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गुरुवार, 8 नवंबर 2018

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

स्वयं की सत्ता ही सत्य है

स्वयं की सत्ता ही सत्य है, वही असंदिग्ध आधारभूमि है जो अनुभव हो सके। उस संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कहूं।
केंद्रीय रूप से यह आपसे मैंने कहना चाहा, हमें पूरा जीवन जो दिखाई पड़ रहा है, उसके पीछे भागते हैं और उसका विस्मरण हो जाता है, जो हमारे भीतर है और सारे दिखाई पड़ने वाले जगत को देख रहा है और अनुभव कर रहा है। जिसकी सत्ता है, वह विस्मरण हो जाता है, और सत्ता पर जो दृश्य घूमते हैं, केवल वे ही हमारे मन में बैठ जाते हैं। जैसे कोई नाटक देखने गया हो, और भूल जाए स्वयं को और नाटक में चलती हुई कथा के साथ एक हो जाए। और नाटक के बाद उसे स्मरण आए कि मैं भी था। वैसे ही मृत्यु के समय प्रत्येक को स्मरण आता है कि मैं भी था। और जो आंख के सामने दृश्य चलते थे, वो जो जीवन का प्रवाह था, उसमें अपने को भूल गया था, लेकिन तब कुछ भी किया नहीं जा सकता। जो भी किया जा सकता है, वह अभी किया जा सकता है। और यदि हम स्वयं का स्मरण न कर पाएं, तो जीवन दुख की और पीड़ा की एक लंबी कथा हो जाती है। फिर हम चाहे कुछ भी खोजें और कुछ भी पा लें, फिर चाहे हमारी कोई भी उपलब्धि हो, धन की, संपदा की, स्वास्थ्य की, पद की, यश की ; उस सारी उपलब्धि के पीछे दुख और पीड़ा मौजूद ही रहेंगी।

एक छोटी से कहानी स्मरण आती है, उससे अपनी आज की चर्चा को मैं प्रारंभ करना चाहूंगा।


एक राजा हुआ, बिलकुल ही काल्पनिक कहानी है, उसने सारे देश जीत लिए, पृथ्वी पर जो भी था, सबका मालिक हो गया। और सब जीत कर भी उसने पाया कि मैं तो खाली का खाली हूं, जिस दिन विजय की यह यात्रा शुरु की थी, उस दिन जितना दरिद्र था, उतना ही दरिद्र आज भी हूं। पास में ही उसके भवन के, झोपड़े में एक फकीर रहता था। उसने उस फकीर को बुलवाया और पूछा कि तुम तो दरिद्र हो और तुम्हारे पास कुछ भी नहीं, फिर भी सुबह सांझ तुम्हें गीत गाते देखता हूं; और सब है मेरे पास, और जो भी उपलब्ध किया जा सकता था, सब मैंने पा लिया लेकिन मेरे जीवन में तो दुख और उदासी के सिवाय कुछ भी नहीं है। तुम्हारे इस गीत का रहस्य क्या है? फकीर इसके पहले कि कुछ बोलता, उसके शिष्य भी उसके साथ आए थे और उन्होंने कहा, हमारे गुरु ने अमरता उपलब्ध कर ली है। और जो अमरता को उपलब्ध कर लेता है, वह फिर दुख के बाहर हो जाता है।
राजा नीचे उतरा और उस फकीर के चरणों को पक ड़ लिया, और उसने कहाः किसी भांति मुझे भी अमरता मिल जाए, मैं भी अमरत्व को उपलब्ध हो जाऊं। फकीर बोलाः बहुत ही सरल बात है, व्यर्थ ही तुमने दौड़-धूप की, इतने राज्य जीते, यहीं पास ही में पहाड़ी के पास एक झरना है और उस झरने का पानी जो भी पी लेता है, वह अमर हो जाता है। तो तुम जाओ और उस झरने का पानी पी लो। अकेले जाना, और कोई कितना ही रोके रुकना मत, क्योंकि जो रुक जाता है, फिर पी नहीं पाता। अकेले जाना किसी को साथ मत ले जाना और वहां अगर कोई रोके तो रुकना मत, तुम पी ही लेना। राजा और क्या चाहता था, आपको भी कोई बताने वाला मिल जाए, तो और क्या चाहेंगे? और फिर पास ही झरना था, पहाड़ी करीब थी। उस राजा ने कहा कोई कितना ही रोके, मैं क्यों रुकूंगा।
राजा गया पहाड़ी के इस पार ही उसने अपने साथी छोड़ दिए, वह अकेला ही पैदल उतरा और पहाड़ी के झरने के पास पहुंचा, जैसे ही वह झरने में हाथ डालने को था, कि पीछे से अनेक लोग चिल्लाए कि रुक जाओ, अन्यथा मुश्किल में पड़ जाओगे। एक क्षण ऐसा लगा कि इसमें रुकने की क्या बात है? लेकिन पीछे से आवाजें आईं कि इतनी जल्दी भी क्या है, एक क्षण हमारी बात सुन लो, फिर पी लेना। और उसने देखा कि पीछे तो बहुत से वृद्ध और बहुत कुरूप वहां तो जंगल उनसे ही भरा है, उसने पूछा यह बात क्या है? उन्होंने कहा हम सब इसी झरने का पानी पीकर भूल में पड़ गए, अब मरना मुश्किल हो गया है। अब हम मरना चाहते हैं, और मरने का रास्ता नहीं है। और हमें हजारों वर्ष हो गए हैं, हम बूढ़े हो गए हैं, हाथ-पैर कमजोर हो गए हैं, आंखों में दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन मर नहीं सकते, पहाड़ पर से गिर पड़ते हैं, हाथ-पैर टूट जाते हैं, लेकिन मौत नहीं आती। जहर खा लेते हैं, सुस्त हो जाते हैं, लेकिन मौत नहीं आती। कोई उपाय करें हम मर नहीं पाते, रुक जाओ, थोड़ा समझो हमारी बड़ी दुर्गति हो गई है। फिर तुम्हें पीना हो तो तुम पी लो। एक क्षण खड़े होकर उसने सोचा कि यह तो सच में विचारणीय था। अमर होकर फिर क्या करेंगे? और उन बूढ़ों ने कहा हम बहुत मुश्किल में पड़ गए, पहले सोचा था अमर हो जाएंगे, अब रोज-रोज वही दोहर रहा है, वही दोहर रहा है, वही दोहर रहा है; हम घबरा गए हैं और मरना चाहते हैं। परमात्मा की बड़ी कृपा है कि लोग मर जाते हैं, और हम अपने हाथ से अभागे हो गए हैं।
राजा वापस लौट आया। आप में से भी कोई होता, मैं समझता हूं वापस ही लौट आता। फकीर ने पूछा कैसे वापस लौट आए? उसने कहा यह तो बड़ा कठिन है। बूढ़े हो जाएंगे, दुर्बल हो जाएंगे, इंद्रियां शिथिल हो जाएंगी, और मरेंगे नहीं, फिर तो बड़ी कठिनाई होगी। तो उस फकीर ने कहा इसमें भी क्या बात है? तुम्हारे भवन के दूसरी तरफ जो पहाड़ी है, वहां ऐसे फल हैं, कि उन्हें कोई खा ले तो फिर कभी कोई बूढ़ा नहीं होता। तुम उन फलों को खा लो और सदा के लिए चिर-युवा हो जाओ। और फिर जाकर वह पानी पी लेना तो कभी नहीं मरोगे। उसने कहाः यह बात तो समझ में आती है। लेकिन उसने कहाः अकेले वहां जाना और कोई कितना ही रोके, रुकना मत। वह वहां भी गया और वही हुआ। जैसे ही वह फल तोड़ने को था, चारों तरफ से आवाजें आई कि ठहर जाओ, फिर बहुत पछताओगे। बहुत लोग थे जो जवान थे। लेकिन जवानी से ऊ ब गए थे, कितनी देर जवान रहा जा सकता है? कितने वर्ष? कितनी देर तक जवानी और जवानी के सुख अर्थ रख सकते हैं? उन्होंने कहाः हम बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं, बुढ़ापा आता नहीं। ऊब गए हैं, वही-वही दोहरता है, वही-वही दोहरता है, सैकड़ों वर्ष हो गए हैं, वही-वही दोहराते, अब सब सुख दुख हो गए हैं। एक ही सुख बार-बार पुनुरुक्त हो तो व्यर्थ हो जाता है। सुख में तो रस है,जब वह नया हो, नवीन हो। और जब बार-बार वही पुनुरुक्त हो तो व्यर्थ हो जाता है। इसीलिए सब सुखों से आदमी ऊ ब जाता है, कोई सुख मनुष्य को सदा सुखी नहीं कर सकता। सुख तो ऊबा देगा, क्योंकि वह दोहरेगा, दोहरेगा और जितना दोहरता जाएगा, उतना ही व्यर्थ होता जाएगा।
