दसवां प्रवचन
अनुग्रहपूर्ण रागशून्यता और मन का अतिक्रमण
दिनांक 30 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूनाकथा:
सदगुरु जोशू ने एक बार अपने शिष्यों को यह चेतावनी दीः ‘जहां बुद्ध पुरुष हों वहां ज्यादा देर मत टिकना; और जहां बुद्ध पुरुष नहीं हों, वहां से तुरंत खिसक जाना।’ इसी महान गुरु ने दूसरी बार कहाः ‘यदि बुद्ध का नाम लेना तो पीछे ठीक से मुंह धो लेना।’और यही जोशू प्रायः संध्या समय बुद्ध की प्रतिमा के सामने फूल चढ़ाते, सुगंध जलाते और सिर टेकते भी देख जाते थे।
ओशो, अंतर्विरोधों से भरे वचन और आचरण को स्पष्ट करने की कृपा करें।
अमृत भी अज्ञान में जहर बन सकता है। ज्ञानी जहर को भी अमृत बना लेता है। न तो अमृत में अमृत है और न जहर में जहर। ज्ञान या अज्ञान पर सब निर्भर करता है। जो जानते हैं, उनके लिए कारागृह भी मुक्त आकाश है; और जो नहीं जानते, उनके लिए मुक्त आकाश भी कारागृह है।
तुम कहां हो, यह सवाल नहीं है; तुम क्या हो, यही सवाल है। और तुम अगर अज्ञान से भरे हो, तो घर बदलने से कुछ भी न होगा। तुम जहां जाओगे, तुम्हारा कारागृह तुम्हारे साथ ही रहेगा।
तुम जेल की दीवालें तोड़ कर भाग न सकोगे, क्योंकि दीवालें बाहर नहीं हैं। तुम इस जेल से निकल जाओ, देर नहीं लगेगी कि तुम दूसरी जेल में प्रवेश कर जाओगे। तुम क्षण भर प्रतीक्षा भी न करोगे। बिना कारागृह के तुम रह ही न पाओगे।
इसलिए असली सवाल स्वतंत्रता उपलब्ध करना नहीं है, असली सवाल स्वतंत्र होने की क्षमता उपलब्ध करना है, जो कि बड़ी दूसरी बात है।
स्वतंत्र होना तो बाहरी घटना है--कि तुम्हारे हाथों में जंजीरें नहीं हैं। लेकिन अगर भीतर तुम परतंत्र होने के आदी हो, तो तुम कितनी देर जंजीरों से बचोगे? तुम नई जंजीरें बना लोगे। और अगर जंजीरें बनानी ही हैं, तो पुरानी क्या बुरी हैं!
धर्म और राजनीति का यही भेद है। राजनीति कहती हैः बंधन बाहर है; तोड़ डालो, तुम स्वतंत्र हो जाओगे। धर्म कहता हैः बंधन भीतर है। कितना ही तुम बाहर से तोड़ो, तुम स्वतंत्र न होओगे।
परतंत्रता कुछ ऐसी है कि तुम उसे निर्मित करते हो। तुम बिना परतंत्रता के रह ही न सकोगे। परतंत्रता में तुम्हारा रस है। इसलिए अगर एक तरफ से तुम किसी तरह दीवाल तोड़ दोगे, तो तुम दूसरी तरफ से दीवाल बना लोगे।
यह अगर समझ में आ जाए कि अमृत भी जहर बन सकता है, जहर भी अमृत--तुम पर निर्भर है--तो जोशू के ये वचन समझ में आ जाएंगे, और जोशू का अंतर्विरोधों से भरा आचरण भी।
बुद्ध ने स्वयं भी निरंतर, बार-बार कहा हैः ‘तुम मेरे पास आओ जरूर, पर मुझसे बंध मत जाओ।’ और बुद्ध से बंधने की आकांक्षा इतनी प्रबल होती है कि उसे जीतना बहुत कठिन है।
तुम साधारण व्यक्तियों से बंध जाते हो--जिनमें बंधने जैसा भी कुछ न था। तुम हथकड़ियां लोहे की बना लेते हो, जिसमें सिवाय बोझ ढोने के और कोई अर्थ नहीं है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को पाकर तो तुम बंधना ही चाहोगे; ‘हथकड़ियां’ सोने की हैं--हीरे-जवाहरात से जड़ी हैं।
तुम किसी को भी अपना बंधन बना लेते हो; पत्नी है, पति है, बेटे हैं। बुद्ध को पाकर तुम कैसे बचोगे? तुम बुद्ध को अपना बड़े से बड़ा कारागृह बना लोगे।
पत्नियों से पति मुक्त हो जाते हैं--बड़ी आसानी से; पतियों से पत्नियों मुक्त हो जाती हैं बड़ी आसानी से; लेकिन बुद्धों से मुक्त होने में हजारों साल लग जाते हैं। और करोड़ों लोग तो कभी मुक्त नहीं हो पाते, बंधे ही रहते हैं।
जिनको तुम धर्म कहते हो, वे किन लोगों की भीड़ हैं? कौन हैं हिंदू? वही जो अब तक राम और कृष्ण से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कौन हैं जैन? --जो महावीर से छुटकारा अभी तक नहीं पा सके। कौन हैं बौद्ध? --बुद्ध का कारागृह है।
सारे धर्म कारागृह बन गए हैं। इसलिए नहीं कि वे कारागृह थे, बल्कि इसलिए कि तुम आदमी ऐसे हो कि तुम जहां भी जाओगे, वहां बंधन निर्मित करोगे।
तुम्हारे जीने का ढंग ऐसा है कि तुम सिर्फ हथकड़ियां ही ढालते हो--अनजाने-निश्चित ही। क्योंकि जान कर तो तुम स्वतंत्रता चाहते हो, जान कर तो तुम मुक्ति चाहते हो। लेकिन अनजाने तुम ऐसा कुछ चाहते हो, जिससे मुक्ति घट नहीं पाती, स्वतंत्रता हो नहीं पाती।
बुद्ध ने कहा हैः ‘मेरे पास आना, लेकिन मुझसे बंध मत जाना। तुम मुझे सम्मान देना, सिर्फ इसलिए कि मैं तुम्हारा भविष्य हूं; तुम भी मेरे जैसे हो सकते हो, इसकी सूचना हूं। तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है। लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना। क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले तो तुम बुद्ध कैसे हो पाओगे?’
बुद्धत्व तो खुली आंखों उपलब्ध होता है--बंद आंखों नहीं। और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो।
किसी के पीछे आना तो सदा बाहर जाना है। क्योंकि किसी के पीछे चलो, चाहे वह कोई भी हो, वह बाहर ही होगा। बुद्ध के पीछे चलो, तो भी यात्रा बाहर होगी। महावीर के पीछे चलो, तो भी यात्रा बाहर होगी। भीतर तुम कब जाओगे?
भीतर तो तुम जाओगे तब, जब तुम बाहर चलोगे ही नहीं। आंख बंद करोगे और भीतर की तरफ चलोगे।
भीतर तुम किसका अनुकरण करोगे? वहां तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। इसलिए आत्म अनुभव तो उसे होगा, जो सभी अनुकरण से मुक्त हो जाएगा।
तो, बुद्ध कहते हैंः ‘तुम सम्मान मुझे देना, लेकिन अंधी-श्रद्धा नहीं। सम्मान तुम सिर्फ इसलिए देना कि मैं तुम्हारा भविष्य का इशारा हूं।’ जैसे एक बीज पड़ा है, और पास में एक वृक्ष उगा है। जो बीज में छिपा है, वह वृक्ष में प्रकट हो गया है। यह बीज इस वृक्ष को सम्मान दे सकता है, क्योंकि यह वृक्ष खबर देता है कि मैं भी वृक्ष हो सकता हूं। इस वृक्ष का धन्यवाद भी हो सकता है, कि तूने मुझे जगाया; तूने मुझे ख्याल दिया कि क्या हो सकता है; तूने संभावनाओं के प्रति मुझे सचेत किया। मैं तो बंद अपने में पड़ा था--एक कंकड़ की तरह। मुझे तो पता ही न था कि मैं बीज हूं। कंकड़ों की जमात में था; कंकड़ ही मैंने अपने को समझा था। तुझे देख कर मुझे खबर आई, चेत हुआ, मेरी नींद टूटी; मुझे लगा कि यह मैं भी हो सकता हूं। तूने ही मुझे जगाया किः ‘कभी मैं भी बीज था और वृक्ष हो गया हूं; आज तू बीज है, कभी तू वृक्ष हो सकता है।’
बुद्धों के प्रति जो हमारा समादर है, वह समादर उनके इस इशारे के लिए है, क्योंकि उन्होंने हमें हमारी संभावनाओं के प्रति सचेत किया; जो छिपा था, उसे उघाड़ा। जिसका हमें भी पता न था, उसकी खबर दी।
जो हम हैं, वह हमारा पूरा होना नहीं है। हम और बहुत कुछ हो सकते हैं। बुद्धों को देख कर हमें उस ‘बहुत कुछ’ होने का सपना पैदा होता है। वह आदर्श की एक झलक मिलती है। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, और हमने रास्ता देख लिया हो। ऐसे बुद्ध की सन्निधि में, सत्संग में, उनकी झलक में हमें रास्ता दिखाई पड़ा। अनुगृहीत हम हैं। तो बुद्ध ने कहाः ‘अनुग्रह ठीक है, अंधानुकरण ठीक नहीं है।’
यह बड़ा मुश्किल है। या तो तुम अंधानुकरण कर सकते हो या अंध विरोध कर सकते हो। यह बिल्कुल आसान है। और बुद्धों के साथ लोग दो ही व्यवहार करते हैं। एक तो उनके अनुयायी होते हैं और एक उनके शत्रु। एक उनके पीछे चलते हैं--आंख बंद करके, और एक उनसे भागते हैं--आंख बंद करके। दोनों अंधे हैं; दोनों समान हैं; इनमें बहुत भेद नहीं है।
तीसरा आदमी खोजना मुश्किल है। और वही तीसरा आदमी बुद्ध को समझ पाता है। वह आदमी जोशू जैसा होगा। वह सुबह फूल भी चढ़ाएगा मंदिर में बुद्ध के; सिर भी झुकाएगा। और दोपहर अपने शिष्यों से कहेगा कि ‘ध्यान रखना, बुद्ध से सावधान रहना। और अगर मुंह में बुद्ध का नाम आ जाए, तो कुल्ला करके मुंह साफ कर लेना।’
जोशू ने कहा है कि ‘अगर ध्यान करते बुद्ध बीच में दिखाई पड़ जाएं, तो उठा कर तलवार, दो टुकड़े कर देना; खड़े मत होने देना--बुद्ध को ध्यान में खड़े मत होने देना।’
इस जोशू जैसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बुद्ध के चरणों में सिर भी झुकाता है और जो यह भी कहता है कि बुद्ध को ध्यान में खड़े मत होने देना, तलवार उठा कर दो टुकड़े कर देना!
