और फूलों की बरसात हुई-आठवां
तोज़ान के पांच पाउन्ड़स
सद्गुरु तोज़ान भंडारघर में
कुछ पटसन को तौल रहा था।
एक भिक्षु उसके पास आया
और उससे पूछा-‘‘बुद्ध कौन है?’’
तोज़ान ने कहा-‘‘इस पटसन
का भार पांच पाउंड्स है।
धर्म का दार्शनिक प्रश्नों और उत्तरों के साथ कोई भी संबंध नहीं है। इस तरह से देखते चले जाना मूर्खता है और जीवन, समय, ऊर्जा और चेतना को केवल व्यर्थ नष्ट करना है, क्योंकि तुम पूछे चले जा सकते हो और उत्तर भी दिए जा सकते हैं- लेकिन उत्तरों से केवल अधिक प्रश्न ही प्रकट होंगे। यदि प्रारंभ में वहां केवल एक प्रश्न था तो अंत में अनेक उत्तरों द्वारा वहां लाखों प्रश्न होंगे।
दर्शनशास्त्र अर्थात तत्वज्ञान कुछ भी हल नहीं करता है। वह वायदे करता है लेकिन कभी भी किसी भी समस्या का उत्तर नहीं खोज पाता। वे सभी वायदे अधूरे बने रह जाते हैं। तब भी वह वायदे किए चले जाता है। लेकिन वह अनुभव जो मन की पहेलियों को सुलझा सकता है, दार्शनिक विचारों और कल्पनाओं द्वारा उपलब्ध नहीं हो सकता।
बुद्ध पूर्ण रूप से दर्शनशास्त्र के विरुद्ध थे, बुद्ध की अपेक्षा दर्शनशास्त्र के विरुद्ध कभी भी उनसे अधिक कोई भी व्यक्ति नहीं हुआ है। अपने ही कटु अनुभव के द्वारा उनकी यह समझ में आया कि दर्शनशास्त्र की वह सभी गंभीरता और गूढ़ता केवल बहुत उथली है। यहां तक कि सबसे अधिक महान दार्शनिक भी किसी अन्य व्यक्ति जैसा सामान्य बना रहता है। उसके द्वारा किसी भी समस्या को सुलझाना तो दूर उसे स्पर्श तक भी नहीं किया गया है। वह बहुत अधिक ज्ञान और अनेक उत्तरों को साथ लेकर चलता है लेकिन वह अपनी वृद्धावस्था में भी वैसा ही बना रहता है और उसे कोई भी नूतन जीवन घटित नहीं होता है। और पहेली है- महत्वपूर्ण विषय का केंद्र वह मन, जो एक प्रश्न खड़े करने वाला विभाग है, वह किसी भी तरह के प्रश्न खड़े कर सकता है, तब वह उनके उत्तर देने के द्वारा स्वयं को ही बेवकूफ बना सकता है लेकिन तुम ही प्रश्नकर्ता हो और तुम ही वह व्यक्ति हो जो उनको हल करता है।
अज्ञान प्रश्नों को सृजित करता है और अज्ञान ही उत्तर सृजित करता है- वही समान मन दोनों भागों का सृजन करता है। प्रश्न करने वाला मन कैसे एक उत्तर तक आ सकता है? नीचे गहराई में मन स्वयं एक प्रश्न है।
इसलिए दर्शनशास्त्र मन के प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता है और धर्म वास्तविक आधार की ओर देखता है। मन ही प्रश्न है और जब तक मन नहीं गिरा दिया जाता है तुम्हारे सामने उत्तर प्रकट नहीं होगा- मन उसकी अनुमति नहीं देता क्योंकि मन ही अवरोध और एक दीवार है। जब वहां कोई मन नहीं होता है, तुम एक अनुभव करने वाले अस्तित्व होते हो और जब मन वहां होता है तुम शब्दों के प्रयोग करने वाले एक निपुण व्यक्ति होते हो।
एक छोटे से स्कूल में एक बार ऐसा हुआ कि वहां एक बहुत मूर्ख लड़का था। उसने कभी भी कोई प्रश्न नहीं पूछा था और शिक्षिका भी उसकी उपेक्षा करती थी, लेकिन एक बार जब शिक्षिका अंकगणित की एक विशिष्ट समस्या की व्याख्या कर रही थी और बोर्ड पर कुछ अंक लिख रही थी, वह बहुत अधिक उत्तेजित हो गया। वह बच्चा बार-बार अपना हाथ ऊपर उठा रहा था और बहुत अधिक उत्तेजित था क्योंकि वह कोई बात पूछना चाहता था। जब शिक्षिका ने समस्या हल करने के बाद अपनी बात समाप्त की और बोर्ड पर लिखे गए अंकों को मिटा दिया तो वह बहुत अधिक प्रसन्न हुई कि पहली बार इस बच्चे ने इतना अधिक उत्तेजित होकर कोई बात पूछी। उसने उससे कहा-‘‘मैं प्रसन्न हूं कि तुम कुछ बात पूछने के लिए तैयार हो। आगे बढ़कर उसे पूछो।’’
बच्चा खड़ा हो गया और उसने कहा-‘‘मैं बहुत परेशान हूं और यह प्रश्न बार-बार मेरे अंदर उठता था लेकिन मैं उसे पूछने का साहस न जुटा सका। आज मैंने तय कर लिया है कि पूंछू कि जब आप बोर्ड से उन अंकों और संख्याओं को साफ कर देती हैं तो वे कहां चले जाते हैं?’
सभी प्रश्नों के समान यह प्रश्न भी बहुत अधिक दार्शनिकता से भरा हुआ है। अनेक लोग पूछते हैं कि जब एक बुद्ध मर जाता है तो वह कहां जाता है? परमात्मा कहां है? प्रश्न समान हैं। सत्य क्या है? यह प्रश्न भी वैसा ही है लेकिन तुम प्रश्नों में छिपी हुई बेवकूफी का अनुभव नहीं कर सकते क्योंकि वे बहुत अधिक गूढ़ दिखाई देते हैं और उनकी एक लंबी परंपरा है- लोग हमेशा से ही उन्हें पूछते आए हैं और जिन लोगों के बारे में तुम सोचते हो कि वे बहुत महान हैं, उनके साथ उनका संबंध बना रहा है : और वे उनके उत्तर खोजते हुए सिद्धांत बनाते हुए व्यवस्थाएं सृजित करते रहे हैं लेकिन पूरा प्रयास ही व्यर्थ है क्योंकि सोचना नहीं केवल अनुभव ही तुम्हें उत्तर दे सकता है। और यदि तुम सोचते चले जाओ तो तुम अधिक-से-अधिक पागल बनते जाओगे और उत्तर तब भी बहुत दूर होगा तथा वह सदा की अपेक्षा भी और अधिक दूर होगा।
बुद्ध कहते हैं कि मन जब प्रश्न करना बंद कर देता है तभी उत्तर घटित होता हैं यह इस कारण है कि तुम्हारा प्रश्न के साथ बहुत अधिक संबंध जुड़ गया है कि तुम्हारे अंदर उत्तर प्रवेश नहीं कर सकता। तुम ऐसी कठिनाई में हो, तुम इतने अधिक परेशान और इतने अधिक तनावग्रस्त हो कि सत्य तुम्हारे अंदर प्रवेश नहीं कर सकता। तुम अंदर इतने अधिक हिल रहे हो, भय से और मानसिक रुग्णता से इतने अधिक कांप रहे हो और मूर्खतापूर्ण प्रश्नों तथा उत्तरों के साथ, व्यवस्थाओं, सिद्धांतों और तत्वज्ञान के साथ बहुत अधिक भरे हुए हो।
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी कार में एक कस्बे से होकर गुजर रहा था। अनेक स्थानों पर कई लोग भीड़ में इकट्ठे थे और प्रत्येक व्यक्ति किसी स्थान अथवा दूसरी इकट्ठी भीड़ में था। तब उसने एक पुलिस का सिपाही देखा और उसने उसे रोककर पूछा-‘‘आखिर मामला क्या है? क्या कुछ बात गलत हो गई है? आखिर हुआ क्या है? मैं लोगों को कहीं भी कार्य करते हुए, चलते हुए अथवा दुकानों में नहीं देख रहा हूं- और वे लोग अनेक झुडों में इकट्ठे हैं।’’
सिपाही अपने कानों पर विश्वास ही न कर सका। उसने कहा-‘‘आप क्या पूछ रहे हैं? ठीक अभी वहां एक भूकंप आया था। अनेक घर गिर पड़े और बहुत लोग मर गए हैं।’’
तब सिपाही ने पूछा-‘‘मैं विश्वास नहीं कर सकता कि आप भूकंप को महसूस नहीं कर सके।’’
नसरुद्दीन ने कहा-‘‘शराब के कारण मैं हमेशा ही इतना अधिक हिलता रहता हूं और मेरे हाथ उद्विग्नता और घबराहट से कांपते रहते हैं कि मैं उससे चूक गया।’’
यदि तुम्हारे अंदर निरंतर एक भूकंप चल रहा हो तो असली भूकंप तुम्हारे अंदर प्रवेश करने में समर्थ न हो सकेगा। जब तुम शांत और स्थिर होते हो तभी वास्तविकता घटित होती है। प्रश्न करना अंदर से कांप जाना है। प्रश्न करने का अर्थ है संदेह और संदेह का अर्थ है कांपना। प्रश्न करने का अर्थ है कि तुम किसी व्यक्ति पर विश्वास नहीं करते- प्रत्येक बात एक प्रश्न बन गई है और जब प्रत्येक बात एक प्रश्न है तो वहां बहुत अधिक व्यग्रता होगी। क्या तुमने स्वयं अपना ही निरीक्षण किया है? प्रत्येक चीज़ एक प्रश्न बन जाती हैं यदि तुम दुखी हो तो यह एक प्रश्न है : क्यों? यदि तुम प्रसन्न भी हो तब भी यह एक प्रश्न है कि आखिर क्यों? तुम प्रसन्न होकर स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकते हो।
लोग जब ध्यान में गहरे जाते हैं और उनके पास झलकें होती हैं तो वे मेरे पास बहुत परेशान होकर आते हैं क्योंकि वे कहते हैं कुछ चीज़ घटित हो रही हैं और वे विश्वास नहीं कर सकते कि यह उनको ही घटित हो रहा है कि एक पूर्णानंद घटित हो सकता है और वहां अनिवार्य रूप से कुछ धोखा होना चाहिए। लोगों ने मुझसे पूछा है-‘‘क्या आप मुझे सम्मोहित कर रहे हैं? क्योंकि कुछ चीज़ घटित हो रही है।’’ वे विश्वास ही नहीं कर सकते कि वे आनंद में डूब सकते हैं और कोई व्यक्ति अनिवार्य रूप से उन्हें सम्मोहित कर रहा है। वे विश्वास ही नहीं कर सकते कि वे शांत और मौन हो सकते हैं- यह असंभव है। क्यों? आखिर मैं क्यों मौन हो गया हूं? कोई व्यक्ति बाज़ीगरी कर रहा है।
प्रश्न करने वाले मन के लिए विश्वास करना संभव नहीं है तुरंत ही अनुभव वहां आता है और मन एक प्रश्न सृजित करता है- क्यों? फूल वहां है- यदि तुम विश्वास करते हो तो तुम एक खिलते हुए सौंदर्य का अनुभव करोगे लेकिन मन कहता है- क्यों? यह फूल सुंदर क्यों कहा जाता है? सौंदर्य क्या होता है?- तुम भटकते जा रहे हो। तुम किसी के प्रेम में हो, मन पूछता है : क्यों? प्रेम क्या होता है?
