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शनिवार, 10 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

प्रगतिशील कौन?


मेरे प्रिय आत्मन्!
सुना है मैंने, एक बहुत विचारशील महिला गुरड्रिस स्टेन अपनी मरणशय्या पर पड़ी थी। आखिरी घड़ी उसने आंख खोली है और पास में बैठे अपने एक मित्र से पूछाः ‘आह! अलास, वाॅट इ.ज द आनसर?’ पूछा अपने पास बैठे मित्र से कि अलास, उत्तर क्या है? पास बैठा मित्र बहुत हैरान हो गया होगा। क्योंकि सवाल न पूछा गया हो तो उत्तर कोई भी नहीं हो सकता है। लेकिन मरते हुए व्यक्ति से यह भी कहना उचित नहीं था कि सवाल क्या है। कोई उत्तर न पाकर उस मरती हुई महिला ने वापस दुबारा पूछाः इन दैट केस, वाॅट इ.ज दि क्वेश्चन? अगर सवाल का पता नहीं है, तो उस हालत में जवाब का पता नहीं हो तो उस हालत में सवाल क्या है? लेकिन सवाल का भी कोई पता नहीं है इसलिए अच्छा हो कि इसके पहले मैं जवाब दूं, सवाल ठीक से आपकी समझ में आ जाए। हू इ.ज प्रोग्रेसिव? कौन है प्रगतिशील?

