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शनिवार, 10 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

क्रांति के बीच सबसे बड़ी दीवाल


मेरे प्रिय आत्मन्!
भीतर देखता हूं तो एक अपूर्व आनंद है और बाहर देखता हूं तो दुख का एक सागर खड़ा है। अगर भीतर ही जीना चाहूं तो मुझे कोई भी दुख नहीं है, कोई पीड़ा नहीं है। और इस देश के भीतर जीने वाले लोग सदा ही बाहर से आंख बंद करके जीने वाले रहे हैं। निश्चित ही भीतर न कोई दुख है, न कोई पीड़ा है, न कोई अशांति है। एक ऐसी दुनिया भी है भीतर, जहां सरक जाने पर, बाहर के जगत की कोई भी तरंग नहीं पहुंचती। एक ऐसा लोक भी है भीतर जहां उठ जाने पर पृथ्वी का कोई पता नहीं रह जाता है। स्वयं के भीतर भी एक ऐसा बिंदु है, जहां समाज मिट जाता है, राष्ट्र मिट जाते हैंै, मनुष्यता मिट जाती हैं--सब जो बाहर हैं मिट जाता है। बहुत आनंदपूर्ण है वह जगत। सौभाग्यशाली हैं वे लोग जो वहां प्रविष्ट हो जाते हैं। उस लोक में प्रत्येक को प्रविष्ट होने की चेेष्टा करनी चाहिए यही निरंतर मैं कहता हूं। लेकिन वे लोग भी अभागे हैं जो वही रह जाते हैं और बाहर के दुख को बिलकुल भूल जाते हैं।

अपने दुख को मिटा लेना काफी नहीं हैं। चारों तरफ जो दुख खड़ा है उसे मिटाने मे सहयोगी होना भी अत्यंत जरूरी हैं। और जिस देश के साधु-संत अपना दुख ही मिटाने कि चेष्टा में रत है, उस देश के साधु-संत आधे साधु-संत हैं, ठीक अर्थों में पूरे संत और पूरे साधु नहीं हैं। यह बहुत स्वार्थपूर्ण मालूम पड़ता है कि मैं अपने आनंद में डूब जाऊं और बाहर जो जगत दुख और पीड़ा में सरकता हुआ जो

कारवां है, वह सरकता रहे और मैं आंख बंद किए अपनी खुशी में डूबा रहूं, यह अत्यंत स्वार्थपूर्ण, बहुत निम्न और बहुत ओछे मन की वृत्ति मालूम पड़ती है। लेकिन इस देश के साधु-संतों ने आज तक यही निर्णय लिया था कि अपनी शांति खोज लो और किसी से कोई प्रयोजन नहीं हैं।
इस देश के दुर्भाग्य में इसी निर्णय का हाथ है। इस देश से ज्यादा अदभुत लोग शायद ही पृथ्वी पर कहीं पैदा हुए हों। इस देश से ज्यादा बुद्धिमान, ज्यादा शांत, ज्यादा आचरणशील, ज्यादा सत्य को उपलब्ध व्यक्ति भी कहीं पैदा हुए हों; यह संदिग्ध है। लेकिन इस देश से ज्यादा दुखी और पीड़ित कोई देश नहीं हैं। इस समाज से ज्यादा कुरूप और गंदा कोई समाज नहीं हैं। जिस समाज में महावीर होते हों, बुद्ध होते हों, कबीर होते हों, गांधी होते हों, वह समाज ऐसा निम्न, ऐसा ओछा, ऐसा बुरा कुरूप हो तो जरूर इसके पीछे कोई कारण होगा। और वह कारण यह है कि भारत का कोई भी महापुरुष समाज के प्रति जरा भी उत्सुक नहीं है, सिवाय अपनी शांति और आनंद के।
और भारत का समाज भी अदभुत आत्मघाती समाज है। वह उसी आदमी की पूजा करेगा और संत कहेगा, जो आदमी अपनी आंख बंद करके अपनी शांति में खो जाएगा और जिंदगी को भूल जाएगा। मुझे भी यही आनंदपूर्ण है, यही सरल है कि अपने में खोया रहूं। वहां मुझे कोई तकलीफ नहीं, कोई पीड़ा नहीं। लेकिन यह मुझे अमानवीय, इनह्यूमन मालूम होता है कि बाहर जब इतना दुख का सागर हो तब यह कैसे संभव है कि कोई चुपचाप अपने भीतर के आनंद को लेता रहे। यह कैसे संभव है कि जब चारों तरफ बीमरी हो, तब कोई आदमी अपने भीतर के सुख मे, अपने सुख के मंदिर में बैठा रहे।
मुझे लगता है कि जो व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है, आनंद को उप्लब्ध होते ही उसके ऊपर जैसे परमात्मा की तरफ से एक कर्तव्य आ जाता है कि वह दूसरे के लिए भी आनंद के रास्ते पर पत्थर रखे । दूसरों के लिए भी आनन्द की सीढ़ियां बनाए, और दूसरों के लिए भी दुख के गड्डों में जाने से रोकने का प्रयास करे। और जिस समाज का साधु, जिस समाज का विचारशील व्यक्ति, जिस समाज के शांत लोग ऐसा निर्णय नहीं लेते, मुझे लगता है उनकी शांति अधूरी है, कमजोर है। उनकी शांति डरती है कि बाहर के दुख मिटाने में संलग्न हुए तो टूट जाएगी। और हमारी तो आदत इतनी पुरानी हो गई है इस बात को जानने की कि संत को साधु को क्या प्रयोजन है दुनिया से। निश्चित ही कोई प्रयोजन नहीं है संत को और साधु को दुनिया से, अपने लिए कोई भी प्रयोजन नहीं है। लेकिन अपने अतिरिक्त और भी वृहत समाज है, उसके लिए बहुत प्रयोजन है। मुझे निरंतर पूछा जाता है कि मुझे क्या अर्थ है के मैं समाज की क्रांति की बात करूं? मुझे क्या जरूरत है कि मैं फिकर करूं कि समाज कहां विकृत हो रहा है, कहां कुरूप हो रहा है? मैं क्यो चिंता करूं के लोगो को क्या हो रहा है। और बड़ा आश्चर्य तो यह है कि जिन लोगों के लिए चिंता करो वे ही आकर कहेंगे कि क्यो चिंता करते हैं आप?
