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गुरुवार, 15 नवंबर 2018

और फूलों की बरसात हुई-(प्रवचन-03)

और फूलों की बरसात हुई-तीसरा 

उत्तेजना से भरा स्वभाव

एक ज़ेन (ध्यान) सीखने वाला शिष्य सद्गुरु बांके के पास आया और उसने कहा-‘‘सद्गुरु! मेरे पास एक उच्छृंखल और उत्तेजित स्वभाव है मैं कैसे उसे ठीक कर सकता हूं?’’
बांके ने कहा-‘‘इस उत्तेजना को मुझे दिखलाओ, सजगता के मंत्र से वह ठीक हो जाती है।
उस शिष्य ने कहा-‘‘ठीक अभी तो वह मेरे पास नहीं है इसलिए मैं उसे आपको दिखला नहीं सकता।’’
बांके ने कहा-‘‘तब ठीक है। जब वह तुम्हारे पास हो तो उसे मेरे पास ले आना।’’
उस शिष्य ने प्रतिरोध करते हुए कहा-‘‘लेकिन मैं उसे आपके पास नहीं ला सकता क्योंकि जब मुझे वह घटित होता है तभी वह मेरे पास होता है। वह अनायास उत्पन्न होता है और मैं उसे आपके पास ला सवूंफ, उससे पूर्व ही निश्चित रूप से मैं उसे खो दूंगा।’’


सद्गुरु बांके ने कहा-‘‘उस स्थिति में वह तुम्हारे सच्चे स्वभाव का भाग नहीं हो सकता। यदि वह होता तो तुम उसे किसी भी समय मुझे दिखा सकते थे, जब तुम्हारा जन्म हुआ था वह तुम्हारे पास नहीं था और तुम्हारे माता-पिता ने भी उसे तुम्हें नहीं दिया था-

इसलिए वह तुम्हारे अंदर अनिवार्य रूप से बाहर से ही आना चाहिए।

मैं तुम्हें सुझाव देता हूं-
वह जब कभी भी तुम्हारे अंदर आता है
तुम एक डंडे से स्वयं अपने को तब तक पीटते रहो
जब तक कि वह स्थिर खड़ा न रह सके
और स्वयं ही भाग न जाए।’’


प्रामाणिक और सच्चा स्वभाव ही तुम्हारा शाश्वत स्वभाव है। तुम उसे प्राप्त नहीं कर सकते और वह प्राप्त होता भी नहीं। वह कुछ ऐसी चीज़ नहीं है जो आती है और जाती है, वह तुम हो। वह कैसे आ और जा सकता है? वह तुम्हारी आत्मा है। वह तुम्हारी प्रामाणिक आधारशिला है। वह पास कभी भी नहीं हो सकती है और कदाचित वह अभी न हो, पर वह हमेशा ही वहां होती है।
इसलिए एक सत्य, स्वभाव अथवा ताओ के खोजी के लिए यह मापदंड होना चाहिए कि हमें अपनी आत्मा में उस स्थिति तक आना है जो हमेशा-हमेशा बनी रहती है, तुम्हारे जन्म से पूर्व भी वह वहां थी और जब तुम मर जाओगे वह तब भी वहां बनी रहेगी। वह केंद्र है। परिधि बदलती है पर केंद्र पूर्ण रूप से शाश्वत बना रहता है और वह समय के पार है। कोई भी चीज़ उसे प्रभावित नहीं कर सकती है, कोई भी चीज़ उसमें परिवर्तन नहीं कर सकती और वास्तव में कोई भी चीज़ कभी उसका स्पर्श तक नहीं करती है और वह बाहर के संसार की सभी तरह की पहुंच के पार बनी रहती है।
सागर के निकट जाओ और उसका निरीक्षण करो। वहां लाखों लहरें हैं लेकिन नीचे उसकी गहराई में सागर शांत और मौन होकर गहन ध्यान में बना रहता है, सारा शोर केवल सतह पर है। वह केवल उस सतह पर है जहां सागर बाहर के संसार और हवाओं से मिलता है। अन्यथा स्वयं में वह हमेशा समान बना रहता है और कोई भी चीज़, यहां तक कि एक लहर भी उसे नहीं बदलती।
ठीक ऐसा ही तुम्हारे भी साथ है। ठीक परिधि पर जहां तुम दूसरों से मिलते हो, ठीक बाहर की सतह पर जहां हवाएं आती हैं और तुम्हारा स्पर्श करती हैं, वहां उपद्रव है, व्यग्रता है, क्रोध, आसक्ति, लोभ और लालसा है। और यदि तुम परिधि पर ही बने रहते हो तो तुम इस बदलते हुए घटनाक्रम को परिवर्तित नहीं कर सकते हो और वह वहां बना ही रहेगा।
अनेक लोग उसे वहां परिधि पर बदलने का प्रयास करते हैं। वे उसके साथ लड़ते हैं और प्रयास करते हैं कि एक भी तरंग उत्पन्न न हो और उनके संघर्ष के द्वारा और अधिक तरंगें उत्पन्न होती हैं क्योंकि जब सागर हवा के साथ लड़ता है तो वहां और अधिक विप्लव होगा : अब उसमें न केवल हवा सहायता करेगी, सागर भी उसमें सहायता करेगा और वहां परिधि पर तीव्र उपद्रव और अव्यवस्था होगी (सभी नैतिकतावादी, मनुष्य को परिधि पर बदलने का प्रयास करते हैं। परिधि ही तुम्हारा चरित्र है, तुम संसार में कोई चरित्र साथ लेकर नहीं आते, तुम पूर्ण रूप से बिना किसी चरित्र के एक कोरे कागज की भांति आते हो और वह सभी कुछ जिसे तुम चरित्र के नाम से पुकारते हो, दूसरों के द्वारा लिखा गया है। तुम्हारे मात-पिता, समाज, शिक्षक और उनकी नीति, नियम और अनुशासन की शिक्षाएं, वे सभी तुम्हारी ‘कनडीशनिंग’ हैं। तुम एक कोरे कागज के समान आते हो और जोकुछ तुम पर लिखा गया है वह दूसरों से आता है इसलिए जब तक तुम फिर से एक कोरे कागज न बन जाओ, तुम नहीं जानोगे कि स्वभाव अथवा प्रवृफति क्या होती है, तुम नहीं जानोगे कि ब्रह्म क्या है और क्या होता है ‘ताओ’।
