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रविवार, 11 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

मैं अपने साहिब संग चली

 सूत्र:

भींजै चुनरिया प्रेम-रस बूंदन।
आरत साज के चली है सुहागिन पिय अपने को ढूंढन।
काहे की तोरी बनी चुनरिया काहे को लगे चारों फूंदन।
पांच तत्त की बनी रे चुनरिया नाम के लागे फूंदन।
चढ़िगे महल खुल गई रे किबरिया दास कबीर लागे झूलन।।
भींजै चुनरिया प्रेम-रस बूंदन।

मैं अपने साहिब संग चली।
हाथ में नरियल मुख में बीड़ा, मोतियन मांग भरी।
मैं अपने साहिब संग चली।
लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी, तापै चढ़ि के चली।
मैं अपने साहिब संग चली।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे, तुरत जनम सुधरी।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, दोउ कुल तारि चली।
मैं अपने साहिब संग चली।


कबीर भाटी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ।।
हरि-रस पीया जाणिए, जे कबहूं न जाइ खुमार।
मैंमंता घूमत रहे, नाहीं तन की सार।।
सबै रसायण मैं किया, हरि-सा और न कोई।
तिल इक घट मैं संचरै, तो सब कंचन होइ।।

आइ न सकौं तुज्झपै, सकूं न तुज्झ बुलाइ।
जियरा यौंही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ।।
यहु तन जालौं मसि करूं, ज्यूं धूवां जाइ सुरग्गि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि।।
यहु तन जालौं मसि करौं, लिखौं राम का नांऊं।
लेखणि करूं करंक की, लिखी लिखी राम पठाऊं।।
इस तन का दीवा करौं, बाती मेलूं जीव।
लोही सींचैं तेल ज्यू, कब मुख देखौं पीव।।
कै बिरहीन कूं मींच दे, कै आपा दिखलाइ।
आठ पहर का दग्झणां, मौपे सहा न जाइ।


अब शीघ्र करो तैयारी मेरे जाने की
रथ जाने को बाहर तैयार खड़ा मेरा,
है मंजिल मेरी दूर बहुत, पथ दुर्गम है,
हर एक दिशा पर डाला है तम ने डेरा

कल तक तो मैंने गीत मिलन के गाए थे
पर आज विदा का अंतिम गीत सुनाऊंगा,
कल तक आंसू से मोल दिया जग-जीवन का
अब आज लहू से बाकी कर्ज चुकाऊंगा।

कल खेला था अलियों-कलियों की गलियों में
अब आज मुझे मरघट में रास रचाने दो,
कल मुस्काया था बैठ किसी की पलकों पर
अब आज चिता पर बैठ मुझे मुस्काने दो।

कल सुन कर मेरे गीत हंसे-मुस्काए तुम
अब आज अश्रु दो मेरे साथ बहा लेना,
कल तक फूलों की मालाएं पहनाई थीं
गलहार अंगारों का अब पहना देना।

बेकार बहाना, टालमटोल व्यर्थ सारी
आ गया समय जाने का..जाना ही होगा,
तुम चाहे जितना चीखो-चिल्लाओ, रोओ,
पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा।

अब चाहूं भी तो मैं रुक सकता नहीं दोस्त!
कारण-खुद मंजिल ही ढिग बढ़ती आती है,
मैं जितना पैर टिकाने की कोशिश करता
उतनी ही मिट्टी और धसकती जाती है।

वह देखो लहरों में तूफानी हलचल है
उस पार खड़ा होकर कोई मुस्काता है,
जिसके नयनों के मौन इशारों पर मेरा
साहिल खुद लहरों के संग बहता जाता है।

फिर तुम्हीं कहो किस ओर बचूं, भांगू जाऊं
नामुमकिन है अंबर के ऊपर चढ़ जाना
है संभव नहीं धरा के अंदर धंस जाना
नामुमकिन है धर पंख पवन में उड़ जाना

पर यदि यह भी सब संभव हो तो क्या बोलो!
अपने से बच कर कौन कहां जा सकता है?
सांसों पर जो पड़ चुका काल का नागपाश
उससे छुटकारा कौन कहां पा सकता है?

देखो लिपटी है राख चिता की पैरों में
अंगार बना जलता है रोम-रोम मेरा
है चिता सदृश धू-धू करती सारी देही
है कफन बंधा सर पर, सुधि को तम ने घेरा।

हूं इसीलिए कहता मत चीखो-चिल्लाओ
मत आंसू से तुम मेरा पथ रोको साथी।
मत फैलाओ आलिंगन की प्यासी बांहें
मत मुझे सुनाओ प्रेमभरी अपनी पाती।

अब आंसू की आवाज न मैं सुन सकता हूं,
अब देख न सकता मैं गोरी तस्वीरों को,
अब चूम न सकता मैं अधरों की मुस्कानें,
अब बांध न सकता बांहों की जंजीरों को।

मेरे अधरों में घुला हलाहल है काला
नयनों में नंगी मौत खड़ी मुस्काती है,
है रामनाम ही सत्य, असत्य और सब कुछ
बस एक यही ध्वनि कानों से टकराती है।

है अट्टहास करते मेरे कंकाल मुझे
हैं भूत-प्रेत..से नाच रहे टूटे सपने
हैं विकल चिताएं मुझे चूमने को प्रतिपल
दाहक-से सब लगते मुझको मेरे अपने।

पथराती जाती हैं नीली-पीली पुतली,
मन में भीषण तूफान घुमड़ता आता है,
सारे शरीर में हलचल है भूचालों की,
पलकों पर तम का परदा छाता जाता है।

फिर भी आहों से और सिसकियों से छिन-छिन
तुम बांध रहे हो मेरे पैरों की गति को,
फिर भी लाकर तुम बाढ़ आंसुओं की अनंत
हो डुबो रहे मुझको, मेरे पथ अथ-इति को।

उस अजित मृत्यु के फंदे के आगे सचमुच
हैं बहुत क्षीण कमजोर तुम्हारी ये बांहें,
उसके घन-गर्जन तांडव-नर्तन में सचमुच
हैं नहीं एक क्षण टिक सकते आंसू-आंहें।

जीवन में तो आंसू का मूल्य बहुत कुछ है
वह साथी है एकाकी सूने जीवन का,
वह दीपक है तम भरी निशा की राहों का,
वह मोती है हत-भाग्य थकित, निर्धन-मन का।

पर काल काल के आगे सोना मिट्टी है।
हीरे-मोती की कीमत कब उसने जानी?
पहचानी कब उसने पारस की स्वर्ण-शक्ति
बस मिट्टी की सत्ता केवल उसने मानी।

उसने कब यह सोचा कि एक कलिका के संग
कितने तुतले अरमान बंधे हैं मधुवन के?
कब उसे ज्ञात यह हुआ कि एक सांस के संग
कितने सपने जीते-मरते हैं जीवन के?

कब किसी नीड़ के तिनकों से उसने पूछा
किस जगह तुम्हारे दिल पर बिजली टूटी है?
कब किसी विकल पंछी से उसने प्रश्न किया
किसने जगह तुम्हारी प्राण-पपिहरी छूटी है?

है और किसी से मोह न उसको कभी हुआ,
परिवर्तन..केवल परिवर्तन उसका साथी
हैं नाश-सृजन उसके शाश्वत गतिमय दो पग
मृत्तिका-मृत्तिका ही केवल उसकी थाती।

हम सत्य समझते हैं उनको जो नित्य नये
खिलते मधुवन में रंग-बिरंगे फूल-शूल
पर अटहास कर पतझर कहता है हमसे
वह देखो मरघट में किसकी उड़ रही धूल?

