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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां 

केवल पका फल ही गिरता है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! मैं अनुभव करता हूं कि कठिनाइयों में धैर्य व सहनशीलता का दृष्टिकोण विकसित करने के कारण मैं जीवन को परिपूर्ण ढंग से नहीं जी पाता हूं। मैं जीवन से पलायन करने लगा हूं। जीवन का यह परित्याग, ध्यान में जीवंत बने रहने के मेरे प्रयास के विरूद्ध, एक बोझ की तरह प्रतीत हो रहा है। क्या इसका अर्थ यह है कि मैंने अपने अहंकार का दमन किया है और वास्तव में उससे मुक्त होने के लिए मुझे पुनः उसे पोषण देना चाहिए?


सबसे बड़ी समस्याओं में से यह एक है। यह बहुत विरोधाभासी दिखाई देगा, लेकिन यही सत्य है। इससे पहले कि तुम अहंकार को खो सको, तुम्हें उस तक पहुंचना चाहिए। केवल एक पका हुआ फल ही स्वयं भूमि पर नीचे गिर जाता है। उसका पकना ही सब कुछ है। अपरिपक्व या अधपके अहंकार को छोड़ा नहीं जा सकता है और न ही उसे नष्ट किया जा सकता है। यदि तुम अपरिपक्व अहंकार को मिटाने और नष्ट करने हेतु संघर्ष करते हो तो तुम्हारा प्रयास असफल होगा। वस्तुतः नष्ट करने की अपेक्षा वह अनेक नए सूक्ष्म उपायों से और अधिक मजबूत बन जाएगा।

यहां एक मूलभूत बात समझनी होगी कि अहंकार शिखर तक पंहुचना चाहिए, उसे मजबूत होना चाहिए, उसे पूर्णता तक पहुंचना चाहिए, केवल तभी तुम उसे मिटा सकते हो। एक निर्बल अहंकार को विलुप्त नहीं किया जा सकता है और यही एक समस्या बन जाती है।
पूरब में सभी धर्म अहंकार रहित होने का उपदेश देते हैं, इसलिए पूरब में प्रारंभ से ही प्रत्येक व्यक्ति अहंकार के विरुद्ध हो जाता है। इस विरोधी रवैये के कारण अहंकार कभी भी शक्तिशाली नहीं बनता है, वह पूर्णता की स्थिति तक कभी नहीं आ पाता है, जहां से उसे फेंका जा सके। वह कभी भी परिपक्व नहीं हो पाता है, इसीलिए पूरब में अहंकार का विलुप्त हो पाना बहुत कठिन और लगभग असंभव है।
पश्चिम में, उनके धर्म की पूरी परंपरा और मनोविज्ञान यह प्रतिपादित करते हैं, यह उपदेश देते हैं और यह प्रोत्साहन देते हैं कि लोगों में शक्तिशाली अहंकार होना चाहिए। क्योंकि जब तक तुम्हारा अहंकार शक्तिशाली नहीं होगा, तुम जीवित कैसे रहोगे? तुम्हारा अस्तित्व कैसे बचा रहेगा? जीवन एक संघर्ष है और यदि तुम बिना अहंकार के रहोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे। जीवन के संघर्षों का प्रतिरोध कौन करेगा? कौन लड़ेगा? कौन प्रतियोगिता करेगा? जीवन तो एक निरंतर होने वाली प्रतियोगिता है। पश्चिमी मनोविज्ञान कहता है, अहंकार को उपलब्ध हो जाओ और उसे शक्तिशाली बनने दो।
लेकिन पश्चिम में अहंकार को नष्ट करना भी बहुत सरल है, इसलिए जब कभी भी पश्चिम का एक खोजी इसे समझ लेता है कि अहंकार ही मूल समस्या है, तो वह पूरब के किसी खोजी की अपेक्षा कहीं अधिक सरलता से उसे नष्ट कर सकता है। यह एक विरोधाभास है, पश्चिम में अहंकार सिखाया जाता है और पूरब में निरअहंकारिता सिखाई जाती है, लेकिन पश्चिम में अहंकार को विलुप्त करना सरल है और पूरब में यह बहुत कठिन है।
यह तुम्हारे लिए एक कठिन कार्य होगा, पहले तो उस तक पहुंचना है और बाद में उसे छोड़ देना है। याद रखो, तुम केवल उसी चीज़ को खो सकते हो, जो तुम्हारे पास है, तुम्हारे अधिकार में है। यदि वह तुम्हारे पास ही नहीं है तो तुम छोड़ोगे क्या? तुम केवल तभी निर्धन हो सकते हो, यदि तुम एक धनी हो। यदि तुम धनी नहीं रहे हो तो तुम्हारी निर्धनता में भी वह सौंदर्य नहीं हो सकता जिसके बारे में जीसस बात करते हैं : ‘अपनी आत्मा में निर्धन बनो’। तुम्हारी निर्धनता भी उतने महत्त्व और उतने गरिमा की नहीं हो सकती जैसी कि गौतम बुद्ध की थी, जब वे भिक्षु बन गए थे।
केवल एक धनी व्यक्ति ही निर्धन बन सकता है, क्योंकि तुम वही छोड़ सकते हो, जो तुम्हारे पास होता है। यदि तुम कभी भी धनी ही नहीं रहे हो तो तुम कैसे निर्धन बन सकते हो? तुम्हारी निर्धनता केवल परिधि पर होगी, वह कभी भी आत्मा में नहीं हो सकती है। परिधि पर बाहर से तुम निर्धन होगे, लेकिन अपनी गहराई में तुम समृद्धि के लिए तीव्र लालसा करोगे। तुम्हारी आत्मा समृद्धि के पीछे भटकती रहेगी, वह एक आकांक्षा बन जाएगी और तुम निरंतर समृद्धि और सम्पदा पाने की लालसा करते रहोगे। केवल बाहरी परिधि पर निर्धन होकर, तुम स्वयं को यह सांत्वना दे सकते हो कि निर्धनता अच्छी होती है।
लेकिन तुम वास्तव में निर्धन नहीं हो सकते हो। केवल एक धनी व्यक्ति ही, वास्तव में एक समृद्ध व्यक्ति ही निर्धन हो सकता है। केवल समृद्धिवान होना ही वास्तविक धनवान होना नहीं है। क्योंकि तुम तब भी निर्धन हो सकते हो। यदि धन की आकांक्षा अभी भी वहां है, अधिक धन की लालसा है, तो तुम निर्धन ही हो। तुम्हारे पास क्या है, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि तुम्हारे पास पर्याप्त है, तब कामना विलुप्त हो जाती है। जब तुम्हारे पास पर्याप्त समृद्धि और धन संपदा होती है, तो धन की कामना विलुप्त हो जाती है। कामना का पूर्णतः विलुप्त हो जाना ही पर्याप्त होने का मापदंड है, वह यथेष्ट है। तब तुम वास्तव में धनी हो और तुम उसे छोड़ सकते हो, तुम निर्धन हो सकते हो और तुम बुद्ध के समान एक गरिमावान भिक्षुक हो सकते हो। तब तुम्हारी निर्धनता भी एक समृद्धि है और तब तुम्हारी निर्धनता का भी अपना एक साम्राज्य होता है।
ऐसा ही प्रत्येक तथ्य के साथ घटित होता है। उपनिषद् अथवा लाओत्सु अथवा जीसस अथवा बुद्ध, वे सभी यह सिखाते हैं कि ज्ञान व्यर्थ है। अधिक ज्ञान संग्रहीत कर लेने से, बहुत अधिक सहायता नहीं मिलती है। सहायता मिलने की बजाय यह एक अवरोध बन सकता है। ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें अज्ञानी बना रहना चाहिए। यह अज्ञान वास्तविक नहीं होगा। जब तुमने पर्याप्त ज्ञान संग्रहित कर लिया, और तब तुम उसे फेंक पाते हो, तो ही तुम सच्ची निर्दोषता को उपलब्ध हो सकते हो। तब तुम वास्तव में सुकरात के समान निर्दोष बनते हो, जो यह कह सकता है : ‘मैं केवल एक बात ही जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता।’ यह ज्ञान अथवा अज्ञान, तुम इसे कोई भी नाम दे सकते हो, यह पूर्णतया भिन्न है, इसकी गुणवत्ता अतुल्नीय है, क्योंकि आयाम बदल जाता है।
यदि तुम पूरी तरह से अज्ञानी हो, क्योंकि तुम कभी भी किसी ज्ञान तक पहुंचे ही नहीं हो तो तुम्हारे अज्ञान में समझदारी नहीं हो सकती, वह प्रज्ञा नहीं बन सकती। वह सामान्य रूप से ज्ञान की अनुपस्थिति है और अंदर यह तीव्र उत्कंठा और व्यग्रता बनी रहेगी कि कैसे अधिक ज्ञान प्राप्त किया जाए? कैसे अधिक सूचनाएं प्राप्त की जाएं?
