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गुरुवार, 15 नवंबर 2018

और फूलों की बरसात हुई-(प्रवचन-05)

और फूलों की बरसात हुई-पांचवां

क्या वह मर गया है?


मठ के एक ध्यानी की मृत्यु होने पर
सद्गुरु डोगो अपने शिष्य ज़ेनगेन के साथ
मृत व्यक्ति के परिवार से मिलने गया।
सहानुभूति और संवेदना का एक शब्द
भी अभिव्यक्त करने का समय लिए बिना,
ज़ेनगेन ताबूत तक गया और उसे ठकठकाते हुए
उसने सद्गुरु डोगो से पूछा :
‘‘क्या वह वास्तव में मर गया है?’’
डोगो ने कहा-‘‘मैं वुफछ भी नहीं कहूंगा।’’
ज़ेनगेन ने हठ करते हुए कहा-‘‘यह तो ठीक है, पर...
डोगो ने कहा-‘‘मैं वुफछ भी नहीं कह रहा हूं

और यही अंतिम (शब्द) है।’’
मठ की ओर वापस लौटते हुए रास्ते में ही
क्रोधित ज़ेनगेन, डोगो की ओर मुड़ा और उसे धमकी देते हुए कहा-‘‘परमात्मा की शपथ;
यदि आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देते हैं तो मैं आपको पीटूंगा।

डोगो ने कहा-‘‘ठीक है, फिर आगे बढ़ो
अपनी शपथ के प्रति प्रतिबद्ध, ज़ेनगेन ने अपने सद्गुरु के गाल पर ज़ोरदार तमाचा मारा।
वुफछ समय बाद डोगो मर गया और ज़ेनगेन अभी भी अपने प्रश्न का उत्तर पाने की इच्छा लिए हुए, सद्गुरु सेकीसो के पास गया और जो वुफछ भी हुआ था उसके सबंध में बताने के बाद, उसने फिर उसी प्रश्न को पूछा। सेकीसो ने कोई भी उत्तर नहीं दिया, जैसे मानो मृत डोगो के साथ उसकी वुफछ सांठगांठ रही हो।
ज़ेनगेन चीखता हुआ बोला-‘‘बाई गॉड! तो आप भी... ?’’


सेकीसो ने कहा-‘‘मैं वुफछ भी नहीं कर रहा हूं
और यही बात अंतिम है।’’
तुरंत उसी वास्तविक क्षण में
ज़ेनगेन को जागरण का अनुभव हुआ।

जीवन को जाना जा सकता है और मृत्यु को भी, लेकिन उनके बारे में वुफछ भी कहा नहीं जा सकता। कोई भी उत्तर सत्य न होगा, व्यक्तियों और वस्तुओं के वास्तविक स्वभाव के अनुसार वह हो भी नहीं सकता। जीवन और मृत्यु गहनतम रहस्य हैं। यह कहना अधिक अच्छा होगा कि वे दो रहस्य नहीं हैं बल्कि समान रहस्य के दो पहलू हैं, एक ही गुप्त स्थान के दो द्वार हैं। लेकिन उनके बारे में वुफछ भी नहीं कहा जा सकता है। जो वुफछ भी तुम कहते हो, तुम लक्ष्य से चूक जाओगे।
जीवन को जिया जा सकता है, मृत्ये में भी रहा जा सकता है। वे दो अनुभव हैं- किसी एक को उनसे होकर गुजरना होगा और उन्हें जानना होगा। कोई भी व्यक्ति तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता। जीवन का अथवा मृत्यु का उत्तर कैसे दिया जा सकता है? जब तक तुम जीते नहीं, जब तक तुम मरते नहीं, उत्तर देने कौन जा रहा है?
लेकिन अनेक उत्तर दिए गए हैं और स्मरण रहे सभी उत्तर मिथ्या हैं। वहां चुनने के लिए वुफछ भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक उत्तर ठीक है और दूसरे उत्तर गलत हैं। सभी उत्तर गलत हैं। वहां चुनने को वुफछ भी नहीं है। उत्तर नहीं, अनुभव ही उत्तर दे सकता है।
इसलिए स्मरण बने रहने की पहली बात यह है कि जब तुम एक वास्तविक रहस्य के निकट होते हो तो वह मनुष्य के द्वारा सृजित एक पहेली नहीं है। यदि वह मनुष्य द्वारा सृजित एक पहेली है तो उसका उत्तर दिया जा सकता है क्योंकि तब वह एक खेल है, एक बुद्धि का खेल है- तुम ही प्रश्न सृजित करते हो और तुम ही उत्तर सृजित करते हो। लेकिन यदि तुम किसी ऐसी चीज़ का सामना कर रहे हो जो तुमने सृजित नहीं की है तो तुम कैसे उसका उत्तर दे सकते हो, मनुष्य की बुद्धि अथवा मन कैसे उसका उत्तर दे सकती है? मनुष्य की बुद्धि के लिए वह अगम्य। खंड, पूर्ण को नहीं समझ सकता। पूर्ण को पूर्ण बनकर ही समझा जा सकता है। तुम उसके अंदर कूद सकते हो और उसमें खो सकते हो और तब वहां उत्तर होगा।
मैं तुम्हें एक प्रसंग के बारे में बताउंफगा, जिसे रामवृफष्ण बहुत प्रेम से सुनाते थे। वह कहा करते थे : एक बार ऐसा हुआ कि वहां समुद्र के निकट उसके तट पर एक महान उत्सव हो रहा था। वहां हजारों लोग एकत्रित हुए थे और अचानक वे सभी एक प्रश्न में तल्लीन हो गए- क्या सागर की गहराई मापी जा सकती है। अथवा वह अमाप है, क्या वहां उसका कोई तल है अथवा नहीं है, क्या उसकी थाह ली जा सकती है अथवा वह अथाह है? संयोग से एक मनुष्य जो पूर्ण रूप से नमक से बना हुआ था, वहां मौजूद था। उसने कहा-‘‘आप लोग चर्चा करते हुए प्रतीक्षा कीजिए और मैं समुद्र के अंदर जाउंफगा और उसकी खोज करूंगा क्योंकि कोई एक उसे कैसे जान सकता है, जब तक कि कोई एक उसके अंदर नहीं जाता है।’’
इसलिए नमक का बना हुआ मनुष्य सागर में कूद पड़ा। घंटों गुजर गए, दिन गुजर गए और तब महीनों गुजर गए और लोगों ने अपने-अपने घर जाना शुरू कर दिया। उन लोगों ने एक लंबी अवधि तक उसकी पर्याप्त प्रतीक्षा की और नमक का मनुष्य वापस नहीं लौट रहा था।
नमक के मनुष्य ने जिस क्षण सागर में प्रवेश किया, वह पिघलना शुरू हो गया और जिस समय वह उसके तल तक पहुंचा, वह वहां था ही नहीं। वह उसे जान पाया लेकिन वह वापस न लौट सका। और वे लोग जिन्होंने नहीं जाना था वे लोग एक लंबे समय तक चर्चा करते रहे। वे लोग हो सकता है किसी निष्कर्ष तक पहुंचे हों क्योंकि बुद्धि निष्कर्ष तक पहुंचने से प्रेम करती है।
एक बार वह एक निष्कर्ष पर पहुंच जाता है, बुद्धि को चैन मिल जाता है, इसलिए इतने अधिक दार्शनिक विद्यमान हैं। सभी दार्शनिक एक ही आवश्यकता को पूरा करने के लिए मौजूद हैं : बुद्धि पूछती है और बुद्धि प्रश्न के साथ नहीं रह सकती, प्रश्न के साथ बने रहने में बेचैन और असुविधा का अनुभव होता है। एक उत्तर की आवश्यकता है- चाहे वह झूठा ही क्यों न हो, उससे काम चलेगा और बुद्धि को आराम मिल जाता है।
जाना और सागर में एक छलांग लगा जाना खतरनाक है। स्मरण रहे- रामवृफष्ण सत्य कहते हैं : जहां तक सागर का संबंध है हम सभी मनुष्य नमक के ही पुतले हैं क्योंकि यह सागर जीवन और मृत्यु का है। हम सभी लोग नमक के पुतले हैं, हम उसके अंदर पिघल जाएंगे क्योंकि हम उसी से आए हैं। हम सभी उसके द्वारा उससे ही बने हुए हैं। हम पिघल जाएंगे।
इसलिए मन हमेशा सागर के अंदर जाने से भयभीत है, वह नमक से ही बना हुआ है, उसका घुल जाना सुनिश्चित है। वह भयभीत है इसलिए वह ऊपर ही बना रहता है, अनेक बातों की चर्चा-परिचर्चा, वाद-विवाद और तर्क-वितर्क करता हुआ सिद्धांत गढ़ता रहता है। वे सभी मिथ्या होते हैं क्योंकि वे भय पर आधारित हैं। एक साहसी मनुष्य ही छलांग लगाएगा और वह किसी भी ऐसे उत्तर को स्वीकार करने से प्रतिरोध करेगा जो स्वयं उसके द्वारा न जानी गई हो।
हम कायर हैं और इसी वजह से हम किसी भी व्यक्ति के उत्तर को स्वीकार कर लेते हैं। उनके उत्तर हमारे उत्तर नहीं हो सकते। किसी भी अन्य व्यक्ति का ज्ञान तुम्हारा नहीं हो सकता-उन्होंने जाना हो सकता है लेकिन उनका ज्ञान तुम्हारे लिए केवल एक सूचना है। तुम्हें ही जानना होगा। केवल जब वह तुम्हारा अपना होता है, वह ज्ञान होता है अन्यथा वह तुम्हें पंख नहीं देगा। इसके विपरीत, वह तुम्हारी गर्दन पर पत्थरों के समान लटका रहेगा और तुम उसके एक गुलाम बन जाओगे। तुम मुक्ति को उपलब्ध नहीं होगे और तुम उसके द्वारा स्वतंत्र नहीं होगे।
जीसस कहते हैं-‘‘सत्य मुक्त करता है।’’ क्या तुमने किसी व्यक्ति को सिद्धांतों के द्वारा मुक्त होते हुए देखा है? अनुभव मुक्त करता है, हां, लेकिन प्रत्येक अनुभव के बारे में सिद्धांत, नहीं, वे कभी मुक्त नहीं करते। लेकिन मन छलांग लगाने से डरता है क्योंकि मन भी उसी समान सामग्री से बना हुआ है जिससे कि पूरा विश्व; इसलिए यदि तुम छलांग लगाते हो तो तुम खो जाओगे। तुम जान तो पाओगे लेकिन तुम केवल तभी जानोगे जब तुम नहीं होते हो।
नमक के पुतले ने जाना। उसने वास्तविक तल का स्पर्श किया। वह प्रामाणिक केंद्र पर पहुंच गया, लेकिन वह वापस न लौट सका। यदि वह लौटकर आ भी सकता तो वह कैसे सभी से संबंध जोड़ता... ? यदि वह आता भी है तो उसकी भाषा केंद्र और गहराई की होगी और तुम्हारी भाषा सागरतट और परिधि की है।
इस बारे में किसी भी संवाद की कोई संभावना नहीं है। वह कोई भी अर्थपूर्ण बात नहीं कह सकता, वह केवल अर्थपूर्ण और गौरवपूर्ण ढंग केवल मौन ही बना रह सकता है। यदि वह वुफछ कहता है तो वह स्वयं ही अपराधी होने का अनुभव करेगा क्योंकि वह तुरंत ही यह जान लेगा कि वह जो वुफछ भी जानता है उसे शब्दों के द्वारा स्थानांतरित नहीं किया जा सकता और उसका अनुभव पीछे छूट जाता है। तुम तक केवल शब्द ही पहुंचेंगे जो मृत, बासी और खाली होंगे। शब्दों से सूचना भेजी जा सकती है लेकिन सत्य नहीं। उससे केवल संकेत दिए जा सकते हैं।
नमक का मनुष्य तुमसे कह सकता है-‘‘तुम भी आ जाओ, वह तुम्हें निमंत्रण दे सकता है कि मेरे साथ तुम भी सागर में छलांग लगाओ।’’
लेकिन तुम बहुत चालाक हो। तुम कहोगे, पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दो अन्यथा मैं कैसे जान सकता हूं कि तुम ठीक हो? पहले मुझे विचार करने दो, सोचने दो और चिंतन करने दो तब मैं अनुसरण करूंगा। जब मेरा मन आश्वस्त और कायल हो जाता है, तभी मैं छलाग लगाउंफगा।’’
लेकिन मन कभी भी कायल नहीं होता, वह कायल हो भी नहीं सकता हैं मन और वुफछ भी नहीं है बल्कि वह संदेह करने की प्रक्रिया है। वह कभी भी कायल नहीं हो सकता, वह अनंत समय तक तर्क-वितर्क किए चले जा सकता है क्योंकि तुम जो वुफछ भी कहते हो वह उसके चारों ओर एक दलील उत्पन्न कर सकता है।
मैं एक बार मुल्ला नसरुद्दीन के साथ यात्रा कर रहा था। एक स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर एक नया व्यक्ति डिब्बे में आया और हो सकता है कि नसरुद्दीन को वह जानता हो। उसने कहा- ‘हलो।’ दोनों ने ही एक-दूसरे का अभिवादन किया और तब उसने पूछा-‘‘नसरुद्दीन! तुम्हारे कैसे हाल-चाल हैं?’’ नसरुद्दीन ने कहा-‘‘बढ़िया! पूरी तरह से ठीक-ठाक’’
तब उस व्यक्ति ने पूछा-‘‘और तुम्हारी पत्नी के कैसे हाल-चाल हैं?
