दूसरा प्रवचन-(भारत का भविष्य)
मेरे प्रिय आत्मन्!एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। बहुत पुराने दिनों की घटना है, एक छोटे से गांव में एक बहुत संतुष्ट गरीब आदमी रहता था। वह संतुष्ट था इसलिए सुखी भी था। उसे पता भी नहीं था कि मैं गरीब हूं। गरीबी केवल उन्हें ही पता चलती है जो असंतुष्ट हो जाते हैं। संतुष्ट होने से बड़ी कोई संपदा नहीं है, कोई समृद्धि नहीं है। वह आदमी बहुत संतुष्ट था इसलिए बहुत सुखी था, बहुत समृद्ध था। लेकिन एक रात अचानक दरिद्र हो गया। न तो उसका घर जला, न उसकी फसल खराब हुई, न उसका दिवाला निकला। लेकिन एक रात अचानक बिना कारण वह गरीब हो गया था। आप पूछेंगे, कैसे गरीब हो गया? उस रात एक संन्यासी उसके घर मेहमान हुआ और उस संन्यासी ने हीरों की खदानों की बात की और उसने कहा, पागल तू कब तक खेतीबाड़ी करता रहेगा? पृथ्वी पर हीरों की खदानें भरी पड़ी हैं। अपनी ताकत हीरों की खोज में लगा, तो जमीन पर सबसे बड़ा समृद्ध तू हो सकता है।
समृद्ध होने के सपनों ने उसकी रात खराब कर दी। वह आज तक ठीक से सोया था। आज रात ठीक से नहीं सो पाया। रात भर जागता रहा और सुबह उसने पाया कि वह एकदम दरिद्र हो गया है, क्योंकि असंतुष्ट हो गया था। उसने अपनी जमीन बेच दी, अपना मकान बेच दिया, सारे पैसों को इकट्ठा करके वह हीरों की खदान की खोज में निकल पड़ा।
सुनते हैं बारह वर्षों तक जमीन के कोने-कोने पर उसने खोजबीन की, उसकी संपत्ति समाप्त हो गई। अक्सर यह होता है। परायी संपत्ति की खोज में लोग अपनी संपत्ति को गंवा बैठते हैं। उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। वह दर-दर का भिखारी हो गया। वह सड़कों पर भीख मांगने लगा। और सुनते हैं एक बड़े नगर में एक दिन भूख के कारण ही उसकी मृत्यु हो गई, वह मर गया।
बारह वर्ष बाद वह संन्यासी उस गांव में फिर से आया, जिसने उस समृद्ध आदमी को दरिद्र कर दिया था। उसके घर के पास पहुंचा और उसने जाकर पूछा कि यहां अली हफीज नाम का एक आदमी रहता था, वह यहां रहता है? लोगों ने कहा, वह तो बारह वर्ष हुए, जिस रात आपने यह घर छोड़ा उसी दिन सुबह दूसरे दिन उसने भी घर छोड़ दिया। वह हीरों की खोज में चला गया। और अभी-अभी खबर आई है कि वह भिखमंगा हो गया था और भूखा एक महानगरी की सड़कों पर मर गया। यह जमीन और मकान हमने खरीद लिया था। हम इसके निवासी हो गए हैं।
उस संन्यासी ने पीने को पानी मांगा और थोड़ी देर वह उस झोपड़े में रुका। उसने देखा कि उस झोपड़े के आले में एक बहुत चमकदार पत्थर रखा हुआ है। उसने उस किसान को पूछा, यह क्या है? उसने कहा, यह मेरे खेत पर, जो हमने अली हफीज से खरीदा था, वहां पड़ा मिल गया है। उसने कहा, पागल, यह तो हीरा है! क्या उसी जमीन पर मिल गया है, जिस जमीन को अली हफीज बेच कर चला गया? उसने कहा, हां, उसी जमीन पर। लेकिन यह हीरा नहीं है, केवल चमकदार पत्थर है और हम बच्चों के खेलने के लिए उठा लाए हैं।
उस संन्यासी ने उस पत्थर को उठाया। उसकी आंखें चमक उठीं। वह हीरों को पहचानता था। उसने उसको कहा कि चल तेरे खेत पर! वे खेत पर गए। वहां एक छोटा सा नाला बहता था, जिस पर सफेद रेत थी। उस रेत में उन्होंने खोजबीन शुरू की और सांझ होते-होते उन्होंने कई हीरे उनके हाथ लग गए।
वह अली हफीज की जमीन थी जो दूसरों की जमीनों पर हीरे खोजने चला गया था। शायद आपने यह कथा न सुनी हो, वही जमीन अली हफीज की गोलकुंडा बन गई, उसी जमीन पर कोहिनूर हीरा मिला। और अली हफीज, जो उस जमीन का मालिक था, एक बड़ी नगरी में भिखमंगा होकर भूखा मर गया। वह हीरे की खोज में चला गया था। लेकिन उसे कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि जो मेरी जमीन है वहीं हीरों की खदानें भी हो सकती हैं, वहीं से कोहिनूर भी निकल सकते हैं।
भारत के भविष्य में भी यह कहानी दोहरेगी। या तो भारत अपनी जमीन पर हीरे खोज लेगा या दूसरों की जमीनों पर भिखमंगा होकर मर जाएगा। यह तो मैं पहली बात कह देना चाहता हूं। और मैं आपको यह भी कह दूं--भारत ने भिखमंगे होने की दौड़ शुरू कर दी है। भारत भिखारी की तरह दुनिया के सामने खड़ा हो गया है। हम भीख मांग रहे हैं और जो कौम भीख मांगने लगती है, उस कौम का भीख मांगने की बजाय मर जाना बेहतर है। उसके जीने की कोई जरूरत नहीं है। यह उचित होगा कि हम मर जाएं भूखे और दरिद्र, लेकिन अपने घर में, बजाय इसके कि हम समृद्ध मकान बना लें, दूसरों से उधार मांग लें, दूसरों से भीख मांग लें और हम जीते रहें। ऐसा जीना, ऐसा जीना अत्यंत बेशर्म जीना है।
यह मुल्क बेशर्मी के लिए रोज-रोज तैयार होता जा रहा है। और जिस कौम की शर्म मर जाती है और जिसे भीख मांगने की तरकीबें और आर्ट पता हो जाता है उस कौम का कोई भविष्य नहीं है, यह स्मरण रखना चाहिए। उसका भविष्य है ही नहीं। उसका कोई भविष्य नहीं है। उसके भविष्य में कोई सूरज नहीं उगेगा; और उसकी बगिया में कभी कोई फूल नहीं खिलेंगे; और उसके भीतर जो भी आत्मा है वह धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएगी और हम मुर्दा लोगों की तरह, मुर्दा कौम की तरह जमीन पर एक बोझ बन कर रह जाएंगे। हमने यह शुरुआत कर दी है। यह दुर्भाग्य की कथा प्रारंभ हो गई है।
