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गुरुवार, 22 नवंबर 2018

सत्य की प्यास-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-सरलता

मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य की खोज में या परमात्मा की खोज में स्वतंत्रता पहली शर्त है, इस संबंध में कल मैंने आपसे थोड़ी बातें कहीं। लेकिन स्वतंत्रता, स्वतंत्रता चिल्लाने से कुछ भी हल नहीं होता है। और सत्य की खोज में चले हुए लोग स्वतंत्रता की बातें करते हुए भी प्रतीत होते हों तो भी अपने ही हाथों से अपने ऊपर बंधन निर्मित करते चले जाते हैं।
एक तो ऐसी गुलामी होती है जो दूसरे हमारे ऊपर थोप देते हैं; एक ऐसी भी गुलामी होती है जिसे हम खुद अपने ऊपर थोप लेते हैं। वह गुलामी बहुत खतरनाक नहीं होती जो दूसरे हमारे ऊपर थोप दें; खतरनाक तो वही गुलामी होती है जिसे हम अपने हाथों से निर्मित करते हैं। क्योंकि जिसे हम खुद बनाते हैं उसे मिटाने में डर लगने लगता है, मिटाने में मोह होने लगता है और भय लगने लगता है।

जो परतंत्रता आत्मिक रूप से मनुष्य के ऊपर है वह खुद उसे निर्मित करता है। और इस बात को बिना जाने यदि हम स्वतंत्र होने की कोई तलाश करते हों, इस बात को बिना जाने कि परतंत्रता की कड़ियां खुद हमारी बनाई हुई हैं, तो बड़ी कठिनाई हो जाती है।
एक छोटी सी कहानी से कल की बात को आज से जोड़ना चाहूंगा और फिर आज की बात आपसे कहूंगा।
रोम में एक बहुत अदभुत लोहार हुआ, उस लोहार की प्रसिद्धि उसके देश के बाहर भी दूर-दूर तक फैल गई थी। वह जो भी चीजें बनाता था वे सच में ही इतनी कुशलता के प्रमाण थीं कि उसकी ख्याति, उसका नाम दूर-दूर तक फैल जाए इसमें कोई आश्चर्य न था।


ख्याति के साथ-साथ ही धन भी आना शुरू हुआ। रोम में बड़े-बड़े धनपतियों के मुकाबले भी उसके पास ज्यादा धन इकट्ठा हो गया। दूर-दूर के बाजारों में उसकी चीजें बिकने पहुंचने लगीं। और दूर-दूर के राजाओं से भी चीजें बनाने के लिए उसके पास आमंत्रण आने लगे। और तभी जब वह अपनी ख्याति की और धन-कमाई की चरम सीमा पर था रोम पर आक्रमण हुआ। रोम के सौ बड़े नागरिक शत्रुओं ने पकड़ लिए और उन सबके हाथों में जंजीरें और पैरों में बेड़ियां डाल कर पहाड़ी कंदराओं में उन्हें फिंकवा दिया। उन सौ बड़े नागरिकों में वह लोहार भी पकड़ा गया। सौ नागरिकों में से निन्यानबे तो नागरिक रोते और चिल्लाते थे, लेकिन वह लोहार शांत था। और न तो उसे दुख मालूम हो रहा था और न पीड़ा। उसके निकट के मित्रों ने पूछा कि तुम परेशान नहीं हो?
उसने कहाः मैं जीवन भर का लोहार हूं, मेरी कुशलता भी तुम जानते हो; और मैं भलीभांति जानता हूं कि जंजीरें कितनी ही मजबूत क्यों न हों लेकिन हर जंजीर की कड़ी जहां से जुड़ती है वहां कमजोर होती है, यह मैं भलीभांति जानता हूं। जंजीरों में एक कड़ी कमजोर होती है इसे मैं जानता हूं और उसे मैं पहचान लूंगा। और उस कमजोर कड़ी को भी तोड़ने में मैं जरूर समर्थ हो जाऊंगा, इसलिए मैं निश्चिंत हूं।
वे सौ नागरिक खाइयों और गड्ढों में फेंक दिए गए, उस लोहार को भी फेंक दिया गया। जब तक उसे नहीं फेंका गया था वह निश्चिंत था। जैसे ही वह गड्ढे में फेंक दिया गया, उसने सबसे पहला काम किया, अपनी कड़ियों को देखा, जरूर उनमें कोई कमजोर कड़ी होगी और उसे तोड़ कर उसे वह मुक्त हो सकेगा। लेकिन कड़ियों को देखते ही उसकी आंखों में आंसू भर आए और वह छाती पीट कर रोने लगा।
कड़ियों में उसने क्या देखा ऐसा जिससे वह रो उठा?
उसकी आदत थी कि वह जो भी चीज बनाता था उसके किनारे पर, कोने पर अपने हस्ताक्षर कर देता था, अपने दस्तखत कर देता था। जब उसने जंजीर उठा कर देखी, तो पाया उस जंजीर पर उसके हस्ताक्षर थे, वह उसकी ही बनाई हुई थी। और तब वह रोने लगा। दो कारणों से। एक तो इस बात की उसे कल्पना भी न थी, कभी स्वप्न भी न आया था कि अपनी ही हाथ की बनाई हुई कड़ियों में और जंजीरों में किसी दिन बंध होकर किसी गड्ढे में मरेगा। और दूसरा इस बात को जान कर कि उस कड़ी पर उसके हस्ताक्षर थे। अब वह भलीभांति जानता था कि कड़ी तोड़ना असंभव है, क्योंकि कमजोर चीज बनाने की उसकी आदत ही नहीं थी। उसमें कोई कमजोर कड़ी नहीं थी। उसने हमेशा मजबूत चीजें बनाई थीं। इसी के लिए उसकी ख्याति थी, इसी के लिए वह प्रसिद्ध भी था। अब वह जानता था उसमें कोई कमजोर कड़ी नहीं है। और तब रोना स्वाभाविक था। अपने ही हाथ से बनाई हुई कड़ियों में मरते वक्त कौन नहीं रोने लगेगा?
लेकिन जाने दें उस लोहार को, उसकी कथा से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है। जहां तक मैं देख पाता हूं, हर आदमी ऐसा ही लोहार है। जो जिंदगी भर ऐसी कड़ियां बनाता है जिनमें मौत के वक्त पाता है कि खुद ही उलझ गया। और अपने हस्ताक्षर मिलते हैं उसे हर कड़ी पर। और तोड़ना कठिन होता है, क्योंकि कमजोर चीज बनाने की किसी की भी कोई आदत नहीं है। हर आदमी करीब-करीब इसी हालत में है। वे कौन सी कड़ियां हैं जो हम बनाते हैं? और जिनकी गुलामी में हम उलझ जाते हैं? और हमें पता भी नहीं चलता कि हम अपने ही हाथ से अपने फंदे निर्मित करते हैं। हम तो यही सोच कर उन्हें निर्मित करते हैं कि शायद हम जीवन के आनंद के लिए, शायद हम जीवन को आलोकित करने के लिए, शायद हम कोई परम स्वतंत्रता और मोक्ष को पाने के लिए उनका निर्माण कर रहे हैं। लेकिन हमें पता नहीं कि मनुष्य इतने दुख और पीड़ा में, इतनी बेचैनी और अशांति में, इतने तनाव में, इतनी चिंता में, इतने संताप में, किसी और के कारण नहीं होता है अपने ही कारण होता है। और हमें यह भी पता नहीं कि हम जिस चीज को बचने का उपाय समझते हैं वही डूबने का सहारा बन जाती है। और हम जिस दौड़ को सोचते हैं कि हम बचने कि लिए दौड़ रहे हैं, आखिर में हम पाते हैं कि वही हमें फंदे में ले गई।
दमिश्क में एक राजा ने एक रात एक सपना देखा। उसने सपना देखा कि रात सोया है, नींद में, सपने में कोई काली छाया उसके पीछे आकर खड़ी हो गई। उसके कंधे पर उस काली छाया ने हाथ रखा, उस राजा ने पूछाः तुम कौन हो? उसके प्राण घबड़ा गए। उस छाया ने कहाः मैं, मैं हूं तुम्हारी मृत्यु। और कल सांझ सूरज डूबने के पहले ठीक जगह पर ठीक से तैयार होकर मिल जाना। देखो, भूल-चूक न हो जाए। नींद टूट गई। किसकी नींद न टूट जाएगी। आधी रात थी, महल में खतरे के घंटे बजा दिए गए। सारे दरबारी, वजीर भागे हुई इकट्ठे हो गए। राज्य का ज्योतिषी आ गया। और राजा ने कहाः मैंने एक खतरनाक सपना देखा है। देखा है कि मौत कंधे पर हाथ रखे है और कहती है सूरज डूबने के पहले ठीक जगह ठीक से तैयार होकर मिल जाना, देखो देर-अबेर न हो जाए। क्या अर्थ है इस सपने का?