नसरुद्दीन ने कहा-‘‘वह भी मजे से है। धन्यवाद।’’
-‘‘और तुम्हारे बच्चे कैसे हैं?’’
नसरुद्दीन ने कहा-‘‘वे सभी अच्छी तरह से हैं। धन्यवाद।’’
मुझे आश्चर्य हुआ। जब वह व्यक्ति अगले स्टेशन पर उतर गया तो मैंने नसरुद्दीन से पूछा-‘‘आखिर यह मामला क्या है? क्योंकि मैं भलीभांति जानता हूं कि तुम्हारे पास न तो कोई पत्नी है और न बच्चे हैं।’’
नसरुद्दीन ने कहा-‘‘यह मैं भी जानता हूं लेकिन विवाद क्यों उत्पन्न किया जाए?’’
कई बार बुद्धों ने केवल विवाद उत्पन्न न हो इसलिए अपने सिर नीचे झुका दिए हैं। कोई भी विवाद उत्पन्न न हो इसीलिए वे मौन बने रहे। उन्होंने अधिक नहीं कहा लेकिन उन्होंने जो वुफछ भी कहा उसके ही चारों ओर पर्याप्त तर्ग और विवाद उत्पन्न हो गए। तुम उसी तरह के हो। तुम सिद्धांत बुनोगे और तत्वज्ञान काटोगे और तुम उसमें इतने अधिक तल्लीन हो जाओगे कि तुम यह पूरी तरह भूल जाओगे कि सागर तुम्हारे बहुत निकट है। तुम पूरी तरह से भूल जाओगे कि सागर भी अस्तित्व में है।
दार्शनिक पूरी तरह से भूल जाते हैं कि जीवन क्या है। वे विचार और विचार और विचार किए चले जाते हैं और भटककर दूर निकल जाते हैं, क्योंकि सत्य से मन एक दूरी पर रहता है। तुम जितने अधिक मन के अंदर होते हो, सत्य से तुम उतनी ही अधिक दूर होते हो और तुम मन से जितने कम होते हो, तुम सत्य के उतने ही निकट होते हो। यदि एक क्षण के लिए वहां मन नहीं है तब तुमने छलांग लगा ली है और तब तुम सागर के साथ एक हो गए हो।
इसलिए पहली बात तो यह है कि जिसका स्मरण रखना है कि यदि वह प्रश्न तुम्हारे द्वारा उत्पन्न किया गया है और वह विश्व के अस्तित्वगत रहस्य से संबंधित नहीं है, तब उसका उत्तर दिया जा सकता है। वास्तव में केवल गणतीय प्रश्नों का उत्तर दिया जा सकता है। यही कारण है कि गणित एक ऐसा स्पष्ट विज्ञान है क्योंकि पूरा विषय मनुष्य द्वारा सृजित किया गया है। ब्रह्मांड में गणित का कोई भी अस्तित्व नहीं है, इसलिए गणित विशुद्धतम विज्ञान है तुम उसके बारे में निश्चित हो सकते हो क्योंकि तुमने ही पूरे खेल का सृजन किया है।
वहां वृक्ष हैं, लेकिन एक, दो, तीन अथवा चार वृक्ष ही नहीं हैं वहां संख्याओं का अस्तित्व ही नहीं हैं तुम संख्याएं सृजित करते हो, तुम उसका वास्तविक आधार सृजित करते हो और तब तुम पूछते हो-‘‘कितने हुए? यदि दो में दो जोड़े जाते हैं तो परिणाम क्या होता है, नतीजा क्या निकलता है?’’ तुम उत्तर दे सकते हो- ‘चार’ और वह उत्तर सत्य होगा, क्योंकि वह पूरा खेल तुमने ही बनाया है, तुमने ही सारे नियम बनाए हैं : दो और दो जुड़ने पर चार ही होते हैं। लेकिन अस्तित्व में यह सत्य नहीं है क्योंकि अस्तित्व में गणित विद्यमान ही नहीं है- यह गणित का पूरा कार्य-व्यापार मनुष्य के द्वारा निर्मित है। इसलिए तुम आगे बढ़ने जाते हो और तुम जितनी अधिक गणित और जितनी अधिक अंकगणित चाहो, उतनी अधिक सृजित कर सकते हो।
एक बार लोगों ने सोचा था कि वहां केवल एक ही गणित है, पर अब वे जानते हैं कि वहां अनेक हो सकते हैं क्योंकि मनुष्य उनका सृजन कर सकता है। एक बार लोग जानते थे कि वहां केवल एक ही ज्योमित अथवा यूक्लिड की ज्योमित है। अब वे जानते हैं कि तुम जितनी ज्योतितियां चाहो, उनका सृजन कर सकते हो। इसलिए अब वहां यूक्लीडियन ज्योमित और दूसरी ज्योमित भी है जो यूकिलड की नहीं है।
अनेक गणितों में संख्याओं के साथ खेल खेला गया हैं लाइबिनीज ने तीन अंकों के साथ कार्य किया : एक, दो और तीन। लाइबिनीज की गणित में दो धन दो (2 धन 2) चार नहीं होते क्योंकि चार का अंक अस्तित्व में है ही नहीं और वहां केवल एक, दो और तीन, केवल तीन अंक ही विद्यमान हैं। इसलिए लाइबिनीज के गणित में दो धन दो, दस हो हैं क्योंकि तीन के बाद दस आता है और चार का अस्तित्व ही नहीं है। आइंसटीन ने केवल दोअंकों के साथ कार्य किया : एक और दो, इसलिए आइंसटीन की गणित में दो धन दो ग्यारह होंगे और वे सभी लोग ठीक हैं, क्योंकि पूरा खेल मनुष्य के द्वारा निर्मित है। अब यह सभी वुफछ तुम पर निर्भर करता है।
इस बारे में नौ अथवा दस अंकों में विश्वास करना कोई आंतरिक आवश्यकता नहीं है, सिवाय इसके कि चूंकि मनुष्य के पास दस उंगलियां होती हैं, इसलिए लोगों ने उंगलियों पर गिनना शुरू कर दिया। इसी कारण पूरे विश्व-भर में दस मौलिक इकाई बनीं, अन्यथा वहां उसकी कोई भी आवश्यकता नहीं है।
गणित एक विचारों की उपज अथवा परिणम है : तुम एक प्रश्न पूछ सकते हो और तुम्हें एक ठीक उत्तर दिया जा सकता है लेकिन सिवाय गणित के प्रत्येक चीज़ रहस्यमय ढंग से गतिशील होती है। यदि वह जीवन से संबंधित है तो कोई भी उत्तर नहीं दिया जा सकता। तुम जो वुफछ भी कहोगे वह विनाशकारी होगा क्योंकि पूर्ण को कहा नहीं जा सकता। शब्द इतने अधिक सुरंग की तरह तंग हैं कि तुम आकाश को उनमें जाने के लिए बलात विवश नहीं कर सकते और यह असंभव है।
दूसरी बात जो स्मरण रखने की है : जब तुम एक सद्गुरु से कोई बात पूछते हो तो एक सद्गुरु- एक दार्शनिक अथवा एक विचारक नहीं होता, वह उसे जानता है, वह एक दृष्टा होता है, इसलिए जब तुम एक सद्गुरु से कोई बात पूछो तो उसके उत्तर के लिए न तो आशा या अपेक्षा करो और न उसकी प्रतीक्षा करो क्योंकि वह उत्तर ही है। जब तुम उससे कोई प्रश्न पूछते हो तो उत्तर की ओर सतर्क और सावधान न होकर सद्गुरु की ओर सावधानी से देखो क्योंकि वह ही उत्तर है। वह कोई उत्तर देने नहीं जा रहा है और उसकी उपस्थिति ही उत्तर है। लेकिन इस बारे में हम चूक जाते हैं।
तुम जाते हो और एक प्रश्न पूछते हो तो तुम्हारा पूरा मन अपने प्रश्न और उसकी प्रतीक्षा में आने वाले उत्तर के प्रति सावधान और सतर्क रहता है लेकिन सद्गुरु और उसका पूरा अस्तित्व तथा उसकी उपस्थिति ही उत्तर है। यदि तुम उसकी ओर देखो, यदि तुम उसका निरीक्षण करो, यदि तुम उसका मौन, उस क्षण में जिस तरह से वह तुम्हारी ओर देखता है, जिस तरह से वह चलता है, जिस तरह से वह व्यवहार करता है और जिस तरह से या तो मौन बना रहता है अथवा बातचीत करता है तो तुम उसके इशारे को प्राप्त कर लोगे। सद्गुरु स्वयं ही एक उत्तर है क्योंकि वह एक संकेत में दृष्टिगोचर होता है। सद्गुरु तुम्हें सत्य को दिग्दर्शित कर सकता है लेकिन उसे कह नहीं सकता। और तुम्हारा मन हमेशा उत्तर के साथ आवेशित बना रहता है : कि वह क्या कहने जा रहा है?