पहली बात तो मुझे यह कहनी है और वह यह कि सएमान से मर जाना भी बेहतर है अपमानपूर्ण जीने से। देश के कोने-कोने में एक-एक आदमी को यह बात कह देने की जरूरत है कि भारत जीएगा तो सएमान से, अन्यथा मर जाएगा। हम मर जाना पसंद करेंगे। लेकिन पीछे लोग कम से कम यह तो कह सकेंगे--एक कौम थी जिसने भीख नहीं मांगी, लेकिन मर गई। लेकिन इतिहास में कहीं ये काली बातें न लिखी जाएं कि एक कौम थी जो भीख मांग कर जीना सीख गई और जीती रही।
भारत का भविष्य उसके भिखमंगेपन के साथ जुड़ा हुआ है। हम क्या करेंगे, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। कोई हर्ज नहीं कि बिहार के लोग भूखे मर जाएं; कोई हर्ज नहीं कि पचास करोड़ लोगों में दस-पांच करोड़ लोग न जीवित रहें और कब्रिस्तान में चले जाएं, कोई हर्ज नहीं है। लेकिन घुटने टेक कर सारी दुनिया से भीख मांगना अत्यंत आत्मग्लानिपूर्ण, आत्मघाती है। और हम अपनी आत्मा को बेच रहे हैं। और फिर जब देश का चरित्र नीचे गिरता है और जब देश के प्राण नीचे उतरते हैं तो हम चिल्लाते हैं कि चरित्र नीचे गिर रहा है, लोग नीचे होते जा रहे हैं। लेकिन जब पूरी कौम भीख मांगने पर उतारू हो जाएगी तो मनुष्यों का, व्यक्तियों का चरित्र ऊपर नहीं उठ सकता है। पूरे मुल्क का जब कोई गौरव नहीं होगा, कोई सएमान नहीं होगा, कोई आत्मनिष्ठा नहीं होगी, तो एक-एक व्यक्ति की भी आत्मनिष्ठा नीचे गिर जाएगी।
और हमें पता है, हमारे मुल्क में बहुत लोग हैं जो भीख मांगते रहे हैं। लेकिन कभी उन भिखमंगों ने भी यह न सोचा होगा कि विकास इतना हो जाएगा कि धीरे-धीरे पूरा मुल्क ही भीख मांगने लगेगा। उनको भी इसका कोई पता नहीं होगा। लेकिन हम इस अवस्था में खड़े हो गए हैं। और एक बड़ा मजा है, यह शायद आपको पता नहीं होगा, जिस आदमी को आप भीख देते हैं वह आदमी कभी भी आपको क्षमा नहीं करता। इसे मैं फिर से दोहरा दूं, जिस आदमी को आप भीख देते हैं वह कभी आपको क्षमा नहीं कर सकेगा। ऊपर से धन्यवाद देगा, लेकिन उसके प्राणों में आपके प्रति अभिशाप ही होगा, निंदा होगी, घृणा होगी, ईर्ष्या होगी, अपमान का भाव होगा। क्योंकि भीख लेने वाला कभी भी यह अनुभव नहीं करता है कि मैं अपमानित नहीं किया गया हूं। भीख लेने वाला हमेशा अपमानित अनुभव करता है और उसका बदला लेता है।
भारत सारी दुनिया के सामने हाथ जोड़ कर भीख मांग रहा है और इसका बदला भी ले रहा है सारी दुनिया से। एक तरफ भीख मांगता है, दूसरी तरफ कहता है--हम जगतगुरु हैं। एक तरफ भीख मांगता है, दूसरी तरफ गाली देता है पश्चिम को, भौतिकवादी और मैटीरियलिस्ट कहता है उनको। एक तरफ भीख मांगता है, दूसरी तरफ अपने गौरव को बचाने के झूठे प्रयास करता है। भिखमंगों की यह पुरानी आदत है। भिखमंगे अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि हमारे बाप-दादे सम्राट थे। जिनके पास कुछ भी नहीं बचता है वे फिर मां-बाप की पुरानी कथाओं को खोद-खोद कर निकाल लेते हैं और उनका गुणगान करते हैं। समझ लेना भलीभांति, जिस आदमी का वर्तमान नहीं होता वही केवल अतीत की बातें करता है। और जिसका कोई भविष्य नहीं होता वह केवल अतीत की पूजा और गुणगान में ही समय व्यतीत करने लगता है।
हम निरंतर अतीत का ही गुणगान करते हैं, जो बीत गया उसी का! क्या हमारा कोई भविष्य नहीं है? या कि हमारा कोई वर्तमान नहीं है? क्या हम जी चुके और समाप्त हो गए? हमारा बीता हुआ पास्ट, बस वही सब कुछ है? आगे हमारा कुछ भी नहीं है?
शायद आपको ख्याल में न हो। छोटा बच्चा पैदा होता है तो उसका कोई अतीत नहीं होता, कोई पास्ट नहीं होता; उसका भविष्य होता है, सिर्फ फ्यूचर होता है। जवान! जवान के पास अतीत भी होता है, वर्तमान भी होता है, भविष्य भी होता है। लेकिन बूढ़े के पास सिवाय अतीत के कुछ भी नहीं होता; भविष्य नहीं होता, वर्तमान भी नहीं होता।
यह कौम बूढ़ी हो गई है क्या? इसके पास सब बीती हुई कथाएं हैं, गौरव-गाथाएं हैं। इसके पास अपना कोई वर्तमान नहीं; भविष्य की कोई योजना, आकांक्षा और कल्पना नहीं, कोई आशा नहीं। भविष्य की अगर कोई स्पष्ट प्राणों में ऊर्जा और कल्पना और आकांक्षा न हो, भविष्य का कोई स्पष्ट स्वप्न न हो, तो देश बिखर जाते हैं, कौमें बिखर जाती हैं, डिसइंटीग्रेटेड हो जाती हैं। हमारे पास भविष्य की कोई योजना नहीं, भविष्य की कोई कल्पना नहीं, कोई सपना नहीं; भविष्य की कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं। और इधर बीस वर्षों में हमने और भी सब अस्पष्ट कर दिया है। हम दुनिया में तटस्थ कौम की तरह खड़े हो गए हैं। हम कहते हैं, हम न्यूट्रलिस्ट हैं, हम तटस्थ खड़े होने वाले लोग हैं।
लेकिन आपको पता है, जीवन में तटस्थता का कोई भी अर्थ नहीं होता। जीवन है कमिटमेंट में, प्रतिबद्धता में। जीवन है सिएमलित होने में, किनारे पर खड़े होने में नहीं। और जो किनारे पर खड़ा हो जाएगा और जो कहेगा हम तटस्थ हैं जीवन की धारा में, जो जगत की धारा है उसमें हम तटस्थ और किनारे पर खड़े हैं, वह किनारे पर ही खड़ा रह जाएगा। जीवन की धारा उसे छोड़ कर आगे बढ़ जाएगी।
मेरी दृष्टि में, अगर भारत तटस्थता की बातें आगे भी कहे चला जाता है तो भारत का कोई भविष्य नहीं हो सकता। भारत के भविष्य के निर्माण में भारत को पक्षबद्ध होना ही चाहिए। उसके निश्चित, स्पष्ट मत होने चाहिए। जीवन की धारा में उसकी प्रतिबद्धता, उसका कमिटमेंट होना चाहिए। उसके सामने स्पष्ट होना चाहिए कि वह समाजवाद लाना चाहता है या लोकतंत्र। उसके सामने स्पष्ट होना चाहिए कि वह एक वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि विकसित करना चाहता है या नहीं। उसके सामने स्पष्ट होना चाहिए कि धर्म की क्या कल्पना और क्या रूपरेखा है भविष्य में।