इसलिए समस्या यह नहीं है कि कैसे तुम्हारे पास एक सुदृढ़ चरित्र हो, समस्या यह नहीं है कि तुम कैसे अक्रोध को उपलब्ध हो और कैसे अव्यवस्थित न बनो- नहीं, समस्या यह भी नहीं है। समस्या यह है कि तुम अपनी चेतना को कैसे परिधि से बदलकर केंद्र पर ले जाओ। तब अचानक तुम देखते हो कि तुम्हारे पास सदा से शांति ही रही है। तब तुम परिधि को एक दूरी से देख सकते हो और वह फासला इतना अधिक विराट और अनंत है कि तुम उसका यों निरीक्षण कर सकते हो, जैसे मानो वह तुम्हें घटित नहीं हो रहा है। वास्तव में वह तुम्हें कभी भी नहीं घटता है। जब तुम उसमें पूरी तरह खो भी जाते हो, वह तुम्हें कभी भी नहीं होता है और तुम्हारे अंदर कुछ चीज़ शांत व स्थिर बनी रहती है, कुछ चीज़ उस पार की एक साक्षी की भांति बनी रहती है।
 इसलिए एक खोजी के लिए पूरी समस्या यह है कि वह कैसे अपने ध्यान को परिधि से केंद्र पर ले जाए, कैसे उसका विलय उसके साथ हो जाए जो अपरिवर्तनशील है और कैसे उसके साथ तादात्म्य न जोड़ा जाए, जो केवल एक सीमा रेखा है। सीमा रेखा पर दूसरे लोग बहुत प्रभावशाली हैं क्योंकि सीमा पर परिवर्तन होना स्वाभाविक है। परिधि बदलती चली जाएगी और एक बुद्ध की भी परिधि बदलती है।
एक बुद्ध और तुम्हारे मध्य अंतर चरित्र का अंतर नहीं है, इसे स्मरण रखो कि वह अंतर न नैतिकता का है, न वह अंतर सदाचार अथवा दुराचार का है, वह अंतर वहां है जहां तुम आधार से जुड़े हो।
तुम परिधि पर स्थापित हो और एक बुद्ध केंद्र में स्थापित है। वह अपनी ही परिधि को एक दूरी से देख सकता है, जब तुम उस पर चोट करते हो तो वह उसे यों देख सकता है जैसे मानो तुमने किसी अन्य व्यक्ति पर चोट की हो क्योंकि केंद्र, परिधि से बहुत दूर है। यह इस तरह है जैसे मानो वह एक पहाड़ी पर एक निरीक्षणकर्ता की भांति बैठा हो और नीचे घाटियों में कुछ चीज़ घटित हो रही हो और वह उसे देख सकता है। यही वह पहली बात है जिसे समझना है।
दूसरी बात : नियंत्रित करना तो बहुत सरल है पर रूपांतरित करना बहुत कठिन है। नियंत्रित करना बहुत सरल है। तुम अपने क्रोध को नियंत्रित कर सकते हो, लेकिन तुम करोगे क्या?- तुम उसका दमन करोगे और जब तुम एक विशिष्ट चीज़ का दमन करते हो तो होता क्या है? उसके गतिशील होने की दिशा बदल जाती है : वह बाहर जा रही थी और यदि तुम उसका दमन करते हो तो वह अंदर की ओर जाना शुरू कर देती है और केवल उसकी दिशा बदल जाती है।
क्रोध का बाहर जाना अच्छा था, क्योंकि विष को बाहर पेंफक देने की आवश्यकता होती है। क्रोध का अपने ही अंदर गतिशील हो जाना बुरा है क्योंकि इसका अर्थ है कि तुम्हारे मन और शरीर का पूरा ढांचा उसके द्वारा विषाक्त हो जाएगा और तब यदि तुम उसे एक लंबी अवधि तक किए चले जाते हो- जैसे कि प्रत्येक व्यक्ति करता आ रहा है क्योंकि समाज तुम्हें रूपांतरण करना नहीं, नियंत्रण करना सिखाता है। समाज कहता है-‘‘स्वयं पर नियंत्रण रखो और नियंत्रण करने के द्वारा सभी नकारात्मक चीज़ें अचेतन के गहरे से गहरे तल में पेंफक दी गई हैं और तब वे तुम्हारे अंदर निरंतर बने रहने वाली चीज़ें बन जाती हैं। तब यह प्रश्न तुम्हारे कभी क्रोधित होने और कभी क्रोधित न होने का नहीं रह जाता- तुम पूरी तरह से क्रोधित होते हो। जब कभी तुममें विस्फोट जैसा हो जाता है और कभी नहीं होता है क्योंकि वहां कोई भी क्षमा देना नहीं है अथवा तुम्हें एक बहाना खोजना होता है। स्मरण रहे कि तुम कहीं भी एक बहाना खोज सकते हो।
मेरे मित्रों में से एक व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक देना चाहता था इसलिए वह विवाह के मामलों में एक विशेषज्ञ वकील के पास गया और उसने वकील से पूछा-‘‘मैं किस आधार पर अपनी पत्नी को तलाक दे सकता हूं?’’
वकील ने उसकी ओर देखा और पूछा-‘‘क्या आप विवाहित हैं?’’
