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बुधवार, 7 नवंबर 2018

सुमिरन मेरा हरि करैं-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-(जहां प्रेम है वहां सूर्योदय है)

प्रश्न-सार

01-आप कहते हैं धर्म जीने की कला है। यह कला क्या है?
02-आप रोज-रोज पतियों के पक्ष में बोल कर और पत्नियों पर व्यंग्य चुटकुले बोल कर पतियों को और सिर पर चढ़ाए दे रहे हैं। वैसे ही पति पत्नी को पैर की जूती समझता है। कृपया कुछ बोलें।
03-मैं भी मारवाड़ी हूं। क्या मेरे लिए कोई आशा है?


पहला प्रश्नः ओशो! आप कहते हैं धर्म जीने की कला है। यह कला क्या है?

पूर्णानंद! मनुष्य सदियों से एक भ्रांत धारणा के अंतर्गत जीआ है। यह भ्रांत धारणा थी कि धर्म जीवन का त्याग है, जीवन से पलायन है, जीवन से विरक्ति है। मनुष्य ने अब तक धर्म को निषेध की भांति लिया, नकार की भांति लिया। जीवन को इनकार करना संन्यास बन गया था। और जो जीवन को जितना इनकार करे उतना बड़ा संत था। इसके दुष्परिणाम होने सुनिश्चित थे, अपरिहार्य थे। और दुष्परिणाम हुए। इस धारणा के जितने दुष्परिणाम हुए उतने किसी और धारणा के नहीं हुए। इस धारणा ने मनुष्य की आत्मा को यूं पकड़ लिया, जैसे किसी की देह को कैंसर जकड़ ले।
इसका पहला परिणाम तो यह हुआ कि सिर्फ गलत लोग धर्म की तरफ आकृष्ट हुए--रुग्ण लोग, विक्षिप्त लोग; ऐसे लोग जो जीने में असमर्थ थे। जिन्हें नाचना नहीं आता था उन्होंने जल्दी से मान लिया कि आंगन टेढ़ा है। यह मानना तो अहंकार को कठिन पड़ता है कि मुझे नाचना नहीं आता। यह मानना बड़ा सुगम, बड़ा सरल, अहंकार का पोषण करने वाला है कि मैं करूं भी तो क्या करूं, नाचूं तो कैसे नाचूं, आंगन जो टेढ़ा है!


आंगन के टेढ़े होने से नाचने का कुछ लेना-देना नहीं है। नाचना आता हो तो आंगन टेढ़ा हो, तो भी नाचा जा सकता है। नाचना न आता हो और आंगन बिलकुल चैकोर हो, तो भी क्या करोगे?
मुल्ला नसरुद्दीन आंख के चिकित्सक के पास गया था। पूछने गलाः डाक्टर साहिब, चश्मा तो आप बनाए दे रहे हैं। चश्मा लग जाने पर मैं पढ़ने तो लगूंगा न?
डाक्टर ने कहाः निश्चित ही। जरूर पढ़ने लगोगे।
थोड़ी देर मुल्ला चुप रहा, फिर बोलाः आप आश्वस्त हैं? आपको भरोसा है? सोच-समझ कर कह रहे हैं? पढ़ने तो लगूंगा न?
डाक्टर ने कहाः एक बार कह दिया कि जरूर चश्मा लग जाएगा तो पढ़ने लगोगे।
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं इसलिए दुबारा पूछ रहा हूं कि पढ़ना मुझे आता नहीं।
पढ़ना न आता हो तो चश्मा लग जाए, तो भी न पढ़ सकोगे। चश्मे से पढ़ने का क्या लेना-देना? पढ़ना आता हो तो चश्मा लग जाए, तो स्वभावतः ठीक से पढ़ सकोगे। मगर पढ़ना आता हो तो बिना चश्मे के भी कुछ-कुछ तो पढ़ा ही जा सकता है।
जो लोग धर्म में उत्सुक हुए इस नकारवादी धारणा के कारण...मुझे आज्ञा दो तो मैं कहना चाहूं--इस नास्तिक धारणा के कारण। क्योंकि जीवन का निषेध नास्तिकता है। जीवन अर्थात परमात्मा। जीवन को तो किया इनकार, और एक काल्पनिक परमात्मा को किया स्वीकार। खूब बेईमानी हुई! आदमी के साथ खूब खिलवाड़ हुआ। आकाश में दूर बैठे किसी परमात्मा के प्रति तो आस्था और चारों तरफ छाए हुए जीवन के प्रति अनास्था--यह कैसा शीर्षासन था! लेकिन सदियों से धर्म शीर्षासन करता रहा है। अब सिर के बल खड़े होने में जिनको रस हो, वे ही उत्सुक होंगे ऐसे धर्म में। स्वभावतः गलत लोग उत्सुक हुए। जो हारे हुए लोग थे, जो जीवन में जीत नहीं सके, जिन्हें जीवन में जीतने योग्य प्रतिभा भी न थी, जो जीवन में जीतने योग्य श्रम करने को भी राजी न थे, काहिल, सुस्त, आलसी--वे सब धार्मिक हो गए। जीवन ने जिन्हें सब तरह पछाड़ा था, वे जीवन से भाग खड़े हुए। जो जीवन की चुनौती का मुकाबला न कर सकते थे, जिनकी इतनी बड़ी छाती न थी, कमजोर थे, कायर थे--वे सब भगोड़े हो गए। और धर्म ने उन्हें सुंदर आड़ दे दी, प्यारा पर्दा दे दिया, खूबसूरत ओट दे दी, एक बड़ा मनमोहक मुखौटा दे दिया। वे संत हो गए, महात्मा हो गए। थे वे केवल संतापग्रस्त, भयभीत, पराजित, भगोड़े; इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। मगर उन्होंने अपने भगोड़ेपन को खूब दार्शनिक लिबास पहनाया। सुंदर-सुंदर वस्त्र पहनाए। कुरूप से कुरूप बातों को ऐसी प्यारी सैद्धांतिक सजावट दी कि लगा वे जो कहते हैं वही सत्य है। और खूब शोरगुल मचाया। सदियों तक शोरगुल मचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि स्वस्थ लोग धर्म से रुचि खो दिए। स्वस्थ लोग सोचने लगेः धर्म हमारे लिए नहीं है । प्रतिभाशाली लोग, बुद्धिमान लोग धर्म से दूर हट गए। गलत लोग जिस जगह इकट्ठे हो जाएं, वहां से ठीक लोग अपने आप हट जाते हैं।
अर्थशास्त्र का एक नियम है कि गलत सिक्के सही सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। तुम्हारी जेब में अगर दो नोट हों--एक असली नोट दस रुपये का और एक नकली नोट दस रुपये का, तो तुम पहले नकली नोट को चलाओगे, स्वभावतः क्योंकि इससे जितनी जल्दी झंझट निकले, छूटे, उतना अच्छा। असली तो कभी चल जाए, नकली कभी चले न चले। पकड़ जाओ। तो किसी भी बहाने नकली को निकाल देना चाहोगे। नकली रुपया निकालना हो तो तुम मोल-तौल भी नहीं करोगे। दो-चार पैसे कम या ज्यादा, क्या फर्क पड़ता है, रुपया ही नकली है! जल्दी से भागोगे। नोट देकर जितनी जल्दी होगा रफूचक्कर हो जाओगे। और जिसके पास नकली पहुंचेगा, जैसे ही पहचानेगा नकली है, वह भी चलाने में लग जाएगा। इस तरह नकली नोट चलने लगेंगे और असली नोट तिजोड़ियों में बंद हो जाएंगे।
यह नियम बड़ा महत्वपूर्ण है। यह जीवन के और पहलुओं पर भी लागू होता है। यह धर्म के संबंध में भी सत्य है। जब नकली नोट चल पड़े धर्म के नाम पर, तो असली नोट चलन के बाहर हो गए। बुद्धुओं की तो भीड़ इकट्ठी हो गई, स्वभावतः उस भीड़ में बुद्धों ने खड़ा होना पसंद न किया। बुद्ध अकेले हो गए। वे भीड़ से मुक्त हो गए। वे भीड़ के बाहर हो गए।
दूसरा दुष्परिणाम हुआ...यह तो बड़ी हानि हो गई, छोटी हानि मत समझना। क्योंकि इसका परिणाम यह हुआ कि सारी पृथ्वी धर्म की रौनक से भर सकती थी, धर्म की महिमा से जीवन नये-नये अनुभव के आयाम खोल सकता था। धर्म की प्रतीति से जीवन रोज-रोज ऊंचाइयों पर उड़ सकता था। धर्म के अनुभव से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उड़ान आती, आकाश मिलता, सीमाएं टूटतीं। यह तो न हुआ। गलत लोग इकट्ठे हो गए, सही लोगों ने पीठ फेर ली। सही लोग हट गए।
बुद्ध ने अगर वेदों को इनकार किया तो इसलिए नहीं कि वेदों से कुछ दुश्मनी थी, बल्कि इसलिए कि वेदों के पास गलत लोग इकट्ठे थे। अगर महावीर ने हिंदू धर्म को इनकार किया तो कुछ गलती हिंदू धर्म की न थी, गलती थी तथाकथित हिंदुओं की। अगर जीसस ने यहूदियों के धर्म को इनकार किया यहूदियों के घर में पैदा होकर, तो कारण यह नहीं था कि उस धर्म में कोई बुनियादी भूल थी; कारण यह था, उस धर्म के ठेकेदार गलत लोग थे। और सही चीज भी गलत हाथों में गलत हो जाती है।
इस नियम को भी समझ लेनाः गलत चीजें भी सही हाथों में सही हो जाती हैं और सही चीजें भी गलत हाथों में गलत हो जाती हैं। सारा खेल हाथों का है। जौहरी के हाथ में पत्थर भी हीरे जैसे चमकने लगते हैं और मूढ़ों के हाथ में हीरे भी पड़ जाएं तो पत्थर ही हो जाएंगे। मूढ़ समझेगा ही क्या? मूढ़ पहचानेगा क्या? मूढ़ हीरे का करेगा भी क्या?