ऐसा कहा जाता है कि संत आगस्टाइन ने कहा-‘‘मैं जानता हूं कि समय क्या होता है लेकिन जब लोग मुझसे पूछते हैं तो प्रत्येक चीज़ खो जाती है; और मैं उत्तर नहीं दे सकता। मैं जानता हूं कि प्रेम क्या होता है लेकिन तुम मुझसे पूछते हो कि प्रेम क्या होता है- और मैं घबरा जाता हूं, मैं उत्तर नहीं दे सकता। मैं जानता हूं परमात्मा क्या है लेकिन तुम पूछते हो तो मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता हूं।’’ और आगस्टीन ठीक है क्योंकि गूढ़ताओं को पूछा नहीं जा सकता, उन पर प्रश्न नहीं पूछा जा सकता। तुम एक रहस्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकते। यदि तुम एक प्रश्नचिह्न रखते हो तो प्रश्नचिह्न अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है और तब प्रश्न ही पूरे रहस्य से आच्छादित हो जाता है। यदि तुम सोचते हो जब तुम प्रश्न को हल कर लोगे, तब तुम उस रहस्य जिओगे पर तुम उसे कभी न जी सकोगे।
धर्म में प्रश्न करना असंगत है। श्रद्धा ही संगत है। श्रद्धा का अर्थ है बिना अधिक पूछते हुए उस अज्ञात अनुभव में गतिशील होना- और उसे जानने के लिए उसके द्वारा होकर जाना।
मैं तुम्हें बाहर की ओर एक सुंदर सुबह के बारे में बताता हूं और तुम यहां दीवारों से घिरे बंद कमरे में उसके बारे में प्रश्न पूछना शुरू कर देते हो और तुम चाहोगे कि बाहर की ओर कदम उठाने से पूर्व ही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया जाए। यदि तुमने कभी भी यह नहीं जाना है कि सुबह कैसी होती है तो मैं तुम्हें उसे कैसे बता सकता हूं? केवल शब्दों के द्वारा ही कुछ बताया जा सकता है, जो तुम पहले ही से जानते हो। मैं तुम्हें कैसे बता सकता हूं कि वहां प्रकाश है और वृक्षों के द्वारा सुंदर प्रकाश छन-छन कर आ रहा है, अभी-अभी सूर्यादय हुआ है और पूरा आकाश प्रकाश से आलोकित हो उठा है और यदि तुम सदा से ही अंधकार में रहे हो, यदि तुम्हारी आंखें केवल अंधेरे की ही अभ्यस्त हैं तो मैं तुम्हें कैसे स्पष्ट कर सकता हूं कि सूर्य का उदय हो चुका है।
तुम पूछोगे- तुम्हारे कहने का क्या अर्थ है? क्या तुम हमें धोखा देने का प्रयास कर रहे हो। हम अपने सभी जन्मों में जीवन जीते रहे हैं और हमने कभी भी प्रकाश जैसी किसी चीज़ के बारे में नहीं जाना है। पहले हमारे प्रश्नों का उत्तर दो और तब यदि हम कायल हो जाते हैं तो हम तुम्हारे साथ बाहर आ सकते हैं अन्यथा ऐसा प्रतीत होता है कि तुम हमारा नेतृत्व भटकाने के लिए कर रहे हो, तुम हमें हमारे शरण देने वाले जीवन से भटकाकर दूर कर रहे हो।
लेकिन यदि तुम प्रकाश के बारे में नहीं जानते हो तो कैसे उसके बाबत बताया जा सकता है? लेकिन यही है वह, जिसके बारे में तुम कह रहे हो : हमें परमात्मा के बारे में कायल करो, तभी हम ध्यान करेंगे, तभी हम प्रार्थना करेंगे और तभी हम उसकी खोज करेंगे। इस बारे में कायल होने से पूर्व हम कैसे खोज कर सकते हैं? हम कैसे उसकी तलाश में बाहर जा सकते हैं, जब हम नहीं जानते कि हम कहां जा रहे हैं?
यह अविश्वास है और इस अविश्वास के ही कारण तुम अज्ञात में गतिशील नहीं हो सकते। ज्ञात तुम्हें बांधता है और तुम ज्ञात के साथ लिपट जाते हो- और ज्ञात है मुर्दा अतीत। वह हो सकता हो सुविधामय रहा हो क्योंकि तुम उसमें रहे हो लेकिन अब वह जीवंत न होकर मृत है। जीवंत हमेशा ही अज्ञात होता है जो तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। उसके साथ गतिशील हो जाओ। लेकिन तुम बिना विश्वास के कैसे गतिशील हो सकते हो? और संदेह करने वाले व्यक्ति भी यह सोचते हैं कि उनके पास विश्वास है।
एक बार ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझे बतलाया कि वह अपनी पत्नी को तलाक देने के लिए सोच रहा है। मैंने उससे पूछा-‘‘क्यों? इतने अधिक अचानक रूप से ही क्यों?’’
नसरुद्दीन ने कहा-‘‘मुझे अपने प्रति उसकी वफादारी पर संदेह है।’’
इसलिए मैंने उससे कहा-‘‘जरा प्रतीक्षा करो, मैं तुम्हारी पत्नी से पूछूंगा।’’
इसलिए मैंने उसकी पत्नी से कहा-‘‘नसरुद्दीन शहर में चारों ओर यह अफवाह फैला रहा है कि तुम उसके प्रति वफादार नहीं हो और वह तुम्हें तलाक देने की सोच रहा है, इसलिए आखिर यह मामला क्या है?’’