पहली बात, रूढ़िवादी कौन है? हू इ.ज आॅर्थोडाक्स? इसे बताना बहुत आसान है। आॅर्थोडाक्स एक पत्थर की तरह है। वजन भी है उसमें, ठोसपन भी है उसमें। अतीत का इतिहास भी है उसके पास, रूप-रेखा भी है। हाथ में पकड़ा भी जा सकता है, इसलिए सदा से तय है कि रूढ़िवादी कौन है? आॅर्थोडाक्स कौन है? लेकिन प्रगतिशील कौन है--हू इ.ज प्रोग्रेसिव? हवा की तरह है बात! न कोई आकार है, न कोई रूप-रेखा है और हवा को जितनी जोर से पकड़ो उतनी ही मुट्ठी के बाहर हो जाती
है। और जिस दिन प्रोगे्रसिव पकड़ में आ जाता है कि यह रहा प्रोग्रेसिव उस दिन वह आॅर्थोडाक्स हो चुका होता है। इसीलिए पकड़ में आ जाता है। अगर परिभाषा हो सके कि कौन है प्रगतिशील, अगर यह पकड़ में आ सके, अगर यह मुट्ठी में बंद हो जाए तो समझना कि प्रगतिशील मर चुका है।
आॅर्थोडाक्स ही सिर्फ पकड़ में आता है। वह डिफाइनेबल है, उसकी व्याख्या हो सकती है।
प्रगतिशील का अर्थ ही यही है कि जिसका कोई संबंध अतीत से नहीं है, भविष्य से है। भविष्य अभी पैदा नहीं हुआ। जो पैदा हो गया है उसके संबंध में निश्चित हुआ जा सकता है कि वह क्या है और जिसका संबंध भविष्य से है उसके संबंध में बहुत निश्चित नहीं हुआ जा सकता है कि वह क्या है। क्योंकि उसका संबंध अनबार्न से है, वह जो नहीं पैदा हुआ है उससे। हम एक बूढ़े के संबंध में निश्चित हो सकते हैं कि वह क्या है। हम एक बच्चे के संबंध में निश्चित नहीं हो सकते हैं कि वह क्या है क्योंकि बच्चा अभी होने को है और जिस दिन हो चुका होगा उस दिन बच्चा नहीं होगा। उस दिन वह बूढ़ा हो गया होगा।
तो प्रगतिशील को ठीक से पकड़ने की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वह हवा की तरह है। और इसी से एक दूसरी बड़ी महत्वपूर्ण बात खयाल में आ सकती है, वह यह कि, दुनिया में जितनी आॅर्थोडाक्सी हैं वे सब कभी प्रगतिशील थीं। बुद्ध अपने जमाने में प्रगतिशील थे लेकिन जिस दिन पकड़ में आ गए हैं उस दिन से आॅर्थोडाक्स हो गए हैं। महावीर अपने जमाने में प्रगतिशील थे लेकिन जैन प्रगतिशील नहीं है। वे महावीर को पकड़ लिए हैं, महावीर बंद हो गए हैं, मुट्ठी बंद हो गई है। जीसस क्राइस्ट अपने जमाने में प्रगतिशील थे। ईसाई, प्रगतिशील नहीं हैं। क्राइस्ट मुट्ठी में, पकड़ में आ गए हैं। जिस क्षण भी प्रगतिशील पर मुट्ठी बंध जाती है, उसी क्षण रूढ़ि पैदा हो जाती है, उसी क्षण परंपरा पैदा हो जाती है।
इसलिए पहली कठिनाई आपको साफ कर दूं कि प्रगतिशील शब्द इनडिफाइनेबल है, उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। हां उसकी व्याख्या ऐसे ही हो सकती है जैसे हम स्वास्थ्य की व्याख्या करते हैं। हम कहते हैं, जो आदमी बीमार नहीं है वह स्वस्थ है। लेकिन यह स्वास्थ्य की परिभाषा न हुई, यह तो बीमारी की चर्चा हुई। जब भी हमें स्वस्थ आदमी की व्याख्या करनी हो कि कौन स्वस्थ है तो कहना पड़ता है, जो बीमार नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। सिर्फ बीमारी की परिभाषा होती है। और जब बीमारी नहीं होती है तो जो शेष बच जाता है, दि रिमेनींग, वह स्वास्थ्य होता है।
रूढ़ि की परिभाषा हो सकती है, आॅर्थोडाक्सी की परिभाषा हो सकती है। और जिस आदमी के भीतर रूढ़ि नहीं होती है वह प्रगतिशील होता है। प्रगतिशील की सीधी परिभाषा नहीं हो सकती है। वह जो रूढ़िग्रस्त नहीं है, वह जो आॅर्थोडाक्स नहीं है--निगेटिव, नकारात्मक परिभाषा ही हो सकती है। और यह बड़े मजे की बात है कि जिंदा चीजों की परिभाषा सदा नकारात्मक होती है। सिर्फ मरी हुई चीजों की परिभाषा पाजिटिव होती है। जो चीज मरी होती है, ‘वी कैन डिफाइन इट पाजिटिवली एण्ड दैट व्हीच इ.ज लिविंग कैन ओनली बी डिफाइंड निगेटिवली।’ असल में जिंदगी मुट्ठी में पकड़ में नहीं आती, सिर्फ मौत पकड़ में आती है। तो जो चीज मरी हुई है उसकी हम परिभाषा कर सकते हैं। हम कह सकते हैं, मशीन क्या है। हम कह सकते हैं कि कुर्सी क्या है। हम नहीं कह पाते कि आदमी क्या है। हम कह सकते हैं कि बीमारी क्या है। हम नहीं कह पाते कि स्वास्थ्य क्या है। जो भी चीज जीवित है, जो भी लिविंग है वह मुट्ठी के बाहर हो जाती है, वह हवा की तरह हो जाती है।
प्रेम की परिभाषा नहीं हो सकती, विवाह की परिभाषा हो सकती है। क्योंकि मैरिज मरी हुई चीज है। प्रेम एक जिंदा चीज है। इसलिए विवाह के संबंध में अदालतों में मुकदमे लड़े जा सकते हैं और डेफिनेशन हो सकती है। लेकिन प्रेम के संबंध में कोई डेफिनेशन नहीं हो सकती। अब तक प्रेम पर बहुत कविताएं लिखी गई हैं लेकिन डेफिनेशन अब तक नहीं लिखी गई। उसकी कोई परिभाषा न हो सकी--प्रेम क्या है। विवाह की परिभाषा सुनिश्चित है। विवाह क्या है, इसे तय किया जा सकता है, वह मरी हुई चीज है। सब मरी हुई चीजें तय हो जाती हैं। जिंदा चीजें तय नहीं होतीं। यह जिंदा होने का एक लक्षण है। तो पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा कि प्रगतिशील चित्त जिंदा चित्त है, लिविंग माइंड। इसलिए उसकि परिभाषा नकारात्मक होगी, निगेटिव होगी--वह जो रूढ़िगस्त नहीं है। तो ठीक से समझें कि रूढ़िग्रस्त कौन है, तो शायद प्रगतिशील कौन है उसकी तरफ इशारा हो सके।
साधारणतः हमारा मन अतीत से निर्मित होता है--पास्ट ओरिएंटेड होता है। हम जो भी जानते हैं वह अतीत से आता है। यह बड़े मजे की बात है कि जो भी हम जानते हैं वह अतीत से आता है और जो भी जीवन है वह भविष्य से आता है। इसीलिए जीवन और जानने में तालमेल कहीं भी नहीं होता। जो बहुत ज्यादा जानने को जोर से पकड़ लेते हैं, जो ज्ञान को बहुत जोर से पकड़ लेते हैं उनके जिंदगी से संबंध टूट जाते हैं। और जिन्हें जिंदगी से संबंध जोड़ना है उन्हें ज्ञान से संबंध तोड़ने पड़ते हैं। ज्ञान बहुत रूपों में उपलब्ध होता है--शास्त्रों में उपलब्ध होता है, परंपराओं में उपलब्ध होता है, गुहाओं में उपलब्ध होता है, फिलासफी में, आइडियोलाॅजी में उपलब्ध होता है। जहां से भी ज्ञान कोई पकड़ लेगा जोर से वह प्रगतिशील नहीं रह जाएगा। प्रगतिशील होने के लिए अनिवार्य है कि हम अतीत के ज्ञान को न पकड़ें। भविष्य के लिए ओपनिंग तभी हो सकती है जब हम अतीत के प्रति जोर से पकड़ नहीं लिए गए हैं। जिसने अतीत को जोर से पकड़ लिया है वह भविष्य के प्रति बंद हो जाता है। वह प्रगतिशील नहीं रह जाता।
अगर कोई आदमी कहता है--मैं जैन हूं, तो वह प्रगतिशील नहीं हो सकता। क्योंकि जैन होना अतीत से बंधा हुआ है। भविष्य से उसका क्या नाता है! वह पच्चीस सौ वर्ष पहले महावीर हुए, उनसे बंधा हुआ है। अगर कोई कहता है कि मैं ईसाई हूं तो वह दो हजार साल पहले जो जीसस क्राइस्ट हुए उनसे बंधा हुआ है। भविष्य से उसका क्या नाता है! अगर कोई कहता है, मैं हिंदू हूं तो वह प्रगतिशील नहीं हो सकता। क्योंकि हिंदू होने की सारी व्यवस्था अतीत से आती है, भविष्य से हिंदू होने का क्या नाता है! अगर कोई कहता है, भारतीय हूं, पाकिस्तानी हूं, चीनी हूं, तो वह प्रगतिशील नहीं हो सकता। क्योंकि ये सारी की सारी बातें अतीत से जुड़ी हुइ हैं। इनका भविष्य से कोई नाता नहीं है।
पहली बात ठीक से समझ लेनी जरूरी हैः हम अपने व्यक्तित्व को अतीत से निर्मित करते हैं, अतीत से बांधते हैं।...टु दि पास्ट। बंधे हैं जैसे बैल खूंटियों में बंधे होते हैं ऐसे हम अतीत की खूंटियों से बंधे हैं। अगर हम अतीत की खूंटियों से बंधे हैं तो हम प्रगतिशील नहीं हो सकते। हम बीमार हैं, रुग्ण हैं, रूढ़िग्रस्त हैं, परंपरावादी हैं, ट्रेडिशनलिस्ट हैं, प्रोग्रेसिव नहीं हो सकते। अतीत से जो चित्त मुक्त है वह भविष्य के प्रति खुला हुआ हो जाता है। अतीत से जो बंधा है, वह बंद हो जाता है और यह भी ध्यान रहे कि अतीत अब कभी नहीं आएगा--न राम लौटेंगे, न बुद्ध, न कृष्ण, न क्राइस्ट, न मोहम्मद। इसलिए जो भी उनसे बंधे हैं वे कब्रों से बंधे हैं। उन्हंे यह ठीक से समझ लेना चाहिए। न गीता फिर लौटेगी, न रामायण लौटेगी, न वेद लौटेंगे, न बुद्ध के वचन, न बाइबिल। जो उन किताबों से बंधे हैं वे अतीत की राख से बंधे हैं। जो अतीत की राख से बंधा है, किसी भी स्थिति में वह प्रगतिशील नहीं है। इसलिए पहली नकारात्मक परिभाषा मैं यह करना चाहूं कि जो अतीत से मुक्त है, जो अतीत से बंधा नहीं है और जिसकी आंखें भविष्य को देखने के लिए खुली हैं, जिसकी कोई धारणा नहीं है, जिसके पास बंधा हुआ कोई ज्ञान नहीं है, जिसके पास कोई शास्त्र नहीं है, जिसके पास कोई ‘इज्म’ नहीं है।
ध्यान रहे, यह तो हमारी समझ में आ जाता हैं कि हिंदू प्रगतिशील नहीं है, यह भी समझ में आ जाता है कि ईसाई प्रगतिशील नहीं है, लेकिन शायद हम सोचते हों, कम्युनिस्ट प्रगतिशील हैं तो हम भूल में पड़ जाते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप दो हजार साल पुरानी बात से बंधे हैं कि सौ साल पुरानी बात से बंधे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप बाइबिल से बंधे हैं, कैपिटल से बंधे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोहम्मद से बंधे है, माक्र्स से बंधे हैं। पीछे की तरफ जो बंधा है वह आदमी प्रगतिशील नहीं है। और आगे की तरफ कोई ‘इज्म’ नहीं होता। आगे की तरफ कोई वाद नहीं होता, आगे की तरफ कोई शास्त्र नहीं होता। क्योंकि जो शास्त्र अभी पैदा हुआ है उससे बांधिएगा कैसे! और जो सिद्धांत अभी निर्मित नहीं हुआ है उससे बंधने का उपाय नहीं है। जो खूंटी अभी गढी नहीं गई उससे अपने को कैसे जंजीर में बांधिएगा?
प्रगतिशील होने का अर्थ हैः वह जो अतीत है, वह जो बीता हुआ है, जो मर चुका है, जो जा चुका है, वह जो राख हो चुका है, वह जो मरघट में है, कब्रिस्तान में है--उससे मुक्त। लेकिन बहुत कठिन है यह बात। बहुत कठिन है यह बात, क्योंकि इतने रास्तों से हमें अतीत जकड़ता है कि हमें पता भी नहीं लगता। हमें छोटी-छोटी बातों का खयाल नहीं रह जाता कि वे हमारे अतीत से जकड़ी हुई हैं। दो-चार छोटे उदाहरण दंूः
आदमी ने सबसे पहले कपास पैदा किया और फिर आपने कपड़े बनाए। अब आदमी ने सिंथेटिक चीजें पैदा कर ली हैं जिनसे कपड़ा बनता है। लेकिन वह उन सिंथेटिक चीजों के साथ वही व्यवहार करता है जो उसने दस-बीस हजार साल तक पहले कपास के साथ किया था। अब प्लास्टिक का कपड़ा बन सकता है, और सिंथेटिक कपड़े बन सकते हैं लेकिन पहले इस सिंथेटिक मैटीरियल से हम सूत निकालेंगे। इसके निकालने की कोई जरूरत नहीं है। कपास से सूत निकालना जरूरी था। सूत को निकाल कर फिर हम बुनते हैं, फिर दर्जी उसे काटता है, फिर कपड़ा बनाता है। यह बीस हजार साल पहले ठीक था लेकिन आज हमने वह चीजें बना ली हैं। जिनसे कपड़े सीधे ढाले जा सकते हैं। जिनको अब सूत बनाना, पागलपन है। जिनसे कपड़ा सीधा ही ढल सकते हैं और अब कपड़े को दर्जी काटे और बनाए, यह भी पागलपन है क्योंकि कमीज सीधी ही ढाली जा सकती है, कोट सीधा ही ढाला जा सकता है। कपास से हम मुक्त हो गए हैं लेकिन कपास के साथ जो व्यवहार हमने किया था वह हम किए चले जायेंगे। उसकी अब कोई जरूरत नहीं है।
हम सात साल मे बच्चों को स्कूल भेजते हैं। कोई नहीं बता सकता दुनिया में कि सात साल कैसे तय किए हैं आपने स्कूल में भेजने के लिए। कैसे तय कर लिया? कौन सा मापदंड है इसके तय करने का? सात साल में बच्चे की कौन सी मानसिक व्यवस्था है जिससे हम उसे सात साल में स्कूल भेजें। अगर हम आधुनिक खोजों का अन्वेषण करें तो बड़ी हैरानी मालूम पड़ती है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहता है कि चार साल में बच्चा अपनी जिंदगी का पचास प्रतिशत सीख लेता है, फिर बाकी पचास प्रतिशत शेष उम्र में सीखेगा। तो सात साल के बच्चे को भेजना तो खतरनाक है। वह आधा तो सीख ही चुका, वह आधा प्रौढ़ तो हो ही चुका। लेकिन सात साल कैसे तय किए हैं। बड़ा आरबिट्री है, लेकिन बड़ी अजीब बात से तय हए थे। स्कूल थे थोड़े, और बहुत दूर-दूर से बच्चों को आना पड़ता था। सात साल से कम उम्र के बच्चे भेजे नहीं जा सकते थे। इतना कारण था। लेकिन अब स्कूल बहुत पास हैं, भेजने की पूरी व्यवस्था है लेकिन सात साल के बच्चे ही भेजे जाते रहंेंगे। जैसे-बच्चे की उम्र बड़ी होती है उसके सीखने की क्षमता कम होती चली जाता है। सात साल के बच्चे को स्कूल भेजना करीब-करीब ऐसे बच्चे को स्कूल भेजना है जो इतना सीख चुका कि अब नया सीखना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
