चिकलदरा शिविर के प्रवचन
पांच प्रवचनों का संकलन
(शायद किसी अन्य शीर्षक से प्रकाशित हुए हों)
चिकलदरा शिविर-प्रवचन-पहला
जो दिखाई पड़ जाए, उसका जीवन में प्रवेश हो जाता है। वह भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जो जीवन में प्रविष्ट हो, वह आरोपित, जबरदती, चेष्टा और प्रयास से न हो, बल्कि ऐसे ही सहज हो जाए, जैसे वृक्षों में फूल खिलते हैं, या सूखे पत्ते हवाओं में उड़ जाते हैं, या छोटे-छोटे तिनके और लकड़ी के टुकड़े नदी के प्रवाह में बह जाते हैं। उतना ही सहज जीवन में उसका आगमन हो जाए, वह तो तीन दिनों में मैं चर्चा करूंगा, उसे आप समझने और सोचने की दिशा में सहयोगी बनेंगे। अभी आज की रात तो कुछ बहुत थोड़ी सी काल्पनिक बातें मुझे कहीं। लेकिन इसके पहले की मैं यह बातें करूं, यह भी आपसे निवेदन कर दूं। साधारणतया जो लोग भी धर्म और साधना में उत्सुक होते हैं, वे सोचते हैं, कि बहुत बड़ी-बड़ी बात करना महत्वपूर्ण है। मेरी दृष्टि भिन्न है, जीवन बहुत छोटी-छोटी बातों से बनता है, बड़ी बातों से नहीं और जो व्यक्ति भी बहुत बड़ी-बड़ी बातों की महत्ता के संबंध में गंभीर हो उठा है, वह महत्वपूर्ण से वंचित रह जाता है, अक्सर वंचित रह जाता है। उसे यह बात नहीं दिखाई पड़ पाती कि बहुत छोटे-छोटे तथ्यों से मिलकर जीवन बनता है।परमात्मा और आत्मा और पुनर्जन्म और इस तरह की सारी बातें, धार्मिक लोग ही करते हैं। लेकिन बहुत छोटे-छोटे जीवन के तथ्य हैं, दृष्टियां और हमारी सोचने और जीने के ढंग उनके ख्याल में नहीं होते और तब वही बातें हवा में अटकी रह जाती है और जीवन के पहलू, जिस भूमि पर खड़े हैं, उस भूमि में कोई परिवर्तन नहीं होगा।
कुछ छोटी-छोटी थोड़ी सी बातों के संबंध में आज की रात कहना चाहूंगा, अगर उनको थोड़ा ध्यान देंगे, तो आने वाले तीन दिनों में कुछ गहरा काम भी हो सकता है। इसके पहले कि मैं बात शुरू करूं; छोटी सी कहानी कहूं, शायद उस कहानी के आधार पर पूरी चर्चाएं हो जाए।
दो मित्र पृथ्वी के परिक्रमा के लिए निकले। उन्होंने चाहा और आकांक्षा की हम सारी पृथ्वी को घूम डाले और देख डाले और जीवन के विविध रूपों को अनुभव करें और जीवन में जो अनुभव की संपदा है, उसे पकड़ें। लेकिन एक मित्र अंधा था, बड़ी दया की दूसरे मित्र ने कि वह उसका हाथ पकड़ कर उसे सारी पृथ्वी घुमाने के लिए राजी हुआ था। अंधा आदमी अपनी लकड़ी टेक कर और मित्र का सहारा लेकर यात्रा शुरू की, लेकिन थोड़े ही दिनों में अड़चनें आनी शुरू हुई। दूर से मित्र बने रहना एक बात है, और लंबी यात्रा में सहयोगी और साथी होना बिल्कुल दूसरी। बहुत सी कठिनाइयां आनी शुरू हो गई, छोटी-छोटी बातों में उपद्रव और विरोध शुरू हो गया, कटुता आनी शुरू हो गई। पृथ्वी बड़ी थी, परिक्रमा बहुत बड़ी थी। थोड़े ही दिनों में दोनों के बीच मनमुटाव गहरा हो गया। एक रात दोनों एक रेगिस्तान में सोए, बहुत सर्द और ठंडी रात थी। सुबह जैसे ही अंधे मित्र की आंख खुलीं, उसने टटोलकर अपनी लकड़ी ढूंढनी चाही, जिसे वह रात रखकर सो गया था। उसके हाथ में लकड़ी आ भी गई, देखकर वह हैरान हुआ, जो लकड़ी उसके हाथ में आई थी, वह बहुत चिकनी साफ-सुथरी, बहुत सुंदर मालूम हो रही थी। वह हैरान हुआ कि यह लकड़ी कहां से आ गई, उसकी लकड़ी तो बहुत साधारण खुरदुरी थी। उसी लकड़ी से उसने अपने आंखों वाले मित्र को हिलाया और जगाया और कहा कि उठो! सुबह हो गई और पक्षी गीत गाने लगे और मुर्गों ने बांगे दे दी है और अच्छा होगा कि हम जल्दी यात्रा पर निकल जाए, इसके पहले की सूरज चढ़े और धूप बढ़ जाए। आंख वाले मित्र ने आंख खोली, वह घबड़ाकर दूर खड़ा हो गया और उसने अपने अंधे मित्र से कहा कि मित्र तुम जो लकड़ी हाथ में लिए हो, वह लकड़ी नहीं है, कृपा करके उसे जल्दी छोड़ दो। वह रात में सर्दी में ठिठुर गया एक सर्प और तुम उसे पकड़े हुए हो। लेकिन उस अंधे आदमी ने कहा, अब तो हद हो गई, मेरे पास आंखें नहीं है, यह तो मैं समझता हूं, लेकिन मेरे पास हाथ है। तुम शायद अब यह भी कहने लगे कि तुम्हारे पास हाथ भी नहीं है। मुझे अनुभव हो रहा है कि लकड़ी है, सर्प नहीं है और तुमसे मैं तुम्हारी चालाकी भी समझ गया। शायद यह सुंदर लकड़ी तुम्हें बहुत मन को भा गई होगी और तुम चाहते हो कि मैं इसे छोड़ दूं, तो तुम उठा लो। लेकिन मुझे धोखा देना इतना आसान नहीं है। उसके मित्र ने बार-बार प्रार्थना की कि तुम कृपा करो और इसे छोड़ दो वह सर्प था और लकड़ी नहीं है। लेकिन जितना वह मित्र प्रार्थना करता गया, उतना अंधे का आग्रह बढ़ता चला गया। अंततः बात यहां पहुंच गई कि अंधे आदमी ने कहा कि अब तुम्हारा साथ आगे नहीं बन सकेगा। फिर वे दोनों मित्र अलग हो गए।
आंख वाले ने बहुत दुख से उस मित्र को विदा किया, लेकिन कोई रास्ता नहीं था। थोड़ी दूर चलने पर जो धूप तीखी हो गई, तो सर्प की सर्दी थोड़ी कम हुई, उसमें प्राण वापिस लौटे। और उस अंधे आदमी का जो होना था वह हुआ। उस सर्प ने उसे काटा, और वह अंधा आदमी मरा। यह कहानी मैं किसी विशेष प्रयोजन के कह रहा हूं।
मनुष्य के मन में एक लंबी यात्रा है हर मनुष्य के जीवन में, लंबी परिघमा है, पूरे जन्म की। जन्म से मृत्यु के बीच लंबी यात्रा है, और हर मनुष्य के भीतर दोनों नेत्र मौजूद है, आंख वाला भी और न आंख वाला भी, जो आंख वाली शक्तियां है मनुष्य के भीतर, बहुत कम लोग उन्हें जगा पाते हैं और उन पर... और अधिकांश लोग उन्हें भी पकड़ लेते हैं और उनके भी अनुगान हो जाते हैं। यहां तक भी कि हम अंधी शक्तियां पर साथ होकर आंख वाली शक्तियों का साथ भी छोड़ देने को तैयार हो जाते हैं। तब फिर जीवन में बहुत भटकने, अंधापन, दुख और पीड़ा शुरू होती है। और वह पूरा जीवन, जीवन रखकर मृत्यु की ही एक लंबी प्रक्रिया मात्र हो जाती है। फिर हम मरते हैं रोज मरते जाते हैं, और एक दिन मौत आती है और समाप्त हो जाते हैं।
