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सोमवार, 12 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

सखि, वह घर सबसे न्यारा

सूत्र:

साहिब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग डारी।
स्याही रंग छुड़ायके रे दियो मजीठा रंग।
धोय से छूटे नहीं रे दिन दिन होत सुरंग।।
भाव के कंुड नेह के जल में प्रेम रंग देइ बोर।
दुख देह मैल लुटाय दे रे खूब रंगी झकझोर।।
साहिब ने चुनरी रंगी रे पीतम चतुर सुजान।
सब कुछ उन पर बार दूं रे तन मन धन और प्रान।।
कहै कबीर रंगरेज पियारे मुझ पर हुए दयाल।
सीतल चुनरी ओढ़ि के रे भई हौं मगन निहाल।।

अब गुरु दिल में देखिया, गावन को कछु नाहिं।
कबिरा जब हम गावते, तब जाना गुरु नाहिं।।
सुन्न मंडल में घर किया, बाजै सब्द रसाल।
रोम रोम दीपक भया, प्रगटे दीन दयाल।।
सुन्न सरोवर मीन मन, नीर तीर सब देव।
सुधा सिंधु सुख विलसही, विरला जाने भेव।।


लाली मेरे लाल की, जित देखौं तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
जिन पावन भुइं बहु फिरे, घूमें देस बिदेस।
पिया मिलन जब होइया आंगन भया बिदेस।।

सखि, वह घर सबसे न्यारा, जहं पूरन पुरुष हमारा।।
जहां न सुख-दुख सांच-झूठ नहिं पाप न पुन्न पसारा।
नहिं दिन-रैन चंद नहिं सूरज, बिना जोति उजियारा।।
नहिं तहं ग्यान-ध्यान नहिं जप-तप बेद-कितेब न बानी।
करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब उहां हेरानी।।
धर नहिं अधर न बाहर-भीतर, पिंड-ब्रह्मांड कछु नाहीं।
पांच तत्त गुन तीन नहीं तहं, साखी सब्द न ताहीं।।
मूल न फूल बेल नहिं बीजा, बिना बृच्छ फल सोहै।
ओहं-सोंह अध ऊरध नहिं, स्वासा लेखन को है।।
नहिं निरगुन नहिं अविगत भाई, नहिं सूछम-अस्थूल।
नहिं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूल।
जहां पुरुष तहंवा कछु नाहीं कहे कबीर हम जाना।
हमरी सैन लखे जो कोई, पावै पद निरवाना।।


मैं नई ‘तारिका’ नभ में आ चमकी भूली-भटकी।
मानो, मैं वन की कलिका उपवन में आकर चटकी।
मानो, मैं पथिक अकेली भूली पथ-रेखा घर की।
मैं बिछुड़ी बूंद, अमरता के मिलनोन्मुख सागर की।
क्या जाने किस गिरि से गिर मैं नीचे भू पर आई।
किस विकल जलद के दृग ने प्राणों की पीर बहाई?
बह चली ‘विश्व-सरिता’ में कर पार नगर, निर्जन-वन;
अस्तित्व निरख अपना ही मैं विस्मित होती क्षण-क्षण।
प्रत्येक, हृदय का कंपन कहता है एक कहानी।
‘तू महा-उदधि के उर की, बस, एक लहर दीवानी!’
किस ‘सागर’ का आमंत्रण है मलय समीरण लाई?
करने हैं ‘पार’ मुझे अब कितने गिर गहूर खाई
होता है भान कहीं है मेरा भी ‘मधु-नंदन-वन।’
छूती थीं कभी मुझे भी शीतल ‘शशि-किरनें’ छन छन!
अब पथ भूली उस सुख का, पाया यह ‘कंटक-कानन।’
किस ओर बहा जाता है अब मेरा आकुल जीवन?

पृथ्वी मनुष्य का घर नहीं है, परदेस है। लाख मानो कि घर है, फिर भी सराय सराय है और घर नहीं हो सकती। सराय वह जहां सांझ टिके और सुबह उठ जाना पड़े। घर वहां जहां शाश्वतता हो। यह संसार तो क्षणभंगुर है। यहां घर सिर्फ पागल बनाते हैं। होशियार तो सराय समझ कर ठहरते हैं और गुजर जाते हैं।
दूर है देश हमारा। कभी-कभी कोई उस देश की खबर ले आता है। कभी-कभी किसी को उस देश की सुधि आ जाती है। जिसको उस देश की सुधि आ जाती है, उसकी बात हमारे लिए बेबूझ होने लगती है। हम समझते हैं एक भाषा, वह बोलता है कोई और भाषा। और इसलिए जब तक इन संदेशवाहकों की भाषा को समझने की श्रद्धा न हो, तत्परता न हो, आकुलता-व्याकुलता न हो, प्यास न हो, तड़फ न हो, एक अभीप्सा न हो..तब तक हम चूकते ही चले जाते हैं।
यूं तो कबीर के शब्द सीधे-साधे हैं। इससे सीधे-साधे शब्द और क्या होंगे! कबीर बे पढ़े-लिखे हैं, जुलाहे हैं। जो बोलते हैं वह जुलाहे की भाषा है। इसलिए प्यारी भी बहुत है। इसलिए सीधी-साधी भी बहुत है। उसमें मिट्टी की सौंधी सुगंध है। उसमें गांव की सरलता-सहजता है। जैसे खदान से अभी-अभी निकला हीरा, तराशा नहीं गया। अभी जौहरियों के हाथ नहीं पड़ा। अनगढ़ है; पर अनगढ़ है, इसलिए प्राकृतिक है, नैसर्गिक है, स्वतःस्फूर्त है। उपनिषदों के वचन जौहरियों ने खूब निखारे हैं। बुद्ध के वचन एक सम्राट के वचन हैं..सुसंस्कृत। महावीर के वचन में गणित है, गहरा तर्क है; आकाश को छू लेने वाली ऊंचाइयां हैं। कबीर के वचनों में जमीन में गड़ी हुई जड़ें हैं।
अगर तुम कबीर को भी न समझ पाओ तो फिर किसी को भी न समझ पाओगे। इसलिए कबीर पर इतना बोला हूं। सबको बाद दी है..बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को। बोला हूं उन पर, पर इतना नहीं जितना कबीर पर। और कारण यही है कि अगर कबीर से चूक गए तुम तो फिर तुम किसी को न समझ पाओगे। कबीर को समझ लो तो सबको समझ लिया, जानना। क्योंकि कबीर तुम्हारे निकटतम हैं। बुद्ध और तुम्हारे बीच बड़ा फासला है। जो फासला राजमहल और झोपड़े के बीच होता है, वही फासला है। कबीर और तुम्हारे बीच कोई फासला नहीं है। अगर जरा तुम सजग हो जाओ तो कबीर के सीधे-साधे शब्द तुम्हारे भीतर अमृत को घोल जाएं। और सीधे-साधे हैं; लाग-लपेट नहीं उनमें, तर्कजाल नहीं उनमें; बोलचाल की भाषा के हैं। इसलिए एक ताजगी भी है..ऐसी ताजगी जो फूलों में होती है; सुबह घास की पत्तियों पर जमी हुई ओस के कणों में होती है।
कबीर को समझना अपरिहार्य है। कबीर तुम्हारे लिए पहली सीढ़ी बन सकते हैं और अंतिम भी।
पहली बातः हम जहां हैं, वहां हम आ गए हैं, वह हमारा घर नहीं है। और हमें जल्दी ही अपना घर खोज लेना है। एक सराय से दूसरी सराय, एक होटल से दूसरी होटल कब तक भटकते रहोगे?

बहरा है जगत किसे मैं प्राणों की पीर सुनाऊं?
इन कांटों में मैं कैसे अब अपना नीड़ बनाऊं?
जल उठी अचानक उर में किस आकांक्षा की ज्वाला?
है कौन, बता दे कोई, यह आग लगाने वाला?
हो उठा तरंगित मानस, उर में सागर लहराता।
अभिलाषा की लहरों का अब छोर नहीं मिल पाता।
किसकी स्मृति अंतस्तल को करती पल-पल मतवाला?
किसने अपनी ममता का छिप-छिप कर बंधन डाला?
अलिगंुजन-सा कानों में अस्पष्ट ‘गान’ है गाता,
परिचित-सा, किंतु न उसका कुछ अर्थ समझ में आता।
वीणा के तार बजा कर हरिणी-सा मुझे बुलाता।
किसका ‘आकर्षण’ मुझको अनजान कहां ले जाता?
उड़ता है हृदय निरंतर पर, उसे नहीं है पाता,
यह व्यर्थ असीम गगन में ‘चक्कर’ अविराम लगाता!
यदि कभी, ‘अलख’, ‘पथ’ तेरा पल भर को भी मिल जाता,
इस ‘भूल-भूलैयां’ से तब छुटकारा मिल पाता।

कबीर में वह झलक मिल सकती है। उस मार्ग की जरा सी भी झलक तुम्हारी समझ में आ जाए तो घर दूर नहीं है। शायद हम पीठ किए खड़े हैं और घर पीछे है और हम आगे ही आगे दौड़े चले जाते हैं। हम घर से दूर ही दूर निकले जाते हैं। घर की ही खोज करते हैं और घर से दूर निकले जाते हैं, क्योंकि पीछे लौट कर देखते ही नहीं।
घर शायद भीतर है और हमारी यात्रा बाहर की तरफ है..काशी और काबा और कैलाश, सब बाहर। और असली तीर्थ भीतर..वहां जहां तुम्हारी चेतना का उदगम-स्रोत है। गंगा भागी जाती है गंगा सागर की तरफ। वहां नहीं है घर। चलना है गंगोत्री की तरफ। जहां से आए हैं वहां चलना है, तब घर मिलेगा। मूल उदगम को खोजना है, तब घर मिलेगा। बजाने दो कबीर को तुम्हारे हृदय की वीणा के तार। शुरू-शुरू समझ में न भी आए तो फिकर मत लेना; किसी की समझ में शुरू-शुरू में बात नहीं आती। बात ही ऐसी है, तुम्हारा कोई कसूर नहीं है।

अलिगंुजन-सा कानों में अस्पष्ट ‘गान’ है आता,
परिचित-सा, किंतु न उसका कुछ अर्थ समझ में आता।

परिचित सा भी लगेगा। जैसे गीत कहीं सुना हो..किसी स्वप्न में! कुछ भूली-बिसरी याद उमगने लगेगी। मगर अर्थ बिल्कुल स्पष्ट भी न हो जाएगा; ऐसा नहीं स्पष्ट हो जाएगा जैसे दो और दो चार। एक गुन-गुन तो उठेगी, मगर उस गुनगुन के शब्द पकड़ में न आएंगे।

वीणा के तार बजा कर हरिणी-सा मुझे बुलाता!
किसका ‘आकर्षण’ मुझको अनजान कहां ले जाता?

