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रविवार, 11 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-01)

होनी होय सो होय-कबीर

पहला प्रवचन

मंगन से क्या मांगिए

सूत्र:


मोर फकिरवा मांगि जाय,
मैं तो देखहू न पौल्यौं।
मंगन से क्या मांगिए,
बिन मांगे जो देय।
कहैं कबीर मैं हौं वाही को,
होनी होय सो होय।

चली मैं खोज में पिय की। मिटी नहिं सोच यह जिय की।।
रहे नित पास ही मेरे। न पाऊं यार को हेरे।।
बिकल चहुं ओर को धाऊं। तबहु नहिं कंत को पाऊं।।
धरों केहि भांति सों धीरा। गयौ गिर हाथ से हीरा।।
कटी जब नैन की झाईं। लख्यौं तब गगन में साईं।।
कबीर शब्द कहि त्रासा। नयन में यार को वासा।।


तन-मन-धन बाजी लागी हो,
चैपड़ खेलूं पीव से रे, तन-मन बाजी लगाया।
हारी तो पिय की भई रे, जीती तो पिय मोर हो।
चैसरिया के खेल में रे, जुग्ग मिलन की आस।
नर्द अकेली रह गई रे, नहिं जीवन की आस हो।
चार बरन घर एक है रे, भांति भांति के लोग।
मनसा-बाचा कर्मना कोई, प्रीति निबाहो ओर हो।
लख चैरासी भरमत भरमत, पौ पे अटकी आय।
जो अबके पौ ना पड़ी रे, फिर चैरासी जाय हो।
कहै कबीर धर्मदास से रे, जीती बाजी मत हार।
अबके सुरत चढ़ाय दे रे, सोई सुहागिन नार हो।


संत तो हजारों हुए हैं, पर कबीर ऐसे हैं जैसे पूर्णिमा का चांद..अतुलनीय, अद्वितीय! जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीया जला दे, ऐसा यह नाम है। जैसे मरुस्थल में कोई अचानक मरूद्यान प्रकट हो जाए, ऐसे अदभुत और प्यारे उनके गीत हैं!
मैं कबीर के शब्दों का अर्थ नहीं करूंगा। शब्द तो सीधे-सादे हैं। कबीर को तो पुनरुज्जीवित करना होगा। व्याख्या नहीं हो सकती उनकी, उन्हें पुनरुज्जीवन दिया जा सकता है। उन्हें अवसर दिया जा सकता है कि वे मुझसे बोल सकें।
तुम ऐसे ही सुनना जैसे यह कोई व्याख्या नहीं है; जैसे बीसवीं सदी की भाषा में, पुनर्जन्म है। जैसे कबीर का फिर आगमन है। और बुद्धि से मत सुनना। कबीर का कोई नाता बुद्धि से नहीं। कबीर तो दीवाने हैं। और दीवाने ही केवल उन्हें समझ पाए और दीवाने ही केवल समझ पा सकते हैं। कबीर मस्तिष्क से नहीं बोलते हैं। यह तो हृदय की वीणा की अनुगूंज है। और तुम्हारे हृदय के तार भी छू जाएं, तुम भी बज उठो, तो ही कबीर समझे जा सकते हैं। यह कोई शास्त्रीय, बौद्धिक आयोजन नहीं है। कबीर को पीना होता है, चुस्की-चुस्की। जैसे कोई शराब पीए! और डूबना होता है, भूलना होता है अपने को, मदमस्त होना होता है।
भाषा पर अटकोगे, चूकोगे; भाव पर जाओगे तो पहुंच जाओगे। भाषा तो कबीर की टूटी-फूटी है। बे-पढ़े-लिखे थे। लेकिन भाव अनूठे हैं, कि उपनिषद फीके पड़ें, कि गीता, कुरान और बाइबिल भी साथ खड़े होने की हिम्मत न जुटा पाएं।
भाव पर जाओगे तो...। भाषा पर अटकोगे तो कबीर साधारण मालूम होंगे। कबीर ने कहा भी..लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। नहीं पढ़ कर कह रहे हैं। देखा है आंखों से। जो नहीं देखा जा सकता उसे देखा है, और जो नहीं कहा जा सकता उसे कहने की कोशिश की है।
बहुत श्रद्धा से ही कबीर समझे जा सकते हैं। शंकराचार्य को समझना हो, श्रद्धा की ऐसी कोई जरूरत नहीं। शंकराचार्य का तर्क प्रबल है। नागार्जुन को समझना हो, श्रद्धा की क्या आवश्यकता! उनके प्रमाण, उनके विचार, उनके विचार की अदभुत तर्कसरणी..वह प्रभावित करेगी। कबीर के पास न तर्क है, न विचार है, न दर्शनशास्त्र है। शास्त्र से कबीर का क्या लेना-देना! कहा कबीर ने..मसि कागद छुओ नहीं। कभी छुआ ही नहीं जीवन में कागज, स्याही से कोई नाता ही नहीं बनाया। सीधी-सीधी अनुभूति है; अंगार है, राख नहीं। राख को तो तुम सम्हाल कर रख सकते हो। अंगार को सम्हालना हो तो श्रद्धा चाहिए, तो ही पी सकोगे यह आग।
कबीर आग हैं। और एक घूंट भी पी लो तो तुम्हारे भीतर भी..अग्नि भभक उठे..सोई अग्नि जन्मों-जन्मों की। तुम भी दीये बनो। तुम्हारे भीतर भी सूरज ऊगे। और ऐसा हो, तो ही समझना कि कबीर को समझा, ऐसा न हो तो समझना कि कबीर के शब्द पकड़े, शब्दों की व्याख्या की, शब्दों के अर्थ जाने; पर वह सब ऊपर-ऊपर का काम है। जैसे कोई जमीन को इंच दो इंच खोदे और सोचे कि कुआं हो गया। गहरा खोदना होगा। कंकड़-पत्थर आएंगे। कूड़ा-कचरा आएगा। मिट्टी हटानी होगी। धीरे-धीरे जलस्रोत के निकट पहुंचोगे।
ऐसी ही हम खुदाई आज शुरू करते हैं।

शब्द झरे अर्थ की लड़ी
अर्थ झरे
एक फूल, पांच रंग, सात पंखुड़ी।

एक दर्द धूप से भरा हुआ
माथ चूम कर मुझे जगा गया
टूटता हुआ प्रणाम शाम का
गांठ नई भोर की लगा गया
सिंधु तिरी प्यास की तरी
डूब गए
एक मंत्र, पांच दीप, सात अंजुरी।

एक वायु गंध से भरी हुई
अंग-अंग को परस गुजर गई
एक मूच्र्छना चढ़ी हुई शिखर
मंत्र-मुग्ध पांव तक उतर गई
गूंज से दिशा-दिशा भरी
रीत गए
एक गीत, पांच गान, सात बंसुरी।

तुम्हारे भीतर फूल झर जाएं, तो समझना कि कबीर को समझा। बांसुरी बज जाए, तो समझना कि कबीर को समझा। इंद्रधनुष प्रकट हो जाएं, तो समझना कि कबीर को समझा।

शब्द झरे अर्थ की लड़ी
अर्थ झरे
एक फूल, पांच रंग, सात पंखुड़ी।
एक दर्द धूप से भरा हुआ!

एक पीड़ा उठे! एक पीड़ा..प्रीति की, परमात्मा से विछोह की, आत्म-अज्ञान की। एक तीर चुभ जाए कि निकाले न निकले।

एक दर्द धूप से भरा हुआ
माथ चूम कर मुझे जगा गया

और वह पीड़ा तुम्हें जगा जाए, तो ही जानना कि कबीर को समझा।

टूटता हुआ प्रणाम शाम का
गांठ नई भोर की लगा गया

सुबह की तरफ यात्रा शुरू हो। सुबह की पुकार तुम्हारे प्राणों में गूंज उठे तो समझना कि कबीर को समझा।

सिंधु तिरी प्यास की तरी
डूब गए
एक मंत्र, पांच दीप, सात अंजुरी
एक वायु गंध से भरी हुई!

हां, ऐसे ही हैं कबीर..एक वायु गंध से भरी हुई! परमात्मा की सुगंध!