वेजनर एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ था। अपने घर के सामने उसने एक तख्ती लगा रखी थी। उसमें उसने लिखा हुआ था कि जो संगीत बिलकुल नहीं जानते उनकी फीस...और जो लोग संगीत जानते हैं वह अगर सीखने आएं तो उनकी फीस...जो संगीत जानते थे उनकी डबल फीस लिख रखी थी। जब भी कोई संगीत जानने वाला आता, वह कहता कि हम तो काफी सीख चुके हैं, तो हमसे तो कुछ कम फीस लेना चाहिए। हम आपको कम तकलीफ देंगे। वेजनर कहता है कि तुमसे ही मुझे तकलीफ पड़ेगी क्योंकि तुम जो सीख चुके हो, पहले वह भुलाना पड़ेगा। तुम्हारे साथ दोहरी झंझट है। तुम कोरी स्लेट नहीं हो, पहले तुम्हें पोंछना पड़ेगा। सात साल के बच्चे को भेजना खतरनाक है। लेकिन एक बड़ी अजीब सी बात ने तय की थी यह बात, कि सात साल से छोटे बच्चे को अकेले दूर की यात्रा पर नहीं भेजा जा सकता था। उतने दूर भेजने के लिए कम से कम सात साल का हो जाना जरूरी था। तो हम सात साल के बच्चे को भेजते रहे।
हमने अपनी जितनी नैतिकता तय की है, हमारे खयाल में नहीं है कि उसके तय करने के कारण बहुत पहले समाप्त हो चुके हैं। लेकिन नैतिकता जारी है और अगर उसमें से कुछ टूटता है तो हम बड़े बौखला जाते हैं, हम बड़े परेशान हो जाते है। हमेशा बाप को आदर था सारी दुनिया में। और नैतिक भेद हो, लेकिन पिता को सदा आदर था। उसके आदर का कारण पिता होना नहीं था। क्योंकि अगर पिता होना ही आदर का कारण हो तो आज भी मिट नहीं सकता क्योंकि पिता आज भी पिता ही है। आदर का कारण दूसरा था, वह कारण समाप्त हो गया लेकिन पिता आदर को मांगे चला जा रहा है। आदर का कारण बहुत ही अजीब था।
जीसस के मरने के साढ़े अठारह सौ वर्षों में जितना ज्ञान विकसित हुआ उतना पिछले डेढ़-सौ वर्षों में हुआ और जितना पिछले डेढ़ सौ वर्षों में हुआ उतना पिछले पंद्रह वर्षों में हुआ और जितना पिछले पंद्रह वर्षों में हुआ उतना पिछले पांच वर्षों में हुआ और जितना पिछले पांच वर्षों में हुआ, आने वाले ढाई वर्षों में होगा। अठारह सौ वर्षों में जब ज्ञान इतना बढ़ता था जितना अब ढाई वर्ष में बढ़ता है तो बाप सदा बेटे से ज्ञानी होता था, अनिवार्य रूप से। अनिवार्य रूप से बाप ज्यादा जानता था, बेटा कम जानता था। अब हालत बिलकुल उलट गई है, बदल गई है। अब बेटा बाप से ज्यादा जानता है और रोज-रोज ज्यादा जानेगा। इसलिए अब बाप को पुराना आदर दिया जाना संभव नहीं है। लेकिन आदत पुरानी है। वह जिसको हम प्रगतिशील बाप कहते हैं वह भी सोचता है कि बेटा उसे आदर दे। नहीं, आदर का कारण ज्ञान था।
पुरानी दुनिया में जितनी ज्यादा उम्र होती उतना ज्यादा ज्ञान होता था, स्वभावतः। क्योंकि अनुभव से ज्ञान मिलता था। अब बाप तीस साल पहले युनिवर्सिटी में पढ़ा था। तीस साल में दुनिया में सारा ज्ञान बदल गया है। बेटा तीस साल बाद पढ़ कर आ रहा है। बेटा ज्यादा ताजी खबर लेकर आ रहा है। बाप एक अर्थ में आउट आफ डेट है, और अब अगर बाप को सीखना है तो बेटे से पूछना चाहिए कि नया क्या है, लेकिन बाप की आदत पुरानी है। पुरानी-सदियों से उसकी आदत है, बेटे को सिखाने की। अगर अब वह जिद्द करेगा बेटे को सिखाने की और बेटा बगावत करे तो हम कहेंगे, यह बड़ी अनैतिकता है, बड़ी इम्माॅरेलिटी, बड़ी इनडिसिप्लिन पैदा हो रही है। नहीं, कोई इनडिसिप्लिन नहीं पैदा हो रहा है, कोई अनैतिकता पैदा नहीं हो रही है, सिर्फ आपकी नैतिकता समय के बाहर हो गई है। सिर्फ आपकी नैतिक व्यवस्था जिस जीवन व्यवस्था में मौजूद थी वह जीवन व्यवस्था बदल गई है और आप उसको ही थोपे चले जा रहे हों। गुरु का पैर छूता था विद्यार्थी, छूने योग्य थी बात। गुरु और विद्यार्थी के बीच इतना डिस्टेंस था, कि गुरु के पैर ही छू ले विद्यार्थी, यह भी बहुत निकट आना हो जाता था। यह भी बड़ी निकटता थी। गुरु और विद्यार्थी के बीच बड़ा फासला था।
आज युनिवर्सिटी का अगर ठीक बुद्धिमान विद्यार्थी हो तो प्रोफेसर और उसके बीच घंटे भर से ज्यादा का फासला नहीं होता। वह जो घंटे भर पहले तैयार करके आया है उतना ही फासला होता है। अब घंटे भर के फासले पर पैर छुआने की आकांक्षा खतरनाक है। यह नहीं हो सकता। और अगर विद्यार्थी बुद्धिमान है, तो शिक्षक से सदा ज्यादा जान सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं रह गई। मीडियाकर शिक्षक और अगर प्रतिभाशाली विद्यार्थी है तो ज्यादा जान सकता है। अब इस विद्यार्थी को अगर हम पैर छूने का आग्रह करें तो हम इसको सिर तुड़वाने के लिए निमंत्रण दे रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
यह नहीं हो सकता। यह बात समाप्त हो गई है। लेकिन हमें समझने में बहुत देर लगती है। जिंदगी बदल जाती है और आदतें हमारी पुरानी बनी चली जाती हैं। हम उन्हीं को दोहराए चले जाते हैं। हम जिंदगी के बहुत से तलों पर आॅर्थोडाक्स ही होते हैं लेकिन हमें अपनी आॅर्थोडाक्सी दिखाई नहीं पड़ती। हमारी रूढ़िवादिता दिखाई नहीं पड़ती है। हो सकता है, हम मंदिर न जाते हों तो हम सोचते हों कि हम प्रगतिशील हैं। लेकिन मंदिर न जाने वाले लोग जमीन पर सदा से रहे हैं। और वेद के जमाने में भी चार्वाक था। जितना वेद पुराना है उतना ही चार्वाक भी पुराना है। अगर आप मंदिर नहीं जाते तो आप कोई प्रगतिशील नहीं हो जाएंगे। अगर एक आदमी ईश्वर को इनकार कर देता है, सोचता है, प्रगतिशील है! ईश्वर को इनकार करने वाले लोग उतने ही पुराने हैं जितने ईश्वर को स्वीकार करनेवाले लोग हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप बहुमत की आॅर्थोडाक्सी के पक्ष में हैं कि अल्पमत की आॅर्थोडाक्सी के पक्ष में हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है। नास्तिक हमेशा अल्पमत में रहा है। उसके पास माइनारटी रही है। लेकिन वह भी बहुत पुराना है। इसलिए कोई आदमी नास्तिक होकर समझता हो कि मैं प्रगतिशील हो गया हूं तो वह भ्रम में है। क्योंकि आस्तिकता जितनी पुरानी है नास्तिकता उतनी ही पुरानी है। दोनों ही रूढ़ियां हैं।
फिर प्रगतिशील कौन है? जो आदमी आस्तिकता और नास्तिकता दोनों से मुक्त हो गया है, उसे मैं प्रगतिशील कहता हूं। लेकिन बड़ा मुश्किल है। आस्तिक से नास्तिक बन जाना आसान है, नास्तिक से आस्तिक बन जाना आसान है, दोनों से मुक्त हो जाना बहुत कठिन है। क्योंकि वैक्यूम में डर लगता है, खाली में डर लगता है। कुछ तो होना ही चाहिए। अगर मैं हिंदू नहीं हूं तो मुझे मुसलमान होना चाहिए। अगर मुसलमान नहीं हूं तो ईसाई होना चाहिए। अगर ईसाई, हिंदू, मुसलमान कोई नहीं हूं तो कम्युनिस्ट होना चाहिए--कुछ न कुछ मुझे होना चाहिए। ध्यान रहे, जो आदमी कुछ भी है वह आॅर्थोडाक्स होगा। प्रगतिशील आदमी कुछ भी न होने की हिम्मत का नाम है। वह इस करेज का नाम है कि वह कहता है कि मैं किसी भी लेबल के साथ नहीं हूं। सब लेबल पुराने हैं। मैं बिना लेबल के जीने की कोशिश करूंगा।
अभी एक ट्रेन में मैं सवार हुआ। एक मित्र यहां से सवार हुए, बंबई से ही। बहुत से मित्र मुझे छोड़ने आए थे। किसी ने फूलमाला पहनाई, किसी ने पैर छुए। वह मित्र खड़े-खड़े देखते रहे और हम आमतौर से सोचते हैं कि बच्चे नकल करते हैं--ऐसा नहीं है। बूढ़े भी आमतौर से नकल ही करते हैं। जब सब मित्र मेरे पैर छूकर के चले गए तो उन्होंने जल्दी साष्टांग जमीन पर छुआ, और पैर छुआ। मैंने उनसे कहाः यह पैर आप मेरे छू रहे हैं या उन लोगों के छू रहे हैं जो मेरे पैर छूकर चले गए हैं? उन्होंने कहाः उनसे क्या मतलब, मैं आपके पैर छू रहा हूं। आप महात्मा हैं। मैंने कहाः तुमने पहले पक्का पता भी नहीं लगाया कि मैं महात्मा हूं या नहीं। तुमने पैर छू लिए। अब अगर मैं महात्मा न निकला तो तुम यह वापस कैसे लोगे? उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, आप मजाक कर रहे हैं। लेकिन उनके चेहरे पर घबड़ाहट आ गई कि पता नहीं--क्योंकि ऐसा महात्मा मिलना मुश्किल है जो इनकार करता हो कि महात्मा नहीं हैं। महात्मा प्रचार करता है, महात्मा होने का। उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, आप मजाक कर रहे हैं। मैंने कहा कि महात्मा और मजाक कैसे करेगा। अगर मजाक कर रहा हूं तो इससे भी तय होता है कि मैं महात्मा नहीं हूं। उन्होंने मुझे गौर से देखा और कहा कि आप हिंदू तो हैं? उन्होंने सोचा, छोड़ो महात्मा नहीं है, जाने दें, लेकिन कहीं किसी मुसलमान के पैर तो नहीं छू लिए। मैंने कहाः इतना तो पक्का मानो कि मैं हिंदू नहीं हूं। उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, आप कैसी बात कर रहे हैं, आप बिलकुल देखने से हिंदू मालूम पड़ते हैं। मैंने कहाः देखने से कोई हिंदू होने का संबंध हो सकता है? देखने से क्या वास्ता है? नहीं, उन्होंने कहाः मैं नहीं मान सकता। आप बिलकुल हिंदू मालूम पड़ते हैं। मैंने कहाः तुम अगर अपने पैर छूने की तकलीफ से बचना चाहते हो तो मान ले सकते हो कि मैं हिंदू हूं। लेकिन मैं हिंदू नहीं हूं। वह आदमी थोड़ी देर चुप बैठा रहा। उसने कहाः फिर कृपा करके बताइए, आप हैं कौन? तो मैंने कहाः मैं क्या, ‘मैं’ ही नहीं हो सकता हूं? मुझे कोई लेबल होना ही पड़ेगा? आप कोई तो होंगे, उस आदमी ने कहा। मैंने कहाः जो मैं हूं, मैं सामने ‘मौजूद’ हूं।
लेकिन वह आदमी किसी खांचे में रखना चाहता है, क्योंकि हम खांचे में रख दें किसी को, तो वह मुर्दा हो जाता है। उसके साथ फिर आसानी हो जाती है। जिंदा आदमी के साथ कठिनाई है। अगर उसे पक्का पता चल जाए कि मैं महात्मा हूं तो रात शांति से सो सकता हूं। अगर पता लग जाए कि मैं गुंडा हूं तो रात भर शांति से नहीं सो सकेगा। अगर उसे पता चल जाए कि हिंदू हूं तो सजातीय, अपनी ही जाति का जानवर है। अगर पता चला जाए कि मुसलमान हूं तो जरा विजातीय जाति का जानवर हूं। फिर जरा सचेत रहना पड़ेगा। पता नहीं छुरा भोंक दे, पता नहीं क्या करे। तो वह आदमी मेरे साथ एट इ.ज होना चाहता है। असल में वह यह मानना चाहता है कि मैं आपके बाबत पूरी जानकारी कर लुं तो खतरा न रह जाए। अनजान से खतरा होता है। लेकिन मैंने कहा, मुझे यह पता नहीं कि रात मैं क्या करूंगा। मुझे खुद भी पता नहीं। रात अभी आई नहीं। मैं बाथरूम में गया। उस आदमी ने कंडक्टर को कहा कि मेरा सामान दूसरे कमरे में रखवा दें। जब मैं लौट कर आया तो मैंने कहा, वह आदमी कहां गया। तो उस कंडक्टर ने कहा कि वह बहुत घबड़ा गया है और दूसरे कमरे में चले गए है। सुबह मैं उनके कमरे के सामने से निकलता था तो मैंने कहा, आप भी मजाक में आ गए! उस आदमी ने वापस मेरे पैर छुए। उसने कहा मैं तो रात ही कह रहा था कि आप महात्मा हैं। मैंने कहा, अब तुम फिर गलती कर रहे हो। मैं मजाक ही कर रहा हूं!
हमें कुछ न कुछ होना ही चाहिए। यह आॅर्थोडाक्स चित्त का लक्षण है, रूढ़िग्रस्त चित्त का लक्षण है। असल में जिस आदमी ने चाहा कि मैं यह हूं, उसने भविष्य में और कुछ होने से इनकार कर दिया। वह आदमी मर गया उसी दिन जिस दिन हो गया। जिस दिन उसने कहा, मैं यह हो गया हूं उस दिन वह मर गया। अब भविष्य नहीं है उसका कोई। इसलिए अकसर ऐसा होता है कि हमारे मरने का दिन और होता है, दफनाए जाने का दिन और होता है। इसमें चालीस साल का फासला होता है। अक्सर लोग तीस साल में मर जाते हैं और सत्तर साल में दफनाए जाते हैं। दफनाए जाने की वजह से हम सोचते हैं कि सत्तर साल में मरे।
