिसे सीखने से सब सीख लिया जाता है, तो वह मेरे बस के बाहर है; उसे कोई नहीं सिखा सकता।’
वह श्वेतकेतु को गौवों के साथ जंगल में भेज देता है--तू वर्षों तक वहां गौवों जैसा हो जा--मौन। बोलना मत, सोचना मत। और सब करना; सोचना, बोलना--दो काम मत करना। उठना, बैठना, भूख लगे--भोजन करना, प्यास लगे--पानी पीना, मगर भीतर शब्द को निर्मित मत होने देना। प्यास लगे तो भीतर शब्द मत बनाना कि ‘मुझे प्यास लगी।’ उठना-जाना सरोवर के तट पर। पानी पी लेना। पानी पी ले और प्यास बुझ जाए, तो भीतर शब्द को बीच में मत बनाना कि ‘प्यास बुझ गई।’ प्यास लगे, प्यास का बुझना हो, लेकिन शब्द को बीच में मत लाना। सुबह सूरज निकले, तो देखना; लेकिन मत कहना कि ‘सुबह हुई।’ रात सूरज ढल जाए, तो देखना; मगर मत कहना कि ‘रात हो गई’। कहना मत, बोलना मत, सोचना मत, गाय जैसा हो जाना।
वर्षों तक श्वेतकेतु गायों के साथ रहा। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शब्द गिरते गए। उनकी कोई जरूरत न थी। गौवों से बोलने का कोई अर्थ भी न था। सारा पांडित्य जो सीखा था, वह जैसे झड़ गया। स्मृति संसार की, शब्द की मिट गई। वह मौन हो गया।
जब वह वापस लौटा वर्षों के बाद, तो गुरु ने कहाः ‘अब यहां आने की कोई जरूरत नहीं श्वेतकेतु! दूर से ही मैं देख रहा हूं कि तूने उसे जान लिया, जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है। अब तू अपने घर लौट जा।’ गुरु के चरण छुए--बिना बोले। श्वेतकेतु धन्यवाद देने के लिए भी नहीं बोला।
चरण छूना बड़ा सार्थक है। वह बिना बोले कुछ कहना है। इसलिए भारत ने उस कला को खोजा। भारत के बाहर चरण छूने की कोई बात नहीं है। और पश्चिम के लोग समझ ही नहीं पाते कि चरण छूने का राज क्या होगा। वह बिना बोले कुछ कहना है। धन्यवाद देना है, लेकिन शब्द को नहीं बनाना है। क्योंकि गुरु को शब्द से धन्यवाद अगर दिया जा सकता, तो शब्द बना लेते। जिससे निःशब्द सीखा है, उसको शब्द में धन्यवाद कैसे देंगे!
इसलिए झुक कर--बिना कुछ कहे, धन्यवाद देकर श्वेतकेतु चल पड़ा। जब वह अपने घर के करीब पहुंचने लगा और उसके पिता ने खिड़की से देखा तो उसके पिता ने सोचा कि अरे, यह तो उस एक को जानकर लौट रहा है! इसकी गरिमा, इसका प्रकाश! दूसरी खिड़की से कूद कर पिता भाग गया। उसने अपनी पत्नी को कहा, ‘मैं जाता हूं; क्योंकि अभी मुझे इस एक का खुद ही पता नहीं चला। और यह उचित न होगा कि श्वेतकेतु आकर मुझ अज्ञानी के पैर छुए। अब मैं लौटूंगा तब, जब मैं भी इस एक को जान लूंगा। वह तो जो मैंने श्वेतकेतु को कहा था कि ‘उस एक को जान कर लौट, जिसको जानने से सब जान लिया जाता है, वह भी मैंने शास्त्र में पढ़ा था। उसे भी मैं जानता नहीं हूं। और मैंने सोचा नहीं था कि यह लड़का कर गुजरेगा। यह असंभव को संभव करके चला आ रहा है। अब मेरा रुकना उचित न होगा। अब मैं तभी लौटूंगा, जब मैं भी उस एक को जान लूं।’
अब हम इस कहानी को--इस छोटी सी कहानी को समझने की कोशिश करें। यह मौन की महिमा है।
एक झेन गुरु था--सोइची। जिस दिन से सोइची ने तोफुकु के मंदिर में शिक्षण देना शुरू किया, उसी दिन से उस मंदिर का रूपांतरण हो गया।
तुम मंदिर में जाते हो, तो भी मंदिर का रूपांतरण होता है; क्योंकि मंदिर भी तुम्हारा गुण-धर्म ले लेता है। क्योंकि मंदिर तो एक ग्राहकता है। उसी मंदिर में रावण प्रवेश करता है; तब वह मंदिर रावण जैसा हो जाता है। उसी मंदिर में राम प्रवेश करते हैं; तब वह मंदिर राम जैसा हो जाता है।
मंदिर तो एक ग्राहकता है, एक पैसिविटी है। अगर तुम ठीक से समझ लो, तो तुम जहां हो, वहीं मंदिर बना सकते हो। तब पत्थर की दीवारों के मंदिर का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि तब तुम जानते हो, तुम्हारा होना ही तुम्हें घेरे हुए है। और अगर तुम्हारा होना विकृत है, तो तुम मंदिर में जाकर क्या करोगे? तुम मंदिर को विकृत करोगे और क्या करोगे? अगर तुम बीमार हो, तो तुम्हारी बीमारी मंदिर को छुएगी और क्या होगा! और अगर तुम दुख से भरे हो, तो मंदिर विषाद से डूब जाएगा और क्या होगा!
मंदिर तुम्हें नहीं बदलता; तुम्हीं मंदिर को बदलते हो। और जब सोइची जैसा ज्ञानी किसी मंदिर में प्रवेश करता है, तो मंदिर सोइची जैसा हो जाता है; रूपांतरण शुरू हो जाता है।
ये जो मंदिर खड़े हैं सारी पृथ्वी पर, ये जो तीर्थ हैं--मक्का है, मदीना है, काशी है, जेरुसलम है और सारे जमीन पर मंदिरों का इतना बड़ा विस्तार है, ये हमने क्यों बचा कर रखे हैं? इनके बचाने का कारण है। कभी न कभी इन मंदिरों में सोइची जैसे आदमी ने प्रवेश किया। और उसके साथ मंदिर की जो महिमा प्रकट हुई थी, वह हमसे भूले नहीं भूली है। इसलिए हमने इनको बचाया है, हालांकि अब वह कहानी रह गई है, क्योंकि सोइची जैसे लोग रोज नहीं पाए जा सकते।
जिस दिन मोहम्मद मदीना में थे या मक्का में थे, उस दिन जो गरिमा थी, वह भूलती नहीं है। इसलिए मुसलमान के जीवन कृत्यों में--एक बार हर मुसलमान को हज करनी चाहिए। एक बार हर मुसलमान को उस जगह पहुंच जाना चाहिए, जिसने कभी मोहम्मद का गौरव जाना। शायद वह जगह अब भी कुछ गुनगुनाती हो! शायद उस जगह की हवाएं और पत्थर अभी भी कुछ कहें! वह सिर्फ याददाश्त है। लेकिन मोहम्मद जिस दिन प्रवेश किए काबा में, उस दिन काबा बदल गया। उस दिन काबा का रूपांतरण हो गया।
