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गुरुवार, 8 नवंबर 2018

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-01)

स्वयं की सत्ता-(विविध)-ओशो 

पहला प्रवचन

स्वयं की सत्ता का बोध

आपसे क्या कहूं, इस पर सोचता था। जो कहने का मन है, शायद उसे कहने को शब्द नहीं मिल पाते हैं। और आज तक मनुष्य के पूरे इतिहास में जिन लोगों ने कुछ जाना है, उन्हें कहना कठिन हो गया है। अनुभूतियां प्राणों की किसी गहराई में अनुभव होती हैं और शब्दों में उन्हें प्रकट करना मुश्किल और कठिन हो जाता है। ऐसा भी प्रतीत होता है कहने के बाद कि जो कहना चाहा था, वह पूरी तरह पहुंच नहीं पाया होगा। एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है, उससे ही अपनी बात को प्रारंभ करना चाहूंगा।
ऐसी ही किसी सांझ को किसी देश में बहुत से लोग किसी फकीर को सुनने को इकट्ठे हुए थे। फकीर आया और तो सामने खड़ा हुआ और थोड़ी देर मौन खड़ा रहा, और फिर उसने नाचना शुरू किया, थोड़ी देर नाचता रहा और फिर उसने लोगों से पूछा कुछ समझ में आया? अब नाचने से कुछ भी समझ में नहीं आ सकता। लेकिन उस फकीर ने कहा कि शब्दों से तो फिर और भी समझ में नहीं आएगा।

मैं भी जब आपसे कुछ कहने को होता हूं तो मुझे लगता है कि शब्दों से क्या समझ में आ सकेगा? शायद नाचने से थोड़ा समझ में आए, लेकिन उससे भी क्या समझ में आ सकेगा? शायद गीत गाने से कुछ समझ में आए, लेकिन उससे भी क्या समझ में आ सकेगा? जो भीतर प्राणों में आनंद की ऊर्जा, जो भीतर प्राणों में आनंद अनुभव होता है, उसे कैसे प्रकट किया जाए?

उसकी पीड़ा को शायद वे थोड़े से लोग समझ पा सकते होंगे, जिन्होंने किसी को प्रेम किया हो, और जिसको प्रेम किया हो और उसके पास गए हों, और बहुत कुछ कहने को सोचा हो और फिर पाया हो कि शब्द व्यर्थ हो गए हैं। और कुछ भी कहने को सूझ नहीं पड़ा होगा। जिन्होंने कभी किसी को प्रेम किया है, उन्हें अनुभव होगा कि शब्द कितने छोटे पड़ जाते हैं, और प्रेम में कोई भी शब्द काम नहीं देता। वहां शायद मौन ही कुछ कह पाता है। लेकिन प्रेम से भी बड़ी बात परमात्मा है। और प्रेम में अगर शब्द छोटे पड़ जाते हों तो परमात्मा के लिए तो शब्द बहुत ही व्यर्थ हो जाएंगे, शायद असत्य भी हो जाएंगे। इसलिए शब्द कहते से ही आधा तो असत्य हो जाता है, फिर आधा जो बचता है, वह सुनते से असत्य हो जाता है। इसलिए बड़ी परेशानी और बहुत कठिनाई है। फिर भी कुछ बातें आपसे कहूंगा, इस आशा में कि शब्दों पर बहुत ध्यान नहीं देंगे, मेरी पीड़ा पर ध्यान देंगे, मेरे प्रेम पर ध्यान देंगे और शब्द जिस तरफ इशारा करते हैं, उस तरफ ध्यान देंगे।
मनुष्य को देखता हूं तो जो पहली बात मुझे खयाल में आती है कि उससे कहूं वह यह कि हम अपने ही हाथों से, अपने ही हाथों से वे सब द्वार बंद किए हुए हैं, जहां से प्रकाश आ सकता था और आनंद आ सकता था। हम अपने ही हाथों से उस ओर पीठ किए हुए खड़े हैं, जिस ओर से जीवन की ज्योति हमें जगा सकती थी और हमारे प्राणों को स्पंदन से और नृत्य से और संगीत से भर सकती थी। आपको भी देखता हूं, तो मुझे ऐसा ही लगता है कि आप भी द्वार बंद किए हुए हैं, और कैसे हम द्वार बंद किए हुए हैं? एक छोटी सी बात से सारे द्वार बंद हो गए हैं। जीवन में जो भी पाने जैसा है, वह नहीं पाया जा सकेगा अगर उस छोटी सी बात पर हमारा ध्यान न जाए। इस जमीन पर बहुत से आश्चर्य हैं, लेकिन उस छोटी से बात से बड़ा और कोई आश्चर्य नहीं है। और वह छोटी सी बात यह है कि हम अपने को अस्वीकार किए हुए खड़े हैं। हममें से बहुत कम लोग हैं, जिन्होंने अपने को स्वीकार किया हो। जिन्होंने माना हो कि वो हैं। मैं हूं यह बोध हमारा खो गया है। हम जीते हैं, हम काम करते हैं, हम उठते हैं, चलते हैं और मर जाते हैं। लेकिन होने का, एक्झिस्टेंस का, अपनी सत्ता का, अपनी आत्मा का अपने प्राणों का कोई भी अनुभव नहीं हो पाता।
यह अनुभव होगा भी नहीं। क्योंकि अनुभव की शुरुआत जिस द्वार से हो सकती थी, वह यह है कि हम यह स्वीकार करते हैं, हम किसी तल पर यह अनुभव करते हैं कि मेरा होना है। मेरी कोई सत्ता है। मैं हूं। हम कहेंगे...मेरी बात को सुन कर आप कहेंगे हम तो अस्वीकार नहीं किए हुए हैं, हमें तो अनुभव होता है कि हम हैं। लेकिन कभी आपने खयाल किया है, यह अनुभव आपके होने का है या आपके आस-पास जो चीजें हैं, उनके होने का है? एक आदमी छोटे पद पर होता है, बड़े पद पर चला जाता है, तो उसे अनुभव होता है कि मैं हूं। उसे अनुभव होता है मैं कुछ हूं। यह कुछ होना उसकी सत्ता का अनुभव है या उसके बड़े पद का? एक आदमी के पास बहुत धन होता है, तो उसे अनुभव होता है कि मैं हूं, यह अनुभव उसकी सत्ता का है, या उसकी संपत्ति का?
अगर हम स्मरण करेंगे, तो हमें ज्ञात होगा, हमें अपने होने का कोई अनुभव नहीं होता, कुछ और चीजों के अनुभव होते हैं और उनको ही हम मान लेते हैं कि हमारे होने का अनुभव है। अगर आपसे आपकी सारी सम्पत्ति छीन ली जाए, आपके वंश का गौरव छीन लिया जाए, आपका धर्म छीन लिया जाए, आपके वस्त्र छीन लिए जाएं, आपकी उपाधियां छीन ली जाएं, जो ज्ञान आपको सिखाया गया है, वह छीन लिया जाए; प्रशंसा और निंदा जो आपको मिली है, वह छीन ली जाए, तो आपके पास क्या बच रहेगा? जो दूसरों ने दिया है अगर वह छीन लिया जाए, तो फिर आपके पास क्या बच रहेगा? आप एकदम खाली हो जाएंगे और लगेगा कि मर गए। आपके पास अपनी सत्ता का कोई अनुभव नहीं है, और जिसे हम कहते हैं मेरा होना, मुझे लगता है कि मैं हूं। यह होना मेरा नहीं है, बल्कि और लोगों ने जो मुझे दिया है, उसका ही संग्रह है। स्वयं का यह अनुभव नहीं है, बल्कि आस-पास से आई हुई प्रतिध्वनियों का संग्रह है। कोई मुझे आदर देता है, कोई सम्मान देता है, कोई निंदा करता है, कोई बड़े पद पर बैठाता है; इस सारी बातों को मैंने इकट्ठा कर लिया है, और इसी के संग्रह को मैं समझता हूं कि मैं हूं। यह मेरा होना नहीं है। यह मेरा बीइंग नहीं है, यही मेरा प्राण नहीं है, यह मेरी आत्मा नहीं है। लेकिन हम इसी को अपना होना समझे हुए हैं।
अगर मैं आपसे पूछूं, आप कौन हैं? तो अपना नाम बताएंगे, अपना घर बताएंगे, अपना पद, पदवियां बताएंगे, क्या यही आप हैं? अगर ए सब आपसे छीन लिया जाए, तो आपके पास क्या होगा? अगर यही आप हैं, तो मृत्यु आपसे सब छीन लेगी और फिर आपके पास कुछ नहीं बचेगा, यही वजह है कि हम सारे लोग मृत्यु से डरे हुए हैं। हम सारे लोग मृत्यु से घबराए हुए हैं, क्योंकि मृत्यु हमें मिटा देगी। जिसे हम जानते हैं हमारा होना, वह मृत्यु पोंछ देगी, क्योंकि वह हमारा होना ही नहीं है। मृत्यु केवल उसे मिटा सकती है, जो नहीं है।जो है उसे मृत्यु नहीं मिटा सकती, उसे कुछ भी नहीं मिटा सकता, जो है उसका मिटना असंभव है। जो है वह नहीं कैसे होगा?