जब तुम बहुत अधिक जानते हो, तुमने धर्मशास्त्रों को जान लिया है, तुमने अतीत को और उसकी पूरी परंपरा को जान लिया है, तुमने वह सब कुछ जान लिया है जो जाना जा सकता है, तब अचानक तुम इस समस्त ज्ञान की व्यर्थता के प्रति सचेत हो जाते हो। अचानक तुम सजग हो जाते हो कि यह ज्ञान नहीं है, यह उधार की जानकारी है। यह तुम्हारा अपना अस्तित्वगत अनुभव नहीं है, यह ‘वह’ नहीं है, जो तुमने अभी तक जाना है। हो सकता है कि दूसरों ने यह सब जाना हो परंतु तुमने तो केवल उसे एकत्रित ही किया है। तुम्हारा यह एकत्र करना यांत्रिक है। तुम्हारे भीतर जानने की वह प्यास भीतर से नहीं उठी है। यह विकास नहीं है... यह तो दूसरों के दरवाज़े से उठाया गया व्यर्थ का कूड़ा-कर्कट है, जो उधार का है और बिल्कुल मृत है।
स्मरण रहे कि जानना तब ही जीवंत होता है, केवल और केवल तब ही... जब तुम स्वयं उसे जानते हो, जब वह तुम्हारा सीधा और प्रत्यक्ष अनुभव होता है। लेकिन जब तुम दूसरों से जानते हो, तो वह ज्ञान नहीं होता है, वह केवल एक स्मृति होती है और स्मृति मृत है। जब तुम धर्मग्रंथों के द्वारा अत्याधिक ज्ञान एकत्रित कर लेते हो, तुम्हारे चारों ओर शास्त्र जमा हो जाते हैं, तुम्हारे मन में सघन पुस्तकालय निर्मित हो जाते हैं, तभी अचानक तुम सचेत होते हो कि तुम केवल दूसरों का बोझ ढो रहे हो। तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है और तुमने उसे स्वयं नहीं जाना है, तब तुम उसे छोड़ सकते हो। तुम उस समस्त ज्ञान को छोड़ सकते हो। इस प्रकार से छोड़ने में तुम्हारे अंदर एक नई तरह की निर्दोषता उत्पन्न होती है। यह अज्ञान, एक अज्ञानी का अज्ञान नहीं है, वस्तुतः यह ऐसा होगा जैसा कि एक प्रज्ञावान मनुष्य होता है, यह प्रज्ञा का शिखर होगा।
केवल एक बुद्धिमान व्यक्ति ही यह कह सकता है : ‘मैं नहीं जानता हूं।’ परंतु ऐसा कहने में वह ज्ञान के पीछे व्यग्र नहीं हो रहा है। वह सामान्य रूप से एक तथ्य बता रहा है और जब तुम अपने समग्र हृदय से यह कह सकते हो कि ‘मैं नहीं जानता हूं’, तो उसी प्रामाणिक क्षण में तुम्हारी आंखें खुलती हैं और तुम्हारे ज्ञान के द्वार खुलते हैं। उसी वास्तविक क्षण में, जब तुम अपनी समग्रता के साथ यह कह सकते हो कि तुम नहीं जानते हो, तब ही तुम ज्ञान के लायक बनते हो। यह अज्ञान बहुत सुंदर है, लेकिन यह ज्ञान के द्वारा ही उपलब्ध हुआ है, यह वह निर्धनता है, जो समृद्धि के द्वारा ही उपलब्ध हुई है और ऐसा ही अहंकार के साथ भी घटित होता है। यदि अहंकार तुम्हारे पास है, तभी तुम उसे छोड़ सकते हो।
जब बुद्ध अपने सिंहासन को त्याग कर एक भिक्षु बन जाते हैं तो बुद्ध के लिए अब अहंकार की क्या आवश्यकता है? बुद्ध एक राजा थे, अपने सिंहासन पर आरूढ़ थे, तब वह अपने अहंकार के शिखर पर थे, फिर वह अंतिम छोर पर क्यों गए? अपने महल को छोड़कर सड़कों पर उतरकर एक भिखारी क्यों बने? लेकिन बुद्ध के इस भिक्षा मांगने में भी एक सौंदर्य है। पृथ्वी ने ऐसा सुंदर भिखारी, ऐसा समृद्ध भिखारी, ऐसा राजसी और सम्राट जैसा भिखारी कभी नहीं देखा होगा।
जब उन्होंने अपने सिंहासन से नीचे कदम रखा तो हुआ क्या? उन्होंने उसी क्षण अपने अहंकार से नीचे कदम रख दिया। सिंहासन और कुछ नहीं है केवल अहंकार का, शक्ति का, सत्ता का और प्रतिष्ठा का प्रतीक है। जैसे ही उन्होंने नीचे कदम रखा तो निरहंकारिता घटित हुई। यह निरहंकारिता, मात्र विनम्रता नहीं है, यह निरहंकारिता दीनता नहीं है। तुम अनेक विनम्र लोग देख सकते हो, जिनकी विनम्रता के नीचे कहीं गहराई में, सूक्ष्म अहंकार छुपा होता है।
कहा जाता है कि एक बार डायोजनीज़ सुकरात से भेंट करने के लिए आया। डायोजनीज़ एक भिखारी के समान रहता था और वह हमेशा बहुत से पैबंद लगे और अनेक छिद्रों वाले गंदे वस्त्र पहनता था। यदि तुम उसे नए वस्त्र भेंट भी कर दो तो वह उनका प्रयोग नहीं करता था। पहले वह उन्हें इधर-उधर से फाड़ देता, पुराना और गंदा बना देता और तब उसका प्रयोग करता था। वह सुकरात से भेंट करने आया और निरअहंकारिता के बारे में उसने बात करना शुरू कर दिया। लेकिन सुकरात की मर्मभेदी आंखों ने अनिवार्य रूप से यह महसूस किया होगा कि यह व्यक्ति अहंकारहीन नहीं है। दीनता और विनम्रता के बारे में वह जिस ढंग से बात कर रहा था, वह ढंग ही बहुत अहंकारपूर्ण था। ऐसा कहा जाता है कि सुकरात ने उससे कहा : ‘आपके गंदे और छिद्रयुक्त वस्त्रों के माध्यम से, मैं सिवाय अहंकार के और कुछ भी नहीं देख सकता हूं। आप दीनता और विनम्रता की बात कर रहे हैं, लेकिन वह बात अहंकार के गहन केंद्र से आ रही है।’
ऐसा होगा ही, ऐसे ही ढोंग का, पाखण्ड का, मिथ्या चरित्र का जन्म होता है। तुम्हारे पास अहंकार है, तुम उसे छिपाते हो और तुम बाहर परिधि पर बहुत विनम्र बन जाते हो। यह परिधि की विनम्रता किसी अन्य व्यक्ति को धोखा नहीं दे सकती, वह केवल तुम्हीं को धोखा दे सकती है। फटे हुए और गंदे वस्त्रों के छिद्रों से तुम्हारा अहंकार झांकता है। वह हमेशा ही वहां मौजूद है। उसके न होने का ख्याल केवल एक आत्म-प्रवंचना है। कोई अन्य व्यक्ति धोखा नहीं खाता है और यह तभी होता है यदि तुम अपरिपक्व अहंकार को फेंकना प्रारंभ कर देते हो।
