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शनिवार, 3 नवंबर 2018

समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

समाजवादः दासता की एक व्यवस्था

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल के विचारों के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि समाजवाद का अर्थ क्या है?
समाजवाद का अर्थ है, राज्य-पूंजीवाद--स्टेट-कैपिटलिज्म। समाजवाद का अर्थ है, संपत्ति व्यक्तियों के पास न हो, संपत्ति की मालकियत राज्य के पास हो। लेकिन समाजवाद यह नहीं कहता है कि वह ‘राज्य-पूंजीवाद’ है। वह कहता हे, वह पूंजीवाद का विरोधी है। यह बात झूठ है। समाजवाद पूंजीवाद का विरोधी नहीं है। समाजवाद, जो पूंजी की सत्ता बहुत लोगों में वितरित है उसे राज्य में केंद्रित कर देना चाहता है। और व्यक्तियों के हाथ में जब पूंजीवाद इतना नुकसान पहुंचाता है तो राज्य के हाथ में कितना पहुंचाएगा, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है।

जब साधारण जनों के हाथ में बंटा हुआ डीसेंट्रलाइज्ड कैपिटलिज्म, विकेंद्रित पूंजीवाद इतनी तकलीफें देता है तो राज्य के हाथ में सेंट्रलाइज्ड होते ही कितनी तकलीफ देगा, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। यह किसी बीमारी को दूर करने की जगह बीमारी को कंसंट्रेट करना है। किसी बिमारी को खत्म करने के बजाय उस बीमारी को एक ही जगह, एक ही केंद्र पर इकट्ठा करना है।
इसलिए समाजवाद का दूसरा अर्थ है, गुलामी की, दासता की एक व्यवस्था। समाजवाद का अर्थ है, राज्य मालिक हो जाए और समाज के सारे लोग गुलाम और दास की हैसियत से जीएं। असल में पूंजीवाद ने पहली बार व्यक्ति को हैसियत और स्थिति दी। समाजवाद का मतलब है, सामंतवाद वापस लौट आए। इतना ही फर्क होगा कि जहां राजा थे वहां राजनीतिज्ञ होंगे। राजाओं के हाथ में इतनी ताकत कभी न थी जितनी समाजवाद राजनीतिज्ञ को दे देगा।


समाजवाद भविष्य के लिए भयंकर गुलामी का सूत्रपात है। और अगर स्वतंत्रता के प्रेमियों को थोड़ी सी स्वतंत्रता की आकांक्षा हो तो समाजवाद से बहुत ही सचेत होने की जरूरत है। समाजवाद का अर्थ है कि राज्य के हाथ में देशकी समस्त शक्तियां केंद्रित हो जाएं। राज्य के हाथ मंे जितनी भी शक्तियां हैं उनका भी राज्य बुरी तरह दुरुपयोग करता है। राजनीतिज्ञ के हाथ में जितनी शक्ति है उससे भी राजनीतिज्ञ सारे जीवन पर छाया रहता है। लेकिन उसका मन बेचैन है, उसकी महत्वाकांक्षा नहीं मानती।
अभी भी एक शक्ति उसके हाथ के बाहर है--धन की, उत्पादन की। वह उसे भी अपने हाथ में लेना चाहता है। यह बड़े मजे की बात है कि राज्य है समाज का नौकर, सरवेंट; लेकिन सरवेंट मालिक होना चाहता है, ओनरशिप चाहता है। राज्य चाहता है कि नमाज की मालकियत भी उसके हाथ में हो। हम रास्ते पर एक ट्रैफिक के पुलिस इंस्पेक्टर को खड़ा किए हुए हैं कि रास्ते पर व्यवस्था करे। कोई गाड़ी गलत रास्ते से न गुजरे, और कोई आदमी रास्ते के बीच से न चले, कोई बाएं चलने का नियम न तोड़े। वह पुलिसवाला धीरे-धीरे मालिक हो जाता है, क्योंकि बड़ी से बड़ी गाड़ी भी निकले तो भी उसके इशारे पर रुकती है और सीटी बजाय तो बड़े से बड़ा आदमी सड़क पार नहीं कर सकता। धीरे-धीरे वह पुलिसवाला कह सकता है कि इतनी परेशानी क्यों करते हो? मालकियत भी गाड़ियों की मुझे दे दें और रास्ते पर चलने वाले लोगों की मालकियत भी मुझे दे दें, व्यवस्था बिलकुल ठीक हो जाएगी।
उस पुलिसवाले को मालकियत के लिए नहीं खड़ा किया है वहां, व्यवस्था के लिए खड़ा किया है। और व्यवस्था का मतलब ही यह है कि मालिक कोई और होंगे। मालकियत भी राज्य के हाथ में जाती है तो व्यवस्थापक और मालिक एक हो जाते हैं। असल में यही हुआ अब तक।
रूस और चीन में जो क्रांति हुई है वह समाजवादी नाम को है, नाम समाजवाद है, क्रांति तो मैनेजेरियल है। असल में व्यवस्थापक मालिक हो गए हैं। जो कल मैंनेजर्स थे, जो मुनीम थे मुल्क के लिए, वे मुल्क के मालिक हो गए।
राज्य को इतनी शक्ति हाथ में देने से बड़ा खतरा और कुछ भी नहीं हो सकता है। पहले इतना खतरा नहीं था। अब खतरा बहुत ज्यादा है, वह मैं आप से कहूं। पहली बात तो यह है कि इधर पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में वैज्ञानिकों ने इतने साधन खोज निकाले हैं कि जो राज्य के हाथ में आदमी की चरम परतंत्रता का कारण बन सकते हैं। वैज्ञानिकों ने वे रासायनिक विधियां खोज निकाली हैं जिनके द्वारा आदमी के भीतर के चिंतन को नष्ट किया जा सकता है। विचार को नष्ट किया जा सकता है। बगावत के भाव को नष्ट किया जा सकता है। रासायनिकों ने वह व्यवस्था भी खोज निकाली है कि बच्चा पैदा हो तभी से उसके भीतर से कुछ नष्ट किया जा सके जो कभी बगावती हो सकता है। माइंडवाश के हजारों उपाय खोज निकाले हैं।
वैज्ञानिकों ने ताकत राज्य के हाथ में दे दी है इतनी बड़ी कि अब अगर कोई राज्य धन का भी मालिक हो जाए, तो उस राज्य से फिर कोई छुटकारा समाज का नहीं है। लोकतंत्र की हत्या और स्वतंत्रता की हत्या अनिवार्य है, अगर राज्य समाज की संपत्ति के उत्पादन का मालिक बन जाए। और एक और बड़े मजे की बात है कि राज्य जितना भी काम करता है, सब मंे असफल और अकुशल है। उसकी अकुशलता का कोई हिसाब नहीं है। राज्य जो भी काम करता है, मुल्क को हानि पहुंचाता है। उस काम से कोई लाभ नहीं पहुंचता। लेकिन जो थोड़ा-बहुत लाभ व्यक्ति अपनी निजी संपत्ति, श्रम और बुद्धि से मुल्क को पहुंचा सकते हैं, वह उनकी भी मालकियत ले लेना चाहता है। हां, एक फायदा होगा इससे कि राज्य की अकुशलता दिखनी बंद हो जाएगी। और राज्य के हर वर्ष बढ़नेवाले हानि के दावे फिर बुरे मालूम न पड़ेंगे। क्योंकि लाभ का दावा करनेवाला ही कोई नहीं रह जाएगा, हानि के ही दावे रह जाएंगे।