लेकिन धर्म को ध्यान में रख कर भारत निरपेक्ष है और राजनीति को ध्यान में रख कर भारत तटस्थ है। तो समझ लेना कि जीवन को ध्यान में रख कर भारत को अगर मृत होना पड़े, मर जाना पड़े, तो जिएमा किसी और पर मत देना। जो मुर्दे हैं वे ही केवल निरपेक्ष और तटस्थ हो सकते हैं। जीवित व्यक्ति को निरपेक्ष होने की सुविधा नहीं है। उसे निर्णय लेने होते हैं, उसे जजमेंट लेने होते हैं, उसे च्वाइस करनी होती है। उसे मत में बद्ध होना होता है। उसे किसी चीज को ठीक और किसी चीज को गलत कहना होता है।
जो लोग चीजों के गलत और ठीक होने का निर्णय लेना छोड़ देते हैं, धीरे-धीरे जीवन का रास्ता उनके लिए नहीं रह जाता। उनके ऊपर केवल दूसरी कौमों के पैरों की उड़ी हुई धूल ही पड़ती है, और कुछ भी नहीं। उनके पैर धीरे-धीरे निकएमे हो जाते हैं, काहिल हो जाते हैं, सुस्त हो जाते हैं। तटस्थता के भ्रम ने भारत को बहुत धक्का पहुंचाया है। स्पष्ट निर्णय लेने जरूरी हैं।
अगर एक सड़क पर एक स्त्री की इज्जत लूटी जा रही हो और मैं कहूं कि मैं तटस्थ हूं; एक आदमी एक कमजोर आदमी को लूट रहा हो और मैं कहूं कि मैं तटस्थ हूं, मैं निरपेक्ष हूं; तो मेरी तटस्थता का क्या मतलब होगा? तटस्थता झूठी है; और जब एक आदमी लूटा जा रहा है और मैं कहता हूं, मैं तटस्थ हूं, तो मैं लूटने वाले का साथ दे रहा हूं तटस्थता के पीछे, और जो लुट रहा है उसके विरोध में खड़ा हुआ हूं।
जीवन में विकल्प होते हैं, तटस्थता नहीं होती है। जीवन में स्पष्ट निर्णय लेने होते हैं। सारा जगत एक बहुत बड़ी क्राइसिस से गुजर रहा है, एक बहुत बड़े संकट से गुजर रहा है। उसमें भारत कहता है, हम तटस्थ हैं! इतने बड़े संकट में, जिसके ऊपर निर्भर होगा सारे जगत का, सारे मनुष्य का भविष्य, जिसके ऊपर निर्णय होगा कि मनुष्य बचेगा या नहीं बचेगा, उसमें भारत अगर सोचता हो कि हम तटस्थ खड़े रहेंगे, तो गलती में है वह। तटस्थता का कोई अर्थ नहीं होता। इधर बीस वर्षों में हम कोई गति नहीं कर सके जीवन में। उसका कुल कारण है--हमारे पास कोई स्पष्ट दृष्टि, कोई जीवन-दर्शन, कोई फिलासफी नहीं है। हम तटस्थ हैं। तटस्थ की कोई फिलासफी नहीं होती, कोई जीवन-दर्शन नहीं होता। उसकी कोई प्रतिबद्धता नहीं होती। जीवन में भागीदार और साझीदार होने का उसका भाव नहीं रहता। वह कहता है, हम तो किनारे खड़े रहेंगे। वह केवल देखने वाला रह जाता है--एक दर्शक मात्र। और जीवन उनका है जो भोगते हैं। वसुंधरा उनकी है जो भोगना जानते हैं। जो दर्शक की भांति खड़े रह जाते हैं, जीवन उनके द्वार नहीं आता और न जीवन की विजय उन्हें उपलब्ध होती है।
तो मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि भारत को एक सुस्पष्ट दर्शन की, एक सुस्पष्ट विचार की, एक सुस्पष्ट पथ की अत्यंत आवश्यकता है। उसी विचार के इर्द-गिर्द भारत की आत्मा इकट्ठी होगी। अन्यथा भारत बिखर जाएगा। और बिखराव ऐसा होगा, एब्सर्ड, इतना बेवकूफी से भरा हुआ, जिसका कोई हिसाब नहीं। जब पूरे मुल्क के पास कोई जीवन-दिशा नहीं होती, कोई केंद्रीय आत्मा नहीं होती, तो उसका परिणाम यह होता है कि एक-एक प्रांत, एक-एक जाति, एक-एक जिले की अपनी आत्मा पैदा हो जाती है। तब हिंदी बोलने वाले की आत्मा अलग, गुजराती बोलने वाले की आत्मा अलग, अंग्रेजी बोलने वाले की आत्मा अलग हो जाती है। तब मैसूर अलग, महाराष्ट्र अलग। तब कौम टूटती है टुकड़ों में, जब कौम को इंटीग्रेट करने के लिए कोई जीवन-दृष्टि नहीं होती।
हम चिल्लाते हैं रोज कि मुल्क इकट्ठा होना चाहिए! लेकिन मुल्क इकट्ठा कोई आसमान से होता है? मुल्क इकट्ठा होता है जब मुल्क के सामने भविष्य के लिए कोई सपना होता है जिसे पूरा करना है। हमारे मुल्क के पास कोई सपना नहीं है, हमारी कोई प्रतिबद्धता, कोई कमिटमेंट नहीं है। हम चुपचाप राहगीरों की तरह तमाशा देख रहे हैं। दुनिया जी रही है, हम तमाशगीर हैं। तटस्थता का अर्थ तमाशगिरी ही हो सकता है। और तब, तब क्षुद्र और छोटे मसले मनुष्य के मन को पकड़ लेते हैं, जब कोई बड़ा मसला नहीं होता।
हिंदुस्तान के नेताओं ने पिछले बीस वर्षों में हिंदुस्तान को कोई बड़ा इस्यु, कोई बड़ा मसला, कोई बड़ी समस्या, कोई बड़ा प्राब्लम नहीं दिया है। उलटी हालत हो गई है यहां। दुनिया का इतिहास यह कहता है कि नेता वह है जो कौमों को कोई बड़े इस्यु, कोई बड़ी समस्याएं दे देता है। यहां हालत उलटी है। यहां जनता समस्याएं देती है, नेता उनको हल करने में लगे रहते हैं। और जब नीचे का सामान्यजन समस्याएं देने लगता है और ऊपर के नेता केवल उन समस्याओं को सुलझा कर काम चलाने की व्यवस्था करने लगते हैं, तो मुल्क बिखर ही जाएगा। बड़ा नेतृत्व उन लोगों से उपलब्ध होता है जो मुल्क को किसी जीवंत, लिविंग प्राब्लम के इर्द-गिर्द इकट्ठा कर देते हैं।
लेकिन हमारे प्राब्लएस क्या हैं, पता हैं आपको? दुनिया हंसती होगी। कहीं गौ-हत्या हमारी समस्या है। आदमी मर रहा है, आदमी के बचने तक की संभावना नहीं है, बहुत डर है कि पूरी मनुष्यता भी नष्ट हो जाए, और हमारी समस्या क्या है? गौ-हत्या होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए! कि भाषा कौन सी बोली जानी चाहिए!