जीवन के तीन बड़े सत्य हैं। उनमें दो केवल भासते हैं कि सत्य हैं; हैं नहीं। और एक जो सत्य है, पर भासता नहीं कि सत्य जैसा है। उन तीन सत्यों को समझना जरूरी है। दो केवल आभास हैं, मगर प्रतीत होते हैं कि बहुत वास्तविक। और एक..जो आभास जैसा मालूम होता है, वही है सत्य..एकमात्र सत्य। पहला है जन्म, दूसरा है मृत्यु और दोनों के मध्य में है प्रेम। जन्म झूठा है। कभी हुआ नहीं। रोज होता लगता है। बार-बार तुम जन्मे हो, पर कभी जन्मे नहीं। जन्म के पहले भी तुम थे।
और ऐसी ही झूठ है मृत्यु। रोज-रोज घटती है। हजार बार तुम मरे हो, मरकर भी मरे कहां! मृत्यु होती है मगर होती कहां! न कोई जन्मता है न कोई मरता है। जन्म के पहले हो तुम, मृत्यु के बाद भी हो तुम। लेकिन दोनों बड़े सत्य मालूम पड़ते हैं। दोनों से ही बना लगता है जीवन का ताना-बाना।
और दोनों के बीच में है प्रेम। और प्रेम बिल्कुल असत्य मालूम पड़ता है; कवियों की कल्पना मालूम पड़ता है; उन्मत्तों की भावदशा मालूम पड़ता है। लेकिन प्रेम ही है एकमात्र सत्य, क्योंकि प्रेम से ही तुम उसे जान सकोगे जो है..जो जन्म के भी पहले है और मृत्यु के बाद भी है। प्रेम है द्वार परमात्मा का।
मैं तुम्हारे प्रेम की बात नहीं कर रहा। जब तक तुम्हें जीवन और मृत्यु का असत्य न दिखाई पड़े, तब तक तुम्हारा प्रेम भी झूठा ही होगा। झूठा जन्म, झूठी मौत; दोनों के बीच में जो प्रेम होगा; वह सच कैसे हो सकता है? यह किनारा झूठा, वह किनारा झूठा; बीच में सेतु बनाओगे, वह सेतु सत्य नहीं हो सकता। दो असत्यों को जोड़ने वाला सेतु सत्य कैसे होगा?
नहीं, तुम्हारे प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं। उस प्रेम की बात कर रहा हूं जिस प्रेम की बात कबीर कर रहे हैं, मीरा कर रही है, चैतन्य कर रहे हैं। एक प्रेम है, जो वासना नहीं है। एक प्रेम है, जो कामना नहीं है। एक प्रेम है, जो प्रार्थना है। और प्रेम की वह ऊंचाई, वह उत्तंुग शिखर, जहां प्रेम प्रार्थना बन जाता है, अर्चना बन जाता है, आराधना बन जाता है..उससे ही खुलता है द्वार प्रभु का। जागो..जन्म से। जागो..मृत्यु से। जागो..प्रेम में! झूठ से जागो ताकि सत्य को देख सको। प्रेम और परमात्मा पर्यायवाची हैं।
कबीर ठीक कहते हैं: भींजै चुनरिया प्रेम-रस बूंदन।
मेरी चुनरिया तो अब प्रेम की वर्षा में भीगी जाती है। होने लगी बूंदा-बांदी अनंत की, अमृत की।
भाषा के साथ एक कठिनाई है। कबीर कहें प्रेम, तो अपने अर्थो में कहते हैं। तुम सुनोगे प्रेम, अपने अर्थों में सुनोगे। और वहीं सब चूक हो जाती है। कबीर जब प्रेम की बात कर रहे हैं तो तुम्हारे प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं, इसे तो तुम गांठ बांध लेना। तुम्हारे प्रेम में तो सिवाय विषाद के, दुख के, पीड़ा के, कलह के, संघर्ष के, ईष्र्या के, वैमनस्य के..और क्या जन्मता है? तुम्हारे प्रेम में कभी फूल लगते ही नहीं, कांटे ही लगते हैं। यह किसी और ही प्रेम की बात है, जिससे तुम अपरिचित हो और जिससे परिचित होना जरूरी है; जिससे परिचित होने का नाम ही धर्म, योग, तंत्र, ध्यान; जिससे परिचित होने की ही व्यवस्था सदियों-सदियों में बुद्धपुरुषों ने निर्मित की है।
तोड़ना है तुम्हारे प्रेम से तुम्हें और जोड़ना है किसी अनूठे प्रेम से, जिसकी तुम्हें खबर ही नहीं; जिसका तुमने स्वप्न भी नहीं देखा है।
भीजैं चुनरिया प्रेम-रस बूंदन।
कबीर कहते हैं: नाच उठा हूं, मगन हो गया हूं, मदमस्त हो गया हूं। यह आकाश टूट पड़ा मेरे ऊपर। यह कैसा प्रेम है जो मुझे भिगोए चला जाता है, डुबोए चला जाता है! यह चारों तरफ से कैसे प्रेम की बूंदाबांदी होने लगी!
यह होती है। इस होने के लिए तुम्हारी भूमि तैयार होनी चाहिए, भूमिका निर्मित होनी चाहिए। तुम्हारी पात्रता होनी चाहिए। हम उतना ही पाते हैं जितनी हमारी योग्यता होती है। जिसकी योग्यता हीरे पाने की नहीं है, उसे तुम हीरा दे भी दो तो जल्दी ही गंवा देगा। कंकड़-पत्थर खरीद लेगा। हीरे के बदले में पत्थरों के ढेर लगा लेगा। जिसे गुण का बोध नहीं है, जो केवल परिमाण को ही समझता है, अगर उसे कोई मिल जाएगा पत्थरों का ढेर देने वाला, तो एक हीरे को वह क्या करेगा! वह सोचेगा: ‘एक हीरे के बदले में इतने पत्थर मिलते हैं, खरीद ही लो! सौदा करने जैसा है।’
हीरा सिर्फ जौहरी के लिए हीरा है।
मैंने सुना है, एक कुम्हार को रास्ते पर चलते समय..बाजार से लौटता था अपनी मटकियां बेच कर, अपने गधे को लेकर..एक हीरा पड़ा मिल गया। बड़ा हीरा! उठा लिया सोच कर कि चमकदार पत्थर है, बच्चे खेलेंगे। फिर राह में ख्याल आया उसे कि बच्चे कहीं गंवा देंगे, यहां-वहां खो देंगे, अच्छा हो गधे के गले में लटका दूं। गधे के लिए आभूषण हो जाएगा।
कुम्हार के हाथ हीरा पड़े तो गधे के गले में लटकेगा ही, और जाएगा कहां! उसने गधे के गले में हीरा लटका दिया। एक जौहरी अपने घोड़े पर सवार आता था। देख कर चैंक गया। बहुत हीरे उसने देखे थे, पर ऐसा हीरा नहीं देखा था। और गधे के गले में लटका! रोक लिया घोड़ा। समझ गया कि इस मूढ़ को कुछ पता नहीं है। इसलिए नहीं कहा कि इस हीरे का कितना दाम; कहा कि इस पत्थर का क्या लेगा? कुम्हार ने बहुत सोचा-विचारा, बहुत हिम्मत करके कहा कि आठ आने दे दें। जौहरी तो बिल्कुल समझ गया कि इसे कुछ भी पता नहीं है। आठ आने में करोड़ों का हीरा बेच रहा है! मगर जौहरी को भी कंजूसी पकड़ी। उसने सोचा: चार आने लेगा? चार आने में देगा? आठ आने, शर्म नहीं आती इस पत्थर के मांगते। कुम्हार ने कहा कि फिर रहने दो। फिर गधे के गले में ही ठीक। चार आने के पीछे कौन उसके गले में पहनाए हुए पत्थर को उतारे!
जौहरी यह सोच कर आगे बढ़ गया कि और दो आने लेगा, ज्यादा से ज्यादा; या आगे बढ़ जाऊं तो शायद चार आने में ही दे दे। मगर उसके पीछे ही एक और जौहरी आ गया। और उसने एक रुपये में वह पत्थर खरीद लिया। जब तक पहला जौहरी वापस लौटा, सौदा हो चुका था। पहले जौहरी ने कहा: अरे मूर्ख, अरे पागल कुम्हार! तुझे पता है तूने क्या किया? करोड़ों की चीज एक रुपये में बेच दी!
वह कुम्हार हंसने लगा। उसने कहा: मैं तो कुम्हार हूं, मुझे तो पता नहीं कि करोड़ों का था हीरा। मैंने तो सोचा एक रुपया मिलता है, यही क्या कम है! महीने भर की मजदूरी हो गई। मगर तुम्हारे लिए क्या कहूं, तुम तो जौहरी हो, तुम आठ आने में न ले सके। करोड़ों तुमने गंवाए हैं, मैंने नहीं गंवाए। मुझे तो पता ही नहीं था।
तुम्हें भी पता नहीं है कि तुम कितना गंवा रहे हो! मगर तुमसे भी ज्यादा वे लोग गंवा रहे हैं जिन्हें शास्त्र कंठस्थ हैं; जिन्हें वेद, उपनिषद, कुरान याद हैं; जो रोज हीरों की बातें कर रहे हैं। तुमसे भी ज्यादा वे गंवा रहे हैं। कम से कम उन्हें तो बोध होना चाहिए। लेकिन परमात्मा की बातें चलती हैं, खोज कोई नहीं करता। आत्मा की बातें होती हैं, लेकिन ध्यान कोई नहीं करता। मंदिर में पूजा-पाठ के आयोजन होते हैं, मगर पूजा कहां, प्रार्थना कहां! पूजा और प्रार्थना क्रियाकांड का नाम नहीं है; औपचारिकता नहीं है।
