अज्ञात की ओर-(विविध)
पहला प्रवचन
न भोग, न त्याग-वरन रूपांतरण
मेरे प्रिय आत्मन्!मैं अत्यंत आनंदित हूं अपने हृदय की थोड़ी सी बात आपसे कर पाऊंगा इसलिए। आनंद जितना बंट जाए, उतना बढ़ जाता है। जो मुझे दिखाई पड़ता है जीवन जैसा सुंदर, जैसा संगीत से पूर्ण, जैसा आह्लादकारी, जैसी धन्यता मुझे उसमें दिखाई पड़ती है, हृदय में कामना उठती है आपको भी जीवन वैसा दिखाई पड़े। और स्मरण रहे, जीवन वैसा ही हो जाता है जैसी देखने की हमारे पास दृष्टि होती है। वही जीवन नरक हो सकता है, वही स्वर्ग भी; वही बंधन हो सकता है और वही मुक्ति भी। लेकिन इधर कई हजार वर्षों से जीवन को बदलने की नहीं बल्कि जीवन से भागने की शिक्षा दी गई।
समझाया गया है कि जीवन को छोड़ दो, और समझाया गया है कि जीवन से ही जो मुक्त हो जाए वही परम धन्य है। यह बात एकदम घातक, एकदम विष-भरी है। इस शिक्षा का यह दुष्परिणाम हुआ, इस संस्कार का यह
दुष्परिणाम हुआ कि जो जीवन बदला जा सकता था, जो दृष्टि इसी जीवन में परमात्मा को अनुभव कर सकती थी, उसके पैदा होने की सारी संभावना समाप्त हो गई।
जो लोग जीवन से भागना शुरू कर देते हैं, वे जीवन को बदलने में असमर्थ हो जाते हैं। और वे लोग भी जीवन को बदलने में असमर्थ हो जाते हैं जो जीवन को भोगना शुरू कर देते हैं। जीवन को भोगने वाला भोग में भटक जाता है, जीवन से भागने वाला भागने में; और जीवन को जानने से दोनों वंचित रह जाते हैं।
दो ही प्रकार के लोग हैं, दो ही प्रकार की शिक्षाएं हैं, दो ही प्रकार की दृष्टियां हैं। और उन दोनों दृष्टियों के तनाव में, उन दोनों दृष्टियों के टेंशन में मनुष्य का निरंतर, निरंतर जीवन क्षीण होता गया, अंधकारपूर्ण होता गया।
एक छोटी सी एक कहानी मैं कहूं और फिर जो मुझे कहना है वह आपसे कहने चलूं।
एक पागलखाने में कुछ लोग पागलों का अध्ययन करने और उन्हें समझने गए। मित्रों का एक मंडल वहां गया। उन्होंने एक-एक पागल के पास जाकर उसके जीवन को, उसके जीवन में घटी दुर्घटना को समझने की कोशिश की। एक पागल के पास वे बहुत देर तक रुके रहे। और न केवल उस पागल के जीवन को उन्होंने समझा, वरन उनके हृदय को भी उसके जीवन ने छुआ। उस पागलखाने के चिकित्सक ने उस पागल के संबंध में बहुत सी बातें उन्हें बताईं। वह अत्यंत दया-योग्य पागल था। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे और उसके ओंठ कुछ कहना चाहते थे उसके लिए फड़क रहे थे, लेकिन कह नहीं पाते थे। और उसके हाथ में एक बहुत बड़ी मनुष्य के ही बराबर एक स्त्री की पुतली थी, एक प्रतिमा थी, एक गुड़िया थी। और उस गुड़िया को वह हृदय से लगाए हुए था। उन लोगों ने पूछा चिकित्सक को कि इस पागल को क्या हो गया है? तो सारी घटना बताई गई। समझाया गया। वह जब युवा था, कोई बीस साल पहले की बात है, तब वह किसी युवती को प्रेम करता था, इतना प्रेम किया था उसने कि उसके अभाव में उससे अलग होकर वह या तो पागल होता या आत्मघात कर लेता। किसी भांति उसके घर के लोगों ने उसे आत्मघात करने से बचा लिया, तो वह पागल हो गया था। और तब से इन बीस वर्षों में उस युवती की गुड़िया को बना कर उससे ही प्रेम किया करता था, उससे ही बातें किया करता था।
वे सभी जो इस कथा को सुने दुखी हो आए और उनकी आंखें भी गीली हो गईं। उन्होंने पूछा कि उस लड़की का फिर क्या हुआ? चिकित्सक ने बताया, उसने दूसरे व्यक्ति से विवाह कर लिया। और तब वे आगे बढ़े और दूसरी कोठरी के समक्ष पहुंचे। और उस चिकित्सक ने कहाः यही वह दूसरा आदमी है। वे सब हैरान हो गए, उन्होंने पूछाः इसे क्या हुआ? चिकित्सक ने कहाः यह उस लड़की से विवाह करने के कारण पागल हो गया। इसने बहुत कोशिश की, इसने मरने की कोशिश की, लेकिन लोगों ने मरने न दिया। और तब यह पागल हो गया। वे दोनों ही पागल हो गए। जिसने युवती को प्रेम किया और न पा सका और वह भी जिसने उसे पा लिया।
यह कहानी बहुत अजीब मालूम होगी। लेकिन अधिक लोगों के जीवन में यही कहानी घटित होती है। और एक-दो छोटी घटनाएं कहूंगा ताकि मेरी बात का जो प्रारंभ बिंदु है वह आपके खयाल में आ जाए।
एक कारागृह में एक ही सुबह दो व्यक्तियों को फांसी होने वाली थी। उनमें एक बहुत बड़ा पापी था, जिसको हम पापी कहते हैं। जिसने जीवन में जो भी बुरा था सब किया था और जीवन के सब भांति के कड़वे अनुभव लिए थे। और दूसरा एक पुरोहित था, एक पादरी था, एक संन्यासी था, वह राजद्रोह में पकड़ा गया था, उसने कोई पाप कभी नहीं किया। जहां-जहां पाप की छाया थी, वह वहीं-वहीं से दूर रहा। उसने जीवन को अत्यंत पवित्रता में और प्रार्थना में व्यतीत किया था। उन दोनों को फांसी होने वाली थी। जो उस कारागृह का पुरोहित था, मरने के पहले लोगों को परमात्मा की याद दिलाने वाला, वह आया। वह पहली कोठरी में गया और उसने उस पापी को कहा कि क्षमा मांगो परमात्मा से, दुखी होओ, प्रार्थना करो और पश्चात्ताप करो। उस पापी की आंखों से आंसू बहने लगे, वह रोने लगा, और उसने कहा कि हे परमात्मा! क्षमा करो उन पापों के लिए जो मैंने किए और मुझे बल दे कि अगले जन्म में उन पुण्यों को जिन्हें मैं करना चाहता था, उनके करने की शक्ति और संकल्प पा सकूं। वह दुखी था, जो पाप उसने किए उनके लिए, और दुखी था उन पुण्यों के लिए जो वह नहीं कर पाया।
उसको प्रार्थना करवा कर पुरोहित दूसरी कोठरी में गया। वहां एक दूसरा पुरोहित बंद था। उसकी आंखों से भी आंसू बहते थे, पादरी ने उसे कहा कि क्षमा मांगो जीवन में तुमने जो भूलें की हैं और पश्चात्ताप करो। उस पुरोहित ने कहाः मेरे मित्र, जरूर मैं पश्चात्ताप कर रहा हूं, लेकिन उन पापों के लिए नहीं जो मैंने किए, बल्कि उन पापों के लिए जो मैं नहीं कर पाया। मैं दुखी हो रहा हूं उन पापों के लिए जो मैं नहीं कर पाया, और कर सकता था। मृत्यु के इस क्षण में वे सब पाप मुझे याद आ रहे हैं जो मैं कर लेता, हो सकता था उनमें आनंद होता। हो सकता है मैंने जीवन व्यर्थ गंवाया। और उसने कहा कि मेरे मित्र, तुम अभी युवा हो, और तुम भी उसी मार्ग पर हो जिस पर मैं गया, मैं तुमसे प्रार्थना करूंगा कि मैं तो मर रहा हूं, लेकिन तुम पाप करने से मत चूकना। क्योंकि जो पाप करने से चूक जाता है बाद में पछताता है।
वह युवा पादरी बहुत हैरान हुआ! पास में ही कोठरी में एक पापी पछता रहा था उन पापों के लिए जो उसने किए, और पास में ही एक पुरोहित पछता रहा था उन पापों के लिए जो वह नहीं कर पाया।
जीवन दोनों ही तरह से उलझ जाता है। ये दो जीवन के रूप करीब-करीब हर मनुष्य के सामने विकल्प होकर खड़े हो जाते हैं। एक रास्ता है जीवन में वासनाओं को भोगने का, उनमें डूब जाने का। एक रास्ता है उनसे भाग जाने का, उनके प्रति पीठ मोड़ लेने का। और ये दो ही बातें निरंतर हमारे समक्ष हैं।
मैं आपसे निवेदन करूंगा, दोनों ही बातें जीवन को नष्ट कर देती हैैं। संसार भी नष्ट कर देता है और संन्यास भी। भोग भी नष्ट कर देता है और त्याग भी। क्या कोई और दृष्टि भी हो सकती है जीवन के प्रति जागने की? क्या कोई ओर मार्ग भी हो सकता है? उसकी मैं चर्चा करूंगा, लेकिन इसके पहले कि मैं उसकी चर्चा करूं यह कह देना, यह समझ लेना जरूरी होगा कि ये दोनों मार्ग क्यों जीवन को नष्ट कर देते हैं? भोग का मार्ग क्यों जीवन को नष्ट कर देता है? जीवन भर इच्छाओं और वासनाओं के पीछे दौड़ कर जीवन क्यों समाप्त हो जाता है? हाथ क्यों रिक्त रह जाते हैं और खाली? कोई उपलब्धि, कोई प्राप्ति, प्राणों का कहीं पहुंचना क्यों नहीं हो पाता?
