तीसरा प्रवचन
पूंजीवादः ज्यादा मानवीय व्यवस्था
मेरे प्रिय आत्मन्!बहुत से सवाल पूछे गए हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि समाजवाद परार्थवाद, अलटुइस्टिक व्यवस्था है। पूंजीवाद स्वार्थवादी, सेलफिश व्यवस्था है। और आप परार्थवादी व्यवस्था का विरोध करते हैं और स्वार्थ की व्यवस्था का समर्थन करते हैं। इसका क्या कारण है?सबसे पहली बात तो यह ध्यान में लेने जैसी है कि जगत में न कोई परार्थवादी कभी पैदा हुआ है, न हो सकता है। इसका कोई उपाय ही नहीं है। परार्थवाद असंभावना है। और इस सत्य को जितना ठीक से समझा जा सके उतना पाखंड से, हिपोक्रेसी से बचा जा सकता है। परार्थवाद के नाम पर सिवाय पाखंड के और कुछ भी नहीं है। असल में मनुष्य की चेतना मूलतः स्वार्थी है और उचित भी है, अनुचित भी नहीं है। बुरा भी नहीं है, स्वाभाविक भी है। हां, स्वार्थ बहुत तल के हो सकते हैं। तीन तरह के स्वार्थ हो सकते हैं। श्रेष्ठतम स्वार्थ, जिसमें मेरे स्वार्थ में आपके स्वार्थ को भी गति मिलती हो। यह भी श्रेष्ठतम इसीलिए है कि आपके स्वार्थ को भी गति मिलती है, और कोई कारण नहीं है। मध्यम स्वार्थ, जिसमें मेरा स्वार्थ तो हल होता है लेकिन किसी और के स्वार्थ को न तो कोई फायदा होता है, न कोई हानि होती है। वह मध्यम इसलिए है कि दूसरे के प्रति पूर्ण उपेक्षा है। न हानि है, न लाभ है। निकृष्ट स्वार्थ वह है, जिसमें मेरा स्वार्थ आपके स्वार्थ को नुकसान पहुंचाता है। वह निकृष्ट इसीलिए है कि आपके स्वार्थ को नुकसान पहुंचाता है। और कोई कारण नहीं है।
तीन तरह के स्वार्थ हैं जगत में। और जगत का सारा विकास निकृष्ट स्वार्थ से श्रेष्ठतम स्वार्थ की तरफ है। जगत का विकास स्वार्थ से परार्थ की तरफ न है और न हो सकता है। लेकिन, हम कुछ ऐसी घटनाएं सोचते रहते हैं जो लगती हैं बिलकुल परार्थ हैं। एक आदमी नदी में डूब रहा है और मैं किनारे से गुजर रहा हूं। मैं उसे अपनी जिंदगी को जोखिम में डाल कर नदी में कूद कर बचाता हूं तो आप मुझसे कह सकते हैं कि यह तो बिलकुल परार्थ है, इसमें आपका क्या स्वार्थ? लेकिन नहीं, आप बहुत गहरे नहीं देख रहे हैं और शब्दोें की बहुत ऊपरी पकड़ में हैं। जब मैं एक आदमी को नदी में डूबते देखता हूं तब तत्काल मेरे सामने जो सवाल होता है वह उस आदमी को बचाने का नहीं होता। तत्काल वह सवाल यह होता है कि क्या मैं उस आदमी को डूबने का दुख झेल सकता हूं। वह असली सवाल बहुत गहरे स्वार्थ का है।
जो इस दुख को झेल सकता है वह निकल जाएगा नदी के किनारे से, वह फिकर नहीं करेगा उस आदमी की। लेकिन जो इस दुख को नहीं झेल सकता वह उस आदमी को बचाता है। वह उस आदमी को नहीं बचा रहा है। वह उस आदमी को डूबते हुए देखने के अपने दुख से छुटकारा पा रहा है और कोई कारण नहीं है और जब मैं उस आदमी को बचा कर बाहर ले आऊं उस नदी के किनारे, तो मुझे जो सुख मिलता है वह सुख उस आदमी को बचाने का नहीं। वह सुख मुझे जो उस आदमी को डूबते हुए देखने की पीड़ा थी उससे मुक्ति का है। और दूसरा सुख मैंने उसे बचाया है, उसका है। वह आदमी बच गया, यह दूसरी बात है, यह सेकंड्री है, यह गौण है। आज तक दुनिया में कोई आदमी अपने स्वार्थ के बाहर नहीं जा सका।
अगर बुद्ध गांव-गांव घूमते हैं लोगों को समझाने, तो इस भ्रांति में पड़ने की कोई जरूरत नहीं कि वे लोगों के लिए परार्थ के लिए घूम रहे हैं। यह बुद्ध का आनंद है कि वे लोगों के लिए घूम रहे हैं और समझा रहे हैं। जब रास्ते के किनारे एक फूल खिलता है तो आप इस भ्रांति में मत पड़ना कि वह रास्ते पर चलनेवाले लागों को सुगंध देने के लिए खिलता है। यह फूल का आनंद है कि वह खिलता है। रास्ते पर चलनेवालों को सुगंध मिल जाती है, यह दूसरी बात है। यह प्रयोजन नहीं है फूल खिलने का। और चांद अगर आकाश में निकलता है तो आप यह मत सोच लेना कि आप प्रेम का गीत गा सके इसलिए निकलता है। आप गा लेते हैं, यह बात दूसरी है।
जिंदगी का मूल स्वर स्वार्थ है। स्वार्थ शब्द को हमने बहुत गंदा कर रखा है। वैसे शब्द सुंदर है। स्वार्थ का मतलब होता हैः ‘स्व’ के अर्थ में। अगर अच्छा शब्द कहें तो आत्म-अर्थ कहें, आत्मा के हित में, अपने हित में। स्वाभाविक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने हित में जीए। हां, दृष्टि सिर्फ इतनी होनी चाहिए कि उसका हित धीरे-धीरे सबके हित को समाहित कर ले, यह श्रेष्ठतम होगा। उसका हित सबके विरोध में पड़ जाए यह निकृष्टतम होगा। लेकिन ये दोेनों आदमी स्वार्थी हैं, यह मैं स्पष्ट करना चाहता हूं। इसमें परार्थी कोई भी नहीं है।
फिर परार्थी कौन है? जिनकी हम परोपकारियों में, परार्थियों में गणना करते हैं और जिनको हम महात्मा, साधु संत कह कर पूजते हैं, ये कौन लोग हैं, जो अपने किसी गहरे स्वार्थ के गहरे आनंद को पूरा करते हैं। लेकिन परार्थ कर रहे हैं--यह अहंकार भी पूरा कर रहे हैं। कोई परार्थ नहीं कर रहा है। अगर भगतसिंह को इस देश के लिए मरने में आनंद है तो भगतसिंह मर रहा है। यह भगत सिंह का अपना आनंद है। इस देश की लड़ाई आगे बढ़ती है, यह गौण है। और गांधी अगर इस देश की सेवा कर रहे हैं तो यह उनका अपना आनंद है। इसमें परार्थ कहीं भी नहीं है, लेकिन यह श्रेष्ठतम स्वार्थ है और श्रेष्ठतम स्वार्थ होना चाहिए।
मैं पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थक हूं, क्योंकि वह मानवीय स्वभाव के अनुकूल है। पूंजीवादी व्यवस्था स्वार्थी व्यवस्था है। समाजवादी व्यवस्था दावा करती है परार्थ का, इसलिए पाखंडी व्यवस्था है। यह मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल नहीं है और दावा ही परार्थ का है, परार्थ हो नहीं सकता है। स्वार्थ वहां भी होगा। स्वार्थ वहां भी हो रहा है।
इस बात को अगर हम ठीक से समझ लें कि स्वार्थी होना मनुष्य का महत्तम, गहरे से गहरा मनोभाव है, उसकी गहरी से गहरी प्रकृति है, तो हम व्यर्थ के पाखंडों से बच जायें और चीजें साफ-सुथरी हो जाएं और गणित ठीक से बैठ सके। तब हम इतना कह सकें कि तुम्हारा स्वार्थ निकृष्ट है, यह श्रेष्ठ हो सके तो शुभ है। लेकिन हम उसे क्यों कह रहे हैं, यह भी हमें समझ लेना चाहिए, इसलिए नहीं कि वह परार्थ है। श्रेष्ठ हम उसे इसलिए कह रहे हैं कि वह भी किसी दूसरे की प्रकृति के स्वार्थ को सहयोग दे रहा है। वह वृहत्तर स्वार्थ है, विराट स्वार्थ है। अगर परमात्मा भी इस जगत को चला रहा होगा तो परार्थ के कारण नहीं। उसका कोई निजी स्वार्थ और आनंद है। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
यह सारा जीवन भीतर के रस और आनंद से चलता है। और इसलिए मैं कहता हूं कि पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल है। मनुष्य के स्वभाव के प्रतिकूल जो भी करने की कोशिश की जाती है वह व्यवस्था ही टूटती है या फिर मनुष्य के स्वभाव को जबरदस्ती तोड़ना पड़ता है। इसलिए जिन पचास साठ देशों में समाजवादी जीवन का प्रयोग हुआ है वहां पता चलना शुरू हो गया है कि आदमी ने श्रम करने की उत्सुकता को खो दिया है। वह उसके स्वार्थ में नहीं मालूम पड़ती। इतना बड़ा स्वार्थ है कि उसकी पकड़ के बाहर हो जाता है।