अंग-अंग को परस गुजर गई।

यहां सुनते-सुनते कबीर की गंध-भरी वायु तुम्हारे अंग-अंग को परस जाए, छू जाए। यह दरस-परस हो जाए तो ही जानना कि समझे।

एक वायु गंध से भरी हुई
अंग-अंग को परस गुजर गई
एक मूच्र्छना चढ़ी हुई शिखर
मंत्र-मुग्ध पांव तक उतर गई

और ऐसे पी लेना इस शराब को कि नख शिख सब डूब जाएं। कुछ अछूता न रहे, कुछ अनभीगा न रहे, सब भीग जाए, आद्र्र हो जाए..तो जानना कि कबीर को समझे।

गूंज से दिशा-दिशा भरी
रीत गए
एक गीत, पांच गान, सात बंसुरी।

बजने लगें स्वर पर स्वर, उठने लगें गीत पर गीत! एक अभिनव नृत्य तुम्हारे भीतर प्रारंभ हो जाए! एक महोत्सव का यह निमंत्रण है!
कबीर एक आमंत्रण हैं, एक पुकार, एक आवाहन! चल पड़ो तो समझोगे। किताब के पन्ने पलटते रहे, कुछ हाथ न लगेगा। किताबों में सिवाय राख के और कुछ भी नहीं। कुछ और हो भी नहीं सकता है। कुछ और की आशा भी नहीं करनी चाहिए।
गाते हैं कबीर..
मोर फकिरवा मांगि जाय,
मैं तो देखहू न पौल्यौं।
मंगन से क्या मांगिए,
बिन मांगे जो देय
कहै कबीर मैं हौं वाही को,
होनी होय सो होय।
कहते हैं: मैं फकीर हूं, मांगने जाता हूं, द्वार-द्वार भिक्षा का पात्र फैलाता हूं; लेकिन एक बड़ा चमत्कार देखा कि जो मिलता है वही फकीर है, सभी यहां मांगने वाले हैं! यहां देने वाला कौन? जब तक वासना है, तब तक भिखमंगापन है।
कबीर कहते हैं: मैं तो फकीर हूं, भिखमंगा हूं, द्वार-द्वार भिक्षापात्र फैलाता हूं; लेकिन चकित हुआ हूं यह जान कर कि हर घर में मैंने भिखमंगों को बैठे देखा, और दूसरा कोई दिखाई पड़ता ही नहीं! बड़े-बड़े भिखमंगे हैं, धनी भिखमंगे हैं, सम्राट भिखमंगे हैं; मगर हैं सब भिखमंगे।
जब तक वासना है तब तक भीख है। जब तक तुम कह रहे हो यह और मिल जाए, यह और मिल जाए, तब तक तुम मालिक नहीं हो। जब तक मांग शेष है तब तक मालकियत कैसी?
मोर फकिरवा मांगि जाय।
कबीर कहते हैं: मैं तो रहा फकीर, सो ठीक है कि मांगने जाता हूं। लेकिन सम्राटों के द्वार पर भी खड़े होकर, राज-सिंहासनों पर बैठे हुए लोगों को देखा और हैरान हुआ, समझ नहीं पाया इस पहेली को कि सभी फकीर हैं, सभी भिखमंगे हैं। यहां सभी मांगने में लगे हैं, तो फिर सोचा कि इनसे क्या मांगना! मंगन से क्या मांगिए! ये तो खुद ही भिखमंगे हैं बेचारे, ये तो खुद ही दया के पात्र हैं। इन्होंने तो खुद ही अपनी वासना के अदृश्य पात्र फैला रखे हैं। मेरा पात्र तो छोटा, मुट्ठी दो मुट्ठी से भर जाए। इनके पात्र ऐसे हैं, दुष्पूर, कि लाख भरो, नहीं भरते, खाली के खाली! साम्राज्य पी जाते हैं, लेकिन उनका खालीपन नहीं भरता। इनसे क्या मांगूं? इनसे मांगने में शर्म आती है। यह जान कर तुम्हें हैरानी होगी कि कबीर जीवन भर कपड़ा ही बुनते रहे और बेचते रहे; जुलाहे थे, अपना काम जारी रखा। उनके शिष्यों ने बहुत बार कहा कि हमें शर्म लगती है, हमें संकोच होता है, हमें लाज आती है, हमें लज्जा पकड़ती है, लोग हमें उलटी-सीधी बातें कहते हैं कि जिसके हजारों शिष्य हैं, हजारों भक्त हैं, उसको कपड़ा बुनना पड़ता है, बाजार बेचने जाना पड़ता है! तो आप यह बंद क्यों नहीं कर देते? हम तो देने को राजी हैं..जो चाहिए; जितना चाहिए उससे ज्यादा देने को राजी हैं। क्या कमी है!
लेकिन कबीर मुस्कुराते और अपना काम जारी रखा। मरते दम तक बुनते रहे कपड़ा, बेचते रहे कपड़ा। कारण यही था..
मोर फकिरवा मांगि जाय,
मैं तो देखहू न पौल्यौं।
मंगन से क्या मांगिए,
बिन मांगे जो देय।
कहै कबीर मैं हौं वाही को,
होनी होय सो होय।
कबीर कहते हैं कि इसीलिए नहीं। क्या मांगू? क्या तुम्हारे ऊपर निर्भर होऊं? तुम तो खुद ही भिखमंगे हो। तुम्हारी तो खुद ही आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई हैं। इससे बेहतर यही है कि उससे ही मांग लूं, जो सबको देता है और जो बिन मांगे देता है।
क्योंकि मांगो तो मजा चला गया, मांग कर कुछ मिला तो मजा चला गया। बिन मांगे मिल जाए, तो सम्मान है, तो गौरव है, तो गरिमा है।
बिन मांगे जो देय।
यहां तो मांगे-मांगे भी कौन देता है और मांग-मांग कर भी अगर कोई दे तो लाख एहसान जताता है। देता भी है तो किन्हीं और कारणों से देता है, दिखावे के लिए देता है, अहंकार की तृप्ति के लिए देता है। दानी, महादानी समझा जाए, इसलिए देता है। और जहां दान के पीछे कुछ भी आकांक्षा है, वहां दान विकृत हो गया, विषाक्त हो गया। दान तो तभी दान है जब अकारण है। यहां तो तुम दो पैसे भी देते हो तो पात्रता का पता लगाते हो, योग्यता का पता लगाते हो। देते हो दो पैसे, दो पैसे देने के लिए कितना शोरगुल मचाते हो!
कबीर कहते हैं: ऐसे मांगने में मुझे रस नहीं। भिखमंगों से मांगने में मुझे खुद ही संकोच लगता है कि बेचारे वैसे ही दीन-हीन हैं और इनसे कुछ लेकर दो पैसे, इन्हें और दीन-हीन कर देना क्या उचित होगा?
सिकंदर जब भारत आया तो डायोजनीज से मिला..एक नंगे फकीर से। डायोजनीज से बहुत प्रभावित हुआ..और सिकंदर ने कहा: डायोजनीज, कुछ मांग लो। जो चाहिए हो वह मांग लो। डायोजनीज ने सिकंदर को नीचे से ऊपर तक देखा और कहा कि अभी तो तुम्हारी ही आकांक्षाओं का पात्र भरा नहीं, तुम मुझे क्या दोगे! तुमसे क्या मांगूं? फिर भी तुम्हें बुरा न लगे, फिर भी तुम्हारा अपमान न हो, फिर भी अशिष्टाचार न हो जाए, इसलिए इतना मांगता हूं कि जरा हट कर खड़े हो जाओ, क्योंकि मैं सुबह-सुबह सूरज की धूप ले रहा था और तुम बीच में आकर खड़े हो गए हो। इतना ही दे दो। और इतनी ही प्रार्थना करता हूं कि यही ख्याल रखना कि किसी व्यक्ति के और सूरज के बीच में खड़े मत होना। किसी की धूप मत छीनना, बस। इतना ही तुम कर सको तो बहुत है। वैसे तुम्हारे पास मैं कुछ देखता नहीं, जो मांगने योग्य हो। और तुम्हारी ऐसी दीन दशा देखता हूं कि हो भी तुम्हारे पास, तो भी मैं मांग न सकूंगा।
सिकंदर एक तरफ तो हतप्रभ हुआ, और एक तरफ चमत्कृत भी हुआ। पहली दफा जैसे किसी मनुष्य से मिलना हुआ था। नहीं था कुछ उसके पास, नंगा था यूं। लेकिन कैसी अलमस्ती थी! सिकंदर से भी कुछ न मांगा। सिकंदर को भी दिखा दिया..कि तुम भिखमंगे हो।
सूफी फकीर फरीद से उसके गांव के लोगों ने कहा कि अकबर तुम्हारे पास आता है, तुम उससे प्रार्थना करो कि गांव के लिए एक मदरसा बनवा दे। फरीद कभी अकबर से मिलने नहीं गया था। अकबर ही आता था जब उसे मिलना होता था। लेकिन जब कुछ मांगना हो तो जाना उचित है, ऐसा मान कर फरीद अकबर से मांगने गया। सुबह-सुबह जल्दी गया। काम-धाम में उलझ जाए अकबर, उससे पहले ही मिल आना ठीक है। पहुंचा महल, सम्मानपूर्वक उसे अंदर ले जाया गया। अकबर तब प्रार्थना कर रहा था, सुबह की नमाज पढ़ रहा था। फरीद पीछे खड़ा रहा। अकबर ने नमाज पूरी की, दोनों हाथ आकाश की तरफ फैलाए और परमात्मा से कहा हे प्रभु! मेरी धन-संपदा बढ़ा, मेरे राज्य को बढ़ा, मुझ पर कृपा कर!
फरीद उलटे पांव लौट पड़ा। अकबर उठा तो फरीद जाता हुआ दिखाई पड़ा। दौड़ कर पैर पकड़ लिए और कहा: आए, पहली दफा आए और बिना एक शब्द बोले लौटे चले जाते हो, बात क्या है? कुछ मुझसे भूल-चूक हो गई है? ’
फरीद ने कहा: नहीं, तुमसे कुछ भूल-चूक नहीं हुई, भूल-चूक मुझसे हो गई है। मैं भी कहां भिखमंगे से भीख मांगने आ गया! गांव के लोगों ने मुझसे बहुत बार कहा तो मैंने कहा चलो ठीक। वे कहते थे कि गांव में मदरसा खुलवा दो, एक स्कूल; उसी के लिए आया था लेकिन नहीं अब, अब नहीं मांगूंगा। तुम तो खुद ही अभी मांग रहे हो। तुम्हारी प्रार्थना तो अभी भिखमंगे की प्रार्थना है..और राज्य, और धन, और संपदा। नहीं, तुम्हें गरीब नहीं करूंगा। एक मदरसा खोलोगे तो कुछ पैसा तो लगेगा ही, उतना गरीब हो जाओगे। नहीं, मैं किसी को गरीब करने के लिए उत्सुक नहीं हूं। फिर रही बात मदरसे की तो गांव के लोगों से कह दूंगा कि हम उसी से ही क्यों न मांग लें जिससे अकबर खुद मांगता है। उसकी होगी मर्जी तो दे देगा; उसकी मर्जी नहीं होगी, तो उसकी मर्जी से ही राजी होना उचित है।’