तुम गधों के ऊपर अगर शास्त्रों को भी लाद दोगे तो गधे पंडित न हो जाएंगे। कितने गधों पर तो विश्वविद्यालयों की डिग्रियां लदी हुई हैं, लेकिन उससे वे कुछ ज्ञानी नहीं हो गए हैं।
गलत आदमी के हाथ में सब चीजें गलत हो जाती हैं। सही आदमी के हाथ में सब चीजें सही हो जाती हैं। सही आदमी का अर्थ ही यह होता है, उसके पास प्रतिभा है। वह कांटों का भी उपयोग कर लेता है, फूलों की तो बात छोड़ो। और गलत आदमी फूलों का भी दुरुपयोग कर लेता है, कांटों का तो करेगा ही।
यूं समझो कि जैसे छोटे बच्चे के हाथ में कोई तलवार दे दे, अब खतरा ही होने वाला है। या तो खुद को चोट पहुंचाएगा या किसी और को चोट पहुंचाएगा। चोट पहुंचने ही वाली है। खून बहेगा ही।
और धर्म के नाम पर कितना खून बहा है! हिसाब लगाओगे तो अधर्म तुम्हें अधर्म नहीं मालूम पड़ेगा, फिर धर्म तुम्हें अधर्म जैसा मालूम पड़ेगा। क्योंकि अधर्म के नाम पर तो खून बहा नहीं।
जीसस अलग हो गए यहूदियों से।
अगर मैं आज हिंदुओं, ईसाइयों, जैनों, बौद्धों, यहूदियों, पारसियों की जड़ संस्थाओं के विपरीत कुछ बोल रहा हूं, तो उसका कारण यह नहीं है कि उन परंपराओं के मूल में कहीं सत्य नहीं है। मूल में तो सत्य है, मगर जिनके हाथ में वे परंपराएं पड़ गई हैं, जिन मूढ़ों के हाथ में वे हीरे पड़ गए हैं, वे उनका उपयोग पत्थरों की तरह कर रहे हैं। और एक ही उपाय है उन मूढ़ों से उन हीरों को छीन लेने का--और वह यह है कि उनकी सारी दुकानदारी गलत है, इसकी उदघोषणा की जाए। यह कोने-कोने तक यह आदमी के हृदय-हृदय तक खबर पहुंचा दी जाए।
तो एक तो दुष्परिणाम यह हुआ कि गलत लोग इकट्ठे हुए, ठीक लोग हटने लगे। दूसरा दुष्परिणाम यह हुआ कि जो ठीक लोग हट गए, उनका मन भी विषाक्त हो गया।
फ्रेड्रिक नीत्शे कहता था...और ठीक कहता था। वह आदमी कोई प्रबुद्ध व्यक्ति नहीं था। उसने कोई समाधि नहीं जानी थी। लेकिन फिर भी सूझ-बूझ उसकी गहरी थी, अंतर्दृष्टि उसकी पैनी थी। उसकी प्रतिभा में धार थी। उसे मौका मिला होता तो वह बुद्ध, महावीर, जरथुस्त्र, लाओत्सु की हैसियत का आदमी होता। लेकिन पश्चिम में मौके नहीं थे।
नीत्शे ने कहा है कि धर्म लोगों के जीवन को पलायन से तो नहीं भर पाया; कुछ थोड़े से लोगों को छोड़ दो, शेष सारे लोगों का जीवन पलायनवादी तो नहीं हुआ--लेकिन लोगों के मन में जीवन के प्रति एक अपराध-भाव जरूर भर गया। जिन्होंने जीवन छोड़ दिया उनकी तो गिनती थोड़ी है। मगर जो जीवन में बने रहे वे भी यूं बने रहे जैसे चोर हों, जैसे अपराधी हों। उत्फुल्लता चली गई, आनंद चला गया, उत्सव चला गया, नृत्य खो गया। जीवन के प्रति अहोभाव खो गया। जो जीवन में बने रहे, उनका मन भी तिक्त हो गया, कड़वा हो गया। उन्होंने गटक नहीं लिया जहर को, मगर थूक भी न सके। न पी सके न थूक सके, कंठ में अटका रह गया। जो पी गए वे तो संत हो गए--थोथे संत। जो नहीं पी सके वे भी थूक न सके। इतनी हिम्मत वे भी न जुटा पाए, क्योंकि इतनी हिम्मत करने का अर्थ होता है भीड़ को नाराज करना। फिर भीड़ सूली लगाएगी। फिर भीड़ जहर पिलाएगी। बेहतर है चुप्पी साधे रहो, मुंह बंद ही रखो। मगर मुंह बंद रखा तो जहर जो तुम पी गए हो, गले के नीचे न भी उतारो, तुम्हारे मुंह में भी भरा रहे, तो तुम्हारे मुंह का स्वाद तो खराब कर ही जाएगा। तो सारे लोगों के जीवन में एक विषाद छा गया। रहे जीवन में वे, भागे वे--सब जीवन के प्रति एक तरह की उदासी से भर गए। जीवन मंगलदायी न रहा। ये दो दुष्परिणाम हुए।
और अब समय आ गया है कि पृथ्वी इस महामारी से मुक्त हो। इसलिए मैं कहता हूं कि धर्म जीवन की कला है, जीने की कला है। धर्म जीवन का त्याग नहीं है। मैं जीवन को और परमात्मा को पर्यायवाची घोषित करता हूं। परमात्मा शब्द छोड़ दो तो भी चलेगा; जीवन पर्याप्त है। जीवन शब्द काफी प्यारा है। परमात्मा कुछ और नई ऊंचाइयां नहीं दे देता। जीवन को ही निखार देना--धर्म है।
और जीवन जन्म से नहीं मिलता है। जन्म से ही मिल जाता तो बात बड़ी आसान हो जाती। तो फिर कोई कला न सीखनी पड़ती। तुम बाजार से एक वीणा खरीद लाए, इससे यह मत सोच लेना कि तुम्हें वीणा बजाना आ गया। यूं वीणा बाजार से खरीद लाए हो, इससे वीणा सीखने का अवसर तुम्हारे हाथ लगा; अब तुम्हें अभ्यास करना होगा; अब तुम्हें सतत साधना करनी होगी, तब संगीत जन्मेगा। ऐसा मत समझ लेना कि वीणा हाथ पड़ गई तो सब मिल गया, अब क्या करना है? अब तो बजाओ वीणा, जगाओ दीपक राग, बुझे दीये जल जाएंगे? बुझे दीये तो नहीं जलेंगे, जले दीये बुझ सकते हैं। तुम्हारा दीपक राग ऐसा ही होगा, अगर एकदम से वीणा बजानी शुरू कर दी तो--मोहल्ले में जो सो गए हैं वे जग जाएंगे। दीये नहीं जलेंगे। मोहल्ले के कुत्ते भौंकने लगेंगे, लोग फोन पुलिस को करने लगेंगे। घर के बच्चे चिल्लाने लगेंगे, पत्नी चिल्लाने लगेगी।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी जब भी गाने का अभ्यास करती तो वह अपने घर के बाहर टहलने लगता। मैंने उससे पूछाः नसरुद्दीन, यह मामला क्या है? जब भी तेरी पत्नी संगीत का अभ्यास करती है, तू बाहर क्यों टहलता है?
उसने कहाः इसलिए ताकि मोहल्ले वाले जान लें कि मैं उसको पीट नहीं रहा हूं। नहीं तो लोग समझते हैं कि मैं उसकी पिटाई कर रहा हूं। यह गाना है?
और उसने अपने कान बताए। कान में उसने रुई के फाहे लगा लिए हैं दबा-दबा कर, कि मैं तो सुन-सुन कर मरा जा रहा हूं। फिर जब कोई उपाय न रहा तो वह भी एक वीणा खरीद लाया। और जो उसने बजाना शुरू किया वीणा का, तो पत्नी को भी थका दिया, पड़ोसियों को भी थका दिया। बस एक ही तार को टुनटुनाए जाए। बस टुन-टुन, टुन-टुन...! आखिर लोगों ने कहा कि नसरुद्दीन, बहुत बजाने वाले देखे, कम से कम तारों पर हाथ चलाते हैं, तू तो एक ही तार को छेड़ रहा है!
नसरुद्दीन ने कहाः वे असली तार खोज रहे हैं कि उनका तार कहां है, मेरा तार मुझे मिल गया। अब मैं क्यों खोजूं? जिसको मिल गया वह क्यों खोजे? वे खोज रहे हैं अभी, इसलिए तलाश कर रहे हैं । मैंने तो तत्क्षण पा लिया। मैंने तो जब खरीदा तभी मैंने देख लिया कि कौन सा तार इसमें जंचता है। जो जंचा है, अब उसको ही बजाऊंगा। अब तो मैं हूं और यह तार है। और इसके लाभ ही लाभ हैं। एक तो बड़ा लाभ यह हुआ कि पत्नी ने एकदम संगीत छोड़ दिया। मोहल्ले में और जो कोई हारमोनियम इत्यादि बजाते थे, उन सबने बंद दिया। सारे मोहल्ले में संगीत समाप्त हो गया। मेरा ही संगीत एकमात्र बचा है। सब मेरी जान खा रहे थे। अब कम से कम इतना तो सुख मुझे है कि कोई मेरी जान नहीं खा रहा है। अब मैं भी काफी तड़फ चुका, अब तुम तड़फो। मैं तो यही टुन-टुन, टुन-टुन करूंगा। और वक्त-बेवक्त बजाऊंगा, क्योंकि संगीत की साधना का कोई समय थोड़े ही होता है। अरे जब मौज आई, जब स्वस्फुरणा उठी!
आधी रात उठ कर वह टुन-टुन, टुन-टुन शुरू कर दे।
वीणा खरीद लाए, इससे कोई संगीत थोड़े ही आ जाएगा। संगीत सतत अभ्यास मांगता है। जन्म तो केवल वीणा के खरीदने जैसा है। फिर जीवन तो संगीत जैसा है।
धर्म को मैं जीवन की कला कहता हूं--इस अर्थों में।
पूर्णानंद, जन्म एक अवसर है। इस अवसर को तुम चाहो तो महासंगीत बन सकता है। मगर चाहो तो! तो तुम्हारे भीतर भी बुद्धत्व का प्रकाश उठे। तुम्हारे भीतर भी दीपक राग जगे। और चाहो तो शोरगुल मचेगा। शोरगुल ही मच रहा है। चारों तरफ शोरगुल है। लोग शोरगुल को ही जीवन समझ रहे हैं। जितना ज्यादा शोरगुल होता है उतना ही लोग समझते हैं कि जीवित हैं। शांत बैठो तो लोग कहते हैंः क्यों शांत बैठे हो, क्या हो गया तुम्हें? शोरगुल मचाओ, उपद्रव करो, तो लोग मानते हैं कि तुम जीवित हो। और लोग नकलची हैं। लोग बिलकुल नकलची हैं। अगर पास का आदमी कुछ शोरगुल मचा रहा है, तुम भी मचाने लगोगे शोरगुल।
मैं छोटा था, तब देश में आजादी का आंदोलन चलता था। उन्नीस सौ बयालीस के दिनों में। मेरी उम्र रही होगी यही कोई आठ-नौ साल, दस साल। जिस नेता से मैं नाराज हो जाता गांव के...। मुझे नारे लगाने का शौक था; उससे कंठ का व्यायाम भी हो जाता था--वह अब तक काम पड़ रहा है--प्राणायाम भी हो जाता था। और सुबह ही सुबह झंडाफेरी निकाल दी। और जिन-जिन से बदला लेना हो, उन-उन से मैं बदला ले लेता था। मेरा बदला लेने का एक ढंग था। और तबसे मैं समझा कि आदमी का मनोविज्ञान अदभुत है।
मेरे गांव के दो-तीन ही खास-खास नेता थे। वे भी समझ गए। तो मुझे बुला कर मिठाई खिलाते, खिलौने देते। कहतेः भैया, कैसी नाराजगी है? और मेरा राज क्या था? राज यह था कि ब्रिटिश राज्य--मुर्दाबाद इसके नारे लगवाता। पांच-सात दफे ब्रिटिश राज्य, मुर्दाबाद; ब्रिटिश राज्य, मुर्दाबाद; और फिर साहिबदास...तो जनता कहती--मुर्दाबाद! क्योंकि वह पांच-सात दफे का जो अभ्यास हो जाता--मुर्दाबाद, मुर्दाबाद, मुर्दाबाद--तो साहिबदास...। तो साहिबदास मुझे बुला कर कहते कि तू जब भी कहता है, मेरा नाम गलत जगह लेता है। जब जिंदाबाद जनता कह रही हो--महात्मा गांधी, जिंदाबाद; जवाहरलाल नेहरू, जिंदाबाद--तब तो तू कभी साहिबदास का नाम नहीं लेता। ब्रिटिश राज्य, मुर्दाबाद--तब तू मेरा नाम घुसेड़ देता है बीच में। और सारी जनता मुर्दाबाद कह देती है। और मैं ही वहां झंडा लिए खड़ा हूं और मुझको ही मुर्दाबाद कहलवाया जा रहा है।
मैं बचपन से अध्ययन करता रहा हर चीज का, कि लोग कैसा व्यवहार करते हैं। लोगों को न मुर्दाबाद से मतलब, न जिंदाबाद से। कौन मुर्दाबाद, कौन जिंदाबाद, किसको लेना-देना है! जो धुन पकड़ गई। लोग नकलची हैं।
तो मैं कहताः भई, अगर ठीक जगह पर बुलवाना हो तो फिर उसका इंतजाम करना पड़ता है। फिर देवी-देवता को चढ़ोतरी करनी पड़ती है।