मैं जानकर ही पूंजीवाद के समर्थन में हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं सोचता हूं पूंजीवाद मनुष्य को अंतिम जीवन-व्यवस्था है। असल में जो लोग भी किसी व्यवस्था को अंतिम कहते है, वे सदा खतरनाक हैं। लेकिन समाजवादी ऐसा मानते हैं कि समाजवाद का जो श्रेष्ठतम रूप होगा साम्यवाद, वह अंतिम व्यवस्था होगी--अल्टीमेट। उसके आगे फिर कोई विकास नहीं है। असल में सभी सिद्धांतवादी इस मानने के भ्रम में पड़ते हैं कि उन्होंने जो सोचा है वह चरम है, उसके आगे कुछ भी नहीं है। जीवन कहीं भी रुकता नहीं। इसलिए सिद्धांतवादी जीवन को रोकने वाले सिद्ध होते हंै। क्यांकि जब उनकी व्यवस्था के आगे जीवन जाने लगे तो वे बाधा खड़ी करते हैं। पूंजीवाद चरम व्यवस्था नहीं है।
पूूंजीवाद से बहुत कुछ नया पैदा होगा। पूंजीवाद एक सीमा पर मरेगा और नई व्यवस्था को जन्म दे जाएगा। जैसे पिता मरता है और बेटे को जन्म दे जाता है। लेकिन पिता के खिलाफ बेटे को लड़वाने की और बाप की हत्या करवाने की कोई भी जरूरत नहीं है। बाप, बाप होने की वजह से खुद ही मरता है। असल में जिस दिन बाप, बाप बनता है उसी दिन मरना शुरू हो जाता है। और बेटा जीना शुरू हो जाता है। यह बेटे को भड़का कर बाप की हत्या करवाना फिजूल की मेहनत है। इसमें कोई अर्थ नहीं है। बाप मरने को ही है। और जो बेटा बाप की हत्या करके बाप को मारेगा, ध्यान रखें वह अपने बेटे से सदा सावधान रहेगा। और इसलिए बेटे को पहले ही मार डालेगा। किसी दिन मारने की तैयारी न हो जाए--लेकिन जो बेटा अपने बाप को मारता नहीं, बचाने की आखिरी कोशिश करता है, लेकिन बाप तो फिर भी मर ही जाता है, क्योंकि सभी पुराना मर जाता है और विदा कर आता है रोत हुआ मरघट पर, यह अपने बेटे के प्रति दुश्मनी के भाव से भरा हुआ नहीं होता है।
ध्यान रहे, अगर हमने पूंजीवाद की हत्या करके समाजवाद लाया तो समाजवाद हमारी गर्दन पकड़ लेगा, उसके आगे फिर कोई व्यवस्था नहीं पैदा होने देगा। नहीं, यह जिंदगी बड़ी सीधी और साफ है। यहां जैसे आदमी की जिंदगी में गति है ऐसी गति व्यवस्थाओं में भी है। लेकिन माक्र्स के दिमाग में एक बुनियादी रोग था और वह रोग यह था कि वह चीजों को संघर्ष की भाषा में ही सोच सकता था, सहयोग की भाषा में नहीं सोच सकता था। द्वंद्व, डाइलेक्टिक्स की भाषा में सोच सकता था। वह सारे विकास को कान्फ्लिक्ट की भाषा मंे सोच सकता था कि सारा विकास द्वंद्व है। यह बात पूरी सच नहीं है। निश्चित ही विकास में द्वंद्वता तत्त्व है। लेकिन द्वंद्व ही विकास का आधार नहीं है, द्वंद्व से भी गहरा ‘सहयोग’--कोआपरेशन विकास का आधार है। असल में द्वंद्व की वहीं जरूरत पड़ती है, जहां असंभव हो जाता है। द्वंद्व मजबूरी है, सहयोग स्वभाव है। और द्वंद्व भी अगर हमें करना पड़े तो उसके लिए भी हमें सहयोग करना पड़ता है। उसके बिना हम द्वंद्व भी नहीं कर सकते हैं। अगर मुझे आपसे लड़ना हो, और आपको मुझसे भी लड़ना हो तो आपको भी पच्चीस आदमियों का कोआपरेशन करना पड़ेगा। मुझे भी पच्चीस आदमियों का कोआपरेशन करना पड़ेगा। लड़ने के लिए भी सहयोग ही करना पड़ता है। लेकिन सहयोग के लिए लड़ना नही पड़ता है। इसलिए बुनियादी कौन है, हम समझ सकते हैं। लड़ने के लिए सहयोग जरूरी है, लेकिन सहयोग के लिए लड़ना जरूरी नहीं है। इसलिए बुनियादी कौन है?
बुनियादी कोआपरेशन है, कान्फ्लिक्ट नहीं। बुनियादी सहयोग है, द्वंद्व नहीं। क्योंकि बिना सहयोग के द्वंद्व संभव नहीं है। लेकिन बिना द्वंद्व के सहयोग संभव है।
लेकिन माक्र्स के दिमाग में यह खयाल था कि सब चीजें लड़ कर विकसित हो रही हैं। असल में जितने भी लोेग मानसिक अशांति से पीड़ित होते हैं, जगत में लड़ाई की भाषा में ही सोच पाते हैं। और माक्र्स कोई शांतचित्त आदमी नहीं था। और दुनिया में बुद्ध जैसा कोई शांत चित्त आदमी कुछ कहता है तो उसकी गहराई और होती है, और माक्र्स जैसा अशांत चित्त आदमी कुछ कहता है तो उसका उथलापन साफ होता है।
माक्र्स की अशांति इतनी भयंकर थी कि अगर एक क्षण भी सिगरेट पीने को नहीं मिलती तो वह बेचैन हो जाता था--चेन स्मोकर। और कहते हैं कैपिटल लिखने में उसने जितनी सिगरेट पी उतनी कैपिटल की बिक्री से उसे दाम नहीं मिले।
माक्र्स की नींद भी बहुत बेचैन थी। वह शांति से सो नहीं सकता था। माक्र्स का विचार भी बहुत धुंधला था। अकसर विचार करते-करते कई बार वह बेहोश भी हो गया था।
माक्र्स के जीवन में कोई ऐसी गहराई नहीं है कि जीवन के किसी गहरे तत्व को देखने की क्षमता उसके पास होे। जब चित्त बहुत अशांत, तनावग्रस्त, एंग्जायटी से भरा हुआ, चिंता से भरा हुआ होता है, टेंशन से भरा हुआ होता है, तो जिंदगी में जो भी हमारे मन में होता है, वही हमें दिखाई पड़ने लगता है।
सिमोन वेल ने एक संस्मरण में लिखा है कि तीस या तीस साल तक की उम्र तक उसके सिर में दर्द बना रहा। और वह दर्द इतना ज्यादा था कि उसे दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं दिखाई पड़ता था। जिसके सिर में दर्द है, उसे दिखाई पड़ भी नहीं सकता। तो जब उसका दर्द ठीक हो गया तो उसने लिखा है कि मैं बहुत हैरान हूं। जब तक मेरे सिर में दर्द था तब तक मैं नास्तिक थी और जब से मेरा सिर दर्द ठीक हुआ तबसे मैं आस्तिक होने लगी।
असल में अगर चित्त पूरा स्वस्थ हो तो आदमी आस्तिक हो ही जाएगा। लेकिन चित्त अगर विकृत हो, रुग्ण हो, नास्तिक होने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जिंदगी में हम वही देखते हैं जो हमारे भीतर है, हम उसी को प्रोजेक्ट करते हैं।
माक्र्स चिंतित, परेशान, द्वंद्वग्रस्त व्यक्तित्व है। असल में माक्र्स को समझने के लिए उसकी साइकोलाॅजी में पूरी छान-बीन, पूरी खोज होनी चाहिए। माक्र्स के व्यक्तित्व का हम जितना विश्लेषण करेंगे उतना ही हमें पता चलेगा कि समाजवाद द्वंद्वात्मक क्यों है। यह समाजवाद डाइलेक्टिकल क्यों है? यह समाजवाद इसलिए द्वंद्वात्मक है कि माक्र्स का चित्त द्वंद्वग्रस्त है।
निश्चित ही बुद्ध अगर कोई बात कहेंगे तो द्वंद्वात्मक नहीं होगी। वह समन्वयात्मक होगी, वह सिंथेटिक होगी। उसमें एक संवेदभाव होगा। क्योंकि भीतर जो चित्त है वह समन्वित है, भीतर खंड-खंड में बसा हुआ आदमी नहीं है।
हम दुनिया को वैसा ही देख लेते हैं जैसा देखने वाला चित्त हमारे पास होता है। माक्र्स ने दुनिया को रुग्ण मन से देखा है इसलिए दुनिया हमें द्वंद्व से भरी मालूम पड़ती है। इसलिए हर जगह लड़ाई है, बाप और बेटे में लड़ाई है, गुरु और शिष्य में लड़ाई है, पति और पत्नी में लड़ाई है, गरीब और अमीर में लड़ाई है, सबमें लड़ाई है। नहीं, जिंदगी लड़ाई पर ही नहीं खड़ी है।
असल में जिंदगी में जहां सहयोग चूक जाता है वहां लड़ाई प्रवेश करती है। जिंदगी लड़ाई नहीं है, जिंदगी सहयोग है। और जहां जिंदगी सहयोेग में असमर्थ हो जाती है, वहां लड़ाई खड़ी करती है। लड़ाई बीमारी है, स्वास्थ्य नहीं।
द्वंद्व मनुष्य का सहज भाव नहीं है। द्वंद्व मनुष्य की मजबूरी है। कोई भी लड़ने को आतुर नहीं है, लड़ना हर हालत में मजबूरी है। लेकिन इस मजबूरी को माक्र्स नियम, दि लाॅ, कानून मान कर चलते हैं तो उन्होंने सारी जिंदगी को द्वंद्व में घेर लिया। इसलिए पिछले पचास वर्षों में जहां-जहां माक्र्स के चिंतन का प्रभाव पड़ा, वहां-वहां जीवन के सब तलों पर द्वंद्व हो गया। चाहे वह गरीब-अमीर का हो, चाहे बाप-बेटे का हो, पति-पत्नि का हो, जिंदगी को देखने का ढंग द्वंद्व में से हो गया। पति-पत्नि दोे मित्र नहीं हैं, दोे दुश्मन हैं। बाप-बेटे भी एक जीवनधारा के दोे हिस्से नहीं हैं, दुश्मन हैं।