जिनके लिए परेशाानी उठाओ वही आकर कहेंगे कि आप हमारे लिए परेशानी उठाते हैं तो हमें शक होता है, कि आप कही कोई राजनैतिक व्यक्ति तो नहीं है? उनका कहना भी ठीक है। हजारों साल से इस देश का धार्मिक आदमी एस्केपिस्ट रहा है, पलायनवादि रहा है। इस देश के धार्मिक आदमी का अर्थ था--भागा हुआ आदमी जो जिंदगी से आंख बंद कर लेता है। लेकिन ऐसे आदमी का मैं अधूरा धार्मिक आदमी कहता हूं। अपने आनंद को खोज लो यह ठीक है, परंतु ऐसे आनंद की क्या कीमत है जो दूसरों के दुख को मिटाने में सहयोगी नहीं बनता हो? और ऐसा आनंद कमजोर और नपुंसक है जो डरता हो कि मैं दूसरों का दुख मिटाने की कोशिश करूंगा तो नष्ट हो सकता हूं। मेरा आनंद नष्ट हो सकता है। जो शांति दूसरों की अशांति मिटाने में नष्ट हो जाती हो ऐसी शांति की दो कौड़ी भी कीमत नहीं है।
तो एक तो पहलि बात मैं यह कहना चाहता हूं कि भारत का प्रत्येक युवक भारत के प्रत्येक साधु-संत को मजबूर कर दे, इस समाज को बदलने के लिए उत्सुक कर दे। युवक क्रांति दल, युथ फोर्स के लिए पहली बात मैं यह कहना चाहता हूं कि सारे हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के सत पुरुषों को पकड़ो और कहो कि जिंदगी में आओ, हम तुम्हें जिंदगी से भागने नहीं देंगे--बहुत हो चुका, तुम जिंदगी से बहुत भाग चुके, हजारों वर्षों से तुम जिंदगी से भागते रहे और हम तुम्हारी पूजा करते रहे। अब यह नहीं होगा। हम तुम्हारी पूजा करेंगे, लेकिन भागो मत, जिंदगी में आओ। जिंदगी रद्दी से रद्दी होती चली जा रही है और तुम अपना मोक्ष ही खोजते रहोगे! अगर हम हिंदुस्तान के एक-एक साधु को मजबूर कर दें और प्रार्थना करें और खींच लाए जिंदगी में, तो इस देश के भाग्य को बीस वर्षों में बदला जा सकता है। कोई बहुत कठिनाई नहीं है।
पचास लाख संन्यासी भारत में हैं। पचास लाख संन्यासी अगर उत्सुक हो जाए जिंदगी को बदलने को, तो दुनिया में इतनी बड़ी शक्ति कहीं भी नही है, किसी के भी पास नहीं है। लेकिन वे पचास लाख संन्यासी क्या कर रहे है? पचास लाख संन्यासी अपने-अपने स्वार्थ में रत हैं। आप अपनी दुकान पे आपने स्वार्थ में रत हैं कि अपने लिए धन कमा रहे हैं। वे अपने स्वार्थ में रत हैं कि अपने लिए सुख कमा रहे हैं, लेकिन स्वार्थ में कोई भी फर्क नहीं है। और मैं यह कहना चाहता हूं कि आपका स्वार्थ बहुत छोटा और साधारण है। उनका स्वार्थ बहुत गहरा और मजबूत है। आप अगर दुकान पर रोटी भी कमा रहे हैं तो आपकी रोटी की कमाई आपके धन की कमाई सौ पचास लोगों का हित बनेगी। आपके बच्चे होंगे, आपकी पत्नी होगी, आपके मित्र होंगे, और आप जो समाज में संपत्ति पैदा करेंगे वह भी न मालूम कितने लोगों के लिए रोटी रोजी देने का कारण बनेगी। लेकिन एक साधु जिस शांति को खोजता है, वह शान्ती न उसकी पत्नी को मिलती है न उसके बच्चे को, न उसके मित्रों को। वह शांति निपट उसकी अपनी है।
साधु का स्वार्थ तोड़ना पड़ेगा। साधु को प्रार्थना करनी पड़ेगी कि हम साधु को तभी मानेंगे जब तुम्हारा सुख हमारे लिए बंटने को आतुर हो। तुम्हारी शांति की खोज हमारे लिए आनंद की खोज मे सहयोगी बने। और तुम्हारे जीवन में जो क्रांति हुई है, वह चिन्गारी हमारे समाज को भी बदल देने का आधार बने तो ही हम पूजा देंगे, अन्यथा यह पूजा बंद कर देंगे। हिंदुस्तान में आने वाले भविष्य में साधु को पूजा मिलनी बंद हो जानी चाहिए, अगर वह साधु जिंदगी से आंखें बंद करके भागता है। उससे तो हम आशा कर सकते हैं कि जिसने भीतर कुछ पाया हो वह बाहर के लोगों के लिए भी कुछ करे। उससे भी आशा न हो तो किससे आशा हो सकती है?
भारत का सारा अतीत स्वर्णयुग बन सकता था। लेकिन जो उसे स्वर्णयुग बना सकते थे वे सारे लोग पीठ फेर कर चले गए। जिंदगी तो चलेगी--काम तो चलेगा, चाहे कोई भाग जाए, चाहे कोई जंगलों में छिप जाए--कोई और चलाएगा जिंदगी को। मैं यह कहना चाहता हूं--दुनिया के दूसरे राष्ट्र हमसे आगे हैं, क्योंकि उनकी प्रथम कोटि का आदमी राष्ट्र को चलाता है। हमारा हमेशा द्वितीय और तृतीय कोष्टी का आदमी राष्ट्र को चलाता है। प्रथम कोटि का आदमी भाग जाता है। जो फस्र्ट रेट माइंड है हमारे मुल्क का,ै वह भाग जाता है। सेकेंड रेट, थर्ड रेट, मुल्क को चलाते हैं। निश्चित ही जिन मुल्कों को फस्र्ट रेट माइंड चलाता हैं, हम उनके मुकाबले नही खडे रह सकते, हम कैसे खड़े हो सकते हैं उनके मुकाबले? उनके मुल्क को चलाने वाली जो सूझ है, वह प्रथम कोटि के मस्तिष्क से आती है। हमारा प्रथम कोटि का मस्तिष्क आंखें बंद करके बैठ जाता है। द्वितीय और तृतीय कोटि के लोग मुल्क की नौका को हजारों साल से चला रहे हैं। हम दुनिया में पिछड़ते चले गए। हम प्रथम कोटि के लोगों के सामने द्वितीय-तृतीय कोटि के लोगों को नहीं टिका सकते।
यह पहली बात ध्यान में रख लेनी जरुरी है कि भारत के प्रथम कोटि की प्रतिभा को समाज के जीवन में उत्सुकता लेनी होगी। और डर क्या है उसे? अगर तुम्हें अपना आनंद मिल गया है तो घबड़ाते क्यों हो? जो आनंद खो सकता हो उस आनंद का कोई भी मूल्य नहीं है और जो आनंद एक विशेष सिक्लुजन मे, एक खास स्थिति में बना रहता हो, अपनी झोपड़ी में बैठ कर, अपनी गुफा में बैठ कर या अपने मंदिर के दरवाजे बंद करके जो आनंद बना रहता हो, वह आनंद धोखा है।
आनंद की कसौटी यह है कि जहा जिंदगी दुख से जूझ रही है वहां आकर खड़े हो जाओ। और वहां आनंद बना रहे, तो समझना कि वह आनंद आत्मिक है, अन्यथा समझना कि वह आनंद आत्मिक नहीं है। वह आनंद है ही नहीं, वह केवल दुख की स्थितियों से बच जाना है।
एक आदमी दुकान पर बैठा है, परेशान है, बच्चों की चिंता करनी पड़ती है, उन्हें पढ़ाना है, वह बीमार है, घर की चिंता करनी पड़ती है, दस लोगों की चिंता उठानी पड़ती है--परेशानी है। वह दसो की चिंता छोड़ कर जंगल में भाग जाता है--सोचता है बड़ा आनंद मिला। आनंद नहीं है यह। सिर्फ दस आदमियों की चिंता का आभाव है। और ध्यान रहे जो आदमी दस आदमियों कि चिंता छोड़ कर छोड़ कर भागता है, वह आदमी उस आदमी से बदतर है जो दस आदमियों की चिंता का बोझ उठाता है और ढोता है। और यह सोचता हो कि मैं आनंद में पहुंच गया, तो वह गलती में है। यह आदमी आनंद में नहीं पहुंच गया है।
 इस आदमी ने जो दायित्व थे जिंदगी के, वे दायित्व भर छोड़ दिए। यह आदमी इररिस्पांसिबल हो गया। यह उत्तरदायित्वहीन हो गया है। और अगर इसे सच में आनंद मिल गया है तो वापस लौट आओ। जिंदगी पुकारती है और यहां जरूरत है। वहां जंगल में बैठने की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा तुम्हें मिल गया है तो आ जाओ, और इन सारे लोगों को भी परमात्मा की खोज में संलग्न करो। लेकिन नहीं, हमारा साधु कहता है कि वह नहीं आएगा।
अगर हिंदुस्तान के युवक इसको और आगे बरदाश्त करते हैं तो इसने मुल्क की रीढ़ को तोड़ दिया है। ये मुल्क के भविष्य को बिलकुल अंधकारपूर्ण कर देंगे--यह बात है! हिंदुस्तान के युवकों को प्रार्थना करनी चाहिए कि मंदिरों से हम खींच कर ले आएं उनको, जो वहां बैठे हैं। जंगलों से खींच लाए उनको जो वहां बैठे हैं। उनको खींच लाएं जो जिंदगी से भाग गए। न हीं हम उनसे कहते हैं कि तुम जिंदगी मे आके दुकान चलाओ। न हीं हम उनसे कहते हैं कि तुम जिंदगी में आकर हम जैसे हो जाओ। लेकिन ईतना तो हम उनसे कह सकते हैं कि तुम्हें जो मिल गया है, वह हमें भी मिल सके, तुमने जो पा लिया है, जिन सूत्रों पर तुमने अपनी जिंदगी को बदल लिया है,यह पूरा समाज भी उन्हीं सूत्रों से जिंदगी को बदल सके। अब तुम्हें मिल गया है। अब तुम अपनी चिंता छोड़ दो, हमारी चिंता करो, जिन्हें कि नहीं मिला।
लेकिन ऐसा लगता है कि हमने इसपर कोइ ध्यान नही दिया। भारत के समाज ने साधु की पूजा की, साधु का कोई उपयोग नहीं किया। हां, एक उपयोग किया है कि साधु व्याख्यान देता है,और समझाता है हमे, वह क्या समझाता है, वह समझाता है कि जिस भांति--‘मैं छोड़ कर भाग गया हूं, उसी भांति तुम भी छोड़ कर चले जाओ।’ तुम कहा पाप में पड़े हुए हो? तुम कहां जिंदगी को गंवारी में गंवा रहे हो! हम बड़े आनंद में हो गए हैं, तुम भी भाग आओ। हालांकि वे अच्छी भाति जानता हैं कि वह आनंद में जिंदगी गुजार रहा है, क्योंकि इतने लोग श्रम कर रहे हैं अन्यथा ये पचास लाख लोग एक दिन भी जिंदा नहीं रह सकते। कोई आदमी दुकान कर रहा है, दुकान पर पाप कर रहा है, इसलिए एक आदमी स्थानक मे या मंदिर मे बैठा हुआ आनंद कर रहा है। न इसे रोटी मिलेगी, न इसे कपड़ा मिलेगा, न यह जी सकता है एक दिन।
या तो साधुओं से कह दिया जाना चाहिए कि तुम चले जाओ हिमालय पर, फिर मत लौटना। फिर ठीक है। हमसे संबंध ही टूट गया। लेकिन कोई साधु बंबई छोड़ कर नहीं जाना चाहता, बंबई में रहना चाहता है। मोहल्ले बदल लेता है। बहाने कर लेता है कि माटुंगा से घाटकोपर चला गया तो गांव बदल गया। बेईमानी की भी हद होती है। बंबई में ही जमे हुए हैं वर्षों से और समाज को छोद दिया है इन्होने। बंबई का ही शोषण करते रहेंगे! और ये भीतर की शांति में लीन हो गए है! और इनकी भीतर की शांति को जिंदगी की इतनी कुरूपता नहीं दिखाई पड़ती! जिंदगी की बेईमानी नहीं दिखाई पड़ती!