राज्य के हाथ में इतनी अकुशलता है कि उचित तो यह है कि राज्य के हाथ में जो काम है वह भी निजी व्यक्तियों के हाथ में चले जाएं और उचित तो यह है कि राज्य की जितनी ताकत है वह कम हो, क्योंकि राजनीतिज्ञ मनुष्य की छाती पर पत्थर की तरह बैठ गया है। राजाओं को हमने हटाया, उससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा। राजनीतिज्ञ उसकी जगह छाती पर बैठ गया और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘अ’ पार्टी का राजनीतिज्ञ बदले और ‘ब’ का बैठ जाए। राजनीतिज्ञ सदा छाती पर रहेगा। ‘अ’ और ‘ब’ से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला कि कांगे्रस बैठे, नई कि पुरानी, कि समाजवादी बैठे, कि जनसंधी बैठे। एक बात तय है कि मुल्क की छाती पर राजनीतिज्ञ बैठा होगा।
राजनीति इतनी भी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मुल्क के जीवन को दबा दे। मनुष्य के जीवन में और भी महत्त्वपूर्ण बहुत-कुछ है। लेकिन आज सिर्फ राजनीति महत्त्वपूर्ण है। अगर हमारे अखबारों को कोई पढ़े तो पता चलेगा कि मुल्क में सिवाय राजनीति के और कुछ नहीं हो रहा है। सिर्फ राजनीति हो रही है।
जिंदगी सिर्फ राजनीति है? राज्य सिर्फ व्यवस्था है, फंक्शनल है कि वह मुल्क में अव्यवस्था न होने दे। और राज्य इसलिए नहीं है कि स्वतंत्रता छीन ले। राज्य इसलिए है कि कोई व्यक्ति किसी की स्वतंत्रता न छीन पाए। राज्य इसलिए है कि एक व्यक्ति दूसरे की स्वतंत्रता के जीवन में बाधा न डाल पाए। लेकिन धीरे-धीरे राज्य को पता चला कि हम ही सारी स्वतंत्रता क्यों न छीन लें। राजनीतिज्ञ सदा से पूरी शक्ति पाने का आकांक्षी रहा है। लेकिन आज तक मनुष्य-जाति के इतिहास में राजनीतिज्ञ कभी भी टोेटेलिटेरियन, पूरी ताकत नहीं पा सका। अब समाजवाद के नाम से पा सकता है।
असल में अगर सारी मनुष्यता को गुलाम बनाना हो तो पहले मनुष्यांे को समझाना जरूरी है कि तुम्हारे कल्याण के लिए यह गुलामी लाई जा रही है। तुम्हारे हित के लिए, तुम्हारे मंगल के लिए यह गुलामी लाई जा रही है। राजनीतिज्ञ को जरूरी है कि वह आप को परसुएड करे, समझाए और फुसलाए कि तुम्हारे हित में ही यह छुरी तुम्हारी छाती पर रख रहा हूं। लेकिन एक दफा छाती पर छुरी रख दी जाए तो हटाने की कोई ताकत फिर आदमी के समाज के पास नहीं है।
इसलिए मैं समाजवाद की सख्त खिलाफत करता हूं। इसलिए नहीं कि समाजवाद जिन बातों के लिए आश्रय और सहारा देता है, ओर जिन बातों को आदर्श की तरह आपके सामने रखता है उनका मैं विरोधी हूं। सच्चाई तो यह है कि समाजवाद जितने आदर्श कहता है उनमें से कोई भी आदर्श समाजवाद कभी भी नहीं ला सकता और उनमें से कोई भी आदर्श लाना हो तो समाजवाद से सचेत रहना जरूरी है। जैसे, उदाहरण के लिए--माक्र्स का खयाल है कि अगर समाजवाद सफल हो जाए तो दुनिया में वर्ग न रह जाएंगे--क्लासलेस सोसायटी, वर्गविहीन समाज पैदा हो जाएगा। यह असत्य है।
असल में समाजवाद दो नये तरह के वर्ग पैदा कर देगा। राज्य करनेवालों का वर्ग और राज्य जिन पर किया जाता है उनका वर्ग। और कोई फर्क नहीं पड़ेगा--मैनेजर्स और मैनेज्ड। और ध्यान रहे, पूंजीपति में और मजदूर में उतना फर्क नहीं है जितना राज्य करनेवाले और जिसके ऊपर राज्य किया जाता है उसमें फर्क और वसला हो जाता है। आज रूस में कम्युनिस्ट पार्टी की मेंबरशिप पाना कठिनतम बात है। क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी राज्य करने वालों की जमात है। आज रूस में पचास साल से पचास आदमियों का छोटा सा गु्रप सारी ताकत हाथ में लिए बैठा है। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि स्टैलिन की जगह ख्रुश्चेव आता है कि ख्रुश्चेव की जगह कोई और आता है। लेकिन वह पचास आदमियों का एक ग्रुप, गैंग, पूरे रूस पर पचास साल से ताकत लिए बैठा है। उन पचास में से एक को हिलाना मुश्किल है। और एक ब्युरोक्रेसी, एक तंत्र पैदा हो गया है। वह तंत्र अलग है, जनता अलग है। और दोनों के बीच जो फासला है, उसका हिसाब लगाना कठिन है।
समाजवाद का दावा है कि एक दिन ऐसा आएगा कि ‘दि स्टेट विल विदर अवे’--राज्य जो है, वह बिखर कर गिर जाएगा--समाप्त हो जाएगा। यह भी झूठ है, यह नहीं हो सकता। क्योंकि समाजवाद कहता है कि पहले राज्य के हाथ में पूरी ताकत दे दो, ताकि बाद में राज्य एक दिन बेकाम होकर खत्म हो जाए। लेकिन जिस राज्य के हाथ में ताकत दे दी जाएगी वह मजबूत होगा, बिखरेगा नहीं, और जिन लोगों के हाथों में ताकत आएगी वे राज्य के बिखरने के लिए कभी भी पक्ष में नहीं हो सकते।
शक्ति हाथ में आ जाए तो उसे छोड़ने के लिए कोई भी राजी नहीं होता। इसलिए लोकतंत्र एक मात्र व्यवस्था है जिसके आधार पर किसी दिन राज्य बिखर सकता है। लेकिन तानाशाही, डिक्टेटरशिप से राज्य कभी भी नहीं बिखर सकता। लोकतंत्र से क्यों बिखर सकता है? क्योंकि ताकत हम सिर्फ लीज पर देते हैं। एक आदमी को पांच साल के लिए ताकत देते हैं और लोकतंत्र थोड़ा और विकसित हो, जैसा स्विट्जरलैंड में है तो यह भी ताकत हाथ में रखते हैं कि अगर बीच मं हमारा दिल बदल जाए तो इस आदमी को दिल्ली से वापस बुला सकें। इसको पांच साल भी देने की जरूरत नहीं। अगर छह महीने बाद इसको मतदान करने वाले लोग अनुभव करते हैं कि यह आदमी बिगड़ रहा है, गलत रास्ते पर जा रहा है तो मतदान करनेवाले को इसे बुलाने का हक होना चाहिए कि छह महीने बाद उससे कह दे कि अब वापस आ जाओ।
लोकतंत्र लीज पर दी गई ताकत है, और तानाशाही परमानेंट लीज है। परमानेंट लीज से सावधान होने की जरूरत है। जिनके हाथ में इकट्ठी ताकत आ जाए उनसे सावधान होने की जरूरत है। स्टैलिना को निन्यानबे प्रतिशत वोट मिलते थे, लेकिन कोई भी नहीं पूछता कि विरोध में कौन खड़ा था उनके। विरोध में कोई भी नहीं खड़ा था! यह क्या खेल चल रहा है? विरोध में कोई खड़ा ही नहीं है और स्टैलिन के अखबार दुनिया भर में खबर कर रहे हैं कि निन्यानबे प्रतिशत वोट मिले! एक ही पेटी रखी गई है और वोट कंपलसरी है। जिसने नहीं डाला है उसकी जिंदगी खतरे में है। राज्य ‘विदर अवे’ होगा?