अभी हिप्पियों ने अमरीका में एक नया नारा दिया है, वह बहुत बढ़िया नारा है। उनका नारा यह है कि तीस साल के ऊपर के आदमी का भरोसा ही मत करो। बात ठीक लगती है। तीस साल के ऊपर का आदमी का भरोसा जरा मुश्किल है। क्योंकि तीस साल के ऊपर का आदमी इतना चालाक हो जाता है कि जिंदा नहीं रह सकता। तीस साल के ऊपर का आदमी इतना समझदार हो जाता है कि जिंदगी उसे खतरनाक मालूम पड़ने लगती है। वह मरना शुरू कर देता है। वह आदमी कम रह जाता है--यंत्र-व्यवस्थित, एस्टैब्लिशमेंट सेटल्ड ज्यादा हो जाता है। रूढ़िग्रस्त आदमी का मतलब यह है कि जिसके संबंध में हम कह सकते हैं, वह यह है, कम्युनिस्ट है, हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है। प्रगतिशील आदमी के संबंध में हम कुछ भी नहीं कह सकते। वह जीवन की अज्ञात धारा है। उसके बाबत कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि वह क्या है। वह मरते क्षण तक कुछ होता रहेगा। वह मर नहीं गया है। वह होता ही रहेगा।
इसलिए दूसरी बात आपको याद दिलाऊं, कि आॅर्थोडाक्स आदमी हमेशा कंसिस्टेंट होता है, हमेशा संगत होता है। उसकी बातों में, उसके जीवन में एक संगति होती है। उसकी जिंदगी में एक गणित होता है, एक व्यवस्था, एक सिस्टम होती है। प्रगतिशील आदमी की जिंदगी में व्यवस्था नहीं हो सकती है। उसमें एक अराजकता होती है, एक अनारकी होती है। लेकिन ध्यान रहे, जितना जीवन होगा उतनी अराजकता होगी। और जितनी मृत्यु होगी उतनी व्यवस्था होगी। अगर हम प्रगितिशील आदमी के संबंध में एक बात कहना चाहें तो यह कह सकते हैं, ही इज कंसिस्टेंटली इनकंसिस्टेंट। एक ही उसमे सातत्य होता है, एक ही संगती होती हैं, कि वह रोज जो उसने कल कहा था उसे गलत कर सकता है। क्योंकि वह कल समाप्त नहीं हो गया। वह आज भी जिंदा है। वह आज फिर निर्णय लेगा।
वानगाॅग एक दिन अपना चित्र बना रहा था और एक मित्र उससे मिलने आए हैं। उसने वानगाॅग से पूछा कि तुम्हारा सबसे अच्छा चित्र कौन सा है तो वानगाॅग ने कहा, जो मैं बना रहा हूं। उसके मित्र ने कहाः इसके पहले बनाए गए चित्र? उन्होंने कहाः वह वानगाॅग भी मर गया, वह चित्र भी मर गया। जो मैं बना रहा हंू यह मेरा सबसे अच्छा चित्र है। क्योंकि अभी मैं भी जिंदा हूं। अभी चित्र भी जिंदा है। कंसिस्टेंट होने का मतलब यह है कि हम सदा पीछे की तरफ देख कर जीएंगे। हम अपनी जिंदगी को सदा अतीत से निर्भर करेंगे--पास्ट ओरिएनटेड होगी जिंदगी।
एक युवती कल मेरे पास आई और उसने कहा कि मैं ब्रह्मचर्य का व्रत लेना चाहती हूं। मैंने कहाः तुम व्रत लोगी, लेकिन कल जो तुम्हारे जीवन में आएगा उसने अगर व्रत न माना तो क्या करोगी! उसने कहा कि नहीं, मैं इसीलिए तो आपके पास कसम खाने आई हूं। आप गवाह हैं कि मैं व्रत को पालूंगी। तो मैंने कहा कि क्या तुम्हें पता है, इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि कम समझदार ज्यादा समझदार के बाबत निर्णय ले रहा है। कल चैबीस घंटे बीत चुके होंगे। चैबीस घंटे ने जिंदगी को और समृद्ध किया होगा। लेकिन तुम चैबीस घंटे पीछे के निर्णय से बंधी होओगी। वर्ष बीत जाएंगे, जिंदगी और बहुत कुछ जानेगी, जो तुमने व्रत लेते वक्त नहीं जाना था। जिस दिन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था उस दिन तुम्हारे ज्ञान से ज्यादा ज्ञान होगा दो साल बाद। लेकिन तुम्हारा व्रत बाइंडिंग होगा। दो साल वाले आदमी के लिए बाइंडिंग होगा। मैं अपने बेटे के लिए कसम नहीं खा सकता। मैं अपने भविष्य के लिए भी कैसे कसम खा सकता हूं!
प्रगतिशील व्यक्ति भविष्य के संबंध में अतीत से बंधन नहीं मानता। निश्चित ही बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि हम अगर एक व्यवस्था में जीते हों तो समाज हमारे बाबत निश्चिंत हो सकता है कि यह आदमी क्या करेगा और क्या नहीं करेगा! क्या है, क्या नहीं है! इसलिए समाज सदा ही आर्थोडाक्सी को पंसद करता है। समाज प्रगतिशील व्यक्ति को पंसद नहीं करता। और बड़े मजे की बात है कि दुनिया को, समाज को जो भी श्रेष्ठ दिया है वह प्रगतिशील लोगों ने दिया है। जिंदगी में जो भी समृद्धि आई है, ज्ञान आया है, सुख आया है वह प्रगतिशील लोगों ने दिया है। लेकिन समाज प्रगतिशील लोगों को सूली देने के सिवाय और कुछ देना नहीं जानता। उसका प्रत्युत्तर सिर्फ सूली का है। क्योंकि समाज के लिए खतरा है। समाज चाहता है कंसिस्टेंसी, समाज चाहता है, जो कह रहा है, कल उसे जिंदगी भर पूरा करना। समाज चाहता है कि बच्चा पैदा हो और मरने तक की कसम खाले और मरने तक वही हो जो बचपन में पैदा होकर उसने शुरू किया...यह असंभव है। यह जिंदगी के खिलाफ है और इसीलिए हम सब मिल कर बच्चों को मारने में लग जाते हैं।
हम जिसे संस्कार कहते हैं, शिक्षा कहते हैं वह सबका सब बच्चों को मारने की चेष्टा है। इसके पहले कि बच्चों की जिंदगी प्रकट हो, हम उसको मार कर सब तरफ से खत्म कर देंगे। और एक मुर्दा आदमी बना देंगे जो जिंदगी भर कंसिस्टेंट होगा। खाई हुई अतीत की कसमों के साथ दिए गए अतीत के वचनों के साथ, लिए गए सिद्धांतों के साथ सदा ही संगत होगा। यह आदमी नहीं है, यह मशीन है। लेकिन मशीन कुशल होती है, मशीन एफिशिएंट होती है, क्योंकि मशीन वही करती है जो करती है--जो सदा उसने किया है। आदमी उतना कुशल नहीं होता। क्योंकि आदमी मशीन नहीं है। वह कुछ भूलें भी करता है, वह कुछ नया भी करता है, वह रास्ते से भी उतरता है।
प्रगतिशील आदमी वह है, जो अपने भविष्य के लिए परतंत्र नहीं बनाता। रूढ़िग्रस्त आदमी वह है, जो अतीत को अपनी मालकियत दे देता है। अतीत के हाथ अपने को बेच डालता है। जो अतीत के लिए गुलाम हो जाता है। अगर आप किसी भी तरह से अतीत के गुलाम हैं तो आप प्रोग्रेसिव नहीं हो सकते। और ध्यान रहे, ऐसा नहीं हैं कि आप एक चीज में प्रगतिशील हो सकते हैं और दूसरी चीज में प्रगतिशील न हों, ऐसा नहीं होता। यह असंभव है।
यह तीसरी बात भी मैं आपसे कहना चाहता हूं। जो आदमी प्रगतिशील है, क्योंकि प्रगतिशील होना वन-डाइमेंशनल नहीं है, प्रगतिशील होना मल्टी-डाइमेंशनल है। प्रगतिशील होना कोई एक अप्रोच नहीं है। प्रगतिशील होना एक व्यक्तित्व हैं। प्रगतिशील होना कोई एक पैटर्न और ढांचा नहीं है, प्रगतिशील होना जिंदगी का एक ढंग है। जिंदगी के एक ढंग का मतलब? जिंदगी के ढंग का मतलब यह है कि जो आदमी प्रगतिशील है वह सारी चीजों में ही प्रगतिशील होगा। वह सारी चीजों में ही नाॅन-कनफर्मिस्ट होगा। वह जिंदगी के सारे रुखों के संबंध में कनफर्मिज्म, रूढ़ि, बंधन, गुलामी को नहीं मानेगा--नहीं मान सकेगा। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या इसका मतलब है, वह दिन-रात रूढ़ियों से लड़ता रहेगा! क्या इसका यह मतलब है कि वह दिन-रात रूढ़ियों की प्रतिक्रिया में बगावत करता रहेगा? क्या इसका यह मतलब है कि वह अपनी जिंदगी को रूढ़ियों से लड़ने में लगा देगा? नहीं, यह मतलब नहीं है। इसलिए प्रगतिशील जरूरी नहीं है कि रिएक्शनरी हो, जरूरी नहीं है, प्रतिक्रिया वादी हो!
सच तो यह है कि जो आदमी चैबीस घंटे जिंदगी में रूढ़ियों से लड़ता है वह प्रगतिशील नहीं हो पाता। वह सिर्फ विपरीत रूढ़िवादी हो जाता है। आप जिस रूढ़ि से चैबीस घंटे लड़ेंगे, ध्यान रखें, जाने-अनजाने आप उससे विपरीत रूढ़ि में ग्रस्त हो जाएंगे। असल में जिससे हम लड़ते हैं धीरे-धीरे हम उसी जैसे हो जाते हैं। मित्र तो कोई बिना समझे चुन ले तो हर्जा नहीं है, शत्रु बहुत समझ कर चुनना चाहिए। क्योंकि शत्रु से लड़ने में हमें शत्रु जैसा ही हो जाना पड़ता है। कम्युनिज्म धर्म के खिलाफ लड़ाई शुरू किया और आज कम्युनिज्म एक धर्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। कम्युनिज्म ने मक्का-मदीना के खिलाफ लड़ाई शुरू की और आज मास्को और पेकिंग मक्का-मदीना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। कम्युनिज्म ने ईश्वर के खिलाफ लड़ाई शुरू की और लेनिन और माक्र्स को, और स्टैलिन को ईश्वर बना कर छोड़ा! यह बड़े मजे की बात है। यह बहुत हैरानी की बात है कि अगर कोई आदमी अपनी चैबीस घंटे की जिंदगी को रूढ़ियों से लड़ने में लगा दे तो वह नई तरह की रूढ़ियां पैदा करनेवाला हो जाता है। और कुछ भी नहीं होता है। यह पूरे इतिहास की कहानी है।
बुद्ध ने लोगों से कहा हैं कि मूर्ति मत पूजना। बुद्ध की जितनी मूर्तियां है जमीन पर उतनी किसी आदमी की नहीं हैं। जितने मंदिर बुद्ध के हैं उतने किसी आदमी के नहीं हैं। सारी जमीन पर पचास हजार विराट मंदिर बुद्ध केलिए समर्पित हैं। और एक-एक मंदिर ऐसा है चीन में जिसमें दस-दस हजार बुद्ध की मूतियां हैं। कोइ का मंदिर नहीं है ऐसा जिसमें दस हजार मूर्तियां हों। और बुद्ध जिंदगी भर लड़े लेकिन अगर कोई मूर्ति के खिलाफ लड़ेगा तो जाने-अनजाने वह मूर्ति के संबंध में कुछ खयाल पैदा करवा देगा। मूर्ति के खिलफ लड़ने वाला आदमी कब मूर्ति बनवाने का कारण बन जाएगा, कहना कठिन है--बन जाएगा।
महावीर हिंदुस्तान में वर्णाश्रम के खिलाफ लड़े और महावीर के अनुयायियों ने लड़ाई छेड़ी कि कोई वर्ण नहीं होने चाहिए। लेकिन आज एक बड़े मजे की बात है, हिंदू मंदिर में शूद्र अगर प्रवेश करे तो जैन कहते हैं, कर सकता है। लेकिन जैन मंदिर में नहीं कर सकता, क्योंकि वह हिंदू है। जैन मंदिर में प्रवेश का सवाल ही नहीं है। वह जैन है ही नहीं। महावीर की लड़ाई यह थी कि वर्ण न रह जाए और आज जैन अदालतों में जाकर लड़ाई करते हैं कि, हमारे मंदिर में शूद्र प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि हम जैन हैं। हिंदू मंदिर में प्रवेश करे, उसके लिए आप कानून बना सकते हैं। क्योंकि वह हिंदू है। और हिंदू मंदिर में प्रवेश का अधिकारी है। लेकिन कोई इनसे पूछे कि महावीर की लड़ाई क्या थी? महावीर की लड़ाई यह थी कि वर्ण मिट जाए और वर्णहीन समाज बने। लेकिन जैन जितना वर्णवादी है उतना हिंदू भी नहीं है। हां, एक बड़े मजे की बात है, हिंदू शूद्र को शूद्र कहता है, लेकिन कम से कम अपने समाज के भीतर स्वीकार करता है। जैन ने बड़ी तरकीब निकाली। उसने शूद्र को स्वीकार भी नहीं किया। वह एक वर्ण का ही रह गया। वह वैश्य ही रह गया। इसके भीतर दूसरे वर्णों को उसने प्रवेश ही नहीं करने दिया। एक ही वर्ण रह गया वह, उसमें न क्षत्रिय रह गया, उसमें न ब्राह्मण रह गया, न उसमें शूद्र रह गया। वह सिर्फ वैश्य रह गया।
अगर हम इस बात को गौर से देखें कि जीसस को सूली लगी और जीसस को सूली जिन यहूदियों ने लगाई उन यहूदियों के खिलाफ ईसाई कितने यहूदियों को सूली लगाए हैं, उसका हिसाब लगाना मुश्किल हैं। एक जीसस को लगाई गई सूली करोड़ों यहूदियों को लगाई गई सूली में बदली, यह बड़े मजे की बात है। लेकिन ईसाई इसीलिए यहूदियों को सूली पर चढ़ा रहा हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि जीसस को सूली लगाई, यह बुरा किया। जीसस को सूली लगाना बुरा था। लेकिन ईसाई को पता होना चाहिए कि जीसस यहूदी बेटा था। यहूदी आदमी था। यहूदी ही पैदा हुआ, यहूदी ही मरा। एक यहूदी को जो सूली लगाई गई थी वही दूसरे यहूदियों को ईसाई सारी दुनिया में सूली लगा रहे हैं। जीसस यहूदी था, ईसाई नहीं था--होने का उपाय भी नहीं था। लेकिन करोड़ों यहूदियों को सूली पर लटकाया गया है। क्योंकि वह जीसस का बदला लिया जा रहा है! बदला किस बात का लिया जा रहा है? जीसस को सूली लगाई, यह गलत काम था। तो तुम करोड़ों को सूली लगा कर गलत काम को मिटा रहे हों? असल में गलत काम के खिलाफ जो लड़ना शुरू करता है, कब गलत हो जाता है, पता लगाना मुश्किल है।
इसलिए प्रगतिशील का मतलब यह नहीं है कि वह रूढ़िवाद का विरोधी है। प्रगतिशील का मतलब यह है कि वह रूढ़िवाद का विरोधी नहीं है। रूढ़िवाद व्यर्थ है, ऐसा जानता है। विरोधी नहीं है। विरोधी तो सार्थकता देता है। विरोधी तो कहता है, बड़ी सार्थक बात है। एक मुसलमान है। वह कहता है कि हम मूर्ति तोड़ कर रहेंगे। क्योंकि किसी मूर्ति में भगवान नहीं है। अब बड़े मजे की बात है, जिसमें भगवान नहीं है उसको तोड़ने से भी क्या फायदा होगा।