मैं जो कुछ भी सिखाता हूं, वह विरोधाभासी दिखाई देगा, लेकिन यही जीवन का सत्य है। जीवन में विरोधाभास अंतर्निहित है। इसलिए मैं तुम्हें अंहकारी बनना सिखाता हूं जिससे कि तुम अहंकार शून्य बन सको। मैं तुम्हें बिल्कुल आदर्श अहंकारी बनना सिखाता हूं, उसे छिपाओ मत, अन्यथा मिथ्या आचरण और दम्भ उत्पन्न होगा। अपरिपक्व अहंकार के साथ संघर्ष मत करो। पहले उसे पकने दो और उसकी सहायता कर उसे शिखर तक ले जाओ। डरो मत, भयभीत होने को कुछ भी नहीं है। इस तरह तुम महसूस करोगे कि अहंकार की वेदना क्या होती है। जब अहंकार अपने शिखर तक पहुंचता है, तब मुझे या किसी बुद्ध को तुम्हें यह बताने कि आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी कि अहंकार एक नर्क है क्योंकि तुम स्वयं ही उसे जानोगे और अहंकार का वह शिखर तुम्हें हर संभव नारकीय अनुभव प्रदान करेगा। वह एक दुःस्वप्न की भांति होगा। तब तुम्हें यह समझाने की आवश्यकता नहीं होगी कि इस अहंकार को छोड़ दो और इसे साथ लेकर चलना कठिन है।
अत्यंत पीड़ा के बाद ही कोई अनुभव जन्य ज्ञान तक पंहुच पाता है। तुम केवल तर्कपूर्ण विवादों के आधार पर किसी भी चीज़ को नहीं छोड़ सकते। तुम किसी भी विचार या विषय को केवल तभी बाहर फेंक सकते हो, जब वह अत्याधिक पीड़दायी हो जाए, इतना असहनीय हो जाए कि तुम उसका और बोझ उठा ही न सको। तुम्हारा अहंकार अभी तक इतना दुखदाई नहीं हुआ है, इसलिए तुम उसे अपने साथ लिए हुए हो। यह स्वाभाविक है। मैं उसे छोड़ने के लिए तुम्हें राजी भी नहीं कर सकता। फिर भी यदि तुम्हें लगता है कि किसी तरह मैं तुम्हें बहला रहा हूं तो तुम इसे छुपाना प्रारंभ कर दोगे।
कच्ची या अधपकी चीज़ छोड़ी नहीं जा सकती। अधपका फल वृक्ष से और वृक्ष उस अधपके फल से चिपका रहता है। यदि तुम उन्हें बलपूर्वक पृथक करते हो तो पीछे एक घाव छूट जाता है। उस घाव का निशान सदा बना रहता है और घाव भी हमेशा हरा बना रहेगा, जिसके कारण तुम दुख का अनुभव करोगे। स्मरण रहे कि प्रत्येक चीज़ को परिपक्व होने में एक समय लगता है, सही समय पर वह विकसित होगी, पूरी तरह से पकेगी और सही समय आने पर स्वतः ही गिर कर धरती में विलीन हो जाएगी। तुम्हारा अहंकार भी एक समय लेता है। उसे परिपक्व होने के लिए समय की आवश्यकता होती है।
इसलिए अहंकारी बनने से डरो मत। वैसे तो तुम अहंकारी हो ही, अन्यथा तुम बहुत समय पहले ही विलुप्त हो जाते। यही जीवन की यांत्रिक बनावट है, तुम्हें अहंकारी बनना होता है, तुम्हें अपने ढंग से लड़ना होता है। तुम्हें अपने चारों ओर की लाखों कामनाओं से लड़ना होता है और तुम्हें जीवित बने रहने के लिए संघर्ष करना होता है।
अहंकार जीवित बने रहने का एक उपाय है। यदि एक बच्चा बिना अहंकार के जन्म ले तो वह मर जाएगा। वह जीवित नहीं बना रह सकता, ऐसा होना असंभव है, क्योंकि यदि उसे भूख की अनुभूति होगी तो वह अनुभव नहीं करेगा कि मैं भूखा हूं। वह अपनी भूख को अपने से संबंधित करके नहीं जान पाएगा। परंतु अहंकार के होने के कारण ही बच्चा अनुभव करता है कि मैं भूखा हूं। वह रोना शुरू कर देता है और प्रयास करके यह जताता है कि उसे भोजन दिया जाए। बच्चा अपने अहंकार के विकसित होने के साथ-साथ ही विकसित होता है।
इसलिए मेरे अनुसार, अहंकार स्वाभाविक विकास का एक भाग है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें सदा ही अहंकारी बने रहना है। यह एक स्वाभाविक विकास है और तब वहां दूसरा कदम भी है, जब उसे छोड़ देना है। वह भी स्वाभाविक है। लेकिन दूसरा कदम केवल तभी लिया जा सकता है, जब पहला कदम अपनी चरम सीमा अथवा शीर्ष तक पहुंच गया हो।
इसलिए मैं दोनों ही बातें सिखाता हूं। मैं अहंकारपूर्ण होना सिखाता हूं और मैं अहंकार शून्य होना भी सिखाता हूं।
पहले अहंकारी बनो, पूर्ण रूप से अहंकारी, परिपूर्णता से अहंकार के शीर्ष तक पहुंचो, जैसे मानो पूरा अस्तित्व तुम्हारे लिए ही विद्यमान है और तुम्हीं उसके केंद्र में हो, सभी सितारे तुम्हारे चारों ओर घूम रहे हैं और सूरज सिर्फ तुम्हारे लिए ही उदित होता है और यहां प्रत्येक चीज़ तुम्हारे वजूद की सहायता के लिए ही विद्यमान है। केंद्र बनो और भयभीत मत हो, क्योंकि यदि तुम डर जाते हो तब तुम कभी भी परिपक्व नहीं होगे। उसे स्वीकार करो। वह तुम्हारे विकास का एक भाग है। उसका आनंद लो और उसे शिखर तक ले जाओ।
जब वह शिखर तक आता है, अचानक तुम सचेत हो जाओगे कि तुम केंद्र नहीं हो। यह एक भ्रम है और यह एक बचकाना तरीका है। लेकिन पहले तुम एक बच्चे थे, इसलिए उसमें कुछ भी गलत नहीं था बल्कि वह जरूरी था। अब तुम परिपक्व हो गए हो और देख पा रहे हो कि तुम केंद्र नहीं हो।