उसके विद्वान विचार करने लगे। थोड़ी देर में उन्होंने कहा कि यदि हम बहुत विचार में पड़े, तो एक सूरज क्या, कई सूरज डूब जाएंगे और हम किसी नतीजे पर न पहुंचेंगे। क्योंकि विद्वान हजारों साल से विचार कर रहे हैं और किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे। इसलिए हमसे मत पूछो, क्योंकि सांझ बहुत करीब है, थोड़ी ही देर में सुबह होगी और फिर सांझ हो जाएगी। और विचारकों से मत पूछो, क्योंकि विचारक तो हजारों साल से सोच रहे हैं और अभी तक कुछ निर्णय नहीं कर पाए। विचार किसी निर्णय पर आज तक नहीं पहुंचा है। इसलिए हमसे मत पूछो। तुम बचने का कोई उपाय करो। ज्योतिषी ने कहा कि उचित यही है कि कोई तेज घोड़ा हो तुम्हारे पास तो उसे लेकर निकल जाओ ताकि जितने दूर तुम जा सको चले जाओ।
यह ठीक भी मालूम पड़ा। विचार में समय खोना उचित न था। उचित न था कि विचार में समय खोया जाए। आधी रात में ही, उसके पास जो तेज से तेज घोड़ा था, वह बुलवा लिया गया और वह राजा उस घोड़े पर सवार हुआ और उसने भागना शुरू किया।
सांझ थी करीब और निकल जाना था दूर ताकि मौत के बाहर हो जाएं। उस विदा होते क्षण में न तो उसे याद रही अपनी पत्नियों की, अपनी प्रेयसियों की जिनसे उसने कहा था तुम्हारे बिना एक क्षण भी जी नहीं सकता हूं। न याद रहे अपने मित्र, जिनसे उसने बार-बार कहा था कि तुम हो तो मेरे जीवन में खुशी है। न रहा याद राज्य, जिसके लिए जीआ था और मरा था, वह सब कुछ याद न रहा, याद रही एक बात कि भाग जाना है दूर और दूर और दूर, और वह घोड़े पर भागना शुरू कर दिया। उस दिन सुबह सूरज निकल आया और दोपहर हो गई और सूरज ढलने लगा और वह भागता रहा। न उस दिन प्यास लगी उसे और न भूख। न उसे ख्याल आया कि रुकूं और पानी पी लूं। क्योंकि जितनी देर भी चूक जाता, समय उतनी देर और दूर निकलने से बच जाता, तो वह भागता रहा, भागता रहा।
सांझ जब सूरज ढलता था तो वह सैकड़ों मील दूर निकल गया था। और एक बगीचे में जब उसने जाकर एक वृक्ष से अपने घोड़े को बांधा तो सूरज डूबता था, और उसने देखा कि पीछे कोई काली छाया आकर खड़ी हो गई है, उसके कंधे पर हाथ रखे है। तो वह बहुत घबड़ा गया, वह सपना फिर से दोहरने लगा। और उसने पूछाः तुम कौन हो? उसने कहाः भूल गए, रात तो मैं सपने में आई थी, और मैं बहुत परेशान थी, क्योंकि तुम्हें इस बगीचे में, इस झाड़ के नीचे मरना था। यह बहुत दूर था और मैं चिंतित थी कि तुम इतने जल्दी इतने दूर कैसे पहुंच पाओगे। लेकिन धन्यवाद है तुम्हारे घोड़े को। तुम ठीक वक्त पर और ठीक समय पर और ठीक जगह आ गए हो। मैं सुबह से बैठी यहां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं। और बहुत बेचैन थी। कि पता नहीं तुम आ सकोगे कि नहीं। लेकिन घोड़ा तुम्हारा तेज है। और आदमी तुम हिम्मत के हो कि तुमने रुक कर पानी भी न पीआ और रोटी भी न खाई, मित्रों से विदा भी न ली। एक क्षण भी तुम खो देते तो में मुश्किल में पड़ जाती। लेकिन तुम ठीक वक्त पर और ठीक जगह आ गए हो, तुम्हें बहुत धन्यवाद। तुम्हारे घोड़े को बहुत धन्यवाद।
वह राजा दिन भर सोचता था कि दूर निकला जा रहा है, आखिर में पाया कि जिससे दूर निकल रहा था उसी के पास पहुंच गया। और हम सारे लोग भी जिन चीजों से दूर निकलना चाहते हैं आखिर में पाते हैं कि उन्हीं के मुंह में चले गए हैं। यह पूरे मनुष्य का जीवन उन, उन मौतों में पहुंचा देता है, उन मृत्युओं में, जिनमें कोई भी जाना नहीं चाहता। और उन परतंत्रताओं में बांध देता है जिनमें कोई भी बंधना नहीं चाहता। जीवन एक अजीब चक्कर में घूमता है।
यह प्राथमिक रूप से आपसे कहूं और तब आपसे उस बात को कहना मुझे आसान हो जाएगा कि किस भांति के गुलामियों में, किस भांति से हम खुद अपने को बांध लेते हैं। यह दिखाई पड़ जाए, तो स्वतंत्र होना कठिन नहीं है। और यह दिखाई पड़ जाए, तो सरल होना भी कठिन नहीं है।
आज की सुबह तो मैं सरलता पर ही कुछ थोड़ी सी बातें आपसे कहना चाहता हूं। क्योंकि जो जटिल है, जिसका मन कांप्लेक्स है, उलझा हुआ जटिलताओं में, वह कभी स्वतंत्र भी नहीं हो सकता है। और जिसका मन उलझा हुआ है भीतर वह जीवन के सत्य को भी कभी नहीं जान सकता है। क्योंकि जीवन के सत्य को जानने के लिए चाहिए एक सरल और निर्दोष चित्त, एक इनोसेंट माइंड, एक अत्यंत सरल, सीधा और निर्दोष मन। जटिल हम बहुत हैं। और जटिलता से मेरा मतलब है वे ही कड़ियां, वे ही जंजीरें जो हमने अपने हाथ से निर्मित की हैं, उन्होंने हमारे जीवन को जटिल कर दिया है।
कौन सी चीजों ने हमारे जीवन को जटिल किया है? यदि उन्हें बिना जाने हम सरल होने की कोशिश करेंगे, तो वह सरलता भी झूठी होगी। अधिक लोग जीवन की आंतरिक जटिलताओं को बिना समझे हुए सरल होने की कोशिश करते हैं, तक एक झूठी सरलता पैदा होती है, एक झूठी साधुता पैदा होती है, जिससे हम भलीभांति परिचित हैं।
मन तो जटिल होता है, लेकिन कपड़े, कपड़े थोड़े कर लिए जाते हैं, लंगोटी लगा ली जाती है। मन तो जटिल होता है, लेकिन घर-द्वार छोड़ कर कोई जंगल में चला जाता है। मन तो जटिल होता है, लेकिन भोजन कम कर लिया जाता है। मन तो जटिल होता है, लेकिन आदमी सेवा करने लगता है, प्रार्थना करने लगता है और पूजा करने लगता है।
स्मरण रखिए, लंगोटी लगा लेना बहुत आसान है, लेकिन लंगोटी लगाने से कोई सरल नहीं होता और न कोई साधु होता है। अगर साधुता वस्त्रों की बात होती, तो क्या कठिन था कि सभी लोग लंगोटिया न लगा लें। और साधुता अगर भोजन की बात होती, तो क्या कठिनाई थी कि भोजन थोड़ा कम न कर लिया जाए। और साधुता अगर इस तरह की बात होती कि घरों को छोड़ कर कोई जंगल में चला जाए, तो जो जंगल में रह रहे हैं वे सब साधु होते।
