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शनिवार, 3 नवंबर 2018

समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(समाजवाद क्या--सिर्फ राजनीति है!)

मेरे प्रिय आत्मन्!
समाजवाद अर्थात आत्मघात! इस संबंध में कुछ कहूं, उसके पहले एक बात की देना उचित है।
समाजवाद सिर्फ राजनैतिक दृष्टि नहीं है। और अगर समाजवाद सिर्फ राजनैतिक दृष्टि होती, तो इतना खतरा भी नहीं था। समाजवाद में सिर्फ आर्थिक प्रोगे्रस ही होता तो जिंदगी की बहुत बाहर की बात भी बहुत गहरी लगती। समाजवाद समग्र जीवन-दर्शन है। समाजवाद मनुष्य के आमूल जीवन को स्पर्श करता है। और विशेष रूप से इसी कारण इसके खतरे भी बढ़े हैं।
मैं समाजवाद पर समग्र जीवन की तरह विचार करना चाहूंगा।

पहली बात, समाजवादी जीवन-दृष्टि जड़वाद की, मैटीरियलिज्म की है। और इस देश के लिए समाजवाद की जड़वादी, भौतिकवादी दृष्टि बहुत आकर्षक हो सकती है। क्योंकि हम पांच हजार वर्षों से अध्यात्मवाद से पीड़ित लोग हैं। और जब कोई समाज बहुत दिनों तक एकांगी ढंग से जीकर दुख भोग चुका होता है तो बहुत स्वाभाविक रूप से वह विपरीत अति पर, दूसरी एक्सट्रीम पर जाने की तैयारी कर लेता है।
पर आदमी खाई से बचने के लिए कुएं में गिर जाता है, और कुएं से बचने के लिए खाई में गिर जाता है। बीच में खड़ा होना सदा मुश्किल है। हिंदुस्तान पांच हजार वर्षों से अध्यात्मवाद के एकांगी दृष्टिकोण से पीड़ित और परेशान है। इसलिए हिंदुस्तान का मन बहुत जल्दी जड़वाद को पकड़ ले सकता है।


साधारणतः लोग उलटा सोचते हैं। साधारणतः लोग सोचते हैं कि हिंदुस्तान में समाजवाद की अपील मुश्किल होगी। मैं नहीं सोचता हूं। लोग सोचते हैं, हिंदुस्तान आध्यात्मिक देश है, धार्मिक देश है, इसलिए समाजवादी कैसे होगा? मैं नहीं सोचता हूं, हिंदुस्तान इतने दिनों से अध्यात्मवादी है। अध्यात्मवाद के इतने दुख झेले हैं। अध्यात्मवाद के कारण बहुत सी गरीबी झेली है। अध्यात्मवाद के कारण गुलामी झेली है, अध्यात्मवाद के कारण सारा देश अलाल और शक्तिहीन हो गया है।
यह बहुत स्वाभाविक होगा इस देश के मन को कि वह किसी जड़वादी सिद्धांत की ओर आकर्षित हो जाए। यह आकर्षण स्वाभाविक होगा, लेकिन खतरनाक है। यह कुएं से बचने के लिए खाई में गिरना है। असल में एकांगी दृष्टियां सभी खतरनाक होती हैं। न तो कोई व्यक्ति शुद्ध शरीरवादी होकर जी सकता है--क्योंकि तब वह केवल शरीर रह जाता है--यंत्रमात्र! और न कोई व्यक्ति शुद्ध अध्यात्मवादी होकर जी सकता है--तब बिलकुल शरीर को इनकार करना होता है।
इस देश ने एक प्रयोग करके देख लिया है। और उसके दुख भी देख लिए हैं। हमने प्रयोग किए हैं कि हम सिर्फ आत्माएं हैं। और जगत को हमने इनकार कर दिया और हमने कहा जगत माया है, इलुजन है, झूठ है, सत्य तो सिर्फ ब्रह्म है। इस अकेले ब्रह्म को सत्य मान कर हमने इतने दुख झेले हैं कि जिसका हिसाब नहीं, हिसाब लगाना मुश्किल है। इस देश की गरीबी, इस देश की गुलामी इस अकेले ब्रह्म को मानने के कारण ही संभव हो पाई। क्योंकि जब हमने जगत को माया कह कर इनकार कर दिया तो जगत पर हमारी पकड़ छूट गई और जब हमने जगत और पदार्थ को इनकार कर दिया तो विज्ञान हम पैदान कर पाए।
तो, पांच हजार साल से एक अति पर हम जिए हैं। जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं तरफ जाता है तो दाएं तरफ जाने का मोमेंटम इकट्ठा करता है। जब घड़ी का पेंडुलम बाएं जा रहा है तब आप यह मत सोचना कि वह सिर्फ जा रहा है। वह दाएं जाने की तैयारी भी इकट्ठी कर रहा है। और जितनी दूर तक बाएं जाएगा, उतनी दूर तक दाएं जाने की संभावना पैदा कर रहा है। हिंदुस्तान की घड़ी के पेंडुलम के घूमने का वक्त आ गया है। और अब खतरा है कि हम दूसरी अति पर चले जाएं। अब खतरा है कि हम मान सकें कि परमात्मा नहीं है, आत्मा नहीं है, बस आदमी शरीर है। और रोटी मिल जाए तो सब मिल जाता है।
समाजवाद एक जड़वादी जीवन-दृष्टि है, जो मनुष्य में दिखाई पड़ता है उसके पार न दिखाई पड़ने वाले को इनकार करती है। और ध्यान रहे जिस दिन भी मनुष्य के भीतर जो अदृश्य है उसको इनकार करने को राजी हो जाएंगे, उस दिन मनुष्य के पास कुछ भी नहीं बच रहेगा, सिर्फ रूप-रेखा बच जाएगी।
मनुष्य में जो भी श्रेष्ठ है वह सब अदृश्य है और मनुष्य में जो भी सुगम है वह सब अदृश्य है। और मनुष्य में जो भी चेतना है वह सब अदृश्य है। मनुष्य में जो दृश्य दिखाई पड़ रहा है वह केवल यंत्र है। और यंत्र के भीतर बैठा हुआ मालिक उसका उपभोक्ता, इस घर का निवासी बिलकुल अदृश्य है। और हम खतरनाक लोग हैं, क्योंकि जब हम दृश्य को झूठ कह कर इनकार कर सके थे तो अदृश्य को झूठ कह कर इनकार करने में कितनी देर लगेगी? जब हम दिखाई पड़ने वाले जगत को माया कह सके तो न दिखाई पड़ने वाले परमात्मा को माया कहने में कितनी देर लगेगी?
जो सामने टकराता था, जिसको सारी जिंदगी कहती थी--‘है’, उसको हम पांच हजार साल से कहते थे, यह सिर्फ आभास है, यह वस्तुतः नहीं--सिर्फ सपना है। तो जो बिलकुल सपने जैसा है, जो दिखाई भी नहीं पड़ता, जिसे प्रयोगशाला में जांचा भी नहीं जा सकता, जिसे टेस्ट-ट््यूब में परखने का कोई उपाय नहीं, और जो जिंदगी में कहीं भी टकराता नहीं, उसके इनकार में हमें कुछ देर लग सकती है!
इसलिए मैं यह कह देना चाहता हूं कि भारत जिस बुरी तरह से जड़वादी हो सकता है, उतना जड़वादी होने की संभावना दुनिया में किसी भी कौम को नहीं है। क्योंकि भारत ने जिस पागलपन से अध्यात्म को साधा है, दूसरी एक्स्ट्रीम पर जाने की गति उसने इकट्ठी कर ली है।
और इस समय अध्यात्म के विरोध में जो सबसे बड़ा विचार है वह समाजवाद का है। इस समय धर्म के विरोध में जो सबसे बड़ी फिलासफी है वह समाजवाद की है। अगर काशी को मिटाना है और काबा को मिटाना है तो मास्को के सिवाय कोई विकल्प दिखाई नहीं पड़ता। और अगर गीता और कुरान को जला डालना है तो ‘कैपिटल’ के सिवाय पूजागृह में रखने को और कोई किताब नहीं मालूम पड़ती।
भारत के लिए समाजवाद आत्मघात सिद्ध होगा, क्योंकि भारत वैसे ही आधा मर चुका है। और आधा जो बचा है वह दूसरे विकल्प को चुन कर मर सकता है। हमने आधी जिंदगी को पहले ही इनकार कर दिया था और आधी जिंदगी को इनकार करके हमने, भूत-प्रेतों की जिंदगी स्वीकार कर ली थी--सिर्फ निराकार की, आकार को इनकार करके। अब हम दूसरा खतरा कर सकते हैं। अब हम ऊब गए हैं, हम बुरी तरह ऊब गए हैं। और जो-जो हमने जिंदगी में आधार बनाए थे वह आधार धोखा दे गए हैं, उन्होंने कुछ साथ नहीं दिया। अब हम उनसे विपरीत आधार पकड़ने के लिए बहुत ही आतुर हैं। महावीर, बुद्ध, राम और कृष्ण के बेटे, माक्र्स, एंजिल और माओ को पकड़ने के लिए जितने तैयार हैं उतने जगत में कोई भी तैयार नहीं हैं। थोड़ी बहुत देर लग सकती है, लेकिन तैयारी रोज-रोज प्रकट होती जाती है।
लेनिन ने आज से कोई साठ साल पहले की अपनी एक घोषणा में कहा था कि कम्युनिज्म की यात्रा मास्को से पेकिंग और पेकिंग से कलकत्ता होती हुई लंदन जाएगी। उसकी और बातें चाहे गलत हों, उसकी कम से कम यह खतरनाक घोषणा सही होती मालूम पड़ती है।
पेकिंग तक तो बात सही हो गई। कलकत्ते में भी काफी पगध्वनियां सुनाई पड़ती है। बंबई भी ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकता।
हिंदुस्तान की बड़ी संभावना है। इसलिए पहले इस बात को ठीक से सोच लेना चाहिए कि जड़वाद की दृष्टि का अर्थ क्या है? मैटीरियलिस्ट दृष्टि का क्या अर्थ है? भौतिकवाद का क्या अर्थ है?