लेकिन जीवन के अर्थ को और आनंद को नहीं जान पाते, जीवन के अर्थ और आनंद को तो वही जान सकता है, जो स्वयं के भीतर आंखवाली शक्तियों का सहारा पकड़ लें और जो स्वयं के भीतर अंधी शक्तियों का सहारा पकड़ता है, वह जीवन से भटक जाता है और अंधकार में खो जाता है। अंधापन, अंधकार में ले जा सकता है, आंखें प्रकाश में और प्रकाश के अतिरिक्त न जीवन का अर्थ है कोई और न जीवन में आनंद है कोई। और प्रकाश के बिना जीवन भटक जाता है, कौन सी शक्तियां हमारे भीतर अंधी है, उनकी मैं बात करूंगा। कौन सी शक्तियां हमारे भीतर आंख वाली है, उनकी मैं बात करूंगा। उन तत्वों की ही बात करूंगा, जो अंधी शक्तियों को प्रबल करते हैं और उनकी भी जो निर्मल करते हैं और आंख वाली शक्तियों को जगाते हैं और चैतन्य करते हैं।
यदि आपके जीवन में दुख, चिंता और पीड़ा हो, यदि आपने जीवन की कोई थिरक और संगीत और आनंद अनुभव किया, तो एक बात बहुत ही स्पष्ट रूप से समझ लो, जाने-अनजाने में आपने जीवन की अंधी शक्तियों की भी बल दिया होगा, अन्यथा यह नहीं हो सकता था, अगर राते पर हम चलें, और पैर बाजमार के ढेलों पर जाते हो, और बार-बार किसी से टकराहट हो जाती हो और चोट लग जाती है, तो हम समझते है, लेकिन जीवन में यह बोध होना कि लोग बार-बार उन्हीं-उन्हीं घटनाओं को...
कल जो क्रोध किया था, वही क्रोध आज भी किया है, आज जो क्रोध किया है कल वही क्रोध फिर भी होगा। क्रोध के बाद पछताएंगे भी, दुखी भी होंगे, निर्णय भी करेंगे न करने का, लेकिन फिर घड़ी दो घड़ी बाद वही भूल सामने आ जाएगी, वही... वही आदमी, वही पैर और फिर वही गड्ढे में गिरना हो जाएगा। जीवन निरंतर कुछ थोड़ी सी भूलों को ही दोहराते रहना जीवन भर, यह निरंतर उन्हीं भूलों को दोहराना है, जिनके लिए हमें पचता है, दुखी होना, पीड़ित हुए, कष्ट उठाया, निर्णय किया नहीं करने का, फिर उन्हीं को दोहराते हैं, किस बात की सूचना होगी, इस बात की भीतर आंख या तो बंद है, या तो हमने जीवन में जो भी दृष्टि पकड़ी है, वह अत्यंत अंधकारपूर्ण और अंधी है। उन्हीं भूलों को इसके अतिरिक्त दोहराने का कोई भी कारण नहीं है। और फिर जो कुछ हम जीवन में चाहते हैं, वही-वही उपलब्ध नहीं हो पाता। हर मनुष्य आनंदता का होकर शांति चाहता होगा, एक संगीतपूर्ण नेतृत्व चाहता होगा, खून की तरह सुर्ख एक आत्मा चाहता होगा, लेकिन यह हो नहीं पाता और एक जोश हम करते हैं, वह सब ठीक हमें, जो हम चाहते हैं, उसके विरोध में ले जाता है।
किस बात की सूचना मिलती होगी, एक ही बात की सूचना मिलती होगी। आकांक्षाएं तो हमारी ठीक है, लेकिन आंखें हमारी अंधी है, और आंखें अंधी होंगी। तो यह स्मरण रखिए, खुद की आंखें अंधी होंगी, तो कोई भी दुनिया में किसी दूसरे की आंख आपके सामने नहीं पड़ सकती। कृष्ण की यकायक, या बुद्ध की या महावीर की या किसी की आंख आपके काम नहीं पड़ेगी। और आपकी आंख अंधी हो, तो आपके हाथ में सूरज भी लाकर रख दिया जाए तो भी प्रकाश नहीं घट सकेगा, उसमें कोई अर्थ नहीं होगा।
एक अंधा आदमी, एक मित्र के घर रात विदा ले रहा था। उसके मित्र ने कहा, अंधेरी रात है, सन्नाटा है, अमावस है, रातें सुनसान है, लोगों के घर बंद है, अच्छा होगा कि तुम हाथ में एक दीया लिए जाओ। उस अंधे ने कहा, कि आप बड़ी पागलपन की बातें करते हैं, मैं दीया भी ले जाऊं, उसका क्या अर्थ? मेरी आंखें तो नहीं है, तो मेरे हाथ में प्रकाश भी होगा तो मैं क्या करूंगा। फिर भी मित्र बहुत आग्रह किया, उसके आग्रह को मान लेकर वह अंधा आदमी एक कंदील को लेकर रास्ते पर निकला। लेकिन वह कोई दस कदम ही गया होगा कि कोई दूसरा आदमी आकर उससे टकरा गया, तो उस अंधे आदमी ने कहा, मेरे मित्र! मुझे तो लालटेन नहीं दिखाई पड़ती, लेकिन तुम्हें तो दिखाई पड़ती होगी। क्या मैं किसी दूसरे अंधे आदमी से मुलाकात कर रहा हूं। उस दूसरे आदमी ने कहा, नहीं भाई, मुझे तो दिखाई पड़ता है, लेकिन तुम्हारी कंदील की बाती बुझ गई। तुम बुझी हुई कंदील लिए हुए हो, इसलिए कैसे दिखाई पड़ता, तो अंधे आदमी को तो यह भी पता नहीं चल सकता कि कंदील बुझी हुई है। दुनिया भर के साथ बुझी हुई कंदीलों की भांति हमारे हाथों में है। इससे कोई अर्थ नहीं हैः कोई कुरान को लिए हुए है; कोई गीता को; कोई बाइबिल को; तीनों टकरा जाते हैं रातों पर। तीनों की कंदीलें बुझ गई है। लेकिन कंदीलें बुझी है या जली है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कि खुद के पास आंख न हो, आंख के बिना प्रकाश का कोई भी अर्थ नहीं है। तो चाहे हम कितने ही प्रकाशवान लोगों को पूजें, औरों के वचनों को आदर दें। कोई उससे, कोई उससे जुड़कर नेत्रत्व होने वाला नहीं है, कोई मंगल होने वाला नहीं है। मंगल तो तब होगा, जब आंख खुली हो और मैं स्मरण दिला रहा हूं आपको कि आंख खुली हो, तो अंधकार मिट गया, तो हो सकता है और आंख बंद हो, तो प्रकाश में भी कोई रास्ता नहीं है।