लेकिन साधुता इतनी सरल बात नहीं है। क्योंकि सरलता बिना लाए जो साधुता लाई जाती है वह और भी जटिलता पैदा कर देती है, और भी धोखा और सेल्फ डिसेप्शन, दूसरों को ही नहीं, अपने को धोखा पैदा कर देती है।
एक साधु के पास मैं था, उन्होंने मुझसे कहा कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है। एक बार, दो बार, तीन बार, मैंने उनसे पूछा कि अगर दुख न हो आपको तो मैं यह पूछूं कि यह लात आपने कब मारी थी? उन्होंने कहाः कोई पच्चीस, तीस वर्ष हुए हैं। तो मैंने उनसे कहाः दुख न पहुंचे तो मैं निवेदन करूं, कि लात ठीक से लग न पाई होगी। क्योंकि पच्चीस वर्ष तक! अगर लात लग गई होती तो उसकी याद, उसकी स्मृति होनी कठिन थी। कौन इसे याद रखे हुए हैं तीस वर्षों तक कि मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी? और किसलिए याद रखे हुए हैं? लात ठीक से लग नहीं पाई। जब लाखों रुपये आपके पास रहे होंगे, तब आपका अहंकार कहता होगा कि मेरे पास लाखों रुपये हैं। और जब आप लाखों रुपये छोड़ दिए, तब से आपका अहंकार यह कह रहा है कि मैंने लाखों रुपये छा.ेड दिए हैं। अहंकार अपनी जगह खड़ा हुआ है, रुपयों के छोड़ने कोई भेद नहीं पड़ता है।
चित्त जटिल है, लाखों रुपये थे तब जटिल था, अब और भी ज्यादा जटिल है, क्योंकि लाखों रुपये तो दिखाई भी पड़ते थे, मोटे थे, स्थूल थे, अब एक सूक्ष्म अहंकार पैदा हुआ है कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है। और यह सूक्ष्म अहंकार दिखाई भी नहीं पड़ता है। यह सूक्ष्म जटिलता मालूम भी नहीं पड़ती है।
तो हम चित्त को सरल किए बिना जो कुछ भी करेंगे आचरण में, जो कुछ भी करेंगे व्यवहार में, वह सबका सब और भी जटिलता पैदा कर देगा। साधुओं के चित्त असाधुओं से भी ज्यादा जटिल होते हैं। सज्जनों के चित्त दुर्जनों से भी ज्यादा जटिल होते हैं। क्यों? क्योंकि भीतर की जटिलता तो होती ही है, बाहर के विपरीत आचरण को जबरदस्ती थोप लेने से और भी जटिलता और भी उलझाव खड़ा हो जाता है। इसलिए सबसे पहले जरूरी है कि जटिलता कहां है, उसे समझें, परखें और विसर्जन कर दें। और बड़े रहस्य की और बड़े आनंद की बात यह है कि अगर चित्त की जटिलता को कोई उसके समग्र रूप में समझ ले, तो उसे छोड़ने के लिए कुछ भी करना आवश्यक नहीं होता है। उसका दिखाई पड़ना ही उसका छूटना भी हो जाता है। उसका दर्शन ही उसका विसर्जन भी हो जाता है। कुछ जीवन की चीजें ऐसी हैं कि हम उन्हें नहीं जानते, नहीं देखते, इसलिए वे बनी रहती हैं। हम उन्हें जान लें और देख लें, तो उनको विदा करने में क्षण भर की भी देर नहीं लगती।
क्या है जटिलता और कहां है? यह चित्त इतना उलझा हुआ क्यों है? यह चित्त इतना खंड-खंड क्यों है? ये चित्त के खंड एक-दूसरे के विरोध में निरंतर संलग्न क्यों हैं? हमें भ्रम यह रहता है कि हम एक व्यक्ति हैं हमारे भीतर। न मालूम कितने व्यक्तियों की भीड़ जमा रहती है। हम न मालूम कितने स्वरों को अपने भीतर समाए रहते हैं। हमारे भीतर न मालूम कितनी आवाजें एक ही साथ एक-दूसरे के विरोध में उठती रहती हैं, एक-दूसरे के खंडन में उठती रहती हैं। शाम को आप तय करके सोते हैं कि सुबह चार बजे उठ आऊंगा। और सुबह चार बजे आपके ही भीतर कोई कहता है कि रहने भी दो, आज ऐसी क्या बात है कल उठ लेंगे। दूसरे दिन आप फिर पछताते हैं और सोचते हैं कि यह तो बहुत बुरा हुआ। यह कैसे हुआ कि मैं नहीं उठा। और आज तो में पक्का संकल्प करता हूं कि आज की रात उठूंगा, और फिर सुबह चार बजे आप पाते हैं कि आपके भीतर कोई कहता है कि सोए भी रहो, उठने में क्या सार है, ये सब फिजूल की बातें हैं, देर से उठे कि जल्दी उठे क्या फर्क पड़ता है। क्या सांझ को जिसने निर्णय किया था कि सुबह उठूंगा, वही सुबह चार बजे कहने लगता है कि मत उठो। नहीं, कोई दूसरा स्वर, कोई दूसरा खंड, व्यक्तित्व का कोई दूसरा कोना बोलने लगता है। क्रोध होता है, तो क्रोध कर लेते हैं, क्रोध चला जाता है तो पछताते हैं और सोचते हैं बहुत बुरा हुआ। यह कौन सोचता है बहुत बुरा हुआ? क्या क्रोध करने वाला और यह सोचने वाला एक ही है? अगर यह एक ही है तो फिर क्रोध कैसे किया था? यह कोई दूसरा हिस्सा है, जो कहता है, पछताता है। और फिर कल हजार दफे तय करने के बाद कि क्रोध नहीं करूंगा, कल फिर क्रोध कर लेता है। यह क्रोध करने वाला कौन है फिर?
एक-एक आदमी के भीतर भीड़ है आदमियों की। बहुत से आदमी हैं। आदमी मल्टी-साइकिक है। एक ही मन नहीं है उसके भीतर, बहुचित्त हैं, बहुत से चित्त हैं, बहुत से मन हैं। और इन बहुत से मनों में इतना उलझाव है, इतना विरोध है कि हालत वैसी है जैसे एक बैलगाड़ी में चारों तरफ बैल जोत दिए हों और सभी बैलों को भगाया जा रहा हो, और बैलगाड़ी के अस्थिपंजर डांवाडोल हो रहे हों, गाड़ी कहीं जाती न हो, घसीटती हो थोड़ी देर एक तरफ, थोड़ी देर दूसरी तरफ, और बैल सब तरफ जुते हों और खींचे जा रहे हों, कहीं पहुंचना हो सकेगा? नहीं, थोड़ी देर में गाड़ी के अस्थिपंजर ढीले हो जाएंगे। थोड़ी देर में गाड़ी के टुकड़ों को लेकर बैल भाग जाएंगे। गाड़ी ेनष्ट हो जाएगी, पहुंचना कहीं भी नहीं होगा। हर आदमी इसी भांति नष्ट हो जाता है। कहीं पहुंचना नहीं हो पाता।
जीवन में पहुंचना तभी संभव है जब जीवन में एक दिशा हो, एक चित्तता हो, जब जीवन में एक मन हो। खंड-खंड न हो चित्त, अखंड हो। अखंड चित्त ही सरल चित्त होता है। खंडित चित्त सरल चित्त नहीं हो सकता।
खंडित चित्त ही जटिल चित्त है। टुकड़ों-टुकड़ों में टूटा हुआ चित्त। यह जो, यह स्थिति कैसे बन गई है? यह स्थिति कैसे खड़ी हो गई है? यह हम सबके ऊपर कैसा दुर्भाग्य है कि हमारा अखंड चित्त नहीं है? खंड-खंड है, टूटा हुआ है। कौन से कारण हैं?
