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रविवार, 11 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

छाया मत छूना मन


प्रश्न-सार:


01-जब भी मैं किसी व्यक्ति के साथ आपकी करुणा और प्रेम-भाव के बारे में बातचीत करता हूं, तो आवाज रुंध जाती है, शब्द खो जाते हैं और पोर-पोर रोना आ जाता है, तब लगता है, मैं आपके अत्यंत निकट हूं। कृपया बताएं कि मैं आपकी अनंत अनुकंपा का ऋण कैसे चुकाऊं?

02-वर्षों से एक प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठ रहा था। सोचा था, आपसे प्रश्न का समाधान मिल जाएगा, किंतु यहां आकर मेरा प्रश्न तो क्या, मैं ही खो गया हूं। ऐसा क्यों?

03-क्या तृष्णा-रहित जीवन ही भगवत्ता है? साथ ही आपसे जो सुख मिला है, उसके लिए धन्यवाद देता हूं।


पहला प्रश्नः ओशो, जब भी मैं किसी व्यक्ति के साथ आपकी करुणा और प्रेम-भाव के बारे में बातचीत करता हूं, तो आवाज रुंध जाती है, शब्द खो जाते हैं और पोर-पोर रोना आ जाता है। तब लगता है मैं आपके अत्यंत निकट हूं। कृपया बताएं कि मैं आपकी अनंत अनुकंपा का ऋण कैसे चुकाऊं?

चंद्रकांत भारती! यह स्वाभाविक है। प्रेम के पास कोई भाषा नहीं। प्रेम की भाषा मौन है। लेकिन प्रेम बोलना चाहता है। एक गहन अभीप्सा है प्रेम में..स्वयं को अभिव्यक्त करने की। अभिव्यंजना का कोई उपाय नहीं, अभिव्यक्ति की प्रबल अभीप्सा है। इससे रोना आ जाता है। कहना चाहते हैं; बिना कहे नहीं रहा जाता है। बांटना चाहते हैं; बिना बांटे नहीं रहा जाता है।
जैसे सूरज निकलेगा तो रोशनी बिखरेगी। जैसे फूल खिलेंगे तो सुगंध उड़ेगी। वैसे ही, जब प्रेम हृदय में घना होगा तो अभिव्यक्त होना चाहेगा। और अड़चन यह है कि प्रेम के पास अभिव्यक्ति का कोई उपाय नहीं है, कोई माध्यम नहीं। ऐसी दुविधा में उलझ कर, पोर-पोर रुदन उठे, आंखों से आंसू झरें तो आश्चर्य नहीं..विवशता के कारण; उस बेबसी के कारण, कि आज कहने को कुछ है और भाषा नहीं मिलती। कल जब कहने को कुछ भी नहीं था, कितनी भाषा थी। कल जब बांटने को कुछ भी न था, बांटने के सब उपाय उपलब्ध थे। आज बांटने को कुछ है, सब सेतु खो गए, सब उपाय खो गए, कोई विधि नहीं सूझती। क्यों ऐसा हो जाता है? इसलिए हो जाता है कि प्रेम शब्दों से बहुत बड़ा है। शब्द बड़े छोटे हैं। जैसे बूंद में कोई सागर को समाना चाहे, ऐसे शब्दों में प्रेम को भरने की चेष्टा है। प्रेम उतना ही बड़ा है जितना बड़ा परमात्मा है। उसकी कोई सीमा नहीं।
मनुष्य के जीवन की गहराइयों में परमात्मा का अनुभव प्रेम की भांति ही होता है। ‘परमात्मा’ तो उसी अनुभव को नाम दिया है। परमात्मा तो मात्र नाम है, अनुभव तो प्रेम का है। अनिर्वचनीय है अनुभव! सब व्याख्याएं पीछे छूट जाती हैं। शब्द कामचलाऊ हैं..बाजार में, दुकान में, व्यवसाय में, रोजमर्रा की जिंदगी में उनका उपयोग है। वस्तुओं के संबंध में उनका उपयोग है, अनुभूतियों के संबंध में उनका कोई उपयोग नहीं। शब्द विषयगत हैं, और प्रेम अंतरात्मा की प्रतीति है। प्रेम कोई विषय नहीं है। विषय होता तो कह पाते तुम और कह कर प्रसन्न हो पाते, आह्लादित होते, अपनी पीठ, अपने हाथ ठोक लेते। नहीं कह पाते हो, रोओगे नहीं तो क्या करोगे! लेकिन वे आंसू कुछ कह जाते हैं। जो शब्द नहीं कह पाते, वे आंसू कर जाते हैं। आंसू अपूर्व हैं! आंसू दुख के ही नहीं होते, महासुख के भी होते हैं।
प्रेम में बहे आंसू प्रार्थनापूर्ण हैं। उनमें सुगंध प्रार्थना की है। उनमें हजारों आरतियां हैं, अर्चनाएं हैं। और अभिव्यक्ति है, जो जबान नहीं कह पाती, जिसके लिए जबान अचानक बेजुबां हो जाती है। आंखें उसे कहने लगती हैं।
आंखें मनुष्य के पास सर्वाधिक संवेदनशील साधन हैं। आंखों से ज्यादा संवेदनशील हमारे पास और कुछ भी नहीं है। इसलिए अंधे पर जितनी दया आती है उतनी दया और किसी पर नहीं आती..लंगड़े पर नहीं आती, लूले पर नहीं आती, बहरे पर नहीं आती। अंधे पर जितनी दया आती है उतनी किसी पर नहीं आती। कारण? सर्वाधिक संवेदनशील जीवन की जो क्षमता थी, उस बेचारे के पास नहीं है। लंगड़े के लिए, लूले के लिए, बहरे के लिए, हमने कोई सुंदर शब्द नहीं बनाए। अंधे को अंधा कहने में हमें अड़चन होती है; उसे हम कहते हैं..सूरदास जी। उसे अंधा कहने में हमें पीड़ा होती है। अंधा कहने में भी लगता है: अब और इस मारे को क्या मारना! इस दीन को और क्यों दीन करना! लंगड़े को हम लंगड़ा ही कहते हैं। लूले को लूला ही कहते हैं। बहरे को बहरा ही कहते हैं। सिर्फ अंधे के लिए हमने नाम खोजा है..सूरदास। और भी एक सुंदर नाम खोजा है अंधे के लिए, उसको हम कहते हैं..प्रज्ञाचक्षु। प्रज्ञाचक्षु का अर्थ होता है: जिसके पास चमड़े की आंख तो नहीं, लेकिन चेतना की आंख है। सांत्वना दे रहे हैं कि मत घबड़ा, नहीं है तेरे पास चमड़े की आंख, चिंता मत कर..बोध की आंख तो है, चेतना की आंख तो है! ढाढस बंधाते हैं उसे, साहस बंधाते हैं उसे।
सबके पीछे एक कारण है कि आंख मनुष्य के जीवन-अनुभव में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए जिन्होंने परमात्मा को जाना, उनको हमने द्रष्टा कहा, श्रोता नहीं कहा। क्यों द्रष्टा? आंख से क्यों जोड़ा? इस देश में तो हम तत्व-शास्त्र को दर्शन कहते हैं। ठीक कहते हैं, वही ठीक शब्द है..देखने की कला। हमने उस परम अनुभूति की जो प्रतीति होती है, उस प्रतीति के लिए जो केंद्र माना, उसको तीसरी आंख कहा, शिव-नेत्र कहा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं..शरीर शास्त्री भी उससे राजी हैं..कि मनुष्य को जितनी संवेदनाएं होती हैं उनमें अस्सी प्रतिशत आंख से होती हैं, बीस प्रतिशत ही दूसरी और चार इंद्रियों पर बंटती हैं। मतलब..और इंद्रियों के हाथ में पांच प्रतिशत ही पड़ता है एक-एक इंद्रिय के हाथ में। और आंखों के हाथ में है अस्सी प्रतिशत। अगर तुमसे कोई कहे कि कोई भी एक इंद्रिय बचा लो, तो तुम क्या बचाना चाहोगे? बस आंख बचाना चाहोगे। आंख बची तो अस्सी प्रतिशत बच जाओगे। आंख गई, तो बाकी चार इंद्रियां भी बच जाएं तो भी बीस प्रतिशत ही बचोगे। और एक ही इंद्रिय बचे तो केवल पांच प्रतिशत ही बचोगे।
और आंखों की भाषा है आंसू। तो जब भी कोई अनुभूति बहुत गहन हो जाती है..ऐसी कि शब्दातीत..तब आंसू झर पड़ते हैं। चाहे दुख हो, बहुत गहन, कि तुम कह न सको, कि शब्द ओछे..थोथे मालूम पड़ें, कि शब्दों का उपयोग करना ही अवांछनीय मालूम हो, तो आंखें झर पड़ती हैं। या आनंद हो, प्रेम हो, समाधि लगे, तो भी आंखों से झर-झर आंसू गिर जाते हैं। आंसू तो केवल इस बात की खबर देते हैं कि तुम्हारे भीतर कुछ घट रहा है, जिसे अब तुम समा नहीं सकते हो। बाढ़ आई है..फिर दुख की हो, सुख की हो, प्रेम की हो, बाढ़ होनी चाहिए, किसी भी भाव-दशा की बाढ़ हो।
चंद्रकांत, इसीलिए गला रुंध जाता होगा, शब्द खो जाते होंगे, रोना आ जाता होगा। और स्वभावतः उन घड़ियों में यदि तुम अनुभव करते हो कि मैं आपके अत्यंत निकट हूं, तो आश्चर्य नहीं। उन घड़ियों में तुम निकट हो ही। उन घड़ियों में तुम्हारा मन मिट गया। और जहां मन मिटा वहीं निकटता है। जब तक मन है तब तक दीवार है। जहां मन नहीं वहां दीवाल नहीं। जब नहीं कह पाते हो कुछ तो मन किंकर्तव्यविमूढ़ रह जाता है। पहली दफा अपने को नपुंसक पाता है, असमर्थ पाता है, असहाय पाता है। छिप जाना चाहता है। और सब जगह मन की गति है..गणित हो तो मन की गति है, विज्ञान हो तो मन की गति है। सिर्फ कुछ ही अनूठी अनुभूतियां हैं..प्रेम की, आनंद की, समाधि की..जहां मन की गति नहीं हैं; जहां मन अपने को अचानक पाता है मेरा कोई उपयोग नहीं; जहां मन पहली दफा व्यर्थ दिखाई पड़ता है; जहां मन बीच से हट जाता है। हटना ही पड़ता है उसे। तुम मन के पार उठ जाते हो।
और मन के पार हो तो गुरु के निकट हो, प्रकृति के निकट हो, परमात्मा के निकट हो। मन के पार हो तो अस्तित्व के निकट हो।
और ऋण की जरा भी चिंता न करो। किसका ऋण? मैंने तुम्हें कुछ दिया नहीं। तुम्हें लगता है कि मैंने तुम्हें कुछ दिया। वह तुम्हारे प्रेम का आभार। लेकिन मैंने तुम्हें कुछ दिया नहीं। तुम्हारे भीतर ही जो पड़ा था, उसकी ही तुम्हें सुधि दिला दी; उसकी ही तुम्हें..जैसा कल कबीर कहते थे, सुरति को चढ़ाओ..तुम्हें उसकी सुरति दिला दी। धन तुम्हारा था, चाबी भी तुम्हारे पास थी, सिर्फ भूल बैठे थे।
कभी-कभी ऐसा होता है न, किसी का नाम याद करना चाहते हो और कहते हो जबान पर रखा है और याद नहीं आता। वे क्षण बड़ी विडंबना के होते हैं, बड़ी बेचैनी लगती है। जबान पर रखी है बात और आती नहीं।
एक विज्ञान का शिक्षक अपने विद्यार्थियों से पूछ रहा था। उसने एक सूत्र दिया और कहा कि इसका अर्थ बताओ। जिस विद्यार्थी से पूछा, उसने कहा कि अर्थ मेरी जबान पर रखा है, मगर याद नहीं आ रहा। शिक्षक ने कहा थूक बेटा, जल्दी थूक, क्योंकि यह जहर है। यह जो सूत्र है, जहर का सूत्र है। यह जबान पर रखने की चीज नहीं। दो सेकेंड रह गए, मारे गए।
तुम्हें भी बहुत बार जीवन में अनुभव होता है, कोई चीज जबान पर अटकी रह जाती है।
मेरा काम कुल इतना है, तुम्हें याद दिला दूं। तुम्हें झकझोर दूं। तुम थोड़े सो गए हो, तुम्हें पुकार दे दूं। जैसे अलार्म की घड़ी, उसके तुम ऋणी थोड़े ही हो जाते हो, कि उसने सुबह तुम्हें उठा दिया तो तुम उसको जीवन भर अपने सिर पर लेकर ढोते रहोगे।
तुम्हारा प्रेम है तो तुम पूछते हो कि ऋण कैसे चुकाऊं, मगर ऋण इत्यादि की कोई बात ही नहीं। न मैंने तुम्हें कुछ दिया, न तुम्हें मुझे कुछ देना है। यह लेने देने का मामला नहीं। मेरे भीतर मेरा गीत जगा, मैं उसे गा रहा हूं। मैं भी मजबूर हूं, उसे बिना गाए रहा नहीं जा सकता। तुमने कृपा की कि सुन लिया। उस गीत ने तुम्हारे भीतर जाकर हलचल कर दी। तुम्हारे भीतर भी कड़ियां जमने लगीं। तुम्हारे भीतर भी धुन बजने लगी।
तुमने देखा न, कोई वीणा बजाए, तुम हाथ से थाप देने लगते हो! तबला बजता है, तुम्हारे पैरों में नृत्य जगने लगता है। बस ऐसा ही। सदगुरु के पास इतना ही होता है। उसने तबले पर थाप दे दी, तुम्हारे पैर नाचने लगे। उसने वीणा बजाई, तुम्हारी हृदय-तंत्री भी बज उठी। उसकी बजती वीणा को सुनते-सुनते तुम्हें याद आ गई अपनी वीणा की। बस याद आते ही क्रांति घटनी शुरू हो जाती।
इसलिए चंद्रकांत, कोई ऋण की बात नहीं है। सत्य कोई वस्तु थोड़े ही है, जिसे लिया दिया जा सके। मगर तुम्हारी मनोदशा मैं समझता हूं। लगता है प्रत्येक शिष्य को ऐसा। स्वाभाविक है कि अब कैसे चुकाऊं! इतना विराट अनुभव होने लगे तो स्वभावतः मन कहता है कि उऋण कैसे हो जाएं। मगर कोई उपाय नहीं है। न तो उऋण होने का कोई उपाय है, न कोई जरूरत है। यह तुम्हारा ही दीया है। तुम बाहर देखते थे, मैंने तुम्हें पुकार दी; कहा, जरा भीतर देखो; तुमने सुन ली और भीतर देखा। जैसे राह पर खड़े किसी सिपाही से तुम पूछ लो कि स्टेशन का रास्ता कौन सा है। फिर ठीक है धन्यवाद दे दिया और स्टेशन की तरफ चले गए। कुछ ऋण इत्यादि की बात नहीं है।