जिन नेताओं की वजह से मुल्क सड़ रहा है, उनकी ये साधु-संन्यासी खुशामद करते रहेंगे। उनके साथ चित्र उतरवाने में आनंदित होते रहेंगे। और इनको आनंद मिल गया है! परमात्मा मिल गया है! जिनको परमात्मा मिल जाता है, उनकी जिंदगी एक आग बन जाती है, उनकी जिंदगी एक पुकार बन जाती है, सब कुछ बदल डालने की एक तीव्र आकांक्षा बन जाती है।
लेकिन हमने साधु-संन्यासियों के साथ अदभुत मामला किया हुआ है। यह मैं पहली बात कहना चाहता हूं कि युवक-क्रांति दल--‘युक्रांद’ या ‘यूथफोर्स’ सारे मुल्क में ताकत इकट्ठी करे और साधुओं को कहे कि हमारी जिंदगी को बदलने के लिए संलग्न हो जाओ। मगर हम पचास वर्षों तक हिंदुस्तान के साधु को संलग्न करने के लिए राजी हो जाएं तो हिंदुस्तान की जिंदगी में सुगंध आ जाएगी। उनकी जिंदगी कुछ और हो जाएगी।
साधु के पास बड़ी शक्ति है। लेकिन साधु की सारी शक्ति एक काम में लगती है कि वह आपसे अपनी पूजा कैसे करवा ले। उसकी सारी शक्ति इसमे नष्ट होती है। बड़ी शक्ति है उसके पास लेकिन वह सारी ताकत उसमें लगाई है कि वह आपसे पूजा कैसे करवा ले। और हम भी ऐसे मूढ़ हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है, कोइ हिसाब रखना मुश्किल है कि हमारि मूढ़ता कैसी है। हम साधु का एक ही काम कर रहे हैं--पूजा करने का--और अगर वह पूजा के योग्य नहीं ठहरता, तो निंदा करने का। इसके सिवाय हम उससे कोई और उपयोग नहीं ले रहे। या तो साधु की निंदा होती है या प्रशंसा होती है। यह दोनों बातें फिजूल हैं, न निंदा का कोई उपयोग है, न प्रशंसा का कोइ उपयोग है। साधु पूरे वक्त कोशिश में लगा है चारों तरफ देखने में कि आप किन-किन बातों से आदर देते हैं, और वह बेचारा वही-वही बातें किए चला जा रहा है।
आप कहते हैं कि आदमी नंगा खड़ा होगा तो हम आदर देंगे तो वह बेचारा नंगा खड़ा है। आप कहते हैं एक दफे खाना खाएगा तो वह एक दफे खाना खा रहा है। आप कहते हैं--स्त्री को नहीं छुएगा तो वह स्त्री को नहीं छू रहा है। आप जो कहते हैं, वह बेचारा कर रहा है, क्योंकि उसको आदर चाहिए। और आपके आदर देने की शर्तें हैं। और वह उन शर्तों का पालन करनेे में पूरी जिंदगी गंवा रहा है। वह उन शर्तों का पालन करेगा, आप आदर दे देंगे--नहीं कर सकेगा, आदर छूट जाएगा। इतना समाज का और साधु का संबंध है। इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं। और वह आपको चैबीस घंटे समझाता रहेगा कि तुम भी भाग जाओ जिंदगी से। और जितनी वह आपको गाली देगा उतना अच्छा लगेगा। जितना वह कहेगा कि तुम पापी हो, नरक में पड़ोगे--उतना लगेगा कि वह बड़े हित की बातें कर रहा है। नरक से बचाने की कोशिश कर रहा है।
साधु अगर हिंदुस्तान के जीवन में उत्सुक नहीं होते हैं, और हिंदुस्तान में जो साधुमना लोग हैं वे भी साधु होते चले जाते हैं, तो हिंदुस्तान की आत्मा खो जाती है। यह कल्पना करना भी हैरानी से भर देता है मन को, अगर हिंदुस्तान के पांच हजार वर्ष के साधुओं ने जिंदगी को बदलने की कोशिश की होती, सिर्फ आदर पाने की चिंता न की होती...और ध्यान रहे, जिंदगी को बदलने वाला आदमी आदर मुश्किल से पा सकता है, अनादर आसानी से पा सकता है। क्योंकि जिंदगी को बदलने का मतलब है, वेस्टेड इंट्रेस्ट को तोड़ना, न्यस्त स्वार्थ है, उसको बदलना और तोड़ना। जिंदगी को बदलने का मतलब है, जिनके हाथ में ताकत के पद है, उनसे विरोध लेना। जिंदगी को बदलने का मतलब है कि जो आज हावी है समाज पर, उससे दुश्मनी लेना, क्योंकि जिंदगी बदलती है तो आज जो हावी है वह नीचे गिर जाएगा, जो पदों पर है वह बिना पदों के हो जाएगा, जो आज शोषण कर रहा है वह शोषण नहीं कर सकेगा, जो आज गर्दन दबाए हुए है उसके हाथ से गर्दन छूट जाएगी।
जिंदगी को बदलने का मतलब है, समाज का जो ऊपर का वर्ग है, उस वर्ग से विरोध लेना। और जिंदगी से आदर पाने का एक ही सूत्र है, कि समाज के ऊपर के वर्ग को प्रसन्न रखना। अगर ऊपर के वर्ग को प्रसन्न रखना है तो जिंदगी कभी नहीं बदली जा सकती। लेकिन आदर बहुत मिल सकता है। साधु को दो बातें में से एक बात तय करनी है, या तो वह जिंदगी को बदलने के लिए आतुर होगा या आदर को लात मार देगा। हो सकता है; लोग उसे संत कहने न आएं। हो सकता है, कहें ‘महात्मा!’ पहले हम तुम्हें ‘महात्मा’ समझते थे, लेकिन अब बात खत्म हो गई। अब तुम महात्मा नहीं हो।
यह हमें पता नहीं है, कि समाज की जो मेकेनिज्म है, समाज का जो यंत्र है, वह बहुत तरकीब से चलता है। वह तरकीब ये हैं कि ‘समाज का न्यस्त स्वार्थ’, जिसके हाथ में स्वार्थ के मुद्दे हैं--जो नहीं चाहता कि समाज जराबी बदले--चाहे धर्मगुरु हो, चाहे राजगुरु हो, चाहे राजनेता हो, चाहे धनरति हो, चाहे और तरह के प्रतिष्ठित लोग हों, जो नहीं चाहते कि समाज बदले। वे समाज की प्रतिभा को आदर देते हैं रिश्वत में, ताकि समाज की प्रतिभा समाज को बदलने की कोशिश न करे। और अगर समाज की प्रतिभा समाज को बदलने की कोशिश करती है तो वह अनादर देना शुरू कर देते है। और एक-एक आदमी के भीतर इतना अहंकार है, कि झंझट की झंझट लो और पूजा भी छोड़ो, बिलकुल पागलपन है।