कुछ कारण हैं बुनियादी। पहला, पहला कारणः हमारी शिक्षा, हमारी संस्कृति, हमारी सयता, हमारे जीवन के सारे प्रभाव एक, एक अजीब पागलपन हर आदमी में पैदा करवा देते हैं। और वह यह कि कोई भी आदमी खुद होने को राजी नहीं है, हर आदमी कोई और होना चाहता है। कोई मनुष्य जमीन पर वही होने को राजी नहीं है जो वह है, कोई और होना चाहता है। अ ब होना चाहता है, ब स होना चाहता है। एक भी आदमी वही होने को राजी नहीं है जो वह है। और तब, तब चित्त जटिल होता चला जाता है। यह वैसे ही है जैसे किसी बगिया में कोई उपदेशक पहुंच जाए, कोई गुरु पहुंच जाए और फूलों को जाकर समझाने लगे कि चमेली के फूल तू चंपा का हो जा; चंपा के फूल तू गुलाब का हो जा; गुलाब के फूल तू जुही का हो जा। हालांकि फूल इतने नासमझ नहीं हैं कि उपदेशक की बातों को मान लेंगे। आदमी जितना नासमझ कोई फूल नहीं है कि उपदेशक की बात मानेगा। पहली तो वह सुनेगा ही नहीं उसकी बकवास। लेकिन हो सकता है आदमी के साथ रहते-रहते कुछ फूलों के दिमाग खराब हो गए हों और वे सुन लें और मान लें, और गुलाब का फूल चमेली का होने लगे और चमेली का फूल जुही का होने लगे, तो उस बगिया में क्या होगा? उस बगिया में फिर फूल पैदा नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब का फूल जब चमेली का होने की कोशिश करेगा, तो एक बात तय है कि वह चमेली का फूल तो हो नहीं सकेगा, दूसरी बात भी तय है, इस होने की कोशिश में गुलाब का फूल हो सकता था वह भी नहीं हो सकेगा, उस बगिया में फिर फूल पैदा नहीं होंगे, वह बगिया फिर उजाड़ हो जाएगी।
आदमी की बगिया उजाड़ हो गई है, उसमें फूल पैदा नहीं होते हैं। और कभी भूल-चूक से हो भी जाते हैं तो वे अपवाद हैं, वे नियम नहीं हैं। करोड़ों-करोड़ों लोगों में एकाध आदमी के जीवन में अगर फूल लग जाते हैं, तो यह कोई बड़े स्वागत की स्थिति नहीं है। शायद हमारी सब कोशिश के बावजूद भी वह आदमी किसी तरह हो जाता है यह दूसरी बात है। लेकिन हमारी कोशिश तो यही है कि वह न हो पाए।
हेनरी थॉरो स्कूल और कालेज का अध्ययन करके वापस लौटा, तो उसके गांव के एक बूढ़े आदमी ने कहा कि मैं इस लड़के का बड़ा स्वागत करता हूं, यह विश्वविद्यालय की शिक्षा लेकर भी अपने को सही सलामत बचा कर वापस लौट आया। क्योंकि विश्वविद्यालय में शिक्षित होते-होते किसी की भी प्रतिभा नष्ट हो जाए यह तो नियम है, बच जाए यह दुर्घटना है, यह बिल्कुल एक्सीडेंट है। बीस-पच्चीस साल की शिक्षा के बाद भी कोई अपनी प्रतिभा को बचा कर सही सलामत घर आ जाए यह बड़ी अजीब घटना है, जो मुश्किल से कभी-कभी घटती है। और ऐसी ही हमारी पूरी संस्कृति है, पूरे जीवन की दिशा है, पूरे जीवन की फिलासफी है, जिसमें हम हर आदमी को यह प्रेरणा पैदा करते हैं कि तुम किसी और जैसे हो जाओ। हम किसी आदमी से यह नहीं कहते कि तुम अपने जैसे हो जाना; तुम जैसे हो, तुम जो हो, बीज-रूप में तुम जो हो तुम उसको ही विकसित करना। नहीं, किसी बच्चे को यह नहीं कहा जाता। बच्चे से कहा जाता है राम जैसे हो जाओ, कृष्ण जैसे हो जाओ। या अगर पुरानी तस्वीरें थोड़ी धुंधली पड़ गई हैं तो विवेकानंद जैसे हो जाओ, गांधी जैसे हो जाओ; लेकिन किसी जैसे हो जाओ। किसी बच्चे को कभी कोई नहीं कहता कि तुम अपने जैसे हो जाना। क्योंकि हम मानते ही नहीं कि कोई अपने जैसे होने में भी कोई सार्थकता है। सार्थकता इसमें है कि किसी जैसे हो जाओ। और इस बात को जानते हुए कि आज तक कोई दूसरा मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं हुआ है।
अब तक दूसरा राम पैदा हुआ? दूसरे कृष्ण पैदा हुए? दूसरा क्राइस्ट पैदा हुआ है? या मोहम्मद? या महावीर? या बुद्ध? नहीं। लेकिन फिर भी हम न मालूम कैसे अंधे हैं कि इस बात को दोहराए चले जाते हैं कि किसी और जैसे हो जाओ। हर आदमी अनूठा है, अद्वितीय है, बेजोड़ है। और इस बेजोड़ आदमी को जब भी हम इस तरह की शिक्षा और ढांचे में ढालते हैं कि तुम किसी दूसरे जैसे हो जाओ। इसके जीवन में एक पंगुता, एक क्रिपिल्डनेस पैदा हो जाती है। इसका सारा जीवन सिकुड़ जाता है, दूसरे होने की कोशिश में यह बर्बाद हो जाता है। और दूसरे होने की कोशिश में इसके चित्त में इतने खंड हो जाते हैं। कोई खंड कहता है अपने जैसे हो जाओ, कोई खंड कहता है दूसरे जैसे हो जाओ, कोई खंड कहता है तीसरे जैसे हो जाओ, और इस दौड़ में, इस दौड़ में इसका व्यक्तित्व टूट जाता है, डिसइंटिग्रेटेड हो जाता है। और यह अब तक रहा है। और तब परिणाम क्या होते हैं? परिणाम दो होते हैं। या तो यह आदमी राम बनने की कोशिश में राम बन नहीं पाता। और अगर बन जाता है तो और भी खतरा हो जाता है, यह रामलीला का राम बन जाता है, जो कि और भी खतरनाक है। राम तो ठीक हैं, लेकिन रामलीला के रामों की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि वे झूठे, बेईमान और पाखंडी होंगे।
अब्राहम लिंकन की कोई शताब्दी बनाई जा रही थी। और सारे अमरीका में खोजा गया ऐसा आदमी जो लिंकन जैसा दिखाई पड़ता हो। और ऐसा एक आदमी मिल गया जिसकी शकल-सूरत लिंकन जैसी मालूम होती थी। उसको लाया गया। उसने लिंकन का पार्ट किया। एक नाटक खेला गया उसमें उसने अब्राहम लिंकन का पार्ट किया। लेकिन पार्ट करने में वह इतनी मौज में आ गया और इतना प्रसन्न हो गया कि जब नाटक खतम हो गया और वह घर गया तो भी लिंकन के कपड़े उतारने को राजी नहीं हुआ। घर के लोगों ने बहुत समझाया कि यह ठीक है कि तुमने नाटक किया, लेकिन अब ये कपड़े बदलो। लेकिन वह कहने लगा, कौन कहता है कि मैं कपड़े बदलूं, मैं तो अब्राहम लिंकन हूं! बड़ी मुश्किल हुई। वह ठीक अब्राहम लिंकन जैसे भाषण करने लगा चौरस्तों पर खड़े होकर। और कोई भी मिलता तो वह उसी अकड़ और उसी हैसियत से बोलता जैसे अब्राहम लिंकन हो। अब्राहम लिंकन के कपड़े भी पहनता।
आखिर गांव उससे परेशान आ गया। वह अब्राहम लिंकन से नीचे उतरने को राजी नहीं हुआ। जो एक दफे चढ़ गया नाटक में तो चढ़ गया। आखिर हालत इतनी हो गई कि गांव के लोगों ने कहा कि जब तक इसको गोली न मारी जाए तब तक यह राजी न होगा। क्योंकि लिंकन को गोली मारी गई, अब यह गोली खाएगा तभी मानेगा, यह मानने को राजी नहीं है।
यह जो आदमी है इसको हम कहेंगे, पागल, यह पागल हो गया। पागल होने का एक लक्षण यह है।
विंस्टीन चर्चिल को किसी ने पूछा, जब वह अपनी ख्याति की चरम सीमा पर था दूसरे महायुद्ध में। तो किसी ने पूछा कि चर्चिल तुम्हें यह कैसे कब पता चला कि तुम महापुरुष हो गए हो? तो चर्चिल ने कहा कि जब इंग्लैंड में कुछ पागल यह कहने लगे कि हम विंस्टीन चर्चिल हैं, तो मैं समझ गया कि मैं भी महापुरुष हो गया हूं। जब कुछ पागल यह कहने लगे कि हम विंस्टीन चर्चिल हैं, तो मैं समझ गया कि मुझे भी वह जगह मिल गई जो महापुरुष को मिलनी चाहिए। कुछ लोग अब विंस्टीन चर्चिल होने को भी राजी हैं। लेकिन जिन लोगों ने कहाः वे पागल थे।
नेहरू जब जिंदा थे तो हिंदुस्तान में दस-पांच लोग थे जिनको यह ख्याल था कि वे जवाहरलाल नेहरू हैं।
एक पागलखाने में नेहरू गए और उन्होंने वहां पूछा कि कभी कोई पागल यहां से ठीक भी होता है? तो पागलखाने के अधिकारियों ने कहा कि निश्चित। एक पागल ठीक हो गया है, हम उसे रोके हुए हैं। दो-चार दिन पहले उसे छोड़ देना था, लेकिन रोके हैं, आपके हाथ से ही उसको हम मुक्ति दिलाना चाहते हैं।
उस पागल को लाया गया और नेहरू ने उससे पूछा कि क्या मित्र तुम ठीक हो गए हो? उसने कहा कि मैं बिल्कुल ठीक हो गया हूं, लेकिन आप कौन हैं कृपा कर अपना परिचय दें?