तुर्गनेव ने एक किताब लिखी हैः फादर एण्ड सन्स। पिता और पुत्र। और वहां दिखाई पड़ता है कि पिता और पुत्र भी दोे वर्ग हैं दोे दुश्मन हैं। सारी जिंदगी दुश्मनी के सूत्र से समाजवाद ने भर दी है जो कि नितांत असत्य है। और न केवल असत्य है, खतरनाक असत्य है। क्योंकि अगर हम एक बार भी उस भाषा में सोचने को तैयार हो जाएं कि सब जगह द्वंद्व है, तो फिर जिंदगी में शांति और जिंदगी में समन्वय और संगीत का कोई उपाय नहीं हैै। नहीं, मैं नहीं मानता हूं कि पूंजीपति और गरीब में द्वंद्व है। मैं मानता हूं कि पूंजीपति और गरीब के बीच जो सारभूत हिस्सा है वह सहयोग है। और जहां सहयोग असफल होता है वहां द्वंद्व पैदा होता है।
द्वंद्व मूल स्वर नहीं है। द्वंद्व सहयोग की असफलता है। और सहयोग असफल न हो इसकी पूरी कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन पूरी कोशिश इसकी की जा रही है कि सहयोग सब जगह खत्म हो जाए और द्वंद्व ही रह जाए। क्योंकि समाजवाद की जीत इसी पर निर्भर है कि सहयोग सभी जगह टूट जाए। कहीं भी अगर सहयोग है तो समाजवाद की संभावना नहीं है। जहां भी सहयोग की थोड़ी संभावना है वहां समाजवाद की संभावना क्षीण हो जाएगी। इसीलिए सब जगह सहयोग टूट जाए तो समाजवाद आ सकता है।
समाजवाद बहुत पैथालाजिकल खयाल है, बहुत रोगग्रस्त खयाल है। अगर हम मनस-विश्लेषण करें समाजवादी चित्त का तो हम पायेंगे कि यह आदमी परेशान है और यह अपनी परेशानी को सारे समाज पर थोप रहा है। और जिंदगी बहुत कुछ देखने पर निर्भर करती है। जो हम देखना शुरू कर देते हैं, मानना शुरू कर देते हैं, उसे हम खोज लेते हैं। वह जगह दिखाई पड़ने लगती है।
अगर एक आदमी गुलाब के फूल के पास जाकर खड़ा हो और कांटों का विश्वासी हो तो फूल उसे शायद ही दिखाई पड़ें। उसे कांटे ही कांटे दिखाई पड़ेंगे। और इतने कांटे दिखाई पड़ेंगे कि उसे स्वभावतः यह खयाल आए कि इतने कांटों के बीच एक फूल नहीं हो सकता, फूल झूठा होगा। स्वभावतः जब इतने कांटे हैं तो फूल कैसे हो सकता है कांटों के बीच में? लेकिन अगर कोई आदमी उसी गुलाब के पौधे के पास फूल को देखने की क्षमता रखता हो और फूल को देखने की क्षमता रखना, मनुष्य के श्रेष्ठतम गुणों में से एक है--फूल को देखने की क्षमता रखना। कांटों को देखने की क्षमता रखना कोई गुण नहीं है।
अगर कोई फूल को देखने की क्षमता रखता हो और एक गुलाब के फूल के चारों तरफ हजार कांटे भी हों और गुलाब के फूल को अगर कोई ठीक से देख पाए तो उसे शक होगा कि जहां ऐसा फूल खिला है वहां इतने कांटे कैसे हो सकते हैं? और जब वह जो फूल को देख कर कांटे देखने जाएगा, वह हैरान हो जाएगा, वह पाएगा कि कांटे फूल की रक्षा के लिए ही हैं, फूल के दुश्मन नहीं हैं। और जो कांटों का प्रेमी है, वह जब कांटों को देखेगा तो वह समझेगा कि फूल जो है वह कांटों को धोखे में छिपाए रखने के लिए इंतजाम है। असली चीज तो कांटा है। यह फूल जो ऊपर से दिखाई पड़ रहा है, यह इसलिए है कि आदमी फूल तोड़ने आ जाए और कांटों में फंस जाए। यह कांटों की तरकीब है, यह फूल जो है, कांटों में फंसाने के लिए है।
हम जिंदगी को जैसा देखते हैं वैसी ही दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। समाजवाद जिंदगी को द्वंद्व से मानकर चलता है। खुद माक्र्स को खयाल न था मौलिक रूप से। माक्र्स बहुत मौलिक चिंतक है, ऐसा मुझे दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन माक्र्स के पहले हैगल हुआ। हैगल का खयाल था कि दुनिया द्वंद्व से विकसित हो रही है। यह खयाल माक्र्स को भी पकड़ गया।
हैगल तो कहता था कि विचारों के द्वंद्व से विकास हो रहा है, माक्र्स ने उसको और पदार्थवादी बनाकर वर्ग का द्वंद्व और यथार्थ बना दिया। वर्गों के द्वंद्व से विकास हो रहा है। लेकिन कोई पूछे कि कम्युनिज्म के बाद क्या होेगा? जब दुनिया में साम्यवाद आ जाएगा तो विकास नहीं हो सकता। कैसे विकास होगा? क्योंकि द्वंद किस-किस में होगा। इसलिए समाजवाद की जो आखिरी सीढ़ी है साम्यवाद, उसके बाद दुनिया में कोई विकास नहीं, वहां सब चीजें ठप्प और मुर्दा हो जायेंगी। क्योंकि उसके बाद दुनिया में कुछ नहीं होगा, न गरीब बचेगा, न अमीर बचेगा। बहुत संभावना तो यह है कि न पत्नी बचेगी, न पति बचेगा। बहुत संभावना तो यह है कि न बाप बचेगा, न बेटा बचेगा। ऐसा नहीं कि बेटे पैदा नहीं होंगे, लेकिन वे सरकारी होंगे--ये निजी नहीं हो सकते।
क्योंकि एक बार संपत्ति सरकारी होनी शुरू हुई तो बेटा भी निजी संपत्ति ज्यादा दिन नहीं हो सकता। उसके होने का कारण किसी निजी व्यक्तिगत संपत्ति की वजह से था।
असल में व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकारी कोई और न हो जाए इसलिए बाप और बेटे के संबंध को संगठित होने में सुविधा मिली थी। बाप कहता था, उसका बेटा, उसका खून, उसकी संपत्ति का मालिक हो। जिस दिन संपत्ति सरकारी होगी उस दिन बाप क्यों बेटे के उस झंझट पड़े, इससे मतलब क्या, इससे प्रयोजन क्या? बेटा सरकारी हों जाएगा।
माक्र्स के वक्त में यह खयाल चर्चा का विषय बन गया था कि जब व्यक्तिगत संपत्ति समूह की हो जाएगी तो स्त्रियां कब तक व्यक्तिगत रखने का खयाल है। बहुत ज्यादा देर तक नहीं चल सकता। क्योंकि स्त्रियों को व्यक्तिगत रखने की क्या जरूरत है? सामूहिक होना ज्यादा सुविधापूर्ण होगा। समाजवाद का आखिरी कदम जब मनुष्य की पूरी जिंदगी में घुसेगा तो स्त्री भी व्यक्तिगत नहीं हो सकती। ऐसे भी व्यक्तिगत स्त्री महंगी चीज है।
ऐसे अपने घर में कार रखो तो उपद्रव ही है। बस में बैठने से सुविधापूर्ण है। अगर समाजवाद के विचार को उसके लाजिकल कनक्लूजन (तार्किक निष्पत्ति) तक ले जाया जाए तो इसका मतलब ही यह है कि व्यक्तिगत स्त्री की भी क्या जरूरत है। व्यक्तिगत बेटे की भी क्या जरूरत है। असल में व्यक्तिगत की क्या जरूरत है।
समाजवाद व्यक्तिगत पर चोट है। संपत्ति से शुरू होगी, फिर जिंदगी के भीतर प्रवेश कर जाएगी। जिंदगी के भीतर प्रवेश करना स्वाभाविक है। इसलिए मैं मानता हूं कि समाजवाद बड़ी अस्वाभाविक, अप्राकृतिक, अमानवीय, इनह्यूमन व्यवस्था है। मनुष्य जैसा है--पूंजीवाद आया है--पूंजीवाद लाया नहीं गया है। यह थोड़ा सोचने जैसा है। पूंजीवाद आया है, पूंजीवाद लाया नहीं गया है। यह कोई इम्पोज्ड सिस्टम नहीं है आदमी के ऊपर। इसके लिए किन्हीं लोगों ने प्रचार करके, आंदोेलन करके इंतजाम नहीं किया है। कोई क्रांति करके और आदमी को समझा कर और कानून बना कर पूंजीवाद नहीं आया है। पूंजीवाद विकसित हुआ है। समाजवाद को लाने की चेष्टा चल रही है। असल में उसी चीज को लाना पड़ता है जो अप्राकृतिक है--जो प्राकृतिक है, वह अपने से आ जाती है।
आज तक दुनिया की सारी व्यवस्थाएं आई हैं। समाजवाद पहली व्यवस्था है जिसे लाने का इंतजाम करना पड़ रहा है। अब तक जब सब व्यवस्थाएं आ गईं, पूंजीवाद की आगे की व्यवस्था भी पूंजीवाद से आ जाएगी। इसमें इतने अनिश्चित और परेशान होने की क्या जरूरत है? इसे लाने के लिए विशेष आयोजन की क्या जरूरत है? असल में इसेेे विशेष रूप से तभी लाना पड़ता है।