पत्थरों की क्या बिसात है जो तुम्हें बदल दें? तुम ही बदलोगे। और तुम अगर भरोसा करते हो कि पत्थर तुम्हें बदलेंगे, तो तुम पत्थरों से गए बीते हो। दीवारें तुम्हें बदलेंगी, कि मंदिर का घंटनाद तुम्हें बदलेगा, कि मंदिर में प्रतिष्ठित पत्थर की प्रतिमाएं तुम्हें बदलेंगी! तो तुम हो क्या? तुम पत्थर-कंकड़ हो? क्या हो? वे तुम्हें नहीं बदल सकते। तुम ही उन्हें बदलोगे।
तुम अपने मंदिर को अपने साथ लिए चलते हो। तुम्हारा मंदिर तुम्हारे ‘होने’ का ढंग है। इसलिए जब कभी सोइची जैसा आदमी किसी मंदिर में प्रवेश कर जाता है, तो मंदिर का सौभाग्य है।
मंदिर बदल गया, उसका रूपांतरण हो गया, उसी दिन से। दिन आता, दिन जाता; रात आती, रात जाती; लेकिन तोफुकु का मंदिर सदा मौन ही खड़ा रहता।
सोइची मंदिर पर छा गया। मंदिर की पत्थर की दीवारें सोइची को नहीं बदलेंगी, सोइची ने मंदिर को बदला। और जैसा सोइची चुप था, मौन था, ऐसा ही मंदिर भी मौन रहने लगा। सोइची का गुण-धर्म मंदिर पर छा गया। वह मंदिर सोइची का ही विस्तार हो गया।
दिन आता, दिन जाता; रात आती, रात जाती; लेकिन तोफुकु का मंदिर सदा मौन ही खड़ा रहता। वह मंदिर एक गहन सन्नाटा हो गया। कहीं से कोई आवाज न उठती। सोइची ने सूत्रों का पाठ भी बंद करा दिया। मंदिर के घंटे भी सदा सोए रहते। क्योंकि सोइची के शिष्यों को सिवाय ध्यान के और कुछ भी नहीं करना था।
ऐसा उल्लेख है कि बुद्ध एक राजधानी के करीब आए। उस राजधानी का सम्राट था अजातशत्रु। उसके मंत्रियों ने अजातशत्रु को कहा, कि बुद्ध मिलने जैसे हैं। नाम तो उसका था अजातशत्रु--जिसका कोई शत्रु पैदा नहीं हुआ है; लेकिन यह अजातशत्रु शत्रुओं से डरता बहुत था। उसने कहाः ‘बुद्ध आए हैं, लेकिन क्या वहां जाना सुरक्षित है?’ मंत्रियों ने कहाः ‘वहां क्या खतरा है!’ अजातशत्रु ने कहाः ‘लेकिन फौजी टुकड़ी मेरे साथ चलनी चाहिए।’ मंत्रियों ने कहाः ‘यह बेहूदा लगेगा। बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास आप फौजी टुकड़ी को लेकर जाएंगे--तलवारें लेकर--यह अच्छा नहीं लगेगा। डर कुछ भी नहीं है। बुद्ध आप पर हमला नहीं करेंगे!’ अजातशत्रु ने कहा, ‘बात ठीक है। पर रास्ते में तो साथ ले चलें।’ तो रास्ते में उसकी फौजी टुकड़ी गई। फिर मंत्रियों ने उसे बगीचे के बाहर, जहां बुद्ध ठहरे थे, फौजी टुकड़ी को छोड़ देने को कहा। डरता, भयभीत--क्योंकि कुछ खतरा न हो। वह फौज को छोड़ कर किसी भांति मंत्रियों के साथ चला। थोड़ी ही दूर जाकर वह ठिठक कर खड़ा हो गया। उसने कहा, ‘मुझे संदेह होता है। क्योंकि तुम कहते थे, दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ हैं। और यहां सन्नाटा है। तुम मुझे किसी उपद्रव में तो नहीं ले जा रहे हो! तुम्हारा कोई शड्यंत्र तो नहीं है? और तुम कहते हो, यह जो वृक्षों की कतार है, बस, इसके ही पार दस हजार भिक्षु ठहरे हुए हैं! दस हजार! जहां दस हजार आदमी हों, वहां शोरगुल होगा।’ मंत्री हंसने लगे, उन्होंने कहा, ‘आप अकारण चिंतित हो रहे हैं। यह दस हजार आदमी नहीं हैं। आदमी तो यहां एक भी नहीं है। ये भिक्षु हैं। ध्यान ही इनका एकमात्र कर्म है। वे उठते हैं, बैठते हैं, तो चुप्पी साधते हैं। यह कोई बाजार नहीं है।’
अजातशत्रु गया--भयभीत, डरता हुआ। जाकर बहुत चकित हुआ। उसे भरोसा ही न आया कि दस हजार लोग उन वृक्षों के नीचे बैठे हैं। और सन्नाटा है, जैसे एक भी आदमी न हो।
जैसे ही सन्नाटा होता है तुम्हारे भीतर, तुम्हारी आदमीयत खो जाती है, दिव्यता प्रकट होती है। क्योंकि आदमी तुम अपनी भाषा के कारण हो। इस परिभाषा को ध्यान में रख लेना।
पशु पशु हैं, क्योंकि बोल नहीं सकते। आदमी आदमी हैं, क्योंकि बोल सकते हैं। देवता देवता है, क्योंकि बोलने के पार चला गया। बीच में आदमी है--पशुओं और परमात्मा के, जहां भाषा की कड़ी है। और आदमीयत को पार करना है, तो ही तुम्हारी दिव्यता का अवतरण हो।
सोइची जैसे ही मंदिर में आया, मंदिर का रूपांतरण शुरू हो गया। वहां सन्नाटा रहने लगा। मौन खड़ा रहता मंदिर, घंटे भी बजाने बंद कर दिए। क्योंकि जिसे आना है, उसे अपने आप आना चाहिए। निमंत्रण की क्या जरूरत? और जो निमंत्रण से आएगा, वह आएगा ही कैसे! फिर यह कोई घर तो नहीं, जहां निमंत्रण दिया जाए। यह मंदिर है; यहां जिसको आने की प्यास जग गई हो, वही आएगा। और अगर सरोवर घंटे नहीं बजाते कि प्यासे आएं, तो मंदिर क्यों बजाएगा!
सोइची ने कहा कि बंद कर दो घंटी। हमें उन्हें नहीं बुलाना है, जो अभी आने को तैयार नहीं हैं। जिन्हें आना है, वे आ जाएंगे--वे खोजते हुए आ जाएंगे। और उन लोगों की भीड़ इकट्ठी कर लेना, जिनको नहीं आना था, बड़ी खतरनाक है। क्योंकि उनके बीच में वे लोग भी खो जाते हैं, जिनके कि आने का क्षण आ गया था। उस भीड़ में वे भी दब जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं।
तो मंदिर के घंटे बंद कर दिए गए। सूत्रों का पाठ तक बंद करवा दिया। अब बुद्ध के वचन वहां न पढ़े जाते। रोज सुबह से जो सूत्रों का नियमित पाठ था, वह भी बंद हो गया। वह मंदिर पहली दफा मंदिर बना।
शास्त्र भी छोड़ दिया गया। सोइची ने सूत्रों का पाठ भी बंद करा दिया। लोगों ने कहा होगा जरूर कि यह सोइची नास्तिक है।
इस जगत में जो परम आस्तिक पैदा हुए हैं, वे सभी समझे गए हैं कि नास्तिक हैं। यहां छोटे-मोटे आस्तिकों को ही लोग आस्तिक समझ पाते हैं। यहां बड़ा आस्तिक तो नास्तिक जैसा मालूम पड़ता है।
सोइची ने पाठ बंद कर दिया--सूत्रों का। तुम सोचो, मंदिर के ट्रस्टियों का कैसा रुख रहा होगा! यह मंदिर भ्रष्ट हो गया! इस मंदिर में न अब पूजा होती है, न प्रार्थना होती है। सब कृत्य बंद हो गया!