मैं एक घर में ठहरा था। उस घर में आग लग गई, तो घर के लोग चिल्लाने को हुए--आग लग गई है तो चिल्लाएं, पड़ोस के लोगों को जगाएं। मैंने उनसे कहा, पहले यह तो तय कर लो कि किस भाषा में चिल्लाओगे, हिंदी में कि अंग्रेजी में! क्योंकि अभी राष्ट्रभाषा निश्चित नहीं हुई। किस भाषा में चिल्लाओगे, जब तक यही तय नहीं, तब तक चुपचाप बैठो, मकान जलने दो।
टुच्चे, दो कौड़ी के मसले हम मुल्क के सामने उठा कर पूरे मुल्क के प्राणों को बिखरा रहे हैं। मुल्क के सामने कोई लिविंग प्राब्लम, कोई बड़ा प्राब्लम नहीं है। पता होना चाहिए आपको, जगत में केवल वे ही कौमें और वे ही राष्ट्र और वे ही मुल्क कुछ कर पाते हैं जिनके पास कोई जीवंत मसला होता है, कोई बड़ी समस्या होती है। बड़ी समस्याओं के पास बड़ी आत्माएं पैदा होती हैं। बीस साल से हम चिल्ला रहे हैं कि बीस साल पहले जब आजादी नहीं मिली थी तब हमारे मुल्क ने इतने बड़े लोग पैदा किए। वे लोग किसी बड़े मसले के इर्द-गिर्द पैदा हुए थे। बीस साल से आपने कोई बड़ा मसला पैदा नहीं किया, बड़े लोग कैसे पैदा हो सकते हैं? आजादी की बड़ी समस्या थी, बड़ा प्रश्न था, जीवन-मरण का प्रश्न था, उसके आस-पास बड़ी आत्माएं जागीं और पैदा हुईं।
जीवन तो चुनौतियों से, चैलेंजेज से पैदा होता है। बीस साल में कौन सा चैलेंज है आपके सामने? यही कि मैसूर का एक जिला महाराष्ट्र में रहे कि मैसूर में! बेवकूफियों की भी सीमाएं होती हैं, लेकिन हम उनको पार कर गए हैं। गौ-हत्या हो कि न हो! और धर्मगुरु और राजनेता और समझदार इन मसलों पर बैठ कर विचार-विमर्श करते हैं इनको हल करने का। ऐसे लोगों के दिमाग के इलाज की व्यवस्था की जानी चाहिए। ये लोग सारे मुल्क को बर्बादी के रास्तों पर ले जाते हैं, माइंड को डिस्ट्रैक्ट करते हैं, मुल्क की चेतना को गलत मार्गों पर प्रवाहित करते हैं।
एक रात मैंने एक सपना देखा। मैंने एक सपना देखा कि कुछ गौवें कॉनवेंट स्कूल से पढ़ कर वापस लौट रही हैं और एक ऊंट के मकान के सामने ठहर गई हैं। वह ऊंट एक बड़ा चित्रकार है और उस ऊंट ने यह खबर घोषित कर दी है कि पिकासो और पश्चिम के सब मॉडर्न पेंटर्स मेरे ही शिष्य हैं। मैं जगतगुरु हूं उन सबका। उसने घोड़े का एक चित्र बनाया है। तो कॉनवेंट से लौटती गौवों ने सोचा कि जरा हम देख लें, इसने कौन सा घोड़े का चित्र बनाया है। वे भीतर गईं। चित्र था, ऊंट खड़ा मुस्कुरा रहा था। उसने कहा, देखो!
पर उन गौवों ने कहा, इसका कुछ ओर-छोर समझ में नहीं आता! यह कैसा घोड़ा है? उसने कहा, यह मॉडर्न पेंटिंग है। जिसका ओर-छोर समझ में आ जाए, समझना कि वह चित्रकला ऊंची नहीं है। इसका कोई ओर-छोर नहीं होता, इसको बहुत चू.जन फ्यू, कुछ चुने हुए लोग समझ सकते हैं। यह घोड़े का चित्र है। गौवों ने कहा, किसी तरह हम मान भी लें कि यह घोड़े का चित्र है, लेकिन इसकी कूबड़ क्यों निकली हुई है? उस ऊंट ने कहा, तुएहें पता है, बिना कूबड़ के कोई कभी सुंदर होता ही नहीं। क्योंकि परमात्मा ने सुंदरतम प्राणी और श्रेष्ठतम प्राणी तो ऊंट ही बनाया है और चौरासी योनियों में भटक कर जब आत्मा ऊंट की योनि में आती है तभी मोक्ष मिलने का दरवाजा खुलता है। और तुएहें पता है, उस ऊंट ने कहा, ऊंटों की बाइबिल पढ़ी है? उसमें लिखा है, दि गॉड क्रिएटेड कैमल इन हिज ओन इमेज! ईश्वर ने ऊंट को अपनी ही शक्ल में बनाया है। गौवें खूब हंसने लगीं। उन्होंने कहा, ऊंट अंकल, चाचा, तुम समझे नहीं ठीक बाइबिल को। बाइबिल में लिखा है, दि गॉड क्रिएटेड काऊ इन हिज ओन इमेज! गाय को ईश्वर ने अपनी शक्ल में बनाया। और अगर तुम गलत समझते हो तो पुरी के शंकराचार्य से पूछ सकते हो। वे भी कहते हैं कि गौ माता है। आज तक ऊंट को किसने पिता कहा है? आदमी भी मानते हैं गौ माता है। और आदमी मरते हैं कि गौ माता है या नहीं, इस प्रश्न पर।
मेरी तो घबराहट में नींद खुल गई। मैं तो अब तक नहीं सोच पाता कि गौवें भी हंसती हैं इस बात पर कि आदमी यह विचार करते हैं कि गौ माता है या नहीं है। वैसे गौवें भी पसंद नहीं करेंगी इस बात को कहा जाना--गौ माता। गौवें सब कॉनवेंट में पढ़ती हैं, वे पसंद करेंगी--गौ मएमी, डैडी। माता कोई पसंद नहीं करेगा। कोई पसंद नहीं करेगा कि गौ को माता कहा जाए। बहुत आउट ऑफ डेट यह माता जैसा शब्द। लेकिन ये हमारे मसले हैं। अगर जानवरों को पता होगा हमारे मसलों का तो बहुत हंसते होंगे अपनी बैठकों में बैठ कर कि आदमी भी खूब है, गजब का है! हम तो आदमी के बाबत कभी विचार नहीं करते कि आदमी हमारा बेटा है या नहीं। लेकिन आदमियों के धर्मगुरु अनशन करते हैं, उपवास करते हैं और सारे मुल्क की चेतना को व्यथित करते हैं और भटकाते हैं।
असली मसलों से हटाने का एक ही रास्ता है कि नकली मसले पैदा कर दिए जाएं। जीवन की असली समस्याओं से मनुष्य के मन को हटा लेने की पुरानी तरकीब है--झूठी समस्याएं, स्यूडो प्राब्लएस खड़े कर दिए जाएं। बीस साल में हम स्यूडो प्राब्लएस खड़े करने में बड़े निष्णात हो गए हैं।
मुल्क का भविष्य नहीं हो सकता अच्छा, अगर हम इसी तरह के टुच्चे और व्यर्थ के प्रश्न जीवन के सामने खड़े करते चले गए। जीवन के लिए चाहिए बड़े जीवंत प्रश्न। विराट! और स्मरण रहे कि हम जितनी बड़ी समस्या चुनते हैं, जितनी बड़ी चुनौती, उतने ही हमारे भीतर सोई हुई आत्मा जाग्रत होती है और विकसित होती है। जो प्रश्न मनुष्य के भीतर उसकी चेतना को चुनौती नहीं देते उन प्रश्नों को बिदा कर देना चाहिए। निर्णय कर लेना चाहिए कि हम अपने से बड़े प्रश्न चुनेंगे, ताकि मुल्क की चेतना रोज-रोज अतिक्रमण करे, विकसित हो, आगे जाए।
हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है, अगर किसी कौम के सामने बड़े प्रश्न न हों तो बड़े प्रश्न पैदा करने की फिकर करनी चाहिए; क्योंकि जितने बड़े प्रश्न खड़े होते हैं, आदमी उनके उत्तर देने के लिए उतनी ही आतुरता से अपनी सोई हुई शक्तियों को जगाना शुरू कर देता है। लेकिन हम उलटा कर रहे हैं। हम छोटे से छोटे टुच्चे से टुच्चे प्रश्न खड़े करते हैं और उनके साथ अगर मुल्क की आत्मा नीची होती चली जाती हो तो जिएमेवार कौन है? उत्तरदायी कौन है?