संध्या ने नील गगन में छिड़की है कुंकुम-लाली,
इस उर में, हाय, जगा दी किसकी ‘स्मृति’ मृदु मतवाली?

किस लाल-लाल मदिरा से भर गया हृदय का प्याला?
जल उठी अचानक जैसे फिर बुझी बुझाई ज्वाला

ब्रह्मांड अखिल करता है नर्तन आंखों में मेरी।
रवि, शशि, तारे देते हैं मेरे प्राणों में फेरी।

क्या घूम रहा आंखों में छाया-सा, धंुधलेपन-सा,
विस्मय-सा, कुतूहल-सा झिलमिल लघु शारद घन-सा

जिज्ञासा, गूढ़ पहेली, कुछ तत्व-ज्ञान दर्शन-सा,
सुर-धनु, विद्युत, हृत्स्पंदन, पीड़ा-सा, पागलपन-सा

कंपन-सा, प्रेम-पुलक-सा, शुचि प्रणय-ग्रंथि-बंधन-सा,
व्याकुलता, विरह-व्यथा-सा, मृदु मधुर अधर चुंबन-सा।

संध्या ने नील गगन में छिड़की है कुंकुम-लाली,
इस उर में, हाय, जगा दी किसकी ‘स्मृति’ मृदु मतवाली?

बस एक स्मृति जगा रहा हूं। जो तुम्हारा है, वही तुम्हें दे रहा हूं। इस सूत्र को ख्याल में रख लो। जो तुम्हारा नहीं है, वह तुमसे मुझे छीनना है; और जो तुम्हारा है वह तुम्हें ही मुझे दे देना है। इसलिए कैसा ऋण?
कुछ नासमझ हैं, जो नाराज हो जाएंगे, क्रोधित हो जाएंगे, क्योंकि उन्हें लगेगा कि मैं उनसे कुछ छीन रहा हूं। मैं तुमसे वही छीन रहा हूं जो तुम्हारा नहीं है और न कभी तुम्हारा हो सकता है। सच तो यह है, इतना ही नहीं कि तुम्हारा नहीं है, वरन है ही नहीं। तुम्हारा अहंकार तुमसे छीन रहा हूं, जो कि झूठ है, जो कि असत्य है। तुम्हारी मृत्यु की धारणा तुमसे छीन रहा हूं। जो कि अतथ्य है, न कभी हुई है, न कभी होगी। तुम्हारा भय तुमसे छीन रहा हूं, क्योंकि तुम्हारा भय जब तक है, तुम्हारा भगवान भी भय पर ही आधारित होगा।
और तुम्हें दे क्या रहा हूं? भय छिन जाए, तुम्हारे भीतर सोया निर्भय जग जाएगा। देना कुछ भी नहीं है। अहंकार हट जाए, आत्मा फूलों से लद जाएगी। मृत्यु की धारणा गिर जाए, उदघोष होने लगेगा..अमृतस्य पुत्रः! अमृत के पुत्र हो तुम! जो तुम पर कचरा-कूड़ा है, व्यर्थ है, छाया जैसा है, माया है..उसे छीन लेना है; और जो तुम्हारा है, उसके छीनते ही प्रकट हो जाता है।
उड़ो, अब तुम्हें पंख मिलने शुरू हुए चंद्रकांत! दूर की यात्रा पर निकलना है। प्रेम जगा है, इसे विराट से विराटतर करते जाना है..इतना जितना कि बड़ा आकाश है, कि चांद-तारे इसमें समा जाएं, कि यही प्रेम एक दिन तुम्हारे लिए परमात्मा का परम अनुभव हो।

पंख जागे..
नींद का अविचल
मुलायम थाप से टूटा:
सितारों के करोड़ों बीज
नम आकाश में डूबे,
उगी किरणें..तरुण तन, सिक्त मन, आसक्त आनन,
असित तम मानो किसी अभिशाप से छूटा:
सवेरा
खिलखिलाती जिंदगी से भर गया,
हर स्वप्न बीती रात का
हर फूल ने लूटा

पंख जागे,
और आगे..
थाम अपने कंपनों में
व्योम का निष्कंप
बढ़ते,
भूमि के संक्षेप में रख निज परिधि के मर्म..

जागे पंख
अपने अंग से आगे
धरा का मूढ़ आकर्षण तिरस्कृत कर।
अरे ये साहसी डैने
किधर? किस व्योम के संतुलन में घटते चले जाते?
प्रकृति का अदृश्य आलिंगन हटाते, जूझते-थकते चले जाते?

कहां अपने स्वयं से दूर
मिट्टी के सुनहले पंख जागे
भोर ही बढ़ते चले जाते?
बराबर और आगे...और आगे...
छिड़े, उद्यमी पंख जागे,
दूर
नभ के गर्भ में शिशुवत हुए जाते,
अजन्मे सूक्ष्म के अति पास;
अपनी मृत्यु से आगे।

पंख जागे..
नींद का अविचल
मुलायम थाप से टूटा:
सितारों के करोड़ों बीज
नम आकाश में डूबे,
उगी किरणें..तरुण तन, सिक्त मन, आसक्त आनन,
असित तम मानो किसी अभिशाप से छूटा:
सवेरा
खिलखिलाती जिंदगी से भर गया,
हर स्वप्न बीती रात का
हर फूल ने लूटा
पंख जागे, और आगे..

और यात्रा करनी है। पंख फड़फड़ाए हैं तुमने अब। ये आंखें जो प्रेम के आंसुओं से भर गई हैं, जल्दी ही अनंत के आलोक से भी भर जाएंगी। ये प्रेम के आंसू इन आंखों को निर्मल कर जाएंगे, स्वच्छ कर जाएंगे, इनकी धूल झाड़ जाएंगे।
रोओ, जी भर कर रोओ। जब प्रेम के आंसू आएं, स्वागत करो! घबड़ाना मत, घबड़ाना स्वाभाविक है। किसी से बात करते होओगे मेरे संबंध में और आवाज रुंध जाती होगी, तो जरूर संकोच लगता होगा, लज्जा लगती होगी। मत लज्जा करना, मत संकोच मन में लाना। शुभ लक्षण हैं। शब्द खो जाते होंगे।
और चंद्रकांत को मैं जानता हूं, शब्दों के धनी हैं। शब्दों के धनी व्यक्ति को जब शब्द खो जाते हैं तो बड़ी बेचैनी होती है, बड़ा ऊहापोह होता है..क्या करूं, क्या न करूं? कहां मुंह छिपा लूं? यह बोलते-बोलते कंठ का रुक जाना, यह शब्द का खो जाना और फिर आंखों का आंसुओं से भर जाना।
नहीं, मत छिपाना उन आंसुओं को। मोतियों से वे ज्यादा मूल्यवान हैं। उन्हें गिर जाने देना और धीरे-धीरे तुम अनुभव करोगे कि जो तुम नहीं कह पाए शब्दों से, वह आंसू कह गए हैं और बहुत कुशलता से कह गए हैं। तुम्हारे शब्द तो शायद कानों तक पहुंचते, तुम्हारे आंसू हृदय तक पहुंच जाएंगे। तुम बोलते तो शायद तर्क ही होकर रह जाता। तुम्हारा कंठ रुंध गया, अवरुद्ध हो गया, तो दूसरा भी पत्थर तो नहीं है, उसके भीतर भी कुछ घटेगा।
रही ऋण की बात, सो बिल्कुल भूल जाओ। मैंने तुम्हें कुछ दिया नहीं। तुम मुझे धन्यवाद भी दो, इसकी भी जरूरत नहीं है।

दूसरा प्रश्नः ओशो, वर्षों से एक प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठ रहा था। सोचा था, आपसे प्रश्न का समाधान मिल जाएगा। किंतु यहां आकर मेरा प्रश्न तो क्या, मैं ही खो गया हूं। ऐसा क्यों?