पहले डर भी लगेगा कि कोई अज्ञात आकर्षण खींचने लगा। कहीं मेरी बसाई हुई बस्ती उजड़ न जाए! मेरे न्यस्त स्वार्थो का जाल बिखर न जाए! कितनी तमन्नाओं से, कितनी उम्मीदों से यह मिट्टी का घर बनाया है! कितनी आशाओं से इसकी नींव के पत्थर रखे हैं! यह सब कहीं धूल-धूसरित न हो जाए। इस डर से हम आंख नहीं खोलते। कभी-कभी कोई वीणा भी हमारी छू देता है, तार भी बज उठते हैं, तो भी हम अपने को कहीं और व्यस्त कर लेते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमें याद दिलाए..उस पार हमारा घर है, क्योंकि इस पार हमने बहुत उलझाव खड़े कर लिए हैं। हालांकि सब उलझाव पड़े रह जाएंगे। कल मौत आएगी और जहां है, जो जैसा है वैसा ही पड़ा रह जाएगा। कुछ भी तुम अपने साथ न ले जा सकोगे। फिर भी कैसे उलझे हो, कैसे व्यस्त हो, कैसे पागल की तरह दौड़े जाते हो! कबीर को तुम्हारी वीणा के तार छूने दो। हृदय को सामने कर दो। हृदय को सामने कर देना सत्संग है। बुद्धि को ऐसे हटा देना बगल में, क्योंकि बुद्धि हृदय तक पहंुचने ही नहीं देती बात को। ऊहापोह में ही भटका देती है ‘ठीक’, या गलत? शास्त्र के अनुकूल है या नहीं? मेरे सिद्धांत के अनुकूल है या नहीं? क्या तुम्हारा सिद्धांत! क्या खाक तुम्हारा सिद्धांत!
सिद्धांत का अर्थ ही होता है कि वह केवल सिद्धों के पास होता है, तुम्हारे पास नहीं हो सकता। सिद्धांत का अर्थ होता है..जो सिद्ध हो गया हो जिसने अंत पा लिया..उसका सिद्धांत होता है।
इधर मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं: आप जो कहते हैं उससे हमारे सिद्धांत को बड़ी अड़चन होती है। तुम्हारा और सिद्धांत, तो तुम यहां आए किसलिए? सिद्धांत का वही अर्थ नहीं होता है जो निष्कर्ष का होता है। निष्कर्ष बौद्धिक होता है, तार्किक होता है। गलत भी हो सकता है, क्योंकि अनुमान ही है। सही होने की संभावना कम ही है। अंधेरे में टटोला है, अंधेरे में तीर चला दिया है..लग जाए, लग जाए। लगने की संभावना बहुत कम है। न लगने की संभावना ज्यादा है। लग जाए तो तीर, न लगे तो तुक्का।
लेकिन सिद्धांत अनुमान नहीं है। सिद्धांत तो साधना की अंतिम परिणति है। सिद्धांत तो सिद्धि की सुवास है। सिद्धांत तो केवल सिद्धों के पास होता है। और तुम कहते हो: हमारे शास्त्र के विपरीत है! तुम शास्त्र क्या खाक समझोगे! अपने को नहीं समझा अभी..और शास्त्र को समझने चल पड़े! तुम उपनिषद नहीं समझ सकते; वह भाषा उनकी है जिन्होंने अपने को जाना। जिन्होंने अपने भीतर गहरी डुबकी मारी, उस डुबकी के अनुभव से ही वे बोले हैं। तुम क्या समझोगे? तुम जो भी समझोगे वह गलत होगा। तुम अपनी जगह से समझोगे।
न तुम्हारा कोई शास्त्र है, न तुम्हारा कोई सिद्धांत है, न हो सकता है। ये भ्रांतियां छोड़ो। बुद्धि को एक तरफ रखो, ताकि हृदय को बजाया जा सके। बज उठे हृदय! तो पहले तो कुछ भी समझ में न आएगा। उमंग उठेगी, उत्साह उठेगा। एक अपूर्व ऊर्जा का जागरण होगा। कबीर कहते हैं: रोआं-रोआं दीया बन जाएगा। एक उजियाला हो जाएगा। लेकिन अगर हिम्मत बांध कर चल ही पड़े किसी सदगुरु के साथ, तो धीरे-धीरे अर्थ भी प्रकट होने लगेगा। पहले संगीत, फिर अर्थ। पहले वीणा बजेगी और फिर तुम्हारे भीतर ही कुरान और उपनिषद और गीता उठेंगे। तुम्हारे भीतर जब भगवान बोले तभी भगवदगीता जानी; उसके पहले नहीं। उसके पहले किताबें हैं। उसके पहले शब्द हैं। उसके पहले सिद्धांतों की कोई संभावना ही नहीं; अनुमान है, कल्पनाएं हैं, ऊहापोह है, दर्शन हैं, चिंतन-मनन हैं, ..मगर प्रतीति नहीं, साक्षात नहीं।
कबीर के सामने अपने हृदय को कर दो।
कहते हैं कबीर..
साहेब है रंगरेज...
देखते ही जुलाहे की भाषा! साहेब है रंगरेज..परमात्मा को रंगरेज कह रहे हैं।
साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग डारी।
स्याही रंग छुड़ाय के रे दियो मजीठा रंग।
परमात्मा की तरफ जो चला है उसने दुल्हन बनने की ठान ली। उसने तय कर लिया है कि रचाएंगे विवाह, डालेंगे भांवर परम के साथ। छोटी-मोटी क्या भांवरें डालनी! भांवर ही डालनी तो शाश्वत के साथ डालेंगे। अमृत के साथ जोड़ेंगे संबंध, चुनरी रंगनी होगी फिर। दुल्हन को सजना भी होगा फिर। मगर चुनरी भी ‘वही’ रंग सकता है। हम रंगेंगे, हमारे रंग तो उतर जाते हैं। हमारे रंग पक्के नहीं होते। हम ही कच्चे हैं, हमारे रंग कैसे पक्के होंगे!
साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग डारी।
दे दो उसके हाथ में अपनी चुनरी तो रंग दे।
स्याही रंग छुड़ायके रे दियो मजीठा रंग।
और पहला काम तो यह करेगा कि तुमने जो गंदी कर ली है चुनरी, न मालूम कितने दाग लगा लिए हैं..दाग ही दाग हो गए हैं चुनरी में। लेकिन तुम तो उन्हीं दागों को समझते रहे कि छपाई है, कि छींट है। तुम तो उन्हीं दागों को समझते रहे कला है। तुम्हारी चुनरी की वही हालत है जो आधुनिक चित्रकला की है।
मैंने सुना है कि पेरिस में आधुनिक चित्रकारों की एक प्रतियोगिता थी। उस प्रतियोगिता में जो प्रथम पुरस्कार मिला, वह उस व्यक्ति को मिला जो भूल से अपनी पेंटिंग तो नहीं लाया, लेकिन जिस प्लेट में उसने रंग मिलाए थे वह ले आया। उसको प्रथम पुरस्कार मिल गया। आधुनिक चित्रकला में समझ में आ जाए अगर चित्र तो वह आधुनिक ही नहीं है। समझ में न आए तो आधुनिक है।
पिकासो के पास एक अमरीकी करोड़पति चित्र खरीदने गया था। उसने कहा मुझे दो पेंटिंग चाहिए, पिकासो के पास एक ही पेंटिंग तैयार थी। वह भीतर गया, उसने पेंटिंग को कैंची से दो टुकड़ों में काट दिया। बाहर लाकर दो पेंटिंग बेच दीं। ...क्योंकि पता लगाना ही मुश्किल है। तुम्हें यह भी पक्का करना मुश्किल होगा कि इसको लटकाएं कैसा, कौन सी तरफ सीधी है और कौन सी तरफ उलटी है।
यह भी कहानी मैंने सुनी है: एक महिला ने चित्र बनवाया अपना पिकासो से। छह महीने तो उसने बनाने में लगाए, लाखों रुपये दाम मांगे। और जब चित्र बन कर आ गया, महिला ने चित्र को देखा। उसने कहा: और तो सब ठीक है, लेकिन नाक मेरी ठीक नहीं आई।
पिकासो ने चित्र देखा और कहा: यह बहुत मुश्किल बात है, सुधार करना बहुत मुश्किल है।
उस महिला ने कहा: क्यों? इतना क्या मुश्किल है, जब इतने पैसे दे रही हूं? और थोड़े ले लेना, मगर सुधार कर दो।
पिकासो ने कहा: मुश्किल यह है कि नाक कहां है, मुझे खुद ही पता नहीं। छह महीने हो गए बनाते-बनाते, नाक कहां बनाई है यह मैं खुद ही भूल गया हूं।
आधुनिक चित्रकला मनुष्य के मन की प्रतीक है। ऐसा ही विक्षिप्त, ऐसा ही विकृत मनुष्य का मन है। यही तुम्हारी हालत है, यही तुम्हारी चदरिया है, यही तुम्हारी चुनरी है। लेकिन जब तुम परमात्मा को दोगे तो इसमें सारे दाग, स्याहियों के दाग पड़ गए हैं जन्मों-जन्मों में, इन सबको धो डालेगा। वही धो सकता है। तुम तो धोने के नाम पर कुछ और बिगाड़ लोगे। तुम तो बिगाड़ने में कुशल हो गए हो। तुम्हारा तो जन्मों-जन्मों का अभ्यास बिगाड़ने का है। तुम बनाना जानते ही नहीं। तुमसे कोई चीज बन जाए तो आश्चर्य। तुम निष्णात हो बिगाड़ने में। क्योंकि तुम जीते हो विध्वंस में, घृणा में, हिंसा में, द्वेष में, ईष्र्या में, जलन में। तुमसे बनेगा क्या? तुम्हारे भीतर आग की लपटें जल रही हैं। तुम्हारे भीतर सब तरह के जहर हैं। तुम सांप को काटो तो सांप मर जाए। वह तो यह कहो कि आदमी सांप को काटते नहीं। विषाक्त हो तुम; तुम सुधारने में लगोगे, और गड़बड़ हो जाएगी।
इसलिए कबीर कहते हैं: अगर सुधरवाना ही हो तो सौंप दो उसके हाथ में, समर्पण करो। संकल्प से नहीं पहंुचोगे तुम परमात्मा तक, समर्पण से पहंुचोगे। यह तुम्हारे संकल्प की बात भी अहंकार है। मैं पहंुचकर रहूंगा, मैं पा कर रहूंगा..इसमें न तो पहंुचना है न पाना है; इसमें बस मैं की ही उदघोषणा है। और मैं ही तो बाधा है। छोड़ दो उसके हाथ में, फिर..होनी होय सो होय। फिर जो उसे करना हो करने दो।
साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग डारी।