भौतिकवाद का अर्थ है कि हम सिर्फ मनुष्य के शरीर होने को स्वीकृति देते हैं। शरीर के पार मनुष्य का कुछ नहीं है। इसलिए स्टैलिन लाखों लोगों की हत्या कर सका। क्योंकि अगर ‘आदमी’ सिर्फ होता है तो हत्या में कोई भी हर्ज नहीं है। और अगर आदमी सिर्फ यंत्र है तो मारने मंे परेशानी क्या है? और आदमी अगर सिर्फ शरीर है और आत्मा नहीं है तो स्वतंत्रता की क्या जरूरत है?
समाजवाद अंततः स्वतंत्रता की हत्या बन जाता है। क्योंकि समाजवाद मौलिक रूप से आदमी की आदमियत को इनकार कर देता है। वह स्वीकार करता है सिर्फ शरीर को, फिर शरीर के लिए रोटी चाहिए वह समाज दे सकता है। कपड़े चाहिए, वह भी दे सकता है। मकान चाहिए, वह भी दे सकता है।
आत्मा बेच कर कपड़े, मकान और रोटी को पा लेना बहुत महंगा सौदा है। लेकिन आदमी ऐसे सौदे करने को राजी हो सकता है। और इमरजेंसी होती है, संकट के काल होते हैं, जैसा भारत पर आज है। आज भारत के पास रोटी नहीं है। आज भारत के पास कपड़े भी नहीं हैं। आज भारत के पास मकान भी नहीं हैं। इस परेशानी की हालत में हम इस सौदे के लिए राजी हो सकते हैं कि हम आदमी की स्वतंत्रता को बेच कर, और रोटी कपड़े को खरीद लें। एक बार खरीद लेने के बाद पता चलेगा कि यह दुकान फिर वापस लौटाने वाली नहीं है। वे चीजें वापस लौटाई नहीं जा सकतीं, इनको लौटाना फिर असंभव है।
सोवियत रूस में जिन लोगों ने क्रांति की थी वे सोचते थे कि हम स्वतंत्रता के लिए क्रांति कर रहे हैं। लेकिन सोवियत रूस की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर क्रांति करने वाले बड़े नेताओं मंे सिर्फ एक स्टैलिन बचा था, बाकी सबकी हत्या स्टैलिन ने ही करवा दी। चाहे जियोविएव हों, चाहे कामेनिएव हों और चाहे स्वर्दलाव हों और ट्राटस्की हों, क्रांति के जितने भी महत्वपूर्ण आधार थे उन सबकी हत्या क्रांति ने ही कर दी। खतरा है क्रांतिकारियों से, क्योंकि वे लोग स्वतंत्रता की बातें करते थे, उनको मिटा देना पहले जरूरी था। उनको मिटा देने के बाद जमीन पर सबसे बड़े कारागृह का निर्माण हुआ।
आशा थी कि सबसे बड़ी स्वतंत्रता का निर्माण होगा, लेकिन जो निर्मित हुआ वह सबसे बड़ा कारागृह है। इतना बड़ा कारागृह कहीं भी कभी भी निर्मित नहीं हुआ। न चंगेज खां कर सका था, न नेपोलियन कर सका था, न सिकंदर कर सका था। दुनिया के बड़े से बड़े खतरनाक लोग भी इतना बड़ा कारागृह नहीं पैदा कर सकते थे। समाजवाद ने वह कारागृह संभव कर दिया, क्योंकि चंगेज कितना ही बड़ा हत्यारा हो, आदमी की आत्मा का भरोसा था उसे। और चंगेज कितना ही बड़ा हत्यारा हो, सुबह बैठ कर परमात्मा से क्षमा मांगता था।
स्टैलिन पहला हत्यारा है जिसे किसी से क्षमा मांगने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आत्मा है ही नहीं। स्टैलिन पहला आदमी है इस मनुष्य-जाति के इतिहास में जो अंदाजन पचास लाख लोगों से लेकर एक करोड़ लोगों की हत्या इतनी सरलता से कर सका, जैसे हम मिट्टी के गुड्डे-गुड्डियों की हत्याएं कर रहे हों। इस हत्या में कहीं कोई मर ही न रहा था। आदमी है ही नहीं मरने को, सिर्फ एक यंत्र है। और आप अगर एक यंत्र को तोड़ दें तो इसके लिए अपराध का भाव पैदा नहीं होता। अगर मैं घड़ी को पटक कर तोड़ दूं तो मेरे मन में ऐसा भाव नहीं होता कि कोई प्रायश्चित करूं। घड़ी सिर्फ यंत्र है।
माक्र्स की दृष्टि में मनुष्य पदार्थ ही है और समस्त चेतना पदार्थ का ही एपिफिनाॅमिना है। सिर्फ पदार्थ में ही पैदा हो गई घटना है। जैसे हम आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाएं और पानी पैदा हो जाए। तो पानी कोई नई घटना नहीं है, आक्सीजन और हायड्रोजन का जोड़ है। इसलिए पानी के साथ कोई अलग व्यवहार करने की जरूरत नहीं है। जो हम आक्सीजन और हाइड्रोजन के साथ करते थे, वही व्यवहार पानी के साथ किया जा सकता है।
आदमी भी भौतिक तत्वों का जोड़ है, और उस जोड़ के अतिरिक्त उसके भीतर और कुछ भी नहीं है जो जोड़ के बाहर हो। एक बार यह बात अगर स्वीकृत हो जाए कि आदमी सिर्फ जोड़ है हड्डी-मांस-मज्जा और पुदगलों का और उसके भीतर जोड़ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है तो जिंदगी फिर दूसरे ढंग से हमको बितानी पड़ेगी।
जब कि यह सरासर झूठ है, आदमी कुछ और है, सिर्फ जोड़ नहीं--जब कि यह बात बुनियादी रूप से गलत है। सच तो यह है कि आदमी कुछ और है और उसके आधार पर ही यह जोड़ भी संभव हो पाया है। और जिस दिन वह और अलग हो जाता है, यह जोड़ बिखर जाता है। यह जोड़ अपने आप में नहीं है। वह क्रिस्टलाइजेशन, यह सारी चीजों का जुड़ जाना बीच में किसी और केंद्र के ऊपर है। और वह केंद्र जिस दिन अलग होता है, यह सारा का सारा विस्तार टूट कर बिखर जाता है।
आदमी जोड़ नहीं--जोड़ से ज्यादा है, लेकिन समाजवाद की दृष्टि जो है--माक्र्स सोचता था कि पदार्थ के अतिरिक्त और कोई सच्चाई नहीं है जगत में। जिन दिनों में माक्र्स पैदा हुआ, उन दिनों पदार्थवाद बहुत जोर पर था। लेकिन अब अगर माक्र्स को उसकी कब्र से उठाया जा सके तो वह बहुत हैरान होगा। क्योंकि इधर सौ वर्षों में जो सबसे बड़ा आघात हुआ है वह पदार्थ को हुआ है। आज कोई भी वैज्ञानिक यह नहीं कह सकता कि पदार्थ है।
आज वैज्ञानिक कहेगा कि मैटर इज डेड। पदार्थ तो है ही नहीं, मर गया। असल में जितना खोजा उतना ही पाया कि पदार्थ नहीं है। आज अगर सारी दुनिया के पदार्थवादी लौटें तो बहुत हैरान होंगे। वे इस बात से हैरान होंगे कि उन्होंने आशा बांधी थी कि विज्ञान एक दिन सिद्ध करेगा कि परमात्मा नहीं है, आत्मा नहीं है। विज्ञान यह तो सिद्ध नहीं कर पाया कि आत्मा नहीं है, न यह सिद्ध कर पाया कि परमात्मा नहीं है। एक अजीब बात विज्ञान सिद्ध कर पाया कि पदार्थ नहीं है। और जैसे हम पदार्थ को तोड़ते हैं और नीचे पहुंचते हैं तो सिवाय...विद्युत-कणों को भी कण कहना भाषा की भूल है! कण नहीं हैं वे, क्योंकि कण तो पदार्थ के छोटे टुकड़े को कहते हैं। विद्युत के टुकड़े को क्या कहें? अंग्रेजी में उन्होंने एक नया शब्द गढ़ा है--क्वांटा का मतलब होता है, दोनों चीजें एक साथ--कण भी और लहर भी। कण-तरंग दोनों बातें एक साथ हो नहीं सकतीं। लहर का मतलब ही होता है जिसमें बहुत कण हैं। कण का मतलब है, जो अकेला है, जिसमें कोई लंबाई नहीं है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, वह जो विद्युत का आखिरी टुकड़ा है वह एक ही साथ कण भी है और तरंग भी है। सब्स्टेंशियल बिलकुल ही नहीं है। उसमें सब्स्टेंस जैसी कोई चीज ही नहीं--सिर्फ ऊर्जा है, सिर्फ शक्ति है।
सिर्फ शक्ति है पदार्थ। और माक्र्स इनकार करता है कि मनुष्य के भीतर पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और विज्ञान कह रहा है कि सिर्फ शक्ति है, पदार्थ तो है ही नहीं। आज दुनिया में मेटीरियलिज्म की तो बेस गिर गई है, उसके नीचे की बुनियाद गिर गई है। आज मेटीरियलिस्ट होने के लिए कोई भी समझदार आदमी तैयार नही है, नहीं हो सकता है। हालांकि पुरानी सदियों में अधिकतम समझदार आदमी मैटीरियलिस्ट होने के लिए तैयार था। क्योंकि दिखलाई पड़ता था, यह लोहा है, यह लकड़ी है, यह दीवाल है। आज वैज्ञानिक कहता है कि न दीवाल है, न लोहा है, न लकड़ी है, विद्युत की तरंग में कोई मैटर नहीं, कोई पदार्थ नहीं है, वह सिर्फ शक्ति है।