लोगों ने कहा होगाः सब संन्यासी खाली बैठे रहते हैं; निठल्ले बैठे रहते हैं; कुछ भी काम करते नहीं। कुछ काम तो चाहिए।
सारा कर्म का जाल--कोलाहल--सब सोइची ने बंद कर दिया।
झेन की मौलिक प्रक्रिया है कि तुम चुप बैठना सीख जाओ। इसलिए झेन, हर साधक को कम से कम छह घंटे खाली बैठने की साधना देता है। कम से कम छह घंटे सिर्फ बैठे रहो। कुछ भी मत करो। यह कठिन से कठिन कृत्य है--इस जगत में।
कुछ करने में तुम्हें तकलीफ नहीं होती। कुछ करने के तुम आदी हो। आदतें यांत्रिक हैं। उन्हें करने के लिए न तो सोचना पड़ता है, न विचारना पड़ता है। आदतें तुमसे काम करवाती रहती हैं। आदतें इतनी गहन हैं कि ‘तुम्हारी’ जरूरत ही नहीं, तुम्हारे बिना भी आदतें चलती रहती हैं।
तुमने कई बार अनुभव किया होगा कि पता नहीं कब तुम पैकेट से सिगरेट निकाल कर मुंह में लगा लेते हो, कब तुम जला लेते हो, कब तुम धुआं खींचने-छोड़ने लगते हो! जैसे तुम्हारी कोई जरूरत ही नहीं। यह आदत ही कर लेती है। अचानक तुम चौंकते हो कि तुम धूम्रपान कर रहे हो।
तुम कार चलाते हो। तुम कब बाएं घूम जाते हो, कब दाएं घूम जाते हो; इसके लिए कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। आदतों का जाल तुमसे कराए जाता है।
जिन लोगों ने मन की गहरी खोज की है, वे कहते हैंः सब छूट जाता है। आदतें दूसरे जन्म में भी पीछा करती हैं। वह जो आदमी उदास पैदा होता है, वह उदास मरता है; और फिर उदास पैदा होता है। वह जो आखिरी घड़ी की स्थिति थी--वह जो जिंदगी भर की आदत का सार निचोड़ था--वह पीछा करती है। इसलिए हर बच्चे में जन्म के साथ भेद है। भेद क्या है? भेद आदतों का है, जो पहले उसने बनाईं।
मैंने सुना हैः एक आदमी मरा। वह आदमी एक होटल में बैरा था। और उस होटल में आने-जाने वाले लोग उसे बड़ा प्रेम करते थे। उस जैसा सेवक खोजना कठिन था--विनम्र, हर वक्त दौड़ा हुआ; जो भी कहो बेहतर से बेहतर करने को तत्पर। उसकी टेबल पर बड़ी भीड़ रहती थी। अक्सर क्यू लगी रहती थी, उसकी टेबल के लिए।
फिर वह मरा। उसकी पत्नी बड़ी दुखी थी, तो एक प्रेतात्मविद के पास गई। बड़ी कोशिश की प्रेतात्मविद ने--उसकी आत्मा को बुलाने के लिए, लेकिन उसकी आत्मा नहीं आ सकी। तो प्रेतात्मविद ने कहा, ‘तेरा पति करता क्या था?’ तो उसने कहाः ‘कोई तीस साल से वह एक होटल में बैरा था--एक ही होटल में।’ तो प्रेतात्मविद ने कहाः ‘तो उसे यहां बुलाना कठिन होगा। बेहतर होगा, हम होटल में ही चलें। आशा इस बात की है कि आत्मा वहीं आस-पास भटक रही हो। पुरानी आदत! तीस साल!’
वह प्रेतात्मविद उस स्त्री को लेकर उस होटल में गया। एक कोने में बैठ कर एक टेबल पर उन्होंने उसे बुलाने की कोशिश की। तत्क्षण आवाज उत्तर में आई कि ‘हां, मैं हूं।’ लेकिन बड़ी धीमी आवाज थी। होटल में बहुत शोरगुल था। तो पत्नी ने बड़ी खुश होकर कहाः ‘मैं बड़ी प्रसन्न हूं कि तुम हो। वहां के संबंध में कुछ और कहो। लेकिन जरा जोर से बोलो।’ उसने कहाः ‘और जोर से मैं नहीं बोल सकता। बहुत भीड़-भाड़ और शोरगुल है यहां।’ तो पत्नी ने कहाः ‘तुम थोड़े करीब क्यों नहीं आ जाते?’ उसने कहाः ‘मैं तुमसे काफी दूर हूं।’ पत्नी ने कहाः ‘करीब आ जाओ।’ उसने कहाः ‘वह मैं न कर सकूंगा। वह मेरी टेबल नहीं है।’ वह अपनी ही टेबल के आस-पास है!
आदमी मर जाए, तो भी साथ ले जाता है संस्कार। संस्कार यानी आदत--बहुत गहरी चली गई आदत।
सबसे गहरी आदत तुम्हारे भीतर उलझे रहने की है--काम में उलझे रहने की। काम बदल जाते हैं। जन्मों-जन्मों में तुमने न मालूम कितने काम किए हैं। लेकिन एक आदत हमेशा मौजूद रही है--कुछ न कुछ करने की--व्यस्त, आक्युपाइड।
काम बदलने से तुम्हें अड़चन नहीं होती। तुम अखबार छोड़ कर रेडियो सुन सकते हो। रेडियो बंद करके तुम कार साफ कर सकते हो। काम तुम बदल सकते हो, लेकिन अकाम की हालत में तुम नहीं हो सकते हो। एक काम से दूसरे में जाने में इतनी अड़चन नहीं है, क्योंकि व्यस्तता जारी रहती है।
झेन कहता हैः धर्म की सारी कला--अव्यस्त, अनआक्युपाइड होना है। इसलिए साधारण कर्म लोगों को, कर्मठ लोगों को तो झेन फकीर आलसी और काहिल मालूम होते हैं कि सिर्फ बैठे हैं--निठल्ले। कुछ भी नहीं कर रहे हैं! जापान में भी उनकी निंदा और आलोचना होती रही है। भारत में भी होती है।
जहां भी धर्म पैदा होता है, वहीं खाली बैठने की कला की शुरुआत होती है। संन्यास का अर्थ हैः खाली बैठने की कला। समाज में आलोचना होती है। कर्मठ लोग हैं, वे कहते हैंः ‘कुछ न करो; कम से कम सेवा तो करो! इतने गरीब हैं, इनकी सेवा करो। बीमार हैं, इनकी सेवा करो; अस्पताल चले जाओ। खाली बैठने से क्या होगा!’
लेकिन सेवा भी व्यस्तता है। तुमने दुकान छोड़ दी, अस्पताल जाने लगे। तुमने अपना धंधा छोड़ दिया, तो तुम सेवा में लग गए। लेकिन धंधा जारी है। तुम व्यस्त हो, व्यस्तता जारी है। सेवा तो वही कर सकता है, जिसने अव्यस्त होना पहले सीख लिया।
अगर एक काम से तुम दूसरा काम बदल लेते हो, तो तुम ध्यान को कभी उपलब्ध न होओगे। ध्यान के लिए बीच में अंतराल चाहिए। तुमने सब काम छोड़ दिया और तुम बिल्कुल बेकाम होकर बैठ गए। और इस बेकाम हालत में तुम्हारे मन में कोई बेचैनी पैदा नहीं होती। धीरे-धीरे मन की दौड़ सिकुड़ती जाती है। मन का जाल सिकुड़ता जाता है। तुम संसार से टूटते जाते हो। तुम्हारी जड़ें उखड़ती जाती हैं। तुम्हारा रुख इस दुनिया से दूसरी दुनिया की तरफ होने लगता है।
जब तुम बिल्कुल व्यस्त नहीं होते, तब तुम्हारी जीवन ऊर्जा कहां जाएगी? वह अपने में ही ठहर जाएगी। और जब जीवन ऊर्जा अपने में ही ठहरती है, उस स्थिति का नाम ध्यान है।
तो छह घंटे--झेन कहता है कि हर आदमी को बैठे रहना चाहिए। अगर तुम कभी बोध-गया गए हो और तुमने बोधि-वृक्ष देखा है, तो बोधि-वृक्ष के पास एक छोटी सी टहलने की जगह है, उसको बुद्ध का चर्यापथ कहते हैं, जहां बुद्ध चंक्रमण करते थे। क्योंकि बुद्ध घंटों बैठे रहते--छह घंटे, आठ घंटे--फिर पैर जड़ हो जाते, तो उठ कर वह मंदिर के बगल में जो थोड़ी सी जगह है, वहां वे चल लेते। वे चलते, ताकि पैर में खून फिर चल जाए, फिर शरीर ढंग पर आ जाए, फिर जाकर बोधि-वृक्ष के नीचे बैठ जाते।