यदि तुम एक सद्गुरु के पास जाते हो तो उसकी उपस्थिति की ओर ध्यानपूर्ण बनना सीखो, बहुत अधिक बुद्धि की ओर उन्मुख मत रहो और न उत्तर पाने का आग्रह करो क्योंकि प्रत्येक उत्तर केवल तभी दिया जा सकता है जब समय प्रभावी होता है। आग्रह मत करो क्योंकि यह प्रश्न तुम्हारे हठ का नहीं है, ठीक और उचित चीज़ केवल तभी दी जा सकती है जब तुम परिपक्व होकर तैयार होते हो। इसलिए जब तुम एक सद्गुरु के निकट होते हो तो एक प्रश्न पूछ सकते हो- लेकिन तब प्रतीक्षा करना। तुमने पूछा है, तब वह जानता है। यदि तुमने नहीं पूछा है तो भी वह जानता है कि तुम्हारे अंदर ऐसा क्या है जो कठिनाई खड़ा कर रहा है। लेकिन ठीक अभी वह तुम्हें वुफछ भी नहीं दे सकता है, तुम तैयार नहीं हो सकते हो और यदि तुम तैयार नहीं हो तथा तुम्हें वुफछ चीज़ दी जाती है तो वह तुम तक नहीं पहुंचेगी क्योंकि केवल एक विशिष्ट तत्परता में ही विशिष्ट चीज़ें तुम्हारे अंदर प्रवेश कर सकती हैं। जब तुम परिपक्व हो जाते हो तो तुम समझ सकते हो। जब तुम तैयार होते हो तुम खुले हुए और ग्राह्यशील होते हो तो उत्तर दिया जाएगा, लेकिन शब्दों में नहीं और सद्गुरु उसे अनेक तरीकों से प्रकट करेगा। वह ऐसा कर सकता है। उसका संकेत देने के लिए वह अनेक विधियां या उपाय दे सकता है लेकिन तब तुम्हें उनके लिए तैयार होना होगा।
केवल क्योंकि तुमने प्रश्न पूछा है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम क्या हो। तुम एक प्रश्न पूछ सकते हो, बच्चे भी ऐसे रहस्यमय प्रश्न खड़े कर देते हैं कि एक बुद्ध भी उनका उत्तर देने में असमर्थ होगा। लेकिन क्योंकि ठीक अभी तुमने प्रश्न पूछा है क्योंकि तुम एक प्रश्न को बनाकर काफी स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकते हो पर इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम तैयार हो क्योंकि प्रश्न अनेकानेक स्रोतों से आते हैं। कभी-कभी तुम सामान्य रूप से उत्सुक होते हो। एक सद्गुरु वहां तुम्हारी उत्सुकताओं का पूरा करने के लिए नहीं होता है, क्योंकि उनमें बचपना होता है। कभी-कभी वास्तव में तुम्हारा वह अर्थ कभी नहीं होता। केवल यों ही तुम पूछ लेते हो, तुम दिखलाते हो कि तुम्हारी उसमें कोई भी दिलचस्पी नहीं थी और तुम किसी भी तरह से उस उत्तर का उपयोग करने नहीं जा रहे हो। कोई व्यक्ति मर गया है और तुम सामान्य रूप से प्रश्न पूछते हो-‘‘मृत्यु क्या होती है?’’ और अगले ही क्षण तुम उसे भूल जाते हो।
उत्सुकता एक चीज़ है। यह एक बचकानापन है और कोई भी सद्गुरु तुम्हारी उत्सुकताओं पर अपने जीवन को व्यर्थ नष्ट करने नहीं जा रहा है। जब तुम एक विशिष्ट बात पूछते हो तो वह केवल बुद्धिगत अथवा दार्शनिक हो सकती हैं; तुम्हारी उसमें दिलचस्पी है लेकिन बुद्धिगत- तुम अपनी अधिक जानकारी बढ़ाने के लिए उसका उत्तर चाहते हो, लेकिन तुम्हारी आत्मा उससे अप्रभावित बनी रहेगी। तब एक सद्गुरु की उसमें कोई भी अभिरुचि नहीं होती है क्योंकि उसकी अभिरुचि केवल तुम्हारी आत्मा में हैं जब तुम एक प्रश्न इस तरह का पूछते हो जैसे मानो तुम्हारा जीवन और मरण उस पर ही निर्भर हो, यदि तुम उसका उत्तर नहीं पाते हो तो तुम जैसे विफल हो जाओगे, तुम्हारा अस्तित्व उसके लिए क्षुदित बना रहेगा जैसे तुम प्यासे हो और तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसे प्राप्त करने को तैयार है और यदि उत्तर दिया जाता है तो तुम उसे पचा लोगे और वह तुम्हारी अस्थियां और रक्त बन जाएगा और वह तुम्हारे हृदय की वास्तविक धड़कन में गतिशील होगा, केवल तभी एक सद्गुरु तुम्हें उत्तर देने को तैयार होगा।
तुम एक प्रश्न पूछते हो...  तब सद्गुरु तुम्हें उत्तर को प्राप्त करने के लिए तैयार बनाने में तुम्हारी सहायता करने का प्रयास करेगा। तुम्हारे प्रश्न और सद्गुरु के उत्तर के मध्य वहां एक बड़ा अंतराल हो सकता है। तुम प्रश्न आज पूछते हो और हो सकता है कि वह उसका उत्तर बारह वर्षों बाद दें क्योंकि तुम्हें उसे प्राप्त करने के लिए तैयार होना होगा। तुम्हें बंद न बने रहकर अपने हृदय के द्वार को खोलना होगा और तुम्हें उसे अपने अस्तित्व की प्रामाणिक गहराई तक अवशोषित करने के लिए तैयार होना होगा।
अब इस बोध-कथा को समझने का प्रयास करो।
मठ के एक ध्यानी की मृत्य होने पर
सद्गुरु डोगो अपने शिष्य ज़ेनगेन के साथ
मृत व्यक्ति के परिवार से मिलने गया।
सहानुभूति और संवेदना का एक शब्द भी
अभिव्यक्त करने का समय लिए बिना ही,
ज़ेनगेन ताबूत तक गया और उसे ठकठकाते हुए
उसने सद्गुरु डोगो से पूछा :
‘‘क्या वह वास्तव में मर गया है?’’
पहली बात : जहां मृत्यु हुई हो, वहां तुम्हें बहुत सम्मानपूर्ण होना है, क्योंकि मृत्यु कोई सामान्य घटना नहीं है, वह संसार में सबसे अधिक असाधारण घटना है। मृत्यु की अपेक्षा वुफछ और अधिक रहस्यमय नहीं है। मृत्यु अस्तित्व के वास्तविक केंद्र तक पहुंचती है और जब एक व्यक्ति मर गया है तो तुम एक पावन भूमि पर जा रहे होऔर जितना भी संभव हो सकता है वह क्षण उतना ही अधिक धार्मिक हो। नहीं, किसी को भी सामान्य उत्सुकताओं को प्रकट करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। वे असम्मानजनक हैं।
विशेष रूप से पूरब में, मृत्यु जीवन की अपेक्षा कहीं अधिक सम्मानपूर्ण है और इस निष्कर्ष तक पहुंचने में पूरब ने बहुत लंबी अवधि तक जीवन को जीआ है। पश्चिम में मृत्यु की अपेक्षा जीवन कहीं अधिक सम्मानित है इसीलिए वहां इतना अधिक तनाव, इतनी अधिक चिंता, इतनी अधिक वेदना और इतना अधिक पागलपन है। क्यों? यदि तुम जीवन को अधिक सम्मान देते हो तो तुम मृत्यु से भयभीत रहोगे, तब मृत्यु एक विरोधी शत्रु की भांति दिखाई देगी और यदि मृत्यु एक शत्रु है तो तुम अपने पूरे जीवन-भर तनावग्रस्त रहोगे क्योंकि मृत्यु किसी भी क्षण घटित हो सकती है। तुम उसे स्वीकार न कर अस्वीकार करते हो लेकिन तुम उसे मिटा नहीं सकते। मृत्यु को नष्ट नहीं किया जा सकता। तुम उसे अस्वीकार कर सकते हो, तुम उससे इंकार कर सकते हो, तुम उससे भयभीत हो सकते हो, लेकिन वह वहां है, ठीक कोने में ही छिपी है और तुम्हारे साथ हमेशा एक छाया के समान रहती है। तुम उससे पूरे जीवन-भर कांपते रहोगे और तुम अभी भी कांप रहे हो। और भय में, सभी तरह के भयों में यदि गहनता से खोज की जाए तो तुम मृत्यु का ही भय पाओगे।
जब कभी भी तुम भयभीत होते हो तो जैसे किसी चीज़ ने तुम्हें मृत्यु का एक संकेत दिया है। यदि तुम्हारा बैंक दिवालिया हो जाता है और तुम भय से भरकर कांपते हुए व्यग्र हो जाते हो- वह भी मृत्यु के बारे में ही होने वाली व्यग्रता है क्योंकि तुम्हारी बैंक में जमा धनराशि और वुफछ भी न होकर मृत्यु के विरुद्ध एक सुरक्षा थी। अब तुम अधिक खुले हुए असुरक्षित हो और तुम्हें सरलता से आघात पहुंचाया जा सकता है। अब यदि मृत्यु तुम्हारा द्वार खटखटाती है तो कौन तुम्हारी सुरक्षा करेगा। यदि तुम रुग्ण हो जाते हो, यदि तुम वृद्ध हो जाते हो तो कौन तुम्हारी देखभाल करने जा रहा है? गारंटी तो वहां बैंक में थी और बैंक दिवालिया हो गया है।
तुम पद, प्रतिष्ठा और सत्ता से चिपके हुए हो क्योंकि जब तुम्हारे पास एक पद और एक अच्छी स्थिति होती है तो तुम इतने अधिक महत्वपूर्ण होते हो कि लोगों के द्वारा तुम अधिक सुरक्षित होते हो। जब तुम सत्ता में नहीं होते हो तो तुम इतने अधिक शक्तिहीन बन जाते हो कि कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह से तुम्हारी फिक्र नहीं करता कि तुम कौन हो। जब तुम सत्ता में होते हो तो तुम्हारे पास मित्र, परिवार और अनुसरणकर्ता होते हैं और जब तुम सत्ता में नहीं होते हो तो प्रत्येक व्यक्ति तुम्हें छोड़ देता हैं वहां एक सुरक्षा थी, वहां तुम्हारी देखभाल करने के लिए कोई व्यक्ति था और अब कोई भी व्यक्ति देखभाल नहीं करता है। जिस किसी भी चीज़ से तुम भयभीत हो, यदि तुम गहनता से खोज करो तो तुम हमेशा कहीं-न-कहीं मृत्यु की छाया को पाओगे।
तुम एक पति से लिपटी हुई हो, तुम भयभीत हो कि वह तुम्हें छोड़ सकता है अथवा तुम एक पत्नी से चिपके हुए हो और डरते हो कि वह तुम्हें छोड़ सकती है। भय क्या है? यह क्या वास्तव में तलाक का डर है अथवा यह भय मृत्यु का है? यह भय मृत्यु का है...  क्योंकि तलाक में तुम अकेले ही जाते हो। दूसरा व्यक्ति तुम्हें एक सुरक्षा देता है, एक अनुभूति देता है कि तुम अकेले नहीं हो और कोई अन्य व्यक्ति भी तुम्हारे साथ है। उन क्षणों में जब किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता पड़ेगी तो तुम्हारे पास तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई व्यक्ति होगा। लेकिन पत्नी ने तुम्हें छोड़ दिया अथवा पति ने तुम्हें छोड़ दिया और अब तुम अकेले एक अजनबी की भांति रह गए हो। कौन तुम्हारी सुरक्षा करेगा? जब तुम बीमार होते हो तो कौन तुम्हारी देखभाल करेगा।
जब लोग युवा होते हैं, उन्हें पति और पत्नी की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं होती, लेकिन जब वे वृद्ध होते हैं तो उनकी आवश्यकता अधिक होती है। जब तुम युवा हो तो वह एक कामवासना का संबंध है। तुम जितने अधिक वृद्ध होते हो वह उतना ही अधिक एक जीवन का संबंध बन जाता है क्योंकि अब यदि दूसरा तुम्हें छोड़ता है तो तुरंत वहां मृत्यु होती हैं जहां कहीं भी तुम भयभीत होते हो तो खोजने का प्रयास करो और तुम मृत्यु को कहीं पीछे छिपा हुआ पाओगे। सारा भय मृत्यु का है। केवल मृत्यु ही भय का स्रोत हैं।
पश्चिम में लोग बहुत अधिक डरे हुए, चिंतित और उद्विग्न हैं क्योंकि तुम्हें निरंतर मृत्यु के विरुद्ध लड़ना है। तुम जीवन से प्रेम करते हो, तुम जीवन का सम्मान करते हो- इसी कारण पश्चिम में वृद्ध लोगों का सम्मान नहीं किया जाता है। युवा लोगों का सम्मान किया जाता है क्योंकि वृद्ध लोग तुम्हारी अपेक्षा मृत्यु की ओर आगे बढ़ गए हैं और वे लोग पहले ही से उसकी पकड़ में हैं। पश्चिम में युवावस्था का सम्मान किया जाता है और युवावस्था एक होने वाले परिवर्तन अथवा संक्रमण की घटना है जो पहले ही तुम्हारे हाथों से गुजर रही हैं
पूरब में वृद्ध लोगों का सम्मान किया जाता है क्योंकि पूरब में मृत्यु का सम्मान किया जाता है और क्योंकि पूरब में मृत्यु का सम्मान किया जाता है, वहां मृत्यु के बारे में कोई भी भय नहीं है। जीवन केवल एक भाग है और मृत्यु है उसकी चरम सीमा। जीवन केवल एक प्रक्रिया है और मृत्यु है उसके स्वर का उत्कर्ष। जीवन केवल एक चलना है और मृत्यु है मंजिल पर पहुंचना। और दोनों एक ही हैं, इसलिए तुम किसको अधिक सम्मान दोगे, मार्ग को अथवा मंजिल को? प्रक्रिया को अथवा खिलावट को?
