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सोमवार, 12 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-नेति-नेति

प्रश्नसार:

पहला प्रश्नः ओशो, अपने ज्ञान-चक्षुओं के आधार पर जब भी आपको पाया तो दो रूपों में। आपके आरंभिक जीवन के प्रेरणा-स्रोत स्वामी विवेकानंद ही रहे होंगे, तत्पश्चात भगवान बुद्ध होंगे। और उसके बाद आप स्वयं ही बुद्ध हो गए। स्वामी विवेकानंद भारत के दूसरे कृष्ण थे; उपनिषदों व अन्य भारतीय ग्रंथों के मूर्धन्य विद्वान थे। ऐसे महापुरुष पर आपके मुखारविंद से एक लंबी प्रवचनमाला की अपेक्षा है। शंका भी है कि विवेकानंद पर आप शायद नहीं भी बोलें; कारण कि उनका समग्र चिंतन हिंदू शब्द व हिंदू सभ्यता पर आधारित है। और हिंदू शब्द से आपको घृणा है, ऐसा मुझे कई बार प्रतीत हुआ है।
विशेष प्रार्थना है कि स्वामी विवेकानंद के मौलिक विचारों पर व चिंतन पर आप मंथन करते हुए हमें शुभ्र, सात्विक, सच्चाईपूर्ण नवनीत का प्रसाद प्रदान करेंगे!


भगवानदास आर्य! हिंदू शब्द से मुझे उतनी ही घृणा है जितनी मुसलमान शब्द से, जितनी ईसाई शब्द से, जितनी जैन शब्द से..और जितनी, यह तुम्हारे नाम के पीछे जो ‘आर्य’ जुड़ा है इससे। हिंदू शब्द से कोई विशेष घृणा नहीं है, वह कोई अपवाद नहीं है। सभी संप्रदाय मनुष्य को धर्म तक जाने से रोकते हैं। धर्म से मुझे प्रेम है। इसीलिए प्रकारांतर से मैं हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्ध सभी के विपरीत हूं। लेकिन विपरीत होने में मुझे रस नहीं है। फूलों का पक्षपाती हूं, इसलिए कांटों से विरोध है, कांटों से कोई सीधी दुश्मनी नहीं है। स्वास्थ्य का पक्षपाती हूं, इसलिए बीमारियों से विरोध है। ये सब बीमारियों के अलग-अलग नाम हैं।


पृथ्वी पर कोई तीन सौ धर्म हैं। तीन सौ कहीं धर्म हो सकते हैं! धर्म तो एक ही हो सकता है। धर्म का तो अर्थ होता है स्वभाव। विज्ञान एक है और धर्म तीन सौ हैं, इससे ही तुम झूठ का अंदाज लगा सकते हो। विज्ञान एक क्यों है? क्योंकि पदार्थ का स्वभाव एक है।
पानी को गर्म करो, चाहे हिंदू घर में और मुसलमान घर में, सौ डिग्री पर भाप बनेगा। चाहे भारत में और चाहे चीन में, पानी अपना स्वभाव न बदलेगा। चाहे कुरान पढ़ कर पानी को गरम करो, चाहे गीता पढ़ कर, पानी अपनी नियति से चलेगा।
जब पदार्थ का स्वभाव एक है, तो तुम सोचते हो परमात्मा का स्वभाव अनेक होगा? और मजा यह है कि पदार्थ अनेक हैं, उनका स्वभाव एक है! और परमात्मा तो सदा एक है, उसका स्वभाव अनेक होगा? अनेकों का स्वभाव भी मूलतः एक है, तो एक का स्वभाव तो एक ही होगा?
ये तीन सौ धर्म, धर्म नहीं हैं..धर्म के नाम पर चलते हुए थोथे सिद्धांत हैं! और इन थोथे सिद्धांतों में जो खो गया, वह धर्म से वंचित रह जाता है। तुम धर्म से वंचित न रह जाओ, इसलिए इन थोथी मान्यताओं और धारणाओं पर जितनी चोट बन सके उतनी करता हूं। लेकिन मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। दुश्मनी तो किसी से भी नहीं है। दुश्मनी का तो कोई उपाय न रहा। मेरे भीतर कोई घृणा नहीं है। लेकिन देखता हूं तुम्हें उलझे हुए, तो तुम्हारी जंजीरें टूटनी जरूरी हैं, तुम्हारी बेड़ियां तोड़नी जरूरी हैं, तुम्हें कारागृह के बाहर खींच लेना जरूरी है। तो तुम्हारी जंजीरों और बेड़ियों पर चोट करता हूं। जंजीरों-बेड़ियों से कोई दुश्मनी नहीं है; तुम्हारी मुक्ति की जरूर अभीप्सा है।
हिंदू भी बंधा है, मुसलमान भी बंधा है। उनके बंधन अलग-अलग हैं। उनके बंधन के ढंग अलग-अलग हैं। लेकिन उन बंधनों के भीतर झांकोगे तो एक ही मूल आधार है; वह है विश्वास।
ज्ञान मुक्त करता है; विश्वास बांधता है। तुम हिंदू कैसे हो..विश्वास से या बोध से? हिंदू घर में पैदा हुए तो हिंदू हो, क्योंकि हिंदू विश्वास तुम पर आरोपित कर दिए गए। बचपन में ही तुम्हें उठा कर मुसलमान घर में रख दिया गया होता और तुम मुसलमान घर में बड़े होते, तो तुम मुसलमान होते; तुम्हें कभी ख्याल भी न आता कि तुम हिंदू हो। खून थोड़े ही हिंदू होता है, हड्डी-मांस-मज्जा थोड़े ही हिंदू होती है! ये तो तुम्हारे मस्तिष्क में डाले गए विचार...जो भी डाल दिए जाएं, वही विचार तुम पकड़ लेते हो। और धर्म इन विचारों से मुक्त होने का नाम है।
धर्म यानी ध्यान। ध्यान में तुम हिंदू नहीं रह जाओगे, मुसलमान भी नहीं रह जाओगे, ईसाई भी नहीं रह जाओगे। क्योंकि ध्यान का अर्थ है अपने विचारों से मुक्त हो जाना; अपने विचारों का साक्षी हूं मैं, ऐसा जान लेना। तब तुम देखोगे कि हिंदुओं के विचार, मुसलमानों के विचार, ईसाइयों के विचार तुम्हारे चारों तरफ हैं..बादलों की तरह घिरे हैं। और तुम सूरज हो। तुम बादल नहीं हो। न यह बादल, न वह बादल। जिस दिन तुम जानोगे कि तुम सूर्य के प्रकाश हो, जिस दिन तुम जानोगे कि तुम साक्षीभाव हो, जिस दिन तुम्हारे भीतर समाधि फलित होगी..उस दिन क्या तुम हिंदू रह जाओगे? अगर उस दिन भी हिंदू रह गए तो तुम्हारी समाधि झूठी। उस दिन क्या तुम पुरुष रह जाओगे या स्त्री? अगर तुम पुरुष और स्त्री रह गए, तो भी तुम्हारी समाधि झूठी। उसका अर्थ है अभी तुम शरीर के साक्षी नहीं हो पाए। स्त्री-पुरुष होना शरीर में है। हिंदू-मुसलमान होना मन में है। मन और शरीर दोनों के पार हो तुम। न आर्य हो, न अनार्य हो..साक्षी हो। साक्षी होने में ही तुम्हारी भगवत्ता है।
इसलिए इस बात को ख्याल में रख लो।
चोट करता हूं तुम्हारी जंजीरों पर, क्योंकि तुमने जंजीरों को आभूषण समझ रखा है। तुम उनको सजा रहे हो, रंग रहे हो, मोती जड़ रहे हो उन पर, हीरे-जवाहरात लगा रहे हो। और जो भी तुम्हारे आभूषणों की प्रशंसा करता है, तुम्हारे आभूषणों का यशगान करता है, स्तुति करता है, उससे तुम बहुत प्रभावित होते हो। स्वामी विवेकानंद से तुम इसीलिए प्रभावित हो कि उन्होंने तुम्हारे कारागृह को खूब सजाया। वे कुशल व्यक्ति थे; द्रष्टा नहीं, बुद्ध नहीं, साक्षी नहीं। चिंतक थे, विचारक थे, दार्शनिक थे; ऋषि नहीं, भगवत्ता को उपलब्ध नहीं, समाधिस्थ नहीं। समाधिस्थ होकर क्या फिकर रह जाती है हिंदू-मुसलमान की! और वे जीवन भर छूट न सके उन शब्दों से। और उन शब्दों का इतना मोह था उन्हें कि एक जगह उन्होंने कहा है कि जो व्यक्ति अपनी परंपरा के विपरीत जाएगा वह भयंकर बीमारियों से मरेगा। उन दिनों मधुमेह, डायबिटीज बड़ी भयंकर बीमारी थी, तो उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया है कि परंपरा के विपरीत जो जाएगा, वह मधुमेह से मरेगा। और जान कर तुम हैरान होओगे, वे खुद मधुमेह से मरे! और तेतीस साल की उम्र में मरे।
अब मधुमेह का परंपरा के विपरीत जाने से कोई संबंध नहीं है। लेकिन डरवाने के लिए, भयभीत करने के लिए..कि अपनी परंपरा को पकड़े रहना, नहीं तो मधुमेह से मरोगे!
विवेकानंद का शरीर तुम्हें बहुत प्रभावित करता है। लेकिन उस तरह के शरीर वाले लोग अक्सर ही मधुमेह से पीड़ित होंगे। वह कोई स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। उतना वजन शरीर पर डालना डायबिटीज को निमंत्रण देना है। मगर कोई डायबिटीज परंपरा के विपरीत जाने से पैदा नहीं होती, नहीं तो सारी दुनिया में डायबिटीज फैल जाए। तब तो ऐसा आदमी पाना मुश्किल हो जाए जिसको डायबिटीज न हो।
अभी जिन लोगों को डायबिटीज है उन की संख्या बहुत थोड़ी है। तो उन्होंने संघ बना लिया है और वे अपने कोट के खीसे में कार्ड रखते हैं कि मैं डायबिटीज का बीमार हूं। क्योंकि डायबिटीज का बीमार कभी-कभी अगर शक्कर की मात्रा शरीर में कम हो जाए तो बेहोश हो जाता है। तो कार्ड पर लिखा होता कि मैं बेहोश हो जाऊं तो घबड़ाने की जरूरत नहीं है, शीघ्र मुझे शक्कर पिलाई जाए; कोई और दूसरा इलाज न किया जाए, मैं सिर्फ डायबिटीज का बीमार हूं।
अगर परंपरा के विपरीत जाने से डायबिटीज होती हो तो हमें स्थिति बदलनी पड़े; सिर्फ कुछ लोगों को कार्ड रखना पड़े कि मैं डायबिटीज का बीमार नहीं हूं। बाकी तो सब लोग हैं ही फिर। और विवेकानंद खुद डायबिटीज से मरे। और तेतीस-चैतीस साल की उम्र में मरे और डरवाते रहे लोगों को। पहले कभी सोचा भी नहीं होगा कि इसी बीमारी में अपने को फंस जाना पड़ेगा। और परंपरा के बड़े भक्त थे।
तुम कहते हो भगवानदास आर्यः ‘कि अपने ज्ञान-चक्षुओं के आधार पर’...