यह समझ गया है सार। यह न तो अंधानुकरण करता है और न अंध विरोधी है। दोनों के मध्य चलता है। इसलिए सुबह फूल चढ़ाता है, सांझ इनकार भी करता है। शिष्यों को समझाता है कि नाम, शब्द--सभी अपवित्र हैं।
वेश्या का नाम ही अपवित्र नहीं है, बुद्ध का नाम भी अपवित्र है। क्योंकि जब शब्द मुंह में आता है तो मन आ गया। जहां मन आया, वहां अपवित्रता आ गई। जब कोई शब्द भीतर नहीं उठता, तो मन शून्य होगा। जहां शून्य है, वहीं पुनीत पवित्रता है। शून्यता एकमात्र पवित्रता है।
तो तुमने अगर मन में दोहरायाः ‘बुद्धं शरणं गच्छामि--मैं बुद्ध की शरण जाता हूं’--तो शब्द आ गया, मन निर्मित हो गया।
कौन दोहरा रहा है यह? आत्मा कुछ भी नहीं दोहराती। चेतना कोई पुनरुक्ति नहीं करती। यह तो मन ही दोहरा रहा है।
कौन कह रहा हैः ‘बुद्धं शरणं गच्छामि? --यह कौन बुद्ध की शरण जा रहा है? यह तुम हो या तुम्हारा मन हैं? अगर तुम जरा ही खोजबीन करोगे तो पा लोगे कि यह तुम्हारा मन है। और मन अपवित्र है।
शब्द बदलने से कुछ भी नहीं होता है। तुम ‘वेश्या’ कहो या ‘बुद्ध’ कहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम गाली दो कि मंत्र पढ़ो, कोई फर्क नहीं पड़ता है। मन दोनों तरफ से आ जाता है। मन शब्द के साथ ही प्रवेश कर जाता है। और जहां मन आया--जोशू कहता है--मुंह साफ कर लेना। भूल मत जाना। और प्यारे शब्दों के साथ बड़ा खतरा है, और शब्दों का बड़ा खेल है।
मैंने सुना हैः एक सम्राट गरीबों की पीड़ा से बहुत परेशान था। थोड़े से लोग समृद्ध थे, सारा राज्य गरीब था। दूध नहीं मिलता, मक्खन नहीं मिलता; गरीब को छाछ से ही गुजारा करना पड़ता। उसने अपने बुद्धिमानों को बुलाया और उनसे कहा, ‘कोई रास्ता निकालो, ताकि गरीब भी दूध पी सके।’ बहुत सोचा बुद्धिमानों ने, लेकिन रास्ता क्या निकले? बुद्धिमान कितने जमाने से सोच रहे हैं, रास्ता निकला नहीं। और बुद्धिमानों ने बहुत उपाय किए, सब व्यर्थ गए।
लेकिन पुराने जमाने में हर राजा के दरबार में एक मूर्ख भी राजा रखते थे--एक महामूर्ख भी रखते थे। यह बड़े मजे की बात है कि कई बार बुद्धिमान जो नहीं खोज पाता, वह मूर्ख खोज लेता है। क्योंकि बुद्धिमान सोचता ही रहता है; मूर्ख छलांग लगा जाता है।
कहावत है कि जहां बुद्धिमान चलने में डरते हैं, वहां मूर्ख आंख बंद करके प्रवेश कर जाता है। कभी कभी वह पहुंच भी जाता है। कभी कभी वह ऐसी चोट करता है कि बुद्धिमान तिलमिला जाएं।
बुद्धिमान तो कुछ उत्तर न ला सके। उस मूर्ख ने एक दिन सुबह चिल्लाते हुए कहा, ‘मिल गया सूत्र; आ गई बात पकड़ में; निकाल लाया राज।’
दरबार इकट्ठा हो गया। उन्होंने पूछा, ‘क्या हल तूने निकाला है?’ उसने कहा, ‘बड़ी सरल तरकीब है। कल से हर आदमी दूध पीएगा।’ राजा भी चकित हुआ; उसने कहा, ‘एक छोटी सी बात है। एक फरमान निकाला जाए कि अब से छाछ दूध कहा जाएगा, दूध छाछ कही जाएगी। इतनी सी बात है। हर गरीब दूध पाएगा, हर अमीर छाछ पीएगा। जरा से एक फरमान की जरूरत है; नाम बदल देने की जरूरत है। इसमें इतना परेशान होने की बात ही कहां है!’
और जिंदगी में अक्सर हम इसी मूर्ख की सलाह मान कर चलते हैं--नाम बदल लेते हैं, शब्द बदल लेते हैं। शब्द बदल लिए और सोचते हैं कि सब हल हो गया!
कल संसार के शब्द चलते थे, आज धर्म के शब्द चलने लगे। सोचते हैंः ‘सब हल हो गया!’ लेकिन शब्द बदलने से न तो दूध छाछ होता है, और न छाछ दूध होती है। शब्द बदलने से मन आत्मा नहीं हो जाता। शब्द बदलने से मन, मन ही रहता है। जोशू यही कह रहा है।
जोशू सचेत कर रहा है। पर बड़ी बारीक है बात। कह रहा है कि बुद्ध के पास तो जाना, लेकिन सावधान रहना कि कहीं बुद्ध को कारागृह न बना लो। इसके पहले कि बुद्ध कारागृह की तरह तुम्हें घेरने लगें--बुद्ध तुम्हें नहीं घेरते हैं, तुम्हीं घिरते हो। इसके पहले कि तुम बुद्ध की जंजीरें अपने हाथ में डाल लो--भाग खड़े होना।
और जब बुद्ध से इतना खतरा है, तो बुद्धुओं से कितना होगा?
जब जोशू कह रहा हैः बुद्ध के पास से भाग खड़े होना तत्क्षण, तो जो बुद्ध नहीं है, उनके तो पास ही मत जाना। क्योंकि बुद्ध तो तुम्हें सचेत भी करेंगे; जब उनका कारागृह बनाने लगोगे, तो तुम्हें चेताएंगे, वे तुम्हें समझायेंगे।
बड़ी मीठी कथा है; मीठी भी, कठोर भी। और अनेक अनेक पहलू हैं--इस कथा के। एक पहलू आज समझने जैसा है।
बुद्ध ने बहुत वर्षों तक स्त्रियों को संघ में प्रवेश नहीं दिया; सख्त रहे। उन्होंने कहाः ‘स्त्रियों को दीक्षा मैं न दूंगा।’ संघ मूलतः पुरुषों का रहा। लेकिन यह बात बड़ी बेचैनी की हो गई। स्त्रियां आधी हैं, आधा जगत उनका है। और स्त्रियों ने बार-बार निवेदन किया। लेकिन बुद्ध सख्त रहे। फिर कृपा गौतमी ने निवेदन किया।
एक दिन कृषा गौतमी निवेदन लेकर आई--रोती थी, चीखती थी, चिल्लाती थी। उसने कहा, ‘यह कैसी बात है कि मोक्ष का द्वार सिर्फ पुरुषों के लिए खुला है! हम स्त्रियों का क्या कसूर है?’