महादेव प्रसाद! यही है उत्तर, जिसकी तुम्हें सच में तलाश थी। सच्चे प्रश्नों के उत्तर नहीं होते। सच्चे प्रश्नों का गिर जाना ही उत्तर है। झूठे प्रश्नों के उत्तर होते हैं।
किसी से पूछो दो और दो कितने होते हैं, कोई भी उत्तर दे देगा, छोटा सा बच्चा उत्तर दे देगा कि दो और दो चार होते हैं। क्योंकि गणित मनुष्य की ईजाद है। प्रकृति में कहीं कोई गणित नहीं है। अगर आदमी खो जाए तो वृक्ष रहेंगे, समुद्र रहेंगे, पर्वत रहेंगे, चांद-तारे रहेंगे, गणित नहीं बचेगा। गणित बिल्कुल मनुष्य पर निर्भर है। पशु-पक्षियों को गणित से क्या लेना-देना! वृक्ष कोई गिनती करेंगे, बादलों को, चांद तारों को गणित से क्या लेना-देना! गणित मनुष्य की ईजाद है।
और तुम देखते हो, दुनिया भर में अलग-अलग देशों में, अलग-अलग जातियों में, अलग-अलग कालों में, लेकिन एक बात समान रही है गणित के बाबत कि सारी दुनिया के गणित-शास्त्रों में, गणित के अंक दस ही होते हैं। तुमने कभी सोचा कि क्यों। इसलिए क्योंकि आदमी की दस अंगुलियां हैं। अब भी तो गांव के लोग अंगुलियों पर ही गिनती करते हैं। दस अंगुलियों की वजह से दस आंकड़े और सारा गणित दस में पूरा है। दस पर बस आ जाता है। फिर दस के बाद तो पुनरुक्ति है..ग्यारह, बारह वह तो पुनरुक्ति है। फिर तुम कितनी ही पुनरुक्ति करते जाओ, मगर मूल गणित दस पर खतम हो जाता है। और क्यों खतम हो जाता है दस पर? संयोगवशात आदमी की दस अंगुलियां हैं; समझो कि नौ ही अंगुलियां होतीं तो नौ ही आंकड़े होते।
इस आधार को मान कर दुनिया के कुछ गणितज्ञों ने कम आंकड़ों से भी काम चलाया है। पश्चिम के बहुत बड़े गणितज्ञ लीबनित्ज ने तीन ही आंकड़े माने; उसने कहा कि दस की क्या जरूरत, तीन से काम चल जाता है। एक, दो, तीन। और तीन के बाद फिर चार नहीं आता, फिर दस; ग्यारह, बारह, तेरह और फिर तेरह के बाद चैदह नहीं आता, बीस। मगर काम हो जाता है। लीबनित्ज के गणित में दो और दो चार नहीं होते, दो और दो दस होते हैं। मगर काम उससे भी चल जाता है। उसने बड़े-बड़े सवाल गणित के इसी से हल कर दिए हैं।
अलबर्ट आइंस्टीन ने तो एक कदम और आगे लिया; उसने कहा कि तीन की भी क्या जरूरत है, दो से काम चल सकता है; दो से कमे में काम नहीं चल सकता। इसलिए न्यूनतम मानना चाहिए। उसने दो ही आंकड़े माने..एक और दो। तो दो और दो उसके हिसाब से चार नहीं हो सकते, चार का तो उपाय ही नहीं है।
गणित बिल्कुल काल्पनिक शास्त्र है, इसलिए उत्तर हो सकते हैं। आदमी के ही प्रश्न हैं, आदमी ही उनके उत्तर बना लेता है। लेकिन तुम पूछो प्रेम क्या है..और बस मुश्किल खड़ी हुई। तुम पूछो सत्य क्या है..और मुश्किल खड़ी हुई। तुम पूछो परमात्मा क्या है..और मुश्किल खड़ी हुई।
जीवन के जो वास्तविक प्रश्न हैं, उनके कोई उत्तर होते हैं? और जो उत्तर देते हैं वे मूढ़ हैं। पूछने वाला नासमझ है, इसलिए पूछ रहा है और उत्तर देने वाला भी नासमझ होना चाहिए, इसलिए उत्तर दे रहा है। वस्तुतः ज्ञानी जो हैं वे तुम्हारे मूढ़ प्रश्नों के उत्तर नहीं देते। समाधान देते हैं, उत्तर नहीं। भेद समझ लेना। उत्तर और समाधान में बड़ा भेद है, जमीन-आसमान का भेद है। समाधान का अर्थ है: प्रश्न का गिर जाना, प्रश्न का मिट जाना। और उत्तर का अर्थ है: प्रश्न की जगह एक धारणा तुम्हारे भीतर रख दी जाती है। मगर उस धारणा से दस नये प्रश्न खड़े होंगे, महादेव प्रसाद ख्याल रखना। धारणा से एक उत्तर मिला, ऐसा मत सोच लेना कि एक प्रश्न हल हो गया; सिर्फ दस प्रश्नों के लिए और सुविधा हो गई।
तुमने पूछा, जगत को किसने बनाया? और जिनको तुम पंडित कहते हो और जिनको मैं मूढ़ कहता हूं..कोई महामूढ़ कहेगा, ईश्वर ने। इससे क्या समझते हो कोई हल हुआ? अब सवाल यह उठता है कि ईश्वर ने क्यों बनाया? तो महामूढ़ों ने उनके भी उत्तर खोज रखे हैं; खोज रखे हैं क्या ईजाद कर लिए हैं..कि इसलिए बनाया है, क्योंकि वह अकेला था और अकेले में उसे बड़ा कष्ट होने लगा। चलो मान लें, तो नये प्रश्न उठेंगे..क्योंकि पहले क्यों नहीं बनाया; जब बनाया तभी क्यों बनाया? अकेला तो बहुत पहले से था। अकेला तो सदा से ही था। जब बनाया तभी क्यों बनाया? पहले अक्ल नहीं आई? पहले कुछ बुद्धि की कमी थी?
और भी प्रश्न उठेंगे, कि अगर परमात्मा को भी अकेलापन खलता है तो फिर गरीब आदमी की क्या बिसात? तो फिर गरीब आदमी से क्यों कहा जाता है कि अपने भीतर के एकांत में डूबो? ध्यान, समाधि, ये सब हैं क्या? अपने एकांत में उतरना है। जब परमात्मा भी अकेला न रह सका तो बेचारे आदमी को क्यों सताते हो? तो इसको भी बसाने दो घर-गृहस्थी, संसार। इसको भी भटकने दो भीड़ में। जब परमात्मा भी भीड़ के बिना न रह सका और आदमी इतनी बड़ी भीड़ मांगता भी नहीं..पत्नी हो, दो-चार बच्चे हों, घर द्वार हो, थोड़े मित्र हों, बस पर्याप्त है। परमात्मा को तो भारी भीड़ की जरूरत पड़ी है। यह पृथ्वी कोई अकेली नहीं, जिस पर जीवन है। वैज्ञानिक कहते हैं: कम से कम पचास हजार पृथ्वियां और हैं जिन पर ऐसा जीवन है। कम से कम; ज्यादा हो सकती हैं। इतना भीड़-भड़क्का, इतना शोरगुल, इतना उपद्रव! परमात्मा को इतने बड़े संसार की जरूरत पड़ी? इतने बड़े संसार की तो संसारियों को भी जरूरत नहीं है। छोटी-मोटी दुकान हुई, चला; थोड़ा पैसा हुआ। और इसी परमात्मा को पाने के लिए संसार छोड़ना पड़ता है! तो प्रश्न ही प्रश्न उठेंगे कि मामला क्या है। जब परमात्मा ही संसार के बिना नहीं रह सका तो हम गरीबों को क्यों सताते हो, हमें क्यों भेजते हो कि गुफाओं में बैठो? अरे तो परमात्मा ही बैठ जाता किसी गुफा में! न होता बांस न बजती बांसुरी! झंझट ही नहीं होती। परमात्मा को संन्यास नहीं सूझा, यह महात्माओं को सूझा! परमात्मा से भी पहुंच इनकी बड़ी गहरी मालूम पड़ती है!
और फिर सवाल उठता है कि आदमी को ही बनाना था तो थोड़ा ढंग का बनाता। यह बेढंगा आदमी, न मालूम कितने क्रोध, ईष्र्या, वैमनस्य, घृणा, ये सब इसमें रख देने की क्या जरूरत थी? अरे तुमको अकेले से तकलीफ थी, तो भले आदमी बनाते। यह दुष्ट संग! कम से कम सत्संग तो करते! महात्मा ही महात्मा बना लेते। ...ये बैठे महात्मा गांधी, ये बैठे विनोबा भावे! सत्संग चल रहा है! ये तरह-तरह के आदमी, एक से एक उपद्रवी, इन सबको क्या बनाने की जरूरत थी? चंगीज खान और तैमूरलंग और नादिरशाह और एडोल्फ हिटलर और जोसफ स्टैलिन...और प्रत्येक आदमी के भीतर इतनी गर्हित वासना क्यों रख दी? पाप का ऐसा आकर्षण क्यों रख दिया? बुराई में इतना बल क्यों भर दिया कि लाख चिल्लाते रहें महात्मागण, कोई सुनता नहीं। सच तो यह है कि दूसरों की तो फिकर ही छोड़ दो, महात्मागण भी जो कहते हैं, वे खुद भी कहां सुनते हैं!
कल ही मैं एक कहानी पढ़ रहा था। एक अमरीकी महिला परमात्मा की खोज में भारत आई, गई हिमालय। न मालूम कैसे यह भ्रांति फैल गई है कि हिमालय में परमात्मा कुछ ज्यादा उपलब्ध है, कुछ ज्यादा मात्रा में वहां है। जैसे वह भी कहीं-कहीं सघन और कहीं-कहीं विरल है। और जैसा कि होना था, मिल गए एक महात्मा। और हिमालय में महात्मा नहीं मिलेंगे तो और क्या मिलेगा! उनकी जटा-जूट, शरीर पर लगाई गई भस्म, धूनी रमाए बैठे थे। बड़े मस्त दिखाई पड़ रहे थे, असलियत थी कि गांजा पी गए थे। महात्मा और गांजा न पीएं, यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि महात्मा कहते हैं कि जब परमात्मा ने बनाया गांजा तो पीने के लिए ही बनाया। दम मारो दम...!
 महिला एकदम प्रभावित हो गई। महात्मा की आंखें बिल्कुल ऊपर चढ़ी थीं, जैसे तीसरे नेत्र को देख रहे हों! चरणों पर गिर पड़ी। कहा: मन की शांति के लिए आई हूं। मेरी आत्मा को शांति दो। महात्मा ने कहा कि बेटी, सब हो जाएगा, समय पर सब हो जाएगा। धीरज रख। महिला रुक गई। और तो कोई था नहीं वहां गुफा में..महात्मा और महिला। रात तक गांजे का नशा उतर गया। महात्मा ने गौर से...उनकी आंखें जरा तृतीय नेत्र से नीचे उतरीं...महिला को देखा। सुंदर महिला! एकदम उस पर हमला कर दिया। महिला को तो समझ में ही नहीं आया। उसने कहा: अरे महात्मा जी, यह क्या करते हैं!
महात्मा जी ने कहा: क्या करता हूं! अरे जो करना चाहिए वही करता हूं।