कबीर कहते हैं: मैं तो तुम्हें अपनी बता दूं, इस भांति मेरी चुनरी रंगी गई कि मैंने उसको ही दे दी। मैंने कहा: मेरे किए तो कुछ न होगा। मैं तो जो करूंगा गलत हो जाता है। मैं तो जन्मों-जन्मों से गलत करने का अभ्यासी हूं। मैं तो ठीक भी करने जाऊं तो गलत हो जाता है। मैं तो शुभ करता हूं तो अशुभ हो जाता है। पुण्य करने की आकांक्षा रखता हूं, पाप हो जाता है। मेरे हाथ खराब हो गए। मेरा मन खराब हो गया। अब मैं किससे संकल्प करूं? मैं तो विकृति ही विकृति हूं। इसलिए सब तुम्हारे चरणों में रख देता हूं।
ऐसे मेरी चुनरी रंगी गई, कबीर कहते हैं। और जो मेरे साथ हुआ वही तुम्हारे साथ भी हो सकता है।
साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग डारी।
मैंने दी नहीं कि उसने रंगी नहीं। वह है रंगरेज। वह बैठा ही था जैसे जन्मों-जन्मों से प्रतीक्षा करते कि कबीर ले आओ, चुनरी मैं रंग दूं। यह तुम क्या कर रहे हो, दाग पर दाग लगाए जाते हो, गंदे पर गंदा किए जाते हो? मेरा काम बढ़ाए जाते हो। दे दो मुझे।
मगर हम सब जिद्द में हैं कि अपना कुछ करके रहेंगे, दिखा कर रहेंगे। हम भी कुछ हैं! उसी जिद्द में दाग लगते चले जाते हैं!
स्याही रंग छुड़ायके रे दियो मजीठा रंग।
कबीर कहते हैं: हद कर दी। सारे दाग छुड़ा दिए, सारा काला रंग छुड़ा दिया और ऐसा पक्का रंग दिया है!
धोय से छूटे नहीं रे दिन दिन होत सुरंग।
ऐसा चमत्कार किया है कि कितना ही धोऊं, छूटता ही नहीं; जितना धोता हूं उतना ही और सुरंग होता जाता है, और-और निखरता आता है।
भाव के कंुड नेह के जल में प्रेम के रंग देइ बोर।
कह दी सारी भक्ति..भक्ति का पूरा शास्त्र आ गया इस छोटे से वचन में: भाव के कंुड नेह के जल में प्रेम के रंग देइ बोर।
भाव के कंुड!
तुम्हारे भीतर दो तल हैं: एक विचार का, एक भाव का। एक है मस्तिष्क जहां चलते सोच-विचार और एक है तुम्हारा हृदय, जहां उठतीं भावनाएं। हम सोच-विचार में अटके हैं।
लोग परमात्मा के संबंध में सोच रहे हैं। ...परमात्मा के संबंध में खाक सोचोगे! जिसका पता ही नहीं है, क्या सोचोगे? सोच-विचार तो उसका हो सकता है जिसका हमें पता हो। परमात्मा तो अपरिचित है। है या नहीं, यह भी पता नहीं। क्या है, कैसा है, यह भी पता नहीं। उसके संबंध में सोच-विचार कैसे करोगे? सोचा कि चूके। जितना सोचा उतने दूर निकल गए। सोचा कि भटके। सोचने में भटकाव है। सोचने में उलझाव है। सोचने में अंतिम परिणति विक्षिप्तता है।
लेकिन भाव एक और तल है तुम्हारे भीतर..जहां सोच-विचार नहीं होते; जहां प्रतीति होती है..सहज, बिना विचार के।
तुम एक फूल को देखते हो, क्या तुम विचार करके यह निष्कर्ष लेते हो कि यह संुदर है? अगर विचार करके निष्कर्ष लोगे तो निष्कर्ष ले ही न सकोगे। क्या प्रमाण दोगे कि गुलाब का फूल सुंदर है? और कोई जिद्दी अगर खड़ा हो जाए, कहे कि प्रमाण दो, तर्क दो, तो मुश्किल में पड़ जाओगे। कहोगे कि भई, सुंदर प्रतीत होता है, प्रमाण और क्या? अगर वैज्ञानिक के पास ले जाओगे तो फूल का विश्लेषण कर देगा, बता देगा कि कितना मिट्टी है, कितना पानी है, कितने रासायनिक द्रव्य हैं, क्या-क्या है, सब बता देगा; कितना लोहा, कितना तांबा, सब निकाल कर रख देगा। मगर सौंदर्य, वह कह देगा: कहीं है नहीं इसमें। और सब तो निकाल देगा, लेकिन सौंदर्य भर चूक जाएगा।
विज्ञान सौंदर्य को स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि विज्ञान भाव के जगत से सोचता नहीं; सोचने के जगत से सोचता है। एक भाव के भी देखने का ढंग है। एक भाव का भी झरोखा है। भाव की भी अपनी एक दृष्टि है। भाव की अपनी रोशनी है। भाव का अपना ही अलग आयाम है। जब तुम फूल में सौंदर्य देखते हो तो वह भाव है, वह विचार नहीं है। जब तुम संगीत में सौंदर्य देखते हो, वह भाव है, विचार नहीं है। किसी विचारक से कहोगे कि संगीत में बड़ा सौंदर्य है; वह कहेगा, मुझे कुछ सुनाई नहीं पड़ता, मुझे तो सिर्फ शोरगुल मालूम पड़ता है। तारों की खींचातानी से कहीं सौंदर्य पैदा हो सकता है? शोरगुल पैदा हो सकता है। आवाज सुनाई पड़ती है। और आवाज में क्या है? विद्युत-तरंगें हैं। हवा में उठी हुई विद्युत की लहरें हैं, और कुछ भी नहीं। सौंदर्य इत्यादि सब कल्पना है तुम्हारी।
अगर हम विचार से ही जीना शुरू करें तो सौंदर्य खो जाएगा, प्रेम खो जाएगा, काव्य खो जाएगा। जीवन में जो भी मूल्यवान है, सब खो जाएगा..खो गया है।
आधुनिक सदी मनुष्य-जाति के इतिहास में बड़ी अनूठी सदी है। बाहर की दृष्टि से हम सबसे ज्यादा समृद्ध लोग हैं और भीतर की दृष्टि से सबसे ज्यादा दरिद्र। क्योंकि काव्य हमारे भीतर उठता ही नहीं, उमगता ही नहीं; प्रेम हमारे भीतर जगता ही नहीं। सौंदर्य की भाषा से ही हम अपरिचित हो गए हैं। आश्चर्य हम जानते ही नहीं क्या है? अवाक होने की कला हम भूल गए हैं।
भाव के कंुड! कबीर कहते हैं कि अगर परमात्मा को चुनरी दोगे तो वह भाव के कंुड में डुबाएगा, विचार के कंुड में नहीं। विचार के कंुड में तो स्याही ही स्याही है। वहां तो स्याही की ही लिखावट है। शास्त्रों में भी स्याही ही स्याही है, क्योंकि वे भी विचारों की उत्पत्तियां हैं।
कबीर कहते हैं: मसि कागद छुओ नहिं। वे तो कहते हैं: मैंने तो कभी स्याही और कागज छुआ ही नहीं, दूर ही रहा, इस झंझट में पड़ा ही नहीं। कबीर कहते हैं: लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। यह लिखा-लिखी की नहीं है कि लिख दी किसी ने और पढ़ ली किसी ने। यह देखादेखी! यह तो देखना पड़ेगा, यह तो आंख खोलनी पड़ेगी। ऐसे तो अंधा भी प्रकाश के संबंध में जानकारी इकट्ठी कर सकता है। और बहरा भी संगीत के संबंध में जानकारी इकट्ठी कर सकता है। संगीत को भी लिखने की लिपि होती है न, बहरा भी पढ़ सकता है। और अंधों की भी ब्रेल-लिपि होती है, वह भी पढ़ सकते हैं। लेकिन अंधा प्रकाश को कभी न जान सकेगा, कितना ही पढ़े, सारा विज्ञान पढ़ ले प्रकाश का, तो भी प्रकाश न जान सकेगा। एक छोटी सी मोमबत्ती भी न जलेगी। और बहरा कितना ही अध्ययन करता रहे, सारे राग पढ़ डाले और सारे शास्त्र संगीत के छान डाले, तो भी कोयल की कुहू-कुहू भी उसके प्राणों में उठेगी नहीं, उसे संगीत का कोई अनुभव नहीं होगा। यह बात लिखालिखी की नहीं है..देखादेखी बात।
और देखने का जगत भाव है, देखने का द्वार भाव है। सोचने का..मस्तिष्क; देखने का..भाव।
परमात्मा को देखना हो तो हृदय से देखा जा सकता है। इसलिए सारे धर्म श्रद्धा पर इतना जोर देते हैं। संदेह है मस्तिष्क की प्रक्रिया और श्रद्धा है हृदय का कमल; वह हृदय की झील में खिलता है।
भाव के कंुड नेह के जल में...
भाव का तो कंुड है, उसमें प्रेम का जल भरा है। मस्तिष्क बिल्कुल प्रेम से रिक्त है। मस्तिष्क को प्रेम की कोई खबर ही नहीं है। मस्तिष्क मान ही नहीं सकता कि प्रेम जैसी कोई चीज होती है; सब कल्पना है। मस्तिष्क धन को मान सकता है, पद को मान सकता है, प्रेम को नहीं मान सकता। मस्तिष्क गणित को मान सकता है काव्य को नहीं मान सकता, क्योंकि काव्य तो प्रेम की ही स्फुरणा है।
भाव के कंुड नेह के जल में...
लेकिन सौभाग्य है कि लाख इनकार करे कोई, हमारे भाव का कंुड नष्ट नहीं होता..चाहे हम पीठ कर लें उसकी तरफ, चाहे हम उसे देखना बंद कर दें, चाहे हम उसकी उपेक्षा करने लगें।
अंग्रेजी में शब्द है अज्ञान के लिए..इग्नोरेंस, वह बड़ा प्यारा शब्द है। इग्नोरेंस बनता है इग्नोर से। इग्नोर का अर्थ है: उपेक्षा करना, ध्यान न देना।
हम चाहें तो अपने भीतर के जो राज हैं, उनको इग्नोर कर सकते हैं। उनकी उपेक्षा कर सकते हैं। बस वही इग्नोरेंस है, वही अज्ञान है। और जिस दिन चाहें उस दिन लौट कर देख सकते हैं, उपेक्षा करनी बंद कर दें, ध्यान देने लगें। जिस दिन चाहें उस दिन स्मरण कर लें, पुनः स्मरण कर लें, फिर से एक बार टटोल कर देख लें। और तत्क्षण, जो दबा पड़ा था, प्रकट होना शुरू हो जाएगा। जो झरोखा बंद था, खोला जा सकता है।
विज्ञान, तर्क लाख उपाय करे तो भी मनुष्य के भाव के जगत को नष्ट नहीं कर सकता। भुलावा दे सकता है। प्रेम तो तुम्हारे भीतर है ही, बना ही रहेगा। अदृश्य हो जाएगा, अंतर्गर्भ में उसकी धारा बहने लगेगी। जरा खोदोगे तो मिल जाएगा।