लेकिन साधु से हम आशा कर सकते हैं कि वह आदर की फिकर नहीं करेगा। क्योंकि आदर की फिकर वही करता है जो अपने अहंकार का पोषण करना चाहता है। आदर की क्या फिकर है? आदर की चिंता का अर्थ एक ही है कि जो अपने अहंकार का पोषण करना चाहता है। आदर अहंकार का भोजन है। मैं आपसे आदर मांगूंगा अगर मुझे अहंकार का भोजन भरना है। और अगर अहंकार का भोजन मुझे भरना है तो कहां की आत्मा! कहां का परमात्मा! कहां की शांति! कहां का आनंद! अहंकार ही तो दुख है।
हिंदुस्तान के साधु को समझाना है कि बहुत पूजा तुम ले चुके। अब हम उसी को साधु कहेंगे जो पूजा लेने से इनकार कर देंगे। अब हम उसी को साधु कहेंगे जो अनादरत होने को तैयार है, जो आदर की चिंता छोड़ता है। अब हम उसी को साधु कहेंगे जो समाज की जिंदगी को बदलने के लिए आतुर है। अब हम उसी को साधु कहेंगे जो परमात्मा का इस काम को करने को आगे आता है।
अब साधु से सिर्फ प्रवचन नहीं सुनने हैं। अब साधु से हमे जीवन में क्रांति भी चाहिए। हिंदुस्तान के साधु ने क्रांति तो नहीं लाई। हिंदुस्तान का साधु प्रति-क्रांतिवादी, रिएक्शनरी साबित हुआ है। हिंदुस्तान का साधु जितने जोर से क्रांति को रोकता है उतना कोई भी नहीं रोकता। इसलिए क्रांति का रुकना जिनके हित में है, वे साधु को आदर देते हैं। क्योंकि साधु मुद्दा है क्रांति को रोकने का। वह गढ़ है जहां से क्रांति रुकती है। और इसलिए हिंदुस्थान के पांच हजाार वर्षों में एक भी क्रांति नहीं हुई--न कोई वैचारिक क्रांति, न कोई सामाजिक क्रांति, न कोई राजनैतिक क्रांति, न कोई सांस्कृतिक क्रांति। दुनिया के दूसरे मुल्कों में क्रांतियां होती रहीं। हिंदुस्तान में क्रांति क्यों नहीं हुई। हिंदुस्तान में क्रांति नहीं हुई क्योकि क्रांति और समाज के बीच में साधु की ब.हुत शक्तिशाली जमात खड़ी है, जो दुनिया में और कहीं भी नहीं है। फ्रांस में क्रांति हो सकी, रूस में क्रांति हो सकी। साधु की जमात नहीं है समाज के और क्रांति के बीच में।
साधु एक अदभुत काम कर रहा है। रेल के डिब्बे में बफर लगे होते हैं बीच में, उसकी वजह से धक्का नहीं लगता। कार में सिं्प्रग लगे होते हैं, उनकी वजह से रास्ते के झटके नहीं लगते। साधु इस हिंदुस्तान के समाज में बफर और सिं्प्रग का काम कर रहा है। उसकी वजह से कोई धक्का समाज तक नहीं पहुंच पाता।
यह हालत बदलनी पड़ेगी। युवक इसको बदल सकते है। कैसे बदल सकते हैं? एक तो निर्णय करोें कि साधु को आदर तब देगें जब वह जिंदगी में रस लेगा और जिंदगी को बदलने के लिए तैयार होगा। और जिंदगी को बदलने को ही प्रार्थना और साधना मानेगा। तब हम आदर देंगे, नहीं तो नहीं देंगे आदर।
अगर युवकों की जमात यह तय कर ले तो साधु को दो वर्ष के भीतर रास्ते पर लाया जा सकता है, कि तुम रास्ते पर आ जाओ और जिंदगी को बदलने की फिकर करो। लेकिन युवक एक भूल कर रहे हैं। युवक साधु से दूर ही चले गए हैं। वृद्धजन साधु के चरण छू रहे हैं। युवक साधु के पास ही नहीं जाते हैं। युवकों को साधु के पास जाना चाहिए। पैर छूने नहीं, साधु को जिंदगी और समाज में खींच लाने के लिए। और जरूर पैर छूना, जिस दिन साधु जिंदगी को बदलने के लिए आतुर हो जाए, उसे आदर देना। क्योंकि वह बहुत अनादर झेलने को राजी हो रहा है। लेकिन यह करना पड़ेगा। कितनी बड़ी जमात है युवकों की, अगर युवक निर्णय करेंगे और एक सत्याग्रह की धारण उनके मन में होगी कि हम साधु को जिंदगी में खींच के ले आएंगे, तो बदलाहट हो सकती है।
बट्र्रेंड रसल ने एक लेख लिखा है। उस लेख का शीर्षक मुझे बहुत पसंद पड़ा। उस लेख के शीर्षक में लिखा हैः दि हार्म दैट गुड मैन डू--मैं बहुत हैरान हुआ कि यह कैसा शीर्षक है? नुकसान जो अच्छे आदमी पहुंचाते हैं। अच्छा आदमी भी कभी नुकसान पहुंचाता है? कभी सुनी आपने यह बात? बुरे आदमियों ने उतना नुकसान कभी नहीं पहुंचाया क्योंकि बुरा आदमी कमजोर होता हैं। बुरे आदमी की ताकत क्या है? बुरा आदमी दुनिया को ज्यादा नुकसान कभी नहीं पहुंचा सकता क्योंकि बुरे आदमी के पास ताकत नहीं होती, आत्मा नहीं होती। दुनिया को नुकसान हमेशा अच्छा आदमी पहुंचाता है। क्योंकि अच्छे आदमी के पास ताकत होती है, बल होता है। अच्छा आदमी दुनिया को लाभ भी पहुंचा सकता है, नुकसान भी। नुकसान वही पहुंचा सकता है, जो लाभ पहुंचा सकता है। जो लाभ नहीं पहुंचा सकता वह नुकसान भी नहीं पहुंचा सकता। इसको समझ लेना जरूरी है। बुरा आदमी कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता दुनिया को। तो ध्यान रहे, जिसकी लाभ पहुंचाने की कोई ताकत नहीं है, उसकी नुकसान पहुंचाने की भी कोई ताकत नहीं हो सकती। और जितने दूर तक वह नुकसान पहुंचा सकता है उतने ही दूर तक वह लाभ पहुंचा सकता है। लाभ और नुकसान पहुंचाने की ताकत एक होती है। उससे लाभ भी पहुंचाया जा सकता है और नुकसान भी पहुंचाया जा सकता है।
अच्छा आदमी नुकसान पहुंचा सकता है, क्योंकि अच्छा आदमी लाभ पहुंचा सकता है। पहला नुकसान तो वह यह पहुंचा सकता है कि लाभ न पहुंचाए, बस रुक जाए। लाभ न पहुंचाए तो भारी नुकसान हो जाएगा, और कोइ उससे कहने भी नहीं जाएगा कि आपने हमें नुकसान पहुंचाया--क्योंकि निगेटिव--उसने कोइ पाॅजिटिव नुकसान नहीं पहुंचाया!