उसकी पत्नी ने कहा-‘‘यह बहुत अधिक है। किसी भी व्यक्ति ने अभी तक मेरा ऐसा अपमान नहीं किया और मैं आपको बताती हूं कि मैं उसके प्रति दर्जनों बार वफादार बनकर रही हूं।’’
यह प्रश्न दर्जनों बार का नहीं है- तुम भी विश्वास करते हो लेकिन दर्जनों बार। वह विश्वास गहन नहीं हो सकता, वह केवल उपयोगिता के सिद्धांत का मानने वाला है। तुम तभी भरोसा करते हो जब तुम अनुभव करते हो कि उसकी कीमत अदा करनी होती है। लेकिन जब कभी अज्ञात तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है, तुम कभी भी भरोसा नहीं करते क्योंकि तुम नहीं जानते कि यदि वह कीमत अदा करने जा रहा है अथवा नहीं। आस्था और विश्वास लाभ के प्रश्न नहीं हैं- वे उपयोगी नहीं हैं, तुम उनका उपयोग नहीं कर सकते। यदि तुम उनका उपयोग करना चाहते हो, तुम उनका उपयोग नहीं कर सकते। यदि तुम उनका उपयोग करना चाहते हो, तुम उनको मार देते हो। वे तनिक भी कीमत अदा करने नहीं जा रहे हैं। तुम उनका आनंद ले सकते हो और तुम उनके बारे में आनंदित हो सकते हो- लेकिन वे कोई भी कीमत नहीं चुकाते।
वे इस संसार की शर्तों में कोई भी मूल्य नहीं चुकाते, इसके विपरीत पूरा संसार तुम्हें एक मूर्ख की भांति देखेगा क्योंकि संसार किसी ऐसे व्यक्ति के ही बुद्धिमान होने पर सोचता है यदि वह संदेह करता है, संसार किसी ऐसे व्यक्ति के ही बुद्धिमान होने पर विचार करता है, यदि वह प्रश्न करता है और संसार केवल उसी व्यक्ति के बुद्धिमान होने पर सोचता है जब वह दृढ़ विश्वास के साथ आगे बढ़ता है और वह कायल होने के पूर्व आगे न हीं बढ़ेगा। संसार की यही चालाकी और मक्कारी है तथा संसार ऐसे लोगों को ही बुद्धिमान कहता है।
जहां तक बुद्धों का संबंध है, (संसार की दृष्टि में) वे लोग मूर्ख हैं क्योंकि अपनी तथाकथित प्रज्ञा के द्वारा वे लोग सबसे अधिक असामान्य होने से ही चूक रहे हैं और इस असामान्यता का उपयोग नहीं किया जा सकता। तुम उसके साथ विलय हो सकते हो पर तुम उसका उपयोग नहीं कर सकते। उसकी कोई उपयोगिता नहीं है, वह एक वस्तु नहीं है, वह एक अनुभव है, वह एक परमानंद है। तुम उसे बेच नहीं सकते, तुम उससे कोई व्यापार नहीं कर सकते- वस्तुतः इसके विपरीत तुम उसमें पूरी तरह से खो जाते हो। तुम कभी भी वैसे ही समान नहीं बने रहोगे। वास्तव में तुम कभी भी वापस नहीं लौट सकते- वह कभी भी लौटकर न आने की वह स्थिति है कि यदि तुम जाते हो तो तुम चले ही जाते हो। तुम वापस नहीं लौट सकते। वहां जाकर लौटना नहीं होता। वह खतरनाक है।
इसलिए केवल बहुत साहसी लोग इस पथ पर प्रविष्ट हो सकते हैं। धर्म कायरों के लिए नहीं है लेकिन तुम चर्चों, मंदिरों और मस्जिदों में कायरों को ही पाओगे : उन्होंने पूरी चीज़ को बर्बाद कर दिया है। धर्म बहुत साहसी लोगों के लिए ही है, वह उन लोगों के लिए है जो सबसे अधिक खतरनाक कदम उठा सकते हैं- सबसे अधिक खतरनाक कदम है ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना; सबसे अधिक खतरनाक कदम हैं मन से अ-मन में जाना और सबसे अधिक खतरनाक कदम हैं प्रश्न करने से, बिना प्रश्न किए बने रहना तथा संदेह से श्रद्धा में जाना।
इससे पूर्व कि हम इस छोटे से लेकिन सुंदर प्रसंग में प्रवेश करें- यह जो केवल एक हीरे के समान बहुत छोटा-सा पर बहुत अधिक मूल्यवान है- थोड़ी-सी कुछ बातें समझ लेने जैसी हैं। पहली बात : तुम केवल तभी समझने में समर्थ होगे जब तुम एक छलांग ले सको, जब तुम किसी तरह ज्ञात का अज्ञात के साथ और मन का अ-मन के साथ एक सेतु बना सको। दूसरी बात : धर्म किसी भी प्रकार से सोच-विचार करने का एक प्रश्न नहीं है, वह ठीक प्रकार से विचार करने का भी एक प्रश्न नहीं है कि यदि तुम ठीक से विचार करते हो तो तुम एक धार्मिक बनोगे- नहीं- चाहे तुम ठीक से अथवा गलत रूप से विचार करो, तुम अधार्मिक ही बने रहोगे। लोग सोचते हैं कि तुम ठीक से विचार करो, तो तुम धार्मिक बन जाओगे और यदि तुम गलत ढंग से सोचोगे तो तुम भटक जाओगे।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यदि तुम विचार करते हो तो तुम भटक जाओगे- प्रयोजन ठीक से अथवा गलत ढंग से नहीं है। यदि तुम सोच-विचार नहीं करते हो, केवल तभी तुम मार्ग पर हो। सोचोगे और तुम चूक जाओगे। तुम पहले ही से एक लंबी यात्रा पर सभी को छोड़कर बहुत दूर निकल गए हो, तुम अब और यहां नहीं हो, अब वर्तमान अनुपस्थित है और प्रामाणिक अस्तित्व केवल वर्तमान में ही होता है।
मन के साथ तुम चूकते चले जाते हो। मन के पास एक यांत्रिकत्व है जो वर्तुलों में घूमता है, वह एक दुष्चक्र है। तुम अपने मन का निरीक्षण करने का प्रयास करो, क्या वह एक यात्रा पर गया हुआ है अथवा केवल चक्करों में घूम रहा है? क्या तुम वास्तव में चलते रहे हो अथवा केवल एक वर्तुल में घूमते रहे हो? तुम बार-बार उसी को दोहराते हो। परसों भी तुम क्रोधित थे, कल भी तुम क्रोधित थे, आज भी तुम नाराज ही बने हुए हो और इस बारे में प्रत्येक संभावना यही है कि कल भी तुम क्रोधित होने जा रहे हो और क्या तुम यह अनुभव करते हो कि क्रोध कुछ भिन्न प्रकार का है? परसों भी वह समान था, कल भी वह वैसा ही था, आज भी वह समान है और क्रोध समान ही होता है। स्थितियां भिन्न हो सकती हैं, बहाने भिन्न हो सकते हैं लेकिन क्रोध समान है। क्या तुम उसी चक्र में घूम रहे हो? क्या तुम कहीं जा रहे हो? क्या वहां कोई प्रगति है? क्या तुम किसी लक्ष्य के निकट-से-निकट पहुंच रहे हो? तुम कहीं भी न पहुंचकर एक वर्तुल में घूम रहे हो। वह वर्तुल बहुत अधिक बड़ा हो सकता है लेकिन तुम कैसे गतिशील हो सकते हो, यदि तुम एक वर्तुल में घूम रहे हो?
मैंने एक बार दोपहर बाद दूसरों को बात करते हुए सुना। वह आवाज एक छोटे से घर के अंदर से आ रही थी और एक बच्चा रोते हुए कह रहा था-‘‘मम्मी! मैं इन चक्करों में घूमने के साथ थक चुका हूं।’’
मां ने कहा-‘‘या तो तुम चुप हो जाओ अथवा मैं तुम्हारे दूसरे पैर को भी फर्श पर लगे खूंटे से बांध दूंगी।’’
लेकिन तुम अभी तक थके नहीं हो। तुम्हारा एक पैर जमीन पर ठुके खूंटे से बंधा है और तुम उस बच्चे के समान चक्कर लगाते हुए घूम रहे हो। तुम एक टूटे हुए ग्रामोफोन के रिकॉर्ड के समान हो- जो एक ही पंक्ति स्वयं दोहराता है और उसे दोहराए चला जाता है। क्या तुमने कभी टूटे हुए ग्रामोफोन के रिकॉर्ड को सुना है? उसे ध्यान से सुनना- वह महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान के समान है। ‘टी.एम.’ मैं तुम एक शब्द को दोहराते हो, राम, राम, राम, राम... और तुम उसे दोहराते चले जाते हो। तुम ऊब जाते हो, ऊब जाने के द्वारा तुम्हें नींद आने लगती हैं सो जाना अच्छा है। सोने के बाद तुम ताजगी का अनुभव करते हो- लेकिन यह तुम्हें सत्य की ओर किसी भी प्रकार से नहीं ले जा रहा है, वह एक बाजीगरी के द्वारा केवल एक अच्छी नींद में चले जाने के लिए है। लेकिन इस भावातीत ध्यान अर्थात टी.एम. को तुम निरंतर कर रहे हो, तुम्हारा पूरा जीवन एक ही शब्द दोहराने का एक टी.एम. बन गया है, तुम समान लीक पर बार-बार गोल-गोल चले जा रहे हो।
तुम कहां जा रहे हो? जब कभी भी तुम इसके प्रति सचेत होगे तो तुम सामान्य रूप से सोचोगे- यह क्या होता रहा है? तुम्हें बहुत अजीब-सा आघात लगेगा कि तुम पूरे जीवन का एक दुरुपयोग करते रहे हो। तुम एक इंच भी तो आगे नहीं बढ़े हो। अच्छा है जितनी शीघ्रता से यदि तुम इसे समझ जाते हो जितना शीघ्र हो सके उतना ही अच्छा है क्योंकि इस अनुभव और समझ के द्वारा ही कुछ चीज़ होना संभव है।
बार-बार यह दोहराना क्यों? मन एक टूटे हुए ग्रामोफोन के रिकॉर्ड के समान एक ही बात दोहराए चले जाता है। उसका वास्तविक स्वभाव ही टूटे हुए रिकॉर्ड के समान है। तुम उसे बदल नहीं सकते। एक टूटे हुए रिकॉर्ड को सुधारा जा सकता है, पर मन नहीं सुधर सकता है क्योंकि मन का वास्तविक स्वभाव ही दोहराना है। अधिक-से-अधिक तुम और अधिक बड़े चक्कर बना सकते हो तथा बड़े वृत्तो के साथ तुम अनुभव कर सकते हो कि वहां कुछ स्वतंत्रता है, बड़े वर्तुलों और चक्करों के साथ तुम स्वयं अपने स्वयं को यह धोखा दे सकते हो कि तुम उन्हीं बातों अथवा कार्यों को नहीं दोहरा रहे हो।
किसी व्यक्ति का घेरा केवल चौबीस घंटों का हो सकता है। यदि तुम चालाक हो तो तुम घेरे को तीस दिनों का बना सकते हो, यदि तुम और अधिक चालाक हो तो तुम घेरे को एक वर्ष का बना सकते हो और यदि और भी अधिक चतुर हो तो तुम घेरे को पूरे जीवन-भर का बना सकते हो, लेकिन घेरा अर्थात चक्कर वही समान बना रहता है। उससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। बड़ा हो अथवा छोटा हो, तुम समान लीक पर घूमते हो और तुम लौटकर उसी समान बिंदु पर आ जाते हो।
इसी समझ के कारण हिंदुओं ने इसे जीवन-चक्र कहा है। वास्तव में तुम्हारा जीवन एक बुद्ध का जीवन नहीं है। एक बुद्ध वह व्यक्ति होता है जो छलांग लगाकर इस चक्र के बाहर आ गया है। तुम चक्र से चिपके हुए हो, तुम वहां बहुत सुरक्षित होने का अनुभव करते हो और चक्र घूमता ही जाता है और जन्म से लेकर मृत्यु तक वह एक चक्कर पूरा कर लेता है। पुनः जन्म और पुनः मृत्यु। इस विश्व के लिए हिंदू जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, वह शब्द है- ‘संसार’, जिसका अर्थ है चक्र। वह एक ही लीक पर घूमता है। तुम आते हो और चले जाते हो और तुम बहुत अधिक कार्य करते हो पर लाभ कुछ भी नहीं पहुंचता। तुम कहां चूक जाते हो? तुम पहला कदम उठाने में ही चूक जाते हो।
मन का स्वभाव है- दोहराना और जीवन का स्वभाव न दोहराने का है। जीवन सदा नूतन है। हमेशा नवीन ही जीवन का स्वभाव है, ताओ, कुछ भी पुराना नहीं है, हो भी नहीं सकता। जीवन कभी अपने को दोहराता नहीं है, वह प्रतिदिन पूरी तरह से नवीन होता है, वह प्रत्येक क्षण नया होता है और मन पुराना है, इसलिए मन और जीवन कभी नहीं मिलते। मन पूरी तरह से दोहराता है और जीवन कभी अपने को दोहराता नहीं- फिर मन और जीवन कैसे मिल सकते हैं? यही कारण है कि दर्शनशास्त्र कभी जीवन को समझ नहीं पाता।
धर्म का पूरा प्रयास है कि कैसे मन को गिराया अथवा छोड़ा जाए और जीवन में गतिशील हुआ जाए, कैसे दोहराने वाले यांत्रिकत्व को छोड़ा जाए और कैसे अस्तित्व की चिरनवीन और सदा ताजगी से भरी दृश्यसत्ता में प्रवेश किया जाए। इस सुंदर कथा का पूरा प्रयोजन यही है- तोज़ान के पांच पाउंड्स।
सद्गुरु तोज़ान भंडारघर में, कुछ पटसन अर्थात सन के रेशों को तौल रहा था, एक भिक्षु उसके पास आया और उसने पूछा-‘‘बुद्ध कौन है?’’