यह सारा जगत ऊर्जा का खेल है। यह सारा जगत शक्ति का एक बहुत बड़ा व्यापक विस्तार है। जिसे धर्म ने कहा है ब्रह्म, उसे विज्ञान आज ऊर्जा कह रहा है। बहुत देर नहीं है कि वह उसे ब्रह्म कह सके। एक कदम और उठाने की जरूरत है और विज्ञानन जिसे ऊर्जा कह रहा है, उसे सचेतन ऊर्जा कह सकेगा। क्यों? क्योंकि विज्ञान के ही आधारभूत नियम इस बात के लिए पूर्व से अपेक्षा तैयार कर रहे हैं।
क्योंकि जगत सिर्फ शक्ति का विस्तार है तो इस शक्ति का विस्तार में विचार पैदा होता है, चेतना पैदा होती है, और वही पैदा होता है। हो सकता है जो पहले से छिपा हो, अन्यथा पैदा नहीं हो सकता। एक बीज से वृक्ष पैदा होता है, भले बीज में वृक्ष दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन बीज में वृक्ष का पूरा बिल्ट इन प्रोग्रेम मौजूद है। बीज मं कैसे फल लगेंगे और वृक्ष कितना बड़ा होगा, और वृक्ष में कैसी शाखाएं होंगी--यह सब उस बीज में छिपा है। सिर्फ प्रकट होने की देर है, अप्रकट है।
ऊर्जा अप्रकट चेतना है, और बीज अप्रकट वृक्ष है। अगर कोई कहे कि बीज में वृक्ष नहीं है, तो फिर वृक्ष के पैदा होने की कोई संभावना ही नहीं है। फिर हर बीज हर वृक्ष को पैदा नहीं करता, सब बीज अलग-अलग वृक्षों को पैद करते हैं, और फिर यदि बीज में वृक्ष नहीं है, तो फिर हम एक कंकड़ का बो दें और आम का वृक्ष पैदा नहीं होगा। क्योंकि कंकड़ में जो नहीं छिपा है वह पैदा नहीं हो सकता।
जो बोया है वही प्रकट होता है। चेतना प्रकट हुई है तो चेतना इसी ऊर्जा में छिपी होनी चाहिए। इस ऊर्जा के विस्तार में अगर ऊर्जा न छिपी हो तो वह कहां से आएगी--वह है। मैं आपको देख रहा हूं, आप मुझे सुन रहे हैं, मैं बोल रहा हूं, आप समझ रहे हैं कि यह घटना घट रही है। यह घटना है समझ की, अंडरस्टैंडिंग की, विचार की, चेतना की। प्रेम की यह घटना ऊर्जा में अंतर्निहित है।
विज्ञान को एक कदम और उठाना है। पदार्थ को विज्ञान ने जब तक नहीं तोड़ा था, तब तक वैज्ञानिक कहते थे पदार्थ ही सत्य है। उसका ही जोड़ है सब, फिर उन्होंने पदार्थ को तोड़ा, उसको एनालाइज्ड किया। एनालिसिस के बाद हैरान हो गए। उन्होंने पाया कि पदार्थ तो तिरोहित हो गया, रह गई सिर्फ ऊर्जा। जिस दिन वह ऊर्जा भी तिरोहित हो गई तो रह गई सिर्फ चेतना।
विज्ञान ने एक कदम जो उठाया है वह धर्म की तरफ से है और अब भविष्य में भौतिकवाद के लिए कोई उपाय नहीं रह गया है। लेकिन माक्र्स जब पैदा हुआ तब भौतिकवाद हवा में था। चारों तरफ डारविन और न्यूटन की बात थी और चर्चा थी। और सब तरफ भौतिकवादी जीतता हुआ मालूम पड़ता था और अध्यात्मवादी हारता हुआ मालूम पड़ता था। स्वभावतः माक्र्स ने भौतिकवाद को पकड़ लिया। लेकिन समाजवाद आज भी भौतिकवाद को पकड़े हुए बैठा है। असल में सब वादी अतीत से जकड़ जाते हैं। कोई वादी गीता से जकड़ जाता है, कोई कुरान से, कोई बाइबिल से, कोई माक्र्स से जकड़ जाता है। असल में वादी जो है वह पीछे को पकड़े रह जाता है। उसे पता नहीं रहता, जिंदगी आगे बढ़ गई।
समाजवाद आउट आॅफ डेट है, पिछड़ी हुई बकवास है। उसका अब कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि यह जिन आधारों पर खड़ा है वे सब आधार गिर गए हैं। पहला आधार तो यह गिर गया है कि मैटीरियलिज्म गलत सिद्ध हो गया है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अभी स्प्रिचुअलिज्म सही सिद्ध हो गया है, विज्ञान से। मैं सिर्फ यही कह रहा हूं कि सिर्फ पदार्थवाद गलत सिद्ध हो गया है। लेकिन जगह खाली हो गई है। और मनुष्य की चेतना बहुत दिनों तक वेक्यूम को बरदाश्त नहीं करती। असल में शून्य को बरदाश्त करना कठिन है। इसलिए पिछले बीस वर्षों में वैज्ञानिकों का बड़ा वर्ग धीरे-धीरे अध्यात्म की तरफ गया। एडिंगटन ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि जितना ही मैं सोचता हूं, उतना ही मुझे ऐसा मालूम पड़ा है कि जगत एक वस्तु कम और विचार ज्यादा है।
यह जगत एक वस्तु की भांति कम और एक विचार की भांति ज्यादा है।
एडिंगटन जैसा वैज्ञानिक यह कहता है तो थोड़ी हैरानी होती है। जिम्स जीन ने मरने के पहले एक वक्तव्य दिया और उस वक्तव्य में कहा कि जितना मैंने सोचा, मैंने पाया कि रहस्य बड़ा होता जाता है। और एक किताब लिखी।
एक वैज्ञानिक मिस्टरी शब्द का भी उपयोग करेगा, यह भी थोड़ा ठीक नहीं मालूम होता।
मिस्टरी धार्मिक शब्द है--रहस्य। संत होते हैं रहस्यवादी, वैज्ञानिक रहस्यवादी नहीं होता। वैज्ञानिक कहता ही यह है कि कोई रहस्य नहीं है। सब रहस्य खोले जा सकते हैं। सिर्फ हमारी समझ की कमी है। थोड़ी समझ बढ़ेगी तो जो रहस्य मालूम पड़ता है उसे हम कानून बना देंगे।
हम खोल देंगे सब और इस सदी के पहले, इस सदी के प्रारंभ होते वक्त वैज्ञानिक बहुत आशा से भरा था कि हम सारे रहस्य खोल लेंगे। यह सदी पूरी होते-होते इस दुनिया में कोई रहस्य नहीं बचेगा और विज्ञान रिटायर हो जाएगा। वह विश्राम पर चला जाएगा, क्योंकि कोई रहस्य नहीं बचेगा, सब रहस्य खोल लिए जाएंगे।
जिन लोगों ने फ्रेंच-क्रांति की थी वे लोग इसी आशा से भरे थे कि दुनिया में ज्यादा दिन रहस्य नहीं बचेगा। लेकिन उन बेचारों को कोई पता नहीं है कि विज्ञान ने कितनी खोज की, रहस्य छोटा नहीं हुआ, रहस्य और बड़ा हो गया। और विज्ञान जितना गहरा गया उतना पाया कि गहराइयां आगे हैं। और विज्ञान ने जहां-जहां समझा था कि सतह आएगी वहां पहुंच कर पाया कि यह तो सिर्फ ऊपर ही हम तैरते थे, नीचे और बहुत ज्यादा है। और अब जिम्स जीन वैज्ञानिक कह सकता है कि जगत की मिस्टरी का कभी कोई अंत नहीं है।
आइंस्टीन ने अपने जीवन भर के निष्कर्षों के बाद में कहा है कि मेरा मन धार्मिक होता जा रहा है। यह बड़ी हैरानी की बात है। आइंस्टीन जैसा आदमी कहे, मेरा मन धार्मिक होता जा रहा है! क्यों होता जा रहा है? आइंस्टीन को ऐसी कौन सी वैज्ञानिक समझ से पता चला है कि धर्म है। नहीं, यह तो पता नहीं चला, लेकिन एक बात पक्की पता चल गई कि विज्ञान के सब आधार डांवाडोल हो गए हैं। और अब विज्ञान को पकड़ने के लिए जगह नहीं रह गई। हाथ खाली हो गए हैं। और आइंस्टीन के हाथ जो खाली हैं, वह धर्म की तरफ झुक रहे हैं।
समाजवाद का बुनियादी आधार अब भौतिकवाद है। इस भौतिकवाद से समाजवाद का एक दूसरा आधार विकसित हो गया था--वह था हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म। वह मैटीरियलिज्म का ही विकास था।
भौतिकवाद और फिर माक्र्स ने एक दूसरी धारणा विकसित की--ऐतिहासिक भाग्यवाद की। समाजवाद का यह मानना है कि आदमी तय नहीं करता कि समाज कैसा हो। समाज की अंधी ऐतिहासिकता (हिस्टोरिकी) तय करती है कि समाज कैसा हो!