मैं फिर दोहराता हूं, आंख बंद हो, तो प्रकाश में भी कोई रास्ता नहीं है और आंख खुली हो, तो अंधकार में भी रास्ता मिट जाता हूं। जीवन में जो हमारे इतनी चिंताएं, इतना संताप, इतनी एंगसायटी, इतनी अशांति है। क्या कभी सोचा है कि यह क्यों, क्या कभी विचारा कि यह कैसे पैदा हो गई। यह आसमान से नहीं बरसती है, इसे हम पैदा करते हैं, जिस ढंग से हम रोज जीते हैं, उससे हम पैदा करते है, हमारे जीने का ढंग गलत है, सोचने का ढंग गलत है, देखने की दृष्टि भी मंद है, हाथ में जीवन में कोई प्रकाश नहीं है। जो भी हम करते हैं, वह गलत ले जाता है, जो भी हम बनाते हैं, वह गलत हो जाता है, जिस भांति भी हम चलते हैं, वही रास्ता भटका देता है। इन सारे तथ्यों को देखने को एक बात ख्याल में आ जानी चाहिए और वह यह कि हमने अपने जीवन में आंखों वाली शक्तियों को विकसित करने में संकोच किया होगा और अंधी शक्तियों को सहारा दिया होगा। कोई भी तरह की शक्तियां है, श्रद्धा अंधी शक्ति है, विश्वास अंधी शक्ति है, विचार, विवेक, आंख वाली शक्तियां है। लेकिन हमने श्रद्धा को, विश्वास को, इनको बल दिया है; विवेक को, विचार को, मूर्च्छा अंधी शक्ति है और हमने हर तरह से मूर्च्छा खोजी है, हमने तरह-तरह से बेहोश होने के उपाय किए है। न केवल हमने शराब और अफीम और गांजा और अब नई दुनिया में नरसकंडु और एल. एस डी. और इस तरह की चीजें खोजी है जिनसे हम मूर्च्छित हो जाए। बल्कि हमने भजन, कीर्तन, ढोल, नाम-जप, मालाएं और न जाने मालूम ऐसी मानसिक तरकीबें खोजी है, जिनसे मन तंद्रा में चला जाए और सो जाए। हमने मन को जगाने और चैतन्य करने के उपाय नहीं खोजें, हमने मन को सुनाने के तंद्रा में ले जाने के, नींद में ले जाने के, मूर्च्छित होने के उपाय खोजे हैं, मूर्च्छित ही मूर्च्छा और नींद से एक तरह की शांति मिलती है, लेकिन वह शांति उसी तरह की है, जिस तरह की मुद्रा में होने की है, जीवंत वह शांति नहीं है, जो मूर्च्छा से आती हो, जीवंत शांति तो वह है जो परम-जागरण से उत्पन्न होती हो। उस सबकी मैं बात करूंगा कि हमने किस भांति मूर्च्छा को आंखें बंद करने को बल दिया है, सहारा दिया है और छिन लिया है। और उसकी मैं बात करूंगा कि कैसे हम उससे मुक्त हो सकेंगे और जीवन शक्तियों को विवेक की और चैतन्य की शक्तियों को जगा सकेंगे। उन दोनों की मैं तीन तरह की चर्चा करूंगा। इसके पहले कि वे तीन दिन की चर्चाएं वे आपके सामने हो, मैं सारी बातें आपसे कहूं। उन तीन दिनों की बातें कहूं, सम्यक रूप से समझने, विचार करने, उस तरफ आंख उठाने के लिए कुछ छोटी-छोटी बातें आपसे अपेक्षित होंगी। पहली अपेक्षा तो यह होगी कि हम तीन दिनों में जो पीछे आप करते आए हैं, सोचते रहे है, विचार करते रहे हैं, उससे थोड़ा सा दूर हटकर अगर बातों को सुनने की कोशिश करेंगे तो शायद कुछ हो सके। उससे थोड़ा तटस्थ होकर अगर सोचेंगे तो कुछ हो सकता है, आमतौर से हम उसके भिन्न हो जाते हैं, जो हमारे लिए बैठा हुआ है। एक फकीर के पास एक नया युवक भिक्षा लेने गया, उस युवक ने जाकर उस फकीर के पैर पड़े मैं भिक्षित होने आया हूं, तो उस फकीर ने पूछा तुम किस जगह से आते हो। उसने कहा, मैं पेकिंग से आता हूं। उस फकीर ने पूछा कि पेकिंग में चाहो से क्या भाव, वह युवक हंसा और उसने कहा क्षमा करें, पेकिंग को मैं पीछे छोड़ आया, उसके चावल को भी, उसके भाव को भी और जिस रास्ते से मैं गुजर जाता हूं, वह मैं भी मिट गया हो जाता है और जिस पुरतो से मैं गुजर जाता हूं, उसको मैं तोड़ देता हूं। मुझे कुछ पता नहीं कि कैसे चावल कि क्या भाव है। उस फकीर ने कहा, तब ठीक है, तब मैं तुम्हें दीक्षा देने को राजी हूं, अगर तुम बता दे कि पेटी में चावल के क्या भाव है? तो मेरे दरवाजे बंद हो जाते हैं और मैं तुम्हें विदा कर देता। क्योंकि जो आदमी पेकिंग में चला आया है और अब भी वहां के भाव साथ में ले आया है। वह आदमी सत्य की खोज के लिए शांत नहीं हो सकता। तो इन तीन दिनों में प्रार्थना करूंगा कि पेकिंग में चावल के क्या भाव है, इसको छोड़ देना। पेकिंग हो या अमरावती हो या कुछ और हो, वहां क्या चावल के भाव है, अगर वह तीन दिन याद रहें तो बहुत कुछ काम नहीं हो सकता। और जो सही नहीं है, यह स्मरण हो कि जो भी जाता है, उसका कोई भार चित्त पर नहीं होना चाहिए। यह स्मरण मात्र भीतर से विदा कर देता है, अभी रात जब आप सोएं तो स्मरणपूर्वक यह ख्याल लेकर पहुंच गए, जो बीत गया, वह बीत गया और
इन तीन दिनों में भीतर में कोई बार-बार मन पर नहीं लौटने नहीं दूंगा। इन तीन दिनों में जो सामने होगा उसका जीऊंगा और जो बीत गया उसको छोड़ दूंगा। अगर इस विचारपूर्वक स्मरण के साथ आप सोएं, सुबह आप और तरह से उठेंगे, जैसा कि आप रोज उठते रहे होंगे, उससे बिल्कुल भिन्न उठेंगे। क्योंकि एक मन का बहुत अद्भुत नियम है, हम जिस बात को लेकर सो जाते हैं, ठीक उसी बात पर सुबह जागना होता है। उससे भिन्न बात पर कोई कभी नहीं जागता, हर रात जिस चिंता को लेकर आप सो गए, उसी चिंता पर आप वापिस जाग गए हैं। रात में ही चिंता आपके मतिशक के द्वार पर खड़ी प्रतीक्षा करेगी, जब आप जागेंगे वह हाजिर हो जाएगी। रात्रि का अंतिम विचार सुबह का प्रथम विचार होता है। और आज रात्रि का अंतिम विचार यह हो कि मैं जो पीछे है उसे छोड़ता हूं, कम से कम तीन दिन के लिए, जो सतत वर्तमान है, उसमें जीऊंगा, अतीत को बीच में नहीं लाऊंगा। जो व्यक्ति अतीत को बीच में नहीं लाता चित्त के, उसका चित्त बहुत निर्मन और शांत हो जाता है। क्योंकि अशांति सब अतीत है आती है, तो वर्तमान में कोई अशांति नहीं होती। इस तत्व को समझकर और विचार करेंगे, तो समझ में आएगा कि मैं कुछ थोड़े से सुझाव आपको दे रहा हूं। वर्तमान में वह जो प्रज्वलित अंकित है, उसमें कोई अशांति नहीं होती, सब अशांति अतीत से संबंधित होती है या, या भविष्य से संबंधित होती है। वर्तमान में कभी कोई अशांत नहीं होता, आप खुद ही अपनी अशांति को देख रहे हैं, समझ रहे हैं, या तो वह बीती हुई होगी या आने वाली होगी। ठीक क्षण से मौजूद कोई अशांति नहीं होती, अभी हम यहां बैठे है, अगर हमारा चित्त इसी क्षण में मौजूद हो जाए, थोड़ी सी अशांति है। अगर हम इसी क्षण में जाग जाए, कौन सी अशांति है, अगर किसी जादू से आपका सिर अतीत पहुंच लिया जाए, तो कौन सी अशांति है।