मृत्यु एक पुष्प है, और जीवन और वुफछ भी नहीं बल्कि एक वृक्ष है। वहां वृक्ष है- फूल देने के लिए, वहां फूल वृक्ष के लिए नहीं है। जब फूल आते हैं तो वृक्ष को प्रसन्न होना चाहिए और उसे नृत्य करना चाहिए।
इसलिए पूरब में मृत्यु को स्वीकार किया गया है, न केवल स्वीकार किया गया है, उसका स्वागत किया गया हैं वह एक दिव्य अतिथि है। जब वह द्वार खटखटाता है तो उसका अर्थ है कि त्रिभुवन, तुम्हारे वापस लौटकर आने का स्वागत करने को तैयार है।
पूरब में हम मृत्यु का स्वागत करते हैं और यह युवक ज़ेनगेन सहानुभूति अथवा सम्मान का एक शब्द भी अभिव्यक्त किए बिना ही अंदर आया। वह पूरी तरह से उत्सुक हो उठा। इतना ही नहीं उसका व्यवहार बहुत असम्मानपूर्ण भी था- उसने ताबूत को ठकठकाया और डोगो से पूछा-‘‘क्या वह वास्तव में मर गया है?’’ उसका प्रश्न सुंदर है लेकिन उचित क्षण में नहीं किया गया है। प्रश्न तो ठीक है लेकिन उसके पूछने का जो क्षण उसने चुना है वह गलत है। मृत्यु के सम्मुख उत्सुकता प्रकट करना बचपना है; प्रत्येक व्यक्ति को सम्मानपूर्ण और मौन बने रहना है। उस घटना के साथ संबंध बनाने का केवल वही एक उपाय है।
जब कोई व्यक्ति मरता है तब वास्तव में वह एक बहुत गहन घटना जैसी वुफछ चीज़ होती है। यदि तुम वहां बैठे रहकर केवल ध्यान कर सकते हो तो तुम पर अनेक चीज़ें प्रकट होंगी। वहां प्रश्न पूछना मूर्खता है। जब वहां मृत्यु है तो तुम ध्यान क्यों नहीं करते? प्रश्न करना उस बात से बचने की एक चालबाजी है, वह केवल एक सुरक्षा की खातिर भी हो सकता है, जिससे तुम्हें मृत्यु में प्रत्यक्ष रूप से न देखना पड़े।
मैंने निरीक्षण किया है कि जब लोग किसी मुर्दे को जलाने अथवा दफन करने जाते हैं, वे वहां बहुत अधिक बातचीत करना प्रारंभ कर देते हैं। शमशानघाट पर वे अनेक दार्शनिक विषयों पर चर्चा-परिचर्चा करते हैं। बचपन में मैं प्रत्येक अर्थी का अनुसरण करने से बहुत प्रेम करता था। जो कोई भी व्यक्ति मरता, मैं वहां होता था। मेरे माता-पिता भी इससे बहुत अधिक डरते थे और कहते थे-‘‘तुम वहां क्यों जाते हो? हम लोग उस व्यक्ति को जानते भी नहीं। वहां जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।’’
मैं कहता-‘‘प्रयोजन वह नहीं है। उस व्यक्ति में मेरी दिलचस्पी न होकर मृत्यु में है। वह एक ऐसी आकर्षक और सबसे अधिक रहस्यमय घटनाओं में से एक है। प्रत्येक व्यक्ति को उससे नहीं चूकना चाहिए।’’ इसलिए जिस क्षण मैं सुनता था कि कोई व्यक्ति मर गया है तो मैं वहां होता और जो वुफछ हो रहा होता था मैं हमेशा साक्षी बना निरीक्षण करता और प्रतीक्षा करता।
और मैं निरीक्षण करता था कि लोग अनेक दार्शनिक विषयों और समस्याओं पर चर्चा-परिचर्चा कर रहे हैं, जैसे कि-‘‘मृत्यु क्या है? और कोई व्यक्ति कहता : कोई भी व्यक्ति नहीं मरता है। अंतरस्थ में स्थित आत्मा अमर है। वे लोग गीता ओर उपनिषदों पर चर्चा करते और वे अधिवृफत लोगों के वचनों को उद्धृत करते। मैं अनुभव करने लगा कि वे लोग बच रहे हैं। केवल चर्चा में व्यस्त बने रहकर वे उस बात को टाल रहे हैं जो घटित हो रही है। वे लोग मृत व्यक्ति की ओर नहीं देख रहे हैं और वह व्यक्ति वहां है। मृत्यु वहां है और तुम उसकी चर्चा कर रहे हो। कितने मूर्ख हैं लोग?’’
तुम्हें मौन बने रहना है। जब वहां मृत्यु है और तुम मौन बने रह सकते हो तो अचानक तुम चीज़ें देखोगे क्योंकि मृत्यु केवल एक व्यक्ति की सांस का रुक जाना नहीं है। बहुत-सी चीज़ें घटित हो रही हैं। जब एक व्यक्ति मरता है उसका आभामंडल लुप्त होना शुरू हो जाता है। यदि तुम मौन हो तो तुम उसका अनुभव कर सकते हो। एक ऊर्जा शक्ति, एक प्राण-ऊर्जा क्षेत्र लुप्त होकर केंद्र पर वापस लौट रहा होता है।
जब एक बच्चा जन्म लेता है तो ठीक इसके विपरीत घटित होता है। जब एक जन्म लेता है तो एक आभामंडल नाभि के निकट से फैलाना शुरू होता है। ठीक जैसे कि जब तुम एक पत्थर कोझील में पेंफकते हो तो लहरें फैलकर किनारे की ओर जाने लगती हैं। जब एक बच्चा श्वास लेता है तोझील में पत्थर पेंफकने के समान ही होता है। और बच्चे की श्वास लेने से उसकी नाभि के केंद्र पर चोट लगती है। शांत झील में पहला पत्थर पेंफक दिया गया है और लहरें फैलती चली जाती हैं।
अपने पूरे जीवन-भर तुम फैलते चले जाते हो। लगभग पैंतीस वर्ष की आयु में तुम्हारा आभामंडल पूरा होकर अपने शिखर पर होता है। तब वह लुप्त होना शुरू हो जाता है। जब एक व्यक्ति मरता है वह लौटकर नाभि में वापस चला जाता है। जब वह नाभि पर पहुंचता है, वह एक केंद्रित ऊर्जा और केंद्रित प्रकाश बन जाता हैं यदि तुम मौन रहते हो तो तुम उसका अनुभव कर सकते हो, तुम एक खिंचाव का अनुभव करोगे। यदि तुम एक मृत व्यक्ति के निकट बैठते हो तो तुम अनुभव करोगे, जैसे मानो मृत व्यक्ति की ओर एक सूक्ष्म हवा का झोंका बह रहा है और तुम उसके द्वारा खींचे जा रहे हो। मृत व्यक्ति अपने पूरे जीवन को और पूरे ऊर्जा क्षेत्र को जो उसके पास था सिकोड़ रहा है।
एक मृत व्यक्ति के चारों ओर अनेक चीज़ें घटित हो रही हैं। यदि उसने एक व्यक्ति से बहुत गहन प्रेम किया है तो इसका अर्थ है कि उसने अपनी जीवन-ऊर्जा का एक भाग उसे दिया था और जब एक व्यक्ति मरता है तो तुरंत ही वह भाग जो उसने दूसरे व्यक्ति को दिया था, उस व्यक्ति को छोड़कर मृत व्यक्ति की ओर चला जाता है। यदि तुम यहां मरते हो और तुम्हारा प्रेमी हांगकांग में रहता है तो तुरंत ही तुम्हारा प्रेमी वुफछ चीज़ छोड़ेगा क्योंकि तुमने अपने जीवन का जो एक भाग उसे दिया था वह तुम तक वापस लौटकर आ जाएगा। इसी कारण जब कोई अपना प्रिय मरता है तुम अनुभव करते हो कि वुफछ चीज़ तुम्हें भी छोड़कर चली गई है और तुम्हारे अंदर भी वुफछ चीज़ मर गई है। अब एक गहरा घाव और एक गहन अंतराल मौजूद रहेगा।
जब भी एक प्रेमी मरता है उसकी प्रेमिका में भी वुफछ चीज़ मर जाती है क्योंकि वे लोग एक-दूसरे के साथ गहनता से जुड़े हुए थे। यदि तुमने अनेकानेक लोगों से प्रेम किया है- उदाहरण के लिए यदि डोगो के अथवा एक बुद्ध के समान एक व्यक्ति मरता है तो पूरे त्रिभुवन भर से सारी ऊर्जा, केंद्र को वापस लौटती है। यह एक विश्वजनीन घटना है क्योंकि वह अनेकानेक जीवनों और लाखों जन्मों से संयुक्त रहा है और हर कहीं से उसकी ऊर्जा वापस लौटेगी। जो वंफपनें उसने अनेक लोगों की दी हैं, वे मुक्त होंगी, वे मूल स्रोत की ओर गतिशील होंगी और वे पुनः नाभि के निकट केंद्रित हो जाएंगी।
यदि तुम निरीक्षण करते हो तो तुम उलटे क्रम में वापस लौटती हुई तरंगों का अनुभव करोगे और जब वे नाभि में पूर्ण रूप से केंद्रित हो जाती हैं तो तुम एक विशाल ऊर्जा और एक आश्चर्यजनक प्रकाशपुंज को देख सकते हो। और तब वह केंद्र शरीर को छोड़ता है। जब एक व्यक्ति मरता है तो वह सामान्य रूप से श्वास का रुक जाना होता है और तुम सोचते हो कि वह मर गया है। वह अभी मरा नहीं है, उसमें समय लगता है। जब कभी यदि कोई व्यक्ति लाखों जन्मों से जुड़ा रहा है तो उसे मरने में कई दिन लग जाते हैं- इसी कारण विशेष रूप से पूरब में ऋषियों और संतों के शरीरों को हम कभी नहीं जलाते। केवल संतों को नहीं जाया जाता, अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति को जलाया जाता है क्योंकि वे दूसरों के साथ इतने अधिक संबद्ध नहीं होते हैं मिनटों में ऊर्जा एकत्रित हो जाती है और वे फिर और इस अस्तित्व का भाग नहीं रह जाते।
लेकिन संतों के साथ ऊर्जा समय लेती है। कभी-कभी वह चलती चली जाती है। इसी कारण यदि तुम शिरडी अर्थात साईं बाबा के नगर में जाओ, तुम अब भी अनुभव करोगे कि वुफछ चीज़ हो रही है, अभी भी ऊर्जा आती चली जाती है। वह अनेक लोगों के साथ इतने अधिक संबद्ध हो गए थे कि वह अभी भी जीवित हैं। साईं बाबा का मकबरा मृत नहीं है और वह अभी भी जीवंत है। लेकिन यही चीज़ तुम अनेक कब्रों के निकट अनुभव न करोगे- वे मृत हैं। मृत होने से मेरा अर्थ है कि उन्होंने सभी लोगों की संबद्धताओं को इकट्ठा कर लिया है और वे विलुप्त हो गए।
जब मैं मर जाउंफ तो मेरे शरीर को दफनाना मत, उसे जलाना मत क्योंकि मैं तुम्हारे अंदर और तुममें से अनेक लोगों के अंदर घिरा रहूंगा। यदि तुम अनुभव कर सकते हो, तब एक ऋषि अनेक वर्षों के लिए और जब कभी हजारों वर्षों तक जीवित बना रह सकता है क्योंकि जीवन केवल शरीर का ही नहीं हैं जीवन एक ऊर्जा की चीज़ है। यह संबद्धता पर निर्भर करता है, वह कितने अधिक लोगों के अंदर मिलकर एक हो गए थे और एक बुद्ध के समान व्यक्ति केवल व्यक्तियों के ही साथ ही संबद्ध नहीं होता है, वह वृक्षों, पक्षियों और जानवरों के साथ भी संबद्ध होता है। उसकी संबद्धता इतनी अधिक गहन होती है कि यदि वह मर जाता है तो उसकी मृत्यु कम-से-कम पांच सौ वर्ष लेगी।
मिली सूचनाओं के आधार पर बुद्ध ने कहा था- मेरे धर्म में केवल पांच सौ वर्षों तक ही जीविन-शक्ति रहेगी और यहां उसका अर्थ यही है कि उनके पास पांच सौ वर्षों की जीवन-शक्ति होगी। सभी संबद्धताओं से पूर्ण रूप से बाहर आने के लिए उन्हें पांच सौ वर्ष लगेंगें
जब मृत्यु होती है, मौन बने रहो। निरीक्षण करो। पूरे विश्व-भर में जब भी एक मृत व्यक्ति को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है, तुम मौन हो जाते हो। तुम बिना जाने क्यों दो मिनट के लिए मौन बने रहते हो। पूरे विश्व-भर में यह परंपरा निरंतर बनी रही है। मौन ही क्यों?
यह परंपरा अर्थपूर्ण है। हो सकता है कि तुम नहीं जानते हो कि ऐसा क्यों होता है? अन्यथा तुम सचेत बने रह सकते हो और तुम्हारे मौन में हो ेसकता है मन के अदंर चलने वाली चटर-पटर भरी हो अथवा हो सकता है कि तुम इसे एक कर्मकांड के समान करते हो।
सहानुभूति और संवेदना का एक शब्द भी
अभिव्यक्त करने का समय लिए बिना ही,
ज़ेनगेन ताबूत तक गया, और उसे ठकठकाते हुए
उसने सद्गुरु डोगो से पूछा- क्या वह वास्तव में मर गया है?