आनंद को बहुत दया आ गई और आनंद ने बुद्ध से कहा, ‘अब बहुत हो गया; स्त्रियों को भी आज्ञा देनी ही पड़ेगी।’ और बुद्ध झुके और उन्होंने स्त्रियों को आज्ञा दी कि वे संघ में सम्मिलित हो जाएं, उनकी भी दीक्षा होगी। लेकिन उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें सावधान किए देता हूं; मेरा धर्म जो पांच हजार साल तक चलता, अब पांच सौ साल तक ही चलेगा। तुम नहीं मानते, तो स्त्रियों को मैं आज्ञा देता हूं। लेकिन जो प्रक्रिया पांच हजार साल तक शुद्ध रहती, अब वह केवल पांच सौ साल तक शुद्ध रहेगी।
इसके बहुत अर्थ निकाले गए हैं। बुद्ध ने इससे ज्यादा कुछ इस संबंध में कहा नहीं। लेकिन आज इस कहानी के संदर्भ में एक अर्थ समझ लेने जैसा है। स्त्रियों को रोकने का केवल एक ही कारण था--गहरे में, कि स्त्रियों को मोह में गिरने से बचाना बहुत मुश्किल है। वे बुद्ध का ही कारागृह बना लेंगी--पुरुषों से ज्यादा जल्दी।
कारागृह बनाने में स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा कुशल हैं। क्योंकि स्त्री--जीवन का ढंग तर्क का कम और प्रेम का ज्यादा है। और प्रेम की ऊंचाई तक पहुंचना तो बहुत मुश्किल है, राग की नीचाई तक गिर जाना बहुत आसान है।
पुरुष तो सोचता है बुद्धि से, स्त्री जीती है हृदय से। और जितने कारागृह निर्मित होते हैं, उनमें से निन्यानबे प्रतिशत हृदय से निर्मित होते हैं, एक प्रतिशत बुद्धि से निर्मित होते हैं। और बुद्धि को तो समझाया भी जा सकता है कि सचेत हो जाओ, हृदय सुनता ही नहीं।
स्त्री की जो जीवन प्रक्रिया है, पहुंचने का जो ढंग है, किसी बात को समझने की जो उसकी व्यवस्था है, वह रागात्मक है। और बुद्ध का पूरा का पूरा धर्म--विराग है। बुद्ध के धर्म में राग के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि राग कारागृह बन जाएगा।
राग के भी धर्म हैं, जिन्होंने राग को इतना शुद्ध किया है कि वह प्रेम बन जाए--जैसे कृष्ण का, मीरा का, चैतन्य का।
अगर ठीक से समझा जाए तो चैतन्य, मीरा और कृष्ण के धर्म में जब भी कोई पुरुष-चित्त प्रवेश करेगा, तभी वह परंपरा अशुद्ध हो जाएगी। क्योंकि जहां राग को ही शुद्ध करना है और प्रेम की ऊंचाई तक ले जाना है, वहां पुरुष बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा।
प्रेम की ऊंचाई पाना पुरुष को बड़ा कठिन है। कारागृह तोड़ना बहुत आसान है--पुरुष के लिए। लेकिन कारागृह को इस ऊंचाई तक ले जाना कि वह मंदिर हो जाए, बहुत मुश्किल है।
बुद्ध का धर्म मौलिक अर्थों में पुरुष का धर्म है। और इसलिए वे रोकते रहे कि स्त्री को मत आने दो। क्योंकि उसे समझाना मुश्किल होगा। और उससे यह कहना तो बिल्कुल ही कठिन हो जाएगा कि बुद्ध के राग में मत पड़ना। वह तो बुद्ध के पास राग में पड़ कर ही आएगी।
इधर मैं निरंतर अनुभव करता हूंः जब भी कोई पुरुष मेरे पास आता है दीक्षित होने--संन्यास में, ध्यान में, किसी अंतर्यात्रा पर निकलने, तो वह मेरी बातों से प्रभावित होकर आता है। वह कहता हैः ‘आपकी बातें ठीक लगती हैं।’ जब भी कोई स्त्री आती है, वह कहती हैः ‘आप ठीक लगते हैं।’ यह ‘आप ठीक लगना’ खतरनाक है।
स्त्री को मेरी बातें ठीक लगती हैं, क्योंकि मैं ठीक लगता हूं। पुरुष को मैं ठीक लगता हूं, क्योंकि मेरी बातें ठीक लगती हैं। दोनों बातों में बड़ा बुनियादी भेद है।
पुरुष को मैं ठीक लगूंगा, अगर मेरी बात ठीक लगती है; लेकिन मैं गौण हूं। जिस दिन मेरी बात ठीक नहीं लगेगी, उसी दिन मैं गैर-ठीक जाऊंगा। आधार मेरी बात पर है। संबंध बुद्धि का है।
स्त्री को पहले मैं ठीक लगता हूं। इस लिए मेरी बातें ठीक लगती हैं। इसलिए आप किसी स्त्री को, मैं क्या कहता हूं--उस संबंध में कितना ही खंडन करें--उसे बदल नहीं सकते, क्योंकि तर्क से उसका कोई संबंध ही नहीं है।
कितना ही तर्क दें कि मेरी बातें गलत हैं, किसी स्त्री को आप नहीं बदल सकते। क्योंकि इसको उसने आधार ही नहीं बनाया है। यह उसके संबंध का सूत्र ही नहीं है। जिस दिन मैं गलत हो जाऊंगा उस दिन मेरी बातें भी गलत हो जाएंगी।
स्त्री का संबंध हार्दिक है, बौद्धिक नहीं है। संबंध राग का है, विचार का नहीं है। इसलिए बुद्ध ने कहा कि स्त्रियों को जितनी देर रोका जा सके, ठीक है।
जोशू जो कह रहा है, यह स्त्रियों को समझना बड़ा कठिन होगा। यह तो ख्याल में भी लाना मुश्किल होगा, कि बुद्ध का नाम--और मुंह को धो लो! कि बुद्ध के पास जाओ और भाग खड़े होओ! रुकना मत ज्यादा देर!
दुनिया में दो ही तरह के धर्म हैं। एक धर्म है जो मूल रूप से स्त्रैण है; मीरा और चैतन्य, सूफी, वैष्णव--स्त्रैण हैं। इनका मूलस्रोत स्त्री है। पुरुष गौण है। और पुरुष अगर आता भी है, तो उसको स्त्रैण होकर ही आना पड़ेगा।
एक संप्रदाय भारत में रहा--अनूठा। ऐसा संप्रदाय दुनिया में कहीं पैदा नहीं हुआ। उस संप्रदाय का नाम हैः सखी-संप्रदाय। बंगाल में अभी भी उसको मानने वालों का एक वर्ग है। लेकिन वे इतने संकोच से भर गए हैं कि वे जाहिर नहीं कर सकते कि वे सखी-संप्रदाय को मानते हैं। क्योंकि लोग हंसते हैं।
सखी-संप्रदाय में पुरुष भी अपने को स्त्री मानता है, कृष्ण की सखी मानता है। और रात सोता है तो कृष्ण की मूर्ति अपनी छाती से लगा कर सोता है। पुरुषों को समझना बहुत कठिन हो जाएगा। यह बात ही बेहूदी लगेगी। लेकिन सखी-संप्रदाय से भी लोग ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं। उन्होंने वहां से भी परम शिखर छुआ है।
इसे थोड़ा सोचो कि पुरुष अपने को इतना स्त्रैण मान ले तो उसका अहंकार तो खो ही जाएगा। और यह भाव इतना गहरा जा सकता है कि--ऐसा कहा जाता है कि रामकृष्ण ने जब सखी-संप्रदाय की साधना की तो उन्हें मासिक-धर्म शुरू हो गया। यह ऐतिहासिक तथ्य है। उनके स्तन बड़े हो गए। और उनकी चाल स्त्रैण हो गई। छह महीने तक वे सखी-संप्रदाय की साधना करते थे, तो वे चलते थे, तो जैसे स्त्री चलती है। बैठते तो स्त्री के ढंग से। उनकी आवाज बदल गई। और यह तो बहुत गहरा बायोलॉजिक, जैविक चमत्कार घटित हुआ कि उनको मासिक-धर्म शुरू हो गया। जब उन्होंने सखी-संप्रदाय की साधना पूरी कर ली तो कोई साल भर तक स्त्रैण लक्षण उनके ऊपर जारी रहे।
भाव इतना गहरा हो सकता है कि क्रांति ले आए। पर इतना गहरा होना चाहिए कि तुम बचो ही न, भाव ही रह जाए। तब कारागृह नहीं बनेगा।
इसे समझ लें, क्योंकि बारीक है। दो चीजें चाहिए कारागृह के बनने के लिएः तुम चाहिए, अहंकार चाहिए। अगर जंजीरें अकेली हों और तुम न हो, तो भी कारागृह नहीं हो सकता, क्योंकि बंधेगा कौन? या तुम और जंजीरें न हों तो भी कारागृह नहीं होगा, क्योंकि बांधेगा कौन?