पूंजीवाद के बाद समाजवाद आएगा ही, यह अनिवार्य है। यह ऐसे ही है जैसे हम पानी को गरम करेंगे तो वह भाप बनेगा--बनेगा ही। ऐसा नहीं है कुछ कि उसे बनना चाहिए।
इसलिए मैं दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं। जिस भौतिकवाद के आधार पर माक्र्स सोचता था कि ऐतिहासिक सुनिश्चितता हो सकती है...कि भौतिकवाद तो गिर ही गया! भौतिकवाद के सुनिश्चतता के सिद्धांत भी गिर गए। पिछले पंद्रह सालों में भौतिकवाद ने नया सिद्धांत विकसित किया है, जिसका नाम है, प्रोबेबिलिटी--संभावना। पिछले पंद्रह वर्षों में विज्ञान ने सरटेंटी की भाषा छोड़ कर अनसरटेंटी की भाषा बोलना शुरू की है। अब निश्चय की भाषा विज्ञान ने बंद कर दी और अनिश्चय की भाषा शुरू की है। क्योंकि विज्ञान यह कह रहा है कि जो निश्चय दिखाई पड़ रहा है वह बहुत ऊपरी है, और हम भीतर घुसते हैं तो निश्चय टूट जाता है।
जैसे हम निश्चित हो सकते हैं कि पिछले दस सालों का अहमदाबाद की सड़कों का रिकार्ड पुलिस से पूछा जाए तो पता चल सकता है, कितने एक्सीडेंट हुए। और यह भी पता चल सकता है कि हर साल कितने एक्सीडेंट बढ़ जाते हैं। तो हम घोषणा कर सकते हैं कि अगले साल अहमदाबाद की सड़कों पर कितने एक्सीडेंट होंगे। लेकिन इस आधार पर हम यह नहीं बता सकते कि कौन सा आदमी एक्सीडेंट में मरेगा।
दस लाख आदमी रहते हैं तो हम बता सकते हैं कि दस आदमी अगले साल कार के एक्सीडेंट में मरेंगे। क्योंकि पिछले साल नौ मरे, उसके पहले साल आठ और पहले सात मरे। दस आदमी मरेंगे यह प्रोबेबिलिटी है, यह सरटेंटी नहीं है। यह सिर्फ संभावना है। यदि अहमदाबाद के लोग तय कर लें, जैसा कि बहुत संभव है गुजरात के लोग कर सकते हैं--मरेंगे, तो तब तक हम घर से बाहर ही नहीं निकलेंगे तो यह संभावना गलत हो जाएगी। दस भी न मरेंगे। यह संभावना तभी तक लागू रहेगी जब तक अहमदाबाद के लोग जिस ढंग से रह रहे हैं वे वैसे ही रहते चले जाएं। और यह संभावना बड़े समूह पर लागू होगी। अगर एक
आदमी को पकड़ कर हम कहें कि यह आदमी मरेगा या नहीं मरेगा, तो उसके संबंध में कोई घोषणा नहीं की जा सकती।
जब तक विज्ञान पदार्थ के समूह का अध्ययन कर रहा था, तब तक बहुत सरटेन था। वह जानता था कि नाइट्रोजन का व्यवहार क्या है, वह जानता था कि आक्सीजन का व्यवहार क्या है। लेकिन जब विज्ञान पदार्थ के समूह के नीचे उतरा और उसने एटम को पकड़ा तो वह हैरान रह गया, एटम इंडीविजुअल है। उसके व्यवहार को पक्के रूप से तय नहीं किया जा सकता है कि वह क्या व्यवहार करेगा।
बड़ी हैरानी की बात है कि पदार्थ के भीतर भी व्यक्तियों के अस्तित्व हैं। और जब एटम को भी तोड़ा तब वैज्ञानिक और भी मुश्किल में पड़ गए हैं, क्योंकि इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पाजेट्रान के व्यवहार को तो बिलकुल नहीं बताया जा सकता कि वे क्या करेंगे। वे झिग-झिग चलते हैं। उनका कुछ पक्का नहीं कि वे ऐसा ही चलेंगे। वे गलत चल सकते हैं, और कुछ पता नहीं चलता कि वे ऐसी गड़बड़ क्यों करते हैं? क्योंकि पदार्थ को गड़बड़ नहीं करना चाहिए, उसे नियम से चलना चाहिए।
यहां तक हैरानी का अनुभव हुआ है कि जब कोई वैज्ञानिक अपनी बहुत गहरी दूरबीन से या खुर्दबीन से पदार्थ के छोटे अणुओं को देखता है तो एक बहुत आश्चर्यजनक अनुभव होता है। वह समझने जैसा है। वह यह कि उस निरीक्षण करने से पदार्थ के छोटे अणुओं के व्यवहार में अंतर पड़ जाता है। जैसे कि आप अपने बाथरूम में स्नान करते होते हैं तो एक तरह के आदमी होते हैं और मैं आपको सुराख में से झांक कर देखूं तो आपके व्यवहार मे अंतर पड़ जाता है। क्योंकि जब आप अकेले थे ता आप मुंह चिढ़ा रहे थे आईने के सामने, लेकिन अगर आपको पता चल जाए कि छेद में से कोई झांक रहा हे, तो आप बदल गए। यह आपके बाबत तो समझ में आता है, क्योंकि आप एक व्यक्ति हैं सचेतन, लेकिन एक छोटा सा न दिखाई पड़ने वाला इलेक्ट्रान अगर निरीक्षण से अपना रास्ता बदल देता है, तब बड़ी अजीब बात है।
इसका मतलब यह होता है कि इलेक्ट्रान के पास अपनी आत्मा, अपना व्यक्तित्व है। इलेक्ट्रान भी निरीक्षण से रास्ता बदलता है। आपने कभी अपनी नाड़ी नापी है, आप अपनी नाड़ी नापें, पहली दफा नापें, फिर दस मिनट के लिए निरीक्षण करते रहें नाड़ी का और फिर नापें, आप पाएंगे कि चाल बढ़ गई। जब डाक्टर आपकी नाड़ी नापता है तो चाल उतनी ही नहीं होती जितनी नापने के पहले थी, थोड़ी सी बढ़ जाती है और अगर लेडी डाक्टर हा तो निश्चित ही ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि लेडी डाक्टर की वजह से नाड़ी पर निरीक्षण ज्यादा हो जाता है, ध्यान ज्यादा चला जाता है।
निरीक्षण चेतन व्यक्ति में फर्क करे--यह समझ में आता है, लेकिन जिसको हम सदा से जड़ कहते रहे--अचेतन, उसके व्यक्तित्व मेें भेद पड़ जाए तो सोचना पड़ेगा फिर से कि जिसको हम अचेतन कह रहे हैं, वह भी अचेतन नहीं है। आॅब्जर्वेशन फर्क करता है तो चेतना वहां भी है, तो हो सकता है हम उसकी चेतना को अभी नहीं पहचान पा रहे, लेकिन कल हम उसके चेतन को पहचान लें।
इसलिए विज्ञान पिछले पंद्रह सालों से सरटेंटी की बातें नहीं करता कि ऐसा होगा ही, वह कहता है, ऐसा हो सकता है। क्योंकि वे जो नीचे बैठे हुए व्यक्तिगत अणु हैं वे क्या व्यवहार करेंगे, कहना बहुत कठिन है। उनके व्यवहार को तय करना आसान नहीं है। भीड़ सदा जड़ होती है, व्यक्ति सदा चेतन होता है। और समाजवाद का सारा भरोसा भीड़ पर है। व्यक्ति पर बिलकुल नहीं है।
व्यक्ति पर कोई जड़ता भरोसा नहीं कर सकती। व्यक्ति स्वतंत्रता है। भीड़ एक जड़ता है। अगर एक मस्जिद को जलाना हो तो पांच हजार हिंदुओं पर भरोसा किया जा सकता है, एक हिंदू पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अगर एक मंदिर मे आग लगाना हो तो पांच हजार मुसलमानों पर भरोसा किया जा सकता है, एक मुसलमान पर भरोसा नहीं किया जा सकता। और मजा यह है कि पांच हजार मुसलमान से अगर एक-एक से पूछा जाए कि क्या तुम मंदिर जलाने के लिए तैयार हो तो वह भी दो बार सोचेगा और कहेगा कि जलाना कि नहीं जलाना; लेकिन पांच हजार मुसलमानों की या पांच हजार हिंदुओं की भीड़ जब मंदिर या मस्जिद में आग लगाती है, तो सोचने की जरूरत ही नहीं होती। भीड़ सिर्फ यंत्रवत काम करती है।
इसलिए दुनिया में जितने बड़े पाप व्यक्तियों ने किए हैं उतने व्यक्ति ने कभी भी नहीं किए और भीड़ से सावधान रहना और भीड़ से बचने की कोशिश करना।