तो नेहरू ने कहा कि मैं हूं जवाहरलाल नेहरू।
वह पागल हंसने लगा और बोला, दो-चार साल आप भी यहां रह जाएंगे तो ठीक हो जाएंगे। पहले मुझको भी यही ख्याल था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। आप घबड़ाइए मत, दो-चार साल यहां रह जाइए, बिल्कुल ठीक हो जाएंगे। मैं भी तीन साल में बिल्कुल ठीक हो गया।
यह विक्षिप्त चित्त का लक्षण है कि वह किसी दूसरे के साथ अपनी आइडेंटिटी कर ले, वह किसी दूसरे के साथ अपना तादात्म्य कर ले। लेकिन उनको हजारों साल से यह सिखाया गया है कि तुम किसी दूसरे जैसे हो जाओ। इसकी वजह से एक युनिवर्सल न्यूरोसिस पैदा हुई है सारी दुनिया में। एक सामूहिक पागलपन पैदा हो गया है सारी दुनिया में। इस शिक्षा के कारण कि तुम किसी दूसरे जैसे हो जाओ। और इसके कारण चित्त जटिल, और बहुत जटिल हो गया है। क्योंकि न तो आप दूसरे जैसे हो पाते हैं जब तक कि आप बिल्कुल पागल न हो जाएं। बिल्कुल पागल हो जाएं तो फिर कुछ कठिनाई नहीं रह जाती। आप हो जाते हैं राम, हो जाते हैं कृष्ण। कुछ ऐसे पागल संन्यासी हैं जिनको यह ख्याल पैदा हो जाता है कि हम ईश्वर हो गए, हम अवतार हो गए, हम तीर्थंकर हो गए, हम पैगंबर हो गए, हम यह हो गए, हम वह हो गए। ये सब पागलपन के लक्षण हैं, यह न्यूरोसिस है, यह दिमाग की खराबी है। लेकिन इतना दिमाग अगर खराब न हो पाए तो दिमाग जटिल हो जाता है, दिमाग उलझ जाता है। जो आप हो वह एक तरफ और जो आप होना चाहते हो वह दूसरी तरफ दौड़ और जो होने की आप कोशिश करते हो, अपने ऊपर थोपते जाते हो, थोपते चले जाते हो, वह तीसरी चीज, इस तरह बहुत सी पर्त आपके भीतर हो जाती हैं। और इन बहुत सी पर्तों में आप विभक्त और विभाजित हो जाते हो।
यह विभाजित व्यक्तित्व ही जटिल व्यक्तित्व है। कैसे यह ठीक हो? क्या करें? पहली बात, अपने होने को स्वीकार कर लें। स्वस्थ मनुष्य का पहला लक्षण हैः वह जो है, जैसा है उसे सहजता से स्वीकार करता है, कुछ और होने की दौड़ में नहीं पड़ता। जो अपने होने को, जैसा है, जो है, उसे सरलता से स्वीकार करता है।
स्वयं की स्वीकृति चित्त की सरलता की तरफ पहला कदम। आप अपने को स्वीकार करते हैं? अगर नहीं, तो आपका चित्त कभी भी सरल नहीं हो पाएगा। लेकिन घबड़ाहट लगती है कि अगर हमने अपने को स्वीकार कर लिया तो हम तो बहुत बुरे आदमी हैं--बेईमान हैं, चोर हैं, हिंसक हैं, क्रोधी हैं, लोभी हैं, मोही हैं, और न मालूम क्या-क्या हैं। अगर हमने अपने को स्वीकार कर लिया तो फिर तो हम गए। फिर तो हम रह जाएंगे चोर, बेईमान, क्रोधी, कामी। फिर तो हममें कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, तभी परिवर्तन हो सकेगा जब आप अपने को स्वीकार करेंगे। उसके पहले कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि जब हिंसक आदमी अहिंसक होने की कोशिश में लग जाता है, तो आपको पता नहीं है, हिंसक आदमी अहिंसक होने की कोशिश में कभी अहिंसक नहीं हो पाता, सिर्फ अपनी हिंसा को ढांक लेता है और अहिंसा के वस्त्र पहन लेता है। तो ऊपर से अहिंसा की बातें करने लगता है और भीतर हिंसा पलती है। ऊपर से अक्रोध और शांति की बातें करने लगता है भीतर क्रोध पलता है।
एक व्यक्ति था बहुत क्रोधी, उसके घर के लोग परेशान हो गए, उसने अपनी पत्नी की हत्या कर डाली, और अपने एक बच्चे को कुएं में फेंक दिया। उसके क्रोध से सभी बहुत परेशान हो गए। तो गांव में एक संन्यासी का आगमन हुआ, तो वे उस क्रोधी युवक को उस संन्यासी के पास ले गए। वह खुद भी परेशान था अपने क्रोध से। खुद भी बेचैन था। क्रोध से दूसरे ही तो बेचैन नहीं होते, खुद भी तो बहुत पीड़ा और अग्नि झेलनी पड़ती है। खुद ही ज्यादा झेलनी पड़ती है। खुद के लिए ही नरक पैदा हो जाता है। वह खुद परेशान था। पत्नी को मार कर दुखी हुआ था, बच्चे को फेंक कर कष्ट पाया था। मुकदमा चला, बामुश्किल मुकदमे से छुटा था। बहुत कष्ट थे। और फिर भी क्रोध पीछा नहीं छोड़ता था। वह भी चाहता था क्रोध पीछा छोड़ दे। संन्यासी के पास ले गए। संन्यासी ने हंस कर कहाः जैसा कि सभी संन्यासी हंस कर कहते हैं। संन्यासी ने हंस कर कहा कि इसमें क्या बात है, क्रोध को छोड़ दो। जैसे हम किसी बीमार से कहें कि इसमें क्या बात है, बीमारी को छोड़ दो।
ये सारे धर्मों की शिक्षा यही है, क्रोध छोड़ दो, लोभ छोड़ दो, बेईमानी छोड़ दो। जैसे छोड़ना आसान है। जैसे कि छोड़ना संभव है। उस क्रोधी युवक ने कहा कि अच्छा में छोड़ने को राजी हूं। उस संन्यासी ने कहा कि तुम छोड़ दो संसार, संन्यासी हो जाओ, तो ही तुम्हारा चित्त पूरी तरह शांत हो सकेगा। वह संन्यासी हो गया। क्रोधी आदमी कुछ भी हो सकता है। घर छोड़ कर संन्यासी भी हो सकता है। यह भी क्रोध का ही एक हिस्सा हो सकता है। वह छोड़ कर संन्यासी हो गया।
शांत आदमी होता थोड़ी-बहुत देर सोचता, वह था क्रोधी सोचने की फुर्सत कहां थी, उसने वहीं कपड़े छोड़ दिए, उसने कहा कि यह हुआ मैं संन्यासी। अगर क्रोध से छुटकारा होता है तो मैं संन्यासी हुआ जाता हूं। उसने कपड़े बदल लिए। उस दिन उसके कपड़े रंग दिए गए। अब वह संन्यासी हो गया। और उसका नाम रख दिया गया, मुनि शांतिनाथ हो गए वे। क्योंकि संन्यासी होने के लिए दो-तीन चीजों की जरूरत है--कपड़े बदलने की, नाम बदल लेने की, इस तरह की चीजों की जरूरत है, फिर कोई भी संन्यासी हो सकता है। हिंदुस्तान में इतने संन्यासी इसीलिए तो हो जाते हैं कि हमको यह सस्ती तरकीब मिल गई है। नाम बदल लेना, कपड़े बदल लेना। तो ऋषि-मुनि यहां पैदा ही होते चले जाते हैं रोज। उनकी कोई कमी नहीं। क्योंकि हमें एक नुस्खा मिल गया, एक सीक्रेट हमको मिल गया। नाम बदल लो, कपड़े बदल लो, बात खतम हो जाती। वह आदमी भी संन्यासी हो गया। उसका नाम हो गया, मुनि शांतिनाथ। वह इतनी ताकत से भाषण करता था जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि सारा क्रोध अब भाषण देता था। वह इतना संयमी था जिसका हिसाब नहीं, क्योंकि सारा क्रोध अब संयम करता था। वह रात-रात भर सीधा खड़ा रहता था। महीनों मौन से बैठा रहता था। उलटा शीर्षासन करता था और न मालूम क्या-क्या नासमझियां करता था। तो क्रोधी आदमी था, वह कुछ भी कर सकता था। क्योंकि क्रोधी आदमी कोई भी नासमझी कर सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। तो उसकी बड़ी प्रसिद्धि फैलने लगी कि वह महायोगी है। क्योंकि सीधा-सादा आदमी न था, वह बहुत उपद्रवी चित्त का आदमी था। सीधा-सादा आदमी पांच मिनट शीर्षासन करे, वह पांच घंटे कर सकता था। तो क्रोधी आदमी था। उसका क्रोध सारा का सारा इन बातों में प्रकट होने लगा। वह महीने-महीने के उपवास कर लेता था। क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है। उसकी ख्याति फैलने लगती है।