जीवन क्षण में कोई अशांति नहीं हो सकती, पिछला भाग अतीत का भाग चित्त को अशांति देता है और आने वाले दिन कल्पना और योजना चित्त को अशांति देते हैं। इन तीन दिनों में तुम समझ लीजिए न तो कोई अतीत है और न कोई प्रतिष्ठा, तीन दिन बस, यह तीन दिन के क्षण है, जो सामने क्षण होता है, वही है। इन तीन दिनों में इस भांति जीकर देखिए, एक बिल्कुल नई दृष्टि जीवन के प्रति खुल जा सकती है। और एक बार यह ख्याल में आ जाए, कि जीवन पर जो भार है, जो टेंशन है, जो तनाव है वह अतीत और भविष्य का है। तो मनुष्य को एक बिल्कुल नया द्वार मिल जाता है, खटखटाने का और तब फिर वह रोज घड़ी दो घड़ी को सारे अतीत और सारे भविष्य से मुक्त हो सकता है। और ख्याल रखिए न तो अतीत की कोई सत्ता है, सिवाय स्मृति के और न भविष्य की कोई सत्ता है, सिवाय कल्पना के, जो है वह वर्तमान है। लेकिन किसी भी दिन परमात्मा को या सत्य को जानना होगा, तो वर्तमान के सिवाय और कोई द्वार नहीं है। अतीत है नहीं, जा चुका है; भविष्य है नहीं, अतीत आया नहीं; जो है एगसिसटैंअल, जिसकी सत्ता है, वह है वर्तमान। इसी क्षण में सामने मौजूद क्षण है वही, इस मौजूद क्षण में अगर मैं पूरी तरह मौजूद हो सकूं, तो शायद सत्ता में मेरा प्रवेश हो जाए, तो शायद जो सामने दरख्त खड़ा है, ऊपर तारे हैं, आकाश है, चारों तरफ लोग है, इन सबके प्राणों से मेरा संबंध हो जाए। उसी संबंध में मैं जानूंगा। उसको भी जो मिले भीतर है, और उसको भी जो मेरे बाहर है। इन तीनों दिनों में अगर मैं थोड़ा सा भी समझपूर्वक जीने की कोशिश की, तो क्षण-क्षण में जीने की कोशिश करेंगे, यह मेरा पहला निवेदन है।
जब भोजन कर रहे हो, तो सिर्फ भोजन करें- भोजन के पहले की बात भूल जाए और बाद में भोजन करें और सारा चित्त और सारे प्राण भोजन करने में ही तल्लीन हो जाए। वे यहां-वहां डूबते वे न हो, अभी तो यह होता है कि हम जब भोजन करते हैं, तब चित्त कहीं और होता हैः घर में होता है; दुकान में होता है; जब दुकान में होते हैं, तब वह भोजन करता होता है, जब बाजार में होते हैं, तब चित्त घर में होता है, जब चित्त में होते हैं, तब बाजार में... बाजार में होता है। मतलब यह कि जहां हम होते हैं, वहां हम नहीं होते, तो जीवन में एक विशंखलता और एक खंडित और यह खंडित स्थिति पूरी खतरनाक है कि जब हम सोते हैं, तब चित्त दिन में जो उसने किया है, उसका स्मरण करता है, सपने देखता है, जब वह दिन में काम करते हैं, तो रात जो सपने अधूरे हो गए तो चित्त उन सपनों को पूरा करता है। चित्त पूरे वक्त अनुपस्थित है, अबसरट है, जहां हम है। तो हमारा जीवन से संबंध कैसे होगा? जब हम किसी को प्रेम कर रहे हैं, तब चित्त हमारा कहीं और है, तो जीवन में प्रेम कैसे होगा और इसीलिए हम जीवन भर अनुभव करते हैं कि हम प्रेम चाहते हैं कि करें और हम चाहते हैं कि कोई हमें प्रेम दें, लेकिन न तो हम प्रेम कर पाते है और न कोई हमें प्रेम दे पाता है। प्रेम की जरूरी है कि वर्तमान में हो, यदि हम प्रेम करते है तब चित्त कहीं और होता है। और जहां चित्त प्रेम करते वक्त होता है, जब हम वहां हो, तो चित्त वहां होगा, जहां उसे प्रेम करते वक्त होना चाहिए था। ऐसे जीवन में सारी चीज टूट गई है, हम कहीं है, चित्त कहीं है, जब हम प्रार्थना करते हैं, तब चित्त कहीं और है, जब हम व्यवसाय करते हैं, तब चित्त कहीं और है। हम किसी काम में भी ठीक-ठीक मौजूद नहीं है। इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करेंगे, कि जो हम काम कर रहे हैं, उसमें पूरी तरह मौजूद हो जाए, अभी रात को यहां से जाकर सोए तो पूरी तरह सोए, पूरी तरह सोने का मतलब यह है कि सोते वक्त पूरी भांति सोए कि सारा काम समाप्त हुआ। अब सिवाय सोने के और कोई भी काम नहीं है। अब मैं अपने पूरे कामों से सोने जा रहा हूं और मेरे पूरे काम सिर्फ सोने भर से काम को करना और कोई भी काम नहीं। उसी भांति सोए, सुबह स्नान करें, जिस भांति स्नान करें कि स्नान करते वक्त आपका पूरा व्यक्तित्व स्नान कर रहा है, आपका चित्त कहीं और नहीं भागा जा रहा है। थोड़े ही दिन इस मग्नपूर्वक अगर हम चित्त के साथ सजगता बरते, तो बहुत कठिन नहीं है कि एक दिन वह घड़ी आ जाए कि हम जो काम कर रहे हो, उसमें हम पूरी तरह मौजूद हो जाए, बुहारी लगा रहे हो तो पूरी तरह मौजूद हो जाए और अगर बुहारी लगाते हुए भी कोई पूरी तरह मौजूद हो जाए तो उसे बुहारी लगाने में वही आनंद उपलब्ध होगा, जो किसी बड़े से बड़े जोगी को ध्यान करने में उपलब्ध हुआ है। कोई फर्क नहीं रह जाएगा, ध्यान का एक ही अर्थ है- कि हम जो कर रहे हैं, उसमें हमारा चित्त पूरी तरह मौजूद है, पूरी तरह लीन है, उससे बाहर नहीं है। कोई भी छोटा काम अभी यहां से उठकर आप कमरे की तरफ जाएंगे, तो चलेंगे रास्ते भर, तो इस भांति चलें कि चलने के सिवाय और कोई क्रिया आपके चित्त में नहीं हो रही। बस सिर्फ चल रहे हैं, चलना ही रह जाए और आप मिट जाए, अगर चलना ही रह जाए और आप मिट जाए तो आपके कमरे तक जो सौ कदम उठाए गए हैं, वह सौ कदम परमात्मा के निकट ले जाएंगे और उन सौ कदमों में ही आपको पता चलेगा कि चित्त तो अपूर्व रूप से शांत हो गया है। इधर हम तीन दिनों में सतत इस बात की फिक्र करेंगे, जो भी काम कर रहे हो, उसे इतनी पूर्णता से करें, इतने पूरे, टोटल, इतने समग्र रूप से उसमें डूब जाएं, तो उसके बाहर कुछ भी न रह जाए, आप वही हो जाएं।