तोज़ान ने कहा-‘‘इस पटसन का भार पांच पाउंड्स है।’’
कई बातें हैं : पहली यह कि एक ज़ेन सद्गुरु एक एकांतवासी संन्यासी नहीं होता है, उसने जीवन का परित्याग नहीं किया है, वस्तुतः इसके विपरीत उसने मन का परित्याग किया है और जीवन में प्रवेश किया है।
वहां संसार में दो तरह के संन्यासी होते हैं : एक तरह के लोग जीवन को त्यागकर पूर्ण रूप से मन के जीवन में प्रविष्ट हो जाते हैं, यह जीवन-विरोधी लोग हैं जो संसार से पलायन कर हिमालय, तिब्बत की ओर पलायन कर जाते हैं। मन में पूरी तरह से लीन होने के लिए वे जीवन का परित्याग कर देते हैं और ऐसे लोग बहुसंख्यक हैं क्योंकि जीवन का त्याग करना सरल है और मन को त्याग देना कठिन है।
कठिनाई क्या है? यदि तुम यहां से पलायन कर भाग जाना चाहते हो तो तुम भाग सकते हो। तुम अपनी पत्नी, अपने बच्चों, अपने घर और अपने धंधे को छोड़ सकते हो- वास्तव में तुम बोझ-मुक्त होने का अनुभव करोगे क्योंकि तुम्हारी पत्नी एक भार बन गई है, बच्चे एक बोझ बन गए हैं और प्रतिदिन कार्य करते हुए धन उपार्जित आदि करने के तुम पूरे कार्य से ही- थक चुके हो। तुम भारमुक्त होने का अनुभव करोगे।
और तुम हिमालय में क्या करोगे? पूरी ऊर्जा मन बन जाएगी। तुम राम, राम, राम जपोगे, तुम वेद और उपनिषद पढ़ोगे तथा तुम गूढ़ सत्यों के बारे में सोचोगे। तुम इस बारे में सोचोगे कि यह संसार कहां से आया है और यह संसार कहां जा रहा है, किसने इस संसार का सृजन किया है तथा उसने क्यों इस संसार की रचना की है, क्या अच्छा है और क्या बुरा है। तुम चिंतन करोगे, महान बातों के बारे में सोचोगे। तुम्हारी पूरी जीवन-ऊर्जा, जो दूसरी चीज़ों में लगी हुई थी, उनसे मुक्त हो जाएगी और अब तुम मन में तल्लीन हो जाओगे। तुम एक मन बन जाओगे।
और लोग तुम्हें सम्मान देंगे, क्योंकि तुमने जीवन का त्याग किया है। तुम एक महान व्यक्ति हो। मूर्ख लोग तुम्हें एक महान व्यक्ति की भांति पहचानेंगे : केवल मूर्ख लोग ही तुम्हें पहचान सकते हैं क्योंकि तुम सबसे अधिक महान हो और वे तुम्हें सम्मान देंगे, वे तुम्हारे चरणों में झुककर साष्टांग प्रणाम करेंगे क्योंकि तुमने एक महान चमत्कार किया है।
लेकिन इससे हुआ क्या? तुमने जीवन का परित्याग केवल मन बनने के लिए किया है। तुमने केवल बुद्धि बनने के लिए ही पूरे शरीर का त्याग किया है- और बुद्धि ही एक समस्या थी। तुमने बीमारी को बचा लिया और तुमने प्रत्येक चीज़ त्याग दी। अब मन एक कैंसर की तरह विकसित होगा। वह जाप, मंत्र और कठोर तप करेगा- वह प्रत्येक कार्य करेगा; और तब वह एक कर्मकांड बन जाएगा। यही कारण है कि धार्मिक लोग कर्मकांडों में जाते हैं और कर्मकांड का अर्थ है एक दोहराने वाली दृश्यसत्ता। प्रतिदिन, प्रत्येक सुबह उन्हें अपनी प्रार्थना करनी होती है, एक मुसलमान दिन में पांच बार नमाज पढ़ते हुए प्रार्थना करता है- वह जहां कहीं भी हो, उसे पांच बार प्रार्थना करनी होती है। एक हिंदू अपने पूरे जीवन-भर इसी तरह के कर्मकांड किए चले जाता है और ईसाइयों को भी प्रत्येक रविवार केवल एक कर्मकांड निभाने चर्च जाना होता है क्योंकि मन दोहराना पसंद करता है, मन एक कर्मकांड सृजित करता है।
तुम्हारे सामान्य जीवन में भी मन एक कर्मकांड सृजित करता है। तुम प्रेम करते हो, तुम मित्रों से मिलते हो, तुम दावतों में जाते हो- और प्रत्येक कार्य को एक कर्मकांड की भांति दोहराते हुए करना होता हैं तुम्हारे पास सभी सातों दिनों के लिए एक कार्यक्रम होता है और कार्यक्रम पहले से तय होता है तथा ऐसा हमेशा ही होता रहता है। तुम जीवंत नहीं हो, तुम एक यंत्रमानव बन गए हो। मन एक रोबोट है। यदि तुम मन की ओर अधिक ध्यान देते हो, वह तुम्हारी सारी ऊर्जा अवशोषित कर लेगा, वह एक कैंसर है, वह विकसित होगा और वह चारों ओर फैल जाएगा।
लेकिन एक ज़ेन सद्गुरु सन्यासियों की दूसरी श्रेणी से संबंध रखता है। एक ज़ेन सद्गुरु हमेशा से ही एक नवसन्यासी की भांति है इसीलिए मैं उन लोगों के बारे में बात करने से प्रेम करता हूं। मेरा उनके साथ एक गहन संबंध है। उन्होंने मन का परित्याग कर दिया है, वे जीवन का त्याग नहीं करते और न मन में जीते हैं और ठीक इसके विपरीत वे जीवन को पूर्णता से जीते हैं। वे पूरी तरह से मन को त्याग देते हैं क्योंकि वह एक ही कार्य को बार-बार दोहराता है- और वे जीवन को जीते हैं। वे हो सकता है एक गृहस्थ का जीवन जी रहे हो, हो सकता है कि उनके पास पत्नी और बच्चे हों। वे लोग खेतों और बगीचों में कार्य करेंगे, वे गड्ढे खोदेंगे और वे भंडारगृह में पटसन (सन) के रेशों का वजन करेंगे...