महिला ने कहा: मैं आत्मा की शांति कि मन की शांति के लिए आई हूं, आप यह क्या करते हैं?
महात्मा ने कहा: जब तक शरीर की शांति नहीं होगी, न मन की हो सकती है, न आत्मा की हो सकती है। हर चीज क ख ग से शुरू करनी पड़ती है।
कौन सुने तुम्हारे महात्माओं की! महात्मा खुद ही कहां मानते हैं! मान भी नहीं सकते। उनका भी कोई कसूर नहीं। कसूर होगा तो परमात्मा का है। क्यों रखा आदमी में वासना का इतना बल? क्यों इतनी कशिश? प्रश्न पर प्रश्न उठते चले जाएंगे। हल करना मुश्किल हो जाएगा। और तुम पूछे थे एक ही प्रश्न कि संसार कैसे हुआ। और तुम्हारे पंडित ने कहा था: परमात्मा ने बनाया। उसने सोचा था मामला निपटा दिया। मामला कुछ निपटा नहीं, मामला और उलझ गया।
उत्तर में उत्तर कहां है? उत्तर में और हजार प्रश्न दबे हैं। और उठते ही जाएंगे। इसलिए बुद्ध जैसे ज्ञानी ने उत्तर ही नहीं दिया: जब भी किसी ने पूछा संसार को किसने बनाया, बुद्ध ने कहा: किसी ने नहीं, संसार सदा से है। झंझट मिटी, नहीं तो वह एक प्रश्न का उत्तर दो कि फिर प्रश्नों का एक सिलसिला खड़ा हो जाता है, एक कतार लग जाती है, जिसका कोई अंत नहीं आता।
फिर सवाल उठता है कि परमात्मा भले आदमियों को तो कष्ट दे रहा है, बुरे आदमियों को मजा लूटने का अवसर दे रहा है, यह क्या हो रहा है? और अगर इस जगत में यह हो रहा है तो दूसरे जगत का भी क्या भरोसा! जो लुच्चे-लफंगे यहां बाजी मार ले जाते हैं वे वहां भी बाजी मार ले जाएंगे। ज्यादा संभावना इसी की है, क्योंकि उनका अभ्यास बाजी मार लेने का। तुम यहां भी हारे, वहां भी हारोगे। जिंदगी भर हारने का अभ्यास ही किया। यहां भी लुटे, वहां भी लुटोगे। और जो जेब काटने में कुशल हो गया है।
मैंने सुना है एक आदमी मरा। जैसे ही पहुंचा स्वर्ग के दरवाजे पर, द्वारपाल ने दरवाजा खोला और पूछा: आप कौन हैं?
उसने कहा: चंदूलाल लोहेवाला।
भई इस तरह के आदमी के स्वर्ग में आने की, हमें कोई खबर नहीं है।
लेकिन चंदूलाल लोहेवाला भी लोहेवाला था। उसने कहा: हम इधर से हटने वाले भी नहीं हैं। यह मेरी आदत ही नहीं है। अरे जिस द्वार पर टिक गया वहीं अड़ा ही रहा हूं।
काम क्या करते हो? पूछा द्वारपाल ने। उसने कहा कि लोहे का धंधा है। यह धंधा ही ऐसा है। पुराना लोहा खरीदता हूं, घिस-घिसा कर नया करके बेचता हूं। जाऊंगा नहीं।
द्वारपाल ने कहा: मैं जाकर परमात्मा से पता लगाता हूं। पता लगा कर जब तक द्वारपाल आया, न तो चंदूलाल लोहेवाले वहां थे और न दरवाजा वहां था। लोहे का दरवाजा पुराना, उसने देखा कि मारो हाथ!
जो यहां हाथ मार रहे हैं, वे वहां भी छोड़ेंगे नहीं। तुम्हारे जीवन भर की आदतें ही तो तुम्हें निर्मित करती हैं। तो सवाल उठता है कि यहां देखते हो तुम बेईमानों को जीतते, सत्ता में बैठते। धन, पद, प्रतिष्ठा, सब उनकी। ईमानदारों की पूछताछ कौन करता है! उनको रोटी-रोजी मिल जाए, यही बहुत है, वह भी कहां पूरी मिलती है! लंगोटी ही बच जाए, यही बहुत; इस दुनिया में वह भी कहां बचती है!
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बुढ़ापे में, गांव का काजी हो गया था। पहला ही मुकदमा उसकी अदालत में आया। एक आदमी एकदम रोता-चिल्लाता, छाती पीटता कि लुट गया, इसी गांव के बाहर लुटा हूं, इसी गांव के किसी आदमी ने लूटा है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि पहले चुप हो। ठीक-ठीक बात कर। सब लुट गया! लेकिन यह अंडरवियर! तू चिल्लाए चला जा रहा है..सब लुट गया, सब लुट गया!
उस आदमी ने कहा: यह बात तो ठीक है। और सब लुट गया, सिर्फ अंडरवियर छोड़ गए वे लोग।
तो मुल्ला ने कहा: वे किसी और गांव के रहे होंगे। इस गांव की आदत ही नहीं है यह; यहां तो जो काम किया जाता है, पूरा किया जाता है। मैं तेरा मुकदमा लेने में असमर्थ हूं। इस गांव में अधूरा काम करने की आदत ही नहीं। ‘यहां लंगोटी भी नहीं बचती। लंगोटी भी बच गई तो समझो बहुत है। तो सवाल उठेगा कि यह परमात्मा है भी या नहीं? ’
फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा है: अगर संसार को गौर से देखो तो सिद्ध होता है कि परमात्मा नहीं है, क्योंकि इतनी बेईमानी, इतनी जालसाजी, इतनी चार सौ बीसी, और फिर भी तुम कहे चले जाते हो..परमात्मा है! शैतान जीतता दिखाई पड़ता है, परमात्मा हारता दिखाई पड़ता है। बुराई जीतती दिखाई पड़ती है, भलाई हारती दिखाई पड़ती है। सिर्फ शास्त्रों में लिखा है: सत्यमेव जयते! लेकिन कहीं सत्य को जीतते देखते हो? असत्यमेव जयते! असत्य जीतता दिखाई पड़ता है। जितने कुशल तुम झूठ बोलने में हो, उतनी ही सफलता की संभावना है।
यहां क्या, वहां भी यही मैंने हालत सुनी है, उस लोक में भी। स्वर्ग और नरक के बीच में जो दीवाल है, जरा-जीर्ण हो गई, अति प्राचीन है, कई जगह से गिर गई। एक दिन दोनों तरफ से..उस तरफ शैतान, इस तरफ परमात्मा..टहलते हुए दीवाल के पास आ गए। परमात्मा ने शैतान से कहा कि भई देखो दीवाल गिर गई है और यह गिरी है तुम्हारे तरफ के उपद्रव के कारण। हजार दफे कहा है कि तुम अपने आदमियों को सम्हालो। दीवाल पर चढ़-चढ़ जाते हैं। कोई हमारी तरफ के आदमी दीवाल पर नहीं चढ़ते! महात्मा लोग हैं वे अपने झाड़ों के नीचे बैठे रहते हैं, कौन दीवाल पर चढ़े! और तुम्हारे आदमी दीवाल की ईंटें खींच कर एक-दूसरे के ऊपर फेंकते हैं। तो यह दीवाल तुम्हारी वजह से ही खराब हुई, इसको सुधारो।
शैतान ने कहा: सुधरवानी हो तो खुद सुधरवा लो, हमको नहीं पड़ी कुछ। तुमको हो डर दीवाल के टूटने से हमें क्या डर! अरे दीवाल टूट जाए टूट जाए; हमारे लोगों को और थोड़ा फुटबॅाल खेलने, हाकी खेलने, वालीबॅाल खेलने के लिए स्थान मिल जाएगा।
परमात्मा को क्रोध आ गया। परमात्मा ने कहा कि देखो मैं मामला अदालत में ले जाऊंगा।
शैतान ने कहा: ले जाओ जहां ले जाना है, वकील कहां पाओगे? सब वकील तो मेरी तरफ हैं।
प्रश्न पर प्रश्न उठेंगे। समाधान और बात है। और समाधान का एक ही उपाय है..प्रश्न का उत्तर नहीं, प्रश्न का गिर जाना। प्रश्न का ऐसा व्यर्थ हो जाना, जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिर जाए।
और यही हुआ महादेव प्रसाद, शुभ हुआ।
तुम कहते हो: ‘वर्षों से एक प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठ रहा था। सोचा था आपसे प्रश्न का समाधान मिल जाएगा।’
सोचा ही नहीं था, समाधान मिल गया! लेकिन तुम समाधान को उत्तर का पर्यायवाची समझते हो, यही तुम्हारी भूल है। उत्तर समाधान नहीं है और समाधान कोई उत्तर नहीं होता। अभी तुम्हें समझना पड़ेगा यह भेद। प्रश्न तो तुमने पूछा नहीं, उत्तर मैंने दिया नहीं; लेकिन समाधान हो गया है। प्रश्न है कहां?
तुम स्वयं कहते हो: ‘किंतु यहां आकर मेरा प्रश्न तो क्या, मैं ही खो गया हूं, ऐसा क्यों? ’
प्रश्न खो जाए, यही समाधान है। और अगर प्रश्नकर्ता भी खो जाए, तो समाधि बहुत दूर नहीं। समाधि और समाधान एक ही शब्द से निकले हैं। समाधान शुरुआत है समाधि की; बीज है समाधि का। अभी एक प्रश्न खोया; कोई और प्रश्न पड़े होंगे दबे, वे उभरेंगे, वे भी खो जाएं। अगर सारे प्रश्न खो जाएं तो मन खो जाएगा, क्योंकि मन जीता है प्रश्नों के सहारे। मन है ही तभी तक जब तक प्रश्न हैं। जब कोई भी प्रश्न नहीं बचता तो मन मर जाता है। और जहां मन नहीं है वहां समाधि। जहां अमनी दशा है..कबीर के शब्दों में अमनी दशा..बस वहीं समाधान है, वहीं समाधि है। और जहां समाधि है वहां सत्य है, वहां परमात्मा है। और वहां जो है वह अनुभव है।
तुम प्रश्न पूछो, मैं उत्तर दे दूं। तुमने कुछ शब्द कहे, मैंने कुछ शब्द कहे। शायद तुम्हें मेरे शब्द जम जाएं, जंच जाएं या न जंचें। न जंचें तो तुमने कहा, कि मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला; जंच गए तो तुमने कहा, कि मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया। लेकिन ये सब बातें मानसिक हैं। फिर तुम मेरे शब्दों पर विचार करोगे, उसमें से कुछ न कुछ प्रश्न निकल आएंगे, क्योंकि तुम्हारी चित्त दशा तो वही की वही है। जिससे पहला प्रश्न पैदा हुआ था, चित्त तो वहीं का वहीं है, वह नया प्रश्न पूछ लेगा।