वह देश की राजधानी में पहुंचा। एक मित्र जो बचपन से उसका साथी था, और उसके क्रोध को भलीभांति जानता था, वह उससे मिलने गया। संन्यासी भी, मुनि शांतिनाथ भी पहचान तो गए कि यह मेरा मित्र है। लेकिन जो लोग ऊंचे हो जाते हैं वे फिर नीचे लोगों को कभी पहचानते नहीं। तो उन्होंने देख तो लिया कि मेरा मित्र है, लेकिन देख कर भी पहचाना नहीं। कौन पहचानता है? पहचान तब तक होती है, जब तक हम एक ही तल पर होते हैं। जब कोई ऊंचे तल पर चला जाता है तो कोई पहचानता नहीं, किसी को कोई नहीं पहचानता। तो वह मुनि ने भी पहचाना नहीं। उसके मित्र ने समझ तो लिया कि वह पहचान गया है, लेकिन पहचानना नहीं चाहता है। तो उसने पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं मुनिजी कि आपका नाम क्या है? तो उसने कहाः मेरा नाम है, शांतिनाथ। मिनट, दो मिनट और कुछ बात चली। उसके मित्र ने फिर पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है? उसने कहाः मैंने कह तो दिया कि शांतिनाथ। फिर मिनट, दो मिनट बात चली, उसके मित्र ने फिर पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या? उसने डंडा उठा लिया, उसने कहा कि समझते हो कि नहीं, मैंने कहा कि शांतिनाथ। उसने कहा कि मैं समझ गया कि आप शांति के अवतार हैं। वह क्रोध अपनी जगह बैठा हुआ है। न कपड़े बदलने से बदलता है, न नाम बदलने से बदलता है। वह अपनी जगह बैठा हुआ है।
तो हमारे भीतर क्रोध है, हिंसा है, घृणा है। इनको ढांक लेने से, उलटा काम कर लेने से कोई परिवर्तन पैदा नहीं होता है। बल्कि अक्सर बेईमान आदमी ईमानदारी के कुछ काम करने लगता है ताकि बेईमानी छिप जाए। और पापी मंदिर बनवाने लगते हैं ताकि पाप छिप जाए। और क्रोधी मुस्कुराने लगते हैं और शांति के चेहरे बना लेते हैं ताकि क्रोध छिप जाए। और हिंसक अहिंसा के पाठ पढ़ने लगते हैं, अहिंसा परमोधर्माः कहने लगते हैं ताकि हिंसा छिप जाए। लेकिन जीवन में इनसे कोई क्रांतियां नहीं होती हैं।
जीवन की क्रांति का मार्ग कुछ और है। वह चित्त की विकृतियों को छिपा लेने का नहीं, चित्त की विकृतियों के विरोध में कोई दूसरे सिद्धांत खड़ा कर लेने का नहीं, बल्कि चित्त की विकृतियों के, चित्त में जो-जो बुराइयां हैं उनके सम्यक दर्शन का है, उनके ठीक-ठीक निरीक्षण का है, उनसे ठीक-ठीक परिचित होने का है। और अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर की पूरी हिंसा को ठीक से जान ले और अपने क्रोध से ठीक से परिचित हो जाए, तो मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यह ज्ञान, यह बोध कि मेरे भीतर कितना क्रोध है और कैसा क्रोध है, क्रोध के बाहर ले जाने का द्वार बन जाता है।
जैसे हम यहां बैठे हैं और मकान में आग लग जाए और चारों तरफ आग की लपटें जलने लगें और मैं आपको समझाऊं कि मकान में आग लगी है कृपा करके बाहर निकल जाइए और आपको आग दिखाई न पड़ती हो, तो आप कहेंगे कि जरूर मैं निकलूंगा लेकिन थोड़ा काम कर लूं फिर निकलूं, थोड़ा अपनी पत्नी को पूछूं, पति हो पति से पूछूं, मित्रों से पूछूं, फिर निकल जाऊंगा, थोड़ा विचार कर लूं, ऐसी जल्दी भी क्या है। अगर आपको लपटें न दिखाई पड़ती हों, और मैं आपको समझाऊं कि आग लगी है घर में बाहर निकल जाइए। तो आप पच्चीस बहाने करेंगे कि अभी मुझे जरूरी दूसरा काम है वह मैं कर लूं फिर निकल जाता हूं। क्योंकि आपको लपटें दिखाई नहीं पड़तीं। आप पूछेंगे कि महाराज लपटें लगी हैं तो निकलने का मार्ग क्या है? विधि क्या है? मेथड क्या है? कौन सी साधना करूं जिससे बाहर निकल जाऊं? ये सब पोस्टपोन करने की होशियारियां हैं यह पूछना कि कौन सी विधि है, कौन सा मार्ग है, कौन सा रास्ता है। लेकिन आपको दिखाई पड़ जाए कि आग लगी है, तो किसी को उपदेश करने की जरूरत न रह जाएगी। अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि मकान जल रहा है, तो आप अपने बगल में बैठे मित्र से भी नहीं पूछेंगे कि बाहर निकलें कि न निकलें। कोई यहां किसी से नहीं पूछेगा कि बाहर निकलना है या नहीं निकलना है। हम सारे लोग फिर बाहर ही मिलेंगे, भीतर मिलने की फुर्सत भी किसी को भी नहीं होगी। सारे लोग बाहर हो जाएंगे बिना पूछे कि हम कैसे बारह हो जाएं।
आग की लपटें अगर दिखाई पड़ जाएं, तो वह दर्शन बाहर ले जाने का द्वार बनता है। अगर किसी को भीतर अपना पूरा क्रोध दिखाई पड़े, पूरी घृणा, पूरा लोभ, पूरी हिंसा दिखाई पड़े, तो इतने जोर से लपटें लगी हुईं मालूम पड़ेंगी भीतर कि आप रुक कर विचार करने की फुर्सत नहीं पाएंगे कि मैं कैसे बाहर निकल जाऊं। वह दर्शन, वह बोध, वह अवेयरनेस आपको बाहर ले जाने के लिए अपने आप एक गहरी प्रेरणा बन जाएगी और आप बाहर हो जाएंगे।
इसलिए पहला सूत्र है चित्त की सरलता के लिए, आप जो भी हैं कृपा करके उससे अन्यथा होने की कोशिश न करें, कुछ और बनने की कोशिश न करें। कृपया कोई आदर्श बना कर उस ढांचे में अपने को ढालने की कोशिश न करें। राम, कृष्ण, बुद्ध बनने की कोशिश न करें। पहली बात है आप जो हैं उसे पूरी तरह स्वीकार कर लें। समग्र स्वीकृति जो मैं हूं चित्त की सरलता के लिए अनिवार्य शर्त है। टोटल एक्सेप्टिबिलिटी, पूरी तरह समग्ररूपेण मैं जो हूं। इसमें कुछ काट-छांट करने की जरूरत नहीं है। जो भी हूं, हिंसा है तो हिंसा, पाप है तो पाप, घृणा है तो घृणा, जो भी है, मैं जो भी हूं उसकी पूर्ण स्वीकृति।
और पूर्ण स्वीकृति के बाद दूसरा तत्व हैः अपने भीतर आत्म-निरीक्षण। सेल्फ-ऑब्जर्वेशन। क्या है मेरे भीतर उसे जानने की खोज। जो आदमी किन्हीं चीजों के विरोध में होता है वह कभी निरीक्षण नहीं कर पाता। क्योंकि वह उन चीजों को दबाता है, देखना नहीं चाहता। हम कभी अपने शत्रु का निरीक्षण नहीं कर सकते हैं। क्योंकि जो हमारा शत्रु है उसे हम देखना भी नहीं चाहते, तो निरीक्षण कैसे करेंगे। निरीक्षण तो हम उसका कर सकते हैं जो मित्र है, जिसे हमने स्वीकार किया है, जिसे हमने अपने निकट लिया है, उसका हम निरीक्षण कर सकते हैं।