समाजवाद कहता है कि हमें एक ऐसी दुनिया लानी है जिसमें राज्य न रह जाए। समाजवाद से नहीं आ सकती, क्योंकि समाजवाद कहता है कि पहले राज्य के हाथ में ताकत दो। फिर राज्य क्या स्युसाइड कर लेगा? फिर राज्य क्या आखिर में आत्महत्या कर लेगा? यह मनुष्य-जाति के पूरे अनुभव से पता नहीं चलता कि जिसके हाथ में ताकत हो वह ताकत हो और बढ़ाता चला जाए। नहीं, राज्य आत्मघात नहीं करेगा। हां, राज्य के पास पूरी ताकत हुई तो समाज की हत्या हो जाएगी।
समाजवाद कहता है कि हम समानता लाना चाहते हैं। लेकिन बड़ा मजा यह है, और इसीलिए समाजवाद कहता है, कि समानता लाने के लिए पहले स्वतंत्रता छीननी पड़ेगी। समानता लाने के लिए पहले स्वतंत्रता छीननी पड़ेगी, तो हम स्वतंत्रता छीन कर सब लोगों को समान कर देंगे। लेकिन ध्यान रहे, अगर स्वतंत्रता है तो समानता के लिए संघर्ष कर सकते हैं, लेकिन अगर स्वतंत्रता नहीं है तो समानता के लिए संघर्ष करने का भी कोई उपाय आदमी के पास नहीं रह जाता है।
आज एक मित्र मुझसे कह रहे थे कि मैं आपसे बैठकर विवाद कर रहा हूं। और हम यह तय कर रहे हैं कि सोशलिज्म ठीक है कि कैपिटलिज्म ठीक है। तो मैंने उनसे कहा कि यह विवाद तभी चल सकता है जब तक कैपिटलिज्म है। जिस दिन सोशलिज्म होगा उस दिन हम विवाद न कर सकेंगे। उस दिन फिर विवाद का कोई मौका नहीं है। यह जो हम बात कर पा रहे हैं आज कि समाजवाद उचित है या नहीं, पूंजीवाद उचित है या नहीं--यह बात समाजवादी दुनिया में संभव नहीं है।
रूस में सारे अखबार सरकारी हैं। एक भी गैर-सरकारी अखबार नहीं है। सारा पब्लिकेशन, सारा प्रकाशन सरकारी है। एक किताब गैर-सरकारी नहीं छप सकती है। आप क्या करेंगे? स्वतंत्रता एक बार छिन गई तो समानता की बात भी उठाने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए मैं मानता हूं, अगर समानता कभी दुनिया में लानी है तो स्वतंत्रता छीन कर नहीं, स्वतंत्रता को बढ़ा कर ही लाई जा सकती है।
समानता जो है वह अगर आज नहीं है तो उसका कारण पूंजीवाद नहीं है। समानता न होने का बुनियादी कारण बिलकुल दूसरा है जिस पर समाजवादी पट्टी डालना चाहते हैं। समाज समान नहीं है, क्योंकि समाज के पास समान होने लायक संपत्ति नहीं है। समाज इसलिए असमान नहीं है कि पूंजीपति है और गरीब है। पूंजीपति और गरीब भी इसलिए है कि संपत्ति कम है। और संपत्ति इतनी ज्यादा नहीं है कि सब अमीर हो सकें। इसलिए असली सवाल राजनैतिक परिवर्तन का नहीं, असली सवाल मुल्क में संपत्ति को अधिक पैदा करने के उपाय खोजने का है। लेकिन यह डेविएशन--भटकाव, जो समाजवादी कहता है...नहीं, असली सवाल यह नहीं है कि जिनके पास संपत्ति है उनसे हम उनके पास पहुंचाना चाहते हैं जिनके पास नहीं है।
असली सवाल यह नहीं है। असली सवाल यह है कि संपत्ति नहीं है। वह कैसे पैदा की जाए? संपत्ति पैदा करने की जो व्यवस्था पूंजीवाद के पास है वह समाजवाद के पास नहीं है। क्योंकि पंूजीवाद के पास व्यक्तिगत प्रेरणा की आधारभूत शिला है। एक-एक व्यक्ति उत्प्रेरित होता है संपत्ति कमाने को, प्रतिस्पर्धा को, प्रतियोगिता को। समाजवाद में न तो प्रतियोगिता का उपाय है, न प्रतिस्पर्धा का उपाय है, और न ही समाजवाद में कोई आदमी कम काम कर रहा है, न कोई आदमी ज्यादा काम कर रहा है कि इन दोेनों के बीच तय करने का कोई उपाय है।
सरकारी दफ्तर की जो हालत है वही पूरे मुल्क की हालत बनाने की कोशिश है। सरकारी दफ्तर में जो क्लर्क छह घंटे काम कर रहा है वह बेवकूफ है और जो आदमी छह घंटे काम नहीं कर रहा है और विश्राम कर रहा है वह आदमी समझदार है। और दफ्तर में बीस समझदार हैं और एक नासमझ है और एक नासमझ को परेशान किए हुए हैं वे बीस कि तुम छह घंटे काम क्यों कर रहे हो। पूरे मुल्क को सरकारी दफ्तर बनाने की इच्छा है तो समाजवाद बड़ी उचित व्यवस्था है। सच तो यह है कि सरकारी
दफ्तर भी निजी व्यक्तियों के हाथों मे जाने चाहिए, अन्यथा इस मुल्क में उत्पादन नहीं हो सकता। इस मुल्क में श्रम करने को कोई राजी नहीं हो सकता।
मैं सरकारी कालेज में कुछ दिन था। मैं बहुत हैरान हुआ। सरकारी कालेज में कोई प्रोफेसर पढ़ाने को बिलकुल उत्सुक नहीं है। गैर-सरकारी कालेज में वह बीस घंटे ले रहा है। उसका ही जो समानांतर शिक्षण गैर-सरकारी कालेज में है, वह बीस घंटे पढ़ा रहा है। क्योंकि उसके पढ़ाने पर ही उसकी नौकरी निर्भर हैं। सरकारी दफ्तर में नौकरी सिक्योर्ड है, पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है। पढ़ाना-वढ़ाना बेकार की बातें हैं। सरकारी कालेज में जो प्रोफेसर पढ़ाता है, वह असल में सरकारी प्रोफेसर होने के योग्य नहीं है। उसको पता नहीं कि वह गलती से गलत जगह आ गया है, यह ठीक जगह नहीं है।
जैसे ही कोई व्यवस्था तंत्र के हाथ में चली जाए वैसे ही अनुत्पादक हो जाती है--अनप्रोडक्टिव हो जाती है। और या फिर एक उपाय है। वह यह कि सरकारी प्रोफेसर के पीछे एक पुलिसवाला खड़ा रहे। और वह उसको बंदूक के हुद्दे देता रहे कि पढ़ाओ, तुम पढ़ाओ। लेकिन यह कितनी देर चलाइएगा? और वह पुलिसवाला भी सरकारी है, उसके पीछे एक पुलिसवाला और...नहीं तो वह सरकारी पुलिसवाला थोड़ी देर में हुद्दे देना बंद कर देगा। वह कहेगा, क्या दिन भर काम करते रहना है? इसलिए सरकार का तंत्र एकदम ही तंत्रबद्ध होता चला जाता है। एक के पीछे दूसरा खड़ा करना पड़ता है।
मैंने सुना है कि रवींद्रनाथ के घर में कोई सौ लोग थे परिवार में। और रविंद्रनाथ के पिता ऐसे आदमी थे कि उनके घर जो कोई मेहमान आ जाता तो फिर उसे लौटने न देते, कहते, यहीं रुक जाओ। शाही परिवार था। मेहमान रुक जातेे तो वे घर के हिस्से हो जाते। मनों दूध आता था। रवींद्रनाथ के भाई के मन में यह खयाल उठा कि इस दूध की जांच-पड़ताल कुछ भी नहीं होती, पता नहीं कोई पानी मिला देता है या क्या करता है। मनों दूध घर में आता है, तो उन्होंने एक सुपरवाइजर रखा।
जिस दिन से सुपरवाइजर रखा तो उस दिन से पता चला कि दूध पतला हो गया। क्योंकि सुपरवाइजर का हिस्सा दूध में मिल गया। लेकिन भाई जिद्दी थे, सरकारी दिमाग के थे। पिता ने बहुत समझाया कि पहले जो दूध आ रहा था वह ठीक था। सुपरवाइजर को छुट्टी दो। इनकी तनख्वाह अलग और इसका हिस्सा भी पानी का इसमें मिलना शुरू हो गया। लेकिन भाई जिद्दी थे, सरकारी विभाग के थे। उन्होंने कहा, इसके ऊपर एक ओवर सुपरवाइजर रखेंगे। एक और सुपरवाइजर रखेंगे। उन्होंने एक ओवर सुपरवाइजर रखा। पता चला कि दूध में पानी और आ गया है। मगर भाई जिद्दी थे। तब उन्होंने परिवार के एक संबंधी को सबके ऊपर नियुक्त किया। उस दिन एक मछली भी आ गई दूध में। क्योंकि फिर ऐसा रहा...कि दिखता है दूध में पानी नहीं मिलाया गया था, पानी में ही दूध डाला गया होगा, क्योंकि शेयर इतने हो गए!
सरकारी व्यवस्था यंत्र-व्यवस्था है। उसमें व्यक्ति की प्रेरणा की कोई जगह नहीं है और मनुष्य स्वभावतः आलसी है। मनुष्य स्वभावतः श्रम नहीं करना चाहता है। अगर हमारा मुल्क गरीब है...
एक मित्र ने पूछा है कि इतने गरीब हैं, इनकी जिम्मेवारी अमीरों पर नहीं है?