तो साहिबदास कहते कि करेंगे भई, तू क्या चाहता है? मिठाई ले, फल ले। सारा बगीचा हमारा पड़ा है, तू घुस। जो तुझे करना हो कर। मगर देख, गलत जगह हमारा नाम नहीं लेना। अगर गलत जगह नाम लेना है तो श्रीनाथ भट्ट...। वे गांव के दूसरे नेता थे। तो मैं गलत जगह श्रीनाथ भट्ट का नाम ले देता। वे बुलाते कि भई, क्या मामला है? मिठाई ले लो, यह करो।
मैं कहताः साहिबदास ज्यादा दे रहे हैं। अगर उससे ज्यादा की हिम्मत हो तो बोलो, नहीं तो मुर्दाबाद चलेगा।
नेताओं-नेताओं में प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है। नेताओं का धंधा ही प्रतिस्पर्धा है।
भीड़ जहां जा रही है, तुम उस तरफ चल पड़ते हो। तुम कभी नहीं देखते कि क्या कर रहे हो। सारे लोग धन कमाने में लगे हैं, तुम लग गए। सारे लोग हनुमान जी के मंदिर में जाते हैं, तुम भी चले। सारे लोग गंगास्नान करने जा रहे हैं, तुम भी चले। तुम्हारा धर्म, तुम्हारा जीवन, तुम्हारा दर्शन--सिवाय नकलचीपन के और क्या है? और यूं कार्बनकापियों की तरह जीओगे तो तुम्हारे जीवन से संगीत उठेगा? शोरगुल ही होने वाला है। और तुम्हें देख कर तुम्हारे बच्चे यही करते रहेंगे और उनके बच्चे यही करते रहेंगे। सदियां बीत जाती हैं, बीमारियां इस तरह दोहरती रहती हैं, दोहरती रहती हैं। जितनी दोहरती हैं उतनी मजबूत हो जाती हैं। जितनी पुनरुक्त होती हैं उतनी प्रचारित हो जाती हैं।
लोग कहते हैंः हमारे बापदादे भी यही करते थे। जैसे कि तुम्हारे बापदादों ने किया, इसलिए करने में कोई सत्य हो गया! तुम्हारे बापदादों से पूछते तो वे कहतेः हमारे बापदादे ऐसा करते थे। फिर फिकर ही नहीं है कि कौन ने शुरू किया, क्यों शुरू किया, किस मूढ़ ने किसी बात को शुरू किया, किस कारण शुरू किया। मगर लोग चलते रहेंगे।
इन पांच हजार वर्षों के ज्ञात इतिहास में आदमी धर्म के नाम पर जहर के घूंट पीता रहा है। मगर चूंकि पांच हजार वर्ष पुरानी बात हो गई, इसलिए इसकी महिमा हो गई, साख हो गई। पुराने होने से, इतनी भीड़ ने इसको दोहराया है कि तुम्हारी यह हिम्मत ही नहीं जुटती कि पांच हजार साल पुरानी इस भीड़ से तुम पृथक हो जाओ। तुम्हारे प्राण कंपते हैं।
और धार्मिक व्यक्ति वही है जो निज होने की घोषणा करे। निजता की उदघोषणा धर्म की शुरुआत है। अपने जीवन को जीना है, किसी और के जीवन को नहीं। यह जीवन की कला का पहला सूत्र हुआ। अपने जीवन को अपने ढंग से जीएंगे, चाहे जो परिणाम हों, दांव पर लगाएंगे अपने को। फिर हारे भी तो मजा है। जीते तो तो मजा है ही।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अगर व्यक्ति अपनी निजता की घोषणा करे तो उसके जीवन में हार होती ही नहीं, क्योंकि वहां फिर हार भी जीत है। और भीड़ के साथ चल कर अगर कोई जीते भी तो जीत नहीं होती। वहां जीत भी हार है। भीड़ जीतती है, तुम नहीं जीतते। और भीड़ के साथ चले, आत्मा को गंवा दिया। और जिसने आत्मा गंवा दी, उसने सब गंवा दिया। फिर जीवन अगर निषेध हो तो बात सरल हो जाती है, प्रतिभा की जरूरत नहीं होती। भाग गए छोड़ कर, बैठ गए गुफा में। गुफा में बैठ जाने में कोई बहुत बड़ी बुद्धिमानी चाहिए? कोई अलबर्ट आइंस्टीन, न्यूटन, एडिंग्टन, कोई प्रतिभा चाहिए? गुफाओं में बैठने के लिए बुद्धू होना पर्याप्त है। सिवाय बुद्धुओं के और कौन गुफाओं में बैठेगा, किसलिए बैठेगा? यह परमात्मा, यह चारों तरफ जो इतने फूलों में खिला है, इतने चांद-तारों में उठा है, इतने जीवन में फैला हुआ है, इतने रंग-रूपों में, इतने इंद्रधनुष, इनको छोड़ कर कोई मूढ़ ही गुफाओं में बैठेगा।
वे हिमालय की गुफाओं में जो बैठे हैं, उनके प्रति मेरा कोई समादर नहीं है। और मैं उनको जानता हूं, गुफा-गुफा में भटका हूं, देखा है उन लोगों को। उनकी आंखों में मुझे कोई प्रतिभा की चमक नहीं दिखाई पड़ी। तुम्हारे महात्माओं को खूब परख कर कह रहा हूं, खूब देख कर कह रहा हूं कि वे जड़ हैं। उनकी खूबी इतनी है कि वे तुमसे थोड़े ज्यादा जड़ हैं। इससे तुमसे आगे हैं, तुम्हारे नेता हैं। वे बुद्धू हैं, तुमसे थोड़े ज्यादा बुद्धू हैं। ज्यादा हैं, इसलिए स्वभावतः तुम्हें पीछे चलना पड़ता है, वे आगे चलते हैं। वे रूढ़ हैं, परंपराग्रस्त हैं। तुममें थोड़ी स्वतंत्रता भी है, उनमें इतनी भी नहीं। वे तो लकीर के फकीर हैं। वे तो यंत्रवत जी रहे हैं। वे तो यूं जी रहे हैं, जैसे कि कोई मुर्दा जीए। और जो आदमी जितना मुर्दगी से जी रहा है, उसको हम उतना बड़ा संत कहते हैं।
तुम जरा अपने संतों का हिसाब तो करना कि तुम फलां आदमी को संत क्यों कहते हो? क्योंकि वह इतने उपवास करता है। उपवास तो मरने का लक्षण है, जीने का नहीं। वह आदमी इसलिए संत है कि वह नंगा रहता है। नंगे तो सारे पशु रहते हैं। मनुष्य की खूबी है यह कि उसने वस्त्र खोजे। ये पशुओं में इतनी क्षमता नहीं है कि वस्त्र खोज सकें। तो नंगे होने में कोई कला नहीं है।
तुम्हारे संत की महिमा क्या है, विशिष्टता क्या है? क्योंकि कांटों की सेज पर सोया हुआ है। यह तो बुद्धूपन का लक्षण है। बुद्धिमानी तो सुंदर सेज बनाएगी--प्रीतिकर, सुरुचिपूर्ण। कांटों पर क्यों सोएगा कोई? यह तो आत्महत्या है। ये आत्महत्या की तरफ छोटे-छोटे कदम हैं। लेकिन इन कदमों का हम सम्मान करते हैं। हम इसको कहते हैं--तपश्चर्या! किसी भी तरह की मूढ़ता को हम तपश्चर्या कहने लगते हैं। और जो भी अपने को सता रहा है, उसको हम मान लेते हैं तपस्वी।
अपने को सताने वाला सिर्फ विध्वंसक है, हिंसक है, आत्महिंसा से भरा हुआ है। ये सारे लोग दमन से भरे हुए लोग हैं। और दमन क्रोध पैदा करता है, हिंसा पैदा करता है। हिंसा को निकालें कहां? वह कहीं तो निकलेगी, किसी जगह तो निकलेगी! वह कोई रास्ता तो खोजेगी। और तो किसी पर निकालेंगे तो फौरन संतत्व डगमगा जाएगा, अपने पर ही निकाल सकते हैं। अपने से ज्यादा निहत्था इस दुनिया में कोई भी नहीं है। और अपनी रक्षा जब तुम ही नहीं करोगे तो कोई क्या करेगा? कोई क्यों करेगा? और लोग तो मजा लूटेंगे। लोग तो देखेंगे कि चलो अच्छा है। एक तमाशा होगा।
जैन मुनि अपने बाल उखाड़ते हैं और भीड़ इकट्ठी होकर देखती है और ताली बजाती है। लोग तमाशा देख रहे हैं। लोग कहते हैंः अहा, कैसा त्याग! बाल उखाड़ रहे हो, निपट गंवारी कर रहे हो--एक तरह का पागलपन है। स्त्रियों में तो हमेशा से पाया जाता है यह पागलपन। जब भी वे गुस्से में होती हैं तो बाल खींचने लगती हैं, बोल लोंचने लगती हैं। यह केश-लोंच कोई बड़ी बुद्धिमानी का लक्षण नहीं है, विक्षिप्तता का लक्षण है। लेकिन स्त्रियों को कोई नहीं कहता कि अहा, कैसा त्याग, कैसी तपश्चर्या! लोग कहेंगेः मूढ़ हो! स्त्रियों को जब क्रोध आएगा, वे भोजन नहीं करेंगी, खाना बंद कर देंगी। स्त्रियां तो बहुत पुराने समय से गांधी वादी रही हैं, गांधी के बहुत पहले से। सत्याग्रही रही हैं, बहुत पहले से! गांधी तो स्त्रियों की जो आदतें थीं, उनको ही बड़े पैमाने पर दोहरा रहे थे। लेकिन उन्हीं आदतों के कारण महात्मा हैं। और फिर ये सब जो रोग इकट्ठे हो जाएंगे, इनका कहीं से निकास करना होगा।
मैंने सुना है, एक वेश्या ने एक सर्वोदयी नेता को निमंत्रण दिया। तुम थोड़ा चैंकोगे कि वेश्या और सर्वोदयी नेता को क्यों निमंत्रण दे! सर्वोदयी नेता तो ब्रह्मचर्य की बात करते हैं। जो-जो ब्रह्मचर्य की बात करते हैं, उन्हीं ने तो वेश्याएं पैदा की हैं। वेश्याएं हैं ही दुनिया में इसलिए। और तब तक रहेंगी, जब तक लोग अस्वाभाविक दमन की प्रक्रियाओं को आरोपित करते रहेंगे। वेश्याओं में और सर्वोदयी नेताओं में और महात्माओं में एक आंतरिक गठबंधन है। सर्वोदयिओं का जो संगठन है, उसको नाम हैः सर्व-सेवा-संघ। मैं कभी-कभी सोचता हूं, अगर वेश्याएं भी कभी कोई अखिल भारतीय संगठन बनाएं, उसका नाम भी होगा--सर्व-सेवा-संघ। उससे अच्छा और क्या नाम होगा? सबकी सेवा करना ही उनका लक्ष्य है। और तन-प्राण से करती हैं, पूरी तरह करती हैं।
...सर्वोदयी महात्मा पूरे दो मुर्गे खा गया। तुम कहोगेः सर्वोदयी महात्मा और मुर्गे! इससे तुम चैंकना मत। लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी मुर्गे खाने के शौकीन थे, अंडे खाने के शौकीन थे--फिर भी लोकनायक थे। फिर भी महात्मा गांधी के परम शिष्य थे और विनोबा भावे के परम शिष्य थे; उनके वसीयतदार थे। इधर अहिंसा की बातें भी चलती रहती हैं, भीतर हिंसा भी चलती रहती है।
यह जो जयप्रकाश नारायण ने इतना बड़ा उपद्रव इस देश में किया--जो कि बिलकुल ही बेमानी था और जिससे देश को सिवाय हानि के कोई लाभ नहीं हुआ--इस उपद्रव के पीछे कोई सैद्धांतिक बात नहीं थी। छोटी सी बात थी, बड़ी क्षुद्र बात थी--और वह यह थी कि इंदिरा ने जयप्रकाश को यह पूछ लिया था कि आपका खर्चा कैसे चलता है! बस यह बात उनको चोट कर गई। यह घाव छू गया। और यह चोट करने वाली बात थी, क्योंकि जयप्रकाश का जीवन भर खर्चा चला है बिरला के खानदान से। माहवारी बंधी हुई थी। वेतन बंधा हुआ था।
अब यह दुनिया बड़ी मजेदार है! यहां क्या-क्या खूबियों की चीजें चलती हैं, जिनका हिसाब लगाना मुश्किल है! बिरला इस देश के सभी तथाकथित सर्वोदयिओं को तनख्वाह देते हैं--मासिक तनख्वाह। एक तारीख को उनको तनख्वाह पहुंच जाती है। और यह जो जयप्रकाश नारायण को पैसा मिलता था, यह महात्मा गांधी की आज्ञा से मिल रहा था। और यह जयप्रकाश कहना नहीं चाहते थे कि खर्च कहां से चलता है। बिरला का कैसे नाम लें! गरीब जनता के सेवक, धनपतियों के दुश्मन--और धनपतियों की ही नौकरी पर जी रहे हैं, उनसे ही पैसा पा रहे हैं! ऊपर से अहिंसा की बातें हैं, भीतर हिंसा। ऊपर से विनम्रता की बातें हैं, भीतर अहंकार।
...सर्वोदयी महात्मा पूरे दो मुर्गे खा गया। खाने के बाद उसे एक बूढ़ा मुर्गा आंगन में नजर आया। उसे देख कर सर्वोदयी महात्मा बोलाः देखो, यह मुर्गा किस शान से चल रहा है!