एक दफा ऐसा हुआ कि बुद्ध ने एक बादशाह को अपने राज्य की एक मोहर बनाने दी। और मोहर पर उसके किसी सलाहकार ने कहा कि एक बोलता हुआ मुर्गा उस मोहर पर खोदा जाए। उसे बात जच गई, उसने सारे राज्य के चित्रकारों को खबर दी कि बोलते हुए मुर्गे का चित्र बनाए। राज्य में एक बूढ़ा चित्रकार था, उसे भी बुलाया, लेकिन उसने कहा कि मैं इतना बूढ़ा हो गया हूं कि अब मैं नहीं बना सकूंगा। तो राजा ने कहा कि तुम बनाते तो हो, चित्र तो बनाते हो, यह क्यों नहीं बना सकोगे कि कोई और बना सकें तो बेहतर। बहुत से चित्रकार मुर्गों के चित्र बनाकर लाए, नमूनें के लिए, लेकिन उस बूढ़े चित्रकार ने कहा कि सत्य जो है वह कुछ भी नहीं। आखिर राजा परेशान हो गया, उसने कहा तुम खुद बनाते नहीं दूसरों को बनाने देते नहीं। फिर हम क्या करें, उसने कहा कि मैं बनाऊं कि मेरा पक्का नहीं है, क्योंकि कम से कम तीन वर्ष लग जाएंगे। तो राजा ने कहा, तीन वर्ष! एक मुर्गे के चित्र बनाने के तो उसने चित्र बनाना तो दो क्षण में हो जाएगा, लेकिन मुर्गा बनने में तीन वर्ष लग जाएगा। तुम पागल हुए हो, मुर्गा तुमसे बनने को कह कौन रहा है। उसने कहा, जब तक मैं मुर्गे को भीतर से न जानूं कि वह कैसा है? और जब वह बांग देता है तो उसके प्राणों में क्या होता है? जब तक यह मैं न जान लूं, जब यह फुरणा मेरे प्राणों में न हो जाए, तब तक मैं कैसे मुर्गे को बोलता हुआ बना सकूंगा, तीन वर्ष तक, क्योंकि मैं बूढ़ा आदमी हूं, जिस बात में बिना सकता बीच में मर भी सकता हूं। तीन वर्ष राज्य की तरफ से मेरी व्यवस्था करनी पड़ेगी भोजन की। क्योंकि उस वक्त मैं कुछ भी नहीं करूंगा। राजा ने कहा कि ठीक हम व्यवस्था करेंगे, तीन वर्ष की व्यवस्था की गई। वह बूढ़ा कलाकार जंगलों में चला गया, जहां जंगली मुर्गे रहते थे। दो तीन महीने बाद राजा ने आदमी अपने देखने भेजे कि वह आदमी पागल तो नहीं है, क्योंकि मुर्गा बनाने के लिए तीन साल बहुत होते हैं। और एक निशनाक कलाकार है, जीवन भर उसकी प्रसिद्धि रही है, उसके हाथ में और कुछ जादू है। तुम जाकर देखो वह पागल क्या कर रहा है? वह मित्र देखने गए, देख कर हैरान हो गए! वह बूढ़ा तो मुर्गों के बीच छिपा हुआ बैठा है, आस-पास मुर्गे बांग दे रहे हैं। उन्होंने तो उसे देखा, लेकिन उस बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा।
और तीन महीने बाद गए देखा तो वह तो मुर्गों के साथ दौड़ रहा है चारों हाथ-पैर पर। वह बिल्कुल पागल मालूम होता है, यह क्या कर रहा है? तीन वर्ष पूरे हुए, राजा ने खबर भेजी, वह आदमी वापस दरबार में आया, राजा ने कहा चित्र बनाकर लाए हो, उसने जोर से जैसे मुर्गा आवाज देता है, वैसी आवाज की। राजा ने कहा, हम यह नहीं चाहते हैं, हमें चित्र चाहिए। तो मुर्गे की आवाज से क्या है, इससे क्या होता है। उस बूढ़े ने कहा, चित्र तो बना देना, अब एक क्षण भर का काम है। सामान बुला लें, मैं यही बना दूंगा। लेकिन तीन वर्ष... मैं मुर्गे के साथ एक होने की कोशिश किया, वह बात हो गई। उसने चित्र बनाया, जो कहा जाता है। मनुष्य जाति के पूरे इतिहास में किसी भी पशु या पक्षी का ऐसा चित्र कभी नहीं बनाया। वह चित्र अद्भुत है! उसने राजा से कहा कि अभी इस चित्र की परीक्षा कर लो, उसने कहा कि इसकी क्या परीक्षा है। हम कैसे जानें कि यह चित्र इतना अद्भुत बना हो। उसने कहा चित्र को रख दो, और असली मुर्गों को ले आओ। अगर असली मुर्गा देखकर भाग जाए, तो तुम समझ लेना कि चित्र बना है। असली मुगग् लाए, वे भी मुगग् भाग गए। मुर्गा बाहर से झांक कर देखें उस चित्र को और वापिस लौट गए। वह जो मुर्गा था, तो लगे कि वह पूरी बांग देकर खड़ा हुआ था। उस चित्रकार ने कहा, आदमी या मुर्गा भी पहचान लेगा कि मुर्गा है। यह जो उसने राजा ने पूछा कि कैसे यह तुमने बनाया। उसने कहा, तीन वर्ष तक मैं मुर्गे के साथ एक होने की कोशिश किया, मैं अपने को भूल गया और मुर्गा होता चला गया। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ऐसे क्षण आए, जब मुझे यह स्मरण भी नहीं रहा कि मैं हूं। एक ही बात की स्मरण रही, मुर्गा है। और उन्हीं क्षणों में मैंने मुर्गा की आत्मा को जाना।
जीवन में चौबीस घंटे जो हम कर रहे हैं, उसके साथ इतनी आत्मा विलीनता, इतना आत्मसात हो जाना जरूरी है कि हम मिट जाए और वही रह जाए जो हम कर रहे हैं। चाहे वह काम कितना ही छोटा क्यों न हो, बड़ा क्यों न हो, जो भी काम हो, उसमें हम डूब सकते हैं। यह डूबना ही इन तीन दिनों में छोटा सा प्रयोग करेंगे और मैं कहूं चौबीस घंटे जो भी आप कर रहे हैं, उसमें उसका ध्यान रखें। इन तीन दिनों में ही एक बुनियादी फर्क अनुभव होगा। एक बात ख्याल में आएगी।