नहीं हो पाता यह तो हम जानते हैं, अपने अनुभव से भी, औरों के अनुभव से भी। मनुष्य-जाति के हजारों वर्ष के अनुभव यही कहते हैं--नहीं पहुंचना हो पाता। वासना में जितना दौड़ते हैं, जितना डूबते हैं, मन और रिक्त और खाली होता चला जाता है। मन भरता नहीं, मन पूर्णता को नहीं पाता। मन और भी खाली और रिक्त हो जाता है। और रिक्त मन ही दुख है। रिक्त मन आकांक्षाओं और प्यासों और अभीप्साओं से भरा हुआ मन। लेकिन जिसकी पूर्ति कुछ भी न हो पाई हो, ऐसा मन, ऐसा मन दुख और संताप है। लेकिन कुछ भी करें, कुछ भी पा लें, कैसे भी दौड़ें, जीवन में कोई भी उपलब्धि बन जाए, फिर भी यह मन तो भरता नहीं। आज तक किसी का भी भरा नहीं।
एक सुबह एक राजा के महल के द्वार पर बड़ी भीड़ थी, भीड़ बढ़ती ही गई, सुबह से सांझ हो गई। धीरे-धीरे पूरी राजधानी ही राजमहल के द्वार पर इकट्ठी हो गई। एक बड़ी उपद्रव की बात हो गई थी, एक बड़ी उलझन की बात हो गई थी। सारा गांव उत्सुक हो गया था। राजा बड़ी मुसीबत में पड़ गया था। सुबह-सुबह एक भिक्षु ने उसके दरवाजे पर भिक्षा मांगी थी। राजा ने उससे कहा था कि तुम पहले याचक हो, जो भी मांगोगे मैं दे दूंगा। भिक्षुक ने कहाः एक बार सोच लें, क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि न दे पाएं। ऐसे मैं कोई बड़ी मांग लेकर नहीं आया हूं, देखते हैं मेरा भिक्षापात्र बहुत छोटा है, इससे ज्यादा मागूंगा भी तो रखूंगा कहां? इसलिए घबड़ाएं न, मागूंगा तो छोटी बात, लेकिन हो सकता है उसे भरने में राजा भी कमजोर पड़ जाए, छोटा पड़ जाए। इसलिए सोच लें और फिर वचन दें।
निश्चित ही राजा को चुनौती लगी होगी। निश्चित ही राजा के मन को चोट लगी होगी। उसने कहा कि तुम जो कहोगे पूरा करूंगा, मांगो। उस भिक्षु ने कहाः मेरा यह जो भिक्षा का पात्र है इसे यदि पूरा भर दें, तो मैं तृप्त हो जाऊं और चला जाऊं ।
राजा ने कहाः यह कौन बड़ी बात है, यह कौन कठिनाई की बात है एक राजा के लिए, एक सम्राट के लिए। किस चीज से तुम चाहते हो कि मैं इसे भर दूं? उस भिक्षु ने कहा कि यह मेरी कोई मांग नहीं, बस मेरा पात्र भर जाए, इतना काफी है। राजा ने कहाः छोटा सा पात्र है। अपने खजांचियों को कहा कि जाओ हीरे-जवाहरातों से भर दो। उसके पास तिजोरियां थीं अकूत, उसके पास धन था जो कभी गिना नहीं जा सका, उसके पास दौलत थी जिसका कोई हिसाब न था, उसका राज्य था जिसकी कोई सीमाएं न थीं। सोचा कि क्या, भिक्षापात्र ही जब कोई भिक्षु लेकर आ गया है और पूरे भरने की मांग की है तो क्या अनाज के दानों से भरूं। तो उसने भर दिया पूरा भिक्षापात्र, भरने की कोशिश की। उसी कोशिश में सांझ हो गई थी। उसकी सारी तिजोरियां खाली होती गईं। वह भिक्षापात्र बड़ा अजीब था, वह भरता ही न था। धीरे-धीरे उसके अकूत खजाने खाली हो गए। और संध्या की जब उदासी उतरने लगी नगर पर तब राजा के महल में भी घनघोर अंधकार छा गया। वह भिक्षापात्र भरता ही न था। सुबह से सांझ हो गई थी। जितनी संपत्ति राजा के पास थी वह डाल चुका था। और वह भिक्षु खड़ा था। और राजधानी के लोग इकट्ठे होते चले गए थे। अजीब थी बात। भिक्षुक बड़ा साबित हो रहा था सम्राट से।
हमेशा ही ऐसा हुआ है। भिक्षुक हमेशा सम्राट से बड़ा है। सम्राट चुक जाए लेकिन भिक्षुक का मन कभी भरता नहीं। वह भिक्षु का पात्र भी नहीं भरता था। आखिर राजा ने कहाः क्षमा कर दो, भूल हो गई। भिक्षुक ने कहाः पहले ही कह देते तो इतनी देर मुझे क्यों खड़ा रहने पड़ता? इतना ही तो कहना था कि नहीं भर सकूंगा, मैं चला जाता। राजा ने कहाः लेकिन जाते समय इतना बता जाओ कि यह पात्र कैसा है? यह कैसा मैजिक, यह कैसा जादू का पात्र है, यह भरता क्यों नहीं? उस भिक्षु ने कहाः इसमें कुछ रहस्य नहीं, एक मनुष्य की खोपड़ी से इसे मैंने बनाया है। इसमें कोई जादू नहीं। मरघट से खोपड़ी खोद लाया हूं, उसी से इसे बनाया है। अब इसे दुनिया में कोई भी भर नहीं सकता है।
मनुष्य की खोपड़ी में जो बैठा है मन, वह कब भरा जा सका? कौन सा मनुष्य का मन भरा जा सका है? कब भरा जा सका है? और क्या पता है कि मन बिलकुल भिक्षुक है? मन एकदम मांगता ही चला जाता है, मांगता ही चला जाता है, मन के मांगने का कोई अंत नहीं आता। कितना ही मिल जाए तो भी मांग समाप्त नहीं होती है।
एक फकीर अकबर से मिलने गया था। उसके मित्रों ने उससे कहा था कि अकबर से कहो, इतना तुम्हें प्रेम करता है तो हमारे गांव में एक छोटा सा स्कूल, एक मदरसा खोल दे। तो वह फकीर गया। जब वह पहुंचा तो अकबर सुबह की नमाज पढ़ रहा था। वह फकीर पीछे खड़ा हो गया मस्जिद में। नमाज पूरी हुई, अकबर ने दोनों हाथ उठाए और कहा कि हे परमात्मा! मेरे राज्य को और बड़ा कर, मेरे खजानों को बड़ा कर, मेरे धन को बढ़ा, मेरी दौलत को बढ़ा। वह फकीर हैरान हो गया। उसने कल्पना न की थी कि अकबर भी मांगता होगा। वह वापस लौटने लगा सीढ़ियों से, अकबर उठा तो उसने देखा, उसने चिल्लाया कि कैसे आए और कैसे वापस लौट चले? उस फकीर ने कहाः मैंने सोचा मैं बादशाह से मिलने जाता हूं, पाया यहां भी एक फकीर बैठा है। और जो खुद ही मांगता है उसको और मैं मांग कर लज्जित करूं तो शोभा नहीं देता। तो तुम जिससे मांगते थे अगर मांगना ही होगा तो हम भी उसी से मांग लेंगे। लेकिन अब तुमको बीच में लेने का कोई भी कारण नहीं है।
अकबर भी मांगता है। सम्राट भी मांगते हैं। इसलिए दुनिया में दो तरह के भिखारी होते हैं, एक जिनके पास कुछ नहीं होता और मांगते हैं और एक जिनके पास सब होता है फिर भी मांगते हैं। लेकिन भिखारी होने में कोई फर्क नहीं होता है।
यह हो सकता है कि बहुत कुछ आपके पास हो, इससे इस भ्रम में न पड़ जाएं कि आपके भीतर का भिखमंगा मर गया। भिखमंगा मरता ही नहीं। भीतर का भिखारी समाप्त ही नहीं होता। मन मांगे चला जाता है। क्यों? क्यों मांगे चला जाता है? और जो भी मिलता है उससे पूर्ति क्यों नहीं होती? क्या है बात? इतना इकट्ठा कर लेते हैं फिर भी मन का खालीपन जहां के तहां बना रहता है सुरक्षित, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।
आपके पास जरूर कुछ न कुछ होगा, सबके पास कुछ न कुछ है। क्या उस कुछ से आपके मन का कोई कोना भी भरा? कोई कोना, छोटा-मोटा कोना भी? अगर मन का कोई छोटा-मोटा कोना भी भर गया हो तो आशा बंध सकती है कि कभी पूरा मन भी भर जाएगा। लेकिन अगर मन का कोई कोना भी नहीं भरता, जो भी हम इकट्ठा कर लेते हैं उससे मन की इंच भर जमीन भी नहीं भरती, तो फिर हम कितना ही इकट्ठा कर लें उससे मन नहीं भर सकेगा।
जरूर कोई बात है जहां हम इकट्ठा करते हैं और जहां मन की रिक्तता है, यह कोई दो तल पर होगी। इन दोनों के तल अलग होंगे। इसलिए हम एक तरफ इकट्ठा भी करते चले जाते हैं, दूसरी तरफ मन खाली का खाली भी रहा आता है। शायद हम जो भी इकट्ठा करते हैं वह मन में पहुंचता ही नहीं। इसके अतिरिक्त और कोई अर्थ नहीं हो सकता। जो हम इकट्ठा करते हैं वह मन में पहुंचता ही नहीं। पहुंचेगा भी कैसे? जो भी हम इकट्ठा करते हैं वह बाहर है और मन भीतर है। और जो भी हम इकट्ठा करते हैं वह बाहर है और मन भीतर है। भीतर और बाहर का संबंध ही क्या? भीतर और बाहर का जोड़ ही क्या? ऐसे ही है जैसे मेरा घर खाली हो और मैं पड़ोस के घर में सामान इकट्ठा करता रहूं, तो मेरा घर इससे कैसे भर जाएगा? हां, पड़ोस का घर भर जाएगा, लेकिन मैं तो खाली रहूंगा।
मन है खाली। जो खाली है वह भीतर है और जो भराव की सारी चेष्टा है वह बाहर है। बाहर और भीतर का कहीं कोई मेल नहीं होता। बाहर चीजें इकट्ठी होती चली जाती हैं, भीतर दरिद्रता सुरक्षित बनी रहती है। इसीलिए तो कितना ही धन हो, दरिद्रता नहीं मिटती, पावर्टी नहीं मिटती, भिखमंगापन नहीं मिटता। किसी का नहीं मिटा--सिकंदर का नहीं मिट सकता, नेपोलियन का नहीं मिट सकता, स्टैलिन या हिटलर का नहीं मिट सकता, हैनरी फोर्ड या कारनेगी का, या किसी और का नहीं मिट सकता, कितना ही धन हो।