जिसको आपने पहले दिन प्रेम किया हो, दूसरे दिन उतना प्रेम आप नहीं कर पाते। तीसरे दिन और भी कम, चैथे दिन बात हवा हो जाती है। जिस भवन में आप गए हों, नये-नये, बड़ी खुशी से गए होंगे, थोड़े दिन बाद भवन पुराना पड़ जाता है, और मन नये भवनों में जाने के लिए उत्सुक हो जाता है। जिस धन को आपने पाया हो, पाकर प्रसन्न हुए हों, थोड़े दिन बाद व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि वही धन काफी नहीं है। मनुष्य का मन नये से नया चाहता है।
उन युवकों ने कहाः चिर-युवकों ने कि हम बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं, सब दोहर रहा है और हम घबरा गए हैं। परमात्मा किसी भांति हमें बूढ़ा कर दे। राजा वापस लौट आया, उसने फकीर से कहा कि बड़ा कठिन है।
यह कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। यह मैंने आपसे क्यों कही? यह मैंने क्यों कहना चाही आपसे? यह मैंने इसलिए कहना चाही कि कुछ चीजें छोटे में ठीक से दिखाई नहीं पड़ती हैं, जब उन्हें बड़ा करके देखें तब ही दिखाई पड़ती हैं। मैग्निफाइन ग्लास न हो कोई खुर्दबीन न हो तो बहुत सी चीजें दिखाई ही नहीं पड़तीं। हमारी जिंदगी इतनी थोड़ी है, जवानी इतने थोड़े दिन टिकती है, जीवन इतना छोटा है कि हमें उसकी व्यर्थता दिखाई नहीं पड़ती। उसे थोड़ा मैग्निफाई करें। जिस जिंदगी को आप जी रहे हैं सुबह से सांझ तक, अगर ऐसी ही जिंदगी एक हजार वर्ष आपको जीनी पड़े, एक लाख वर्ष आपको जीनी पड़े, एक करोड़ वर्ष जीनी पड़े तो क्या होगा? क्या आप घबड़ा न जाएंगे, ऊ ब न जायेंगे, संताप से न भर जायेंगे? इसको थोड़ा बड़ा करें, कुछ चीजें थोड़ी बड़ी करने से ही समझ में आती हैं। बहुत छोटी होती हैं तो आंख से बच जाती हैं।
हमारी आंख बहुत गहरा नहीं देखती। थोड़ी अपनी जिदंगी को लंबा करें, और लंबा करके आपको दिखाई पड़ेगा कि जो भी आप कर रहे हैं, वह सभी ऊ बा देगा, घबड़ा देगा, परेशान कर देगा। लेकिन अगर कोई चीज हजार वर्ष में ऊबा देगी तो क्या सौ वर्षों में अर्थपूर्ण हो सकती है? और जो चीज सौ वर्ष में ऊ बा देगी तो क्या एक दिन में अर्थपूर्ण हो सकती है? जो हजार वर्ष में ऊबाने वाली हो जाएगी, वह सौ वर्ष में भी ऊ बाने वाली है, वह एक दिन में भी ऊ बाने वाली है। वह एक क्षण में भी ऊ बाने वाली है, यह दूसरी बात है कि हमें दिखाई न पड़ती हो। आंख हमारी ठीक से उस अणु को न देख पाती हो। इसलिए मैंने यह कहानी कही।
उस राजा को घबड़ाहट हो गई, अमरता लेने को राजी न हुआ। चिरयुवा होने को राजी न हुआ। क्यों? क्योंकि जिसे हम जिदंगी जानते हैं, अगर वही जिंदगी है और हमेशा के लिए हमें दे दी जाए तो इससे बड़ा कोई कष्ट, इससे बड़ा कोई नरक संभव नहीं है। निश्चित ही वह जिंदगी नहीं है, अगर कोई आए और आपको कहे कि जो आपकी जिदंगी है, जो भी आपकी जिंदगी है, हम सदा के लिए, अनंतकाल को आपको दिए देते हैं, क्या आपके प्राण थरथरा नहीं जाएंगे, घबड़ा नहीं जाएंगे? और अगर अनंतकाल तक इसी को भोगने से प्राण घबड़ा जाएंगे, तो जो विचारशील है, वह आज ही घबड़ा जाएगा। जिसके पास आंख है, वह आज ही सजग हो जाएगा। क्योंकि जो बड़ा होकर व्यर्थ है वह छोटा होकर भी व्यर्थ है। और अगर व्यर्थता नहीं दिखाई पड़ती तो हमारी आंख की कमी है, हमारे पास आंख का न होना है।
यह जीवन व्यर्थ है, जिसे हम जीवन जानते हैं। यह जीवन इतना व्यर्थ है, इतना पीढ़ा और इतने दुख से भरा है इसीलिए कि हम उस जीवन को नहीं जानते, जो कि वास्तविक जीवन है। हम करीब-करीब छायाओं में जीवन को बिता देते हैं। कल मैंने आपसे कहा, अपने बाहर के जगत में जो जीवन को व्यतीत कर देता है, वह वास्तविक जीवन से वंचित रह जाता है। वास्तविक जीवन की दिशा कहीं भीतर है। कहीं प्राणों की उस आत्यंतिक अवस्था में केंद्र पर। हम सबके भीतर कोई केंद्र है या नहीं, हम सबके भीतर कोई सेंटर है या नहीं। या कि हम केवल परिधि हैं? कोई परिधि ऐसी नहीं होती, जिसका कोई केंद्र न हो, कोई बीच का बिंदु न हो। लेकिन जिसे हम जीवन जानते हैं, वह परिधि का जीवन है, प्राण का, कमाई का, भाग-दौड़ का, यश का, प्रतिष्ठा का, धन का, पदों का ; यह सारा परिधि का जीवन है, लेकिन केंद्र कहां है? केंद्र हमारी सत्ता है, और परिधि रोज बदल जाती है, आज नहीं कल विलीन हो जाएगी, एक क्षण टूट जाएगी, लेकिन केंद्र जो निरंतर हमारे भीतर है, हमारे साथ है। वह मैंने कल आपसे कहा। प्रत्येक व्यक्ति निरंतर किसी एक सत्ता के साथ है, उस सत्ता को जानना, उस सत्ता से परिचित होना, उस सत्ता के भीतर प्रवेश किए बिना, कोई व्यक्ति वास्तविक जीवन को उपलब्ध नहीं होता। उसके अभाव में हम करीब-करीब मुर्दे हैं। उसके अभाव में हम करीब-करीब मरे हुए लोग हैं। हम नाममात्र को जीवित हैं। यह जीवन कोई जीवन नहीं है, यह कोई जीवन की स्थिति नहीं है। मैं हूं, पहले तो इस बोध को लेना जरूरी है, इस पर मैंने कल आपसे बात की। मैं कौन हूं, इसमें प्रवेश करना जरूरी है, इस पर मैं आपसे आज बात करूंगा।
मैं हूं यह एकमात्र ऐसा अनुभव है, जो असंदिग्ध है, जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता। आप संदेह भी करेंगे, तो संदेह भी आपको ही सिद्ध कर देगा। अगर मैं कहूं कि मैं नहीं हूं, तो मेरा यह कहना कि मैं नहीं हूं प्रामाणित करेगा कि मैं हूं। क्योंकि यह अस्वीकार करने के लिए और संदेह करने के लिए भी मेरे होने की जरूरत है। मेरे बिना यह अस्वीकार भी नहीं हो सकता। एक मुर्दा आदमी उठ कर कहे कि मैं मर गया हूं, तो उसका यह कहने का अर्थ होगा कि वह जिंदा है। ठीक वैसे ही मैं कहूं कि मैं नहीं हूं, यह सूचना होगी मेरे होने की। इसलिए आत्मा भर को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। आत्मा भर पर संदेह नहीं किया जा सकता है। दूसरे की आत्मा पर किया जा सकता है, दूसरे की आत्मा आपके लिए है ही नहीं। सवाल है, मेरी निज सत्ता का, उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि अस्वीकार में भी वह प्रतिपादित हो जाती है, अस्वीकार में भी वह पूर्व से भी उपस्थित हो जाती है। यह जो असंदिग्ध मैं हूं, यह क्या है? यह कौन है? अगर हम अपने से पूछें, मैं कौन हूं? तो जरूर कुछ उत्तर आएंगे। कुछ उत्तर आएंगे, जो हमें सिखाए गए हैं। कुछ उत्तर आयेंगे जो हमें बताए गए हैं, ये सब उत्तर झूठे हैं, ये सब उत्तर असत्य हैं। ऐसा उत्तर आना चाहिए जो न बताया गया है, और न सिखाया गया है। वही उत्तर वास्तविक होगा। क्या जब मैं आपसे पूछता हूं, या आप अपने से पूछें किसी एकांत क्षण में कि मैं कौन हूं, तो क्या उत्तर आता है? सहज ही पहले तो ही नाम आ जाएगा, जो मां-बाप ने दिया है। नाम भी कितना धोखा दे सकते हैं, नाम कितनी औपचारिक बातें हैं, कोई राम है, कोई कृष्ण है, कोई कुछ है; ये नाम ऊपर से लगा दिए गए हैं, समाज के लेबिल्स हैं, इनके बिना समाज को असुविधा होगी, यह आपका स्वरूप नहीं है। पशुओं का कोई भी नाम नहीं है, पक्षियों के कोई भी नाम नहीं हैं, फिर भी वे हैं, फिर भी उनका होना है। अगर आपके नाम छीन लिए जाएं, फिर भी आप होंगे, आपकी सत्ता नहीं मिट जाएगी। रात्रि जब आप गहरी नींद में सो जाते हैं, तो आपका नाम भी खो जाता है, क्या बहुत गहरी नींद में आप जानते हैं, आपका नाम क्या है? आप कुछ भी नहीं जानते। आप किसके पुत्र हैं, और किसके पिता हैं, और किसके पति हैं या किसकी पत्नी हैं; कुछ भी नहीं जानते। दरिद्र हैं या भिखारी कुछ भी नहीं जानते।