अगर एक आम वृक्ष पर लगा है और लगा रहे--अपने से पकता है और गिर जाता है। असल में पक जाना और गिर जाना एक ही साथ घटते हैं--युगपत। जिस क्षण पूरा पक जाता है उस क्षण गिरने के सिवाय और कोई मार्ग नहीं रह जाता। राइपननेस इ.ज आल--पक जाना सब कुछ है, फिर गिर जाता है। वृक्ष को पता भी नहीं चलता कि कब गिर गया पका आम। आम को भी पता नहीं चलता कि कब छोड़ा वृक्ष को। यह जब छूट जाता है तभी पता चलता होगा। लेकिन अगर कच्चे आम को तोड़ ले तो वृक्ष को भी पता चलता है, घाव छूट जाता है। आम को भी पता चलता है, क्योंकि अभी जिससे रस लेना था उससे रस नहीं ले पाया था। और फिर कच्चे आम को कृत्रिम इंतजाम करके पकाना पड़ता है। वह जो काम वृक्ष ही कर देता है वह फिर घर में गेहूं में छिपा कर आम को पकाने का इंतजाम करना पड़ता है।
निश्चित ही, गेहूं में छिपा कर पकाया हुआ आम, वृक्ष पर पके हुए आम से भिन्न होता है। वृक्ष पर पका हुआ आम स्वस्थ होता है। गेहूं में पका हुआ आम सिर्फ बीमार होता है, बुखार से पकाया हुआ होता है।
तो जीवन की व्यवस्था सहजता से आती है--स्पांटेनियस! जो जीवन की व्यवस्था पिछली व्यवस्था से जन्म लेती है, उस व्यवस्था में एक स्वास्थ्य, एक सौंदर्य, एक सरलता, निर्दोेषता होती है। जो व्यवस्था जबरदस्ती लाई जाती है, उस व्यवस्था में कुरूपता, एक जबरदस्ती, एक हिंसा और खून के दाग होते हैं।
मेरी दृष्टि में मनुष्य स्वार्थी है। इस सीधे से सत्य को गालियां देने की क्या जरूरत है? लेकिन साधु-संत और महात्मा इसको बहुत गालियां देते रहे। और यह बड़े मजे की बात है कि इनकी गालियां धीरे-धीरे स्वीकृत हो गई हैं। हजारों साल का प्रचार है, हमने स्वीकार कर लिया है कि
आदमी का स्वार्थी होना बुरा है। और है आदमी स्वार्थी, तब आदमी क्या करे? रहेगा आदमी स्वार्थी, परार्थ का चेहरा बनाएगा। अच्छा है, एक आदमी दुकान पर बैठ कर दुकान करे और जाने कि यह दुकान है। नहीं, यह आदमी स्वार्थी मालूम पड़ेगा। यह मंदिर बनाएगा। मंदिर में बैठ कर दुकान चलाएगा, यह परार्थ मालूम पड़ेगा।
लेकिन दुकान एक ईमानदारी है और मंदिर एक बेईमानी हो गई, अगर वहां दुकान चल रही है तो। मैंने सुना है कि हम मनुष्य जाति बहुत सजेस्टीबल हैं। ठीक ही है यह बात। बहुत से सुझाव ग्रहण करनेवाली है। अगर हजारों साल तक कोई बात की जाए तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं, उसे ग्रहण कर लेते हैं। हमने यह बात स्वीकार कर ली है कि स्वार्थ कुछ निंदा योग्य है। तो मैं आपसे कहता हूं कि नहीं, निंदा योग्य नहीं है। स्वार्थ स्वभाव है, और अगर स्वार्थ में कुछ निंदा योग्य तत्त्व भी है तो इसलिए है कि किसी दूसरे के स्वार्थ पर चोट पहुंचती है। यह भी स्वार्थ को चोट पहुंचने के कारण है। फिर मैं एक बात आपसे कहता हूं कि जो आदमी दूसरे को चोट पहुंचा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है वह बहुत समझदार स्वार्थी नहीं है--एनलाइटंड नहीं है। बहुत समझदार नहीं है। क्योंकि दूसरे के स्वार्थी को चोट पहुंच कर बहुत देर तक अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं कर सकता। यह असंभव है।
जो आदमी दूसरों के स्वार्थ को चोट पहंुचा रहा है, दूसरे उसके स्वार्थ को चोट पहुंचाना शुरू कर देंगे।
देर-अबेर वह आदमी दूसरों को पहुंचाई गई चोटों से खुद भी गिर जाएगा, वह चोटें वापस लौट आने लगेंगी। जो आदमी दूसरों के स्वार्थ को भी अपने स्वार्थ से पानी सींच रहा है, जो अपने स्वार्थ को पूरा करते वक्त दूसरे के स्वार्थ को नुकसान नहीं पहुंचा रहा है, लाभ पहुंचा रहा है, वह आदमी बहुत गहरे अर्थों में होशियार-स्वार्थी है, बहुत एनलाइटंड सेलफिशनेस है उसकी। क्योंकि वह आदमी वस्तुतः दूसरों के स्वार्थों को पूरा करके अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए वातावरण और अवसर भी पैदा कर रहा है। यह जगत सामूहिक जीवन है। यह जगत सहजीवन है। यहां हम अकेले-अकेले नहीं हैं। यहां हम सब दूसरे के साथ हैं। और दूसरे के साथ होने का एक ही मतलब है कि यह साथ तभी गहरा हो पाता है जब मेरा जीवन मेरा आनंद ही नहीं, दूसरों का भी आनंद बन जाता है। मैं परार्थ का पक्षपाती नहीं हूं, तो पूर्ण स्वार्थ का पक्षपाती हूं। और मैं कहता हूं कि यदि आपका स्वार्थ दूसरे को नुकसान पहुंचा रहा है तो आप पूर्ण स्वार्थी नहीं हैं। आप बीज अपनी ही नासमझी से अपने ही अहित में बो रहे हैं। यह हो सकता है कि फल आने में वक्त लग जाए। तो आपको पता न रहे कि अपने ही बोए हुए बीज फल ला रहे हैं। लेकिन जो हम बोते हैं अपने चारों तरफ वह हम तक फिर लौट आता है।
मैं पक्ष में हूं, यह जानते हुए कि पूंजीवादी व्यवस्था स्वार्थी व्यवस्था है। लेकिन स्वार्थ मनुष्य का स्वभाव है। और मैं कहता हूं कि पूंजीवादी व्यवस्था मानवीय है। निश्चित ही पूंजीवाद अंतिम व्यवस्था नहीं है, क्योंकि इस जगत में कोई व्यवस्था अंतिम नहीं हो सकती है।
अंतिम व्यवस्था का मतलब हुआ कि उसके बाद फिर प्रलय के सिवाय और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। अंतिम व्यवस्था का मतलब हुआ मौत के सिवाय और कोई गति नहीं रह जाएगी। परफेक्शन और पूर्णता मृत्यु के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जा सकती। कोई भी व्यवस्था परफेक्ट होगी, वह पके आम की तरह गिर जाएगी और क्या करेगी? लेकिन हर गिरती व्यवस्था नई व्यवस्था को जन्म दे जाती है। असल में जब पुराने पत्ते गिरते हैं तो नये पत्ते वृक्ष को भीतर से धक्के देने लगते हैं, आवाज देने लगते हैं, इसीलिए गिरते हैं। पुराना पत्ता गिरता है, नया पैदा हो जाता है।
नई व्यवस्था जब जन्म लेने को तैयार हो जाती है तब पुरानी विदा होने लगती है। इस पुराने का विदा होना, नये का आना शाश्वत है। यह कम्युनिज्म आकर रुक नहीं जाएगा। माक्र्स इस संबंध मेें नितांत भ्रांत है। और समाजवादी नितांत भ्रांत हैं कि समाजवाद या साम्यवाद की कोई स्थिति चरम और अंतिम हो जाएगी। कोई स्थिति चरम नहीं हो सकती है। न ही कोई स्थिति ऐसी हो सकती है जिसके आगे पाने के लिए कुछ शेष न रहेगा।
हां, इतना ही फर्क पड़ेगा कि रोज-रोज हमारे जीवन के विकास के आयाम बदलते जाते हैं। रोज-रोज हमारा जीवन नये तलों पर प्रकट होने लगता है। आज लड़ाई है कि रोटी नहीं है, कपड़ा नहीं है। जिस दिन रोटी-कपड़ा सारी पृथ्वी पर हो जाएगा, मत सोचना कि उस दिन दुनिया में बड़ा सुख आ जाएगा। उस दिन दुनिया में बड़े किस्म के दुख उभरेंगे। छोटे किस्म के दुख खत्म हो जाएंगे।
इस भ्रांति में कोई मत रहे कि रोटी-कपड़ा-मकान सब मिल जाने से सुख आ जाएगा। नहीं, सिर्फ रोटी-कपड़ा-मकान का दुख मिट जाएगा। जिस दिन रोटी-कपड़ा-मकान का सुख नहीं रह जाता उस दिन और भी अजीब और अनूठे दुख आदमी को घेरने लगते हैं। संगीत घेरने लगता है, काव्य घेरने लगता है, धर्म घेरने लगता है, ध्यान घेरने लगता है, नये दुख पैदा होने शुरू हो जाते हैं। पेट भरा हो आदमी का तो आप यह मत सोचना कि बस वह आराम से घर में बैठ जाता है। वह नये दुखों की तलाश में निकल जाता है।
स्वभावतः नये दुखों की खोज करनी पड़ती है ताकि नये सुख पाए जा सकें। और कोई रास्ता नहीं है। नये दुख की खोज, नये सुख की खोज है। और ऐसा क्षण कभी भी नहीं आएगा जब दुख बिलकुल नहीं रहेंगे। और अगर किसी दिन आएगा तो उस दिन आदमी मशीन हो चुका होगा, तभी यह हो सकता है।
समाजवाद कहता है कि ऐसा दिन आ सकता है जब दुख नहीं होगा। पूरा भी कर सकता है अपने वायदे को, लेकिन उसके पूरा करने के पहले सचेत हो जाना!