एक आदमी कहता है, मूर्ति में भगवान है। हमे पूजा करेंगे। यह भी मूर्ति के साथ कुछ करता है, पूजा करता है। दूसरा आदमी कहता है, मूर्ति में भगवान नहीं है। हम इसे तोड़ कर रहेंगे। यह भी मूर्ति के साथ कुछ करता है। ये दोनों ही मूर्ति पर केंद्रित हैं। ये दोनों ही मूर्ति के साथ कुछ कर रहे हैं। पूजा करने वाला पूजा कर रहा है, तोड़ने वाला तोड़ रहा है। जिनको हम मूर्तिभजंक कहते हैं वे भी मूर्ति की तलाश करते फिरते हैं। मूर्ति कहां है, उसे तोड़ें। लेकिन मूर्ति उनके दिमाग में भी घूम रही है। ध्यान रहे, सारी दुनिया के मूर्ति-पूजक मूर्ति को जितना महत्व देते हैं उससे ज्यादा महत्व मुसलमानों ने दिया है। महत्व मिल ही जाएगा। अगर मूर्ति से लड़ना शुरू किया तो महत्व मिल जाएगा। नहीं, प्रगतिशील रूढ़ि-विरोधी नहीं है। प्रगतिशील इतना ही कर रहा है कि रूढ़ि व्यर्थ है, इररिलेवेंट है, असंगत है, जीवन से उसका कोई संबंध नहीं है। हम उससे लड़ते नहीं जाते। हम जीवन आगे हैं, उसमें बढ़ते हैं।
प्रगतिशील जीवन जो आगे है, उसमें बढ़ता है। रूढ़ि-विरोधी, रूढ़ि जो पीछे है, उससे लड़ता है। और ध्यान रहे, चाहे रूढ़ि की पूजा करना हो, तो भी पीछे देखना पड़ता है; चाहे रूढ़ि से लड़ना हो, तो भी पीछे देखना पड़ता है। पीछे देखने वाला आदमी प्रगतिशील नहीं है। प्रगतिशील वह है जो आगे देखता है। जो कहता है, यह जो रियर व्यू मिरर लगा होता है गाड़ी में, पीछे की तरफ देखने का, यह वक्त-बेवक्त के लिए है, यह चैबीस घंटा देख कर गाड़ी चलाने के लिए नहीं हैं। गाड़ी आगे देख कर चलानी पड़ती है, पीछे के देखने के लिए जो आईना लगा है वह कभी-कभी जरूरी होता है, वह चैबीस घंटे देखने के लिए नहीं है। लेकिन रूढ़िवादी और रूढ़िविरोधी दोनों, वह जो रेयर व्यू मिरर है, उसी में देखते रहते हैं। हां एक कहता है पीछे को पूजेंगे, और एक कहता है कि पीछे से लड़ेंगे। आगे देखने से बच जाते हैं। इसलिए रूढ़िविरोधी को मैं प्रगतिशील नहीं कहता हूं।
प्रगतिशील होना और बड़ी घटना है। प्रगतिशील होने का अर्थ यह है कि हम पीछे को असंगत मानते हैं। हम पीछे को इररिलेवेंट मानते हैं। हम मानते हैं, जो हो चुका, वह हो चुका, आगे जाना है। इसलिए प्रगतिशीलता फ्यूचर ओरिएंटेशन मैं है, भविष्य में हैं। लेकिन भविष्य के प्रति हमारा खयाल बड़ी कठिन बात है। क्योंकि विचार करना आसान है उसके संबंध में जो हो चुका, जो नहीं हुआ है उसके संबंध में विचार करना बहुत मुश्किल है क्योंकि उसके लिए हमारे पास कोई आधार नहीं होते। अब जैसे उदाहरण के लिए--सारी दुनिया में जनसंख्या बढ़ रही है। इस सदी के पूरे होते-होते जमीन पे इतनी संख्या होगी कि जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा और अगली सदी के पूरे होते-होते जिंदा रहने की बात ही गलत है, खड़े होना ही मुश्किल हो जाएगा। इक्कीसवीं सदी के पूरे होते-होते एक आदमी के पास एक वर्गफुट जमीन बचेगी--चाहे रहें, चाहे सोएं। फिर सभाएं करने की जरूरत नहीं होगी, जहां होंगे सभा में ही होंगे। बस जिसके पास तख्त होगा वह अपने तख्त पर खड़ा हो जाएगा। पूरी दुनिया हाइड पार्क हो जाएगी। खड़ा हो गया अपने साबुन के डिब्बे पर और बोलना शुरू कर देगा।
यह संख्या बढ़ रही है, लेकिन क्या किया जाए? रूढ़िवादी उसे हम कहेंगे, जो कहता हैः भगवान देता है, भगवान समझेगा, वह जाने! लेकिन यह रूढ़िवादी भी पूरा रूढ़िवादी होता तो ठीक था।लेकिन जब कोई बीमार पड़ता है तो यह अस्पताल पहुंच जाता है। तब वह यह नहीं कहता है कि कैंसर भगवान ने दिया है, भगवान समझे! नहीं, इलाज आदमी से करवाता है और जब आदमी को पैदा करने से रोकने की बात हो तब भगवान का नाम लेता है। यह बेईमान है, यह सिर्फ रूढ़िवादी नहींहैं, बेइमान रूढ़िवादी हैं। सिर्फ आनेस्ट टेªिडशनलिस्ट आदमी भी समझ में आता है कम से कम उसकी आनेस्टी तो समझ में आती है। कि वह कहता है कि हम बीमारी का इलाज करवाएंगे, क्योंकि भगवान ने बीमारी दी है। लेकिन यह आदमी इलाज करवाते वक्त आदमी के पास जाता है। दस बच्चों में नौ बच्चे मरते थे अतीत में, अब दस बच्चे में एक बच्चा मरता है, नौ बच जाते हैं। ये बच्चे बचाने के लिए तो पहुंच जाता है आदमी के ज्ञान के--विज्ञान के पास, लेकिन जब बच्चे को रोकना हो तो कहते हैं भगवान की बात है।
लेकिन जिसको हम प्रगतिशील कहें, वह क्या कर रहा हैं? प्रगतिशील भी जो सुझाव देता है कि कैसे रोकें कि सुझाव, बहुत प्रगतिशील नहीं है, बहुत भविष्यगामी नहीं है। वह भी जो सुझाव देता है बहुत भविष्यगामी नहीं हैं। उसको भी एक ही सुझाव दिखाई पड़ता है कि किसी तरह से मृत्यु-दर को रोक दो, बर्थ-कंट्रोल कर लो। बस! लेकिन अगर दुनिया के सारे डाक्टर, सारी नर्सें, वे सारे लोेग जो आपरेशन कर सकते हैं और बर्थ कंट्रोल ला सकते हैं, सारे लोग चैबीस घंटे लगा दिए जाएं काम में तो भी डेढ़ सौ वर्ष लगेंगे, जब संख्या जगह पर आ जाए! डेढ़ सौ वर्ष--आदमी बचेगा? इसलिए जो प्रगतिशील कह रहा है कि बस बर्थ-कंट्रोल हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा। उसे पता नहीं कि वह चम्मच से सागर को खाली करने की बात कर रहा है। अगर सारे एक्सपर्ट, अगर सारी दुनिया के भी इकट्ठे...चैबीस घंटे काम में लग जाएं और एक मिनट विश्राम न करें तो डेढ़ सौ वर्ष लग जाएगा, तब कहीं हम दुनिया की संख्या दुनिया के भोजन के अनुपात में ला पाएंगे। इसलिए बेमानी है बात। इससे कुछ होने वाला नहीं है। रूढ़िवादी भगवान पर छोड़ रहा है, वह एक्सपर्ट पर छोड़ रहा है, बाकि दोनों छोड़ रहे हैं। जिंदगी का मतलब बहुत बड़ा है और उसके लिए हम अतीत के ही तरफ देखते हैं। एक देखता है कि भगवान ने सदा सहारा दिया था। महामारी भेज दी थी, अकाल भेज दिया था, बाढ़ भेज दी थी। अब हमने उन सबको रोकने के इंतजाम कर लिए हैं और भगवान के हाथ काट दिए। दूसरा आदमी देख रहा है कि जन्म-दर बढ़ गई है, मृत्यु-दर कम हो गई है तो जन्म-दर कम कर दो। यह भी पीछे की तरफ ही से देखना है, यह भी भविष्योन्मुख देखना नहीं है। भविष्योन्मुख देखने के क्या मतलब होंगे? जैसे उदाहरण के लिए मैं दो तीन बातें कहूंः
पहली बातः जमीन आदमी के लिए कम पड़ गई है, तो हम समुद्र पर रहने का विचार क्यों न करें! एक प्रगतिशील विचारक बकमिलर ने समुद्र पर मकान बनाने की योजना दी, लेकिन कोई सुनने को राजी नहीं था। लोग उसको पागल कहते थे। अभी पागल कहेंगे, जब तक कि पूरी जमीन पागल न हो जाए। उसने जो योजना दी है, वह सीमेंट-कांक्रीट के मकानों की है, और एक बड़े मकान में एक लाख आदमी रह सकें, इतनी बड़ी योजना है। और सीमेंट-कांक्रीट का इतना बड़ा मकान पानी पर तैराया जा सकता है। उसके भीतर का जो हवा का वाॅल्युम होगा उसी की वजह से वह डूबेगा नहीं। उसको डूबने से बचने के लिए और कोई इंतजाम करने की जरूरत नहीं है। वह चारों तरफ से बंद होगा, बस उसके भीतर का हवा का वाॅल्युम ही उसे नहीं डुबाएगा, लेकिन उसकी कोई मानने को तैयार नहीं। वह दस साल से चिल्ला रहा है कि समुद्र पर रहने का इंतजाम करो, लेकिन उसकी कोई खयाल में हमारे बात नहीं आएगी।
और दूसरी बातः एक दूसरा वैज्ञानिक कह रहा है कि जमीन के भीतर अंडरग्राउंड रहने की व्यवस्था करो। जमीन से हट जाओ नीचे। अगर आदमी जमीन से नीचे हट जाए, जो कि कठिन नहीं है, अंडरग्राउंड रहा जा सकता है। अब हमारे पास सारी सुविधाएं हैं, हम जमीन के नीचे जा सकते हैं तो पूरी जमीन पैदावार के लिए मुक्त हो जाए। लेकिन वह हमारे खयाल में नहीं आएगा। सच यह है कि आदमी को पानी पे भी हटना पड़ेगा और पानी पर भी ज्यादा दिन काम नहीं चलेगा। जमीन के नीचे ही हटना पड़ेगा। जमीन के नीचे बहुत गुंजाइश है। जितने मंजिल मकान हम जमीन के ऊपर उठा रहे हैं उससे ज्यादा गहरे मंजिल मकान हम जमीन के नीचे ले जा सकते हैं। लेकिन किसी प्रगतिशील मस्तिष्क को हिम्मत करनी पडेगी भविष्य को देखने की। सारी दुनिया में हम फिकर करते हैं, ज्यादा उत्पादन करो, ज्यादा जमीन से पैदावार करो, लेकिन जमीन थक गई है और बूढ़ी हो गई है। और आदमी ने उसका बहुत शोषण कर लिया है। हम सब उपाय करके भी बहुत कुछ न कर पाएंगे। और कितने ही सिंथेटिक खाद हम डाले और कितना ही हम कुछ करें, ये सब उपाय पुराने हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पहले हम गोबर डालते थे। वह पुराने दिनों का खाद था और हम फैक्ट्री बना कर फर्टिलाइजर डालते हैं। वह नये ढंग का खाद है। लेकिन खाद को ही हम दस हजार साल, बीस हजार साल से डाल रहे हैं।
नहीं, हमें बहुत जल्दी खयाल कर लेना चाहिए कि अब पृथ्वी उतना भोजन पैदा नहीं कर सकेगी। हमें सिंथेटिक फूड पर सरक जाना चाहिए। असल में रोटी खाने की आदत हमें छोड़ देनी चाहिए। गोली खाने की आदत पर आ जाना चाहिए। क्यों? ऐसे भी मैं मानता हूं कि ज्यादा स्वास्थ्यकर होगा, ज्यादा हितकर होगा, ज्यादा आनंदपूर्ण होगा। क्योंकि पुराना ढंग बहुत ही कनवेनशनल, बहुत ही नासमझी से भरा हुआ है। सेर भर खाना खाइए फिर थोड़ा सा पचता है फिर बाकी को निकालने की मेहनत करनी है। वह बिलकुल बेमानी है। इतना ज्यादा भोजन शरीर में फेंक कर फिर उसको बाहर निकालना पड़ता है। आपके शरीर की जिंदगी भीतर डालने और बाहर निकालने में खत्म होती है। भीतर डाल कर उसको पचाने के लिए आठ घंटे की नींद जरूरी हो जाती है। आदमी साठ साल जिंदा रहता है तो बीस साल सोने में खराब हो जाता है और वह बीस साल सोना जरूरी होता है। क्योंकि उसके खाने का जो ढंग है, वह बहुत ही पुराना है। उसके लिए उसे इतनी देर सोना ही पड़ता है, नहीं तो पचा नहीं सकता। फिर इस पचाने में बड़े मजे की बात है कि बहुत थोड़ा सा उसके काम आता है बाकी बेकार बाहर फेंकना पड़ता है।
अब हम उस स्थिति में आ गए हैं कि जितना काम आता है उतना ही क्यों न लें। शरीर पर ईतनी जोखम डालने की कोइ जरूरत नहीं है। सिंथेटिक फूड आदमी की उम्र करीब-करीब दुगुनी कर देगा। क्योंकि आदमी की आधी ताकत खाना पचाने और शरीर से खाना फेंकने में बाहर होती है। जिस दिन से सिंथेटिक फूड होगा, डेढ़ सौ साल औसत उम्र हो सकती है। और डेढ़ सौ साल में सोने के लिए हमें बहुत कम समय देने की जरूरत रह जाएगी। ध्यान रहे, जानवर को आदमी से ज्यादा सोना पड़ता है। इसलिए जानवर उतना विकसित नहीं हो पाया। बच्चे को मां के पेट में चैबीस घंटे सोना पड़ता है। फिर पेट से निकल कर बाईस घंटे सोना पड़ता है।
कभी आपने खयाल किया है कि बच्चा जैसे-जैसे विकसित होता है उसकी नींद कम होती चली जाती है। किसी न किसी दिन मनुष्यता को वह घड़ी पैदा करनी पड़ेगी जब नींद बेमानी हो जाए--हो सकती है। आज वह जगह आ गई है, लेकिन भविष्य की तरफ हमारा खयाल हो तब। हम सोच ही नहीं पाते, हम सदा पीछे की तरफ सोचते चले जाते हैं। अगर आज हम दस हजार साल पीछे लौटें तो जो बातें हमारे दिमाग में बैठी थीं वे आज भी बैठी हुई हैं। असल में दिमाग हमारे पास कलेक्टिव होता है। अतीत से मिला हुआ होता है। पीछे से हमारे पास आता है। हम उसको पकड़ कर जीते रहते हैं। वही हम सोचते चले जाते हैं। हमारे खाने का एक कनवेंशनल ढंग है। दिन में तीन बार हमें खाना है, तीन बार शरीर में डालना है। पर बिना इस बात के खयाल किए कि न तो अब भोजन रहा तीन बार डालने के लायक, न जमीन है तीन बार डालने के लायक, न जरूरत है तीन बार डालने की, न आवश्यकता है कि आदमी इतना समय खाने में, इतना समय पचाने में व्यय करे। लेकिन नेता चिल्लाए चले जाएंगे कि ज्यादा खेती-बाड़ी करो, ज्यादा उपजाओ, खाद का उपयोग करो। ये करो, वह करो, वह चिल्लाएं चले जाता हैं।
पुराने दिनों में आदमी जब गरीब था तो हमने कुछ सिद्धांत विकसित किए थे। वह हम अभी भी चिल्लाए जा रहे हैं। अमरीका में भी ऐसे विचारक हैं जो उन्हीं सिद्धांतों को कहे जा रहे हैं जो गरीब दुनिया में विकसित हुए थे। एफ्लुएंट सोसाइटी के लिए खतरनाक हैं। गरीब दुनिया में एक सिद्धांत था कि श्रम करना बहुत बड़ी कीमत की बात है। अब अमरीका में बड़ी दिक्कत हो रही है। अभी भी स्कूल में सिखाए चले जा रहे हैं कि श्रम बहुत कीमत की बात है जब कि अमरीका का जो विचारशील प्रगतिशील आदमी है, वह कह रहा है कि स्कूल में ये बातें मत समझाओ कि श्रम करना बहुत जरूरी है, क्योंकि बीस साल में सारा श्रम मशीन करेगी और आदमी श्रम की मांग करेगा तो हम श्रम कहां से देंगे! बीस साल बाद अमरीका में श्रम की मांग पूरी करनी असंभव हो जाएगी। क्योंकि श्रम आदमी पर नहीं छोड़ा जा सकता है, श्रम तो मशीन कर देगी, लेकिन हजारों साल की शिक्षा है कि श्रम भगवान है, श्रम देवता है, श्रम करना बड़े गुण की बात है! और जो आदमी बेकार है वह बहुत बुरा आदमी है। यह बदलनी पड़ेगी आपको।