जापान में एक राजा था, वह एक गांव से रोज निकलता था। एक फकीर वहां रहता था, उस फकीर से उसने एक दिन पूछा, सुबह-सुबह निकला, सर्द रात थी; उस फकीर से पूछा कि रात बहुत सर्द है, नींद में बड़ी तकलीफ हुई होगी? उसने कहाः सब तकलीफ जागने में है, नींद में तो कुछ पता नहीं चलता। राजा ने पूछा, नींद तो ठीक ही हुई होगी? उस फकीर ने कहा, जागते में तुम राजा हो, मैं फकीर हूं; नींद में तो हम एक ही जगह हैं। नींद में तो हम दोनों एक ही जगह हैं, तुम राजा नहीं हो, मैं भिखमंगा नहीं हूं गांव का। इसलिए जागना हमारी बनावट हो सकती है, नींद तो परमात्मा की है। उस फकीर ने कहा जागना तो हमारी बनावट हो सकती है। नाम तो हमारी बनावटें हैं, आपको जो नाम दिया है, दूसरा दिया जा सकता है, कोई अड़चन न होगी, तीसरा दिया जा सकता है, कोई अड़चन न होगी, आप सब नाम छोड़ दें तो भी आप होंगे, क्या बहुत कठिनाई मालूम होती है? अगर मैं सब नाम छोड़ दूं, तो भी मैं रहूंगा, बिना नाम के सारे जगत में मनुष्य को छोड़ कर सब हैं। मनुष्य की ईजाद है नाम, और यह सबसे खतरनाक ईजादों में से एक है, इससे काम तो चल जाता है, लेकिन एक बहुत बड़े अज्ञान पर पर्दा पड़ जाता है। कोई आपसे पूछता है आप कौन हैं, आप कह देते हैं मैं राम हूं, फलां-फलां हूं। और बात खत्म हो जाती है। धीरे-धीरे लोगों से कहते, कहते आप भूल ही जाते हैं कि यह बिलकुल झूठी बात है कि आप राम हैं। यह बिलकुल झूठी बात है, यह एक झूठा लेबल है, जो लगा दिया गया है। यह आपका परिचय नहीं है।
और सब तरफ अंधेरा है। अकेला था तो अपने से बातें करने लगा, हम सभी कर रहे हैं, अपने से बातें। कोई जरा जोर से करता है, हम कहते हैं पागल है, कोई जरा धीरे-धीरे करता है मन में तो कहते हैं कोई पागलपन नहीं। बल्कि हर आदमी अपने से बातें कर रहा है। अभी आप यहां बैठे हैं तो इस खयाल में रहें कि सभी मुझे सुन रहे हैं। आपकी बातें चल रही होंगी, उनको आप सुन रहे होंगे।
स्वप्नहार वहां गया तो अपने से बातें करने लगा, वहां अंधेरा था, कोई भी नहीं था; अपने बाथरूम में आप भी करने लगते होंगे। कहीं एकांत में अकेले में आप भी अपने से बातें करने लगते होंगे, कोई न होगा तो जोर से भी करने लगते होंगे, ये कोई बहुत अस्वाभाविक नहीं है। यह मनुष्य का रुग्ण मन है, सहज है। स्वप्नहार बात करने लगा कोई भी नहीं था, कोई डर नहीं था, हम सब डरे हुए हैं, एक-दूसरों से, इसलिए अपने को संभाले रहते हैं। अगर आप जमीन पर अकेले हों तो आप ऐसे थोड़े ही होंगे, जैसे अभी हैं, आप बिलकुल दूसरे आदमी हो जाएंगे। क्योंकि तब कोई डर नहीं होगा। कोई डर नहीं था, तो वह जोर-जोर से बातें करने लगा। माली जागा उसने देखा इतनी रात कौन आ गया है, उसने लालटेन उठाई वह गया, देखा अकेला आदमी है और अपने से बात करता है, तो थोड़ा डरा, एक तो आधी रात को कोई बगीचे में आ गया; फिर अकेला है और अपने से बातें करता है, तो उसे थोड़ी दहशत हुई, उसने दूर से डंडा बजाया और पूछा कि आप कौन हैं? स्वप्नहार ने कहाः बड़ी मुश्किल हो गई, यही तो हम अपने से पूछते थे यहां। और यही तुम भी पूछने लगे, यही तो हम पूछते हैं, जिंदगी हो गई कि कौन हैं? माली तो निश्चित समझा होगा कि पागल है। लेकिन सच में वे ही पागल हैं, जो सोचते हैं कि वो जानते हैं कि वो कौन हैं? अपना नाम, अपना पता-ठिकाना। ये चिट्ठियां लिखने के लिए पते ठिकाने ठीक हैं, और लोगों को बताने के लिए ठीक हैं कि मैं फलां जगह रहता हूं, और फलां आदमी हूं, लेकिन खुद के जानने के लिए ये सूचनाएं बहुत झूठी हैं। समाज के लिए तो यह परिचय काफी है, स्वयं के लिए यह परिचय काफी नहीं है। और जो इसको अपना परिचय मान लेगा, वह अज्ञान से ही तृप्त हो गया है। उसके जीवन में ज्ञान का पदार्पण नहीं हो सकता। उसने द्वार बंद कर रखे हैं। तो पहली तो बात है कि आप नाम नहीं है, तो सोचते होंगे कि फिर रूप हूं, मेरी शक्ल, मेरी रूप-रेखा, मेरी देह की बनावट,यह मैं हूं।
आपको क्या पता है कि मां के पेट में जब आप पहली दफा आगमन हुआ तो आपकी शक्ल और रूप-रेखा कैसी थी? तब तो एक छोटा सा, इंच का भी सैकड़ोवां हिस्सा, एक छोटा सा अणु था, वही आप थे। अगर आज वह अणु आपके सामने रख दिया जाए कि आप पहचानेंगे कि यह मैं हूं, वह आपकी देह थी कभी, मां के पेट में जब पहले दिन आपने देह पकड़ी थी तो, वही आपकी देह थी। आज तो आप उसे पहचान भी न सकेंगे। बड़ी दूरबीन से देखेंगे, तब कहीं वह दिखाई पड़ेगा। और फौरन इनकार कर देंगे कि यह मैं कैसे हो सकता हूं? फिर मां के पेट में आप बड़े होने लगे तो बहुत देह आपने बदलींी। वैज्ञानिक कहते हैं कि करीब-करीब मनुष्य जाति ने जितने-जितने पशुओं को पार किया है, उतने-उतने पशुओं की सूक्ष्म-सूक्ष्म आकृतियां मां के पेट में बच्चा पूरी करता है। पूरी यात्रा करता है। कभी वह पानी के जानवर जैसा होता है, कभी थलचर जैसा होता है, फिर धीरे-धीरे बढ़ता है, फिर बंदर जैसा होता है, फिर आदमी जैसा होता है। उनमें से कौन से आप हैं? अगर नौ महीने के पूरे चित्र मां के पेट के आपके सामने रख दिए जों तो आप तो घबरा जाएंगे, वह तो पूरा का पूरा जू हो जाएगा, वह तो जानवरों की कतार हो जाएगी। कौन हैं आप उसमें से? और अगर आप कहें कि ये हम नहीं हैं, तो मां के पेट से जब जन्में, वह तस्वीर आपके सामने निरंतर रखी जाती है, धीरे-धीरे आपको खयाल हेा जाता है कि यह मेरे बचपन की फोटो है। लेकिन वह देह कहां गई, जो आप बचपन में थे। वह रूप कहां गया? रूप तो रोज बदल रहा है। जो रोज बदल रहा है, वह आप कैसे हो सकते हैं? वह तो निरंतर, प्रतिक्षण बदल रहा है, आप यहां आए थे, इस भ्रांति में मत लौट जाना कि आप वही देह लेकर वापस लौट गए हैं, जो लेकर आए थे। घंटे भर में देह परिवर्तित हो जाएगी, उसमें बहुत से सैल्स मर जाएंगे, बहुत से नये हो जाएंगे। शरीर में घंटे भर में बहुत परिवर्तन हो जाएगा। आप कहेंगे घंटे भर में क्या परिवर्तन होगा? घंटे भर में नहीं होगा तो फिर सत्तर साल में भी नहीं हो सकता। परिवर्तन रोज होगा, तभी तो होगा। कोई अचानक थोड़े ही जवान आदमी बूढ़ा हो जाता है। प्रतिक्षण बूढ़ा हो रहा है। और अगर घंटे भर में परिवर्तन नहीं होगा तो फिर आप कभी मर ही नहीं सकोगे। फिर तो आप अमर हो जाओगे। प्रतिक्षण आपके भीतर कुछ मरता जा रहा है। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि जन्म का दिन ही, मृत्यु की शुरुआत का दिन है। उसी दिन से मरना शुरु हो गया। उसी दिन से थोड़े-थोड़े हम मरते जा रहे हैं। तो जिसको आप अपना रूप कहते हैं, अपना चित्र कहते हैं, वह आपका नहीं है, वह तो अब रोज मरता जा रहा है, वह तो रोज बदलता जा रहा है। वह तो पानी की धार की तरह है।