आदमी अगर मशीन हो जाए तो यह हो सकता है कि दुख न आए! क्योंकि सुख भी आने की बात समाप्त हो जाए! मशीनों के लिए कोई दुख-सुख नहीं होता, आदमी के लिए होता है। और यह बड़े मजे की बात है कि हम जरा खयाल करें, अकबर को कौन सी कमी हुई अशोक को कौन सी कमी हुई। शायद समाजवाद बहुत से बहुत सुविधा जुटा देगा आदमी के लिए, सभी आदमियों के लिए तो अशोक जैसी जुटा देगा, अकबर जैसी जुटा देगा। लेकिन अशोक को क्या तकलीफ है कि मरने के पहले वह पीत वस्त्र पहन कर भिक्षु जैसा रहने लगा। मामला क्या है? इसको खाने की कमी है, इसको कपड़े की कमी है, इसको स्त्रियों की कमी है, इसको धन की कमी है? इसको हो क्या गया? असल में इसके पास सब है। और जब सब होता है तब पहली दफा पता चलता है कि सब बेकार है। जब तक नहीं था तब तक पता नहीं चलता कि बेकार है।
गरीब आदमी आशा में जी सकता है। अमीर आदमी के लिए पुरानी आशा समाप्त हो जाती है। गरीब आदमी इस आशा में दौैड़ता रहता है कि एक मकान होगा, एक कार होगी, एक बंगला, एक बगीचा। लेकिन जब सब हो जाता है तब उसे पहली दफा पता चलता है कि यह तो हो गया, लेकिन भीतर तो कुछ भी नहीं हुआ। कुछ अभी खाली का खाली है। वह खाली का खाली नये सवाल उठाना शुरू कर देता है।
जैनियों के चैबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं। सब अवतार राजाओं के बेटे हैं। बुद्ध राजा के बेटे हैं। इस मुल्क में एक अवतार, एक बुद्ध और एक तीर्थंकर भी ऐसा नहीं है जो गरीब घर से आया हो। कुछ कारण हैं। इनके पास सब था। इनके दिमाग खराब थे? इनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी? इनके पास सब था, जो समाजवाद दे सकता है। फिर क्या? लेकिन नहीं, जब इनके पास सब था तो अचानक पता चला कि सब बेकार है। खोज कहीं और करनी पड़ेगी।
मैं नहीं मानता हूं कि समाजवाद कोई अमृत है जिससे सब हल हो जाएगा। कुछ भी हल नहीं होगा, और समाजवाद यह मान कर चलता है कि रोजी-रोटी और कपड़े से सब हल हो जाएगा तो समाजवाद मनुष्य को पशु के तल पर उतार देगा। इसलिए भी मैं उसके पक्ष में नहीं हूं। मैं मानता हूं कि जरूर गरीबी मिटनी चाहिए। लेकिन गरीबी मिटनी चाहिए पूंजीवाद के विस्तार से। गरीबी मिटनी चाहिए व्यक्तिगत संपत्ति के फैलाव से। गरीबी मिटनी चाहिए गरीबी के मिटने से, अमीर के मिटने से नहीं।
गरीबी दोे ढंग से मिट सकती है। अमीर को मिटा दोे। तब भी मिट सकती है। क्योंकि फिर गरीब को गरीब होने का पता नहीं चल सकेगा। एक और ढंग है मिटाने का कि गरीब को मिटा दोे तो भी गरीबी मिट सकती है। अमीर को मिटाना हो तो सीलिंग का रास्ता है कि तय कर दोे कि इससे ज्यादा नहीं कमा सकते हो। अगर गरीब को मिटाना है तो फ्लोरिंग का रास्ता है। तय कर दोे कि इससे कम नहीं कमा सकते।
मैं मानता हूं, फ्लोरिग की जरूरत है, सीलिंग की कोई जरूरत नहीं है। जमीन नीचे की तय करो कि इससे नीचे किसी को न कमाने देंगे। पूरा मुल्क मेहनत करेगा कि हम हर आदमी को उससे नीचे नहीं कमाने देंगे, इससे ज्यादा तो कमाना ही पड़ेगा। सारा मुल्क ताकत लगाएगा कि इस आदमी को कम न कमाने दें। लेकिन हम अभी ताकत लगा रहे हैं कि सीलिंग कर दें--कि कुछ आदमी अगर ज्यादा कमा रहे हैं तो उनकी सीमा बांध दें कि इससे ज्यादा तुम नहीं कमा सकोगे।
यह अमीर को मिटा कर गरीबी हटाने का खयाल है। फ्लोरिंग नीचे से हम तय करेंगे सौ रुपया, दोे सौ रुपया, कुछ भी--इस सीमा के नीचे हम किसी को नहीं कमाने देंगे। और मैं मानता हूं कि अगर हम फ्लोरिंग तय करें तो अमीर का सहयोग मिल सकता है। और अगर हम सीलिंग तय करें तो अमीर से सिर्फ संघर्ष हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है।
पूंजीवाद द्वंद्व की भाषा में सोचने से बहुत मुश्किल में पड़ गया है। उसे सहयोग की भाषा में सोचना पड़े! जो जिंदगी का मूल स्वर है, उसमें सोचना पड़े! इस सहयोग के संबंध में एक-दोे बात और आपसे कहना चाहूंगा। चूंकि हम सदा से ही लड़ने की भाषा से घिरे हुए होते हैं, इसलिए हमें सहयोग दिखाई नहीं पड़ता जीवन में, अन्यथा सारा सहयोग ही से विकास करता रहा है। अब तक का सारा विकास सहयोग का विकास है। और ऐसा भी नहीं कि गुलाम और उसके मालिक के बीच सहयोग नहीं था। अगर सहयोग न होता तो गुलामी और इसके बीच की मालकियत टूट गई होती। उसके एक इंच आगे चलने की गुंजाइश नहीं हो सकती थी। नहीं, सहयोग था।
आज हमें लगता है कि गुलाम और मालिक कैसी बुरी बात है। लेकिन आपको पता नहीं कि जिस दिन गुलाम और मालिक दुनिया में पैदा हुए उस दिन बहुत करुणापूर्ण व्यवस्था थी, बहुत कम्पेशनेट व्यवस्था थी। इसको थोड़ा समझना जरूर है। आज हमें लगता है कि गुलामी कितनी बुरी चीज थी कि आदमी बाजार में बिकता था लेकिन जिस दिन आदमी बाजार में बिका था यह बहुत विकसित अवस्था थी उस दिन के लिए। आज पीछे लौट कर देखने पर लगती है, बहुत पिछड़ी हुई व्यवस्था थी।
आदमी किस दिन गुलाम बना? गुलामी के पहले जो भी कबीला किसी दूसरे कबीले पर हमला करता था तो उस हमले में सब पुरुषों को काट डालता था। स्त्रियों को बचा लेता था, क्योंकि स्त्रियां कबीलों को बढ़ाने में सहयोगी होती थीं। अगर दस स्त्रियां हों और एक पुरुष हो तो भी दस बच्चे पैदा हो सकते हैं। और दस पुरुष और एक ही स्त्री हो तो एक ही बच्चा पैदा हो सकता है। तो दूसरे कबीले के पुरुषों को मार डाला जाता था, स्त्रियां बचा ली जाती थीं, वह सहज व्यवस्था थी।
जिन लोगों ने पहली दफा आदमी को गुलामी दी उनमें बड़ी दया थी, उन्होंने कहा कि हम मारेंगे नहीं, हम तुम्हें गुलाम बना देंगे। जिस दिन गुलामी आई, उस दिन बड़ी कम्पेशनेट, बड़ी करुणापूर्ण व्यवस्था थी। और गुलाम खुशी से राजी हुआ करते थे कि विकल्प दोे ही थे, या तो वह काट डाला जाए, या तो वह झुक जाए। और दोे तरह के आदमी थे, एक वे जो काट डालने की तैयारी दिखला रहे थे और दूसरे जो थोड़े दयावान थे कि हम तुम्हें बचा लेंगे। वह गुलाम और मालिक के बीच सहयोग से शुरू हुई थी।
एक सीमा पर जाकर बेकार हो गई, कोई गुलामों की बगावतें नहीं हुई दुनिया में कि गुलामों की बगावतें हुई हों और गुलामों ने कोई आंदोेलन में कोई क्रांतियां की हों और मालिकों ने उन्हें मुक्त किया हो। यह झूठी है बात। गुलामों की कोई बगावत नहीं हुई थी। लेकिन एक व्यक्त आया कि मालिक के लिए गुलाम रखना महंगा पड़ने लगा। चैबीस घंटे उसे खिलाना भी पड़ता, उसको मकान भी देना पड़ता, कपड़ा भी देना पड़ता, बीमार हो तो दवा भी करनी पड़ती, मर जाता तो नुकसान भी उठाना पड़ता। स्वभावतः उसने उसे मुक्त कर दिया। उसने कहा छह घंटे काम दे दोे और उसके दाम ले लो।
गुलाम के लिए आजादी मिली और मालिक को सुविधा मिली। वह भी एक सहयोग था। उसमें कोई बगावत और क्रांति नहीं हो गई थी। ठीक ऐसे ही पूंजीवाद जिस दिन पूरी तरह विकसित हो जाएगा, उस दिन मजदूर को नौकरी पर रखना महंगा पड़ने लगेगा। मजदूर को भागीदार बनाना ही सस्ता पड़ेगा। असल में पूंजीवाद अगर ठीक से विकसित हो जाए तो मजदूर को नौकर रखने में बहुत नुकसान है। क्योंकि जब तक मजदूर नौकर है तब तक वह अपने स्वार्थ के लिए काम नहीं कर रहा है फैक्ट्री में। तब तक वह किसी दूसरे के स्वार्थ के लिए काम कर रहा है जो कि मनुष्य के स्वभाव के विपरीत है। उसका स्वार्थ तो पैसा लेने में है। फैक्ट्री से कोई मतलब नहीं है, आग लग जाए तो उससे मतलब नहीं है, फैक्ट्री बंद पड़ जाए तो उसे मतलब नहीं। उसे मतलब है कि उसको कितनी तनख्वाह मिलती है। उसे कितने काम का पैसा मिलता है। फैक्ट्री में कम काम हो कि ज्यादा काम हो, उत्पादन हो कि न हो, हानि हो या लाभ हो, उत्पादन हो या न हो, इससे उसको कोई मतलब नहीं है, क्योंकि फैक्ट्री उसकी नहीं है।
जैसे-जैसे पूंजीवाद विकसित होगा, यह स्वाभाविक परिणाम होगा कि मजदूर को मजदूर रखना महंगा पड़ेगा। उसकी कुशलता बढ़ाने के लिए उसको शेयर बना लेना, उसको भागीदार बनाना ही सरल है। और जिस दिन मजदूर पूंजीपति का भागीदार हो जाएगा उस दिन जिसे मैं समाजवाद कहूं वह फलित होगा। और जिसे अब तक समाजवाद कहा जा रहा है वह समाजवाद नहीं है। मैं जिसे समाजवाद कहता हूं, वह सहयोग से फलित हो। और सहयोग रोज-रोज सुविधापूर्ण होता जा सकता है, अगर हम समझपूर्वक चलें। नहीं तो सहयोग असंभव हो जाएगा। आज असंभव हो गया है। आज हड़ताल है, स्ट्राइक है, घेराव है। और जो मजदूर यह सोच रहा है कि इस भांति हम पूंजीवाद से लड़ रहे हैं, उसे यह पता नहीं कि इस भांति वह अपनी गरीबी को बढ़ा रहा है। क्योंकि मुल्क रोज गरीब होता जा रहा है, मुल्क का रोज उत्पादन गिरता है और उसे जो भड़का रहे हैं वह समझते हैं कि उसके हित में काम कर रहे हैं। वे उसके हित में काम नहीं कर रहे हैं। वे अपने हित में काम कर रहे हैं। जितना मजदूर मुश्किल में पड़े उतना ज्यादा भड़काया जाएगा। जितना ज्यादा भड़काया जाएगा उतनी ज्यादा मुश्किल में पड़ेगा। जितनी ज्यादा मुश्किल में पड़ेगा उतना ज्यादा भड़काया जा सकता है। अंततः बगावत और आग लगवाई है पूरे मुल्क में।
नहीं, मजदूर नहीं पहुंच जाएगा ताकत में। मजदूर पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट करके किन्हीं और लोगों को ताकत में पहुंचा देगा, जो उसके नेता हैं। न तो रूस में मजदूर ताकत में पहुंच गया है, न चीन में ताकत में पहुंच गया है, न दुनिया में कहीं ताकत में पहुंच सकता है। अगर मजदूर ताकत में ही पहुंच सकता होता तो वह पूंजीपति ही हो गया होता!