वास्तव में जब तुम देखते हो कि तुम केंद्र नहीं हो, तो तुम यह भी देखते हो कि वहां अस्तित्व में कोई भी केंद्र नहीं है अथवा प्रत्येक स्थान पर ही केंद्र है। या तो कोई भी केंद्र नहीं है और अस्तित्व समग्रता में विद्यमान है, बिना किसी केंद्र के एक पूर्णता में है, वह स्वयं ही नियंत्रक है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक अणु ही केंद्र है।
जेकब बोहमे ने कहा है कि पूरा संसार केंद्रों से आपूरित है, प्रत्येक अणु एक केंद्र है और वहां कोई भी परिधि नहीं है। सर्वत्र केंद्र ही हैं, परिधि कहीं भी नहीं है। ये दो संभावनाएं हैं। दोनों का समान अर्थ है। केवल शब्द भिन्न हैं और विरोधाभासी हैं, लेकिन पहले एक केंद्र बनो।
यह कुछ इस प्रकार है कि जैसे तुम एक सपने में हो, यदि सपना अपनी पराकाष्ठा तक पहुंचता है तो वह टूट जाएगा। हमेशा ऐसा ही होता है, जब कभी भी सपना अपनी चरम सीमा तक आता है, वह टूट जाता है। एक सपने की पराकाष्ठा क्या होती है? एक सपने की चरम सीमा वह अनुभूति होती है जब वह वास्तविक लगने लगता है। तुम अनुभव करते हो कि यह एक सच्चाई है, यह सपना नहीं है और तुम आगे और आगे बढ़ते चले जाते हो तथा सपने के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचते हो और वहां वह लगभग यथार्थ बन जाता है।
लगभग ही बनता है, कभी भी वास्तविक नहीं बन सकता। वह वास्तविकता के इतने अधिक निकट आ जाता है कि अब तुम उसके आगे नहीं जा सकते, क्योंकि एक कदम अधिक आगे जाने से सपना वास्तविक बन जाएगा और वह यथार्थ बन नहीं सकता, क्योंकि वह एक सपना है। अतः जब सपना वास्तविकता के अत्यंत निकट आ जाता है तब नींद टूट जाती है, सपना खंड-खंड हो जाता है और तुम पूरी तरह जाग जाते हो।
ठीक ऐसा ही सभी तरह की भ्रांतियों के साथ भी होता है। अहंकार ही सबसे बड़ा सपना है। उसके पास उसका सौंदर्य है और साथ ही दुख भी हैं। उसके पास अपना आनंद है और पीड़ा भी है। उसके पास अपने स्वर्ग और नर्क दोनों ही हैं। कभी-कभी सपने बहुत सुंदर होते हैं और कभी-कभी वे दुःस्वप्न होते हैं, लेकिन दोनों ही सपने हैं।
इसलिए मैं समय से पूर्व तुम्हें तुम्हारे सपने से बाहर आने के लिए नहीं कहता हूं। नहीं, कभी भी कोई चीज़ समय से पूर्व मत करो, उन्हें विकसित होने का पूरा मौका दो, उन्हें अपना पर्याप्त समय लेने दो। ताकि सब कुछ प्राकृतिक रूप से घटित हो सके। इससे अहंकार गिर जाएगा। अहंकार स्वतः ही गिर सकता है यदि तुम उसे पूरी तरह से विकसित होने की अनुमति दो और साथ ही इस विकास में उसकी सहायता करो। तब उसे छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वस्तुतः वह स्वयं ही छूट जाता है।
यह बहुत गहन तथ्य है, क्योंकि यदि बलपूर्वक तुम कुछ छोड़ने का प्रयास करते हो तो अहंकार भीतर ही बना रहता है। उसे कौन छोड़ेगा? यदि तुम सोचते हो कि तुम उसे छोड़ोगे, तो यह तुम्हारा होना ही अहंकार है। इसलिए तुम जो भी छोड़ोगे वह वास्तविक नहीं होगा। वास्तविक तो भीतर सुरक्षित बना रहेगा और जो तुम छोड़ रहे हो, वह कुछ और ही है। तुम स्वयं ही, स्वयं को अहंकार मुक्त नहीं कर सकते हो। इसे कौन करेगा? यह स्वयं होता है, यह कोई क्रिया नहीं है। तुम अहंकार में विकसित होते हो और एक स्थिति ऐसी आती है कि नरक जैसा वातावरण उत्पन्न हो जाता है और अचानक स्वप्न टूट जाता है। आप महसूस करते हो कि बतख बोतल से बाहर ही है, वह कभी भी बोतल के अंदर थी ही नहीं। तुम कभी भी अहंकार नहीं थे, यह केवल तुम्हारा एक सपना है और इस सपने का होना आवश्यक भी है इसीलिए मैं इस सपने की निंदा नहीं करता हूं, यह विकास का एक आवश्यक अंग है।
जीवन में प्रत्येक चीज़ आवश्यक है। कुछ भी अनावश्यक नहीं है और अनावश्यक हो भी नहीं सकता है। अब तक जो कुछ भी हुआ है, उसे होना ही था और जो कुछ भी हो रहा है, वह किसी गहन कारण से ही हो रहा है। परंतु तुम्हारा भ्रम भी एक सीमा तक आवश्यक है। यह भ्रम केवल एक सुरक्षा कवच की तरह है, जो तुम्हें जीवित रहने में मदद करता है। परंतु सदैव इस कवच की आवश्यकता नहीं होती है। जब तुम परिपक्व हो जाते हो, तैयार हो जाते हो तो उस समय इस कवच को तुरंत ही तोड़कर बाहर आ जाओ। अहंकार अंडे के छिलके की तरह, तुम्हारे विकास में तुम्हारी सहायता करता है। परंतु जब तुम तैयार हो गए हो, तो इस छिलके को तोड़ दो और अंडे से बाहर आ जाओ। अहंकार एक खोल अथवा छिलका है, लेकिन प्रतीक्षा करो। शीघ्रता करने से बहुत अधिक सहायता नहीं मिलेगी, यह जल्दबाजी सहायक नहीं होगी, यह बाधा पहुंचा सकती है। समय दो, इंतजार करो, निंदा मत करो क्योंकि कौन निंदा करेगा?
तथाकथित साधु-संतों के पास जाओ, वे विनम्रता और दीनता की बात करते हैं। पर उनकी आंखों में झांककर देखो तो वैसा परिशुद्ध अहंकार तुम्हें कहीं भी नहीं मिलेगा। उनके अहंकार ने धर्म, योग और संतत्व के लबादे ओढ़ लिए हैं, उनके अहंकार ने केवल पोशाक बदल ली है, लेकिन भीतर वह मौजूद है। हो सकता है कि अब वे धन और पद को एकत्रित नहीं कर रहे हैं, परंतु अब वे अनुयायी एकत्र कर रहे हैं। अब वे रूपए नहीं गिन रहे हैं परंतु अब वे अपने अनुगामियों को गिन रहे हैं, अब उनका ध्यान इस बात पर है कि उनके कितने अधिक अनुयायी हैं?