एक छोटे से रेत के कण को भी तो नहीं मिटाया जा सकता। विज्ञान की सारी ताकतें भी लग जाएं, तो उसे नहीं मिटा सकतीं। वह रहेगा, वह अपनी मूल सत्ता में रहेगा। आज तक जगत में एक छोटे से रेत के कण को भी नहीं मिटाया जा सका। उसकी सत्ता को नहीं मिटाया जा सकता है, किसी चीज की सत्ता नहीं मिटाई जा सकती। जो है उसे मिटाना असंभव है, और जो नहीं है, उसे बनाना भी संभव नहीं है। तो हम कैसे मिट जाएंगे? मैं कैसे मिट जाऊंगा? आप कैसे मिट जाएंगे? लेकिन लगता है कि मृत्यु मिटा देगी। असल में जिसे हमने अपना होना समझा है, उसे निश्चित ही मृत्यु मिटा देगी। क्योंकि वह होना होना ही नहीं है। वह कोई सत्ता नहीं है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है, उसका कोई एक्झिस्टेंस नहीं है। वह केवल हमारी कल्पना है और कल्पना मिट जाएगी, और सपने मिट जाएंगे।
तो मैं आपसे कहूं, मैं हूं, मेरी सत्ता है, इसका बोध हमें नहीं है। और जिसे इसका भी बोध न हो, उसके जीवन में आगे और क्या होगा? जिसे अपने होने का बोध न हो, उसके जीवन में फिर आगे और क्या हो सकता है? उसके जीवन मेें कुछ भी नहीं हो सकता है। उसके जीवन में सिवाय दुख के, पीड़ा के और चिंता के कुछ भी नहीं हो सकता। उसके जीवन में आनंद और आलोक नहीं हो सकता। जीवन की किसी भी प्रगाढ़ अनुभूति की जो पहली आधारशिला है, वह है स्वयं का होना। समय लगेगा कि हम अपने को जानते हैं और मानते हैं, और हमें हंसी आएगी अगर कोई कहे कि हम अपने को नहीं मानते। मैं आपसे कहूं आप अपने को बिलकुल भी नहीं मानते। एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है, जब मैंने कहीं भी उसको कहा, तो लोग हंसने लगे। कहानी ऐसी है कि हम हसेंगे, हमें लग सकता है कि हंसने जैसी है। इसमें कोई भी संगति नहीं मालूम पड़ती, बहुत असंगत मालूम होती है, लेकिन ऐसी कहानी हम सबके जीवन में घट रही है।
एक सूफी फकीर था। एक रात बहुत देर तक एक मस्जिद में बैठ कर कुछ लोगों से चर्चा करता रहा। चर्चा में इतना तल्लीन हो गया कि भूल गया कि कब सांझ हो गई, कब सांझ बीत गई? रात के भोजन का समय बीत गया और वे सारे लोग जो उसे सुन रहे थे, वे भी भूल गए। रात कोई ग्यारह बजे चर्चा पूरी हुई, फकीर उठ कर जाने लगा, तो उन लोगों ने कहा कि मित्र! तुमने ये बातें की और हम भूल गए, सांझ का भोजन का समय भी व्यतीत हो गया, अब क्या होगा? उस फकीर ने कहा, तो फिर मेरे साथ आओ। मेरे घर पर ही आज भोजन ले लेना। वे सारे लोग उस फकीर के साथ हो लिए।
जब फकीर गांव के बाहर अपने झोपड़े के बाहर पहुंचा, तो उसे खयाल आया कि उसके झोपड़े में इतने लोगों के खाने के लायक होगा भी क्या? और आज तो सुबह से वह कुछ भीख मांग कर भी नहीं लाया है, बड़ी मुश्किल हो गई, तो उसने लोगों को कहा कि मित्रों! तुम थोड़ा बाहर ठहरो, मैं जाऊं और अपनी पत्नी को जरा पूछ लूं कि क्या व्यवस्था हो सकती है?
वह भीतर गया, लोगों को बाहर दरवाजे पर छोड़ कर। पत्नी को उठाया और उसने कहाः आज तो घर में हमारे खाने को भी कुछ नहीं है, तुम सुबह से कुछ मांग कर लाए नहीं। और कल सांझ जो बचा था, वह तुमने बांट दिया। उस फकीर का नियम था, सुबह मांग लेना और सांझ बांट देना, जो बच जाए। रात निपट संपत्तिहीन होकर सो जाना। उसने कहा आज तो मैं भूखी बैठी हूं, तुम्हारी प्रतीक्षा थी, लेकिन तुम कुछ लाए नहीं। पच्चीस लोगों के लिए कैसी व्यवस्था हो सकती है आधी रात में? तो उस फकीर ने कहाः फिर क्या होगा? एक काम करो, जाओ उन लोगों से कह दो कि फकीर घर पर नहीं है। उसकी पत्नी ने कहा कि वो क्या कहेंगे? यह कैसे पागलपन की बात है? तुम उन्हें साथ लाए हो, और मैं उन्हें जाकर कह दूं कि फकीर घर पर नहीं है! उसने कहा फिलहाल जाओ और कहो।
वह पत्नी बाहर गई, सर्व सीधी स्त्री थी, उसने जाकर उन लोगों से पूछाः कैसे आप लोग आए हैं? उन्होंने कहाः हमें तुम्हारे पति लाए हैं, निमंत्रण देकर भोजन के लिएः उसने कहाः कैसी बात करते हो? वे तो सुबह से गए अभी तक लौटे नहीं, वे घर पर नहीं हैं। उन लोगों ने कहाः यह कैसी मजाक है, वे हमारे साथ आए हैं, और अभी भीतर गए हैं। और वे विवाद करने लगे, और वह फकीर भीतर छिपा हुआ सुनता रहा, जब उसके सुनने की सामथ्र्य के बाहर बात हो गई, तो उसने छप्पर में से सिर निकाला, उसने कहा कि महानुभव क्यों व्यर्थ की बकवास कर रहे हो, क्यों विवाद कर रहे हो? यह भी हो सकता कि फकीर तुम्हारे साथ आया हो, फिर पीछे के रास्ते से कहीं चला गया हो। उसने कहा यह हो सकता है कि फकीर तुम्हारे साथ आया हो, और फिर पीछे के रास्ते से कहीं चला गया हो, यह भी तो हो सकता है, विवाद की क्या जरूरत है?