अगर तुम्हारे ज्ञान-चक्षु खुल गए तो भैया यहां सिर क्यों मार रहे हो! मुझे तो शक है कि अभी चर्म-चक्षु भी तुम्हारे खुले हैं कि नहीं। ज्ञान-चक्षु खुल गए तो फिर बचा क्या? और ज्ञान-चक्षु खुले..और दिखाई पड़ रही हैं ये बातें! तुम्हारे ज्ञान-चक्षु खुलें तो मैं विवेकानंद से प्रारंभिक रूप से प्रभावित रहा होऊंगा, यह दिखाई पड़ेगा? क्या लेना विवेकानंद से, क्या लेना मुझसे? ज्ञान-चक्षु खुलेंगे तो परमात्मा दिखाई पड़ेगा। ज्ञान-चक्षु खुलेंगे तो परम ज्योति का अनुभव होगा; या इन बातों का पता लगाते रहोगे! ज्ञान-चक्षुओं को भी इस काम में लगाओगे? इतिहास की खोज-बीन करोगे, भूगोल का पता लगाओगे?
ज्ञान-चक्षु का अर्थ क्या होता है? औपचारिक रूप से तो हम अंधों को भी कहते हैं..प्रज्ञा-चक्षु। दयावश। बेचारों की आंखें तो हैं नहीं। सीधा-सीधा किसी को अंधा कहो, अच्छा नहीं लगता। सत्य अच्छा लगता ही नहीं। अंधे को भी अंधा कहो तो वह नाराज हो जाए। तो अंधे को भी हमें शक्कर चढ़ा कर सत्य को कहना पड़ता है, कि आप हैं प्रज्ञा-चक्षु! अंधा भी बड़ा प्रसन्न होता है। कुल हम इतना ही कह रहे हैं कि इनके चर्म-चक्षु नहीं हैं। मगर चर्म-चक्षु नहीं हैं, यह कहने के लिए और एक झूठ बोलना पड़ रहा है कि इनके प्रज्ञा-चक्षु हैं, इनके ज्ञान-चक्षु हैं। काश इतना आसान होता कि अंधे होने से ज्ञान के चक्षु खुल जाते, तब तो जिनको चश्मे लगे हैं उनके थोड़े-थोड़े खुल गए समझो! धन्यभागी हैं वे। और जितना बड़ा नंबर हो चश्मे का उतने ही प्रसन्न होना कि परमात्मा से उतनी ही निकटता बढ़ रही है। जब चश्मे से भी कुछ दिखाई न पड़े तो समझना कि अब ज्ञान-चक्षु खुल गए। जब टटोलने लगो बिल्कुल, द्वार-दरवाजे कुछ समझ में न आएं, तो समझना कि यही परमहंस अवस्था है।
भगवानदास आर्य, कुछ तो सोचो। ज्ञान-चक्षु! चर्म-चक्षु ही कहते तो ठीक था। मगर हमारी आदतें खराब हो गई हैं। इस देश की बड़ी से बड़ी बीमारियों में एक बीमारी है कि हम बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग करना सीख गए हैं। छोटे-मोटे शब्दों की तो हम बात ही नहीं करते। हम शब्दों में ऐसे कुशल हो गए हैं! शब्दों में ही जीते हैं और शब्दों से ही हम समस्याएं हल कर लेते हैं।
महात्मा गांधी ने देखो न कैसे समस्याएं हल कर दीं! अछूत को हरिजन कह दिया, समस्या हल हो गई। जैसे शब्द ही का मामला था! अछूत कहो तो समस्या थी। हरिजन कह दिया, अछूत भी बड़े प्रसन्न हुए। अंधे प्रज्ञा-चक्षु हो गए। हरिजन हम कहते हैं, जिसने हरि को जान लिया उसको। और गांधी ने कह दिया हरिजन उनको, जो-जो अछूत हैं। सस्तें में हरिजन हो गए। बुद्ध को हरिजन कहो, कृष्ण को हरिजन कहो, कबीर को कहो, तो समझ में आता है। लेकिन तुमने अछूतों को हरिजन कह दिया और समस्या हल कर ली! अच्छा शब्द दे दिया, नाम संुदर दे दिया। सुंदर नाम और बस हम बड़े प्रभावित होते हैं।
गरीबों को ‘दरिद्रनारायण’ कह दिया। लक्ष्मीनारायण के मंदिर होते थे।
जमनालाल बजाज वर्धा में लक्ष्मीनारायण का मंदिर बना रहे थे। उस मंदिर को बनाते देख कर ही गांधी जी को यह ख्याल आया कि अरे, यह तो अच्छा है..दरिद्रनारायण! बस तो दरिद्रनारायण हो गए। अब गरीब होने में एक अध्यात्म हो गया। अब तुम गरीब हो तो बड़े गौरव की बात है। अछूत हो तो हरिजन हो, गरीब हो तो भगवान हो; अब और क्या चाहिए? अगर अछूत घर में और गरीब हुए, बस यह महा-सौभाग्य!
उन्नीस सौ बावन में भारत की संसद में एक बड़ी समस्या थी, क्योंकि हिमालय में नीलगाय पाई जाती है..जंगली गाय है। और वह खेतों को काफी नुकसान पहंुचा रही थी, उसकी संख्या काफी बढ़ गई थी। उसको मारा जाना जरूरी था। लेकिन सवाल यह था कि अगर नीलगाय को मारो तो हिंदू एकदम भड़क जाएंगे। ‘गाय’ शब्द ही काफी है उपद्रव मचाने के लिए। तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सलाह-मशविरा लिया। लोगों ने कहा कि नाम बदल दो..नीलघोड़ा। बस नाम बदल दिया और नीलघोड़े मारे गए। और एक हिंदू ने कोई ऐतराज नहीं उठाया। नीलघोड़ा मारो, किसको क्या लेना-देना! नीलगाय मारो तो बस सारे शंकराचार्य खड़े हो जाते झंडा लेकर, कि नीलगाय मारी जा रही है, हिंदू धर्म पर अत्याचार हो रहा है! न तो वह नीलगाय है न नीलघोड़ा है; वह जंगली जानवर है, उसको नाम तुम जो देना चाहो दे दो। मगर ‘नीलघोड़ा’ देकर मामला हल कर लिया। शब्दों से जीते हैं हम!
तुम्हें भी क्या सूझी! ज्ञान-चक्षु के आधार पर...ज्ञान-चक्षु तो समाधि में खुलते हैं। बड़ी अपूर्व घटना है ज्ञान-चक्षु का खुलना। ज्ञान-चक्षु का अर्थ होता है कि भीतर निर्विचार घटित हुआ; मौन, परम मौन उतरा; कुंआरा शून्य उतरा! तब वहां से जो दृष्टि मिलती है, जो दर्शन मिलता है...मगर उस दर्शन में ये चीजें थोड़े ही प्रकट होंगी..कि किसी के घर में चोरी हो गई तो तुम्हारे ज्ञान-चक्षुओं से तुम बता दोगे कि चोर कौन है।
एक गांव में चोरी हो गई थी। पुलिस खोज-बीन करने आई। बहुत खोज-बीन की, कुछ पता न चला। आखिर गांव के लोगों ने कहा कि अब एक ही उपाय है: हमारे गांव में एक लाल बुझक्कड़ हैं। ऐसी कोई चीज ही नहीं है जिसको वे न बूझ दें। लाल बुझक्कड़ के ज्ञान-चक्षु खुल गए होंगे..जब ऐसी कोई चीज ही नहीं है जिसको वे न बूझ दें! कैसी ही समस्या ले आओ, फौरन बूझ देते हैं। एक दफा रात गांव में हाथी निकल गया होगा। गांव के लोगों ने हाथी देखा नहींं था, सुबह लाल बुझक्कड़ को पूछा। पैरों के चिह्न थे गांव के धूल भरे रास्ते पर। लाल बुझक्कड़ ने बहुत सिर मारा, आंखें बंद कीं, ज्ञान-चक्षु खोले होंगे। फिर कहा कि एक ही बात है..‘पांव में चक्की बांध के हरिणा कूदा होय।’ पैर तो ऐसे ही थे जैसे चक्की। और हाथी किसी ने देखा नहीं था। तो एक ही बात है कि हरिणा पैर में चक्की बांध कर कूद गया होगा।
गांव के लोग प्रसन्न हुए कहा कि देखो, इसको कहते हैं ज्ञान! तो लोगों ने कहा कि अब और कोई उपाय नहीं है, लाल बुझक्कड़ से पूछो। इंस्पेक्टर ने लाल बुझक्कड़ के दरवाजे पर जाकर दस्तक दी, बुलाया। लाल बुझक्कड़ ने कहा कि ऐसी कौन सी चीज है जो मैं न बता सकूं! मगर एकांत में बताऊंगा और इस शर्त से बताऊंगा कि तुम किसी और को मत बताना।
इंस्पेक्टर ने कहा कि भैया, तू बता। शर्त हम तेरी मानते हैं, किसी को न बताएंगे कि तूने बताया है।
कहा कि यहां नहीं बताऊंगा, एकांत में चलो। ले गया दूर गांव के बाहर। थक गया इंस्पेक्टर भी; कहा, भई, कहां ले जा रहा है? अब यहां कोई भी नहीं दिखाई पड़ता, पशु-पक्षी भी नहीं हैं, झाड़-झंखाड़ भी नहीं हैं। अब तो बता दे!
तो पास में लाकर मंुह कान के, कि जहां तक मैं समझता हूं, किसी चोर ने चोरी की है।
...ज्ञान-चक्षु खुले हैं! और इतना पता लगाया कि चोर ने चोरी की है! इंस्पेक्टर ने सिर ठोक लिया। कहा: यह तू गांव में ही बता देता। और यह तो हमें ही मालूम है। यह किसको मालूम नहीं है!