तो दूसरी मैं आपसे यह बात कहना चाहता हूं--मुल्क के सामने बड़े प्रश्न खड़े करने हैं। और सबसे बड़ा प्रश्न क्या है? सबसे बड़ा प्रश्न शायद आपको ख्याल में भी न हो। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या मुल्क को समाजवाद की दिशा में जाना है? और मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि समाजवाद या साएयवाद, सोशलिज्म और कएयुनिज्म का इतना प्रचार किया गया है कि अब कोई आदमी सोचता ही नहीं कि यह भी कोई प्रश्न है। अब तो हम सभी मानते ही हैं कि जाना ही है, उसी दिशा में जाना है।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, समाजवाद की मिथ, साएयवाद की परिकल्पना से ज्यादा घातक और खतरनाक कोई कल्पना नहीं हो सकती। यह एकदम झूठी कल्पना है, जिसके अंतर्गत मनुष्य की सारी आत्मा बिक जाएगी और जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है और जो भी सत्य है, वह सब नष्ट हो जाएगा।
पहली बात, कोई दो आदमी समान नहीं हैं और न हो सकते हैं। इक्वालिटी एकदम फिक्शन, एकदम झूठी कल्पना है। कोई दो आदमी समान नहीं हैं, न कभी समान रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि एक आदमी नीचा और एक आदमी ऊंचा है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक आदमी भिन्न, अद्वितीय और यूनीक है; एक-एक आदमी बेजोड़ है; कोई आदमी किसी से न छोटा है, न बड़ा। लेकिन कोई आदमी किसी के समान भी नहीं है। और दुर्भाग्य होगा वह दिन, जिस दिन हम आदमियों को जबरदस्ती समानता की मशीन में ढाल कर खड़ा कर देंगे। उस दिन मशीनें रह जाएंगी, मनुष्य नहीं। लेकिन सारी दुनिया में यह कोशिश की जा रही है कि मनुष्य को सब भांति समान कर दिया जाए।
मनुष्य की चेतना और जीवन का विकास व्यक्ति की तरफ है, इंडिविजुअल की तरफ है। लक्ष्य समाज नहीं है, हमेशा व्यक्ति है। अगर हम किसी पौधे के बीज लाएं और पचास बीज रख दें यहां सामने, बीज समान होंगे बिल्कुल, बीजों में कोई फर्क नहीं होगा। लेकिन उन पचास बीज को बगिया में बो दें आप, तो उनसे पचास तरह के पौधे पैदा होंगे। वे पौधे सब भिन्न होंगे। उनमें फूल लगेंगे। वे फूल सब भिन्न होंगे। बीज समान हो सकते हैं, लेकिन विकास की अंतिम स्थिति समान नहीं हो सकती।
कएयुनिज्म मनुष्य की आदिम अवस्था थी, प्रिमिटिव स्टेट ऑफ सोसायटी थी। मनुष्य जब बिल्कुल बीज रूप में थे, जब उनमें कोई विकास नहीं हुआ था तब वह स्थिति थी जब वे सब समान थे। लेकिन जितना मनुष्य में विकास होगा उतना एक-एक व्यक्ति अलग, पृथक, भिन्न और अद्वितीय होता चला जाएगा। जीवन की धारा अद्वितीय व्यक्तियों को पैदा करने की ओर है, एक मोनोटोनस, एक सा समाज पैदा करने की ओर नहीं है।
लेकिन सारी दुनिया में इधर सौ वर्षों में इतने जोर से साएयवाद की बात की गई है कि अब तो कोई कहने का साहस ही नहीं कर सकता कि यह बात कहीं गलत भी हो सकती है। आज रूस में अगर बुद्ध पैदा होना चाहें तो नहीं पैदा हो सकते। महावीर जन्मने के साथ ही मुश्किल में पड़ जाएंगे। और महावीर और बुद्ध को तो छोड़ दें, अगर खुद मार्क्स भी पैदा होना चाहे तो रूस उसकी पैदाइश की जमीन नहीं हो सकती। मार्क्स को भी छोड़ दें, अब तो अगर स्टैलिन भी वापस पुनर्जन्म लेना चाहें रूस में तो रूस में उनको जन्म नहीं दिया जा सकता। क्योंकि रूस या साएयवाद की सारी धारणा व्यक्ति विरोधी है, व्यक्ति वैशिष्ठ्य की विरोधी है, इंडिविजुअलिटी की विरोधी है। हम इकाइयां चाहते हैं, व्यक्ति नहीं चाहते। और सभी व्यक्तियों को एक सा कर देना है सब भांति। निश्चित ही, सभी व्यक्तियों को समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए। लेकिन समान अवसर इसलिए नहीं कि सभी व्यक्ति समान हो जाएं, बल्कि इसलिए कि प्रत्येक व्यक्ति असमान और भिन्न होने की समान सुविधा उपलब्ध कर सके।
हिंदुस्तान पर भी यह दुर्भाग्य उतर रहा है धीरे-धीरे। कौन लाएगा इस दुर्भाग्य को, यह बात अलग है--कि कएयुनिस्ट लाएंगे, कि कांग्रेस लाएगी, कि सोशलिस्ट लाएंगे। लेकिन यह दुर्भाग्य धीरे-धीरे उतर रहा है और हम भी इस कोशिश में लगे हैं कि एक यांत्रिक, एक कलेक्टिव, एक समष्टिवादी समाज को निर्मित कर लें।
लेकिन आपको पता होना चाहिए--रोटी के मूल्य पर हम आत्मा को बेचने की कोशिश कर रहे हैं। याद होना चाहिए कि समानता की यह जबरदस्त कोशिश मनुष्य के जीवन से स्वतंत्रता को नष्ट करती है, वैचारिक स्वतंत्रता को नष्ट करती है, व्यक्तियों की विशिष्टता को नष्ट करती है, उनके यूनीक, उनके बेजोड़ होने को नष्ट करती है। तब वे किसी बड़े कारखाने के कलपुर्जे रह जाते हैं, स्वतंत्र चेतनाएं नहीं।
सारी दुनिया में यह हो रहा है। हिंदुस्तान में भी होगा। हम पीछे शायद ही रहेंगे। ऐसी कौन सी बीमारी है जिसमें हम पीछे रह जाएं! हम तो सबके साथ आगे होने के लिए अत्यंत उत्सुक और आतुर हो उठे हैं।
अगर भारत के भविष्य के लिए कोई कल्पना और कोई सपना हो सकता है तो वह यह कि भारत, आने वाली दुनिया में भारत व्यक्तिवाद का परम पोषक स्पष्ट रूप से अपने को घोषित करे। व्यक्तियों के विकास का अर्थ यह नहीं होता कि समाज दरिद्र होगा और लोग दीन-हीन होंगे। व्यक्तियों की पूर्ण विकास की अवस्था में कोई दीन-हीन होने की जरूरत नहीं रह जाती, लेकिन असमानता, भिन्नता, वैशिष्ठ्य की स्वीकृति होती है।