एक हिंदू यह सोच भी नहीं सकता कि एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को पटसन का वजन क्यों लेना चाहिए- आखिर क्यों? ऐसी एक सामान्य गतिविधि उसे करने की आवश्यकता क्यों? लेकिन एक ज़ेन सद्गुरु मन को त्याग देता है, जीवन को उसकी समग्रता में जीता है। वह मन को गिरा देता है और एक सामान्य प्राणी बन जाता है।
इसलिए पहली बात यह स्मरण रखने की है, यदि तुम मन का परित्याग कर जीवन जीते हो, तो तुम एक सच्चे संन्यासी हो और यदि तुम जीवन का परित्याग कर मन में जीते हो तो तुम एक झूठे संन्यासी हो, तुम एक कपटी संन्यासी हो। और भलीभांति याद रहे, कपटी बनना सदा सरल होता है और प्रामाणिक बनना हमेशा कठिन। एक पत्नी के साथ जीना और आनंदित होकर जीना वास्तव में कठिन है और बच्चों के साथ परम आनंद और अहो भाव से जीना वास्तव में कठिन है। एक दुकान, एक ऑफिस अथवा एक कारखाने में काम करना और परम आनंदित बने रहना वास्तव में कठिन है।
प्रत्येक कार्य छोड़कर और केवल एक वृक्ष के नीचे बैठकर प्रसन्नता का अनुभव करना कठिन नहीं है, कोई भी व्यक्ति उसी ढंग से अनुभव करेगा। कुछ भी न करते हुए तुम निरासक्त बने रह सकते हो और प्रत्येक कार्य करते हुए तुम उससे जुड़ जाते हो। लेकिन जब तुम प्रत्येक कार्य करते हो और निरासक्त बने रहते हो, जब तुम भीड़ के साथ संसार में घूमते हुए तब भी अकेले बने रहते हो, तब कुछ प्रामाणिक चीज़ घटित हो रही है।
जब तुम अकेले हो और क्रोध का अनुभव नहीं कर रहे हो तो इसमें कोई विशिष्ट बात नहीं है। जब तुम अकेले हो तो तुम क्रोध का अनुभव नहीं करोगे क्योंकि क्रोध एक संबंध है, उसे किसी के प्रति क्रोधित होने की आवश्यकता होती है। यदि तुम पागल नहीं हो तो जब तुम अकेले हो, तुम क्रोध का अनुभव नहीं करोगे। वह अंदर तो रहेगा लेकिन वह बाहर आने का कोई रास्ता नहीं खोज पाएगा। जब वहां दूसरा नहीं होता है तो क्रोधित न होना तभी विशिष्टता होती है। जब तुम्हारे पास कोई भी धन नहीं है, कोई भी वस्तुएं नहीं हैं, कोई भी घर नहीं है और यदि तुम निरासक्त हो तो इसमें कठिनाई क्या है? लेकिन जब तुम्हारे पास प्रत्येक वस्तु हो और तुम महल में एक भिखारी की भांति निरासक्त बने रहते हो, तब वास्तविक गहराई में किसी चीज़ की उपलब्धि हुई है।
स्मरण रहे, हमेशा सत्य, प्रेम, जीवन, ध्यान, अद्वैत की स्थिति, परमानंद और वह सभी जो सत्य, सुंदर और शुभ है, उसे अपने हृदय में ही रखना, हमेशा एक विरोधाभास की भांति वे विद्यमान रहते हैं, संसार मे ंरहते हुए भी उसका होकर न रहना, लोगों के साथ तब भी अकेले बने रहना, प्रत्येक कार्य करते हुए भी निष्क्रिय बने रहना, गतिशील होते हुए भी गतिशील न होना, एक सामान्य जीवन जीना और तब भी उसके साथ तादात्म्य बनाकर न रखना, उसी तरह कार्य करना जैसे प्रत्येक अन्य व्यक्ति कार्य कर रहा है, तब भी नीचे गहराई में उससे पृथक बने रहना। संसार में रहते रहना और संसार का बनकर नहीं रहना, यही विरोधाभास है। और जब तुम इस विरोधाभास को उपलब्ध हो जाते हो तो तुम्हें सबसे महान शिखर अनुभव घटित होता है।
एक सामान्य स्थिति में गतिशील होना बहुत सरल है या तो संसार में आसक्त होकर रहना अथवा संसार से बाहर निरासक्त बने रहना- दोनों ही सरल हैं। लेकिन सबसे अधिक असामान्य स्थिति केवल तब आती है जब वह एक जटिल घटना होती हैं यदि तुम हिमालय चले जाते हो और निरासक्त बने रहते हो तो तुम संगीत का एक अकेला स्वर हो, यदि तुम संसार में आसक्त बनकर रहते हो, तुम पुनः संगीत का एक अकेला स्वर हो। लेकिन जब तुम संसार में होते हो और उसके पार होते हो, तुम अपना हिमालय अपने हृदय में साथ लिए हुए चलते हो, तुम एक अकेला स्वर न होकर एक तान हो। सभी बेमेल स्वरों के साथ एक मेल घटित होता है, सभी विरोधों का एक तर्कातीत संश्लेषण होता है और दो किनारों के मध्य एक सेतु बनता है और सर्वोच्च उपलब्धि केवल तभी संभव है जब जीवन सबसे अधिक जटिल होता है और केवल उस असाधारण में, उस जटिलता में ही वह सर्वोच्च घटित होता है।
यदि तुम सामान्य बने रहना चाहते हो तो तुम इन विकल्पों में से कोई एक चुन सकते हो- लेकिन तुम असाधारणता से चूक जाओगे। यदि तुम जटिलता अर्थात असाधारणता में भी सामान्य बने नहीं रह सकते तो तुम एक जानवर के समान होगे अथवा किसी ऐसे व्यक्ति की भांति होगे, जो जीवन परित्याग कर हिमालय में एक जानवर के समान रह रहा हो- क्योंकि वे लोग एक दुकान में नहीं जाते, वे एक कारखाने में काम नहीं करते, उनके पास पत्नियां नहीं हैं और न उनके पास बच्चे हैं।
मैंने ऐसे अनेक लोगों का निरीक्षण किया है, जिन्होंने जीवन का परित्याग कर दिया है। मैं उन लोगों के साथ रहा हूं और उनका गहनता से निरीक्षण किया है, वे जानवरों के समान बन गए हैं। मैं नहीं देखता कि उनमें कोई चीज़ सर्वोत्तम घटित हुई है, वस्तुतः इसके विपरीत वे और पीछे जा गिरे हैं। निश्चित रूप से उनके जीवन में कम तनाव हैं क्योंकि एक जानवर के जीवन में भी बहुत कम तनाव होता है, उनके पास चिंताएं नहीं हैं क्योंकि किसी जानवर को कोई भी चिंता नहीं होती। वास्तव में वे नीचे तल पर गिरते जा रहे हैं, वे पीछे लौट रहे हैं, वे वनस्पतियों के समान हो गए हैं, वे वनस्पति की भांति जीते हैं। यदि तुम उनके पास जाओ तो तुम देखोगे कि वे साधारण हैं, उनमें कोई जटिलता विद्यमान नहीं है लेकिन तुम उन्हें वापस इस संसार में लाओ तो तुम उनमें अपनी अपेक्षा कहीं अधिक जटिलताएं पाओगे क्योंकि जब स्थिति उत्पन्न होती है तो वे कठिनाई में होंगे। यह एक तरह का दमन है। पीछे की ओर मत लौटो, पीछे मत हटो और आगे बढ़ो।
एक बच्चा सरल होता है, लेकिन एक बच्चे न बनकर परिपक्व बनो। वास्तव में जब तुम पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाते हो, एक बचपन फिर से घटित होता है लेकिन गुणात्मक रूप से वह भिन्न होता है। एक ऋषि फिर से एक बच्चे जैसा बन जाता है, पर उसमें बचपना नहीं होता। एक ऋषि फिर से एक पुष्प बन जाता है और उसमें एक बच्चे की नूतनता और सुवास होती है, लेकिन वहां एक गहन अंतर भी होता है। एक बच्चे के अंदर पीछे की ओर लौट जाने की अनेक चीज़ें होती हैं और जब कभी भी अवसर दिया जाता है वे प्रकट होंगी। सेक्स बाहर आएगा, क्रोध बाहर निकलेगा और वह संसार में गतिशील होकर आसक्त बनेगा और खो जाएगा। उसके पास उन सभी के बीज उसके अदंर ही हैं। एक ऋषि के पास कोई भी बीज नहीं होते और वह नीचे नहीं गिर सकता, वह असफल नहीं हो सकता क्योंकि अब वह और है ही नहीं। वह अपने अंदर कुछ भी नहीं ढो रहा है।
ज़ेन सद्गुरु बहुत साधारण और सामान्य जीवन जीते हैं- इस संसार में रहते हुए भी वे दूसरे संसार का जीवन जीते हैं। वे किसी भी हिंदू संन्यासी की अपेक्षा कहीं अधिक आकर्षक लोग हैं, वे किसी भी कैथोलिक साधु की अपेक्षा कहीं अधिक आकर्षक और सुंदर हैं। वास्तव में ज़ेन के लोगों के समान पृथ्वी पर कोई भी व्यक्ति अस्तित्व में नहीं है।
सद्गुरु नोज़ान भंडारघर में कुछ पटसन को तौल रहा था।
एक बोध को उपलब्ध बुद्ध, पटसन को तौल रहा है। तुमने सामान्य रूप से उसे पृथक कर दिया होता। इस व्यक्ति से कोई भी प्रश्न पूछने का क्या औचित्य? यदि उसने कुछ भी जाना है तो वह पटसन न तौल रहा होता क्योंकि तुम्हारे पास एक संत, एक ऋषि में तुम्हारे अपने पार कुछ असामान्य चीज़ होने की धारणा है और वह जैसे आसमान में एक स्वर्ण सिंहासन पर बैठा हुआ है और तुम उस तक नहीं पहुंच सकते। जोकुछ तुम हो, वह तुमसे जैसे बहुत भिन्न है और ठीक तुम्हारे विपरीत है।
एक ज़ेन सद्गुरु उस तरह का नहीं होता है। वह किसी भी तरह से असाधारण नहीं है और तो भी वह असाधारण हैं वह ठीक तुम्हारी ही भांति बहुत सामान्य जीवन जीता है और तब भी वह तुम्हारे जैसा नहीं है। वह कहीं दूर आसमान में न होकर यहीं है लेकिन तब भी वह तुम्हारे पार है। पटसन का वजन करना, उसे तौलना- लेकिन यह ठीक वैसा ही है जैसे कि बुद्ध बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे हों। भारत में कोई भी व्यक्ति यह सोच भी नहीं सकता कि महावीर अथवा बुद्ध पटसन तौल रहे हों- यह असंभव है। यह लगभग अधार्मिक वृफत्य दिखाई देगा। भंडारघर में बुद्ध क्या कर रहे हैं? तब तुम्हारे और उनके मध्य अंतर क्या है? तुम भी पटसन तौलते हो और वह भी पटसन को तौल रहे हैं, इसलिए फिर अंतर क्या है?