उसका प्रश्न ठीक हे लेकिन पूछने का समय ठीक नहीं है। उसने गलत अवसर का चुनाव किया है। यह क्षण इस बारे में बात करने का नहीं है, यह क्षण उसके साथ बने रहने का है। और जो व्यक्ति मरा है उसे अनिवार्य रूप से बहुत गहन होना चाहिए अन्यथा डोगो उसके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए नहीं गया होता। डोगो एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति है। वह शिष्य जो मरा है उसमें अनिवार्य रूप से वुफछ बात होनी ही चाहिए और डोगो उसके लिए वुफछ और अधिक कार्य करने के लिए वहां गया था। जब तुम जीवित हो तब सद्गुरु तुम्हारी सहायता कर सकता है लेकिन एक सद्गुरु तब भी तुम्हारी और अधिक सहायता कर सकता है जब तुम मर गए हो- क्योंकि मृत्यु में एक गहन समर्पण घटित होता हैं
जीवन में तुम अपने सद्गुरु के भी साथ हमेशा प्रतिरोध करते हो, लड़ते हो, उसे समर्पण नहीं करते अथवा अधूरे हृदय से समर्पण करते हो- जिसका वुफछ भी अर्थ नहीं है लेकिन जब तुम मर रहे हो तो समर्पण करना सरल होता है क्योंकि मृत्यु और समर्पण समान प्रक्रियाएं हैं। जब पूरा शरीर मर रहा है तुम सरलता से समर्पण कर सकते हो। लड़ना कठिन है, प्रतिरोध करना भी कठिन है। तुम्हारा शरीर एक परम विश्राम और स्वीकार भाव में जा रहा है और तुम्हारा अवरोध पहले ही टूट चुका है, यही है वह जिसे मृत्यु कहा जाता है।
वहां डोगो वुफछ विशेष बात के लिए गया था और इस शिष्य ने एक प्रश्न पूछ लिया। प्रश्न ठीक है लेकिन समय ठीक नहीं है।
डोगो ने कहा-‘‘मैं वुफछ भी नहीं कहूंगा।’’
ज़ेनगेन ने हठ करते हुए कहा-‘‘ठीक है- तब... ?’’
डोगो ने कहा-‘‘मैं वुफछ भी नहीं कह रहा हूं
और यही अंतिम (शब्द) है।
पहली बात : मृत्यु के बारे में क्या कहा जा सकता है? तुम मृत्यु के बारे में कोई बात कैसे कह सकते हो? किसी भी शब्द के लिए मृत्यु का अर्थ वहन करना संभव ही नहीं है। इस मृत्यु शब्द का अर्थ क्या है? वास्तव में इसका अर्थ वुफछ भी नहीं है। तुम्हारे कहने का क्या अर्थ होता है, जब तुम मृत्यु का प्रयोग करते हो। वह सामान्य रूप से उस पार का एक द्वार है जिसे हम नहीं जानते कि वहां क्या होता है। हम एक व्यक्ति को द्वार के अंदर विलुप्त होते हुए देखते हैं। हम द्वार तक तो देख सकते हैं और तब वह व्यक्ति पूरी तरह से लुप्त हो जाता है। तुम्हारा शब्द मृत्यु द्वार का अर्थ दे सकता है लेकिन वास्तव में द्वार के पार क्या होता है? क्योंकि द्वार वस्तु नहीं है।
द्वार है, उससे होकर गुजरने के लिए। तब उस एक के साथ क्या होता है जो द्वार से गुजरकर लुप्त हो जाता है क्योंकि उस पार हम देख नहीं सकते कि उसके साथ क्या होता है? और यह द्वार क्या है? क्या केवल श्वास का रुक जाना? क्या श्वास ही जीवन की पूर्णता है?
क्या श्वास की अपेक्षा तुम्हारे पास कोई और अधिक चीज नहीं है? श्वास रुक जाती है--...  शरीर नष्ट होने लगता है--...  यदि तुम अकेले शरीर और श्वास ही हो, तब वहाँ कोई भी समस्या नहीं है। तब मृत्यु कुछ भी नहीं है। वह किसी भी चीज का द्वार नहीं है। वह बिल्कुल होना नहीं, पूर्ण रुप से श्वास का रुक जाना है। वह ठीक एक घड़ी के समान है
घड़ी टिक-टिक करती हुई कार्य कर रही है, तब वह रुक जाती है, तुम यह नहीं पूंछते, वह टिक-टिक करना कहाँ चला गया- वह पूँछना अर्थहीन होगा। वह कहीं भी नहीं गया है। वह बिल्कुल ही नहीं चला गया है, वह सामान्य रूप से रुक गया है; वह एक यांत्रिकत्व था और उसके यांत्रिकत्व में कुछ चीज गलत हो गई है- तुम उस यंत्र की मरम्मत कर सकते हो, तब वह फिर से टिक-टिक करने लगेगी। क्या मृत्यु ठीक एक घड़ी के रुकने के समान है? क्या वह ठीक उसी के समान है? यदि ऐसा है, तो यह वास्तव में कुछ भी रहस्य नहीं है। लेकिन जीवन इतनी आसानी से कैसे विलुप्त हो सकता है? जीवन एक यंत्र नहीं है। जीवन है सचेतनता और सजगता। घड़ी सचेत नहीं है- तुम टिक-टिक की ध्वनि सुन सकते हो, पर घड़ी ने उसे कभी भी नहीं सुना। तुम अपने हृदय की धड़कनों को सुन सकते हो, पर घड़ी ने उसे कभी भी नहीं सुना। तुम अपने हृदय की धड़कनों को सुन सकते हो। यह सुनने वाला कौन है? यदि केवल हृदय की धड़कन ही जीवन है, तो यह सुनने वाला कौन है? यदि केवल श्वास ही जीवन है, तो तुम श्वास के प्रति सचेत कैसे हो सकते हो? यही कारण है कि ध्यान की सभी पूरबी विधियाँ, एक सूक्ष्म साधन की भाँति श्वास के प्रति सचेत होने का प्रयोग करती है- क्योंकि यदि तुम श्वास के प्रति सचेत हो जाते हो, तब यह सचेत होता कौन है? उसे श्वास के पार का कोई व्यक्ति होना चाहिए, क्योंकि तुम उसकी ओर देख सकते हो और देखने वाला विषय अथवा वस्तु नहीं हो सकती तुम उसके साक्षी हो सकते हो तुम अपनी आंखे बंद कर सकते हो और तुम अपनी श्वास को अंदर जाते और बाहर जाते देख सकते हो। यह देखने वाला और साक्षी होने वाला कौन है? उसे पृथक शक्ति होना चाहिए, जो श्वास पर निर्भर नहीं है। जब श्वास विलुप्त हो जाती है तो वह घड़ी का रूक जाना है, लेकिन वह सचेतना कहां चली जाती है? यह सचेतनता कहां गतिशील हो जाती है?
मृत्यु एक द्वार है, वह एक रूक जाना नहीं है सचेतनता आगे जाती है लेकिन तुम्हारा शरीर द्वार पर ही पड़ा रह जाता है- ठीक वैसे ही जैसे कि तुम यहां आए हो और अपने जूतों को द्वार पर ही छोड़ दिया है शरीर मंदिर के बाहर ही छोड़ दिया जाता है और तुम्हारी चेतना मंदिर में प्रवेश करती है यह सबसे अधिक सूक्ष्म घटना है जीवन इसके सामने कुछ भी नहीं है। मूल रूप से मरने के लिए जीवन केवल एक तैयारी है, और केवल वे ही लोग बुद्विमान हैं, जो अपने जीवन में यह सीखते हैं कि कैसे मरा जाए। यदि तुम यह नहीं जानते हो कि कैसे मरा जाए तो तुम जीवन के पूरे अर्थ से ही चूक गए हो : यह एक तैयारी है, यह एक प्रशिक्षण है और यह एक अनुशासन है।
जीवन एक अंत नहीं है, यह मरने की कला सीखने का केवल एक अनुशासन है। लेकिन तुम डरे हुए हो, तुम भाग रहे हो और मृत्यु के वास्तविक शब्द से ही तुम कापने लगते हो। इसका अर्थ है कि तुमने अभी तक जीवन को हीं नहीं जाना है, क्योंकि जीवन कभी नहीं मरता है जीवन मर ही नहीं सकता।
 कहीं तुम शरीर के साथ, उसके यांत्रिकत्व के साथ पहिचान बना लेते हो। उसके यांत्रिकत्व को मरना है, यांत्रिकत्व शाश्वत नहीं हो सकता, क्योंकि यांत्रिकत्व अनेक चीजों पर निर्भर होता है, और वह एक बाह्य परीस्थितियों पर आश्रित चीज है। चेतना बेशर्त है और वह किसी चीज पर आश्रित नहीं है वह आकाश में एक बादल के समान तैर सकती है।
उसकी कोई जड़े नही होती। उसका कोई कारण नहीं है उसका कभी जन्म नहीं होता इसलिए वह कभी मर भी नहीं सकती।
जब कोई व्यक्ति मरता है तुम्हें उसके निकट ध्यानपूर्ण बने रहना है क्योंकि एक मंदिर बस निकट ही है और वह एक धार्मिक भूमि है बचपना मत करो, अपनी उत्सुकताओं मत लाओ और मौन बने रहो, जिससे तुम देख सको और निरिक्षण कर सको कि कोई बहुत-बहुत अर्थपूर्ण चीज घटित हो रही है- उस क्षण से चूको मत और जब मृत्यु वहां है, तो उसके बारे में क्यों पूछते हो? उसकी ओर देखते क्यों नहीं? उसका निरिक्षण क्यों नही करते? उसके साथ थोड़े से कदम चलते क्यों नहीं?
      जेनगेन ने हठ करते हुए कहा : यह तो ठीक है पर --------------------...
डोगो ने कहा ‘‘ मैं कुछ नहीं कह रहा हूं और यहीं अंतिम (शब्द) है।
मठ की ओर वापस लौटते हुए रास्ते में ही।
क्रोधित, जेन गेन, डोगोकी ओर मुड़ा।
और उसे धमकी देते हुए कहा : परमात्मा की शपथ!