उस व्यक्ति ने कहा-‘‘निश्चित रूप से हूं।’’
वकील ने कहा-‘‘विवाहित होना ही पर्याप्त आधार है। इस बारे में अन्य आधारों को खोजने की आवश्यकता ही नहीं है। यदि तुम तलाक चाहते हो तब केवल विवाह ही ऐसी चीज़ है जो आवश्यक होती है क्योंकि यदि तुम विवाहित नहीं हो तो एक स्त्री को तलाक देना असंभव होगा। यदि तुम विवाहित हो तो यह पर्याप्त है।’’
ठीक यही स्थिति है। तुम क्रोधित हो क्योंकि तुमने क्रोध का बहुत अधिक दमन किया है, अब वहां ऐसे क्षण नहीं होते हैं जब तुम क्रोधित न हो, अधिक-से-अधिक कभी-कभी तुम कम और कभी अधिक क्रोधित होते हो। दमन के द्वारा तुम्हारा पूरा अस्तित्व विषैला हो गया है। तुम क्रोध के साथ ही भोजन करते हो और जब एक व्यक्ति बिना क्रोध के भोजन करता है तो उसके पास एक भिन्न गुण होता है। उसका निरीक्षण करना बहुत आकर्षक होता है क्योंकि वह अहिंसक रूप से भोजन करता है। हो सकता है कि वह मांसाहार कर रहा हो लेकिन वह अहिंसक रूप से भोजन करता है। तुम हो सकता है केवल फल और सब्जियां खा रहे हो लेकिन यदि तुमने क्रोध का दमन किया है तो तुम हिंसक रूप से उन्हें खाते हो।
केवल खाने के द्वारा ही, तुम्हारे दांत, तुम्हारा मुंह क्रोध को बाहर निकालते हैं। तुम भोजन को यों पीसते हुए चबाते हो जैसे मानो वह शत्रु हो। स्मरण रहे जब कभी जानवर क्रोधित होते हैं तो वे क्या करेंगे? केवल दो चीज़ें ही संभव हैं जो वे कर सकते हैं क्योंकि उनके पास न तो अस्त्र-शस्त्र होते हैं और न अणु बम होते हैं, फिर वे क्या कर सकते हैं? वे या तो अपने नाखूनों से अथवा अपने दांतों से तुम पर अपनी हिंसा निकालेंगे।
नाखून और दांत- ये ही उनके शरीर के प्रावृफतिक हथियार हैं। अपने नाखूनों के साथ तुम्हारे लिए कुछ भी कार्य करना बहुत कठिन है हालांकि लोग कहेंगे-‘‘क्या तुम एक जानवर हो?’’ इसलिए तुम्हारे पास केवल एक ही चीज़ बचती है जिसके द्वारा तुम सरलता से अपने क्रोध और अपनी हिंसा को प्रकट कर सकते हो और वह तुम्हारा मुंह है और किसी व्यक्ति को काटने में भी तुम उसका प्रयोग नहीं कर सकते हो। इसी कारण हम कहते हैं- एक रोटी का दांतों से काटना, भोजन कोकुतरते हुए खाना अथवा काटकर थोड़े से टुकडे़ करना।
तुम हिंसक रूप से भोजन करते हो, जैसे मानो भोजन ही शत्रु है। स्मरण रहे जब तुम भोजन को शत्रु मानते हो तो वह वास्तव में तुम्हारा पोषण नहीं करता है, वह उसी सभी को पोषित करता है जो तुम्हारे अंदर रुग्ण है। वे लोग जो क्रोध का गहराई तक दमन करते हैं वे अधिक भोजन करते हैं और वे अपने शरीर में अनावश्यक चर्बी को एकत्रित किए चले जाते हैं। क्या तुमने यह निरीक्षण किया है कि मोटे लोग लगभग हमेशा मुस्कराते रहते हैं। यदि वहां हंसने या मुस्कराने का कोई भी कारण न हो तब भी मोटे व्यक्ति अनावश्यक रूप से हमेशा मुस्कराये चले जाते हैं। क्यों? यह चेहरा ही उनका मुखौटा है, वे लोग अपने क्रोध और अपनी हिंसा से इतने अधिक डरे हुए हैं कि वे अधिक भोजन किए चले जाते हैं और उन्हें अपने चेहरे पर निरंतर एक मुस्कान बनाए रखनी होती है।
क्रोध और हिंसा अधिक होने से लोग अधिक भोजन करते हैं। तब यह प्रत्येक मार्ग में, तुम्हारे जीवन की प्रत्येक गतिविधि और कार्य में गतिशील होगी। तुम प्रेम करोगे लेकिन वह प्रेम की अपेक्षा हिंसा के समान अधिक होगी और उसमें कहीं अधिक आक्रामकता होगी क्योंकि तुम यह कभी नहीं देखते कि जैसे तुम नहीं, कोई अन्य व्यक्ति प्रेम कर रहा है और तुम नहीं जानते कि क्या हो रहा है और तुम जान भी नहीं सकते कि तुमको क्या हो रहा है क्योंकि तुम हमेशा लगभग इतने अधिक आक्रामक होते हो।
यही कारण है कि प्रेम के द्वारा संभोग सर्वोच्च शिखर की गहनता असंभव बन जाती है क्योंकि तुम नीचे गहराई में भयभीत होते हो कि यदि तुम बिना नियंत्रण पूर्ण रूप से गतिशील होते हो तो तुम अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका को मार भी सकते हो अथवा पत्नी अपने पति अथवा प्रेमी को जान से भी मार सकती है। तुम अपने ही क्रोध से इतने अधिक भयभीत हो जाते हो।
अगली बार जब तुम प्रेम करो तोनिरीक्षण करना, तुम वैसी ही गतिविधियां कर रहे होगे जैसी तुम तब करते हो जब तुम आक्रामक होते हो। अपने चारों ओर दर्पण रख देना जिससे तुम देख सकते हो कि तुम्हारे चेहरे पर क्या भाव प्रकट हो रहे हैं। क्रोध और आक्रामकता के सभी तरह के बिगड़े रूप वहां होंगे।
भोजन लेते समय तुम क्रोध में बने रहते हो : जरा भोजन करते हुए एक व्यक्ति का निरीक्षण करो। प्रेम करते हुए एक व्यक्ति की ओर देखो उसके अंदर क्रोध इतनी अधिक गहराई तक चला गया है कि क्रोध के पूर्ण रूप से विपरीत, सक्रियता भी विषैली बन गई है और पूर्ण रूप से तटस्थ सक्रियता भी जहरीली बन गई है। तब तुम केवल द्वार खोलते हो और वहां क्रोध होता है। तुम मेज पर एक पुस्तक रखते हो और वहां क्रोध होता है, तुम अपने जूते उतारते हो और वहां क्रोध होता है, तुम किसी से हाथ मिलाते हो और वहां क्रोध होता है क्योंकि अब तुम्हारे क्रोध ने वह रूप धारण कर लिया है।