मैं आपसे कहता हूं, बिलकुल नहीं है। इनकी जिम्मेवारी इन गरीबों पर ही है। इसको थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा।
बड़े मजे की बात है, अगर एक गांव में दस हजार गरीब हों, और दोे आदमी उनमें से मेहनत करके अमीर हो जाएं तो बाकी नौ हजार नौ सौ अट्ठान्नबे लोग कहेंगे कि इन दोे आदमियों ने अमीर होकर हमको गरीब कर दिया। और कोई यह नहीं पूछता कि जब ये दोे आदमी अमीर नहीं थे तब तुम अमीर थे? तुम्हारे पास कोई संपत्ति थी, जो इन्होंने चूस ली? नहीं, तो शोषण का मतलब क्या होता है? अगर हमारे पास था ही नहीं तो शोषण कैसे हो सकता है? शोषण उसका हो सकता है जो हमारे पास हो। अमीर के न होने पर हिंदुस्तान में गरीब नहीं था? हां, गरीबी का पता नहीं चलता था। क्योंकि पता चलने के लिए कुछ लोगों का अमीर हो जाना जरूरी है। तब गरीबी का बोध होना शुरू होता है।
बड़े आश्चर्य की बात है--जो लोग मेहनत करें, बुद्धि लगाएं, श्रम करें और अगर थोड़ी संपत्ति इकट्ठी कर लें, तो ऐसा लगता है कि इन लोगों ने अन्याय किया। और जो लोग बैठ कर हुक्का-चिलम पीते रहें और कोई संपत्ति पैदा न करें, तो लगता है इन बेचारों पर बड़ा अन्याय हो गया। सारा मुल्क काहिल और सुस्त है, लेकिन इस का हिलियत और सुस्ती को समझने की हमारी तैयारी नहीं। सारा मुल्क चुपचाप बैठा है, धन पैदा करने की न कोई इच्छा है, न कोई श्रम है, और न कोई बुद्धि है, न उस दिशा में कोई चेष्टा है। और फिर अगर दस आदमी धन कमा लें तो हम कहते हैं इन दस लोगों ने सारे मुल्क को गरीब कर दिया। अन्याय हो रहा है गरीब के साथ। गरीब के साथ अन्याय नहीं हो रहा है, गरीब अपनेे को गरीब रखने की व्यवस्था में जी रहा है।
मैं दोे कबीलों के संबंध में पढ़ रहा था। अमरीका में रेड इंडियंस के एक पहाड़ पर दोे कबीले हैं। एक कबीला धनी है और एक कबीला गरीब है। दोेनों के पास एक सी जमीन है, एक सा हवामान है। और दोेंनो के पास एक ही जाति के लोग हैं। फिर क्या मामला है, एक गरीब है और एक अमीर है? एक अजीब बात है। एक ही पहाड़ पर आधे हिस्से पर एक कबीला रहता है और आधे पर दूसरा कबीला रहता है। सबके साधन बराबर हैं। एक एकदम गरीब है सदा से और एक अमीर से अमीर होता चला गया।
जब उन दोेनों कबीलों का अध्ययन किया गया तो बड़ी हैरानी का पता चला। वह जो कबीला अमीर है, और वह जो कबीला गरीब है उनकी जीवन-व्यवस्था भिन्न है। जो गरीब कबीला है उसकी व्यवस्था यह है कि जब एक खेत पर काम हो तो पूरा गांव समाजवादी ढंग से उस खेत पर काम करने जाता है। गांव के एक आदमी के खेत पर काम है तो सारा गांव करने जाएगा। सारे गांव के खेत बेकार पड़े रहेंगे। जब गांव के एक किसान के खेत का पूरा काम हो जाएगा तब दूसरे खेत की शुरुआत होगी। उस पर सारा गांव काम करेगा। यह समाजवादी ढंग है उनके काम करनेे का।
इसके दोेहरे परिणाम हुए। एक तो बहुत सी जमीन अनुपयोगी रह जाती है, क्योंकि मौसम समाप्त हो जाता है। और गांव के लोग काम पूरा नहीं कर पाते। दूसरी यह कठिनाई पैदा हो गई कि छोटी जमीन पर इतने लोग इकट्ठे हो जाते हैं कि काम कम होता है, बातचीत ज्यादा होती है। तीसरा परिणाम यह हुआ है कि किसी आदमी को अपने खेत पर काम करने की जो व्यक्तिगत प्रेरणा चाहिए वह उस गांव में नहीं है। फिर जिनके खेत में काम नहीं हो पाता, वे उन खेतों की संपत्ति के लिए हकदार हो जाते हैं जिन पर उन्होंने काम किया है। स्वभावतः उनके खेत पर अगर काम नहीं हुआ है तो उन्होंने दूसरे के खेत पर काम किया है, तो गांव को संपत्ति समाजवादी ढंग से वितरित होती है।
वह कबीला आज तीन हजार साल से गरीब है और भिखमंगे की हालत में जीता है। पड़ोस के कबीले में हर आदमी अपने खेत में काम करता है। कोई समाजवादी व्यवस्था नहीं है, पंूजीवादी व्यवस्था है। वह कबीला अमीर होता चला गया। उस कबीले ने अभी-अभी कारें भी खरीदनी शुरू कर दीं। और बगल का कबीला अभी भी भीख मंगा रहा है। अगर बगल के कबीले ने अपनी समाजवादी नासमझी बंद नहीं की तो वह गरीब होता चला जाएगा।
असल में मतलब मेरा यह है कि पूंजीपति को जब हम कहते हैं कि उसने शोषण कर लिया तो हम कुछ बातें भूल जाते हैं। एक तो हम भूल जाते हैं कि उसने किसका शोषण किया? किसी के पास संपत्ति थी? उसकी इसने जेब काट ली, किसी का धन गड़ा हुआ इसने निकाल लिया? नहीं। इसने सिर्फ एक बुरा किया है कि किसी के पास श्रम था और किसी को दोे रुपया देकर उसका श्रम खरीद लिया। यह नहीं खरीदता तो यह श्रम बेचता नहीं। श्रम गंगा की धार की तरह बह जाता है।
अगर आज मेरे पास श्रम की ताकत है आठ घंटे की और मैं उसका उपयोग न करूं तो कल मेरे पास दोे रुपये नहीं बच जाएंगे, क्योंकि मैंने श्रम का उपयोग नहीं किया। अगर मैं अपने श्रम का उपयोग करूं तो कोई दोे रुपये देने को तैयार है। जो मुझे दोे रुपया देकर मेरे श्रम को पूंजी में कनवर्ट करता है उसको मैं कहता हूं, यह मेरा शोषण कर रहा है। तो आप शोषण मत करवाइए, आप बैठ जाइए अपने घर और अपने श्रम को तिजोरी मे बंद करके रखिए। फिर पता चलेगा कि शोषण हो रहा है कि क्या हो रहा है। शोेषण नहीं हो रहा है।
पूंजीवाद शोषण की व्यवस्था नहीं है। पूंजीवाद एक व्यवस्था है, श्रम को पूंजी में कनवर्ट करने की। श्रम को पूंजी में रूपांतरित करने की व्यवस्था है। लेकिन जब आपका श्रम रूपांतरित होता है, जब आपको या मुझे दोे रुपये मेरे श्रम के मिल जाते हैं तो मैं देखता हूं जिसने मुझे दोे रुपये दिए उसके पास कार भी है, बंगला भी खड़ा होता जाता है। स्वभावतः तब मुझे खयाल आता है कि मेरा कुछ शोषण हो रहा है। और मेरे पास कुछ भी नहीं था जिसका शोषण हुआ।
हालांकि इस आदमी ने एक मकान और एक कार खरीदी और व्यवस्था बनाई, जिससे मुझे दोे रुपये मिले हैं। ध्यान रहे, यह जो इतने गरीब लोग दिखाई पड़ रहे हैं, इन गरीबों की गरीबी के लिए पूंजीपति जिम्मेवार नहीं है। हां, इन गरीबों को जिंदा रखने के लिए जरूर पूंजीपति जिम्मेवार है। अगर वह कोई अन्याय है, तो अन्याय हुआ है!