बैठ-बैठ कर बुद्ध ने बुद्धत्व पाया। चल-चल कर किसी ने बुद्धत्व नहीं पाया है। वे चलते भी थे थोड़ा सा, तो सिर्फ इसलिए कि फिर से बैठ सकें। और तुम अगर बैठते भी हो थोड़ा सा, तो सिर्फ इसलिए कि फिर चल सको। बस, वहीं बुनियादी फर्क है। तुम अगर रात आराम भी करते हो, तो इसलिए कि सुबह धंधे में ठीक से लग जाओ। तुम्हारा आराम भी काम में नियोजित है।
बुद्ध का इतना ही कुल काम था कि वे कभी चार-छह घंटे के बाद दस-पचास कदम चलते थे। वह चलना सिर्फ इसलिए था, ताकि शरीर फिर बैठने में सक्षम हो जाए। सारी प्रक्रिया बदल गई। श्वास भी इसलिए ले रहे हैं। चल भी रहे हैं इसलिए। भिक्षा मांगने भी जाते हैं, पानी भी पीते हैं। लेकिन सारी प्रक्रिया--जो कुछ भी करते हैं--वे इतना सा ही करने के लिए है कि खाली होकर बैठ सकें, अव्यस्त होकर बैठ सकें। तब बड़ी थोड़ी सी व्यस्तता बचती है--न्यून, अति न्यून, अत्यंत आवश्यक। उतनी न्यून व्यस्तता के साथ और अव्यस्त रहने में राजी होने के साथ ध्यान का फूल लगता है।
तोफुकु के मंदिर में सोइची ने सूत्रों का पाठ भी बंद करा दिया। मंदिर के घंटे सो गए। सोइची के शिष्य सिवाय ध्यान के कुछ न करते। फिर वर्षों तक ऐसा ही रहा। लोग भूल गए कि पड़ोस में मंदिर है। भूल ही जाएंगे। क्योंकि मंदिर भी मौन से नहीं पहचाना जाता। मंदिर भी शोरगुल से पहचाना जाता है। मौन जो है, उसको तो हम भूल ही जाएंगे।
तुमने कभी ख्याल किया है कि अगर तुम्हारे घर में कोई मौन हो जाए, तो थोड़े दिन में तुम उसे भूल जाओगे कि वह है। क्योंकि न बोलेगा, न उपद्रव करेगा। उपद्रव से पता चलता है। बोलने से अड़ंगा डालता है। बोलने से बीच में आता है, दूसरों के रास्ते के आर-पार पड़ता है। बोलता ही नहीं, तो मार्ग के बाहर हो जाता है। अगर कोई आदमी घर में बिल्कुल मौन हो जाए, तो वह रहेगा भी और तुम उसे भूल जाओगे, जैसे वह है ही नहीं। हम भाषा से ही पहचानते हैं कि कोई है।
मंदिर है, ऐसा लोग भूल गए। सैकड़ों संन्यासी थे वहां। आत्मज्ञान के दीये जलते थे; समाधि के फूल खिलते थे। फिर भी लोगों को पता न रहा कि मंदिर है। क्योंकि न तो आत्मज्ञान का दीया तुम्हें दिखाई पड़ता है, न समाधि के फूल की सुगंध तुम्हें मिलती है। तुम्हें तो सिर्फ शोरगुल सुनाई पड़ता है। तुम पागलपन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझ पाते। इसलिए पागल तुम्हें बहुत ज्यादा होकर दिखाई पड़ता है। और उसका कारण है।
तुम वही समझ पाते हो, तुम जो हो। हमारी समझ हमसे ज्यादा कभी नहीं होती। हो भी नहीं सकती। तुम एक किताब पढ़ते हो। उस किताब में तुम वही पढ़ जाते हो, जो तुम पहले से ही जानते थे। तुम उतना ही ज्ञान उस किताब में से लोगे, जो तुम्हारे पास था ही। नये को तुम पहचानोगे कैसे? नये को तुम आत्मसात कैसे करोगे? नये का तुम्हें पता ही नहीं चलेगा। नये में तुम्हें शोरगुल ही मालूम नहीं होगा।
इस जगत में हम वही देख पाते हैं, जो हम हैं। वही पहचान पाते हैं, जो हमारी पहचान है। यह जगत हमारी सीमा से बंधा है।
मैंने सुना हैः एक संध्या मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोवैज्ञानिक के पास गया--बहुत चिंतित और परेशान। और जाकर उसने कहा, ‘बहुत हो गया। अब कुछ करना ही पड़ेगा। बहुत दिन टाला, लेकिन टाल न सका।’ मनोवैज्ञानिक ने पूछा, ‘क्या तकलीफ है?’ उसने कहा, ‘तकलीफ मुझे नहीं है। मेरी पत्नी को है। उसे ख्याल हो गया है, एक वहम सिर पर सवार हो गया है कि वह रेफ्रिजरेटर है।’ पागलों को हो जाता है। तो उस मनोवैज्ञानिक ने सांत्वना दी और कहाः ‘इसमें कुछ घबड़ाने की बात नहीं है और यह बड़ा निर्दोष वहम है। इसमें हर्ज भी क्या है?’ नसरुद्दीन ने कहाः ‘तुम समझे नहीं। हर्ज है, क्योंकि रात वह मुंह खोल कर सोती है और प्रकाश--छोटा प्रकाश रेफ्रिजरेटर का, रात भर जलता रहे तो मैं कैसे सोऊं?’
अब यह आदमी खुद पागल है। लेकिन अपना पागलपन दूसरे में झलकता है।
हर आदमी दर्पण है उसमें हम अपनी ही शकल देखते हैं। और यह दर्पण, वह दर्पण--थोड़े बहुत फर्क दर्पण में होते हैं। कोई बेल्जियम का बना है, कोई शुद्ध देशी है। दर्पण में थोड़े-बहुत फर्क होते हैं, इसलिए थोड़ा बहुत शकल में फर्क मालूम पड़ता है। लेकिन मौलिक अंतर नहीं आता। शकल तो तुम्हारी ही रहेगी।
तुम एक मित्र को बदल कर दूसरा मित्र कर लो; एक पत्नी छोड़ दूसरा विवाह कर लो; एक घर छोड़ कर दूसरे घर में चले जाओ; एक नौकरी छोड़ दूसरी नौकरी कर लो, बहुत फर्क न पड़ेगा; क्योंकि हर जगह दर्पण रहेगा। शकल तो तुम अपनी ही देखोगे!
इसलिए दुखी आदमी झोपड़े से महल चला जाए, तो भी दुखी रहता है। सुखी आदमी महल से झोपड़े में चला जाए, तो भी सुखी रहता है। क्योंकि सवाल दर्पण का नहीं है; चेहरा तो तुम अपना ही देखोगे। दर्पण छोटा हो, बड़ा हो, कीमती हो, गैर-कीमती हो, टूटा-फूटा हो, लेकिन चेहरा तो तुम्हारा ही तुम देखोगे। हम सब जगह अपने को ही देखते हैं। हम उसी को पहचानते हैं, जो हम जैसा है। हम पागल हैं, तो हमें पागलपन पहचान में आता है।
यह जो सोइची का मंदिर था, इतना शांत हो गया कि लोग भूल गए कि वह है। लोग उसके सामने से ही गुजरते होंगे। उसमें हजारों भिक्षु थे। वे भिक्षु भिक्षा मांगने बाहर जाते होंगे, भीतर आते होंगे, लेकिन वे बिल्कुल शांत थे। वे मौन थे। ध्यान उनके जीवन की एकमात्र शैली थी। लोग उन्हें देखते भी होंगे, फिर भी नहीं देख पाते होंगे। क्योंकि अपना ही चेहरा हम देख सकते हैं। लोगों को वह मंदिर दिखाई भी पड़ता होगा, फिर भी दिखाई नहीं पड़ता होगा। आंखों में तस्वीर तो बनती होगी, भीतर पहचान नहीं आती होगी। इसलिए बहुत बार ऐसा हुआ है--बहुत बार क्या, सदा ऐसा हुआ है--कि इस जगत में जो भी बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति पैदा हुए हैं--ध्यान के--ध्यानी जो पैदा हुए हैं, वे करीब-करीब इतिहास के बाहर छूट गए हैं।
बहुत लोग पूछते हैं कि बुद्ध का इतिहास में क्या प्रमाण है? बहुत लोग पूछते हैं कि महावीर का इतिहास में क्या प्रमाण है? इतिहास में न के बराबर प्रमाण है। क्योंकि ये ‘मंदिर’ इतने सन्नाटे से भरे थे कि हमने कभी जाना भी नहीं कि ये हैं; हमने कभी पहचाना भी नहीं कि ये हैं।
इतिहास में तो हम उसको लिखते हैं, जिसको हम पहचानते हैं, जानते हैं। इतिहास में पागलों की कथाएं बड़ी मेहनत से लिखी गई हैं। हिटलर हैं, तैमूर हैं, चंगीज हैं, नेपोलियन हैं, सिकंदर हैं--इनकी इतिहास में कथाएं हैं--विस्तार से। सारा इतिहास ‘पागलों’ से भरा पड़ा है!