आज रात सोने से ही शुरू कर दे, वह अभी दूर है, जब यहां से उठकर जाए, तभी शुरू कर दें। वह भी थोड़ा दूर है, अभी मुझे सुन रहे हैं, सुनने में ही शुरू कर दें। सुनते वक्त सिर्फ सुनने की क्रिया रह जाए, आप इसे सिर्फ सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मात्र सुन रहे हैं, कान ही कान रह गए है और आप नहीं है। जैसे आप सिर्फ कान ही है जो सुन रहे हैं। आंख ही है, जो सिर्फ देख रही हैं। अगर सुनने की क्रिया को भी इतनी शांति से और इतनी एकाग्रता से सुने तो कुछ और सुनाई पड़ेगा। तब शायद वही सुनाई पड़ जाए जो मैं आपसे कह रहा हूं। लेकिन अगले इतनी लीनता में ही सुनते वक्त, आप वह नहीं सुनेंगे, जो मैं कह रहा हूं। आप वही सुनेंगे, जो आप सुनना चाहते हैं, सुन सकते हैं, पहले से सुने ही है, पहले से सोचे हुए है। तब आप वही सुनेंगे, तब फिर वही सुन पाएंगे, जो मैं आपसे कह रहा हूं। तो इन्हीं से शुरू कर दें और इन तीन दिनों एक छोटे सूत्र पर काम करें कि जो भी काम कर रहे हैंः उठ रहे हैं; बैठ रहे हैं; सो रहे हैं; उसमें पूरी तरह लीन हो जाए। तो यह बचे जाओ, तुम जाओ। यह तो पहला सूत्र- हां तुम एकदम से ही चले जाओ।
दूसरी बातः अगर इस प्रत्येक कर्म में आत्मलीनता की बात पर थोड़ा ध्यान किया। तो चित्त बहुत गहरे शांति को अपने-आप उपलब्ध होता है, उसमें कोई बहुत विशेषता प्रयास नहीं करना पड़ता। दूसरी बात- चित्त इसलिए अशांत है, कि हम कुछ होना चाहते हैं, कुछ बनना चाहते हैं, कोई दौड़ है हमारे भीतर, कोई कंडीशनर, कोई महत्वाकांक्षा, कोई धनी होना चाहता है, कोई बड़े पद पर होना चाहता है, कोई बड़ा त्याग करना चाहता है, कोई बड़ा साधु होना चाहता है, कोई मोक्ष जानना चाहता है, कोई समाधि उपलब्ध करना चाहता है, कोई सत्य पाना चाहता है, लेकिन कोई तुम्हारी दौड़ है बड़ी गहरी। उस गहरी दौड़ की वजह से सारा चित्त अशांत और उगलता चलता जाता है। मैं यह निवेदन करूं, जिस व्यक्ति को सच में, सच में ही जीवन के साथ आत्मलीन होना हो, सच में ही जीवन के साथ एकात्मता आती हो, उसे एक बात ख्याल में रखनी चाहिए, उसे अपने न को छोड़ने को स्वीकार कर लेना चाहिए। उसे कुछ होने की दौड़ से नहीं, बल्कि नाकुछ होने के केंद्र को स्वीकार कर लेना चाहिए।
जो व्यक्ति भी अपने नोबोडी होने को स्वीकार कर लेता है, न कुछ होने को, उसके जीवन को अद्भुत बातें होनी शुरू हो जाती है और मैं जो-जो होना चाहता था, वह मनाया उसमें होना शुरू हो जाता है। दो बातें है, एक तो जैसे एक आदमी पानी में तैरता है, हाथ-पैर फेंकता है और एक दूसरा आदमी है जो पानी में बहता है, हाथ-पैर फेंकता नहीं। पानी की धारा से अपने को छोड़ देता है और बाहर जाता है, इन तीन दिनों में तैरने की कोशिश न करें, बहने की कोशिश करें। कोई ऐसी बहुत सचेत चेष्टा न करें कि यह करना है, वह करना है, यह होना है, वह होना है, बल्कि ऐसे जैसे तीन दिन आएंगे और गुजर जाएंगे और हमें चुपचाप बहे जाना है। यह अद्भुत बात है कि जो व्यक्ति बहने के अर्थ को समझ लेता है, उसके चित्त से साथ तनाव भी दूर हो जाता है, जो करने की कोशिश करता है, तैरने की, उसका चित्त बहुत तनाव से बहुत अशांति से भर जाता है। और जो आसानी से भर जाता है, वह कभी सत्य को अनुभव नहीं कर सकता और न जीवन के आनंद को उपलब्ध हो सकता है। जीवन के आनंद की अनुभूति तो अत्यंत सरल चित्त में हो सकती है और सरल चित्त का पहला लक्षण हैः बहता हुआ चित्त, तैरता हुआ नहीं। इन तीन दिनों के लिए कह रहा हूं फिलहाल अभी तो, सिर्फ तीन दिनों में कुछ अनुभव हो तो, वह तो अपने हाथ में है। क्योंकि जीवन की अपने आप पूरे जीवन की रूह ही बन जाती है। अभी तो तीन दिन की ही कुल बात है, इसलिए बहुत चिंता में न पड़े कि वह हम बहने लगे तो फिर जिंदगी का क्या होगा और अगर हमने कुछ भी होने की फिक्र छोड़ दी तो फिर जिंदगी का क्या होगा। इस चिंता में न पड़ें, केवल तीन दिन की ही बात कर रहा हूं, इसके आगे कोई बात नहीं कर रहा हूं। तीन दिन कुछ प्रयोग करके देखें, उसमें से कुछ अगर सार्थक होगा, वह अपने आप बच जाएगा, आपको बचाने के लिए मैं नहीं कहूंगा उससे। अगर कुछ होगा, तो वह अपने आप आपको पकड़ लेगा। आप उसे पकड़े यह मैं निवेदन नहीं करूंगा। अभी तो तीन के इस छोटी सी तीन दिन की घड़ियों पर एक-आधी बात कर रहा हूं। तो तीन दिन थोड़े बहने की कोशिश करें, यह जो आमतौर से धर्म में न उत्सुक होते, वह बहुत ज्यादा सीरियसनेस पकड़ लेते, बहुत गंभीर, वह समझते हैं कि हम बहुत भारी गंभीर काम करने जा रहे हैं। नहीं, धर्म के सत्य को जानने में केवल वे ही लोग सफल हो सकते हैं, जो बच्चों जैसी गैर-गंभीर हो, नानसीरियस हो, जैसे बच्चे। गंभीर चित्त तनाव से भर जाता है, मैं आपसे निवेदन करूंगा, यहां गंभीरता को धारण नहीं कर लेंगे, ज्यादा उचित होगा, प्रसन्न होंगे। गंभीर और उदास होकर नहीं बैठ जाएंगे, जो कोई भी है, परमात्मा के साथ गंभीरता और उदासी को जोड़ लेती है, उसको हमको परमात्मा तो नहीं मिलता, उसको उनके जीवन का सारा आनंद भी नष्ट हो जाता है। तो प्रसन्न रहेंगे, हंसेंगे, ऐसे ही समझेंगे जैसे घूमने चले आ रहे हैं, यहां कोई बहुत बड़ी साधना, कोई बहुत बड़ी परमात्मा की खोज, कोई बड़ा योग साधने आए हैं, तो बहुत गंभीर होकर, नहीं उस तरह से चीजें नहीं पकड़ लेंगे। उस तरह से चित्त शूद्र होता है, उदास होता है, उस तरह के चित्त की जो भी सरलता है, वह सब नष्ट हो जाती है। साधु हो, संन्यासी सरल नहीं रह जाते, जिंदगी को इतनी गंभीरता से पकड़ते हैं, ठीक-ठीक व्यक्ति वही सरल हो सकता है, जो जिंदगी को एक खेल की भांति पकड़ता हो, एक गंभीर घटना की बात नहीं है, एक नाटक की बात थी, एक खेल की बात थी।