आज से पांच सौ साल पहले दुनिया में दस बच्चे पैदा होते और नौ बच्चे मरते थे। क्योंकि दस बच्चों के लिए न भोजन था, न काम था, न जीवन था, न सुविधा थी। आज दस बच्चे पैदा होते हैं तो नौ बच्चे बचते हैं और एक बच्चा मरता है। यह जो नौ बच्चे बच रहे हैं यह पूंजीवाद ने श्रम को धन में रूपांतरित करने की जो व्यवस्था की है उसका परिणाम है। लेकिन यह नौ बच्चे इकट्ठे हो जाते हैं और वे गरीब दिखाई पड़ते हैं और ये गरीब बच्चे चिल्लाते हैं कि हमारा शोषण कर लिया गया है।
पूंजीवाद शोषण की व्यवस्था नहीं है। और अगर हम पूंजीवाद सब तक पहुंचाना चाहते हैं कि वह गरीब तक पहुंच जाए तो इसका मतलब यह नहीं है कि पूंजीवाद की व्यवस्था को तोड़ना है। उसका मतलब है, व्यवस्था को बड़ा करें। उसका मतलब है, पूंजीवाद की व्यवस्था गांव-गांव, कोने-कोने तक फैल जाए। उसका मतलब यह नहीं है कि हिंदुस्तान के दस पूंजीपतियों को हम मिटा दें। उसका मतलब है, हिंदुस्तान में दस करोड़ पूंजीपति पैदा करें। उसका मतलब यह है कि पूंजी का विस्तार हो, पूंजीपतियों का विस्तार हो, उद्योगों का विस्तार हो।
और वह जो काहिल, सुस्त बैठा है, उस काहिल सुस्त को यह बातें न बताएं कि तेरा शोषण हो गया है। उससे हम कहें, तू काहिल है और सुस्त है पैदा नहीं कर रहा है। बड़ी अजीब बात है। मुल्क निरंतर अनुत्पादक, अनप्रोडक्टिव होता चला जाता है। क्योंकि वे जो नेता हैं समझानेवाले, वे कहते हैं, तू इसलिए थोड़े गरीब है कि तू कुछ नहीं कर रहा है। तू इसलिए गरीब है कि कोई तेरा शोषण कर रहा है। सारे मुल्क को अगर आप यह समझा देंगे कि शोषण हो रहा है इसलिए हम गरीब हैं तो आप श्रम के लिए मुल्क को तैयार नहीं कर सकते। और कैसी मूढ़तापूर्ण स्थिति है कि वे ही नेता चिल्ला कर कहेंगे कि श्रम करो। और वे ही नेता लोगों को समझाएंगे कि तुम्हारा शोेषण हो रहा है। ये दोेनों बातें विरोधी हैं। अगर मुल्क से श्रम करवाना है, उत्पादन करवाना है तो मुल्क को समझाना पड़ेगा कि तुम्हारी गरीबी के लिए तुम्हारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं। तुम ही जिम्मेवार हो अपनी गरीबी के। और अगर तुम्हें अपनी गरीबी तोड़नी है तो तुम्हें श्रम में लगना पड़े, उत्पादक यात्रा करनी पड़े। लेकिन मुल्क के गरीब को बड़ा संतोष मिलता है यह जान कर कि उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं है। वह बच्चे पैदा कर रहा है, भीड़ इकट्ठी कर रहा है, मुल्क को रोज गरीब कर रहा है। उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं है, और हमको ऐसा लगता है कि बेचारा गरीब है। लेकिन यह बेचारा शब्द खतरनाक है। यह बेचारा शब्द ठीक नहीं है।
गरीब अपनी गरीबी के लिए जिम्मेवार है, यह उससे हमें कहना ही पड़ेगा। और गरीब अपनी सुस्ती और अपनी अनुत्पादकता के लिए जिम्मेवार है, यह भी उससे कहना पड़ेगा। और गरीब बच्चे पैदा करके, मुल्क को ज्यादा गरीब कर रहा है, यह भी हमें उससे कहना पड़ेगा।
लेकिन नेता नहीं कह सकता, क्योंकि नेता को वोट लेना है उस गरीब से। तो नेता उस गरीब को भड़का रहा है। और वह उससे कह रहा है कि तेरी गरीबी का कारण है, ये कुछ महल जो दिखाई पड़ रहे हैं। इनको गिरा दें तो सारा स्वर्ग उतर आएगा। ये महल गिर सकते हैं, इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। ये महल बहुत ही अल्पमती लोगों के हैं। इनको गिराने का काम एक दिन में पूरा किया जा सकता है। इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं उठानी पड़ेगी।
यह संपत्ति जो थोड़ी सी कहीं दिखाई पड़ रही है, इसको वितरित किया जा सकता है। इसमें बहुत अड़चन नहीं है। यह बहुत छोटा सा अल्पमत है। और अगर बहुत तय करें तो हो जाएगा। लेकिन इससे बहुमत अमीर नहीं हो जाएगा। बल्कि बहुमत और गरीब हो जाएगा। और एक बहुत मजे की घटना घटेगी। वह घटना यह होगी कि रूस में क्रांति के पहले और बाद जैसा हुआ। क्रांति के पहले रूस के नेता कहते रहे कि तुम्हारी गरीबी का कारण अमीर है। क्रांति के बाद फिर गरीबी का क्या कारण था? अमीर तो खत्म हो गया। तब रूस का नेता कहने लगा कि श्रम करो, तुम श्रम नहीं करते हो, यह गरीबी का कारण है। यह बड़े मजे की और बेईमानी की बातें हैं। पूंजीवाद था तो अमीर था गरीबी का कारण और समाजवाद आया तो श्रम नहीं करते! यह गरीबी का कारण है! श्रम नहीं करते हैं ते कोई भी व्यवस्था हो, गरीबी का कारण यही है। गरीबी का कारण शोषण नहीं है। गरीबी का कारण हमारे श्रम की काहिली, हमारी सुस्ती और आलस्य है। और हमारी अदभुत स्थिति है यह।
अधिकतम लोगों ने इस जगत में सदा आलस्य का जीवन बिताया है। थोड़े से लोगों ने जगत में श्रम किया है। जिन्होंने श्रम किया है उन्होंने आलसियों के लिए भी बहुत सी व्यवस्था दे दी है। लेकिन उसके लिए उनको धन्यवाद नहीं मिलता। उसके लिए उनको गाली मिलती है कि तुमने शोषण किया है।
जैसे उदाहरण के लिए मैं आपसे कहूं--आज साधारण सा मजदूर जैसे कपड़े पहने हुए है, वैसे कपड़े अशोक को उपलब्ध नहीं थे। आज साधारण सा मजदूर जैसे मकान में रह रहा है, जैसे कपड़े पहने हुए है, जिस सिनेमाघर में प्रवेश कर रहा है, जिस होटल में बैठ कर चाय पी रहा है, वह अकबर के लिए मुश्किल से उपलब्ध हो सकता था। साधारण आदमी के लिए इतनी सुविधाएं जुटा दी गयीं, उसके लिए, किसी के लिए कोई धन्यवाद नहीं है। लेकिन हां, साधारण आदमी के पास जो नहीं है, अभी उसके लिए क्रोध जरूर है कि किसी ने शोषण कर लिया है!
आज नहीं कल, हो सकता है कि समाजवादी यह भी कहें कि कुछ लोग बुद्धिमान हो जाते हैं। ये लोग कुछ लोगों को मूर्ख बना देते हैं, उनका शोषण कर लेते हैं। सच बात तो यह है कि कोई किसी की बुद्धि का शोषण करके बुद्धिमान नहीं बनता है। बल्कि जो बुद्धिमान बनता है वह अपने श्रम से बनता है और वह बुद्धिहीनों के लिए भी बहुत-कुछ जुटाता है जीवन भर। लेकिन उसको बुद्धिहीन धन्यवाद नहीं देंगे।
श्रम शक्ति है, और आलस्य? आलस्य दरिद्रता है। लेकिन माॅसेस, जनता बड़े पैमाने पर सदा से आलसी है। उसने कुछ नहीं किया। ये बिजली के पंखेे चल रहे हैं। उसको जनता ने नहीं खोजा है। यह बिजली जल रही है, रात अंधेरे में प्रकाश हो रहा है। यह जनता ने नहीं खोजा है।
आपका जो मकान बन गया है सीमेंट-कांक्रीट का, वह जनता की खोज नहीं है। आपकी जिंदगी में बीमारियां कम हो गई हैं, वह जनता की खोज नहीं है। आपकी उम्र बढ़ गई है, यह जनता की खोज नहीं है। यह थोड़े से चूजन फ्यू, कुछ चुने हुए लोगों के श्रम का परिणाम है, लेकिन उनके लिए कोई धन्यवाद नहीं। और सारी जनता इकट्ठी होकर चिल्लाएगी कि हमारा शोषण कर लिया गया। बड़े आश्चर्य की बात है!
जनता ने क्या दिया है जगत को? जनता ने सिवाय लेने के और कुछ भी नहीं दिया है। लेकिन अब जनता सब चीजों की मालिक जरूर होना चाहती है। मैं नहीं कहता कि न हो मालिक, लेकिन ध्यान रहे, कहीं जनता की मालकियत उन लोगों को निराश न कर दे जो श्रम करते रहे हैं। अन्यथा उन लोगों की निराशा से जगत में जो भी थोड़ी सुगंध, संस्कृति और सभ्यता है उसका विसर्जन हो जाएगा।
अगर एक बार भी जनता मुल्क के ऊपर हावी हो गई--जनता तो क्या हावी होगी, जनता के नाम पर कुछ राजनीतिज्ञ हावी हो जाएंगे--अगर एक बार मनुष्य मुल्क के ऊपर...‘माॅसेस’ जिन्होंने जगत में कभी कुछ नहीं किया, जिनके पास इतिहास के लिए कोई दान नहीं है, अगर उनके हाथ में पूरी ताकत सौंप दी जाए, तो इसका अंततः परिणाम जो होगा, वह यही हो सकता है कि जो भी संस्कृति, जो भी सभ्यता, जो भी मनुष्य के मूल्य हैं--यह सब बिखर जाएं और चीजें नीचे चली जाएं।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि जनता के हाथ में ताकत न हो। मैैं मानता हूं कि जनता के हाथ में ताकत हो, लेकिन सारी सूचनाओं को समझते हुए ताकत हो और यह समझते हुए ताकत हो कि जनता अपनी मुसीबतों के लिए खुद ही जिम्मेवार है। और जनता को अपनी मुसीबतें दूर करनी हैं तो श्रम के कदम उठाने पड़ेंगे। यह दूसरे पर दोेष थोपने से काम नहीं चलेगा। लेकिन पुरानी आदतें हैं हमारी। पहले हम भाग्य पर दोेष थोपते थे कि क्या करें, भाग्य ही ऐसा है इसलिए हम गरीब हैं। पहले हम भगवान पर दोेष थोपते थे कि क्या करें, भगवान ने हमें गरीब बनाया। अब हम पूंजीपति को पकड़ बैठे हैं। अब उससे कहते हैं कि अब हम क्या करें? तुमने शोषण कर लिया है, इसलिए हम गरीब हैं। एक बात हम कभी नहीं कहते कि हम गरीब होने के ढंग से जी रहे हैं। इसीलिए हम गरीब हैं। यह भर चूक जाते हैं, बाकी हम सब खोज लेते हैं।
कर्म का सिद्धांत है कि हम गरीब हैं, क्योंकि हमारे कर्म पिछले जन्म में बुरे थे। हम गरीब हैं, क्योंकि भाग्य में लिखा हुआ है। विधाता ने लिख दिया है कि तुम गरीब रहोगे, क्योंकि हम गरीब हैं। क्योंकि भगवान ने चाहा कि हम गरीब हों। और अब हम कह रहे हैं कि हम गरीब हैं क्योंकि पूंजीपति ने शोषण कर लिया, लेकिन हजारों साल से यह जो आदमी गरीब है, यह अपने को जिम्मेवार बिलकुल नहीं ठहराना चाहता है। ये सब नारे बदल देता है। जिम्मेवारी दूसरे पर टांगता चला जाता है। लेकिन जिम्मेवारी अपने ऊपर कभी नहीं लेता है।
मै आपसे कहना चाहता हूं कि इस देश के भाग्य का उदय न होगा। अगर इस देश के एक-एक आदमी ने यह न समझा कि गरीबी, दीनता और दुख के लिए हम जिम्मेवार हैं। यह जिम्मेवारी दूसरे पर टांगना खतरनाक है। खूूंटियां बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन राजनीतिज्ञ को सुविधा है। उसके लिए समाजवाद की बात बहुत पेइंग है, उसको वह बहुत लाभ पहुंचा सकती है।
एक मित्र ने पूछा है कि इंदिराजी जो समाजवाद लाना चाहती हैं, वह समाजवाद आएगा कि नहीं?