वेश्या ने जल कर जवाब दियाः शान क्यों न हो, इसके दो बेटे एक महात्मा की सेवा कर चुके हैं।
जब-जब जबरदस्ती कुछ आरोपण किया जाएगा तो पीछे के रास्ते से सारे उपद्रव बहेंगे, मवाद बहेगी। और जीवन में एक अप्रामणिकता आ जाएगी, जीवन में एक झूठ आ जाएगा। जीवन दोहरा हो जाएगा--एक दिखाने का और एक जीने का।
अगर तुम्हें जीवन की कला सीखनी हो तो उसका दूसरा सूत्र हैः प्रामाणिकता, आॅथेंटिसिटी। जैसे हो वैसे ही जीना, दोहरे चेहरे लगाने की जरूरत नहीं। डरो क्यों, किससे डरना है; किससे भयभीत होना हैः छिपना किससे है, छिपाना किससे है?
मेरा अपने संन्यासियों से यही कहना हैः पाखंडी भर मत होना। और अब तक सारे तथाकथित महात्मा किसी न किसी तरह के पाखंड में रत रहे हैं। पांखड का अर्थ होता है--कहना कुछ, करना कुछ।
मैं तुमसे यह कह राह हूं कि तम जो कहो, वह वही होना चाहिए जो तुम करो। कोई जरूरत नहीं है अन्यथा कहने की, क्योंकि तुम जो कर रहे हो वह स्वाभाविक है। इसलिए अन्यथा क्यों कहोगे? मगर जब तुम्हें यह सिखाया गया कि ब्रह्मचर्य जीवन है और कामवासना तुम्हारे भीतर हिलोरें ले रही है, तब तुम क्या करोगे? तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। पाखंड पैदा हुआ ही रखा है। पाखंड से बचना असंभव है। बचने का उपाय ही नहीं छोड़ा गया। ब्रह्मचर्य ही जीवन है, यह तो सिद्धांत हो गया। मगर अपनी कामवासना का क्या करोगे? वह लहरें मार रही है, वह धक्के मार रही है।

संत महाराज ने पूछा हैः ओशो! मेरे दिल विच प्रेम हिलोरें ले रिहा है, उचक-उचक बल मारदा है। जिसे भी दो ओ लैंदा ही नहीं। मैं बड़ा मजबूर हो गिया हां। सदगुरु साहिब, मैं इस प्रेम दा की करां?

कामवासना तो पंजाबी है। वह तो बल मारेगी। सभी की कामवासना पंजाबी है। वह तो उठ-उठ बैठेगी।
तुम ठीक कह रहे हो कि ‘उचक-उचक बल मारदा है।’
संत महाराज बिलकुल सत्य कह रहे हैं। इसलिए तो उनको महाराज कहता हूं। सत्य ही कहते हैं वे, छिपाते-करते नहीं। ठीक बात कह रहे हैं कि ‘मेरे दिल विच प्रेम हिलोरें ले रहा है।’ अब अगर ब्रह्मचर्य ही जीवन है और दिल विच प्रेम हिलोरें ले रहा है और उचक-उचक बल मारदा है, तो करोगे क्या? तो ऊपर से एक मुखौटा ओढ़ लेना, राम-नाम की चदरिया। और फिर भीतर से कोई रास्ता खोजना पड़ेगा। और तब धोखा हो जाएगा। तब तुम अपने साथ ही बेईमानी करोगे।
नहीं, इस प्रेम को स्वीकार करो, अंगीकार करो। यह तुम्हारी जीवन-ऊर्जा है। और घबड़ाओ मत संत। तुम कहते होः जिसे भी दो वह लैंदा ही नहीं। लोग डर गए हैं, लोग डरे हुए हैं। प्रेम के विपरीत उन्हें समझाया गया है। कोई लेना ही नहीं चाहता। न कोई लेना चाहता, न कोई देना चाहता है। लेना भी पड़ता है, देना भी पड़ा है। लेकिन लेना भी कोई नहीं चाहता, देना भी कोई नहीं चाहता। बड़ी उलझन में आदमी को डाला गया है। आदमी की फांसी लगा दी है। जीए तो मुश्किल, न जीए तो मुश्किल। आदमी का जीना ऐसा अकारण संकट से भर दिया है। फिजूल ही।
तुम कह रहे होः ‘मैं बड़ा मजबूर हो गिया हां!’
मजबूर तो हो ही जाओगे। मगर फिकर मत करो। अपने को अंगीकार करो। अपने को स्वीकार करो। तलाश जारी रखो। कोई न कोई मिलेगा। लेगा। और यहां नहीं मिलेगा तो पूरी पृथ्वी पर कहीं भी नहीं मिल सकता है। और तुम्हारे ही भीतर थोड़े ही उचक-उचक बल मारदा है, औरों के भीतर भी उचक-उचक बल मारदा है। मगर वे इसको बिठाए हुए हैं भीतर। वह उचक-उचक बल मारदा है, वे उचक-उचक उसको दबा देते हैं। आखिर उनकी भी समझ में आएगा। यहां रहेंगे तो समझना ही पड़ेगा, क्योंकि यहां मेरा मूल सूत्र यही है कि जीवन में जो भी है, सब शुभ है। उस शुभ को और भी शुभ करना है। उस शुभ्र को और भी शुभ्रतर करना है। मगर जो भी है वह पाप नहीं है; वह पुण्य की संभावना है, पुण्य का बीज है। बीज को बोना है, श्रम करना होगा। अगर बीज को फलों तक ले जाना है, फूलों तक ले जाना है, तो प्रतीक्षा भी करनी होगी।
जीवन का जीने की कला का दूसरा सूत्र हैः प्रामाणिकता। एक ही तुम्हारा व्यक्तित्व होना चाहिए, दोहरा नहीं।
पहला सूत्र हैः निजता। अपने ढंग से जीओ, अपने रंग से जीओ, अपनी मौज से जीओ। मैं उसको संन्यास कह रहा हूं। और दूसरा सूत्र हैः प्रामाणिकता। और तीसरा सूत्र हैः भूल कर भी कहीं इस खयाल को मत टिकने देना कि तुम्हारे जीवन में कुछ है जो गलत है। अगर कुछ गलत लग भी रहा हो तो जानना कि इसी के भीतर कहीं सही छिपा हुआ है। यह गलत, सही को अपने में छिपाए हुए है। जैसे बीज की सख्त खोल के भीतर कितने फूल छिपे हैं! करोड़ों फूल छिपे हैं। बीज की सख्त खोल पर ही मत अटक जाना। फूल अभी दिखाई भी नहीं पड़ते। बोओगे जमीन में, पौधा बड़ा होगा, वृक्ष बनेगा, हजारों पक्षी निवास करेंगे, सैकड़ों लोग उसकी छाया में बैठ सकेंगे--तब फूल से भरेगा आकाश।
वैज्ञानिक कहते हैं कि एक बीज की इतनी क्षमता है कि सारी पृथ्वी को हरा कर दे, क्योंकि एक बीज से फिर करोड़ों बीज होते हैं। फिर एक-एक बीज से करोड़ों-करोड़ हो जाते हैं। होते-होते सारी पृथ्वी एक बीज के द्वारा...।
पहली दफा इस पृथ्वी पर एक ही बीज आया होगा और उसी एक बीज का परिणाम है सारी पृथ्वी हरी है।
तो तीसरा सूत्र खयाल रखनाः जो भी जीवन ने तुम्हें दिया है, शुभ है। उसका सम्मान करो, सत्कार करो, निंदा नहीं।
और तब चैथा और अंतिम सूत्र है, कि जो तुम्हारे भीतर है अनगढ़ पत्थर की तरह, उसे गढ़ना है, उसकी मूर्ति बनानी है। ध्यान से वह अदभुत कार्य पूरा होता है। ध्यान है अपने भीतर मूर्ति-निर्माण की कला। पत्थर में जो-जो अनगढ़ हिस्से हैं, उनको छांटना; जैसे मूर्तिकार छैनी से छांटता है। फिर धीरे-धीरे एक अनगढ़ पत्थर, जो रास्ते के किनारे पड़ा था, इतनी सुंदर मूर्ति बन जाती है बुद्ध की, कि महावीर की, कि कृष्ण की, कि क्राइस्ट की, कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। ध्यान छैनी है।
ध्यान एकमात्र उपाय है अपने भीतर अनगढ़ को गढ़ने को।
बस ये चार सूत्र तुम्हारे खयाल में आ जाएं कि तुम्हें जीवन की कला आ जाएगी। और जिसने जीवन जाना, उसने ईश्वर जाना।
पूर्णानंद, जिसने जीवन जाना उसने आनंद जाना। जिसने जीवन जाना उसने मोक्ष जाना, क्योंकि जीवन शाश्वत है। एक दफा जाना तो पता चलता है कि अरे मैं न तो कभी जन्मा और मैं न कभी मरूंगा। मैं था जन्म के पहले, मैं रहूंगा मृत्यु के बाद भी। इस अमृत की अनुभूति धर्म का सार-सूत्र है।

दूसरा प्रश्नः ओशो! आप रोज-रोज पतियों के पक्ष में बोल कर और पत्नियों पर व्यंग्य, चुटकुले बोल कर , पतियों को और सिर पर चढ़ाए दे रहे हैं। वैसे ही पति पत्नी को पैर की जूती समझता है। कृपया कुछ बोलें!