हो सकता है कि वे इस संसार की वस्तुओं के पीछे न भाग रहे हों, पर वे उस दूसरे संसार की चीज़ों के पीछे भाग रहे हैं। लेकिन यह संसार हो या वह संसार- दोनों ही संसार हैं। पर अब वे ज्यादा लोभी प्रतीत होते हैं क्योंकि उनके अनुसार इस संसार की वस्तुएं तो अस्थायी हैं, इस संसार की वस्तुएं क्षणिक हैं, और वे शाश्वत सुख और आनंद चाहते हैं। अब उनकी लालसा अधिक बड़ी है, उनका लालच बहुत गहन है। अब वे केवल क्षणिक सुखों से संतुष्ट नहीं हो सकते हैं। उनका लोभ परिपूर्णता पर है और यह लोभ अहंकार से संबंधित है। लोभ ही अहंकार की भूख है।
इसलिए ऐसा होता है कि कभी-कभी पापियों और दुराचारियों की अपेक्षा, साधु-संत कहीं अधिक अहंकारी होते हैं और तब वे उस परमात्मा से कहीं दूर चले जाते हैं। कभी-कभी पापी अथवा अपराधी उन तथाकथित संतों की अपेक्षा परमात्मा को कहीं अधिक सरलता से उपलब्ध हो पाते हैं, क्योंकि अहंकार ही उन संतों की एकमात्र बाधा है। यह मेरा अनुभव रहा है कि संतों की अपेक्षा पापी अथवा अपराधी कहीं अधिक सरलता से अपने अहंकार को छोड़ पाते हैं क्योंकि वे उसका विरोध नहीं करते हैं। वे अपने अहंकार को पुष्ट करते हैं, वे उसमें आनंद लेते हैं और वे उसके साथ समग्रता से जीते हैं। संत हमेशा अहंकार के साथ लड़ते रहे हैं, इसलिए वे अपने अहंकार को कभी भी परिपक्व होने की अनुमति ही नहीं देते हैं।
इसलिए यह मेरा दृष्टिकोण है कि अहंकार को छोड़ना है, लेकिन इस प्रक्रिया के लिए एक लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है और तुम उसे तभी छोड़ सकते हो, यदि पहले तुम उसे विकसित करते हो। पूरी घटना घटने के लिए कठोर परिश्रम करना है, क्योंकि मन कहता है : ‘यदि हमें इसे छोड़ना ही है, तब उसे विकसित क्यों किया जाए’ मन कहता है : ‘जब हमें उसे नष्ट करना है, तब उसे सृजित ही क्यों किया जाए’ यदि तुम मन की बात सुनते हो तो तुम कठिनाई में पड़ोगे। मन हमेशा तर्क-वितर्क पूर्ण होता है और जीवन हमेशा अतार्किक है, इसलिए तर्क और जीवन कभी भी आपस में नहीं मिलते। यह एक सामान्य-सा तर्क है, साधारण सा गणित है कि यदि तुम्हें इस घर को नष्ट करना है, तब उसे बनाया ही क्यों जाए? इस पूरी मुसीबत को क्यों मोल लिया जाए? यह प्रयास ही क्यों किया जाए, जिससे तुम्हारा समय और ऊर्जा व्यर्थ नष्ट हो। घर वहां है ही नहीं, इसलिए उसे बनाकर बाद में पुनः नष्ट क्यों किया जाए?
वास्तव में लक्ष्य घर नहीं है, लक्ष्य तुम हो। घर के निर्माण की प्रक्रिया में तुम्हारे भीतर कुछ बदलता है और निर्माण के बाद जब घर को नष्ट किया जाएगा तो तुम पूरी तरह ही बदल जाओगे, तुम वैसे ही नहीं बने रहोगे क्योंकि बाहर घर को बनाने की पूरी प्रक्रिया के साथ साथ, तुम्हारे भीतर भी अहंकार के विकास की प्रक्रिया चल रही थी। जब घर तैयार हो जाता है, तुम उसे पुनः नष्ट कर देते हो, नीचे गिरा देते हो, तब एक अकथनीय परिवर्तन होगा।
मन तर्कपूर्ण है और जीवन द्वंदात्मक है। मन एक सीधी सरल रेखा में गतिशील होता है और जीवन हमेशा एक छोर से छलांग लगाकर दूसरे पर जाता है, जीवन सदा विरोधाभास से भरा हुआ है। जीवन द्वंदात्मक है। जीवन कहता है, सृजन करो और फिर उसी का विध्वंस करो। जन्म लो और मृत्यु की तरफ जाओ। समृद्ध बनो और फिर निर्धन हो जाओ। जीवन कहता है कि अहंकार के सर्वोच्च गौरीशंकर शिखर पर पहुंचो और तब निरअहंकारिता की एक गहरी खाई बन जाओ। ऐसे में तुम दोनों ध्रुवों को ही जान लेते हो- भ्रांति को और सत्य को, माया को और ब्रह्म को भी।
लगभग प्रतिदिन ऐसा होता है, कोई भी व्यक्ति संन्यास में दीक्षित होने के लिए आता है और तब उसका मन भी कार्य करना शुरू कर देता है तथा वह मुझसे कहता है : ‘नारंगी वस्त्र पहनना मुझे कहीं अधिक अहंकारी बनाएगा, क्योंकि तब मैं अनुभव करूंगा कि मैं कोई भिन्न और विशिष्ट व्यक्ति हूं, मैं एक संन्यासी हूं, एक वह व्यक्ति हूं जिसने परित्याग किया है। इसलिए नारंगी रंग के वस्त्र पहनना मुझे अधिक अहंकारी बनाएगा।’ मैं उससे कहता हूं- ‘अहंकारी ही बनो, लेकिन सचेत बने रहो।’
यदि तुम उसके प्रति मूर्च्छित हो तो अहंकार एक रुग्णता है और तुम अपने अचेतन में उसे छिपाते हो। तुम उसका आनंद ले सकते हो। तुम उससे खेल सकते हो। सचेत और सावधान होकर उस खेल को खेलो। खेल बुरा नहीं है, लेकिन जब तुम भूल जाते हो कि यह एक खेल है और बहुत अधिक गंभीर बन जाते हो, तब समस्या उत्पन्न होती है।
इसलिए मैं कहता हूं कि संन्यास लेना एक गंभीर बात नहीं है, वह एक खेल है, निश्चित रूप से एक धार्मिक खेल है। इस खेल के अपने नियम हैं, क्योंकि प्रत्येक खेल के कुछ नियम होना अनिवार्य है और बिना नियमों के कोई भी खेल नहीं खेला जा सकता। जीवन बिना नियमों के हो सकता है, लेकिन खेल बिना नियम के नहीं हो सकते।
यदि कोई व्यक्ति कहता है : ‘मैं इस नियम का अनुसरण नहीं करूंगा’, तब तुम वह खेल नहीं खेल सकते। तुम ताश खेलते हो, तब तुम नियमों का अनुसरण करते हो। तुम यह कभी नहीं कहते : ‘ये नियम केवल बेबुनियाद और नकली हैं, क्या हम इन्हें बदल नहीं सकते’ तुम उन्हें बदल सकते हो, लेकिन तब खेलना कठिन हो जाएगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने नियमों का अनुसरण करता है, तब खेलना असंभव है।
जीवन में यह संभव है। तुम जैसे चाहो खेल सकते हो, क्योंकि जीवन कभी भी नियमों में विश्वास नहीं करता, वह नियमों के पार है। लेकिन खेलों के नियम होते हैं, इसलिए स्मरण रहे, जहां कहीं भी तुम नियम देखते हो, तुरंत जान लो कि यह एक खेल है। यही मापदंड है : जहां कहीं भी तुम नियमों को देखो, तुरंत जान लेना कि यह एक खेल है, क्योंकि खेल नियमों के द्वारा ही अस्तित्व में हैं।
इसलिए मैं कहता हूं- ‘नारंगी वस्त्र पहनो, माला पहनो।’ स्पष्ट रूप से यह एक खेल है। इसे जितनी अच्छी तरह खेल सकते हो, खेलो, इस बारे में गंभीर मत बनो, अन्यथा तुम उसके प्रयोजन से चूक जाते हो। अहंकारी बनो, पूर्ण रूप से विकसित और परिष्कृत बनो। अपने अहंकार पर कार्य किए जाओ और उसे एक सुंदर मूर्ति बनाओ। इससे पहले कि तुम इस अहंकार को अस्तित्व को वापस दो, उसमें देने योग्य कुछ चीज़ अवश्य होनी चाहिए, उसे एक उपहार जैसा होना चाहिए।

दूसरा प्रश्नः
ओशो! आपने कहा है कि आंतरिक रूपांतरण की विधि को प्राप्त करने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। कृपया ऊर्जा के विषय में बताएं कि कैसे हम उसका निर्माण कर सकते हैं, कैसे उसे संरक्षित कर सकते हैं और किन कारणों से हम उसे खो देते हैं? क्या हम बाहरी स्रोतों से भी उसे प्राप्त कर सकते हैं?