पिछले वर्ष गंगा पर मैं गया था। इस वर्ष भी गया तो मित्र कहने लगे कि गंगा, तो मैंने कहा ये नाम धोखा दे देता है, जो पानी मैं पिछले वर्ष आया था, अब बिलकुल नहीं है। लेकिन गंगा का नाम धोखा दे देता है, लगता है वही नदी है, जो पिछले वर्ष देख गया था। नाम धोखा पैदा कर देता है। वही नदी कहां है अब, वह तो मैं देख भी नहीं पाया था,और पानी बह गया। वह तो मैं देख भी नहीं पाया।
हेराक्लतु ने कहा है, आप एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते। असंभव है दुबारा उतरना। मैं तो कहता हूं एक ही बार नहीं उतर सकते, क्योंकि जब आपका पैर पानी में जाएगा और पानी की सतह छुएगा, तब तक नीचे का पानी बह गया। और नीचे जाएगा, और नीचे का पानी बह गया। आपका पांव पूरा उतर नहीं पाएगा, पानी की कई परतें बह गईं। सब बदला जा रहा है, वैसा ही आपका रूप भी बदलता जा रहा है। प्रतिक्षण बदलता जा रहा है। इस बदलते हुए रूप आप हैं? अगर यह बदलता हुआ रूप आप हैं, तब तो आपके भीतर कोई ईकाई न रही, कोई यूनिटी न रही, कोई तत्व न रहा, जो जन्म के समय हो और मृत्यु के समय भी हो। लेकिन निश्चित ही कोई ईकाई हमारे भीतर है। क्योंकि बदलाहट अगर किसी अपरिवर्तनीय सूत्र पर न हो तो हो ही नहीं सकती। एक गाड़ी का चाक चलता है, अगर बीच में खड़ी हुई कील न हो, तो चाक चलेगा कैसे? चाक चलता है यह इस बात की खबर है कि बीच में कोई कील है,जो कि नहीं चलती है। नहीं तो चाक चल नहीं सकता। परिवर्तन अपरिवर्तन के ऊपर चलता है। अथिरता थिर के ऊपर चलती है। जो ठहरा हुआ है, उसके ऊ पर बदलाहट होती है। अकेली बदलाहट नहीं हो सकती। अकेली बदलाहट असंभव है। अकेला परिवर्तन असंभव है, मूवमेंट असंभव है, जब तक कि कोई बीच में ऐसा तत्व न हो, जो कि मूवमेंट नहीं है, जो कि गति नहीं है, जो कि परिवर्तन नहीं है। मूवेबल कुछ न हो, ठहरा हुआ कुछ न हो, तब तक कोई परिवर्तन संभव नहीं है। लेकिन रूप बदलता जाता है, बचपन से मृत्यु तक अगर आपके सारे चित्र उतारे जाएं तो ये पूरी जमीन एक ही आदमी के चित्रों से भर जाए। और पहचानना मुश्किल हो जाए कि कौन सा चित्र मेरा है। लेकिन इन्हीं चित्रों को हम अपना मान कर चलते हैं। अभी जो चित्र आप लिए बैठे हैं अपने रूप का, सोचते होंगे यही मैं हूं, घड़ी भर बाद यह नहीं रह जाएगा, क्षण भर बाद यह नहीं रह जाएगा। फिर आप कहां गए? रूप तो रोज बदलते जाते हैं, बच्चा था मैं, युवा हो गया, वह भी बह जाएगा, बूढ़ा हो जाऊंगा, वह भी बह जाएगा। यह तो सारी यात्रा बदलती जाएगी। भीतर कौन है यात्री, यह तो रास्ता है रूप, लेकिन अरूप कौन है, केंद्र पर कौन है?
तो न तो नाम हैं हम, और न रूप हैं हम। तो नाम और रूप के अतिरिक्त हमारा परिचय क्या है? हमारी पहचान क्या है? जानते हैं किसी को जो कि नाम भी न हो, और रूप भी न हो और आपके भीतर आप अनुभव कर सकें? वही हमारा प्राणों का केंद्र होगा। वही हमारी आत्मा होगी, वही हमारा सत्य होगा, उसको ही मैंने कहा कि वही निपट निजता में आपका व्यक्तित्व होगा। जो बदल रहा है, आवरण की भांति, वस्त्रों की भांति, वह आप नहीं हैं। जो नहीं बदल रहा है और थिर है, वही आप हैं। उसको कैसे जानें? वह कौन है? तो एक तो ये नाम और रूप हमें रोक लेते हैं। फिर जो लोग इनसे थोड़ा ऊपर उठते हैं, जब मैं यह कह रहा हूं तो कई लोग सिर हिला रहे हैं कि मैं बिलकुल ठीक कह रहा हूं; और उनके सिर बिलकुल ही गलत हिल रहे हैं। उनके सिर इसलिए हिल रहे हैं कि उन्होंने किताबों में पढ़ा हुआ है, कि हम तो आत्मा हैं हैं, नाम, रूप से अलग, आत्मा। इसलिए वो सिर हिला रहे हैं कि आप बिल्कुल ही ठीक कह रहे हैं। यही तो हमने पढ़ा हुआ है कि नाम, रूप हम नहीं हैं; हम तो आत्मा हैं। ये उत्तर भी दूसरों का सिखाया हुआ है।
नाम भी मां-बाप दे देते हैं और ये हम आत्मा हैं, यह खयाल भी समाज में प्रचलित विचार पकड़ जाते हैं,और हमको बैठ जाते हैं। यह सामाजिक प्रचार का परिणाम है कि आपके मन में होता है कि हम तो आत्मा हैं, लेकिन आत्मा शब्द से आपको कुछ प्रकट होता है, या कि यह शब्द बिलकुल कोरा और थोथा शब्द है? इसमें आपको क्या अनुभव होता है, जब मैं कहता हूं कि आत्मा, तो आपके भीतर कौन सी अनुभूति के द्वार खुलते हैं? या कि एक शब्द गंूंज कर रह जाता है। निश्चित ही एक शब्द गूंज कर रह जाता है। जब हम कहते हैं आत्मा, तो एक शब्द गूंजता है लेकिन भीतर कोई भाव थोड़े ही पैदा होते हैं। अगर मैं कहूं घोड़ा तो आपके भीतर एक भाव पैदा होगा। अगर मैं कहूं मकान, तो आपके भीतर एक चित्र प्रकट होगा। लेकिन जब मैं कहता हूं आत्मा, तो एक शब्द गूंज कर रह जाता है, कुछ भी पैदा नहीं होता। हो नहीं सकता पैदा क्योंकि शब्द तो सीखा हुआ है, यह अनुभ्ूाति से नहीं आया। यह स्वयं जाना हुआ नहीं है। अगर हम नाम रूप से थोड़ा हटें, तो जो प्रचार है, सिद्धांतों का वह पकड़ लेता है, शास्त्रों का प्रचार पकड़ लेता है। और फिर हम उसको पकड़ कर दोहराने लगते हैं कि मैं तो आत्मा हूं।
एक साधु मेरे पास आए, मैं उसने पूछा कि आप क्या साधना करते हैं? उन्होंने कहा कि मैं तो अहिर्निश यही भाव दोहराता हूं कि मैं तो आत्मा हूं। मैंने कहा कि बार-बार इसी को दोहराते हैं? उन्होंने कहा कि निरंतर, इसी का स्मरण करता हूं कि मैं तो आत्मा हूं। मैं तो ब्रह्म हूं, अहं ब्रह्मास्मि मैं तो यही बात करता हूं। फिर तुम्हें पता नहीं होगा कि तुम आत्मा हो, अगर पता हो तो फिर बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं रह जाएगी। अगर मैं बार-बार यह दोहराता रहूं बैठा हुआ कि मैं आत्मा हूं, तो मेरा दोहराना यह सिद्ध करता है कि मुझे शक है अपने आत्मा होने पर। मेरा दोहराना यह सिद्ध करता है कि मुझे मालूम तो हो रहा है, कि मैं शरीर हूं लेकिन इस भाव को खंडित करने के लिए मैं दोहरा रहा हूं कि मैं आत्मा हूं। अन्यथा कोई क्यों दोहराएगा। क्या कोई स्त्री है तो वह बार-बार दोहराती है कि मैं स्त्री हूं? कोई पुरुष है तो क्या वह बार-बार दोहराता है कि मैं पुरुष हूं? और अगर कोई पुरुष