यदि आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देते, तो मैं आपको पीटूंगा’’
यह ‘ज़ेन’ में ही संभव है, कि एक शिष्य भी सद्गुरू को पीट सकता है, क्योंकि ज़ेन जीवन के प्रति बहुत सच्चा और बहुत प्रामाणिक है। एक ज़ेन सदगुरू अपने चारो और एक ऐसी दृश्यसत्ता सृजित नहीं करता कि मैं तुम्हारी अपेक्षा कहीं अधिक धार्मिक हूँ। वह यह नहीं कहता मैं बहुत श्रेष्ठ और उच्च हूँ। एक व्यक्ति जो बोध उपलब्ध हुआ हो, को यह कैसे कह सकता है। मैं तुमसे श्रेष्ठ और उच्च हूं और तुम मुझसे निम्न और हीन हो। शिष्य ऐसा सोच सकता है कि वह श्रेष्ठ है, लेकिन सद्गुरू किसी भी श्रेष्ठता का दावा नही कर सकता, क्योंकि श्रेष्ठता का दावा केवल हीनता के द्वारा ही किया जा सकता है श्रेष्ठता का दावा केवल अंहंकार के द्वारा ही किया जा सकता है जो शक्तिहीन और निम्न स्तर का है केवल निर्बलता के द्वारा ही शक्ति होने का दावा किया जाता है जब तुम अनिश्चित होते हो तुम निश्चितता का दावा करते हो, जब तुम रूग्ण होते हो, तुम स्वस्थ्य होने का दावा करते हो, और जब तुम नहीं जानते हो तो ज्ञानी होने का दावा करते हो। तुम्हारे दावे सत्य को पूरी तरह से छिपाने के लिए होते है। एक सद्गुरू कुछ भी दावा नहीं करता। वह ये नहीं कह सकता कि मैं श्रेष्ठ हूं। यह मूर्खता है एक बुद्विमान व्यक्ति यह कैसे कह सकता है कि मैं श्रेष्ठ हूं।
इसलिए एक जेन सद्गुरू इसकी भी अनुमति देता है कि शिष्य उस पर चोट कर सकता है और पूरी चीज का आनंद ले सकता है। संसार में किसी अन्य व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया है : इसी कारण ज़ेन सदगुरू बेजेड़ है- तुम उनकी अपेक्षा ऐसे दुर्लभ पुष्प नहीं खोज सकते। सद्गुरू वास्तव में इतना अधिक श्रेष्ठ है कि वह तुम्हें अपने पर चोट तक करने की अनुमति देता है इसके द्वारा उसकी श्रेष्ठता को चुनौती नहीं दी जा सकती। तुम किसी भी ढंग से उसे चुनौती नहीं दे सकते और न तुम किसी भी तरह से उसे नीचे ही ला सकते हो। वह वहां और अधिक है ही नहीं। वह एक खाली घर के समान है। और वह जानता है कि एक शिष्य केवल एक मुर्ख ही हो सकता है। कुछ अन्य चीज की आशा नहीं की जा सकती क्योंकि एक शिष्य अज्ञानी है।
 करूणा की जरूरत है, और एक शिष्य का अज्ञान में ऐसे कार्य करते चले जाना, जो उचित नहीं है, सुनिश्चित है और एक अयोग्य व्यक्ति कैसे उचित कार्य कर सकता है? और यदि तुम एक अयोग्य व्यक्ति को उचित और संगत कार्य करने को बाध्य करते हो तो वह अपंग हो जायेगा और उसकी स्वतंत्रता मिट जायेगी। और एक सद्गुरू तुम्हें स्वतंत्र होने में सहायता करने के लिए है इसलिए चोट करने की अनुमति है। वास्तव में अश्रद्वा नहीं है, वास्तव में शिष्य भी सद्गुरू को बहुत अधिक घनिष्टता से प्रेम करता है कि वह उसके बहुत अधिक निकट आ सकता है। एक व्यक्ति को पीटना भी एक तरह की घनिष्ठता है- तुम किसी भी व्यक्ति की यों ही चोट नहीं कर सकते।
कभी-कभी ऐसा होता है कि एक बच्चा भी अपने पिता को मारता है अथवा एक बच्चा अपनी मां को तमाचा मार सकता है। इसका अर्थ विरोध करना नहीं है, ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि बच्चा मां को अधिक गहनता और इतनी अधिक घनिष्ठता से स्वीकार करता है कि वह यह अनुभव नहीं करता कि कोई भी कार्य अनुचित है। और बच्चा जानता है कि उसे क्षमा कर दिया जाएगा इसलिए वहां कोई भी भय नहीं है।
एक सद्गुरू की क्षमा असीम और बेशर्त है।
शिष्य बहुत क्रोधित था क्योंकि उसने एक बहुत अर्थपूर्ण प्रश्न पूछा था उसके लिए तो वह बहुत अर्थपूर्ण था वह सोच भी नही सकता था कि डोगो को इस तरह का अड़ियल व्यवहार करते हुए नहीं, नहीं कहना चाहिए था- और केवल इतना ही नहीं, उसने कहा यह अंतिम है और मैं और अधिक कुछ भी कहने नहीं जा रहा हूं।
जब तुम एक प्रश्न पूछते हो तो तुम अपने अंहकार के कारण लगा था उसका अंहकार क्षुब्ध हो गया था और वह विश्वास ही न कर सका था। और ऐसा अनिवार्य रूप से अनेक लोगों के सामने हुआ था वे अकेले नहीं थे वहां दूसरे अनेक लोग थे और वहां निश्चित रूप से अनेक लोगों को होना ही चाहिए था- क्योंकि जब कोई व्यक्ति मरता है तो वहां अनेक लोग एकत्रित होते है। और उन लोगों के सामने सद्गुरू ने कहा- ‘नहीं और यह बात अंतिम है। और मैं कोई अन्य बात करने नहीं जा रहा हूं। उन सभी लोगों ने अनिवार्य रूप से सोचा होगा- यह शिष्य केवल एक मूर्ख है, जो असंगत प्रश्न पूंछ रहा है।
जेनगेन को क्रोधित होना ही चाहिए था, उसे अनिवार्य रूप से अंदर से खौलना ही चाहिए था। जब मठ की ओर वापस लौटते हुए उसने स्वंय को सद्गुरू के साथ अकेला पाया तो उसने कहा :
परमात्मा की शपथ खाता हूँः ‘यदि आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देते है तो मै आपको पीटूंगा, डोगो ने कहा : ठीक है पिफर आगें बढ़ो और मुझे पीट दो।’
 ...  और इसके साथ बात समाप्त कर दो। यदि तुम क्रोधित हो तो ऐसा करने के बाद उसके साथ ही अंत कर दो। एक सद्गुरू हमेशा जो कुछ तुम्हारे अंदर है, यदि वह तुम्हारी नकारात्मकता भी है तो उसे बाहर लाने को तैयार रहता है यदि तुम उसे पीटने भी जा रहे हो, तो वह तुम्हें वैसा करने की अनुमति देगा। कौन जानता है सद्गुरू पर चोट करने से तुम अपनी नकारात्मकता के प्रति सचेत हो सकते हो। तुम अपनी रूग्ण्ता अपनी बीमारी और अपने पागलपन के प्रति सजग बन सकते हो। सद्गुरू पर चोट करने से हो सकता है कि वह अचानक बुद्वत्व को उपलब्ध हो जाए- कौन जानता है और एक सद्गुरू प्रत्येक ढंग से तुम्हारी सहायता करता है। इसलिए डोगों ने कहा :
ठीक है, पिफर आगे बढ़ो- और मुझे पीट दो।
अपनी शपथ के प्रति प्रतिबद्ध जेनगेन ने अपने सद्गुरू के गाल पर जोरदार तमाचा मारा।
कुछ समय बाद डोगो मर गया, और जेनगेन अभी भी अपने प्रश्न का उत्तर पाने की इच्छा के लिए सद्गुरू सेकीसो के पास गया। जो कुछ भी हुआ था, उसे बताने के बाद उसने पिफर उसी प्रश्न को पूंछा। सीकोसो ने कोई भी उत्तर नहीं दिया, जैसे मानो मृत डोगो के साथ उसकी कोई साठ-गांठ रही हो।
सभी सद्गुरूओं के मध्य सदा से ही एक गुप्त सांठगांठ रहती है यदि वे पूर्ण रूप से सद्गुरू हैं, वे हमेशा एक साथ होते हैं यदि वे एक दूसरे का विरोध भी करते है तो वह भी उसी साजिश का एक भाग होता है यदि जब कभी वे कहते कि दूसरा गलत है तो भी वे उसी साजिश में ऐसा कहते है।
बुद्व और महावीर समकालीन थे और वे दोनों एक ही प्रांत में ही बिहरते करते थे उन लोगों के कारण ही वह भाग बिहार के नाम से जाना जाता है। बिहार का अर्थ है उनके भ्रमण करने का अथवा बिहरने का क्षेत्र वे उस भाग में सभी स्थानों पर गये। कभी-कभी वे एक ही गांव अथवा नगर में होते थे।
 एक बार ऐसा हुआ कि वे दोनों सड़क के किनारे एक ही धर्मशाला में ठहरे हुए थे। आधे भाग में बुद्व के लिए व्यवस्था थी और आधे में महावीर के लिए लेकिन वे कभी भी एक दूसरे से नही मिले और निंरतर एक दूसरे कोझुठा ठहराते हुए एक-दूसरे का खण्डन करते रहे। शिष्य लोग एक सद्गुरू से दूसरे के पास जाया करते थे वह एक समस्या बनी रही- क्यों? बुद्ध उन पर हंसा करते, वह महावीर का उपहास उड़ाते। वह कहते-‘वह व्यक्ति जो यह दावा करता है कि वह बुद्धत्व को उपलब्धी है और वह दावा करता है कि वह सर्वज्ञ है और वह सभी कुछ जानता है लेकिन मैनें सुना है कि एक बार भिक्षा मांगने उसने एक घर का द्वार खटखटाया और उसमें वहां कोई भी व्यक्ति नहीं था और मैनें सुना है कि वह पिफर भी वह यह दावा करता है कि वह सर्वज्ञ है, और वह इतना भी नही जानता था कि वह घर खाली था।
वह उपहास किए चले जाते है। वह कहते हैं : एक बार महावीर भ्रमण कर रहे थे ओैर उन्होने कुत्ते की पूंछ पर पैर रख दिया। केवल जब कुत्ता उछल वफूंद कर भौंकने लगा तभी उन्होंने जाना कि वहां कुत्ता था क्योंकि उस समय सुबह का धुंधल का था और वह व्यक्ति कहता है कि वह सभी कुछ जानता है और वह उनका उपहास किए चले जाते हैं वह महावीर के विरूद्ध अनेक मजाक और व्यंग्य करते हैं और वे आकर्षक है।
 बुद्ध और महावीर उन दोनों के मध्य एक साठगांठ है, एक साजिश है, पर इसे ना तो जैनों के द्वारा और न बौद्वों के द्वारा ही समझा गया- और वे लोक उनके पूरे प्रयोजन से ही चूक गए। वे सोचते है कि वे एक दूसरे के विरूद्ध हैं और इन दो हजार वर्षो में जैन और बौद्ध एक दूसरे के विरूद्ध बने रहे।
वे एक दूसरे के विरूद्व नहीं है वे लोगों की सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं और इसके लिए वे खेल खेलते हुए अभिनय कर रहे है। व दो भिन्न-भिन्न मार्गो के व्यक्ति हैं। किसी व्यक्ति की महावीर के द्वारा सहायता की जा सकती थी और किसी अन्य व्यक्ति की बुद्व के द्वारा सहायता की जा सकती थी जिस व्यक्ति की बुद्व के द्वारा सहायता की जा सकती थी, उसकी महावीर के द्वारा सहायता नहीं की जा सकती थी। और उस व्यक्ति को महावीर से हटाकर दूर जाना होता था और जिस व्यक्ति की महावीर के द्वारा सहायता की जा सकती थी, उसे बुद्व के द्वारा सहायता नहीं मिल सकती थी और उस व्यक्ति को बुद्व से हटाकर दूर जाना होता था। इसी कारण वे एक- दूसरे के विरूद्व बातचीत करते थे यह एक साजिश अथवा एक साठगांठ थी। और प्रत्येक व्यक्ति को सहायता मिलनी ही चाहिए, और वे दोनों भिन्न आदर्शो ओैर भिन्न टाइप के हैं, पूर्ण रूप से भिन्न मार्गो के। वे एक दूसरे के विरूद्व कैसे हो सकते थे? कोई भी व्यक्ति जो कभी भी बुद्वत्व को उपलब्ध हुआ है, किसी दूसरे बुद्वत्व को उपलब्ध व्यक्ति के विरूद्व हो ही नहीं सकता। वह इस तरह बातचीत कर सकता है। जैसे मानो वह ऐसा ही है, क्योंकि वह जानता है कि दूसरा उसे समझेगा। मिली सूचना के अनुसार महाबीर ने बुद्व के उन मजाकों और चुटकुलों के बारे में में कभी भी कुछ नही कहा, जिन्हें बुद्व यहां और वहां कहा करते थे। वह पूर्ण रूप से मौन रहे। यही उनका ढंग था। मौन बने रहकर, उनके तर्को को गलत सिद्व करके वह जैसे कह रहे थे- उस मूर्ख को स्वंय पर ही छोड़ दो। वह पूर्ण रूप से मौन बने हुए कुछ भी नहीं कह रहे थे।
प्रतिदिन सूचनाएं आती, लोग आते और वे कहते- उन्होनें यह कहा, और महावीर इस बारे में बात ही न करते। और वह उचित भी था, क्योंकि वह बहुत वृद्ध थे। वह बुद्व की अपेक्षा आयु में तीस वर्ष बड़े थे। यह उनके लिए ठीक नहीं था कि वह नीचे आकर एक युवा व्यक्ति से झगड़ा करते। युवा मुर्ख ऐसे ही होते है। लेकिन बुद्व दूसरे उपदेशकों के विरूद्व भी जो आयु में उनसे बड़े थे। समान रूप से उनके विरूद्व उनके बारे में तर्क देते हुए बातचीत करते थे।
 उन लोगों के मध्य जैसे एक सांठगांठ थी- और उसे होना ही था पर तुम उसे नहीं समझ सकते। उन्हें मार्गो में विभाजन करना पड़ा क्योंकि तुम नहीं समझ सकते कि जीवन विरोधों के द्वारा ही अस्तितव में है। उन्हें विरोधों को चुनना पड़ा। उनमें से प्रत्येक को एकी ही बात पर स्थिर बने रहकर तुमसे यह कहना पड़ा। स्मरण रहे, वे सभी दूसरे लोग गलत है- क्योंकि यदि वे कहते कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ठीक है तो तुम और अधिक उलझन में पड़कर भ्रमित होते। तुम पहले ही से पर्याप्त भ्रमित हो। यदि वे कहते- हां, मैं ठीक हूं महावीर भी ठीक है, बुद्व भी ठीक है और प्रत्येक व्यक्ति ( उपदेशक ) ठीक है, वो तुम तुरंत ही उन्हे छोड़ दोगें और सोचोगें- यह व्यक्ति सहायता नहीं कर सकता है, क्योंकि हम लोग पहले ही से उलझन में है। हम नहीं जानते कि क्या ठीक है क्या गलत है और हम लोग इस व्यक्ति के पास ठीक प्रकार से यही जानने के लिए आए है कि कौन- सा मार्ग ठीक है और कौन सा मार्ग गलत है।
 इसलिए सद्गुरू किसी चीज पर दृढ़ और स्थिर बने रहते है और वे कहते है यह ठीक है और प्रत्येक मार्ग गलत है उस सभी के साथ यह जानते हुए भी कि मार्ग तक पहुंचने के लाखों ढंग है, इसके ही साथ यह भी जानते हुए कि वहां लाखों मार्ग है जो अंतिम मार्ग अथवा लक्ष्य तक पहुंचते है। लेकिन यदि वे कहते है कि लाखों मार्ग पहुंचा देते है तो तुम पुरी तरह से उलझन में पड़ जाओगे।
यह शिष्य जेनगेन मुश्किल में पड़ गया क्योंकि डोगो मर गया। उसने कभी यह आशा नही की थी कि यह इतनी शीघ्र होने जा रहा है जब सद्गुरू मर जाता है तो शिष्य हमेशा बहुत अधिक कठिनाई का अनुभव करते है जब सद्गुरू वहां होते है वे मूर्ख चारों और घुमते हुए व्यर्थ ही समय को नष्ट करते है। जब सद्गुरू मर जाते है तो वे वास्तविक दुविधा और कठिनाई में पड़ जाते है- अब क्या किया जाए? इसलिए पेनगेन का प्रश्न बना ही रहा, समस्या नहीं बनी रही, वह पहेली जैसे वह पहले थी अभी भी बनी रही। वह शिष्य अभी तक यह नहीं जान पाया था कि मृत्यु क्या होती है और डोगो मर गया।
सद्गुरू सेकीसो ने जैसे मानो मृत डोगो के साथ
कुछ साठगांठ कर रखी थी, कि वह उत्तर नहीं देगा।
जेनगेन चीखता हुआ बोला : ‘बाई गॉड। तो आप भी ... ’?