उन लोगों ने कहाः गजब आश्चर्य कर रहेे हो, खुद कह रहे हो कि तुम घर पर नहीं हो? उसने कहा हां मैं कहता हूं कि मैं घर पर नहीं हूं, और वापस लौट जाओ। उन लोगों ने कहा हम कैसे इसे माने? क्योंकि तुम जब खुद कहते हो कि मैं घर पर नहीं हूं, तो तुम्हारे होने का प्रमाण मिल जाता है।
लेकिन हम सारे लोग यह कह रहे हैं कि हम घर पर नहीं हैं। हम पूरे जीवन यह कह रहे हैं कि हम घर पर नहीं हैं। हम सुबह से सांझ तक यह कह रहे हैं कि हम घर पर नहीं हैं। और हमें उस फकीर की बात में तो पागलपन दिखाई पड़ सकता है, हमारी बात में हमें दिखाई नहीं पड़ता। सुबह से लेकर सांझ तक आप क्या कर रहे हैं? आप यह इनकार कर रहे हैं कि आप घर पर नहीं हैं। चैबीस घंटे आपके सारे विचार, आपकी सारी वासनाएं, आपकी सारी इच्छाएं, आपके सारे काम इस बात को इनकार कर रहे हैं कि भीतर कोई आत्मा है। भीतर कोई है, इस बात की इनकारी चल रही है। क्योंकि अगर भीतर आत्मा का बोध हो, अगर भीतर स्वयं के होने का पता हो, तो जीवन बिलकुल दूसरा हो जाएगा, यह नहीं हो सकता, जो है। जिस आदमी को यह पता हो कि उसके पास बहुत संपत्ति है, वह रास्तों पर भीख मांगता हुआ मिलेगा? और अगर वह रास्तों पर भीख मांगता हुआ मिले, तो इस बात का प्रमाण होगा कि उसे पता नहीं कि उसके घर पर संपत्ति है। लेकिन हम सारे लोग मांगते हुए खड़े हैं। और यह सिवाय इसके क्या प्रमाण हो सकता है कि भीतर हमारे उस मालिक का, उस बादशाह का, उस परमात्मा का, उस सत्ता का हमें कोई बोध न हो, जिसे कुछ भी मांगने की जरूरत नहीं है, जिसे कुछ भीख मांगने की जरूरत नहीं है। और हम सारी कामनाओं और वासनाओं में जिसकी आकांक्षा कर रहे हैं, वह इस बात का प्रमाण है कि हमें पता नहीं है कि हमारे भीतर कोई है, जिसकी कोई कामना नहीं है, जिसकी कोई आकांक्षा नहीं है। हम अशांत हैं, यह इस बात की सूचना है कि हमें उसका पता नहीं है, जो कि भीतर परम शांति में निरंतर विराजमान है। हम दुखी हैं और पीड़ित हैं, क्योंकि भीतर जो आनंद जिसका स्वरूप है, उसकी हमें कोई खबर नहीं है। हममें में से प्रत्येक अपने जीवन भर स्वयं को अस्वीकार करता है, इनकार करता है। अपने सारे कामों से, अपने सारे विचारों से, स्वयं को असिद्ध करता है। इस तरह स्वयं को असिद्ध करने को मैं अधर्म कहता हूं। और जो व्यक्ति अपने जीवन में, अपने विचार में, अपने आचरण में,अपनी कामनाओं में, अपनी इच्छाओं में स्वयं को सिद्ध करने की ओर प्रविष्ट होने लगता है, उस व्यक्ति को मैं धार्मिक कहता हूं, उस व्यक्ति की जीवनचर्या को उस व्यक्ति की जीवन दिशा को मैं धर्म कहता हूं। स्वयं के बोध के प्रति हमारी जो दिशा है, और जो क्रांति है, और जो गति है, वह धर्म है।
हम स्वयं को अस्वीकार क्यों कर रहे हैं? और हम स्वयं को कैसे स्वीकार कर सकते हैं? इस संबंध में ही मैं सारी बातें इन तीन दिनों में आपसे कहना चाहूंगा। पहली बात तो यही कहना चाहता हूं कि इस बात का बोध, इस बात का खयाल पैदा होना चाहिए कि मैं...मैं ही हूं। हम सब स्वीकार करते हैं, यह दीवाल है, यह मकान है, ये रास्ते हैं, ये चारों तरफ घेरे हुए लोग हैं, इन सबको हम स्वीकार करते हैं, ये हैं। लेकिन हम अपने को, और इधर पीछे विचार के कुछ पंथों ने, परंपराओं ने कहना शुुरू किया, मनुष्य के भीतर कोई आत्मा नहीं है। मनुष्य केवल शरीर है और पदार्थ का जोड़ है। और अणुओं का संग्रह है। और बिखर जाने पर उसमें कुछ शेष नहीं रह जाएगा। इधर यह कहना शुरू किया, यह कहना तो अभी नया-नया शुरू किया लेकिन हम सारे लोग करीब-करीब इसे मानते हैं। कहीं हमारे भीतर हमें अपने होने का पृथक बोध नहीं होता।
यह संभव है ईश्वर न हो। यह हो सकता है ईश्वर हमारी कल्पना हो। यह संभव है, कोई मोक्ष न हो, यह संभव है कि कोई स्वर्ग और नरक न हों, यह भी संभव है कि यह बाहर जो दुनिया दिखाई पड़ती है, यह भी न हो, यह भी संभव है कि मैं यहां बैठा हूं , और आप सब यहां कोई भी न हों, मैं केवल सपना देखता हूं। लेकिन यह संभव नहीं है कि मैं न हूं। मेरे लिए इस सारे जगत में मेरे अतिरिक्त और कोई बहुत प्रमाणिक सत्ता नहीं है, और न किसी दूसरे के लिए हो सकती है! क्या कभी आपने विचार किया है, रात जब सो जाते हैं, तो दिन में जो जगत देखा था, वह असत्य हो जाता है। स्वप्न में उसका कोई पता भी नहीं रह जाता, गहरी निद्रा में उसका कोई बोध भी नहीं रह जाता। स्वयं को आपने जागरण में माना हुआ है, धनी हैं या दरिद्र हैं, पद पर हैं या पदहीन हैं, बहुत प्रतिष्ठित हैं या बहुत अपमानित हैं, बहुत बड़े भवनों में हैं, या झोपड़ों में हैं, या सड़क पर पड़े हैं; रात नींद में सब विलीन हो जाता है। आप जागने में जो भी जानते हैं, वह सब विलीन हो जाता है। सपने में जो आप जानते हैं, वही मालूम होने लगता है, कि सत्य है। सपने में किसी को ज्ञात नहीं होता कि वह जो देख रहा है, वह सपना है, झूठ है। सपने में ज्ञात होता है, जो दिखाई पड़ रहा है, सत्य है।
मन की हमारी कुछ ऐसी पकड़ है कि जो दिखाई पड़ता है उसी को सत्य मान लेता है। जो दिखाई पड़ता है उसी को सत्य मान लेता है। सपने में सपने को ही सत्य मान लेता है। तो जो मन सपने को सत्य मान लेता हो, वह मन अगर इस दुनिया को सत्य मान रहा हो, तो कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन हो सकता है, जैसे सपना झूठा है, वैसे यह दुनिया भी झूठी हो। लेकिन एक बात तय है कि सपना चाहे झूठा हो, सपने को देखने वाला झूठा नहीं होता। नहीं तो सपना कौन देखेगा?सपना भले ही असत्य हो, लेकिन सपने को जो देखता है, वह सत्य होता है। यह हो सकता है कि ए दुनिया जो मैं देख रहा हूं, असत्य हो; लेकिन मैं असत्य नहीं हो सकता। एक ही चीज है जो असत्य नहीं हो सकती, वह मेरी सत्ता है।
च्वांगत्सु का नाम शायद आपने कभी सुना हो, चीन में एक अदभुत विचारक हुआ। उसने एक रात सपना देखा कि वह सपने में तितली हो गया है। और बगिया में घूम रहा है, फूलों पर डोल रहा है। सुबह वह उठा तो बहुत उदास बैठा हुआ था। उसके शिष्यों ने पूछाः आज आप उदास क्यों हैं? उसने कहा मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, एक बड़ी उलझन में पड़ गया हूं; रात मैंने सपना देखा मैं तितली हो गया हूं, अब मुझे यह शक पैदा हो रहा है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि तितली सपना देख रही हो कि च्वांगत्सु हो गई है? यह भी हो सकता है। अगर च्वांगत्सु यह सपना देख सकता है कि तितली हो गया, तो तितली भी यह सपना देख सकती है कि च्वांगत्सु हो गई। उसके बाद तीस साल तक वह जिंदा रहा, मरते वक्त भी उसने कहा कि तीस साल हो गए, यह मामला सुलझता नहीं कि मैंने सपना देखा था, तितली होने का, या तितली मेरे होने का सपना देख रही है?