पहली बात यह कि तुम उस शाश्वत ऊर्जा का एक भाग हो और इस अनंत सागर की एक लहर हो। यदि तुम इसे स्मरण रख सकते हो तो तुम कभी भी ऊर्जा को गंवाते नहीं हो, क्योंकि ऊर्जा का अनंत स्रोत सदा उपलब्ध है। तुम केवल एक लहर हो और तुम्हारे ही अंदर नीचे गहराई में वह सागर छिपा हुआ है।
तुम जन्म लेते हो, कौन तुम्हें जन्म देता है? शरीर के भीतर गर्भ में प्रवेश करने के लिए कौन तुम्हें ऊर्जा देता है? शरीर को एक स्वचालित, एक संवेदनशील और एक सूक्ष्म यंत्रप्रणाली की तरह कार्य करने के लिए और उसे जीवित बनाए रखने के लिए कौन ऊर्जा देता है? शरीर सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष अथवा नब्बे वर्ष तक लगातार जीवित रहता है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि मृत्यु तो एक दुर्घटना अथवा एक संयोग है और शरीर अनंत समय तक इसी प्रकार जीवित रह सकता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मृत्यु के अस्तित्व की अब कोई भी आवश्यकता नहीं है। मृत्यु घटित होती है क्योंकि हम अपने चारों ओर की अनंत ऊर्जा का प्रयोग कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं।
इसलिए पहली बात यह स्मरण रखने की है कि तुम अनंत ऊर्जा के एक भाग हो। निरंतर इसे स्मरण रखो और उसे अनुभव भी करो। घूमते हुए, चलते हुए, भोजन करते और सोते हुए, हर पल यह अनुभव करो कि तुम अनंत ऊर्जा हो। उपनिषद् भी यही कहते हैं कि तुम ब्रह्म हो, शाश्वत हो। यदि हमेशा तुम यह अनुभव कर सको कि तुम ही ब्रह्म हो और शाश्वत हो, जितना ज्यादा तुम इस भाव में रहोगे उतना ही तुम सजग बनोगे कि तुम ऊर्जा को किसी भी प्रकार से गंवा नहीं रहे हो। स्रोत सदैव ही उपलब्ध रहता है। तुम केवल एक वाहन बन जाते हो।
तब जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वही करो। कार्य करने से ऊर्जा नष्ट नहीं होती है।
मनुष्य के मन के भ्रमों में से एक यह भी है कि यदि वह कुछ कार्य करता है तो ऊर्जा नष्ट होती है। नहीं, यदि तुम ऐसा सोचते हो कि तुम्हारे कुछ करने से तुम्हारी ऊर्जा का क्षय हो रहा है, तो वह क्षय तुम्हारे कुछ करने से नहीं, वास्तव में तुम्हारे इस विचार के कारण ही हो रहा है। अन्यथा किसी भी क्रिया द्वारा तुम ऊर्जा प्राप्त कर सकते हो। यदि इस संबंध में तुम कोई भी विचार न रखो तो भी ऊर्जा का कोई क्षरण नहीं होता है।

जब लोग सेवानिवृत्त हो जाते हैं, वे यह सोचना शुरू कर देते हैं कि अब उनके पास कम ऊर्जा है, इसलिए उन्हें सभी काम छोड़ कर ज्यादा से ज्यादा आराम करना चाहिए। उन्हें कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए, अन्यथा उनकी ऊर्जा समाप्त हो जाएगी। और ऐसे में वे अपने निश्चित समय की तुलना में कहीं अधिक जल्दी मर जाते हैं। सांख्यिकी गणना के अनुसार औसत जीवन काल की दर दस वर्ष तक कम हो गई है। एक व्यक्ति जो कार्य कर रहा है वह सत्तर वर्ष तक जीवित रह सकता है परंतु जो सेवानिवृत्त है वह साठ वर्ष की आयु में ही मर जाएगा।
तुम्हारा शरीर एक डाइनमो की भांति है, जितना अधिक तुम उसका प्रयोग करते हो, उतनी ही अधिक ऊर्जा तुम्हें अनंत स्रोत से प्राप्त हो जाती है। यदि तुम उसका उपयोग ही नहीं करते हो तो अधिक ऊर्जा की आपूर्ति करने की आवश्यकता ही नहीं है। तब धीमे-धीमे अनंत स्रोत से होने वाली यह आपूर्ति रुक जाती है। इसलिए अधिक-से-अधिक सक्रिय बनो और तुम्हारे पास अधिक ऊर्जा होगी। कम सक्रिय होने से तुम उस अनंत ऊर्जा के प्रवाह को गंवा दोगे। क्रियाशील होने से ऊर्जा का क्षय नहीं होता है, अपितु उसका नवीनीकरण होता है। तुम ऊर्जा का प्रयोग करते हो तो अज्ञात एवं अनंत स्रोत से और अधिक ऊर्जा तुम्हें उपलब्ध हो जाती है।
वृक्षों की ओर देखो। सूरज जैसे ही उदय होता है वैसे ही वृक्षों की पत्तियों में से पानी का भाप बनना प्रारंभ हो जाता है। जिस क्षण एक पत्ती का जल, वाष्प बनता है उसी क्षण जड़ों से नया जल परिभ्रमण करता हुआ उस पत्ती तक पंहुच जाता है। यह एक लंबी प्रक्रिया है। पत्ती जल को मुक्त करती है, तब ठीक उस पत्ती के आसपास शुष्कता उत्पन्न हो जाती है। वह शुष्कता तुरंत ही टहनी से जल को चूस लेती है और तब टहनी शुष्क हो जाती है और टहनी शाखाओं से जल चूसती है। यही क्रम नीचे जड़ों तक चलता रहता है और अंत में जड़ें पृथ्वी से जल चूसती हैं। यदि पत्तियां यह सोचें कि हमारा जल भाप बन जाएगा और हम मर जाएंगी, हमें प्यास का अनुभव होगा, तब यह वृक्ष मरने जा रहा है, क्योंकि तब नए स्रोत उपलब्ध नहीं होंगे और तब जड़ें भी कार्य करने में समर्थ न हो सकेंगी।