मनीषा! पति मन ही मन में भला समझता रहे कि पत्नी पैर की जूती है, इधर-उधर बाजार में कहता भी फिरे, घर आते ही चैकड़ी भूल जाता है; पत्नी को देख कर ही होश-हवास खो देता है। यूं कहता फिरता है कि मैं पति हूं--पति यानी स्वामी! पति शब्द का अर्थ ही स्वामी होता है। लेकिन पत्नियां भलीभांति जानती हैं कि कौन मालिक है और कौन गुलाम। हालांकि पत्नियां चिट्ठी वगैरह लिखती हैं पति को तो लिखती हैंः हे स्वामी! नीचे दस्तखत करती हैं--आपके चरणों की दासी। मगर ये सब औपचारिक बातें हैं। इनमें कुछ सचाई नहीं है। पत्नी भलीभांति जानती है, कौन चरणों का दास है! असल में पति इतनी मुश्किल में पड़ा रहता है कि इस तरह की बातें कह-कह कर अपने का सांत्वना दे लेता है कि पत्नी पैर की जूती है! अरे यह नरक का द्वार है! अरे यह कुछ भी नहीं!
पुरुष का ही मोक्ष होता है, स्त्री पर्याय से मोक्ष नहीं होता। लिखते रहो अपने शास्त्रों में, करते रहो अपने मन में अपने को समझाने की ये कोशिशें। मगर ये सब कोशिशें यह बताती हैं कि असलियत कुछ और है। पत्नी को कोई दिक्कत नहीं, दस्तखत कर देती है--आपकी दासी। क्योंकि जानती है कि दस्तखत करने से क्या होता है! दस्तखत करने में बिलकुल निशिं्चत भाव से कर देती है, क्योंकि भलीभांति पता है कि दास कौन है। इतनी आश्वस्त है अपनी मालकियत की कि तुम्हारी चिंता क्या लेनी! अगर तुम्हें इसमें ही मजा आता है कि आपकी दासी लिख दिया कागज पर तो चलो लिखे देते हैं। मगर ये कागजी बातें हैं। इनका असलियत से कुछ लेना-देना नहीं। हालत असलियत में बिलकुल उलटी है।
अकबर के दरबार में यूं हुआ। बीरबर ने एक दिन कहा कि आपके दरबार में ये सब जोरू के गुलाम हैं, सब! अकबर ने कहाः यह बात नहीं हो सकती सही। मेरे दरबारी, मेरे बहादुर योद्धा, जो न मालूम कितने युद्ध जीत चुके हैं, ये सब जोरू के गुलाम हैं! तुम बात क्या करते हो?
उसने उसी वक्त अपने दरबारियों से कहा कि जो-जो जोरू के गुलाम हैं, एक लाइन में खड़े हो जाएं। और कोई झूठ बोलने की कोशिश न करे। अगर बात गलत पाई गई तो गर्दन उतार दी जाएगी। सैनिकों से कहा, नंगी तलवारें खींच लो म्यान के बाहर। तुम्हारी पत्नियों से पूछा जाएगा, तुम्हारे पड़ोसियों से पूछा जाएगा, तुम्हारे बच्चों से पूछा जाएगा। अगर जरा भी प्रमाण मिल गया कि तुम जोरू के गुलाम हो और तुम झूठ बोले, तो गर्दन उतर जाएगी।
कौन ऐसी झंझट मोल ले! पड़ोसी तो फौरन पोल खोल देंगे। नौकर-चाकर फौरन पोल खोल देंगे। बच्चों को क्या पता, वे तो सत्य-सत्य बोल देंगे कि मम्मी को देख कर डैडी एकदम पूछ दबा लेते हैं, कि घर में ऐसे आते हैं जैसे अब पिटे अब पिटे, कि यूं मम्मी चूहे से डरती है मगर डैडी से नहीं डरती, डैडी मम्मी से डरते हैं! चूहों से गई-बीती हालत है डैडी की। चूहे से भी डरती है मम्मी। चूहा देख कर एकदम उचक कर खड़ी हो जाती है कुर्सी पर कि चूहा-चूहा! और पति को देख कर कभी उचक कर खड़ी नहीं होती कुर्सी पर कि पति-पति! देखा है किसी पत्नी को उचक कर खड़े होते? तो पता तो चल ही जाएगा। बेहतर है, झंझट में पड़ना ठीक नहीं है। और फिर सारे दरबारी एक-दूसरे का राज जानते हैं, ये ही खोल देंगे पोल।
झिझकते, अटकते--मगर सब जाकर खड़े हो गए; सिर्फ एक आदमी, जिसकी कभी आशा ही नहीं थी किसी को, अकबर को भी आशा नहीं थी, बीरबल भी चैंका। वह तो बिलकुल पक्का जोरू का गुलाम था। दुनिया जानती थी। इसमें कोई शक-शुबे का सवाल ही नहीं था। वह अलग ही खड़ा रहा।
अकबर ने पूछा कि चलो कोई बात नहीं, कम से कम इतना ही बहुत है, कम से कम एक आदमी तो है मेरे दरबार में जो जोरू का गुलाम नहीं है। उस आदमी ने कहाः ठहरिए आप, गलत नतीजा न लें। जब मैं घर से चलने लगा तो मेरी पत्नी ने कहा--सुनो जी, भीड़-भाड़ में खड़े मत होना! सो मैं उस भीड़ में खड़ा नहीं हो सकता, और कोई कारण नहीं है। अगर उसको पता चल गया कि मैं भीड़-भाड़ में खड़ा था तो रोटी-पानी बंद! फिर झंझट होगी।
तो अकबर ने कहाः ऐसा करो बीरबल, दरबार में तो तुम जो कहते हो ठीक है। मगर क्या यह बात राजधानी के संबंध में सच है?
बीरबल ने कहाः यह बिलकुल सच है। पति हो और जोरू का गुलाम न हो, यह बड़ा मुश्किल है। ऐसे व्यक्ति पति बनते ही नहीं। अगर जोरूं के गुलाम नहीं बनना हो तो पति ही किसलिए बने?
अकबर ने कहाः तू उलटी-सीधी बात कर रहा है। पूरी राजधानी!
बीरबल ने कहाः आप पहले नहीं मानते थे दरबारियों के संबंध में, अब नहीं मानते राजधानी के संबंध में। तो बीरबल से कहा कि फिर ऐसा कर, तू एक आदमी ले, मेरे जो सबसे शानदार दो घोड़े हैं...(अरबी घोड़े थे--एक सफेद, एक काला। अकबर उनको बहुत प्रेम करता था।)...ये दोनों तू ले जा। और जो भी आदमी सिद्ध कर दे कि वह जोरू का गुलाम नहीं है, वह जो भी घोड़ा पसंद करे उसको भेंट कर देना।
बीरबल चला आदमी को लेकर, दो घोड़ों को लेकर। हम घर में गया, कोई सिद्ध न कर सका। सिर्फ एक घर में ऐसा हुआ...। सुबह ही सुबह वहां पहुंचा। सुबह सर्द धूप निकल रही थी। सर्द सुबह और आदमी बैठा हुआ था, मालिश कर रहा था--अपने ही हाथ से। उसके मसल देखने लायक थे, पहलवान था। बड़ा मजबूत आदमी मालूम पड़ता था। सात फीट ऊंचा! बड़ा मस्त-तड़ंग। एक घूंसा किसी को मार दे तो वह आदमी फिर उठ न सके।
बीरबल ने कहा कि भई, एक बात पूछनी है, नाराज तो न होओगे? (बीरबल भी थोड़ा डरा कि यह आदमी तो कुछ खतरनाक सा मालूम पड़ता है, खूंखार!) नाराज न होओ तो पूछूं। और पूछना मुझे पड़ेगा, क्योंकि सम्राट ने भेजा है।
उसने कहाः पूछ, क्या पूछना है? क्या चाहता है?
नहीं, चाहता कुछ नहीं हूं। ये जो दो घोड़े लाया हुआ हूं, अगर तुम यह सिद्ध कर दो कि तुम्हारे घर में मालिक कौन है--तुम कि तुम्हारी पत्नी...। वह आदमी खिलखिला कर हंसा। उसकी हंसी ऐसी थी कि घोड़े तक घबड़ा गए। घोड़े तक ठिठक कर पीछे हट गए। बीरबल तक की छाती दहल गई। और उस आदमी ने बीरबल के पास लाकर अपने हाथ की मसलें दिखाईं, कहाः ये मसलें देखते हो? और बीरबल से कहाः मेरे हाथ में हाथ दे!
और हाथ में हाथ लेकर जो उसने बीरबल का हाथ दबाया, बीरबल बोलाः अरे, मार डालेगा क्या? अरे भाई, छोड़!
उसने कहाः मैं और जोरू का गुलाम! जिंदा नहीं लौटेगा यहां से। मेरा शरीर देखता है और वह रही मेरी जोरू!
अंदर गेहूं बीन रही थी उसकी पत्नी--बिलकुल एक दुबली-पतली औरत कि उसको यह आदमी दबा ही दे मुट्ठी में तो वह मर ही जाए। उसकी हालत बिलकुल उलटी थी। वह अपना गेहूं बीन रही थी। उसने कहाः वह मेरी पत्नी है। यह मुर्गी और मेरी मालिक! इसकी गर्दन दबा कर बताऊं? खात्मा कर दूं? तेरा खात्मा कर दूं? यह जो आदमी घोड़ा लिए है, इसका खात्मा कर दूं? बोल किसका खात्मा कर दूं?
अरे बीरबल ने कहाः खात्मा किसी का नहीं करना, भैया। हम मान गए कि तू मालिक है। जाहिर ही है। इसमें कुछ पता लगाने की जरूरत नहीं। अकबर भी तुझे देख कर मान जाएगा कि तू है मालिक घर का। घर का क्या, तू तो मतलब राजधानी का सरताज है। अब यह बोल कौन सा घोड़ा चाहिए।
तो उस आदमी ने बुला कर कहा कि जुम्मन की मां, घोड़ा कौन सा लूं, सफेद कि काला? जुम्मन की मां ने कहा कि अगर काला लिया तो वह मजा चखाऊंगी कि जिंदगी भर याद रखेगा! सफेद ले!
तो उसने कहा कि सफेद लेंगे। तो बीरबल ने कहाः बस अब रहने दे। अब घोड़ा-मोड़ा नहीं मिलता। बात खत्म हो गई। देख लिया कि मालिक कौन है। ये मसल वगैरह अपने पास रख। मुझको मार सकता है, घोड़े को भी मार सकता है; मगर जुम्मन की मां क्या कह रही है, सुन!
मनीषा, तू चिंता न कर। यह तो मैं बेचारे पतियों को थोड़ी सी हवा देता रहता हूं। यूं पिटे-कुटे आते हैं, सत्संग में थोड़ा तो उनको लाभ हो! यूं बिलकुल पिचके-पिचकाए आते हैं। ऐसे थोड़े पंप मार दिए, थोड़े फुग्गे में उनकी हवा आ गई। वे जरा घर की तरफ शान से चले! कम से कम घर तक तो शान से जाएंगे, कि सत्संग करके आ रहे हैं! वाह क्या बात कही! घर जाकर तो मरम्मत हो ही जाने वाले है।
इसलिए मैं निशिं्चतता से उनमें जितनी फूंक सकता हूं फूंकता हूं। मगर कोई फिकर मत कर। इसलिए तो स्त्रियां मजे से सुनती रहती हैं, कोई फिकर नहीं करतीं। तू पहली है जिसने फिकर की। अविवाहित मालूम होती है। विवाहित होती, इस तरह की बात तू करती ही नहीं, भूल कर नहीं करती। स्त्रियां यहां बैठ कर हंसती रहती हैं, पुरुषों से भी ज्यादा हंसती हैं; हालांकि मैं मजाक उनका चाहे उड़ाऊं।
और पुरुषों का बेचारों का क्या मजाक उड़ाओ! उनका मजाक तो ऐसा उड़ा हुआ है, इसलिए सिर्फ दया भाव से उनका नहीं उड़ाता मजाक। और कोई कारण नहीं है। यह नहीं कि मैं जो कह रहा हूं वह पुरुषों को कोई उनके अहंकार को बल देने का। लाख कोशिश करके देख चुका हूं, उनको कितना ही खड़ा करो, वे जैसे ही पत्नी को देखते हैं, एकदम पिचक जाते हैं। यह कोई एकाध अनुभव से नहीं कह रहा हूं। कितनों को ही खड़ा करके देख लिया, एकांत में तो बिलकुल खड़े हो जाते हैं, डंड-बैठक लगाने लगते हैं; जैसे ही पत्नी को देखते हैं कि बस पूछते हैं--जुम्मन की मां, काला घोड़ा लें कि सफेद? बस खत्म!