तुमने भी ज्ञान-चक्षुओं का खूब उपयोग किया! कुछ काम की बातों में लगाओ।
रही मेरी बात। विवेकानंद मेरे लिए कभी भी प्रेरणा के कोई स्रोत नहीं हैं। विवेकानंद भारत में समादृत हुए, उसका कारण यह नहीं था कि वे कृष्ण के बाद दूसरे महापुरुष हैं। उसका कुल कारण इतना था कि विवेकानंद ने भारत के अहंकार को खूब पोषित किया। और भारत सदियों से, कोई दो हजार साल से गुलाम था। इसके अहंकार को बड़ी चोटें लग गई थीं, बड़े घाव हो गए थे। यह चाहता था कि कोई इसके अहंकार पर मलहम-पट्टी करे। कोई इसको कहे कि तुम जगत-गुरु हो। कोई इसकी घोषणा करे कि तुम महानतम हो! कि इसी पृथ्वी पर अवतारों का जन्म हुआ है। कि यह धर्म-भूमि है, यह पुण्य-भूमि है। कोई घोषणा करे, हमारी अस्मिता को बल दे, हमारे अहंकार के झंडे फहराए। वह कार्य विवेकानंद ने किया।
यह काम राजनीति का काम है, धर्म का इससे कोई संबंध नहीं है। और विवेकानंद होशियार थे, राजनीति में कुशल थे। और अगर ठीक से उनकी जांच-पड़ताल करोगे तो तुम बहुत चकित हो जाओगे। उनके नाम से बहुत सी झूठी बातें प्रचारित की जाती रही हैं..कि उन्होंने भारत में राजनैतिक क्रांति को जन्म दिया, कि भारत के सभी राजनेताओं ने उनसे प्रेरणा ग्रहण की।
विवेकानंद ब्रिटिश साम्राज्य के बड़े पक्षपाती थे और खुशामदी थे, क्योंकि होशियार आदमी थे। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उन्होंने एक शब्द नहीं कहा है, यह तुम्हें मालूम होना चाहिए; बल्कि उसकी बड़ी प्रशंसा की है। यहां तक कहा है कि ब्रिटिश साम्राज्य न होता तो भारत का पुनरुत्थान नहीं हो सकता था। यह ब्रिटिश साम्राज्य के कारण ही भारत का पुनरुत्थान हो रहा है। और यह भी कहा है कि राजनीति में भाग मत लेना। उन दिनों राजनीति में भाग लेने का अर्थ था राजनैतिक स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लेना। उन दिनों राजनीति में भाग लेने का अर्थ था ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ना। विवेकानंद ने अपने शिष्यों को, अपने संन्यासियों को, अपने अनुयायियों को बचाने की कोशिश की कि वे राजनीति में न उतरें। वे हर हालत में चाहते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य के द्वारा उनको समर्थन मिले। और वह समर्थन मिला। ब्रिटिश साम्राज्य ने विवेकानंद के खिलाफ कोई काम नहीं किया, सब तरह समर्थन दिया। वे कोई भारतीय क्रांति के अग्रदूत नहीं हैं..पलायनवादी हैं। और खुशामदी हैं। और उन्होंने भारतीयों को समझाने की कोशिश की कि तुम्हारा असली काम अध्यात्म है; तुम तो सिर्फ उपनिषद, गीता, वेद इनकी घोषणा करो। यह भौतिक गुलामी है, इसमें क्या रखा है! यह तो सब माया है!
विवेकानंद का यह मूल आधार रहा चिंतन का, कि यह जगत माया है। तो गुलामी क्या, स्वतंत्रता क्या? यह सब तो माया है, इसमें क्या उलझना? अध्यात्म की घोषणा करो!
और गुलाम कौमें अध्यात्म की क्या खाक घोषणा करेंगी! जो अपनी स्वतंत्रता की घोषणा भी नहीं कर सकते, वे क्या परम स्वतंत्रता की घोषणा करेंगे?
लेकिन विवेकानंद कुशल थे। तरकीब यह थी कि ब्रिटिश राज्य नाराज भी न हो, ब्रिटिश राज्य से कोई झंझट भी न लेनी पड़े और साथ ही साथ भारत के अहंकार को भी चोट न पहंुचे, भारत के अहंकार को भी फुलाया जा सके। तो भारत को उन्होंने समझाया कि तुम धार्मिक जगत-गुरु हो। तुम्हें और दूसरी उलझनों में नहीं पड़ना है। तुम्हें अपने धार्मिक जगत-गुरु होने की घोषणा करनी है जगत के ऊपर। तुम्हें धार्मिक साम्राज्य स्थापित करना है।
और उन्होंने ब्रिटिश राज्य की बड़ी प्रशंसा की है कि रेल और टेलीफोन और पोस्ट आफिस, सब ब्रिटिश साम्राज्य लाया। विज्ञान ब्रिटिश साम्राज्य लाया, रास्ते, आवागमन के साधन ब्रिटिश साम्राज्य लाया। दवाइयां, ब्रिटिश साम्राज्य लाया। इसका हमें अनुग्रह मानना चाहिए। जैसे कि हम इतने नपुंसक हैं कि हम अपने हाथ से रास्ते भी नहीं बना सकते थे, रेलगाड़ी भी नहीं ला सकते थे! जैसे कि जिन-जिन देशों में ब्रिटिश साम्राज्य नहीं रहा वहां रेलगाड़ी नहीं पहंुची और वहां रास्ते नहीं बने और वहां टेलीफोन तार नहीं है और पोस्ट आफिस नहीं है! यह मूढ़तापूर्ण बात! मगर ब्रिटिश साम्राज्य की खुशामद हमेशा वे करते रहे। एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्य की खुशामद करते रहे, जितना मक्खन लगा सकते थे ब्रिटिश साम्राज्य को लगाते रहे, और दूसरी तरफ आध्यात्मिक रूप से हिंदुओं के अहंकार को पुनरुज्जीवित करने की बात करते रहे। यह चालबाजी का लक्षण है। ये कोई बुद्धत्व के लक्षण नहीं हैं।
विवेकानंद मेरी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं रखते। प्रेरणा-स्रोत तो बहुत दूर, मेरे लिए उनका कोई मूल्य भी नहीं है। हां, रामकृष्ण परमहंस देव का कुछ मूल्य है। उनकी कुछ बात करो तो समझ में आती है। रामकृष्ण उसी कोटि में हैं जिसमें राम और जिसमें कृष्ण; उसी कोटि में हैं जहां बुद्ध और महावीर। विवेकानंद ने रामकृष्ण के सिद्धांत को भ्रष्ट किया। विवेकानंद ने रामकृष्ण के सिद्धांत को उसकी ऊंचाइयों से उतार लिया, आकाश से उतार लिया, धूल-धूसरित कर दिया।
मेरे लिए कोई प्रेरणा उनसे कभी नहीं मिली। हां, भगवानदास आर्य, तुम्हें उनसे प्रेरणा मिली होगी। सभी हिंदुओं को उनसे प्रेरणा मिली है। हिंदू अहंकार को इतनी उदघोषणा और किसने दी?
तुम कहते हो: ‘अपने ज्ञान-चक्षुओं के आधार पर जब भी आपको पाया तो दो रूपों में। आपके आरंभिक जीवन के प्रेरणा-स्रोत स्वामी विवेकानंद ही रहे होंगे? ’ मुझसे तो पूछ लेते, निर्णय ही कर लिया! ...‘तत्पश्चात बुद्ध होंगे।’ वह भी तुमने निर्णय कर लिया। जैसे कि प्रेरणा-स्रोत होना ही चाहिए कोई!