कारनेगी मरता था तब उसके पास चार अरब रुपये थे, लेकिन मरते वक्त बहुत उदास था। और किसी मित्र ने पूछाः कि इतने उदास हो, तुम तो प्रसन्नता से मरो कम से कम, तुमने तो बहुत इकट्ठा किया। कारनेगी ने कहाः सब योजनाएं असफल हो गईं, मेरे इरादे दस अरब इकट्ठा करने के थे। और केवल चार ही मैं इकट्ठा कर पाया। केवल चार! और दस की योजना थी। और इस भूल में न रहें कि दस इकट्ठे हो जाते तो योजना वहीं टिक जाती, योजना आगे चली जाती। योजना बढ़ती है क्षितिज की भांति। आकाश को देखते हैं न रोज जमीन को छूते हुए, दिखता है पास में ही आकाश जमीन को छू रहा है, और फिर बढ़ते चले जाएं, बढ़ते चले जाएं, आप बढ़ते हैं आकाश भी बढ़ता चला जाता है। अब तक कोई आदमी पहुंच नहीं सका उस जगह जहां आकाश जमीन को छूता हो। असल में आकाश जमीन को कहीं छूता ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। और दिखाई इसलिए पड़ता है कि आंखें हमारी कमजोर हैं। अगर आंखें हमारी और तेज हों और दूर-भेदी हों और पारदर्शी हों और असीम तक खोज पाती हों, तो फिर आकाश कहीं छूता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा। आंख की सीमा ही आकाश के छूने की सीमा बन जाती है। ऐसे ही जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं--वासना में, भोग में, इच्छा में, वह जो डिजायर, वह जो वासना है, आगे बढ़ती जाती है। और लगता है कि थोड़ी दूर और आगे चलें तो मिलना हो जाएगा। लेकिन कितने ही आगे बढ़ जाएं फासला उतना ही होता है जितना था।
अलाइस नाम की लड़की का, छोटी सी लड़की का जीवन पढ़ा होगा। परियों की कथाएं हैं अलाइस की तो। झूठी कहानियां हैं। लेकिन दुनिया में कुछ ऐसे अदभुत लोग हुए हैं कि उन्होंने झूठी कहानियों से ऐसे सच कह दिए जो कि सत्य के नाम पर लिखे बड़े से बड़े ग्रंथों में भी उपलब्ध नहीं है। और सत्य के नाम से लिखे ग्रंथों पर तो बहुत झगड़े हो गए हैं। लेकिन छोटी-छोटी कहानियों में कुछ लोग कह गए हैं जिन पर कोई झगड़ा नहीं हुआ। और इसलिए आज भी उन कहानियों में छिपी हुई सच्चाइयां बड़ी, बड़ी अदभुत रूप से ताजी और जिंदा हैं। अभी उन पर कोई खून-खच्चर नहीं हुआ। अभी उन पर कोई मस्जिद और मंदिर नहीं बने। अभी पंडित और पुरोहित ने लड़ाई नहीं लड़ी। वे दूर, ताजी और स्वच्छ और जीवित हैं। ऐसी ही अलाइस की एक कहानी है।
वह स्वर्ग में पहुंच गई परियों के देश में। और वहां जमीन से गई परियों के देश तक तो जरूर थक गई होगी। कौन नहीं थक जाता है? इतनी लंबी यात्रा, छोटी सी लड़की, वह बहुत थक गई। उसे भूख और प्यास लग आई। जैसे ही उसने देखा जाकर, तो सूरज ऊग रहा था, स्वर्ग में सुबह हो रही थी। और परियों की रानी एक वृक्ष के नीचे खड़ी थी। और उसके हाथ में मिठाइयों का थाल था। और वह रानी उसे बुला रही थी कि आओ। वह पास ही एक दरख्त की छाया में खड़ी दिखाई पड़ रही थी। अलाइस ने दौड़ना शुरू किया, वह दौड़ने लगी तेजी से, भूख थी तेज, प्यास थी गहरी, दौड़ना था जरूरी। थकी थी फिर भी दौड़ी क्योंकि नहीं तो फिर प्यास और भूख कैसे मिटेगी? प्रलोभन था तीव्र, सामने ही वह रानी बुलाती थी। वह दौड़ती गई, दौड़ती गई, दौड़ती गई, दोपहर हो गई, सूरज सिर पर आ गया। वह घबड़ा कर खड़ी हो गई और उसने चिल्ला कर पूछा कि क्या मामला है? सुबह से दोपहर हो गई दौड़ते-दौड़ते, मेरे और तुम्हारे बीच का फासला उतना का उतना है?
वह रानी अब भी खड़ी है और बुलाए जा रही है। और उस रानी ने कहाः यह ज्यादा सोच-विचार मत करो, क्योंकि जो सोच-विचार करता है उसका दौड़ना बंद हो जाता है। तुम तो दौड़ो और आओ, कोशिश करो, जरूर पहुंच जाओगी। वह फिर भागने लगी, और सांझ हो गई और सूरज ढलने लगा। और वह अलाइस थक कर गिर पड़ी और उसने देखा रानी अब भी खड़ी है। लेकिन फासला उतना का उतना है। उसने घबड़ा कर, चिल्ला कर पूछा, ज्यादा फासला नहीं होगा, क्योंकि बातचीत हो सकती थी, उसने चिल्ला कर पूछा कि यह कैसी दुनिया है तुम्हारी? सुबह से सांझ हो गई दौड़ते-दौड़ते, यहां फासले समाप्त नहीं होते। ये कैसे रास्ते हैं तुम्हारी दुनिया के कि कहीं पहुंचाते नहीं? उस रानी ने कहाः पागल, किसी दुनिया में कोई रास्ता कहीं नहीं पहुंचाता है। और तुम्हारी दुनिया में भी दौड़ना होता है, फासले समाप्त नहीं होते हैं। जैसी तुम्हारी दुनिया है वैसी यह दुनिया है। इस दुनिया में भी कोई फासला समाप्त नहीं होता है। दौड़ें कितना ही, जहां जन्म के समय पाया था अतृप्त और खाली, मरने के समय वहीं पाएंगे अतृप्त और खाली। मरने के और जन्म के बिंदु में कोई फर्क नहीं होता, चित्त वहीं के वहीं होता है।
तो बाकी जीवन की दौड़ कहां विलीन हो जाती है? विलीन हो जाती है एक ऐसे काम में जो बिलकुल एब्सर्ड है, जो बिलकुल मूढ़तापूर्ण है। मन है भीतर, दौड़ चलती बाहर। रिक्तता है भीतर, एंप्टीनेस है भीतर, भरते हैं बाहर। सीधा अंधापन है। फिर क्या, क्या करें? भीतर कैसे भरें? भीतर कैसे रिक्तता से मुक्ति हो जाए और भीतर एक फुलफिलमेंट, एक पूर्णता, एक परितृप्ति, एक भराव उपलब्ध हो कि भीतर कोई कोना, कोई कोना भी रोता हुआ और प्यासा और भूखा न रह जाए। भीतर सब तृप्त हो जाए, यह कैसे हो? इस खयाल में कि बाहर की कोई कोशिश सफल नहीं होती, कुछ लोग बाहर से भागना शुरू कर देते हैं। स्वभावतः सीधा गणित यही कहता है कि अगर बाहर की दौड़ से कुछ नहीं होता तो भागो बाहर से। लेकिन आपको क्या पता है, बाहर से भागेंगे तो भी भीतर नहीं पहुंच सकते। बाहर से भागना भी बाहर ही भागना है। कोई आदमी धन इकट्ठा करने को दौड़ता हो, दूसरा आदमी धन को त्याग करने के पीछे लग जाए, दोनों हालत में दोनों व्यक्ति बाहर ही होते हैं--धन को इकट्ठा करने वाला भी, धन को छोड़ने वाला भी। क्योंकि धन बाहर है। और दोनों की दृष्टि बाहर होती है, तथाकथित संसारी बाहर होता है, संन्यासी भी बाहर होता है। संन्यासी उलटा खड़ा हुआ है संसारी से, लेकिन भीतर नहीं है।
एक आदमी अपने मकान के बाहर सीधा खड़ा हुआ है, दूसरा आदमी शीर्षासन कर रहा है मकान के बाहर ही खड़ा हुआ। लेकिन इससे वह कोई भीतर नहीं पहुंच जाता। उलटा खड़ा हुआ आदमी भी बाहर ही होता है, सीधा खड़ा हुआ आदमी भी बाहर होता है, भीतर इससे कोई पहुंचता नहीं। संन्यास, तथाकथित संन्यास एक प्रतिक्रिया है, एक रिएक्शन है। बाहर सुख नहीं मिलता, बाहर की खोज से कुछ होता नहीं, इसलिए बाहर को छोड़ने के लिए दौड़ने लगो। लेकिन दौड़ोगे कहां? ठीक उलटी दौड़ शुरू हो जाएगी। कोई स्त्री के पीछे भागता है, कोई स्त्री से दूर भागता है। लेकिन जो स्त्री के पीछे भागता है वह भी स्त्री का चिंतन करता है और जो स्त्री से दूर भागता है वह भी स्त्री का चिंतन करता है। दोनों के चित्त स्त्री में अटके होते हैं। और स्त्री हो तो पुरुष में अटके होते हैं। धन में अटके होते हैं, यश में अटके होते हैं। और जो इस दुनिया के यश और धन से भागने लगता है, इससे उलटा जाने लगता है, इससे दूर हटने लगता है, पलायनवादी हो जाता है, एस्केप करने लगता है, उसका चित्त किसी परलोक में सुखों की कामना करने लगता है। वह सोचने लगता है कि यहां मैंने स्त्रियां छोड़ीं तो स्वर्ग में अप्सराएं मिलनी चाहिए, नहीं तो स्वर्गों की कल्पनाएं कौन करे? और वहां अप्सराओं की कल्पनाएं कौन करे? और यहां मैंने जो कुछ छोड़ा वह मुझे वहां कई गुना ज्यादा होकर मिलना चाहिए। इसलिए उसकी कल्पनाएं, उसकी वासनाएं किसी दूरगामी लोक पर थिर हो जाती हैं। लेकिन इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
स्वर्ग की खोज भी बाहर है, परलोक की खोज भी बाहर है। और इसलिए न संसारी का मन भरता है और न संन्यासी का मन भरता है। दोनों ही रिक्त और खाली रह जाते हैं। फिर संसारी जिस-जिस बात को भोगता है, निरंतर खोजता है जिन-जिन वासनाओं को, जितनी उन वासनाओं की पटरी पर उसकी दौड़ होती है, उतनी ही वासनाएं और गहरी और प्रगाढ़ हो जाती हैं। जिन-जिन रास्तों से हम बार-बार गुजरते हैं वे रास्ते मजबूत हो जाते हैं। वे रास्ते हमारे जीवन के सहज मार्ग हो जाते हैं। फिर उन्हीं-उन्हीं रास्तों पर हमें दौड़ना पड़ता है। फिर उन्हीं-उन्हीं रास्तोें पर हम रोज-रोज पुनुरुक्त होते हैं, रोज उन्हीं को रिपीट करते हैं, वे और गहरे होते चले जाते हैं। धीरे-धीरे जीवन जड़ लीकों पर दौड़ती हुई मशीनों की भांति हो जाता है।