कबीर कहते हैं: मंगन से क्या मांगिए!
मांगना ही हो, तो सम्राटों के सम्राट से मांगो, उस मालिक से मांगो..बिन मांगे जो देय! और उससे मांगना भी नहीं पड़ता। यही मजा है। भक्त और भगवान के बीच जो संवाद चलता है, अनूठा है। भक्त मांगता नहीं और भगवान बरसाए चला जाता है..प्रसाद पर प्रसाद! भक्त ने मांगा कि संवाद रुक जाता है। मांगा कि बात टूट गई। मांगा कि नाता छिन्न-भिन्न हो गया। सेतु गिर गया। क्योंकि मांगा तो तुमने यह बता दिया कि तुम्हें भगवान में उत्सुकता नहीं है; तुम्हारी उत्सुकता धन में है, पद में है, प्रतिष्ठा में है। भगवान तो केवल बहाना है। उसके माध्यम से मिल जाए धन, इसलिए भगवान की प्रार्थना भी कर रहे हो। लेकिन असली इच्छा धन की है। धन भगवान से बड़ा हो गया। भगवान साधन हो गया, धन साध्य हो गया।
जिसने मांगा उसने भगवान का अपमान किया। अगर तुम्हारी प्रार्थनाओं में मांग है तो तुम भगवान का अपमान कर रहे हो।
लोग मुझसे पूछते हैं कि हमारी प्रार्थनाएं पूरी क्यों नहीं होतीं?
तुम्हारी प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंच ही नहीं सकतीं; वे प्रार्थनाएं नहीं हैं, अपमान हैं; स्तुति नहीं हैं, गालियां हैं। क्योंकि जब भी तुम कुछ मांगते हो तभी तुम यह कह रहे हो कि भगवान से भी बड़ी कोई चीज है, जिसके लिए हम भगवान को भी साधन बना रहे हैं। अगर शैतान दे सकता हो, तो हम शैतान की प्रार्थना करेंगे। कहते हैं कि भगवान देता है, तो भगवान की प्रार्थना करते हैं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की अंतिम घड़ी आई। तो धर्मगुरु उसे आखिरी प्रार्थना करवाने आया। मुल्ला ने कहा कि अभी तो मैं प्रार्थना खुद कर सकता हूं। आप बैठें, विराजें! मैं प्रार्थना करता हूं। और उसने पहले तो परमात्मा से प्रार्थना की कि ‘हे प्रभु! मुझे बचाओ। ये मृत्यु के दूत द्वार पर आकर खड़े हो गए हैं। मेरी रक्षा करो। और फिर कहा कि हे शैतान, मुझे बचा! ये मृत्यु के दूत मेरे द्वार पर आकर खड़े हो गए हैं।
धर्मगुरु ने सुना कि वह शैतान से भी प्रार्थना कर रहा है! तो उसने कहा: नसरुद्दीन, तुम विक्षिप्त तो नहीं हो गए हो? मरते वक्त होश तो नहीं खो दिया है? ’
नसरुद्दीन ने कहा कि तुम मुझे समझाने की कोशिश मत करो। मर मैं रहा हूं कि तुम मर रहे हो? अब कौन जाने किसके हाथ में पड़ना पड़े! इसलिए दोनों से प्रार्थना कर लेनी उचित है। जिसके भी हाथ में पड़ गए उसी से कहेंगे कि भाई याद रखना, प्रार्थना तो की थी! इस आखिरी समय में यह झंझट मैं मोल नहीं ले सकता कि एक की प्रार्थना करूं और दूसरे को छोड़ दूं। अब पता नहीं किसके कब्जे में पड़ूंगा। और ज्यादा संभावना तो शैतान के कब्जे में ही पड़ने की है। इसलिए उसे भी राजी रखना उचित है।
तुम उसकी ही प्रार्थना करते हो जिसे तुम्हारी आकांक्षाएं पूरी हो सकें; फिर वह परमात्मा हो कि शैतान हो। तुम्हें न परमात्मा से प्रयोजन है न शैतान से; तुम्हें अपनी आकांक्षा से प्रयोजन है। इनका तो तुम उपयोग कर रहे हो।
इसलिए भक्त मांगता नहीं; बिन मांगे मिलता है, बहुत मिलता है, अकूत मिलता है! तौला नहीं जा सकता; इतना मिलता है। प्रसाद की सतत वर्षा होती रहती है। लेकिन बिन मांगे! मांगा कि तत्क्षण वर्षा बंद हो जाती है।
और तुमने तो जो प्रार्थना सीखी है, और तुम्हारे धर्मगुरुओं ने तुम्हें जो प्रार्थनाएं सिखाई हैं, वे सब मांगने की हैं। पानी न गिरे तो हवन, यज्ञ। तुम परमात्मा की याद ही तब करते हो जब तुम्हारी कोई जरूरत होती है; कोई काम अटक जाए तो खुशामद करने लगे। तुम्हारी प्रार्थना खुशामद से ज्यादा नहीं है। मजबूरी में करते हो। वह तुम्हारा आह्लाद नहीं है। तुम्हारा आनंद नहीं है। तुम्हारा उत्सव-गीत नहीं है। तुम्हारा धन्यवाद नहीं है। तुम्हारा आभार, अनुग्रह नहीं है। पानी नहीं गिरा तो यज्ञ-हवन शुरू, पंडित-पुरोहित शुरू। कोई अड़चन आई, बीमारी आई, तकलीफ आई..तो प्रार्थना।
एक छोटे से बच्चे से स्कूल में पूछा उसके अध्यापक ने कि बेटा, रात प्रार्थना करके सोते हो न? उसने कहा कि जरूर, रोज प्रार्थना करके सोता हूं।
और सुबह प्रार्थना करते हो कि नहीं? उस लड़के ने कहा: सुबह! सुबह किसलिए? रात तो अंधेरे में मुझे डर लगता है, इसलिए प्रार्थना करता हूं। सुबह तो रोशनी है, क्या मैं पागल हूं जो सुबह प्रार्थना करूं?
तुम्हारी प्रार्थनाएं भी उस लड़के की प्रार्थना से बहुत भिन्न नहीं हैं।
कल ही मैं एक पंडित के संबंध में पढ़ रहा था कि उसने अपने सोने के कमरे की दीवाल पर, सुंदर अक्षरों में श्रेष्ठतम प्रार्थनाएं लिख रखी थीं..सभी धर्मों की! सर्व-धर्म-समभाव में उसका भरोसा था। और रोज रात सोने के पहले कहता था: हे प्रभु! कृपा करके प्रार्थनाएं पढ़ लेना! और सो जाता था। होशियार आदमी, चालबाज आदमी! अब कौन झंझट रोज-रोज वही प्रार्थना दोहराने की करे! और फिर लिख तो दिया है। और परमात्मा के पास आंखें भी हैं और आशा की जाती है कि पढ़ा-लिखा भी होगा। ‘पढ़ लेना खुद ही’ इतनी ही प्रार्थना करता था; हे प्रभु! प्रार्थना पढ़ लेना।
हमारी प्रार्थनाएं हमारी वासनाओं का ही प्रक्षेपण हैं। और हमारी प्रार्थनाएं हमारे अज्ञान से आपूरित हैं। हमारी प्रार्थनाएं प्रार्थनाएं नहीं हैं, प्रार्थनाओं का धोखा है।
कबीर ठीक कहते हैं: बिन मांगे जो देय!
उस परमात्मा की तरफ झुक भर जाओ और उसके मेघ चले आते हैं, उसकी वर्षा शुरू हो जाती है।
स्मरण रहे कि जैसे जब वर्षा के मेघ आषाढ़ में उठते हैं, वर्षा के जल से भरे, तो बरसने को उतने ही आतुर होते हैं, जितनी पृथ्वी पीने को प्यासी होती है। पृथ्वी की प्यास, आतुरता और बादलों की बरसने की आकांक्षा..समान है। सिर्फ पृथ्वी ही प्यासी नहीं होती, बादल भी आतुर होते हैं बरसने को! यह स्वाभाविक है।
तुम सिर्फ अपने हृदय को खोल दो। परमात्मा उतना ही बरसने को आतुर है। उसके पास बाढ़ है आनंद की। वह तुम्हारी तरफ हजार-हजार धाराओं में, सहस्र धाराओं में बहना चाहता है। सच तो यह है कि वह रोज तुम्हारे चारों तरफ परिभ्रमण करता है। तुम तो कभी-कभी मंदिर में जाकर परिक्रमा कर आते हो..झूठी! तुम्हारा मंदिर झूठा, तुम्हारी परिक्रमा झूठी, क्योंकि तुम झूठे। तुम्हारा मंदिर तुम्हारा बनाया हुआ। तुम्हारे मंदिर के पंडित-पुजारी तुम्हारे नौकर। तुम्हारी प्रार्थनाएं इन्हीं नौकरों के द्वारा गढ़ी हुई प्रार्थनाएं हैं।
तुम अपनी प्रार्थना भी अपने हृदय से नहीं उठने देते! क्या फिकर कि प्रार्थना में सुंदर शब्द हों? फिकर होनी चाहिए कि प्रार्थना हृदय से जन्मी हो। क्या चिंता कि भाषा सौष्ठव हो, व्याकरण शुद्ध हो? चिंता होनी चाहिए एक कि हार्दिकता हो, सहजता हो, स्वस्फूर्त हो। तुतलाहट से भी काम चल जाएगा। सुंदर से सुंदर प्रार्थनाएं, गायत्री के मंत्र भी काम नहीं आएंगे; शुद्ध से शुद्ध उच्चारण भी साथ नहीं देगा। लेकिन अगर तुम्हारे प्राणों से ही उठा हुआ भाव है, फिर चाहे वह तुतलाहट जैसा ही क्यों न मालूम हो, टूटा-फूटा क्यों न हो..सार्थक है। इसलिए सार्थक है कि तुम्हें खोलता है।
परमात्मा तो तुम्हारी परिक्रमा कर ही रहा है। तुम्हें खुला हुआ पा जाए तो प्रवेश कर ले। तुम बिल्कुल बंद हो। तुमने द्वार-दरवाजे, खिड़की, सब बंद कर रखे हैं। तुमने रंध्र भी नहीं छोड़ी है उसके प्रकाश के प्रवेश के लिए। तुम ऐसे भयभीत हो..कि तुमने जीवन को एक कब्र बना लिया है।