आने वाले बीस साल के बाद आपकोे हर किताब में लिखना पड़ेगा कि जो आदमी बेकार रहने को राजी है वह बड़ा कृपालु है। बडा दयावान हैं। क्योंकि जो आदमी पुराने ढंग से कहेगा कि मुझे काम ही चाहिए वह बड़ी मुश्किल पैदा करेगा। वह एंटी-सोशल होगा। जैसे पुराना आदमी एंटी-सोशल था। जो कहता था, मैं काम नहीं करूंगा लेकिन खाना चाहिए। हम उसको कहते थे, यह आदमी समाज विरोधी है, समाज का दुश्मन है, काम नहीं करता है और खाना मांगता है। कपड़े मांगता है। इसको खाना, कपड़ा नहीं दिया जा सकता। बीस साल बाद जो आदमी कहेगा, मुझे काम चाहिए, उसको हम काम नहीं दे सकेंगे। हम कहेंगे, यह आदमी एंटी-सोशल है। क्योंकि यह आदमी जो काम करेगा, उससे हजार, लाख करोड़ गुना अच्छा काम मशीन कर देंगी। इस आदमी को हम काम कैसे दे सकते हैं! इसलिए बीस साल बाद भविष्य में जो आदमी काम भी मांगेगा और तनख्वाह भी मांगेगा उसे दोनो चीजें नहीं मिलेंगी। अगर काम चाहिए तो तनख्वाह कम मिलेगी और अगर बेकार रहने को राजी हो तो तनख्वाह ज्यादा मिलेगी। तनख्वाह तो देनी ही पड़ेगी। क्योंकि अगर तनख्वाह नहीं देंगे आप तो लोग खरीदेंगे कैसे! तनख्वाह तो देनी ही पडेगी। आप आटोमेटिक मशीनों से चीजें पैदा कर ले लेकिन बाजार में खरीदेगा कौन! खरीदने के लिए लोगों को तनख्वाह देनी पड़ेगी। और जितनी अच्छी चीजें आप पैदा करेंगे उतनी अच्छी तनख्वाह देनी पड़ेगी। जो आदमी बेकार होने को राजी होगा--मछली मार सकेगा, ताश खेल सकेगा--शतरंज खेल सकेगा--कविता कर सकेगा, वह आदमी बड़ा ही समाजमान्य नैतिक पुरुष हो जाएगा। लेकिन हमारी लाखों साल की बिल्ट-इन, दिमाग में जो व्यवस्था है, वह यही कहती है कि श्रम बहुत ऊंची चीज है।
श्रम बहुत ऊंची चीज नहीं है। श्रम को बहुत ऊंची चीज हमने कहा था किसी मजबूरी में। क्योंकि श्रम के बिना जीना असंभव था। अब हम श्रम के बिना जी सकते हैं। अब श्रम बहुत ऊंची चीज नहीं है। और जो अकबर को, औरंगजेब को, नेपोलियन को, अशोक को, बुद्ध को, महावीर को घर में जों विलास मिल सका था वह अब हर एक को मिल सकता है। और ध्यान रहे, दुनिया में सारी संस्कृति का विकास लक्.जरी में होता है, श्रम में नहीं होता। दुनिया की सारी डिस्कवरी, दुनिया का सारा संगीत, सारा विज्ञान, सारा काव्य, सारे महाकाव्य--यह कालिदास जमीन खोद कर महाकाव्य पैदा नहीं करत हैं। यह राजा भोज के दरबार में काव्य पैदा होता है। यह तानसेन गिट्ठी तोड़ कर संगीत पैदा नहीं करता है, यह अकबर के दरबार में संगीत पैदा होता है। अब मनुष्य उस स्थान के करीब आ रहा है जहां प्रत्येक आदमी को तानसेन होने का और कालिदास होने की सुविधा होगी। आप न हों, वह आपके पुराने दिमाग की मजबूरी होगी। आप कहें कि हम तो गिट्ठी फोड़ेंगे, क्योंकि रवींद्रनाथ की कविता में लिखा है कि जो गिट्टी फोड़ता है वह भगवान है--वह नहीं चलेगा। रवींद्रनाथ लौटेंगे तो कविता बदलनी पड़ेगी। क्योंकि गिट्टी फोड़ने वाला सिर्फ पागल होगा--भविष्य में भगवान नहीं हो सकता।
लेकिन कुछ लोग आॅब्सेस्ड होंगे। वे कहेंगे, हमें काम चाहिए ही। क्योंकि बिना काम के हम कैसे जी सकते हैं! अभी भी जो आदमी रिटायर्ड हो जाता है वह मुश्किल में पड़ जाता है। इसलिए कोई रिटायर्ड नहीं होना चाहता।
अब हमें इस बात का पता नहीं है कि आज से कोई दस हजार साल पहले कि जितनी भी लाशें मिली हैं उसमें पच्चीस साल से ज्यादा की उम्र की लाशें नहीं मिली हैं। मतलब यह हुआ कि पच्चीस साल का आदमी बूढ़ा से बूढ़ा आदमी रहा होगा। आज रूस में कोई एक हजार आदमी डेढ़ सौ साल को पार कर गए हैं। सारी दुनिया में कई मुल्कों की औसत उम्र अस्सी साल के करीब है या ऊपर पहुंच गई है। अब बूढ़े बढ़ते जा रहे हैं। अब बूढ़ों को रिटायर करना पड़ेगा। वे रिटायर होना नहीं चाहते। वह चाहे चपरासी हो या राष्ट्रपति हो--इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। वे रिटायर नहीं होना चाहते, वे कहते हैं कि हममें अभी पूरी ताकत है। हम दौड़ सकते हैं। आप दौड़ सकते हैं, आपकी बड़ी कृपा है। लेकिन आप खाली दौड़ें, राष्ट्रपति होकर न दौड़ें। आपको दौड़ने के लिए हम मना नहीं करते और अगर आपने जिद्द रखी कि हम राष्ट्रपति रह कर ही दौड़ेंगे तो फिर बच्चों के मन में आपके प्रति अनादर होता चला जाए, बगावत फैलती जाए तो कुछ हैरानी न होगी। क्योंकि बच्चों को बूढ़ों से कभी भी संघर्ष नहीं करना पड़ा--पुराने समाज में। इसके कारण थे। एक तो पुराने समाज का काम ऐसा था कि बाप को अनिवार्य रूप से बेटे को सौंपना पड़ता था। किसान का काम था, बैल जोतने थे, लकड़ी काटनी थी, पत्थर तोड़ना था, जमीन गोड़नी थी, ताकत की जरूरत थी। बाप जैसे ही बूढ़ा हो जाता, जवान बेटे को उसको अपने आप काम सौंपना पड़ता था। जवान बेटा अपने आप मालिक हो जाता था। बाप अपने आप हटता जाता था। आज हालत बदल गई है। आज बाप चाहे तो बिलकुल न हटे। क्योंकि आज कोई श्रम का काम नहीं है। लेकिन बेटा प्रतीक्षा करता है कि आप कब हटोगे। मैं खुद भी बाप हुआ जा रहा हूं। कहीं ऐसा न हो कि मैं बीच में ही समाप्त हो जाऊं। और दूसरी पीढ़ी आगे आ गई। तो बेटे चिंतित हो गए हैं।
कभी आपने खयाल किया कि गरीबों के बेटों का बापों से कभी झगड़ा नहीं हुआ। लेकिन सम्राटों के बेटों का झगड़ा सदा हुआ। सम्राटों के बेटे कोई बुरे बेटे नहीं थे। वही बेटे थे जो गरीब के बेटे थे। लेकिन गरीब के बेटे को बाप का काम अपने आप मिल जाता था। सम्राट अपने आप काम नहीं छोड़ता था। वह काम ऐसा था कि सम्राट छोड़ना नहीं चाहता था और वह काम ऐसा था कि उसके लिए कोई जवान और ताकत की जरूरत न थी। बेटों को छीनना पड़ता था। औरंगजेब बुरा बेटा नहीं था। अगर औरंगजेब गरीब का बेटा होता तो कोई कठिनाई ना आती। बाप को कैद न करना पड़ता। क्योंकि बाप खुद ही कहता कि बेटा अब तुम जवान हो गए हो, अब जुतों। अब तुम बैल की जगह काम करो। लेकिन औरंगजेब का बाप राजा था, वह हटना नहीं चाहेगा। आज करीब-करीब दुनिया के बाप उस हालत में आ गए हैं जहां कि उन्हें बेटोें को काम बिना दिए चल सकता है। इसलिए सारी दुनिया में बाप और बेटे के बीच में क्लास स्ट्रगल पैदा हो गई है। जो कभी भी नहीं थी। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। जो प्रगतिशील है, उन्हें यह बात ठीक से समज लेनी चाहिए कि हमें काम न करने को भी गौरव देना पड़ेगा। और जितनी जल्दी जो आदमी रिटायर होता है उसे उतना सम्मानित करना पड़ेगा। क्योंकि उतने ही जल्दी वह बेटों को काम दे देता है अभी। और कल तो हमें धीरे-धीरे पूरी सोसायटी को रिटायरमेंट में, बिना काम में गए, रिटायरमेंट के लिए तैयार करना पड़ेगा। ये सारी की सारी कठिनाइयां...हमारा पुराना मन हमें दिक्कत देता है!
तो जब मैं कहता हूं कि प्रगतिशील कौन? तो मेरा मतलब है कि जो अतीत से नहीं सोच रहा है, बल्कि जो भविष्य से सोच रहा है। भविष्य में सोचने में सरटेंटी नहीं हो सकती हैं, सदा परहेप्स है। सदा एक स्याद होगा। इसलिए एक आखिरी बात आपसे कहूं। आॅर्थोडाक्स हमेशा एब्सल्यूट होता है, उसकी बात परफेक्ट होती है, पूरी होती है। आॅर्थोडाक्स हमेशा दावेदार होता है। वह कहता है, ऐसा ही है। ए इ.ज ‘ए’, उसका जो तर्क है वह अरिस्टोटेरियन होता है। वह कहता है, ए इ.ज ‘ए’, यानी ए कैन नाट बी ‘बी’।’ अ ‘अ’ है और अ ‘ब’ नहीं हो सकता। यह रूढ़िग्रस्त चित्त का तर्क होता है। प्रगतिशील चित्त एब्सल्यूट नहीं हो सकता है, रिलेटिव ही हो सकता है, सापेक्ष हो सकता है। उसके हर वक्तव्य के साथ परहेप्स जुड़ा होगा। वह कहेगा, शायद ऐसा हो। अगर कोई भी आदमी यह कहता हैं किः ऐसा ही होगा तो समझना कि वह रूढ़िवादी है।
अगर कोई आदमी प्रगति के संबंध में भी कहे कि ‘ऐसा होगा ही’ तो समझना कि वह प्रगति के संबंध में रूढ़िवादी है। लेकिन जो आदमी कहे, ‘ऐसा हो सकता हैं...! ध्यान रहे, जगत उस जगह आ गया है, जहां एब्सल्यूट स्टेटमेंट की कोई जरूरत नहीं रह गई है। सिर्फ नासमझ ही भविष्य में अब एब्सल्यूट स्टेटमेंट कर सकेंगे। अतीत में भी अज्ञानियों के सिवाय एब्सल्यूट स्टेटमेंट किसी ने नहीं दिए, सिर्फ अज्ञानी यह कह सकता है कि जो मैं कहता हूं वह परम सत्य है। ज्ञान हेजीटेट करेगा, वह कहेगा, कि जो हम कहते हैं वह हो सकता है, या नहीं भी हो सकता है। इससे अन्यथा भी हो सकता है। हजार आॅल्टरनेटिव हैं, भविष्य अनिश्चित है, अनसर्टन है, उसके साथ ‘स्याद’ जुड़ा है, परहेप्स जुड़ा है, ऐसा हो भी सकता है, ऐसा नहीं भी हो सकता है।
प्रोग्रेसिव का तर्क अरिस्टोटेरियन नहीं हो सकता। प्रोग्रेसिव तर्क कहना चाहिए झेन जैसा होगा। झेन फकीर कह सकता है--ए इ.ज ‘ए’ एण्ड इ.ज ‘बी’ आलसो। वह कह सकता है, अ ‘अ’ भी है और अ ‘ब’ भी है। तर्क के लिए बड़ी कठिनाई हो जाती है, क्योंकि तर्क सीधी रेखाएं पसंद करता है कि हम कहें कि यह काला है और यह सफेद है लेकिन जिंदगी में न कोई काली होती है चीज, न कोई सफेद होती है। जिंदगी में सिर्फग्रे होता है। हां, ग्रे की एक एक्सट्रीम होती है, जिसको हम काला कहते हैं। ग्रे की दूसरी एक्सट्रीम होती है जिसको हम सफेद कहते हैं। जिंदगी ग्रे है, जिंदगी में सफेद और काली जैसी कोई चीज नहीं है, जिंदगी में ठंडी और गरम जैसी कोई चीज नहीं है, ठंडी और गरम एक ही चीज की, एक ही तापमान की डिग्रियां हैं। इसलिए कभी एक छोटा सा प्रयोग करें और आपकी जिंदगी में फल होगा। एक हाथ को गरम कर लें और एक हाथ को ठंडा कर लें। दोनों को एक ही बाल्टी में डाल दें और फिर बताएं कि पानी गरम है कि ठंडाः एक हाथ कहेगा ठंडा, एक हाथ कहेगा गरम। गरम और ठंडी दो चीजें नहीं हैं। गरम और ठंडे एक ही चीज के अनुपात हैं।
प्रोग्रेसिव लाॅजिक, प्रगतिशील तर्क अ और ब के विरोध को तोड़ता है। प्रगतिशील तर्क काले और सफेद के विरोध को तोड़ता है, प्रगतिशील तर्क अच्छे और बुरे के विरोध को तोड़ता है। वह यह नहीं कहता है कि दिस इ.ज ईविल एण्ड दिस इ.ज गुड। वह यह नहीं कहता कि दिस इ.ज हेल एण्ड दिस इ.ज हेवन। वह ये नहीं कहता कि यह है पापी, यह है पुण्यात्मा। वह कहता है, पाप और पुण्य एक ही चीज की डिग्रियां हैं और पापी कभी पुण्यात्मा भी होता है और पुण्यात्मा कभी पापी भी होता है और महात्मा के भी क्षण हैं, जब महात्मा छुट्टी पर होता है और पापी के भी क्षण हैं जब पापी महात्मा होता है। जिंदगी जटिल है। प्रगतिशील चित्त जिंदगी कि जटिलता को स्वीकार करता हैं। और प्रगतिशील चित्त इसलिए डागमेटिक नहीं हों सकता हैं। मैंने कहा कि प्रगतिशील कौन नहीं हैं? और आप पर छोड़ता हंू कि आप थोड़ा सोचना। थोड़ी सी दिशाएं मैंने दीं, उन पर थोड़े और आगे जाकर आप सोचना, तो आपको खयाल में आ सकेगा कि प्रगतिशील कौन है?
और सबसे उचित तो यह होगा कि सोचना मत, होकर देखना, क्योंकि प्रगतिशीलता जिंदगी है। उसे होकर जाना जा सकता है। उसे सोच कर पढ़ कर नहीं जाना जा सकता, समझ कर नहीं जाना जा सकता है। लेकिन धन्य हैं वे लोग जो प्रगतिशील हो पाते हैं। क्योंकि जिंदगी उनकी है, जो प्रगतिशील हैं और वे मृत हैं जो प्रगतिशील नहीं हैं। मैने ये थोड़ी सी बातें कहीं, मेरी कोई भी बात मान मत लेना, अन्यथा मैं आपको रूढ़िवादी बनाने में कारण बन जाऊं, इतना भी पाप मैं नहीं लेना चाहता हूं। मैंने कुछ बातें कहीं, सोचना! इसमें बहुत कुछ गलत होगा, बहुत कुछ ठीक भी हो सकता है। गलत और ठीक इतनी अलग-अलग बातें नहीं हैं। लेकिन अगर आप सोचने की यात्रा पर निकल सके तो पर्याप्त है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमत्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