बार-बार दोहराता हो कि मैं पुरुष हूं, तो क्या आपको शक और संदेह नहीं पकड़ लेगा। यह दोहराना तो, यह दोहराना इस बात की सूचना बन जाएगी कि कोई शक है भीतर, कोई संदेह है, कोई संदेह है भीतर सरक रहा है, उस संदेह को खंडित करने के लिए कोई बात दोहराई जा रही है। अगर कोई आदमी आपसे बार-बार कहे कि मैं आपको प्रेम करता हूं, मैं आपको प्रेम करता हूं, तो आपको शक हो जाएगा कि बात क्या है? क्योंकि यह बार-बार कहने की कौन सी जरूरत है कि मैं आपको प्रेम करता हूं। अगर प्रेम है तो वाणी खो जाती है और कहने का कोई उपाय नहीं रह जाता, अगर इस बात का बोध है कि मैं आत्मा हूं तो बात खत्त्म हो गई। दोहराने का कोई प्रश्न ही नहीं है। दोहराता वही है जो नहीं जानता। लेकिन हमें यह समझाया और सिखाया जाता है कि यदि हम बार-बार दोहराए चले जायें कि हम आत्मा हैं, आत्मा हैं, तो धीरे-धीरे हमें आत्मा का अनुभव हो जाएगा, वह अनुभव झूठा होगा, वह अनुभव आत्म-सम्मोहन जनक होगा। वह आॅटो-सजेशन होगा। वह वास्तविक अनुभव नहीं होगा। अगर एक आदमी बार-बार अपने को कोई बात दोहराता रहे, दोहराता रहे तो उसे अनुभव होने लगेगा, अनुभव कल्पना से निर्मित होगा, आत्मा का अनुभव नहीं होगा। वह हम कल्पना कर लेंगे बार-बार दोहराने से तो ऐसा प्रतीत होने लगेगा।
अगर आप इस भवन से बाहर निकलें द्वार पर खड़ा हुआ चपरासी कहे आपकी तबीयत कुछ खराब है, स्वास्थ्य कुछ खराब है, आपके हाथ-पैर कुछ कमजोर मालूम होते हैं, आप उससे कहेंगे मैं तो बिलकुल ठीक हूं, मेरी तबीयत खराब नहीं, लेकिन आप थोड़े और आगे जायें, फिर दो मित्र मिलें और वो कहें क्या बात है? आज बड़े कमजोर मालूम होते हैं? तो आप अब उतनी ही हिम्मत से नहीं कह सकेंगे कि मैं बिलकुल ठीक हूं, आप कहेंगे कि हां, रात से कुछ तबीयत ढीली पड़ गई है। आप पर एक सुझाव बैठ गया। आप और थोड़े दूर जाएं, और चार-छह लोग मिलें, और क्या बात है, आपके पैर तो बहुत डगमगाते से मालूम होते हैं? तो आप कहेंगे हां, मुझे कुछ कमजोरी है। सुझाव आप पर बैठना शुरू हो गया। आपको इस भवन से आपके घर तक पहुंचते-पहुंचते बीमार किया जा सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। इसमें कोई भी कठिनाई नहीं है। न केवल बीमार किया जा सकता है, अगर तीव्र सुझाव दिए जायें, तो आपकी मृत्यु तक हो सकती है।
फ्रांस में पीछे एक घटना घटी, एक अपराधी को मृत्युदंड दिया जाने को था। कुछ लोग प्रयोग करना चाहते थे कि क्या मृत्यु केवल सुझाव से हो सकती है? और दो मनोवैज्ञानिकों ने राज्य से आज्ञा मांग ली कि हम सुझाव के द्वारा, सजेशन के द्वारा इस आदमी की मृत्यु करके देखना चाहते हैं। मृत्यु दंड होना ही था, इसलिए कोई अड़चन न थी। उन्हें आज्ञा दे दी गई।
उन्होंने उस व्यक्ति को रात में जाकर कहा कि कल सुबह छह बजे तुम्हारा दंड हो जाएगा, तुम्हारी मृत्यु। तुम्हें सजा मिल जाएगी, और एक बड़ी आधुनिक विधि से तुम्हारी मृत्यु होगी, उसने पूछा कौन सी विधि? उन्होंने कहाः बहुत सरल है, तुम्हें कोई पीड़ा न होगी, लेटा दिए जाओगे, आंख पर पट्टी बांध दी जाएंगी, हाथ-पैर बांध दिए जाएंगे, और दोनों हाथ में छेद करके तुम्हारे खून को बाहर खींच लिया जाएगा। आधा घंटा लेगा, ठीक आधा घंटा; तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, बस ऐसे ही मालूम होगा, खून धीरे-धीरे निकलता जा रहा है, और तुम मर जाओगे। धीरे-धीरे मर जाओगे। बहुत धीमी और सुविधापूर्ण मृत्यु होगी।
वह रात भर सोचता रहा, सुबह उसे उठाया गया, उसकी आंख पर पट्टी बांध दी गईं, उसे टेबिल पर लिटा दिया गया। चार डाक्टर उसके चारों तरफ खड़े हो गए, लेटते वक्त जब उसकी आंख पर पट्टियां नहीं थी, तब उसने सारा सामान देखा, वहां औजार रखे हुए थे, बाल्टियां रखी हुई थीं, सारा सामान था। वह लेट गया, आंख उसकी बंद थी, हाथ-पैर बांध दिए गए; फिर दोनों हाथों पर औजारों से निशान किए गए कि उसे प्रतीत हो कि काटा जा रहा है, लेकिन काटा नहीं गया, झूठी नलियां बांध दी गईं और उनसे गुनगुना पानी बहाया गया; और पास में बाल्टियां रखी हुई उनमें बूंद-बूंद करके पानी टपकने लगा, उस मरते आदमी को सब सुनाई पड़ने लगा, जिंदा आदमी को तो कुछ सुनाई नहीं पड़ता, पास तो कितने बैंड भी बजते रहें, उसके भीतर इतनी भीड-भाड़ होती है, लेकिन मरते वक्त आदमी को सब सुनाई पड़ने लगता है, पत्ता भी हिले तो पता चलता है, क्योंकि बड़ी सजगता होती है। तो वह बूंद टपकने लगीं उसे बोध होने लगा, और डाक्टर आस-पास खड़े हुए उसकी नाड़ी और हृदय को देखने लगे और बार-बार कहने लगे कि बस ख्ूान बाहर जा रहा है और बहुत जल्दी मरना हो जाएगा। पंद्रह मिनट पर उन्होंने कहा कि आदमी करीब-करीब आधा मर चुका है। उस आदमी ने भी जाना कि वह आधा मर चुका है। खून बह रहा है और कोई उपाय भी तो बचने का नहीं है। तीस मिनट पूरे होते-होते वह आदमी मर गया, ठीक तीस मिनट पर उसकी मृत्यु हो गई। और उसका एक बूंद खून बाहर नहीं निकाला गया।
सुझाव से यह हो सकता है। सुझाव से आप चाहें तो अपने ही कमरे में कृष्ण भगवान को बांसुरी बजाते हुए देख सकते हैं, सुझाव से आप चाहें तो अपने दरवाजे पर रामचंद्र जी को धनुषबाण लिए हुए देख सकते हैं। यह आपकी प्रगाढ़ कल्पना का अगर उपयोग करें तो आपका मन कुछ भी खड़ा कर ले सकता है। और इसी तरह सुझाव से अगर आप चाहें तो मान ले सकते हैं कि आप आत्मा हैं, लेकिन यह अनुभव स्वयं का अनुभव नहीं होगा। स्वयं के अनुभव के लिए किसी मान्यता को बीच में लेना घातक है। किसी शास्त्र को, कि सी सिद्धांत को स्वीकार कर लेना घातक है। क्योंकि वह स्वीकृति ही फिर हमारे ऊपर बैठ जाती है, और हम अनुभव कर सकते हैं। ये सब आॅटो-सजेशन की, आत्म सम्मोहन की बहुत पुरानी प्रक्रियाएं हैं, हजारों साल में,हजारों लोगों ने धोखा खाया है और आज भी हजारों लोग धोखा खा सकते हैं। यह सवाल नहीं है, सिद्धांत सीखा हुआ, अर्थपूर्ण नहीं है, सब छोड़ देना होगा, नाम को, रूप को, विचार को। सब छोड़कर देखना होगा भीतर, खाली और शून्य होकर देखना होगा भीतर, तब जिसका अनुभव होगा, तब जिसकी प्रतीति होगी, तब जिसके सानिध्य में, तब जिसकी अनुभूति में हम प्रतिष्ठित होंगे, वह स्वयं की सत्ता है।