प्रेरणा-स्रोत तो तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है। जिस दिन तुम अपने भीतर झांक लेते हो उसी दिन बुद्ध को समझ पाओगे, उसी दिन महावीर को भी, उसी दिन मोहम्मद को भी, उसी दिन जीसस को भी। उसके पहले तुम किसी को भी नहीं समझ पाओगे। उसके पहले तुम जो भी समझोगे वह गलत होगा। उसके पहले तुम्हारी ही समझ काम करेगी न! तुम्हारी समझ ही तुम आरोपित करोगे।
मैंने किसी बाहरी व्यक्ति में प्रेरणा खोजने की कभी कोई चेष्टा नहीं की। मैं अगर बुद्धत्व तक पहंुचा हूं तो किसी से प्रेरणा लेकर नहीं, बल्कि परम नास्तिकता के मार्ग से पहंुचा हूं। सबको इनकार करके पहंुचा हूं। मेरा प्रारंभिक जीवन नास्तिक का जीवन है, आस्तिक का जीवन ही नहीं है। और मैं मानता हूं कि जिसको सच में आस्तिक होना हो उसे पहले नास्तिकता से गुजरना जरूरी है। क्योंकि जिसे ‘नहीं’ कहने की सामथ्र्य नहीं, उसके ‘हां’ में कुछ बल नहीं होता। और जिसने कभी संदेह नहीं किया है..प्रखरता से, परिपूर्णता से, समग्रता से..उसकी श्रद्धा दो कौड़ी की है।
मैं किसी पर श्रद्धा करके यहां नहीं पहंुचा हूं। मैं सब पर अश्रद्धा करके यहां पहंुचा हूं। मैंने सबको इनकार किया है। मेरा प्रारंभिक जीवन विरोध का जीवन रहा है, नकारात्मक जीवन रहा है। अगर बुद्ध को पढ़ता तो बुद्ध में भी गलतियां खोजने की ही चेष्टा रहती। महावीर को पढ़ता तो महावीर में गलतियां खोजता। कृष्ण को पढ़ता तो कृष्ण में गलतियां खोजता। मुझसे सभी नाराज थे।
मेरे गांव में कोई संन्यासी अगर प्रवचन देने आते थे तो संयोजक मुझसे प्रार्थना कर जाते थे कि आप न आना, क्योंकि झंझट हो जानी निश्चित थी। मगर मैं बेचूक मौजूद होता था। और मैं बिना बीच में खड़े हुए नहीं रह सकता था। विवाद होना सुनिश्चित था।
मेरा प्रारंभिक जीवन नकार का जीवन है। जहां तक इनकार किया जा सकता था, मैंने इनकार किया। इनकार करते-करते उस जगह आया जहां इनकार करने को भी कुछ न बचा। अगर ठीक से समझो तो यही नेति-नेति का अर्थ है। नेति-नेति नकार की पराकाष्ठा है..न यह, न वह। अगर ठीक से समझो तो यही उपनिषद है..नकार। और जब तुम इनकार करते-करते-करते उस जगह आ जाते हो जहां इनकार करने को भी कुछ नहीं बचता, एक विराट शून्य ही रह जाता है..तभी तुम्हारे भीतर अंतर-वाणी गूंजती है। उस शून्य में अनाहत का नाद होता है। उस शून्य में ही पूर्ण का अवतरण होता है।
तो मैंने किसी से प्रेरणा नहीं ली। हां, जब पूर्ण का अवतरण हुआ, जब मेरा अंतर-आकाश प्रकाश से भर गया, तब मैंने जाना कि ऐसा ही बुद्ध को हुआ था; तब मैं पहचाना कि ऐसा ही महावीर को हुआ था; तब कबीर में भी मुझे वही झलक मिली..और जीसस में और जरथुस्त्र में और लाओत्सु में। लेकिन मैं उनका गवाह हूं, वे मेरे प्रेरणा-स्रोत नहीं हैं। इस बात को मैं बहुत स्पष्ट कर देना चाहता हूं। उनकी प्रेरणा पाकर मैं यहां नहीं पहंुचा हूं। यहां पहंुच कर मैंने उनको गवाही दी है कि हां वे ठीक हैं। मैंने जान कर कहा है कि वे ठीक हैं। मैंने उनको मान कर ठीक को नहीं जाना है। जाना पहले है, फिर उनको ठीक कहा है। मैं उनका प्रमाण हूं, उनका गवाह हूं, उनका साक्षी हूं। अब मैं कह सकता हूं कि वे ठीक हैं।
लेकिन विवेकानंद कहीं भी नहीं आते। रामकृष्ण ठीक हैं, बिल्कुल ठीक हैं, सौ प्रतिशत ठीक हैं। विवेकानंद की कोई गिनती नहीं।
यह सच है कि बिना विवेकानंद के रामकृष्ण की कोई ख्याति न होती। शायद दुनिया में कोई उनको जान भी न सकता। यह भी सच है कि विवेकानंद ने रामकृष्ण को बड़े तर्कयुक्त ढंग से प्रस्तावित किया। लेकिन उस प्रस्तावना में ही रामकृष्ण का मूल खो गया। क्योंकि वह जो तर्कयुक्तता है, उसी ने तो मार डाला। रामकृष्ण हैं दीवाने, मस्ताने, परवाने! उनको तुम तर्कबद्ध नहीं बना सकते। हां, तर्कबद्ध बनाने से लोगों की समझ में आ जाएंगे। लोगों को ही समझाना हो तो ठीक। मगर तर्कबद्ध बनाने में उनका जो मूल स्वर है वह खो जाएगा; उनकी जो गरिमा है, उनकी जो महिमा है, नष्ट हो जाएगी।
ऐसा ही समझो कि एक दीया जला और अंधे को समझाना है, तो अंधे को समझाने के लिए तुम्हें कुछ उपाय करने पड़ेंगे।
रामकृष्ण एक कहानी कहा करते थे। वे कहते थे: एक अंधा आदमी अपने मित्र के घर पर निमंत्रित था भोजन के लिए। उसने पहली दफा खीर खाई। गरीब आदमी था। संुदर खीर थी, स्वादिष्ट खीर थी। गुलाब की पंखुड़ियां डाली गई थीं उसमें और केसर थी उसमें और पिस्ता-बादाम थे उसमें। और बहुत प्रभावित हुआ। और उसने कहा: यह क्या है? मुझे कुछ समझाओ।
पास में बैठे हुए एक पंडित ने, जो कि निमंत्रित था भोजन के लिए, उसने कहा: अरे, यह समझ में नहीं आता! यह खीर है, दूध की बनी हुई।
अंधे आदमी ने कहा: दूध क्या है? दूध का रंग क्या है, ढंग क्या है? कुछ दूध की परिभाषा दो।
पंडित तो पंडित! पंडित तो अंधों से अंधे होते हैं। पंडित समझाने बैठ गया। उसने इसको चुनौती मान ली। पंडित ने कहा: दूध, दूध तुझे पता नहीं! अरे बिल्कुल सफेद रंग का होता है।
अब अंधे आदमी ने कहा कि तुम पहेलियां बुझा रहे हो। पहला प्रश्न हल नहीं होता, तुम और नये प्रश्न खड़े कर देते हो। अब यह सफेदी क्या है?
मगर पंडित भी कोई हारने वाला था! अंधे से कुछ हारने वाला था! अंधे से कुछ पिछड़ने वाला था! उसने कहा: सफेद रंग नहीं मालूम! बगुला देखा बगुला? ठीक बगुले के रंग जैसा।
अंधे आदमी ने कहा कि बात और उलझती जा रही है। खीर से चले थे, बगुले पर पहंुच गए। बात और दूर की हुई जा रही है। बगुला कैसा होता है?
मगर पंडित तो पंडित, उनके तो ज्ञान-चक्षु खुले होते हैं! वह यह भी न देख सका कि यह अंधा आदमी है, उसको मैं बगुला समझा रहा हूं, यह कैसे समझेगा! उसने तरकीब निकाली। उसने कहा कि ऐसे नहीं चलेगा, बातचीत से नहीं चलेगा, तुझे कुछ अनुभव करवाना पड़ेगा। ला तेरा हाथ मेरे हाथ में दे।
एक हाथ में हाथ पकड़ा, दूसरा हाथ बगुले की गर्दन की तरह मोड़ा और अंधे के हाथ को लेकर दूसरे हाथ पर फेरा और कहा: देख इस तरह बगुले की गर्दन होती है!
अंधे ने कहा: अब कुछ बात कही। अब मैं समझ गया कि खीर कैसी होती है। मुड़े हुए हाथ की तरह होती है।
हम हंसते हैं, मगर अंधा क्या करे? अंधे पर दया करो। उसकी गलती कहां? बात बिल्कुल तर्कयुक्त है। खीर के लिए ही सवाल उठा था। खीर को समझाने के लिए ही बगुले तक बात पहंुची थी। फिर बगुला, कुछ थोड़ा-थोड़ा उसकी समझ में आया कि ऐसी उसकी गर्दन होती है..मुड़े हुए हाथ की तरह। तत्क्षण उसने निष्कर्ष ले लिया कि खीर मुड़े हुए हाथ की तरह होती है। बात बड़ी दूर हो गई। कहां खीर! कहां मुड़ा हुआ हाथ! क्या लेना-देना!
विवेकानंद ने वही किया। रामकृष्ण खीर की बात कर रहे हैं, विवेकानंद मुड़े हुए हाथ की। मगर अंधों को मुड़ा हुआ हाथ समझ में आ रहा है। और अंधों की जमात है, अंधों की भीड़ है। रामकृष्ण तुम्हें समझ में नहीं आएंगे, विवेकानंद समझ में आ जाएंगे। क्योंकि रामकृष्ण बोलते हैं ऊंचाइयों से और उन ऊंचाइयों से, जहां भाषा अपने अर्थ खो देती है। और विवेकानंद बोलते हैं वहीं से जहां तुम खड़े हो। तुम्हारी ही भाषा, तुम्हारा ही तर्क, तुम्हारा ही मस्तिष्क उनके पास भी है। तुमसे थोड़ा निपुण, थोड़ा कुशल, थोड़ा ज्यादा सुशिक्षित। वे वेद का उल्लेख कर सकते हैं, उपनिषद के उद्धरण दे सकते हैं। और तुम्हारे सामने जो अतक्र्य है, जिसको तर्क में बांधा भी नहीं जा सकता, बांधा कभी गया नहीं, उसको तर्क में बांधने की चेष्टा कर सकते हैं। और तुम्हें खूब जंचेगी बात। तुम कहोगे: जो बात कभी समझ में न आती थी, समझा दी। और तुम्हें पता ही न चलेगा कि इस समझाने में वह बात खो ही गई जिसको समझाने चले थे।
परमात्मा समझाया नहीं जा सकता; केवल जाना जा सकता है..अनुभव है। उपनिषद भी नहीं समझा सकते, वेद भी नहीं, कुरान भी नहीं, बाइबिल भी नहीं, कोई भी नहीं समझा सकता। सब समझाने वाले हार गए हैं। लेकिन पंडित समझाए चले जाते हैं।