समाजवाद भीड़वाद है, वह व्यक्ति को हटा कर भीड़ को ला देना चाहता है। विज्ञान के नीचे से आधार खिसक गए हैं। इसलिए अब कोई समाजवादी वैज्ञानिक समाजवाद की बातें न करे। माक्र्स के जमाने में साइंटिफिक सोशलिज्म शब्द में कोई अर्थ था, अब कोई अर्थ नहीं है। अब अगर हमारा चिंतन वैज्ञानिक है, तो वह गलत बातें कर रहा है। विज्ञान से आज उसको कोई सहारा या समर्थन नहीं है।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि जब तक स्टैलिन रूस में हुकूमत में था तब तक उसने ऐसी आज्ञाएं जारी कर रखी थीं कि वैज्ञानिक कोई ऐसा सिद्धांत न खोजें जो समाजवाद के विपरीत जाता हो। बहुत मजे की बात है। राजनीति तय करेगी कि प्रकृति कैसा व्यवहार करे, राजनीति तय करेगी कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिले तो पानी बने, कि न बने। स्टैलिन क्रेमलिन में बैठ कर तय करेगा कि फिजिक्स क्या खोजे और क्या न खोजे और खोज ले, तो भी क्या बताए और क्या न बताए।
स्टैलिन ने पिछले पचास साल रूस में ऐसी सारी दिशाओं को बंद करवा दिया जिनसे समाजवाद की वैज्ञानिकता पर संदेह हो सकता था। लेकिन कोई रूस में ही विज्ञान विकसित नहीं हो रहा है, सारी यूरोपीय दुनिया में विज्ञान का विकास एक अजीब निष्कर्ष देता है। और वह यह कि जगत एक सचेतन प्रक्रिया (कांशस प्रोसेस) है। और ध्यान रहे कि यह कभी भी भाग्यवादी नहीं हो सकती।
हिंदुस्तान के लिए समाजवाद के साथ यह भी एक खतरा है जो मैं आपको बता दूं। हिंदुस्तान हजारों सालों से भाग्यवादी है। उतने भाग्यवादी न मनु हुए, न भाग्यवादी याज्ञवल्क्य थे। कोई हिंदू विचार इतना भाग्यवादी नहीं था, जितना भाग्यवादी माक्र्स है। क्यों? क्योंकि स्वतंत्रता की संभावना चेतना के साथ है। अगर चेतना नहीं है तो स्वतंत्रता नहीं है, स्वतंत्रता नहीं है तो फिर यांत्रिक व्यवस्था सब निर्णय करती है। घड़ी तय नहीं कर सकती कि मैं चलूं या न चलूं। घड़ी का यंत्र तय करता है कि चले या न चले। इसलिए हम घड़ी की गारंटी दे सकते हैं कि दस साल चलेगी। क्योंकि घड़ी कोई आत्महत्यसा नहीं करेगी, लेकिन आप मेरी गारंटी नहीं दे सकते कि दस साल चलूंगा। मैं आज ही आत्महत्या कर सकता हूं।
सारा यंत्र पड़ा रहेगा ठीक जो दस साल चल सकता था, लेकिन मैं आज आत्महत्या कर सकता हूं। आदमी अकेला प्राणी है जो आत्महत्या कर सकता है। यह कभी आपने सोचा, कोई जानवर नहीं कर सकता। अब तक किसी जानवर ने आत्महत्या नहीं की। क्यों? जानवर के पास इतनी चेतना नहीं कि स्वयं का निर्णायक हो सके कि मैं जीऊं या मरू। मनुष्य के मन का हमें पता नहीं है। मनुष्य की चेतना बहुत छोटे से घेरे को प्रकाशित करती है। जैसे एक दीया जलता है तो छोटे से घेरे को प्रकाशित करता है। ऐसे ही मनुष्य की चेतना छोटे से घेरे को प्रकाशित करती है। अगर मेरी पत्नी बीमार है, तो मैं रात भर दौड़ सकता हूं; लेकिन मुझे पता लगे कि राष्ट्र-पत्नी बीमार है, तो हम आराम से सो जाएंगे कि रहने दो, इससे क्या फर्क पड़ता है। अगर मेरी मां बीमार है तो मैं जिंदगी भर उसकी सेवा कर सकता हूं, लेकिन मुझे पता चले कि मनुष्यता की मां बीमार है, होगी बीमार! भारत माता के बीमार होने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अपनी मां बीमार होनी चाहिए।
मनुष्य की चेतना का बहुत छोटा सा पहलू वही परिवार है। रूस ने नहीं मानी यह बात, पचास साल के बाद स्वीकार करनी पड़ रही है। दस सालों से रोज व्यक्तिगत संपत्तियों को जबरदस्ती छीना था। लाखों लोगों की हत्याएं करके जो छीना था, वह उन्हें वापस दिया जा रहा है। और रूस के अखबारों के एडिटोरियल पढ़ें तो रोज उसमें यह बात होती है कि राष्ट्र के लिए श्रम करो। मालूम होता है, कोई श्रम नहीं कर रहा है। नहीं तो बार-बार रोज एडिटोरियल लिखने की कोई जरूरत ही नहीं है कि राष्ट्र के लिए श्रम करो।
हम चिल्लाएं तो समझ में आता है, रूस में सब नेता चिल्लाते हैं कि राष्ट्र के लिए श्रम करो। कोई श्रम नहीं कर रहा है। ख्रुश्चेव अपने पूरे वक्तव्यों में, जो उसने रूस में दिए हैं, निरंतर यह कहता रहा है कि लड़के अलाल होते जा रहे हैं, कोई काम करने को राजी नहीं है। असल में पचास साल स्टैलिन ने काम करवाया बंदूक के कुंदे के बल। जिस दिन से स्टैलिन गया, उस दिन से बंदूक का कुंदा ढीला करना पड़ा और बंदूक का कुंदा ढीला हुआ कि काम ढीला हुआ।
व्यक्ति के पास इनिशिएटिव चाहिए। उसके पाच चेतना है, उस चेतना को प्रेरणा चाहिए। अगर गरीब में प्रेरणा पैदा की जाए कि वह भी अमीर हो तब तो यह मनुष्य समृद्ध हो सकता है, लेकिन गरीब की इस ईष्र्या का दुरुपयोग किया जा रहा है। राजनीतिज्ञ इसका शोषण कर सकता है। वह कह सकता है कि तुम्हें अमीर होने की जरूरत नहीं है। अमीर को गरीब बनाने की जरूरत है, उससे सब ठीक हो जाएगा।
जिसे हम समाजवाद कह रहे हैं वह गरीब को अमीर बनाने की योजना नहीं है। वह अमीर को गरीब बनाने की योजना है। कोई हर्जा न था अगर गरीबों को लाभ हो सकता, लेकिन गरीबों को कोई लाभ नहीं हो सकता, सिर्फ गरीबी बढ़ेगी; हां थोड़ी सी राहत मिलेगी। अगर दुनिया में इतने लोग हैं और इसमें दस आदमियों के पास दो-दो आंखें हैं और बाकी लोगों के पास एक-एक आंख है, तो हम मांग सकते हैं कि नहीं यह नहीं चलेगा कुछ लोगों के पास आंखें हैं और कुछ के पास एक, एक उपाय तो यही है कि जिनके पास एक ही आंख है उनकी दूसरी आंख का इलाज हो। और उसमें उन दस लोगों का उपयोग किया जा सकता है जिनके पास दोनों आंखें हैं। लेकिन दूसरा उपाय यह है कि हम उन दस लोगों की भी एक-एक आंख कर दें।
इससे सबके पास दो-दो आंखें न रह जाएंगी, लेकिन बड़ी राहत मिलेगी कि सबके पास एक-एक हो गई। इससे चित्त को बड़ी शांति मिलेगी। आदमी का मन बहुत अजीब है। आदमी अपने दुख से उतना परेशान नहीं होता जितना दूसरे क सुख से हो जाता है। आदमी अपने दुख से उतना दुखी नहीं होता, जितना दूसरे के सुख से व्यथा में पड़ जाता है। दूसरे का सुख बरदाश्त के बाहर हो जाता है। खुद के दुख को तो
आदमी किसी तरह बरदाश्त कर लेता है। इसलिए अगर सब दुखी हैं तो दुख की पीड़ा कम हो जाती है। अगर सब गरीब हों तो गरीबी का बोझ मिट जाता है। अगर सब लंगड़े-लूले हों तो चित्त को बड़ा विश्राम मिलता है।
मैंने सुना है एक आदमी के संबंध में कि उसने बहुत दिन भगवान की पूजा और प्रार्थना की और वरदान मांगता रहा और भगवान प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि वरदान ले ले, तो उसने कहा कि आप ही जो ठीक समझें दे दें; पर ऐसा कुछ दें जो सदा काम आता रहे। तो भगवान ने उससे कहा कि ठीक तू जो भी मांगेगा वह तुझे मिल जाएगा, लेकिन साथ ही यह भी कि तेरे पड़ोसी को उससे दुगना मिल जाएगा।
उस आदमी ने सर पीट लिया कि भगवान भी किस तरह का है। पड़ोसियों को नीचा दिखाने के लिए तो इतने दिनों से भगवान की प्रार्थना करता रहा था। यह वरदान किस किस्म का है? उसने घर आकर लाख रुपये मांगे, पता चला कि पड़ोसियों के घर में लाख रुपये बरस गए। उसे लाख रुपया बिलकुल दिखाई पड़ना बंद हो गया, उसे दो लाख की पीड़ा ने घेर लिया। उसने कहा, मैं खुद ही अपने हाथ से उनके घर में
दो लाख गिरा रहा हूं। उसने सोचा, कोई तरकीब सोचनी पड़ेगी। आकर उसने भगवान से कहा कि मेरी एक आंख छीन ले। उसकी एक आंख चली गई, पड़ोसियों की दोनों आंखें चली गईं।