हां, इतना ही फर्क पड़ सकता है कि वह मालिक बदल ले। गुलामी बदल ले, इतना फर्क पड़ सकता है। और ध्यान रहे, पूंजीपति के तो यह हित में है कि मजदूर उसेे सहयोग दें। क्योंकि सहयोग की जबरदस्ती मजदूर पर पूंजीपति थोप नहीं सकता। परसुएड कर सकता है, फुसला सकता है। अगर सारे मजदूर इनकार कर दें कि हम काम नहीं करना चाहते, तो पूंजीपति के पास कोई बंदूक नहीं है कि आपकी छाती पर बंदूक रख दें। पूंजीपति को परसुएड करना पड़ता है कि आप काम करने को राजी हो जायें और मैं इतना पैसा देने को राजी हूं। यह सीधा सौदा है।
लेकिन, एक बार समाजवादी राज्य पैदा होे जाए तो फिर सौदे का कोई सवाल नहीं है। हम सीधे बिके हुए गुलाम हैं, काम करना पड़ेगा अन्यथा मौत। फिर कोई सौदा नहीं है।
कभी आपने सुना कि रूस में कोई स्ट्राइक हुई हो, कोई हड़ताल हुई हो। क्या रूस में किसी को कोई तकलीफ नहीं है? कोई घेराव नहीं होता। नहीं, कोई स्वर्ग नहीं आ गया है। लेकिन घेराव का कोई उपाय नहीं रह गया है, हड़ताल का कोई मामला नहीं रह गया है। हड़ताल किसके खिलाफ करिएगा? जोे हड़ताल, जिनके खिलाफ आपको करनी है वही राज्य है, वही मालिक है, दोेनों एक हैं।
अगर आज एक पूंजीपति नुकसान पहुंचाता है मजदूरों को तो मजदूर सरकार से अपील कर सकते हैं। क्योंकि एक दूसरी एजेंसी है न्याय की, एक दूसरी व्यवस्था है। वह मालिक और मजदूर से अलग है। और जो यह बात कर सकती है कि मजदूर के साथ अन्याय हुआ, जो नहीं होना चाहिए। लेकिन एक बार राज्य और मालिक एक हो गया फिर अन्याय के प्रतिकार का भी कोई उपाय नहीं है, तो फिर अन्याय ही न्याय है। क्योंकि चुनाव का कोई उपाय नहीं रह जाता।
मुझसे एक मित्र ने पूछा है कि समाजवादी बड़ी न्यायपूर्ण व्यवस्था है, आप उसका विरोध कर रहे हैं?
मैं आपसे कहता हूं कि समाजवाद में न्याय का कोई उपाय नहीं है। न्याय मांगिएगा किससे? वहां चोर और पुलिसवाला एक ही है। और कोई उपाय ही नहीं है। वह जो रात में आप के घर सेंध लगाता है, वही सुबह आपके घर के काम में पहरा देता है। कोई उपाय नहीं है।
समाजवाद सबसे अन्यायपूर्ण व्यवस्था है। जस्टिस की मांग समाजवाद में की ही नहीं जा सकती। किससे मांग करिएगा? कौन मांग करेगा? कोई उपाय नहीं है।
मै नहीं कहता कि समाजवाद न्यायपूर्ण व्यवस्था है। राज्य तभी तक न्याय कर सकता है जब तक राज्य स्वयं के स्वार्थों से बंध न जाए, स्वार्थों के बाहर हो। मजदूर और अमीर के स्वार्थ के बाहर हो। राज्य एक मुक्त व्यवस्था हो, जिसका आर्थिक जगत से अपना कोई सीधा संबंध नहीं है। तब, तब आसान है, नहीं तो बहुत कठिनाई है।
मैं मानता हूं कि पूंजीवाद बहुत न्यायपूर्ण व्यवस्था है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जैसा पूंजीवाद है उसको न्यायपूर्ण सिद्ध कर रहा हूं। इसका यह मतलब नहीं है। अगर वह न्यायपूर्ण नहीं है तो उसका मतलब है वह अभी ठीक से पूंजीवाद ही नहीं है। अभी जो पूंजीवाद हमारे मुल्क में है वह पूंजीवाद भी कहां है? अगर तकलीफें हैं तो पूंजीवाद की तकलीफें नहीं हैं, पूंजीवाद के अविकसित रूप की तकलीफें हैं। जैसे छोटा बच्चा चलता है और गिर-गिर पड़ता है। यह पैरों की गलती नहीं है कि पैर काट दोे, क्योंकि पैरों से बच्चा गिरता है। निश्चित ही पैरों से गिरता है बच्चा, जब गिरता है तो। लेकिन जब चलेगा तब भी पैरों से ही चलेगा। पैरों से नहीं गिर रहा है, पैर कमजोर हैं और बच्चे के हैं। अभी चलने योग्य ताकतवर नहीं हो पाए हैं।
इस मुल्क में जो पूंजीवाद की तकलीफ है वह कमजोर पूंजीवाद है, बच्चा है बिलकुल और उस बच्चे की हत्या की तैयारी चल रही है।
अमरीका में समाजवाद का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि पूंजीवाद सबल है। सिर्फ गरीब मुल्कों में समाजवाद का प्रभाव पड़ता है। क्योंकि वहां पूंजीवाद बिलकुल निर्बल है। उसकी निर्बलता को वे पूंजीवाद का
दोेष बतलाते हैं। वह पूंजीवाद का दोेष नहीं है। अमरीका में नहीं दिक्कत होती। अमरीका में समाजवाद का कोई प्रमाव नहीं मालूम पड़ता। बढ़ना तो चाहिए अमरीका में प्रभाव बहुत, क्योंकि अमरीका सबसे ज्यादा पूंजीवादी है। लेकिन वहां कोई प्रभाव नहीं मालूम पड़ता।
कारण है इसका--पूंजीवाद सबल है। और उसने धीरे-धीरे अपनी असंगतियां दूर कर दी हैं। और जो असंगतियां रह गई है वह उन्हें दूर कर सकता है। अगर सहयोग की धारणा विकसित हो जाए--‘कनसेप्ट आॅफ को-आॅपरेशन’ अगर एक बार हमारे खयाल में ठीक से बैठ जाए कि सहयोग के अतिरिक्त देश का कोई भविष्य नहीं है। सहयोग के अतिरिक्त समाज का कोई भविष्य नहीं है। तो पूंजीवाद ठीक से विकसित हो सकता है। और उसमें जो खामियां हैं, उन खामियों को पूंजीवाद को बिना मिटाए खत्म किया जा सकता है। उसकी खामियां क्या हैं?
अब एक मित्र ने पूछा है कि आपके अच्छे-अच्छे विचारों से गरीबों को रोटी तो न मिल जाएगी?
यह मैंने कब कहा कि मेरे अच्छे विचारों से गरीबों को रोटी मिल जाएगी! लेकिन गरीब को रोटी मिले इसके लिए मैं ही जिम्मेवार हूं, गरीब जिम्मेवार नहीं हैं? यह मैंने कोई ठेका लिया है कि मेरे कहने से गरीब को रोटी मिले?
कुछ ऐसा मान लिया गया है कि गरीब को मिलना चाहिए और किसी को देना चाहिए। क्यों किसी को देना चाहिए? यह ठेका है किसी का कि कोई दे! पेट तो गरीब का अपना है, रोटी मेरे विचार से मिले! पेट किससे लेता है गरीब, किससे मांग कर लाता है पेट को? जब पेट उसके पास है, हाथ उसके पास हैं तो वह कुछ करे। हां, इतना हो सकता है कि हम समाज से मांग करें कि उसे करने की सुविधा हो। वह कुछ करना चाहे तो सुविधाएं जुटाएं। लेकिन हम सुविधाएं तोड़ने में लगे हैं। जो थोड़ी बहुत सुविधाएं हैं उनको भी तोड़ने में लगे हैं।
जब से बंगाल में कम्युनिस्टों का प्रभाव हुआ है तो बंगाल का सारा उत्पादन गिर गया है। बड़े मजे की बात है कि मेरे विचार से रोटी नहीं मिलेगी, तो माओ के पेम्फलेट से रोटी मिल जाएगी? मेरे विचार से रोटी नहीं मिलेगी तो माक्र्स की कैपिटल से रोटी मिल जाएगी?