तीन फकीर हुए है चीन में, अद्भुत फकीर थे, उनके बाबत, उन तीनों का कोई नाम पता नहीं है। उनका जो पता है अभी नहीं, तीन लाफिंग झेन ऋषि उनको कहा जाता था, तीन हंसते हुए फकीर, वे जिस गांव में जाते, उनके पहले ही उस गांव में खबर पहुंच जाती कि वे तीनों पागल आ रहे हैं। उधर तो भाष्ण करते थे, क्योंकि भाष्ण कैसे भी हो, कुछ न कुछ गंभीर कर लिए ही आता है। न वे कुछ समझाते थे, वे चौराहों पर खड़े होकर हंसना शुरू कर देते थे। एक हंसता था और दूसरा हंसता था और तीसरा और फिर वे तीनों हंसते थे और भीड़ संघामक हो जाती, आस-पास लोग सुनते और वे भी हंसते और सारा गांव हंसने लगता, जिस गांव में वे दो-चार दिन टिक जाते, वह सारा गांव हंसने लगता। जिस गांव से वे गुजर जाते, वह गांव कहता कि बरसों का भार, वे तीन आदमी, तीन दिन रुक गए गांव में आकर बरसों का भार चला गया। तो मैं भी कहूंगा कि इस, इस सीधे उपघम, गंभीर उपघम नहीं समझ लेना आप। गंभीरता रुग्ण चित्त का लक्षण हैः सरलता से हंसते हुए और एक नाटक की भांति जीवन को लेने में जो समर्थ हो जाता है, उसे जीवन के बहुत से रहय खुल जाते हैं। तो यह निवेदन करूंगा कि तीन दिन ऐसी सरलता से जीएंगे जैसे हम यहां प्रकृति के सौंदर्य को देखने इकट्ठे हुए हो, कुछ मित्र इकट्ठे हुए हो, कुछ गपशप करेंगे, कुछ हंसेंगे, मौत से तीन दिन बहे, इस भांति को अपने कोढीला छोड़ देंगे। आघामक, एग्रैसिव माइंड नहीं होना चाहिए और यह साधक जितने होते हैं तथाकथित, वह सब एग्रैसिव होते हैं आघामक होते हैं, एकदम से आघमण करते हैं चीजों को पाने के लिए, जबकि सच्चाई यह है कि सत्य जैसी चीज आघमण करके नहीं पाई जा सकती।
एक महिला मेरे पास आती थी, वह संकृति की बहुत बड़ी पंडित है, उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे ईश्वर को पाना है। मैंने कहा कि कुछ ध्यान करें, तो शायद कुछ इस दिशा में गति होगी। उन्होंने एक दिन ध्यान किया, लौटते में मुझसे बोली, लेकिन अभी मुझे कुछ अनुभव नहीं हुआ। मैंने कहा, कल और ईश्वर को एकाध मौका और दे दें। आप तो जल्दी में है, ईश्वर तो बड़ा सुत है, उसे जल्दी में मालूम नहीं होता, सालों साल ऐसे ही गुजरते चले जाते हैं, उधर को जल्दी नहीं है, लाखों साल, करोड़ों साल ऐसे गुजर गए है जैसे कोई वहां जल्दी नहीं मालूम होती, तो आप तो जल्दी में है, जल्दी में एक मौका और दें। कल और... कल आएं, बड़ी गंभीर थी, भारी गंभीर थी, गीता उन्हें कंठथ थी, बातें करती तो वह उपनिषद आते, गीता आती, वेद आते, बहुत गंभीर थी। फिर आई, फिर लौटकर उनसे बोली कि क्षमा करिए, अभी तक मुझे कोई ईश्वर का अनुभव नहीं हो पा रहा है। मैंने उनको कहा, होगा भी नहीं कभी।
एक बूढ़ा संन्यासी, अपने एक युवा संन्यासी के साथ नाव से उतरा। नाव से उतरकर उसने उस मांझी से पूछा, नाव वाले से पूछा कि जो पास का गांव है, क्या मैं सूरज डूबने के पहले वहां पहुंच जाऊंगा। सूरज डूबने को था और उस गांव का नियम था, सूरज डूबते ही उस गांव के दरवाजे बंद हो जाते थे किले के, फिर कोई प्रवेश नहीं कर सकता था। फिर रात भर मुझे बाहर रुकना पड़ेगा, क्या मैं पहुंच जाऊंगा सूरज डूबने के पहले। उस मांझी ने कहा कि जरूर पहुंच जाएंगे, लेकिन एक बात ख्याल रखना, अगर धीरे-धीरे गए तो पहुंच जाएंगे और अगर जल्दी गए तो मुश्किल है। उस आदमी ने संन्यासी ने कहा, यह पागल मालूम होता है, क्योंकि जल्दी जाना तो पहुंचूंगा, समझ की बात होती है। वह कहता है, धीरे समझ की बातों में मत पड़ो, उसने युवा साथी को कहा कि भागो! सूरज डूब न जाए और रात रुक गए तो रात जंगल में, जंगल जानवर और बाहर दीवाल पर पड़े रहना पड़ेगा। वे दोनों भागे, लेकिन थोड़ी ही दूर जाकर, सूरज नीचे उतरने लगा। अंधेरा जंगल में घिरने लगा, वह और तेजी से भागें और वह बूढ़ा संन्यासी पत्थर से चोट खाकर गिर पड़ा। उसके पैर लहूलुहान हो गए, पीछे से वह मांझी भी अपनी नाव बांधकर अपनी परवान वगैरह लेकर लाता था। उसने कहा कि देखते हो, मैंने कहा था, धीरे गए तो पहुंच जाओगे। जल्दी जल्दबाज में कभी पहुंचते हैं, और तब उस संन्यासी को दिखाई पड़ा, ठीक कहा था, वह आदमी पागल नहीं है। बड़े अनुभव से उसने यह बात कही, मैं भी आपसे कहता हूं, परमात्मा के द्वार केवल उसी के लिए खुलते हैं, जो इतने धीरे जाता है, इतने धीरे कि उसके धीरज का कोई अंत नहीं होता। और जो जल्दी करता है, उसके लिए तो द्वार बंद हो जाते हैं। द्वार इसीलिए बंद हो जाते हैं, कि जल्दी जाने वाला मन अशांत मन है, धीरे से और अनंत धैर्य से जाने वाला मन शांत मन है। द्वार इसलिए बंद नहीं हो जाते कि परमात्मा बंद कर देता है उनको। हम बंद कर लेते हैं, वह जो अधैर्य है वह अशांत है, वह जो गंभीरता है, वह अशांत है। वह जिंदगी पर जो आघमण है, वह अशांति है। कोई आघमण नहीं, अग्रैसिव नहीं, रिसैपटिव, आघामक नहीं, ग्रहणशील। जैसे सुबह हम अपना दरवाजा खोलते हैं, हम सूरज का हमला नहीं करते और रसी बांधकर उसको घर में नहीं लाते, सिर्फ द्वार खोलकर बैठ जाते हैं। फिर सूरज डूबता है, उसकी रोशनी घर में पड़ जाती है, ऐसे ही अपने चित्त के द्वार को खुला छोड़ दें, और फिर प्रतीक्षा करें। सूरज उठेगा और घर रोशनी से भर जाएगा। आघमण किया जा सकता है, केवल मन के द्वार खोले जा सकते हैं। ग्रहणशील हुआ जा सकता है और ग्रहणशील होने के लिए तीन बातें आज की रात मैं आपसे कहता हूं।
पहली बात- प्रति क्षण में जीने की कोशिश करें सहजता से। दूसरी बात- अति गंभीरता से जीवन को न लें, बड़ी सरलता से लेते थे और लेते हो, वैसा ही चित्त को लें। और तीसरी बात- कोई अधैर्य, कोई जल्दी न करें। जितनी जल्दी करेंगे, उतनी देर हो जाती है। और जब जितनी देर से खड़ा वह होता है, उतनी ही जल्दी हो जाता है। एक और कहानी से मैं चर्चा को पूरा करूं, फिर तीन दिन की बात करेंगे। उस कहानी को अपने साथ ही लेकर सो जाएं। बिल्कुल छोटी कहानी है, लेकिन सत्य उसमें बहुत है।