पूजा और प्रार्थना की तैयारी चाहिए, सम्यक तैयारी चाहिए। उस तैयारी के दो सूत्र समझ लेने जरूरी हैं, तो ये प्रेम की बूंदें तुम्हारी चुनरिया पर भी बरसें। दो ही सूत्र हैं, और उनमें से तुम एक पूरा कर लो तो दूसरा अपने आप पूरा हो जाता है। एक सूत्र है..ध्यान..कि शून्य हो जाओ। और उस शून्य में परम जागरूकता को साध लो; सब सन्नाटा हो जाए भीतर, सिर्फ बोधमात्र रह जाए..कि हूं! सो मत जाना। सन्नाटा हुआ और सो गए, तो ध्यान गंवा बैठे; हीरे के पास पहंुचते-पहंुचते हाथ चूक गया। बस जरा और खोदना था, बस जरा और। शायद इंच दो इंच पर्त और मिट्टी की थी और फिर हीरे की खदान थी।
लेकिन अक्सर यह होता है, जो लोग भी ध्यान करने बैठते हैं, जल्दी ही झपकी खा जाते हैं, नींद में पड़ जाते हैं। जब तक विचार चलते रहते हैं तब तक जागे रहते हैं, जैसे ही ध्यान के करीब पहंुचने लगते हैं वैसे ही नींद आने लगती है।
तो तुम्हें मैं एक याददाश्त के लिए वह बात कह दूं कि जब तुम्हें नींद आने लगे ध्यान में, तो समझना कि अब है सम्हलने का वक्त। वह नींद सूचक है इस बात की कि अब मन कह रहा है अब सो जाने में सार है। अब जरा और आगे गए तो मौत है मन की, क्योंकि ध्यान मन की मृत्यु है। तो जब मन झपकी लेने लगे, तंद्रा में उतरने लगे, तब तो झकझोर देना अपने को। तब तो झकझोर कर चैंक जाना।
बुद्ध ने, जिन्होंने ध्यान के इस मार्ग पर सर्वाधिक प्रयोग किए, अपने भिक्षुओं को कहा था कि बैठ कर ध्यान करो। लेकिन जैसे ही जरा सी भी झलक तुम्हें लगे कि नींद का कोई सिलसिला शुरू होता है, उठ कर खड़े हो जाना; फिर चल कर ध्यान करो, फिर बैठ कर ध्यान मत करो।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि बैठ कर ध्यान करें, वह तो ठीक है; अगर लेट कर करें तो कोई हर्जा है? हर्जा तो कुछ नहीं है, लेकिन बैठ कर ही तुम सो जाओगे, लेट कर तो फिर बात ही और है। लेटे कि तुम सोए ही। वह मन तरकीबें निकाल रहा है। बैठे-बैठे भी सोओगे, लेकिन सोने की संभावना कम है। क्योंकि जब तुम बैठे हो, तो जमीन का गुरुत्वाकर्षण तुम्हें सोने नहीं देता। जब तुम लेट गए, तो जमीन का गुरुत्वाकर्षण तुम्हारे पूरे शरीर पर समान रूप से पड़ने लगता है। एक तारतम्य बंध जाता है, एक संगीतबद्धता पैदा हो जाती है। इसलिए खड़े होकर सोना और भी मुश्किल है। क्योंकि जमीन का गुरुत्वाकर्षण जोर से खींचता है, और सारे शरीर फर उसका समान अनुपात नहीं होता। बिना तकिए के भी सोना मुश्किल है। क्योंकि गुरुत्वाकर्षण के कारण मस्तिष्क में खून की धारा उतनी ही चलती है, जितनी शरीर के और हिस्सों में चलती है। और मस्तिष्क में खून की धारा चलती रहे, तो नींद आनी मुश्किल। शीर्षासन करके सोना सर्वाधिक मुश्किल है, क्योंकि शीर्षासन किए हुए, सारे खून की धारा सिर की तरफ जा रही है। और सिर को ही सोना है और वहां इतना खून का प्रवाह है कि तंतु एकदम शिथिल नहीं हो सकते और सो नहीं सकते।
पद्मासन में बैठने की जो प्रक्रिया शुरू हुई वह इसीलिए हुई कि रीढ़ पृथ्वी के साथ नब्बे का कोण बनाए, तो सबसे कम संभावना है तंद्रा के उतरने की। और जब भी तुम्हें लगे कि तंद्रा आने लगी, पहली ही उसकी पगध्वनि सुनाई पड़े, तो बुद्ध ने कहा: उठ जाना, खड़े हो जाना, चलने लगना। चार कदम आगे देखते हुए धीरे-धीरे चलना और अब चल कर ही ध्यान करना। तो बुद्ध ने ध्यान की दो विधियां दींः बैठ कर ध्यान करना और चंक्रमण, चल कर ध्यान करना। जब तुम्हें लगे तंद्रा दूर हट गई, फिर बैठ जाना।
अगर तुम बोधगया के मंदिर गए हो, तो जिस बोधि-वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ उसी के पास वह छोटा सा पथ है, जिस पर पत्थर लगा दिए हैं, जिस पर बुद्ध चंक्रमण करते रहे। वृक्ष के नीचे बैठ जाते, जब तंद्रा उतरने लगती तो उठ आते और चंक्रमण करते। चंक्रमण चलने की एक विशेष प्रक्रिया का नाम है। कहीं जाने के लिए तो चल नहीं रहे, इसलिए तेजी से नहीं चलना है, बहुत आहिस्ता चलना है। इतनी तेजी से चलोगे तो कहीं ध्यान का जो तारतम्य बन रहा है, वह टूट न जाए। जैसे कि कोई भरी हुई मटकी सिर पर लेकर चलता हो, तो फिर तेजी से नहीं चल सकता; तेजी से चलेगा तो मटकी छलक जाए। और अगर मटकी में अमृत भरा हो, तब तो फिर बहुत सम्हल कर चलेगा और ध्यान की मटकी में अमृत ही भरा है। बहुत सम्हल कर आहिस्ता-आहिस्ता एक-एक पैर उठा कर...कोई मंजिल तो है नहीं, कहीं जाना तो नहीं है, मंजिल यही है कि भीतर जागे रहना है। चित्त शून्य हो, निर्विचार हो, और जागरूकता का दीया जले। प्रेम की वर्षा होगी। फिर बूंदा-बांदी होगी, परमात्मा उतरेगा तुममें। उसके पग-घंुघरू जल्दी ही तुम्हें सुनाई पड़ने लगेंगे। उसकी बांसुरी बजेगी। वह निश्चय आता है, वह तुम्हारे द्वार पर थाप देगा।
दूसरा रास्ता है भक्ति का। ध्यान के रास्ते पर अपने को जगाना है, होश से भर लेना है। जैसे बस मैं ही हूं और कुछ भी नहीं। सारा अस्तित्व खो जाए, सिर्फ भीतर स्वयं का अस्तित्व जगमगाता हुआ प्रज्वलित रह जाए..एक लपट की भांति..ध्यान। और भक्ति ठीक इससे उलटी है। तुम बिल्कुल डूब जाओ। सारा अस्तित्व बचे, तुम न बचो। वृक्ष हों, पहाड़ हों, पर्वत हों, चांद-तारे हों; मगर तुम न बचो, तुम बिल्कुल लीन हो जाओ। जैसे बूंद सागर में खो जाए, जैसे सूरज की किरण पाते ही, ओस की बूंद भाप बन जाए, आकाश में उड़ जाए। ऐसे अपने को डुबा दो..अस्तित्व के सौंदर्य में, अस्तित्व की गरिमा में, इस अस्तित्व के विराट नृत्य में, इस महोत्सव में, अपने को डुबा दो। जरा भी दूर-दूर नहीं। जरा भी फासला नहीं। एक इंच की दूरी न बचाओ। इसमें ऐसे मगन हो जाओ, ऐसे लीन हो जाओ, जैसे तुम हो ही नहीं! सब है, तुम नहीं हो!
ध्यान का अर्थ है: मैं हूं और कुछ भी नहीं। और भक्ति का अर्थ है: तू है, मैं बिल्कुल नहीं। ये विपरीत दिखाई पड़ने वाले दो मार्ग एक ही जगह ले आते हैं। क्योंकि जब तू नहीं है, तो मैं बच नहीं सकता। ज्यादा देर नहीं बच सकता। बिना तू के मैं कैसे बचेगा? तू ही तो मैं की परिभाषा बनता है। तू ही से तो मैं की सीमा बनती है, और इसी तरह जब मैं नहीं हूं, तू ही है..तो तू भी ज्यादा देर नहीं बचेगा। क्योंकि मैं से ही तू की सीमा बनती है। जब मैं ही न रहा तो कौन तू! अगर मैं न रहे तो तू मिट जाता है; अगर तू न रहे तो मैं मिट जाता है। ये दोनों ही साथ-साथ जीते हैं और साथ-साथ मरते हैं। तुम एक को मिटा दो, दूसरा अपने आप मर जाता है। और जहां न मैं बचा, न तू बचा, वहीं यह घटना घटती है: ‘भींजै चुनरिया प्रेम-रस बूंदन।’ फिर चुनरिया भीगने लगती है, तुम फिर दुल्हन हो गए। फिर तुम्हारी भांवरें पड़ गईं। कबीर ने कहा है: मैं तो राम की दुलहनिया। फिर तुम चुनरिया ओढ़ कर चल पड़े। उसके मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने लगे।