एक सवाल है कि आपके विचार से रूढ़िवाद का विरोधी और अपने दृष्टिकोण को भविष्य की ओर बना कर रखने वाले किस स्थल पर मिलते हैं?

किसी स्थल पर नहीं मिलते। नहीं मिलते इसलिए हैं कि जिसे भविष्य की ओर देखना है उसे अतीत की ओर पीठ करनी पड़ती ती है और जिसे अतीत से लड़ना है उसे अतीत की ओर मुंह करना पड़ता है। अगर वे मिलते भी हैं तो दोनों की पीठ मिल सकती है, और कुछ नहीं मिलता है। अतीत लड़ने योग्य भी नहीं है। जो मर गया है, उससे लड़ कर आप मर ही सकते है और कुछ भी नहीं कर सकते। अतीत लड़ने योग्य भी नहीं है, अतीत मुक्त होने योग्य है।

दूसरी बात उन्होंने पूछी हैः रूढ़िवाद को तोड़ने वाला यदि स्वयं नये प्रकार की रूढ़िवादता को श्रेय देने लगता है तो वह प्रगतिशील कब होगा?

वह कभी नहीं होगा। रूढ़िवाद को तोड़ने वाला अगर नये रूढ़िवाद को प्रश्रय देता है तो वह स्वयं भी रूढ़िवादी है लेकिन किसी तरह के रूढ़िवाद के विरोध में हो और किसी तरह के रूढ़िवाद के पक्ष में हो--उसकी च्वाइस है, उसका चुनाव है। रूढ़िवाद का वह विरोधी नहीं है, किसी रूढ़ि का विरोधी होगा और किसी दूसरी रूढ़ि को लाना चाहता है। प्रगतिशील किसी रूढ़ि को नहीं लाना चाहता। प्रगतिशील का अर्थ ही यहि है कि हम एक ऐसा समाज चाहते हैं जहां हम किसी को रूढ़ि में नही बांधेंगे। आप पूछ सकते हैं कि रूढ़ि में नहीं बांधेंगे तो समाज कैसे चलेगा? समाज बिना रूढ़ियों के चल सकता है और सभी नियम रूढ़ियां नहीं होतीं। जिन नियमों को हम भावावेश से पकड़ते हैं वे रूढ़ियां हो जाती हैं। जैसे उदाहरण के लिए--यह रास्ते का नियम है कि आप बाएं चलिए। किन्हीं मुल्कों में रास्ते का नियम है कि दाएं चलिए। यह कोई रूढ़ि नहीं है। यह कोइ ट्रेडिशनलिज्म नहीं हैं। यह सिर्फ फार्मल, स्ट्रक्चरल, फंक्शनल व्यवस्था है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप बाएं चलते हैं कि दाएं चलते हैं। एक व्यवस्था बना ली है कि बाएं चलिए। उससे चलने वालों को सुविधा होती है। लेकिन बायां चलना कोई वेद वाक्य नहीं है और बाएं चलने की तख्ती लगा कर इसकी पूजा करने की कोई जरूरत नहीं है। और बाएं चलने के नियम को अगर किसी दिन बदलना पड़े, और हम सोचें कि दाएं चलने का नियम बना लें तो किसी को झंडा लेकर यह चिल्लाने की जरूरत नहीं है कि हमारे धर्म पर हमला हो गया। किसी के धर्म पर हमला नहीं हो रहा है। जिस दिन दुनिया में प्रगतिशीलता होगी उस दिन नियम तो होंगे, रूढ़िया नहीं होगीं। नियम नहीं होंगे, यह मैं नहीं कह रहा हूं। रूढ़ि और नियम में फर्क है जब किसी नियम को हम पागल की तरह पकड़ लेते हैं तब वह रूढ़ि बन जाती है। और जब किसी रूढ़ि का हम उपयोग करते हैं युटिलिटेरियन तब वह नियम रह जाता है। सब नियम रूढ़ियां बन सकते हैं और सब रूढ़ियां नियम हो सकती हैं। अभी हमने सब नियमों को रूढ़ियां बना लिया है, अभी हर चीज रूढ़ि है। होना चाहिए हर चीज नियम। नियमहीन समाज नहीं हो सकता है, रूढ़िहीन समाज हो सकता है।
प्रगतिशील होने का मतलब यह नहीं है कि हम किसी ऐसे समाज की बात कर रहे हैं जहां कोई नियम नहीं होगा, कि रास्ते पर जिसको जहां चलना हो, वहीं चल सकेगा। ऐसा रास्ता नहीं हो सकता और अगर ऐसा रास्ता बनाना हो तो रास्ता ही नहीं होगा, सिर्फ जंगल में आदमी जहां चाहे वहां चल सकता है। अगर आपको कभी ऐसा समाज बनाना है कि जिसका कोई नियम न हो, उसका रास्ता भी न होगा सिर्फ जंगल हो सकता हैं। जंगल में कोई नियम न होगा। अगर रास्ता है और चलने वाले लोग हैं तो नियम होगा। लेकिन नियम को रूढ़ि बनाने की कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी नियम से चले, तब नियम को बदलने में कभी कठिनाई नहीं आती क्योंकि हमारा कोई रागात्मक संबंध नहीं होता नियम से। अब बाएं चलना, यह न तो कोई हिंदू का नियम है, न मुसलमान का नियम है, न यह ईसाई का नियम है।
जिंदगी के सारे नियम बाएं और दाएं चलने जैसे होने चाहिए। जब हमेें जरूरत पड़े हम बदल लें, जब अनुपयोगी हो जाए, हटा दें। लड़ने की जरूरत न आए। उनसे लड़ने की जरूरत इसलिए आती है कि कुछ लोग उनको जोर से पकड़ लेते हैं, फिजुल ही पकड़ लेते हैं। अकारण पकड़ लेते हैं। मैं जो कह रहा हूं, अगर कोई रूढ़ि तोड़ने वाला नई रूढ़ि को प्रश्रय देता हो तो वह आदमी रूढ़िवादी है। सिर्फ पुरानी रूढ़ि से ऊब गया है और ध्यान रहे, पुरानी रूढ़ि अच्छी नई रूढ़ि से। क्यों? क्योंकि पुरानी रूढ़ि को टूटने की स्थिति आ जाती है। नई रूढ़ि फिर नई है, मजबूत होती है, ज्यादा दिन चलती है। आदमी मरघट जाता है, लाश को कंधे पर रख कर अरथी को। कंधा दुखने लगता है तो कंधा बदल लेता है। एक कंधे से दूसरे कंधे पर अरथी को कर लेता है। उससे कोई बोझ में फर्क नहीं पड़ता। थोड़ी देर राहत मिल जाती है। नये कंधे पर वजन थोड़ी देर कम मालूम पड़ता है, और कोई फर्क नहीं पड़ता है। पुरानी रूढ़ि से नई रूढ़ि पर नहीं जाना है, रूढ़ियों से नियम पर जाना है। इसमें बुनियादी फर्क है।