भर देते हो
बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से
क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो।
भर देते हो!

मेरे अंतर में आते हो, देव, निरंतर,
कर जाते हो व्यथा-भार लघु
बार-बार कर-कंज बढ़ा कर;
भर देते हो! अंधकार में मेरा रोदन
सिक्त धरा के अंचल को
करता है क्षण-क्षण..

कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण
तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो,
नव प्रभात जीवन में भर देते हो।
भर देते हो!

तुम जरा खिड़की तो खोलो, झरोखा तो खोलो हृदय का..और उसका सूरज सदा तुम तैयार पाओगे! उसका सूरज क्या कभी डूबता है? उसकी सुगंध सदा तुम्हारे चारों तरफ डोल रही है। अवसर तो दो, उसके बादल बरसने को आतुर हैं! मगर तुमने अपने हृदय की पृथ्वी को छिपा रखा है। प्यासे हो, पीड़ित हो। मगर गलत दिशाओं में खोज रहे हो। भिखमंगों से मांग रहे हो। और जो दे सकता है, बिन मांगे दे सकता है, उसकी तरफ आंख नहीं उठाते! झोली फैलाओ, मांगो मत!
कबीर कहते हैं: मैं तो उसी का हो गया।
कहै कबीर मैं हौं वाही को,
होनी होय सो होय।
और कबीर कहते हैं, अब मैं यह भी नहीं कहता कि ऐसा हो, वैसा हो; क्योंकि उसमें तो मांग आ जाएगी। फिर तो नियंता मैं, फिर तो परमात्मा पर मैंने शर्त लगा दी। फिर तो प्रार्थना में भी शर्तबंदी हो गई। फिर तो प्रार्थना भी सौदा हो गई। नहीं कोई शर्त, नहीं कोई आकांक्षा। ‘होनी होय सो होय!’ जो उसे करना हो, करे। वह जो करेगा, वही शुभ है। यह भक्त का भाव है।
अभक्त कहता है: ऐसा करो, ऐसा मत करना। ऐसा करोगे, तो ही मैं तुम्हें मानूंगा। ऐसा नहीं करोगे, तो मैं मानने वाला नहीं हूं।
एक मित्र मेरे पास आए। कोई पंद्रह वर्ष पहले की बात है। कहने लगे: मुझे ईश्वर पर भरोसा आ गया है। मैंने पूछा: कैसे भरोसा आया? किस कारण भरोसा आया? उन्होंने कहा कि मैंने अल्टीमेटम दे दिया था। अल्टीमेटम!
...कि अगर पंद्रह दिन में मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगी, तो समझ लेना कि फिर कभी जीवन में न पूजा करूंगा, न कभी पाठ करूंगा। समझ लेना कि मान लूंगा कि तुम हो ही नहीं! यह सब पाखंड है, परमात्मा के नाम पर जालसाजों ने फैलाया है। कोई परमात्मा नहीं है। और ठीक पंद्रह दिन के भीतर लड़के को नौकरी मिल गई। अब तो पक्का भरोसा आ गया है कि परमात्मा है।
मैंने कहा कि अब तुम एक काम करना, अब दुबारा अल्टीमेटम मत देना, क्योंकि इस बार तो बात बन गई। लग गया सो तीर, नहीं लगता तो तुक्का हो जाता। संयोग की ही बात है, क्योंकि मुझे पक्का पता है कि परमात्मा ने तुम्हारे लड़के की नौकरी नहीं लगवाई है।
उन्होंने कहा: आप कैसे कह सकते हैं?
मैंने कहा: मैं भी प्रार्थना कर रहा हूं। मैं उसको जानता हूं। लड़के की नौकरी लग गई, यह संयोग की बात है। अब तुम दुबारा यह मत करना, नहीं तो तुम्हारा सब धर्म, तुम्हारी धार्मिकता, यह जो अहोभाव है, सब धूल-धूसरित हो जाएगा। और अगर तुम्हें परीक्षा करनी हो तो एक बार कोशिश कर लो। तुम्हारी पत्नी बहुत दिन से बीमार है, एक दफे और अल्टीमेटम दे दो।
और वही हुआ जो होना था, आखिर उन्होंने अल्टीमेटम दिया; जब एक दफा अल्टीमेटम सफल हो गया...। पत्नी ठीक नहीं हुई, उलटे मर गई। वे मेरे पास आए कि आपने ठीक कहा था। मेरी सारी श्रद्धा खंडित हो गई। मैंने तो कहा था बचाओ और मेरी पत्नी खतम ही कर दी! मेरी आस्तिकता अस्तव्यस्त हो गई है!
मैंने कहा: तुम्हारी आस्तिकता आस्तिकता थी ही नहीं। जो ऐसी सस्ती बातों पर टिकी हो, ऐसी आस्तिकता आस्तिकता होती है? ..मेरे लड़के को नौकरी मिल जाए, कि मेरी पत्नी की बीमारी ठीक हो जाए! इस तरह कहीं कोई आस्तिक होता है! इनको तुम आस्तिक कहते हो!
मगर लोगों का भी क्या कसूर! तुम्हारे धर्मशास्त्र भी इसी तरह की मूढ़ताओं से भरे हुए हैं। जिन वेदों को तुम इतना पूजते हो, कभी उनके पन्ने भी पलटो और तुम चकित हो जाओगे कि जिन ऋषि-महर्षियों का गुणगान करते तुम थकते नहीं, उनकी प्रार्थनाओं में क्या है? उनकी प्रार्थनाएं ऐसी अभद्र हैं, ऐसी क्षुद्र हैं, ऐसी ओछी हैं, कि ऋषि-मुनि तो क्या, साधारण-जन भी ऐसी प्रार्थना करने में झिझकता। कोई ऋषि प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभु, मेरे खेत में ज्यादा वर्षा हो और मेरे दुश्मन के खेत में ज्यादा वर्षा न हो! दोनों के खेत आस-पास होंगे। दुश्मन अक्सर पड़ोसी होता है। दुश्मन कोई बहुत दूर तो होते नहीं। दुश्मनी करने के लिए भी तो थोड़ी निकटता चाहिए। पड़ोसी और दुश्मन अक्सर एक ही आदमी का नाम होता है। इनके खेत में ज्यादा वर्षा और पड़ोसी के खेत में कम वर्षा! क्षुद्रता की भी हद होती है। कोई ऋषि प्रार्थना करता है कि हे प्रभु, मेरी गाय के थन में दूध बढ़ जाए और मेरे दुश्मनों की गाय के थन बिल्कुल सूख जाएं!
इनको तुम प्रार्थनाएं कहोगे!
वेदों में नब्बे प्रतिशत से ज्यादा इसी तरह का कचरा है। इसे कचरा कहो तो लोगों को दुख होता है। उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंच गई! मगर मजबूरी है, कचरे को कचरा कहना ही होगा। अगर तुम्हारी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचती है तो कृपा करके अपनी धार्मिक भावनाओं को जरा मजबूत बनाओ। मुझ पर न मालूम कितने मुकदमे लोग चला देते हैं। अभी किसी ने छपरा में, बिहार में...मैं न कभी छपरा गया...किसी ने मुकदमा चला दिया है कि उसकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंच गई। समन्स आए हैं कि मुझे छपरा की अदालत में मौजूद होना चाहिए।