किसका अभाव मानस में सहसा शशि सा आ चमका?
है क्या रहस्य, बतला दे कोई इस अंतर्तम का!

इन सरल तरल नयनों में किसकी उज्ज्वल छवि छाई?
किसने मेरे प्राणों में अपनी तसवीर बनाई?

‘जलजात’ हृदय का मेरे कोई ‘अज्ञात’ खिलाता।
मेरे जीवन के रवि का कुछ पता नहीं मिल पाता:

संध्या के सतम हृदय में कैसा प्रभात सा आया?
किसकी किरणों ने छूकर प्राणों को आज जगाया?

कोई अज्ञात तुम्हारी हृदय-वीणा को छेड़ देगा। कोई अदृश्य अंगुलियां तुम्हारी वीणा के तारों में टंकार उठा देंगी। कोई अदृश्य किरण तुम्हारे भीतर के कमल को खिला जाएगी। कोई अदृश्य रूप तुम्हें अपूर्व सौंदर्य दे जाएगा। कोई संगीत तुम पर बरसेगा। गीत-गीत तुम्हारे रोएं में भर जाएंगे। तुम्हारा रोआं-रोआं नृत्यमग्न हो उठेगा।
आरत साज के चली है सुहागिन पिय अपने को ढूंढन।
और जब ऐसा हो जाए, तभी आरती सजती है। जब प्रेम की बूंदा-बांदी होने लगे, तो आरती सजती है। जब आषाढ़ के मेघ घिर जाएं तुम्हारी अंतरात्मा में, बिजलियां कौंधने लगें, लगे अब हुई वर्षा, अब हुई वर्षा..तभी आरती सजती है। अभी तो तुम आरती क्या सजाते हो, अपने को धोखा देते हो, औरों को धोखा देते हो। तुम्हारी आरती थोथी है अभी। तुम्हारा सिर भी मंदिर में झुकता है तो झूठा। तुम्हारा अहंकार तो अकड़ा खड़ा रहता है। तुम्हारी आरती उतरती रहती है, मगर तुम्हारे प्राणों में नृत्य नहीं है, नाच नहीं है, गीत नहीं है, गान नहीं है। तुम्हारी आंखों में कोई रस-विमुग्धता नहीं है। गए हो एक कृत्य पूरा करने। गए हो, क्योंकि जाना चाहिए, एक कर्तव्य है। क्योंकि और भी लोग जा रहे हैं तो तुम भी गए हो। क्योंकि न जाओ तो लोग समझते हैं अधार्मिक हो। और जाओ तो लोग समझते हैं धार्मिक हो। और धार्मिक होना, कम से कम दिखलाना कि तुम धार्मिक हो, कई अर्थों में काम का है, कई अर्थों में उपयोगी है। इसकी सामाजिक उपादेयता है।
आरत साज के चली है सुहागिन पिय अपने को ढूंढन।
जब प्रेम की बूंद तुम पर बरस जाती है, तो तुम सुहागिन हो गए। वह बूंद क्या हुई, जैसे सुहाग से तुम्हारी मांग भर गई। और तभी सच्ची खोज शुरू होती है। फिर खोज जिज्ञासा मात्र नहीं, कोई बौद्धिक खुजलाहट नहीं है। फिर खोज केवल प्रश्न की नहीं है। फिर खोज एक जीवंत अर्थ रखती है। फिर तुम सब कुछ गंवाने को राजी हो सकते हो, सब कुछ दांव पर लगा सकते हो; यह सिर भी जाए तो दे सकते हो।
आरत साज के चली है सुहागिन पिय अपने को ढूंढन।

शुचि नाम न जाने किसका नव-रश्मि नित्य लिख जाती।
वह भाषा मुझे न आती जो मैं उसको पढ़ पाती।

किस के चरणों पर अविरल आंखें हैं अघ्र्य चढ़ातीं?
किस मादक मोहक छवि के मैं नित्य गीत हूं गाती?

स्वप्नों में आ, क्यों ‘कोई’ चुपचाप चला जाता है!
बुझते ‘जीवन-दीपक’ को भर ‘स्नेह’ जला जाता है!

किस ‘महालोक’ से आता, किस महालोक को जाता?
किस ‘स्वर्ण-सदन’ में मेरा रहता है भाग्य-विधाता?

किसका अदृश्य कर नभ को प्रति दिन चित्रित कर जाता?
किसका कर दिन-रजनी का यह अविरत चक्र चलाता?

है क्या रहस्य, क्या जाने, इस विस्तृत अगम गगन का?
वह मादक देश कहां है, जीवन के ‘जीवन-धन’ का?

जब बूंद तुम पर गिरती है..पहली बूंद प्रीति की..तो फिर उस सागर को खोजने की अभीप्सा जगती है, जहां से इस बूंद का आगमन हुआ है। जब पहली किरण तुम्हारे आंगन में नाचती है, तो तुम सूरज की तलाश पर निकलते हो। जब पहली सुगंध तुम्हारे नासापुटों को भर देती है, तो तुम उस उपवन की तलाश में चलते हो, जहां ये फूल खिले हैं। नहीं वह मंदिर में है, नहीं वह मस्जिद में, नहीं काबा में नहीं काशी में, तुम्हारे काबा भी तुम्हारे बनाए हुए; तुम्हारे मस्जिद, तुम्हारे मंदिर, तुम्हारे काशी, तुम्हारे कैलाश, सब तुम्हारे मानसिक निर्माण हैं। वह है, तो तुम्हारी बनाई हुई वस्तुओं में नहीं। उसे कहीं और खोजना होगा। उसे खोजना होगा प्रकृति में। उसे खोजना होगा उसकी ही सृष्टि में। तुम्हारा सृजन तो सब खेल-खिलौने हैं।
आरत साज के चली है सुहागिन पिय अपने को ढूंढन।
काहे की तोरी बनी चुनरिया, काहे को लगे चारों फूंदन।।
कबीर कहते हैं: यह चुनरिया कैसे बनी? इस चुनरिया के ताने-बाने कैसे बुने गए हैं? और चारों तरफ फूंदन लटके हैं!
पांच तत्व की बनी चुनरिया नाम के लागे फूंदन।
पांच महा तत्वों से बनी है यह देह। यही है हमारी चुनरिया। इसी के भीतर छिपी है हमारी आत्मा। और इस पर जो फूंदन लगे हैं, इस पर जो सौंदर्य है, इस पर जो गरिमा है, इसमें जो जीवन की आभा है, इसके चारों तरफ जो आभा का एक लोक है..वह उस नाम के कारण है, परमात्मा के कारण है।
ऐसे तो सब मिट्टी है, लेकिन मिट्टी में जीवन है। जीवन उससे है। पांचों तत्व, तो तुम मुर्दा हो जाओ तो भी मौजूद होंगे। कोई मर जाता है, तो भी पांचों तत्वों में से कुछ कम नहीं हुआ। वजन उतना का उतना है, मिट्टी उतनी की उतनी है। सब उतना का उतना है।
फिर क्या खो गया?
वे चार फूंदन खो गए। वह जो परमात्मा ने जोड़ा था चारों दिशाओं से अपने को, वह जो चारों द्वारों से तुममें प्रवेश कर रहा था..वह अब प्रवेश नहीं कर रहा है। उसका साथ छूट गया, उसका हाथ छूट गया।
पांच तत्त की बनी चुनरिया, नाम के लागे फूंदन।
चढ़िगे महल खुल गई रे किबरिया दास कबीर लागे झूलन।।
यह वचन अति प्यारा है। कबीर कहते हैं: चढ़िगे महल...महल कहते हैं तुम्हारी उस आंतरिक अंतिम अवस्था को, जहां सहस्रदल कमल खुलता है, जहां समाधि उपलब्ध होती है। बुद्ध की भाषा में निर्वाण, महावीर की भाषा में कैवल्य, कबीर की भाषा में महल। महल, क्योंकि तुम सम्राट हो जाते हो उस दिन; उसके पहले तो भिखारी हो।
चढ़िगे महल..जैसे ही यह पता चल गया कि ये पांचों तत्वों से मिल कर तो बनी है यह देह, लेकिन असली यह बात नहीं है, यह मेरा असली होना नहीं है, मेरा असली होना तो राम के नाम से जुड़ा है..जिस दिन यह स्मृति आ गई, यह सुरति जग गई, उसी दिनः चढ़िगे महल खुल गई रे किबरिया...और खुल गया झरोखा! ...दास कबीर लागे झूलन। और फिर जो मस्ती छाती है, उतरती ही नहीं। कबीरदास कहते हैं कि फिर तो जो झूलना शुरू हुआ वह जो नाच शुरू हुआ, वह जो नृत्य शुरू हुआ, वह बंद ही नहीं होता है, झूलता ही रहता हूं, मदमस्त ही हूं!