सबसे पहले मैं कौन हूं? यह स्वयं से पूछना जरूरी है। शांत और एकांत क्षणों में यह पूछना जरूरी है, मैं कौन हूं? पागलपन लगेगा कि हम अपने से पूछें मैं कौन हूं? हम तो भलीभांति जानते हैं कि कौन हैं? लेकिन मैं आपसे कहूं और सब पागलपन हो, यही अकेले एक स्वस्थ्य मन का लक्षण है, कि वह पूछे कि मैं कौन हूं? और मैं कौन हूं, इसको पूछें और अपनी परिधि को क्रमशः-क्रमशः छोटा करे, अभी आप पूछेंगे तो पता चलेगा फलां आदमी हूं, तब देखें जागें,सोचें कि क्या यह नाम मैं हूं? ज्ञात होगा यह नहीं हो सकता, ज्ञात होगा अंधेरे में हूं। सोचें, जीवन का विश्लेषण करें; कनसेप्शन के क्षण से लेकर, मां के पेट में गर्भधारण के क्षण से लेकर मृत्यु तक अपनी देह की स्थितियों पर विचार करें, तो आपको ज्ञात होगा यह देह मैं कैसे हो सकता हूं? अभी जो श्वास मैंने भीतर ली है, उसको मैं कहूंगा मेरी श्वास, लेकिन थोड़ी देर पहले वह आपमें से किसी की श्वास रही होगी। फिर मैं उसे छोड़ दूंगा, तो वह किसी और की श्वास हो जाएगी। तो श्वास को मैं कैसे कह सकता हूं मेरी है? जो देह के मेरे अणु हैं, वो न मालूम कितनी देहों में, कितने शरीरों में रह चुके होंगे, मेरे बाद न मालूम कितने देहों में, शरीरों में रहेंगे, वो मेरे कहां हैं। और जिस रूप को मैं मेरा कहूं, मेरा कहां है, मैं तो मेरा कह भी नहीं पाऊं गा और वह परिवर्तित हो जाएगा।
यह प्रतिक्षण परिवर्तित होती देह के बाबत विश्लेषण करें, जागें, विचार करें, समझें तो स्पष्ट बोध होगा कि यह मैं नहीं हो सकता हूं। फिर भीतर मन में जाएंगे, तो ज्ञात होगा कि मैं हिंदू हूं, मुसलमान हूं, जैन हूं, ये भी क्या बच्चों जैसी बातें हैं, इससे ज्यादा इम्मैच्योरिटी का लक्षण हो सकता है? कोई आदमी कोई हिंदू होता? कोई मुसलमान होता? कोई जैन होता? यह सिखाया हुआ एक नाम है और गहरे में, जैसे ऊ पर से नाम है कि तुम कृष्ण हो, भीतर एक और गहरी संज्ञा बैठी हुई है कि तुम हिंदू हो।
विनोबा कहीं थे, तो किसी ने उनको पूछा कि आप बेसस्थ ब्राह्मण हैं कि कोकणस्थ? तो विनोबा ने कहा कि मैं तो स्वस्थ ब्राह्मण हूं। हालांकि विनोबा ने मजाक में कहा,लेकिन अगर और गौर से देखें तो स्वस्थ आदमी ब्राह्मण भी नहीं हो सकता। स्वस्थ आदमी सिर्फ स्वस्थ होगा, ब्राह्मण कैसे होगा? ब्राह्मण तो अस्वास्थ्य का, बीमारी का लक्षण है।
तो विनोबा ने तो मजाक में कहाः बात वहां पूरी थी लेकिन स्वस्थ्य आदमी ब्राह्मण भी नहीं हो सकता, न शूद्र हो सकता। न हिंदू हो सकता, न मुसलमान हो सकता, स्वस्थ्य आदमी तो सिर्फ स्वस्थ्य होता है, जितना गहरे में जाएगा, उतना ही उसके सारे भेद गिरते जाएंगे। जितना आदमी अस्वस्थ होग, डिसीज्ड होगा, उतना उसके भेद होंगे, उतने उसके भेद होंगे। जैसे-जैसे स्वस्थ होगा, स्वयं के करीब आएगा तभी तो स्वस्थ्य होगा ना। स्वस्थ्य का मतलब क्या होता है? स्वस्थ्य का मतलब होता है स्वयं के करीब आते जाना। स्वस्थ्य का पूरा मतलब होता है, स्वयं में स्थित हो जाना। और तो कोई मतलब नहीं होता। स्वास्थ्य का मतलब होता है स्वयं में स्थित हो जाना।
तो जैसे-जैसे आदमी स्वस्थ्य होगा, स्वयं की तरफ आएगा, वैसे-वैसे भेद गिरते जायेंगे, हिंदू न रह जाएगा, मुसलमान न रह जाएगा, और भीतर चलेगा तब तो पुरुष न रह जाएगा, स्त्री न रह जाएगा। और भीतर चलेगा; तो एक घड़ी आएगी, कोई संज्ञा न रह जाएगी उसे देने को, तब वह स्वयं ही रह जाएगा। जब कोई नाम खोजे से न मिलेगा, तब वह स्वयं रह जाएगा। सब नामों का निषेध साधना है स्वयं की ओर जाने की। सारी परिधि का निषेध, जहां-जहां हमें लगता है यह मैं हूं, वहीं समझना है कि कुछ भूल हो रही है, क्योंकि मैं तो मैं ही हो सकता हूं, किसी और से कैसे संबंधित हो सकता हूं। जब मैं कहता हूं कि मैं कृष्ण हूं, तभी भूल हो गई, मैं अलग है और कृष्ण अलग है, और यह आइडेंटिटी भूल की हो गई। जब मैं कहता हूं कि मैं शरीर हूं, तब भूल हो रही है, मैं अलग हूं और शरीर अलग है। और ये आइडेंटिटी, तादात्म्य भूल का हो गया। जब मैं कहता हूं मैं हिंदू हूं, तो इसका मतलब हो गया कि मैं अलग हूं और हिंदूं होना अलग है। जब तक मैं कह सकता हूं कि मैं फलां हूं, तब तक भूल होगी, जिस क्षण मैं कह सकूं कि मैं तो बस मैं हूं, जिस क्षण सारी संज्ञा और सारे नाम मिट जायें और सिर्फ मैं ही रह जाए।
मो.जे.ज को परमात्मा के दर्शन हुए एक झाड़ी में। हरी झाड़ी थी और भीतर आग लगी थी। और मो.जे.ज जब करीब जाने लगे, तो आवाज आई कि रुक जाओ, पवित्र भूमि है, जूते छोड़ दो, मो.जे.ज ने जूते छोड़े वह पास गए, उन्हें कुछ संदेश मिला, ये सारी प्रतीत की बातें हैं। उन्हें संदेश मिला और उनसे कहा गया, तुम जाओ और लोगों को यह संदेश कह दो। तो मो.जे.ज ने कहाः लेकिन मैं उनसे क्या कहूंगा, वे मुझसे पूछेंगे, किसने यह संदेश भेजा है, तो मैं क्या बताऊंगा? तो उत्तर आया कि कहना, मैं केवल मैं ही हूं। उसने ही संदेश भेजा है। उसने ही संदेश भेजा है जो अकेला मैं है। जिसने सारे और संज्ञाओं को और रूपों को, सारे नामों को छोड़ दिया है। हम सबके भीतर वह बैठा है, जो अकेला मैं है। अकेला स्व है। और उसकी तरफ बढ़ने के लिए निषेध करना होगा, एक-एक तत्व पर विचार करना होगा कि क्या यह मैं हो सकता हूं। अंततः जब निषेध करने को कुछ भी शेष न रह जाए तो, जो बोध में आएगा वही स्वयं की सत्ता है।
यहां मैं बैठा हूं; अभी यहां प्रकाश है, प्रकाश बुझा दिया जाए तो अंधेरा हो जाएगा। तो जब प्रकाश है तो क्या मैं कहूं कि मैं प्रकाश हूं। यह तो गलती हो जाएगी। फिर अंधेरा आ जाएगा तो मुझे कहना पड़ेगा कि मैं अंधेरा हूं। सुबह होगी, तो मुझे कहना पड़ेगा कि मैं सुबह हूं। दोपहर होगी तो मुझे कहना पड़ेगा मैं दोपहर हूं, सांझ होगी तो मुझे बताना पड़ेगा मैं सांझ हूं। यह तो पागलपन हो जाएगा। अगर मैं ठीक से अनुभव क रूं, तो सांझ आती है, सुबह आती है, प्रकाश आता है, अंधेरा आता है, मैं कोई भी नहीं हूं। मैं तो केवल उनका देखने वाला हूं। जानने वाला हूं। आप बच्चे थे, आपने बचपन जाना, युवा हुए यौवन जाना, बूढ़े हुए बुढ़ापा जाना, आप जानने वाले थे, न तो आप बूढ़े हुए कभी, न आप जवान हुए कभी न आप कभी बच्चे हुए। आप केवल जानने वाले थे। तो सबको छोड़ देना है, जो जाना जा सके। जो भी नाॅन हो सके, उसे छोड़ देना है, और शेष जब नोअर रह जाए, वह जानने वाला रह जाए, सब ज्ञेय छूट जाए और ज्ञाता रह जाए, पता चलेगा कि कौन हूं मैं? इसका कोई उत्तर नहीं हो सकता, जो दूसरा दे दे। मैं आपको नहीं कह सकता कि कौन हैं आप? कोई आप से नहीं कह सकता कि कौन हैं आप? कोई शास्त्र नहीं कह सकता, और अगर कहेगा, तो आपको शब्द याद हो जाएंगे और आप उसी की कल्पना में पड़ जाएंगे। कोई से पूछने मत जाइए कि कौन हैं आप? आप हैं तो खोजिए भीतर, और छोड़िए उन पर्तों को जिन्हें पकड़ लिया है और समझ लिया है कि ये मैं हूं। क्रमशः छोड़िए, क्रमशः छोड़िए और स्वयं की तरफ बढ़िए, और अनुभव करिए कि जो भी मैं जान सकता हूं, वह मैं कभी नहीं हो सकता। इसे सूत्र समझिए, इसे साधना का एक आधारभूत सूत्र समझिए कि जो भी मैं जान सकता हूं, जो भी मेरा आॅब्जेक्ट हो सकता है, वह मैं कभी नहीं हो सकता हूं। क्योंकि जो मेरा आॅब्जेक्ट हो सकता है, जिसे मैं जान सकता हूं, उससे मैं अलग हो गया। आपको मैं जान रहा हूं, आपसे मैं अलग हो गया। जानने वाली शक्ति, जो जाना जाता है, उससे पृथक है।