बुद्ध और महावीर के धर्म कहते हैंः तुम तो रहो, कारागृह न रहे। इसलिए जहां भी तुम्हें कारागृह का डर पैदा हो कि यहां कारागृह बन सकता है, रोग जन्मता है, राग जन्मता है--वहां से हट जाना। बुद्ध पुरुषों से भी सावधान रहना। क्योंकि उनका प्रबल आकर्षण है, महा-आकर्षण है। वे मैग्नेटिक फोर्सेज हैं। उनसे बचना, अन्यथा तुम बह जाओगे--उनके प्रवाह में; तुम एक तिनके हो जाओगे--उनकी बाढ़ में।
कृष्ण, मीरा और चैतन्य की परंपरा कहती है कि तुम भाव में इतने डूब जाना कि तुम बचो ही न। फिर जंजीरें किसको बांधेंगी। बांधने दो कृष्ण को, कौन बंधेगा? वे भी पहुंच जाते हैं।
दो ही मार्ग हैं। तो बुद्ध के मार्ग पर चलने वाले जोशू की कहानी अब तुम्हें समझ में आ सकेगी और उसके आचरण का अंतर्विरोध भी स्पष्ट हो सकेगा।
सदगुरु जोशू ने एक बार अपने शिष्यों को यह चेतावनी दीः ‘जहां बुद्ध पुरुष हों, वहां ज्यादा देर मत टिकना।’ जाना जरूर, रुकना भी, पर ज्यादा देर मत रुकना।
ज्यादा देर रुकने का क्या मतलब है? और क्या सीमा है--ज्यादा देर की? कितनी देर को ज्यादा देर कहोगे? हर आदमी के लिए अलग होगी। पर एक मापदंड सब के लिए लागू होगा। जहां राग पैदा होने लगे, समझना कि ज्यादा देर हो गई; भागो। जहां प्रेम जन्मने लगे, जहां बुद्ध प्रीतिकर लगने लगें-श्रेयस्कर नहीं, प्रीतिकर लगने लगें; जहां बुद्ध में श्रेय नहीं, प्रेम दिखाई पड़ने लगे, जहां बुद्ध से तुम्हारा प्रेम जन्मने लगे, जहां नाता ध्यान का न रहे, राग का हो जाए; बस, ज्यादा देर हो गई। हर आदमी के लिए अलग होगी, इसलिए समय नहीं कहा है, कि कितनी देर रुकना। ज्यादा देर मत रुकना।
कुछ लोग ऐसे हैं कि साल भर रहेंगे और भाव पैदा न होगा। कुछ लोग ऐसे हैं, बारह साल भी रहेंगे, भाव पैदा न होगा। कुछ लोग ऐसे हैं कि बारह क्षण में भी भाव पैदा हो जाएगा। व्यक्तियों पर निर्भर है कि कितनी सरलता है, कितनी हार्दिकता है। जैसे ही लगे कि राग पैदा हो रहा है, भाग खड़े होना। यही बुद्ध की शिक्षा है कि राग पैदा न हो। क्योंकि राग ही बंधन है।
जोशू ने चेतावनी दीः ‘जहां बुद्ध पुरुष हों, वहां ज्यादा देर मत टिकना। और जहां बुद्ध पुरुष न हों, वहां से तुरंत ही हट जाना।’
तुम्हारे भीतर राग को फैलाने की सुविधा है। राग तुम्हारे भीतर है। न तो बुद्ध से कुछ लेना-देना है, न तो गैर-बुद्ध से कुछ लेना-देना है। तुम्हारे भीतर राग की क्षमता है। वह राग की भूख तुम्हारे भीतर है।
ज्यादा देर तुम भूखे नहीं रह सकते। तुम कितना ही अच्छा भोजन करते रहे हो, लेकिन अगर अकाल पड़ जाए, या तुम एक रेगिस्तान में भटक जाओ और भोजन न मिले, तो तुम घास-पात खाने को भी राजी हो जाओगे। तुम सदा ही स्वच्छ जल पीते रहे हो और एक रेगिस्तान में गिर पड़ो और जल न मिले, तो तुम गंदे डबरे से भी पानी पीने के लिए राजी हो जाओगे। लोग खुद अपनी पेशाब भी पी जाते हैं रेगिस्तान में--कोई और उपाय न हो तो।
तो समय रहते हट जाना बुद्ध पुरुष के पास ले, लेकिन गैर-बुद्ध पुरुष के पास जाना ही मत। क्योंकि तुम्हारे भीतर राग की एक क्षमता है, अगर बुद्ध न मिलें, अगर ठीक भोजन न मिले, तो तुम भोजन से भी अपना संबंध जोड़ लोगे। भूख तुम्हारे भीतर है! स्वच्छ जल न मिले तो, तुम गंदा पानी भी पी सकते हो।
गैर-बुद्ध पुरुष के पास तो रुकना ही मत। जैसे ही पता चले, तुरंत ही हट जाना। डर तुम्हारे भीतर है; डर बाहर नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें।
तुम सोचते हो कि सुंदर स्त्री है, इसलिए वासना उठती है, तो तुम गलती में हो। पुराने शास्त्रों ने, पुराने ब्रह्मचर्य के साधकों को कहा है कि बूढ़ी, अपंग, अंधी, कोढ़ी स्त्री के साथ भी ज्यादा देर मत रहना। और अच्छी स्त्रियां अगर उपलब्ध न हों, तो यह कोढ़ी, अंधी, बूढ़ी स्त्री भी धीरे-धीरे सुंदर दिखाई पड़ने लगेगी। क्योंकि सौंदर्य बाहर नहीं है, तुम्हारे भीतर ही छिपा है। वह तुम्हारी वासना है। जब स्वच्छ जल न मिलेगा तो गंदा जल भी स्वच्छ मालूम पड़ने लगेगा।
सुंदर स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, ऐसा नहीं है। बस, तुम्हारे भीतर की वासना है, उसके कारण सुंदर दिखाई पड़ती है। जिस दिन वासना न होगी, उस दिन सुंदरतम स्त्री भी, क्लियोपेट्रा भी साधारण हो जाएगी। उस दिन सुंदरतम स्त्री भी हड्डी, मांस, मज्जा का ढेर होगी। और अभी? अभी मृत स्त्री भी वासना को जगा सकती है।
क्लियोपेट्रा के संबंध में कथा है कि जब वह मर गई-वह मिश्र की सुंदरतम स्त्री थी। और लोग कहते हैं, इतिहास की सबसे सुंदरतम स्त्री थी। जब वह मर गई तो उसकी लाश तीन दिन के लिए खो गई। उसकी ताबूत से लाश चुरा ली गई। और तीन दिन बाद गांव के बाहर उसकी लाश मिली, तो पाया गया कि लोगों ने उसके मुर्दा शरीर से संभोग किया है, इसलिए लाश चुरा ली गई। दरबारी तड़पते रहे होंगे। क्योंकि दरबारी ही केवल उसकी लाश चुरा सकते थे, वह महल से चुराई गई थी। साधारण आदमी की तो वहां पहुंच भी न थी। लेकिन वे तड़पे रहे होंगे जिंदगी भर। और उनकी वासना इतनी तड़प रही होगी, इतने रेगिस्तान की प्यास हो गई कि वे यह भूल गए कि स्त्री मर चुकी है। मरी स्त्री से संभोग किया गया!
हड्डी-मांस-मज्जा है, अगर वासना न हो। अगर वासना हो तो मरा हुआ शरीर, सड़ती काया भी स्वर्ण-काया हो सकती है।
सारा खेल तुम्हारे भीतर है।
अगर तुम ज्यादा देर गैर-बुद्ध पुरुष के पास रह गए तो वहां भी तुम राग बना लोगे।
लोग मुझसे पूछते हैं कि यह कैसे घटता है कि अज्ञानी लोग भी गुरु बन जाते हैं! और अनेक लोग उनका भी अनुकरण करते हैं? यह इसलिए घटता हैः अगर तुम अज्ञानी गुरु के पास भी ज्यादा देर रह गए, तो तुम्हारा राग जुड़ जाएगा। फिर तुम्हें वह अज्ञानी दिखाई न पड़ेगा। कुरूप स्त्री हो जाएगी, अज्ञानी ज्ञानी मालूम पड़ने लगेगा। राग का ही खेल है।
जोशू कहता हैः ‘वहां से तुरंत हट जाना, जहां बुद्ध पुरुष न हों।’
तुम जानोगे कैसे कि बुद्ध पुरुष कहां है और कहां नहीं है? तुम्हारे पास मापदंड क्या है? तुम्हारे पास कोई थर्मामीटर है? कोई तापमान नापने की व्यवस्था है? तुम कैसे जानोगे कि यहां बुद्ध पुरुष है, और यहां बुद्ध पुरुष नहीं है? एक बहुत गहरा तापमान है, अगर थोड़ा उसका उपयोग सीखो, तो हमेशा तुम बेचूक जान लोगे।
जिस व्यक्ति के पास जाकर, तुम अचानक, अकारण शांति अनुभव करते हो--अचानक और अकारण--जानना कि वहां बुद्धत्व या तो निकट है या घट गया है। अकारण इसलिए कि उसका कारण तुम्हारे भीतर अगर हो--शांत होने का, तब तो कोई बात न हुई। कारण तुम्हारे बाहर है।
बुद्ध पुरुष की मौजूदगी में तुम अचानक अपने आपको शांत होता हुआ पाओगे। तुम अचानक हलके हो जाओगे, निर्भार हो जाओगे। तुम्हारी चिंताएं, तुम्हारी समस्याएं जैसे व्यर्थ हो गईं, जैसे उनमें कोई मूल्य न रहा, निर्जीव हो गईं। तुम अचानक पाओगेः कोई समस्या नहीं है। जीवन कोई प्रश्न नहीं है। तुम हलके हो, तुम उड़ सकते हो।