समझ ले कि गांधी भी संन्यासी हो जाते, और हिमालय चले जाते तो कोई जिम्मा नहीं ठहरा सकता था कि गांधी ने आपको नुकसान पहुंचाया। आज हम कहते हैं कि गांधी ने कितना ज्यादा फायदा पहुंचाया। लेकिन अगर गांधी गेरुआ वस्त्र पहन कर जंगल में चले जाते तो आप कहने जाते कि, आपने कितना नुकसान पहुंचाया? हमे पता ही नही चलता कि निगेटिव नुकसान का कोई पता नहीं चलता कि कितना पहुंच जाता है। एक गांधी के हट जाने से हिंदुस्तान की जिंदगी और ही होती, बिलकुल दूसरी होती। हिंदुस्तान की आत्मा ही नहीं खड़ी हा पाती। एक गांधी के हट जाने से यह हालत हो जाती कितने गांधी हिंदुस्तान के हट गए, क्या हिसाब है आपको? अगर वेे कोई भी न हटे होते तो ये मुल्क और ही मुल्क होता। इसकी रौनक, इसकी चमक और होती। इसकी प्रतिभा और होती। इसका बल और होता। सब कुछ और होता, लेकिन नहीं वे हट गए। जो हट गए उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। लेकिन हम समझ सकते हैं कि नुकसान पहुंचा है। वे क्यों हट गए? और हमने क्यों हटने दिया? यह समाज क्यों हटने देता है, अपने अच्छे आदमी को? और ध्यान रहे, जब अच्छा आदमी हटता है तो उसकी जगह बुरा आदमी भर देता है। जगह खाली नहीं रहती, इस दुनिया में वैक्यूम नहीं रहता कि आप हट गए तो जगह खाली रहेगी, कि जब अच्छा आएगा तब भर जाएगी। बुरा आदमी चारों तरफ मौजूद है। वह प्रतीक्षा कर रहा है कि महाराज आप हटो, हम आपकी जगह आजाएंगे। वह बुरा आदमी हटने वाले आदमी की बहुत प्रशंसा करता है कि आप बहुत महात्मा पुरुष हैं। आप हट गए आपने बड़ा अच्छा किया। क्योंकि अच्छा आदमी अगर समाज में हो तो बुरा आदमी उंचे स्थानो पर नही हो सकता है। अच्छा आदमी समाज में हो तो बुरा आदमी समाज को गति नही दे सकता है। अच्छा आदमी समाज में हो तो बुरा आदमी समाज का नेतृत्व नहीं ग्रहण कर सकता है। लेकिन अच्छा आदमी भाग जाता है, बुरा आदमी उसकी जगह बैठ जाता है।
हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ इस बात से बहुत खुश हैं कि हिंदुस्तान का अच्छा आदमी जंगल चला जाता है। क्योंकि जंगल जाता हुआ अच्छा आदमी बुरे आदमी के लिए जगह खाली कर जाता है। इसलिए तो उसको गांव के बाहर लेने और नमस्कार करने जातेे हैं। गांव के बाहर राजनीतिज्ञ जाता है, मिनिस्टर जाता है। फलां साधु आ रहे हैं, उनका स्वागत करने। फिर गांव के बाहर विदा करने भी जाता है। वह जानता है कि वह बहुत अच्छा आदमी है ने बड़ी कृपा की। यह होता जिंदगी में तो हम यहां नहीं हो सकते थे, जहां हम हैं। यह बहुत मुश्किल था होना इसका। बुरे आदमी के लिए जगह खाली की जा रही है।
भारत के भविष्य को बदलना है तो अच्छे आदमी को रोकना पड़ेगा। मजबूती देनी पड़ेगी कि खड़े रहो, भागो मत। क्योंकि बुरा आदमी हम पर बहुत दिनों से नेतृत्व कर रहा है। वह हमें गड्ढे में गिराए चला जा रहा है-गिराए चला जा रहा है । अच्छे आदमी को खड़ा होना पड़ेगा जिंदगी में। सब रूपों में अच्छे आदमी को खड़ा होना पड़ेगा। अच्छे आदमी ने नुकसान पहुंचाया है।
क्या हम अच्छे आदमी को जिंदगी में वापिस लाने की कोइ व्यवस्था कर सकते हैं? यह युवक क्रांति दल को सोचना और विचार करना चाहिए। उस संबंध में चिंतन होना चाहिए। सारे मुल्क में एक डायलाग की जरूरत है कि पूरे मुल्क में युवक सोचें। एक-एक युनिवर्सिटी कैंपस में सोचें, अच्छे आदमी को कैसे रोकें। अच्छे आदमी के भागने की आदत इतनी प्राचीन हो गई है कि उसे तोड़ना मुश्किल है। भागने मैं सुख भी बहुत है क्योंकि भाग गया और झंझटों के बाहर हो गए। युद्ध के मैदान पर लड़ना कष्टपूर्ण बात है, भाग जाना हमेशा आसान है। जिंदगी के मैदान पर भी वही हालत है। युद्ध के मैदान पर हम कायरों को सम्मान नहीं देते, इसलिए बहादुर आदमी युद्ध के मैदान पर खड़ा रहता है। जिंदगी के मैदान में हम भागने वाले कायरों को सम्मान देते हैं। इसलिए जिंदगी में जिसको भी सुविधा मिलती है भागने की वह निकल भागता है।
जिंदगी के संघर्ष पर भी हमें उनको ही आदर देना है। हमें आदर का वैल्यूएशन, पूरी की पूरी ‘वैल्यू’ बदल देनी है--उनको आदर देना है जो जिंदगी के मैदान में भी खड़े होकर लड़ते हैं, हां, साधु की तरह लड़ते हैं, असाधु की तरह नहीं। साधु की तरह लड़ने का मजा और है। असाधु की तरह लड़ना बड़ा दुखद है। साधु की तरह लड़ना ब.हुत आनंदपूर्ण है। और जो साधु की तरह नहीं लड़ सकते और असाधु की तरह लड़ने से बचते हैं वे भाग जाते हैं। लेकिन न वे साधु रह जाते हैं, न वे असाधु रह जाते हैं। वे जिंदगी को ही छोड़ कर भाग गए, जहां कसौटी थी, जहां परीक्षा थी।
क्या हिंदुस्तान के चिंतन में यह क्रांति लाई जा सकती है कि हम अच्छे आदमी को रोक सकें? और जो अच्छा आदमी चला गया उसे भी कहें, कि लौटो, जिंदगी को बदलो। यह जिंदगी बहुत गंदी हो गई। यहां बगीचा सब उजड़ गया। यहां फूल खिलने बंद हो गए। तुम अपनी शांति कब तक खोजते रहोगे? आगर खोज ली है तो आ जाओ। और क्या यह नहीं हो सकता कि हमारी अशांति को दूर करना भी आंतरिक शांति को खोजने का मार्ग हो? यह है। मुझे तो दिखाई यह पड़ता है कि जो आदमी दूसरे का दुख दूर करने में लग जाता है उसके अपने दुख तत्काल समाप्त हो जाते हैं। जब तक आदमी अपना दुख दूर करने में लगा रहता है तब तक दुखि बना रहता है। और जिस दिन ये संकल्प करता है कि दूसरे का दुख तोडंूगा, उसी दिन वह पाता है कि भीतर के सब दुख मिटने शुरू हो गए। क्योंकि सबसे बड़ा दुख--‘मैं’ केंद्रित होना है, ईगो सेंटर्ड होना है! उससे बड़ा न कोई दुख नही है। और जो आदमी अपने पर ही ‘सेंटर’ बना कर जीता है कि मुझे अपना दुख दूर करना है, अपनी अशांति दूर करनी है, अपना तनाव दूर करना है, वह आदमी दुखी से दुखी होता चला जाता है। क्योंकि सबसे बड़े दुख का कारण है, ‘मैं !
अगर एक आदमी जिंदगी के चारों तरफ के दुख को दूर करने में लग जाता है, वह पाता है कि मैं तो टूट गया, मैं तो खो गया, मैं तो गया, अब मैं हूं कहां? इतने दुख हैं जिंदगी में कि किससे कहूं, मैं भी अशांत हूं! और अगर एक आदमी दूसरे का दुख दूर करने में लग जाए, संलग्न हो जाए तो बड़े आश्चर्य की घटना घटती है कि उसका दुख मिटना शुरू हो जाता है। क्योंकि वह खुद मिटना शुरू हो जाता है। लेकिन यह खयाल पैदा करना पड़ेगा, यह खबर ले जानी पड़ेगी गांव-गांव, एक-एक आदमी तक। और केवल खबर नहीं ले जानी पड़ेगी, इसके लिए कुछ सक्रिय कदम उठाने पड़ेंगे। मैं तो चाहता हूं कि हजार-हजार युवक एक-एक साधु के पास जाकर डेरा डाल दें, घेराव डाल दें, और कहें कि भागो मत, जिंदगी में लौट आओ, हमें बदलो। यहां जिंदगी बहुत कष्ट भोग रही है। यहां जिंदगी में बहुत अनीति है, बहुत व्यभिचार है, बहुत अनाचार है, इसको तोड़ो। इसको कैसे तोड़ा जा सकता है--सोचो, और बाहर आओ! मंदिरों में हम तुम्हें नहीं रहने देंगे, क्योंकि हम पूरे समाज को मंदिर बनाना चाहते हैं। यहां आ जाओ, ये बंद मंदिर, छोटे-छोटे क्लोज्ड मंदिर नहीं चलेंगे। हम पूरे समाज को मंदिर बनाना चाहते हैं।
एक बार, हिंदुस्तान के अच्छे आदमी को जिंदगी में रस लेने के लिए आतुर करना है, सम्मान की धारणा बदलनी है। और ध्यान रहे, सम्मान की धारणा बदलते ही क्रांति आ जाती है। हमें पता नहीं कि आदमी का दिमाग कैसे चलता है!