मैं अपनी देह को जान रहा हूं, बीमार होती है, तो मैं जानता हूं कि देह अस्वस्थ है; स्वस्थ हो जाती है तो जानता हूं कि देह स्वस्थ हो गई। तो ये जाने वाला तत्व है, यह देह के साथ एक कैसे होगा? अगर यह देह के साथ एक होता, तब तो फिर जान नहीं सकता था, अलग नहीं हो सकता था। जानने के लिए पृथकता चाहिए, दूरी चहिए, फासला चाहिए। अगर मेरा पैर टूट जाए तो मैं जानूंगा कि पैर टूट गया।
यूनान में एक फकीर था, एपिटैक्टस। सीधा और अदभुत आदमी था। एक झोपड़े में पड़ा रहता था, कुछ लोगों ने उसको जाकर पकड़ लिया, कुछ डकैतों ने। बहुत स्वस्थ, बहुत प्रसन्न और अदभुत व्यक्ति था। उन डकैतों ने पकड़ लिया और उन्होंने कहा कि चलो, उसने कहा भी कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, वो बोले इसकी फिकर छोड़ो हम तुम्हीं को पकड़ कर गुलामों के बाजार में बेच देंगे, काफी दाम मिल जायेंगे, ऐसा तगड़ा और मस्त आदमी मुश्किल से मिलता है। उसने कहा चलो यह भी ठीक है, एपिटैक्टस को पकड़ कर वे लोग ले गए। उन्होंने कहाः गुलामों के बाजार हुआ करते थे, पहले। नाम बदल गए हैं, बाजार तो अब भी हैं। गुलामों के नाम बदल गए हैं, गुलामी तो अब भी है। नाम अच्छे-अच्छे हैं, मामला तो पुराना ही चल रहा है, कोई बहुत फर्क तो पड़ा नहीं, आदमी का आदमी अनेक-अनेक रूपों में गुलाम है। खरीदने की तरकीबें बदल गई हैं। होशियारी ज्यादा हो गई, इसलिए गुलाम को पता भी नहीं चलने देते कि तुम गुलाम हो, और उसको गुलाम भी बनाए रहते हैं। और अच्छी-अच्छी बातें सिखाते हैं और उसके हिसाब से काम चलता रहता है। बाजार बदल गए, दुकानें बदल गईं, माल वही है, वही बिक रहा है। तो उस गुलामों के बाजार में उसको खड़ा कर दिया गया, इपिटैक्टस को। तख्ती पर खड़ा कर दिया। और इसके पहले कि नीलाम करने वाला चिल्लाता कि गुलाम खड़ा है कोई खरीदे, वह खुद ही चिल्लाया कि एक अदभुत बात घट रही है, गुलामों में बाजार में एक मालिक आ गया है। और उसने चिल्ला कर कहाः गुलामो, जिसकी भी मर्जी हो, इस मालिक को खरीद लो।
वहां भीड़ लग गई, ऐसा गुलाम कभी नहीं आया था, जिसने यह कहा हो। एक राजा भी आया हुआ था। उसने कहा यह बड़ा अजीब आदमी मालूम होता है,जो कह रहा है कि किसी गुलाम को, किसी मालिक को खरीदना हो तो खरीद ले। उस राजा ने कहा कि मैं खरीद लेता हूं इसे। इसे ठीक करना पड़ेगा यह आदमी तो गड़बड़ है। राजा ने उसे खरीदा और जंजीरें डलवा दी। रास्ते में जब चलते वक्त घोड़े पर राजा था, वह नीचे था, तो उसने पूछा कि तुमने यह कैसे कहा कि तुम मालिक हो? तो उसने कहा कि मैं उसे जानता हूं जो मैं हूं, और जिस दिन मैंने जाना उसी दिन मैं मालिक हो गया। और जो उसे नहीं जानता वह गुलाम रहे। राजा ने कहा इसका मतलब है कि तुम मानते हो कि तुम शरीर नहीं हो। उसने कहा, मानने का सवाल नहीं यह मैं जानता हूं। मानते तो वे हैं, जो जानते नहीं हैं। मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं। राजा ने घोड़ा वहीं रोका, अपने दूसरे सिपाहियों से कहा कि इस आदमी का पैर तोड़ दो। उसे पकड़ लिया गया और उसका एक पैर मरोड़ा गया और उसे तोड़ दिया गया। जब पैर टूटने लगा तो इपिटैक्टस ने कहा कि देखो महानुभव इस भांति पैर को मोड़ने से पैर जरूर ही टूट जाएगा। और फिर तुम पछताओगे। खरीद कर मुझे लाए हो, रुपया बेकार हो जाएगा। लेकिन राजा बोला इसकी बातों में मत पड़ो, ये सब होशियारी की बातें हैं, पैर को बचाने की तरकीब, पैर तोड़ ही दो। पैर तोड़ दिया गया, इपिटैक्टस ने कहा कि देखो पैर टूट गया। राजा ने कहा और कुछ कहना है, उसने कहा और कुछ कहने का सवाल ही नहीं, पैर टूट गया इतनी बात है। तुम देख रहे हो पैर को टूटते हुए,हम भी देख रहे हैं पैर को टूटते हुए।
इस पर थोड़ा खयाल करें। इपिटैक्टस ने कहाः तुम देख रहे हो, पैर को टूटते हुए, हम भी देख रहे हैं। तुम बाहर से देख रहे हो, हम भीतर से देख रहे हैं। इसलिए तुम्हारा देखना अधूरा ही होगा, हमारा देखना बिलकुल पूरा है। हम भीतर से देख रहे हैं कि पैर टूट गया। यह जो देख रहा है, यह देखने की वजह से अलग हो जाता है, यह जो जान रहा है, यह जानने की वजह से अलग हो जाता है। जो भी हम जान सकते हैं, उससे हम पृथक हो जाते हैं। इसलिए जो भी आप जान लें, समझ लें कि उससे आप भिन्न हैं। उसे छोड़ें और भीतर प्रविष्ट हों। वहां भी कुछ जानने को मिल जाए, उसे भी छाड़ें, और भीतर प्रविष्ट हों। शरीर छूटेगा तो मन आ जाएगा, विचार आ जाएंगे, वे भी हम नहीं हैं, उनको भी हम जानते हैं, क्रोध है, प्रेम है, घृणा है, वह भी हम नहीं हैं। उनको भी हम जान लेते हैं। उनको भी हम देख पाते हैं, उनको भी हम अनुभव कर पाते हैं। ऐसे क्रमशः भीतर प्रविष्ट हों, जैसे कोई प्याज को छीलता जाता हो, और उसके एक-एक छिलके को अलग करता जाता हो, ऐसा अपने एक-एक छिलके को अलग करते जाएं, एक-एक वस्त्र को अलग करते जाएं, और उस क्षण तक अलग करते जाएं, जब तक कि भीतर कोई वस्त्र न रह जायें।
लोग कहते हैं महावीर नग्न हो गए , मुझे पता नहीं उन्होंने कपड़े छोड़े या नहीं छोड़े, लेकिन अगर वह नग्न हुए होंगे तो उसका अर्थ यही होगा कि उन्होंने सारे वस्त्र छोड़ दिए होंगे। ये वस्त्र नहीं जो आप पहने हुए हैं, वे वस्त्र जो हमने भीतर अपनी चेतना पर पहन रखे हैं। और जिनकी वजह से चेतना अपनी नग्नता में अपनी पूरी निर्दोषता में हमें अनुभव नहीं हो पाती। उनको छोड़ते जाएं, छोड़ते जाएं और नग्न होते जाएं। उस क्षण तक जब तक कि दिखाई पड़ने को, अनुभव में आने को, ज्ञान में आने को कुछ भी शेष न रह जाए। जब कुछ भी आॅब्जेक्ट, कोई भी विषय, कोई भी विचार, कोई भी प्रतीति, कोई भी दृश्य उपस्थित नहीं रहेगा, तब आप पाएंगे कि क्रांति घटित हो गई, एक विस्फोट हो गया। जैसे कोई ज्वालामुखी फूट पड़ा हो। सारे वस्त्र टूट जाएंगे तो आप पाएंगे कि आपके भीतर ऊर्जा ने एक शक्ति ने विस्फोट कर दिया है। सारी बात बदल जाएगी, आप जानेंगे उस क्षण में कि कौन है? कौन है जो भीतर बैठा है? इस आत्मिक अनुभव को विस्फोट से ही उपलब्ध हुआ जाता है, और विस्फोट के लिए जरूरी है कि हम सारी पर्तें अलग कर दें, ताकि भीतर जो है वह फूट सके और प्रकट हो सके। भीतर मौजूद है कोई, लेकिन ढंका है वस्त्रों से। उसे अनढंका कर दें, उसे उघाड़ दें। साधना उघाड़ना है, साधना उदघाटन है, चीजों को हटाते जाना है, जैसे कोई कुआं खोदता है, मिट्टी को, पत्थर को अलग खोद कर फेंक देता है; खोदता जाता है, खोदता जाता है, एक घड़ी आती है, जब पानी के झरने फूट पड़ते हैं। पानी नीचे मौजूद है, मिट्टी और पत्थर से ढंका है। वह भीतर मौजूद है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, लेकिन मिट्टी में, पत्थर में दबा है। और मिट्टी, पत्थर को हम पकड़े हुए हैं, और समझ रहे हैं कि यही हम हैं, तो फिर पानी के झरने नहीं फूट सकेंगे, तो फिर वह जीवन का स्रोत उपलब्ध नहीं हो सकेगा। इस सारे मिट्टी-पत्थर को अलग कर दें, जहां तक आपका फावड़ा चल सके, कुदाली चल सके, चलाएं; जहां तक आप उखाड़ सकें, उखाड़ें; हटाते जाएं उस समय तक जब तक कि हटाने को कुछ भी शेष न रह जाए। उस स्थिति में जब कुछ भी हटाने को शेष नहीं रहता, तो वह प्रकट हो जाता है, जो है। उस स्थिति में जब कुछ भी हटाने को अलग नहीं रहता, उसको अनुभव होता है, जो है।