बुद्ध पुरुष से दूर हटते ही तुम्हारी समस्याएं वापस लौट आएंगी। तुम फिर भारी हो जाओगे। फिर जिंदगी एक उलझन मालूम पड़ेगी।
जैसे ही तुम बुद्ध पुरुष के पास जाओगे तो जैसे कोई व्यक्ति झरने के करीब जाए और हवाएं ठंडी हो जाएं; जैसे कोई व्यक्ति बगीचे के करीब आए और फूलों की सुगंध आने लगे, ऐसी एक भीतरी सुगंध मालूम पड़ेगी, वह सुगंध की पहचान इतनी है कि तुम अकारण अपने को पाओगे कि तुम शांत हो रहे हो। तुम, जो कि अशांत हो, तुम जो कि हर घड़ी अशांत हो, बुद्ध पुरुष के पास तुम एक शांति पाओगे।
जोशू कहता हैः जहां ऐसी शांति मिले वहां रुकना, लेकिन ज्यादा देर मत रुकना। और ज्यादा देर की कसौटी यह है कि जैसे ही तुम्हारा राग बनने लगे, जैसे ही तुम इस ‘व्यक्ति को’ प्रेम करने लगो, इस ‘देह को’ प्रेम करने लगो, इस ‘पुरुष को’ प्रेम करने लगो, जैसे ही निराकार बुद्ध के साथ तुम्हारा संबंध न जुड़ कर, आकार से जुड़ने लगे, जैसे ही तुम मूर्ति-पूजक होने लगो, जैसे ही बुद्ध की प्रतिमा महत्वपूर्ण होने लगे, बस, वैसे ही हट जाना। समय आ गया; क्योंकि तुम राग में गिर जाओगे। अच्छा होगा कि तुम दूर हट जाओ।
इसलिए सदगुरु निरंतर अपने शिष्यों को अनेक बार दूर भेजता रहता है। जैसे ही वह देखता है... तुम भला न देख पाओ--लेकिन, जैसे ही वह देख लेता है कि अब राग निर्मित होगा, वह दूर भेज देता है। तुम्हें शायद कष्ट भी मालूम पड़े, तुम्हें शायद यह कठोर भी मालूम पड़े। बहुत बार ऐसा भी होता है कि तुम इतने नाराज हो जाओ कि दुबारा लौटो ही न। ये सब घटनाएं घट सकती हैं।
लेकिन सदगुरु जानता है कि कब तुम्हें दूर भेज देना जरूरी है। क्योंकि जैसे ही ज्यादा देर होने लगे, और जैसे ही उसे लगे कि तुम्हारी आंखों में राग का अंधापन आने लगा, जैसे ही उसको लगे कि अब तुम्हारे भीतर राग के पंजे फैलने लगे हैं, अब तुम मोहग्रस्त हो रहे हो, अब तुम सत्य से नहीं, व्यक्ति से बंध रहे हो, अब निराकार तुम्हारी खोज न रही, आकार महत्वपूर्ण हो गया है... ।
बुद्ध से सारिपुत्र ने कहा है कि ‘तुम्हें पाकर अब मुझे कुछ भी पाने को न बचा; अब मेरी कोई सत्य की खोज नहीं है। तुम्हें पा लिया, सब पा लिया।’ बुद्ध ने कहा। ‘मत कहो ऐसे वचन, क्योंकि यह भ्रांति है। मैं आज हूं, कल नहीं हो जाऊंगा। फिर तुम क्या करोगे? यह देह आज है, कल जल जाएगी, राख हो जाएगी, फिर तुम क्या करोगे? फिर तुम भटकोगे। मुझको नहीं, सत्य को ही खोजो। मुझे भी मार्ग बनाओ--सत्य तक पहुंचने का। मुझे सत्य मान कर मत बैठ जाओ। मैं तुम्हारे लिए सीढ़ी बन सकूं, इतना काफी है। मुझे तुम मंदिर मत बनाओ। तुम्हारा ही सत्य तुम्हारे साथ सदा रहेगा।’
‘... और जहां बुद्धपुरुष न हों, वहां से तुरंत हट जान।’ जिन व्यक्तियों के पास जाकर तुम्हारी अशांति और बढ़ती हो--अकारण; जिनके पास जाकर तुम्हारी बेचैनी सघन होती हो--अकारण; जिनके पास पहुंचते ही भारीपन आता हो, वहां ज्यादा देर रुकने का तो सवाल ही नहीं है; वहां थोड़ी देर भी मत रुकना। क्योंकि खतरा वहां यह है कि अगर तुम थोड़ी देर भी वहां रुक गए, तो तुम एक भारीपन और एक अशांति के आदी हो जाओगे।
और लोग बीमारियों तक के आदी हो जाते हैं। और लोग बीमारियों तक से जुड़ जाते हैं। तो जब बीमारियां हमें छोड़ती हैं, तो बड़ी बेचैनी होती है, बड़ी मुश्किल होती है। अगर तुम दस बारह साल तक बीमारी खाट पर पड़े रह गए, फिर तुम्हें बीमारी छोड़नी मुश्किल होगी। क्योंकि दस-बारह साल एक ढंग का जीवन तुमने जी लिया, इस जीवन में अब तुम्हारे स्वार्थ जुड़ गए। इस बारह साल में कोई आदमी तुमसे बुरा नहीं बोला। किसी आदमी ने तुम पर नाराजगी नहीं की। तुम बीमार थे; पत्नी लड़ी नहीं, उसने सदा पैर दबाए। जो भी आया सहम कर आया, जैसे तुम कोई सम्राट थे। तुमने कोई काम न किया। दूसरे लोग काम में लगे, सेवा की। तुम बाजार न गए; कोई जिम्मेदारी तुम्हारे सिर पर न रही। बीमार होकर तुम काफी बड़ा काम कर रहे थे! और किसी काम की जरूरत न थी। कोई चिंता न पकड़ी।
बारह साल तुम सुस्त काहिल बने रह कर सबका सम्मान, सेवा पाते रहे; इनवेस्टमेंट भारी हो गया। बारह साल के बाद जब डाक्टर तुमसे कहेगा कि ‘तुम ठीक हुए, उठो बिस्तर से।’ तुम्हारी पूरी आत्मा कहेगीः ‘अब कैसा उठना, कहां जाना! जब बाजार में फिर खड़े होना, फिर वे चिंताएं, समस्याएं, संघर्ष, दायित्व?’ तुम गिर पड़ोगे।
इसलिए एक दफा आदमी लंबी देर तक बीमार रह जाए, तो बीमारी में उसके मनोवैज्ञानिक राग हो जाते हैं, फिर वह ठीक होना नहीं चाहता। और जब तुम ठीक होना नहीं चाहते, तो दुनिया का कोई चिकित्सक तुम्हें ठीक नहीं कर सकता।
एक बार तुम्हें बीमारी में रस आ गया, एक बार तुम्हें लग गया कि बीमारी बड़ा गहरा और अच्छा ‘धंधा’ है, फिर तुम क्यों मुक्त होना चाहोगे! फिर तुम बीमारी से बंध गए। लोग बीमारी से बंध जाते हैं।
तो जब तुम गैर-बुद्ध पुरुष के पास रहते हो, तब उससे पैदा होती अशांति, पीड़ा, चिंता--वे सब भी बंधन के हिस्से हो जाते हैं। फिर जब तुम्हें बेचैनी नहीं होती, तो तुम बेचैन होते हो कि क्या बात है! जब अशांति नहीं होती, तब तुम मुश्किल में पड़ते हो कि क्या बात है! मैं, और अशांत नहीं! जब तुम्हें क्रोध नहीं होता, तो तुम्हें लगता है कि कुछ अनहोना घट रहा है।
आदमी एक लीक पर चलता है। लीक धीरे-धीरे सुगम हो जाती है। तुम कितनी ही कठिन लीक चुन लो, वह सुगम हो जाती है। तुम गंदगी में रहने लगो, तो गंदगी गंदगी नहीं मालूम पड़ती। तुम अगर दुर्गंध में रहने लगो, तो दुर्गंध दुर्गंध नहीं मालूम पड़ती। तुम अगर रेलवे स्टेशन पर सोने लगो, फिर तुम घर पर आराम से न सो सकोगे। फिर ट्रेनों का निकलना जरूरी है, शोरगुल होना जरूरी है। जो लोग रेलवे स्टेशन पर सोने में समर्थ हो जाते हैं, फिर उन्हें घर का आराम बहुत मुश्किल है।
हम गलत के भी आदी हो जाते हैं। और जिस चीज की भी आदत बन जाती है, उसको छोड़ना कठिन है। इसलिए तो लोग सिगरेट पीए जाते हैं, शराब पीए जाते हैं।
एक छोटे बच्चे को सिगरेट दो पीने को; क्या होगा? खांसेगा, आंख में आंसू आ जाएंगे, गला रुंध जाएगा, घबड़ा जाएगा, पसीना-पसीना हो जाएगा। और उसकी समझ में न आएगा कि लोग इसको रस से क्यों पीते हैं! जब कि डब्बियों पर लिखा भी हुआ है कि ‘यह स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।’ जब कि सारी दुनिया के चिकित्सक चिल्लाए जाते हैं कि ‘यह जहर है!’ लेकिन लोग आदी हो गए हैं। पहली बार तो उनको भी पीते समय ऐसा ही हुआ था। धीरे-धीरे आदी हो गए हैं।
पहली बार जब उन्हें पीते समय ऐसा हुआ था, तो उनके अहंकार ने कहा कि ‘यह तो बात उचित न होगी। इतने लोग पी रहे हैं, क्या मैं इतना कमजोर हूं कि आंसू आएं, खांसी आए, यह कोई अच्छा लक्षण नहीं है। अभ्यास करना ही होगा।’ वे अभ्यास कर लेंगे।