धार्मिक भावना को चोट पहुंच जाए, ऐसी लचर-पचर, नपुंसक धार्मिक भावना रखते ही क्यों हो? धार्मिक भावना में कुछ तो बल होना चाहिए। मगर इस तरह के आधारों पर खड़ी हुई धार्मिक भावना में कोई दम तो होती नहीं; जरा एक लंगड़ी मार दो, चारों खाने चित्त! धार्मिक भावना क्या है? पैर इत्यादि तो है ही नहीं, हो सकता है लकड़ी का पैर हो, शायद किसी संयोग में काम आ जाए लकड़ी का पैर लेकिन परमात्मा तक नहीं पहुंचा पाएगा। ये झूठे पैर वहां काम नहीं आ सकते। तुम्हारी प्रार्थनाएं झूठी, तुम्हारी भावनाएं झूठी और फिर तुम सोचते हो कि बात क्या है, कहां कमी रह गई, कहां चूक हो रही है! और तुम जब पूछते हो अपने पंडितों से, अपने पुजारियों से, अपने पुरोहितों से, तो वे तो होशियार हो गए हैं सदियों-सदियों तुम्हारे जैसे ही बेईमानों के साथ व्यवहार करते-करते। तो वे कहते हैं: पिछले जन्मों के कर्म, कर्मों का भार, भाग्य, विधाता, कोई जल्दी थोड़े ही होता है; जन्म-जन्म लगेंगे, करते रहो प्रार्थना! ‘रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान।’ घिसते रहो रस्सी को, सिल पर भी निशान पड़ जाएगा। ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।’
मैं तो नहीं समझता। जड़मति कितना ही अभ्यास करे, और जड़मति हो जाएगा। जड़मति कैसे अभ्यास करके सुजान हो जाएगा, यह तो जरा सोचो! जड़मति ही तो अभ्यास करेगा न! जड़ मति से ही तो अभ्यास करेगा न! जड़ मति ही तो अभ्यास करेगा, तो जड़मति अभ्यास करने से सुजान कैसे हो जाएगा? रस्सी आने-जाने से भला चट्टान पर निशान पड़ जाए, वह तो बात जंच सकती है, लेकिन अभ्यास करने से जड़मति सुजान नहीं होता।
अभ्यास के पहले सम्यक बोध चाहिए। बीज ठीक चाहिए, तुम लाख उपाय करो, नीम के बीज बोओगे और कितना ही अभ्यास करो, कितना ही पानी सींचो, कितना ही खाद डालो, इससे कुछ आम पैदा नहीं हो जाएंगे।
प्रार्थनाएं लोगों की झूठी हैं, इसलिए इस संसार में परमात्मा का प्रमाण नहीं मिलता। और प्रार्थना के झूठे होने का बुनियादी आधार है..तुम्हारी मांग। जब भी तुम कुछ मांगो तो समझना प्रार्थना झूठी। फिर प्रार्थना सच्ची कब होगी? सच्ची प्रार्थना बिन मांगे होती है। सिर्फ अपना समर्पण। अपने को दो, उससे मांगना क्या है? अपने को देना है।
इसलिए जब मैं कहता हूं झोली फैला दो, तो मेरा अर्थ है कि कह दो कि मैं कुछ भी नहीं हूं, मात्र एक झोली हूं खाली। अब जो तेरी मर्जी! खाली रखना हो खाली रख, तो भी मैं नाचूंगा, क्योंकि तेरी मर्जी से खाली हूं। भरना हो तो भर दे, तो भी मैं नाचूंगा, क्योंकि तेरी मर्जी से भरा हूं। अब खालीपन में और भरेपन में कुछ भेद नहीं।
जीसस ने सूली पर अपनी अंतिम प्रार्थना में कहा: हे प्रभु, तेरी मर्जी पूरी हो!
कबीर के वचन का वही अर्थ है..
कहै कबीर मैं हौं वाही को,
होनी होय सो होय।
अब तो मैं उसका हो गया हूं, जो बिना मांगे देता है। अब जो होना हो वह हो। अब मैं हर हाल राजी हूं। अब मेरा अपना कोई संकल्प नहीं है। मैंने अपना सारा संकल्प उसी के चरणों में रख दिया है। अब मैं हूं ही नहीं। अब मेरे हाथों में वही है, मेरे पैरों में वही है। वही मेरे हृदय में धड़कता है, वही मेरे खून में गतिमान है, वही मुझमें बोले, वही मुझ में चुप हो, मैं तो मिट गया! मैंने तो अपने को विदा दे दी, मैंने अपने को बाद दे दी।
होनी होय सो होय।
इस मंत्र को ख्याल रखना। इस एक मंत्र के द्वारा ही तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो सकती है। सिर्फ यह छोटा सा मंत्र..होनी होय सो होय! तुम्हारी सब गायत्रियां फीकी हैं। इतना कह सको तो बस पर्याप्त है। फिर तुम्हारे श्वास-श्वास से गायत्री उठेगी, गीता उठेगी, कुरान जगेगा।
चली मैं खोज में पिय की। मिटी नहिं सोच यह जिय की।।
कबीर कहते हैं: मैं उस प्यारे की खोज में निकला। मगर कहीं हृदय में, कोई गहरे में बात एक खटकती रही।
चली मैं खोज में पिय की। मिटी नहिं सोच यह जिय की।।
रहे नित पास ही मेरे।
वह तो पास है।
न पाऊं यार को हेरे।
यहां वहां कितने ही हेरे-फेरे मारूं, उस यार को नहीं पा सकूंगा। यह बात मेरे प्राणों के प्राण में गूंजती ही रही है। तुम्हारे प्राणों में भी गूंज रही है। सुनो तब न! तुम बाहर के शोरगुल से इतने भरे हो कि भीतर की धीमी-धीमी आवाज कि भीतर का कल-कल नाद सुनाई नहीं पड़ता।
 चली मैं खोज में पिय की। मिटी नहीं सोच यह जिय की।।
कबीर कहते हैं: मैं खोजने तो चला, क्योंकि हम यही सुनते हैं कि परमात्मा को खोजना पड़ेगा..काबा में, काशी में, कैलाश में, गिरनार में, कहीं परमात्मा को खोजना पड़ेगा। परमात्मा को खोज बनाओ, खोजो। तो चला। कबीर कहते हैं: मैं खोजने चला। बहुत खोजा, मगर भीतर एक बात मेरे खटकती ही रही, कहीं एक बात मेरे हृदय में गूंजती ही रही। जिसने मेरा कभी पीछा न छोड़ा और वह बात यह थी कि..रहे नित पास ही मेरे। न पाऊं यार को हेरे। कोई मेरे भीतर कहता ही रहा: पागल, कहां जा रहा है? मैं तो तेरे भीतर बैठा हूं। मैं तो तेरे प्राणों के प्राणों में विराजमान हूं। तू मेरा मंदिर। तू जा कहां रहा है? ऐसी धीमी-धीमी आवाज आती रही, धीरे-धीरे समझ में आने लगी। धीरे-धीरे साफ हुई।
बिकल चहुं ओर को धाऊं। तबहु नहिं कंत को पाऊं।।
कोई कहता ही रहा; मैंने सुना, नहीं सुना, मगर कोई कहता ही रहा। कोई अंतरवाणी भीतर गूंजती ही रही कि चाहे कितना ही भागूं-दौड़ूं, आपूं-धापूं..तबहु नहीं कंत को पाऊं..फिर भी उस प्यारे को नहीं पा सकूंगा।
धरों केहि भांति सों धीरा। गयौ गिर हाथ से हीरा।।
और अपने को कितना ही धीरज बंधाऊं, बंधाए-बंधाए भी धीरज बंधता नहीं, क्योंकि हाथ से मेरे हीरा गिर गया है। जिसका हीरा गिर गया है, उसको तुम लाख समझाओ, लाख सांत्वना धराओ, तुम्हारे शब्द सुन लेता है, मगर उस पर कोई परिणाम नहीं होता।
कबीर कहते हैं: जब तक उसको पा न लूं, तब तक धीरज नहीं। साधु-संत समझाते हैं: धीरज रखो, धैर्य रखो, संतोष रखो। मगर कैसा संतोष, कैसा धीरज? जब तक उस प्यारे से मिलन न हो जाए, तब तक यह असंभव है, यह हो नहीं सकता। हां, ठीक है, बात जंचती है कि संतोष अच्छा है। कहते हैं, संतोषी सदा सुखी। तर्क समझ में आता है। मगर जिसके हाथ से हीरा गिर गया है, जिसका प्राण-प्यारा खो गया है, जिसको अपना भी पता नहीं है, वह किस भांति धीरज रखे?
ऐसी ही आवाज तुम्हारे भीतर भी मौजूद है, सबके भीतर मौजूद है। यह अंतरनाद हम जन्म के साथ ही लेकर आए हैं। यह अंतरनाद सदियों-सदियों से हमारे साथ है। हम सुनें न सुनें, लेकिन परमात्मा पुकारता चला जाता है। यह प्रेम एक-तरफा नहीं है। कोई हम ही उसके प्रेम में दीवाने होते हैं, ऐसा नहीं है; वह भी हमारे प्रेम में दीवाना है। यह आग एक ही तरफ नहीं लगी है; यह आग दोनों तरफ लगी है।