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर।

और तुम कितना ही भुलाओ, प्रेम भीतर से पुकारता ही रहेगा। जब भी कभी अवसर पा जाएगा, तुम्हें थोड़े विश्राम में पाएगा, थोड़े विराम में पाएगा, फिर पुकार देगा कि आओ, थोड़ा भीतर देखो, थोड़ी मेरी तरफ भी तवज्जो दो, मैं भी हूं! इसलिए बड़े से बड़ा गणितज्ञ भी गणित की दुनिया में तो प्रेम को स्वीकार नहीं करता, लेकिन प्रेम में पड़ जाता है। बड़े से बड़ा दार्शनिक भी प्रेम में पड़ जाता है। दर्शनशास्त्र में तो इनकार कर देगा, लेकिन जीवन के शास्त्र में तो कहीं न कहीं से प्रेम उमग आता है, अंकुरित हो जाता है। उसके बीज तुम्हारे स्वभाव में हैं।

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर।

वह उठी आंधी कि नभ में
छा गया सहसा अंधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भांति घेरा,
रात-सा दिन हो गया फिर,
रात आई और काली,
लग रहा था, अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा;
रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण,
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

रात कितनी ही अंधेरी हो और चाहे ऐसा ही क्यों न लगने लगे कि अब सुबह कभी होने की नहीं, अब सहर होगी ही नहीं; लेकिन फिर-फिर सुबह हो जाती है, फिर-फिर सूरज की किरण फूटती है।
प्रेम मनुष्य का स्वभाव है, इसलिए उसे सदा के लिए वंचित नहीं किया जा सकता। दबाओ लाख, इधर दबाओगे, उधर उभर रहा है।

वह चले झोंके कि कांपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़ कर
गिर पड़े टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोसलों पर क्या न बीती,
डगमगाए जब कि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर,
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर।

आएं तूफान, आएं आंधियां, लेकिन फिर तुम अचानक पाओगे एक दीया तुम्हारे भीतर अभी भी जल रहा है, जो बुझता ही नहीं, जिसे बुझाया नहीं जा सकता।
मनुष्य का सबसे बड़ा भाग्य यही है कि उसके प्रेम के दीये को बुझाया नहीं जा सकता। न विज्ञान बुझा सकता, न तर्कशास्त्र बुझा सकता, न राजनीति बुझा सकती, न धन-पद, माया-मोह कुछ भी नहीं बुझा सकता। आएं अंधड़, आएं आंधियां, घिरें अमावस की रातें, मगर फिर-फिर सुबह होगी। स्वभाव के विपरीत तुम कितने ही जाओ, स्वभाव तुम्हें फिर-फिर पुकार देगा।

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुस्कराती
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग-पंक्ति गाती
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो जा रही है।
वह सहज में ही पवन
उन्चास को नीचा दिखाती।
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख,
प्रलय की निस्तब्धता में
सृष्टि का नवगान फिर-फिर।
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर।

प्रलय भी आए तो भी एक चीज बच रहेगी तुम्हारे भीतर, वह तुम्हारा स्वभाव है। और प्रेम तुम्हारा स्वभाव है। प्रेम तुमसे भिन्न नहीं, प्रेम तुम्हारी आत्मा है।
भाव के कंुड नेह के जल में प्रेम रंग देइ बोर।
और परमात्मा इन्हीं से तुम्हारी चुनरिया रंग देता है।
भाव के कंुड नेह के जल में प्रेम रंग देइ बोर।
नेह और प्रेम में कुछ भेद किया है कबीर ने। भेद थोड़ा है। नेह..हम जिसे थोड़ा सा जानते हैं, जिससे हमारा थोड़ा सा परिचय है। जैसे प्रेम का मिट्टी से मिला-जुला रूप। जैसे सोना खालिस नहीं, ऐसा हमारा नेह है..मानवीय, हमारे आंसुओं से भीगा, हमारी कमजोरियों से भरा, और प्रेम नेह की शुद्धतम अवस्था है; जैसे सोना आग से गुजर गया, और कंचन हो गया।
भाव के कंुड नेह के जल में प्रेम रंग देइ बोर।
तो भाव के कंुड में और नेह के जल में और प्रेम के रंग में रंग देता है चुनरिया को।
दुख देह मैल लुटाया दे रे खूब रंगी झकझोर।।
साहिब ने चुनरी रंगी रे पीतम चतुर सुजान।
सब कुछ उन पर बार दूं रे तन मन धन और प्रान।।
कहै कबीर रंगरेज पियारे मुझ पर हुए दयाल।
सीतल चुनरी ओढ़ि के रे भई हौं मगन निहाल।।
कबीर कहते हैं: अब इस चुनरी को ओढ़ कर दुल्हन बनी हूं। कबीर कहते हैं: मैं राम की दुल्हनिया! अब इस चुनरी को ओढ़ कर मैं निहाल हो गई, मगन हो गई। क्योंकि यह चुनरी अब छीनी नहीं जा सकती। इसका रंग उतरेगा नहीं; जैसे-जैसे ओढ़ोगे, जैसे-जैसे धोओगे, वैसे-वैसे निखरेगा, और प्रगाढ़ होगा।
एक तो क्षणभंगुरता का रंग है, जिसमें हम जीते हैं। लाख पकड़ो तो भी छूट जाता है। लाख सम्हालो तो भी मिट जाता है। कागज की नाव में बैठे हैं हम..अब डूबी, तब डूबी! पानी के बबूले हैं हम..अब फूटे, तब फूटे! और एक है शाश्वत का रंग, सनातन का, जो सदा है।
परिवर्तनशील से अपने संबंध को जोड़ लेना संसार है और जो सदा अपरिवर्तित है उससे अपने संबंध को जोड़ लेना संन्यास है। संन्यास का अर्थ है: दे दी चुनरी उसके हाथ में। संन्यास का अर्थ है, समर्पण।
अब गुरु दिल में देखिया, गावन को कछु नाहिं।
कबीर कहते हैं: पहले बहुत गाता था। और जब से गुरु को भीतर देखा है, अपने भीतर...। ‘गुरु’ शब्द बहुत प्यारा है। दुनिया की किसी भाषा में वैसा शब्द नहीं। गुरु का अर्थ होता है, जो अंधकार को दूर कर दे। ...जब से भीतर उसे देखा है, अंधकार को दूर करने वाले को...‘अब गुरु दिल में देखिया, गावन को कछु नाहिं।’ अब कहे नहीं कहा जाता, गाए नहीं गाया जाता, क्योंकि वह शब्दों के पार है। गीत में भी बंधता नहीं। गद्य की तो बात छोड़ो, पद्य की भी पकड़ में नहीं आता। छूट-छूट जाता है। इतना विराट है!

हे चिर महान!
यह स्वर्णरश्मि छू श्वेत भाल
बरसा जाती रंगीन हास,
सेली बनता है इंद्रधनुष,
परिमल मल मल जाता बतास!
पर रागहीन तू हिमनिधान!
हे चिर महान!

नभ में गर्वित झुकता न शीश,
पर अंक लिए है दीन क्षार,
मन गल जाता नत विश्व देख,
तन सह लेता है कुलिश-भार!
कितने मृदु कितने कठिन प्राण!
हे चिर महान!

टूटी है कब तेरी समाधि,
झंझा लौटे शत हार हार,
बह चला दृगों से किंतु नीर,
सुन कर जलते कन की पुकार!
सुख से विरक्त दुख में समान!
हे चिर महान!

मेरे जीवन का आज मूक,
तेरी छाया से हो मिलाप
तन तेरी साधकता छू ले,
मन ले करुणा की थाह नाप!
उर में पावस दृग में विहान!
हे चिर महान!