शराब जब भी कोई पहली दफा पीता है, तो बेस्वाद, तिक्त अनुभव करता है; कोई स्वाद अनुभव नहीं करता। लेकिन पीता जाए, तो बेस्वाद-स्वाद हो जाता है।
और ध्यान रहे, जब तुम्हें गैर-बुद्ध पुरुष में स्वाद आने लगे, तो तुम बुद्ध पुरुष में स्वाद न ले सकोगे। यह बड़े से बड़ा खतरा है।
जब तुम गलत में रस लेने लगो, तो ठीक के प्रति तुम्हारी आंखें बंद हो जाएंगी। और जब अंधेरे के आदी हो जाओ, तो प्रकाश में तुम्हारी आंखें तिलमिला जाएंगी। तब तुम अंधेरे में सरकना पसंद करोगे। तब तुम सूरज के दुश्मन हो जाओगे। जहां भी तुम प्रकाश देखोगे, वहीं तुम चिल्लाओगे कि गलत है। क्योंकि प्रकाश बेचैनी देगा।
हम सब इतने आदी हो गए हैं, गैर-बुद्ध के पास रहने के और सब तरफ वे मौजूद हैं। बुद्ध पुरुष तो किसी बोधि-वृक्ष के नीचे मिलेंगे--कभी, सदियों खोजने पर। गैर-बुद्ध पुरुष हर वृक्ष के नीचे मौजूद हैं। एक दो भी मौजूद नहीं है, भीड़ की तरह खड़े हैं। तुम जहां भी जाओगे, वे मौजूद हैं। तुम न भी खोजो, तो वे तुम्हें खोज रहे हैं। तुम उनसे बच नहीं सकते। बचना इतना आसान नहीं है। पर अब होश रखना जरूरी है।
जोशू कह रहा हैः ‘वहां से तुरंत हट जाना, जहां बुद्ध पुरुष न हों।’ जहां अकारण तुम्हारे जीवन में कोई चिंता, बेचैनी, तनाव, अशांति, संताप पकड़ता हो, जहां कोई बादल तुम्हें घेर लेते हों और बोझिल करते हों, जहां उदासी छाती पर पत्थर की तरह बैठ जाती हो, जिनके पास होने से ही चित्त रुग्ण होने लगता हो, वहां से एकदम हट जाना। क्योंकि थोड़ी देर तुम रुक गए तो तुम आदी हो जाओगे, उसका खतरा है।
इसी महान गुरु ने दूसरी बार कहाः ‘यदि बुद्ध का नाम लेना तो पीछे से ठीक से मुंह धो लेना।’ सभी शब्द अपवित्र हैं--मंत्र भी, महामंत्र भी। क्योंकि वे भी शब्दों से ही बने हैं।
शब्द का मूल्य ही कुछ नहीं है। शब्द कामचलाऊ है, उपकरण है। एक दूसरे से बात करने के लिए उपयोगी है। और ध्यान रहे, अगर अस्तित्व से बात करनी हो तो शब्द बिल्कुल उपयोगी नहीं है, बाधा है। वहां निशब्द उपयोगी है।
आदमी से बात करनी हो तो शब्द उपयोगी है, शब्द माध्यम है। आकाश से बात करनी हो तो शब्द माध्यम नहीं है। वृक्षों से बात करनी हो, तो शब्द माध्यम नहीं है। तारों से बात करनी हो, तो शब्द माध्यम नहीं है। और अगर तारों के साथ भी तुम शब्दों का उपयोग करो, तो तुम पागल हो। क्योंकि तुम अकेले ही बोल रहे हो। वह एकालाप है--मोनोलॉग है, डायलाग नहीं है। वहां कोई संवाद नहीं हो रहा है; दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं आ रहा है।
लेकिन अगर तुम चुप हो जाओ, तो तारे बोलते हैं, अगर तुम चुप हो जाओ, तो आकाश भी बोलता है। अगर तुम चुप हो जाओ, तो कंकड़-पत्थर भी बोलते हैं--लेकिन चुप हो जाओ तब।
जीसस ने कहा हैः ‘तोड़ो लकड़ी को, तुम मुझे वहां मौजूद पाओगे।’ उठाओ पत्थर को, तुम मुझे वहां छिपा पाओगे।’ लेकिन तुमने कई बार लकड़ी तोड़ी है और जीसस वहां मिले! और तुमने कई बार पत्थर उठाया, और सिर्फ गड्ढा हो जाता है; कोई जीसस वहां नहीं मिलते। क्योंकि तुम शब्द से भरे हो। अगर तुम पत्थर उठाओ और तुम मौन हो, तो जीसस ठीक कहते हैं, तुम्हें वे वहां मिल जाएंगे।
परमात्मा के लिए किसी मंदिर में जाने की जरूरत नहीं है। तुम जहां मौन हो गए, वहीं वह मौजूद है। वह हर घड़ी मौजूद है।
अस्तित्व पूरे समय बोल रहा है, पल-पल उसकी वाणी गूंज रही है। वह निनाद हो ही रहा है। तुम चुप नहीं हो; तुम शब्दों से भरे हो। तुम्हारी खोपड़ी का एक ही रोग है कि तुम शब्द, शब्द और उनकी भीड़ खड़ी किए जाते हो। तुम चुप होना नहीं जानते। उसी से तुम चूक रहे हो।
फिर लोग हैं, जो बाजार से भरे हैं, दुकान से भरे हैं। वे मंदिर जाते हैं। वे वहां भी कहते हैं, ‘कोई मंत्र दे दो।’
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ‘कोई मंत्र दे दें।’ मैं उनसे पूछता हूं, ‘मंत्र से क्या करोगे? मंत्रों से तो तुम भरे ही हुए हो। तुम अब मौन सीखो।’ वे कहते हैं, ‘मौन तो मुश्किल है। मंत्र आप दे दें, तो हम रटते रहेंगे।’
मंत्र आसान है। क्योंकि मन उस काम को भलीभांति जानता है। वह मन के विपरीत नहीं है। पहले कुछ और रटता थाः ‘रुपया, रुपया, रुपया।’ अब रटता हैः ‘राम, राम, राम।’ फर्क कुछ नहीं है। दुकान पर बैठा रटता रहता था, अब मंदिर में बैठकर रटता रहता है। रटन जारी है। मन चुप नहीं होता।
एक बीमारी को छोड़ कर तुम दूसरी पकड़ लेते हो। पहले खाते वगैरह में आंखें गड़ाए रहे, अब गीता, कुरान, बाइबिल में आंखें गड़ाए रखते हो। लेकिन शब्द से छुटकारा नहीं हुआ। और जब तक शब्द से छुटकारा न हो जाए, तब तक सत्य से कोई मिलन नहीं है।
जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम कौन सी भाषा जानते थे? तब भी तुम थे--निर्भाषा में, मौन में। जब तुम मरोगे, तब तुम्हारी सब भाषा यहीं छूट जाएंगी; तुम्हारे शब्द सब यहीं बिखर जाएंगे। तुम फिर खाली होकर जाओगे।
खाली तुम आए, खाली तुम जाते हो। बीच में थोड़ी देर के लिए शोरगुल है। काश, तुम बीच में खाली होना सीख लो, तो तुम्हें ध्यान आ गया।
जोशू कह रहा है... । और जिनसे वह कह रहा है, वे दुकानों पर बैठे हुए लोग नहीं थे। वे संन्यासी थे, भिक्षु थे। वे सुबह से शाम तक ‘नमो बुद्धों, नमो बुद्धाय’ रट रहे थे। वे बुद्ध ही बुद्ध से अपने को भर रहे थे। उनसे वह कह रहा है कि ‘अगर बुद्ध का नाम लो, तो समझ लेना कि मुंह अपवित्र हो गया है। धो देना, कुल्ला कर लेना।’ और यही जोशू प्रातः संध्या समय बुद्ध की प्रतिमा के सामने फूल चढ़ाते, सुगंध जलाते और सिर टेकते भी देखे जाते थे।
एक बार जोशू को एक नये अतिथि ने पकड़ लिया। उसने सुना जोशू को सुबह और वह बात उसको बिल्कुल ठीक लगीः कि सबसे छुटकारा पा लेना है। --न शास्त्र, न शब्द, न पूजा, न प्रार्थना। यह ठीक कह रहा है। वह आदमी नास्तिक था। वह पहले से मानता था कि यह सब व्यर्थ है। और जब जोशू के मुंह से उसने सुना कि बुद्ध से भी बचना, बुद्ध के नाम से भी बचना, तो उसे बात बिल्कुल ठीक लगी।
यह एक बड़ी कठिनाई है शब्दों की। कभी-कभी बहुत एक जैसे दिखाई पड़ने वाले शब्द बड़े विभिन्न अर्थ रखते हैं और कभी-कभी बड़े विभिन्न दिखाई पड़ने वाले शब्द बिल्कुल एक अर्थ रखते हैं।
कहां जोशू! इससे बड़ा आस्तिक खोजना मुश्किल है। और कहां यह नास्तिक! लेकिन नास्तिक को लगा, जोशू बिल्कुल ठीक कह रहा है। उसने सोचा ‘यही तो मैं मानता हूं कि यह सब बकवास है। व्यर्थ है।’
सांझ को वह खुश लौट रहा था, तो उसने मंदिर में देखा कि जोशू पूजा कर रहा है। वह तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। यह अंतर्विरोध है; यह आदमी तो धोखेबाज है। सुबह उसने क्या कहा और सांझ क्या कर रहा है!