विलियम जेम्स एक होटल में बैठा हुआ था एक बार अमरीका की। सामने से एक, एक रिटायर्ड, सेना से अवकाश प्राप्त एक वृद्ध जनरल निकल रहा था। वह अपने सिर पर कुछ सामान लिए हुए था। विलियम जेम्स अपने मित्र से बातें करता था, बातें करते-करते उसे मजाक सूझी और उसने जोर से चिल्ला कर कहाः अटेंशन! वह जो बाहर सैनिक जा रहा था अपने सिर पर बोझ लिए, वह एकदम से अटेंशन खड़ा हो गया। उसका बोझ नीचे गिर पड़ा। दो साल हो चुके थे उसे नौकरी छोड़े हुए। लेकिन दिमाग ने एक लीक पकड़ ली थी। अटेंशन सुनते ही लीक काम कर गई, जड़ की तरह वह खड़ा हो गया, सामान उसका नीचे गिर पड़ा। उसमें बोतलें थी दवा की वे टूट गईं, उसमें कुछ और सामान था वह फूट गया। उसने आकर जेम्स को कहा कि यह कैसा मजाक करते हैं? जेम्स ने कहा कि मैं तो ‘अटेंशन’ कह रहा था, आपका इससे क्या संबंध? उस आदमी ने कहाः जीवन भर इस एक शब्द के ही केंद्र पर मैं घूमा, यद्यपि मुक्त हो गया मिलिटरी से, लेकिन चित्त ने लीकें बना लीं, रास्ते बना लिए, उन्हीं पर जड़ होकर घूमता हूं। मुझे तो अगर मैं मर भी जाऊं और कोई कह दे अटेंशन, तो मैं अटेंशन खड़ा हो जाऊंगा। उसने कहा कि मैं अगर मर भी जाऊं और कोई जोर से कह दे अटेंशन, तो मैं एकदम अटेंशन खड़ा हो जाऊंगा। मेरे बस के ही बाहर है मामला।
चित्त जिस चीज को पुनरुक्त करता है, उसी-उसी चीज में गहरे से गहरे उसकी जकड़ होती चली जाती है, वासनाओं के पीछे चलने से वासनाएं मिटती नहीं वासनाएं और गहरी और तीव्र और घनीभूत हो जाती हैं। इसीलिए बच्चे से कहीं बूढ़ा ज्यादा वासनायुक्त होता है। बच्चे में वासनाएं शुरू होती हैं, बूढ़े में जड़ हो गई होती हैं। इसीलिए तो बच्चे में एक भोलापन है जो बूढ़े में विलीन हो जाता है। उसके चित्त की सब ताजगी विलीन हो जाती हैं, सब चीजें जड़ हो जाती हैं। कुछ बातों को उसने निरंतर पुनुरुक्त किया, रोज-रोज दोहराया, वे ही रास्ते मजबूत हो गए, वह जड़ यंत्र की भांति हो गया। वासना जड़ करती है। लेकिन वासना से भागने वाला भी जड़ हो जाता है। वासना से भागने वाला भी जड़ हो जाता है। जड़ इसलिए हो जाता है कि उसके चित्त का केंद्र भी वासना है। वह भी चित्त के केंद्र पर वासना को ही छोड़ने में लगा है। वह भी वासना से भयभीत है। उसने भी वासना को जाना और समझा नहीं। अगर जान लेता और समझ लेता तो मुक्त हो जाता। उसने भी वासना को देखा और पहचाना नहीं। वह भी वासना से भयभीत होकर भाग रहा है। वह भी एक छाया से डरा हुआ है। और रोज-रोज भागता है, और स्मरण रखें, जिससे हम भयभीत हो जाते हैं वह हमें और भयभीत कराने लगता है। और जिससे हम डर जाते हैं वह हमें और परेशान करने लगता है। हमारे कमजोर क्षणों में वह लौट-लौट कर आने लगता है। और जिससे हम डर जाते हैं वह हमारे सपनों में प्रविष्ट हो जाता है, वह हमारे गहरे अचेतन में प्रविष्ट हो जाता है, वह हमारी कामनाओं में रस लेने लगता है। इसलिए साधु जो काम जागने में नहीं कर पाते वे नींद में और सपनों में कर लेते हैं। इसलिए तो साधु नींद से डरता है, घबड़ाता है। क्योंकि दिन भर जिसको रोका है वह नींद में सपना बन कर सताने लगता है, परेशान करने लगता है।
साधुओं और संन्यासियों की कथाएं सुनी होंगी, जिनमें अप्सराएं आकर उनको परेशान करती हैं। क्या पागलपन की बात है? कोई भगवान ने कोई मिनिस्ट्री खोल रखी है कहीं कि वह आकर और लोगों को सताएं और अप्सराएं आएं और साधुओं के सामने नग्न नाचें? यह कोई धंधा खोल रखा है भगवान ने कहीं? लेकिन साधुओं की ही दमित वासनाएं खुद को निरंतर किसी वासना को जबरदस्ती दबाया हो, तो वही वासना किसी कमजोर क्षण में साकार खड़ी हो जाती है सामने। कोई और कहीं से आने वाला नहीं है। लेकिन जिस चीज से डर कर हमने आंखें बंद की हैं, स्मरण रखें, वह आखें बंद करने से पीछा नहीं छोड़ देगी, वह और भीतर प्रविष्ट हो जाएगी, और भीतर प्रविष्ट हो जाएगी। आप जितनी आंख बंद करते चले जाएंगे वह उतनी और प्राणों में धंसती चली जाएगी। और एक दिन आप पाएंगे कि वासना ही आपकी आत्मा बन गई। जो जितना दमन करेगा वासना का वासना उसके भीतर प्रविष्ट होती चली जाएगी।
एक कथा मैंने सुनी है। कथा मैंने सुनी है कि इंद्र ने, वही कथा है, वही उसी मिनिस्ट्री की जिसकी मैंने बात की। वह इंद्र के हाथ में है कई हजारों सालों से। इंद्र को यही धंधा सौंपा हुआ है कि वह साधु-संन्यासियों को अप्सराएं भेज-भेज कर डिगाता रहे। पता नहीं यह इंद्र भी कोई पुराने जमाने का पॅालिटिशियन है, कौन है, क्या है, क्या मामला है? इसको इस गंदे काम को करने में कैसे रस आ रहा है? और एक-दो दिन में समाप्त भी नहीं हो रहा, वह चल रहा है हजारों साल से। तीन मुनियों के बाबत इंद्र को खबर लगी कि वे बहुत गहरी साधना में प्रविष्ट हो गए हैं। उसने उर्वशी को कहा कि तीनों के सामने जाकर नग्न नृत्य कर। उर्वशी गई, उसने सात दिन तक तो तैयारी की। स्वभाविक, साधारण स्त्रियां भी खूब तैयारी करती हैं, उर्वशी तो अप्सरा थी, सात दिन लग गए हों तो कोई आश्चर्य नहीं। और इसलिए कोई यह न कहे कि आज-कल की स्त्रियां ही बिगड़ गई हैं और बहुत तैयारी कर रही हैं, धर्मग्रंथों में लिखा हुआ है कि सात दिन तक उर्वशी ने तैयारी की, मेकअप किया।
वह गई। वह जाकर तीनों साधुओं के समक्ष नाचने लगी। वह अदभुत रूपसी होकर आई थी। वह नाचती गई, लेकिन थोड़ी देर में ही परेशान हो गई। क्योंकि वे तीनों एकटक उसे देखते रहे, लेकिन न तो कोई प्रभावित हुआ और न कोई डरा और भागा। दो में से कोई भी एक काम हो जाता, तो उर्वशी सफल हो जाती। न तो उनमें से कोई प्रभावित हुआ और लोलुप हुआ, न उनमें से कोई डरा और भागा। दो में से कोई भी, काम हो जाता तो उर्वशी सफल हो जाती। वे तीनों बैठे रहे और देखते रहे। उर्वशी थक गई, ऊब गई, परेशान हो गई। सब भांति उसने उपाय किए, लेकिन वे तीनों बैठे थे, और बैठे थे और देखते रहे। आखिर उसने अपने ऊपर के वस्त्र निकाल कर अलग कर दिए, उसके ऊपर के वस्त्रों के फेंकते ही एक मुनि चिल्लाया कि बस अब हद हो गई, अब बरदाश्त के बाहर है। दूसरे दो मुनियों ने कहा, आंखें बंद कर लो। क्योंकि उर्वशी के नृत्य पर हमारा क्या बस? अपनी आंखों पर हमारा काबू है। वह नाचती है उसे नाचने दो, अगर तुम घबड़ा गए और डर गए तो आंखें बंद कर लो। उस मुनी ने आंखें बंद कर लीं। आंखें बंद करते ही उसे दिखाई पड़ा, उर्वशी इतनी सुंदर कभी भी नहीं थी जितनी बंद आंखों में दिखाई पड़ने लगी। जिसने भी आंखें बंद की हैं उसको यह सदा दिखाई पड़ा है। बंद आंख जिंदगी में जो है उसे बड़ा, बड़ा रूपक, बड़ा मोहक आकृति दे देती है, बड़ी सम्मोहक, बड़ी हिप्नोटाइजिंग ताकत दे देती है।
कभी भी किसी चीज को आंख बंद करके देखें तो पता चल जाएगा। भयभीत होकर आंख बंद कर लें किसी चीज पर, और फिर पाएंगे, जो बाहर था उससे बहुत ज्यादा सुंदर भीतर है। सपने बहुत सुंदर हैं यथार्थ से, खुली आंख यथार्थ देखती है, बंद आंख सपने देखने लगती है। और सपने तो बहुत मनमोहक हैं।
उसने आंख बंद की वह घबड़ाया, उसने पीठ फेर ली, वह और घबड़ाया, वह उठ कर भागने लगा और उसकी कामना की उर्वशी उसके पीछे नृत्य करने लगी। उसकी आंखों में भीतर डोलने लगी, उसके प्राणों में उसके घुंघरू सुनाई पड़ने लगे। लेकिन दो अभी बैठे थे और देखे जाते थे। उर्वशी ने नीचे के वस्त्र भी निकाल कर फेंक दिए, वह पूरी नग्न हो गई। दूसरा मुनि चिल्लाया, अब हद हो गई, अब बरदाश्त के बाहर है। तीसरे मुनि नेे कहाः तो फिर आंखें बंद कर लो, क्योंकि उर्वशी पर हमारा क्या वश? अपनी आंखें हैं, जो नहीं देखना चाहता बंद कर ले। दूसरे मुनि ने आंखें बंद कर लीं। जो पहले मुनि के साथ हुआ था वही उसके भी साथ हुआ। वह भागने लगा और उर्वशी उसका पीछा करने लगी।