जैसे ही उसकी भीतर झलक मिलती है, एक क्रांति घट जाती है..उर में पावस दृग में विहान! एक आ जाता मधुमास, खिल जाते फूलों पर फूल, हो जाती सुबह! ऐसी सुबह, फिर जो आंखों से कभी मिटती नहीं! आंखों में भर जाती सुबह। भोर आंखों का हिस्सा हो जाती है। जिसने अपने भीतर देख लिया उसकी आंखों में प्रभात होता है। वह जहां देखे, जिसको देखे, जिसकी आंख में झांके, वहां भी अंधेरा टूटने लगे।
लेकिन कैसे इसे बांधें शब्दों में, रागों में? इसे बांधा नहीं जा सकता। इसलिए कबीर कहते हैं:
अब गुरु दिल में देखिया, गावन को कछु नाहिं।
कबिरा जब हम गावते, तब जाना गुरु नाहिं।।
पहले हम कितना गाते थे, कितना गुनगुनाते थे, कितनी प्रार्थनाएं, कितनी स्तुतियां, कितने भजन, कितने कीर्तन!
कबीरा जब हम गावते, तब जाना गुरु नाहिं।
तब हमने जाना नहीं था; नहीं जाना था सो गा लेते थे। अब जाना है, सकुचाते हैं।
जो नहीं जानते, परमात्मा के संबंध में बोलना उनके लिए बहुत आसान है। जो जानते हैं, उनके लिए बहुत कठिन, असंभव। ज्यादा से ज्यादा इशारे कर सकते हैं, बोला नहीं जा सकता।
सुन्न मंडल में घर किया, बाजै शब्द रसाल।
कबीर कहते हैं: भीतर प्रवेश क्या हुआ, विराट शून्य में प्रवेश हो गया।
सुन्न मंडल में घर किया, बाजै शब्द रसाल।
और वहां अनहद नाद बज रहा है, अब हम क्या गाएं, अब हम कैसे गाएं? उस अनहद को तो हद में बांधा नहीं जा सकता। वह शब्दातीत है। वह निराकार है।
रोम रोम दीपक भया, प्रगटे दीन दयाल।
छोटे-छोटे शब्द, सीधे-साधे शब्द..बिना किसी उलझाव के। मगर सचोट, कि कोई अगर राजी हो तो जगा जाएं; कि कोई अगर राजी हो तो अमावस टूटे और अभी सुबह हो।
रोम रोम दीपक भया, प्रगटे दीन दयाल।
भीतर देखा रोआं-रोआं दीया हो गया और परमात्मा प्रकट हुआ। परमात्मा ही गुरु है, इसलिए हम गुरु को परमात्मा कहते हैं: वह प्रतीक मात्र, चूंकि हमने जाना, हजारों बार जाना। हजारों कबीर हो गए। नाम ही अलग हैं, नानक कहो कि दादू कहो कि फरीद कहो, सब कबीर ही हैं। इन सबने एक ही बात जानी कि परमात्मा ही गुरु है। अगर परमात्मा ही गुरु है तो इसका बाहर हमने प्रतीक बनाया है कि हमने बाहर के गुरु को भी परमात्मा कहा। यह सांकेतिक है। इसमें इशारा छिपा है। इसमें इशारा है कि पहले गुरु को परमात्मा समझ कर चलो तो एक दिन तुम परमात्मा को गुरु की तरह पाओगे।
सुन्न सरोवर मीन मन, ...
शून्य का सरोवर है। और कबीर कहते हैं: हम तो मछली हो गए।
...नीर तीर सब देव।
और अब जल भी उसका, थल भी उसका। नीर भी उसका, तीर भी उसका।
सुधा सिंधु सुख विलसही, विरला जाने भेव।
और अब हम अमृत के इस सागर में हम आनंद-विभोर हो रहे हैं। सुख विलसही...खूब मजा ले रहे हैं, मस्त हो रहे हैं। ...विरला जाने भेव। कोई विरले व्यक्तियों ने ही इस भेद को जाना है।
लाली मेरे लाल की, जित देखौं तित लाल।
इस भेद को जानते ही एक रहस्य पता चला कि वही है, सब तरफ वही है।
लाली मेरे लाल की, जित देखौं तित लाल।
‘उसका’ ही रंग छाया है।
लाल रंग बहुत सी बातों का प्रतीक है। एक तो सुबह का प्रतीकः प्राची लाल हो जाती है। भोर का प्रतीक। दूसरा मनुष्य के जीवन का प्रतीक, क्योंकि रक्त लाल है, रक्त मनुष्य की जीवन-धार है। उसके बिना मनुष्य नहीं, उसके बिना जीवन नहीं। तो जीवन का प्रतीक। और लाल वसंत का प्रतीक, क्योंकि फूल ही फूल भर जाते हैं, चारों तरफ फूल ही फूल हो जाते हैं। सब तरफ लाली फैल जाती है। और लाल प्रतीक है, यौवन का, युवावस्था का, ताजगी का, नवीनता का। ये चारों बातें परमात्मा के संबंध में सच हैं। वह सदा नवीन है, कभी पुराना नहीं होता। वह सदा युवा है, कभी बूढ़ा नहीं होता। वह जीवन है, वह भोर है। सदा सुबह है, उस लोक में कभी अंधकार नहीं, उजियारा ही उजियारा है। और वह मधुमास है, वसंत है। वहां फूल ही फूल खिल रहे हैं, और सुगंध ही सुगंध उड़ रही है।
इसलिए हमने पूरब में संन्यास के रंग को भी लाल चुना। वह इन चारों प्रतीकों को अपने भीतर लिए है।
लाली मेरे लाल की, जित देखौं तित लाल।
उस मेरे प्यारे का रंग लाल है। जहां देखता हूं उसका रंग ही मुझे दिखाई पड़ रहा है। और भी चकित करने वाली बात यह है कि..
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।
और यह तो बाद में पता चला कि लाल को देखते-देखते कब मैं भी उसके रंग में रंग गई! कब मैं भी डुबकी खा गई! यह तो बहुत बाद में पता चला कि उसको देखते-देखते मैं भी वही हो गई, उसके जैसे ही हो गई।
तुम जो देखते हो, धीरे-धीरे वही हो जाते हो। जो व्यक्ति सौंदर्य को देखता है, सुंदर हो जाता है। जो व्यक्ति संगीत में डूबता है, संगीतमय हो जाता है। जो व्यक्ति ध्यान में डूबता है, वह ध्यान-रूप हो जाता है। जो व्यक्ति प्रेम में डूबता है, वह प्रेम हो जाता है। जो व्यक्ति परमात्मा में डूबता है, वह परमात्मा हो जाता है।
जिन पावन भुइं बहु फिरे, घूमें देस-बिदेस।
पवित्र तीर्थों की यात्रा की, देश-विदेश घूमा..इस तलाश में कि कहीं कोई भूमि मिले, जहां से उससे संबंध जुड़ जाए।
जिन पावन भुइं बहु फिरे, घूमें देस-बिदेस।
पिया मिलन जब होइया आंगन भया बिदेस।।
और जब उससे मिलना हुआ तो अपने घर का आंगन भी विदेश हो गया। और तो वह कहां मिलता! सब विदेश हो गया। यह देश ही विदेश हो गया! यह जीवन, यह देह, यह मन, यह तन, यह पृथ्वी, यह लोक, सब विदेश हो गया। ‘आंगन’ में सारी बात कह दी कबीर ने। ..पिया मिलन जब होइया आंगन भया विदेस।।
सखि, वह घर सबसे न्यारा, जहां पूरन पुरुष हमारा।।
जहां न सुख-दुख सांच-झूठ नहिं पाप न पुन्न पसारा।
वहां कोई द्वंद्व नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। वहां न सुख है न दुख है।
समझना इस सूत्र को। साधारणतः तुम्हारी धारणा यह होती है कि वहां दुख नहीं है, सुख ही सुख है। वह धारणा गलत है। जहां दुख नहीं है वहां सुख भी नहीं हो सकता। घबड़ा मत जाना कि अगर वहां सुख नहीं है तो फिर खोजें ही क्यों? सुख के भी ऊपर कुछ है। सुख तो दुख का ही दूसरा पहलू है। सुख और दुख तो एक ही सिक्के के दो अंग हैं। हर सुख में दुख छिपा है और हर दुख में सुख छिपा है। इसलिए दुख आए तो बहुत घबड़ाना मत; सुख आता होगा। और सुख आए तो बहुत अकड़ मत जाना; ये दुख के आने के संदेश आने लगे कि यह दुख आता ही होगा। इसके ही पीछे छिपा चला आ रहा है।
जो जानता है, दुख में दुखी नहीं होता, क्योंकि वह जानता है कि यह केवल सुख का ही एक रूप है। और सुख में सुखी नहीं होता, क्योंकि वह जानता है यह दुख का ही एक रूप है। धीरे-धीरे सुख और दुख उसके लिए समान हो जाते हैं। इससे समता पैदा होती है, समभाव पैदा होता है, सम्यकत्व पैदा होता है। और सम्यकत्व संन्यास की आधारशिला है।
जहां न सुख-दुख...
वहां सुख-दुख दोनों ही नहीं हैं। उस अवस्था को ही हमने आनंद कहा है। लेकिन कुछ भी कहो, हम ऐसे नासमझ हैं, हमारी नासमझी उसमें से कुछ ऐसी व्याख्या निकाल लेगी जो सत्य के अनुकूल नहीं होगी, हमारे असत्य के अनुकूल होगी। आनंद कहा हमने तो आनंद का मतलब हम समझने लगे: महासुख। मगर हमने सुख जोड़ ही लिया। हमारे शब्दकोषों में लिखा होता है: आनंद यानी महासुख। महासुख में तो महादुख भी होगा। इसलिए बुद्ध ने आनंद शब्द का उपयोग नहीं किया; आनंद शब्द को ही छोड़ दिया, क्योंकि देखा कि लोग उससे भ्रांति में पड़ रहे हैं। उनकी आकांक्षा ही गलत हुई जा रही है। वे सुख की ही तलाश कर रहे हैं, परमात्मा का नाम दे रहे हैं सिर्फ; महासुख की तलाश कर रहे हैं और नाम परमात्मा का लगाया हुआ है। लेबल भर परमात्मा है, भीतर सब संसार की ही आकांक्षा भरी पड़ी है।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर में मेहमान आए हुए थे। भोजन चल रहा था। पत्नी नमक लाना भूल गई थी। तो मुल्ला ने कहा: मैं ले आता हूं। भागा, किचन में गया। बड़ी देर लग गई, बड़ी खटर-पटर, डब्बों की आवाज, इसका खोलना, उसका बंद करना। मेहमान भी थक गए। पत्नी ने कहा: क्या कर रहे हो? क्या जिंदगी भर वहीं रहे आओगे? तुम से कभी कुछ होगा कि नहीं होगा, नमक ही नहीं मिलता!