तू निशिं्चत हो कोई फिकर न कर।
एक सज्जन ने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछाः नसरुद्दीन, बताओ शादी के बाद चैन की नींद कौन सोता है--पति या पत्नी?
दोनों--नसरुद्दीन ने कहा। फर्क सिर्फ इतना है कि पत्नी घर में सोती है और पति दफ्तर में।
घर में तो बेचारा सोए भी तो कैसे सोए! किसी तरह समय गुजार देता है, थोड़ा-बहुत जितना समय मिला। सारी दुनिया में यह खयाल है कि पुरुष शक्तिशाली वर्ग है और स्त्रियों कमजोर। यह बिलकुल भ्रांत धारणा है। यह पुरुषों ने फैला रखी हैं आत्मरक्षा के लिए। और पुरुष पुरुषों से बातें करते रहते हैं और स्त्रियां चुपचाप मुस्कुराती रहती हैं कि ठीक है, कर लो बातचीत, गुड़गुड़ा लो हुक्का, जरा दिल बहला लो!
एक बच्चा अपनी मां से एक दिन पूछने लगाः मम्मी, क्या आप सर्कस में काम करती थीं?
मम्मी ने कहाः नहीं तो बेटा। क्यों तुम ऐसा पूछ रहे हो?
बच्चे ने कहाः मम्मी, पड़ोस की आंटी कह रही थीं कि आप पप्पा को अंगुलियों पर नचाती हैं!
मगर कौन स्त्री नहीं नचाती?
एक स्त्री का कार-एक्सीडेंट हुआ और उसकी एक अंगुली एक्सीडेंट में कट गई। उसने पचास हजार रुपये का दावा इंश्योरेंस कंपनी पर किया। इंश्योरेंस कंपनी भी हैरान हुई। मैनेजर ने बुला कर पूछा कि देवी, एक अंगुली के कट जाने का पचास हजार रुपया!
उसने कहाः यह कुछ भी नहीं है। क्योंकि यह वही अंगुली है जिस पर मैं अपने पति को नचाया करती थी। यह कोई साधारण अंगुली नहीं थी। तुमने मेरे पति की कीमत क्या समझी है? जो मेरे पति की कीमत है, वही इस अंगुली की कीमत है। अब कहां नचाऊंगी पति को?
मैनेजर भी मान गया। उसका भी अपना अनुभव तो यही था कि नचाती तो उसकी भी पत्नी अंगुलियों पर ही है।
पति तो करीब-करीब कठपुतलियों की तरह है। तुमने कठपुतलियों का नाच देखा? पीछे छिपा रहता है नाचने वाला, धागे उसके हाथ में रहते हैं और कठपुतलियां नाचती हैं। उनसे जो करवाओ, करती हैं। जहां भेजो वहां जाती हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा था। मजिस्ट्रेट ने पूछाः नसरुद्दीन, तुम्हें ऐसा करते शर्म नहीं आई कि तुमने पत्नी को झाडू मारी?
नसरुद्दीन ने कहाः हुजूर, अवसर-अवसर की बात है।
मजिस्ट्रेट ने पूछाः मैं समझा नहीं तुम्हारा मंतव्य।
उसने कहाः मंतव्य मेरा यह कि सुबह का वक्त था, पत्नी के दोनों हाथ काम में उलझे हुए थे, उसकी पीठ मेरी तरफ थी। झाडू पास में पड़ी थी, पीछे का दरवाजा खुला था। सो मैंने मारा और भाग खड़ा हुआ। मैंने सोचा कि यह अवसर अगर चूका, फिर मिले न मिले। इस अवसर की कबसे तलाश कर रहा था। आपको जो भी जुर्माना करना हो, कर दो।
मजिस्ट्रेट ने कहाः जुर्माना! अरे जुर्माना बिलकुल नहीं। मगर तूने एक राज की बात बता दी। मैं भी इसका अभ्यास करूंगा।
बात तो जंचती है। ऐसा अवसर अगर मिल जाए तो उपयोग कर ही लेना चाहिए।
मनीषा, तू बिलकुल चिंता मत कर। यह पतियों को फुलाना कुछ खास मामला नहीं। इनको जरूरत है थोड़ी सी। थोड़े इनमें प्राण पड़े रहें। इनकी आत्मा बिलकुल ही न निकल जाए। इन्हीं में से मुझे संन्यासी खोजने पड़ते हैं।
यह जान कर तू हैरान होगी कि स्त्रियां पहले संन्यासी हो जाती हैं, पति पीछे। पति अगर कभी-कभी पहले संन्यासी होना भी चाहता है तो पत्नी नहीं होने देती। पति मेरे पास आकर कहते कि मुझे तो होना है, अगर जुम्मन की मां! पत्नी राजी नहीं है, वह जीना हराम कर देगी। आखिर रहना तो घर में उसके पास है। और आपने भी कैसा संन्यास चुना है! अगर आप कहो कि घर छोड़ देना है, तो भी समझ में आता है, तो आज भाग जाएं।
वह वही है--अवसर की बात। पीछे का दरवाजा खुला है, भाग खड़े हुए। वह पुराने ढब का संन्यासी था। मेरे संन्यासी को भागना नहीं है। तो मेरे से लोग आकर कहते हैं कि आपने भी खूब संन्यास रचा है, ऐसी झंझट में डाल दोगे! पत्नी कहती है, लेना मत! पत्नी ने कह दियाः वहां तो जा रहे हो, लेकिन गैरिक वस्त्र पहन कर घर में मत आना। और आप कहते हो घर छोड़ना नहीं। घर छोड़ने की भी आज्ञा दे दो तो यहीं से भाग खड़ा होऊं, लौट कर जाने की जरूरत नहीं। वह आप आज्ञा देते नहीं। वह आप भगोड़ापन कहते हैं। आप कहते हैं घर जाओ। और वहां पत्नी बैठी है, वह कहती है गैरिक वस्त्र पहन कर घर में आना मत।
मगर पत्नियां फिकर नहीं करतीं। पत्नियां...एक पत्नी नहीं आकर कहती मुझसे कि मुझे संन्यास लेना है तो पति बाधा डाल रहा है। वह कहती हैः पति से मैं निपट लूंगी, आप फिकर न करें। मैं खुद ही पूछता हूं कि पति कुछ नाराज तो नहीं होंगे?
वह कहती हैः पति-वति की छोड़ो। अरे उनको मैं जानती हूं। उनसे मैं निपट लूंगी। कौन मुझे रोक सकता है?
पत्नी को संन्यास लेना हो तो न वह खुद ले लेती है, बल्कि धीरे-धीरे पति को भी लेना पड़ता है। लेना ही पड़ेगा।
काॅफीहाउस में कुछ बुद्धिजीवी आत्म-निर्भरता पर बहस कर रहे थे। एक ने गर्व से उदाहरण देते हुए कहाः अब मुझे ही देख लो कि मैं कितना आत्म-निर्भर हू। सुबह पांच बजे उठता हूं, नित्य कर्म से निपट कर चाय-नाश्ता बनाता हूं, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करता हूं। आफिस जाने के पहले पत्नी को जगाता हूं, उसे बेड-टी लेने की आदत है। फिर ठीक साढ़े सात बजे घर से निकल पड़ता हूं। पर लोग हैं कि मुझे जोरू का गुलाम कहते हैं। उन्हें बिलकुल नहीं मालूम कि आत्म-निर्भरता भी कोई चीज है!
अच्छे-अच्छे शब्द खोज लेता है आदमी। इसको आत्म-निर्भरता कहते हैं!
मनीषा, तू पूछती हैः आप रोज-रोज पतियों के पक्ष के बोल कर...। उनको जरूरत है बेचारों को। उनको बेचारे समझो। उनके पक्ष में नहीं बोल रहा हूं, सिर्फ उनको थोड़ी सी बैसाखियां दे देता हूं कि लो भैया! तुम्हारी टांगें तो टूट चुकी हैं, हाथ तो कट चुके, ये बैसाखियां ले लो। किसी तरह टेक-टेक कर चल सको तो अच्छा है। थोड़ी बैसाखियां देता हूं बस, और कुछ नहीं। मगर मैं जानता हूं कि ये बैसाखियां भी ज्यादा देर तक काम नहीं आतीं, पत्नियां छीन लेंगी। इन्हीं बैसाखियों से इनकी कुटाई हो जाएगी।
कोई स्त्री दुखी नहीं होती है मेरे इन मजाकों से। सच तो यह है कि मैं स्त्रियों को ज्यादा प्रसन्न देखता हूं। जब मैं पतियों को फुलाने की कोशिश करता हूं तो वे जानती हैं कि अच्छा फुला लो, कोई बात नहीं। फुग्गे हैं, जरा सी सुई चुभा देंगे, फट्ट हो जाएंगे। स्त्रियों के पक्ष में मैं कोई मजाक नहीं करता। मारों को और क्या मारना! पति तो बेचारे पिटे-कुटे हैं, अब इनको और क्या मारना? इनको थोड़ी सी मलहम-पट्टी की जरूरत है। स्त्रियों को कोई मलहम-पट्टी की जरूरत नहीं। सच तो यह है कि पतियों को पुनः आत्मवान होने की आवश्यकता है। पत्नियां तो काफी आत्मवान हैं, बलवान हैं। उनका बल और ढंग का है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता। पतियों का बल उपरी है; वह मसल का है, शरीर का है, ऊंचाई का है, कद का है, हड्डी-मांस-मज्जा का है, शारीरिक है। स्त्री का बल थोड़ा हार्दिक है, थोड़ा गहरा है। इसलिए दिखाई नहीं पड़ता ऊपर से, थोड़ा अदृश्य है। मगर स्त्री सदा ज्यादा बलवान रही है और सदा बलवान रहेगी।
यह जानना तुम्हें चाहिए कि स्त्रियां पुरुषों से पांच साल ज्यादा जिंदा रहती हैं। क्यों? यह भी तुम्हें जानना चाहिए कि एक सौ पंद्रह लड़के पैदा होते हैं और सौ लड़कियां पैदा होती हैं। लेकिन शादी की उम्र आते-आते संख्या बराबर हो जाती है, पंद्रह लड़के सफा हो जाते हैं। प्रकृति भी उतना हिसाब रख कर चलती है--मार्जिन। पंद्रह ज्यादा पैदा करती है। पैदायश के वक्त संख्या सौ लड़कियों की और एक सौ पंद्रह लड़कों की, क्योंकि प्रकृति को भी पता है ये कमजोर प्राणी हैं। इनमें से पंद्रह प्रतिशत तो फट्ट हो ही जाने वाले। चैदह साल की उम्र के पहले ही फट्ट हो जाने वाले हैं। फिर बाद में फट्ट होते रहेंगे, वह तो अलग बात है। चैदह साल तक ही न पहुंच पाएंगे।
यह तुमने देखा होगा कि लड़के ज्यादा बीमार पड़ते हैं लड़कियों की बजाय। यह भी तुमने देखा होगा कि स्त्रियां शारीरिक रूप से दुर्दिन को, कठिनाई को, परेशानी को झेलने में ज्यादा समर्थ होती हैं, पुरुषों की बजाय। पुरुष तो एकदम टूट जाते हैं। जरा सी बात तोड़ देती है। उनका बल ऊपरी-ऊपरी है, भीतर बिलकुल निर्बल हैं।
पुरुष ज्यादा पागल होते हैं, ज्यादा आत्महत्या करते हैं। स्त्रियां आत्महत्या की बातचीत करती हैं ज्यादा, करती-कराती नहीं। और करती भी हैं तो हिसाब-किताब से। दो-चार गोली खा लेंगी इतने हिसाब से कि सुबह एक घंटे जरा ज्यादा नींद आ जाएगी, उतने में ही पति को काफी पसीना छुड़वा देंगी। और पति के प्राण निकल जाएंगे कि अब मारे गए, कहीं पुलिस न आती हो! अब डाक्टर को बुलाओ। और कुल मामला इतना है कि अगर एक साड़ी ले देता तो वह आत्महत्या करती नहीं। की उन्होंने है भी नहीं अभी। यह भी हो सकता है कि गोली खाने का सिर्फ बहाना किया हो और आंखें बंद किए हुए पड़ी हों, होश में हों बिलकुल। मगर पति हिला-डुला रहा हो, हाथ उठा रहा हो और उनका हाथ गिर-गिर जा रहा हो! स्त्रियों का अपना तर्क है।
बचपन की दो सहेलियां काफी वर्षों बाद अचानक बाजार में मिल गईं। पहल बोलीः उफ्! तू तो कितनी बदल गई है री! मैं तो पहचान ही नहीं पाई एकदम से!