तुम्हारे पास भी जड़ें हैं, जो अनंत तक फैली हुई हैं। जब तुम ऊर्जा का प्रयोग करते हो, तुम उस अनंत स्रोत से ऊर्जा ग्रहण करते हो। तुम्हारी जड़ें कार्य करना प्रारंभ कर देती हैं। मनुष्य के मन में यह एक भ्रामक विचार है कि क्रियाशील होने पर हम ऊर्जा गंवा देते हैं। नहीं, तुम जितने अधिक सक्रिय होगे, तुम्हारे पास उतनी ही अधिक ऊर्जा होगी। तुम जितने कम सक्रिय होगे, उतनी ही कम ऊर्जा का प्रवाह जीवन की सभी दिशाओं से तुम्हें मिल पाएगा। सक्रियता के संदर्भ में, यह बात जीवन के सभी आयामों पर लागू होती है।
अधिक प्रेम करो और तब तुम्हारे पास अत्याधिक प्रेम होगा, तुम देने में सक्षम हो पाओगे। एक कंजूस की तरह सोचो- ‘यदि मैं अधिक प्रेम करता हूं तब मेरा प्रेम बिखर जाएगा और कभी न कभी मेरे पास प्रेम की कमी हो जाएगी, इसलिए अच्छा यही है कि मैं अपना प्रेम सुरक्षित रखूं।’ तब तुम्हारा प्रेम मर जाएगा और तुम प्रेम करने के योग्य ही नहीं रहोगे, न स्वयं को और न दूसरे को।
प्रेम करो... इससे और अधिक प्रेम उपलब्ध होता है। तुम्हारे पास जो भी है, उसका अधिक प्रयोग करागे तो और अधिक तुम्हारे पास होगा। जीवन का यही नियम है। तुम मिठाई का स्वाद तभी ले सकते हो जब उसे खाओगे, यदि बचाने की कोशिश करोगे तो तुम भी स्वाद न ले पाओगे और मिठाई भी खराब हो जाएगी। करुणा, प्रेम अथवा सक्रियता- चाहे कोई भी आयाम हो, सभी में यह समान नियम लागू होता है। तुम जिस भी आयाम में अधिक प्रगाढ़ होना चाहते हो, उसमें इसी नियम का पालन करो। यदि तुम प्रेम का अनंत स्रोत बनना चाहते हो, तो जितना हो सके उतना अधिक प्रेम बांटो, तुम उसे बेशर्त बांटते चले जाओ। कंजूस मत बनो, केवल कंजूस लोग ही ऊर्जा को गंवा देते हैं। हम सभी लोग कंजूस हैं, इसी कारण हम हमेशा अपव्यय का, खालीपन का अनुभव करते हैं।
लेकिन यह विचार खतरनाक और जहरीला हो सकता है। यदि तुम्हारे पास एक विचार है, तब वह विचार कार्य करता है। मन सम्मोहन के द्वारा कार्य करता है। उदाहरण के लिए, कुछ दशक पहले तक संसार-भर में यह सिखाया जाता था कि तुम्हारे पास सेक्स-ऊर्जा का अत्यंत सीमित भंडार है। तुम प्रेम करते हो तो ऊर्जा नष्ट होती है। इस एक विचार ने संसार-भर में सेक्स-ऊर्जा को कंजूसी से प्रयोग करने की धारणा को जन्म दिया। यह विचार ही भ्रमपूर्ण है। लेकिन यदि तुम्हारे मन में यह विचार प्रवेश कर गया है, तब तुम जब भी प्रेम करोगे तो निरंतर स्वयं-सम्मोहन के परिणाम स्वरूप, अपनी ऊर्जा के नष्ट होने का अनुभव करोगे। इस तरह के अनुभव से ऊर्जा व्यर्थ नष्ट हो रही है, ऊर्जा का अपव्यय हो रहा है। यह विचार तुम्हारे मन में गहराई से अंकित हो जाता है।
जब तुम प्रेम करते हो तो तुम इतने अधिक संवेदनशील और ग्राह्यशील हो जाते हो कि तुम उस समय जो भी सोचते हो, वह तुम्हारे भीतर गहराई में चला जाता है। तब परिणाम उसका अनुसरण करते हैं और तुम अपनी ऊर्जा के नष्ट होने का अनुभव करते हो। तुम्हारे ऐसा अनुभव करते ही सच में ऊर्जा क्षय हो जाती है। अतः जब तुम ऊर्जा के नष्ट होने का अनुभव कर रहे हो, तब पुराना विचार और अधिक मजबूत तथा शक्तिशाली बन रहा है। यह एक दुष्चक्र बन जाता है।
अब वैज्ञानिक, कुछ जैव-विज्ञानी कहते हैं कि तुम्हारे पास सेक्स की अनंत ऊर्जा है और तुम उसे कभी भी गंवा नहीं सकते हो क्योंकि प्रतिदिन तुम्हारे भोजन से, सांस लेने से और तुम्हारी क्रियाशीलता के कारण वह ऊर्जा निरंतर सृजित हो रही है। वह किसी सीमित भंडार की भांति नहीं है कि यदि एक विशिष्ट मात्रा में तुम उसका उपयोग कर लेते हो, तो उतनी मात्रा कम हो जाएगी या तुम्हारा भंडार कम हो जाएगा। नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। वहां ऊर्जा का सीमित भंडार नहीं है बल्कि ऊर्जा निरंतर निर्मित हो रही है, हर पल निर्मित हो रही है। यदि तुम इसका उपयोग नहीं करते हो, तो वह बासी हो जाती है और मृत हो जाती है। यदि तुम उसका प्रयोग नहीं करते हो तो वह तुम्हें भी बासी, पुराना और मृत बना देती है। तब ऊर्जा का प्रवाह रुक जाता है। लेकिन यदि तुम ऊर्जा को प्रवाहित होने का अवसर प्रदान करते हो तो वह निरंतर और अधिकाधिक मात्रा में तुम्हारे लिए उपलब्ध रहती है।
जीसस एक अद्भुत एवं आधारभूत बात कहते हैं : ‘यदि तुम जीवन को जोर से जकड़ लेने का प्रयास करते हो तो तुम जीवन को गंवा देते हो। यदि तुम उसे खोने के लिए तैयार हो तो वह प्रचुरता में तुम्हें उपलब्ध हो जाता है।’
पूरे संसार में बीसवीं सदी तक यही सिखाया जाता था कि किसी भी तरह से यदि तुम्हारे वीर्य का स्खलन होता है तो वह अत्याधिक विनाशकारी है, तुम पागल हो सकते हो, अपंग हो सकते हो। यदि शारीरिक तौर पर कोई नुकसान न भी हो तो कम-से-कम तुम्हारी बुद्धिमत्ता तो कम हो ही जाएगी। तुम्हारे सनकी या पागल या दिमागी कमज़ोर होने की संभावना अधिक हो जाएगी। यह सब पूर्ण रूप से गलत है। लेकिन इस शिक्षा ने अनेक लोगों को निर्बल बना दिया, पागल बना दिया, अनेक लोग मूर्ख और सामान्य बुद्धि तक ही सीमित रहे। हालांकि यह केवल एक विचार था... अत्यंत खतरनाक विचार। जब बच्चा बड़ा होता है, चौदह अथवा पंद्रह वर्ष की आयु में जब वह बच्चा विकसित और परिपक्व बनता है तो उसका वीर्य स्वतः ही स्खलित होने लगता है। वह इस बारे में कुछ भी नहीं जानता है और न ही कुछ कर सकता है। वह हस्तमैथुन करेगा और यदि उसमें नैतिकता का स्तर ऊंचा है, तो वह हस्तमैथुन नहीं करेगा बल्कि रात में स्वप्नदोष में वह अपने वीर्य को खो देगा। इस तरह चारों ओर यह प्रचार होता चला गया कि यदि तुम अपना वीर्य खोते हो तो तुम सब कुछ खो दोगे।