तुम्हारा अखबार भी है--उसमें कभी तुम्हें कोई खबर मिलती है कि कोई आदमी शांत है--कि कोई आदमी शांत बैठा है किसी वृक्ष के नीचे? बुद्ध अखबार के बाहर छूट जाएंगे। लेकिन दिल्ली में जो सारे पागल इकट्ठे हो गए हैं, उनकी अंगुली में चोट लग जाए, कि किसी का जूता खो जाए, कि किसी को छींक आ जाए, वह सब अखबार में इतिहास बन रहा है। इतिहास तो रोज बन रहा है। यही कल इतिहास हो जाएगा! इसमें बुद्धों का पता नहीं चलेगा। इसमें जिन्होंने जितना शोरगुल मचाया और जितना उपद्रव खड़ा किया, उनका पता चलेगा।
बुद्ध खड़े भी रहें तुम्हारे पास, तो तुम नहीं देख पाते, क्योंकि तुम पहचानोगे कैसे! इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लेना।
हमारी चाह, हमारी वासना ही पहचानती है। जिस चीज की वासना होती है, उसी की पहचान होती है। अगर तुम घर की तलाश में हो, तो रास्ते से निकलते वक्त, सब जगह तुम्हें दिखाई पड़ेगा--कौन-कौन सा घर किराए पर है, कौन-कौन सा घर बिकाऊ है, कहां कहां ‘तख्ती’ लगी है। अखबार तुम पढ़ोगे तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा, कौन-कौन से घर बिक रहे हैं, कौन-कौन सा घर खाली है। तुम्हें घर की जरूरत नहीं है--अचानक ये सब खो जाएंगे। इनका तुम्हें पता ही नहीं चलेगा।
तुम वासना ग्रस्त हो। तुम्हारी जो वासना है, वह तुम्हें दिखाई पड़ेगी। बुद्ध होने की वासना जब तक तुम्हारे भीतर न हो, तब तक बुद्ध तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेंगे? जिस दिन यह वासना होगी, उस दिन तुम पाओगे कि जगत सदा बुद्धों से भरा है, कभी खाली नहीं रहा। सदा लोग रहे हैं--जिन्होंने ‘जाना’ है। सदा लोग रहे हैं, जिन्होंने सत्य को जीया है। जिस दिन तुम्हारी प्यास जगेगी, अचानक वे तुम्हें दिखाई पड़ने लगेंगे।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि अब कोई बुद्ध पुरुष नहीं हैं! मैं उनसे कहता हूंः ‘तुम जब भी होते, तभी ऐसा होता।’
मैं एक विश्वविद्यालय में पढ़ता था। तो उस विश्वविद्यालय के जो वाइस चांसलर थे, एक बड़े कीमती इतिहासशास्त्री थे, इतिहासज्ञ थे बड़े। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के आदमी थे। बुद्ध की जयंती पड़ी, तो वे बोले। तो उन्होंने कहाः ‘कई बार मेरे मन में ऐसा उठता है कि कितना बड़ा सौभाग्य होता, अगर मैं बुद्ध के समय में पैदा हुआ होता। उनके चरणों में जाकर बैठता।’ तो मैंने उनसे खड़े होकर कहाः ‘ये शब्द आप वापस ले लें। क्योंकि मुझे पक्का पता है कि आप उस समय थे।’ वे थोड़े चौंके। उन्होंने समझा कि मैं पागल हूं। मैंने कहाः ‘आप उस समय भी नहीं गए। और मैं आपसे कहता हूं, अभी भी बुद्ध पुरुष हैं। आप उनके पास अभी भी नहीं जा रहे।’ थोड़ी देर वे सोचते रहे। उन्होंने कहाः ‘हो सकता है, यह बात ठीक है। क्योंकि जैसा मैं हूं, शायद मैं तब भी न जाता।’
तुम्हारी प्यास, तुम्हारा होना ही तुम्हें कहीं ले जाएगा। अगर तुम्हें प्यास है, तो तुम्हें मंदिर ही मंदिर दिखाई पड़ेंगे--जहां तुम जाओगे। और तुम्हारी प्यास नहीं है, तो तुम्हें वेश्यालय दिखाई पड़ सकते हैं। प्यासे को पानी दिखाई पड़ता है। जिसको प्यास नहीं, उसे पानी दिखाई नहीं पड़ता।
वह मंदिर दिखाई पड़ना बंद हो गया। और वहां बड़ी अनूठी घटनाएं घट रही थीं, जैसी कभी-कभी घटती हैं। वह मंदिर उस समय सारे जगत का केंद्र था जैसे। वहां अनेक लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो रहे थे; सोइची के पास चुप होना सीख रहे थे। वहां समाधि के फूल खिल रहे थे। लेकिन हमारी नाक उस सुगंध को पकड़ नहीं सकती। वह सुगंध अपरिचित है। नाक के पास से गुजर जाती है, हमें उसकी कोई पहचान नहीं होती।
वहां दीये जल रहे थे--आत्मज्ञान के। लेकिन हमारी आंखें उसके लिए अंधी हैं; वह प्रकाश हमें दिखाई नहीं पड़ता। या वह प्रकाश इतना ज्यादा है कि उसे देखकर हमारी आंखें बंद हो जाती हैं। हम अपने अंधेरे में खो जाते हैं। उस प्रकाश को देखने के लिए आंखों की तैयारी चाहिए।
मैंने सुना है कि दो छोटे बच्चे--एक लड़की और एक उसका छोटा भाई--लड़की की उम्र रही होगी कोई आठ साल, छोटे भाई की कोई छह साल। वे दोनों रास्ते से गुजर रहे हैं--भरी दुपहरी में; तेज सूरज है। वह जो छोटा भाई है, दोनों आंखों को मींच कर बंद किए हुए है--जैसे अपने खिलाफ। खोलना चाहता है, लेकिन ताकत लगा कर बंद किए हुए है। और वह लड़की उसको हाथ पकड़ कर ले जा रही है।
एक स्त्री ने उन्हें देखा और उसने समझा, क्या गड़बड़ हो गई है! आंख को चोट लग गई है? इस बच्चे को क्या हुआ है? तो उसने पूछा, ‘क्या हुआ है इस बच्चे की आंख को? कोई चोट लग गई है?’ तो उस लड़की ने कहा, ‘नहीं, चोट नहीं लगी है। ऐसा हम हमेशा ही करते हैं--जब भी मेटनी शो सिनेमा देखने जाते हैं।’ तो उसने पूछा, ‘मैं समझी नहीं। मतलब क्या है?’ लड़की बोली, ‘धूप बड़ी तेज है। और हमेशा ही जब हम मेटनी शो देखने जाते हैं, तो यह छोटा भाई ऐसे ही आंख बंद करके जाता है, तो फिर सिनेमा हाल में सीट का नंबर खोजने में सुविधा रहती है। यह वहां सीट का नंबर खोज लेता है। इतना प्रकाश हो, तो फिर अंधेरे में जाकर कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।’
जो व्यक्ति संसार में बहुत आंखें खोल कर चल रहा है, वह संसार की चकाचौंध से इतना परेशान हो जाता है कि अगर बुद्ध के पास जाएगा तो वहां इस तरह की चकाचौंध तो नहीं है। वहां तो बड़ा शांत प्रकाश है, जिसको आलोक कहते हैं--प्रकाश नहीं।
आलोक बड़ा मधुर शब्द है। उसमें चोट नहीं है। आलोक उस क्षण होता है, जब सुबह-रात जा चुकी होती है और सूरज नहीं निकला होता है। उस समय जो प्रभात का प्रकाश होता है, वह आलोक है। सूरज की त्वरा नहीं होती है उसमें, तेजी नहीं होती, रात का अंधेरा भी नहीं होता। सिर्फ हलकी आभा होती है।
तो जो व्यक्ति संसार की रोशनी से बहुत भरा है, बुद्ध के पास जाकर वह देख ही नहीं पाएगा। वहां उसे अंधेरा मालूम पड़ेगा।
अगर बुद्ध को देखना हो, तो बाजार में थोड़ी आंख बंद करके चलना पड़े; ताकि तुम जब बुद्ध के पास पहुंचो, तो तुम्हारी आंखें बाहर के प्रकाश से इतनी ज्यादा पीड़ित न हों, कि भीतर की आभा को पहचानना असंभव हो जाए।