पहली तो बात यह है कि समाजवाद से इंदिरा जी का दूर का भी कोई संबंध नहीं है। इंदिरा जी का संबंध है समजवाद नाम से, शब्द से। इसलिए इंदिराजी भी समाजवाद की बात करती हैं। बड़ी हैरानी की बात है। मोरार जी भी वही बात करते हैं, जरा शब्द बदल कर। जनसंघी भी वही बात करते हैं, जरा शब्द बदलकर। सबको पता है कि गरीब जनता का अगर मत चाहिए तो गरीब जनता को फुसलाओ और उससे कहो कि तुम जिम्मेवार नहीं हो, जिम्मेवार कोई और है।
जनता से मत लेना हो तो समाजवाद अच्छा नारा है। लेकिन जनता को सिर्फ धोखे में डालने की बात है। समाजावाद इंदिरा जी लाएंगी या नहीं! ‘इंदिरा जी’ या कोई भी इस देश में समाजवाद अभी नहीं ला सकता। क्योंकि यह देश अभी पूंजी पैदा नहीं कर पाया है। समाजवाद की संभावना सिर्फ एक है और वह यह है कि इतनी संपत्ति पैदा हो जाए कि मुल्क में किसी को गरीब रहने का कोई कारण न रह जाए। इतनी संपत्ति पैदा हो जाए, हवा-पानी की तरह कि मुल्क में किसी को गरीब रहने का कोई कारण न रह जाए। पूंजीवाद अगर ठीक से विकसित हो, परिपक्व हो, मेच्योर हो जाए तो अपने आप एक सामाजिक समानता आ जाएगी। उसे किसी ‘इंदिरा जी’ को या किसी ‘और जी’ को लाने की कोई जरूरत नहीं है।
यह संपत्ति कैसे पैदा हो?
एक मित्र ने पूछा कि आप यह कहते हैं कि समाजवाद से नहीं होगा तो यह कैसे हो?
...तो मैं दोे-चार बातें आपसे कहना चाहूंगा। पहली तो बात यह है, वे मुल्क जो यंत्र पूर्व के जीवन को अभी तक संभाले हुए हैं, संपत्ति पैदा नहीं कर सकते। हम अभी भी प्रो-इंडस्ट्रियल हैं। हम अभी भी औद्योगिक क्रांति से गुजरे नहीं हैं। यूरोप भी गरीब था, अमरीका भी गरीबी था। यह जो अमीरी आई, यह जो संपत्ति आई, यह औद्योगिक क्रांति का परिणाम है। औद्योगिक क्रांति का क्या मतलब? औद्योगिक क्रांति का मतलब है, मनुष्य के श्रम की सीमाएं हैै। मशीन के श्रम की कोई सीमा नहीं है। अगर आप मनुष्य के श्रम पर ही निर्भर रहेंगे संपत्ति पैदा करने को, बहुत ज्यादा संपत्ति आप पैदा नही कर सकते। मनुष्य के श्रम की सीमा है।
मशीन जब तक संपत्ति पैदा न करे, तब तक कोई मुल्क अमीर नहीं हो सकता। मनुष्य भरोसे के योग्य नहीं है। मनुष्य गरीब होने के लिए पर्याप्त है। मनुष्य अमीर होने के लिए पर्याप्त नहीं है। जरा लौट कर पीछे इतिहास देखें तो आपको खयाल आ जाएगा। जब तक, एक जमाना था कि आदमी सिर्फ वृक्षों के फलों को चुनकर भोजन कमाता था, तब संपत्ति बिलकुल पैदा नहीं हो सकती थी। क्योंकि भोजन के लायक फल मिल जाए, शिकार मिल जाए, वही बहुत था। अकसर भूखा रहना पड़ता था और जब मिल जाता तो आदमी ज्यादा खा लेता और जब नहीं मिलता तो भूखा रहता। और बड़ी जमीन की जरूरत पड़ती थी। एक छोटे से कबीले के लिए कम से कम सौ वर्गमील का जंगल चाहिए था, शिकार के लिए, फल के लिए।
इसलिए दुनिया की आबादी दोे करोड़ से ज्यादा नहीं हो सकी। जीसस के दोे हजार वर्ष पहले तक सारी दुनिया की आबादी दोे करोड़ से ज्यादा न हो सकी--हो नहीं सकती थी। और फिर भी  आदमी निपट दीनता में जीता था, लेकिन उस दीनता का उसे कोई पता नहीं था, क्योंकि दीनता का पता हमेशा तुलना से चलता है। जब हमारे बीच कोई अमीर हो जाए तब हमें पता चलता है कि हम गरीब हैं, नहीं तो हमें पता नहीं चलता। अगर हम सब काने ही पैदा हों तो हमें कभी पता नहीं चलेगा कि हम काने हैं। एक आदमी दोे आंख वाला पैदा हो जाए तो हम उसकी एक आंख का आपरेशन कर देंगे, या फिर हमको काने होने का दुख शुरू हो जाएगा। दोे ही उपाय बचते हैं।
लेकिन जब आदमी ने बीज बोकर खेती करना शुरू किया तो उसके पास थोड़ी सी संपत्ति का आना शुरू हुआ। क्योंकि वह प्रकृति पर निर्भर नहीं रहा। उसने प्रकृति का उपयोग करना शुरू कर दिया। लेकिन फिर भी जमीन से पैदावार उतनी ही हुई जितने से आदमी पेट भर सकता था और तन ढंक सकता था।
दुनिया की आबादी आज से पांच सौ साल पहले तक बहुत ज्यादा नहीं बढ़ सकी। फिर इसके बाद आदमी ने अपने को श्रम से मुक्त करना शुरू किया। और अपने श्रम की जगह वह जानवरों को लाया। और जब अपने श्रम की जगह बैल और घोड़े को लाया तो उससे काम बहुत बढ़ गया और थोड़ी संपत्ति अर्जित होनी शुरू हुई। बैल, घोड़े और जानवरों ने मिल कर संपत्ति पैदा की और फ्यूडल, सामंत युग पैदा हुए। लेकिन जानवरों की भी सीमा है, काम करने की। उनसे अत्यंत संपत्ति पैदा नहीं की जा सकती। तो मशीन आई, और मशीन की कोई सीमा नहीं और अब जो आटोमेटिक मशीन आ रही है, स्वचालित उसकी तो कोई सीमा ही नहीं है।
अगर इस देश को अमीर होना है, तो राजनीतिक व्यवस्था बदलने से नहीं होगा। इस मुल्क की यांत्रिक व्यवस्था बदलने से ही यह मुल्क संपत्ति पैदा कर पाएगा। और कोई उपाय नहीं है। तो इस मुल्क को दोे बातें करनी जरूरी हैं। एक तो हम जितनी शीघ्रता से, जितनी शक्ति लगाकर मुल्क को यांत्रिक क्रांति से गुजार सकें, एक टेक्नालाॅजिकल रेवोल्यूशन से गुजारें, लेकिन कौन गुजारे? मुल्क का नेता मुल्क को सोशलिस्टिक रेवोल्यूशन से गुजार रहा है। वह समाजवादी क्रांति से गुजार रहा है। मुल्क के धर्मगुरु मुल्क को राम-राज्य की क्रांति से गुजार रहे हैं और मुल्क में लड़के मुल्क को उपद्रव में डाल रहे हैं। उनका उपद्रव ही उनकी क्रांति है।
नेता को मतलब है चुनाव से, वह समाजवादी क्रांति की बातें कर रहा है। साधु को मतलब है अपने महंत के पद से। शंकराचार्य को मतलब है अपने पीठ से। वे अपने रामराज्य, गीता, रामायण की बातें दोेहराए चले जा रहे हैं। लड़कों को कुछ मतलब नहीं अपनी चीज से। उन्हें कोई आशा भी नहीं दीखती भविष्य में। वे उपद्रव करने में लगे हुए हैं, उनके उपद्रव का कोई भी नाम हो। वे उपद्रव करने में लगे हुए हैं।
इस मुल्क को औद्योगिक क्रांति से कौन गुजारे? जो गुजार सकता है उसके हम सब खिलाफ हैं। इस मुल्क में जो थोड़ा-बहुत उद्योेग लाया गया है, वह इस मुल्क के पूंजीपतियों ने लाया है। जो इस मुल्क को पंूजीपति और बड़ी औद्योगिक क्रांति से गुजार सकता है उसको मिटाने में हम लगे हैं। हम इस कोशिश में हैं कि वह बिलकुल न बचे। तब इस मुल्क में सिवाय दुर्भाग्य के कुछ भी न बचेगा। इस मुल्क के पूंजीपति को हमें राजी करना पड़ेगा। इस मुल्क को औद्योगिक क्रांति में प्रवेश करवाने के लिए उनकी शक्तियों का उपयोग भी करना पड़ेगा। लेकिन अभी हम न कर पाएंगे, क्योंकि हम दुश्मन की तरह खड़े हो गए हैं--पूंजीपति को हमें मिटाना है। और अगर पूंजीपति एक लाख कमाए तो उस पर टैक्स लगेगा, दो लाख कमाए तो और ज्यादा लगेगा, तीन लाख कमाए तो और ज्यादा लगेगा। पांच लाख कमाए तो जितना कमाए उतना टैक्स लग जाएगा। दस लाख कमाए तो बेकार मेहनत कर रहा है। तो पूंजीपति किसलिए मेहनत करे?