मैं समझ नहीं पाया हूं अब तक यह रहस्य
मरने से क्यों सारी दुनिया घबड़ाती है,
क्यों मरघट का सूनापन चीखा करता है,
जब मिट्टी मिट्टी से निज ब्याह रचाती है।

फिर मिट्टी तो मिटती भी नहीं कभी भाई!
वह सिर्फ शक्ल की चोली बदला करती है,
संगीत बदलता नहीं किसी भी सरगम का
केवल गायक की बोली बदला करती है।

पर कहता है अस्तित्व जिसे संसार सकल
उसकी सत्ता तो सचमुच एक भुलावा है,
कर्ता को नहीं, जन्म कृति का ही होता है,
केवल कृतित्व जग जीवन का पहनावा है।

सूरज से प्राण, धरा से पाया है शरीर,
ऋण लिया वायु से है हमने इन सांसों का,
सागर ने दान दिया है आंसू का प्रवाह,
नभ ने सूनापन विकल विधुर उच्छवासों का।

जो जिसका है उसको उसका धन लौटा कर
मृत्यु के बहाने हम ऋण यही चुकाते हैं,
इसको ही कोई कहता है अभिशाप-ताप
वरदान समझ कुछ इस पर खुशी मनाते हैं।

जो हंसने की है बात न यूं उस पर रोओ
गीला मत करो आंसुओं से अपना आंचल,
है पंथ पुकार रहा, जल्दी दो विदा मुझे
बांध लो गांठ में मानस की सारी हलचल।

किसके रोने से कौन रुका है कभी यहां
जाने को ही सब आए हैं सब जाएंगे,
चलने की तैयारी ही तो बस जीवन है
कुछ सुबह गए, कुछ डेरा शाम उठाएंगे।

संध्या को जब सूरज ढलता है पश्चिम में
तब कितने फूल बाग में मुरझा जाते हैं,
जब सुबह सिसक कर चांद कहीं सो जाता है
तब कितने आंसू धरती पर उग आते हैं!

पर ठहरा सूरज कभी? कभी क्या चांद रुका?
क्या थमा समय कोई घर-द्वार बसाने को?
आने से पहले कौन गया है नहीं यहां
जाने से पहले आया कौन बुलाने को?

आता है एक रोज मधुवन में जब वसंत
तृण तृण हंस उठता कली कली खिल जाती है,
कोयल के स्वर में भर जाती है नई कूक
कोंपल पेड़ों पर पायल नई बजाती है।

पर जब तक बने सुहागिन जग की संुदरता
सिंदूर चुरा कर सब वसंत चल देता है,
लुट जाता है जीवन-बगिया का सब सिंगार
वैधव्य समान विषाद करवटें लेता है।

मिट्टी में लेटी कली-कली जब कहती है
इस तरह लूटना था तो क्यों यह रूप दिया?
कोयल चिल्लाती..जब कि रुलाना ही था फिर..
क्यों मेरे सोए स्वर को गीत अनूप दिया?

धरती की राजकुमारी फूट बिलखती है,
‘कुछ देर अभी तो और पास प्रियतम! ठहरो,
है पूरी तरह खिला भी नहीं अभी यौवन,
कुछ देर अभी तो और कपोलों पर लहरो।’

पर अट्टाहस कर ऋतुपति उत्तर देता है
मैं नहीं ठहरने को..जाने को आया था,
तुझको तेरी असली तस्वीर दिखानी थी
इसलिए तुझे यह नकली रूप उढ़ाया था।

यह जो हमने ओढ़ रखा है रूप देह का, यह जो चदरिया, यह जो चुनरिया हमने ओढ़ रखी है, यह हमारा असली होना नहीं है।

पर अट्टाहस कर ऋतुपति उत्तर देता है
मैं नहीं ठहरने को..जाने को आया था,
तुझको तेरी असली तस्वीर दिखानी थी
इसलिए तुझे यह नकली रूप उढ़ाया था।