दूसरी बोलीः हाय रे, तू भी तो कितनी बदल गई है! वह तो अच्छा हुआ कि मैं तेरी साड़ी और सैंडिलें देख कर एकदम से तुझे पहचान गई।
स्त्रियां जीती हैं साड़ी और सैंडिलों में। नहीं तो जान हाजिर है। अभी जान दिए देते हैं। अभी कूद कर मर जाएंगे, फांसी लगा लेंगे। पति सोचता है एक साड़ी लाना बेहतर है, बजाय उपद्रव मचाने के, मोहल्ले भर को इकट्ठा करने के, बदनामी सहने के। बच्चे क्या कहेंगे! लोग क्या कहेंगे! डाक्टर क्या कहेगा! अगर पुलिस को खबर हो गई! कहीं अखबार में छप गई खबर! साड़ी लो, सैंडिल लो, जो चाहिए लो।
पत्नी के मरने के कारण भी बड़े और होते हैं, पति की समझ के बाहर होते हैं। मरती-करती भी नहीं। पत्नियां ज्यादा बलशाली हैं--मेरे हिसाब में। वैज्ञानिकों के हिसाब में भी ज्यादा बलशाली हैं। और प्रकृति ने उन्हें बलशाली बनाया है, क्योंकि उनसे काम लेना है, एक महत्वपूर्ण काम लेना है। पुरुष से तो कुछ खास महत्वपूर्ण काम प्रकृति को लेना नहीं है। पति तो बिलकुल ही अप्रासंगिक जैसा है। अगर तुम प्रकृति को देखो तो पति है ही नहीं वहां। यह तो मनुष्यों के द्वारा ईजाद की गई संस्था है, कृत्रिम है। और एक दिन विदा हो जाएगी। यह संस्था ज्यादा दिन चलने वाली नहीं है, इसके दिन लद गए, यह खत्म होने के करीब है। यह सड़ भी चुकी है। इसका समय पूरा हो चुका। प्रकृति में तो पति-पत्नी का कोई सवाल ही नहीं उठता। मां होती है, पिता तो होता ही नहीं। मां जरूरी है। मां के बिना तो प्रकृति का क्रम रुक जाएगा, सृष्टि रुक जाएगी। मां के बिना तो बच्चे का क्या होगा? नौ महीने कौन उसे पेट रखेगा? कोई पुरुष एकाध दफा तो नौ महीने बच्चे को पेट में रख कर बता दे! पेट में रखना तो दूर, पेट के ऊपर ही रख कर बता दे! या तो बच्चे को मार डालेगा या खुद मर जाएगा, दो में से कुछ न कुछ कर लेगा। एक रात बच्चे के साथ बिस्तर पर सो कर तो बता दे! रात भर बच्चा सताएगा--कहीं कहेगा पेशाब लगी, कहीं कहेगा भूख लगी, कहीं कहेगा यह चाहिए, कहीं कहेगा वह चाहिए। रात भर उपद्रव मचाए रखेगा। बच्चे भी खूब हैं, दिन में सोएंगे, रात सताएंगे! और जरा गड़बड़ करो तो ऐसा जोर से फुक्कारा फोड़ेंगे कि मोहल्ले भर में खबर हो जाए। रोएंगे, चीख-पुकार मचाएंगे। सोने तो नहीं देंगे। वे तो स्त्रियां हैं कि सह लेती हैं। पुरुष की नींद अगर दस-पांच दफा टूट जाए रात में तो वह सुबह बिलकुल मुर्दा हो जाएगा। स्त्री की कितनी ही दफा टूट जाए, वह फिर सो जाती है। सुबह मुर्दा नहीं होती। सुबह ताजी उठती है। बच्चे को सम्हाल भी लेती है, उसका कपड़ा भी बदल देती है रात में। वह पेशाब भी कर लेगा, वह पाखाना भी कर लेगा; वह सब करती रहेगी। फिर भी उसके धैर्य की क्षमता बहुत है। उसको सहने की भी क्षमता बहुत है। प्रकृति ने उसे बनाया है उस योग्य।
पुरुष की क्षमता नहीं है। पुरुष का काम तो बहुत ही छोटा सा है--एक इंजेक्शन का काम है ज्यादा से ज्यादा उनका। तो अब कोई भी इंजेक्शन कर देता है। पशुओं में तो तुम देखते ही हो आर्टीफीसियल इनसेमिनेशन, कृत्रिम संतानोत्पत्ति। डाक्टर आकर एक इंजेक्शन लगा देता है गऊमाता को, पर्याप्त! कोई सांड पिता को बुलाने की जरूरत नहीं है। सांड चाहे रहता हो इंग्लैंड में--अक्सर इंग्लैंड में रहते हैं! इंग्लैंड के सांड जरा जोरदार हैं। मगर उनके वीर्यकण आ जाते हैं इंजेक्शनों में भर कर। यहां इंजेक्शन दे दो। और हिंदुओं को भी शर्म नहीं आती कि अंग्रेज साडों से और हिंदू गऊमाताओं का कैसा संयोग करवा रहे हैं! न संकोच है, न लाज है! अरे शर्म से मर जाओ, चुल्लू भर पानी में डूब मरो! कुछ तो सोचो, क्या कर रहे हो? इससे ज्यादा और संस्कृति का क्या पतन होगा!
एक गांव में बाप को काम से जाना था, तो अपनी बेटी से कह गया--देहाती बेटी, उससे कह गया कि डाक्टर आने वाला है, वह गऊमाता को बच्चा पैदा करवाने के लिए। सो तू गर्म पानी करके रख देना बाल्टी में, और भी कुछ जरूरत हो डाक्टर को तो इंतजाम कर देना। और मुझे मजबूरी में जाना पड़ रहा है, सो तुझे फिकर करनी पड़ेगी।
उसने कहाः मैं फिकर कर लूंगी। उसने गरम पानी बाल्टी में करके रख दिया! और गऊएं कई थीं किसान के पास । सो उसने कहाः देख, यह जिस गऊ को बच्चा पैदा करवाना है, उसके खूंटे पर मैंने खीला गाड़ दिया है, ताकि तुझे याद रहे कि कौन सी गऊ, नहीं तो तू भूल-भाल जाए।
उसने कहाः ठीक है। उसने खीला भी देख लिया। फिर डाक्टर आया, तो उसने डाक्टर को कहा कि आइए। गरम पानी की बाल्टी ले जाकर रखी और कहा कि यही गऊ है जिसके खूंटे पर खीला गड़ा हुआ है।
डाक्टर ने पूछाः खीला किसलिए गड़ा हुआ है।
उसने कहाः आप पैंट कहा ंटांगेंगे? और क्या मैं भी यहां खड़े होकर देख सकती हूं?
उसको बेचारी को क्या पता कि यह बेचारा इंजेक्शन लगाएगा कि क्या करेगा, क्या नहीं करेगा? उसने सोचा कि बाप खीला जो ठोंक गया है, वह मतलब यह होगा कि पैंट कहां टांगेगा यह डाक्टर! और विस्मय उसके मन में होगा स्वभावतः, कि जरा मैं भी तो देखूं कि यह आदमी है कैसा कि गऊमाता के साथ ऐसा व्यवहार करते शर्म नहीं आती!
डाक्टर ने कहाः भाग छोकरी! तुझे कुछ अकल है क्या कह रही है? तू अपना काम कर!
जो आज पशुओं में हो रहा है, वह कल पुरुषों में, मनुष्यों में भी होगा। होना चाहिए, क्योंकि वैज्ञानिक है। बजाय हर कोई मरा-खुरा आदमी बच्चे-कच्चे पैदा करे, मरियल, उससे बेहतर है कि सुंदर, और श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली व्यक्तियों के वीर्याणु उपलब्ध हो सकें। जो पशुओं के साथ है वह मनुष्यों के साथ हो सकता है।
इसलिए भविष्य में ध्यान रखो, पिता की कोई जगह रह जाने वाली नहीं है। पैंट-मैंट टांगने के लिए कोई आवश्यकता नहीं रह जाने वाली। खूंटी वगैरह लगाने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाने वाली। खीली-वीली ठोंकना ही मत। पिता के दिन लद गए। देर-अबेर कितनी ही लग जाए, मगर पिता के दिन लग गए। पिता नहीं होगा भविष्य में, भविष्य फिर मातृ-सत्ताक होगा। जब शुरू हुआ था मनुष्य की यात्रा का पहला पड़ाव, तो समाज मातृ-सत्ताक था, फिर पितृ-सत्ताक हुआ। फिर पिता की सत्ता आई, क्योंकि पिता में एक दंभ पैदा हुआ कि मेरे बच्चे ही मेरी संपत्ति के मालिक होने चाहिए।
कार्ल माक्र्स सच है इस संबंध में कि व्यक्तिगत संपत्ति के कारण ही पति और पत्नी की प्रथा शुरू हुई, क्योंकि बाप को यह शक बना रहा कि अगर पत्नी मुक्त रहे तो पता नहीं किसके बच्चे! और मैं संपत्ति जिंदगी भर कमाऊं और न मालूम किसके बच्चे उसके मालिक हो जाएं! तो मेरी कमाई जिंदगी भर की बेकार गई।...यूं भी बेकार जाने वाली है, किसके बच्चे मालिक होते हैं, क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारे हुए कि किसी और के हुए, क्या फर्क पड़ने वाला है? तुम तो गए सो गए। कोई न कोई तो मालिक होगा। मगर आदमी का अहंकार कि मेरा ही बच्चा, कम से कम मेरी ही एक शाखा मालिक रहेगी! इसलिए पत्नी को बिलकुल घेर कर रखो। इसलिए लड़की कुंआरी होनी चाहिए विवाह के वक्त। पुरुष की कोई बात नहीं। हम कहते हैंः पुरुष तो पुरुष हैं, इनकी कोई बात नहीं! लेकिन लड़की कुंआरी होनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि लड़की पहले से ही गर्भवती हो और किसी का बीजांकुर लेकर घर में आ जाए और बच्चा पैदा हो, वह किसी और का हो और वह सारी संपत्ति का मालिक हो जाए!