वह बड़ा तृप्त हुआ अंधों में काना राजा हो गया और फिर उसने भगवान से कहा, मेेरे घर के सामने एक कुंआ खोद दे और उसके पड़ोसियों के घर के सामने दो-दो खुद गए, और वे अंधे उस कुंए में गिरने लगे। अब दिल को जरा राहत मिलती है। यह भी क्या पागलपन तूने किया कि लाख हमारे घर में गिरे और दो लाख उनके घर में गिर जाएं।
आदमी अपने को भी दुख देने को राजी हो जाता है, अगर दूसरे को दूख देने का मौका मिल जाए। आदमी के इस चित्त का समाजवाद के नाम से शोषण किया जा रहा है।
सारी दुनिया में समाजवाद समता लाने की बातचीत करता है। ईष्र्या जगाने का काम करता है। उसका मूल आधार ईष्र्या और द्वेष पर है। बड़ा वर्ग भूखा है, दीन है, दुखी है। यह सच है, इसकी दीनता मिटनी चाहिए, इसका दुख मिटना चाहिए। इसकी जिंदगी में कुछ आना चाहिए, यह बिलकुल जरूरी है। लेकिन जो थोड़ा सा वर्ग सुखी दिखाई दे रहा है, उसकी खुशी पोंछ देने से कुछ भी नहीं होगा। हां, एक फर्क होगा, अगर हम सुखी लोगों को पोंछ डालें तो दुखी लोगों को पता चलना बंद हो जाएगा। उनके पास कोई कंपेरेटिव स्केल नहीं रह जाएगा। इसका बहुत उपयोग किया गया है। जैसे, एक मुल्क में हमने एक उपयोग किया था कि हमने शूद्रों की एक सीमा बांध दी थी। उस सीमा के बाहर शूद्र नहीं जा सकता था। उसको पैसे तो मिलते नहीं थे, खाने को मिल जाता था। पुराने कपड़े मिल जाते थे, बासी भोजन मिल जाता था। शूद्र की एक बंधी हुई जिंदगी थी। उसमें विकास का कोई उपाय न था। इसलिए कभी किसी मेहतरानी ने कभी किसी महारानी से कोई ईष्र्या नहीं की। ईष्र्या का कोई उपाय ही नहीं था। फासला इतना ज्यादा था कि कहां महारानी और कहां मेहतरानी। अगर मेहतरानी ईष्र्या भी करेगी तो पड़ोसी मेहतरानी से, क्योंकि उसने एक लकड़ी का कड़ा और पहन लिया। किसी मेहतरानी ने किसी महारानी से किसी महारानी से कभी ईष्र्या नहीं की, क्योंकि उसके आस-पास का जो पड़ोस था उस पड़ोस तक उसकी नजर जाती थी और उस नजर में इसको ईष्र्या योग्य कुछ नहीं दीखता था। बड़ी तृप्ति थी।
समाजवाद इसी तृप्ति को और बड़े पैमाने पर फैला देता है। वह सारे मुल्क को एक सा गरीब कर देता है। ध्यान रहे, मैं कह रहा हूं एक सा गरीब, एक सा अमीर नहीं, क्योंकि एक सा अमीर करना समाजवाद के हाथ में नहीं है। एक सा गरीब करना समाजवाद के हाथ में है। एक सा अमीर करना राज्य के हाथ में नहीं है, एक सा गरीब करना आज राज्य के हाथ में है। एक सा अमीर करना हो तो सैकड़ों वर्ष का श्रम चाहिए। एक सा गरीब करना हो तो पार्लियामेंट का एक ही कानून काफी है। निश्चित ही एक सा अमीर करना बच्चों का खेल नहीं है। एक सा अमीर तो हम कर नहीं सकते। फिर कम से कम एक सा गरीब तो कर ही सकते हैं--इसको हम क्यों चूकें--जब तक एक सा अमीर होगा, तब तक हम एक सा गरीब कर दें!
समाजवाद का जो आकर्षण है साधारण जन के मन में, वह आकर्षण ईष्र्याजन्य है। समाजवाद मनुष्य की ईष्र्या का दुरुपयोग कर रहा है और उससे कुछ समृद्धि नहीं आ जाएगी, उससे कुछ संपत्ति पैदा नहीं हो जाएगी। क्योंकि संपत्ति पैदा करने का जो नियम है, उन नियमों की बुनियादी बात व्यक्तिगत संपत्ति है। मैं व्यक्तिगत संपत्ति का पक्षपाती नहीं हूं, लेकिन मैं मानता हूं कि व्यक्तिगत संपत्ति उस दिन जानी चाहिए जिस दिन संपत्ति बेकार हो जाए और संपत्ति उस दिन बेकार होगी जिस दिन आवश्यकता से अधिक हो जाएगी। उसके पहले संपत्ति बेकार नहीं हो सकती।
पानी जरूरत से ज्यादा है तो बिना मूल्य के मिल जाता है, हवा जरूरत से ज्यादा है, बिना मूल्य मिल जाती है। असल में मूल्य पैदा ही होता है न्यूनता से। जो चीज कम होती है उसका मूल्य हो जाता है। मूल्य न्यूनता है। व्यक्तिगत संपत्ति तब तक मूल्यवान रहती है जब तक संपत्ति कम है। जिस दिन संपत्ति एफ्लुएंट होगी, जिस दिन संपत्ति इतनी ज्यादा होगी कि उस पर व्यक्तिगत कब्जा करना बेमानी और पागलपन हो जाएगा, उस दिन की व्यक्तिगत संपत्ति समाप्त हो सकती है, उसके पहले नहीं। उसके पहले अगर हमने व्यक्तिगत संपत्ति समाप्त की तो वह जो संपत्ति समाप्त की तो वह जो संपत्ति को पैदा करने की प्रेरणा है, वह भी वहीं समाप्त हो जाएगी।
संपत्ति को पैदा करने का उपाय पूंजीवाद के पास है, समाजवाद के पास नहीं है। समाजवाद पूंजी को बांट सकता है, पैदा नहीं कर सकता, और अगर समाजवाद संपत्ति को पैदा करेगा, तो उसे जो व्यक्तिगत प्रेरणा है उसकी जगह फोर्स और वायलेंस का उपयोग करना पड़ेगा। हिंसा का उपयोग करना पड़ेगा। तो जहां आज आदमी संपत्ति पैदा करने के लिए खुद दौड़ता है, वहां फिर पीछे बंदूक लगानी पड़े, तब वह दौड़े। लेकिन बंदूक से बहुत दिन दौड़ना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह जबरदस्ती की व्यवस्था है, सहज व्यवस्था नहीं है। मेरी दृष्टि में संपत्ति अगर अतिरिक्त हो जाए तो अपने आप बेमानी हो जाएगी। जिस दिन अतिरिक्त हो जाएगी उस दिन व्यक्ति को संपत्ति राज्य के हाथों में समर्पित करनी पड़ेगी। जिस दिन अतिरिक्त हो जाएगी उस दिन व्यक्तिगत संपत्ति का जो पशु है, वह अपने आप विदा हो जाएगा बिना राज्य को मालिक बनाए। अभी तो राज्य मालिक बन जाएगा। लेकिन ध्यान रहे, थोड़े से व्यक्तिगत पूंजीपतियों के हाथ में संपत्ति का होना उतना खतरनाक नहीं, जितना राज्य के हाथ मंे। राज्य की ताकत तो है ही, और धन की भी ताकत राज्य के हाथ में आ जाए तो राजनीति अपने आप टोटलिटेरियन हो जाती है। अपने आप अधिनायक, तानाशाह हो जाती है। क्योंकि तब राज्य के खिलाफ कोई ताकत मुल्क में नहीं रह जाती।
राजनीतिज्ञ के हाथ में दोनों ताकतें इकट्ठी हो जाएं, राज्य की भी और धन की भी, तो तीसरी कोई ताकत ही नहीं है मुल्क के पास। फिर राजनीतिज्ञ भगवान बन जाता है। स्टैलिन करीब-करीब भगवान की तरह जिया, इसलिए उसे अदृश्य जीना पड़ता था, क्योंकि भगवान दृश्य नहीं होता, सामने प्रकट नहीं होता।
मैंने सुना है कि स्टैलिन को अपनी शक्ल का एक डबल भी रखना पड़ा था, एक आदमी रखना पड़ा था; क्योंकि जनता में सलामी वगैरह लेने के लिए उस आदमी का उपयोग करना पड़ता था। क्योंकि कोई गोली मार दे, कोई छुरा भोंक दे तो...जो आदमी रूस में समाजवाद लाया, जो आदमी रूस में संपन्नता लाया, जैसा समाजवादी कहते हैं कि जिस आदमी ने रूस में स्वर्ग उतारा, वह आदमी सड़क पर चलने में उरता है। स्वर्ग जरा संदिग्ध मालूम पड़ता है। मालूम होता है इस आदमी ने नरक उतारा है, अन्यथा डरने का इतना कोई कारण नहीं है।
स्टैलिन का भय बताता है कि रूस की जनता के ऊपर क्या गुजरी। स्टैलिन छिप कर जीया है। सलामी तक लेने का मजा खो दिया--बड़ा मजा है! कभी-कभी ऐसा हो जाता है। एक आदमी सलामी लेने के लिए राज्य की ताकत हाथ में लेता है और सलामी के लिए दूसरा आदमी भेजना पड़ता है कि कोई गोली न मार दे। तो ऐसे अपने घर ही भले थे। वहां कौन सी तकलीफ थी? एक आदमी राष्ट्र के ऊपर सवार होता है और लोग उसे देखें कि वह कुछ है, लेकिन फिर उसे छिप कर बैठना पड़ता है कि कहीं कोई गोली न मार दे!