राहुल सांकृत्यायन पहली दफे रूस गए, उन्नीस सौ बत्तीस तैंतीस सौ में। उनके हाथ बहुत खूबसूरत थे। उनके हाथ बहुत कोमल और मुलायम थे--स्त्रैण थे कहना चाहिए--हाथ बिलकुल स्त्रियों जैसे थे। कभी कोई काम नहीं किया था। हाथ में कोइ मजदूर के गट्ठे नहीं थे। यहां तो जो भी उनका हाथ देखता था, हाथ पकड़ कर कहता था, आह! इतना खूबसूरत, इतना कोमल, इतना मुलायम, इतना मखमली हाथ! वे पहली दफा रूस गए। जिस व्यक्ति ने उनका स्टेशन पर स्वागत किया, उसने हाथ मिलाया और हाथ खींच लिया और कुछ इस तरह हाथ खींच लिया कि वे हैरान हो गए कि बात क्या है? उन्होंने पूछा कि क्या बात है? उसने कहा कि आपको सब जगह तकलीफ होगी, जो भी आप से हाथ मिलाएगा, वह समझ जाएगा कि यह आदमी मुफ्तखोर है। यह हाथ बिलकुल इतना लोच है कि इसने कभी काम नहीं किया। आप रूस में जरा हाथ सम्हल के मिलाना। क्योकि हम उस आदमी को आदर देते हैं जिसके हाथ में कुछ मेहनत-मजदूरी का सबूत हो, नहीं तो हम मुफ्तखोर समझते हैं आदमी को। आप मुफ्तखोरों में से एक मालूम पड़ते हो। राहुल ने लिखा कि रूस भर में मै डरा रहा--हाथ की प्रशंसा की तो बात दूर, जिसने भी हाथ मिलया...मुझे उसके चेहरे पर लगा कि यह आदमी मेरे हाथ के बाबत में अच्छा निर्णय नहीं ले रहा। आश्चर्य की बात है, लेकिन हम उस आदमी को सबसे ज्यादा आदर देते हैं जो सबसे कम श्रम करता हो। तो फिर ठीक है, तो सबसे कम श्रम करने वालों को सबसे ज्यादा आदर दोगे और मुल्क अगर कायर और सुस्त होता जाए तो रोना क्यों? रोने की क्या जरूरत?
हमारा मूल्यांकन गलत है। नेहरू जी के बाबत मुझे पता है कि उनके बाप के बाप एक चपरासी थे, लेकिन उनका उन्होंने उल्लेख नहीं किया। इसिलिए कि चपरासी का कैसा उल्लेेख किया जाए? मोतीलाल जी की बहुत चर्चा की है उन्होंने, लेकिन अपने दादा की बिलकुल चर्चा नहीं की। बात ही नहीं उठाई। क्योंकि दादा एक चपरासी थे। उसकी बात ही नहीं उठाई क्योंकि चपरासी का पोता होना बड़ी दुखद बात है। और एक व्यक्ति ने यह बात उठा दी एक भाषण में कि नेहरू जी के दादा चपरासी थे तो नेहरू जी बहुत नाराज हो गए, और कहने लगे कि तुम मेरे परिवार के संबंध में, रिसर्च करते हो? मैं भी नहीं चाहता कि कोइ किसी के परिवार के संबंध में रिसर्च करें। यह कोइ अच्छे आदमी का लक्षण नहीं। लेकिन चपरासी होना कुछ बुराई भी नहीं है। चपरासी होने में क्या बुराई है? श्रम में बुराई है, तो चपरासी होने में बुराई है।
मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं, हमारे मूल्य क्या हैं? उससे समाज निर्मित होता है। अगर श्रम को हम आदर देंगे तो एक संकल्पशाली और श्रमिक समाज निर्मित होगा। अगर श्रम शून्य को हम आदर देंगे--ऐसे लोगों को आदर देंगे जो श्रम नहीं करते तो एक काहिल और सुस्त और ढीला-ढीला समाज निर्मित होगा। अगर हम अच्छे लोगों को आदर देंगे, वह जिंदगी में सक्रिय हों, तो अच्छे लोग जिंदगी में सक्रिय होंगे। और अगर हम भागते हुए लोगों को आदर देंगे तो अच्छे लोग भाग जाएंगे। जिंदगी में सक्रिय भी हों और अनादर भी पाओ, बहुत कम लोग इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे--वे भाग जाएंगे।
आपको शायद पता नहीं कि गांधी को हजारों चिट्ठियां पहुंचती थीं, कि आप महात्मा होकर इस कहां के गोरखधंधे में पड़े हो? छोड़ो इसको। अपने परमात्मा की खोज करो। गांधी हिम्मतवर आदमी रहे होंगे--इन चिट्ठियों की फिकर नहीं की। वैसे ये चिट्ठी वाले उनको रास्ता सरलता का बता रहे थे। कहां की झंझट में पड़े हो? फिजूूल जेल जाओ--परेशान हो--ये सब दिक्कतें उठाओ और महात्मागिरी में भी संदेह पैदा करवाओ? यह जो, आगर हम यूथफोर्स के युवक और युवतियां इस तरफ थोड़ा ध्यान दें और साधु को जिंदगी की क्रांति के लिए सैनिक बना सकें तो हिंदुस्तान बदल सकता है। यह पहली बात--और एक दूसरी बात, फिर मैं अपनी बात यहां खत्म कर दूंगा।
हिंदुस्तान में अच्छे आदमी को सक्रिय होना है--एक सूत्र; और दूसरा सूत्र--हिंदुस्तान अब तक शब्दों में सोचने का आदी रहा है--तथ्यों में सोचने का नहीं। हम हमेशा शब्दों के खेल में खो जाते हैं। हमें याद ही नहीं रहता कि शब्द में और तथ्य में बहुत फर्क है। तथ्य, फैक्ट्स एक बात है और शब्द बिलकुल ही दूसरी बात है। लेकिन यह हमारी आदत इतनी पुरानी हो गई है कि हम शब्दों में खो जाते हैं और शब्दों में विचार करने लगते हैं। और शब्दों की अलग यात्रा शुरू हो जाती है। और तथ्य पड़ा रह जाता है उसकी हमे फिकर ही नहीं रहती कि तथ्य क्या है? फैक्ट क्या है? धीरे-धीरे शब्दों का एक जाल खड़ा हो जाता है और जिंदगी उदास होती चली जाती है क्योंकि जिंदगी बदलती है तथ्यों से। जिंदगी शब्दों से नहीं बदलती है। क्योंकि हम शब्दों के आदी हो गए हैं--तथ्यों की हमारी आदत ही नहीं रही। इसलिए भारत में विज्ञान पैदा नहीं हो सका। साइंस पैदा नहीं हो सकी। फिलासफी तो पैदा हुई--क्योंकि फिलासफी तो शब्दों का खेल है। साइंस पैदा नहीं हुई क्योंकि साइंस तथ्यों से चलती है--‘फैक्ट्स’ से चलती है। हिंदुस्तान का भविष्य बुरे से बुरा होता चला जाएगा, अगर हिंदुस्तान में साइंटीफिक माइंड पैदा नहीं होता।
इसलिए ‘यूथफोर्स’ के मित्रों से मैं कहूंगा कि दूसरी मेहनत करो कि हिंदुस्तान में एक वैज्ञानिक चिन्तन की धारा पैदा हो जाए। बहुत फिलासफी हमने सोच ली। फिलासफी हमें बहुत गड्ढे में ले गई। बहुत खतरनाक हो गया फिलासफी का मामला। हमने शब्दों की खाल इतनी उखाड़ी कि हम भूल ही गए कि हाथ में शब्द ही रह गए। तथ्य ही नही और उनकी खाल उखाड़ते ही चले गए और बारीक से बारीक करते चले गए तर्क को।
अभी, एक किताब देखता था। एक पश्चिमी यात्री डेनीज भारत आया। उसने स्वामी शिवानंद की एक किताब पढ़ी। उस किताब में लिखा हुआ है कि ओम का पाठ करने से सब तरह की बीमारियां तत्काल दूर हो जाती हैं। ऐसी तो हमारे पास बहुत किताबें हैं। कोइ स्वामी शिवानंद बेचारों का कसूर नही है। सब धर्मों के पास किताबें है कि नमोकार मंत्र पढ़ो और सब दुख दूर हो जाते हैं, सब बीमारियां दूर हो जाती हैं। ओम के पाठ करने से दूर हो जाति है, बल्कि यह भी लिखा है कि ओम का पाठ कोई पूरी निष्ठा से करे तो मृत्यु को भी विजय कर सकता है--मृत्यु को भी जीत सकता है। वह डेनीज ने--वह किताब पढ़ी तो उसको लगा कि यह तो बड़ी अदभुत बात खोज ली है--स्वामी शिवानंद ने। अगर इस राज का पता चल जाए तो सारी दुनिया में मृत्यु को जीता जा सकता है--बीमारियां खत्म! ये मेडिकल कालेज खड़े करो और आयुर्वेद और एलोपैथी और होमियोपैथी--ये सब पागलखाने बंद करो--इनकी क्या जरूरत है? बात खत्म हो गई। एक छोटा सा सूत्र मिल गया। यह तो बिलकुल ‘फाउंडेशनल’ बात मिल गई इस आदमी को। के इस शब्द के जाप करने से सब ठीक हो जाता है।
वह भागा हुआ स्वामी शिवानंद के आश्रम गया। उसने जाकर कहा कि मैं इसी वक्त मिलना चाहता हूं। मैं एक क्षण खोना नहीं चाहता। क्या पता मैं मर जाऊंगा और वह पाठ न सीख पाऊं, ओम का पाठ। मुझे स्वामी जी से अभी मिला दीजिए। स्वामी जी के सेक्रेटरी ने कहाः अभी मिलना नहीं हो सकता! स्वामी जी बीमार है!! उनकी डाक्टर चिकित्सा कर रहा है!!!