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है! हां, दीपक भी जलता है!

सीस हिला कर दीपक कहता..
‘बंधु, वृथा ही तू क्यों दहता? ’
पर पतंग पड़ कर ही रहता! कितनी विह्वलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बच कर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नहीं तो मरा करे क्या? क्या यह असफलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है?

कहता है पतंग मन मारे,
‘तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्यों न मरण भी हाथ हमारे? शरण किसे छलता है।’
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलने में आली,
फिर भी है जीवन की लाली,
किंतु पतंग-भाग्य लिपि काली, किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती,
काम नहीं, परिणाम निरखती, मुझे यही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।

सखि, पतंग भी जलता है! हां, दीपक भी जलता है!

पतंग ही नहीं जलता, दीपक भी जलता है। इसके पहले कि पतंग जले, दीपक को जलना होता है। इसके पहले कि तुम परमात्मा को पुकारो, वह तुम्हें पुकार रहा है। वह दीपक है, हम पतंग हैं। दोनों ओर प्रेम पलता है। इसलिए तुम्हारे भीतर अहर्निश उसकी पुकार आती रहती है..किसी अज्ञात मार्ग से! लेकिन तुम भीतर देखते नहीं, भीतर सुनते नहीं; बाहर का शोरगुल तुम्हें इस तरह घेरे हुए है; विचारों, वासनाओं के प्रचंड तूफान में तुम ऐसे घिरे हो। कहां फुरसत, कहां समय, कहां अवकाश कि घड़ी भर शांत बैठो, कि घड़ी भर भीतर झांको!
 कटी जब नैन की झाईं। लख्यौं तब गगन में साईं।।
 कबीर कहते हैं: जब आंख की जाली कटी...आंख की जाली यानी जो बाहर देखने की यह जो जन्मों-जन्मों की आदत थी, यह जो बाहर देखने का ही अभ्यास हो गया था और भीतर देखने की भाषा भूल गई थी।
कटी जब नैन की झाईं। लख्यौं तब गगन में साईं।।
तब भीतर के ही आकाश में..गगन भीतर के आकाश की तरफ इशारा है..शून्य गगन में, उस भीतर के शांत शून्य निराकार में..लख्यौं तब गगन में साईं..तब मालिक वहां भीतर विराजमान देखा। कितने गए काबा, कितने गए काशी, कहां-कहां नहीं भटके! नहीं पाया उसे। और जब पाया तो अपने भीतर पाया।
कबीर शब्द कहि त्रासा। नयन में यार को वासा।।
खूब भटके, व्यर्थ भटके। शब्दों ने खूब भरमाया, शब्दों ने खूब त्रास दिया।
नयन में यार को वासा।
और जिसे खोजते थे वह आंखों के भीतर ही बसा था।
प्रत्येक मनुष्य ‘उसका’ मंदिर है। कहीं और मंदिर खोजने मत जाना, नहीं तो असली मंदिर से वंचित रह जाओगे। सुनना हो वेद को, कुरान को, तो सुनो भीतर। वहीं से उठते हैं उपनिषद, वहीं से उठती है वास्तविक भगवत-वाणी! और जिसने वहां नहीं सुनी वह लाख शब्दों को याद कर ले, भगवत-गीता कंठस्थ कर ले, बस वह तोते के जैसी बात है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है।
तन-मन-धन बाजी लागी हो,
और जिसको भीतर जाना हो उसे जरा साहस जुटाना पड़ता है। क्योंकि उस शून्य गगन में प्रवेश करना, इस जीवन का सबसे बड़ा साहस है, दुस्साहस है। तन-मन-धन बाजी लागी हो। सब बाजी पर लग जाता है।
संन्यास का अर्थ त्याग नहीं है; संन्यास का अर्थ बाजी है। संन्यास का अर्थ भागना नहीं है; संन्यास का अर्थ सब दांव पर लगा देना है।
तन-मन-धन बाजी लागी हो,
चैपड़ खेलूं पीव से रे, तन-मन बाजी लगाया।
कबीर कहते हैं: चैपड़ खेल रहा हूं प्यारे के साथ, सब दांव पर लगा दिया है। और बड़ी अदभुत बात कहते हैं, सम्हाल कर रख लेना। कोहिनूरों में भी तौलो तो भी तौली न जा सकेगी।
हारी तो पिय की भई रे, जीती तो पिय मोर हो।
यह अदभुत बाजी है, यहां हारो तो भी जीत होती है, जीतो तो भी जीत होती है! यहां हार होती ही नहीं। प्रेम में कभी कोई हारा है? प्रेम में जो हारा सो जीता जो जीता सो तो जीता ही। हारी तो पिय की भई रे। अगर मैं हार गया तो सब कुछ प्रिय हो जाएगा, तन-मन-धन सब लगा दिया है, कुछ पीछे बचाया नहीं। पूरा-पूरा दांव फर रख दिया है। हार गया तो मैं सब कुछ उसका हो जाऊंगा और इससे बड़ा और क्या सौभाग्य..जीती तो पिय मोर हो! और उसने भी कुछ बाजी में कमी नहीं की है, पूरा का पूरा दांव पर वह भी लगा है। अगर मैं जीत गया तो प्यारा मेरा हो जाएगा। दोनों हालत में दो मिट जाएंगे, एक ही बचेगा। फिर चाहे प्यारा बचे या मैं बचूं, क्या फर्क पड़ता है! कहने की बात है फिर।
ज्ञानियों ने कहा: अहं ब्रह्मास्मि। ज्ञानी कहते हैं: मैं ही बच गया, परमात्मा मेरे साथ एक हो गया। महावीर और बुद्ध यही कहते हैं कि आत्मा ही बच गई, परमात्मा उसी में लीन हो गया। और भक्त कहते हैं: आत्मा खो गई, परमात्मा में लीन हो गई। ये कहने के भेद हैं। नदी सागर में उतरी, अब तुम चाहो तो कह दो कि नदी सागर हो गई और चाहो तो यह कह दो कि सागर नदी हो गया। तुम्हारी मौज। असली बात यह है कि अब दो नहीं रहे, एक बचा। अब एक को तुम क्या कहना चाहते हो, तुम्हारी मर्जी। नाम का ही भेद है।
भक्त कहते हैं: मैं मिट जाता है, तू बचता है। ज्ञानी कहते हैं: तू मिट जाता है, मैं बचता है। सच तो यह है: न मैं बचता है, न तू बचता है; जो बचता है उसे अब मैं और तू में कहने का कोई उपाय नहीं। वह अव्याख्य है, अनिर्वचनीय है। हारी तो पिय की भई रे, जीती तो पिय मोर हो!
चैसरिया के खेल में रे, जुग्ग मिलन की आस।
चैसर के खेल में जब दो गोटियां एक जगह इकट्ठी हो जाती हैं, उसकी आशा में ही भक्त भीतर-भीतर उतरता जाता है। लगाता जाता है सब दांव पर।
चैसरिया के खेल में रे, जुग्ग मिलन की आस।
बस एक ही आशा है कि कोई घड़ी तो आएगी जब दोनों गोटें एक जगह मिल जाएंगी; जहां मैं और तू का मिलन होगा।
नर्द अकेली रह गई रे, नहिं जीवन की आस हो।
अगर गोटी अकेली रह गई तो फिर जीवन व्यर्थ है, फिर जीवन में कुछ आशा नहीं है। जीवन में सारी आशा परमात्मा की मौजूदगी से है और जीवन का सारा रस हम कितने उससे ओतप्रोत हो जाएं इसमें छिपा है। जीवन का सारा अर्थ, महिमा परमात्मा में डुबकी लगाने में है। अपने को मिटा दो तो तुम हो जाओगे। ऐसा उलटा सूत्र है जीवन का, ऐसा महागणित है जीवन का!
चार बरन घर एक है रे, भांति भांति के लोग।
यहां इतने वर्ण हैं, चार वर्ण हैं; मगर घर एक है। चाहे शूद्र हो, चाहे ब्राह्मण हो, चाहे क्षत्रिय हो, चाहे वैश्य हो, इनमें कुछ भेद है क्या? ये घरों के भेद हैं। और घरों में क्या भेद? सब मिट्टी के भांडे हैं। तुम क्या किसी हड्डी को, डाक्टर के पास ले जाकर जांच करवा सकते हो कि यह शूद्र की है या ब्राह्मण की? कोई डाक्टर दुनिया का बताने में समर्थ नहीं हो सकता कि यह शूद्र की हड्डी है या ब्राह्मण की। शूद्र और ब्राह्मण की तो फिकर छोड़ दो, कोई डाक्टर यह भी नहीं बता सकता कि यह हड्डी राम की है, कृष्ण की है, बुद्ध की है, कि रावण की है, कंस की है कि जुदास की है, यह भी नहीं बता सकता। यह हड्डी किसी संत की है, महात्मा की है कि हत्यारे की है, यह भी नहीं बता सकता। घर तो घर है। घर के भीतर कौन रहा, इससे घर में कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन हम घर को बड़ा महत्व दे रहे हैं, बड़ा शोरगुल मचाया हुआ है।
शरीर को इतना मूल्य दे दिया है! और इस मूल्य को हम धार्मिकता कहते हैं। लोगों को चार हिस्सों में बांट दिया है। बीसवीं सदी में भी, अभी हरिजन जलाए जाते हैं, जिंदा! और यह भारत जैसे महान धार्मिक देश में घटता है। धर्म के नाम पर भी कैसे-कैसे पाप पलते हैं! सुविधा से पलते हैं। अच्छी आड़ मिल जाती है, बहाना मिल जाता है।
चार बरन घर एक है रे, भांति भांति के लोग।
ऊपर-ऊपर के भेद हैं, भीतर तो एक ही बसा है।
मनसा-बाचा कर्मना कोई, प्रीति निबाहो ओर हो।
इन छोटी-छोटी बातों को धर्म मत समझ लेना। असली धर्म तो है: मनसा-बाचा कर्मना, प्रीति को निबाहना। मन से, वचन से, कर्म से जो परमात्मा के प्रति अपनी प्रीति को निभाए; जो ऐसे जिए, ऐसे उठे, ऐसे बैठे, ऐसे बोले, जिसके जीवन के अंग-अंग में परमात्मा की मौजूदगी की छाप हो। जैसे परमात्मा प्रतिक्षण उसके साथ है, छाया की तरह साथ है।
मनसा-बाचा कर्मना कोई, प्रीति निबाहो ओर हो।
लख चैरासी भरमत भरमत, पौ पे अटकी आय।
‘पौ’ कहते हैं: जीत का दांव-विशेष। वह घड़ी खेल की जब इस पार या उस पार तय हो जाता है।
लख चैरासी भरमत भरमत, पौ पे अटकी आय।
मनुष्य का यह जो जन्म है, यह पौ की घड़ी है। कितनी यात्राओं के बाद यह अपूर्व अवसर मिला है!
जो अबके पौ ना पड़ी रे, फिर चैरासी जाय हो।
अगर अबकी बार भी न जीते तो फिर लंबी यात्रा है। फिर लंबी भटकन है।