अंतर बाहर की ओर नहीं है- और बाहर की ओर का अंतर कोई भी परिवर्तन नहीं लाता है। तुम जाकर एक बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे सकते हो-कुछ भी नहीं होगा। और जब अंतरस्थ में परिवर्तन होता है फिर बाहर की ओर के साथ फिक्र क्यों की जाए? जोकुछ भी तुम कर रहे थे, उसे करना जारी रखो। जोकुछ भी कार्य तुम्हें करने को दिया जाता है उसे करना जारी रखो। जोकुछ भी अखंड अस्तित्व की इच्छा है उसे करना जारी रखो।
सद्गुरु तोज़ान, भंडारघर में कुछ पटसन को तौल रहा था।
एक भिक्षु उसके पास आया और उससे पूछा-‘‘बुद्ध कौन है?’’
बौद्ध धर्म में, ठीक, सत्य क्या है? अथवा परमात्मा क्या है?- के ही समान, यह पूछे जाने वाले प्रश्नों में से सबसे अधिक असाधारण प्रश्न है- क्योंकि बौद्ध धर्म में परमात्मा की धारणा नहीं है। बुद्ध ही भगवान है और कोई दूसरा परमात्मा अस्तित्व में नहीं है। बुद्ध सर्वोच्च सत्य हैं, वह सर्वोच्च शिखर हैं और उनके पार कुछ भी नहीं है। सत्य, परमात्मा, स्वयंभू अथवा ब्रह्म- तुम उसे चाहो जो भी नाम दो, वह बुद्ध हैं।
इसलिए जब एक भिक्षु पूछता है- बुद्ध क्या है अथवा बुद्ध कौन है? तो वह पूछ रहा है- सत्य क्या है? ताओ क्या है? ब्रह्म क्या है? अनेक के मध्य वह एक कौन है? मौलिक सत्य क्या है? अस्तित्व का वास्तविक केंद्रीय बीजकोष क्या है?
तोज़ान ने कहा-‘‘इस पटसन का भार पांच पाउंड्स है।’’
उत्तर बेतुका और असंगत है। वह पूर्ण रूप से प्रयोजनहीन प्रतीत होता है क्योंकि वह व्यक्ति पूछ रहा था-‘‘बुद्ध कौन है?’’ और यह तोज़ान एक पागल व्यक्ति प्रतीत होता है। वह बुद्ध के बारे में बिल्कुल भी बात नहीं कर रहा है और उसने किसी भी प्रकार से उसके प्रश्न का उत्तर दिया ही नहीं है और तो भी उसने उत्तर दे दिया है। यही विरोधाभास है। यदि तुम इस विरोधाभास को जीना शुरू कर दो तो तुम्हारा जीवन एक मधुर तान अर्थात एकतान बन जाएगा, वह सभी विरोधों का एक उच्चतम-से-उच्चतम संश्लेषण बन जाएगा। तब तुम्हारे अंदर सभी विरोध घुल जाएंगे।
तोज़ान ने कहा-‘‘इस पटसन का भार पांच पाउंड्स है।’’
उसने एक बात कही : कि यह प्रामाणिक सामान्य जीवन ही बुद्ध है, वह वास्तविक सामान्य जीवन ही बुद्ध है, यह वास्तविक जीवन ही ब्रह्म है और यही परमात्मा का राज्य है। सिवाय इसके वहां कोई अन्य जीवन नहीं है; वहां ‘वह’ नहीं है और केवल ‘यह’ अस्तित्व में है। हिंदू कहते हैं-‘‘वह है, यह एक भ्रांति है।’’ तोज़ान ने कहा-‘‘यह सत्य है, वह एक भ्रांति है। यह वास्तविक क्षण ही सत्य है और किसी असाधारण बात के लिए मत पूछो।’’
खोजी हमेशा कुछ असाधारण चीज़ के लिए पूछते हैं क्योंकि अहंकार केवल तभी तृप्त होने का अनुभव करता है, जब उसे कुछ असाधारण चीज़ दी जाती है। तुम एक सद्गुरु के पास आते हो और तुम उससे प्रश्न पूछते हो और यदि वह ऐसी बातें कहता है तो तुम सोचोगे कि वह एक पागल है अथवा परिहास कर रहा है अथवा वह व्यक्ति इस योग्य नहीं है कि उससे कुछ पूछा जाए। तुम पूरी तरह से भाग खड़े होगे। क्यों?- क्योंकि वह तुम्हारे अहंकार को पूर्ण रूप से खंड-खंड कर देता है। तुम बुद्ध के बारे में पूछ रहे थे, तुम बुद्ध के बारे में सुनने की कामना कर रहे थे और तुम स्वयं एक बुद्ध बनना चाहते थे, इसीलिए तुम प्रश्न पूछ रहे थे और यह व्यक्ति कहता है : तुम क्या व्यर्थ की बात पूछ रहे हो, जो उत्तर देने योग्य भी नहीं है। इस पटसन का भार पांच पाउंड्स है। यह किसी बुद्ध की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इस क्षण यह पटसन ही पूरा अस्तित्व है। इस पांच पाउंड पटसन में ही संसार का पूरा अस्तित्व केंद्रित है- यहीं और अभी। भटकते मत जाओ, ऐसे दार्शनिक प्रश्नों को मत पूछो। इस क्षण की ओर देखो।
तोज़ान ने एक अद्भुत बात की। तोज़ान एक बुद्ध है। तोज़ान पटसन तौल रहा है, बुद्ध ही पटसन तौल रहे हैं- और सत्य एक है। तोज़ान एक बुद्ध है तथा पटसन भी बुद्ध है और उस क्षण उसका भार पांच पाउंड है। वही सत्य था, वही उस क्षण की वास्तविकता थी। लेकिन यदि तुम दार्शनिकता से भरे हुए हो तो तुम सोचोगे कि यह व्यक्ति पागल है और तुम आगे बढ़ जाओगे।
ऐसा ही आर्थर कोस्टलर के साथ हुआ, जो पश्चिम में प्रखर बुद्धिजीवियों में से एक है। वह पूरी तरह से पूर्ण स्थिति से ही चूक गया। जब वह ज़ेन का अध्ययन करने जापान गया तो उसने सोचा : ये लोग पूरी तरह पागल हैं अथवा वे लोग परिहास कर रहे हैं और तनिक भी गंभीर नहीं हैं। उसने ज़ेन के विरुद्ध एक पुस्तक लिखी। वह मूर्खतापूर्ण लगता है और वह है। वह गलत है और तो भी ठीक है। वह मूर्खतापूर्ण है। यदि तुम ज़ेन की भाषा को नहीं जानते हो तो वह मूर्खतापूर्ण है। यदि तुम तर्कपूर्ण चिंतन के साथ बहुत अधिक तादात्म्य जोड़ बैठे हो तो वह असंगत है। वह अतर्कपूर्ण है- उससे अधिक अतर्कपूर्ण चीज़ तुम कहां खोज सकते हो : कोई व्यक्ति पूछ रहा है-‘‘बुद्ध कौन होता है?’’ और कोई व्यक्ति उत्तर दे रहा है-‘‘इस पटसन का भार पांच पाउंड्स है।’’
तुम आसमान के बारे में पूछते हो और मैं पृथ्वी के बारे में उत्तर देता हूं, तुम परमात्मा के बारे में पूछते हो और मैं चट्टान के बारे में बता रहा हूं- कोई मिलन ही नहीं होता है और तब भी वहां एक मिलन होता है- लेकिन बहुत ग्राह्यपूर्ण दृष्टि की आवश्यकता है, बुद्धिगत रूप से तीक्ष्ण नहीं बल्कि अनुभूतिजन्य ग्राह्यता हो, जिसका तर्क-वितर्क के साथ परिचय न हो, बल्कि जोकुछ घटित हो रहा है, उसे देखने, निरीक्षण करने और साक्षी होने की प्रतीक्षा हो और वह पहले ही से पूर्वाग्रह से ग्रस्त न हो बल्कि खुली हो।
कोस्टलर बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का है, पर पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है जो अरस्तू की परंपरा में चीज़ों पर बहुत तर्कपूर्ण दृष्टि से कार्य कर सकता है, लेकिन कुछ भी नहीं जानता, वह यह बिल्कुल नहीं जानता कि वहां पूर्ण रूप से एक अरस्तूविहीन ज़ेन का भी संसार है, जहां दो में दो जोड़कर अनिवार्य रूप से चार ही नहीं होते, कभी वे पांच और कभी वे तीन होते हैं-कुछ भी होना संभव है। कोई भी संभावना मिटती नहीं और सभी संभावनाएं अनंत रूप से खुली हुई होती हैं। और दो और दो प्रत्येक समय मिलते हैं तोकुछ अन्य ही घटित होता है। अज्ञात संसार खुला बना रहता है, तुम उसे खाली नहीं कर सकते।
उथले रूप से देखो तो यह व्यक्ति पागल है लेकिन गहराई में तुम इस तोज़ान की अपेक्षा कोई अन्य समझदार व्यक्ति नहीं खोज सकते। लेकिन कोस्टलर उससे चूक जाएगा और कोस्टलर की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण है, वह बहुत तर्कपूर्ण है और तीक्ष्ण बुद्धि में केवल बहुत थोड़े से लोग ही उसके साथ मुकाबला कर सकते हैं, लेकिन वह असफल हो जाता है। इस संसार में बुद्धि एक साधन है और उस संसार में बुद्धि एक अवरोध बन जाती है। बहुत अधिक बुद्धिमान मत बनो अन्यथा तुम वास्तविक प्रज्ञा से चूक जाओगे। बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना अपने किसी मन के तोज़ान की ओर देखो। सामान्य रूप से इस दृश्यसत्ता की ओर देखो कि क्या कुछ घटित हो रहा है?