और विवेकानंद निश्चित ही महापंडित हैं। रामकृष्ण बिल्कुल बेपढ़े-लिखे गंवार, कबीर जैसे। दूसरी कक्षा तक पढ़े, इससे ज्यादा उनकी कोई समझ नहीं। विवेकानंद विश्वविद्यालय के स्नातक, तर्कनिष्ठ; आधुनिक मनुष्य के मन की क्या गतियां हैं, उनके संबंध में सुपरिचित। ठीक उनका प्रभाव पड़ा। मगर प्रभाव अंधों पर पड़ा। जो जानते हैं उन पर विवेकानंद का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। हां, रामकृष्ण जरूर उन्हें आंदोलित करेंगे।
रामकृष्ण असली गुलाब हैं। विवेकानंद तो कागज के फूल हैं। गुलाब जैसे लग सकते हैं, गुलाब हैं नहीं। न सुगंध है रामकृष्ण की, न वह ताजगी है, न वह रस है, न पृथ्वी से कोई जोड़ है, न आकाश की हवाओं से, न चांद-तारों से। शाब्दिक जाल है। और शब्दों के कुशल चितेरे हैं। इससे मैं इनकार नहीं करूंगा कि शब्दों के कुशल चितेरे हैं, सुंदर व्याख्याता हैं। लेकिन इतने भी नहीं जितने कि तुम मान बैठे हो। तुम्हारी मान्यता तो तुमने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कर ली है।
और अमरीका में जो प्रभाव पड़ा..सर्वधर्म संसद में..उस प्रभाव के वक्तव्य में भी कुछ ऐसी खास बात नहीं है। मगर लोग कैसी-कैसी बातों से प्रभावित होते हैं, यह भी सोच लेने जैसा है। विवेकानंद से पहले तो इसलिए प्रभावित हुए लोग...जो पहला प्रभाव पड़ा, वही तुम्हें बता देगा कि लोगों की कैसी अवस्था है। पश्चिम में तो ईसाइयत ने धर्म को बिल्कुल ही औपचारिक बना दिया है...रविवारीय धर्म। उसका जीवन से कोई संबंध नहीं है; रविवार को बस चर्च में हो आओ। वह भी एक सामाजिक कृत्य है। थोथा कर दिया बिल्कुल।
...विवेकानंद को जो पहला सम्मान मिला, जैसे ही वे खड़े हुए और पहले शब्द बोले कि सारी संसद खड़ी हो गई और सारे लोगों ने तालियां बजा कर स्वागत किया। किस बात पर, तुम बड़े हैरान होओगे! सिर्फ उन्होंने छोटी सी बात कही थी, जो कि तुमको बिल्कुल प्रभावित नहीं करेगी, जो कि भारत में हरेक राजनेता करता है, हर कोई करता है। चैरस्ते पर खड़े हैं..‘भाइयो एवं बहनो!’ इससे तुम प्रभावित होते हो? इतना सुनकर ही चल पड़ते हो कि हो गया बहुत। विवेकानंद ने वही किया, लेकिन लोग बड़े प्रभावित हुए। ‘ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स!’ अमरीका में कोई धर्मगुरु इस तरह बोलता ही नहीं। धर्मगुरु बोलता है बड़ी ऊंचाई से; वह है पुण्यात्मा और कहां तुम..पापी, नरक जाने वाले! तुमसे कहेगा..‘भाइयो एवं बहनो? ’ अब विवेकानंद ने सड़ी-सड़ाई बात कही; यहां तो सड़ी-सड़ाई है। यहां कौन नहीं कहता भाइयो एवं बहनो! विवेकानंद तो बेचारे यहीं की परंपरा निभा रहे थे। उनको क्या पता था कि इसमें ताली बज जाएगी, लोग एकदम खड़े हो जाएंगे। इस बात का इतना प्रभाव पड़ा। कारण? कारण यह था कि सदियों से पश्चिम में किसी ने संबोधन नहीं किया था इतने प्रेमपूर्वक ढंग से, इतनी निकटता से कि ‘भाइयो एवं बहनो।’
फिर तो एक-एक शब्द लोगों के हृदय में उतरता गया। हालांकि कोई शब्दों में खूबी नहीं है, कुछ खास बात नहीं है। यहां तो पान की दुकान पर भी ब्रह्मचर्चा चल रही है! यहां तो जो देखो वही ब्रह्मज्ञानी है। ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है जिसके कि ज्ञान-चक्षु न खुल गए हों।
मुझ पर कोई विवेकानंद का, या किसी और का, इस तरह का प्रभाव नहीं कि मैं किसी से प्रेरणा लिया हूं। प्रेरणा बाहर से जब तक लोगे तब तक धार्मिक हो ही न पाओगे। बाहर से आई प्रेरणा तुम्हें बाहर से ही बांधे रखेगी। धार्मिक होने का मौलिक सिद्धांत है: बाहर से सारी प्रेरणाएं तोड़ दो। अपने भीतर, निपट अपने भीतर, सारे सेतु, सारे संबंध तोड़ कर डूब जाओ। उसकी प्रक्रिया नकार है।
तो मैंने उपनिषद को भी कह दिया कि नहीं, और वेदों को भी कह दिया नहीं, और बाइबिल को भी कह दिया, नहीं और बुद्ध को और महावीर को भी कह दिया नहीं। निश्चित ही इन को नहीं कहना कोई आसान काम नहीं था। कठिन काम था। इनको नहीं करना अपने ही प्राणों के हिस्सों को अपने से अलग करना है। ये सब हमारे भीतर इस तरह समा गए हैं! इनसे ही तो हमारा चित्त निर्मित हुआ है। इन्होंने ही तो ईंटें रखी हैं हमारे चित्त की..और इनको इनकार करना! और इनको इनकार करने में बड़ा खतरा है, क्योंकि इनको जब तुम बिल्कुल इनकार कर दोगे तो तुम्हारे पास पकड़ने को कोई सहारा भी न रह जाएगा, तुम बिल्कुल बेसहारे हो जाओगे। बिल्कुल असहाय! अथाह सागर है और नौकाएं सब इनकार कर चुके! लगेगा अब डूबे तब डूबे। वैसी ही दशा कई वर्षों तक मेरी रही कि अब डूबा तब डूबा।
मेरे अध्यापक समझते थे कि मैं विक्षिप्त हो गया हूं, या होने के करीब हूं। क्योंकि मेरे अध्यापकों से भी विश्वविद्यालय में यही उपद्रव था। किसी बात पर मैं राजी नहीं हो सकता था। छोटी-मोटी बात पर राजी नहीं हो सकता था, बड़ी बातों की तो बात ही छोड़ दो। नकार मेरा ऐसा था कि हर छोटी बात पर था, हर बात पर था। मेरे शिक्षक मुझ से थक गए थे। मुझे विश्वविद्यालयों से निकाल दिया गया। मुझे कोई नया विश्वविद्यालय जगह देने को राजी नहीं था। कारण यह था कि मैं लोगों को अड़चन दे रहा था। मैं खुद तो पागल जैसी हालत में था, उनको भी पागल किए दे रहा था। ऐसे सवाल मैं पूछता था जिनके कि उत्तर वे बेचारे देते भी तो कहां से देते! आज मैं जानता हूं कि वे देते भी तो कहां से देते!
जैसे मैंने अपने एक प्रोफेसर को पूछा कि आप जिंदा हैं, इसका प्रमाण क्या? वे अपने चारों तरफ देखने लगे। क्या प्रमाण, और वे प्रमाण दे भी नहीं सकते थे, क्योंकि वे वेदांत पढ़ाते थे..जगत माया है! तो क्या पता तुम भी माया हो, मैंने उनसे कहा। यह हो सकता है मैं एक सपना देख रहा हूं कि तुम पढ़ा रहे हो और कोई न हो वहां। तुम भी हो सकता है सपना देख रहे हो कि मैं यहां पढ़ रहा हूं और कोई भी न हो यहां।
उन्होंने कहा कि हो सकता है। तो मैंने कहा: तुम भी घर जाओ, मैं भी घर जाऊं। क्यों सिर पचा रहे हो? सब माया है! और तुम माया समझाते हो और घंटा बजता है और सीधे क्लास में आ जाते हो। पहले सोचा करें कि घंटा जो बज रहा है, बज रहा है? सच में बज रहा है? इसका कोई प्रमाण है? और घंटा बजता है फिर और एकदम तुम बंद कर देते हो। तुम मानते हो घंटे में। और तुम कह रहे हो जगत माया है।
निषेध कर-कर के मैं उस जगह पहंुच गया जहां बिल्कुल विक्षिप्तता जैसी अवस्था हो जाए। उस विक्षिप्तता से गुजरना ही होता है। वह विक्षिप्तता अनिवार्य है। मैं उसी को त्याग कहता हूं। तपश्चर्या कहता हूं। धूनी लगाकर बैठ गए, यह कोई तपश्चर्या नहीं है। राख मल ली शरीर पर, यह कोई तपश्चर्या नहीं है। सच तो यह है कि ठंड लग रही हो तो राख मल कर बैठ जाओ, ठंड नहीं लगेगी। राख जो है वह सारे तुम्हारे रोओं को बंद कर देती है, जहां से हवा अंदर जाती है। तो वे जो राख लपेटे बैठे रहते हैं ठंड के दिनों में, तुम यह मत समझना कि तपश्चर्या कर रहे हैं; वे कंबल ओढ़े हैं। कंबल में से भी हवा चली जाए, राख में से हवा भी नहीं जा सकती। क्योंकि तुम श्वास से ही हवा नहीं लेते हो, तुम्हारा रोआं-रोआं हवा ले रहा है, करोड़ों रोएं हवा ले रहे हैं। राख से बढ़िया कोई चीज नहीं है। खूब खोजा, जिनके ज्ञान-चक्षु खुल गए थे उन्होंने! ...राख लपेट कर बैठ गए! लोगों को लगता है कि अहा! कैसा त्याग किया-कपड़े न लत्ते! महात्यागी! और वे सिर्फ एक साधारण से वैज्ञानिक सिद्धांत का उपयोग कर रहे हैं कि रोओं को बंद कर दिया।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर तुम्हारी श्वास चलती रहे, नाक खुली रहे और सारे रोओं को बिल्कुल कोलतार से बंद कर दिया जाए तो तुम तीन घंटे में मर जाओगे, तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकते। इतना जरूरी है श्वास का भीतर जाना सारे अंगों से। तुम्हारा एक-एक कोष्ठ शरीर का श्वास चाहता है, आक्सीजन चाहता है।