जब तक कोई तादात्म, कोई आइडेंटिटी, कोई वस्त्र, कोई आवरण हमें पकडे है, तब तक आत्मा का अनुभव असंभव है। इसलिए पूछें अपने से कि मैं कौन हूं, निरंतर अपने मौन के क्षणों को समर्पित करें, इस खोज के लिए कि मैं कौन हूं? और सजग रहें कि कोई झूठा उत्तर न पकड़ जाए। और सब झूठे उत्तर हटाते चले जाएं, कठिन है बात, श्रम मांगती हैं, जीवन में कोई भी ऐसा मूल्यवान अनुभव नहीं है, जो कठिन न हो। जीवन की कोई अनुभूति जिस मात्रा में गहरी होगी, उतना ही श्रम मांगेगी। इसलिए कोई सोचता हो कि थोड़ी देर बैठ कर राम-राम जप ले, या कोई सोेचता हो कि माला फेर लें कि कोई सोचता हो कि रोज सुबह उठ कर मंदिर हो आएं और घर लौट आएं, इतना सस्ता मामला नहीं है। इतने सस्ते में परमात्मा को धोखा देेने का विचार न करें।
एक साधारण सा कुआं आदमी खोदता है, तो मिट्टी, पत्थर अलग करने होते हैं। और आप स्वयं का कुआं खोदने चले हैं और सोचते हैं कि आठ आने की एक माला खरीद लेंगे, उसके गुरिए सरकाते रहेंगे, इससे हल हो जाएगा। कैसी बच्चों जैसी बात है, और किसी और को नहीं खुद परमात्मा को धोखा देने के इरादे हैं? इतना सस्ता मामला नहीं है, धर्म से महंगी और कोई बात नहीं है। क्योंकि धर्म से बड़ी और कोई बात नहीं है, और आत्मा से महंगी और कोई बात नहीं है, क्योंकि आत्मा से बड़ी और कोई बात नहीं है। सब उसके लिए चुकाया जा सकता है। सब उसके लिए खोया जा सकता है। सब उसके लिए समर्पित किया जा सकता है। सब उसके लिए चढ़ाया जा सकता है। लेकिन हम ये सब शायद न करना चाहें, कहें कि बहुत कठिन बात है, लेकिन जो बात कठिन लगती हो, उसे ही प्रयोग करने में पुरुषार्थ है। जो बात असंभव लगती हो, उसे ही संभव बनाने में मनुष्य के भीतर की निहित शक्तियां जागती हैं, सुषुप्त शक्तियां जाग्रत बनती हैं, जो असंभव करने को राजी नहीं होता, वह अपने जीवन की पूर्ण संभावनाओं को कभी भी वास्तविक नहीं बना पाता है। उसके भीतर बीज-बीज ही रह जाते हैं। असंभव से घबड़ाएं न। और आत्मा से असंभव और कुछ भी नहीं है। न तो एवरेस्ट पर चढ़ना, न चांद पर पहुंच जाना, न अंतरिक्ष की यात्रा; कुछ भी आत्मा के अनुभव से ज्यादा असंभव नहीं है। इसलिए जिनके भीतर भी थोड़ा पुरुषार्थ हो, जिनके भीतर भी थोड़ा इस बात का गौरव हो कि मैं कुछ हूं, उनके लिए एक ही चुनौती है, कि वे उसको जानने में लगें, जो सबसे बड़ा पुरुषार्थ है, उसे पहचानने में लगें जो सबसे ज्यादा असंभव है, और सबसे ज्यादा खतरनाक है। और सबसे ज्यादा कठिन है। लेकिन यह मुझे लगता है कि ऐसा एक भी मनुष्य नहीं है, जो अगर साहस करे, संकल्प करे तो इस असंभव को संभव न बना पाए। क्योंकि वह सबकी निजी संपत्ति है। उसे कहीं खोजने बाहर नहीं जाना है। उसे हम अपने साथ लिए हुए घूम रहे हैं। उसे कहीं पाने किसी दूर नहीं जाना है, उसे हम निरंतर अपने साथ ढो रहे हैं। थोड़ा ही प्रवेश की बात है, थोड़ा संकल्प जुटाने की बात है, थोड़ा साहस इकट्ठा करने की बात है। साहस जिन्होंने खो दिया है, वे लोग मंदिरों में इकट्ठे हो गए हैं, साहस जिन्होंने खो दिया है, वे लोग हाथ जोड़ कर मूर्तियों के सामने बैठे हुए हैं, खुद की बनाई हुई मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ कर बैठे हुए हैं। अगर कोई जरा गौर से देखेगा तो लगेगा कैसा पागलपन है? आप अपने घर में कागज पर एक चित्र बना लें और हाथ जोड़ कर बैठ जाएं। तो लोग कहेंगे यह क्या कर रहे हैं? लेकिन यही हो रहा है। साहस जिन्होंने खो दिया है, जिन्होंने पुरुषार्थ खो दिया है, जो सस्ते में कुछ पा लेना चाहते हैं, उन सारे लोगों ने इतनी ईजादें कर रखी हैं धर्म के नाम पर कि उनकी ईजादों के भार के नीचे धर्म का पता चलना मुश्किल हो गया है। धर्म के नाम पर इतना कचरा है, कि धर्म के हीरों का पता चलना कठिन हो गया है। इस कचरे से ऊब कर कुछ लोगों ने कहना शुरू किया है, इस कचरे को आग लगा दो, कम से कम मैदान ही साफ हो जाए। वे दूसरी अति पर चले गए हैं। एक अति है कि कचरा इकट्ठा कर लिया है लोगों ने, एक दूसरी एक्सट्रीम पैदा हो रही है, इसके विरोध में, कि सबको आग लगा दो, यह सब अफीम का नशा है, इसमें कुछ भी नहीं है, फेंको इसको आग लगा दो, यह सब पागलपन है।
पहले में भी खतरा है क्योंकि उस कचरे में हीरे दब गए हैं, दूसरे में अब खतरा है कि कचरे के साथ हीरों में आग न लगा दी जाए। इसलिए जो जानते हैं उनके सामने बड़ी पीड़ा है। धर्म को बचाना है और तथाकथित धर्म को नष्ट करना है। और यह बड़ा कठिन है। बड़ा मुश्किल है। इससे ज्यादा मुश्किल और कोई बात नहीं हो सकती है। धर्म को बचाना है और तथाकथित धर्म को बिलकुल डूब जाने देना है। इस तथाकथित धर्म को बचाने में वास्तविक धर्म के डूबने का डर पैदा हो गया है। लेकिन हम...हम जो सस्ती बातें चाहते हैं, हम जो कमजोर और सुस्त लोग हैं, किसी के पैर पकड़ना चाहते हैं, और किसी का सिर पर हाथ चाहते हैं कि वे कह दें कि जाओ तुम्हें सब मिल जाएगा। तुम फिकर मत करो, तुम गाओ, मौज करो। तुम्हें सब भगवान की कृपा से मिल जाएगा, क्योंकि तुमने मान लिया वेद को कि तुमने मान लिया पुराणा को, कि तुमने मान लिया बाइबिल को, अब तुम्हें और क्या जरूरत है, विश्वास ले आओ, बाकी सब काफी है? नहीं विश्वास से कुछ भी नहीं होगा। बिलकुल कुछ भी नहीं होगा। विश्वास से कुछ होने को नहीं है, विवेक को जगाना होगा। और विवेक की तीव्रधार से, स्वयं के भीतर की सारी पर्तें काटनी होंगी, जो हमने चिपका रखी हैं, और जिनको हमने स्वयं का होना मान लिया है। विवेक की धार, विवेक की तलवार से चीरना होगा स्वयं को, उस सीमा तक जब तक कि कुछ भी शेष न रह जाए काटने को, अलग करने को। तब जो शेष रह जाता है वही स्वयं की सत्ता है। उस स्वयं की सत्ता को जान कर व्यक्ति सब जान लेता है और सब पा लेता है।
आज इतना ही




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