एक ऐसा समाज चाहिए जहां प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं होने की स्वतंत्रता हो। समाजवाद या साएयवाद में यह स्वतंत्रता संभव नहीं है। वहां समाज होगा, व्यक्ति नहीं होंगे। व्यक्तियों को लेबलिंग की जाएगी और रह जाएगी एक कलेक्टिव भीड़। और सब तरह की कोशिश की जा रही है माइंड वाश की, मनुष्यों की चेतनाओं को पोंछ डालने की, उनके स्वतंत्र चिंतन को मिटा डालने की, जो हुकूमत कहे वही दोहराने के लिए उनको मशीनें बनाने की। चीन में बड़े जोरों पर प्रयोग चल रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति में जो विशिष्ट चेतना है उसे पोंछ कर कैसे अलग कर दिया जाए। और पावलव और कुछ दूसरे मनोवैज्ञानिकों ने वे यंत्र उनके हाथ में दे दिए हैं कि एक-एक आदमी के भीतर जो व्यक्तित्व है, जो विशिष्टता है, जो चिंतन है, उसे पोंछ डाला जाए और एक-एक आदमी एक एफिशिएंट मशीन हो जाए। निश्चित ही, तब ज्यादा रोटी मिल सकेगी, ज्यादा अच्छे मकान मिल सकेंगे, ज्यादा अच्छे कपड़े मिल सकेंगे। लेकिन किस कीमत पर? आदमी को खोकर!
एक मकान में आग लगी थी और मकान का मालिक बाहर आंसू बहा रहा था, खड़ा था। पड़ोस के लोग मकान से सामान निकाल रहे थे दौड़ कर। फिर सारा सामान निकाल लिया गया और मकान में अंतिम लपटें पकड़ने लगीं, तब लोगों ने आकर उस मकान मालिक को कहा कि कुछ और भीतर रह गया हो तो हम देख लें जाकर, क्योंकि इसके बाद दोबारा भीतर जाना संभव नहीं होगा, मकान अंतिम लपटों में जा रहा है। उस मकान मालिक ने कहा, मुझे कुछ भी याद नहीं पड़ता। मेरी स्मृति ही खो गई है। फिर भी तुम भीतर जाकर देख लो, कुछ बचा हो तो ले आओ।
उन्होंने सब तिजोरियां बाहर निकाल ली थीं, उन्होंने मकान के सब खाते-बही बाहर निकाल लिए थे। उन्होंने कपड़े, बर्तन, सब बाहर निकाल लिया था। वे भागे हुए भीतर गए और वहां से छाती पीटते हुए रोते वापस आए। मकान मालिक का इकलौता लड़का भीतर ही जल गया था। वे बाहर आकर रोने लगे और उन्होंने कहा, हम सामान को बचाने में लग गए और सामान का अकेला मालिक नष्ट हो गया।
क्या हम भी सामान को बचाएंगे या सामान के मालिक को बचाएंगे? क्या हम आदमी को बचाएंगे या रोटी और रोजी और कपड़े को?
जरूरी भी नहीं है कि आदमी को बचाने में रोटी और रोजी न बचाई जा सके। आदमी के साथ भी उसे बचाया जा सकता है। व्यक्तियों को बिना मिटाए समाज को जीवन दिया जा सकता है। भारत के लिए कोई फिलासफी, भारत के लिए कोई जीवन-दर्शन अगर हो सकता है तो वह यह हो सकता है कि भारत आने वाले जगत में व्यक्तियों की गरिमा, इंडिविजुअल्स को बचाने की घोषणा करे। और व्यक्ति कैसे बचाए जा सकें, उनकी स्वतंत्रता, उनके प्राणों की ऊर्जा, उनकी गरिमा और गौरव कैसे बचाया जा सके, उन सबको मशीनों में बदलने से कैसे बचाया जा सके, इसके लिए भारत दुनिया में कमिटमेंट ले, इसके लिए प्रतिबद्ध हो, सारे जगत में उसकी अपनी एक चुनौती, अपना आवाहन हो। और इस आवाहन के इर्द-गिर्द न केवल सारे देश के प्राण जग सकते हैं, बल्कि सारे जगत को भी एक मार्गदर्शन उपलब्ध हो सकता है। यह तीसरी बात मैं कहना चाहता हूं।
और चौथी एक अंतिम बात, और फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। और चौथी बात मुझे यह कहनी है कि भारत को अपने आने वाले भविष्य के निर्माण में, अपने भविष्य के भाग्य और नियति के निर्माण में अपनी पिछली भूलों को ठीक से समझ लेना होगा, ताकि वे फिर से न दोहराई जाएं। भारत ने कुछ बुनियादी भूलें तीन हजार वर्षों में दोहराई हैं। और भारत के विचारशील लोग इतने कमजोर, इतने सुस्त और शक्तिहीन हैं कि उन भूलों के बाबत चिंतन करने की सामर्थ्य और साहस भी नहीं जुटा पाते।
भारत ने एक बड़ी भूल दोहराई है और वह यह कि भारत ने आत्मा-परमात्मा की एकांगी बातें की हैं; शरीर को और पदार्थ को बिल्कुल छोड़ दिया और भूल गया है। एक हजार वर्ष की गुलामी इसका परिणाम थी। आदमी आत्मा भी है और शरीर भी। और जीवन चेतना भी है और पदार्थ भी। हिंदुस्तान ने केवल चेतना और आत्मा की बातों में अपने को भुलाए रखा। जीवन दरिद्र होता गया, शरीर क्षीण होता गया, शक्ति नष्ट होती गई। गुलाम हुए हम। और गुलाम जब हम हो गए, तो हम बड़े होशियार लोग हैं, हम तर्क खोजने में, दुनिया में हमारा कोई सानी नहीं, हमारा कोई मुकाबला नहीं। जब हम गुलाम हो गए तो हमने कहा कि मुसलमानों ने आकर हमको गुलाम कर दिया। जब अंग्रेजों ने हमको पराजित कर लिया और हमारे ऊपर हावी हो गए तो हमने कहा, अंग्रेजों ने हमको गुलाम करके कमजोर कर दिया। सच्चाई उलटी है। जब तक कोई कौम कमजोर नहीं होती तब तक कोई उसे गुलाम कैसे बना सकता है? गुलामी से कोई कभी कमजोर नहीं होता, कमजोर होने से जरूर कौमें गुलाम हो जाती हैं। अंग्रेजों की वजह से और मुसलमानों की वजह से आप कमजोर नहीं हुए। आप कमजोर थे, आप कमजोर हो गए थे, और इसलिए कोई भी आया और आपको गुलाम बनाया जा सका। लेकिन हम बड़े बेशर्म लोग हैं, जिन्होंने हमें गुलाम बनाया, उन्हीं के ऊपर थोप देते हैं कि इन्होंने हमें कमजोर कर दिया। कमजोर हुए बिना कभी कोई गुलाम होता है?