अगर सपने में आप असत्य दुनिया को सत्य मान सकते हैं, कोई भी वजह नहीं है कि जो दुनिया आप सत्य मान रहे हों, वह भी असत्य हो। यह मैं नहीं कहता कि वह असत्य है, संदिग्ध है। जो हम जान रहे हैं, वह संदिग्ध है। जो भी हम जान सकते हैं, संदिग्ध होगा, वह कभी असंदिग्ध नहीं हो सकता। कोई आंख, कोई कान कभी असंदिग्ध जगत को नहीं देख सकते। इंद्रियों से जो भी जाना जा सकता है, वह संदिग्ध होगा और काम चलाऊ होगा। यही वजह है कि विज्ञान या साइंस की सारी खोजें कामचलाऊ हैं, वे सभी संदिग्ध हैं, और दूसरी बात मिल जाती है, तो पहली बात गलत हो जाती है। न्यूटन गलत हो जाता हो, तो आइंस्टीन आ जाए, कोई आएगा, आइंस्टीन गलत हो जाएगा। संदिग्ध को हम पकड़ लेते हैं, इतनी देर तक काम देता है, फिर कुछ और ज्यादा काम देने वाली बात मिल जाती है, उसको पकड़ लेते हैं, वही सत्य हो जाती है। विज्ञान कभी असंदिग्ध सत्य पर नहीं पहुंच सकता है। क्योंकि उसका संबंध उस दुनिया से है, जो देखी जाती है, सुनी जाती है। इंद्रियों के द्वारा पकड़े जाने वाली दुनिया पर हम कभी असंदिग्ध नहीं हो सकते, कभी वह इंडिविटेबल नहीं हो सकता। कभी ऐसा नहीं हो सकता कि उस पर शक न किया जा सके, संदेह न किया जा सके। लेकिन एक तथ्य हमारे भीतर है, जो असंदिग्ध है, और असंदिग्ध है, और असंदिग्ध हो सकता है। और वह तथ्य हमारी सत्ता है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो उसकी चेतना है, उसके अतिरिक्त इस जगत में और कुछ भी असंदिग्ध नहीं हो सकता। लेकिन हम इस संदिग्ध दुनिया पर अपने सारे जीवन का भवन खड़ा करते हैं। यह रेत पर भवन खड़ा करने जैसा है। यह ताश के महल बनाने जैसा है। जिसकी नींव ही संदिग्ध हो, उस पर कुछ खड़ा करना केवल पागलपन है। लेकिन हम सारे लोग उस पर ही खड़ा करते रहते हैं। नींव को भूल जाते हैं, क्योंकि नींव को अगर विचार करेंगे तो भवन को खड़ा करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए नींव की बात ही भूल जाते हैं। नींव संदिग्ध है, तो भवन असंदिग्ध नहीं हो सकता। और नींव अगर सपना है, तो भवन सत्य नहीं हो सकता। लेकिन हम सारा इस खेल में ही हमारा जीवन व्यतीत होता है। एक छोटी सी बहुत पुरानी पौराणिक कथा है।
बिलकुल ही असत्य होगी। नारद, नारायण को पूछे कि मैं सुनता हूं कि कुछ लोग हैं, जो कहते हैं जगत माया है। और जगत असत्य है, मेरी समझ में नहीं आता कि यह माया क्या है? यह असत्य होना क्या है, यह इलूजन क्या है, यह भ्रम क्या है? तब उस समय दोपहर की एक तेज धूप से भरे हुए दिन में नारायण और नारद एक घने वृक्ष की छाया में बैठे थे। नारायण ने कहा, फिर तुम्हें बताऊंगा मुझे प्यास लगी है, तुम थोड़ा पानी ले आओ। धूप थी तेज इसलिए नारद एकदम उठ कर न गए, ठंडी थी छाया वृक्ष की, थोड़ी देर बाद गए। गांव में पहुंचे, एक दरवाजे पर जाकर दस्तक दी, एक युवती ने द्वार खोला ब्राह्मण का घर था; बहुत सुंदर उसकी लड़की थी। नारद ने उसको देखा, उनका मन बहुत-बहुत तीव्र आकर्षण अनुभव किया। उन्होंने कहा कि मुझे पानी चाहिए। नारद ने कहाः मुझे पानी चाहिए, मेरे मित्र प्यासे बैठे हैं। उस युवती ने कहा भीतर आएं, धूप में बाहर खड़े न हों, पानी लें, खुद पानी पीएं, लेकिन खाली पानी कैसे दूं? कुछ थोड़ा सा खा लें, फिर पानी लें। नारद भीतर गए, उस युवती ने उन्हें भोजन कराया, पानी दिया, और उस बीच उनका मन उससे बहुत आकर्षित हुआ, और उसकी सेवा और उसके प्रेम से प्रभावित हुआ; और उसका पिता आया और नारद ने कहा कि क्या युवती अविवाहित है? मैं अपना हाथ बढ़ाता हूं, मैं इससे विवाह करना चाहता हूं। और वे विवाहित हुए, और उस घर में रहे और भूल गए कि नारायण के लिए पानी लेने आए थे।
दिन बीते, माह बीते और वर्ष बीते और उनके बच्चे थे, और बच्चे हुए। कोई बारह वर्ष बीते। और फिर गांव में बहुत जोर से वर्षा हुई, और गांव की जो नदी थी उसमें बहुत पूर आया, सारा गांव डूब गया, घर द्वार बहने लगे, नारद अपनी पत्नी को, अपने तीन बच्चों को लेकर गांव से बाहर निकलने की चेष्टा किए; जोर का पूर था, पानी था तेज, पहले उनका एक बच्चा बहा, उसको बचाने को गए तो दो बच्चे और छूट गए, उनको बचाने को गए तो पत्नी भी बह गई, वे रोते और चिल्लाते नदी पार किए, बेहोश होकर गिर पड़े, सारा घर, सारा परिवार नष्ट हो गया था। वे बेहोश पड़े थे, तब किसी ने उन्हें उठाया और कहा कि नारद, उठो। कितनी देर हो गई, मैंने तुमसे कहा कि पानी ले आओ, और लेकिन तुम हो कि सो ही गए।
ठंडी हवा थी, शीतल छाया थी, नारद की नींद लग गई थी, और यह सारा सपना उन्होंने देखा। नारायण ने कहाः कुछ समझे? नारद ने कहाः सब समझ गया। मेरा तो यहां सब बना और सब मिट गया, और थोड़े ही क्षणों में बारह वर्ष की जीवन कथा मेरी व्यतीत हुई। नारायण ने कहा इससे ज्यादा और कुछ संसार नहीं है। और जो उसे माया कहते हैं, इस वजह से माया कहते हैं। वह हमारी कामनाओं का प्रतिफलन है। और हमारी इच्छाओं का बहुत घना रूप है, और हमारे मन का सपना देखने की बड़ी तीव्र आकांक्षा का प्रतिफलन है, उसका प्रक्षेपण है।
यह हमें लगता है कि यह कैसे हो सकता है कि नारद थोड़े से क्षण को सोए और बाहर वर्ष बीत गए? आपने सपने में देखा होगा, थोड़ी देर में वर्षों का सपना आप देख सकते हैं। थोड़ी देर में वर्ष बीत सकते हैं, सपने में। यह जो हमारा समय है, यह जो हमारी कल्पना है, वह सपने में प्रगाढ़ हो सकती है। लेकिन जाग कर पाया जाता है कि सब सपना था। जो लोग इस जीवन से भी जागे हैं, उन्होंने भी इसे सपने से ज्यादा नहीं पाया है। जो सोए हैं उन्हें सत्य है, जो जाग जाते हैं उन्हें असत्य हो जाता है। सोने में ही संसार की सच्चाई है, जो जाग जाता है उसे संसार सत्य नहीं मालूम होता। ऐसा अर्थ नहीं है कि दीवालें मिट जाती हैं, और रास्ते मिट जाते हैं, और लोग मिट जाते हैं; अर्थ है कि संसार के प्रति जो हमारा मूल्यांकन है, संसार को देखने की हमारी जो धारणा है, संसार को सत्य मान कर, सब कुछ मान कर उसके केंद्र पर जीने की जो कल्पना है, वह व्यर्थ हो जाती है, और ज्ञात होता है कि हम कुछ ऐसी जगह भवन बना रहे थे, जहां कोई बुनियाद नहीं थी, और हम कहीं हवा के घर बनाने में तल्लीन थे। लेकिन इस सारी समृद्ध दुनिया के बीच, इन सारे सपनों के बीच कुछ एक सत्य भी है। और वह स्वयं की सत्ता है। बाहर की सारी दुनिया उस अर्थ में सत्य नहीं है, जिस अर्थ में स्वयं का होना सत्य है। वह हमारी निकटतम सच्चाई है। उससे निकट हमारे और कोई भी नहीं है। वही हम हैं, उसे छोड़ कर हम सब खो चुके हैं। यह पागलपन है। उसे छोड़ कर हम सबकी तलाश करते हैं, अंत में हम पाएंगे हमारे हाथ खाली हैं और कुछ भी हमने नहीं पाया है। उसे छोड़ कर हम जो भी बनाएंगे, हम पाएंगे कि वह बना हुआ सब गिर गया है और धूल-धूसरित हो गया है। उसे छोड़ कर हम जो भी पा लेंगे, आखिर में हम पाएंगे, वह पाने का भ्रम है, और उपलब्धि कुछ भी नहीं हैं।
इसलिए मैंने कहा कि पहली बात, पहला आधार जीवन को सत्य की ओर ले जाने का स्वयं की सत्ता है। मुझे किसी न किसी रूप में स्वयं की सत्ता के प्रति जागना होगा। अगर मैं चाहता हूं कि मैं जीवन की सच्चाई को जानूं, अगर मैं चाहता हूं कि मुझे आनंद, आलोक उपलब्ध हो, अगर मैं चाहता हूं अंधकार...होने की कोई गुंजाइश नहीं है। शेष सब असत्य हो सकता है, शेष सब व्यर्थ हो सकता है, शेष सब अर्थहीन हो सकता है, शेष सब सपना हो सकता है; लेकिन कुछ है, जो सपना नहीं है। सपने को देखने वाला सपना नहीं है। सपने के बीच घिरा हुआ सत्य है। तो मैं सत्य की क्या परिभाषा करता हूं? सपना मैं उसे कहता हूं जो दिखाई पड़ता है, सत्य मैं उसे कहता हूं, जो देखता है। सपना मैं उसे कहता हूं जो बाहर है, सत्य मैं उसे कहता हूं जो भीतर है। सपना मैं उसे कहता हूं , जो स्वयं से अन्य है, सत्य उसे कहता हूं जो स्वयं की सत्ता है।