घटनाएं वहां--तो फुकु मंदिर में, घटती थीं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ती थीं। और अचानक लोगों ने एक दिन सुना कि मंदिर के घंटे फिर बज रहे हैं। तभी उन्हें याद आया कि मंदिर है। इतने दिन अंतराल पड़ गया था। शास्त्रों के सूत्र पढ़े जा रहे हैं। तभी उन्हें समझ में आया कि अरे! हम भूल ही गए थे कि पड़ोस में मंदिर है। वे भागे।
इतने दिन से वे मंदिर नहीं गए थे। जब कि मंदिर जाने योग्य था, तब वे चूक गए। और जब कि अब मंदिर के प्राण उड़ चुके थे, जब कि मंदिर अब खाली था, तब वे भागे।
ऐसा अक्सर हुआ है। हमेशा हुआ है ऐसा। और दुर्भाग्य है कि हमेशा ऐसा ही होगा।
जब बुद्ध पुरुष खो जाते हैं, तब तुम्हें खबर मिलती है। जब वे देह छोड़ देते हैं, तब तुम्हें स्मरण आता है। तब तुम रोते हो, छाती पीटते हो। जब वे थे, तब तुम्हें दिखाई नहीं पड़े या तुम्हें अगर मिल भी जाते--रास्ते पर, तो तुम बच कर निकल गए या तुमने तरकीबें खोज लीं या तुमने तर्क खोज लिए और तुमने अपना बचाव कर लिया।
बहुत कम लोग हैं, जो जीवित बुद्ध पुरुषों के पास पहुंच पाते हैं। जब मर जाते हैं, तभी तुम्हें खबर मिलती है। तभी तुम्हें याद आती है कि अरे! कुछ था। लेकिन तब सार नहीं है।
लोग मंदिर की तरफ भागे। उन्हें याद आया कि हम इतने दिन से मंदिर भी नहीं गए। और मंदिर जाना रोज का नियम था। लेकिन घंटे ही बंद हो गए थे बजने; शोरगुल ही नहीं होता था, तो मंदिर भूल गया था। वहां जाकर शब्दों का, सूत्रों का पाठ सुनाई पड़ा। उन्हें फिर से लगा कि अब मंदिर जीवित हुआ!
आज मंदिर मर गया था। पर आज उन्हें लगा कि मंदिर जीवित हुआ! भीतर जाकर उन्होंने देखा कि सोइची ने संसार छोड़ दिया है। उसकी देह पड़ी थी। और उसके शव पर ही सूत्र पढ़े जा रहे थे, घंटे बज रहे थे। और जैसे ही सोइची जैसे व्यक्ति संसार छोड़ते हैं, वैसे ही जो भी वे चाहते थे, उससे उलटा होना तत्क्षण शुरू हो जाता है।
जीवन भर सोइची ने मंदिर के घंटे बंद करवा दिए थे। सूत्रों का पाठ बंद हो गया था। मरते ही पाठ फिर शुरू हो गया, घंटे फिर बजने लगे! बुद्ध पुरुष जो भी जीवन भर करते हैं, उनके मरते ही तत्क्षण सब उलटा हम शुरू कर देते हैं। क्योंकि उनके मरने के बाद सब कारोबार हमारे हाथ में आ जाता है। अब मरा हुआ सोइची तो नहीं कह सकता है कि घंटे मत बजाओ। मरा हुआ सोइची तो नहीं कह सकता है कि सूत्रों का पाठ क्यों कर रहे हो! बंद करो। मरा हुआ सोइची तुम्हारे शोरगुल को बंद तो नहीं कर सकता!
और सारे धर्म इसी तरह निर्मित होते हैं। सभी धर्मों के नीचे सोइची जैसे पुरुषों की लाशें पड़ी हैं। और जो उन्होंने कहा था, ठीक उसके विपरीत परिणाम होते हैं।
बुद्ध ने कहाः ‘मेरी मूर्ति मत बनाना।’ बुद्ध की मूर्तियां बनीं। उनकी पूजा होने लगी। बुद्ध ने कहाः ‘मेरे शब्दों को कंठस्थ मत करना।’ बुद्ध का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि ‘मैं जो कहता हूं, तुम इसलिए मत मानना कि मैं बुद्ध पुरुष हूं। मैं जो कहता हूं, तुम इसलिए मत मानना कि शास्त्र सम्मत है। मैं जो कहता हूं, तुम इसलिए मत मानना कि मैं तर्क से प्रमाण देता हूं। मैं जो कहता हूं, उसे तुम तभी मानना, जब वह तुम्हारा अनुभव हो जाए। तुम्हारे अनुभव के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है।’
लेकिन बुद्ध के वचनों को लोग कंठस्थ कर रहे हैं, दुहरा रहे हैं। कोई जरूरत भी नहीं है, उनका अर्थ जानने की! कोई प्रयोजन भी नहीं है कि उन शब्दों में क्या छिपा है। एक मृत प्रक्रिया शुरू होती है। और मृत प्रक्रिया बिल्कुल उलटी ले जाती है।
अगर तुम धर्मों को ठीक से समझना चाहो, तो तुम उन्हें उलटा कर लेना--जैसे वे हैं। तब शायद तुम्हें ठीक बात समझ में आ जाए। जो भी हो रहा हो मंदिर में--सूत्रों के पाठ पढ़े जा रहे हों, तो समझना जरूर सूत्र के पाठ बंद कर देने से मंदिर का संबंध होगा। घंटे बज रहे हों, तो समझ लेना कि घंटे बंद कर देने से मंदिर का प्रयोजन होगा। जो भी हो रहा है, उससे उलटा शायद सही हो। लेकिन जो हो रहा है, वह तो सही नहीं है।
पर यह स्वाभाविक है। यह दुर्भाग्य है, लेकिन स्वाभाविक है। क्योंकि बुद्ध पुरुष के मरने के बाद कारोबार तो गैर-बुद्ध पुरुषों के ही हाथ में आएगा। इससे बचने का कोई उपाय भी नहीं है। बुद्ध पुरुष कभी होता है। हम सदा मौजूद हैं, इंतजाम करने को। जब तक वह जिंदा रहता है, तब तक भी इंतजाम करने की हम पूरी कोशिश करते हैं। सफल नहीं होते हैं, यह दूसरी बात है। लेकिन उसके हट जाने पर तो फिर हम पूरा इंतजाम करते हैं। और वह इंतजाम निश्चित ही उलटा होने वाला है। इसमें हमारा भी कोई कसूर नहीं है। यह सीधी सी बात है कि उलटा होगा ही।
बुद्ध ने कहाः ‘वेद व्यर्थ हैं।’ महावीर ने कहाः ‘वेदों में कुछ भी नहीं है।’ लेकिन महावीर के भक्त महावीर के वचनों को वेद जैसा ही पूज रहे हैं। वे समझ गए कि वेद में कुछ नहीं, वेद कचरा हैं, लेकिन महावीर के वचन वेद हैं। तो क्या फर्क पड़ा! महावीर ने जब कहाः ‘वेद व्यर्थ हैं’, तो वे यही कह रहे थे कि ज्ञान-शब्द-शास्त्र--सब व्यर्थ हैं। लेकिन जैनों ने समझा, हिंदुओं के वेद व्यर्थ हैं। अपना शास्त्र, महावीर के वचन--वे कैसे व्यर्थ हैं! हिंदू के वेद में भी महावीरों के ही वचन लिखे हुए हैं। वे भी बुद्ध पुरुषों के ही वचन हैं। अगर वे व्यर्थ हैं तो तुम्हारे बुद्ध पुरुषों के वचन सार्थक नहीं हो जाएंगे। लेकिन हमारा मोह है, ममता है।
तो हम वेद को फेंक सकते हैं। लेकिन जिसने समझाया ‘वेद को फेंको’, हम उसके वचनों को वेद की जगह रख कर पूजा शुरू कर देते हैं।
अज्ञानी आदमी की बड़ी तकलीफ है; जैसे लकड़ी को पानी में डालो, तो वह तिरछी दिखाई पड़ने लगती है, ऐसे, जैसे ही बुद्ध पुरुषों के वचन अज्ञानी आदमी में प्रवेश करते हैं, एकदम तिरछे हो जाते हैं; तिरछे ही नहीं उलटे हो जाते हैं। उनका शीर्षासन लग जाता है।
सोइची जिंदगी में मौन था। उसका मंदिर मौन था, उसके शिष्य मौन थे। शब्द छोड़ दिए गए थे। भाषा का खेल बंद था। तर्क का कोई प्रश्न नहीं उठता था। कोई ऊहापोह नहीं चलता था, कोई विवाद नहीं था, कोई सिद्धांत नहीं थे। अचानक उसकी लाश पर सब सिद्धांत वापस लौट आए; शास्त्र पुनरुज्जीवित हो गए। सोइची मरा नहीं कि शास्त्र जीवित हो गए! सोइची मरा नहीं कि शब्द पुनरुज्जीवित हो गए। सोइची मरा नहीं कि मंदिर के घंटे बजने लगे!