असली को दिखाना हो तो नकली के साथ ही दिखाया जा सकता है। जैसे हम ब्लैक-बोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखते हैं। सफेद दीवाल पर भी सफेद खड़िया से लिखा जा सकता है, लेकिन पढ़ना मुश्किल होगा, पढ़ना असंभव ही होगा। सफेद कागज पर लिखते हैं तो काली स्याही से लिखते हैं। विपरीत से ही अनुभव हो सकता है।
तुम्हारे भीतर शाश्वत है। उसका अनुभव कराने का एक ही उपाय है कि तुम्हें एक चुनरिया दी जाए जो क्षणभंगुर है। तुम्हारे भीतर अमृत है। तुम्हें एक चुनरिया दी जाए, जो अब मरी तब मरी तो ही तुम्हारे भीतर के शाश्वत की प्रतीति इस परिप्रेक्ष्य में हो सकती है। इसी संदर्भ में हम अमृत को जान सकते हैं। मृत्यु के बिना अमृत को जानना बहुत मुश्किल है, असंभव है। अंधेरे के बिना प्रकाश को कैसे जानोगे? दिन के बिना रात नहीं, रात के बिना दिन नहीं। सौंदर्य के बिना कुरूपता कैसे पहचानोगे? कुरूपता के बिना सौंदर्य की क्या पहचान होगी? इस द्वंद्व को ठीक से समझ लो, तो फिर जीवन में इतनी उलझन नहीं रह जाती; सब साफ-सुथरा होने लगता है; पहेली सुलझने लगती है।
चढ़िगे महल खुल गई रे किबरिया दास कबीर लागे झूलन।
मैं अपने साहिब संग चली।
और जब झूलने लगोगे, जब अनुभव हो जाएगा, अमृत का, जब शाश्वत से थोड़ी पहचान होगी, परिचय होगा..तो फिर यह घटना घट सकती है: मैं अपने साहिब संग चली। फिर तुम्हारा संग-साथ उस एक से ही हो जाता है: अनेक से टूट जाता है। फिर तुम भीड़ में भी रहो, बाजार में भी रहो, तो भी याद उसकी, सुरति उसकी।
हाथ में नरियल मुख में बीड़ा, मोतियन मांग भरी।
लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी, तापै चढ़ि के चली।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे, तुरत जनम सुधरी।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, दोउ कुल तारि चली।
कबीर कहते हैं कि दोनों कुलों को तार दिया। एक कुल है क्षण भंगुर का और एक कुल है शाश्वत का। इन दोनों से मिल कर हम बने हैं..मिट्टी से और अमृत से।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे, ...
यह जो जीवन की बहती हुई सतत धारा है, इसके किनारे ही सतगुरु से मिलना हुआ।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे, तुरत जनम सुधरी।
और कबीर कहते हैं: क्षण भर नहीं लगता। सतगुरु से मिलन हो जाए तो तुरंत जीवन में क्रांति घट जाती है। लेकिन मिलन? मिलन होकर भी कहां हो पाता है! क्योंकि तुम दूर-दूर खड़े रहते, बचे-बचे खड़े रहते। तुम जरूरत से ज्यादा होशियार हो। तुम गणित में बहुत निपुण हो। तुम अपने को बचा-बचा कर चलते हो। और यह रास्ता उनका है, जो जुआरी हैं; जो बचा-बचा कर नहीं चलते।
सदगुरु से संबंध तो उन्हीं का हो सकता है जो दीवाने हो उठते हैं, जो मतवाले हो उठते हैं। यह होशियारों का काम नहीं, दीवानों का काम है। और इस दुनिया के ऊपर दीवानों का बहुत बड़ा ऋण है। अगर दीवाने न होते तो इस दुनिया में कबीर, और दादू, और मलूक, ऐसे अदभुत लोग नहीं हो सकते थे। अगर इस दुनिया में सभी दुकानदार होते तो यह दुनिया बड़ी दीन होती। इस दुनिया में कुछ लोग हुए जो दुकानदार नहीं थे; कुछ लोग हुए, जिन्होंने उस परम सत्य के लिए सब कुछ चढ़ा दिया।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे, तुरत जनम सुधरी।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, दोउ कुल तारि चली।
कबीर कहते हैं: मैंने तो अपने दोनों कुल सुधार लिए। जब कोई व्यक्ति परम ज्ञान को उपलब्ध होता है तो उसकी चेतना पर ही अमृत नहीं बरसता, उसकी मिट्टी तक अमृत में सरोबोर हो जाती है। उसकी देह में भी एक गंध आ जाती है..परलोक की।
यह तो तुम जानते हो कि हम सदगुरुओं के शरीर को जलाते नहीं। सिर्फ इसी कारण नहीं जलाते। सदगुरुओं के शरीर को हम बचाते हैं। तिब्बत में, इजिप्त में तो हजारों साल पुराने सदगुरुओं की देहें अब भी सुरक्षित हैं। इस देश में भी हम उनकी समाधि बनाते हैं; उनको जलाते नहीं। क्योंकि उनकी देह में परमात्मा का संस्पर्श हुआ है, यह देह जलाने के लिए नहीं। जलाते तो हम देह को इसीलिए हैं कि मिट्टी है, मिट्टी में मिल जाने दो। अब इस देह को क्या बचाना है!
बुद्धों की अस्थियों को हम सम्हाल कर रखते हैं। अभी तक बुद्ध की हड्डियों के छोटे-छोटे टुकड़े अलग-अलग जगह सम्हाल कर रखे गए हैं। लंका में जो प्रसिद्ध मंदिर है कैंडी का, वहां बुद्ध का एक दांत सुरक्षित है। पच्चीस सौ वर्ष बीत गए, किसलिए इस दांत को सुरक्षित रखे हो? लेकिन जिन लोगों के पास देखने की क्षमता है, वे उस दांत में आज भी उन किरणों को विकीर्णित होते देखेंगे। वह दांत साधारण नहीं है। ऐसे तो साधारण ही है। वैज्ञानिक परीक्षा में तो साधारण ही उतरेगा। लेकिन उसकी असाधारणता केवल उनको उपलब्ध हो सकती है जो ध्यान की आंख से देखने में समर्थ हैं। तब वह दांत साधारण दांत नहीं है; वह दांत गवाही है एक अपूर्व घटना का।
हमने उस वृक्ष को बचा कर रखा है जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान हुआ। क्यों? क्योंकि जब यह परमज्ञान की घटना घटती है तो इतना आलोक का विस्फोट होता है कि वह वृक्ष भी पी गया होगा। और यह जानकर तुम चकित होओगे कि वट वृक्ष अब वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रतीत होता है सारे वृक्षों में सर्वाधिक बुद्धिमान वृक्ष है। वैज्ञानिक के कहने के तो दूसरे कारण हैं। मनुष्य की बुद्धि के लिए जो तत्व सर्वाधिक जरूरी है, जिस रसायन के खो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह रासायनिक तत्त्व वट वृक्ष में सर्वाधिक पाया जाता है, किसी और वृक्ष में उतना नहीं। वट वृक्ष थोड़ा अनूठा है। वट वृक्ष की जाति के सारे वृक्ष अनूठे हैं..पीपल और सारे वृक्ष, जो वट वृक्ष की जाति के हैं। यह कुछ आश्चर्य नहीं है कि भारत में पीपल की और वट की पूजा सदियों से चली है। उनमें कुछ खूबियां हैं।
यह कुछ आश्चर्य नहीं है कि बुद्ध को वट वृक्ष के नीचे जब ज्ञान उपलब्ध हुआ हो तो उनकी विकीर्णित किरणें वह वृक्ष भी पी गया हो, आत्मसात कर लिया हो उसने। इसलिए उस वृक्ष को बचाने की कोशिश की गई। मूल वृक्ष को तो हिंदुओं ने नष्ट कर दिया बोधगया में, लेकिन अशोक ने उसकी एक शाखा लंका भेजी थी, जो वहां लगाई गई, फिर उसकी एक शाखा लाकर वापस भारत लगाई गई। इसलिए उस वृक्ष की संतान अब भी मौजूद है। ठीक मूल वृक्ष तो नहीं, लेकिन उसका एक अंश अब भी मौजूद है।
और अब भी पृथ्वी पर जहां-जहां कभी कोई बुद्ध हुआ है, वहां-वहां कुछ न कुछ गवाही मौजूद हो जाती है। पत्थर भी, चट्टानें भी आत्मसात कर लेती हैं उस अपूर्व घटना को; उस रोशनी की कोई झलक उनमें सदा के लिए निर्मित हो जाती है।
कबीर ठीक कहते हैं कि दोनों कुल को तार कर जा रहा हूं। आत्मा तो चली ही परमात्मा की तरफ, लेकिन जिस देह में उस आत्मा का वास था वह देह भी धन्य हो गई।
कबीर भाटी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
मैं तो बहुत बार कहता हूं कि यह मंदिर नहीं, मधुशाला है। कबीर की बात सुनते हो! मधुशाला तो फिर भी मैं थोड़ा अच्छा शब्द उपयोग करता हूं। कबीर कर रहे हैं: कबीर भाटी कलाल की, ...यह तो कलाल की भट्टी है। ...बहुतक बैठे आइ। बहुत से आकर बैठ जाते हैं। मगर बैठने से कुछ भी न होगा।
सिर सौंपे सोई पिवै...
जो अपना सिर देगा वही पीने का हकदार हो सकता है।
...नहीं तो पिया न जाइ।
बिना सिर दिए कोई पी नहीं सकता। एक ही कीमत है जो चुकानी पड़ती है।
हरि-रस पीया जाणिए, जे कबहूं न जाइ खुमार।
और पहचान क्या है? साधारण शराब में और इस शराब में एक ही पहचान है। साधारण शराब का नशा उतर जाता है..अभी चढ़ा, अभी उतरा। क्षणभंगुर है। बरसाती नदी है। और..हरि-रस पीया जाणिए, जे कबहूं न जाइ खुमार। एक बार पी लिया तो फिर खुमार उतरता ही नहीं; फिर लाख उतारना चाहो तो उतरता नहीं; फिर सारी दुनिया विरोध करे तो उतरता नहीं; मंसूर को सूली भी दे दी तो भी खुमार नहीं उतरा। जीसस को मार डाला, खुमार नहीं उतार सके।

चलने को तो सांसें सालों तक चलती हैं,
यात्रा-क्रम भी प्रतिपल ही बढ़ता जाता है,
पर मैंने तो देखा है सौ-सौ सालों में
मुश्किल से कोई एक दिवस जी पाता है।

हैं पढ़े न मैंने मजहब के पोथे मोटे,
संचित न कर सका किसी वाद का तनिक ज्ञान,
मंदिर-मस्जिद की ओर न मेरी दृष्टि गई,
काबा-काशी का मुझे न आया कभी ध्यान।