भारत में यह कहा जाता था और लोग अब भी यह कहते पाए जाते हैं कि यदि पुराने संतों और उनके अनुयायियों के पास जाओ तो वे बताते हैं : ‘वीर्य की एक भी बूंद गिरने का अर्थ है कि शरीर की चालीस दिनों के कार्य करने की ऊर्जा नष्ट हो गई। इसलिए वीर्य की एक बूंद का सृजन करने के लिए शरीर को चालीस दिनों तक श्रम करना होगा। वीर्य की एक बूंद भी नष्ट हो गई तो शरीर के चालीस दिनों का श्रम व्यर्थ नष्ट हो गया।’
छोटे बच्चे इस बारे में कुछ भी नहीं जानते, उनमें बहुत अधिक ग्राह्यता होती है, इसलिए जब पूरा समाज यह शिक्षा देता है, तो वे उसके द्वारा सम्मोहित हो जाते हैं। वे इस संदर्भ में कुछ भी नहीं कर पाते हैं क्योंकि जब शरीर तैयार होता है तो वीर्य स्वतः ही प्रवाहित होता है और वीर्य बाहर जाने को बाध्य हो जाता है। यह शिक्षा उन्हें चारों ओर से दी जा रही है और वे दुविधा के कारण किसी भी व्यक्ति को यह बता भी नहीं सकते कि वे अपना वीर्य खो रहे हैं। वे इस बात को छिपाते हैं। वे अंदर से दुखी होते हैं और निरंतर एक यातना से गुज़रते हैं। तब वे स्वयं को एक अपवाद मानने लगते हैं, क्योंकि वे यह नहीं जानते कि प्रत्येक व्यक्ति इसी चीज़ से होकर गुज़र रहा है। कोई भी व्यक्ति इस बारे में न तो कुछ बोलता है और न ही कोई बात करता है और यदि कोई बात करता भी है तो विरोध में ही करता है।

इसलिए प्रत्येक युवा स्वयं को अपवाद ही मानता है, क्योंकि वह सोचता है कि केवल वह ही इस पीड़ा से गुजर रहा है। शीघ्र ही वह संभ्रमित होने लगता है, वह अनुभव करेगा कि उसकी बुद्धिमत्ता में कमी हो रही है, वह पागल होता जा रहा है और उसका जीवन नष्ट हो गया है।
अनेक लोग मुझे पत्र लिखते हैं और उनका कहना है कि उन्होंने इतना अधिक वीर्य नष्ट कर दिया है जिससे उनका संपूर्ण जीवन बर्बाद हो गया है और उन्होंने अपनी अत्याधिक काम-ऊर्जा नष्ट कर दी है। यह विचार बहुत भयानक है और यदि विचार ऐसा है तो परिणाम भी ऐसा ही घटित होगा। यह सब सम्मोहन के द्वारा होता है।
कोई भी विचार एक सहायक की तरह भी काम कर सकता है और एक अवरोध भी बन सकता है। बिल्कुल निर्विचार हो जाना बहुत कठिन है। इसलिए मन की निर्विचार अवस्था में प्रवेश कर पाने के पूर्व, जब सब कुछ सहज एवं स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है, उससे पूर्व, मन में इस विचार का होना बेहतर है कि तुम अनंत ऊर्जा के एक भाग हो। सक्रिय होने पर तुम ऊर्जा को गंवा नहीं रहे हो बल्कि उसे ग्रहण कर रहे हो। ऊर्जा देने पर वह कम नहीं हो रही है बल्कि तुम्हें और अधिक मात्रा में प्राप्त भी हो रही है।
प्रेम, सेक्स, सक्रियता- हर बात में, हमेशा याद रखना और इस विचार से भरे रहना कि जब कभी भी तुम कुछ दे रहे हो, तुम्हें अनंत स्रोत रूपी जड़ों के माध्यम से, उससे कहीं अधिक उपलब्ध हो जाता है, तुम्हें उससे अधिक दे दिया जाता है। वह परम ऊर्जा अथवा परमात्मा अथवा अस्तित्व स्वयं देता है और वह बेशर्त बांटता है।
यदि तुम भी एक दाता हो तो तुम्हारे हाथ हमेशा खाली रहेंगे परंतु अस्तित्व तुम्हें और अधिक दे सकता है। यदि तुम एक कंजूस हो तो परमात्मा से, उस दिव्य सत्ता से तुम्हारा संबंध टूट सकता है। तब तुम एक छोटी-सी तरंग की भांति हो जाते हो जो सदैव ही खोने के भय से आतंकित है। जो दे सकते हैं उन्हें और अधिक दिया जाता है।
एक सागर की भांति जियो, एक सागर ही हो जाओ। कभी भी खोने या गंवाने के बारे में मत सोचो। तुमने कुछ भी नहीं खोया है और न ही कुछ खोया जा सकता है। और तुम एक अकेले व्यक्ति नहीं हो, तुम केवल एक व्यक्ति की भांति प्रतीत होते हो, वास्तव में पूरा अस्तित्व तुमसे जुड़ा हुआ है। तुम उस पूर्ण अस्तित्व के केवल एक चेहरे मात्र हो, तुम्हारे रूप में वह विराट अस्तित्व प्रकट हुआ है। इस बारे में फिक्र मत करो। अस्तित्व का कभी भी अंत नहीं होने जा रहा है। यह अस्तितव प्रारम्भहीन और अंतहीन है, यह आदि है... अनंत है।
उत्सव में रहो, आनंद मनाओ, सक्रिय बने रहो और हमेशा बांटते रहो। पूरी समग्रता से, बिना कुछ बचाए या बिना कोई पकड़ बनाए, केवल देने वाले बन जाओ... यही असली प्रार्थना है। देना ही अपने आप में प्रार्थना पूर्ण कृत्य है। देना ही प्रेम है। और वे लोग जो दे सकते हैं उन्हें हमेशा और अधिक दिया जाता है।

आज इतना ही।

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