वह आदमी कहने लगा, क्या आश्चर्य? स्वामी जी कभी बीमार नहीं पड़ सकते! स्वामीजी बीमार कैसे पड़ सकते हैं? स्वामी जी को तो तरकीब मिल गई है, बीमार तो हो ही नहीं सकते! वे कभी मर भी नहीं सकते! सेक्रेटरी से कहा कि तु झूठ बोल रहा है। तो सेक्रेटरी ने कहाः मैं झूठ क्यों बोलंूगा? स्वामी जी बीमार हैं! डाक्टर अभी उनको देखने गए हुए हैं। आपको घड़ी भर रुकना पड़ेगा। वह डेनिज तो चकित हो गया। क्योंकि स्वामी शिवानंद साधु होने के पहले डाक्टर थे। एक डाक्टर को तो इतनी अक्ल होनी चाहिए कि क्या लिख रहा है? क्या कह रहा है? लेकिन हिंदुस्तान में यह सवाल कोई भी नहीं उठाएगा--स्वामी शिवानंद के पास जाकर। कोई भी किताब पढ़ लेगा और कहेगा ‘वाह-वाह’, क्या बढ़िया बात कही है! कोई सवाल नहीं उठाएगा। कोई जाकर स्वामी शिवानंद को पकड़ नहीं लेगा कि इसका जवाब दीजिए और प्रयोग करके बताइए कि तथ्य कहा है? अगर ओम के पाठ से मृत्यु को जीता जा सकता है तो तुम्हारे ऋषि-मुनियों को कभी किसी को मरना नहीं चाहिए था--एक भी मौजूद नहीं है!
लेकिन तथ्यों में हम सोचते नहीं। फैक्ट्स में हम सोचते नहीं हम सिर्फशब्दोमे सोचते है और मरते चले जाते हैं। और बेवकूफी की बातें दुहराए चले जाते हैं। और कभी कोई नहीं खड़े होकर कहेगा कि यह क्या कह रहे हो? इसका क्या मतलब है? क्या अर्थ हुआ?
वह आदमी तो घबडा गया, वह आदमी तो सोच कर आया था कि एक बहुत, जिसको ऐलिक्.िजर कहें, अमृत की तरकीब मिल गई। पारस पत्थर मिल गया, तो सब कुछ जिंदगी बदल जाएगी। वह आदमी एकदम उदास हो गया। वह जब देखने गया तो उसने देखा कि स्वामी शिवानंद को दो आदमी पकड़ कर उठाते हैं तब वे उठते हैं। अरे! उसने कहाः यह क्या हो गया? और उसने देखा कि यह आदमी तो जल्दी मरेगा। ज्यादा देर टिकने वाला नहीं। इसकी हालत बिलकुल खराब है। मगर हम कहेंगे--यह आदमी नास्तिक है। यह आदमी धार्मिक नही है, यह आदमी संदेह करता है स्वामी पर! यह आदमी गड़बड़ है। विश्वास करना चाहिए, संदेह नहीं करना चाहिए। स्वामी कहते है तो ठीक ही कहते होंगे। और अगर हममें से कोई बैठा होता वहा धार्मिक पुरुष तो वह कहता कि तुम समझते नहीं। स्वामी लीला दिखा रहे हैं, बीमार होने की। यह सब लीला है, यह सब माया का खेल चल रहा है! तुम समझ नहीं रहे। डाक्टर भी लीला है! बिमारी भी लीला है, स्वामी तो अमर हैं! स्वामी कहां बीमार हैं! वे तो सच्चिदानंद स्वरूप हैं! वे कभी बीमार नहीं पड़ते।
इतना काइयांपन, इतनी कनिंगनेस हमारे दिमाग में है, जिसका कोई हिसाब नहीं। हिंदुस्तान के युवकों को इस काइयांपन को आग लगा देनी है और तथ्यो मे सिधे ओर साफ सोचने की हिम्मत पैदा करनी है। कोई फिकर नहीं, हमारे बहुत से भ्रम टूट जाएंगे। कोई फिकर नहीं, हमारे बहुत से ‘चैरिश्ड इलुजंस’ है हजारों साल के, उनमें आग लग जाएगी। लेकिन कोई फिकर नहीं, जिंदगी के जो नग्न तथ्य हैं, सीधे और साफ हैं, उन्हें हम पकड़ सकेंगे, और पकड सकेंगे तो उनको बदलने के लिए कुछ कर सकेंगे।
बीमारी बदली जा सकती है! और इस बात की संभावना है, कि किसी दिन आदमी मरने पर रोक लगा दे। लेकिन ओम के पाठ से यह नहीं होगा। यह सब संभावनांए है, इस बात की संभावना है कि आदमी एक ऐसा स्वास्थ निर्मित कर ले कि आज नहीं कल बीमारी असंभव हो जाए। अगर बीमारी कम हो सकती है, ज्यादा हो सकती है, तो असंभव भी हो सकती है, लेकिन ओम के पाठ करने से यह नहीं होगा। यह तो बीमारी की कैजुएलिटी को खोजने से, यह तो बीमारी के क्या कारण हैं, स्वास्थ का क्या राज है, उस दिशा में सारे तथ्योंकि खोज करने से, आज नहीं कल ये हो सकता है कि मनुष्यता स्वस्थ जीए। बीमारी एक रेयर घटना हो जाए, कभी कोई आदमी बीमार पड़े। आजकल उलटा है, कभी कोई आदमी स्वस्थ होता है।
इससे उलटा हो सकता है। इस बात की संभावना है कि, उम्न लम्बी की जा सके। इस बात की भी संभावना है कि, मृत्यु को भी बहुत दूर तक ठेला जा सके। अनंत तक ठेला जा सके, लेकिन ओम के पाठ से यह नहीं हो जाएगा, और जो कौम यह समझती रहेगी कि ओम के पाठ से यह हो जाएगा, वह कौम कभी तथ्यों को नहीं खोजेगी। इधर बीमारी में मरेगी, उधर किताबों में लिखेगी कि ओम के पाठ से सब बीमारियां दूर हो जाती हैं। हमसे ज्यादा बीमार दुनिया में कोइ भी नहीं। हमसे ज्यादा अस्वस्थ कोई नहीं। हमसे ज्यादा कम उम्र का कोई समाज नहीं। और हमसे ज्यादा ऊंची बातों का किसी को पता नहीं कि ओम के पाठ से सब ठीक हो जाता है। इन दोनों कंट्राडिक्शंस को कभी देखते हैं? फिर कभी खयाल आता है कि शायद हम बहुत बीमार हैं,बहुत अस्वस्थ हैं, कि क्या खोज भी नहीं पाते। इसलिए इस तरह बेईमानी की तरकीबें किताबों में लिख कर मन को राहत देते हैं, संतोष देते हैं कि अरे! ओम के पाठ से सब ठीक हो जाता है।
नहीं, इस तरह नहीं चल सकता है आगे। वैज्ञानिक बुद्धि चाहिए। और वैज्ञानिक बुद्धि पैदा होती है, थिंकिंग इन फैक्ट्स, तथ्य क्या है, उसे पकड़ो और उघाड़ो। शब्दों की खोल को छोड़ो। शब्द चाहे कितने ही पुराने, कितने ही सॅक्नएड हों, कितने ही महापुरुषों के कहे हुए हों, शब्द, शब्द हैं। उनको खोलो पीछे--और तथ्य न मिलेे तो शब्दों को फेंक दो। हिंदुस्तान के ऊपर शब्दों का भारी कचरा जमा हुआ है, उन शब्दों को उघाड़ कर अलग कर देना है। नीचे तथ्य न मलूम कहां खो गए हैं, उनको पकड़ कर खोज निकालना है, तो शायद हम जिंदगी को बदलने का कुछ खयाल कर सकें।
लेकिन हर तरफ यह बात है। हर तरफ यह बात है। आदमी गरीब क्यों है? तो हम कहेंगे कि पुनर्जन्म की वजह से गरीब है। कोई फिकर नहीं करेगा कि गरीबी की क्या वजह है। खोजें, जाएं, देखें कि गरीब आदमी गरीब क्यों है? हमें तो पता है, शब्द हमें मालूम है कि पिछले जन्म में इसने बुरे कर्म किए हैं, इसलिए वह गरीब हैं। एक साधु से लेकर पूरे पचास लाख साधु पूरे मुल्क को यह समझा रहे हैं कि, आदमी इसलिए गरीब है कि उसने पिछले जन्म में बुरे कर्म किए हैं। इस झूठ को तोड़ने के लिए कोई खड़ा नहीं है कि यह सरासर झूठी बात है। लेकिन यह झूठ, पूंजीवाद को टिकने के लिए आसरा बनता है। इसलिए पूंजीपति कहेगा कि बिलकूल ठीक कह रहे हैं महाराज। यही तो है असली बात कि हम अपने पिछले जन्मों के कर्मों की वजह से धनपति हैं। वह आदमी पिछले जन्मों के कर्मों की वजह से गरीब है। इसमें हम क्या कर सकते हैं, वह क्या कर सकता है? अच्छे कर्म करेगा तो आगे वह धनपति हो जाएगा, हम बुरे कर्म करेंगे तो हम आगे गरीब हो जाएंगे। सुरक्षा समाज की बन गई है। और पचास लाख साधु ये सुरक्षा बना कर, दूसरों को बना रहे हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि ये बफर हैं, वे सिं्प्रग का काम कर रहे हैं। वे चोट ही नहीं लगने देते। गरीब आदमी को खयाल ही पैदा नहीं हो पाता कि गरीबी सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है। अमीर आदमी को भी खयाल ही नहीं हो पाता कि अमीरी भी सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है। और मजे की बात यह है कि गरीब भी दुखी है। और अमीर भी दुखी हैं। और दोनों का दुख सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है।