दमन के द्वारा मन विभाजित हो जाता है। जिस भाग को तुम स्वीकार करते हो वह चेतन बन जाता है और जिस भाग की तुम निंदा अथवा तिरस्कार करते हो, वह अचेतन बन जाता है। यह विभाजन प्रावृफतिक नहीं है, यह विभाजन दमन के कारण होता है। समाज जिसको अस्वीकार करता है तुम उस सभी कूड़े-करकट को अपने अचेतन में पेंफकते चलते जाते हो लेकिन स्मरण रहे तुम जोकुछ भी वहां अपने अंदर पेंफकते हो वह तुम्हारा अधिक-से-अधिक भाग बन जाता है, वह तुम्हारे हाथों में, तुम्हारी अस्थियों में, तुम्हारे रक्त में और तुम्हारे हृदय की धड़कनों में चला जाता है। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि लगभग अस्सी प्रतिशत बीमारियां दमित मनोभावों के कारण ही होती हैं : इतने हृदयघातों के होने का अर्थ है कि इतने अधिक क्रोध और घृणा का दमन किया गया था कि हृदय विषैला बन गया।
क्यों? आखिर मनुष्य क्यों इतना अधिक दमन करता है कि वह अस्वस्थ हो जाता है क्योंकि समाज सिखाता है कि मनोवेगों का रूपांतरण नहीं उनका दमन करो और रूपांतरण करने का मार्ग पूर्ण रूप से भिन्न है। एक चीज़ के लिए वह किसी भी प्रकार से नियंत्रण करने का मार्ग नहीं है और वह ठीक उसके विपरीत है।
पहली बात : नियंत्रण करने में तुम दमन करते हो और रूपांतरण में तुम उसे अभिव्यक्त करते हो लेकिन किसी अन्य व्यक्ति पर अभिव्यक्त करने की वहां कोई भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि अन्य दूसरा व्यक्ति केवल असंगत है। अगली बार तुम क्रोध का अनुभव करो तो घर के बाहर जाकर उसके चारों ओर सात चक्करों में दौड़ों और इसके बाद एक वृक्ष के नीचे बैठकर निरीक्षण करो कि क्रोध कहां चला गया। तुमने उसका दमन नहीं किया है, तुमने उसका नियंत्रण नहीं किया है, तुमने उसे किसी अन्य व्यक्ति पर नहीं पेंफका है क्योंकि यदि तुम उसे किसी अन्य व्यक्ति पर पेंफकते हो तो एक श्रृंखला सृजित हो जाती है क्योंकि दूसरा व्यक्ति वैसा ही मूर्ख है जैसे तुम हो और वह उतना ही अचेतन है जैसे तुम हो। यदि तुम उसे दूसरे व्यक्ति पर पेंफकते हो और वह दूसरा व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध है तो वहां कोई भी कठिनाई नहीं होगी और वह तुम्हें उसे रेचन के द्वारा बाहर पेंफकने और उससे मुक्त होने में तुम्हारी सहायता करेगा लेकिन दूसरा व्यक्ति भी उतना ही अज्ञानी है जैसे तुम हो यदि तुम उस पर क्रोध पेंफकते हो तो वह प्रतिक्रिया करेगा। वह उतना ही अधिक दमित है जैसे तुम हो और वह तुम पर और अधिक क्रोध उलीचेगा। तब वहां एक श्रृंखला बन जाती है तुम उस पर पेंफकते हो और वह तुम पर पेंफकता है तथा तुम दोनों शत्रु बन जाते हो।
उसे किसी भी अन्य व्यक्ति पर मत पेंफको। यह ठीक उसी के समान है कि जब तुम उल्टी करने जैसा अनुभव करते हो तो तुम बाहर जाकर किसी अन्य व्यक्ति पर उल्टी नहीं करते हो। क्रोध को एक उल्टी करने की आवश्यकता है। तुम बाथरूम में जाते हो और उल्टी कर देते हो। उससे पूरा शरीर साफ शुद्ध और हल्का हो जाता है और यदि तुम उल्टी को रोकते हो तो वह खतरनाक होगा तथा जब तुम उल्टी कर देते हो तो तुम ताजगी का तथा भारमुक्त होने का अनुभव करते हो, तुम अच्छा होने, हल्का और स्वस्थ होने का अनुभव करते हो। जो भोजन तुमने लिया उसमें कुछ चीज़ गलत थी और शरीर उसे अस्वीकार करता है। उसे अंदर जाने को विवश मत करो।
क्रोध केवल एक मानसिक वमन है। कुछ गलत चीज़ है जो तुमने अपने अंदर ले ली है और तुम्हारा पूरा मानसिक अस्तित्व उसे बाहर पेंफकना चाहता है लेकिन उसे बाहर किसी भी व्यक्ति पर पेंफकने की कोई भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि लोग उसे दूसरों पर पेंफकते हैं और समाज उन्हें नियंत्रित करने के लिए कहता है।
इस बारे में अपने क्रोध को किसी अन्य व्यक्ति पर पेंफकने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। तुम अपने बाथरूम में जा सकते हो, तुम एक लंबी अवधि तक दूर तक टहलने जा सकते हो, इसका अर्थ है कि तुम्हारे अंदर कुछ ऐसी चीज़ थी जिसे तीव्र क्रियाशीलता की आवश्यकता है जिससे उसे बाहर छोड़ा जा सके। केवल थोड़ी देर तक जॉगिंग करो और तुम अनुभव करोगे कि वह मुक्त हो गई है अथवा एक तकिया लेकर उसको पीटना शुरू कर दो, तकिये के साथ लड़ो, तकिये काटो, नोचों जब तक तुम्हारे हाथ और दांत विश्राममय न हो जाएं। पांच मिनट के रेचन से तुम भार मुक्त होने का अनुभव करोगे और एक बार तुम इसे जान लेते हो फिर तुम अपने क्रोध को कभी भी किसी व्यक्ति पर नहीं पेंफकोगे क्योंकि वह पूर्ण रूप से एक मूर्खता है।
पहली चीज़ है रूपांतरण, तब है क्रोध को अस्वीकार करना लेकिन किसी अन्य व्यक्ति पर नहीं क्योंकि यदि तुम उसे किसी अन्य व्यक्ति पर अभिव्यक्त करते हो तो तुम उसे पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। हो सकता है कि तुम उसे जान से मार देना चाहते हो, हो सकता है कि तुम उसे दांतों से काटना चाहते हो लेकिन ऐसा करना संभव नहीं है। लेकिन ऐसा एक तकिये के साथ किया जा सकता है। एक तकिये का अर्थ है जो पहले ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो चुका है, तकिया बोध का उपलब्ध हुआ एक बुद्ध है। तकिया कोई भी प्रतिक्रिया नहीं करेगा और न तकिया शिकायत करने कोर्ट-कचहरी जाएगा और न तकिया तुम्हारे विरुद्ध कोई शत्रुता लाएगा और न कोई अन्य कार्य करेगा। तकिया प्रसन्न होगा और तकिया तुम पर हंसेगा।