कोई कांटों पर लेटा हुआ है। तुम सोचते हो यह तपश्चर्या है? तो तुम जरा एक छोटा सा प्रयोग करना। अपने बच्चे को कहना कि सुई ले ले और मेरी पीठ के पीछे खड़ा हो जा। अभी सर्दी के दिन हैं, धूप में बैठ जाना और कहना कि मेरी पीठ पर जगह-जगह सुई चुभा। और तुम चकित होओगे, तुम्हारी पीठ पर ऐसे बहुत से स्थान हैं जहां बच्चा सुई चुभाएगा और तुमको पता ही नहीं चलेगा। तुम्हारी पूरी पीठ संवेदनशील नहीं है। कुछ स्थानों पर पता चलेगा, कुछ पर पता ही नहीं चलेगा, जिन-जिन स्थानों पर सुई के चुभने का पता ही नहीं चलता, बस उसी ढंग से कांटों की सेज बनाई जाती है। वह थोड़ी सी कुशलता की बात है, थोड़े अभ्यास की बात है, ढंग से लेटने की बात है..कि बस कांटे वहां छुएं पीठ को जहां चुभन पता ही नहीं चलती। वहां कोई तंतु ही नहीं है जिससे चुभन तुम तक पहंुच सके। फिर धीरे-धीरे अभ्यास हो जाता है। मजे से लेटे रहो कांटों की शय्या पर। और लोग समझेंगे कि क्या गजब की साधना कर रहे हो! और तुम केवल एक सीधे से शारीरिक नियम का उपयोग कर रहे हो। ये कोई तपश्चर्याएं नहीं हैं। न ही उपवास कोई तपश्चर्या है।
अफ्रीका में बहुत से कबीले हैं जो दिन में एक ही बार भोजन करते हैं। चैबीस घंटे में एक ही बार। जब उनको पहली दफा पता चला कि दुनिया में और लोग दो बार करते हैं, कुछ लोग तीन बार और अमरीकी हैं जो पांच बार। और पांच बार के बीच-बीच में जो-जो फ्रिज तक जाते हैं, उसकी कोई गिनती ही नहीं। तो उनको भरोसा ही नहीं आया। मगर उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि वे कोई त्याग कर रहे हैं कि एक ही बार भोजन कर रहे हैं।
शरीर के समायोजन की क्षमता इतनी है कि तुम एक बार भोजन करो तो वह धीरे-धीरे एक ही बार में उतना भोजन लेने लगता है जितना चैबीस घंटे के लिए जरूरी है। इसलिए जो लोग एक बार भोजन करेंगे उनकी तोंदें बड़ी हो जाएंगी। तुम जैन मुनियों को देखो। जैन मुनियों की तोंद तो होनी ही नहीं चाहिए। जैन मुनि और तोंद का संबंध ही नहीं होना चाहिए। क्योंकि जैन मुनि तो बेचारा उपवास करता है, लंबे उपवास करता है..दो-दो तीन-तीन दिन के, फिर पंद्रह-पंद्रह दिन के भी उपवास करता है। मगर उसकी तोंद क्यों बढ़ जाती है? क्योंकि जब वह दो-तीन दिन के बाद भोजन करता है तो फिर डट कर ही करता है।
तुम देखोगे कि जहां अकाल पड़ जाता है वहां बच्चों के पेट बड़े हो जाते हैं। फोटुएं तुमने अखबारों में देखी होंगी। क्यों? अकाल पड़ा है, बच्चों के पेट बड़े क्यों हैं? इसीलिए कि जब मिल जाता है तब वे इतना कर जाते हैं जितना कि दो-चार-आठ दिन के लिए जरूरी है, नहीं तो जिएंगे कैसे? जैसे-जैसे कोई देश समृद्ध होता जाता है वैसे-वैसे उस देश में तोंद कम होती जाती है। जब भोजन ठीक से उपलब्ध होने लगता है तो तोंद समाप्त हो जाती है, अपने आप समाप्त हो जाती है। क्योंकि उसकी कोई जरूरत नहीं है। जब जरूरत होगी तब भोजन कर लेंगे।
और आदमी शाकाहारी है। आदमी की जो पेट की व्यवस्था है वह बताती है कि वह शाकाहारी है। उसकी जो अंतड़ियां हैं पेट की, वे बताती हैं कि वह शाकाहारी है। क्योंकि मांसाहारी जानवरों के पेट की अंतड़ी छोटी होती हैं और शाकाहारी जानवरों के पेट की अंतड़ियां बहुत बड़ी होती हैं। मनुष्य के पेट की अंतड़ियां बहुत बड़ी हैं, कई फीट लंबी हैं। गुड़री मार कर बैठी हैं। क्योंकि मांस तो पचा हुआ भोजन है। वह दूसरे ने पचा लिया, तब तो मांस बना। इसलिए छोटी अंतड़ी काफी है।
सिंह के पेट की अंतड़ी बहुत छोटी होती है, इसलिए सिंह चैबीस घंटे में एक ही बार भोजन करता है। कर ही नहीं सकता दो बार करना भी चाहे तो। उसकी अंतड़ी में जगह नहीं होती। और एक ही बार का भोजन पर्याप्त हो जाता है, क्योंकि पचा हुआ है उसको पचाने का काम खुद भी नहीं करना पड़ता। और भारी भी है मांसाहार, क्योंकि पूरा का पूरा भोजन पचा हुआ है। उसमें कुछ भी व्यर्थ नहीं है जो फेंकना है बाहर। जब तुम शाक-सब्जी खाते हो उसमें सत्तर प्रतिशत तो बेकार है, कूड़ा-करकट है; उसे बाहर फेंकना पड़ेगा। तुम्हें बड़ी अंतड़ी चाहिए, क्योंकि सत्तर प्रतिशत जगह तो व्यर्थ की चीजें ले लेंगी, तीस प्रतिशत ही सार्थक चीजों के लिए जगह बचेगी।
इसलिए जितने शाकाहारी जानवर हैं, जैसे बंदर, वह दिन भर तुम देखो चल रहा है काम उनका। इस झाड़ से उस झाड़ पर...। अमरीकी उसी अवस्था में आ गए हैं। सुबह-सुबह..ब्रेकफास्ट...फास्ट किया ही नहीं है..और ब्रेकफास्ट! अजीब आदमी हैं। लेकिन वे उसको फास्ट कहते हैं..रात जो बारह बजे भोजन बंद कर दिया, सो गए और फिर सुबह जो आठ बजे उठे तो आठ घंटे का फास्ट हो गया न! वह आठ घंटे का उपवास हो गया। अब उपवास-भंग, ब्रेकफास्ट। फिर दिन भर यह प्रक्रिया चलती है बारह बजे रात तक।
शरीर के समायोजन की व्यवस्थाएं हैं।
जितना समृद्ध देश होगा उतनी ही तोंदें कम होंगी। जितना गरीब देश होगा उतनी ही तोंदे ज्यादा होगी। और साधु-संन्यासियों की तोंदों का तो कहना ही क्या! तुमने मुक्तानंद के गुरु नित्यानंद की तोंद देखी? अगर नहीं देखी तो दुनिया का दसवां चमत्कार नहीं देखा! तो तुम्हारा जीवन अकारथ है! तस्वीर में ही देख लेना, मगर नित्यानंद की तोंद जरूर देख लेना। तोंदें तो बहुत हुईं मगर नित्यानंद, कोई उनका मुकाबला नहीं कर सकता। साधारणतः आदमी की तोंद होती है; नित्यानंद को देख कर लगता है तोंद को आदमी है। और नित्यानंद बड़े उपवासी हैं! उपवास करोगे, यह होनेवाला है, यह स्वाभाविक है।
ये कोई तपश्चर्याएं नहीं हैं। तपश्चर्या एक ही है: नकार कर दो बाहर से सारे ज्ञान को, विच्छिन्न कर लो अपने को..सारे सामाजिक सम्मोहन से, सारे सामाजिक संस्कारों से। हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, यहूदी कोई भी संस्कार हो, सारे संस्कारों से अपने को मुक्त कर लो; यही तपश्चर्या है। कठिन है, कठोर है। कपड़े उतारने जैसी नहीं है, चमड़ी उघाड़ने जैसी है। और जब तुम सारे संस्कारों से नकार कर दोगे तब तुम्हारे भीतर एक ऐसा महाशून्य घिरेगा कि तुम घबड़ाओगे कि मौत आई, कि अब मरा, पकड़ने को कुछ भी नहीं रहा, कोई सहारा न रहा! और जब तुम पूरे बेसहारा हो जाते हो तभी परमात्मा का सहारा मिलता है। जब तक तुम खुद ही अपना सहारा पकड़े हुए हो तो तब तक परमात्मा का सहारा नहीं मिलता।
कृष्ण के जीवन में एक प्यारी घटना है। कहानी ही होगी, मगर बड़ी सत्य के संबंध में सूचक है। वे भोजन करने बैठे हैं। रुक्मिणी थाली पर पंखा झल रही है। बीच भोजन में उठ खड़े हुए और एकदम भागे दरवाजे की तरफ। रुक्मिणी ने कहा: क्या हुआ? हाथ का कौर छोड़ ही दिया है थाली में। उत्तर नहीं दिया रुक्मिणी को। जैसे कि एकदम घर में आग लग जाए! और फिर दरवाजे पर जाकर ठिठक गए, क्षण भर खड़े रहे, फिर वापस लौट आए, वापिस थाली पर बैठ कर भोजन करने लगे। रुक्मिणी ने पूछा: मेरी कुछ समझ में नहीं आया। इतनी तेजी से भागे जैसे घर में आग लगी हो, जैसे भूकंप आ गया हो! और फिर चुपचाप लौट आए दरवाजे की देहरी से। हुआ क्या! इसका राज क्या है?
कृष्ण ने कहा: राज कुछ ज्यादा नहीं, छोटा सा है। मेरा एक भक्त एक रास्ते से गुजर रहा है। लोग उसको पत्थर मार रहे हैं। उसके माथे से लहू की धार बह रही है। मगर वह है कि अपना इकतारा बजाए ही जा रहा है..उसी मस्ती में, उसी मस्ती में, जिसमें पहले बजा रहा था जब लोग पत्थर नहीं मार रहे थे। खून बह रहा है और इकतारा बज रहा है और वह मुझे पुकार रहा है। उसकी असहाय अवस्था देख कर मुझे भागना पड़ा। भोजन मैं पूरा नहीं कर सका।
रुक्मिणी ने कहा: फिर दरवाजे से लौट क्यों आए?