मुल्ला ने कहा कि मैंने कितने डब्बे खोल डाले, नमक का कुछ पता नहीं। पत्नी ने कहा: अंधे हो! अरे तुम्हारे सामने ही जिस डब्बे पर ‘मिर्ची’ लिखा है उसी में ‘नमक’ है।
पत्नियों के भी राज रहते हैं! अक्सर तुम्हें किचन में यह हालत मिलेगी। डब्बे पर कुछ लिखा है, डब्बे के भीतर कुछ। पति को धोखा देने का इससे और क्या उचित उपाय हो सकता है! पति को भी धोखा, बच्चों को भी धोखा। कोई एक महिला के किचन में दूसरी महिला काम कर ही नहीं सकती। सारा मामला रहस्यपूर्ण होता है। इतना तो पक्का है कि जिस डब्बे पर मिर्च लिखी है उसमें मिर्च नहीं होगी।
हमारी जिंदगी भी ऐसी ही है। हम डिब्बों पर कुछ लिख लेते हैं..परमात्मा की खोज। मेरे पास लोग आ जाते हैं कि परमात्मा को खोजना है। मैं कहता हूं: सच में? तुम्हारे परमात्मा ने तुम्हारा बिगाड़ा क्या है?
वे कहते हैं: नहीं, बिगाड़ा तो कुछ भी नहीं।
तो फिर तुम काहे के लिए खोज कर रहे हो? खोज ही करनी होगी तो वह तुम्हारी करेगा। वारंट ही निकालना होगा तो वह निकालेगा, तुम क्यों परेशान हो रहे हो? तुम इतने उपद्रव कर रहे हो कि उसके आते ही होंगे पहरेदार, यमदूत इत्यादि..भैंसों पर सवार होकर, तुम घबड़ाओ मत। तुम्हें खोजने की कोई जरूरत नहीं। तुम सच्ची बात कहो, क्या चाहते हो?
तब उनकी सच्ची बात निकलती है कि जीवन में बड़ा दुख है। तो पहले ही क्यों नहीं कहते कि जीवन में बड़ा दुख है। सुख चाहते हो? कि हां सुख चाहते हैं। आनंद चाहिए। और हमने सुना है कि परमात्मा यानी सच्चिदानंद।
परमात्मा से किसको लेना-देना है! आनंद चाहिए! और आनंद का तुम्हारा मतलब, तुम्हारा है; ज्ञानियों का नहीं। ज्ञानियों का अर्थ होता है आनंद से..जहां न सुख है न दुख है। बुद्ध ने आनंद शब्द छोड़ दिया। आनंद की जगह उपयोग किया शांति..जहां न दुख, न सुख, सारी अशांति गई, सब शांत हो गया, कोई सुख-दुख की तरंगें न रहीं।
इसलिए बुद्ध का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा इस देश में। बुद्ध जब जिंदा रहे तो प्रभाव पड़ा, पड़ना था; क्योंकि बुद्ध जैसा व्यक्ति मौजूद हो, प्रभाव न पड़े, यह कैसे हो सकता है! लेकिन बुद्ध के जाते ही बुद्ध-धर्म इस देश से समाप्त हो गया। उस समाप्त होने में बहुत कारणों में से एक कारण यह था कि बुद्ध ने तुम्हारी आकांक्षाओं को कोई सहारा नहीं दिया। तुम कहते हो हमें आनंद चाहिए; बुद्ध कहते हैं, फालतू की बातें। वहां कैसा आनंद, वहां तो बिल्कुल शून्य है।
‘शून्य!’ तो तुम उनसे कहते हो कि फिर हम जरा सोच-विचार कर आएंगे कि शून्य में जाना है कि नहीं, जाकर भी वहां क्या करेंगे? इससे यहीं भले, कुछ खटर-पटर तो है, कुछ तो है! ...शून्य!
शून्य शब्द में आकर्षण नहीं मालूम होता, कोई बुलावा नहीं मालूम होता, ऐसा नहीं लगता कि बस एकदम गले लग जाएं। शून्य शब्द सुन कर ऐसा होता है कि भाग खड़े होओ, कि जितने दूर निकल सको निकल जाओ, कि कहीं ऐसा न हो कि इस शून्य की झपट में आ जाओ।
बुद्ध कहते हैं: वहां शांति है।
शांति! आदमी को दुख भला, सुख न हो तो, मगर शांत होने को कोई राजी नहीं, क्योंकि शांति में क्या रस? मरघट का सन्नाटा! एकदम शांति ही शांति है। आदमी तो कहता है: इससे तो दुख ही बेहतर, कम से कम कुछ तो उलझाव बना रहता है। कुछ समाचार, कुछ घटनाएं घटती रहती हैं। आदमी दुखी होना पसंद करेगा बजाय शांत होने के, क्योंकि दुख में व्यस्तता तो रहती है।
जरा तुम सोचो, एक बार बैठ कर सोचना कि अगर सच में ही यह हो जाए कि तुम एकदम शांत हो गए, तो तुम्हें खुद ही डर लगने लगेगा। शांत! एकदम शांत! भीतर कोई हलचल नहीं, कुछ नहीं, फिर करेंगे क्या? इससे तो ऐसे ही बेहतर। करने-धरने को भी है। सोच-विचार को भी है। जीवन में कुछ रंग-रौनक भी है। अब सभी बैठ गए शांत होकर। शांत होने में भी आकर्षण नहीं मालूम होता।
और बुद्ध ने और भी जड़ काट दी..आखिरी। लोग कहते कि आत्मा को पाना है। बुद्ध कहते: आत्मा वगैरह कुछ है ही नहीं। जब तुम भीतर जाओगे तो पाओगे आत्मा वगैरह कुछ नहीं है। है ही नहीं कुछ; बस सन्नाटा है, शून्य, शांति!
लोग पूछते: तो कोई तो शांत होगा। बुद्ध कहते: कोई नहीं। सिर्फ शांति है; वहां कोई शांत है, ऐसा भी नहीं।
तो लोग बुद्ध से बार-बार पूछें: तो फिर इतनी काहे के लिए मेहनत करें कि बैठे वृक्षों के नीचे, तप कर रहे! काहे के लिए? आंख बंद कर रहे, ध्यान कर रहे..किसलिए, इसका प्रयोजन क्या है?
बुद्ध के प्रभाव में तो बैठ गए लोग, मगर बुद्ध के हटते ही भाग गए। ...अपने अपने घर जाओ, इसमें क्या सार है! हिंदुस्तान से बुद्ध धर्म की जड़ें उखड़ गईं। जड़ें उखड़ने का कारण: बुद्ध ने तुम्हारी क्षमता के बाहर के शब्दों का उपयोग किया। सीधा-सीधा उपयोग किया। लेकिन हिंदुस्तान के बाहर बुद्ध धर्म की जड़ें जम गईं, क्योंकि हिंदुस्तान में बुद्ध..धर्म उखड़ा तो बौद्ध भिक्षुओं ने राज समझ लिया कि उखड़ने का कारण क्या है। वे-वे कारण उन्होंने सुधार लिए। तो जब चीन में जाकर उन्होंने कहा तो उन्होंने कहा: वहां महासुख मिलेगा। इसलिए चीनी शास्त्रों में शून्य की चर्चा नहीं है; महासुख। शांति की चर्चा नहीं है; परम आनंद। यह बात जंची। यहां उन्होंने जो भूल की थी, वह भूल फिर चीन में नहीं की, तिब्बत में नहीं की, लंका में नहीं की, बर्मा में नहीं की, जापान में नहीं की। हिंदुस्तान को छोड़ कर सारे एशिया में बौद्ध धर्म फैल गया; मगर विकृत होकर फैला। बुद्ध की मूल बात टूट गई। बुद्ध का मूल संदेश शुद्ध न रहा। शुद्ध हम पचा न सके।
मैंने सुना है कि एक सम्राट, जो रोज रात देर तक नाच-गाने में मस्त रहता, शराब पीता और फिर बारह बजे, दो बजे दिन में सो कर उठता। एक रात, जब विदा हो रही थीं नर्तकियां और नींद उसे आ नहीं रही थी, बजे होंगे कोई पांच, ब्रह्ममुहूर्त, नींद नहीं आ रही थी तो उठ कर अपने बगीचे में आ गया। कुछ अजीब सी बात मालूम हुई। उसने पूछा अपने दरबारी से, जो उसके साथ था: यह किस चीज की बास आ रही है? उसने कहा: मालिक, यह बास नहीं है, यह सुबह की ताजी हवा है। यह सुबह की ताजी हवा की सुगंध है, यह बास नहीं है।
उसने जीवन भर से ताजी हवा का अनुभव ही नहीं किया था। तो रात देर तक नशा चलता, नाच-गाना चलता, सिगरेट, हुक्का इत्यादि चलता होगा, धुआं-धाम। फिर सो जाता होगा। फिर दो बजे उठता होगा। सूरज के तो उसने दर्शन ही नहीं किए थे, ब्रह्ममुहूर्त का तो उसे कुछ पता ही नहीं था। तो सुबह की ताजी हवा उसको ऐसी लगी जैसे कि कोई गड़बड़ बात हो रही है, कुछ मामला ठीक नहीं मालूम होता।
हमारी आदतें बन जाती हैं। हम अपनी आदतों से जीते हैं।
मैंने सुना है कि एक आदमी एक चैराहे पर गिर पड़ा बेहोश होकर। उस चैराहे के चारों तरफ गंधियों की दुकानें थीं। आयुर्वेद में इस तरह की सूचनाएं हैं कि कुछ खास सुगंधें होती हैं बड़ी तीव्र, जो बेहोश आदमी को सुंघा दी जाएं तो वह होश में आ जाए, उसके भीतर तक चोट करती हैं। गंधियों की दुकानें थीं। एक गंधी को दया आ गई, वह अपनी तिजोड़ी में से सबसे बहुमूल्य गंध निकाल कर लाया, उसने इस आदमी को सुंघाई। बजाय होश में आने के वह हाथ-पैर तड़फड़ाने लगा, पैर पटकने लगा। भीड़ लग गई थी। एक आदमी भीड़ में खड़ा था, उसने कहा कि तुम मार डालोगे उसको, यह क्या सुंघा रहे हो? बंद करो! मैं इसको भलीभांति जानता हूं वह कौन है। वह मछली बेचने वाला है। मैं भी मछली बेचने वाला था। हटो! इसकी टोकरी कहां है?