दूसरी बात जो स्मरण रखना है : सजग बने रहो। नियंत्रण करने में किसी सचेतनता की आवश्यकता नहीं है, तुम उसे पूरी तरह से यंत्रवत एक रोबोट के समान करते हो। क्रोध आता है और इस बारे में एक यांत्रिकत्व है, अचानक तुम्हारा पूरा अस्तित्व सिकुड़कर बंद हो जाता है। यदि तुम सावधान हो तो नियंत्रण इतना अधिक सरल नहीं हो सकता है।
समाज तुम्हें कभी भी सावधान होकर निरीक्षण करने की शिक्षा नहीं देता है क्योंकि जब कोई व्यक्ति सावधानी से निरीक्षण करता है तो वह पर्याप्त खुला हुआ होता है। वह सचेतनता का एक भाग है कि कोई एक खुला हुआ है और यदि तुम किसी चीज़ का दमन करना चाहते हो और तुम खुले हुए हो तो यह एक विरोधाभास है, वह चीज़ बाहर आ सकती है। समाज तुम्हें सिखाता है कि तुम कैसे स्वयं को अंदर से बंद कर लो, कैसे तुम स्वयं के अंदर गुफा बनाकर छिपा लो और किसी भी चीज़ को बाहर जाने के लिए एक छोटी-सी खिड़की तक को खुलने की अनुमति न दो।
लेकिन याद रखो : जब कोई भी चीज़ न अंदर आती है और न बाहर जाती है तथा जब तुम्हारे बंद होने से क्रोध भी बाहर नहीं जा सकता है। यदि तुम एक सुंदर चट्टान का स्पर्श करते हो तो अंदर कुछ भी नहीं जाता, तुम एक सुंदर पुष्प की ओर देखते हो, अंदर कुछ भी नहीं जाता है क्योंकि तुम्हारी आंखें बंद और मुर्दा हैं। तुम एक व्यक्ति का चुंबन लेते हो- अंदर कुछ भी नहीं जाता है क्योंकि तुम बंद हो। तुम एक असंवेदनशील जीवन जी रहे हो।
सचेतनता के साथ ही संवेदनशीलता विकसित होती है। नियंत्रण करने के द्वारा तुम मंद और मृत हो, जो नियंत्रण करने के यांत्रिकत्व का एक भाग है। यदि तुम मंद और मृत हो तुम्हें कुछ भी प्रभावित नहीं करेगा, जैसे मानो तुम्हारा शरीर सुरक्षा का एक किला बन गया है। तब तुम्हें कुछ भी प्रभावित नहीं करेगा, न तो अपमान और न प्रेम।
लेकिन इस नियंत्रण करने की एक बहुत बड़ी व अनावश्यक कीमत होती है और तब वह जीवन में एक प्रयास बन जाता है कि स्वयं पर कैसे नियंत्रण रखा जाए और तब मर जाया जाए। नियंत्रण रखने का पूरा प्रयास तुम्हारी सारी ऊर्जा ले लेता है और तब तुम पूरी तरह से मर जाते हो। जीवन एक मंद, सुस्त और मृत प्रायः चीज बनकर रह जाता है तथा तुम किसी तरह से उसे ढोते हो।
समाज तुम्हें नियंत्रण करना और तिरस्कार करना सिखाता है क्योंकि एक बच्चा केवल तभी नियंत्रण करेगा जब वह अनुभव करता है कि कुछ चीज़ तिरस्वृफत है। क्रोध बुरा है, सेक्स बुरा है और प्रत्येक वह चीज जिसका नियंत्रण करना होता है और उसे ऐसा बनाना होता कि वह बच्चे को एक पाप करने के समान तथा एक बुराई करने के समान दिखाई दे।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा बड़ा हो रहा था। वह दस वर्ष का था और इसीलिए मुल्ला ने सोचा कि अब यही समय है और चूंकि वह पर्याप्त बड़ा हो गया है कि जीवन के गुप्त रहस्यों को उसके सामने प्रकट कर देना चाहिए। इसलिए उसने उसे अपने अध्ययन कक्ष में बुलाया और उसे पक्षियों तथा मधुमक्खियों के मध्य सेक्स के होने वाले घटिया कार्य व्यापार के बारे में बताया और तब अंत में उसने कहा-‘‘जब तुम यह अनुभव करो कि तुम्हारा छोटा भाई भी पर्याप्त व्यस्क हो गया है तो उसे भी इस पूरी चीज़ के बारे में बतलाना है।’’
ठीक कुछ ही मिनटों के बाद जब वह बच्चों के कमरों के पास से होकर गुजर रहा था तो उसने सुना कि बड़ा दस वर्ष का लड़का पहले ही से कार्य में जुटा हुआ था। वह छोटे वाले को बता रहा था कि देखो, तुम जानते ही हो जब लोग एक बच्चे को पाना चाहते हैं तो वे लोग किस तरह के घटिया दर्जे का कार्य करते हैं। पापा, पक्षियों और मधुमक्खियों के बारे में बता रहे थे कि वे भी ऐसे ही सुई डोरे से रफू करने का कार्य करते हैं।
वह सभी कुछ जो जीवंत है, उसके बारे में एक गहन निंदा और तिरस्कार का भाव प्रविष्ट हो जाता है। सेक्स सबसे अधिक जीवंत चीज़ है और उसे होना ही है। वह स्रोत है। क्रोध भी सबसे अधिक जीवंत विषय है क्योंकि वह सुरक्षात्मक शक्ति है। यदि एक बच्चा बिल्कुल भी क्रोधित नहीं हो सकता तो जीवित बने रहने में समर्थ नहीं होगा। विशिष्ट क्षणों में तुम्हें क्रोधित होना ही होगा। बच्चे को अपना अस्तित्व प्रदर्शित करना ही होगा, उसे विशिष्ट क्षणों में अपने आधार पर खड़ा होना ही होगा अन्यथा उसके पास कोई आधार स्तम्भ न होगा।
क्रोध सुंदर है, सेक्स भी सुंदर है, पर सुंदर विषय भी कुरूप हो सकते हैं। यह तुम पर निर्भर करता है। यदि तुम उनका तिरस्कार करते हो तो वे कुरूप बन जाते हैं और तुम उनका रूपांतरण करते हो तो वे दिव्य बन जाते हैं। रूपांतरित हुआ क्रोध ही करुणा बन जाता है क्योंकि ऊर्जा समान है। एक बुद्ध करुणावान होता है : उसकी करुणा कहां से आती है? यह वही समान ऊर्जा है जो क्रोध में गतिशील हो रही थी और अब वह क्रोध मे गतिशील नहीं हो रही है और वही समान ऊर्जा करुणा में रूपांतरित हो गई है। प्रेम कहां से आता है? एक बुद्ध प्रेमपूर्ण हैं, एक जीसस तो प्रेम ही हैं। वही समान ऊर्जा जो सेक्स में गतिशील होती है, प्रेम बन जाती है।
इसलिए स्मरण रहे, यदि तुम एक प्रावृफतिक और स्वाभाविक घटना का तिरस्कार और निंदा करते हो तो वह विषैली बन जाती है वह विध्वंसक और आत्मघाती बन जाती है तथा तुम्हें नष्ट कर देती है। यदि तुम उसे रूपांतरित करते हो तो वह दिव्य बन जाती है, वह परमात्मा की शक्ति बन जाती है, वह अमृत बन जाती है तथा तुम उसके द्वारा मृत्युहीन आत्मा और शाश्वतता को उपलब्ध होते हो लेकिन उसका रूपांतरित होना आवश्यक है।