इस स्वयं की सत्ता का बोध इसका विचार, इस दिशा में प्राणों की अभीप्सा और प्यास जगनी चाहिए।
मैं देखता हूं अगर आपकी कल्पना में, आपके विचार में, आपकी दृष्टि में कभी खयाल भी उठे कि हम आनंद को कैसे पाएं, सत्य को कैसे पाएं? तो भी आप कहीं और खोजेंगे, स्वयं को छोड़ कर; कोई शास्त्र में खोजने चला जाएगा, कोई संसार को छोड़ कर संन्यास में खोजने चला जाएगा। यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि जो लोग इस पूरे संसार को असत्य कहने में समर्थ हैं, वे लोग फिर भी संसार को छोड़ कर संन्यास खोजने की चेष्टा करते हैं। अगर यह पूरा संसार असत्य है, तो सन्यास कैसे सत्य होगा? अगर यह घर-द्वार असत्य हैं तो इनको छोड़ना कैसे सत्य हो जाएगा? अगर धन असत्य है, तो धन का त्याग कैसे सत्य हो जाएगा? अगर धन असत्य है, तो धन का त्याग तो और भी असत्य होगा। क्योंकि वह असत्य का भी असत्य, उसकी भी छाया होगी। अगर एक आदमी कहता हो कि जो रात भूत दिखाई पड़ते हैं, वे असत्य हैं, इसलिए उनसे भागो, तो हम कहेंगे तुम्हारा मस्तिष्क दुरुस्त है या गड़बड़ है? अगर भूत असत्य हैं, तो भागने का कहां कौन कारण है? जो भूत को देख कर भागता है, वह भूत को सत्य ही मानता होगा। संसार को देख कर भागने वाला उतना ही संसार को मानता है, जितना संसार को पाने की इच्छा से लालायित मन। इन दोनों के मानने में कोई भेद नहीं है, ये दोनों संसार के सत्य को मानते हैं। कि संसार कुछ है। कोई कपड़ों को मानता है, तो अच्छे से अच्छे कपड़ों को खोजता है, वह भी कपड़ों को मानता है, जो कपड़ों को छोड़ने की कोशिश करता है। और वहां खोजता है।
कोई व्यक्ति जब सत्य के प्रति उत्सुक होता है, तो एक नई भ्रांति पैदा होती है, वह भ्रांति होती है, वह संसार को छोड़े और संन्यास को पकड़े। मैंने कहा आपसे, जो भी दिखाई पड़ता है, वह असत्य है, संसार भी असत्य है और संसार में ग्रहण किया गया, संन्यास भी असत्य है। जो देखता है और जानता है वह सत्य है, जो संसार को भी देखता है वह सत्य है और जो संन्यास को भी देखता है, सत्य है। वह देखने वाली जो हमारे भीतर एक सत्ता है, वह जो सारे अनुभव को अनुभव करने वाला, हमारे प्राणों का केंद्र है, उस केंद्र को जब तक कोई नहीं पकड़ता और नहीं पहुंचता, तब तक वह विकल्पों को बदलेगा। कपड़े बदल सकता है, भोजन बदल सकता है, घर-द्वार बदल सकता है और इस भ्रम में होगा कि मैं सत्य की ओर जा रहा हूं, लेकिन वह सत्य की ओर नहीं जा रहा, वह असत्य से असत्य को बदल रहा है। वह नया सब्स्टीट्यूट खोज रहा है। वह नई पूर्ति कर रहा है, एक नये असत्य को पकड़ रहा है, एक नया सपना देख रहा है। एक सपना उसने देखा कि बड़े भवन में रहे, एक सपना उसने देखा कि पत्नी-बच्चे मेरे हैं; अब वह एक दूसरा सपना देख रहा है कि न भवन मेरा है, न पत्नी-बच्चे मेरे हैं, मैं तो संन्यासी हूं। अब वह दूसरा सपना देखता है।
सपने से जागना बड़ी दूसरी बात है, सपने से जागने का अर्थ है कि अब हम अपना तादात्म्य, अपनी आइडेंटिटी, किसी से भी नहीं कर रहे, जो भी दिखाई पड़ता है रूप, जो भी दिखाई पड़ती हैं आकृतियां, जो भी दृष्टि में आता है जगत, अब उसमें हम कहीं भी अपना कोई संबंध नहीं खोज रहे; हम उसकी तरफ जा रहे हैं, जो सबको देख रहा है और सबके पीछे खड़ा है। उस साक्षी की तरफ हमारी गति हो रही है, हम उस प्राणों के मूल बिंदु को पकड़ रहे हैं, जो केंद्र में है, और परिधि पर हम कोई परिवर्तन नहीं कर रहे हैं। संन्यास और संसार दोनों परिधि पर हैं। जो दोनेां से पीछे हटता है, और उसको पकड़ा है, जो संन्यासी हो सकता है या संन्यासी हो सकता है, जो संसारी हो सकता है, या संन्यासी हो सकता है। जो भोगी हो सकता है या त्यागी हो सकता है। उस बीच के बिंदु को जो पकड़ रहे हैं, जो दोनों के बीच में खड़ा है, और कभी भोगी बन जाता है और कभी त्यागी बन जाता है, वह कौन है? सवाल यह नहीं है कि भोग छोड़ कर कोई त्याग में चला जाए, सवाल यह है कि वह कौन है, जो भोग में होता है या त्याग में होता है? वह कौन है, जो मकान में रहता है या मकान छोड़ देता है? वह कौन है, जो वस्त्र पहनता है, या नग्न हो जाता है? वह कौन है सत्ता हमारे भीतर? उस बिंदु को उस केंद्र को पकड़ना, स्वयं को पकड़ना है, और उसे छोड़ कर हम जो भी करेंगे उससे हम केवल सपने बदल लेंगे। सपने कभी सुखद भी हो सकते हैं, सपने दुखद भी हो सकते हैं। न तो सुखद होने से सपना कोई सत्य हो जाता है, न दुखद होने से असत्य हो जाता है। यह हो सकता है कि एक संसारी दुखी हो और एक सन्यासी सुखी हो जाए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सपने भी सुखद हो सकते हैं, और होते हैं। और खतरा यही है कि दुखद सपनों को छोड़ना तो बहुत आसान होता है, सुखद सपनों को छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है। सुख देता है इसलिए छोड़ना मुश्किल हो जाता है। इसलिए संसार क ो छोड़ देना बहुत आसान है, संन्यास को छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है। और जो संसार को छोड़ कर गया है, और फिर सन्यास को छोड़ने में असमर्थ है, वह स्वयं से वंचित हो जाता है। वह स्वयं को पाने में समर्थ नहीं हो पाता।
संसार को छोड़ें और सन्यास को भी छोड़ें। छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि उनसे भाग जाएं, छोड़ने का अर्थ कि उसे देखें, जो दोनों के पीछे है, और जिसे कभी भी नहीं छोड़ा जा सकता, जो हमेशा आपके साथ है। मैं चाहे वेश्यालय में चला जाऊं तो मेरे साथ में मैं हूं, और चाहे मैं भगवान के मंदिर में चला जाऊं तो मेरे साथ में हूं। वेश्यालय भी बाहर है और भगवान का मंदिर भी बाहर है, मैं चाहे नरक में चला जाऊं , तो भी साथ रहूंगा अपने और चाहे मैं मोक्ष में चला जाऊं , तो भी मैं साथ रहूंगा अपने। मोक्ष का भी कोई मूल्य नहीं है और नरक का भी कोई मूल्य नहीं है, वेश्यालय का भी मूल्य नहीं, मंदिर का भी मूल्य नहीं; मूल्य तो उसका है, जो सदा मेरे साथ है और जिसे छोड़ा नहीं जा सकता। उसे जानना आत्मा को जानना है। उसे पहचानना स्वयं को पहचानना है। लेकिन हम बाहर के मकान बदलते रहते हैं, दुकान से ऊब जाता है मन, तो मंदिर को पहुंच जाते हैं। खाता-बही से ऊब जाता है मन, दफ्तर की किताबों से ऊब जाता है, तो गीता, रामायण और बाइबिल को खोजने लगते हैं। लेकिन गीता, रामायण, बाइबिल भी उतनी ही बाहर हैं, जितने कि आपके दफ्तर के रजिस्टर आपसे बाहर हैं। कोई बहुत भेद नहीं है, रजिस्टर को पढ़ते वक्त आप एक सपना देख रहे हैं, बाइबिल को पढ़ते वक्त, गीता को पढ़ते वक्त दूसरा सपना देख रहे हैं। दोनों हालत में आप अपने बाहर देख रहे हैं। वेश्यालय में गए हैं, तब एक सपना देख रहे हैं, मंदिर में गए हैं, तब दूसरा सपना देख रहे हैं; दोनों स्थितियों में अपने बाहर देख रहे हैं।