वह अंदर गया और उसने कहा, ‘यह मेरी समझ के बाहर है!’ जोशू ने आंख खोली और कहा, ‘समझ के बाहर तो यह मेरे भी है। यह बात ही समझ के बाहर है। इसमें तुम क्या करोगे?’ और उस आदमी ने कहा, ‘मुझे मुश्किल में डाल दिया। मैं तो निश्चित लौटता था, कि मेरे और आपके विचार मेल खाते हैं! लेकिन यह आचरण? सुबह तुमने ही कहा कि बुद्ध से बंध मत जाना, फिर पूजा क्यों कर रहे हो?’ जोशू ने कहा, ‘इसी बुद्ध ने जगाया मुझे; सभी कारागृहों से मुक्त होने की खबर दी। इसी बुद्ध ने यह भी अनुकंपा की कि स्वयं अपने से भी मुझे न बंधने दिया। यह मैं धन्यवाद दे रहा हूं। यह पूजा मेरा बंधन नहीं है। सब बंधनों से जिसने मुझे छुड़ाया, उसको धन्यवाद है।’
अब जरा बारीक हो गई बात। पूजा बंधन भी हो सकती है, धन्यवाद भी हो सकती है।
मेरे पास लोग आते हैं। एक साहित्यकार मेरे पास आते थे। ऐसी ही एक घटना घटी। एक शिविर चलता था माथेरान में। और सुबह ही मैं बोला। मैंने कहा, ‘किसी की पूजा मत करना। क्योंकि पूजा से तुम बंधोगे।’ दोपहर को मैं आ रहा था रास्ते से, सभा के लिए। एक सज्जन झुके और मेरे पैर छुए; वे साहित्कार मेरे साथ थे। उन्होंने उस सज्जन से कहा, ‘रुको; सुबह ही कहा है कि किसी की पूजा मत करना!’ और मुझसे बोले, ‘आप उन्हें रोकते क्यों नहीं? इसमें अंतर-विरोध है। आचरण में उलटा हो गया। सुबह ही आपने कहा है... !’
पूजा धन्यवाद अगर हो, तो अंतर्विरोध नहीं है। पूजा अगर राग हो, तो अंतर्विरोध है। लेकिन दोनों पूजाएं एक जैसी दिखाई पड़ती हैं ऊपर से। पूजा पूजा में क्या अंतर है? जब कोई राग से भरकर फूल चढ़ाता है, तब तुम कैसे पहचानोगे? और जब कोई सिर्फ धन्यवाद देने जाता है, कि धन्यवाद, तब तुम कैसे पहचानोगे?
चीन में एक गुरु हुआ। वह मर गया। उसकी मरण-तिथि पर उसका शिष्य समारंभ कर रहा था। वैसा समारंभ केवल उसी गुरु के लिए किया जाता है, जिससे तुमने दीक्षा ली हो। लेकिन गांव के लोगों को पता था कि इस आदमी ने कभी भी दीक्षा नहीं ली! और यह समारंभ मना रहा है! और कुछ लोगों को यह भी पता था कि इसने प्रार्थना भी की थी उस गुरु से कि मुझे दीक्षा दे दो। लेकिन उसने इनकार कर दिया था।
तो लोगों ने पूछा कि ‘हमारी समझ के बाहर है। न तुमने कभी दीक्षा ली, न तुम कभी उसके शिष्य थे। और यह समारंभ तो सिर्फ शिष्य ही मनाते हैं--गुरु के लिए। तुम क्यों मना रहे हो? और फिर हमें यह भी खबर है--गांव के बड़े-चढ़े कहते हैं कि तुमने अनेक बार उससे प्रार्थना की थी कि मुझे दीक्षित करो, और वह हमेशा इनकार करता रहा। तुम कभी दीक्षित किए भी नहीं गए। तो, न केवल तुम शिष्य ही नहीं हो, इस गुरु ने तुम्हें इनकार भी किया था। तुम शिष्य होने के योग्य भी कभी नहीं माने गए। यह समारंभ तुम्हें मनाना नहीं चाहिए।’
वह आदमी हंसने लगा। उसकी आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे। उसने कहा, ‘इसीलिए तो मैं मना रहा हूं कि मैंने कई बार उससे बंधना चाहा, पर उसने हर बार इनकार कर दिया। और उसका इनकार मुझे मुक्त कर गया है। अब धन्यवाद मैं किसको दूं? यह उसकी ही कृपा है। दुनिया कुछ भी कहे, मैं उसका शिष्य हूं। और दीक्षा मुझे नहीं दी गई। लेकिन इनकार करके उसने मुझे दीक्षा दे दी। उसका हर इनकार एक एक कदम था। और मैंने हर चेष्टा की बंधने की; उसने एक चेष्टा न चलने दी। सब चेष्टाएं तोड़ दीं। तो उसकी कृपा है कि मैं बंधा नहीं और मुक्त हुआ। अब मैं धन्यवाद किसको दूं? धन्यवाद उसी को देना पड़ेगा।’
नास्तिक ने कहाः ‘यह कैसी पूजा है? कैसा अर्चना है? यह फूल किसको चढ़ाते हो? जब कोई गुरु नहीं है, किसी का अनुसरण नहीं करना है, किसी पर श्रद्धा नहीं रखनी है, जब अपना दीया खुद ही जलाना है, तो यह तो मूर्तिपूजा है।’
यही झंझट है।
इस्लाम कभी भी नहीं समझ पाया कि ऐसी मूर्तिपूजा भी हो सकती है, जो मूर्तिपूजा न हो। पूजा अगर धन्यवाद है, तो पूजा है ही नहीं। पूजा अगर राग है, पूजा अगर मांग है, और पूजा से अगर किसी वासना का फैलाव होता है, तो मूर्तिपूजा है। लेकिन पूजा अगर सिर्फ सारी वासनाओं की समाप्ति पर दिया गया धन्यवाद है, अगर पूजा अंत है, प्रारंभ नहीं, तो वह मूर्तिपूजा नहीं है।
इसलिए हम फूल चढ़ाते हैं। फूल प्रतीक है; वह वृक्ष की अंतिम घटना है। वहां वृक्ष जाकर पूरा होता है। इसलिए हम फूल चढ़ाते हैं, कोई सौंदर्य के कारण नहीं--कि फूल सुंदर है। इसलिए पूजा में कोई बहुत कीमती फूल लाओ, वह सवाल नहीं है; घास का फूल भी काम देता है। लेकिन फूल चाहिए। क्योंकि फूल आखिर घटना है। बस, उस पर जाकर वृक्ष पूरा होता है।
अर्चना आखिरी घटना होनी चाहिए, पूजा के आगे मांग नहीं होनी चाहिए--कि ‘यह मुझे मिल जाए--इसलिए मैं पूजा कर रहा हूं--कि यह मुझे दो। हे परमात्मा, यह कृपा करो।’ नहीं, पूजा का अर्थ हैः ‘तुमने सब कृपा कर दी, अब मैं धन्यवाद दे रहा हूं। सब कृपा हो चुकी है। यह आखिरी कृत्य है। यह अध्याय मैं पूरा कर रहा हूं। यह इतिश्री है। यह प्रारंभ नहीं है।
जोशू चढ़ा रहा है--बुद्ध के सामने फूल। सिर झुका रहा है, सुगंध जला रहा है, सिर टेक रहा है। और हमें अंतर्विरोध निश्चित ही दिखाई पड़ेगा।
धार्मिक व्यक्ति में हमें अंतर्विरोध दिखाई पड़ेगा ही। क्योंकि धार्मिक व्यक्ति नास्तिक और आस्तिक दोनों का जोड़ है। धार्मिक न तो आस्तिक है, न नास्तिक। आस्तिक आधा है। वह कहता हैः ‘हां।’ नास्तिक भी आधा है। वह कहता हैः ‘ना।’ धार्मिक दोनों है। वह ‘ना’ भी कहता है--जो व्यर्थ है उसे। और वह ‘हां’ भी कहता है--जो सार्थक है उसे। उसकी पूजा दोनों है। वह ‘ना’ भी कहता है--राग को, वह ‘हां’ भी कहता है--अनुग्रह को।
नास्तिक की समझ में आता है कि ‘ना’ कहते हो, मत करो पूजा। आस्तिक की समझ में आता है, ‘हां’ कहते हो तो करो पूजा। फिर यह ‘ना’ की बातचीत बंद करो। फिर मत कहो, कि मुंह में नाम आ जाए बुद्ध का, तो साफ कर लेना; फिर दोहराओ नाम अहोभाव से, आनंद से। फिर मत कहो यह बात। फिर मत कहो कि बुद्ध मिल जाएं तो ज्यादा देर मत रुकना। फिर तो पकड़ लेना--उनका पल्ला और पीछा मत छोड़ना। फिर जन्मों-जन्मों तक उनके पीछे रहना। फिर पीछा छोड़ना ही मत।
दोनों बातें साफ हैं। आस्तिक का गणित सीधा है, नास्तिक का गणित भी सीधा है। धार्मिक का गणित बड़ा उलटा है। वह दोनों है। और जब तक तुम दोनों न हो जाओगे, तब तक तुम्हें धर्म की झलक भी न मिलेगी।
जिस दिन तुम नास्तिक जैसे होओगे, कि बुद्ध का नाम भी तुम्हें अपवित्र करेगा; और जिस दिन तुम परम आस्तिक जैसे होओगे कि नाच कर तुम धन्यवाद भी दे सकोगे, उस दिन धर्म का फूल तुम्हारे जीवन में खिलेगा। और वही फूल मंदिर में चढ़ाने जैसा है।
जिन फूलों को तुम वृक्षों से तोड़ लाते हो, वे तो केवल प्रतीक हैं। तुम्हारे व्यक्तित्व का फूल। और उसमें ‘हां’ और ‘ना’ दोनों सम्मिलित हैं।
कभी तुमने ख्याल किया है कि ‘हां’ अकेला फीका-फीका होता है; ‘ना’ अकेली बेजान होती है। अगर दोनों मिलते हैं, तो दोनों की विपरीतता के कारण, दोनों के खिंचाव और तनाव के कारण एक ऊर्जा पैदा होती है।
अकेला पुरुष अधूरा-अधूरा है। अकेली स्त्री अधूरी-अधूरी है। और बच्चे का जन्म दोनों के मिलन से होता है। अकेला आस्तिक अधूरा-अधूरा है। अकेला नास्तिक अधूरा-अधूरा है। दोनों के मिलन से जिस बच्चे का जन्म होता है उसीकी ही तलाश है। वही सत्य है, वही मोक्ष है।
नहीं, जोशू में कहीं अंतर्विरोध नहीं है। तुम्हें दिखाई पड़ सकता है। पर जिस दिन तुम्हें जोशू में अंतर्विरोध नहीं दिखाई पड़ेगा, उस दिन तुम्हारे कदम सम्हल गए और ठीक रास्ते पर चलने लगे।
धार्मिक व्यक्ति अंतर-विरोध जानता ही नहीं। सभी को दिखाई पड़ता है कि धार्मिक व्यक्ति बड़ा असंगत है। उसमें विरोधों का अंत नहीं है!