तुम छोटे बच्चों को साथ लेकर कभी सुबह घूमने निकले हो? बस चित्त की दशा वैसी ही है। वे पूछे ही चले जाते हैं। ‘कुत्ते की पूछ सीधी क्यों नहीं? ’ अब उनको उत्तर दो! किसी तरह सिर पचा कर तुम उनको समझा-बुझा कर आगे बढ़े, वे पूछने लगे कि वृक्ष के पत्ते हरे क्यों हैं? तुम यह मत सोचना कि तुम इसका उत्तर दे दोगे तो हल हो जाएगा, कि क्लोरोफिल के कारण। असल में तुम्हारा उत्तर सुन कौन रहा है! तुम जब उत्तर दे रहे हो तब बच्चा नया प्रश्न तैयार कर रहा है। तुम्हारा उत्तर खतम नहीं हुआ कि उसने नया प्रश्न पूछा। तुम उत्तर न भी दो तो भी वह नया प्रश्न पूछेगा, तुम उत्तर दो तो भी नया प्रश्न पूछेगा। उसकी जिज्ञासा छलांगें भर रही है, कुलांचें भर रही है।
मन हमेशा बचकाना है। वह पूछता ही चला जाता है। कुछ भी पूछता चला जाता है!
अब एक मित्र ने पूछा है कि मैं यहां आया तो मैंने सपना देखा कि एक भैंस ने मेरे पिता जी को मार डाला! ...अब इसका उत्तर चाहिए! अब कहां की भैंस...और भैंसों का क्या भरोसा! तुम बच कर आ गए, यही बहुत। और पिता जी को तो जाना ही था, जाते ही कभी न कभी। अब भैंस ले गई या क्या...होगी यमदूत की भैंस। पहले से ही शास्त्रों में लिखा हुआ है कि यमदूत भैंस पर बैठ कर आते हैं। ...वह भी सपने में।
मगर नहीं, लोग हैं। अगर तुम किसी मनोवैज्ञानिक से पूछो तो वह कुछ न कुछ उत्तर निकाल लेगा। मनोवैज्ञानिक का सारा धंधा यही है कि तुम्हारे सपनों की व्याख्या करे। मगर एक ही मनोवैज्ञानिक के पास जाना; अगर तुम चार-छह के पास गए तो बड़े संदेह पैदा हो जाएंगे, क्योंकि चार-छह व्याख्याएं होंगी। अगर फ्रायड को मानने वाला मनोवैज्ञानिक है तो वह एक व्याख्या करेगा; जंुग को मानने वाला दूसरी; एडलर को मानने वाला तीसरी और फिर असागोली को मानने वाला चैथी। और न मालूम कितने मनोवैज्ञानिक स्कूल हैं दुनिया में इस समय! वे सब अलग-अलग व्याख्या करेंगे और ऐसी-ऐसी व्याख्याएं करेंगे कि तुम भी दंग रह जाओगे कि हद हो गई; भैंस में भी ऐसे राज छिपे थे! हम तो सोचते थे कि भैंस यानी भैंस! छोटे बच्चे पूछते हैं, अक्ल बड़ी कि भैंस? छोटे बच्चों को तो लगता है भैंस ही बड़ी है। और अगर मनोवैज्ञानिक की व्याख्याएं देखी, तो तुम्हें भी लगेगा कि भैंस ही बड़ी है।
और एक ही उन्होंने प्रश्न नहीं पूछा है, और भी कई तरह के सपने उनको आए..कि उनकी पत्नी किसी और पुरुष के साथ सो रही है, इसका क्या अर्थ?
भैया, अपनी पत्नी से पूछो! ...वह भी सपने में भी न सोने दोगे! ...और सपना भी तुम्हारा, पत्नी का नहीं! पत्नी भी अपने सपने में किसी के साथ सो रही हो तो चलो थोड़ा-बहुत कसूर कर रही है, तुम्हारे सपने में सो रही है। अपने से ही पूछो कि मामला क्या है!
उनका प्रश्न पढ़ कर मुझे याद आया, इजिप्त का एक सम्राट हुआ। उसने डुंडी पिटवा दी थी पूरे देश में कि मेरे सपने में कोई कभी न आए, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरी नींद कोई खराब करे। अब यह बड़ी मुसीबत की बात हो गई, लोग बड़े डरे। वह आदमी बड़ा झंझटी था। अब कोई उसके सपने में न आए, इसमें किसी का क्या वश! और कई आदमी फंस गए इसकी झंझट में। कभी वजीर उसके सपने में आ गया, उसने कोड़े लगवा दिए, कि तू आया तो आया क्यों? सपना उसका, मगर वजीर बेचारा करे तो क्या करे? छोटे-मोटे आदमियों को तो उसने फांसी पर चढ़वा दिया कि दुष्टो, न दिन में सोने देते न रात में! तुम्हें हक क्या है किसी के सपने में प्रवेश करने का?
अब उनकी पत्नी किसी के साथ सो रही है! सोने भी दो, तुम्हें कुछ और धंधा नहीं है? होशियार आदमी ऐसी बातें नहीं करते।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया। उसके छोटे लड़के ने कहा कि पिता जी, पिता जी, अलमारी में भूत खड़ा है! ऐसे तो नसरुद्दीन ने भी देख लिया था। किसी का छाता बाहर रखा है। जूते बाहर रखे हैं। कोई आदमी भीतर है। खिड़की से झांक कर भी देख लिया था कि पत्नी किसी के साथ बिस्तर पर सो रही है। मगर थोड़ी खटर-पटर की, खांसा-खखारा। होशियार आदमी होशियारी से चलते हैं। अरे अब इसमें झंझट लेनी! मगर उस बेटे ने जब कह ही दिया तो जाना पड़ा। जाकर दरवाजा खोला, तो देख कर हैरान हुआ, उसका ही परिचित मित्र..वही चंदूलाल लोहेवाला! मुल्ला ने कहा: चंदूलाल, हद हो गई! अरे किसी के बच्चों को डराने के लिए भरी दुपहरी में काम-धाम छोड़ कर अलमारी में खड़े हो! शर्म नहीं आती? निकलो बाहर!
 जब बाहर ले गया, तब बाहर जाकर कहा कि भई एक बात पूछनी है चंदूलाल। खैर मुझे तो सोना पड़ता है पत्नी के साथ, क्योंकि मेरी पत्नी है, अब क्या करना; तू क्यों सो रहा था रे मूर्ख? तुझे क्या हो गया? तेरी बुद्धि मारी गई? ठीक है, अब हमारा तो विवाह हुआ सो हमें तो जो मुसीबत झेलनी है सो झेलेंगे, अपना-अपना भाग्य! मगर तुझे क्या हुआ, यह देख कर मैं चकित हूं!
लेकिन तुम्हारे सपने में पत्नी किसी के साथ सो रही थी! इन प्रश्नों के उत्तर चाहते हो, इन प्रश्नों के उत्तर मिलने से क्या होगा? कौन सी आध्यात्मिक क्रांति होगी? जरूर तुम्हारे मन में शक होगा। सीधी सी तो बातें हैं, पत्नी पर शक होगा तुम्हारे मन में कहीं न कहीं। किस पति को नहीं है! किस पत्नी को अपने पति पर शक नहीं है! पति-पत्नी का नाता ही शक का नाता है। शक न हो, यह करीब-करीब असंभव। पत्नी आते से ही पहले जांच-परख करती है नीचे से ऊपर तक, कोट इत्यादि देखती है कि कोई बड़ा बाल वगैरह तो नहीं है? खीसे वगैरह में देखती है कि कोई चिट्ठी-पत्री तो नहीं है? फोन आता है तो एकदम झट से उठा लेती है कि मामला क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात कह रहा होगा..कमला, कमला! पत्नियां रात में भी सोती नहीं, उसने उसी वक्त उठाया, कहा: किस कमला की याद कर रहे हो, कौन कमला? मगर पति नींद में भी होशियार रहते हैं। कहा: अरे यह कुछ नहीं, यह रेसकोर्स की एक घोड़ी का नाम है। मगर ऐसे तुम किसी पत्नी को इतनी आसानी से हल नहीं कर सकते। ठीक, पत्नी ने कहा, ठीक है, देखेंगे। दूसरे दिन सुबह-सुबह ही फोन आया। मुल्ला उठे, इसके पहले पत्नी उठ गई।
मुल्ला ने पूछा कि किसका फोन है? कहा: कोई किसी का नहीं..वही रेसकोर्स की घोड़ी ने फोन किया! कहा है कि शाम प्लाजा टाकीज में मिल जाना।
संदेह होगा तुम्हारे मन में, सो पत्नी दूसरे के साथ सोई दिखाई पड़ रही है।
मौत का भय होगा। शायद पिता जी बूढ़े होने लगे होंगे, उनकी मौत की छाया तुम पर पड़ने लगी होगी, डर लगने लगा होगा। सुनी हुई बचपन की कहानियां कि यमदूत भैंस पर सवार होकर आते हैं, तो भैंस दिखाई पड़ गई होगी। वह तो भला हो यमदूत का कि वे नहीं दिखाई पड़े, नहीं तो उसका भी उत्तर मुझे देना पड़ता।
व्यर्थ की बातों के न तो उत्तर चाहो, न व्यर्थ की बातों के प्रश्न उठाओ। निन्यानबे प्रतिशत प्रश्न तो तुम्हारे व्यर्थ हैं, वे तो काट ही दो। सार्थक प्रश्न तो बहुत थोड़े से हैं। और जो सार्थक प्रश्न ही बच रहें, तो यहां मेरे पास बैठो; जो मैं कह रहा हूं उसे सुनो; जो मैं हूं उसे अनुभव करो; जो यहां घटित हो रहा है, उसे पीओ..प्रश्न मिट जाएंगे। असली प्रश्न बचा लो, पहला काम; नकली छांट दो, कूड़ा-करकट छांट दो। जिनका उत्तर भी मिल जाएगा तो कोई लाभ नहीं होने वाला, वह प्रश्न काट दो। बचकानी जिज्ञासाएं यहां मत लाओ। बचा लो उतने ही जितने सार्थक हैं। और तब सार्थक का गिर जाना बड़ा आसान है। और जब सार्थक कोई प्रश्न गिर जाता है तो समाधान उपलब्ध होता है। जिस दिन तुम्हारे सब सार्थक प्रश्न विदा हो जाएंगे, चित्त प्रश्न-शून्य हो जाएगा, उसी दिन समाधि फलित हो जाएगी। और समाधि में ही सत्य का अनुभव है। समाधि दर्पण है, जिसमें सारा अस्तित्व झलक आता है।
अच्छा हुआ महादेव प्रसाद, तुम्हारा प्रश्न गिर गया। और उससे भी अच्छा यह हो रहा है कि प्रश्न ही नहीं खो गया, तुम कहते हो मैं भी खो गया हूं! शुभ घड़ी है। बचाना मत अपने को, जरा भी मत बचाना। डूब ही जाओ, मिट ही जाओ! क्योंकि जो मिट जाता है वही परमात्मा को पाने का अधिकारी है। जो शून्य हो जाता है, वह पूर्ण के अवतरण के लिए अवसर देता है। इधर मैं मिटा उधर परमात्मा का अवतरण हुआ। तुम गए कि परमात्मा आया। जब तक तुम हो तब तक परमात्मा नहीं हो सकता।
कबीर ने कहा है: प्रेमगली अति सांकरी, तामें दो न समाए।