हां, एक सवाल और, इसको आखरी मान लें।

किसी ने पूछा है कि वाॅट इ.ज दि डिफरेंस बिटवीन मैडनेस एण्ड प्रोग्रछ्व्हनेस?

बहुत कम, बहुत कम फर्क है, बहुत बारीक फर्क है। असल में साधारणतः पागल हम उसे कहते हैं जो हमारे समाज के बीच मेलएडजस्टेड हो जाता है। जो हमारे समाज के बीच एडजस्टमेंट खो देता है, जरूरी नहीं है कि वह पागल हो। हो सकता है, पूरा समाज ही पागल हो और इसलिए वह आदमी एडजस्ट न हो पाता हो क्योंकि जीसस को जिन लोगों ने सूली दी थी उन्होंने पागल समझ कर दी थी और सुकरात को जिन लोगों ने जहर पिलाया था उन्होंने पागल समझ कर पिलाया था और महावीर पर जिन लोगों ने पत्थर फेंके थे उन्होंने पागल समझ कर फेंके थे। समाज उस आदमी को पागल कहता है जो समाज के ढांचे में मोज नहीं पड़ता। यह पागल भी हो सकता है, यह प्रोग्रेसिव भी हो सकता है। यह दोनों हालत में समाज के ढांचे में मोज नहीं पड़ेगा। फर्क क्या है? फर्क एक ही है।
फर्क एक ही है कि यह जो आदमी पागल है इससे कोई भविष्य नहीं निकलेगा और यह जो आदमी प्रगतिशील है, इससे भविष्य निकलेगा और यह जो आदमी पागल है इस आदमी से कुछ भी निकलने वाला नहीं है और यह जो प्रगतिशील है, जिसे हम पागल की तरह आज अनुभव करेंगे, कल इसे हम भगवान की तरह पूजेंगे भी। हमने सब पागलों को पूजा है बाद में।
असल में, अगर जीसस को पैदा होना पड़े, तो उन्हें दो-चार-पांच हजार साल रुक कर पैदा होना चाहिए, तब वे एडजस्ट हो सकेंगे। लेकिन वे पांच हजार साल पहले पैदा हो जाते हैं। यह उनकी गलती है। अब पागल के संबंध में हमारी दृष्टि बहुत बदलती जा रही है। जैसा हम पहले सोचते थे, वह दृष्टि नहीं रह गई। पागल के संबंध में पता नहीं आप क्या सोचते हैं? तीन तरह के पागल साधारणतः होते हैं। एक तो पागल वह है जिसको फिजियोलाॅजिकली डिरेंज है। इस तरह के पागल को बीमार मानना चाहिए। इस तरह के पागल को पागल नहीं मानना चाहिए। जैसे एक आदमी के पास आंख नहीं है, एक आदमी के पास मस्तिष्क का कोई हिस्सा नहीं है, यह पागल है। अंधे को पागल नहीं कहते आप। काने को पागल नहीं कहते। लंगड़े को पागल नहीं कहते। फर्क क्या है इस आदमी और उस आदमी में? उसके यंत्र में भी कोई चीज कम है। इसके यंत्र में भी कोई चीज कम है। उसके देखने के यंत्र में कमी है, इसके सोचने के यंत्र में कमी है। इसको बीमार कहना चाहिए। पागल नहीं कहना चाहिए। दूसरी बड़ी संख्या उन पागलों की है जो हमारे समाज के कारण पागल हो जाते हैं, जिनके लिए जिम्मेवार हम हैं। वे जिम्मेवार नहीं हैं।
अब एक आदमी को हम एक स्त्री के साथ शादी करवा देते हैं जिसने उसे कभी देखा नहीं, जिसने उसे कभी चाहा नहीं। अब हम पूरी जिंदगी आशा करते हैं कि वह उसे प्रेम करे। अगर यह प्रेम नहीं हो पाता, वह अगर आदमी सीधा व भला है तो प्रेम करने की कोशिश करेगा। और ध्यान रहे कि कोशिश से प्रेम कभी भी नहीं हो सकता हैं। वह पागल हो जाएगा। बदल भी नहीं सकता। जिसे प्रेम कर सकता था उसे कर भी नहीं सकता, जिसे नहीं कर सकता है उसे करने की कोशिश करता है। हम उसे दबा डालेंगे।
वह पागल हो सकता है। अब जब यह पागल हो जाएगा तो हम कहेंगे कि यह आदमी पागल है। यह आदमी पागल नहीं है, यह आदमी पागल समाज में पैदा हुआ है। और हो सकता है कि इसकी जगह अगर थोड़ा कम सेंसिटिव आदमी होता तो चला लेता और पागल नहीं होता। इसलिए मनोविज्ञान की नई खोजें यह कहती हैं कि जिनको हम पागल कहते हैं उनमें कई बार हमसे ज्यादा सेंसिटिव और हमसे ज्यादा पोटेंशियल लोग होते हैं, क्योंकि वे बेचारे नहीं सह पाते। साधारण आदमी, मीडियाकर माइंड का आदमी होता, तो वह कहता, ठीक है, प्रेम-व्रेम की जरूरत भी क्या है! बच्चे पैदा करते हैं, काम चलता है। वह चला लेता। लेकिन एक आदमी है जो बच्चे पैदा होने से तृप्त नहीं हो सकता, जो सेक्स से तृप्त नहीं हो सकता, जो कहेगा, यह तो बहुत ही बाॅयोलाॅजिकल तल पर बात है। जिसकी कोई और भीतरी आकांक्षा है, जो प्रेम चाहता है वह प्रेम नहीं मिल रहा है, तो वह पागल हो जाएगा। और वह जो मीडियाकर है, जो पागल नहीं हो गए, वह उसको कहेंगे कि यह आदमी पागल हो गया है। दूसरा वर्ग उन पागलों का है जो इसीलिए पागल हो जाते हैं कि जो हमने समाज निर्मित किया है वे अभी भी सेन नहीं हैं। सोसाइटी इनसेन हैं। उसका सारा ढांचा पागलपन का है। वह हजार तरह के पागलपनों की व्यवस्था किए बैठी है, और उन पर थोप रही है लोगोंपर उनमें जो कम संवेदनशील हैं, कम बुद्धिमान हैं, वे राजी हो जाएंगे। जो संवेदनशील है, ज्यादा बुद्धिमान है, वह पागल हो जाएगा।
तीसरे तरह के पागल वे हैं जो न तो समाज की वजह से पागल हैं, न किसी फिजियोलाॅजिकल कारण से पागल हैं बल्कि भविष्य के लोग हैं, आज के लोग ही नहीं हैं। बहुत फासला उनका और आज में। हमारे और उनके बीच कोई कामन लैंग्वेज नहीं है। हमारे और उनके बीच कोई कम्युनिकेशन नहीं हो पाता। पागल हम उसे कहने लगते हैं, जिससे हमारा कोई तालमेल नहीं बैठता है, कोई संबंध नहीं बनता है। वे हमें पागल दिखाई पड़ने लगता हैं, दिखाई पड़ेगा ही, क्योंकि वह दो या तीन हजार या पांच हजार साल आने वाले भविष्य की भाषा बोलता रहा है। प्रोफेट पागल हैं इसी अर्थ में कि वे भविष्य की बात कर रहे हैं। वे ऐसी बात कर रहे हैं--जैसे कि कृष्ण अगर आज वे पैदा हो जाएं तो पागल होंगे। उस दिन भी पागल थे। अगर आज भी पैदा हो जाएं और कृष्ण मोरमुकुट बांध कर और बांसुरी लगा कर नाचने लगें, तो वह जो उनके मंदिर में पूजा करते हैं वे भी पुलिस में खबर कर देंगे कि इनको जरा सम्हालो, क्योंकि पूजा ठीक थी, मंदिर में थे तो ठीक था, चलता था, कोई झंझट न थी। लेकिन सड़क पर ये बांसुरी बजाएं, यह ठीक नहीं है। और ये किसी और की राधा के साथ नाच लेते थे, वह ठीक है, हमारी राधा के साथ नाचे तो बहुत खतरा है, यह नहीं चलेगा।
अब कृष्ण उस भविष्य की दुनिया के आदमी हैं, जिस दिन प्रेम पजेसन नहीं रह जाएगा, उस दिन कृष्ण कम्युनिकेट कर सकेंगे। उस दिन तो पागल नहीं होंगे जिस दिन प्रेम पजेसन नहीं होगा। जिस दिन प्रेम स्थायी कांट्रेक्ट नहीं होगा, जिस दिन प्रेम क्षणिक घटना होगी, और जिस दिन प्रेम की कोई मालकियत नहीं होगी, उस दिन कृष्ण शायद अर्थपूर्ण हो जाएं। कृष्ण उस दिन अर्थपूर्ण हो सकते हैं जिस दिन कोई आदमी बांसुरी बजाए चैबीस घंटे तो भी भूखा नहीं मरेगा, नाचे, रास करे, तो भी भूखा नहीं मरेगा। कृष्ण उस दिन भविष्य के आदमी हो सकते हैं, जिस दिन हम सुख को भी स्वीकार करेंगे। हम इतने दुखी लोग हैं कि हम किसी को सुखी देख कर स्वीकार नहीं कर सकते, ईष्र्या से भर जाते हैं। कृष्ण जैसे आदमी की हम गर्दन दबा देंगे कि इतना सुखी आदमी हमारे बीच--कि हम रोए चले जा रहे हैं और तुम बांसुरी बजा रहे हो। नहीं, यह बहुत ही सुखी समाज में, बहुत ब्लिसफुल समाज में, जहां किसी दूसरे का सुख ईष्र्या पैदा नहीं करेगा, जहां दूसरे का सुख हमें भी नाच में ले जाएगा, कृष्ण उस दिन स्वीकृत हो सकते हैं। ऐसे लोग भी पागल हैं।
तो मैं मानता हूं कि प्रोग्रेसिव थोड़े बहुत अर्थों में पागल के करीब होगा। दो कारणों से करीब होगा। एक तो समाज उसको दबाएगा इसलिए, और एक वह भविष्य ओरिएंटेड होगा इसलिए। पागल और उसके बीच समानता है। लेकिन जिस समाज में हम जीते हैं उसमें न पागल होने से पागल होना बेहतर है!

(श्रोताओं में से कोई सवाल पुछ रहा है)
मैं दोहरा देता हूं।
सवाल आपका अलग है, लेकिन आप पूछे हैं इसलिए बात कर लें दो मिनट।
आप पूछते हैं कि आत्मा एक कंटिन्युटी, एक सातत्य है, तो उसके उपर तो पिछले कर्मों का भार है?

दो बातें समझ लें, यह बहुत बड़ा सवाल है, फिर कभी दुबारा आऊं तो करना तो अच्छा होगा।
पहली तो बात यह है कि ‘ए सोल इ.ज नाॅट ए कंटिन्युटी। इट इ.ज एन इटरनिटी।’ इन दोनों में फर्क है। आत्मा सातत्य नहीं है, शाश्वतता है। इन दोनों में फर्क है। कंटिन्युटी जो है, उसके बीच में डिसकंटिन्युअस गैप होते हैं। कंटिन्युटी के बीच में हमेशा बीच में खाली जगह होती हैं। इसलिए हम कहते हैं कंटिन्युटी। बीच में डिसकंटिन्युअस गैप होते हैं। हम कहते हैं कि इस सड़क पर जो प्राकाश लगा हैं वह कंटिन्युअस, पूरे रास्ते पर लगा है। उसका मतलब ही यह है कि बीच में जगह छुटी है। हम कहते हैं, नदी कंटिन्युअस बह रही है, इसका मतलब यह है कि नदी के दो कणों के बीच में फासला है, गैप है। एवरी कंटिन्युटी प्रीसपोजेस डिसकंटिन्युअस गैप्स। आत्मा कंटिन्युटी नहीं है। आत्मा इटरनिटी है। इटरनिटी का मतलब हैः नो गैप! कोई बीच में जगह नहीं है। इसलिए दूसरी बात खयाल में रख लें कि जहां कंटिन्युटी है, वहां प्रोसेस होती है। सोल इ.ज नाॅट ए प्रोसेस। सोल इ.ज एक्झिस्टेंस। वह एक प्रक्रिया नहीं है, एक बहाव नहीं है, वह एक अस्तित्व है। यह भी नहीं कह सकते हैं कि वह ठहरा हुआ है, क्योंकि ठहरता वहीं है जो बहता है। वह ठहरा हुआ भी नहीं है और बहता हुआ भी नहीं है।

तीसरी बात जो आपने पूछी है कि आत्मा के ऊपर तो कर्म का भार होगा?

नहीं, आत्मा के ऊपर कभी कर्म का भार नहीं है। कर्म का सारा भार मन के उपर है, माइंड के उपर है, माइंड इ.ज दि पाथ। आत्मा तो महावीर के पास भी है--जब उन्हें ज्ञान हो गया, और तब भी थी जब ज्ञान नहीं हुआ था। फर्क क्या है? जब ज्ञान नहीं हुआ था तब वह अपने मन को ही आत्मा समझ रहे थे। वह अपने पास्ट को ही आत्मा समझ रहे थे। और जब ज्ञान हो गया तब उन्होंने अपने मन को आत्मा नहीं समझा, वह अब उनका पास्ट नहीं रहा। आत्मा सदा स्वतंत्र है, वह कभी बंधन में नहीं है। मन सदा बंधन में है, वह कभी स्वतंत्र नहीं है। और हम आडेंटिफाइड हैं। हम समझ रहे हैं कि मैं मेरा मन हूं। यह मन जो है वह कर्म का बोझ है, आत्मा पर कर्म का कोई भी बोझ नहीं है। आत्मा पर बोझ ही नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो आत्मा का अर्थ ही वेटलेसनेस है। उस पर बोझ हो ही नहीं सकता। वह परिपूर्ण स्वतंत्रता है। लेकिन कौन जान पाएगा इस स्वतंत्रता को। इस स्वतंत्रता को वह जान पाएगा जो मन के बोझ को अलग फेंक देता है। और आत्मा कि परिपूर्ण स्वतंत्रता में खड़ा हो जाता है।
इसलिए धर्म कि दृष्टि से भी मैं धार्मिक आदमी को प्रगतिशील कहता हूं। धार्मिक आदमी को, रिलिजस माइंड को। रिलिजस माइंड वहीं है जो धर्म कि दुनिया में अतित से मुक्त हो रहा है। अपने अतित से, अपने पास्ट लाइफ से, या अपने कर्मों से।
लेकिन हम तो उस आदमी को धार्मिक कहते हैं जो अच्छे कर्म कर रहा है--मंदिर बना रहा है, धर्मशाला बना रहा है, पानी पिलवा रहा है, भोजन करवा रहा है। कुछ अच्छे कर्म कर रहा है। इस पर अच्छे कर्मों का बोझ होता चला जाएगा। फर्क पड़ेगा, इस पर बुरे कर्मों का बोझ नहीं होगा, अच्छे कर्मों का बोझ होगा। लेकिन होने वाला बोझ ही है। यह मुक्त नहीं है। इस पर तो कभी अलग से पूरी बात करनी पड़ेगी।

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