यह निरंतर होता रहा है। इसे तुम भी स्मरण रखना। जितनी दूर तक बन सके, इसे दुबारा न होने देना। जितनी देर तक स्मरण रह सके, इसे स्मरण रखना। लेकिन बड़ा कठिन है। करीब-करीब असंभव है। क्योंकि मन की प्रक्रिया के प्रतिकूल है। मन पकड़ना चाहता है। मौन को पकड़ा नहीं जा सकता। शब्द को पकड़ा जा सकता है।
मन जब सोइची मर जाएगा, तो सोइची की जगह कुछ रखना चाहेगा। क्योंकि खाली जगह अखरती है। तो सोइची के शब्द रख लेगा। सूत्र बनाएगा। पाठ करेगा। कंठस्थ करेगा; स्मरण करेगा। ध्यान भर चूक जाएगा। शायद यह भी हो सकता है कि जो वह सूत्र का पाठ करे, उसमें सोइची ने यही कहा हो कि ध्यान करो--ध्यान करो--ध्यान करो। और वह उसका पाठ करेगा।
अभी एक युवक जापान से आया है। खोजी है, सरल है। अमेरिका से जापान गया--झेन सीखने। अब तो झेन को जापान में खोजना भी मुश्किल है। ध्यान को कहीं भी खोजना मुश्किल है। वह सभी जगह से खो जाता है। वह फूल इतना असंभव है कि कभी-कभी खिलता है, फिर खो जाता है। और उसके बीज पड़ते हैं जमीन में और फिर दुबारा नहीं उग पाते।
अब तो जापान में भी झेन के नाम पर धंधा है।
वह युवक मोनेस्टरी में गया और वहां उसने दीक्षा ली। और उसने पढ़ा तो किताबों में यह लिखा था कि सब किताबें व्यर्थ हैं। झेन का प्राथमिक सूत्र यही है कि सब शास्त्र, सब शब्द व्यर्थ हैं। और शून्य होना एकमात्र प्रक्रिया है। लेकिन वहां जब मोनेस्टरी में दीक्षा ली, तो बुद्ध के जो वचन हैं, वे उसको कंठस्थ करने को दिए गए। वह थोड़ा हैरान हुआ। फिर भी उसने सोचा कि जो कहा जाए, उसे करके देखना चाहिए। छह महीने, साल भर बीत गया। और जापानी भाषा में बुद्ध का पूरा एक शास्त्र उसे याद करवा दिया। वह उसका अर्थ भी नहीं जानता! वह उसे बिल्कुल तोते की तरह दुहरा देता है।
वह जब यहां मेरे पास आया, तो मैंने उससे पूछा कि ‘तू क्या सीख कर लौटा है?’ उसने कहाः ‘लोटस सूत्र। वह मैंने कंठस्थ कर लिया है।’ मैंने पूछाः ‘तुझे उसका अर्थ पता है?’ ‘अर्थ कहां से मुझे पता होगा, वह जापानी में है’, उसने कहा। तो मैंने उससे कहाः ‘तू उसे दुहरा।’ वह फौरन खड़ा हो गया। उसने आंखें बंद कर लीं और पूरा लोटस--सूत्र दुहराने लगा। उसे शब्दों का कोई पता नहीं है--उसे अर्थ का पता नहीं है। मगर उसे बिल्कुल कंठस्थ है।
मैंने उससे कहाः ‘यह अच्छा है। मैं एक ध्यान करवाता हूं--जिबरिश, उसके काम आएगा। यह अर्थहीन बकवास है। और तू हैरान होगा कि इस पूरे सूत्र में बुद्ध यही दुहराते हैं कि सूत्रों में कुछ भी नहीं है, शब्दों में कुछ भी नहीं है। उन्हें छोड़ना। उन्हें पकड़ना मत। और किसी ने तुझे यही पकड़ा दिया!’
यही मजे का मामला है। हम ‘ध्यान करो, ध्यान करो, ध्यान करो’--इस शब्द को भी कंठस्थ कर ले सकते हैं। फिर हम सुबह रोज बैठ कर सोच सकते हैं, विचार कर सकते हैं--ध्यान करो, ध्यान करो, ध्यान करो! और ध्यान हम कभी न करेंगे। क्योंकि यह जो दोहराना है--यह ध्यान में बाधा है।
सभी मंदिर सोइची की लाशों पर खड़े हैं। सभी शास्त्र सोइची की लाशों पर बने हैं।
इस छोटी सी कहानी को ठीक से समझना और जीवित सोइची का अनुकरण करना, जीवित बुद्ध का अनुकरण करना। उनके मरने के बाद क्या उनके चारों तरफ बन गया है, उस जाल से बचना। वही जाल हिंदू धर्म है, वही जाल जैन धर्म है, वही जाल ईसाइयत है। उस जाल को फाड़ना, अलग करना। पकड़ना जीसस को, खोजना--जीसस को, सोइची को, बुद्ध को। तब तुम पाओगे कि वहां सिवाय मौन के और कोई संदेश नहीं है।
तुम्हारे मन के सब घंटे बंद हो जाएं, तुम्हारे मन में चलते सब सूत्र-पाठ बंद हो जाएं, तभी तुम्हारे मन के भीतर मंदिर का उदय होगा। तभी तुम्हारे भीतर फूल खिलेंगे--समाधि के। तभी तुम्हारे भीतर दीये जलेंगे--आत्मज्ञान के। वह दीया जल ही रहा है। वह फूल खिल ही रहा है। तुम्हें उसका कोई स्मरण नहीं है। तुम किसी पाठ में खोए हुए हो।
रामतीर्थ एक कहानी कहते थे। वे कहते थेः एक प्रेमी प्रतीक्षा कर रहा है, अपनी प्रेयसी की। वर्षों से दूर चला गया है। न प्रेयसी आ सकी उसके गांव तक, न वह जा सका वापस। बस, पत्रों का लेन-देन है। पत्र लिख देता है, पत्र आ जाते हैं। पत्रों से क्या पता चलता है! पत्रों से कोई प्रेम घट सकता है, कि पत्रों से कोई प्रेम की चरमता, कोई उत्कर्ष आ सकता है? लेकिन पत्र मन को उलझाए रखते हैं। भरे रखते हैं।
राह देखता रहता है पत्र की, पत्र लिख देता है। वर्ष पर वर्ष बीतते जाते हैं। अब तो उसे याद भी नहीं आता कि प्रेयसी का चेहरा कैसा है! अब तो उसे यह भी डर है कि वह जाएगा तो प्रेयसी उसे पहचान पाएगी या नहीं। और उसे एक नया भय भी समा गया है। क्योंकि वह प्रेयसी को जो पत्र लिखता है, वे सच्चे नहीं हैं। जो बातें उसे ख्याल में आती हैं, वह लिखता है--अच्छी-अच्छी बातें लिखता है। लेकिन वे सच नहीं हैं।
वह अब भी कहता है कि तुम्हारे बिना एक क्षण जीना मुश्किल है। लेकिन वह जी रहा है। कुछ भी मुश्किल नहीं है। वह लिखता है कि तुम्हीं मेरे सपनों में छाई रहती हो। लेकिन वह देखता है कि अब तो उसको प्रेयसी का चेहरा भी ठीक से याद नहीं आता, सपनों में आने का कोई सवाल नहीं। तब एक डर उसके मन में पकड़ता है कि प्रेयसी के पत्र जो उसके लिए आते हैं, उनमें भी ये ही बातें होती हैं। कहीं यही हालत, जो मेरी है, वह प्रेयसी की न हो!