अभी तीसरा मुनि आंखें खोले बैठा था। अब उर्वशी मुश्किल में पड़ गई। इस तीसरे व्यक्ति के साथ अब और कुछ उघाड़ने को न रहा। वह पूरी नग्न हो गई थी, उसने सब वस्त्र फेंक दिए थे। अब कुछ भी न था जो ढंका हुआ हो। अब बड़ी कठिनाई हो गई। अब बड़ी मुश्किल हो गई, अब बड़ी बेचैनी हो गई। और वह मुनि भी अजीब था, वह बोला, कि कुछ और उघाड़ने को हो तुम उघाड़ लो; क्योंकि हमने तो आंख न बंद करने का तय किया है। और मैं देख रहा हूं कि जिन्होंने आंखें बंद कीं वे भागे चले जा रहे हैं और उनके माथों पर पसीना है। तो मैंने तो आंखें न बंद करने का तय किया। अब तुम कृपा करो और अपनी चमड़ी को भी निकाल कर अलग कर दो, ताकि मैं और गहरे देख सकूं। और अगर वहां भी कोई पर्दा हो तो उसको भी उघाड़ कर फेंक दो ताकि मैं और गहरे देख सकूं। मैं आज तुम्हें तुम्हारी पूर्णता और पूरी नग्नता में ही देख लेना चाहता हूं।
अब और कुछ उघाड़ने को नहीं था, चमड़ी के बाद फिर कुछ भी उघाड़ने को नहीं है। वहां तो जो कुछ है वह सब छिपाने को है। वह उर्वशी भागने लगी और वह मुनि उर्वशी का पीछा करने लगा। वह उर्वशी घबड़ाई कि कहीं वह चमड़ा न उखाड़ ले। वह भागती हुई इंद्र के पास पहुंची, उसने कहा कि बचाओ, एक अदभुत आदमी से मिलना हो गया है। वह कह रहा है कि चमड़ा उखाड़ कर भी अंदर कुछ हो तो हम उसे देख लेना चाहते हैं। ऐसे आदमी से कभी मिलना नहीं हुआ। यह आदमी तो बड़ा अजीब है। इसके दो साथी तो आंख बंद किए और भाग गए, लेकिन यह आंखें खोले ही बैठा रहा।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, न तो वासना में निरंतर घूम कर कोई कभी वासना से मुक्त होता है और तृप्ति को पाता है। और न वासना से भाग कर कभी कोई, कभी कोई किसी भी अर्थ में वासना से मुक्त हो पाता है। लेकिन जो व्यक्ति भी आंखें खोल कर जीवन के सत्यों को देखने की तैयारी करता है, आंखें खोल कर, जीवन धीरे-धीरे उसके सामने अपना सारा सम्मोहक रूप खो देता है। जो व्यक्ति भी आंखें खोल कर जीवन को देखने का साहस करता है उस व्यक्ति के समक्ष जीवन का सारा रहस्य उदघाटित हो जाता है। उस व्यक्ति के समक्ष जीवन में कुछ पाने जैसा नहीं रह जाता। उस व्यक्ति के समक्ष जीवन में कोई दौड़ नहीं रह जाती और न कोई भागना। जहां दौड़ नहीं है वहां कोई भागना भी नहीं है। जहां कोई आकर्षण नहीं है वहां कोई विकर्षण भी नहीं है। और जहां कोई राग नहीं है वहां कोई वैराग्य भी नहीं है।
आंखें खोल कर अगर कोई जीवन को देखने में समर्थ हो जाए, तो एक तीसरी, एक अत्यंत ही भिन्न दिशा का उदघाटन होता है। और उसके अतिरिक्त कभी कोई जीवन के दुख से और जीवन की पीड़ा से न मुक्त हुआ है और न हो सकता है। आंखें खोल कर देखना।
दोे मार्ग मैंने कहेः एक राग का मार्ग है, एक विराग्य का। तीसरे मार्ग को मैं कहता हूंः वीतराग का। आंखें खोल कर देखना, जीवन मिला है, जीवन में एक अदभुत खोज है, एक अदभुत लोक है, जिसमें हम जागें और खोजें और देखें और स्मरण रखें। जिस चीज को भी पूरा-पूरा देख लेंगे उससे ही मुक्त हो जाएंगे। जहां हम पूरा नहीं देख पाते वहीं रस सरकता रह जाता है। और जहां-जहां निषेध हो वहां-वहां रस और भी पैदा हो जाता है।
यहां इस दरवाजे पर हम लिख कर टांग दें कि भीतर झांकना मना है, फिर यहां से निकलने वाला कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं हो सकता कि बिना भीतर झांके की आकांक्षा लिए निकल जाए। बहुत कम लोग ही होंगे जो यहां से बिना झांके निकल जाएं। और निकल भी जाएंगे तो पछताएंगे। पीछे लौट कर देखने की मन में आकांक्षा जगी रहेगी।
मन सहज ही उत्सुक हो जाता है जहां निषेध है। इसलिए जिसने भी अपने मन के ऊपर निषेध किया वह अपने हाथ से एक उपद्रव में पड़ जाएगा और पीड़ा भोगेगा। निषेध न करें। लेकिन इसका क्या यह अर्थ है कि भोग करें? क्या इसका यह अर्थ है कि जीवन जो कुछ भी दिखाए उसी में डूब जाएं और जीवन जो आकर्षण दे उन्हीं में विलीन हो जाएं? नहीं, आकर्षण है ही इसलिए कि बहुत गहरे निषेध है। अगर चित्त पर कोई निषेध न हो, तो आप हैरान हो जाएंगे, चित्त पर कोई आकर्षण भी नहीं रह जाता है। और अगर फिर भी मालूम पड़े कोई आकर्षण, तो उस आकर्षण से भागे न, उस आकर्षण से पीठ न मोड़ें। क्योंकि जिसने पीठ मोड़ी, आकर्षण उसका पीछा करेगा। अगर कोई आकर्षण दिखाई पड़े, तो फिर पूरी सजगता को लेकर उस आकर्षण को जानने ही चले जाएं। पूरी खुली आंख से उस आकर्षण के पर्दों को गिरने दें और उसके एक-एक वस्त्र को गिरने दें, और खोजें वहां तक जहां तक कि हड्डी और मांस न आ जाएं और जहां सारा आकर्षण विलीन न हो जाए। अगर प्रेमी और खोजने वाली आंखें हों, तो दुनिया में कोई आकर्षण ऐसा नहीं है जो राख सिद्ध न हो। लेकिन हम आंख बंद कर लेते हैं, या तो हम मोह में आंख बंद कर लेते हैं या हम द्वेष में आंख बंद कर लेते हैं। या तो हम आंख बंद कर लेते हैं तीव्र आकर्षण में और या हम आंख बंद कर लेते हैं तीव्र विकर्षण में। दोनों हालतों में आंखें बंद हो जाती हैं। और बंद आंखें जीवन में सारे दुख का कारण हैं।
कैसे आंख खोली जा सके? जीवन के सत्यों के प्रति कैसे आंख खोली जा सके?
पहली बात, पहला सूत्र हमेशा स्मरण रखें, अगर दूसरे की शिक्षाओं को पकड़ कर आपने जीवन में खोज की, आपकी आंख कभी नहीं खुल सकेगी। आपकी आंख कभी नहीं खुल सकेगी। क्योंकि जीवन के तथ्यों को आप किन्हीं सिद्धांतों की आड़ से देखना शुरू कर देंगे और तभी निष्पक्ष न हो पाएंगे। अगर आप क्रोध को देखने गए; हजारों साल से सिखाया गया है क्रोध बुरा है। अगर आप सेक्स को देखने गए; सिखाया गया है सेक्स बुरा है। अगर इस बुरेपन के भाव को लेकर गए, तो आप देख न पाएंगे। क्योंकि देखने के लिए अत्यंत निष्पक्ष, अनप्रिज्युडिस्ड, बिलकुल तटस्थ मन चाहिए। और यह मन तो पक्षपात से भरा हो गया। और जहां पक्षपात है वहां देखना असंभव है।
अगर मैं आपके पास आऊं यह सोच कर कि ये बहुत बुरे आदमी हैं, तो मैं करीब-करीब यह निष्कर्ष लेकर लौट जाऊंगा कि आप बुरे आदमी थे। और एक दूसरा आदमी आए यह निष्कर्ष लेकर पहले से कि आप बहुत भले आदमी हैं, वह करीब-करीब निष्कर्ष लेकर लौट जाएगा कि आप बहुत भले आदमी हैं। वह जो खोजने आया था उसे खोज लेगा।
जिंदगी बहुत, बहुत जटिल है, उसमें सब कुछ है--बुरा और भला, उसमें अंधेरा है और उजाला है, उसमें छाया है और उसमें प्रकाश है। और कोई तथ्य ऐसा नहीं है जिसमें कि अंधेरा पक्ष न हो और प्रकाश से भरा पक्ष न हो। तो जो व्यक्ति जो पक्ष लेकर जाएगा वह उस तथ्य में से वही बात निकाल लेगा, लेकिन पूरे सत्य से वह कभी परिचित नहीं हो पाएगा। पूरे सत्य से वही परिचित हो सकता है जो अत्यंत निष्पक्ष मन लेकर जीवन के तथ्यों का निरीक्षण करता है। तो क्रोध का निरीक्षण करें, लड़ें नहीं, भोग न करें, क्रोध आ जाए तो क्रोध में डूब न जाएं, और क्रोध आ जाए तो राम-राम, राम-राम जप कर उससे बचने की कोशिश न करें। क्रोध आ जाए तो उसका निरीक्षण करें, स्वागत करें, जीवन ने एक तथ्य भेजा है, उसको जानें और पहचानें।
एक फकीर था, मरते वक्त उससे किसी ने पूछा कि तुम्हारे जीवन में सबसे बड़ी, सबसे बड़ी कौन सी घटना घटी? उस फकीर ने कहाः मेरे पिता मर रहे थे, और उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया, तब मैं तेरह वर्ष का था, और उन्होंने मेरे कान में कहा, कि देख बेटे, मेरे पास तुझे देने को कुछ भी नहीं है, कोई संपदा मैंने इकट्ठी नहीं की, क्योंकि मैंने पाया कोई भी संपदा वस्तुतः संपदा नहीं है, इसलिए मेरे पास तुझे देने को कुछ भी नहीं है, लेकिन फिर भी एक बात जिसके द्वारा मैं धीरे-धीरे फकीर रहते हुए भी बादशाह हो गया, एक बात जिसके द्वारा मेरे पास कुछ भी नहीं था फिर भी सब कुछ था, एक बात कि जिससे मेरे लिए और मेरे पीछे, और मुझे देख कर बादशाहों को भी ईष्र्या जगने लगी, वह बात मैं तुझसे कह दूं। शायद तुझे स्मरण रह जाए, शायद कभी तेरे वक्त-बेवक्त काम आ जाए, तो उस युवक ने उनसे पूछा कि कौन सी बात? तो उसके पिता ने मरते हुए पिता ने कहा था कि तब जब भी तेरे जीवन में कोई तथ्य आए--क्रोध, कामवासना, कोई भी बात तेरे जीवन में आए, तू उसे मेहमान की तरह जान कर स्वागत करना, अतिथि की तरह जान कर स्वागत करना। न तो एकदम उसके प्रभाव में डूब कर खुद को भूल जाना और न उससे आंखें चुराना। स्वागत करना घर आए अतिथि का अत्यंत प्रेम से, और निरीक्षण करना बहुत गहरा, क्या-क्या उसमें छिपा है।