इधर बुद्ध कहते हैंः ‘अपने दीए खुद बनो’ और लोग उनके चरणों में सिर झुका रहे हैं और कह रहे हैंः ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’। और वे इनकार नहीं करते हैं। इधर वे कह रहे हैं कि ‘किसी के पीछे मत चलो’। और दीक्षा दे रहे हैं, हजारों लोगों को--पीछे चलने की! इधर बुद्ध कह रहे हैंः ‘वस्त्रों को बदलने से क्या होगा’, और हजारों लोगों को पीत वस्त्र के भिक्षु बना रहे हैं! उधर बुद्ध कहते हैंः ‘संगठन, संप्रदाय सब व्यर्थ है।’ फिर भी एक संघ निर्मित हो रहा है!
धार्मिक व्यक्ति बड़े अंतर-विरोधों से भरा हुआ है। क्योंकि बुद्धि आधे को देख पाती है और धार्मिक व्यक्ति पूरा है। और ‘पूरा’ तुम्हारी बुद्धि की पकड़ से छूट जाता है।
तुमने कभी ख्याल किया है! एक छोटा सा कंकड़ तुम्हारे हाथ में दे दूं, तो क्या तुम उसे पूरा देख पाओगे? छोटा सा कंकड़ जो तुम्हारी हथेली पर रखा है, तुम उसे पूरा न देख पाओगे। जो ऊपर का हिस्सा है, वही दिखाई पड़ेगा। नीचे का नहीं दिखाई पड़ेगा। तुम उलटा दो, तो दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ेगा; पहला हिस्सा खो जाएगा। और अगर तुम बिल्कुल निश्चित तर्कवादी हो, तो तुम्हें आधे की ही बात कहनी चाहिए, पूरे की नहीं। तुम्हें यह नहीं कहना चाहिए कि पूरा कंकड़ मेरी मुट्ठी में है। आधा दिखता है, तो आधा ही कहना।
एक बहुत बड़ा गणितज्ञ हुआ; तार्किक था। ट्रेन से यात्रा कर रहा था। भागती ट्रेन के किनारे, खेत में हजारों भेड़ें खड़ी थीं। पास के यात्री ने कहाः ‘देखते हैं, इस वर्ष ऊन बहुत अच्छी आई मालूम होती है। भेड़ों के शरीर ऊन से भरे हैं।’ उस आदमी ने कहा, ‘केवल इस तरफ के बाबत हां कह सकता हूं--आधी भेड़ की बाबत। उस तरफ? उस तरफ की बाबत कुछ नहीं कह सकता। सच तो यह है कि आधी भेड़ें ही हैं, यही कह सकता हूं। क्योंकि आधी भेड़ हो या न हो--उस तरफ!’
तुम मेरी तरफ देख रहे हो, तुम्हारा चेहरा दिखाई पड़ रहा है, तुम्हारी पीठ है भी या नहीं, इस संबंध में मैं कुछ कह नहीं सकता, अगर तर्क को ही मान कर चलूं तो हो भी, न भी हो! और कभी किसी ने भी तो तुम्हें पूरा नहीं देखा है। या तो तुम्हारी पीठ दिखाई पड़ती है या तो तुम्हारा चेहरा दिखाई पड़ता है। फिर दोनों को जोड़ कर हम पूरा बना लेते हैं; वह कल्पना है। लेकिन पूरा आदमी आज तक किसी ने नहीं देखा है। पूरे कंकड़ को नहीं देखा, तो पूरी जिंदगी तो कैसे देख पाओगे? और जोशू पूरी जिंदगी है।
संतत्व का अर्थ ही यह है कि जो पूरा है, जिसने सब आधे-आधे इकट्ठे कर लिए हैं। जिसमें सब रेखाएं वर्तुल बन गई हैं। जो पूर्णता है। एक कोने से तुम देखोगे तो लगेगाः ‘आधा ठीक है।’ दूसरे कोने से देखोगे तो लगेगाः ‘आधा ठीक है।’ और अगर तुम दोनों तरफ जाकर देखोगे तो मुश्किल पड़ेगी।
जो सुबह ही जोशू को सुन कर चले गए होते और सांझ को उसकी पूजा ही देखी होती, तो दिक्कत न होती। तुम तय कर लेते कि आदमी नास्तिक है। अपने ही जैसा है। जिन्होंने सांझ की पूजा ही देखी थी और सुबह की बात न सुनी थी, उनके लिए भी ठीक था। वे समझते कि आदमी धार्मिक है, आस्तिक है। लेकिन जिन्होंने दोनों ही देख लिए, उनके लिए अंतर्विरोध पैदा हो रहा है।
जोशू के लिए कोई अंतर्विरोध नहीं है। जब वह बोल रहा था। तब भी पूरा था। और जब पूजा कर रहा है, तब भी पूरा है। वह कहीं कटा-बंटा नहीं है।
तुम्हारे लिए अंतर्विरोध है। क्योंकि दोनों बातें विपरीत दिखाई पड़ती हैं; ‘हां’ और ‘ना’ में विरोध दिखाई पड़ता है। यह तुम्हारी सोचने की प्रक्रिया का परिणाम है। और अगर तुम सोचते ही रहे, तो अंतर्विरोध दिखता ही रहेगा।
रख दो सोच-विचार को उतार कर और फिर जोशू को देखो, तब तुम्हें वह पूरा दिखाई पड़ेगा। और तब तुम उसकी महिमा को समझ पाओगे।
महिमा यही है कि पीछे चलना मत बुद्ध के--यही बुद्ध के पीछे चलने का ढंग है। बुद्ध को पूजना मतः यही बड़ी से बड़ी पूजा है। बुद्ध का नाम मत लेना, क्योंकि नाम लिया, तो ओछा हो जाएगा; मुंह बेस्वाद हो जाएगा; कुल्ला कर लेना। बुद्ध जैसे महिमाशाली व्यक्ति का नाम नहीं लिया जा सकता। तुम सिर्फ स्मरण करना--बिना नाम के; वही उसका नाम है।
यहूदियों में एक व्यवस्था है, कि परमात्मा का नाम लिया नहीं जा सकता। परमात्मा के लिए उन्होंने कामचलाऊ शब्द बना लिया है, लेकिन वह कामचलाऊ है। असली शब्द बोला नहीं जाता। जो भी नाम हैं परमात्मा के, वे कामचलाऊ हैं। असली शब्द बोला नहीं जाता।
पुराने दिनों में जब यहूदियों का मंदिर जेरुसलम में था, तो एक वर्ष तक पुजारी मौन रहता था, लंबे उपवास करता था। सब भांति शून्य हो जाता था। तब पवित्र दिन पर, वर्ष में एक बार सिर्फ वही पुजारी ईश्वर का नाम लेता था; लोग सुनते थे। फिर वर्ष भर वह शुद्ध होता था।
यह बड़े मजे की बात है। शुद्धि दो तरह की थी। साल भर शुद्ध और मौन होता था, चुप होता था, ध्यान करता था, ताकि नाम लेने में समर्थ हो सके। और फिर नाम ले लिया, इसलिए अशुद्ध हो गया, तो साल भर फिर निखारता था, शुद्ध करता था, क्योंकि परमात्मा का नाम लेना, उसे अशुद्ध कर देना है। वह नाम के पार है, रूप के पार है। उसे कोई भी सीमा देते ही, वह अशुद्ध हो जाता है।
और सिर्फ मंदिर के बड़े पुरोहित को अधिकार था। और बड़ा पुरोहित होना बड़ा मुश्किल था। कभी-कभी वर्षों तक कोई पुरोहित नहीं होता था। तो नाम छूट जाता था। फिर मंदिर ही गिर गया। तब से यह परंपरा यहूदियों में खो गई।
यहूदी अकेला धर्म है, जिसके पास परमात्मा का कोई नाम नहीं है। परमात्मा का नाम किसी के पास भी नहीं है। सब नाम कामचलाऊ हैं।
जोशू ठीक कह रहा है। कोशिश करना देखने की। और अगर तुम्हें अंतर्विरोध दिखता ही रहे, तो समझना कि तुम अभी नहीं समझे। ऐसे क्षण आएंगे--झलक के--भीतर, जब तुम्हें अंतर्विरोध नहीं दिखाई पड़ेगा। बस, वही क्षण समझ होगी, वही अंडरस्टेंडिंग होगी, वहीं प्रज्ञा आविर्भूत होगी।
आज इतना ही।
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