इस मुल्क की टैक्सेशन की पूरी व्यवस्था, इस मुल्क को औद्योगिक होने से रोक रही है। मेरी समझ में जो आदमी जितना कमाए उतना कम टैक्स होता जाना चाहिए और एक सीमा के बाद टैक्स होना ही नहीं चाहिए। एक आदमी दस लाख के ऊपर कमाए तो उसे टैक्स-मुक्त और करोड़ के ऊपर कमाए तो पूरे मुल्क को उसे और कुछ थोड़ी प्रशंसा देनी चाहिए। लेकिन हम अजीब काम कर रहे हैं। लेकिन जो इस मुल्क को इंडस्ट्रियलाइज्ड कर सकते हैं, उनको हम तोड़ रहे हैं। और जो इस मुल्क को कभी का भूखा रखे हुए हैं, गरीब बैठे हुए हैं उनको हम बढ़ावा दे रहे हैं। इससे नुकसान होगा।
एक तो जरूरत है कि तत्काल, जितनी शीघ्रता से हो सके उतना यांत्रिक क्रांति से गुजरे। इस यांत्रिक क्रांति के लिए हिंदुस्तान के उद्योगपति का हिंदुस्तान के लिए पूरा उपयोग करने की जरूरत है। लेकिन उद्योगपति घबराया हुआ है, डरा हुआ है। उसका डर स्वाभाविक है। उसे लग रहा है कि दोे-चार-पांच साल की उसकी जिंदगी है। वह खत्म होने के करीब है। तो उद्योगपति यूरोप के बैंकों में अपना पैसा जमा कर रहा है--करेगा। हम करवा रहे हैं उससे जमा। उद्योगपति पश्चिम में भागने की कोशिश में पड़ा हुआ है। कलकत्ते का उद्योगपति बंगाल छोड़ने की कोशिश कर रहा है। बंबई का उद्योगपति आज नहीं कल बंबई से भागने की कोशिश करेगा। परसों वह पाएगा, हिंदुस्तान में भागने की कोई योग्य जगह नहीं रही। हिंदुस्तान के बाहर भागने के सिवाय कोई उपाय नहीं है।
हम जो इस मुल्क को संपत्ति की व्यवस्था में गतिमान कर सकते हैं, उनके साथ दुश्मन की तरह व्यवहार कर रहे हैं, यह अत्यंत नासमझी से भरा हुआ कृत्य है, जो कोई भी गरीब मुल्क कर सकता है।
दूसरी बात, मुल्क की सारी की सारी जनता इसके किसी बोध में ही नहीं है, उसके दिल में इस बात की कोई कांशियंस, कोई चेतना ही नहीं है, कि कितनी संख्या में यह मुल्क झेल सकता है। अगर हम औद्योगिक क्रांति भी कर लें तो यूरोप औद्योगिक क्रांति के बाद समृद्ध हो गया, क्योंकि उसकी संख्या बहुत कम थी।
आज हमारी संख्या दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ रही है। हम पचास-पचपन करोड़ लोग जब तक हम इस मुल्क को दस साल में औद्योगिक रूप से थोड़ा बहुत आगे बढ़ाएं तब तक ये बीस करोड़ लोग पैदा कर देंगे। तब सवाल फिर वहीं का वहीं खड़ा रह जाएगा। हमारा सारा औद्योगिक विकास ठप्प कर देंगे। इसलिए दूसरी बात है कि जनता के एक-एक आदमी को हम इस बात के लिए तैयार करें कि एक भी नये बच्चे को लाना खतरे से खाली नहीं है और इसके लिए हम सारा इंतजाम करें। इंतजाम सब हमारा उलटा है। इंतजाम हमारा यह है कि जिसके दोे बच्चे हैं उसको इनकमटैक्स में उतनी छूट नहीं, जिसको चार हैं उनको ज्यादा छूट है। यह बहुत मजे की बात है। जिसके चार बच्चे हैं उस पर दुगुना इनकमटैक्स होना चाहिए। जिसको बिलकुल बच्चे नहीं है उस पर इनकमटैक्स ज्यादा है और बैचलर पर और भी ज्यादा है। बैचलर पर बिलकुल नहीं होना चाहिए।
जो आदमी अविवाहित हैं, उसको तो हमें देर तक अविवाहित रखने का उपाय करना चाहिए। उसको नौकरी पहले मिलनी चाहिए विवाहित के बजाय। उस पर टैक्स नहीं होना चाहिए। उसको सब तरह की जो भी सुविधाएं मिल सकती हैं, मिलनी चाहिए।
मुल्क में ज्यादा देर तक लड़के और लड़कियां अविवाहित रहें, इसका हमें तीव्रता से प्रचार करना चाहिए। जो लोग विवाहित हैं वे अगर बिना बच्चे पैदा किए विवाहित रहें तो उन्हें हमें सुविधाएं देनी चाहिए। बच्चों के साथ असुविधाएं बढ़ानी चाहिए। जैसे बच्चे बढ़ें, वैसे असुविधाएं बढ़ानी चाहिए। लेकिन हम सोचते हैं उलटा। हम सोचते हैं उलटे कि जिसके पास बच्चे हैं वह बेचारा है। लेकिन किसने कहा उस बेचारे से कि पांच बच्चे पैदा करेे। बच्चे वह पैदा करेगा, परेशान यह पूरा मुल्क होगा। बच्चों को रोकना पड़ेगा सख्ती से। कुछ खतरनाक घटनाएं घट गई हैं। बड़ा खतरा यह हो गया, हमने मृत्यु-दर कम कर ली है पश्चिम के विज्ञान का उपयोग करके। जहां तक मृत्यु का संबंध है, हमने पश्चिम के विज्ञान का उपयोग कर लिया। और जब हमारा महात्मा भी मरता है तो एलोपैथी की दवा लेने से इनकार नहीं करता। वह यह नहीं कहता कि भगवान मार रहा है तो हम एलोपैथी से न बचेंगे, हम तो मरेंगे। वह मजे से एलोपैथी की दवा लेता है।
पश्चिम की मृत्यु को रोकने की जो-जो खोजें थीं, हमने उन सबका उपयोग कर लिया। लेकिन पश्चिम ने जन्म रोकने की जो-जो खोजें कीं उनके मामले में हम खिलाफ हैं। यह मामला ऐसा है कि जन्म के संबंध में हम भारतीय हैं। और मरने के संबंध में हम पश्चिमी हैं। यह नहीं चलेगा।
अगर आपको मृत्यु की दर कम करनी है तो जन्म-दर उसी मात्रा में कम करनी पड़ेगी और अगर आपको जन्म-दर नहीं कम करनी है तो आपको उसी मात्रा में मरने के लिए तैयार रहना चाहिए, जैसा दवाइयों के पहले हम मरते थे। यह सीधा तर्क है। लेकिन महात्मा मुल्क में लोगों को समझाता है कि बच्चे तो भगवान देता है। लेकिन वह महात्मा लोगों को नहीं समझाता कि महामारी और प्लेग भी भगवान भेजता है, आदमी न रोके। तो जब प्लेग आती है, अकाल आता है, बाढ़ आती है, तब महात्मा सेवा के लिए पहुंच जाता है। वह कहता है कि बाढ़ आ गई, हम सेवा करेंगे वहां जाकर। वह कहता है कि बिहार में अकाल पड़ गया तो हम लोगों को मरने न देंगे। तब वह नहीं कहता कि भगवान अकाल भेज रहा है बिहार में, बिहार के लोगों शांति से मर जाओ, कि सूरत में बाढ़ आ गई है तो सूरत के लागो शांति से बाढ़ में बह जाओ--यह भगवान भेज रहा है।
लेकिन वह महात्मा चालाक है। मरते वक्त लोगों को बचाने पहुंच जाता है और जब यही लोग बच्चे पैदा करते हैं तो महात्मा कहता है, बर्थ-कंट्रोल? बर्थ-कंट्रोल जीवन के नियम के विपरीत है! यह तो परमात्मा के खिलाफ है। यह नहीं चलेगा। मृत्यु-दर हमने कम कर ली, जन्म-दर हमें कम करनी पड़ेगी।