सेकीसो ने कहा मैं कुछ भी नही कह रहा हूं
और यही बात अन्तिम है।
 वे कुछ कार्य कर रहे है वे एक परिस्थिति सृजित कर रहे हं। ै वे कह रहे है मृत्यु के सम्मुख मौन बने रहो। प्रश्न मत पूछो क्योंकि जब तुम पूछते हो, तो तुम बाहर परिधि पर आ जाते हो, तुम उथले बन जाते हो। ये प्रश्न वे प्रश्न नहीं है जिन्हें पूछा जाए। इन प्रश्नों को अंदर प्रविष्ट हो जाना है इन्हें जीना है और उन पर ध्यान करना है तुम्हें उनके अंदर गतिशील होना है यदि तुम मृत्यु को जानना चाहते हो तो मर जाओ। उसे जानने का केवल यही उपाय है यदि तुम जीवन को जानना चाहते हो तो उसे जीओ।
तुम जीवित हो लेकिन उसे जी नहीं रहे हो और तुम मर जाओगे, और तुम नहीं मरोगे... क्योंकि तुम्हारे अंदर प्रत्येक चीज कुनकुनी है। तुम जी रहे हो। ठीक उसी तरह से नहीं तुम केवल घसीट रहे हो। किसी तरह किसी भी तरह तुम स्वंय को उसके साथ खींच रहे हो।
 जितनी सघनता और समग्रता से संभव हो सके- जीओ। अपने जीवन की मोमबत्ती को दोनों सिरो से जलने दो। उसे इतनी अधिक तीव्रता से जलने दो...  यदि वह एक क्षण में समाप्त हो जाती है, तो वह ठीक है, लेकिन कम-से-कम तुम यह तो जान लोगों की वह क्या है। केवल तीव्रता और प्रचण्डता और से जलना ही अंदर प्रविष्ट हो जाता है और यदि तुम तीव्रता से जीवन जी सकते हो तो तुम्हारे पास मृत्यु का एक भिन्न गुण होगा, क्योंकि तुम तीव्रता से मरोगे। जैसा जीवन है, वैसी मृत्यु होगी। यदि तुम घिसटते हुए जीते हो, तो तुम घिसटते हुए ही मरोगे। तुम जीवन से चूकोगे और तुम मृत्यु से भी चूकोगे। जितना संभव हो सके जीवन को तीव्र बनाओ। प्रत्येक चीज को दांव पर लगा दो। फ्फिक्र क्यों करते हो? भविष्य के बारे में चिंतित क्यों होते हो? यह क्षण वहां है। अपने समग्र अस्तित्व को उसमें ले आओ। तीव्रता समग्रता और पूर्णता से जीओ और यह क्षण एक दिव्य प्रेरणा बन जायेगा। और यदि तुम जीवन को जानते हो तो तम मृत्यु को भी जानोगे।
यही गुप्त कुंजी है कि यदि तुम जीवन को जानते हो तो तुम मृत्यु को भी जानोगे। यदि तुम पूछते हो कि मृत्यु क्या है तो इसका अर्थ है कि तुमने जीवन को जीआ ही नहीं- क्योंकि नीचे गहराई में वे एक ही हैं। जीवन का रहस्य क्या है जीवन का रहस्य है मृत्यु। यदि तुम प्रेम करते हो तो प्रेम का रहस्य क्या है मृत्यु यदि तुम ध्यान करते हो तो ध्यान का रहस्य क्या है? मृत्यु।
 जो कुछ भी होता है वह सुंदर और तीव्र है और वह हमेशा मृत्यु के द्वारा ही होता है। तुम मर जाते हो। तुम सामान्य रूप से स्वंय अपने की उसमें पूर्णतया से लाते ही और प्रत्येक अन्य वस्तु अथवा व्यक्ति के लिए भी मर जाते हो। तुम इतने अधिक तीव्र होते हो, कि तुम वहां होते ही नहीं हो, क्योंकि यदि तुम वहां हो तो तब तीव्रता पूर्ण नहीं हो सकती, तब वहां दो होते हैं, यदि तुम प्रेम करते हो और प्रेमी वहां है, तब प्रेम तीव्र नही हो सकता प्रेम इतना अधिक गहन है, वह इतना अधिक पूर्ण हैं कि प्रेमी विलुप्त हो जाता है तब तुम केवल एक गतिशील ऊर्जा होते हो। तब तुम प्रेम को जानोगे, तुम जीवन को जानोगे और मृत्यु को भी जानागे।
ये तीन शब्द बहुत अधिक अर्थपूर्ण है : प्रेम, जीवन और मृत्यु। उनका रहस्य समान है और यदि तुम उनको समझते हो तो इस बारे में कोई ध्यान करने की जरूरत ही नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि तुम उन्हें नहीं समझते हो कि ध्यान की जरूरत है। ध्यान केवल फालतू पहिया है यदि तुम वास्तव में प्रेम करते हो तो वह ध्यान बन जाता है यदि तुम प्रेम नहीं करते हो, तब तुम्हें ध्यान करना पड़ेगा। यदि वास्तव में जीते हो, तो वह ध्यान बन जाता है यदि तुम नहीं जीते हो तो तुम्हें ध्यान करना होगा, और तब उसमें कुछ अन्य चीज भी जोड़नी होगी।
लेकिन यही समस्या है यदि तुम गहनता से प्रेम नही कर सकते तो तुम गहनता से ध्यान कैसे कर सकते हो? यदि तुम गहनता से जी नहीं सकते तो तुम गहनता से ध्यान कैसे कर सकते हो? क्योंकि समस्या न तो प्रेम है, न ध्यान है और न मृत्यु है, समस्या है कि कैसे गहराई तक गतिशील हुआ जाए? प्रश्न है गहराई का।
यदि तुम किसी भी चीज की गहराई में गतिशील होते हो तो जीवन तो परिधि पर होगा और मृत्यु केन्द्र में होगी। यदि तुम प्रत्येक चीज को भूलकर एक पफूल का समग्रता से निरीक्षण करते हो तो फूल का निरीक्षण करने में तुम फूल में ही मर जाओगे, तुम्हें पिघलने और एक विलय हो जाने का अनुभव होगा। अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम नहीं हो और केवल पफूल ही हैं।
प्रत्येक क्षण को यों जियो, जैसे मानो यह अंतिम क्षण हो और कोई भी नहीं जानता वह अंतिम ही हो सकता है।
दोनों ही सद्गुरू जेनगेन में एक सचेतना लाने का प्रयास कर रहे थे।
जब सेकीसो ने शिक्षा द्वारा बताई गई पूरी कहानी को सुना तो उसने कहा :
‘मैं कुछ भी नहीं कह रहा हूं और यह बात अंतिम है’ उसने उन्हीं शब्दों को दोहरा दिया जो डोगो ने कहे थे। पहली बार तो शिष्य चूक गया था, लेकिन दूसरी बार नहीं।
तुरन्त उसी वास्तविक क्षण में
जेनगेन को जागरण का अनुभव हुआ।
अचानक बिजली कौंधी -------------- वह सचेत हुआ ------------एक सटोरी घटित हुई पहली बार वह चूक गया था ऐसा लगभग हमेशा होता है पहली बार तुम चूक जाओगे, क्योंकि तुम नहीं जानते कि क्या घटित हो रहा है। पहली बार, मन की पुरानी आदतें तुम्हें देखने और समझने की अनुमति नहीं देगी, इसी कारण दूसरे सद्गुरू सकीसो ने, पुरी तरह से डोगो के ही शब्दों को दोहरा दिया। उसने उन्हें पूरी तरह से दोहरा दिया। उसने एक भी शब्द का परिवर्तन नहीं किया। वह वास्तविक पंक्ति समान है।
उसने कहा : ‘मैं कुछ भी कह रहा हूं और यह बात अंतिम है।’
उसने पुनः समान स्थिति सृजित कर दी।
डोगो के साथ लड़ना सरल था, पर सेकीसो से लड़ना सरल नहीं है। वह ज़ेनगेन का सद्गुरू नहीं है। डोगों पर प्रहार करना सरल था पर सेकीसो पर प्रहार करना संभव नहीं होगा। इतना ही पर्याप्त है कि वह उत्तर दे रहा है यह उसकी करूणा है, पर वह उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं है।
डोगो और इस शिष्य के मध्य वहां एक घनिष्ठता थी और कभी-कभी ऐसा होता है कि जब तुम बहुत अंतरंग होते हो तो तुम चूक सकते हो, क्योंकि तुम सभी चीजों को सच्चा मानकर चलते हो। कभी- कभी एक दूरी की जरूरत होती है, और यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है।
 कुछ लोग केवल तभी सीख सकते है जब वहां एक दूरी होती है और कुछ लोग केवल तभी सीख सकते है जब वहां दूरी नही होती है। वहां दो तरह के लोग होते है वे लोग जो एक दूरी से सीख सकते है वे एक सद्गुरू से चूक जायेगें वे अपने ही सद्गुरू से चूक जायेंगे लेकिन वह उन्हें तैयार करता है तुममें से अनेक लोग यहां है जिन्होनें अनेक जन्मों में अनेक दूसरे सद्गुरूओं के साथ कार्य किया है। तुम उनसे चूक गए हो, लेकिन उन्होनें तुम्हें मुझ तक पहुंचने के लिए तैयार किया है। तुममें से अनेक मुझसे चूक जायेगें। लेकिन किसी अन्य सद्गुरू तक पहुंचाने के लिए मुझे तुम्हें तैयार करना होगा। इसलिए कुछ भी खोता नहीं है और न कोई भी प्रयास व्यर्थ जाता है।
डोगो ने स्थिति सृजित की, सेकीसो ने उसे परिपूर्ण किया।
तुरन्त उसी वास्तविक क्षण में
जेनगेन को जागरण का अनुभव हुआ।
हुआ क्या़? समान शब्दों को पिफर से सुनने पर क्या वहां एक विशिष्ट सांठगांठ है? फिर से समान शब्द ही क्यों? अचानक वह सचेत हुआ। मेरा प्रश्न अंसंगत है। मैं कुछ ऐसी बात पूछ रहा हूँ जिसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। वह सद्गुरू नहीं है जो उत्तर देने से इन्कार कर रहे है यह मेरा वास्तविक प्रश्न ही ऐसी प्रकृति का है।
मृत्यु के पूर्व, जीवन से पूर्व, और प्रेम के पूर्व एक मौन जरूरत होती है यदि तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो, तो उस व्यक्ति के साथ मौन बैठे रहो। तुम व्यर्थ की बातें नहीं करना चाहोगे। तुम उस क्षण में केवल एक दूसरे का हाथ थामे हुए मौन बने रहकर जीना चाहोगे, यदि तुम बक-बक करते हो तो इसका अर्थ है कि तुम उस व्यक्ति से बच रहे हो और वहां वास्तव में प्रेम नहीं है। यदि तुम्हें जीवन से प्रेम है तो चटर-पटर छूट जाएगी, क्योंकि प्रत्येक क्षण जीवन के साथ इतना अधिक भरा हुआ है कि वहां बक बक करने के लिए ना तो कोई रास्ता है और न कोई अंतराल है। प्रत्येक क्षण जीवन इतनी अधिक प्राणशक्ति और स्पफूर्ति की बाढ़ से उभड़ रहा है कि गपशप और बक बक करने का समय ही कहां है प्रत्येक क्षण तुम पूर्णता से जीते हो कि मन शांत और मौन हो जाता है भोजन करो, और इतनी समग्रता से खाओ- क्योंकिभोजन के द्वारा ही तुम्हारे अंदर जीवन प्रविष्ट हो रहा है- कि मन शांत और मौन हो जाता है पानी पीओ और इतनी अधिक समग्रता से पीओ, क्योंकि पानी के द्वारा ही अंदर जीवन प्रविष्ट हो रहा है वह तुम्हारी प्यास बुझा देगा। वह जैसे ही तुम्हारी प्यास का स्पर्श करता है और जैसे ही प्यास लुप्त होती है उसके साथ गतिशील हो जाओ। मौन हो जाओ और निरीक्षण करो। जब तुम एक कप चाय पी रहे हो तो तुम बक-बक कैसे कर सकते हो। तुम्हारे अंदर एक उष्ण जीवन प्रवाहित हो रहा है उसके साथ ऊपर तक भर जाओ। सम्मानपूर्ण बने रहो।