एक भिक्षु जो शिष्य भी है पूछता है : बुद्ध कौन होता है?- और एक ज़ेन सद्गुरु हमेशा अभी और यहीं में होता है, वह इसी क्षण में जीता है, वह हमेशा अपने शाश्वत घर में ही रहता है, तुम जब कभी भी आते हो तुम उसे वहां ही पाओगे, वह वहां से कभी अनुपस्थित नहीं रहता है और वह इस क्षण में ही बना रहता है। वृक्ष, आकाश, सूर्य, चट्टाने, पक्षी, सभी कुछ और यह पूरा संसार इस क्षण में केंद्रित है। यह क्षण विराट है। यह तुम्हारी घड़ी की केवल एक टिक का समय नहीं है, यह क्षण असीम है, क्योंकि इस क्षण में प्रत्येक चीज़ है। लाखों-करोड़ों सितारे हैं, अनेक नए सितारे जन्म ले रहे हैं, अनेक पुराने सितारे मरने जा रहे हैं, समय और स्थान का पूर्ण अनंत विस्तार इस क्षण में मिलता है। इसलिए इस क्षण को कैसे प्रदर्शित किया जाए? और तोज़ान पटसन तौल रहा था- इस क्षण की ओर कैसे संकेत किया जाए और कैसे इस भिक्षु को यहीं और अभी में लाया जाए। कैसे उसको इस दार्शनिक पूछताछ को अलग रखा जाए? कैसे उसे आघात देकर इस क्षण में, इस क्षण के लिए जगाया जाए?
यह एक आघात ही है- क्योंकि वह अपने मन में सोच-विचार करते हुए बुद्ध के बारे में अनिवार्य रूप से यह जांच-पड़ताल कर रहा होगा कि एक बुद्ध की वास्तविकता क्या होती है? क्या सत्य है, और वह अनिवार्य रूप से एक गूढ़ उत्तर जैसी सर्वोत्तम बात किए जाने की आशा कर रहा होगा कि यह सद्गुरु बुद्धत्व को उपलब्ध है इसलिए उसे कुछ बहुत मूल्यमान बात बतानी चाहिए, वह कभी भी यह आशा कर ही नहीं सकता था कि वह एक ऐसी सामान्य बात कहने जा रहा है, इतनी अधिक सामान्य और असंगत उत्तर। उसे अनिवार्य रूप से आघात लगना ही चाहिए।
उस आघात में तुम एक क्षण के लिए, एक क्षण के खंड में ही जाग सकते हो। जब तुम्हें आघात लगता है तो सोचना जारी नहीं रह सकता। यदि उत्तर में कुछ संगत चीज़ होती है तो सोच-विचार जारी रह सकता है क्योंकि यह वह है जो मन पूछता है- अनुरूपता। यदि कोई बात कहीं जाती है जो प्रश्न के अनुरूप हो तो सोचना जारी रह सकता है और यदि कुछ बात ऐसी कही जाती है जो पूर्ण रूप से व्यर्थ और असंगत है तो विघ्न पड़ जाता है जिसका बिल्कुल भी कोई अभिप्राय नहीं होता, तो मन सोचना जारी नहीं रख सकता। अचानक मन को आघात लगता है ओर निरंतरता टूट जाती है। शीघ्र ही वह फिर सोचना शुरू करेगा, चूंकि मन कहेगा : यह मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ है।
मुल्ला नसरुद्दीन का एक मनोविश्लेषक द्वारा विश्लेषण किया जा रहा था। मनोविश्लेषण के कई महीनों और अनेक मुलाकातों के बाद जैसे ही मुल्ला काउच पर लेटने लगा तो मनोविश्लेषक ने कहा-‘‘जो मैं अनुभव करता हूं और जो मैंने निष्कर्ष निकाला वह यह है कि तुम्हें प्रेम में गिर जाने की आवश्यकता है, तुम्हें एक सुंदर स्त्री की आवश्यकता है। प्रेम करना ही तुम्हारी आवश्यकता है।
मुल्ला ने कहा-‘‘यह मेरे और आपके बीच की बात है। क्या आप यह नहीं सोचते कि प्रेम करना एक मूर्खता है?’’
मनोविश्लेषक ने कहा-‘‘यह आपके और मेरे बीच की बात है- वह एक मूर्खता करना ही होगा।’’
एक क्षण के लिए उसे आघात लगना ही चाहिए था, लेकिन केवल एक क्षण के लिए ही। यदि तुम अनुरूपता नहीं खोज सकते तो मन तुरंत कहेगा : यह मूर्खतापूर्ण है। यदि तुम अनुरूपता पाते हो तो निरंतरता जारी रहती है। यदि वहां कोई भी बात असंगत या मूर्खतापूर्ण है तो एक क्षणांश के लिए वहां एक विघ्न पड़ता है, कुछ बाधित होता है, जोकुछ कहा गया है मन उसे समझने में समर्थ नहीं होता है लेकिन तुरंत ही वह पूर्व स्थिति में आ जाता है और वह कहेगा- वह मूर्खतापूर्ण है, निरंतरता पुनः प्रारंभ हो जाती है।
लेकिन यह आघात और मन का आग्रह से यह कहना कि वह मूर्खतापूर्ण है एक ही समय में नहीं होते हैं और वहां एक अंतराल होता है। उसी अंतराल में एक सटोरी संभव है। उसी अंतराल में तुम जाग सकते हो और तुम्हारे पास एक झलक हो सकती है। यदि उस अवसर का उपयोग किया गया होता तो वह विलक्षण होता क्योंकि यह व्यक्ति तोज़ान अतुलनीय है। तुम ऐसा व्यक्ति किसी अन्य स्थान पर नहीं खोज सकते और कैसा स्वयंप्रवर्तित उत्तर है? वह पहले से गढ़ा गया और किसी भी तरह पहले से तैयार उत्तर नहीं है, इससे पूर्व कभी भी किसी व्यक्ति ने ऐसा नहीं कहा है और अब वहां उसके कहने में कोई विशिष्टता नहीं है। किसी भी व्यक्ति ने कभी नहीं कहा है-‘‘इस पटसन का भार पांच पाउंड्स है’’ और यह बुद्ध के बारे में किए गए प्रश्न का उत्तर है कि ‘बुद्ध क्या होता है।’
तोज़ान स्वयंप्रवर्तित है, वह स्मृति से कोई भी उत्तर नहीं दे रहा है अन्यथा वह शास्त्रों को जानता है। बुद्धत्व को उपलब्ध होने से पूर्व वह एक महान विद्वान था- वह हृदय से जानता है। उसने बुद्धों के सभी शब्दों का पाठ किया है, अनेक वर्षों तक वह तत्वज्ञान पर चर्चा-परिचर्चा करता रहा है। वह जानता है कि भिक्षु क्या पूछ रहा है, वह जानता है कि वह उससे क्या आशा कर रहा है- लेकिन वह पूरी तरह से स्वयंप्रवर्तित है, वह पटसन तौल रहा है।
केवल तनिक कल्पना करो और देखो : तोज़ान पटसन तौल रहा है। उस क्षण में, उस क्षण की वास्तविकता का और अधिक स्वच्छंदता से क्या संकेत दिया जा सकता था, अस्तित्व की वास्तविकता का। उसने सामान्य रूप से कहा-‘‘इस पटसन का भार पांच पाउंड्स है’’ और बात समाप्त कर दी। उसने बुद्ध के बारे में कोई भी बात नहीं की; वहां उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। यही बुद्धत्व है। स्वयंप्रवर्तित बने रहना ही बुद्धत्व है। उस क्षण के प्रति सच्चा बना रहना ही बुद्धत्व है।
वह जोकुछ कहता है, वह केवल उसका एक भाग है; और वह जो अनकहा छोड़ देता है वही पूर्ण है। यदि तुम उस क्षण जाग जाते हो तो तुम देखोगे कि बुद्ध ही पटसन तौल रहे हैं- और उस पटसन का भार पांच पाउंड्स है। वह किस ओर इशारा कर रहा है? वह अधिक नहीं कह रहा है लेकिन वह बहुत कुछ प्रदर्शित कर रहा है और अधिक न कहने के द्वारा वह एक संभावना सृजित कर रहा है, तुम एक क्षण के लिए पूर्ण अस्तित्व के प्रति सचेत हो सकते हो, जो वहां इस तोज़ान में केंद्रित है।
जब कभी संसार में एक बुद्ध के होने की घटना घटित होती है, पूरा अस्तित्व वहां एक केंद्र पा जाता है। तब सभी सरिताएं उसमें ही गिरती हैं, सभी पर्वत उसके आगे सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं और सभी सितारे उसके चारों ओर घूमते हैं। जब कभी भी वहां बुद्धत्व को उपलब्ध एक व्यक्ति होता है तो पूरा अस्तित्व उसके सारभूत तत्व के बिंदु पर आकर मिल जाता है। वह केंद्र बन जाता है।
उस क्षण पटसन तौलते हुए तोज़ान बुद्ध था : पूरा अस्तित्व तोज़ान की ओर प्रवाहित होते हुए उसके केंद्र में आकर मिल रहा था और तोज़ान पटसन तौल रहा था- और पटसन का भार पांच पाउंड्स था। यह क्षण इतना अधिक वास्तविक है कि तुम जाग जाते हो, यदि तुम अपनी आंखें खोलते हो तो सटोरी लगना संभव है। तोज़ान स्वयंप्रवर्तित है, उसके पास पहले से तैयार उत्तर नहीं हैं, वह उस क्षण को प्रत्युक्तर देता है।
अगली बार यदि तुम तोज़ान के पास आओ तो वैसा ही समान उत्तर नहीं दिया जा सकता और दिया भी नहीं जाएगा क्योंकि तोज़ान हो सकता है कुछ भी न तौल रहा हो अथवा हो सकता है कि वह कुछ अन्य वस्तु तौल रहा हो अथवा हो सकता है वह पटसन ही तौल रहा हो- लेकिन तब पटसन का भार पांच पाउंड्स नहीं हो सकता है। अगली बार उत्तर भिन्न होगा। यदि तुम उसके पास बार-बार आओ तो प्रत्येक समय उत्तर भिन्न होगा। एक विद्वान व्यक्ति और एक जानने वाले व्यक्ति में यही अंतर होता है। एक विद्वान व्यक्ति के पास तय किए गए तैयार उत्तर होते हैं। जब भी तुम उसके पास आते हो तो उसके पास तुम्हारे लिए पहले से तैयार किए गए उत्तर होते हैं। तुम पूछते हो और वह तुम्हें उत्तर देगा और उत्तर हमेशा समान होगा- और तुम अनुभव करोगे कि वह बहुत अधिक स्थिर और दृढ़ है।’’
एक बार वहां मुल्ला नसरुद्दीन के विरूद्ध कोर्ट में मुकदमा चल रहा था और न्यायाधीश ने उससे उसकी आयु पूछी। उसने कहा ‘‘चालीस वर्ष।’’ न्यायाधीश ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा और कहा ‘‘नसरुद्दीन! चार वर्ष पूर्व भी तुम यहां आए थे और उस समय भी मैंने पूंछा था- तुम्हारी उम्र क्या है, और तुमने चालीस ही बताई थी। अब यह पूर्ण रूप से परस्पर विरोधी कथन है-तुम अभी भी चालीस वर्ष के कैसे हो सकते हो?’’