रूस में अगर स्वर्ग उतर आया है तो स्टैलिन को भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं थी। रूस में अगर स्वर्ग उतर आया है तो रूस में विचार की स्वतंत्रता को नष्ट करने की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन विचार का कोई मौका नहीं। कुछ कारण थे। स्वर्ग नहीं उतर आया, सिर्फ दीनता बढ़ गई ओर दीनता ही नहीं बढ़ गई, बल्कि आदमी से काम लेने के लिए जबरदस्ती वायलेंस का उपयोग करना पड़ रहा है। रूस एक मिलिटरी कैंप बन कर खड़ा हो गया और अब चीन मिलिटरी कैंप बन रहा है! कोई नहीं जानता कि हम भी वही नासमझी कर रहे हैं।
एक बार राज्य के हाथ में धन की शक्ति गई तो फिर राज्य को चुनौती देने की कोई शक्ति मुल्क में नहीं रह जाती और एक बार व्यक्ति की व्यक्तिगत संपत्ति नष्ट हो गई कि व्यक्ति की ताकत नब्बे प्रतिशत समाप्त हो जाती है। आपके पास भी थोड़ी सी ताकत सोचने की मालूम पड़ती है तो उस ताकत में आप अपनी रोटी खुद कमाते हैं। उस ताकत में आपके पास अपना मकान, उस ताकत में आपकी व्यक्तिगत दुनिया है, अगर कल आपकी सारी व्यक्तिगत दुनिया छीन ली गई और रोटी भी राज्य से मिलने लगी, कपड़ा भी राज्य से मिलने लगा, मकान भी राज्य से मिलने लगा तो आप अचानक पाएंगे कि आपकी आत्मा खो गई, आप बिक गए हैं और जिसका नमक उसकी नमकहरामी शुरू हो जाती है, अचानक--सहज ही। फिर राज्य के हाथ में इतनी ताकत होती है कि जरा सा इनकार और मृत्यु के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगता।
मैंने सुनी है एक घटना कि ख्रुश्चेव एक कम्युनिस्ट पार्टी की विशेष मीटिंग में बोल रहा था और बोलते वक्त उसने स्टैलिन के संबंध में बताया कि उसने कितनी हत्याएं कीं और कितने लोगों को मारा और कितने लोगों को जेलों में डाला। रूस में जनता को आंकड़े नहीं बताए गए कुछ वर्षों तक। क्योंकि इतने लाखों लोग मार डाले गए थे कि उनका दुनिया को पता चल जाएगा कि इतने नाम अचानक विदा कैसे हो गए। सेंसस लिस्ट में नाम नहीं हैं। ये कहां गए, थोड़े-बहुत लोग नहीं, अंदाज है एक करोड़ लोग रूस में स्टैलिन के वक्त मारे गए। तो फिर क्यों कहना था कि स्टैलिन ने इतने आदमी मारे, इतनी हत्या की। तो एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि आप भी स्टैलिन के साथियों मंे से हैं। आप भी प्रतिबिंब के हिस्से थे, आप भी उन दस-बारह लोगों मंे से थे जो स्टैलिन की ताकत में थे, आपने उस वक्त क्यों नहीं कहा?
ख्रुश्चेव एक क्षण के लिए रुका और फिर उसने कहा, महाशय, आप फिर से खड़े होकर अपना नाम और अपना पता दीजिए। फिर वह आदमी खड़ा नहीं हुआ। ख्रुश्चेव ने कहा, इसी वजह से उस वक्त मैं भी नहीं खड़ा हुआ था। यही कारण है, नहीं तो आज कहने को नहीं बचता, उसी वक्त खत्म हो गया होता। पति भी अपनी पत्नी से रात मन की बातें खोल कर नहीं कह सकता, क्योंकि पता नहीं पत्नी किसी को बता दें। बाप अपनी बेटी से खुल कर नहीं बात कर सकता, क्योंकि पता नहीं बेटी लड़कों की कम्युनिस्ट पार्टी में जाकर किसी को खबर कर दे।
सारा मुल्क जासूस हो गया था। आज भी चीन मंे वही हालत है। एक दफा राज्य के हाथ में पूरी ताकत चली जाए तो व्यक्ति की हैसियत टूट जाती है, समाप्त हो जाती है। और जहां विचार की स्वतंत्रता नहीं वहां बड़े पेट को लेकर क्या किया जा सकता है। उसका क्या उपयोग? उसका क्या अर्थ? आदमी को वेजिटेट नहीं करना है। आदमी को सिर्फ खाकर सो नहीं जाना है। आदमी को जिंदगी में खाना और सोना जरूरी है जरूर, लेकिन किन्हीं और बातों के लिए जरूरी है। उसके भीतर की आत्मा विकसित हो सके, असकी चेतना का फूल भी खिल सके; लेकिन नहीं, यह कुछ भी नहीं हो सकता। सिर्फ जड़ों को पानी मिल सकता है। फूल भर खिलाने की कोशिश मत करना। क्योंकि जब फूल खिलाने हैं तो व्यक्ति को मान्यता देना जरूरी है। समाजवाद, समूहवाद (कलेक्टिविज्म) यह समूह को मान्यता देता है। उसका कहना है कि समूह के लिए व्यक्ति की कुर्बानी दी जा सकती है। समूह जब ठीक समझे तो व्यक्ति की हत्या कर सकता है। समूह के हित में न हो तो व्यक्ति को मारा जा सकता है, लेकिन बड़े मजे की बात है--समूह कौन? राज्य! और राज्य कौन? स्टैलिन, माओ!