उस युवक ने जीवन भर इसका प्रयोग किया। मरते समय वह भी अपने मित्रों से कह सका कि अगर मुझे यह सूत्र न मिला होता तो मेरा जीवन पानी में खींची गई लकीरों की भांति व्यर्थ हो जाता। लेकिन मैंने जीवन के एक-एक तथ्य का अत्यंत धैर्यपूर्वक स्वागत किया, निरीक्षण किया, अॅाब्जर्वेशन किया, देखा, और मैं हैरान हो गया, मैंने पाया कि उन सभी तथ्यों के निरीक्षण में, निरीक्षण करते ही करते उन तथ्यों में जो भी अशुभ था वह विलीन हो गया और जो शुभ था वह शेष रह गया। क्रोध के भीतर भी कुछ है, क्रोध के भीतर भी कुछ है जो बच जाए। क्रोध के भीतर भी कुछ है जो बच ही जाना चाहिए। जिस व्यक्ति में क्रोध न हो उसमें कोई तेज ही नहीं होता, उसमें कोई तेजस्विता नहीं होती, उसके भीतर कोई पोटेंस नहीं होती। वह नपुंसक होता है, इंपोटेंट होता है। उसके भीतर कोई बल नहीं होता, उसके भतीर कोई ओज नहीं होता। क्रोध में भी कुछ है। लेकिन जिसके भीतर क्रोध होता है, हम देखते हैं, वह तो नरक हो गया। हम देखते हैं, वह तो आग में जल रहा है और तड़फ रहा है। आग से घर में दीया भी जलाया जा सकता है और घर में आग भी लगाई जा सकती है। इससे आग न तो बुरी हो जाती कि उससे आग लग जाती है और घर जल जाता है, लेकिन उससे दीया भी जलाया जा सकता है और अंधेरे में प्रकाश भी किया जा सकता है। आग में कुछ है जो बचाया जा सकता है। आग में कुछ है जो छोड़ा जा सकता है। ठीक क्रोध में भी कुछ है, सेक्स में भी कुछ है। जिस व्यक्ति में सेक्स ही न हो, जिस व्यक्ति के भीतर कामवासना न हो, उस व्यक्ति से कुछ भी क्रिएट नहीं होता, कोई सृजन नहीं होता उससे। अब तक दुनिया में उन लोगों ने जिनके भीतर कोई काम की वासना नहीं थी बचपन से, उनके भीतर कोई सृजन पैदा नहीं हुआ। न उनसे गीत पैदा हुआ, न उनसे एक संगीत की लहर जन्मी, न उन्होंने एक चित्र बनाया, न उन्होंने एक गांव बसाया, न उन्होंने बगीचे लगाए और फूल पैदा किए। उनसे कुछ भी नहीं हुआ।
जीवन में जो भी सृजनशीलता है, जो भी क्रिएटिविटी है, वह सेक्स का हिस्सा है। लेकिन हम तो देखते हैं, एक आदमी सेक्स के जीवन में पड़ जाता है तो उसका जीवन सिवाय दुख और पीड़ा के और ग्लानि के और शक्तिहीनता के कहीं भी नहीं जाता। जरूर सेक्स के भीतर जो भी अशुभ है वही पकड़ लिया जाता है और जो शुभ है वह छूट जाता है।
शुभ को खोजने के लिए बहुत पैनी आंख चाहिए। और स्मरण रखें, एक छोटे से बीज को प्रकृति छिपाती है, तो सख्त खोल में छिपा देती है, सख्त खोल ऊपर चढ़ा देती है, भीतर बीज को छिपा देती है। अगर हम सख्त खोल से ही डर कर वापस लौट आएं, तो फिर बीज कभी बोया नहीं जाएगा। लेकिन हम जानते हैं सख्त खोल बीज की दुश्मन नहीं है, बीज की सुरक्षा है। बीज को डालें खेत में, जमीन में, सख्त खोल गल जाएगी और टूट जाएगी और अंकुर निकल आएंगे। उन कोमल अंकुरों की सुरक्षा के लिए सख्त खोल थी। मनुष्य के जीवन में जिसे भी हम बुरा कहते हैं, मैं बुरा नहीं कहता, मैं कहता हूं, वह सख्त खोल की तरह है उसके भीतर बड़े कोमल अंकुर छिपे हुए हैं। जो आदमी क्रोधी होता है अगर किसी भी दिन क्रोध की शक्ति से पूरी तरह परिचित हो जाए वही क्षमावान हो जाता है। क्रोध के भीतर क्षमा छिपी है। और जिस आदमी के जीवन में क्रोध नहीं है उसके जीवन में क्षमा कभी नहीं होगी।
क्या आपको पता है जिस आदमी के भीतर बहुत ज्यादा काम की वासना होती है वही व्यक्ति सचमुच में कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो पाता है, अन्यथा दूसरा व्यक्ति नहीं। सेक्स की शक्ति ही, काम की शक्ति ही ब्रह्मचर्य का ओज बन जाती है। जैसे किसी घर के बाहर हम खाद को इकट्ठा कर दें, गंदगी को इकट्ठा कर दें, तो बास, दुर्गंध फैलना शुरू हो जाएगी। वहां जीना और रहना कठिन हो जाए, वहां श्वास लेना मुश्किल हो जाए। लेकिन जो जानता है वह उस खाद को बगिया में डाल देता है। और बीज बो देता है। और बीजों से पौधे निकलते हैं और फूल आते हैं। और उन फूलों में जो सुगंध है वह उसी खाद से खिंच कर निकलती है। वह उसी का ट्रांसफार्मेशन है, वह उसी का रूपांतरण है। खाद के दुश्मन न बन जाएं, खाद के उपयोग करने वाले बनें। खाद के गुलाम न बन जाएं, खाद के मालिक बनें। जीवन में जो भी वासनाएं हैं वे सारी की सारी वासनाएं खाद बन सकती हैं आत्मा के फूलों के लिए। लेकिन जो उनसे लड़ता है वह कैसे उन्हें खाद बना पाएगा? और जो उनमें डूब जाता है वह दुर्गंध में डूब जाता है। और जो उनसे भागता है वह सुगंध से वंचित रह जाता है।
समझ लें, फिर से दोहराता हूं, जो खाद में डूब जाता है वह दुर्गंध में डूब जाता है। और जो खाद से भागने लगता है वह सुगंध से वंचित रह जाता है। जो खाद का उपयोग करता है और खाद को रूपांतरित करता है, वह दुर्गंध से मुक्त होता है और सुगंध को उपलब्ध होता है। जीवन का भी सूत्र यही है। जीवन में जो भी है, जो भी है, परमात्मा के जीवन में वह जो भी मिला है प्रकृति से वह सब छिपा हुआ, छिपा हुआ सौभाग्य है। उससे घबड़ाएं न, उससे भागें न, उसमें डूब भी न जाएं। फिर क्या करें? उसका निरीक्षण करें, उसके साक्षी बनें, उसका अॅाब्जर्वेशन करें, उसे देखें, उसे पहचानें, उसे सब तरफ से खोजें और उससे परिचित हों, उसमें कुछ भी अपरिचित न रह जाए। जिस दिन क्रोध को कोई पूरा जान लेता है, क्रोध से मुक्त हो जाता है। लेकिन क्रोध का जो तेज था, जो वीर्य था, क्रोध का जो ओज था, वह उसमें बच रहता है, वह उसमें बच रहता है। वह निर्वीर्य नहीं हो जाता। जो काम को, सेक्स को पूरा समझ लेता है; सब तरफ से उसे खोजता है, देखता है, निरीक्षण करता है, बारीक से बारीक उसके पहलू में प्रवेश करता है, सूक्ष्म से सूक्ष्म उसको पहचानता है, वह सेक्स से मुक्त हो जाता है। उसी के भीतर ब्रह्मचर्य का जन्म होता है, उसी के भीतर वह सारी शक्ति दिव्य ऊर्जा में बदल जाती है।
तो मैं आपसे निवेदन करूं, तीसरा है मार्गः न तो भोग का, न दमन का; वरन रूपांतरण का, टांसफार्मेशन का। और रूपांतरण होता है निरीक्षण से, अॅाब्जर्वेशन से। क्या आपको खयाल है, क्या आपको पता है कि जैसे ही हम चीजों को देखना शुरू करते हैं, एक बुनियादी अंतर शुरू हो जाता है। जीवन में एक बुनियादी अंतर शुरू हो जाता है। क्या यह संभव है कि एक मकान में आप हों और आपको दिखाई पड़ता हो कि सामने दरवाजा है, फिर भी क्या आप दीवाल से निकल सकेंगे? नहीं निकल सकेंगे। दरवाजा जिसे दिखाई पड़ता है वह दीवाल से कैसे निकलेगा? वह तो दरवाजे से निकल जाता है, दीवाल से नहीं निकलता। अगर कोई दीवाल से टकराता हो, तो जानना चाहिए उसकी आंख खुली हुई नहीं हैं, इसलिए टकराता है। जीवन में जो भी अनीति है, वह आंख के बंद होने के कारण है। दुनिया में कोई बुरा आदमी नहीं है, दुनिया में कोई भला आदमी नहीं है। दुनिया में ऐसे लोग हैं जिनकी आंखें बंद हैं और ऐसे लोग हैं जिनकी आंखें खुली हैं। खुली आंखों वाले लोग हैं और बंद आंखों वाले लोग हैं। आंख जिसकी भी खुल जाए उससे बुराई असंभव हो जाती है। आंख जिसकी खुल जाए वह दरवाजे से निकलता है, दीवालों से नहीं टकराता। हम टकराते हैं, इसका एक ही अर्थ है कि आंख बंद है। और बंद आंख वाला भागने लगे तो कोई हल होने वाला है क्या? आंख खुलेगी तो हल होगा, भागने से कोई हल होने वाला नहीं है। अभी इस दीवाल से टकराते थे, भागेंगे तो दूसरी दीवाल से टकराएंगे, द्वार कैसे मिल जाएगा? भागने वाला आदमी द्वार कैसे पा सकता है? अभी एक दीवाल से टकराता था, भागेगा दूसरी दीवाल से टकराएगा। लेकिन द्वार खोजने के लिए न भागने की जरूरत है, न अंधें की भांति टकराने की जरूरत है, आंख खोलने की जरूरत है। जीवन के प्रति आंख खोलने की जरूरत है। और हमारी आंखें सच में ही करीब-करीब बंद हैं। हम जीवन के किसी तथ्य को न तो देखते हैं, न खोजते हैं। कभी आपने अपने क्रोध को खोजा?