वहीं टोकरी पास में पड़ी थी, जिसमें मछलियां बेच कर वह लौटा था। उसने टोकरी उठाई, उसमें गंदा कपड़ा था जिसमें मछलियां बांध कर लाया था। उस पर थोड़ा पानी छिड़का और टोकरी पूरी की पूरी उस आदमी के सिर पर उलट दी। उसने एक गहरी श्वास ली, एकदम होश में आ गया। टोकरी उठाई, उसने कहा: भाई, किसने मुझे बचाया? कोई दुष्ट मेरी जान लिए लेता था। ऐसी दुर्गंध, ऐसी दुर्गंध कि मैंने अपने जीवन में नहीं देखी। मछलियों की सुगंध मिलते ही मेरे प्राण में प्राण आ गए।
जिंदगी भर जो मछलियों में रहा है, उसे मछलियों में सुगंध मालूम होने लगती है। तुम्हें दुर्गंध मालूम होगी मछली में। लेकिन जो मछलियों में ही रहा है, उसे मछलियों में गंध, सुगंध बन जाती है।
बुद्ध बिल्कुल शुद्ध भाषा बोले हैं; वही उनका कसूर था। तुम चाहते हो ऐसी भाषा, जिसमें तुम्हारी अशुद्धियां मिली हों। आनंद जंचता है, मोक्ष जंचता है। मुक्ति हो जाएगी। तुम मुक्ति का क्या अर्थ लेते हो? अगर तुम अपने भीतर खोज-बीन करोगे, तुम्हारा मतलब यही होता है कि वहां सब करने की स्वतंत्रता होगी। और क्या मतलब होगा, कि जो दिल में आएगा करेंगे। मोक्ष का मतलब तुम्हारे मन में यही होगा..गहरे में अगर खोजोगे अचेतन में अगर खोजोगे, ..कि फिर जो दिल में आएगा करेंगे। मुक्ति का मतलब यह है कि फिर कोई बंधन नहीं।
लेकिन बुद्ध ने कहा: मोक्ष! कोई मोक्ष नहीं है, क्योंकि तुम मिट ही जाओगे उसके पहले। कैसा मोक्ष? किसका मोक्ष निर्वाण हो जाएगा। निर्वाण का अर्थ होता है: दीये का बुझ जाना। जैसे दीया बुझ जाता है, ऐसे ही तुम बुझ जाओगे। कहां का मोक्ष! सब खत्म।
लोग बार-बार...अनेक घटनाएं हैं बुद्ध के जीवन में...बार-बार यही पूछते कि जब सभी मिट जाएगा, सभी खत्म हो जाएगा तो आप क्या उपदेश देते हैं? किसलिए इतना उपदेश देते हैं। ये इतने भिक्षु क्या कर रहे हैं। ये सब मिटने की तैयारी कर रहे हैं। सार क्या?
हमें सार भी हमारे ही हिसाब का होता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं: अगर हम ध्यान करेंगे तो उससे समृद्धि बढ़ेगी? समृद्धि..ध्यान से! मैंने कहा: भैया, कुछ होगी तो वह भी चली जाएगी। तुम ध्यान करते रहे, कोई जेब ही काट लेगा। तुम ध्यान करते रहे, कि कोई तिजोड़ी खोल कर ले जाएगा। समृद्धि बढ़ेगी!
लेकिन महर्षि महेश योगी अमरीका में लोगों को समझाते हैं कि अगर भावातीत ध्यान..उनका ध्यान, जिसको वे ध्यान कहते हैं..करोगे..जो कि ध्यान बिल्कुल नहीं है, न कुछ भावातीत है उसमें, न कुछ ध्यान है..तो समृद्धि बढ़ेगी, पदोन्नति होगी, स्वास्थ्य मिलेगा, युवावस्था देर तक ठहरेगी। अमरीका में जो-जो चीजें लोगों को चाहिए, जिन-जिन के लिए लोग दीवाने हैं, उस सबका आश्वासन देते हैं। चलती है बात फिर। फिर बाजार में उस बात की कीमत बन जाती है..लोग जो चाहते हैं।
ये सूत्र कबीर के तुम ठीक से समझ लेना। ये ठीक बुद्ध के ही वचन हैं। भाषा अलग है। कबीर कहते हैं: जहां न सुख-दुख...वहां सुख नहीं, दुख नहीं। ...सांच झूठ नहिं...वहां न सत्य है, न असत्य है। तुमने अभी तक यही सुना है कि वहां सत्य है। चैदहवां खंड, सच्च खंड! वह भी नहीं वहां। वहां झूठ ही नहीं तो सत्य कैसा! ...पाप न पुन्न पसारा। पाप तो है ही नहीं, पुण्य भी नहीं है वहां। इस भ्रांति में मत रहना कि पाप यहां छूट जाएगा, पुण्य की पोटली बांध कर और ले जाओगे। कुछ न ले जा सकोगे..न पाप न पुण्य।
नहिं दिन-रैन...
न दिन है, न रात।
...चंद नहिं सूरज, बिना जोति उजियारा।
वहां कोई ज्योति भी नहीं है। लेकिन उजियारा है, अलौकिक प्रकाश है! मगर वह प्रकाश तुम्हारा प्रकाश नहीं है, क्योंकि तुम्हारा प्रकाश तो ज्योति से बंधा होता है। वह सिर्फ प्रकाश है। कोई ज्योति नहीं। बिन बाती बिन तेल! न कोई बाती है, न कोई तेल है।
यह तुम्हारी सारी धारणाओं को तोड़ने की चेष्टा चल रही है कि तुम्हारे द्वैत की धारणा छूट जाए।
नहिं तहं ग्यान-ध्यान...
वहां न ज्ञान है, न ध्यान है।
...नहिं जप-तप बेद-कितेब न बानी।
न वेद है, न कुरान है, न बानी है, कुछ भी नहीं है।
करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब उहां हेरानी।
ये सब खत्म। यह सब यहीं की बकवास है..करनी, धरनी, रहनी, गहनी।
धर नहिं अधर न बाहर-भीतर, ...
न तो वहां बाहर है कुछ, न भीतर..न धर, न अधर।
...पिंड ब्रह्मांड कछु नाहिं।
पांच तत्त गुन तीन नहीं तहं, साखी सब्द न ताहीं।
वहां कुछ भी नहीं है। साक्षी तक समाप्त हो गया, क्योंकि किसका साक्षी रहोगे। वहां कोई विषय नहीं बचता जिसके साक्षी बने रहो। जहां द्वैत गया, वहां दर्शन भी गया, द्रष्टा भी गया, दृश्य भी गया। ज्ञान भी गया, ज्ञेय भी गया, ज्ञाता भी गया। ध्यान भी गया, ध्याता भी गया, ध्येय भी गया। जहां द्वंद्व चला गया, जहां दो न रहे, वहां हमारी सारी भाषा व्यर्थ हो गई।
मूल न फूल बेल नहिं बीजा, बिना बृच्छ फल सोहै।
कबीर कहते हैं: समझो तो समझ लेना। फल तो है वहां, सिद्धि तो है वहां, परम सिद्धि है वहां, मगर..मूल न फूल बेल नहिं बीजा, ...वहां न बीज है, न मूल है, न फूल है, न बेल है। सिर्फ फल रह गया। सिर्फ आत्यंतिक उपलब्धि है। ओहं-सोहं...कबीर कहते हैं: ये तुम्हारे ओहं-सोहं भी नहीं। देख रहे हो कि अगर उनको कोकाकोला का पता होता तो जरूर कहा होता। ओहं-सोहं...कुछ भी नहीं है ये मंत्र-तंत्र। ...अध ऊरध नहिं..न वहां कुछ ऊंचा है, न कुछ नीचा है। ...स्वासा लेखन को है। और न वहां श्वास को देखने वाला है। विपस्सना भी वहां काम नहीं करेगी, कि बैठे अपनी श्वास देख रहे हैं। न वहां श्वास है, न कोई देखने वाला है।
नहिं निरगुन नहिं अविगत भाई, नहिं सूछम-अस्थूल।
न कुछ सूक्ष्म है, न कुछ स्थूल है। न निर्गुन है, न सगुण है।
नहिं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूल।
न अक्षर है, न अज्ञात है। ये सब जग के मूल! ये द्वंद्व ही जग के मूल हैं।
जहां पुरुष तहंवा कछु नाहिं...
जहां परमात्मा है वहां और कुछ नहीं बचता।
जहां पुरुष तहंवा कछु नाही कह कबीर हम जाना।
और कबीर कहते हैं: ध्यान रखना, हम जान कर कह रहे हैं। यह हम कोई पढ़ी-लिखी बात नहीं कर रहे। यह कोई शास्त्रों का उद्धरण नहीं दे रहे हैं।
जहां पुरुष तहंवा कछु नाहीं कह कबीर हम जाना।
यह अनुभव से कह रहे हैं। उस शून्य में उतर कर कह रहे हैं। उस शून्य में खोकर कह रहे हैं।
हमरी सैन लखे जो कोई, पावै पद निरवाना।
बड़ा प्यारा वचन है..हमरी सैन..बस इशारे हैं! सैन। साफ-साफ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि साफ-साफ कहने में बात बिगड़ जाती है। जितना स्पष्ट कहोगे, उतनी ही बात परमात्मा से दूर हो जाएगी। वह परम रहस्य है, उसे साफ-साफ कैसे कहोगे!
हमरी सैन लखे जो कोई, पावै पद निरवाना।
कबीर कहते हैं: हमने जो इशारा किया, इसको अगर देख लो तो निर्वाण का परम पद तुम्हारा है, पा लोगे।
निर्वाण शब्द का उपयोग किया कबीर ने भी..ठीक बुद्ध जैसा। बुझ जाओ, मिट जाओ, खो जाओ। क्योंकि जहां तुम मिटे वहीं परमात्मा है। जब तक तुम हो, परमात्मा नहीं।
कबीर कहते हैं: प्रेमगली अति सांकरी, तामें दो न समाय। वह गली बड़ी संकरी है, उसमें दो नहीं समा सकते।
जीसस का भी प्रसिद्ध वचन है, कि रास्ता सीधा है, मगर बहुत संकरा है; संकरा इतना कि दो नहीं समा सकते। इसलिए तुम इस आशा में मत जाना कि तुम भी पहंुच जाओगे वहां। तुम तो छूट जाओगे बहुत पीछे। परमात्मा का अनुभव किसी ‘और’ का अनुभव नहीं है। अलग खड़े होकर तुम परमात्मा का दर्शन करोगे, ऐसा नहीं है; परमात्मा में एक हो जाओगे। जैसे गंगा सागर में एक हो गई। जैसे बूंद गिरी और सागर हो गई, ऐसे तुम भी उसके साथ एक हो जाओगे। तुम्हारा तो निर्वाण हो जाएगा, तुम तो गए, सदा को गए; फिर लौटने का भी कोई उपाय नहीं है। तुम तो महाशून्य हो जाओगे।