संध्या-नमाज का राज न अब तक जान सका,
इसलिए वक्त उसमें न किया बर्बाद कभी,
अपने जीवन की सूनी घड़ियों को मैंने,
है किया न तर्क-विवादों से आबाद कभी।

मैं वही पढ़ा जो मुझे पढ़ाया जीवन ने,
हूं सीख सका वह गया सिखा जो समय-काल,
मैंने बस मानवता को पूजा जीवन में,
बस सदा आदमी के आगे यह झुका भाल।

क्या सत्य असत्य, नहीं मैंने कुछ भी सोचा,
उर-शांति मिली जिसको पा, उसको सत्य कहा,
जो आकर जीवन में आंसू सा चला गया,
मेरी ममता ने केवल उसे असत्य कहा।

फिर और दूसरा भी मेरा यह अनुभव है,
जो सत्य, वही जीवन में थिर रह पाता है,
जो मिथ्या है, भ्रम है, असत्य है, क्षण भर में,
हलचल सा आता है, जल सा बह जाता है।

चाहे वह मिट्टी, सोना हो, आंसू मोती,
चाहे वह प्रीति, घृणा हो, चाहे सच, सपना
है सत्य वही केवल इस जग में, जीवन में,
आखिरी श्वास तक साथ निभाए जो अपना।

सत्य की परिभाषा यही है कि जो टिके; जो सदा टिके; समय जिसे बदल न पाए, रूपांतरित न कर सके; जो क्षणभंगुर न हो। सत्य शाश्वत ही हो सकता है। खोजो ऐसा खुमार, ऐसी खुमारी, ऐसा नशा..कि चढ़े तो चढ़े, उतरे नहीं। और ऐसा नशा चढ़ जाए तो तुम भी चढ़ सकोगे उस महल में..‘चढ़िगे महल खुल गई रे किबरिया, दास कबीर लगे झूलन।’
हरि-रस पीया जाणिए, जे कबहूं न जाइ खुमार।
मैंमंता घूमत रहे नाहीं, तन की सार।।
मदमाता घूमता है फिर व्यक्ति; तन का बोध ही नहीं रह जाता, ख्याल ही नहीं रह जाता।
सबै रसायण मैं किया, हरि-सा और न कोई।
तिल इक घट मैं संचरै, तो सब कंचन होइ।।
कबीर कहते हैं: रसायनशास्त्र को मैंने खूब झांक डाला..अलकेमी..सब देख डाला रसायन-शास्त्र; लेकिन हरि जैसा और कोई रसायन नहीं है।
तिल इक घट मैं संचरै...
उस परमात्मा का एक जरा सा अंश भी, एक बूंद भी तुम्हारे भीतर घट में उतर जाए..तो सब कंचन होइ..तो मिट्टी भी सोना हो जाती है। तो सब खालिस सोना हो जाता है।
सारी दुनिया के कीमियागर सदियों से खोजते रहे हैं कोई तरकीब, कोई रसायन, जिससे लोहा सोना हो जाए। लेकिन असली रसायन वह है जो तुम्हारी भीतरी मिट्टी को सोना कर दे; जो तुम्हारे भीतर की मिट्टी को अमृत का स्वाद दे दे; जो तुम्हारे भीतर के क्षणभंगुर को शाश्वत की छाया दे दे; जो तुम्हारे भीतर जन्म-मृत्यु का निरंतर चलता हुआ प्रवाह है, उसको ठहरा दे..और ऐसी मस्ती से भर जाए कि कोई छीन न सके उस मस्ती को; कोई चुरा न सके उस मस्ती को। तलवार उसे काट न सके। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। आग उसे जला न सके। नैनं दहति पावकः। मृत्यु उसे मिटा न सके। तो ही जानना कि जीवन सार्थक हुआ, अन्यथा यूं ही जीए, यूं ही मरे; व्यर्थ ही जीए, व्यर्थ ही मरे।

सौ-सौ बार चिताओं ने मरघट पर मेरी सेज बिछाई
सौ-सौ बार धूल ने मेरे गीतों की आवाज चुराई
लाखों बार कफन ने रोकर मेरा तनशृंगार किया पर,
एक बार भी अब तक मेरी, जग में मौत नहीं हो पाई।

मैं जीवन हूं, मैं यौवन हूं, जन्म-मरण है मेरी क्रीड़ा,
इधर विरह सा बिछुड़ रहा हूं, उधर मिलन सा आ मिलता हूं,
क्या है यह तूफान, अरे मैं खुद आंधी बन कर चलता हूं।

तुम्हें बहुत बार मिटाया गया, बहुत बार बनाया गया; फिर भी तुम्हें याद नहीं आती कि कुछ है तुम्हारे भीतर, जो न बनता है और न मिटता है। बस उसी को खोज लेना धर्म है। उस मूल स्वभाव को पहचान लेना-जीवन की असली खोज है।
आइ न सकौं तुज्झपै, सकूं न तुज्झ बुलाइ।
कबीर कहते हैं: स्वाद तेरा लग गया, चल पड़ी पिया को खोजने, किबरिया खुल गई। दूर तेरा देश है। तेरे दर्शन भी हो गए..दूर देश से, किवड़िया से। लेकिन अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई।
आइ न सकौं तुज्झपै, सकूं न तुज्झ बुलाइ।
न तो आ सकती हूं तेरे पास, न तुझे पुकार सकती हूं। तू दूर बहुत। मेरे पग छोटे, मेरे हाथ छोटे..यात्रा लंबी।
जियरा यौंही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ।
क्या इरादे हैं? क्या ऐसे ही मेरे प्राण ले लोगे..विरह में तपा-तपा कर?
यहु तन जालौं मसि करूं, ज्यूं धूवां जाइ सुरग्गि।
कहो तो इस शरीर को जला कर ऐसा कर दूं..धुएं जैसा, क्योंकि धुएं की एक खूबी है कि वह ऊपर की तरफ उठता है, आकाश की यात्रा पर निकल जाता है। अगर यही मर्जी हो तो यही करूं। धुआं स्वर्ग तक पहंुच जाता है। तो मैं भी धुआं हो जाऊं।
प्रेमी सब कुछ मिटाने को तैयार होता है।
यहु तन जालौं मसि करूं, ज्यूं धूवां जाइ सुरग्गि।
अगर यह मर्जी हो तो यही सही। राख कर दूंगा इस देह को। बन जाऊंगा धुएं की भांति, उड़ चलूंगा आकाश की तरफ, क्योंकि और तो मुझे कोई पंख दिखाई नहीं पड़ते।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावे अग्गि।
इतना ही ख्याल रखना, बीच में दया करके वर्षा मत कर बैठना, नहीं तो आग बुझ जाए, धुआं न उठ पाए।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावे अग्गि।
यहु तन जालौं मसि करौं, लिखौं राम का नांऊं।
अगर तुम्हारी मर्जी हो तो इस शरीर को मिटा कर स्याही बना लूं और राम-राम लिखता रहूं। क्या करूं? विरह की असहाय अवस्था!
लेखणि करुं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाऊं।
और यह जो देह की ठठरी है, इसकी कलम बना लूं, हड्डियों की कलम बना लूं और उसी से लिख-लिख कर राम-नाम, राम-नाम, राम-नाम...अगर यह तुम्हारी मर्जी हो तो इसकी भी तैयारी है।
इस तन का दीवा करौं...
या कहो तो इस तन का दीया बना लूं।
...बाती मेलूं जीव।
और जीवन की बाती बना लूं।
लोही सींचैं तेल ज्यूं...
और रक्त का तेल बना लूं।
...कब मुख देखौं पीव।
मगर एक बात पक्की है: जो चाहो करवा लो, लेकिन अब तुम अपने से दूर न रखो। ..कब मुख देखौं पीव। अब प्यारे को देखे बिना नहीं रहा जाता। जरा किबरिया खुली। देखा है तुम्हें दूर-दूर, जैसे हजारों मील दूर से कोई गौरीशंकर को देखे-सुबह के सूरज में चमकता हुआ स्वर्ण शिखर जैसा! और फिर वह छवि भूलती नहीं। फिर वह छवि खींचने लगती है।
कबीर ठीक कह रहे हैं। विरह-अवस्था के अनुभव की बात कहते हैं। कहते हैं: कहो धुआं हो जाऊं, कहो तो दीया बन जाऊं; क्योंकि देखा मैंने कि दीये की ज्योति आकाश की तरफ उड़ने लगती है। तो लहू का तेल बना दूंगा, जीवन की ज्योति बना दूंगा, शरीर का दीया बना दूंगा; मगर अब तुम से मिल कर रहूंगा। अब कोई उपाय और नहीं। अब इस द्वार से तुम मुझे हटा न सकोगे।
कै बिरहीन कूं मींच दे, कै आपा दिखलाई।
कबीर कहते हैं: सीधी बात साफ तुमसे कह देता हूं। या तो मुझे मिटा डालो..कै बिरहीन कूं मींच दे..कि मेरी गरदन काट दो, कि मुझे मृत्यु दे दो। तुम्हारे बिना जीने का कोई अर्थ नहीं। तुम्हारे लिए मर जाना भी सार्थक है और तुम्हारे बिना जीना भी व्यर्थ है।
कै बिरहीन कूं मींच दे...
..कि या तो विरहिन को मार दे, बिल्कुल मिटा दे, नेस्तनाबूद कर दे।
...कैं आपा दिखलाई।
और या फिर खुद प्रकट हो जा। अब इन दो से और कोई उपाय नहीं। ये दो ही विकल्प हैं।
आठ पहर का दग्झणां, मौपे सहा न जाइ।
अब यह आठ पहर तक धू-धू कर जलना, कब तक सहूं?
यह है अर्चना! यह है पूजा! यह है आरती का थाल! ऐसे कोई होता है भक्त! और तुम क्या करते हो..राम-नाम की चदरिया ओढ़ ली, तिलक लगा लिया, जनेऊ पहन लिया, बैठे माला फेर रहे हो और आंखें भटक रही हैं सब तरफ। लोग, भगत जी कहने लगेंगे, मगर ऐसे तुम भगवान को न पा सकोगे।
अगर सब मिटाने की तैयारी हो तो सब प्रकट हो जाए। बस तैयारी पर्याप्त है। कुछ ऐसा नहीं कि तुम्हें दीया बनना पड़ेगा..मगर तैयारी! कुछ ऐसा नहीं कि तुम्हें धुआं बनना पड़ेगा..मगर तैयारी! तुम्हारी तरफ से सौ प्रतिशत तैयारी होनी चाहिए, तो तुम्हारे ही भीतर वह प्रकट हो जाता है जो बहुत दूर दिखाई पड़ा है। वह जो स्वर्ण-शिखर दिखाई पड़ा है दूर उसके मंदिर का, वह तब तक ही दूर है जब तक तुम अपने को मिटाने को राजी नहीं; जैसे ही तुम मिटने लगे, मिटाने की तैयारी बढ़ने लगी, वैसे ही मंदिर करीब आने लगा। जिस घड़ी तुम मिट जाते हो, तुम हैरान होकर देखते वे मंदिर के शिखर तुम्हारे ही अंतरतम में प्रकट हो गए हैं!