रूपांतरण में तुम कभी भी नियंत्रण नहीं करते हो, तुम पूरी तरह से कहीं अधिक सजग बने रहते हो। क्रोध घटित हो रहा है तो तुम्हें सजग रहना होगा कि क्रोध घटित हो रहा है, उसका निरीक्षण करो। वह एक सुंदर घटना है तुम्हारे अंदर ऊर्जा उत्तप्त होकर गतिशील हो रही है।
यह ठीक बादलों में कौंधने वाली विद्युत के समान है। लोग आकाशीय विद्युत से सदा भयभीत रहते थे। पुराने बीते दिनों में वे लोग अज्ञानी थे तो ऐसा सोचते थे कि यह विद्युत परमात्मा के क्रोधित होने के कारण थी, वह उन्हें धमकी देते हुए दंड देने का प्रयास कर रही थी, वह उनके अंदर भय उत्पन्न कर रही थी जिससे लोग उसकी पूजा और आराधना करें, जिससे लोग यह अनुभव करें कि वहां परमात्मा था और वह उन्हें दंड दे सकता था।
लेकिन अब हमने परमात्मा की उस शक्ति को पालतू बना लिया है। अब परमात्मा की वह शक्ति तुम्हारे पंख के द्वारा दौड़ती है, तुम्हारी वातानुकूलित व्यवस्था और फ्रिज के द्वारा गतिशील होकर जोकुछ भी तुम्हारे लिए जरूरी है, परमात्मा की वह शक्ति उस कार्य को पूरा करती है। परमात्मा की वह शक्ति गृह उपयोग की शक्ति बन गई है और अब वह और अधिक धमकाने वाला परमात्मा का क्रोध नहीं रह गया है। विज्ञान के द्वारा एक बाहर की शक्ति रूपांतरित होकर एक मित्र बन गई है।
धर्म के द्वारा अंतरस्थ शक्तियों के लिए भी ऐसा ही होता है। तुम्हारे शरीर में क्रोध ठीक एक विद्युत के समान है और तुम नहीं जानते कि उसके साथ क्या करना है। या तो उससे तुम स्वयं अपने को मारते हो अथवा किसी अन्य व्यक्ति की हत्या करते हो। समाज कहता है कि तुम स्वयं को मारते हो तो वह ठीक है, वह तुम्हारी अपनी रुचि है, लेकिन अन्य किसी व्यक्ति को मत मारो और जहां तक समाज कहता है वह ठीक है। इसलिए या तो तुम आक्रामक बनो अथवा तुम नियंत्रण में बने रहो।
धर्म कहता है कि दोनों ही गलत हैं। मौलिक विषय जिसकी जरूरत है वह है सजग बनना और इस क्रोध की ऊर्जा का जो अंतरस्थ की विद्युत है उसके रहस्यों को जानना। वह विद्युत ही है क्योंकि जब तुम क्रोधित होते हो तो उत्तप्त हो जाते हो और तुम्हारा तापक्रम गर्म हो जाता है और तुम एक बुद्ध की शीतलता को नहीं समझसकते क्योंकि जब क्रोध करुणा में रूपांतरित हो जाता है तो प्रत्येक चीज़ शीतल हो जाती है। एक गहन शीतलता घटित होती है। बुद्ध कभी भी गर्म नहीं होते, वह हमेशा शीतल और केंद्रित बने रहते हैं, क्योंकि अब वह जानते हैं कि इस अंतरस्थ विद्युत का उपयोग कैसे किया जाए। विद्युत गर्म है और वह वातानुकूलित व्यवस्था का स्रोत बन जाती है। क्रोध भी गर्म होता है और वह करुणा का स्रोत बनता है।
करुणा अंतरस्थ की वातानुकूलित स्थिति है। अचानक प्रत्येक चीज़ शीतल और सुंदर हो जाती है और तुम्हें कोई भी चीज़ व्याकुल और क्षुब्ध नहीं कर सकती तथा पूरा अस्तित्व रूपांतरित होकर एक मित्र बन जाता है। अब वहां और कोई भी शत्रु नहीं रह जाते क्योंकि जब तुम क्रोध की आंखों के द्वारा देखते हो तो कोई भी व्यक्ति शत्रु बन जाता है और जब तुम करुणा भरे नेत्रों के द्वारा निहारते हो तो प्रत्येक व्यक्ति एक मित्र और पड़ोसी है। जब तुम प्रेम करते हो तो प्रत्येक स्थान पर परमात्मा होता है तथा जब तुम घृणा करते हो तो प्रत्येक स्थान पर शैतान होता है। यह तुम्हारा ही दृष्टिकोण है जो तुम वास्तविकता पर प्रक्षेपित करते हो।
निंदा और तिरस्कार नहीं, सजगता की आवश्यकता है तथा सजगता के द्वारा ही सहज और स्वाभाविक रूप से रूपांतरण होता है। यदि तुम अपने क्रोध के प्रति सचेत हो जाते हो तो समझ प्रविष्ट होती है। केवल बिना किसी निर्णय के साथ, न अच्छा कहते हुए और न बुरा कहते हुए निरीक्षण करते हुए तुम अपने अंर्ताकाश में सावधानी से निरीक्षण करते रहो। वहां क्रोध की विद्युत चमकेगी, तुम गर्म होने का अनुभव करोगे, तुम्हारा पूरा नाड़ी-यंत्र कंपने और थरथराने लगेगा, तुम अपने पूरे शरीर में कंपन और थरथराहट का अनुभव करोगे क्योंकि जब ऊर्जा कार्य करती है तो वह एक सुंदर क्षण होता है तथा तुम सरलता से उसका निरीक्षण कर सकते हो और जब वह कार्य नहीं कर रही है तो तुम उसका निरीक्षण भी नहीं कर सकते हो।
अपनी आंखें बंद कर लो और उस पर ध्यान करो। उससे लड़ो मत, केवल देखते रहो कि क्या हो रहा है- पूरा आकाश विद्युत के साथ इतना अधिक चमक उठा है और वह बहुत अधिक सुंदर है- केवल नीचे भूमि पर लेट जाओ और आकाश की ओर देखते हुए निरीक्षण करते रहो। तब ऐसा ही अपने अंर्ताकाश में भी करो।
वहां बादल भी हैं क्योंकि बिना बादलों के वहां विद्युत नहीं हो सकती, वहां घने काले बादल हैं, वे विचारों के बादल हैं। किसी व्यक्ति ने तुम्हारा अपमान किया है, किसी व्यक्ति ने तुम्हारा उपहास किया है, किसी व्यक्ति ने यह अथवा वह कहा है- वहां तुम्हारे अंर्ताकाश में अनेक घने काले बादल हैं और विद्युत भी बहुत अधिक चमक रही है। सावधानी से निरीक्षण करते रहो- बहुत सुंदर दृश्य है पर साथ में भयानक भी है क्योंकि तुम उसे नहीं समझते हो। वह रहस्यमय है और यदि रहस्य को समझा नहीं जाता तो वह भयानक बन जाता है तथा तुम भयभीत हो जाते हो। और जब कभी एक रहस्य को समझ लिया जाता है, वह एक अनुग्रह और उपहार बन जाता है क्योंकि अब तुम्हारे पास उसकी वुंफजियां हैं और वुंफजियों के साथ तुम उसके स्वामी हो।