स्वयं को देखना है। और स्वयं को देखना बड़ी दूसरी बात है, बड़ी क्रांति की बात है। स्वयं को देखने का अर्थ है कि मैं दृष्टि को दृश्य से खाली कर लूं, जो भी दिखाई पड़ता है, उसे छोड़ दूं, क्योंकि जब तक कुछ मुझे दिखाई पड़ता रहेगा, तब मेरा मन बाहर है, किसी न किसी चीज को पकड़े रहेगा और अटका रहेगा। तब तक मैं स्वयं को नहीं पा सकूंगा। दृश्य खाली हो जाए, और दृष्टि शून्य हो जाए तो स्वयं के दर्शन शुरू होते हैं। उसका मैं विचार करूंगा कि कैसे स्वयं के दर्शन हो सकते हैं? कैसे दृष्टि खाली हो सकती है? कैसे हम उपलब्ध हो सकते हैं, उसे जो कि सत्य है? लेकिन उसके पहले आज तो इसी बात पर आपसे कहना चाहता हूं कि आपके खयाल में कहीं यह आघात पड़ ही जाना चाहिए कि जिसे हम जीवन मानकर चल रहे हैं, वह स्वयं से पलायन है, अपने से भागते जाना है। लेकिन अपने से भागकर जाइएगा कहां? कोई अपने से भाग सकता है? चाहे कितनी ही संपत्ति उपलब्ध हो जाए, तो भी अपने से भाग नहीं सकते, और चाहे कितना ही बड़ा पद उपलब्ध हो जाए, तो भी अपने से भाग नहीं सकते। चाहे कहीं भी पहुंच जाएं, अपने से भाग नहीं सकते। अपने से भागना असंभव है, यह एस्केप संभव नहीं है।यह पलायन संभव नहीं है। हम भुला सकते हैं, अपने को; लेकिन अपने से भाग नहीं सकते, अपने से बच नहीं सकते। कैसे कोई अपने से बचेगा? क्या यह संभव है? लेकिन हमारी सारी चेष्टाएं इसी तरफ लगी हैं। हम अपने को भूलने में लगे हैं। अगर आधुनिक मनुष्य के मन का विश्लेषण हो, तो एक ही बात दिखाई पड़ेगी कि हर व्यक्ति अपने को भूलने में लगा है। चैबीस घंटे हम अपने को भूलने में लगे हैं। हम अपने से बचना चाहते हैं। किसी और में अपने को भुला लेना चाहते हैं। कोई संगीत में भुलाता होगा, कोई संपत्ति में भुलाता होगा, कोई साहित्य में भुलाता होगा, कोई शक्ति की खेाज में, पद की खोज में, अधिकार की खोज में भुलाता होगा। राजनीति किसी का नशा होगी, धर्म किसी का नशा होगा, साहित्य किसी का नशा होगा, धर्म किसी का नशा होगा, हम अपने को भुलाए रखना चाहते हैं, जो चीज भी हमें अपने से बचा ले, हम उसी की तलाश में लग जाते हैं। हर आदमी लगा हुआ है। लेकिन मौत सबके निकट है। और सारे पलायन, और सारा भागना तोड़ देगी। और तब ज्ञात होगा हम अपने से वंचित ही रह गए हैं पूरे जीवन, हमने कभी कोशिश ही नहीं की, हमने कभी खोज ही नहीं की। अगर आपको थोड़ी देर अकेला छोड़ दिया जाए तो घबरा जाएंगे। मित्र चाहिए, क्यों? क्योंकि मित्र स्वयं को भूलने में सहायता कर देते हैं। अगर आपको अकेले जंगल में भेज दिया जाए, घबरा जाएंगे, बस्ती की तरफ भागेंगे। क्यों? क्योंकि भीड़-भाड़ में अपने को खोना आसान है। हर आदमी भीड़ की तरफ भाग रहा है, जहां भीड़ है, वहां आप जा रहे हैं। जहां आप अकेले रह जाएंगे, वहंा कोई भी नहीं जा रहा है। और जो अकेले होने की तरफ नहीं जा रहा है, वह व्यक्ति स्वयं को कैसे जानेगा? और जो सभ्यता भीड़ की तरफ बढ़ती जा रही है, वह सभ्यता आत्मा से वंचित हो जाएगी। वह सभ्यता आत्मा को नहीं जान पाएगी। हम सब भीड़ से घिरते जा रहे हैं।और एकांत में और अकेले में होना घबड़ाहट देने लगा है। कोई अकेला नहीं होना चाहता।
आप अकेले होना चाहते हैं? अपने से पूछें। किसी शांत क्षण में अपने से पूछें, क्या मैं अकेला होना चाहता हूं? क्या मैं अकेला रह सकूंगा? क्या मैं अकेला जी सकता हूं? और अगर नकारात्मक उत्तर आए, और अगर भीतर से खबर आए कि अकेले तो नहीं हो सकते, अकेले तो नहीं जी सकते, तो फिर स्मरण रखें, कभी सत्य का आपको अनुभव नहीं हो सकता है। सत्य का अनुभव भीड़ में नहीं अकेले में है। सत्य का अनुभव दूसरे लोगों में नहीं, स्वयं में है। और अगर आप अकेले नहीं हो सकते तो आप सत्य से विपरीत दिशा में जा रहे हैं। स्वयं से विपरीत दिशा में जा रहे हैं।
जर्मनी में एक फकीर था, इकहार्ट। एक दूर जंगल में गया हुआ था,एक झाड़ के नीचे अकेला बैठा था। कुछ और लोग भी शिकार को जंगल गए थे। उन्होंने देखा गांव का फकीर है, इकहार्ट अकेला बैठा है, सोचा कि ऐसा अकेले में उसे बुरा नहीं लग रहा होगा? सोचा अकेले में कैसा परेशान नहीं होता होगा? चलें और उसे साथ दें। वे उसके पास गए और उन्होंने उससे कहाः इकहार्ट, सोचा हमने, अकेले बैठे हो, घबड़ा गए होओगे, ऊब गए होओगे। कोई पास नहीं बिलकुल अकेले बैठे हो, कैसी परेशानी नहीं मालूम होती होगी? यह सोच कर हम आए कि चलो तुम्हें साथ दें। इकहार्ट ने आंखें खोलीं और उसने कहाः मित्रो, तुम्हारी बड़ी कृपा है, लेकिन इतनी देर मैं अपने साथ था, तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया।
हममें से कोई भी अपने साथ नहीं होना चाहता है। हम हमेशा किसी और के साथ होना चाहते हैं। और उसको हम मैत्री का नाम देते हैं और प्रेम का नाम देते हैं। समाज का नाम देते हैं, समूह का नाम देते हैं। ये सब नाम झूठे हैं। ये हमारी तरकीबें हैं स्वयं को भुलाने की। ये सब हमारे नशे हैं, ये सब इनटाॅक्सीकेंट हैं--चाहे हम प्रेम कहें, चाहे हम मित्रता कहें--ये सब नशे हैं, जिनमें हम अपने को डुबाना चाहते हैं। उस शराबी के तो हम विरोध में हैं जो सड़क पर नशा करके पड़ा हुआ है। सारी दुनिया में लोग विचार करते हैं कि शराब बंद हो जानी चाहिए। सारी दुनिया में लोग विचार करते हैं कि शराब पीने को नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन क्या आपको पता है कि हमने कितनी-कितनी तरह की शराबें ईजाद कर ली हैं, जिनमें अपने को भुलाने का उपाय है। जहां भी आप अपने को भुलाते हैं, वहीं शराब है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक आदमी रेडियो खोल कर बैठा हुआ है, एक आदमी सिनेमा में बैठा हुआ है,एक आदमी मित्रों के बीच बैठा हुआ है, एक आदमी ताश खेल रहा है; एक आदमी अखबार पढ़ रहा है, एक आदमी चुनाव लड़ रहा है, एक आदमी कुछ और कर रहा है; कोई कुछ कर रहा है, ए सारी की सारी चेष्ठाएं हैं अपने को भूलने की, अपने से बचने की, अपने साथ से बचने की। और क्या कभी आपने सोचा कि जब आप अपने साथ रहने से डरते हैं, तो दूसरे आपके साथ रहने से परेशान ही होते होंगे। जब मैं अपने साथ नहीं रह सकता तो मेरे साथ जो भी रहेगा, उसको परेशानी ही दूंगा और क्या दूंगा। जब मैं खुद परेशान होता हूं अपने साथ, तो दूसरे लोग मेरे साथ कैसे आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे? लेकिन इस दुनिया में सारे लोग अपने साथ परेशान हैं और दूसरे के साथ शांति खोजना चाहते हैं, अजीब बात है! वे दूसरे लोग भी आपके साथ शांति खोजने को आए हुए हैं। मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो मैं उसमें शांति खोजना चाहता हूं, कोई मुझे प्रेम करने इसीलिए आया हुआ है कि मुझमें शांति खोज सके, भिखमंगे जैसे भिखमंगे के सामने खड़े होकर अपनी झोलियां फैला रहे हों। और तब अगर दुनिया बिल्कुल पागल हो जाए, और एक पागलखाना मालूम होने लगे तो इसमें आश्चर्य क्या है? जो व्यक्ति अपने साथ रहने में समर्थ नहीं है, उसने योग्यता खो दी किसी के भी साथ रहने के योग्य वह आदमी नहीं है। मैं फिर से दोहराता हूं, जो व्यक्ति अपने साथ रहने के योग्य नहीं है, उसने योग्यता खो दी, वह अब किसी के साथ रहने के योग्य नहीं है। जो अपना मित्र नहीं हो सकता, वह किसी का मित्र समर्थ नहीं है कि हो जाए। और जो अपने को प्रेम नहीं कर सकता, निपट अकेलेपन में वह किसी को भी प्रेम कैसे कर सकेगा?