गायक के अधरों पर है ऐसा एक गीत
चुप होकर भी जो युग युग गाया जाता है,
मुरझाते उपवन में है ऐसा एक फूल
जिसके तन को पतझार नहीं छू पाता है।

सांसों के घर में एक सांस ऐसी रहती
मरघट का सूना भी न जिसे भर सकता है,
मिट्टी की पुतली में है ऐसा एक स्वप्न
जिसके कारण इनसान नहीं मर सकता है।

वह इस मिट्टी के अंदर बंद मगर फिर भी,
तुम क्या, उसको तो काल नहीं पा सकता है,
वह जहां जाग कर भोर कर चुका है अपना,
उस जगह नहीं कोई सूरज जा सकता है।

पड़ जाएगा यह चंदा काला वहां, जहां
उसके जीवन की रात थकी-सी सोती है,
ले सकता थाह नहीं उसकी कोई सागर,
जिस सजल सीप का वह अनबींधा मोती है।

जिसकी गति उसके पांवों में बंदी अनंत
उतना न तेज चल सकता है कोई समीर,
जितनी गहरी उसके आंसू की एक बूंद,
उतना गहरा संसृति का कोई नहीं नीर।

उसकी ऊंचाई के सम्मुख हिमगिरी नगण्य,
उसकी नीचाई के सम्मुख नीचा पताल,
उसकी असीमता के सम्मुख आकाश क्षुद्र,
उसकी विराटता के सम्मुख अति क्षुद्र काल।

सौंदर्य सकल यह उसका ही प्रतिबिंब रूप,
है स्वर्ग उसी का सुंदरतम कल्पना नीड़
है नरक उसी की ग्लानि-घृणा का गेह-ग्राम,
जग की हलचल उसके ही मन की भाव-मीड़।

ये सूर्य, चंद्र, उषा, पूषा, नक्षत्र पुंज,
उसकी ही कांति ज्योति हे ज्योतित भासमान,
यह निशा उसी के नयनों की पुतली,
मृदु हास अधर का मधुर ज्योतिवाही विहान।

है आंख उसी की बरसा करती बादल से,
है उसकी ही मुस्कान थिरकती फूलों पर,
संगीत उसी का गूंज रहा है कोयल में,
हैं बिंधे उसी के स्वप्न नुकीले शूलों पर।

वह अणु में बंदी होकर भी है मुक्त सदा,
वह जल में रह कर भी जल से है बहुत दूर
जल कर भी ज्वाला में न राख बनता है वह,
पाषाणों से दब कर भी होता नहीं चूर।

और वह शाश्वत, वह सनातन तुम्हारे भीतर मौजूद है। पहले बाहर दिखाई पड़ेगा, क्योंकि हम बहिर्मुखी हैं। पहले सूरज की किरणों में दिखाई पड़ेगा, चांद की चांदनी में दिखाई पड़ेगा, फूलों की गंध में दिखाई पड़ेगा, तितलियों के पंखों पर दिर्खाई पड़ेगा, इंद्रधनुषों में दिखाई पड़ेगा, आकाश के तारों में दिखाई पड़ेगा, वृक्षों की हरियाली में! और तब एक दिन अचानक जिस दिन तुम पूरा-पूरा सौ प्रतिशत दांव पर लगाने को राजी हो जाओगे, तुम उसे अपने अंतर्तम में विराजा हुआ पाओगे। तुम उसके मंदिर हो! वह तुमसे इंच भर भी दूर नहीं।
मगर यह सिर्फ बौद्धिक विचार हो, तो कुछ भी न होगा। यह तुम्हारा अस्तित्वगत अनुभव बनना चाहिए। और इसे अनुभव बनाने का एक ही उपाय है..एक अहर्निश प्यास जलने लगे, दग्ध करने लगे; रोआं-रोआं उत्तप्त हो उठे; श्वास-श्वास उसे पुकारने लगे।
जिसे तुम जीवन समझते हो, यह तो मिट जाएगा। इसके पहले कि यह जीवन मिटे, इस जीवन को उस जीवन को पाने की सीढ़ी बना लो, जो कभी नहीं मिटता है। उस शाश्वत को जाने बिना मत जाना, क्योंकि जो उसे बिना जाने गया, फिर-फिर वापस लौट आया है..इसी देह में, इसी चक्कर में, इसी व्यवसाय में, इसी उधेड़बुन में। कितनी बार तुम आए, कितनी बार तुम गए, बहुत हो चुकी आपा-धापी! अब जागो! अब अपने को पहचानो! अपने प्यारे को पहचानो! उसको जानते ही जीवन के सारे दुःख विदा हो जाते हैं। अमावस अचानक क्षण भर में पूर्णिमा हो जाती है। उस अनुभव के बिना जो जाता है, उसने अपने मनुष्य होने का ठीक-ठीक उपयोग नहीं किया। मिला था एक महत अवसर, यूं ही गंवा दिया। कंकड़-पत्थर बीनने में ही गंवा दिया, जब कि सब हीरे तुम्हारे हो सकते थे।
प्रभु का राज्य तुम्हारा है और तुम उसे यूं गंवा रहे हो..कूड़े-करकट में! चेतो! जितनी जल्दी चेत जाओ उतना अच्छा है। फिर ख्याल रखना: सुबह का भूला अगर सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहा जाता है।

आज इतना ही।  

1 टिप्पणी:

  1. ओशो न भूतो न भविष्यति .. मेरे सद्गुरू मैं वारी जाऊँ .. आपके एक एक शब्द पर लाखों वेद पुराण क़ुर्बान

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