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं--जब तक समाज गरीब है तब तक कोई अमीर आदमी सुखी नहीं हो सकता। यह असंभव है कि पूरा गांव बीमारी से भरा हो, कैंसर और कोढ़ गांव भर में फैले हो और एक आदमी अपने बंगले कि बडी परकोटा उठा कर और उसके भीतर स्वस्थ बच सके। यह असंभव है। और अगर बचेगा तो न रात सो सकेगा, न दिन सो सकेगा। रात भर पहरेदार लगा कर रखने पड़ेंगे दिन भर, कि कोई बीमारी भीतर न घुस जाए, वह इतनी चिंता में रहेगा सुरक्षा की कि सुरक्षा खत्म हो जाएगी। सुरक्षा में इतना चिंतित हो जाएगा कि कैसे सुरक्षा करूं? आप आसानी से अगर आप के पास या मेरे पास पैसा है तो आसानी से पैसे को नहीं बचा सकोगे। चारों तरफ इंतजाम करना पड़ेगा और इतना इंतजाम करना पड़ेगा कि उस इंतजाम में मैं घिर जाऊंगा और कैदी हो जाऊंगा। और जिंदगी एक मुसीबत हो जाएगी। अमीर मुसिबत में हैं अमीरी की वजह से और गरीब मुसीबत में है गरीबी की वजह से। दोनों मानते हैं कि पिछले जन्म का मामला है इसलिए कुछ किया नहीं जा सकता। और पिछले जन्म का मामला आपको कैसे पता चला? क्योंकि किताब में लिखा है!
बड़ी मजे की बात है, कि किताब में लिखा होने से कोई बात सच हो जाती है। पहले तो किताब में लिखे होने से सच हो जाती थी। आजकल तो बात और बदल गई। अखबार में लिख जाए तो भी सच हो जाती है। पहले तो कम से कम थोड़ा सा हिसाब था कि कृष्ण की किताब है। कृष्ण कम से कम सच ही कहेगा। लेकिन ‘जन्म-भूमि’ भी सच हो सकती है? फिर बड़ा मुश्किल--मामला है। फिर मामला बड़ा मुश्किल है!
अक्षर, छपा हुआ, कुछ हमें ऐसा प्रभावित करता है कि छपा हुआ होने का मतलब सत्य होना होता है। छप गया कि सत्य हो गया। इस छपे अक्षर का जादू खत्म करना चाहिए। अक्षर का ही जादू खत्म करना चाहिए। शब्दों का ही जादू खत्म करना चाहिए। तथ्य खोजने चाहिए। क्या फैक्ट्स हो सकते हैं? क्या तथ्य हो सकता है? लेकिन तथ्यों के बाबत हमारी कोई खोज नहीं--कोई खोज नहीं है। समझदार से समझदार आदमी कुछ भी आकर कह देगा कि--फलां आदमी ने कहा है, फलां किताब में लिखा है, फलां अखबार में छपा है! फिर वह कोई फिकर नहीं करेगा कि तथ्य क्या हो सकते हैं?
शब्दों में जीने वाला समाज झूठ में जीने लगता है। अगर समाज को जीवन के सत्य की तरफ ले जाना है तो हमें शब्दों के जाल को तोड़ कर, तथ्यों की खोज करनी चाहिए। यह दूसरी बात करना चाहता हंू। अच्छे आदमी को आतुर करो जिंदगी को बदलने को। और पूरे समाज को तैयार करो कि वह तथ्यों को देखे। शब्दों में अब और न भरमाए। अगर यह दो काम हो सकते हैं तो भारत की जिंदगी में एक अदभुत क्रांति हो सकती है। मैं बहुत आशा से भरा हुआ हूं कि यह हो सकता है।
लेकिन यह आशा जवान आदमी की तरफ देख कर थोड़ी सी ढीली पड़ जाती है। आशा मेरे भीतर बहुत है कि यह हो सकता है। लेकिन जब जवान आदमी को देखता हूं तो बहुत ढीला पड़ जाता हूं। वह जवान आदमी ठीक से जवान ही नहीं मालून पड़ता। वह समझ रहा है कि जवानी का मतलब टाई-वाई लगा कर और अच्छे कपड़े पहन कर घूमने निकल पड़े तो जवान हो गए। सीटी बजाना आ गया तो जवान हो गए। बेवकूफ हो--कहीं ऐसे सीटी बजाने से कोई जवान हो जाता है? एक फिल्मी गाने की तर्ज सीख ली तो जवान हो गए? जवानी एक बहुत गहरी जिंदगी और ताकत की बात है, और बड़े साहस की और बड़े एडवेंचर की बात हैं! जवान आदमी का मतलब है कि वह कुछ करने की प्रेरणा से भरा हो।
जवान आदमी का मतलब है कि जिंदगी को जैसा उसने पाया वैसा ही नहीं छोड़ देगा--बदलेगा--नया करेगा। जवान आदमी का मतलब है, जिस बगीचे में फूल नहीं उगते वहां फूल लाने की कोशिश करेगा--खप जाएगा, खाक बन जाएगा और फूलों को ला देगा। जवान आदमी का मतलब है, कुछ करने की हिम्मत, कुछ करने की आकांक्षा! जवानी का मतलब है, कोई प्यास! जवानी का मतलब है, कोई अभीप्सा! जवानी का मतलब है, कि मै जैसा हूं समाज जैसा है, वैसा होने को मैं राजी नहीं हूं--बदलूंगा!
जवानी का मतलब है, क्रांति। जवानी का मतलब है, क्रांति, उसका मतलब है--रिवोल्यूशन--उसका मतलब है के ‘रिवोल्यूशनरी माइंड।’ तो युवक क्रांति दल--या आपके यूथफोर्स के मित्र--युवक और युवतियां हिंदुस्तान में एक जवान आदमी को तैयार करें! एक जवानी पैदा करें और जिंदगी को बदलें। परमात्मा की सारी कृपा उनको उपलब्ध होंगी--जो जिंदगी को बदलने को उत्सुक है। लेकिन परमात्मा की सुनता कौन है? वह शायद चिल्ला रहा है--कि बदलो! बदलो! बहुत कचरा इकट्ठा हो गया है, लेकिन कोई सुनता नहीं!
यह मेरी थोड़ी सी बातें आपने सुनीं, यह भी बड़ी कृपा है। कोशिश तो बहुत चलती है कि मेरी बात ही आप न सुन पाओ। लेकिन सुन लेते हैं आप मेरी बात, यह बड़ी कृपा है। मैं नहीं कहता कि मेरी बात मान लेनी चाहिए। मैंने जो कहा उस पर सोचना चाहिए--ठीक हो ठीक, गलत हो गलत। गलत हो, उसको भूल जाना चाहिए। ठीक हो, तो ठीक होने का एक ही मतलब होता हैः जो चीज ठीक लगे--अगर ठीक लगी है तो उसके लिए कुछ करना चाहिए, अन्यथा वह ठीक नहीं लगी हैं! फिर अच्छा है कि समझ लो कि ये बातें गलत हैं! और अगर भूल से भी यह खयाल आता है कि ये बातें ठीक हैं, तो फिर आपके आदमी होने का सबूत इससे मिलेगा कि उन ठीक बातों के लिए आप क्या करते हैं?

इतने प्रेम से सुनी मेरी बातें, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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