तीसरा प्रश्नः ओशो, क्या तृष्णा-रहित जीवन ही भगवत्ता है? साथ ही आपसे जो सुख मिला है, उसके लिए धन्यवाद देता हूं।

किरण सत्यार्थी! तृष्णा-रहित जीवन ही भगवत्ता है। भगवान कहीं भी नहीं हैं..व्यक्ति की तरह। भगवान को व्यक्ति की तरह देख कर ही हमारी भ्रांतियों का जाल फैल गया। मंदिर उठे, मस्जिद बने। गिरजे उठे, गुरुद्वारे बने। परमात्मा को व्यक्ति मान कर ही पूजा, अर्चना के जाल फैले। यज्ञ-हवन, पंडित-पुरोहित, मौलवी, पादरी...एक जाल खड़ा हो गया, एक अनंत जाल खड़ा हो गया! बजाय इसके कि धर्म मनुष्य की मुक्ति बनता; धर्म मनुष्य के लिए बेड़ियां और जंजीरें बन गया; धर्म मनुष्य के लिए कारागृह बन गया। और इस सबके पीछे जो बुनियादी भ्रांति हो गई, वह यहां से हुई कि भगवान को हमने व्यक्ति मान लिया। भगवान व्यक्ति नहीं है।
भगवान नहीं है..भगवत्ता है! भगवत्ता गुण है; व्यक्ति नहीं। इसलिए पूजा का सवाल नहीं है; अनुभव का सवाल है। इसलिए प्रार्थना काम नहीं आएगी; ध्यान काम आएगा। प्रार्थना तो परमात्मा व्यक्ति हो तो कुछ अर्थ रखती है। लेकिन परमात्मा अगर व्यक्ति नहीं है; अस्तित्व पर फैले हुए जीवन का नाम है; अस्तित्व के सौंदर्य का नाम है; अस्तित्व की गरिमा और गौरव का नाम है; अस्तित्व का ही नाम परमात्मा है..अगर ऐसा है तो फिर प्रार्थना काम नहीं आएगी; फिर प्रार्थना व्यर्थ हो गई, फिर ध्यान काम आएगा।
यही भेद है वास्तविक धर्म में और थोथे धर्म में। थोथा धर्म हाथ जोड़ कर परमात्मा की प्रतिमा बनाता है। खुद की ही बनाई हुई प्रतिमाएं हैं और उनकी ही पूजा करता है। जरा खेल तो देखो, बूढ़ों के खेल, बच्चों से गए-बीते! अपने ही हाथ से बना लिए गणेश जी और होने लगी पूजा, सज गया थाल, दीये जल गए, फूल की मालाएं चढ़ गईं, भजन होने लगे। तुम कभी सोचते भी नहीं कि अपने ही हाथ से बना कर रख ली है यह प्रतिमा। अपने ही खिलौनों की पूजा कर रहे हो! अपने ही द्वारा बनाए गए खिलौनों के सामने घुटने टेक कर खड़े हो!
परमात्मा को तुम कैसे बना सकते हो? अगर बनाया भी हो किसी ने किसी को, तो परमात्मा ने तुम्हें बनाया होगा, तुम परमात्मा को नहीं बना सकते हो। फिर, परमात्मा को अगर व्यक्ति की तरह देखो, तो सवाल उठता है: कितने उसके हाथ, कितने उसके चेहरे, कितनी ऊंचाई, क्या रंग, क्या रूप? फिर सब उपद्रव खड़े हुए। फिर कवि की कल्पनाओं को विस्तार मिला। फिर कोई कहता है उसके हजार हाथ, क्योंकि दो हाथ से इतनी बड़ी पृथ्वी को, इतने बड़े विस्तार को, इतने चांद-तारों को कैसे सम्हालेगा? क्या तुम सोचते हो, हजार हाथों से सम्हल जाएंगे? हजार हाथ भी छोटे पड़ जाएंगे। फिर उसके तीन चेहरे बनाने पड़े। क्योंकि अगर एक ही चेहरा हो तो एक ही तरफ देख सके, तो सर्वज्ञाता न रह जाए। तीनों आयाम में देख सके। तो तीन चेहरे बनाए। किसी ने चार चेहरे बनाए, ताकि चारों दिशाओं में देख सके। किसी ने चार हाथ बनाए, ताकि चारों दिशाओं को सम्हाल सके। मगर ये सब मनुष्य की ही कल्पनाएं हैं; तुम्हारे ही विश्वास और फिर उनको रूप देने की चेष्टाएं। सब बचकानी हैं।
भगवान कोई व्यक्ति नहीं है। भगवत्ता! जितनी भी धर्म के जगत में गहन अनुभूतियां हुई हैं, उन सबका प्रमाण यही है, उन सबकी साक्षी यही है। शब्द की तरह उपयोग करते हो भगवान, ठीक है; मगर स्मरण रहे कि वस्तुतः स्थिति भगवत्ता की है, भगवान गुण है, व्यक्ति नहीं; दशा है, व्यक्ति नहीं।
इसलिए बुद्ध ने भगवान को नहीं माना, फिर भी हमने बुद्ध को भगवान कहा। पहले बड़ी पहेली मालूम पड़ती है। बुद्ध कहते हैं कोई भगवान नहीं है और बुद्ध को मानने वाले बुद्ध को ही भगवान कहते हैं! मगर पहली पहली नहीं है, अगर तुम इतनी बात समझ लो। बुद्ध ने कहा कोई भगवान नहीं..अर्थात कोई व्यक्ति नहीं जो सारे संसार को चला रहा हो। थक जाता कभी का, ऊब जाता कभी का। अरे सत्तर साल की जिंदगी में तुम्हीं सोचने लगते हो कि अब बस, मौत आ जाए तो अच्छा। कभी का मर गया होता, आत्महत्या कर ली होती। या ऐसा भागता कि फिर पीछे लौट कर नहीं देखता। आखिर एक सीमा होती है हर चीज की। इस उपद्रव को कब तक कोई व्यक्ति बरदाश्त कर सकता है! इस रुग्ण व्यवस्था को कब तक कौन सम्हाल सकता है! और किसलिए?
नहीं, भगवान कोई व्यक्ति नहीं है; जीवन का ही दूसरा नाम है; जीवंतता का दूसरा नाम है। इसलिए जब तुम परिपूर्ण रूप से जीवंत होते हो और तुम्हारे भीतर सब मौन हो जाता है, सब शांत हो जाता है, सब निर्विचार हो जाता है..तब जो सुगंध उठती है, तब जो अनुभूति होती है, उस अनुभूति का नाम, उस दिव्यता का नाम, उस भगवत्ता का नाम ही भगवान है।
इसलिए किरण, तुम ठीक कहते हो। ठीक तुमने पूछा है कि क्या तृष्णा-रहित जीवन ही भगवत्ता है? हां, जहां तृष्णा गई वहां दौड़ गई। मन है क्या? तृष्णा की दौड़। यह पा लूं, वह पा लूं। यह मिल जाए, वह मिल जाए। संसार की ही दौड़ समाप्त नहीं हो पाती कि परलोक की दौड़ शुरू हो जाती है। यहां भी पाना है, वहां भी पाना है। बटोरना है, बटोरते चले जाना है। मरते-मरते दम तक लोग बटोरते हैं और मरने के बाद भी बटोरते हैं। उसका भी आयोजन कर लेते हैं। परलोक में भी अभी से उन्होंने खाते खोल लिए हैं। दान करते हैं, यज्ञ करवाते हैं, मंदिर बनवाते हैं..सिर्फ इस आशा में कि परलोक में सुरक्षा रहेगी; कहने को रहेगा कि मैंने भी धर्म किया था, कि मैं हकदार हूं, परलोक के सुख पाने का। यह तृष्णा का ही विस्तार है।
तुम्हारा स्वर्ग क्या है? तृष्णा का विस्तार। तुम्हारा नरक क्या है? तुम्हारे भय का विस्तार। भय है, इसलिए तुमने नरक बना लिया। और लोभ है, इसलिए तुमने स्वर्ग बना लिया। न तो कहीं नरक है और न कहीं स्वर्ग है। और कहीं नरक और स्वर्ग हैं तो तुम्हारे भीतर हैं। नरक है तुम्हारी वह दशा, जब तुम तृष्णाओं ही तृष्णाओं में घिरे हो और तृष्णाएं तुम्हें खींच रही हैं चारों तरफ, तोड़े डालती हैं। विक्षुब्ध किए हैं तुम्हें, विक्षिप्त किए हैं तुम्हें। एक क्षण भी शांति का नहीं, विश्रांति का नहीं। एक क्षण मौन का नहीं, एक क्षण ऐसा नहीं जीवन में जिसको तुम विराम और विश्राम का क्षण कह सको।
जब तृष्णाओं की भीड़ में तुम घिरे हो तो तुम नरक में हो और जब तृष्णाएं शांत हो गईं, जब तुमने देख लिया कि सब तृष्णाएं दुष्पूर हैं; लाख करो उपाय, कोई तृष्णा भरती नहीं; लाख धन पा लो, और धन पाने की आकांक्षा बनी रहती है; और कितने ही बड़े पद पर पहुंच जाओ, और बड़े पद पर पहुंचने की दौड़ बनी रहती है। और जीवन इतना जटिल है कि एक चीज में तुम पा लो तो और हजार चीजों में तुम गरीब रह जाते हो।
समझ लो कि तुमने बहुत धन कमा लिया। ठीक, एक दिशा में तुमने बहुत धन कमा लिया। यह भी हो सकता है कि तुम दुनिया के सबसे बड़े धनी हो जाओ। लेकिन, चूंकि तुम्हारी सारी ऊर्जा धन को कमाने में लग गई, इसलिए बहुत सी चीजों में तुम अधूरे रह जाओगे। तुम्हारा स्वास्थ्य वैसा नहीं होगा जैसा अनेकों का होगा; जिन्होंने स्वास्थ्य पर ही ध्यान दिया है। उनकी देह को देखोगे, उनके बल को देखोगे, उनकी बलिष्ठता देखोगे, उनका शरीर सौष्ठव-सौंदर्य देखोगे..ईष्र्या से जल-भुन जाओगे। क्या हुआ, धन पाकर क्या हुआ? और किसी ने अपना सारा जीवन ज्ञान के बटोरने में लगाया है। जब उसके पांडित्य को देखोगे, तब फिर आग दहक उठेगी कि तुम तो मूढ़ के मूढ़ ही रह गए। फिर यहां जीवन में कितने आयाम हैं। एक में तुम दौड़ कर सफल भी हो जाओ, तो बाकी सब में तुम असफल हो गए। उनकी पीड़ा सालेगी, चुभेगी। और जिसमें तुम सफल हो गए हो, उसमें भी ‘और’ की दौड़ बंद नहीं होती।