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;
थक कर बैठ गए क्यों भाई! मंजिल दूर नहीं है।
चिंगारी बन गई लहू की
बूंद गिरी जो पग से;
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो,
चरण-चिह्न जगमग-से।
शुरू हुई आराध्य-भूमि यह,
क्लांति नहीं रे राही;
और नहीं तो पांव लगे हैं
क्यों पड़ने डगमग-से?
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थक कर बैठ गए क्यों भाई! मंजिल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से
हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख
झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेय है शेष, किसी विध
पार उसे कर आओ;
वह देखो उस पार चमकता
है मंदिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है,
थक कर बैठ गए क्यों भाई! मंजिल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर
पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों
में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया,
वह फूल खिलाएगी ही,
अंबर पर घन बन छाएगा
ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जांच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थक कर बैठ गए क्यों भाई! मंजिल दूर नहीं है।

मनुष्य से निकटतम है परमात्मा। क्यों? क्योंकि अकेला मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जो अंतर्मुखी हो सकता है। और सारे पशु-पक्षी हैं, उनमें भी इतना ही परमात्मा है, जितना हम में है, लेकिन वे अंतर्मुखी नहीं हो सकते, वे भीतर नहीं मुड़ सकते। मनुष्यों में भी सभी मनुष्य कहां भीतर मुड़ पाते हैं। कभी लाखों-करोड़ों में एकाध मुड़ता है। कभी कोई एक बुद्ध, कोई कबीर, कोई नानक, कोई दादू, कोई रैदास, कोई मलूक, कभी एकाध! लेकिन जो भीतर मुड़ता है उसने ही मनुष्य जीवन का ठीक-ठीक उपयोग किया। उस भीतर मुड़ने को ही मैं ध्यान कहता हूं। प्रार्थना चाहो उसे प्रार्थना कहो। उस भीतर मुड़ने को ही जो अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है, उसे मैं संन्यासी कहता हूं। नहीं कि वह भाग जाता है संसार से, बल्कि जीवन को एक दिशा दे देता है..एक गंतव्य, एक लक्ष्य। सारी जीवन-ऊर्जा एक तीर की तरह भीतर की यात्रा पर निकल पड़ती है। अपनी खोज में जो संलग्न हो जाता है, वही संन्यासी है।
और मनुष्य-जीवन एकमात्र जीवन है, जहां से हम भीतर की यात्रा कर सकते हैं। यह एक चैराहा है जहां से भीतर की तरफ रास्ता जाता है। चूक गए यह चैराहा तो फिर न मालूम कितने-कितने जन्मों के बाद मिले यह अवसर, मिले न मिले! फिर बात बहुत लंबी हो जाएगी। इतने करीब आकर गंतव्य के चूकना उचित नहीं, नासमझी है।
लख चैरासी भरमत भरमत, पौ पे अटकी आय।
अब तो बिल्कुल आ गए किनारे, यह लगी नाव, यह रहा किनारा। अब भटकते हो? सब तूफान पार कर आए, अंधेरे को पार कर आए, सुबह होने के करीब है, और अब सोने की तैयारी कर रहे हो? अब सूरज फूटने को है, भोर होने लगी और तुम चादर तान कर सोने का इंतजाम कर रहे हो?
जो अबके पौ ना पड़ी रे, फिर चैरासी जाय हो।
कहैं कबीर धर्मदास से रे, जीती बाजी मत हार।
धर्मदास कबीर के एक शिष्य हैं, जिनको संबोधन करके ये वचन उन्होंने कहे हैं।
कहै कबीर धर्मदास से रे, जीती बाजी मत हार।
बात जीत ही गई। निन्यानबे प्रतिशत जीत गई..मनुष्य होने में ही निन्यानबे प्रतिशत तो तुम जीत गए। बस एक प्रतिशत जीत के लिए चूकना है?
जरा सी बात बची है, जरा सा उपाय, थोड़ा सा श्रम, थोड़ा सा बोध..और क्रांति घट जाएगी। सब मौजूद है। तेल मौजूद है, बाती मौजूद है, दीया मौजूद है, चकमक पत्थर मौजूद है; जरा दोनों पत्थरों को रगड़ देना है। जरा सी रगड़..और आग पैदा हो जाएगी, और दीया जल जाएगा और सदियों-सदियों का अंधेरा कट जाएगा। कहते हैं कबीरः मत हारो ऐसी जीती बाजी को।
मरा हूं हजार मरण
पाई तब चरण-शरण।

फैला जो तिमिर-जाल
कट-कट कर रहा काल,
अंसुओं के अंशुमाल,
पड़े अमित सिताभरण।
मरा हूं हजार मरण
पाई तब चरण-शरण।

जल-कलकल-नाद बढ़ा
अंतर्हित हर्ष कढ़ा,
विश्व उसी को उमड़ा,
हुए चारु-करण सरण।
मरा हूं हजार मरण
पाई तब चरण-शरण।