कमजोर हम क्यों हो गए? कमजोर किया हमारे एकांगी धर्मों ने, कमजोर किया हमारे साधु-महात्माओं ने, कमजोर किया हमारे अधूरे संन्यासियों ने। नहीं मुसलमानों ने, नहीं अंग्रेजों ने, नहीं हूणों ने, न मुगलों ने, न तुर्कों ने, किसी ने हमें कमजोर नहीं किया। कमजोरी आई हमारे भीतर से--अधूरेपन से। हमने जीवन में पदार्थ की महत्ता को अंगीकार नहीं किया; शरीर के हम दुश्मन रहे; संपत्ति के, शक्ति के हम विरोधी रहे। जो कौम संपत्ति, शक्ति और पदार्थ की विरोधी है, फिर वह राम-भजन ही करने के योग्य रह जाएगी, और किसी के योग्य नहीं। फिर वह हरि-कीर्तन कर सकती है, अखंड कर सकती है; लेकिन और कुछ भी उससे नहीं हो सकता है।
और मैं आपको स्मरण दिला दूं, जिनके पास शक्ति नहीं है, उनके पास परमात्मा के पहुंचने के मार्ग भी बंद हो जाते हैं। थोथी बकवास कर सकते हैं वे, लेकिन परमात्मा की उस यात्रा में भी बड़े बलशाली प्राण चाहिए। कमजोर, नपुंसक और ढीले और सुस्त लोगों के वे भी मार्ग नहीं हैं। हिमालय की चोटियां जो नहीं चढ़ सकते, वे परमात्मा की चोटियों को क्या चढ़ सकेंगे!
लेकिन हिंदुस्तान की हिमालय की चोटियां चढ़ने के लिए बाहर से लोग आते हैं। एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए बाहर से लोग आते हैं और हमारे बच्चे अंधेरे में जाने से डरते हैं। हम आत्मा की अमरता की बातें करते हैं और हमसे ज्यादा मौत से डरने वाला जमीन पर कोई भी नहीं है। बड़ी अजीब बात है! यह धर्म अधूरा था। अगर भारत को कोई भविष्य बनाना है तो उसे पूरे धर्म को... पूरे धर्म से मेरा मतलब है जो शरीर को भी स्वीकार करता है और आत्मा को भी। एक दूसरी भूल पश्चिम ने की है। उन्होंने आत्मा को अस्वीकार करके केवल शरीर को मान लिया। एक एक्सट्रीम की भूल उन्होंने की; एक एक्सट्रीम, एक अति की भूल हमने की। जीवन-संगीत ऐसे पैदा नहीं होता।
एक छोटी सी कहानी, और मैं अपनी बात पूरी करूं। बुद्ध के पास एक युवा राजकुमार ने दीक्षा ली। वह अत्यंत भोगी और विलासप्रिय था। बुद्ध के पास दीक्षा लेकर जब वह संन्यासी हुआ तो बुद्ध के दूसरे भिक्षुओं ने कहा--यह इतना विलासी राजकुमार, जो कभी महलों से बाहर नहीं निकला, जिसने कभी खुले आसमान की धूप नहीं सही, जो चलता था रास्तों पर तो फूल और मखमल बिछाए जाते थे, सुनते हैं उसने घर की, मकान की सीढ़ियों पर सहारा लेकर चढ़ने के लिए नग्न स्त्रियों को खड़ा कर रखा था, यह आदमी दीक्षित हो रहा है! यह संन्यासी हो रहा है!
बुद्ध ने कहा, मनुष्य का मन हमेशा एक्सट्रीम में, हमेशा अति में डोलता है। जो भोगी हैं वे योगी हो जाते हैं; जो योगी हैं वे भोगी हो जाते हैं।
अभी श्री पाटिल ने कहा कि पश्चिम में बहुत जोर से धर्म का प्रभाव बढ़ रहा है। चर्च में लोग जा रहे हैं। एक्सट्रीम! उनका दिमाग भोग से ऊब गया, पेंडुलम उनकी घड़ी का धर्म की तरफ जा रहा है। हिंदुस्तान के लोग धर्म से ऊब गए हैं, उनका पेंडुलम भोग की तरफ, सिनेमा की ओर जा रहा है। वहां उनकी भीड़ चर्च के सामने इकट्ठी हो रही है। यहां की भीड़ सिनेमा के पास इकट्ठी हो रही है; वह पृथ्वीराज जी बैठे हैं, वे बता सकेंगे। मनुष्य का जो मन है, बीमार मन, वह हमेशा एक्सट्रीम में जाता है। ज्यादा खाने वाले लोग उपवास करने लगते हैं। जिनके चित्त में स्त्रियों के चित्र बहुत चलते हैं वे ब्रह्मचारी हो जाते हैं। जीवन अति में चलता है। और अति भूल है, एक्सट्रीम भूल है।
बुद्ध ने कहा, वह अति पर जा रहा है, लेकिन देखो! और भिक्षुओं ने देखा कि यही हुआ। वह जिस दिन से राजकुमार श्रोण दीक्षित हुआ, दूसरे भिक्षु राजपथ पर चलते थे, लेकिन वह कांटों वाली पगडंडी पर चलता था ताकि पैरों में कांटे छिद जाएं और लहूलुहान हो जाएं। वह त्यागी-तपस्वी, वह ठीक रास्ते पर कैसे चल सकता है! कल तक वह मखमलों पर चलता था, अब वह कांटों पर चलता था। बीच का कोई रास्ता था ही नहीं। दूसरे भिक्षु एक बार भोजन करते, वह एक दिन भोजन करता और एक दिन निराहार रहता। दूसरे भिक्षु वृक्षों की छाया में बैठते, वह भरी दोपहरी में धूप में खड़ा रहता। दूसरे भिक्षु वस्त्र ओढ़ते सर्दी आती, लेकिन वह सर्दी में भी नग्न पड़ा रहता। उसने सारे शरीर को एक वर्ष में सुखा कर कांटा बना लिया। वह सुंदर राजकुमार, उसकी सुंदर काया सूख कर काली पड़ गई, कुरूप हो गई। उसके पैरों में छाले पड़ गए। उसके पैरों में लहू बहता रहता; मवाद पड़ गई; फोड़े पड़ गए।