तो अगर क्रोध आपका शत्रु है तो आप उसका निरीक्षण कभी नहीं कर सकेंगे। अगर लोभ आपका शत्रु है तो उसका निरीक्षण कभी न कर सकेंगे। आप उसे दबा देंगे अपने हृदय के ऐसे कोने में जहां वह आपको कभी दिखाई न पड़े। अगर सेक्स आपका शत्रु है तो उसको आप दबा देंगे ऐसे कोने में कि उसका आपको दर्शन ही न हो। और जब भी वह दिखाई पड़े तब राम-राम जप कर उसको और भीतर कर देंगे ताकि वह दिखाई न पड़े। फिर वह सपने में आएगा। ऐसे दिन में कभी नहीं आएगा क्योंकि आपने उसको अंधेरे कोनों में दबा दिया। इसलिए अच्छे लोग बुरे सपने देखते हैं और बुरे लोग अच्छे सपने देखते हैं। क्योंकि बुरे लोग अच्छाइयों को दबा देते हैं वे सपने में आती हैं। सभी बुरे लोग सपनों में संन्यासी हो जाते हैं। और सभी अच्छे लोग सपनों में सब पाप करते हैं जो कि बुरे लोग दिन में करते हैं, क्योंकि वे बुराइयों को दबा देते हैं, वे सपने में उठ आती हैं। हमारे भीतर हम दबाते रहते हैं। इस दमन से कोई छुटकारा नहीं होता, और इस दमन से कभी आत्म-निरीक्षण भी नहीं होता है।
इसलिए सप्रेशन नहीं, दमन नहीं, किसी चीज को दबाना नहीं, बल्कि उसे जानना, देखना, उघाड़ना। हमारी शिक्षा ने, तथाकथित नैतिक शिक्षा ने हर आदमी को दमन करना सिखा दिया है। हर बात को दबा देते हैं। हर बात को नीचे दबा देते हैं। फिर चित्त में विकृति शुरू होती है। क्योंकि दबी हुई ताकतें धक्के मारती हैं। जैसे कोई भाप को दबा दे, बर्तन के नीचे भाप चल रही हो और बर्तन के ऊपर पत्थर रख दें तो भाप धक्के मारेगी। और यह भी हो सकता है छोटी सी केतली अगर बंद कर दी जाए, तो हो सकता है पूरे घर को विस्फोट में उड़ा दे। सारा घर एक्सप्लोजन में हो जाए, आग लग जाए। हम सब भी अपने मन की ताकतों को दबाए हुए बैठे हैं। और इस दमन के परिणाम यह होते हैं कि कभी-कभी विस्फोट होते हैं। व्यक्तिगत रूप से होते हैं तो आदमी पागल हो जाता है। और सामूहिक रूप से होते हैं तो लड़ाइयां हो जाती हैं। हिंदू मुसलमान से लड़ लेता है। हिंदी बोलने वाला गैर हिंदी बोलने वाले से लड़ लेता है। गुजराती मराठी से लड़ लेता है। हिंदुस्तानी पाकिस्तानी से लड़ लेता है। रूस अमेरिका से लड़ ले, जर्मनी इंग्लैंड से लड़ ले, ये सारी बेवकूफियां इसलिए पैदा होती हैं कि समाज के चित्त में इतने वेग इकट्ठे हो जाते हैं कि बिना एक बड़े युद्ध के उनका निष्कासन नहीं हो पाता।
क्या आपको पता है, पहला महायुद्ध हुआ, पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोग मारे गए। और पहले महायुद्ध में जब इतनी बड़ी भयंकर हत्या हुई, तो एक अजीब बात सारी दुनिया के मनोवैज्ञानिकों ने अनुभव की, जो बिल्कुल कभी पहले अनुभव नहीं की गई थी। और वह यह कि पहला महायुद्ध जितने वर्ष चला, उतने वर्ष में चोरियां कम हो गईं। उतने वर्ष में हत्याएं कम हो गईं। आत्महत्याएं कम हो गईं। उतने वक्त में लोग हमेशा की बजाय कम पागल हुए, पागलखानों में कम लोग भर्ती हुए। और पागलखानों में से ज्यादा लोग स्वस्थ होकर बाहर आ गए। बड़ी घबड़ाहट हुई कि यह बात क्या है, युद्ध का इससे संबंध क्या है?
फिर दूसरा महायुद्ध हुआ, पांच करोड़ लोगों की हत्या हुई। और तब पाया गया कि और भी बड़े पैमाने पर कम हत्याएं हुईं उतने दिनों में, कम डकैतियां हुईं, कम आत्महत्याएं हुईं, कम लोग पागल हुए, ज्यादा पागल ठीक हो गए। क्या मतलब?
फिर दो महायुद्धों के अनुभव से यह बात समझ आई कि असल में युद्ध हो जाता है तो सामूहिक रूप से हमारा पागलपन निकल जाता है, इसलिए व्यक्तिगत रूप से पागल होने की जरूरत नहीं रह जाती। युद्ध हो जाता है तो सामूहिक रूप से हम हत्या कर लेते हैं, तो व्यक्तिगत से हत्या करने का कोई कारण नहीं रह जाता। यही तो वजह है कि जब युद्ध होता है तो मुर्दे लोग भी उठ-उठ कर सुबह से अखबार पढ़ने लगते हैं, मुर्दे भी। जब युद्ध होता है तो मुर्दे भी रेडियो खोल कर सुनने लगते हैं। और जब युद्ध होता है तो मरघट में भी ताजगी आ जाती है। लोग सुबह से ही बड़े प्रसन्न मालूम होते हैं कि क्या खबर आई, क्या खबर नहीं आई। क्यों? हमारे भीतर जो रोग हैं उनका सामूहिक निष्कासन हो रहा है, हम उसमें रस लेते हैं।
रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों, और आप लाख काम से गुजर रहे हों तो भी खड़े होकर देख लेने का मन होता है। क्यों? दो आदमियों को लड़ते देखते आपके भीतर लड़ाई करने के जो वेग दबे हैं उनका निष्कासन हो जाता है, वे निकल जाते हैं। इसलिए तो इतनी हत्याओं की फिल्में बनती हैं। इतनी डिटेक्टिव कहानियां पढ़ी जाती हैं, जासूसी उपन्यास पढ़े जाते हैं। मर्डर--कि अदालत में मुकदमा चलता हो तो सैकड़ों लोग देखने इकट्ठे होते हैं। यह बेवकूफियों में इतना रस क्यों है? इनमें रस इसलिए है कि हमारे भीतर जो वेग हम दबा कर रखते हैं उनको निकलने का मौका मिल जाता है। और अगर न मिले, न मिले तो फिर हम व्यक्तिगत रूप से निकालने की कोशिश करते हैं। और हम निकाल रहे हैं सारे लोग। पति पत्नियों पर निकाल रहे हैं, उनकी गर्दनें दबाए हुए हैं। पत्नियां पतियों से निकाल रही हैं, वे भी उनकी गर्दन दबाए हुए हैं। बच्चे बाप से निकाल रहे हैं, बाप बच्चों से निकाल रहे हैं। हर घर में, हर परिवार में, हर पड़ोस में, हर मोहल्ले में, गांव में, नगर में, हम एक-दूसरे के साथ हिंसा कर रहे हैं। हिंसा हमारे भीतर दबी है, उसको निकालने का रास्ता खोज रहे हैं।
यह दमन का परिणाम हुआ है। और राजनैतिक मर जाएं सिर पीट-पीट कर, दुनिया में शांति नहीं हो सकेगी। नहीं हो सकेगी इसलिए क्योंकि जब तक मनुष्य के मन में दमन है, जब तक एक-एक मनुष्य अपने होने को स्वीकार नहीं करता है। और स्वीकृति के द्वारा अपने जीवन को ट्रांसफार्म नहीं करता है, बदलता नहीं है, तब तक दुनिया में युद्ध बंद नहीं हो सकेंगे। राजनैतिक चिल्लाते रहें कि युद्ध बंद करना है। और धार्मिक गुरु चिल्लाते रहें कि शांति लाओ भगवान, और यज्ञ और हवन करते रहें, इनसे कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि असली बात आदमी के मन में दमित वेग इकट्ठे हो गए हैं और उनकी वजह से सारी जटिलता पैदा हो रही है। और इसलिए युद्ध बढ़ते जा रहे हैं। क्योंकि वेग दमन का बढ़ता जा रहा है। जितना-जितना आदमी सय हो रहा है, जितनी ज्यादा सिविलाइजेशन आ रही है उतने ज्यादा पागल होने की संख्या बढ़ती जाती है यह आपको पता है?