यह अवसर हजारों बार मर कर मिला है और यूं चूके जाते हो!
बुद्ध एक कहानी कहा करते थे। वे कहते थे: एक आदमी को एक सम्राट ने कारागृह में बंद कर दिया। लेकिन उस आदमी ने सम्राट की बड़ी सेवाएं की थीं और सम्राट दुखी था कि उसे बंद करना पड़ा, क्योंकि उसने कुछ दगाबाजी की थी। मगर हजारों उसने सम्राट के उपकार भी किए थे, तो उसे एक विशेष तरह की सजा दी गई। सम्राट का एक महल था, जिसमें एक हजार दरवाजे थे। उस आदमी की आंख पर पट्टी बांध दी गई और उससे कहा गया कि तू महल में घूम, नौ सौ निन्यानबे दरवाजे बंद कर दिए हैं और एक दरवाजा खुला है, अगर तू वह दरवाजा खोज लेगा और बाहर निकल आएगा, तो तू मुक्त है।
वह आदमी आंख पर पट्टी बांधे टटोलता-टटोलता महल में भटकता है। नौ सौ निन्यानबे दरवाजे बंद हैं। सोच सकते हो तुम उसकी हालत, थक जाता है, परेशान हो जाता है। मालूम है कि एक दरवाजा खुला है, और मालूम है कि हर घड़ी वह दरवाजा करीब आ रहा है, क्योंकि जितने दरवाजे बंद छूट गए पीछे उतने कम हो गए। ओर जब वह दरवाजा उसके करीब आया तो उसके सिर पर एक मक्खी आ बैठी, वह उस मक्खी को उड़ाने में दरवाजा पार कर गया..बिना टटोले। फिर नौ सौ निन्यानबे दरवाजे! फिर लंबी यात्रा! बस आया-आया और चूक गया।
बुद्ध कहते थे, ऐसी ही हालत मनुष्य की है। मनुष्य-जीवन एक खुला दरवाजा है। और कितने बंद दरवाजों को टटोल-टटोल कर तुम मनुष्य हो पाए! कहीं छोटी-मोटी बातों में मत चूक जाना। सिर पर मक्खी बैठ गई और चूक गए! और ऐसी ही बातों में लोग चूक कर रहे हैं। कोई धन में अटक गया है; वह कोई सिर पर बैठी मक्खी से ज्यादा नहीं है मामला। कम भला हो ज्यादा तो नहीं है। कोई पद में चूका जा रहा है। कोई गरुर में अकड़ा हुआ है। छोटी-छोटी बातें, दो कौड़ी की बातें, जिनका कोई मूल्य नहीं।
समझो कि यह आदमी आ गया फिर नौ सौ निन्यानबे चक्कर लगा कर और कोई आदमी गाली दे दे उसको जब दरवाजा खुला उसके करीब आता हो; बस, क्रोध में भन्ना गया; उसी भन्नाने में निकल गया। फिर नौ सौ निन्यानबे दरवाजे, फिर लंबी यात्रा है। और कई तरह की अड़चनें आ सकती हैं। और लोग ऐसे मूढ़ हैं कि उनके लिए चूकना आसान, चूकने का अभ्यास पुराना है। इसलिए चूकना उनका स्वभाव हो गया है। जगा रहे हैं कबीर..
कहैं कबीर धर्मदास से रे, जीती बाजी मत हार।
अबके सुरत चढ़ाय दे रे, सोई सुहागिन नार हो।
अब की हो जाने दे विवाह, अब की रच जाने दे, पड़ जाने दे भांवर। जरा सी ही बात करनी है: सुरत को चढ़ा देना है ऊपर, स्मृति को, बोध को जगा देना है! बुद्ध ने जिसको सम्यक स्मृति कहा है..‘सम्मासति’..उसी को कबीर ने सुरति कहा है। सुरति का अर्थ होता है..स्मरण। स्मरण इस बात का कि मैं कौन हूं। स्मरण अपने स्वभाव का, अपने स्वरूप का।
अबके सुरत चढ़ाय दे रे, सोई सुहागिन नार हो।
अगर चढ़ जाए अबकी सुरत तो जन्मों-जन्मों का खोया सुहाग फिर से मिल जाए, प्यारा फिर से मिल जाए। फिर भांवर पड़े..शाश्वत के साथ, सनातन के साथ, अमृत के साथ! जागो, बहुत सो चुके हो!
बीती विभावरी जाग री!
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा-घट उषा नागरी।

खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा।
लो, यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस-गागरी।

अधरों में राग अमंद पिए,
अलकों में मलयज बंद किए,
तू अब तक सोई है आली!
आंखों में भरे विहाग री!

बीती विभावरी जाग री!
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा-घट उषा नागरी।

सुबह आ गई। मनुष्य का जन्म भोर का क्षण है। अभी चाहो और जाग जाओ, तो सूरज से मिलन हो जाए। कहीं दिन को भी सोने में मत गंवा देना। रात सोने में गई, क्षमा किया जा सकता है। लेकिन दिन भी सोने में चला जाए तो अक्षम्य है।
और जो बीत गया, उसकी फिकर छोड़ो। जन्मों-जन्मों में जो भटकाव रहे, उनकी चिंताओं में न पड़ो। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: पिछले जन्मों की याद कैसे आए? मैं उनसे कहता हूं कि अभी तुम इस जन्म में क्या तुम्हारे जीवन का स्रोत है, उसकी याद करने में लगो। क्या करोगे जान कर कि पहले तुम एक बार कुत्ते थे कि बिल्ली थे? जान भी लोगे तो क्या करोगे, कि एक बार वृक्ष थे कि हाथी थे कि घोड़े थे? जान भी लोगे तो क्या करोगे? स्मृति भी आ जाएगी तो क्या खाक उसका कोई मूल्य है! पीछे की क्या फिकर? इतना पक्का है कि तुम यहां अनंतकाल से हो, क्योंकि जीवन में कुछ नष्ट नहीं होता। यहां केवल रूप बदलते हैं, आकार बदलते हैं, कुछ भी नष्ट नहीं होता। पानी भाप बन जाता है तो भी कुछ नष्ट नहीं होता। फिर बदली घिरेगी, फिर वर्षा आएगी, फिर पानी बरस जाएगा, फिर नदियां बहेंगी, फिर समुद्र में गिरेगा, फिर भाप बनेगा, फिर हिमालय पर बरसेगा। वर्तुलाकार है। फिर गंगा से बहेगा, फिर पहुंच जाएगा सागर, फिर उठेगा आकाश में।
तुम घूमते रहे इस चक्कर में। अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि इसका विस्तार जानो? इसका विस्तार जानने से कुछ प्रयोजन नहीं और विस्तार इतना बड़ा है कि जानने में कहीं इस जीवन को मत गंवा देना! विस्तार इतना बड़ा है, फाइलों पर फाइलें हैं कि तुम अगर उनमें खो गए और उसका हिसाब-किताब लगाने में बैठ गए तो यह जीवन छोटा सा है, यह यूं चला जाएगा कि पता न चलेगा, यह आंख की पलक झपकते निकल जाएगा।
कल की फिकर छोड़ो। कुछ को फिकर आने वाले कल की है। कुछ आ जाते हैं, वे कहते हैं कि मृत्यु के बाद क्या होगा? मैं उनसे कहता हूं: पागलो, इसकी फिकर करो कि मृत्यु के पहले क्या हो रहा है। मृत्यु के बाद क्या होगा, यह जब मरो तब देख लेना, तब जान लेना; इसकी इतनी क्या जल्दी पड़ी है? अभी तुम जीवित हो, अभी क्या है तुम्हारे भीतर, उसकी चिंता लो।

जो बीत गई सो बात गई।

जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया।
अंबर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे,
जो छूट गए, फिर कहां मिले;
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है!
जो बीत गई सो बात गई!

जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुवन की छाती को देखो,
सूखीं इसकी कितनी कलियां,
मुरझाईं कितनी वल्लरियां
जो मुरझाईं, फिर कहां खिलीं,
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है!
जो बीत गई सो बात गई!

जीवन में मधु का प्याला था,
तुमने तन-मन दे डाला था,
वह टूट गया तो टूट गया;
मदिरालय का आंगन देखो,
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं,
जो गिरते हैं, कब उठते हैं,
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई!

मृद-मिट्टी के हैं बने हुए,
मधु-घट टूटा ही करते हैं,
लघु जीवन लेकर आए हैं,
प्याले फूटा ही करते हैं,
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं, मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं,
वे मधु लूटा ही करते हैं,
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट-प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है, चिल्लाता है!
जो बीत गई सो बात गई।

जरा भीतर मुड़ो, वहां मधु की धार बह रही है..शाश्वत मधु की धारा बह रही है! वहां मधुमय विराजमान है। वहां अमृत का स्रोत है। उससे पहचान कर लो।
और मनुष्य-जीवन में ही उससे पहचान हो सकती है। इसलिए कबीर ठीक कहते हैं कि बहुत बार हारे हो, इस बार बाजी मत हार जाना। एक बार भीतर देख लो, बस फिर जीवन का सारा दुख कट जाता है, चिंता कट जाती है, संताप कट जाता है। आनंद की, अमृत की वर्षा हो जाती है! फिर एक और ही आयाम खुलता है। उस आयाम का नाम ही परमात्मा है। एक और ही द्वार, एक और ही रहस्यमय द्वार खुलता है। उस रहस्यमय द्वार का नाम ही परमात्मा है।
और वह द्वार तुम्हारे भीतर है। कहीं और न खोजना, नहीं तो खोज व्यर्थ होगी। भीतर खोदो, भीतर खोजो!

आज इतना ही।  

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