लेकिन हम सारे लोग मित्र हैं, और सारे लोग एक-दूसरे को प्रेम कर रहे हैं। यह सब झूठे शब्द हैं, और हम प्रेम में नाम तो प्रेम का लेते हैं, और दूसरे की गर्दन पर हमारे हाथ कस जाते हैं। नाम तो हम प्रेम का लेते हैं। जरा आप खयाल करना, जिसको आप प्रेम करते हैं, उसकी गर्दन तो नहीं पकड़े हुए हैं? और जो आपको प्रेम करता है, अपनी गर्दन पर खयाल करना, वो आपकी गर्दन पकड़े हुए है। आप प्रेम कर ही नहीं सकते। जिनको आप कह रहे हैं कि हम मित्र हैं, बहुत विचार करना, आप ही उनके शत्रु होओगे। क्योंकि आप अपने ही साथ रहने में समर्थ नहीं हो। जो व्यक्ति अपनी निपट निजता में डरा हुआ है, घबराया हुआ है, भागता है, दूसरे में अपने को भुलाता है, वह व्यक्ति दुनिया में जहां भी होगा, वहीं उपद्रव होगा, वहीं गड़बड़ होगी, वहीं हिंसा होगी, वहीं घृणा होगी, वहीं क्रोध होगा; नाम प्रेम का होगा, भीतर घृणा होगी, क्रोध होगा, हिंसा होगी। नाम मित्रता का होगा, भीतर शत्रुता होगी। और कब एक-दूसरे की छाती में हम छुरा भोंक देंगे पता नहीं चलेगा।
यही वजह है, यही कारण है कि दुनिया रोज से रोज बदतर से बदतर होती जाती है। जिन राजनीतिज्ञों के हाथ में दुनिया की सत्ता है, राजनीति उनके लिए नशा है, इनटाॅक्सीकेंट है, वो घबड़ाए हुए हैं अपने से पद में और चुनाव में अपने को भुला लेते हैं। लेकिन ऐसे मूच्र्छित और पागलों के हाथ में दुनिया की सत्ता होगी, तो स्वाभाविक है कि युद्ध हो, हिंसा हो, विनाश हो और रोज, दुनिया में हत्या का नया से नया आयोजन होता रहे। यह बिलकुल स्वाभाविक है। ये मूच्र्छित और भागे हुए लोग हैं। आप शराबियों के हाथ में दुनिया की हुकूमत देना नहीं पसंद करोगे, लेकिन राजनीति एक बड़ा नशा है और शराब है। और उन शराबियों के हाथ में दुनिया भर की ताकत है। स्वाभाविक है कि दुनिया में उपद्रव हों। पचास साल नहीं बीत पाए कि दो महायुद्ध हो गए, तीसरे महायुद्ध की तैयारी है। स्वाभाविक है, पागलों के हाथ में सत्ता है। जो अकेले होने से डरे हुए हैं, और जो पद को पाना चाहते हैं उनके हाथ में ताकत है, और खतरनाक ताकत है। और ताकत रोज बढ़ती जाती है और पागलपन रोज बढ़ता जाता है, हम एक ज्वालामुखी पर बैठे हैं, जो कभी भी फूट सकता है। और इस सबके बुनियाद में, इस सबके बुनियाद में क्या है? इस सबके बुनियाद में एक छोटी सी बात है, जो खो गई है, अपने साथ होना, खो गया है।
पुरानी संस्कृतियां अपने साथ होने की किसी बुनियादी बात पर जोर देती थीं, वह विलीन हो गई। उसका हमें कोई विचार नहीं है। उसका हमें कोई खयाल नहीं है। आज तो मैं यही कहना चाहता हूं कि यह खयाल आपको पैदा हो कि क्या आप अकेला होना चाहते हैं, क्या अकेले होने की आकांक्षा आपके मन में कहीं है? क्या आप अपने को जानना चाहते हैं? क्या आप उस सत्य से परिचित होने के प्यासे हैं, जो आपके भीतर मौजूद है? हमेशा से मौजूद है। हमेशा मौजूद रहेगा, आप कितने ही भागें और कितने ही दौड़ें; उससे आप बच नहीं सकते। और वही अकेला सत्य है, जो वास्तविक है, और जिसपर कोई आधार रखे जा सकते हैं। और उससे ही हम भाग रहे हैं, जो हमारा है, उससे ही हम भाग रहे हैं और जो हमारा नहीं है, उसे हम पाना चाहते हैं।
जो हमारा है उससे हम बचना चाह रहे हैं, और जो हमारा नहीं है, उसे पाने की आकांक्षा में हम पागल हो गए हैं। यह पागल वृत्ति हमारे सबके मनों को पकड़े हुए है, धर्म को विचार को, दर्शन को, तत्वचिंतन को मैं इसी अर्थ में देखता और लेता हूं कि वह मनुष्य के भीतर अकेले होने की क्षमता पैदा कर दे। क्योंकि जो अकेला होता है, वही स्वतंत्र होता है। जो अकेला हो सकता है अपने भीतर इतना साहस इकट्ठा कर सकता है, अकेले होने का, जो अपने साथ हो सकता है, वह व्यक्ति हो जाता है। हम व्यक्ति नहीं है, वह इंडिविजुअल हो जाता है। हम इंडिविजुअल नहीं है, हम तो भीड़ के एक हिस्से हैं, हम तो भीड़ के एक बड़े हिस्से हैं। भीड़ हमसे कुछ भी करा ले सकती है, हमार अपना कोई निजी व्यक्तित्व थोड़े ही है।
हीथल ने एक सूत्र लिखा है, उसने लिखा है कि अगर यह बात पूरी हो जाए, तो सब पूरा हो जाए। उसने एक सूत्र लिखा हैः बी इंडिविजुअल। छोटी सी बात है। व्यक्ति हो जाओ। हमें लगेगा यह क्या खास बात हुई, हम सभी व्यक्ति हैं। आप कोई भी व्यक्ति नहीं हैं, व्यक्ति होना इस जगत में सबसे कठिन बात है। थोड़े से लोग व्यक्ति हो पाते हैं, बाकी लोग भीड़ के हिस्से होते हैं। भीड़ का हिस्सा, भीड़ जैसा चाहे आपसे करा ले। अगर हिंदुओं की भीड़ बिगड़ जाए, मुसलमानों पर, अगर आप हिंदू हैं तो उसी भीड़ में सम्मिलित हो जाएंगे। अगर मुसलमानों की भीड़ बिगड़ जाए हिंदुओं पर, अगर आप मुसलमान हैं तो उसी भीड़ में सम्मिलित हो जाएंगे, आप कोई व्यक्ति हैं? आपसे कोई भी मूर्खता कराई जा सकती है। बस भीड़ अगर करने को राजी हो जाए, तो आप भी राजी हो जाएंगे। अभी हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तो हिंदुओं ने मुसलमानों के साथ, मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ जो किया वह कोई व्यक्ति कर सकते हैं? अगर उन भीड़ के लोगों को अलग पकड़ लिया जाए, और उनसे पूछा जाए अकेले में तुमने जो किया क्या तुम अकेले करने को राजी हो सकते हो? तो वो राजी नहीं होंगे। वो कहेंगे, वो तो सब लोग कर रहे थे, इसलिए हमने भी किया। तो सारे लोग कर रहे थे, इसलिए हमने भी किया। आप खुद ही खयाल करो, बुराई, बड़ी से बड़ी बुराईयां दुनिया में भीड़ ने की हैं, अकेले व्यक्तियों ने नहीं की हैं। दुनिया में जितने बड़े उपद्रव, जितनी हिंसा, जितने युद्ध, जितनी अमानवीयता होती है, वह भीड़ से, क्राउड से होती है, इंडिविजुअल से, व्यक्ति से नहीं होती। और स्मरण रखो आप यह भी कि दुनिया में जो भी ऊंचाइयां हैं, जो भी श्रेष्टताएं हैं, जो सौंदर्य की या सत्य की या प्रेम की अनुभूतियां हैं, वह भीड़ की नहीं, व्यक्तियों की हैं, निपट अकेले व्यक्तियों की। दुनिया में जो भी श्रेष्ठ जन्म पाता है, वह व्यक्तियों से पाता है, और जो भी निकृष्ट जन्म पाता है, वह भीड़ से पाता है। अब तक दुनिया में महावीर की, या बुद्ध की, या क्राइस्ट की, या कृष्ण की अनुभूतियां कोई भीड़ की अनुभूतियां नहीं हैं कि किसी क्राउड ने की हों, किसी समूह ने और समाज ने की हों, निपट अकेले व्यक्तियों की अनुभूतियंा हैं। कोई बड़ा काव्य हो, कोई बड़ा गीत हो, कोई बड़ा संगीत हो, कोई बड़ा सत्य हो सब व्यक्तियों से पैदा होते हैं, भीड़ से कुछ पैदा नहीं होता। भीड़ एकदम सुंदर को, शिव को, सत्य को पैदा करने में असमर्थ है। लेकिन जो भी असत्य, जो भी हिंसा, जो भी युद्ध, जो भी बुराई पेदा होती है, वह भीड़ से पैदा होती है। और हम सब भीड़ के हिस्से हैं क्योंकि हम व्यक्ति नहीं हैं, हम अपने साथ होेने से डरे हैं, इसलिए हम दूसरों के साथ खड़े हो जाते हैं। सारे लोग डरे हुए हैं, इसलिए सारे लोग खड़े हो जाते हैं। दुनिया पागलखाना बनती जाती है, क्योंकि दुनिया भीड़ से संचालित हो रही है, व्यक्तियों से नहीं। और हम व्यक्ति नहीं हैं। हम में से कोई भी व्यक्ति नहीं है। हम तभी व्यक्ति होंगे, जब हम अकेले में, अपने साथ होने की क्षमता को उत्पन्न करें।