एक संन्यासी वर्षों से, जन्मों से प्रार्थना पूजा में लगा था, ऊब गया और घबरा गया और बेचैन हो गया। क्योंकि पूरे वक्त जब वह प्रार्थना कर रहा था, तब दृष्टि तो प्राप्ति पर लगी हुई थी और जिस दिन उनकी प्रार्थना असफल हो गई, उसी दिन दुख और मनोचिंता व्याप्त होती चली गई। एक दिन उसने देखा कि नाव वहां से निकलते वक्त, बूढ़े संन्यासी ने कहा कि सुनते हैं, मैंने सुना है कि निरंतर भगवान की तरफ आप जाते हैं, कभी उनसे पूछें कि मेरी मुक्ति को और कितनी देर, मेरे पीछे जिन्होंने शुरू किया था, वे आगे निकल गए और मैं वहीं की वहीं पड़ा हुआ हूं, यह कैसा अन्याय है। और जन्म-जन्म हो गए उनकी प्रार्थना करते अब तक फल नहीं मिला। आखिर कब मुझ पर कृपा होगी, नाविक ने कहा, जरूर पूछ लूंगा। बगल में ही उसी दिन उसी दरख्त के पीछे, बरगद का बड़ा दरख्त था। एक युवक फकीर अपना एकतारा लेकर नाचता था। नाविक ने मजाक में उससे पूछा कि मित्र तुम्हें भी तो काफी देर हो गई, तुम भी तो सुबह से साधे हुए हो, अब सांझ होने को आ गई। तुम्हें भी पूछना है परमात्मा से, तुम्हारे लिए भी पूछ दूंगा। वह खूब हंसने लगा, और उसने कहा, कृपा करें, मेरा नाम वहां मत उठाना। इस योग्य मेरा नाम नहीं है, और कृपा करना, कुछ पूछना मत। क्योंकि जो पूछता है, वह सौदा करता है। और यह कहता है, कब तक मिलेगा? उसे करने में कोई आनंद नहीं है, मिलने में आनंद है। मैं तो जो गीत गा रहा हूं, मुझे सब मिला जा रहा है और मैं जो नाच रहा हूं, मैंने उसमें पा लिया। तुम कुछ पूछते वक्त मेरा नाम मत उठाना, मेरी बात मत उठाना। लेकिन नाविक कुछ दिनों बाद लौटें, और उन्होंने उस बूढ़े फकीर को कहा, कि मैंने पूछा था, उन्होंने कहा, तीन जन्म और लग जाएंगे। उस फकीर ने अपनी माला नीचे पटक दी और भगवान की जो मूर्ति रखी थी, लात मारी उसे, और कहा, हद हो गई अन्याय की, इसीलिए तो नास्तिक ठीक कहते हैं कि ऐसा भगवान में कुछ शक की ही बात है। मैं नहीं मानता था पहले सब बातें, बहुत हद हो गई। इतने दिन हो गए, अभी तीन जन्म और लगेंगे और नाविक ने उस फकीर से कहा, जो नाच रहा था, उसी दरख्त के पीछे कि मित्र! अब तुमको बताने से मुझे और भी डर लगता है क्योंकि जिसने तीन जन्म की बात ही सुनकर लात मार दी और माला फेंक दी। तुम पता नहीं क्या करोगे? नाविक तुम्हारी पूछ ही लिया था, लेकिन कि तुमने मना किया था। लेकिन उत्सुकतावश मैं नहीं रुक सका, मैंने पूछा तो परमात्मा ने कहा, वह युवक जिस वृक्ष के नीचे नाचता है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म लग जाएंगे। वह युवक और तेजी से नाचने लगा, उसके एकतारे पर और भी गीत मधुर हो उठा और उसकी आंखें ज्योति की चमक उठे और उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरा धन्यवाद। जमीन पर कितने वृक्ष है और उन वृक्षों पर कितने पत्ते हैं, तेरी कृपा अनंत है कि एक ही वृक्ष के पत्तों के बराबर जन्मों में मेरी मुक्ति हो जाएगी। मैं कहां इस योग्य लेकिन जरूर तेरी कृपा होगी बड़ी, इसलिए तुझने मुझपर जो कभी भी पात्र नहीं था, योग्य नहीं था तूने इतनी दया की और कथा यह है कि वह यह कहते ही उसी क्षण मुक्त हो गया, हो ही जाएगा। ऐसा चित्त जो इतनी सरलता से, इतनी कृतज्ञता से, इतनी धन्यता से, इतनी अपनी अपात्रता से और परमात्मा की इतनी अनुकंपा के बोध से भरा हो और जिसमें इतनी धैर्यता हो कि वह कह सके कि जमीन पर कितने वृक्ष और कितने पत्ते और इस छोटे से वृक्ष में पत्ते ही कितने है, इतने ही जन्मों में मुक्त हो जाऊंगा। यह तो मैंने गलती हो गई न, यह तो बड़ी शीघ्रता हो गई।
जिसकी इतनी पेशेंस है, इतना धैर्य है, वह तो उसी क्षण, उसी क्षण मुक्त हो जाएगा। क्योंकि ऐसे चित्त को रोकने का कोई भी कारण नहीं रह गया, ऐसे चित्त के द्वार बंद होने की कोई वजह नहीं रह गई। यह तो उनका अंत नहीं है, अधैर्य से नहीं कुछ होता है इस दिशा में। अनंत धैर्य और प्रतीक्षा में और उनकी वह न नहीं हो सकती जो जीवन को बड़ी सरलता से खेल की तरह लेकर, गंभीरता से नहीं हंसते हुए ले, मौन, शांति, प्रेम और धैर्य में जो जीवन को व्यंग्य में, जीवन के प्रति अपन सब, हृदय से, अनायास से खोल देता है। यह तीन छोटी-सी बातें कही, इन तीन पर थोड़ा ख्याल करेंगे, विचार करेंगे और फिर आने वाले तीन दिनों में इस भूमिका को लेकर मन की भूमिका को लेकर सुनेंगे, तो शायद कोई बात आपके काम की हो सकें और शायद कोई बात आपके मार्ग पर प्रकाश बन सकें। लेकिन निर्भर करता है आप पर, मुझ पर नहीं, तो आपकी चित्त की भूमिका और दया की, उसकी दृष्टि और उसकी विराटता और उसकी सरलता पर, सब कुछ निर्भर करता है। तो पहले दिन तो परमात्मा से यही प्रार्थना करूंगा कि वह आपके चित्त को ऐसी भूमिका दें, क्योंकि बीज कुछ भयंकर सत्य है, ऐसा भूमि तैयार न हो, और अगर भूमि तैयार हो, तो बीज अंकुरित हो सकता है। और उनमें कुछ आ सकता है, उनमें कुछ पैदा हो सकता है, कोई फूल लग सकते हैं। यह प्रार्थना करूंगा इस पहले दिन की पहली सभा में।
परमात्मा आपके हृदय को ऐसी सरलता, शांति और मौन दें कि वह भूमि बन सके और उसमें कोई भी बीज जाए, तो अंकुरित हो सकें और फलित भी हो सकें। मेरी इन बातों को इतने थके हुए, इतनी यात्रा के बाद, इतने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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