एण्ड्रू कारनेगी मरा, दस अरब रुपये छोड़ कर मरा, लेकिन मरते वक्त भी ‘और’ की दौड़ कायम थी। मरते वक्त भी उससे किसी ने पूछा कि हे एंडरू कारनेगी, तुम्हें तो कम से कम निशिं्चत, आनंदपूर्वक मरना चाहिए, कि तुमने जीवन में एक महान कार्य करके दिखाया। दस अरब रुपये एक गरीब घर में पैदा होकर तुमने इकट्ठे किए।
एण्ड्रू कारनेगी ने आंख खोली और कहा कि क्षमा करो, मैं सुख से नहीं मर सकता हूं, क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब रुपये कमाने के थे। मैं नब्बे अरब रुपयों से गरीब हूं।
दस अरब रुपयों से अमीर नहीं है वह; नब्बे अरब रुपयों से गरीब है। तुम्हें उसकी अमीरी दिखाई पड़ रही है; उसे बेचारे को अपनी गरीबी दिखाई पड़ रही है। वह हार गया है।
निजाम हैदराबाद दुनिया के सबसे बड़े अमीर समझे जाते थे। इतने हीरे-जवाहरात उनके पास थे कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती थी, इसलिए उनको तराजू पर तौला जाता था। सेरों से तौल कर रखे जाते थे, क्योंकि गोलकुंडा की खदान, जिससे कोहिनूर जैसा हीरा निकला..वह भी कभी निजाम हैदराबाद का ही हीरा था..उस खदान से जितने भी अच्छे हीरे निकलते, पहले निजाम के पास आते, फिर बाजार में जाते। वह अच्छे-अच्छे हीरे खुद चुन लेता। इतने हीरे थे कि उन सारे हीरों को एक साल में निकाला जाता था धूप दिखाने के लिए। तो सात छतें उसके महल की भर जाती थीं। अकूत खजाना था। कोई हिसाब नहीं था कि उन हीरों के कितने दाम हैं।
लेकिन निजाम हैदराबाद की हालत तुम समझते हो! तीस साल एक ही टोपी पहने रहा! उससे बदबू आती थी, उसको धुलवाता भी नहीं था, क्योंकि धोने में खराब हो जाएगी। एक ही कोट पहने रहा। लोग कहते भीः कभी जवानी में बना था, अब आप बूढ़े हो गए, शरीर दुबला हो गया, यह बिल्कुल ढीला लगता है, किसी और का लगता है। निजाम हैदराबाद कहता: क्या फर्क पड़ता है! दुनिया जानती है कि मैं निजाम हूं हैदराबाद का। मैं चाहे चुस्त कोट पहनूं, चाहे ढीला कोट पहनूं क्या फर्क पड़ता है? मगर फर्क सिर्फ सौ पचास रुपये का, वह भी खर्च नहीं कर सकता था वह। तुम जान कर हैरान होओगे कि मेहमानों को सिगरेट पिलाता था तो उसकी छाती जलती थी; मेहमान सिगरेट पीते थे, छाती उसकी जलती थी। और जैसे ही मेहमान जाते थे; जो पहला काम वह करता था, ऐशट्रे में से उनकी जो अधजली सिगरेट के टुकड़े थे, वे इकट्ठे कर लेता था, वे खुद पीता था। तुमने इससे ज्यादा दरिद्र आदमी दुनिया में देखा? भिखमंगा भी यह न करे। भिखमंगा भी सड़क पर पड़े हुए टुकड़े न उठाए। निजाम हैदराबाद जैसा धनपति और सिगरेट के टुकड़े दूसरों के झूठे टुकड़े उठा कर पीए! भयंकर लोभी!
उसके पास एक बहुत बड़ा हीरा था, जो वह टेबल पर पेपरवेट की तरह उपयोग करता था। जब मरा तो वह हीरा नहीं मिला एकदम, लोग बड़े हैरान हुए कि मामला क्या है, हीरा गया कहां? क्या ले गया निजाम हैदराबाद अपने साथ? बहुत खोजा, वह मिला ही नहीं। आखिर में मिला तो कहां मिला! निजाम हैदराबाद ने अपने जूते में छिपा रखा था। मरते वक्त भी फिकर रही होगी उसको इस हीरे की, कि कोई इसको चुरा-चुरू न ले। जूते में कौन खोजेगा! उसने जूते के अंदर उसको छिपा कर रख दिया था अपने बिस्तर के नीचे। जूते उसके इतने गंदे थे, उनको सुधरवाता रहता था। उसने थेगड़े लगवा लिए थे। और यह आदमी दुनिया का सबसे बड़ा धनपति था।
इधर लोभ और भय का भी कोई अंत नहीं था, इतना ही भय भी था। लोभी में अक्सर भय भी होता है। भय और लोभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वह भयभीत इतना था कि रात उसे भूतों का बहुत डर लगता था। सच तो यह है कि जहां तक मैं जानता हूं, भूत उससे डरते थे। ऐसे आदमी से भूत न डरें तो क्या हो। समझ लो कि भूत सिगरेट पी रहा है, वह छीन ही ले। मगर वह भूतों से डरता था। किसी उस्ताद ने उसको बता दिया था कि भूतों से बचने का एक ही उपाय है। तो वह उपाय करता था, वह उपाय उसको सोने नहीं देता था। वह उपाय अजीब था। इस दुनिया में एक से एक ज्ञानी पड़े हैं! मूढ़ों का अंत नहीं है, इसलिए ज्ञानियों का अंत नहीं है। मूढ़ों को चाहिए महामूढ़, तब तो वे उनको गुरु मानें। उसने बताया था कि तरकीब एक ही है भूतों से बचने की और वह यह है कि रात जब सोओ तो एक लोटे में नमक भर कर, उसमें अपना पैर डाल दो। नमक पास रहे और तुम्हें छूता रहे, भूत पास नहीं आ सकता। नमक से भूत बहुत डरते हैं।
तो बेचारा एक बड़ा लोटा, उसमें नमक और उसमें एक पैर डाल कर और उसको पैर से बांध कर रात सोता था। अब ऐसे कहीं नींद आएगी! मगर नींद की कौन फिकर करे, बचना भूतों से है! ऐसा भयभीत, ऐसा लोभी..और सारा धन उसका! दुनिया का सबसे बड़ा धनी!
धन मिल जाए तो भी कुछ मिलता नहीं; ‘और’ की दौड़ कायम रहती है। और एक दिशा में मिलता है कुछ, तो बाकी दिशाओं में खो जाता है। इसलिए बेचैनी, विषाद बना ही रहता है।
इस दुनिया में इस सत्य को जो देख लेता है कि तृष्णा दुष्पूर है, भरती ही नहीं, भर सकती ही नहीं..वही व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो जाता है। तृष्णा गिरी कि तुम भगवान हो। तृष्णा ने ही तुम्हें तुम्हारी भगवत्ता से नीचे उतार लिया है। तृष्णा की धूल जम गई है तुम्हारी भगवत्ता पर।
इसलिए महावीर, बुद्ध, कबीर, नानक..जो जागे हैं..उन्होंने एक ही बात समझाई है कि किसी तरह तृष्णा को समझ लो, देख लो और तृष्णा से मुक्त हो जाओ। अब यह मत सोचना कि संसार छोड़ कर भाग जाओगे तो तृष्णा से मुक्त हो जाओगे। तृष्णा से मुक्त होने के लिए खूब जागरूकता चाहिए, सघन ध्यान चाहिए; भगोड़ेपन से कुछ भी नहीं होगा। धन से नहीं मिटती तृष्णा; ध्यान से मिटती है। और धन के त्याग से भी नहीं मिटती तृष्णा; यद्यपि तृष्णा मिट जाए तो धन पर पकड़ छूट जाती है। मगर पकड़ का छूट जाना और त्यागने में बड़ा फर्क है। त्याग तो पकड़ ही है। जब तुम कहते हो कि मैंने त्याग दिया तो तुम यही कह रहे हो कि तुम मानते हो अभी भी कि वह तुम्हारा था, नहीं तो त्यागा क्या? अगर तुम जानते हो..खाली हाथ आए, खाली हाथ जाएंगे..तो त्यागोगे क्या? त्यागने को क्या है?
तो इस जगत में जो व्यक्ति समझ लेता है, वह चुपचाप, जो मिल जाए..झोपड़ा तो झोपड़ा और महल तो महल..उसका उपयोग करता है, लेकिन पकड़ता नहीं। आज महल मिल जाए तो महल ठीक; कुछ महल से घबड़ाता भी नहीं, कुछ महल से परेशान भी नहीं होता। और कल महल चला जाए तो पीछे लौट कर भी नहीं देखता है। कल झोपड़ा तो झोपड़ा सही। जिस व्यक्ति की तृष्णा गिर गई, वह कह सकता है कबीर के साथ..होनी होय सो होय! जो होना हो हो, मैं राजी हूं। उसकी कोई शर्त नहीं होती अस्तित्व के साथ कि यह शर्त पूरी होगी तो ही मैं प्रसन्न होऊंगा; वह बेशर्त प्रसन्न होता है।
और मेरी यही संन्यास की परिभाषा है..बेशर्त आनंदित। न तो भोग में आनंद है, न त्याग में आनंद है। आनंद है इस अनुभव में, कि यहां भोग भी गलत है, त्याग भी गलत है। यहां अपना कुछ है ही नहीं। उपयोग भर कर लो। सराय है यह, घर नहीं है। कुछ ने घर समझ कर पकड़ लिया है और कुछ ने घर समझ कर छोड़ दिया है। सराय समझ कर ठहरो और सुबह जब चलने का मौका आ जाए तो अलविदा। धीरे-धीरे तुम्हारी भगवत्ता निखर आएगी।
तुम उतने ही भगवान हो, जितने बुद्ध, जितने कृष्ण, जितने राम; रत्ती भर का भेद नहीं। अगर कुछ भेद है तो इतना ही कि उन्हें बोध है कि वे कौन हैं और तुम्हें बोध नहीं कि तुम कौन हो।