नसरुद्दीन ने कहा- ‘‘मैं एक दृढ़ व्यक्ति हूं जो एक ही बात कहता है। एक बार मैंने चालीस कह दिया मैं हमेशा चालीस का ही बना रहूंगा। जब एक बार मैंने उत्तर दे दिया तो वह उत्तर मैंने हमेशा के लिए दे दिया। आप मुझे भटका नहीं सकते। मैं चालीस वर्ष का हूं और जब कभी भी आप पूछेंगे, मैं वही उत्तर दूंगा। मैं एक ऐसा व्यक्ति हूं जो हमेशा अपनी बात पर दृढ़ रहता है।’’
एकरूप अथवा दृढ़ व्यक्ति मुर्दा होता है। यदि तुम मर गए हो, केवल तभी तुम चालीस के बने रह सकते हों तब वहां बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक मृत व्यक्ति कभी भी विकसित नहीं होता और तुम पंडितों, विद्वानों और सूचना रखने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा और अधिक मृत व्यक्ति नहीं खोज सकते।
एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति क्षण-क्षण में जीता है : तुम पूछते हो वह प्रत्युक्तर देता है- लेकिन उसके पास कोई पहले से तय किए गए स्थिर उत्तर नहीं होते हैं। इसलिए इस क्षण में जोकुछ भी होता है, वह उसे नियंत्रित नहीं करता है, वह उसके बारे में यह सोचता नहीं है कि तुम उस बारे में क्या पूछ रहे हो। तुम सामान्य रूप से पूछते हो और उसका पूरा अस्तित्व प्रत्युक्तर देता है। उस क्षण में वह घटित हो रहा था कि तोज़ान पटसन तौल रहा था और उसी क्षण में यह भी हुआ कि पटसन का भार पांच पाउंड्स निकला और जब इस भिक्षु ने पूछा-‘‘बुद्ध क्या होता है?’’- तो तोज़ान के अस्तित्व में पांच पाउंड्स का भार ही वास्तविकता थी। वह तौल रहा था और तोज़ान के अस्तित्व में पांच पाउंड्स ही एक वास्तविकता थी। उसने सामान्य रूप से कहा-‘‘पटसन पांच पाउंड्स है।’’
यह परिधि पर मूर्खतापूर्ण दिखाई देता है। यदि तुम और अधिक गहराई में जाओ, तुम एक अनुरूपता पाते हो, जो एक तर्कपूर्ण अनुरूपता नहीं है और तुम एक दृढ़ता पाते हो, जो बुद्धिगत नहीं है बल्कि अस्तित्वगत है। इसे समझो, इस अंतर को समझने का प्रयास करो। यदि अगली बार तुम आओ और तोज़ान बगीचे में एक गड्ढा खोद रहा है और तुम उससे पूछो-‘‘बुद्ध क्या होता है?’’ तो वह तुम्हें उत्तर देगा, वह कहेगा-‘‘इस गड्ढे की ओर देखो, यह तैयार है और अब इसमें वृक्ष रोपा जा सकता है।’’ यदि तुम अगली बार फिर आते हो और यदि वह अपनी टहलने की छड़ी साथ लेकर टहलने जा रहा है तो वह कह सकता है-‘‘यह टहलने की छड़ी है।’’
उस क्षण में जोकुछ भी है, वही उत्तर होगा क्योंकि एक बुद्ध क्षण-प्रति-क्षण जीता है- और यदि तुम क्षण-प्रति-क्षण में जीना शुरू कर देते हो, तुम एक बुद्ध बन जाते हो। यही उत्तर है : क्षण-प्रति-क्षण जीओ और तुम एक बुद्ध बन जाओगे। एक बुद्ध वह व्यक्ति होता है, जो क्षण-प्रति-क्षण जीता है, जो भूतकाल में नहीं रहता है, जो भविष्य में नहीं रहता है, जो यहीं और अभी में रहता है। बुद्धत्व यहीं और अभी में उपस्थित बने रहने का एक गुण है- और बुद्धत्व एक लक्ष्य नहीं है, तुम्हें प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, तुम ठीक अभी और यहीं में हो सकते हो।
यह बातचीत करते हुए कि मैं एक बुद्ध हूं क्योंकि केवल बात घटित हो रही है, पर यदि तुम्हारे साथ दूसरे छोर पर वहां ध्यानपूर्ण ढंग से सुनना भी घटित हो रहा है, तो ध्यानपूर्ण होकर सुनने में ही तुम एक बुद्ध हो। इस क्षण, इस क्षण की एक झलक को पकड़ने का प्रयास करो। इस क्षण तोज़ान पटसन नहीं तौल रहा है। तोज़ान तुमसे बातचीत कर रहा है। इस क्षण तुमने यह नहीं पूछा है कि बुद्ध क्या होता है? लेकिन चाहे तुम पूछो अथवा नहीं, प्रश्न वहां है। प्रश्न चारों ओर घूमता ही रहता है, वह मन में चारों ओर घूमता रहता है कि सत्य क्या है? बुद्ध क्या है? ताओ क्या है? चाहे तुम पूछो अथवा नहीं, पर प्रश्न वहीं है। तुम ही प्रश्न हो।
इस क्षण में तुम जाग सकते हो। तुम देख सकते हो, तुम मन को थोड़ा-सा हिला-डुला सकते हो और एक विच्छेदन सृजित कर सकते हो और अचानक तुम समझ जाते हो- ऐसा क्या है जिससे आर्थर कोस्टलर चूक जाता है। यदि तुम भी बहुत बद्धिमान हो तो तुम भी चूक जाओगे। बहुत अधिक बुद्धिमान मत बनो और न बहुत अधिक चालाक बनने का प्रयास करो क्योंकि वहां एक प्रज्ञा भी है जो उन लोगों के द्वारा प्राप्त की जाती है जो पागलों के समान बन जाते हैं, वहां एक प्रज्ञा है जो केवल तभी उपलब्ध होती है जब तुम मन को खो देते हो।
तोज़ान आकर्षक है। यदि तुम देख सकते हो और यदि तुम समझ सकते हो कि उत्तर मूर्खतापूर्ण नहीं है तो तुमने उसे देख लिया है और तुमने उसे समझ लिया है। लेकिन यदि समझ बुद्धिगत बनी रहती है तो वह अधिक उपयोग की नहीं होगी। मैंने तुम्हें उसे स्पष्ट कर दिया है और तुमने उसे समझ लिया है लेकिन यदि समझ बुद्धिगत बनी रहती है, तुम उसे मन से समझते हो तो तुम फिर चूक जाते हो। कोस्टलर ज़ेन के विरोध में हो सकता है और तुम उसके पक्ष में हो सकते हो लेकिन तुम दोनों ही चूक जाते हो। यह प्रश्न विरोध में अथवा पक्ष में होने का नहीं है, यह प्रश्न है बिना मस्तिष्क के समझना। यदि वह तुम्हारे हृदय से उदित होता है, यदि तुम उसका अनुभव करते हो और उस पर सोच-विचार नहीं करते, यदि वह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को छूता है, यदि वह केवल एक मौखिक चीज़ और एक तत्वज्ञान न बनकर तुम्हारे अंदर तीव्रता से प्रविष्ट हो जाता है और एक अनुभव बन जाता है तो वह तुम्हें रूपांतरित कर देगा।
मैं इन कहानियों के बारे में केवल इसलिए बात कर रहा हूं कि वे तुम पर चोट करके तुम्हें मन के बाहर ले जाएं, वे तुम्हें थोड़ा-सा नीचे की ओर हृदय में ले जाएं और यदि तुम तैयार हो तब वे और भी नीचे नाभि की ओर ले जाएं।
जितनी दूर तक नीचे जाते हो, तुम उतनी ही और अधिक गहराई तक पहुंचते हो... और अंतिम रूप से गहराई और उंफचाई समान चीज़ें हैं।
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