हिंदुस्तान से एक फकीर कोई डेढ हजार वर्ष हुए चीन गया, वहां का एक बहुत बड़ा बादशाह उससे मिलने आया। और उस बादशाह ने कहाः मैंने सुना है कि तुम किसी का भी मन शांत कर देते हो। उस फकीर ने कहा कि बिलकुल, यही हमारा धंधा है, लोगों का मन शांत कर देना। तुम्हें मन शांत करवाना है? वह बादशाह हैरान हुआ। बहुत फकीरों से मिला था, वे शांति की बातें समझाते थे, कहते थे, ऐसा करो, वैसा करो, तो शांत हो जाओगे। यह अजीब आदमी है उसने कहा कि तुम्हें मन शांत करवाना है? अगर करवाना है तो सुबह चार बजे आ जाओ, जरा जल्दी आ जाना, कोई दूसरे लोग न आ जाएं। तो मैं तुम्हारा पहले ही शांत कर दूंगा। तो वह राजा संदिग्ध हुआ मन में कि ऐसी कोई आसान बात है क्या किसी का मन शांत कर देना? यह कोई मशीन है क्या कोई ठीक कर दे? लेकिन फिर भी उसने सोचा कि एक मौका तो देना चाहिए इस फकीर को भी, दिखता तो पागल है। क्योंकि इसकी बात में कोई समझ तो मालूम होती नहीं। अब तक किसी ने यह कहा ही नहीं। वह सीढ़ियां उतरने लगा उस मंदिर की जिसमें फकीर ठहरा था, बीच में फकीर ने चिल्ला कर कहा कि सुनो, कल आओ तो खयाल से अपने अशांत मन को साथ ले आना, नहीं तो हम शांत क्या करेंगे? राजा और हैरान हुआ, कि जब मैं आऊंगा तो मन तो मेरे साथ ही होगा, यह कहने की क्या जरूरत थी? यह आदमी पागल मालूम होता है।
दूसरे दिन चार बजे क्या तीन बजे ही राजा पहुंच गया। कौन नहीं अपने अशांत मन को शांत करवा लेना चाहेगा? आप भी होते आप भी पहुंच गए होते। और मुफ्त में हो रहा था। कुछ काम भी वह करवा नहीं रहा था--कुछ धन नहीं ले रहा था, कुछ मांग नहीं रहा था, कुछ छीन नहीं रहा था। वह पहुंचा। उस फकीर ने पूछा कि ले आए अपना मन? उस राजा ने कहाः यह भी क्या हैरानी की बात करते हैं, मैं आया तो मन भी आ गया। उसने कहाः इतना आसान मामला नहीं है कि तुम यहां आ गए तो तुम्हारा मन भी आ गया हो, यह जरूरी नहीं है। आदमी कहीं होता है मन उसका कहीं होता है।
अभी आप ही यहां बैठे हैं, कोई जरूरी थोड़े ही है कि आपका मन भी यहीं बैठा हो। आप यहां हो और मन कहीं और हो। सौ में निन्यानबे मौके तो यही हैं कि मन कहीं और होगा। आदत मन की कहीं और ही रहने की है। तो उस फकीर ने कहा कि जरूरी नहीं है। आंख बंद करो। उस फकीर के कहने पर उस राजा ने आंख बंद की, उस फकीर ने कहा कि मैं तो यह देखता हूं कि तुम एक चमार की दुकान पर खड़े हुए हो। सच बात थी। वह रात भर से सोच रहा था, उसके जूते खराब हो गए थे। और वह सोच रहा था कि एक चमार के यहां सुबह से जाकर जूते खरीद लिए जाएं। तो वह आ तो गया था फकीर के यहां। मन की शांति उतनी मूल्यवान भी कहां हैं, जूते खरीदना बहुत बड़ी बात है। तो आ तो गया था मन शांत कराने, लेकिन सोच रहा था जूते खरीदने की बात।
उस फकीर ने कहा कि मैं तो देखता हूं तुम जूते खरीद रहे हो एक दुकान पर। अभी दुकान भी नहीं खुली है और तुम पहुंच गए। और अभी चमार उठा भी नहीं और आप हाजिर हैं। राजा घबड़ाया, उसने कहा कि आप कहते तो ठीक हैं, मेरा मन तो वहीं चला गया था। उसने कहाः इसीलिए मैंने कहा था कि तुम मन ले आना। अब तुम मन ले आओ, आंख बंद करो, मन यहां आने दो और खोजो मन के भीतर कि अशांति कहां है। और जैसे ही अशांति पकड़ में आ जाए मुझे बता दो, मैं उसे हमेशा के लिए समाप्त कर दूं। उस राजा ने आंखें बंद कीं, उस निपट सन्नाटे में, सुबह वहां और कोई भी न था, रात थी अभी तो गहरी, अंधेरा था। और वह फकीर अदभुत सामने बैठा था और वह एक डंडा हाथ में लिए था। और उसने कहा कि जैसे ही तुमने बताया कि यहां अशांत है कि मैं उसे डंडे से बिलकुल ठीक ही कर दूंगा।
पागल आदमी से पाला पड़ गया था। और राजा डरा हुआ आंख बंद करके भीतर खोजने लगा कि अशांति कहां है? वह जैसे-जैसे खोजने लगा वहां कोई अशांति पकड़ में आती भी नहीं थी। कोई आधा घंटा यह चला होगा। उस फकीर ने डंडे से उसको धक्का दिया और कहाः बहुत देर लगा रहे हो, पकड़ो कहां है अशांत मन? उसने कहाः मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं, मैं उसे खोजने जाता हूं वह मिलता नहीं। उस फकीर ने कहा कि जाओ मैंने शांत कर दिया। और तुम्हें सूत्र कहे देता हूं, अशांति को खोजना अशांति विलीन हो जाएगी। अभी तुम खोजते हो मिलती नहीं।
तुम जिस चीज के प्रति भीतर जाग जाओगे और खोजने लगोगे वह विलीन हो जाएगी। क्योंकि जागे हुए आदमी का मन दीये की ज्योति की तरह हो जाता है। अगर आपके घर में अंधेरा हो और मैं आपसे कहूं कि एक दीया जला कर खोजें कि अंधेरा कहां हैं? तो जिस कोने में आप दीया लेकर जाएंगे वहीं से अंधेरा विलीन हो जाएगा।
आप कभी दीया लेकर अंधेरे को खोज नहीं सकते। अभी तक सूरज इतने दिनों से रोज सांझ-सुबह डूबता-निकलता है, खोज रहा है, अभी तक मिल नहीं पाया अंधेरे से। अभी तक सूरज खोज नहीं पाया कि अंधेरा कहां है। वह जहां मौजूद होता है वहीं अंधेरा विलीन हो जाता है।
ज्ञान ने अब तक कोई अंधेरा नहीं जाना है भीतर। खुली आंख भीतर कोई अंधेरा नहीं जानती, कोई पाप नहीं जानती। तो आंख खोलें और भीतर खोजें कि कहां है क्रोध? और जब क्रोध उठे, तो उसका निरीक्षण करें। और जब वासना मन को पकड़े, तो उसका निरीक्षण करें। देखें, खोजें, पहचानें, दो खुली आंखों को भीतर ले जाएं। हमारी आंखें सारी दुनिया को देखती हैं, पड़ोसी को देखती हैं, दूर दुनिया में रहने वाले आदमी को देखती हैं, लेकिन खुद को, खुद को देखने के लिए हमारी दो आंखें बिलकुल काम में हम नहीं लाते। सारी दुनिया को देखना चाहते हैं, सारी दुनिया के आलोचक बनना चाहते हैं। आलोचक का मतलब? आलोचक का मतलबः जिसने अपनी आंखें दूसरे पर जोर से जमा दीं। लोचन का मतलब आंख होता है। आलोचक का मतलब होता हैः जोर से आंख किसी पर लगा दे। ऐसे आदमी को हम लुच्चा भी कहते हैं। लुच्चे का मतलब भी यही होता है कि कोई जोर से किसी पर आंख गड़ा दे। उसको हम कहते हैं, बहुत भद्दे ढंग से देख रहा है। आलोचक और लुच्चे एक जैसे ही होते हैं, कोई फर्क नहीं होता। दूसरे को बहुत गौर से देखना, लेकिन एक और तरह का जीवन भी होता है, खुद को ही बहुत गौर से देखना। जितनी तीव्रता से हम खुद को देखने लगें और खुद के जीवन की वृत्तियों का निरीक्षण और खोज करने लगें उतना ही आप हैरान हो जाएंगे, एक बहुत अदभुत सूत्र का जन्म होगा, दिखाई पड़ेगा कि जैसे ही देखना शुरू किया, जो-जो व्यर्थ था वह क्षीण होने लगा, जो-जो सार्थक था वह उभरने लगा, जो-जो विसंगीत था वह विदा होने लगा। जो-जो संगीत था उसकी ध्वनियां आने लगीं, जो-जो दुर्गंध थी वह जाने लगी। जो-जो सुगंध थी उसके फूल खिलने लगे।
मनुष्य की आत्मा में बहुत है, बहुत, उसे हम बाहर से भरना चाहते हैं। हम पागल हैं। इसलिए वह कभी बाहर से भर नहीं सकती, भर सकती है भीतर से। लेकिन भीतर अभी बीज पड़े हैं, उन बीजों को अगर हम फूल बना सकें तो भीतर एक बगिया बन जाए और भीतर सब भर जाए। लेकिन उन बीजों को हम फूल नहीं बना पाएंगे, क्योंकि जिसने कभी अपने भीतर जाकर देखा भी न हो वह अपने भीतर के बीजों को कैसे खोजेगा? वह उस खजाने को कैसे खोजेगा जिसके ऊपर ही बैठा हुआ है।
एक गांव में एक भिखमंगा मरा। वह तीस वर्ष से एक ही जगह बैठ कर भीख मांग रहा था। उसने बहुत भीख मांगी थी। लेकिन भीख मांगने से कहीं कुछ होता है? भीख मांगने से कभी कोई समृद्ध होता है? वह भी समृद्ध नहीं हुआ था। मर गया। एक ही जगह बैठा रहा था अपने गंदे कपड़े फैलाए हुए। तो मोहल्ले के लोगों ने सोचा, उसको तो दफनाएं, उसके कपड़ों को जलवाएं, और उन्होंने सोचा कि तीस वर्ष तक यह भिखमंगा यहां उपद्रव करता रहा बैठा, गंदगी फैलाता रहा, तो इस जमीन को भी थोड़ा बहुत खोद कर हटा दें और दूसरा मिट्टी लाकर इस पर डाल दें। तो उन्होंने एक-एक फीट चार-छह फीट का हिस्सा जमीन खोदी, खोदते ही वे हैरान रह गए, उस एक फीट नीचे ही बहुत बड़ा खजाना गड़ा हुआ था। और वह भिखमंगा तीस साल उसी खजाने पर बैठा हुआ भीख मांगता रहा। लेकिन उसने कभी जमीन ही न खोदी जिस पर वह बैठा हुआ था।