प्यार है विहंगों में
बार-बार जीने का,
बार-बार रंग, रूप, नेह, नीर पीने का,
बार-बार पक्षी का..
जन्म नया पाने का,
बार-बार गाने का..नीड़ के बनाने का।

प्यार है मनुष्यों में..
बार-बार जीने का,
बार-बार राग, रूप, गंध, धूप पीने का,
बार-बार पृथ्वी में..
जन्म नया पाने का,
बार-बार गाने का..गेह के बसाने का।

यही तृष्णा है! ..

बार-बार गाने का..गेह के बसाने का।
बार-बार गाने का..नीड़ के बनाने का।

सराय समझो। यहां कोई नीड़ नहीं, कोई गेह नहीं। और फिर बार-बार बसाने की क्या चिंता? फिर-फिर लौट आने की क्या आकांक्षा? मुक्त भाव से जीओ, जब तक हो जीओ।
जिसकी और पाने की दौड़ छूट गई, उसकी और आने की दौड़ भी समाप्त हो गई। यह तृष्णा ही है जो तुम्हें जन्मों-जन्मों में वापस ले आती है। यह तृष्णा ही है जो तुम्हें जन्म और मृत्यु के वर्तुल में घुमाती रहती है। तृष्णा गई कि तुम इस चक्र के बाहर हुए। और जो इस चक्र के बाहर है उसके आनंद का पारावार नहीं।

छाया मत छूना, मन
होगा दुख दूना, मन

जीवन में है सुरंग सुधियां सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी
तन सुगंध शेष रही बीत गई यामिनी
कुंतल के फूलों की याद बनी चांदनी

भूली-सी एक छुवन
बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना, मन
होगा दुख दूना, मन

यश है न वैभव है, मान है न सरमाया
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृग-तृष्णा है
हर चांदेरा में छिपी एक रात कृष्णा है

जो है यथार्थ कठिन
उसका तू कर पूजन
छाया मत छूना, मन
होगा दुख दूना, मन

द्विविधता साहस है दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन से दुख का अंत नहीं
दुख है न चांद खिला शरद रात आने पर
क्या हुआ जो खिला फूल रस-वसंत जाने पर

जो न मिला भूल उसे
करे तू भविष्य वरण
छाया मत छूना, मन
होगा दुख दूना, मन

जगत में छायाएं ही छायाएं हैं..धन की, पद की, प्रतिष्ठा की। इन छायाओं को पकड़ने को दौड़ोगे, कि दुख बढ़ेगा। पकड़ तो पाओगे नहीं, दुख बढ़ता है, बढ़ता ही रहेगा। जितने हारोगे उतनी ही तेजी से दौड़ोगे। जितना हारोगे उतनी और शक्ति इकट्ठी करके छायाओं को पकड़ना चाहोगे। और छायाएं पकड़ में आती नहीं। इसलिए जिन्होंने जाना, उन्होंने जगत को छाया कहा, माया कहा।
तृष्णा यानी छाया, तृष्णा यानी माया। और छाया और माया से जो जागा उस जागरण में ही भगवत्ता है।
और जब तक तुम तृष्णा में हो, तब तक तुम अपने को कुछ का कुछ समझते रहोगे, क्योंकि तृष्णा बाहर भटकाए रखती है। तृष्णा भीतर आने का समय नहीं देती, अवसर नहीं देती। तुम जान ही न सकोगे कि तुम कौन हो। मैं कौन हूं, यह प्रश्न, यह जिज्ञासा अनुत्तरित ही रह जाएगी। और यही एकमात्र प्रश्न है, जो सच्चा प्रश्न है। और यही एकमात्र प्रश्न है, जो सुलझ जाए तो जीवन की सब उलझन सुलझ जाती है, सब पहेलियां हल हो जाती हैं। और जिसने अपने को जाना नहीं, वह कुछ न कुछ मानता रहेगा। कोई मानता है मैं देह हूं, कोई मानता है मैं मन हूं, कोई मानता है मैं धन हूं।
तुमने देखा, कुछ लोगों का धन खो जाए, दिवाला निकल जाए, तो आत्महत्या ही कर लेते हैं। इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ इतना ही हुआ कि उन्होंने धन को ही अपना जीवन मान रखा था। वह धन ही न रहा, तो अब जी कर क्या करोगे? किसी की पत्नी मर गई, उन्होंने जहर पी लिया। तो उन्होंने पत्नी में ही अपने प्राण रख दिए थे।
तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी। उन कहानियों में कोई राजा, कोई सम्राट अपने प्राण किसी पक्षी में रख देता है। कोई रख देता है तोते में, कौई मैना में। उस राजा को कितना ही मारो, वह नहीं मर सकता। लेकिन तोते की गर्दन मरोड़ दो कि राजा मर जाता है। वे कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं। यही हमारी दशा है। किसी ने धन में रख दिए अपने प्राण। इनको कितना ही मारो, ये न मरेंगे। इनका धन चला जाए कि बस ये गए। धन में ही इनका जीवन है। लोग कहते हैं कि धन का जो पागल है वह मर भी जाए तो गड़े धन पर सांप होकर बैठ जाता है। मरने की जरूरत ही नहीं, जिंदा में ही लोग सांप होकर बैठे रहते हैं।
तुम्हारा जहां मोह है, वहीं तुम्हारा प्राण है। जिनका राजनीति में मोह है, उनके प्राण दिल्ली में। वे रहें कहीं, तुम उनको कितना ही मारो, मार नहीं सकोगे। गोली आर-पार हो जाएगी, बेकार जाएगी। तुम्हें उनकी कुर्सी को छेदना पड़ेगा। अगर तुम उनकी कुर्सी मार दो, वे मारे गए। बस कुर्सी में ही प्राण हैं। जब तक कुर्सी पर लोग रहते हैं, देखते हो तुम, उनकी छाती कैसी फूली रहती है! उनकी चाल में क्या रंग होता है, क्या ढंग होता है! बूढ़े भी जवान मालूम होते हैं। कुर्सी चली गई जवान भी बूढ़े हो जाते हैं..एकदम लचर-पचर, कमर झुक जाती है! सारा बल ही गया। रीढ़ ही टूट गई।
लोग अपने को कुछ न कुछ माने हुए हैं। जिस चीज में तुम्हारी तृष्णा जुड़ी है, वही तुम हो जाते हो। तृष्णा तादात्म्य पैदा करती है, तादात्म्य से भ्रांति हो जाती है। सारी तृष्णाएं टूट जाएं तो तुम जान सकते हो कि मैं कौन हूं।
मुल्ला नसरुद्दीन को वहम हो गया था कि वह एक चूहा है। कुछ बुरा वहम नहीं। किसी को वहम हो जाता है राष्ट्रपति है, किसी को वहम हो जाता है प्रधानमंत्री है। उससे तो बेहतर। झगड़ा-झांसा तो नहीं है। न चुनाव लड़ने की झंझट, न किसी को परेशान करने की झंझट। बिल्कुल अहिंसात्मक तादात्म्य था उसका..चूहा! किसी की कोई स्पर्धा भी नहीं, कोई भाग-दौड़ भी नहीं। किसी का विरोध भी नहीं। घर के लोग, मित्र-गण, मोहल्ले-पड़ोस के आदमी परेशान। पहले तो समझे कि नसरुद्दीन मजाक करता है, फिर धीरे-धीरे जब समझ में आया कि मामला वाकई में गंभीर है, तो वे मुल्ला को पकड़ कर एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक के पास ले गए।
मनोवैज्ञानिक ने एक माह तक नसरुद्दीन का महंगा इलाज किया। जब मुल्ला का वहम पूर्णतः दूर हो गया, और वह पुनः अपने आप को मनुष्य मानने लगा, तब उसने फीस चुकाकर डाक्टर से विदा ली। वह डाक्टर के घर की सीढ़ियां उतर रहा था, तभी अचानक एक बिल्ली सामने से गुजर गई। मुल्ला चीख मार कर छलांग लगाता हुआ वापस सीढ़ियां चढ़ गया।
मनोवैज्ञानिक ने पूछा: क्यों मुल्ला, क्या बात है? घबड़ा क्यों रहे हो? नसरुद्दीन बोला: घबड़ाऊं नहीं तो क्या करूं! जान का खतरा था। अभी-अभी एक बिल्ली रास्ता काट गई। वह तो गनीमत है कि उसकी नजरें मुझ पर नहीं पड़ीं, वरना आज जिंदगी से हाथ धो बैठता।
कंधे पर हाथ रखते हुए मनोवैज्ञानिक ने कहा: नसरुद्दीन, क्या तुम फिर भूल गए कि तुम चूहा नहीं हो? अब तुम मानने लगे हो कि तुम मनुष्य हो?
मुल्ला बोला: आप बिल्कुल ठीक कहते हैं डाक्टर। मैं मानता हू कि मैं मनुष्य हूं, लेकिन बिल्ली को क्या मालूम? उसने थोड़े ही आपसे इलाज करवाया है!
लोगों को गौर से देखो..कोई अपने को धन मानता है, कोई अपने को पद मानता है, कोई तन मानता है, कोई मन मानता है। और स्वाभाविक क्योंकि जब तक तुम अपने को नहीं जानते, कुछ न कुछ तो मानोगे। और अपने को जानने की सुविधा कहां, अवकाश कहां! थोड़ा बाहर की आपा-धापी बंद हो, थोड़ी बाहर की दौड़ क्षीण हो, तो तुम भीतर मुड़ो। थोड़ा समय भीतर जाओ, तो अपने से पहचान हो आत्म-साक्षात्कार हो।
आत्म-साक्षात्कार का एक ही उपाय है: तृष्णा से मुक्ति। और आत्म-साक्षात्कार ही भगवत्ता का अनुभव है। वही बोध है, जहां उदघोष उठता है: अहं ब्रह्मास्मि! अनलहक!

आज इतना ही।  

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