नसरुद्दीन का जब पहली दफा विवाह हुआ तो छह महीने में ही बच्चा पैदा हो गया। वह बड़ा चिंतित हुआ। मोहल्ले के लोग हंसने लगे। लोग कहने लगेः बड़े मियां, कुछ समझे?
नसरुद्दीन ने कहा कि क्या समझे इसमें। डाक्टर के पास गया। डाक्टर से कहाः आप समझाएं। लोग कहते हैं, कुछ समझे? मेरी कुछ समझ में आता नहीं।
डाक्टर ने कहाः बिलकुल चिंता मत करो। पहली बार अक्सर ऐसा होता है। मगर दुबारा अब कभी ऐसा नहीं होगा। पहली बार अभ्यास नहीं होता न स्त्रियों को, कभी छह महीने में बच्चा दे देती हैं, कभी सात महीने में दे देती हैं।
डाक्टर होशियार था, बूढ़ा आदमी था, अनुभवी था। उसने कहाः मैं अनुभव से कहता हूं। पहली दफा यह अक्सर हो जाता है, अभ्यास नहीं होने से। कब देना, पता क्या? फिर जब अभ्यास हो जाएगा तो हमेशा नौ महीने में देंगी बच्चा, तुम घबड़ाओ मत। दुबारा कभी ऐसी गड़बड़ नहीं होगी।
और जब दुबारा नौ महीने में बच्चा पैदा हुआ तो नसरुद्दीन ने घूम कर मोहल्ले में कहाः समझे? समझे कुछ कि नहीं?
उन्होंने कहाः क्या समझना है इसमें?
उसने कहाः नहीं समझ में आया हो तो हो डाक्टर से समझ आओ। अरे पहली दफा यूं हो ही जाता है। लड़की है, जाने क्या! कुंआरी लड़की, अनुभव नहीं है।
आदमी ने कब्जा किया स्त्री पर, मालकियत जाहिर की उसके ऊपर--सिर्फ इस कारण कि उसकी संपत्ति पर मालकियत बनी रहे। लेकिन अब तो संपत्ति भी समाज की हो जाएगी। देर-अबेर। और पिता भी अवैज्ञानिक हो जाएगा। लेकिन मां अवैज्ञानिक नहीं होगी। फिर मातृ-सत्ताक जगत आने के करीब है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आपने आश्रम में सारा महत्वपूर्ण काम स्त्रियों को क्यों दे रखा है?
यह आश्रम भविष्य का सूचक है। जो कल होने वाला है, वह यहां आज हो रहा है। जान कर ही मैंने यह किया हुआ है। इस आश्रम को मैं प्रतीक बनाना चाहता हूं कि भविष्य में जो होगा, उसका यह प्रतीक है।
और स्वभावतः स्त्रियां जिस कुशलता से काम करती हैं, पुरुष नहीं कर सकता। पुरुष का काम थोड़ा अनगढ़ होता है। उसमें वह स्पष्टता, सौंदर्य, प्रसाद नहीं होता। इस आश्रम में तुम्हें जो सौंदर्य और प्रसाद दिखाई पड़ेगा, वह स्त्रियों के कारण है। इसलिए जो भी काम स्त्रियों से हो सकता है, वह मैं पहले स्त्रियों को ही देता हूं। स्त्रियों के प्रति मेरे मन में बहुत आदर है।
इसलिए मनीषा, मैं अगर तुम्हारे कभी मजाक और व्यंग्य उड़ाता हूं, तो चिंता न लेना। उससे मेरे आदर में जरा भी कभी नहीं है। मेरा जितना आदर स्त्रियों के प्रति है, संभवतः किसी पुरुष का कभी पूरे इतिहास में नहीं रहा है।

आखिरी प्रश्नः ओशो! मैं भी मारवाड़ी हूं। क्या मेरे लिए कोई आशा है?

हरिकृष्ण! मारवाड़ी से तो भगवान भी हारा। तुम्हारे लिए आशा ही आशा है। तुम चिंता न करो। तुम तो जहां जाओगे वहीं सफल होओगे। तुम तो जो करोगे वहीं सफल होओगे। सफलता का राज कोई सीखे तो तुमसे सीखे। मारवाड़ी हारना जानता ही नहीं। मारवाड़ी निराश होना जानता ही नहीं। तुम क्यों चिंतित होते हो?
एक कैदी ने दूसरे मारवाड़ी कैदी से पूछा कि तुम यहां कैसे और क्यों आए?
मारवाड़ी ने कहाः सरकार से मेरी जिद चल रही थी।
पहले ने पूछाः क्या मतलब?
मारवाड़ी बोलाः मैं भी सरकार की तरह नोट बनाता था।
सरकार से जिद चल रही थी! मारवाड़ी की जिद भगवान से भी चलती है। और भगवान को ही हारना पड़ता है। तुम बिलकुल फिकर मत करो।
एक व्यक्ति जाली नोट छापता था। एक मर्तबा गलती से पंद्र्रह रुपये का नोट छप गया। उसने सोचा, शहर में तो कोई बेवकूफ बनेगा नहीं, इसलिए गांव में जाकर एक रुपये का सामान एक मारवाड़ी से खरीदा और चैदह रुपये वापस मांगे। मारवाड़ी ने सात-सात के दो नोट वापस कर दिए! उस व्यक्ति ने तो सोचाः चलो न सही पंद्र्रह रुपये का, कम से कम एक रुपये का तो फायदा हो ही गया! मारवाड़ी ने भी एक रुपये का तो आखिर सामान दे ही दिया! वह खुश था। जब उसने घर जाकर सामान का पैकेट खोला तो सिर्फ एक चिट निकली, जिसमें लिखा थाः हम भी यही काम करते हैं।
मारवाड़ी होकर और हारने की बात! कभी भूल कर नहीं करना। निराशा की बात मारवाड़ी को शोभा देती ही नहीं।
चंदूलाल मारवाड़ी अपने पुत्र के साथ किसी भोज में गया था। जैसा कि उसकी पुरानी आदत थी, उसने दिल खोल कर भोजन का आनंद लिया। पूरी पर पूरी और रसगुल्ले पर रसगुल्ले रुके ही न! तभी उसने देखा कि उसका बेटा भोजन के बीच-बीच में पानी भी पीता जा रहा है। उसे तो बड़ा क्रोध आया। उसने कहा कि इस मूढ़ को मैं कहां ले आया! अरे भोज में भी कोई पानी पीता है! अरे पानी ही पीना है तो घर चल कर पी ले, यहां तो जितना खा सके खाता जाए। कुछ कह तो सकता नहीं था, मगर बीच-बीच में लड़के को हुद्दे मारता था। मगर लड़का है कि समझे ही न। वह बीच-बीच में पानी पीता ही रहा। लेकिन जैसे ही घर आए, उसने जोर से एक चपत बेटे को लगाई और कहा कि नालायक, आखिर भोज में पानी पीने की जरूरत क्या थी? अरे पानी भी कोई पीने की चीज है? और मैं तुझे इतने हुद्दे मारता रहा और अकल के दुश्मन! तू हुद्दे का मतलब भी नहीं समझा!
बेटे ने कहाः आप नाहक मुझे मारते हैं। देखिए, अभी आपको प्रयोग करके दिखाता हूं कि पानी पीने से आदमी और भी ज्यादा भोजन कर सकता है।
यह कह कर वह एक बर्तन में राख भर कर ले आया और उसने एक गिलास पानी उस राख में डाला। पानी डालते ही राख नीचे चली गई और बर्तन में कुछ स्थान खाली हो गया। यह देख चंदूलाल ने बेटे को एक चपत और रसीद की। बेटा बोला कि अब क्यों मारते हैं? अब तो मैंने प्रयोग भी करके बता दिया!
चंदूलाल बोले कि अरे नालायक, यह बात पहले क्यों नहीं बताई? अरे पहले बता देता तो हम भी पानी पीकर जगह बनाते।
और लड़का बोलाः इसलिए तो तुम्हारे हुद्दों की मैं फिकर नहीं कर रहा था, क्योंकि जितने तुम हुद्दे दे रहे थे उतने ही मेरे भीतर चीजें ठहरती जा रही थीं नीचे, बैठती जा रही थीं नीचे। सो मैं सोच रहा था वाह क्या हुद्दा मारा, एक रसगुल्ला और भीतर गया!
तुम पूछते हो हरिकृष्णः ‘क्या मेरे लिए कोई आशा है?’
आशा तो है। मारवाड़ी होना छोड़ना पड़े। और मारवाड़ी होना कोई आत्मा का लक्षण थोड़े ही है। मैं तो किसी शास्त्र में नहीं देखा कि मारवाड़ी होना किसी आत्मा का लक्षण हो। न तो आत्मा मारवाड़ी होती, न मद्रासी होती है। मारवाड़ी और मद्रासी, चीनी और जापानी, हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी--सब मन के खेल हैं। और मन से ही उठने के लिए तो संन्यास है। मन से ही पार जाने के लिए तो ध्यान है। मन के पार गए कि फिर कहां मारवाड़, फिर कहां मद्रास! मन के पार गए कि सब पीछे छूट गया--म्हारो देश मारवाड़! सब बहुत पीछे छूट जाते हैं। वहां फिर तो शुद्ध चैतन्य साक्षी ही बचता है।
तुम चिंता न लो। अभी संन्यास तुमने लिया नहीं, मगर मारवाड़ी हो, हिसाब लगा रहे हो कि लेना कि नहीं लेना, फायदा क्या होगा, हानि क्या होगी, आशा है कि आशा नहीं है? हिसाब-हिसाब रखोगे तो चूकोगे। यह तो दुनिया हिसाब-किताब रखने वालों की नहीं है। यहां तो हिसाब-किताब खोने वालों का काम है। डरो मत, छलांग लो! आशा ही आशा है। निराशा का कोई कारण ही नहीं है, क्योंकि तुम्हारे भीतर स्वयं परमात्मा विराजमान है।
लेकिन कब तक झिझकोगे? तीन-चार बार तुम यहां आ चुके। बार-बार आकर सोचते हो--संन्यास लेना कि नहीं लेना! आते हो, चले जाते हो। ऐसे आने-जाने की अगर आदत बन गई तो फिर निराशा हाथ लगेगी। क्योंकि तुम यहां आओ और दर्शक की भांति चले जाओ, तो तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा। यहां तो डुबकी मारो। यहां तो उतरो इस सागर में। और सागर में उतरने के लिए हिम्मत तो चाहिए ही! और हिसाब-किताब वाले लोग सागरों में नहीं उतरा करते। सागरों में उतरने के लिए साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए।
संन्यास इस जगत में सबसे बड़े साहस का कृत्य है। परमात्मा तुम्हें साहस दे! तुम्हारा नाम तो बड़ा प्यारा है--हरिकृष्ण! इस नाम को सार्थक करो। छलांग लो। कहां की छोटी-छोटी बातों में उलझे हो--मारवाड़ी, गैर-मारवाड़ी! यहां कोई कुछ नहीं है। यहां कितने मारवाड़ी डूब गए, तुम देखते नहीं? एक बार डूबे कि डूबे, फिर कौन मारवाड़ी बचता है?
यहां सब तरह के लोग हैं। यहूदी यहां हैं, मारवाड़ी तो क्या उनका मुकाबला करेंगे? मारवाड़ी तो बेचारे समझो छोटे पैमाने पर भारतीय ढंग के यहूदी हैं। यहूदी तो जागतिक मारवाड़ी हैं--मगर यहां यहूदी डूबे हुए हैं--यूं डूबे हुए हैं कि भूल ही भाल गए-- सारा हिसाब-किताब, सारा गुणनफल, सारा तर्कजाल...। गणित का यह काम नहीं। प्रेम का यह काम है। और जहां प्रेम है, वहां आशा है। जहां प्रेम है, वहां सूर्योदय है।

आज इतना ही।

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