लेकिन उस महाशून्यता में ही आनंद है। उस महाशून्यता में ही परम सफलता है, परम सिद्धि है। उस महाशून्यता में ही मोक्ष है। उस महाशून्यता की ही तलाश, जिन्होंने जाना है उन्होंने करने के लिए तुम्हें पुकारा है।
हमरी सैन लखे जो कोई, पावै पद निरवाना।।
जहां पुरुष तहंवा कछु नाहीं कह कबीर हम जाना।
कबीर कहते हैं: हम जान कर कह रहे हैं। अगर तुम लखो, देख सको हमारी सैन को, हमारे इशारे को। ये इशारे हैं, जैसे कोई अंगुली बताए चांद की तरफ। अंगुली चांद नहीं है, अंगुली को मत पकड़ लेना।
अंगुली की पूजा चल रही है। कोई महावीर की पूजा कर रहा है, कोई बुद्ध की पूजा कर रहा है, कोई कृष्ण की, कोई राम की। और कुछ तो बहुत ही आगे निकल गए हैं..गणेश जी तक की पूजा कर रहे हैं! हनुमान जी की पूजा कर रहे हैं! कुछ की तो पूछो ही मत, उनकी गति तो बड़ी न्यारी है, सोच-विचार भी नहीं करते कि क्या कर रहे हैं। काली माई की पूजा चल रही है! ...जय संतोषी मैया!
अंगुलियां पकड़ रहे हो! चांद की तरफ देखो। कुरान कोई सिर पर लिए है। कोई वेद लिए है। मरे जा रहे हैं, दबे जा रहे हैं। भारी हो गए हैं वेद, सदियों-सदियों का भार हो गया है। टीका-टिप्पणियां जुड़ती चली गईं, जुड़ती चली गईं। इंच भर सरकना मुश्किल है, पहंुचने की तो बात अलग। शास्त्रों का बोझ भारी है। और जिस चांद की तरफ इशारा था, वह कहां खो गया, इसका पता ही नहीं है। फुर्सत कहां! अंगुली की ही साज-शंृगार में लगे हैं।
मैं एक घर में मेहमान था। सुबह उठ कर स्नान करने जा रहा था तो जिस कमरे से निकला, देख कर हैरान हुआ। वहां एक छोटा सा मंदिर बना रखा था उन्होंने। उसमें गुरु-ग्रंथ साहिब रखे हुए थे। चलो कोई बात नहीं, गुरु-ग्रंथ साहिब रखो तो कोई हर्ज नहीं। मगर सामने एक लोटा रखा और दतौन रखी। मैंने कहा: भैया, तुम गुरु-ग्रंथ साहिब को भी दतौन करवा रहे हो! चलो यह भी ठीक था कि कृष्ण जी की मूर्ति होती और तुम दतौन रख देते, चलो समझ में आती है बात। हालांकि उन्हें भी कोई दतौन की जरूरत नहीं है, मूर्ति को क्या दतौन! मगर पुस्तक! ...मगर यह, ‘साहिब’ शब्द दिक्कत दे रहा है..गुरु-ग्रंथ ‘साहिब।’ अब जब साहिब हैं तो फिर दतौन भी करेंगे।
मैंने उनसे कहा कि तुम्हें शर्म नहीं आती? टुथपेस्ट रखो! अरे साहिब हैं, दतौन करेंगे? बिनाका! कहां के पुराने चलन में पड़े हो! नीम की दतौन बेचारे साहिब को! सड़ोगे नरक में अगर साहिब को ऐसी दतौन करवाई। और फिर रोज तोड़ो, लाओ...। एक दफा ब्रश खरीद लो, और बिनाका की एक पैकट रख दो..हो गया सदा के लिए निपटारा, करने दो साहिब को जितना करना हो।
लोग भी अदभुत हैं, क्या-क्या अदभुत लोग हैं! उनकी अगर कारगुजारियां देखो तो बड़ी हैरानी होती है। धर्म के नाम पर चल रही हैं सारी कारगुजारियां। गणेश जी की पूजा चल रही है। तुम्हें आदमी नहीं मिलते पूजा करने को? और क्या-क्या खूबियां! और गणेश जी बैठे काहे पर..चूहे पर! चूहों ने क्या बिगाड़ा? और चूहे पर गणेश जी को बिठाले हुए हो! असलियत उलटी है: रात को जरा गणेश जी को कमरे में छोड़ो, चूहे गणेश जी पर बैठे मिलेंगे। और गणेश जी कुछ भी न बिगाड़ लेंगे।
मगर आदमी की बुद्धिहीनता का कोई अंत नहीं है। और धर्म के नाम पर क्या-क्या कूड़ा-करकट चल जाता है! अच्छे नाम, फिर कुछ भी उनके पीछे चलता रहता है। फिर पंडे हैं, पुरोहित हैं; उनकी दुकानें हैं, उनके व्यवसाय हैं। वे अपने व्यवसाय को समझाने के लिए कुछ भी समझाते रहते हैं। ऐसी-ऐसी बातें समझाते हैं कि हैरानी होती है; बीसवीं सदी है या अभी हम कोई पांच हजार साल पुराने जमाने में रह रहे हैं।
मैं एक वेदांत सम्मेलन में भाग लेने गया था। भूल से ही मुझे बुला लिया लोगों ने। एक सम्मेलन में बस एक ही बार लोग मुझे बुलाते हैं। वहां मेरी झंझट हो गई। झंझट सीधी-साफ थी। एक स्वामी जी लोगों को समझा रहे थे कि हमारे शास्त्रों में तो सारा विज्ञान भरा हुआ है। हर चीज! अरे ये जर्मन हमारे वेदों को चुरा कर ले गए और उन्होंने हमारे वेदों में से सब निकाल लिया। हमारे वेदों में क्या नहीं है!
और लोग बड़े भक्ति-भाव से सुन रहे..कोई पचास हजार लोग। मैं चकित कि यह...। मैंने पूछा: जब मैं बोला कि अगर तुम्हारे वेदों में सब कुछ लिखा ही है तो तुमने पश्चिम की खोज के पहले ये सब चीजें क्यों नहीं बनाईं? मैंने पूछा कि तुम कुछ चीजों का उत्तर दो, कम से कम यह ही बताओ कि साइकिल को वेद में क्या कहते हैं? छोड़ो हवाई जहाज वगैरह, साइकिल? साइकिल का पंचर कैसे जोड़ा जाता है, इसके लिए वेद में कहीं कोई जगह है? और इतने दिन तक तुम क्या करते रहे, कम से कम साइकिल तो बना लेते!
मगर वे समझा रहे थे लोगों को कि हर चीज वैज्ञानिक है। ...हिंदू चोटी इसीलिए रखते हैं कि वह वैज्ञानिक है। और क्या आधार दिया उन्होंने विज्ञान का..कि जैसे तुम देखते न बड़े-बड़े मकानों के ऊपर बिजली से बचाने के लिए एक लोहे का डंडा लगा देते हैं, वैसे ही बिजली से बचाने के लिए चुटैया खड़ी कर देते हैं। और लोग बड़े प्रसन्नता से सुन रहे कि अहा! अपने वेदों में भी कैसा-कैसा विज्ञान, क्या-क्या रहस्य भरा हुआ पड़ा है! धर्म इन मूढ़ताओं का नाम नहीं है।
वे थे स्वामी जी, वे तो बिल्कुल सफाचट थे। तो मैंने उनसे कहा: स्वामी जी, आपके बाबत क्या ख्याल है? बिजली गिरेगी तो आप पर ही गिरेगी। चुटैया कहां है? इसका क्या विज्ञान है?
लेकिन इसी तरह की मूढ़ता की बातें कि हम खड़ाऊं पहन कर चलते थे, क्योंकि वहां एक नस होती है पैर में, वह खड़ाऊं को पकड़ने में दबी रहे तो उससे आदमी ब्रह्मचारी रहता है। हद के पागलो...तो फिर यह बर्थ-कंट्रोल वगैरह का इत्ता उपद्रव क्यों कर रहे हो? खड़ाऊं बांट दो भैया! थोड़ी खटर-पटर होगी, और क्या, मगर यह भीड़-भाड़ तो बचेगी। जब ब्रह्मचर्य का ऐसा सस्ता नुस्खा तुम्हें मालूम है...। मगर मूढ़तापूर्ण बातों को भी अगर वे हमारी हों और उनके लिए कोई व्यर्थ के तर्क भी देता रहे, तो हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। हमारे शास्त्र, हमारे पंडित-पुरोहित इसी तरह व्याख्या करते रहते हैं, कि हमारे अहंकार को तृप्ति देते रहते हैं। और अहंकार ही बाधा है। फिर वह अहंकार हिंदू का हो, मुसलमान का हो, जैन का हो, ईसाई का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अहंकार बाधा है। अहंकार को विदा करो, तो परमात्मा प्रवेश करे। जहां अहंकार नहीं है वहीं परमात्मा है।
यह छोटा सा इशारा समझो। यह सैन है। इसको कोई तख्ती पर लगा कर पूजा करने की जरूरत नहीं है। इस इशारे को समझो, गुनो, जीओ। ऐसे जीओ जैसे तुम हो ही नहीं; जैसे तुम शून्यवत हो। एक दिन चैबीस घंटे ही प्रयोग कर के देखो, ऐसे जैसे तुम हो ही नहीं, फिर कोई गाली दे जाए तो तुम हो ही नहीं तो गाली शून्य से आर-पार निकल जाएगी। और तुम बड़े हैरान होओगे: चूंकि तुम नहीं हो, इसलिए आज गाली कोई प्रभाव नहीं करती। कोई गले में माला डाल जाए तो भी ठीक; कोई भेद नहीं आता, क्योंकि तुम शून्य हो। शून्य-भाव ऐसे धीरे-धीरे सघन होता जाए तो संन्यास के एक-एक सोपान पर तुम चढ़ते चले जाते हो। जिस दिन शून्य-भाव पूर्ण हो जाता है उस दिन परमात्मा अवतरित हो जाता है। शून्यता एकमात्र पात्रता है।
जहां पुरुष तहंवा कछु नाहीं कह कबीर हम जाना।
हमरी सैन लखे जो कोई, पावै पद निरवाना।।

आज इतना ही।  

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