और हममें से भी मुश्किल से कभी कोई उस जमीन को खोदता है जिस पर हम बैठे हुए हैं। और वहां निश्चित खजाने हैं। उन्हीं खजानों को तो कोई क्राइस्ट पा लेता है, कोई मोहम्मद, कोई कृष्ण, कोई राम, कोई बुद्ध, कोई महावीर उसी खजाने को पाकर नाच उठता है आनंद से, समृद्ध हो जाता है, मालिक हो जाता है। और हम उसी खजाने पर बैठे भिक्षापात्र लिए भीख मांगते रहते हैं। और तीस साल बाद जब तीस साल के अभ्यास से हम खूब बड़े भारी भिखमंगे हो जाते हैं। और मरते हैं तो हमारे मरने के बाद दूसरे लोग जमीन साफ करने के लिए और हमको हटाने के लिए इंतजाम करेंगे, लेकिन हम खुद कभी, कभी भी इस खयाल से नहीं भरते कि जब मैं पैदा हुआ हूं और मेरे भीतर जीवन इतनी लहरें ले रहा है और मेरे भीतर प्राण थिरक रहे हैं और मेरे भीतर एक चेतना है, एक होश है, एक आत्मा है, मैं जीवित हूं, जीवंत हूं, जब मेरे भीतर जीवन लहरें ले रहा है तो कहीं इस जीवन के लहरें लेते हुए व्यक्तित्व के पीछे ही कोई सागर तो नहीं छिपा, कोई खजाना तो नहीं छिपा? मैं वहां जाऊं और खोजूं। मैं वहां पहुंचू और जागूं, तो शायद, शायद खजाना एक फीट से ज्यादा दूर नहीं है।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
खजाना बहुत निकट है, उनके लिए जो आंखें खोलते हैं और उस जमीन को खोदते हैं जिस पर खड़े हैं--क्रोध पर आप खड़े हैं, सेक्स पर आप खड़े हैं, शत्रुता पर आप खड़े हैं, घृणा पर आप खड़े हैं, द्वेष पर आप खड़े हैं, इस सबको खोदें, यही जमीन है जिस पर आप खड़े हैं, जिस पर कोई भी खड़ा है, इसको खोदें, हो सकता है कि बहुत ही थोड़ी गहराई पर खजाने मिल जाएं।
क्लोरिडो का नाम सुना होगा। वहां जब सबसे पहले आज से कुछ वर्षों पूर्व सोने की खदानें मिलीं। तो वहां एक बड़ी अदभुत घटना हुई। वहां एक घटना हुई, सोने की खदानें मिली थीं, लोग जमीनें खरीद रहे थे क्लोरिडो में। और जो थोड़ी बहुत भी जमीन खरीद लेता था वही अरबपति और धनपति हो जाता था। ऐसा सोना उगल रही थी जमीन। जिनके पास जितना पैसा था उन्होंने उतना पैसा लगा कर उन्होंने जमीनें खरीद लीं। एक बहुत बड़े करोड़पति ने सोचाः छोटी-मोटी जमीन क्या खरीदूं, उसने अपनी सारी फैक्टरी बेच कर, सारी धन-दौलत बेच कर अपना मकान तक बेच दिया और किराए के मकान में चला गया। और उसने कोई एक करोड़ रुपया लगा कर एक पूरी पहाड़ी खरीद ली। उस पहाड़ी पर उसने, बड़े-बड़े खोदने के यंत्र ले गया और खुदाई शुरू हुई और दुर्भाग्य भी शुरू हुआ। खुदाई होती गई पत्थरों के सिवाय उस पहाड़ी पर कुछ भी हाथ न लगा। आस-पास ही लोगों ने छोटे-छोटे खेत खरीद लिए थे और उन खेतों में सोना मिला था। और उस पहाड़ी पर कुछ भी नहीं था, वह पहाड़ी बिलकुल खाली मालूम होती थी। घबड़ाहट फैल जानी स्वाभाविक थी। उसके परिवार के लोग तो मूच्र्छित होने लगे। और उन्होंने कहा कि यह क्या पागलपन किया? चलती रोजी थी, कमाई अच्छी थी, वह सब बरबाद हो गई। और एक पत्थर का पहाड़ खरीद लिया। उस आदमी ने लेकिन साहस न खोया और वह खुदाई करता ही गया और करता ही गया, लेकिन सारे घर के लोग उसे पागल कहने लगे, घर में खाने-पीने तक की मुश्किल खड़ी हो गई। उस पहाड़ से कुछ भी नहीं निकल रहा था सिवाय पत्थरों के। मजदूरों को पैसा चुकाना भी मुश्किल हो गया था। और जो यंत्र पहाड़ पर चढ़ाए थे, उन्हें उतारने के लायक पैसे भी उनके पास नहीं रहे थे।
उसने विज्ञापन किया कि मैं अपने पूरे पहाड़ को मय यंत्रों के बेचना चाहता हूं। और उसने दो करोड़ रुपये दाम रखा। उसके घर के लोगों ने, उसके मित्रों ने कहा कि तुम क्या पागल हुए हो? तुम्हारे दुर्भाग्य और दुर्घटना की खबर सारे मुल्क में पहुंच गई है, कौन इसे खरीदेगा? अब मुश्किल है कि कोई पागल इस चक्कर में फंस जाए जिसमें तुम फंसे। उस आदमी ने कहाः ऐसा मत सोचो, मुझसे भी बड़ा कोई पागल हो सकता है। और एक आदमी मिल गया जो उसे दो करोड़ में खरीदने को राजी हो गया। उसके घर के लोगों ने कहा कि तुम आंखें रहते हुए क्या अंधापन कर रहे हो? एक आदमी डूब कर, टकरा कर मर गया उसी पहाड़ से और तुम भी वही कर रहे हो। उस आदमी ने कहाः हो सकता है एक ही हाथ खोदूं और सोने की खदान आ जाए। जहां तक खोदा गया वहां तक सोना नहीं है, यह जाहिर है, लेकिन उसके आगे नहीं है यह किसने कहा। निश्चित ही लोगों ने कहाः तुम्हारा दिमाग खराब है। अपने हाथ से मुश्किल में पड़ते हो।
उसने वह पहाड़ खरीद लिया। और आश्चर्य की बात है, एक ही फीट के बाद खदान शुरू हो गई। एक ही फीट के बाद खदान है। क्लोरिडो मत जाइए। जिस जमीन पर आप बसते हैं वहीं खोद डालिए। और उस खदान को खोदने के लिए कोई बहुत बड़े मशीन और उपकरण की जरूरत नहीं, सिर्फ निरीक्षण का उपकरण चाहिए, सिर्फ देखने वाली आंखें चाहिए। खोजने वाली आंखें चाहिए, इंक्वायरी करने वाली, अॅाब्जर्व करने वाली। निरीक्षण करने वाली चित्त की दशा चाहिए। तो अपने निरीक्षक हो जाएं, अपने साक्षी हो जाएं और देखें। और डरें न, घबड़ाएं न, आंख बंद न करें। आंख बंद करने वाले धर्मों ने ही मनुष्य को धर्म से वंचित किया है। एक ऐसे धर्म की दुनिया में जरूरत है जो खुली आंखों वाला हो, आंख बंद करने वाला नहीं। एक ऐसे धर्म की जरूरत है जो खुली आंख से जीवन को देखने के लिए समर्थ बनाए, साहसी बनाए, हिम्मत दे और कहे कि खोजो। हरेक व्यक्ति एक अदभुत खदान है। लेकिन जो खोजता ही नहीं उसके हाथ में पत्थर के सिवाय कुछ भी नहीं पड़ता। और जो खोजता है, उसे सोने की खदानें निश्चित उपलब्ध हो जाती हैं।
अगर एक भी मनुष्य को मनुष्य-जाति में कभी अपने भीतर स्वर्ण की खदानें मिली हैं तो हर एक-दूसरे मनुष्य को मिल सकती हैं। क्योंकि कोई एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से बहुत भिन्न नहीं है। हम अपने पाप में भी समान हैं, हम अपने भीतर परमात्मा में भी समान हैं। स्मरण रखें, हम अपने पापों में भी समान हैं तो हम अपने परमात्मा में भी समान होंगे।
एक और छोटी कहानी मैं कहूं और फिर चर्चा पूरी करूं।
एक चर्च में एक पादरी ने एक संध्या अपने सुनने वालों से कहा कि कुछ जरूरत पड़ गई है चर्च को, कुछ थोड़े से धन की जरूरत है, और मैं चाहता हूं कि सब लोग कुछ दान करें। अभी जब सभा पूरी होगी तो मैं अपनी टोपी घुमाऊंगा, तो हर कोई कुछ न कुछ दान जरूर दें, और एक बात भी स्मरण रखें, उसने आखिर में कहा, कि एक ऐसा भी आदमी यहां बैठा हुआ है, कोई बीस आदमी वहां बैठे हुए थे, एक ऐसा भी आदमी बैठा हुआ है जो किसी दूसरे की, पराए की स्त्री से प्रेम करता है, उस स्त्री ने ही आकर मुझे कहा है, तो मैं उसे याद दिला दूं कि वह आदमी कम से कम एक डालर जरूर दे जाए, नहीं तो मैं सबके सामने उसका नाम खोल दूंगा। उस दिन उस टोपी में उन्नीस डालर पड़े। और एक आदमी जिसने डालर नहीं डाला, उसने थोड़े फुटकर पैसे डाले और साथ में चिट्ठी डाली कि कृपा करके नाम न खोलिए, रात तक पूरे पैसे पहुंचा दूंगा।
हम अपने पापों में समान हैं, हम अपने क्रोध में, अपनी ईष्र्याओं में समान हैं, हम अपनी बेईमानी में, हम अपने धोखों में समान हैं, हम अपने अंधकार में समान हैं। लेकिन इससे घबड़ाएं न, इससे ही सबूत मिलता है कि अगर हमारे भीतर परमात्मा भी होगा तो हम उसमें भी समान होंगे। और अगर कृष्ण के भीतर मिल जाता है, और बुद्ध और महावीर के भीतर मिल जाता है, तो घबड़ाए न, पापों में हम महावीर और बुद्ध के समान हैं, तो परमात्मा में भी हम अन्य और भिन्न नहीं हो सकते। वहां भी हम समान होंगे, वहां भी हम समान हैं। सबके भीतर बैठा है कुछ, जो आंखें खुलते ही उपलब्ध हो सकता है। उस तरफ थोड़ी चेष्टा करें, उस तरफ थोड़ा प्रयास करें, उस तरफ भीतर किसी संकल्प को घनीभूत होने दें, उस तरफ कोई जीवन में जिज्ञासा और अभीप्सा बनने दें।
और स्मरण रखें, संसार की दिशा में कोई कितना ही प्रयत्न करे सफल नहीं हो सकता, क्योंकि वह दिशा भीतर को भरने में असमर्थ है। और परमात्मा की दिशा में कोई अल्प भी प्रयत्न करे, तो निश्चित सफल हो जाता है, क्योंकि वह उसको उघाड़ देती है जो भीतर मौजूद है। कुछ पाना नहीं है, उघाड़ना है। परमात्मा बहुत निकट है। सिर्फ देखने वाली आंखें चाहिए। और यह देखने वाली आंखें कहां से लाइएगा? जिसको हम पाप कहते हैं उसी पाप के प्रति जागिए, तो देखने वाली आंख पैदा हो जाएगी। और देखने वाली आंख पैदा हो जाए तो पाप विलीन हो जाता है और जो शेष रह जाता है वही परमात्मा है।
मेरी इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे मैं अत्यंत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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