अमरीका सबसे ज्यादा पागल आदमी पैदा करता है। क्योंकि अमरीका सबसे ज्यादा सय है। अगर आपको भी सय होना है तो भी ज्यादा पागल पैदा करना शुरू करिए। वह कौम सुप्रीम सिविलाइजेशन पर पहुंच जाएगी जो पूरी की पूरी पागल हो जाए। सुप्रीम सिविलाइजेशन होगी वह। वह चरम सयता होगी, चरम संस्कृति। क्योंकि मापदंड क्या है सयता का? मापदंड यह है कि आपकी कौम में कितने लोग पागल होते हैं। इस वक्त अमरीका सबसे सय मुल्क है। क्योंकि पंद्रह लाख लोग रोज अपने दिमागी चिकित्सा के लिए डाक्टरों के दरवाजों पर जाते हैं। पंद्रह लाख लोग रोज। सरकारी आंकड़े हैं ये। और सरकारी आंकड़े हमेशा ऐसी बातों में सच नहीं बोलते। संभावना तीस लाख लोगों के जाने की होगी। तब कहीं सरकार पंद्रह लाख बोलती है। क्योंकि पागलों की संख्या ज्यादा होना कोई सुखद बात नहीं है। इसलिए कोई सरकार पूरे आंकड़े बता नहीं सकती। लेकिन अभी अमरीका की सरकार को शायद यह पता नहीं है कि यह सय होने का लक्षण है। घबड़ाओ मत, धीरे-धीरे पागल होते चले जाओ। जब तुम्हारे यहां एक भी डाक्टर न बचे जिसके पास पागल जा सकें, क्योंकि सभी पागल हो जाएं, तब तुम समझना कि परमात्मा ने सबसे बड़ी चीज पैदा कर दी, सबसे बड़ी संस्कृति पैदा कर दी।
सयता पागलपन लाती है, क्योंकि सयता दमन लाती है, सप्रेशन लाती है। और हम सारे लोग अपने को दबाते हैं, दबाते हैं, दबाते हैं, और पागल होने का रास्ता खोजते हैं। और इस ख्याल में मत रहिए कि दूसरे लोग पागल हैं। हर तीन आदमियों में एक आदमी करीब-करीब पागल है। और बाकी दो आदमी भी पागल नहीं है ऐसा मत सोचिए, थोड़े कम पागल हैं ऐसा सोचिए। बिल्कुल पागल न होना बड़ी कठिन बात है। और जब कोई ऐसा आदमी हमारे बीच पैदा हो जाता है जो बिल्कुल पागल नहीं होता, तो हम सब पागलों के दिमाग बड़े गड़बड़ हो जाते, हम सोचते, इसको मारो, यह आदमी पागल है, या कुछ गड़बड़ है।
गांधी को मार डाला, एक आदमी था हमारे बीच जो पागल नहीं था, तो पागलों ने इकट्ठा होकर मार डाला। क्राइस्ट को सूली पर लटका दिया, क्योंकि बाकी पागलों देखा कि यह आदमी गड़बड़ मालूम होता है। सुकरात को जहर पिला दिया। क्यों?
एक कहानी कहूं आपसे।
एक गांव में ऐसा हुआ, एक जादूगर आया और उसने एक कुएं में कुछ मंत्र पढ़ कर कोई पुड़िया डाल दी। और खबर कर दी कि इस कुएं का पानी जो भी पीएगा वह पागल हो जाएगा। उस गांव में दो ही कुएं थे। एक कुआं गांव का था और एक राजा के महल का था। गांव भर के लोगों ने बहुत कोशिश की कि पानी न पीएं, लेकिन कितनी देर तक प्यास से बचते। आखिर शाम होते-होते सबने पानी पीया। पूरा गांव पागल हो गया। सिर्फ राजा, रानी और वजीर पागल नहीं हुए, उनका कुआं दूसरा था। सांझ होते-होते सारे गांव में एक अफवाह फैलने लगी कि ऐसा मालूम होता है राजा, रानी और वजीर का दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि गांव भर का दिमाग एक तरह का हो गया और राजा, रानी और वजीर का गड़बड़ दिखाई पड़ने लगा। वे माइनारटी में रह गए। अब मैजारटी पागल हो चुकी थी। तो बहुमत ने सांझ को सभा की, उस गांव में सभा की, और उन्होंने यह विचार किया कि अब हम क्या करें, राजा का दिमाग खराब हो गया है, इसको बदलना चाहिए। नहीं तो सब बर्बाद हो जाएगा। राजा को खबर मिली की जनता सभा कर रही है। तो राजा ने अपने वजीर से पूछाः अब हम क्या करें? वजीर ने कहाः एक ही रास्ता है, समय चुकने के पहले हम चलें और उस कुएं का पानी पी लें, जिसका सबने पीआ है।
राजा, रानी और वजीर गए और उस कुएं का पानी पी लिया। उस रात उस गांव में जलसा मनाया गया। और गांव के लोगों ने राजा का स्वागत किया कि उसका दिमाग अब ठीक हो गया।
ऐसी हालत है। जब भी कोई स्वस्थ आदमी हमारे बीच में पैदा होता है तो हम गोली मार देते हैं, जहर पीला देते हैं। क्यों? हमारे पागलपन में वह आदमी समझ में नहीं आता कि यह बातें क्या कह रहा है। यह हमने आज तक स्वस्थ आदमियों के साथ व्यवहार किया है। लेकिन इतना स्मरण रखिए, यह पागल होने वाली सयता बहुत दिन चलने वाली नहीं है। यह पागल होने वाला मनुष्य बहुत दिन चलने वाला नहीं है। क्योंकि अब तक तो हमारे हाथ में छुरी-तलवार थे छोटे-छोटे, अगर पागल भी होते थे थोड़ी-बहुत हत्या करते थे, अब एटम बम, हाइड्रोजन बम हैं पागलों के हाथ में। और पोलिटिशियन जो होता है, राजनैतिक जो होता है, वह तो हम सबमें सबसे ज्यादा जो पागल होता है वह राजनीतिज्ञ हो जाता है। हम सबमें जो सबसे ज्यादा पागल होता है वह राजनीतिज्ञ हो जाता है। इन पागलों के हाथ में बड़ी ताकत है। और वह ताकत कभी भी खतरा ला सकती है। सारी दुनिया को डूबा सकती है।
इसलिए एक-एक आदमी का कर्तव्य है यह कि वह अपने भीतर से पागलपन को विदा करे। सरल हो जाए। जटिलता को विदा करे। यह न केवल उसके हित में बल्कि सारी मनुष्यता के हित में है।
जटिलता है दूसरे जैसे होने की कोशिश से। सरलता आएगी अपने जैसे होने के स्वीकार से। और उस स्वीकृति से घबड़ाएं न कि आप गिर जाएंगे नीचे, उसी स्वीकृति से ट्रांसफार्मेशन पैदा होता है। उसी स्वीकृति से रूपांतरण होता है। क्यों? क्योंकि जैसे ही हमें दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि हमारा भीतर कैसा नरक है, उस नरक के हम बाहर निकलने में समर्थ हो जाते हैं।
कैसे यह सामर्थ्य हमारा विकसित होगा कि हम उसके बाहर निकल जाएं और रूपांतरण हो जाए, उसकी चर्चा मैं कल सुबह शून्यता के संबंध में बोलते समय आपसे करूंगा। क्यों? क्योंकि जितने विचारों से भरा हुआ मस्तिष्क होता है उतना अशांत होता है, उतना जटिल होता है। जितना विचारों से शून्य हो जाता है मस्तिष्क उतना शांत हो जाता है, उतना स्वस्थ हो जाता है।
शून्य मस्तिष्क कैसे हो जाए, उसकी बात मैं कल करूंगा। सरल मन कैसे हो सकता है, तो मैंने दो सूत्र आपसे कहे हैं--स्वयं के प्रति सर्वांगीण स्वीकृति, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी। और उस स्वीकृति से ही रूपांतरण पैदा होता है उसी भांति--जैसे हम एक घर में दीया जला दें तो अंधकार नहीं पाया जाता है--वैसे ही अगर अपने भीतर हम स्वीकृति का दीया जला लें और परिपूर्ण रूप से अपने को अंगीकार कर लें, तो उस अंगीकार के बोध से ही एक ऐसा दीया जलता है जिसके प्रकाश में हिंसा और घृणा और क्रोध और पाप तिरोहित हो जाते हैं। क्योंकि जहां प्रकाश है वहां अंधकार नहीं है। और जो स्वयं को स्वीकार नहीं करता उसके जीवन में कभी भी प्रकाश निर्मित नहीं होता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं, कल इस बात को मैं पूरा करूंगा कि इस चित्त की सरलता को शून्यता तक कैसे ले जाया जा सकता है। और जो शून्य हो जाता है वह पूर्ण से भर जाता है। जैसे वर्षा होती है, आकाश में बादल घिरते हैं और पानी गिरता है, तो पानी गिरता है पहाड़ों पर भी, लेकिन पहाड़ खाली के खाली रह जाते हैं क्योंकि पहाड़ पहले से भरे हुए हैं। और झीलों में भी पानी गिरता है, गड्ढों में भी पानी गिरता है, लेकिन गड्ढे भर जाते हैं, क्योंकि वे खाली हैं। परमात्मा भी चौबीस घंटे बरस रहा है, जो खाली हैं वे परमात्मा से भर जाते हैं और जो भरे हुए हैं वे खाली रह जाते हैं। तो कैसे हम खाली हो सकते हैं अपने से ताकि परमात्मा हमें भर दे, उसकी बात मैं कल करूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत और आनंदित हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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