पत्र सब झूठे हो जाते हैं। आज नहीं कल शब्द झूठे हो जाएंगे। जो शब्दों पर बहुत निर्भर रहेगा, वह झूठ में खोता जाएगा।
और शब्द बड़े चालाक हैं। जब तुम लिखते हो, तब भूल ही जाते हो। लिखते वक्त तुम्हें ऐसा लगता है कि बड़ा ठीक है। शायद लिखते वक्त तुम जान कर धोखा भी नहीं देते। तुम किसी को पत्र लिखते हो और लिखते हो कि काश, तुम आ जाओ और कभी यहां कुछ देर रहो, तो बड़ा सुख हो। और जिस दिन वह मेहमान सूटकेस लिए घर उतरता है, उस दिन तुम्हारे चेहरे पर कोई सुख नहीं दिखाई पड़ता। और जब तुमने लिखा था, तो जान कर तुमने झूठ लिखा हो, ऐसा नहीं है। जब तुमने लिखा था, तो तुमने सहजता से ही लिखा था।
शब्द झूठे हैं। उनके झूठ लिखने की जरूरत नहीं है, शब्दों के होने में झूठ है। उनसे तुम कविताएं बना सकते हो और कविताएं बना कर तुम खुद ही सम्मोहित हो सकते हो।
तो वह प्रेमी डरने लगा था कि जो मैं लिखता हूं, कहीं ऐसा ही मेरी प्रेयसी तो नहीं लिखती है। हो सकता है, उसको भी मेरा चेहरा भूल गया हो।
और एक दिन वह पत्र लिख रहा है! वह लंबा लिखता जा रहा है, और प्रेयसी आ गई है। उसने दरवाजा खोला तो दरवाजा अटका था। प्रेमी को उसने देखा कि वह पत्र लिखने में लीन है, दीये के पास झुका है, तो वह द्वार पर ही बैठ गई। समझा कि कोई जरूरी काम कर रहा है, वह पूरा कर ले, तो फिर बाधा डाले।
प्रेयसी को ही पत्र लिख रहा है और प्रेयसी द्वार के सामने बैठी है। वह आंख नहीं उठाता है। प्रेमियों के पत्र लंबे होते चले जाते हैं। दस-बारह पेज लिख कर वह आंख उठाता है, तो उसे भरोसा नहीं आता। वह आंख मीड़ कर देखता है। तो भी उसे भरोसा नहीं आता है। वह कहता हैः ‘क्या?’ वह थोड़ा डरता भी है। क्योंकि कोई अपेक्षा ही नहीं है कि प्रेयसी यहां आ जाएगी। और वह प्रेयसी कहती हैः ‘तुम इतने भयभीत क्यों दिखाई पड़ रहे हो! तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं मौजूद हूं! तुम न आ सके; मैं थक गई, तो मैं खुद चली आई।’
और वह प्रेमी रोने लगता है और कहता हैः ‘तूने मुझे चौंकाया क्यों नहीं! पहले ही तूने क्यों नहीं कहा? घंटों से तू बैठी है और तुझे पत्र लिख रहा हूं!’
रामतीर्थ कहते थेः परमात्मा के सामने जब हम शब्द लेकर खड़े रहते हैं, तो हमारी हालत यही है। वह मौजूद है--घंटों से नहीं, सदा से। वह द्वार पर ही बैठा है और हम प्रार्थना कर रहे हैं!
प्रार्थना-पत्र लिखने जैसी है, ध्यान--उसको देखने जैसा है। ध्यान का अर्थ हैः बंद करो शब्दों की बकवास। सीधा देखो। वह दरवाजे पर मौजूद है। वह सदा से मौजूद है। वह कभी गया ही नहीं है--वहां से। और तुम बड़ा शोरगुल मचा रहे हो! घंटा बजा रहे हो। धूप-दीप जला रहे हो। बड़ी प्रार्थना कर रहे हो। और उसी की वजह से तुम चूक रहे हो, देख नहीं पा रहे हो। और तुम बड़े प्रसन्न हो कि परमात्मा को पत्र लिख रहे हो!
प्रेम की पाती जो तुम लिख रहे हो, यही तुम्हारी बाधा है। तुम कृपा करो। व्यस्तता छोड़ो। यह घंटनाद बंद करो। ये पूजा-अर्चना हटाओ, और देखोः वह सामने मौजूद है। वह सदा से मौजूद है।
प्रार्थना और ध्यान का यही अंतर है। प्रार्थना फिर भी शब्द दुहराना है। ध्यान-शब्द का छोड़ देना है। इसलिए जो धर्म प्रार्थना पर खड़े हैं, वे ध्यान को समझ ही नहीं पाते। और जो धर्म ध्यान पर खड़े हैं, वे हैरान होते हैं कि प्रार्थना से कोई कभी कैसे पहुंचेगा! ईसाइयत, हिंदू, यहूदी--सब प्रार्थना पर खड़े हैं। जैन, बौद्ध, सूफी, हसीद--ध्यान पर खड़े हैं। और दोनों के बीच बड़ी दरार है।
लेकिन जब मैं ऐसा कहता हूं कि जैन, बौद्ध, सूफी, हसीद--ध्यान पर खड़े हैं, तो तुम यह मत समझना कि आज के जैन ध्यान कर रहे हैं। वे महावीर के सामने प्रार्थना कर रहे हैं--जिसने उन्हें ध्यान समझाया। बौद्ध हैं--वे बुद्ध के सामने थाली लिए खड़े हैं; आरती उतार रहे हैं। जिसने उन्हें कहा कि ध्यान करो, वे उसकी प्रार्थना कर रहे हैं। वे कहते हैं, गजब किया तुमने कि तुमने ही ध्यान समझाया। हम कैसे तुम्हारे उऋण हों! हम तुम्हारी प्रार्थना कर रहे हैं।
और तुम यह मत समझना कि जब मैं कहता हूंः हिंदू, ईसाई, मुसलमान--प्रार्थना के धर्म हैं, तो कृष्ण, क्राइस्ट या मोहम्मद प्रार्थना के लोग थे। वे ध्यान के ही लोग थे। उन्होंने ध्यान करके ही जाना था--परमात्मा को। और जब परमात्मा को जाना, तो धन्यवाद दिया। उनकी प्रार्थना धन्यवाद थी। वह उन्होंने धन्यवाद दिया है। जो मौन से जाना है, उसे उन्होंने अनुग्रह में प्रकट किया है। वे नाचे, आनंदित हुए, प्रफुल्लित हुए और उन्होंने अस्तित्व को धन्यवाद दिया है।
बुद्ध, महावीर धन्यवाद भी नहीं देते। वे ध्यानस्थ हो गए हैं। ध्यान ही उनका अनुग्रह भाव है। वे धन्यवाद भी नहीं देते। वे उतना भी शब्द का उपयोग नहीं करते। लेकिन क्राइस्ट, जरथुस्त्र, मोहम्मद, मूसा--धन्यवाद देते हैं।
यह व्यक्तियों पर निर्भर करेगा। धन्यवाद तुम दे सकते हो। चाहो, न दो। परमात्मा की कोई अपेक्षा नहीं है कि तुम धन्यवाद दो। दो या न दो--यह तुम पर निर्भर है। तुम्हारा ध्यान ही धन्यवाद हो जाएगा। या तुम धन्यवाद देने के लिए प्रार्थना कर सकते हो। लेकिन प्रार्थना को ध्यान मत बनाना। प्रार्थना ध्यान नहीं बन सकती। शून्य से ही पहुंचा जाता है।
सोइची के मंदिर की तलाश करना। और अगर वहां घंटनाद हो रहा हो, शास्त्र का पाठ हो रहा हो, तो समझना कि सोइची मर चुका है। और किसी और जीवित मंदिर की खोज करनी है।
आज इतना ही।
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