इसलिए आज मैं आपसे यह कहूं कि व्यक्ति होने की अभीप्सा, निपट निज की सत्ता को अनुभव करने का खयाल पैदा होना चहिए, अन्यथा फिर आप अपने को मनुष्य कहने के हकदार नहीं हैं। कोई मनुष्य अपने को मनुष्य कहने का हकदार तब तक नहीं होता, जब तक वह इंडिविजुअल न बन जाए, व्यक्ति न बन जाए, सारी भीड़, समाज, संप्रदाय, समूह और धर्मों के नाम से खड़े हुए दुनिया भर के आर्गनाइजेशंस इनका कोई संबंध सत्य से नहीं है। जहां भीड़ है, वहंा सत्य से कोई संबंध नहीं है, जहां आप अकेले हैं, निपट अकेले हैं, वहां आपका सत्य से संबंध हो सकता है, इसलिए धर्म के जो संगठन हैं, उनको मैं धर्म नहीं कहता, धर्म के सब संगठन राजनीति के संगठन हो जाते हैं, संगठन होने से राजनीति के हो जाते हैं। धर्म तो निपट व्यक्ति की बात है। प्रेमियों का कोई संगठन है दुनिया में? और अगर प्रेमियों का संगठन हो, तो क्या होगा? प्रेम मुश्किल हो जाएगा। लेकिन धर्म के संगठन हैं, प्रार्थना के संगठन हैं, अगर प्रेम का संगठन नहीं हो सकता, तो प्रार्थना के संगठन कैसे हो सकते हैं? प्रार्थना तो निजी बात है, स्वयं के और सत्य के बीच, कोई बीच में उसके आने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन ये संगठन खड़े हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, ईसाई हैं ये संगठन खड़े हैं, और ये संगठन खतरनाक सिद्ध हुए हैं, इन्होंने धर्म को नष्ट कर दिया है, जमीन से। ये हैं कारण धर्म को नष्ट करने के। कोई नास्तिक नहीं है कारण, कोई वैज्ञानिक नहीं है कारण, कोई भौतिक समृद्धि कारण नहीं है धर्म के विनाश की। धर्म के विनाश का कारण है, धर्मों के नाम से संगठन। क्योंकि धर्म का संबंध तो व्यक्ति से है, संगठन से नहीं है। और जहां संगठन शुरू हुआ, वहां राजनीति प्रविष्ट हो जाती है, वहां धीरे-धीरे राजनीतिक पकड़ और राजनीतिक समझ बैठ जाती है। और तब फिर वह भी दौड़ उन्हीं लोगों की हो जाती है, जो अकेले से बचना चाहते हैं। फिर भीड़ खोजने लगते हैं, तो मैं आपको कहूं, व्यक्ति बनें, तो ही आप सत्य को जान सकेंगे और व्यक्ति बनने की पहली आधारशिला यहीं से शुरू होती है कि हम यह जानें कि असंलिप्त रूप से जो सत्य मेरे निकटतम है, वह मैं हूं। कोई दूसरा मेरे लिए उतना सत्य नहीं है, जितना मैं हूं। कोई दूसरा किसी के लिए सत्य नहीं है, उसकी स्वयं की सत्ता है, और वहां प्रवेश करना है, और वहां पहुंचना है। और इसके लिए जरूरी है कि ये जो भीड़ के संगठन हैं, ये जो भीड़ के चारों तरफ आयोजन हैं, उनसे थोड़ा अपने को बचाएं, और स्वयं में प्रवेश करें। थोड़ा एकांत खोजें, अकेलापन खोजें, थोड़ी देर अपने साथ रहें, वह मैं आपसे चर्चा करूंगा। कैसे अपने साथ रह सकते हैं?
मेरी बातों को इतनी शांति से आपने सुना है, इतने प्रेम से सुना है, उससे मैं आनंदित होता हूं। साथ ही मुझे खयाल तो होता है कि अगर केवल सुना, तो बात व्यर्थ हो जाएगी, उसका कोई मूल्य न रह जाएगा। यह भी मैं सोचता हूं कि अगर मेरी बात मान ली, तो भी व्यर्थ हो जाएगी, क्योंकि वह दूसरे की बात हो गई। तो मुझे बड़ी दिक्कत होती है कि आपसे मैं क्या कहूं? तो यह मैं नहीं कहता कि मेरी बात मानें या मेरी बात न मानें, मैं तो अपनी बात आपसे कह रहा हूं, अगर आपके भीतर मेरी बात से कोई खुद का खयाल पैदा हो जाए, मेरी बात आपको नहीं पकड़ लेनी है, मेरी कोई आकांक्षा नहीं है, थोड़ी भी कि मेरी बात आप पकड़ लें, कि मेरे अनुयायी हो जाएं, भगवान करे कोई किसी का अनुयायी न हो, क्योंकि अनुयायी होना सबसे खतरनाक बात है, इसका मतलब है आप दूसरे के पीछे चल पड़े। और दूसरे के पीछे चलने का मतलब हैः आपने अपनी निज सत्ता को छोड़ दिया, आपने कोई सपना पकड़ लिया।
तो यह मैं नहीं चाहता कि मेरी बात आप मान लें, बिलकुल न मानें। चाहता यह हूं कि मेरा विचार आपके खयाल में अगर कोई प्यास जगा दे और आपको लगे कि यह बात हो सकती है कि मैं अपने को डुबा रहा हूं दूसरे लोगों में--काम में, धंधे में, पद में, मैं अपने को भूलने की कोशिश में लगा हूं--प्रेम में, पत्नी में, बच्चों में--अपने को भुलाने की कोशिश में लगा हूं, और यह सारी चेष्टा आखिर में कहां ले जाएगी? अगर मैं पूरी जिंदगी भी अगर मैं सफल हो गया अपने को भुलाने में, तो क्या होगा फिर? क्या मौत के वक्त मुझे नहीं लगेगा कि मैं अपने से जानने से वंचित रह गया हूं, मैं अपने को बिना जाने मौत के द्वार पर आ गया हूं। उस वक्त तो यह सवाल सामने खड़ा हो जाएगा, इस सवाल को आज ही खड़ा कर लें, इस सवाल को आज ही खड़ा कर लें कि मैं जब अकेला हो ही जाऊंगा, और मौत मुझे सारी दुनिया से अलग कर देगी, मित्रों से, प्रियजनों से, संबंधों से, संसार से, धन से, पद से, सबसे अलग कर देगी और मैं निपट अकेले रास्ते पर बढ़ूंगा, तो पता नहीं इस अंधकार में, उस अकेले में क्या होगा? उस एकाकीपन में, उस लोनलीनेस में क्या होगा? वह होना है, आज मुझे होगा, कल आपको होगा, परसो किसी और को होगा, रोज होगा और एक दिन हम बिलकुल अकेले हो जाएंगे। तो उसे अकेले होने की तैयारी आज शुरू हो जानी चाहिए। और जो आज तैयार हो जाएगा, उस दिन मौत को कंधे लगाने में स्वागत करने में, गले भेंट लेने के लिए तैयार हो जाएगा। जो आदमी जिंदगी में मृत्यु को गले लगाने में समर्थ नहीं हो पाता, उसने जिंदगी व्यर्थ खो दी, और जो आदमी जीवन में इतना समर्थ हो जाता है कि मृत्यु को गले लगा ले और प्रेम कर ले, वह सफल हो गया। मृत्यु बताती है कि जीवन सफल गया या असफल गया। और मृत्यु बताती है कि आप ठीक से जिए कि गलत जिए, मृत्यु बताती है कि आप ठीक दिशा में चले या गलत दिशा में चले, अगर आप ठीक दिशा में चले, तो आप पाएंगे कि मृत्यु एक आनंद की घड़ी है, क्योंकि उस दिन आप समग्र रूप से अकेले हो सकेंगे, स्वयं हो सकेंगे। और अगर आप गलत दिशा में चलते रहे, तो पता चलेगा कि मृत्यु सबसे बड़ी घबड़ाहट, चिंता और बेचैनी है, क्योंकि जीवन में हम हमेशा साथ थे, अकेले होना कभी जाना नहीं और अब मृत्यु अकेला किए देती है। मृत्यु अगर आपको जबरदस्ती अकेला करेगी तो वह मृत्यु ही रह जाएगी और अगर आप स्वयं अकेले होकर मृत्यु का स्वागत करने गए, तो मृत्यु भी मोक्ष हो जाती है।
आज तो इतना ही कहूंगा। धन्यवाद।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है, कल सुबह इस संबंध में कुछ भी पूछने को हो उसकी चर्चा करूंगा। और तीन दिन इसी संबंध में कुछ विचार रखूंगा कि कैसे हम अकेले हो सकते हैं और स्वयं को जान सकते हैं। पुनः आपको धन्यवाद देता हूं।

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