मेरे विचार से रोटी नहीं मिलेगी तो हड़ताल से, घेराव से और दंगा-फसाद से रोटी मिल जाएगी?
और ट्रामें जलाने से रोटी मिल जाएगी? थोड़ी-बहुत जो रोटी मिलती है, वह भी खो जाएगी।
हां, गरीबी और हो जाए तो समाजवादी नेता के लिए बड़ा फायदा है। असल में गरीबी बढ़े तो समाजवाद के लिए फसल काटने का मौका कम हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है--हमारी जिंदगी में बड़े विपरीत काम चलते हैं। अगर अनैतिकता बढ़े तो महात्मा बड़ा प्रसन्न होता है, क्योंकि उसे उपदेश देने का मौका बढ़ता है। अगर सब नैतिक हो जाएं तो महात्मा आउट आॅफ प्रोफेशन, धंधे के बाहर हो जाए। इसका कोई उपाय नहीं है।
इसलिए महात्मा कभी नहीं चाहेगा गहरे में कि सब लोग नैतिक हो जाएं। कहें कितना, समझाएं कितना, लेकिन देखता रहेगा कि कहीं सब तो नहीं हुए जा रहे हैं। अगर सब हो जाएं तो महात्मा बेमानी हैं।
समाजवादी चिल्लाएगा बहुत कि गरीब की गरीबी मिटनी चाहिए। हालांकि उसे यह पक्का पता है कि गरीब है इसलिए वह नेता है। जिस दिन गरीब गरीब नहीं है उसके नेता का कोई आधार नहीं रह जाएगा। इसलिए समाजवादी चिल्लाएगा कि गरीबी मिटाओ और कोशिश करेगा गरीबी बढ़ाने की और गरीबी बढ़ाएगा। जितनी गरीबी बढ़ेगी उतना नेतृत्व मजबूत होगा। जितनी गरीबी
बढ़ेगी उतने नेता के आपकों पैर पकड़ने पडेंगे। और धीरे-धीरे यह सिद्ध कर देगा कि हमारे सिवाय तुम्हारी गरीबी कोई नहीं मिटा सकता।
और मजा यह है कि वह खुद गरीबी बढ़ाने में सहयोगी है। दावा कर रहा है वह कि पूंजीपति गरीबी बढ़ा रहा है, और मैं आपसे कह रहा हूं कि हिंदुस्तान के सब समाजवादी मिल कर हिंदुस्तान की गरीबी बढ़ा रहे हैं।
अगर ये जितने भी समाजवाद की बातें कर रहे हैं इतने समाजवादी पूंजी के उत्पादन की फिकर करें तो यह गरीबी टूट सकती है, लेकिन वह समाजवादी के हित में नहीं है।
और भी एक सोचने जैसी बात है कि समाजवाद की सारी बातचीत गरीबी की तरफ से नहीं आती। यह सारी समाजवाद की बातचीत जो है, फ्रस्ट्रेटेड इनटेलिजेंसिया की तरफ से की जाती है। यह बहुत ज्यादा संत्रस्त जो बुद्धिवादी हैं उनकी तरफ से आती है। गरीब की तरफ से नहीं आती।
एंजिल्स खुद एक पूंजीपति था। और माक्र्स पूरी जिंदगी किसी तरह का कोई श्रम किए हों, या मजदूर रहे हों, या कोई प्रोलिटेरिएट हों, ऐसा कोई भी नहीं कह सकेगा। एंजिल्स पूंजीपति था, उद्योगपति था, उसके ही पैसे से माक्र्स जिंदगी पर पला है। एक पूंजीपति के पैसे से ही पला है। लेकिन माक्र्स एक विचारशील व्यक्ति है। कहना चाहिए माक्र्स एक ब्राह्मण है।
दुनिया में जितने उपद्रव आते हैं वे सब ब्राह्मणोें की तरफ से ही आती हैं। उसका कारण है। हिंदुस्तान में नहीं आए, उसका भी कारण है। हिंदुस्तान ने एक बहुत सिक्रेट तरकीब आज से पांज हजार साल पहले खोज निकाली थी और वह यह थी कि ब्राह्मणों को समाज का सिर-मौर बना दिया। कह दिया था कि ब्राह्मण सबके ऊपर, क्षत्रिय भी उसके पैर छुएगा। और सम्राट भी उसके झोपड़े पर पैर छूने आएगा। तो हिंदुस्तान का ब्राह्मण गरीब रहा, सदा गरीब रहा। ब्राह्मण के पास हिंदुस्तान में कभी संपत्ति नहीं रही। लेकिन उसकी गरीबी में भी उसकी अकड़ का कोई मुकाबला नहीं था। क्योंकि सम्राट भी उसके पैर छू रहे थे।
हिंदुस्तान का ब्राह्मण तृप्त था, फ्रस्ट्रेटेड नहीं था। क्योंकि हिंदुस्तान के ब्राह्मणों को जितना आदर चाहिए उतना आदर उपलब्ध था। गरीबी सही जा सकती है। जो बुद्धिवादी हैं, इनटेलिजेंसिया हैं, वह गरीबी सह सकती है, तकलीफें सह सकती है, बीमारी सह सकती है--अहंकार की तृप्ति होनी चाहिए। यह अहंकार के लिए खिलाफत नहीं सह सकते। हिंदुस्तान बहुत होशियार है इस मामले में। सोशल मैकेनिक्स के मामले में हिंदुस्तान ने बड़ी होशियारी का काम किया जो पृथ्वी पर रूस ने अब किया है, और किसी मुल्क ने कभी नहीं किया।
हिंदुस्तान ने उस आदमी से, जो उपद्रव करवा सकता है, उसको सबसे ज्यादा आदर दे दिया है। जैसे स्कूल में शिक्षक होशियार होता है तो सबसे शैतान लड़के को मानीटर बना देता है।
ब्राह्मण श्रेष्ठतम है। भीख मांगता रहे ब्राह्मण, लेकिन उसके पैर पर सम्राट भी झुकता था ब्राह्मण तृप्त था। उसकी कोई कठिनाई नहीं रही। इसलिए हिंदुस्तान में कोई क्रांति न हो सकी। क्योंकि क्रांति करवाए कौन, शूद्र? शूद्र क्या क्रांति करेगा? शूद्र यानी प्रोलिटेरिएट। शूद्र यानी सर्वहारा, शूद्र यानी मजदूर, शूद्र यानी शोषित, जिसको आज हम ये सब नाम दे रहे हैं।
वह शूद्र कभी क्रांति का एक स्वर नहीं उठा पाया, पांच हजार साल के लंबे इतिहास में। भारत में करोड़ों शूद्रों में से एक ने भी उपद्रव नहीं किया। तो बात सोचने जैसी है कि बात क्या थी? भड़काने वाला ब्राह्मण तृप्त था।
अंग्रेजों ने आकर पहली दफा ब्राह्मण को तृप्त नहीं किया, और खतरे शुरू हो गए। अगर अंग्रेज मनु महाराज की तरकीब समझ जाते तो हिंदुस्तान में कोई क्रांति नहीं हो सकती थी, ब्रिटिश साम्राज्य सदा रहता।
हिंदुस्तान के ब्राह्मणों को अंग्रेज तृप्त नहीं कर पाए। और जो नये ब्राह्मण अंग्रेज ने पैदा कर दिए कालेज, स्कूल, इन सबकी शिक्षा से--अंग्रेज ने नया इनटेलिजेंसिया पैदा कया। जो बुद्धिमान है, विचार कर सकता है, लेकिन न श्रम कर सकता है, न उसके पास पूंजी है। न वह मजदूर है, न वह पूंजीपति है। या तो स्कूल का शिक्षक है या दफ्तर का क्लर्क है या कोई कालेज का प्रोफेसर है या किसी अखबार में संपादक है या पत्रकार, वह गरीब नहीं है। मजदूर नहीं है, मजदूर के अर्थ में। और पूंजीपति नहीं है, पूंजी उसके पास नहीं है। महत्वाकांक्षा है उसके पास पूंजीपति से ऊपर होने की, पर हालत है उसकी मजदूर से नीचे होने की।
यह आदमी उपद्रवी है। यह सारे समाजवाद की बातें करेगा, कम्युनिज्म की बातें करेगा, ये सारी दुनिया में। लेकिन रूस ने पचास सालों में उसी ट्रिक का उपयोग किया जो हिंदुस्तान में वर्ण व्यवस्था ने किया था। रूस ने उन्नीस सौ सत्तर के बाद से रूस की इनटेलिजेंसिया को सर्वाधिक आदर का पात्र बना दिया। रूस में एक मिनिस्टर होने से ज्यादा एक एकेडेमीशियन होना महत्वपूर्ण हो गया।
रूस में ब्राह्मण बुद्धिवादी आज सर्वाधिक आदृत व्यक्ति हैं। मजदूर में क्रांति का भाव नहीं रहा। मजदूर जाए भाड़ में, बुद्धिवादी को उससे कोई मतलब नहीं है कभी। लेकिन बुद्धिवादी की अगर महत्वाकांक्षा तृप्त हो जाए तो दुनिया में कोई क्रांति--क्रांति की कोई बात भी नहीं करता।
हिंदुस्तान की तकलीफ असल में गरीब और अमीर के बीच का संघर्ष नहीं है। हिंदुस्तान की तकलीफ हिंदुस्तान की फ्रस्ट्रेटेड इनटेलिजेंसिया का है। हिंदुस्तान का अतृप्त ब्राह्मण है। और हिंदुस्तान का ब्राह्मण है। और हिंदुस्तान का ब्राह्मण सर्वाधिक अतृप्त है, क्योंकि पांच हजार साल के शानदार जमाने उसने देखे हैं, इसलिए वह सर्वाधिक अतृप्त है। उससे अधिक अतृप्त ब्राह्मण दुनिया में कोई नहीं हो सकता।