इस जन्म-दर को कम करना हमारा सबसे बड़ा सवाल है। यह बड़े मजे की बात है कि आज दुनिया में जो सबसे बड़े सवाल है वह सबसे छोटी चीजों से पैदा हो रहे हैं। तीन बड़े सवाल हैं इस समय दुनिया में, जो सबसे छोटी चीजों से पैदा हो रहे हैं।
एटम--बड़े से बड़ा सवाल है कि कहीं अणु-युद्ध न हो जाए, और अणु छोटी से छोटी चीज है।
वीर्य-अणु--वह सबसे बड़ा सवाल है कि वीर्य-अणु एक्सप्लोजन कर रहा है जनता का। वह बढ़ाए चला जा रहा है। वह बहुत छोटी सी चीज है। वह वीर्य-अणु दुनिया को मार डाल सकता है।
और तीसरा है, रंग-अणु। काले आदमी की चमड़ी में पिगमेंट होता है काले रंग का। सफेद आदमी की चमड़ी में सफेद रंग का पिगमेंट होता है। दोे तीन आने के रंग का फर्क होता है कुल जमा। लेकिन नीग्रो और अमरीकी लड़ रहा है। काला और गोरा लड़ रहा है, पीला और सफेद लड़ रहा है और इसमें दोे-तीन आने से ज्यादा फर्क नहीं है। दोे-तीन आना भी मैं कह रहा हूं फुटकर बिक्री में खरीदें तो। थोक खरीदें तो इतना भी फर्क नहीं है।
शरीर की चमड़ी में थोड़े से रंग के अणुओं का फर्क है। तीन सवाल हैं इस समय--रंग-अणु, वीर्य-अणु और पदार्थ-अणु। और ये तीन छोटी-सी चीजें आज पूरी मनुष्यता को परेशान किए हुए हैं। इनमें सबसे खतरनाक वीर्य-अणु सिद्ध हो रहा है क्योंकि वह सबके पास है। एटम-अणु तो सबके पास नहीं है। एटामिक एनर्जी बनानी हो तो बड़े उपद्रव की जरूरत है। लेकिन यह जो वीर्य-अणु की एनर्जी है यह सबको मुफ्त मिली है। और एक-एक आदमी को इतनी मिली है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। एक साधारण स्वास्थ्य का आदमी अपनी जिंदगी मे चार हजार संभोग कर सकता है। और एक संभोग में एक साधारण आदमी के वीर्य-अणु इतने निकलते हैं कि एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकें। और अगर पूरी वैज्ञानिक सुविधा मिले--जो अब तक नहीं मिल सकी, क्योंकि स्त्री इसमें साथ नहीं देती, वह पुरुषों का बहुत मामलों में साथ नहीं देती, वह साल में एक ही बच्चे को ग्रहण कर पाती है। लेकिन पुरुष साल में करोड़ों बच्चे पैदा कर सकता है, एक पुरुष। इस समय पृथ्वी पर जो आबादी है साढ़े तीन अरब, यह एक आदमी के वीर्य-अणुओं से पैदा हो सकती है, अगर उसके सारे वीर्य-अणुओं का उपयोग हो जाए। इतनी मुफ्त मिली शक्ति सबके पास हो तो इसका सबसे बड़ा खतरा उसी से है।
हिंदुस्तान के सामने दोे सवाल हैं। एक कि वह जल्दी से जल्दी औद्योगिक, टेक्नालाॅजिकल क्रांति से गुजर जाए और जल्दी से जल्दी बच्चों के दरवाजे पर रोक लगाए और बच्चों को न आने दे, अन्यथा खतरा है। अन्यथा खतरा यह है कि अगर बच्चे बहुत बड़ी तादाद में आए ते दोे उपाय हैं। या तो हमें मृत्यु-दर फिर से बढ़ाने के लिए कृत्रिम साधन खोजने पड़ें, जो कि बहुत दुखद मालूम पड़ता है--किन्हीं जिंदा लोगों को मरने के लिए राजी करना पड़े। और दूसरा उपाय महामारियों को हमें सुविधा देनी पड़े। वे हमसे बिना पूछे आ जाएंगी, संख्या एक सीमा के बाहर जाएगी तो महामारियां आ जाएंगी। बीमारियां फैल जाएंगी। और लोग मरेंगे बड़ी तादाद में। इसके पहले कि लोग बहुत करुण स्थिती में मरें, उचित है कि हम नये बच्चों पर रोक लगाएं और यह कोई अमीर आपको नहीं कह रहा है कि आप बच्चे पैदा करें। लेकिन बच्चे पैदा करने पर सख्ती से नियंत्रण करने की जरूरत है।
सरकार को जो करने योग्य है वह न करके बेकार की बातों में हमारे मुल्क की सरकार पड़ती है। सख्ती का मेरा मतलब यह है कि हिंदुस्तान में जो भी आदमी जेल जाए, वह आदमी जेल के बाहर बच्चे पैदा करने की ताकत लेकर वापस नहीं लौटना चाहिए। यह दंड का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। हिंदुस्तान में दोे बच्चे के बाद जो आदमी तीसरा बच्चा पैदा करे उस पर बहुत असुविधाएं थोप देनी चाहिए। उसकी फीस दुगनी हो जानी चाहिए, टैक्स ज्यादा होना चाहिए, उस पर सारी मुसीबतें आ जानी चाहिए।
जैसे ही बच्चे आर्थिक रूप से बोझ होंगे तभी हम उन्हें रोकेंगे, लेकिन उसमें एक कठिनाई आएगी। गरीब के लिए बच्चे आर्थिक रूप से सुविधाएं हैं, बोझ नहीं हैं। वे सिर्फ अमीर के लिए बोझ हैं। लेकिन बड़ी अघटनीय घटना घटती है। और वह यह है कि जैसे-जैसे आदमी समृद्ध होते जाते हैं, वैसे-वैसे अपने आप बच्चे कम करते जाते हैं। क्योंकि अमीर आदमी के लिए बच्चा उसकी संपत्ति का विभाजक होकर आता है। अगर एक आदमी के पास करोड़ रुपये हैं और वह दस बच्चे पैदा कर ले तो उसके बच्चे लखपति रह जाएंगे, करोड़पति नहीं रह जाएंगे। लेकिन एक गरीब जिसके पास कुछ भी नहीं है, अगर वह दस बच्चे पैदा कर ले तो दस बच्चों की आमदनी शुरू हो जाएगी। दस बच्चे कुछ कमा लाएंगे, गाय, बैल, को ही चराएंगे, कुछ तो काम कर ही लेंगे। अभी गरीब के लिए बच्चों का बढ़ना आर्थिक रूप से उपयोगी है।
पर क्या गरीब के पास कोई सुविधा है कि वह मुल्क की संपत्ति बढ़ाने में अपने बच्चों को प्रेरित कर सके? क्या गरीब के पास पूंजी पैदा करने की कोई क्षमता है? अगर उसके पास वह क्षमता होती तो वह गरीब न होता। उसे भी अपने बच्चों को पूंजीपतियों की सजाई इस दुनिया पर आधारित रखना पड़ेगा।
नहीं, यह नहीं चलेगा। श्रम को पूंजी में रूपांतरित करने वाले पूंजीपति को हमें राजी करना पड़ेगा। उसे प्रेरणा देनी पड़ेगी, स्वतंत्रता व सुविधाएं देनी पड़ेंगी कि वह ज्यादा से ज्यादा पूंजी पैदा करे और मुल्क को जल्द से जल्द औद्योगिक क्रांति से गुजारे।
दूसरे, मुल्क में विस्फोटित जनसंख्या पर आगे सख्ती से पूरी रोक लगानी पड़ेगी। उसके सारे इंतजाम हमें करने पड़ेंगे। तो ही इस मुल्क का कोई भविष्य है, अन्यथा हमारे सामने अंधकार के गर्त के सिवाय कुछ भी नहीं।
और भी प्रश्न रह गए हैं जिनकी चर्चा हम अगली बैठक में करेंगे।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, इससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रमाण करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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