बुद्ध एक वर्ष बाद उस राजकुमार के पास गए और कहा, राजकुमार श्रोण, मैंने सुना है कि जब तू भिक्षु नहीं हुआ था तो सितार बजाने में, वीणा बजाने में तेरी बड़ी कुशलता थी। क्या यह सच है? उस श्रोण ने कहा, हां, यह सच है। लोग कहते थे मेरे जैसा वीणा बजाने वाला कोई कुशल वादक नहीं है। तो बुद्ध ने कहा, मैं एक प्रश्न उलझ गया, उसे पूछने आया हूं तुझसे। वीणा के तार अगर बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा होता है? उस श्रोण ने कहा कि नहीं, तार ढीले होंगे तो संगीत कैसे पैदा होगा? तार ढीले होंगे तो टंकार ही पैदा नहीं हो सकती तो संगीत कैसे पैदा होगा! तो बुद्ध ने कहा, और अगर तार बहुत कसे हों तो संगीत पैदा होता है? उस श्रोण ने कहा कि नहीं, अगर तार बहुत कसे हों तो वे टूट जाते हैं, फिर भी संगीत पैदा नहीं होता। तो बुद्ध ने कहा, संगीत पैदा कब होता है? संगीत के पैदा होने का राज और रहस्य क्या है? तो उस श्रोण ने कहा, वीणा के तारों की एक ऐसी दशा भी है जब न तो हम कह सकते कि वे ढीले हैं और न कह सकते कि वे कसे हैं। उस मध्य में, उस संतुलन में, उस समता में, उस बिंदु पर संगीत का जन्म होता है। तो बुद्ध ने कहा, मैं जाता हूं। इतना ही कहने आया था कि जो वीणा में संगीत पैदा होने का नियम है, जीवन की वीणा पर भी पैदा होने का वही नियम है। जीवन की वीणा से भी संगीत वहीं पैदा होता है जब न तो तार आत्मा की तरफ बहुत कसे होते हैं और न शरीर की तरफ बहुत ढीले होते हैं।
भारत ने शरीर के विरोध में आत्मा की तरफ तारों को कस लिया। हमारी वीणा से संगीत उठना हजारों साल हुए बंद हो चुका है। पश्चिम ने जीवन की वीणा के तार शरीर की तरफ बिल्कुल ढीले छोड़ दिए, उन पर टंकार भी पैदा नहीं होती, उनसे भी संगीत उठना बंद हो गया है। क्या हम जीवन की वीणा पर संगीत पैदा करना चाहते हैं? तो हमें पश्चिम और पूरब की दोनों भूलों से भारत के भविष्य को बचाना है। पूरब के अतीत से और पश्चिम के वर्तमान से, दोनों से बचा लेना है, दोनों अतियों से बचा लेना है।
अगर यह हो सके तो एक सौभाग्यशाली देश का जन्म हो सकता है। और हो सकता है यह भी कि दुनिया में भारत इतनी तीव्रता से, इतनी ऊर्जा से उठे कि जिसका कोई हिसाब हम न लगा सकें। क्योंकि जो जमीन बहुत दिनों तक परती पड़ी रहती है, जिस जमीन पर बहुत दिनों तक किसान फसल नहीं बोता, उस पर अगर बीज डाले जाएं तो दूसरे किसानों की फसलों से उस पर हजार गुनी ज्यादा फसल आती है। डेढ़-दो हजार वर्षों से भारत की चेतना की भूमि परती पड़ी है, उस पर कोई फसल नहीं बोई गई। यह हो सकता है कि अगर हमने कुशलता से, समझदारी से, वि.जडम से, बुद्धिमत्ता से काम लिया, तो यह हो सकता है कि दो हजार वर्ष का दुर्भाग्य हमारे वरदान में फलित हो जाए और हमारे देश की चेतना और आत्मा की जो जमीन परती पड़ी है उस पर हम जीवन की कोई सुंदर फसलें काट सकें। यह हो सकता है।
लेकिन यह आसमान से नहीं होगा, और किसी भगवान से पूजा और प्रार्थना करने से नहीं होगा, और किन्हीं शास्त्रों और मंदिरों के सामने सिर टेकने से नहीं होगा। बहुत हो चुकीं ये सारी बातें और इनसे कुछ भी नहीं हुआ है। यह होगा, अगर हम कुछ करेंगे। यह हमारे संकल्प और हमारे विल और हमारे भीतर सोई हुई शक्ति के जागने से हो सकता है। भारत वही बनेगा जो हम उसे बना सकते हैं।
तो मैं निवेदन करता हूं कि आने वाले भविष्य के लिए भारत के सृजनात्मक एक नये रूप, एक नये जीवन को देने में मित्र बनें, सहयोगी बनें। एक बहुत बड़ा जिएमा हम सबके ऊपर है। और अगर एक-एक व्यक्ति ने यह जिएमा उठा लिया तो कोई भी कारण नहीं है कि चाहे रात कितनी भी अंधेरी हो, लेकिन उस अंधेरी रात के बाद सुबह का सूरज उग सकता है। देश पर बड़ी अंधेरी रात है, लेकिन सुबह का सूरज भी उग सकता है। लेकिन वह सूरज अपने आप नहीं उग जाएगा, उसे हमें उगाना है। ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं। मुझे राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन मैं तटस्थ भी नहीं हो सकता हूं--कि राजनीतिज्ञ कुछ भी किए चले जाएं और हम निरपेक्ष और तटस्थ खड़े रहें। हमें कुछ कहना, जानना, सोचना ही होगा; मुल्क के लिए चिंतन करना ही होगा। अन्यथा मुल्क भटक जाएगा और हम सब उसके लिए एक से अपराधी सिद्ध होंगे। राजनीतिज्ञ ही नहीं, साधु और संन्यासी भी, जो चुपचाप खड़े रहेंगे तो अपराधी सिद्ध होंगे। और उनका अपराध राजनीतिज्ञों के अपराध से बड़ा होगा। उनका अपराध बहुत पुराना है। असल में, मनुष्य-जाति को जिन लोगों ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, वे वे अच्छे लोग हैं जो राजनीति की तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं, वे बुरे लोगों को मौका देते हैं कि वे राजनीति में प्रविष्ट हो जाएं।
बर्ट्रेंड रसेल ने बहुत दिन पहले एक वक्तव्य दिया था। बहुत अदभुत था। उस वक्तव्य को उसने शीर्षक दिया थाः दि हार्म दैट गुड मेन डू। वह नुकसान जो अच्छे लोग करते हैं। अच्छे लोग कौन सा नुकसान करते हैं? अच्छे लोग तटस्थ हो जाते हैं। अच्छे लोग निरपेक्ष हो जाते हैं। अच्छे लोग कहते हैं, हमें कोई मतलब नहीं। अच्छे लोग कहते हैं, ये संसार की बातें हैं, हम संन्यासी हैं। अच्छे लोग कहते हैं, यह बंबई है, हम तो जंगल जाने वाले हैं। अच्छे लोग बुरे लोगों के लिए जगह खाली करते हैं। और फिर बुरे लोग जो करते हैं उससे यह दुनिया हमारे सामने है जो पैदा हो गई है।
मैं अच्छे आदमियों को आमंत्रण देता हूं कि बुरे आदमियों को किसी भी जगह पर खाली जगह देनी आपका अपराध है। इस अपराध से प्रत्येक को बचना है। और अगर हम बच सकते हैं तो निराश होने का कोई भी कारण नहीं।
मेरी बातों को इतनी शांति, इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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