एक आदमी तय करेगा कि समूह की इच्छा क्या है। एक आदमी तय करेगा कि समूह के हित में क्या है, एक आदमी तय करेगा कि समूह का मंगल क्या है? और हत्या व्यक्ति की की जा सकती है, और किसी भी व्यक्ति की की जा सकती है, उन्हीं व्यक्तियों की जिनके समूह के लिए सब आयोजित किया जा रहा है और एक-एक व्यक्ति में हम सब आ जाते हैं।
बड़े मजे की बात है--लेकिन तर्क बड़ी फैन्सिज पैदा करता है। सोशलिज्म के पास, समाजवाद का एक फेलसियस तर्क है--एक बहुत भ्रांत तर्क। उसका कहना है, समाज सत्य है व्यक्ति नहीं। जबकि सच्चाई बिलकुल उलटी है। व्यक्ति सत्य है और समाज तो केवल व्यक्तियों के जोड़ का नाम है। समाज की कोई स्थिति नहीं है। समाज कहीं भी नहीं है। मैं बहुत बार खोजता फिरता हूं कि मुझे कहीं समाजवाद मिले, समाज मिल जाए। जहां भी जाता हूं, व्यक्ति ही मिलता है। आपके घर आता हूं समाज खोजने, आप मिल जाते हैं। दूसरे के घर जाता हूं, दूसरा मिल जाता है। समाज कहीं मिलता नहीं। समाज सिर्फ एक संज्ञा है, एक शब्द। व्यक्ति एक सत्य है और यह जो सत्य-व्यक्ति है, वह शब्द-समाज के लिए कुर्बान किया जा सकता है।
लेकिन माक्र्स की धारणा यह थी कि ऐतिहासिक प्रतिक्रिया समाज की चल रही है। जो भी बाधा डाले उसको समाप्त कर दो। समाज की ऐतिहासिक प्रतिक्रिया को आगे बढ़ना है, लेकिन कोई ऐतिहासिक प्रक्रिया नहीं चल रही है। मनुष्य अपना नियमतः चुनाव कर रहा है और अगर रूस ने यह तय किया हो कि वह कम्युनिस्ट है, सोशलिस्ट है या चीन ने तय किया है और यह भी पूरे विचार में तय नहीं किया--अगर चीन का पूरा समाज यह तय करे कि समाजवादी होना है तो हिंसा की कोई जरूरत न रह जाए। यह भी एक माइनारिटी तय करती है और पूरे मुल्क पर थोपती है, इसलिए हिंसा की जरूरत पड़ती है।
भाग्यवाद समाजवाद की बुनियादी गलतियों में से एक है। मैंने कहा कि यह मुल्क चुनाव कर सकता है, क्योंकि हम भाग्यवादी हैं पुराने। हम बहुत पुराने भाग्यवादी हैं और हम मानते ही हैं कि जो कर रहा है, भगवान कर रहा है। भगवान की जगह हिस्टरी को रख लेने में बहुत दिक्कत नहीं होगी। भगवान की जगह इतिहास के देवता को बिठा लेने में कौन सी कठिनाई है? माक्र्स कहता है, जो कर रहा है वह इतिहास कर रहा है। हम कहते है, जो कर रहा है वह भगवान कर रहा है।
हम इस मुल्क को ऐसे ही मानते रहे कि आदमी कुछ नहीं कर रहा है। माक्र्स सिर्फ इतना ही कहता है कि भगवान का थोड़ा नाम बदल कर हिस्ट्री कर दो, इतिहास कर दो, बस काम चल जाएगा। मंदिर के देवता के नीचे लिख दो इतिहास का देवता, फिर काम चल जाएगा। हम बहुत जल्दी से यह बदलाहट कर सकते हैं। हम भाग्यवादी कौम हैं। इसलिए मैं मानता हूं कि समाजवाद हमारे लिए बहुत बड़ा खतरा है। वह भी भाग्यवादी विचार है और हमसे भी ज्यादा भाग्यवादी विचार है, क्यांेकि हमारे भीतर तो शायद थोड़ी-बहुत सुविधा है कि ज्योतिष को बचा कर निकल गए और भाग्य को बचाने का कोई उपाय कर लें। लेकिन समाजवाद के पास भाग्य से बच कर निकलने का कोई उपाय नहीं। भाग्य चरम और अल्टीमेट है।
समाजवाद आना ही है, यह बड़ी खतरनाक बात है। हम चुनें और आए तब समझ में आता है। आना ही है तो खतरनाक बात है। लेकिन इसके प्रचार का परिणाम होता है। अगर लोगों के दिमाग में यह बात दोहराए चले जाओ कि समाजवाद आना ही है, आना ही है, आना ही है, तो धीरे-धीरे लोग यह सोचने लगते हैं कि आना ही होगा। जब कि चारों तरफ से यह बात चल रही है कि समाजवाद आना ही है। फिर प्रचार ने सौ वर्षों में सारी दुनिया के दिमाग में यह खयाल बिठा दिया है कि समाजवाद आना ही है। कोई लाने की बात नहीं है। लेकिन हम जो मान लेते हैं, वही हो जाता है।
उदाहरण के लिए मैं आपसे कहूं, आज से कोई एक सौ पचास वर्ष पहले यूरोप में एक पादरी ने घोषणा की कि अगले वर्ष प्रलय हो जाने वाला है और जो जीसस ने कहा था कि अब अंतिम दिन करीब आ रहा है और कयामत करीब आ रही है, इसलिए तैयार हो जाओ। पहले लोग हंसे, लेकिन वह चिल्लाए चला गया, समझाए चला गया। और आप हैरान होंगे कि ठीक उस रात जिसके दूसरे दिन प्रलय हो जाने वाली थी, अनेक लोगों ने मकान में आग लगा दी, और अनेक लोग घर छोड़ कर भाग गए और अनेक लोगों ने संपत्ति का त्याग कर दिया। उन्होंने कहा, जब कल बचना ही नहीं है तो क्यों न हम रिनन्सिएशन कर दें, क्यों न हम छोड़ दें और अनेक लोग जाकर खड़े हो गए सुबह नदियों और समुद्र-तटों के किनारे कि अब महाप्रलय आ रही है। सूरज निकल आया और महाप्रलय नहीं आई। दोपहर हो गई, महाप्रलय नहीं आई। फिर वे बड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि कोई घर जला आया था, कोई संपत्ति लुटा आया था, कोई बांट आया था। वह तो जिन्होंने भरोसा नहीं किया था, वे लोग बड़े फायदे में रहे। जब वे लौट कर आए तो देखा कि दुनिया वहीं की वहीं है। फकीर को ढूंढा, पादरी नदारथ था, वह मिला नहीं। उसका कहीं पता नहीं चला, वह कहां गया। उसने जब सूरज को उगते देखा होगा तो मुश्किल हो गई होगी।
रूस में एक आदमी ने यह प्रचार किया कि जीसस का एक वचन है, यही कोई पचास-साठ-सत्तर साल पहले कि जीसस का वचन है, प्रभु के नाम पर यूनॅक हो जाओ, प्रभु के नाम पर नपुंसक हो जाओ। ब्रह्मचर्य का मतलब--न स्त्री रह जाओ, न पुरुष रह जाओ। अपनी जननेंद्रियों को काट डालो। जो आदमी जननेंद्रिय के साथ पहुंचेगा उसको स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं मिलेगा। आप कल्पना नहीं कर सकते कि रूस में पचास हजार लोगों ने जननेंद्रियां काट डालीं। पता नहीं पहुंचे भगवान के घर कि नहीं। रूस के जार को नियम बनाना पड़ा कि कोई आदमी इस तरह का काम करे तो उसे फौरन सजा दी जाए, क्योंकि यह आग फैलने लगी जोर से कि भगवान के राज्य में वही पहुंच सकेगा, जो न स्त्री है, न पुरुष। अजब हैरानी की बात है, आदमी जिस बात के प्रचार से राजी हो जाए, बात सक्रिय हो जाती है तत्काल और उसकी सक्रियता एकदम शीघ्रता से फैलनी शुरू हो जाती है।
सौ वर्षों से सारी दुनिया को कहा जा रहा है कि समाजवाद अनिवार्य है। वह अनिवार्य हुआ जा रहा है। हिटलर ने अभी हमारे सामने एक मानसिक प्रयोग किया। उन्नीस सौ चैदह के युद्ध मंे जर्मनी हारा। उस युद्ध में हिटलर एक सिपाही था, साधारण सिपाही। हारने के बाद वह मिलिट्री से निकाल दिया गया। क्योंकि उसके पैर में चोट थी और वह मेडिकली अनफिट हो गया। पांच-सात सिपाहियों ने, जो मेडिकली अनफिट होकर बाहर निकाल दिए गए थे, अपनी पार्टी खड़ी की। कोई सोच भी नहीं सकता था कि ए सात आदमी सारी दुनिया के इतिहास को हिला डालेंगे और एक आदमी इनफिरिआरिटी का इतना उपद्रवी सिद्ध होगा।
उसने एक प्रचार करना शुरू कर दिया। प्रचार बहुत कारगर हुआ, क्योंकि लोगों की ईष्र्या को अपील कर गया। उसने लोगों से कहा कि हमारे हारने का कारण यहूदियों की अपवित्रता है। यहूदियों का कोई लेना-देना नहीं था। यहूदियों को भी पता नहीं था कि उनकी वजह से जर्मनी हार गया। जब उन्होंने सुना तो वे लोग हंसे। उन्होंने कहा कि क्या पागलपन की बात कर रहे हो। फिर वह पागलपन की बात करता चला गया। उसने जर्मनी के घर-घर यह खबर पहुंचा दी कि यहूदियों की वजह से हम हार गए। पहले तो जर्मनों ने भी सोचा, यह क्या पागलपन की बात है, यहूदियों की वजह से क्यों हारेंगे। यहूदियों बेचारों ने तो कुछ भी नहीं किया। लेकिन यह प्रचार जारी ही रहा। यह प्रचार धीरे-धीरे जोर पकड़ने लगा। यहूदियों के पास धन था। जर्मनी की सबसे बड़ी शक्तिशाली धन की सत्ता यहूदियों के पास थी, वे परेशान हो गए, गरीब मुल्क राजी हो गया कि यहूदियों ने गड़बड़ की, इनको लूटने की सुविधा है। वे लूटने के लिए राजी हो गए और हिटलर के साथ खड़े हो गए। आखिर यहूदियों की हत्या कर दी गई। कोई एक करोड़ यहूदी काट डाले गए। पूरा जर्मनी जैसा बुद्धिमान मुल्क राजी हो गया। पाकिस्तान बंटने के लिए जिन्ना ने यहां राजी कर लिया। एक दफा पक्का कर लिया कि बंट कर रहेगा और फिर बंट कर रहा।
इस वक्त जो समाजवाद की हवा चलती है कि आकर ही रहेगा, बड़ी खतरनाक बात है। समाजवाद अनिवार्यता नहीं है। हम चुनेंगे तो आ सकता है, वह भी हमारा चुनाव है। और चुनाव हमको सोच कर करने जैसा है। और बहुत से बिंदु हैं जिन पर कल-परसों की चर्चा में आप से बात करूंगा। आपके जो भी सवाल हों, वह मुझे लिख कर दे देंगे, ताकि उन सब पर बात हो सके।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में मैं सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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