इसलिए, जापान में चाय- समारोह अस्तित्व में है। और प्रत्येक घर जो एक घर कहे जाने योग्य है उसके पास ठीक एक मंदिर के समान एक चाय पीने का कमरा होता है चाय, जो एक बहुत सामान्य चीज है- और उन लोगों ने उसे एक बहुत पावन स्तर तक ऊँचा उठा दिया है जब वे लोग चाय के कमरे में प्रवेश करते हैं तो वे परिपूर्ण मौन में प्रवेश करते है जैसे मानों वह एक मंदिर हो। वे लोग चाय के कमरे में मौन बैठते हैं तब चाय की केटली में पानी के खौलने का संगीत प्रत्येक व्यक्ति शांतिपूर्वक यों सुनता है जैसे समान मौन में तुम मुझे सुनते हो, और केटली लाखों गीत, वास्तविक जीवन-मंत्र ओंकार की ध्वनि गुनगुनाती चली जाती है और वे उसे शांतिपूर्वक सुनते है और तब चाय प्यालों में उड़ेली जाती है।
वे अपने प्याले और तश्तरी को छूते है और कृतज्ञता का अनुभव करते है कि यह क्षण उन्हें पिफर से दिया गया। कौन जानता है कि पिफर से आना हो अथवा न हो तब वे चाय की सुंदर मधुर सुगंध को सुघंते हुए कृतज्ञता और अहोभाव से भर जाते है तब वे उसको सिप करना शुरू करते है और उसका स्वाद ----------...  उसकी गर्माहट और अपने अंदर उसका प्रवाह और उनकी अपनी ऊर्जा का चाय की ऊर्जा के साथ विलय हो जाता है
...  वह एक ध्यान बन जाता है।
प्रत्येक चीज ध्यान बन सकती है, यदि तुम उसे समग्रता और तीव्रता के साथ जीते हो। और तब तुम्हारा जीवन पूर्ण हो जाता है।
 अचानक, पुनः उन्हीं समान शब्दों को सुनते हुए जेनगेन को यह बोध हुआ, मैं गलत था और सद्गुरू ठीक थे मैं गलत था क्योंकि मैनें सोचा : वह उत्तर नहीं दे रहे है वह मेरे प्रश्न की ओर ध्यान नहीं दे रहे है वह मेरे बारे में और मेरे पूछने के बारे में जरा भी पिफक्र नहीं कर रहे है मेरा अहंकार आहत हुआ था। लेकिन मैं गलत था। वह मेरे अहंकार पर चोट नहीं कर रहे थे बिल्कुल था ही नहीं। मृत्यु का वास्तविक स्वभाव ही ऐसा है...  अचानक उसका जागरण हो गया।
इसे सटोरी कहा जाता है यह एक विशिष्ट प्रकार का बुद्वत्व है। किसी भी दूसरी भाषा में सटोरी के समतुल्य एक भी शब्द विद्यमान नहीं है। यह विशेष रूप से जेन की ही एक चीज है यह समाधि नहीं हैं और एक समाधि जैसी है भी। यह समाधि नहीं है, क्योंकि यह बहुत समान्य क्षणों में घटित हो सकती है जैसे चाय पीते हुए, टहलते हुए, एक पफुल की ओर देखते हुए ओैर तालाब मेंढक के तालाब में उछलने से उत्पन्न छपाकं की ध्वनि को सुनते हुए। यह चूंकि बहुत सामान्य क्षणों में घटित हो सकती है इसलिए यह समाधि की भांति नहीं है जिसके बारे में पंतजलि करते है।
पंतजलि इस पर पूरी तरह से आश्चर्य करते कि तालाब में एक मेंढक उछलता है और उससे होने वाली छपाकं की ध्वनि सुनकर कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है पंतजलि यह विश्वास करने में समर्थ ही न होते कि एक सूखा पत्ता वृक्ष से टेढ़े-मेढ़े ढंग से थोड़ा बहुत हवा में उड़ते हुए नीचे गिरता है और गहरे विश्राम में चला जाता है और उसी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ एक व्यक्ति इसे देखकर ही बुद्वत्व को उपलब्ध हो जाता है। नहीं, पंतजलि इस पर विश्वास करने पर सहमत होते ही नहीं, वह कहेंगें यह अंसभव है, क्योंकि समाधि कुछ ऐसी विशिष्ट चीज है जो लाखों जन्मों के बहुत अधिक किये गए प्रयास के बाद ही आती है एक विशिष्ट दशा में घटित होती है।
सटोरी समाधि है और पिफर भी वह समाधि नहीं है। वह एक झलक है असाधारण की वह एक बहुत साधारण झलक है, और वह सामान्य क्षणों में घटने वाली समाधि है। वह क्रमिक नहीं है, तुम डिग्रीज में गतिशील नहीं होते हो और वह आकस्मिक चीज भी है। वह ठीक पानी के सौ डिग्री तक खौलने वाले बिन्दु तक आने के समान है और तब एक छलांग लगती है और पानी भाप बन जाता है, वह आकाश में विलीन हो जाता है और तुम पीछा करके यह नहीं जान सकते कि वह कहां चला गया।
निन्यानवे डिग्री तक वह खौल रहा है, उबल रहा है, लेकिन भाप नहीं बन रहा है निन्यानवें डिग्री वापस लौटकर वह नीचे भी आ सकता है क्योंकि वह केवल गर्म था। लेकिन यदि वह सौ डिग्री से गुजर जाता है तब वहां अचानक एक छलांग होती है।
इस कहानी में भी ऐसी ही समान स्थिति है। डोगो के साथ जेनगेन क्रोध से उत्तप्तन्न हो गया लेकिन भाप न बन सका। वह पर्याप्त नहीं था उसे एक अन्य अधिक स्थिति की आवश्यकता थी, अथवा उसे बहुत अधिक स्थितियों की जरूरत थी तब सेवफीसो के साथ- समान स्थिति में अचानक कुछ चीज उस पर चोट करती है अचानक केन्द्र बिन्दु और गेस्टाल्ट बदल जाता है इस स्थिति तक वह सोचता रहा था कि वह उसका ही प्रश्न ही था, जिसका डोगो ने उत्तर नहीं दिया था। वह अंहकार केन्द्रीत हो गया था वह सोचता रहा था यह मैं हूं जिसकी सद्गुरू के द्वारा उपेक्षा की गई, उसकी उपेक्षा की गई। वह मेरे बारे में और मेरी जांच पड़ताल के बारे में पर्याप्त पिफक्र नहीं कर रहे थे उन्होंने मेरी और मेरी जिज्ञासा की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।
अचानक वह अनुभव करता है वह में नहीं था जिसकी उपेक्षा की गई, अथवा सद्गुरू तटस्थ था अथवा उसने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। नहीं, वह मैं नहीं था- वह तो स्वयं प्रश्न ही ऐसा है, जिसका कि उत्तर नहीं दिया जा सकता है। जीवन और मृत्यु के रहस्यों के सामने प्रत्येक को मौन होता है गेस्टाक्स बदलता है। वह पूरी चीज को देख सकता है इसलिए वह एक झलक पाता है।
जब कभी भी गेस्टाल्ट बदलता है तुम एक झलक पाते हो। वह झलक ही सटोरी है। वह अंतिम नहीं है तुम उसे पिफर से खो दोगे। सटोरी के द्वारा तुम एक बुद्व नहीं हो जाओगे, इसी कारण मैं कहता हूँ कि वह एक समाधि है, और तब भी वह एक समाधि नहीं है। वह एक चाय के प्याले में एक सागर है। सागर, हां और तब भी वह एक सागर नहीं है वह एक बीजकोश में समाधि है वह तुम्हें एक झलक देती है एक खुलापन देती है जैसे मानो तुम एक अंधेरी रात में जंगल में भटक गए हो तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो तुम ठीक दिशा में जा रहे हो अथवा नहीं और तभी अचानक बिजली कौधती है। उस क्षण में तुम प्रत्येक चीज को देख सकते हो। तब प्रकाश लुप्त हो जाता हैं तुम उस बिजली की कौंध में पढ़ नहीं सकते क्योंकि वह एक क्षण में समाप्त हो जाती हैं। तुम आकाश के नीचे बैठकर बिजली की कौंध में पढ़ना शुरू नहीं कर सकते। नहीं वह एक निंरतर प्रवाह नहीं होता है।
समाधि कुछ ऐसी होती है कि तुम उसके प्रकाश में पढ़ सकते हो।
सटोरी बिजली की कोंध के समान होती है तुम उस पूर्ण की वह सभी कुछ जो वहां है एक झलक देख सकते हो, और तब वह लुप्त हो जाती है लेकिन पिफर तुम वैसे ही नहीं बने रहोगे। यह अंतिम रूप से बुद्वत्व नहीं है, लेकिन उसकी ओर बढ़ाया गया एक असाधारण कदम है। अब तुम जानते हो। तुम्हारे पास एक झलक थी अब तुम उसके लिए और अधिक खोज कर सकते हो। तुमने उसका स्वाद लिया है।
अब सभी बुद्व अर्थपूर्ण बन जायेंगे।
अब यदि जेनगेन डोगो से पिफर मिलता है तो वह उस पर प्रहार नहीं करेगा। वह उसके चरणों पर गिर पड़ेगा और अपने किए की क्षमा मांगेगा। अब वह आंसू बहाते हुए रोयेगा। क्योंकि अब वह कहेगा, डोगो के पास कितनी अधिक करूणा थी, जो उसने मुझे अपने पर प्रहार करने की अनुमति देते हुए कहा-‘ठीक है तुम आगे बढ़ो और मुझे पीट दो’’
 यदि वह डोगो से पिफर मिलता है, जेनगेन वैसा ही समान नहीं होगा। उसने अब किसी चीज का स्वाद ले लिया है जिसने उसे बदल दिया है वह अंतिम स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ है अंतिम स्थिति तो अभी आयेगी- लेकिन उसने एक नमूना पा लिया है।
सटोरी पंतजलि की समाधि का एक नमूना है और यह बहुत सुंदर है कि नमूना पाना संभव है क्योंकि यदि तुमने उसका स्वाद नही लिया है तो तुम कैसे उसकी ओर आगे बढ़ सकते हो? यदि तुम उसकी थोड़ी सी सुबास भी नहीं लेते तो तुम उसकी ओर कैसे आकर्षित हो सकते हो और उसकी ओर खींचे जा सकते हो। झलक ही एक चुम्बकीय, शक्ति बन जाएगी। तुम पिफर वैसे ही कभी नही बने रहोगे। तुम जानोगे कि वहां कुछ तो बात है और क्या मैं उसे पा सकता हूं अथवा नहीं। यह मेरे ऊपर ही निर्भर है लेकिन तब श्रद्वा का जन्म होगा। सटोरी श्रद्वा देती है और तुम्हारे अंदर अंतिम बुद्वत्व की ओर जो समाधि है, एक विराट गतिविधियां और एक आन्दोलन होना शुरू हो जाता है।

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