स्वभावतः बुद्धिवादी उपद्रव खड़े करेगा। और बुद्धिवादी उपद्रव के अतिरिक्त और कुछ बहुत ज्यादा खड़ा कर भी नहीं सकता। बगावती बातें कर सकता है। ये उसके अपने भीतरी तनाव हैं जो वह प्रकट कर रहा है। यह उसकी भीतरी परेशानियां हैं, जो वह समाज में फैला रहा है। इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यह समाजवाद की सारी बातजीत दो तलों से पैदा हो रही हैं। एक तो हिंदुस्तान का अतृप्त, परेशान संत्रस्त बुद्धिवादी--और दूसरा हिंदुस्तान का महत्वाकांक्षी राजनैतिक। ये दो आदमी बात कर रहे हैं। इन दोनों के पास हिंदुस्तान के आर्थिक विकास की न कोई कामना है, और न कोई सवाल है। इन दोनों के पास हिंदुस्तान के भविष्य का न कोई नक्शा है, न कोई सपना है। इन दोनों के पास इस स्थिति का, मौजूदा स्थिति का शोषण है।
मैं आपसे कहूंगा कि बुद्धिवादी मुल्क की तनावग्रस्त स्थिति का शोषण करता है। वह लड़ नहीं सकता, क्योंकि खुद ही लड़ सकता तो बात ही और हो जाए, वह भी सर्वहारा हो जाए। लेकिन किसी को लड़ा सकता है। और जिस दिन क्रांति सफल हो जाए, समाजवादी क्रांति, उस दिन मजदूर ताकत में नहीं पहुंचता। उस दिन बुद्धिवादी ताकत में पहंुच जाता है। स्टैलिन से ज्यादा स्काॅलैस्टिक--शास्त्रीय आदमी खोजना मुश्किल है। जितना स्टैलिन स्क्रिप्चर उद्धृत कर सकता है उतना कोई आदमी कम ही कर सकता है। अगर स्टैलिन कि किताब देखें तो वह सिर्फ उद्धरण है। माक्र्स, लेनिन और एंजिल्स इसके उद्धरण हैं।
स्टैलिन पक्का ब्राह्मण है। अगर स्टैलिन से बचता, तो ट्राटस्की के साथ में जाता जो महाब्राह्मण था। जो उससे भी ज्यादा स्काॅलैस्टिक था। कौन मजदूर ताकत में आ गया हैं? दुनिया में कौन मजदूर ताकत में आ गया है? माओ पक्का ब्राह्मण है। शास्त्र की भाषा है सब, पूरी। पेकिंग में और क्रैमलिन में जो झगड़ा है वह मक्का और काशी जैसा झगड़ा है। दो तीर्थस्थान लड़ रहे हैं, शास्त्र की व्याख्या के लिए, कि शास्त्र की व्याख्या क्या है! माओ का दावा है, जो हमारी व्याख्या है, वही शास्त्रीय है। और मास्को का दावा है, तुम्हारी शास्त्रीय कैसे हो सकती है जबकि हमारा क्रैमलिन बहुत अनादि है, बहुत सनातन है, तुम तो पीछे आए! तुम तो अभी बच्चे हो, हम तो बड़े अनुभवी हैं। हम जो कहते हैं, उसको मानो। तो मास्को का रुख पेट्रोनाइजिंग है। उससे माओ को तकलीफ होती है कि आप कुछ पितामह बनने की कोशिश कर रहे हैं। ऊपर हाथ रखना चाहते हैं। वही उपद्रव है।
यह दो शास्त्रों का झगड़ा है, व्याख्या का। दुनिया भर में मजदूर मजदूर ही रहेगा, मैं आपसे कहना चाहता हूं। ज्यादा से ज्यादा इतना हो सकता है कि वह अपना मालिक बदल लेे। और मैं आपसे कहूंगा कि पूंजीपति मालिक उतने खतरनाक नहीं हैं जितना बुद्धिवादी मालिक खतरनाक सिद्ध होगा। इसके कारण हैं। अगर ब्राह्मण के चेहरे को देखें तो ब्राह्मण के चेहरे में तलवार होती है, क्षत्रिय के हाथ में होती है। ब्राह्मण के नाक में तलवार होती है ब्राह्मण की आंखमें तलवार होती है। क्षत्रिय के हाथ में तलवार होती है जो कभी-कभी हाथ से रखनी पड़ती है, विश्राम भी करना पड़ता है। जो नाक में तलवार होती है उसे रखने की भी कोई जरूरत नहीं, वह चैबीस घंटे साथ रहती है, सोते में भी।
ब्राह्मण के हाथ में अगर पूरी ताकत चली जाए तो वह जितना क्रूर, जितना हिंसक हो सकता है, उतना दुनिया में कोई सिद्ध नहीं हो सकता है। इसलिए स्टैलिन इतना क्रूर और हिंसक सिद्ध हो सका, क्योंकि वह ब्राह्मण है। माओ इतना क्रूर और हिंसक सिद्ध हो रहा है, क्योंकि वह ब्राह्मण है।
थोड़ा सोच कर बुद्धिवादियों के हाथ में ताकत देना। असल में पूजीपति जो है वह वैश्य है। बनिए से बहुत कठोरता की आशा नहीं की जा सकती। वैश्य के बहुत हिंसक होने की संभावना नहीं है, क्योंकि उसके हिंसक होने का खयाल ही उसे कठिनाई में डाल देता है। मेरे हिसाब से पूंजीवाद वैश्यों की व्यवस्था है, समाजवाद ब्राह्मणों की व्यवस्था है। सामंतवाद क्षत्रियों की व्यवस्था थी, और शूद्रों की व्यवस्था कभी नहीं हो सकती। बस इन तीन के बीच निरंतर चुनाव चल रहा है। कभी क्षत्रिय हावी हो जाते हैं, वे जो लड़ सकते हैं उनका वक्त गया। कभी व्यवसायी हावी हो जाते हैं, वे जो कमा सकते हैं, धन पैदा कर सकते हैं। और कभी ब्राह्मण हावी हो सकते हैं, जो केवल सोच सकते हैं। न तलवार चला सकते हैं, न धन पैदा कर सकते हैं, सिर्फ सोच सकते हैं। और जो सोचने वाले लोग हैं उनकी कठोरता का कोई हिसाब नहीं। क्योंकि उनके मन में व्यक्ति नहीं होते हैं, तर्क होते हैं। जैसे कि मिलिटरी में होता है, एक आदमी मर जाए तो कहते हैं नंबर नौ गिर गया। वह आंकड़ा है। कोई आदमी नहीं मरता है। अब आदमी मरे तो उसकी पत्नी भी होती है, मां भी होती है, बेटा भी होता है। नंबर नौ की कोई मा नहीं होती है। कोई मां मां नहीं होती, कोई बेटा बेटा नहीं होता है। नंबर नौ!
तो ब्राह्मण के हाथ में अभी तक कहीं ताकत नहीं आई और पहली दफे सोशलिज्म तथा कम्युनिज्म ने ताकतें दी हैं। और ब्राह्मण की ताकत लेने में जो रास्ता बना था वह क्या था--वह तलवार चला नहीं सकता था--धन वह कमा नहीं सकता था, शूद्र को वह भड़का सकता है, दीन को, गरीब को, दरिद्र को भड़का सकता है--यही उसकी तलवार है, यही उसका धन है।
ब्राह्मण सारी दुनिया में हावी होने की कोशिश करते हैं। और मैं मानता हूं, क्षत्रिय उतना खतरनाक नहीं हैं। क्षत्रिय कभी दया भी करता है। असल में यह तलवार चलाता है, तलवार के साथ-साथ उसके चित्त में दया भी पैदा होनी शुरू होती है।
यह बड़े मजे की बात है कि जैनियों के चैबीस तीर्थंकर क्षत्रिय के बेटे हैं। इनमें एक भी ब्राह्मण का बेटा नहीं है। जिन लोगों ने इस मुल्क को अहिंसा का पाठ दिया वे क्षत्रिय के बेटे हैं, ब्राह्मण के बेटे नहीं हैं और जिस आदमी ने इस मुल्क में सबसे ज्यादा हिंसा की वह है, परशुराम। जिसने क्षत्रियों से खाली कर दिया पूरी पृथ्वी को, वह ब्राह्मण है। थोड़ा सेचने जैसा है--यह एकदम प्रासंगिक है, अप्रासंगिक नहीं मालूम होता। यह सांयोगिक, को-इनसीडेंटल नहीं मालूम होता।
जिस आदमी ने इस पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया, वह ब्राह्मण है! और जिन लोगों ने दुनिया को शांति और अहिंसा की बात कही वे सब क्षत्रिय हैं। बुद्ध भी क्षत्रिय के बेटे हैं और जैनियों के चैबीस तीर्थंकर भी क्षत्रियों के बेटे हैं!
इस सब पच्चीस क्षत्रियों ने दुनिया को अहिंसा का खयाल दिया। एक भी ब्राह्मण ने अहिंसा का खयाल नहीं दिया।
तीसरी व्यवस्था है--व्यवसायी की, धनपति की, पूंजी पैदा करने वाले की। और यह पूंजी पैदा करने वाले की व्यवस्था सर्वाधिक मानवीय है, कई कारणों से।
क्योंकि तलवार सबको सुख नहीं दे सकती है। लेकिन धन अंततः सबके सुख का आधार बन जाता है और पहली दफा वैश्यों ने, कैपिटलिज्म ने दुनिया को सर्वाधिक संपन्नता और सुख दिया है। अब ब्राह्मण पीड़ित है। और वह ब्राह्मण कोशिश कर रहा है शूद्र को भड़काने की। लेकिन समझ लें...
मजदूर समझ ले, सर्वहारा, कि वह कभी पहुंच सकता। उस जगह नहीं पहुंच सकता इसलिए कि वह सर्वहारा इसलिए है कि वह न धन पैदा कर सकता है, न तलवार चला सकता है, न यह विचार कर सकता है। कभी तलवार के नीचे दबना पड़ता है उसे कभी धन के नीचे दबना पड़ता है उसे, कभी विचार के नीचे दबना पड़ता है।
मेरी अपनी समझ में तीनों दबावों में धन का दबाव सर्वाधिक न्यून है।
और बहुत से प्रश्न हैं। कल संध्या उनकी बात करना चाहूंगा।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, इससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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