तुम उसको नियंत्रित नहीं करते; और जब तुम सजग होते हो तुम सामान्य रूप से उसके स्वामी बन जाते हो। और तुम जितने अधिक सचेत होते हो तुम उतना ही अधिक अपने अंतरस्थ में प्रवेश करते हो क्योंकि सचेतनता अंतरस्थ में ही जा रही है वह हमेशा अंतरस्थ में ही जाती है। तुम जितने अधिक सचेत होते हो तुम उतने ही अधिक अंदर जाते हो और यदि पूर्ण रूप से सचेत होते हो तो पूर्ण रूप से अंदर होते हो और तुम जितने कम सजग होते हो उतने ही अधिक बाहर होते हो। पूर्ण रूप से अपने घर के बाहर होकर उसके चारों ओर घूमते रहते हो।
अचेतनता बाहर भटकते रहना है और चेतना है अपने अंदर गहराई में जाना। इसलिए देखो और जब क्रोध नहीं है तो देखना कठिन होगा, आखिर किसकी ओर देखा जाए? आकाश इतना अधिक खाली और शून्य है और तुम अभी तक शून्यता की ओर देखने में समर्थ नहीं हुए हो। जब वहां क्रोध होता है तब देखो और सावधानी से निरीक्षण करो और शीघ्र ही तुम एक परिवर्तन देखोगे। जिस क्षण निरीक्षणकर्ता अंदर आता है क्रोध पहले ही से शीतल होना शुरू हो जाता है और उसकी गर्मी खो जाती है। तब तुम समझ सकते हो कि गर्मी तुम्हारे द्वारा ही दी गई है, तुम्हारा उसके साथ तादात्म्य जोड़ना ही उसे गर्म बना देता है और जिस क्षण तुम अनुभव करते हो कि वह गर्म नहीं है और भय चला गया है तो तुम अनुभव करते हो कि उसके साथ तादात्म्य टूट गया है, तुम भिन्न हो और एक दूरी हो गई है। वह वहां है, तुम्हारे चारों ओर उसकी चमक तथा कौंध भी है लेकिन तुम वह नहीं हो। एक पहाड़ी ऊपर उठना शुरू हो जाती है। तुम एक निरीक्षणकर्ता बन जाते हो, नीचे घाटी में काफी अधिक बिजली कौंध रही है- दूरी अधिक से अधिक बढ़ती चली जाती है और एक क्षण ऐसा आता है जब अचानक तुम उससे बिल्कुल भी जुड़े हुए नहीं होते हो। तादात्म्य टूट जाता है और जिस क्षण तादात्म्य टूटता है तो तुरंत ही गर्म होने की पूरी प्रक्रिया, एक शीतल प्रक्रिया बन जाती है और क्रोध करुणा बन जाता है।
सेक्स भी एक गर्म अथवा उत्तप्त करने वाली प्रक्रिया है, पर प्रेम नहीं है। लेकिन पूरे संसार-भर में लोग हमेशा ऊष्म प्रेम के बारे में बात करते हैं। प्रेम गर्म अथवा ऊष्म नहीं होता है, प्रेम पूर्ण रूप से शीतल होता है लेकिन वह ठंडा नहीं होता है- वह ठंडा इसलिए नहीं होता है क्योंकि वह मृत नहीं है। ठीक शीतल वायु के समान वह शीतल है। लेकिन वह गर्म अथवा ऊष्मायुक्त नहीं है। सेक्स के साथ तादात्म्य जुड़ जाने के कारण मन में यह धारणा आ गई है कि प्रेम को ऊष्म अथवा गर्म होना चाहिए।
सेक्स गर्म या उत्तप्त होता है। वह एक विद्युत है और तुम उसके साथ तादात्म्य जोड़ लेते हो, जितना अधिक प्रेम होता है उतनी अधिक शीतलता होती है- तुम शीतल प्रेम का भी ठंडे होने की भांति अनुभव कर सकते हो, जो तुम्हारी नासमझी अथवा गलतफहमी है क्योंकि तुम अनुभव करते हो कि प्रेम को गर्म होना है। वह वैसा नहीं हो सकता, वही समान ऊर्जा, जब उसके साथ तादात्म्य नहीं जुड़ता है, शीतल बन जाती है। करुणा शीतल होती है और यदि तुम्हारी करुणा में अभी भी गर्मी है तो समझना कि वह करुणा नहीं है।
इस स्थान में ऐसे भी लोग हैं जो बहुत अधिक गर्म और उत्तप्त हैं, ओर वे सोचते हैं कि उनके पास बहुत अधिक करुणा है। वे लोग समाज को बदलना चाहते हैं, वे उसका पूरा ढांचा बदल देना चाहते हैं, वे लोग यह अथवा वह कार्य करना चाहते हैं, वे संसार में एक आदर्श सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था लाना चाहते हैं। क्रांतिकारी, साम्यवादी और आदर्शवादी- ये सभी बहुत गर्म होते हैं। वे लोग सोचते हैं कि उनके पास करुणा है- नहीं, उनके पास केवल क्रोध है। विषय वस्तु बदल गई है। अब उनके क्रोध के पास एक नया विषय है- एक बहुत अव्यक्तिगत विषय वस्तु के समान, पूरा सामाजिक ढांचा, राज्य और स्थिति। वे लोग बहुत गर्म हैं। लेनिन अथवा स्टालिन अथवा ट्राटस्की- वे गर्म लोग हैं, लेकिन वे विशेष रूप से किसी व्यक्ति के विरुद्ध नहीं हैं, वे लोग पूरे ढांचे के विरुद्ध हैं। गांधी भी ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एक गर्म व्यक्ति हैं। विषय अव्यक्तिगत अथवा सामान्य है, इसी कारण तुम यह अनुभव नहीं कर सकते कि वह क्रोधित है लेकिन वे नाराज हैं। वह बाहर के संसार में कुछ चीज़ बदलना चाहते हैं और वह उसे इतनी अधिक शीघ्रता से बदलना चाहते हैं कि वह संघर्ष करते हुए अधीर हैं। साधन के रूप में उनकी लड़ाई अहिंसा चुन सकती है लेकिन लड़ना अथवा संघर्ष करना एक हिंसा है। लड़ना अपने आप में एक हिंसा है। तुम लड़ने के अहिंसक साधन चुन सकते हो- स्त्रियां हमेशा यही साधन चुनती हैं। गांधी ने पूरी तरह से स्त्रियों की इसी चाल का प्रयोग किया है और उन्होंने अन्य कुछ भी नहीं किया है।