उन्होंने कहा कि जब तक मैं दरवाजे पर पहंुचा, उसने अपना इकतारा तो एक तरफ फेंक दिया है और पत्थर उठा लिए। उसने कहा कि आ जाओ अब कौन-कौन हैं। अब बहुत हो गया पुकारते-पुकारते कृष्ण-कृष्ण। अब मैं ही निपटे लेता हूं। अब वह खुद ही निपट रहा है, अब मेरी कोई जरूरत न रही।
इस कहानी को मैं बहुत अर्थपूर्ण मानता हूं। तुम जब तक कुछ भी सिद्धांत, कुछ भी विचार, कुछ भी धारणा, कुछ भी शास्त्र पकड़े रहोगे, तब तक परमात्मा की तुम्हें जरूरत ही नहीं, तुम खुद ही काफी समझदार हो। उसकी समझ प्रवेश पा सके, इतना स्थान भी तुममें नहीं है। जब तुम अपनी सारी समझ को हटा कर रख दोगे और तुम कहोगे मैं नाकुछ हूं, शून्य हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है..नकार वहीं ले आता है जहां अपने अज्ञान का पता चलता है और ज्ञान बिल्कुल नहीं बचता। घनी अमावस की रात हो जाती है, गहन अंधकार छा जाता है। लेकिन जितना गहन अंधकार है उतनी ही सुबह करीब है। और जब तुम बिल्कुल बेसहारा हो तब उसका हाथ उतरेगा और तुम्हें सहारा देगा। जब तुमने सब नावें छोड़ दीं तब वह स्वयं तुम्हारी नाव बन जाता है, स्वयं तुम्हारा माझी बन जाता है।
मैंने किसी से कोई प्रेरणा नहीं ली है। पढ़ा मैंने सबको, मैंने सबको इनकारा। और कोई उपाय भी न था। जिसको मैं नहीं जानता, उसे मैंने कभी स्वीकार नहीं किया। जो मेरा अनुभव नहीं है उसे मैं क्यों स्वीकार करूं? मैंने कभी विश्वास पर अपने जीवन की भित्ती नहीं रखी। संदेह मेरी प्रक्रिया रही। और तुम जान कर चकित होओगे कि संदेह करते-करते मैं परम श्रद्धा को पहंुचा। संदेह ने रास्ता साफ कर दिया, संदेह सीढ़ी बन गया। संदेह ने काट दिया जाल सब व्यर्थ के विश्वासों का।
और जब हृदय बिल्कुल शून्य हो जाता है, तो इस प्रकृति का एक नियम है कि यह शून्य को तत्क्षण भर देती है। जहां भी शून्य होता है वहीं भरने पहंुच जाती है। अगर बाहर का शून्य हो तो भी भर दिया जाता है। अगर भीतर का शून्य हो तो भी भर दिया जाता है। भीतर का शून्य परम चैतन्य से भर जाता है।
प्रेरणा किसी से लेना मत, अगर परमात्मा को चाहते हो तो। हां, जिस दिन मिल जाएगा परमात्मा उस दिन तो तुम्हें कहना ही होगा। जिन्होंने जाना है उन्हें स्वीकृति देनी ही होगी।
इसलिए बहुतों को मेरे जीवन में बड़ा विरोधाभास दिखाई पड़ता है। जिन्होंने मेरे प्राथमिक जीवन को देखा है और अब मेरे वचनों को सुनते हैं उनको बड़ी हैरानी होती है! वे कहते हैं: ‘आप इन्हीं बातों को तो इनकार करते थे!’ इन्हीं को इनकार करता था, क्योंकि ये बातें मेरी नहीं थीं। और वे कहते हैं: ‘अब आप इन्हीं बातों को स्वीकार करते हैं।’ निश्चित, क्योंकि अब ये बातें मेरी हैं। मैंने बुद्ध को इनकार किया था; अब मैं बुद्ध को स्वीकार करता हूं। मैंने रामकृष्ण को इनकार किया था, अब रामकृष्ण को स्वीकार करता हूं। मैंने उपनिषद, कुरान सबको इनकार किया था; अब मैं स्वीकार करता हूं। लेकिन यह स्वीकृति मेरे अपने अनुभव से आ रही है। मैं अब गवाह हूं। ये मेरे प्रेरणा-स्रोत नहीं हैं, मैं इनका गवाह हूं।
और अंततः तुमने पूछा है कि स्वामी विवेकानंद भारत के दूसरे कृष्ण थे।
परमात्मा कभी दो व्यक्ति एक जैसे बनाता नहीं। वह उसकी आदत नहीं, वह उसका स्वभाव ही नहीं। व्यक्तियों की तो बात छोड़ दो, तुम दो पत्ते भी एक जैसे नहीं खोज सकते सारी पृथ्वी पर! दो कंकड़ भी एक जैसे नहीं खोज सकते! परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं। परमात्मा मौलिक सर्जक है, स्रष्टा है, हमेशा अनूठा बनाता है। कृष्ण को बना चुका एक बार, अब दुबारा किसलिए बनाना? परमात्मा कोई फोर्ड की कार बनाने वाली कंपनी तो नहीं है कि बनाते गए फोर्ड, लाइन पर लाइन लगाते गए, एक सी फोर्ड कारों की कतारें लग गईं। परमात्मा मौलिक है।
कृष्ण एक बार पर्याप्त हैं, दुबारा जरूरत भी क्या है? और कृष्ण दुबारा हो भी कैसे सकते हैं, क्योंकि जिस परिस्थिति में कृष्ण थे वह परिस्थिति दुबारा नहीं होती। अगर दुबारा कृष्ण को लाना हो तो पूरी परिस्थिति को पुनः लाना पड़े। फिर बनाओ कौरव, फिर बनाओ पांडव, फिर द्रौपदी का चीर-हरण करवाओ। बहुत झंझटें होंगी। फिर दुर्योधन बनाओ, फिर चले जुआ, फिर सजे महाभारत। मगर बड़ी गड़बड़ें हो जाएंगी, क्योंकि दुर्योधन भी इस बीच काफी कुशल हो गया होगा।
और महाभारत अब अगर हो तो कोई बचेगा? अणु-बम और हाइड्रोजन बम हमारे हाथ में हैं..और इतने कि एक-एक आदमी को कम से कम सात-सात बार मारा जा सकता है। यह पूरी पृथ्वी सात बार नष्ट की जा सकती है। वह तो ठीक था, उन दिनों युद्ध एक बात थी, आज युद्ध बात और है। और उस परिस्थिति को तुम लौटा ही नहीं सकते। उस परिस्थिति को लौटाने के लिए तो इंच-इंच फिर पुरानी कथा दोहरानी पड़ेगी। और यह हो नहीं सकता। कृष्ण कैसे पैदा हो जाएंगे दुबारा?
और क्या तुम्हें कृष्ण जैसा दिखाई पड़ा विवेकानंद में? न तो बांसुरी दिखाई पड़ती, न मोरमुकुट। जरा सोलह हजार सखियों की तो कल्पना करो! सोलह भी नहीं दिखाई पड़ती, सोलह हजार की तो बात और है। एक बेचारी भगिनी निवेदिता! उसको भी रामकृष्ण आश्रम के अधिकारियों ने आश्रम में प्रवेश नहीं करने दिया। वह भी आश्रम के बाहर रही, क्योंकि संन्यासी को यह शोभा देता है कि एक स्त्री को आश्रम में ले आए? और विवेकानंद जैसा कमजोर आदमी! अरे कम से कम इतना करना था कि जाकर सिस्टर निवेदिता के साथ बाहर ही रहने लगते। वह भी हिम्मत न कर सके। और कृष्ण की सोलह हजार रानियों में पक्का ख्याल रखना, विवाहित तो एक रुक्मिणी ही थी, बाकी तो दूसरों की विवाहिताएं थीं। ...जिसकी मिली, ले भागे! अब यह न चलेगा, जेलखाने में बंद पाए जाएंगे।
यह और युग है, और परिस्थिति है। किस आधार पर कहते हो कि दूसरे कृष्ण? ऐसा तो कुछ भी नहीं है विवेकानंद में, जो तुम कृष्ण से तुलना करो। असल में तुलना ही नहीं हो सकती। कहां कृष्ण, कहां विवेकानंद! विवेकानंद की तुलना तो परमहंस रामकृष्ण से भी नहीं हो सकती; उनकी भी चरणों की धूल हैं।
तुम कहते हो: ‘उपनिषदों व अन्य भारतीय ग्रंथों के मूर्धन्य विद्वान।’
यह मैं स्वीकार करूंगा-विद्वान। मगर ज्ञाता नहीं। विद्वान निश्चित। भाषा के विद्वान, सिद्धांतों के संबंध में कुशल; मगर ज्ञाता नहीं, गवाह नहीं, साक्षी नहीं। व्याख्याकार, टीकाकार। लेकिन ऐसा कुछ विवेकानंद की वाणी में नहीं है जिसको उपनिषद का गौरव दिया जा सके।
अब तुम कह रहे हो: ‘ऐसे महापुरुष पर आपके मुखारविंद से एक लंबी प्रवचनमाला की अपेक्षा है।’
भैया मुझे क्षमा करो। एक ही प्रवचन में सफाया किए दे रहा हूं, ताकि आगे दुबारा कोई यह सवाल उठाए ही न।
और तुम कहते हो: ‘शंका भी है कि विवेकानंद पर आप शायद नहीं बोलें।’
तुम्हारी शंका दुरुस्त है।
‘कारण कि उनका समग्र चिंतन हिंदू शब्द व हिंदू सभ्यता पर आधारित है। और हिंदू शब्द से आपको घृणा है, ऐसा मुझे कई बार प्रतीत हुआ है।’
हिंदू शब्द से मुझे घृणा नहीं है। शब्दों में क्या रखा है? हिंदू शब्द हिंदुओं का है भी नहीं, दूसरों ने दे दिया है, विदेशियों ने दे दिया है। वेदों में हिंदू शब्द का कोई उल्लेख नहीं है, उपनिषदों में कोई उल्लेख नहीं है। जैसे विदेशी भारत में आए उनके कारण यह पैदा हुआ।
विदेशियों की जो पहलीशृंृंखला भारत आई, उनकी भाषा में ‘स’ के लिए ‘ह’ शब्द था। वे स का उच्चारण ह की तरह करते थे। इसलिए सिंधु नदी को उन्होंने हिंदू कहा..हिंदू नदी। और सिंधु नदी पहले पड़ती थी रास्ते में तो इस सिंधु के पार जितने लोग बसते थे, वे ‘हिंदू नदी’ के पास बसने वाले लोगों को हिंदू कहा।
उसके बाद जो दूसरीशृंृंखला भारत में विदेशियों की आई...आती रही विदेशियों कीशृंखला। भारत अपनी व्यर्थ की बकवास में लगा रहा और विदेशी आते रहे और शोषण करते रहे। भारत ज्ञान की बातें करता रहा..‘जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य।’ और लोग आते रहे और बताते रहे इनको कि सत्य क्या है। ...जो दूसरीशृंृंखला आई, उनकी भाषा में सिंधु के लिए इंदु उच्चारण हुआ। उससे ‘इंडस’ और ‘इंडिया’ शब्द पैदा हुए। ये दोनों ही शब्द विदेशी हैं; भारतीयों का इनसे कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन फिर इन शब्दों को भारतीयों ने पकड़ लिया; ये उनके प्रतीक बन गए।
कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि ऐसे शब्द, जिनका तुमसे कोई संबंध नहीं होता, तुम्हारे प्रतीक बन जाते हैं। इतना ही नहीं, ऐसे शब्द भी जो तुम्हारे लिए शुरू-शुरू में गालियों की तरह उपयोग किए जाते हैं, वे भी तुम्हारे लिए बड़े समादृत हो जाते हैं। ऐसा ही एक शब्द है ‘बाबू।’ बाबू जगजीवनराम! बाबू जी कहो तो वे एकदम खिल जाते हैं। लेकिन बाबू शब्द गाली है, किसी से भूल कर मत कहना। अंग्रेजों ने शुरू किया, क्योंकि बंगाली मछली डट कर खाते हैं। और पहली दफे अंग्रेज बंगालियों के संपर्क में आए। कलकत्ता उनकी पहली राजधानी थी। इसलिए बंगाली बाबू सबसे ज्यादा बाबू है बाकी किसी और बाबू से। जैसे तुम पंजाबी बाबू कहो, जंचता नहीं। जंचता ही नहीं..पंजाबी और बाबू! बात जंचती ही नहीं। बंगाली बाबू, एकदम तालमेल बैठता है। उसका कारण यह है कि सबसे पहले बंगाली के लिए ही बाबू शब्द का उपयोग हुआ। बंगाली और बाबू न हो, यह हो ही नहीं सकता।
अंग्रेज बाबू कहते थे। बाबू का अर्थ होता है..बदबू सहित। जिससे बास आती हो..बा-बू। वह मछलियां खाओगे तो बदबू आएगी। अब जग्गू भैया को कोई कह देता है बाबू जी..अहा! सोचते हैं बड़ी ऊंची बात कही जा रही है। कहने वाले को भी पता नहीं, सुनने वाले को भी पता नहीं कि गाली दी जा रही है।
शब्दों की भी बड़ी यात्राएं होती हैं, लंबी यात्राएं होती हैं। शब्द भी कभी-कभी ऊंचाइयां देखते हैं। घूरों पर पड़े शब्द कभी आकाश के तारे बन जाते हैं। कभी आकाश के तारे घूरों पर गिर जाते हैं। बड़े उतार-चढ़ाव आते हैं शब्दों के जीवन में भी। शब्दों की यात्राएं भी बड़ी अदभुत हैं। शब्दों की यात्राओं को कोई गौर से देखे तो बड़ी हैरानी होती है। कभी जो आदृत शब्द होता है, अनादृत हो जाता है, बाद में। कभी अनादृत था, फिर आदृत हो जाता है। समय बदलता है, परिस्थिति बदलती है।
भगवानदास आर्य, हिंदू शब्द हिंदुओं का तो है ही नहीं, विदेशियों का दिया हुआ शब्द है। तुम पकड़ कर बैठ गए और अब उसको शोरगुल मचाए हुए हो, बहुत शोरगुल मचाए हुए हो। सिर्फ सिंधी अपने को हिंदू कहें तो चल सकता है। और सिंधी भाषा को हिंदी कहो तो चल सकता है। बाकी पूरे देश को हिंदू कहना, हिंदुस्तान कहना, हिंद कहना और पूरे देश के रहने वालों की भाषा को हिंदी कहना, कुछ अर्थ नहीं रखता।
मुझे क्या विरोध हिंदू शब्द से! मुझे कोई घृणा नहीं है हिंदू शब्द से। लेकिन मैं चाहता हूं: मनुष्य एक हो। एक मनुष्य की उदघोषणा करनी चाहिए। सारी पृथ्वी एक हो। ये विभाजन गिरें। ये भेदभाव गिरें, कौन हिंदू, कौन मुसलमान, कौन ईसाई! चैतन्य की उदघोषणा करो। अपने भीतर के परमप्रभु की उदघोषणा करो। उस उदघोषणा के लिए इन सारे शब्दों को गिरा देना चाहता हूं।
इसलिए मेरे संन्यासियों का तुम्हें पता ही नहीं चलेगा..कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है, कौन ईसाई है, कौन यहूदी है? यहां सारे धर्मो के संन्यासी मौजूद हैं, सारे देशों के संन्यासी मौजूद हैं। लेकिन कोई पूछता ही नहीं..उनकी जाति, उनका धर्म, उनका देश, कुछ लेना-देना नहीं है। हम तो एक ही बात पूछते हैं: ध्यान। बाकी सब बातें गौण, बाकी सब बातें व्यर्थ।
और अंततः तुम कहते हो: ‘विशेष प्रार्थना है कि स्वामी विवेकानंद के मौलिक विचारों पर...।’
एक तरफ तो कहते हो कि वे भारतीय ग्रंथों, उपनिषदों इत्यादि के मूर्धन्य विद्वान थे और दूसरी तरफ कहते हो ‘मौलिक विचार’...। क्या खाक मौलिक विचार होंगे। विद्वानों के कहीं मौलिक विचार होते हैं! मौलिक विचार तो बुद्धों के होते हैं, विद्वानों के नहीं होते। विद्वानों के विचार तो सब उधार होते हैं। उपनिषद बोलता उनसे, गीता बोलती उनसे; वे खुद नहीं बोलते। वे तो सब ग्रामोफोन रिकार्ड हैं..एच.एम.वी. हिज मास्टर्स वाइस! वह देखा न, चोंगे के सामने कौन बैठा रहता है? वही! मूर्धन्य विद्वान यानी वही! ...एच.एम.वी. ने भी खूब प्रतीक चुना है! वह मूर्धन्य विद्वान का सार आ गया उसमें। ग्रामोफोन रिकार्ड! दोहरा दिया उपनिषद और मूर्धन्य विद्वान हो गए।
तोतों की तरह हैं ये लोग। इन तोतों का कोई मूल्य नहीं है। तोता कितना ही राम-राम जपे, क्या मूल्य है? तोता कितना ही भजन करे, माला फेरे, क्या अर्थ? उसके भीतर तो कुछ नहीं होता। बस राम-राम शब्द की तो गुहार लगा देता है, क्योंकि तुमने सिखा दिया राम-राम तो राम-राम दोहराता है। सब सिखावन की बात है।
विवेकानंद के मैंने सारे वक्तव्य देखे हैं। मुझे तो कोई एक वक्तव्य भी मौलिक नहीं दिखाई पड़ा। इसलिए मैं असमर्थ हूं उनके मौलिक विचारों पर ‘शुभ्र, सात्विक और सच्चाईपूर्ण नवनीत का प्रसाद’ प्रदान करने में। मौलिक विचार ही नहीं, क्या खाक करूं! उसमें कुछ है नहीं, जान नहीं, प्राण नहीं। मौलिक का अर्थ समझते हो? जो मूल से आए। और मूल कहां है? मूल तुम्हारे भीतर है; तुम्हारे प्राणों के प्राण में छिपा पड़ा है; तुम्हारे अंतर्तम का नाम मूल है। वहां से जो उठे, वह मौलिक। उपनिषद से आए, वेद से आए, वह कैसे मौलिक? वह तो किताबी है, कागजी है, बासा है, उधार है। तुम्हारी निजता का उसमें कोई दान नहीं है। जो ध्यान में जन्मे, जो समाधि में उठे..जो सुगंध समाधि में उठती है वही मौलिक होती है, बाकी तो सब कूड़ा-करकट है। ढोओ कितना ही, सजा लो कितना ही, काम नहीं पड़ेगा, वक्त पर काम नहीं आएगा।
मैंने सुना, एक महिला एक तोते को खरीद कर लाई। तोते बेचने वाले ने कहा कि आप न लें तो अच्छा, क्योंकि उसे पता था कि महिला बड़ी धार्मिक है। उसने कहा आप धार्मिक हैं और यह तोता जरा रद्दी संग-साथ में रहा है, तो जरा गाली इत्यादि बक देता है। इसको आप न ही लें तो अच्छा। मगर तोता इतना प्यारा था कि महिला ने कहा कि ठीक है, वह तो हम समझा लेंगे, बदल लेंगे, कोई घबड़ाने की बात नहीं है।
महिला लेकर घर आई। तोते ने आते से ही कहा: अरे, नया घर, नई मालकिन, नई लड़कियां! फिर चंदूलाल आए..पतिदेव घर लौटे। तो तोते ने कहा: अरे, घर नया, स्त्री नई, लड़कियां भी नई, चंदूलाल ग्राहक पुराने के पुराने!
वह एक वेश्या के घर का तोता था, जहां चंदूलाल आया-जाया करते थे। चंदूलाल भी दुखी हुए, महिला बहुत दुखी हुई कि करना क्या अब! यह तोता कहां से ले आई, चंदूलाल ने कहा। यह बहुत उपद्रवी तोता है। यह कुछ भी अंट-संट बकेगा। और बकता था। कोई साधु-महात्मा आ जाए तो कहे..ऐ पोंगा पंडित! सत्संग में रह चुका था।
महिला ने कहा: करना क्या अब? पास में ही एक पादरी था। महिला ने पादरी से सलाह ली कि कुछ रास्ता बताओ, आप तो बड़े-बड़ों को सुधार दिए। यह मेरे तोते को सुधार दो।
पादरी ने कहा: कोई फिकर नहीं, मेरे पास भी एक तोता है जो बड़ा भक्त है; जिसे पूरी की पूरी प्रार्थना आती है, बाइबिल के वचन भी आते हैं और सुबह से ही बैठ कर माला जपता है। ऐसा भक्त तोता मैंने नहीं देखा। तू ऐसा कर अपने तोते को यहीं ले आ। मेरे भक्त तोते के पास छोड़ दे, सत्संग का असर होगा। दोनों साथ-साथ रहेंगे, सब ठीक हो जाएगा। महीने-पंद्रह दिन में सब बदलाहट हो जाएगी।
सत्संग तो असर लाता ही है। महिला को भी बात जंची। तोते को ले आई, रख गई पादरी के तोते के पिंजड़े में। पांच-सात दिन बाद देखने आई कि हालत कहां तक सुधरी! महिला को देख कर पादरी तो एकदम भनभना गया। उसने कहा: ले जा अपना तोता, इसी वक्त ले जा! महिला ने कहा: बात क्या है? उसने कहा: बात कुछ पूछ मत। तू अपने तोते को ले जा, हमें नहीं रखना यह तोता!
दोनों तोते के पिंजड़े के पास गए। महिला भी कुछ समझी नहीं कि बात क्या है। जाकर समझ में आई। पादरी के तोते ने माला फेंक दी थी। महिला ने पूछा कि तूने माला क्यों फेंक दी? उसने कहा माला जिसके लिए जपते थे वह मिल गई। वह तोता, जो महिला लाई थी, तोती थी। ...कि माला इसी के लिए जप रहे थे, प्रार्थना कर रहे थे, सुन ली प्रभु ने। अब क्या जपना माला, अब क्यों जपना माला?
तोतों की बातें तो ऊपर ही ऊपर होंगी, भीतर तो कुछ और चलता रहेगा। मौलिकता तोतों में नहीं हो सकती। विद्वानों में मौलिकता कभी नहीं होती। विचार में मौलिकता होती ही नहीं; मौलिकता तो ध्यान में होती है, निर्विचार में होती है।
भगवानदास आर्य, ऐसे व्यर्थ के प्रश्न यहां मत उठाया करो। कुछ सार्थक पूछो, दो दिन की जिंदगी है, कुछ काम की बात पूछो..कुछ जो तुम्हारे काम आ जाए; कुछ जो तुम्हारे जीवन को बदल जाए; कुछ जिससे तुम्हारे बंद झरोखे खुलें; कुछ जिससे परमात्मा से तुम्हारा सेतु जुड़े।
तुमने नाहक विवेकानंद को पिटवाया। इसमें मेरा कोई जिम्मा नहीं, जिम्मा तुम्हारा है।

आज इतना ही।

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