यदि एक पति लड़ना चाहता है तो वह अपनी पत्नी को पीट देगा और यदि स्त्री पति से लड़ना चहाती है तो वह स्वयं अपने को ही पीटेगी। श्ह उतना ही अधिक पुराना है जितनी कि स्त्री है और पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक पुरानी है। वह स्वयं को ही पीटना शुरू कर देगी और यही उसके लड़ने का ढंग है। वह हिंसक है, स्वयं अपने ही विरुद्ध हिंसक है। स्मरण रहे कि एक स्त्री को पीटने से तुम अपराधी होने का अनुभव करोगे और देर अथवा सवेर तुम्हें नीचे झुकना हागा तथा एक समझौता करना होगा लेकिन स्वयं को पीटकर वह कभी भी अपराधी होने का अनुभव नहीं करती है। इसलिए या तो तुम एक स्त्री को पीटो और तुम अपराधी होने का अनुभव करो, अथवा वह स्वयं को पीटती है और तब भी तुम अपराधी होने का अनुभव करते हो कि तुमने ही एक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जिससे वह स्वयं को पीट रही है। दोनों ही स्थितियों में विजय उसकी होती है।
ब्रिटिश साम्राज्य इसीलिए पराजित हुआ क्योंकि वह एक पुरुष की आक्रामक शक्ति की भांति था और ब्रिटिश साम्राज्य गांधी की स्त्री की भांति की लड़ाई को नहीं समझ सका : वह मृत्यु होने तक उपवास करेंगे और तब पूरा ब्रिटिश मन अपराधी होने का अनुभव करेगा। अब तुम इस व्यक्ति को नहीं मार सकते क्योंकि वह किसी भी ढंग से तुम्हारे साथ नहीं लड़ रहा है, वह पूरी तरह से अपनी ही आत्मा का शुद्धिकरण कर रहा है- यह वही पुरानी स्त्रियों वाली लीला है लेकिन उसने कार्य किया। इस बारे में गांधी को हराने का केवल एक ही तरीका था और वह असंभव था। वह था चर्चिल के लिए आमरण उपवास करना और वह असंभव था।
या तो तुम विशेष रूप से किसी व्यक्ति के विरुद्ध गर्म अथवा उग्र हो अथवा सामान्य रूप से केवल किसी ढांचे के विरुद्ध हो लेकिन गर्मी अर्थात उग्रता बनी रहती है।
एक लेनिन करुण नहीं है, हो भी नहीं सकता है। बुद्ध करुणावान है। वह किसी भी प्रकार से किसी भी चीज़ के साथ नहीं लड़ रहे हैं, वे अपने से ही आगे बढ़ रहे हैं। समाज अपने से बदल रहे हैं, इस बारे में उन्हें बदलने की कोई भी आवश्यकता नहीं है, वे यों बदलते हैं ज्यों मौसम आने पर वृक्ष बदलते हैं। समाज स्वयं अपने से बदलते हैं- पुराने समाज स्वयं अपने से मरते हैं और इस बारे में उन्हें नष्ट करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। ठीक नए बच्चों के समान नए समाजों का जन्म होता है। नए बच्चे अपने से स्वयं जन्मते हैं। इस बारे में गर्भपात के लिए बल प्रयोग करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। वह स्वतः अपने आप होता चला जाता है।
व्यक्ति गतिशील होते हैं और बदलते हैं। यह एक विरोधाभास है कि वे गतिशील होते चले जाते हैं और बदले चले जाते हैं तथा तब भी एक अर्थ में वे समान बने रहते हैं- क्योंकि वहां ऐसे लोग होंगे जो निर्धन हैं, वहां ऐसे भी लोग होंगे जो धनी हैं, वहां ऐसे लोग होंगे जो असहाय और शक्तिहीन हैं और वहां ऐसे लोग भी होंगे जिनके पास प्रभुत्व करने की सत्ता है। वर्ग विलुप्त नहीं हो सकते वह व्यक्तियों और वस्तुओं का स्वभाव नहीं है। मनुष्यों के समाज कभी भी वर्गहीन नहीं हो सकते हैं।
वर्ग बदल सकते हैं। अब रूस में, वहां न तो निर्धन हैं और न धनी हैं, अब वहां लोग या तो शासक हैं अथवा शासित लोग हैं, जिन पर कि शासन किया जा रहा है। अब एक नया वर्ग-विभाजन उत्पन्न हो गया है : शासक या अधिकारी लोग तथा सामान्य लोग, प्रबंधक और जिन लोगों के लिए प्रबंध व व्यवस्था की जा रही है वे लोग, सभी समान हैं और इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। यदि अब तैमूरलंग का जन्म रूस में हुआ होता तो वह प्रधानमंत्री बन जाता। यदि फोर्ड का जन्म सोवियत रूस में हुआ होता तो वह साम्यवादी दल का महासचिव बन जाता और वह वहां से ही प्रबंध ओर व्यवस्था करता।
स्थितियां बदलती चली जाती हैं लेकिन एक सूक्ष्म अर्थ में वे लोग समान स्थिति में बने रहते हैं। व्यवस्थापक लोग और जिनके लिए व्यवस्था की जा रही है, वे लोग शासक और शीतल लोग, धनी और निर्धन लोग वे बने ही रहते हैं। तुम इसे नहीं बदल सकते क्योंकि समाज विरोधों के द्वारा ही अस्तित्व में बना रहता है। एक सच्चा करुणावान व्यक्ति शीतल होगा और वह वास्तव में एक क्रांतिकारी नहीं हो सकता है क्योंकि क्रांति को आवश्यकता होती है एक बहुत गर्म मिजाज के व्यक्ति की, जिसका शरीर, मन और हृदय भी गर्म हो।
न कोई नियंत्रण, न दूसरों पर कोई अभिव्यक्ति तथा और अधिक सजगता- और तभी चेतना परिधि से केंद्र की ओर जाती है।
अब इस सुंदर प्रसंग को समझने का प्रयास करें।
एक ज़ेन (ध्यान) सीखने वाला शिष्य सद्गुरु बांके के पास आया और उसने कहा-‘‘सद्गुरु! मेरे पास एक बहुत उच्छृंखल और अनियमित स्वभाव है, मैं उसे कैसे ठीक कर सकता हूं?’’
उसने एक बात स्वीकार की कि उसका स्वभाव बहुत उच्छृंखल है जिसे वह अपने काबू में नहीं रख पाता है और अब वह उसका उपचार करना चाहता है। जब कभी भी वहां एक बीमारी होती है तो पहले तो उसे खोजने का प्रयास करो कि वहां वास्तव में एक बीमारी है अथवा वह एक गलतफहमी है क्योंकि यदि वहां असली बीमारी है तभी उसका उपचार किया जा सकता है लेकिन यदि वह सत्य में एक बीमारी नहीं है और केवल एक गलतफहमी है तब कोई भी दवा सहायता नहीं करेगी। वस्तुतः इसके विपरीत प्रत्येक दवा जो तुम्हें दी जाती है वह हानिकारक होगी। इसलिए पहले तो बीमारी के बारे में पूरी तरह से यह स्पष्ट होना है कि वह वहां है अथवा नहीं है अथवा क्या तुम पूरी तरह से उसकी कल्पना कर रहे हो अथवा तुम पूरी तरह से यह सोच रहे हो कि वह वहां है। हो सकता है वह वहां बिल्कुल हो ही नहीं और हो सकता है कि वह पूरी तरह से एक गलतफहमी ही हो। और जिस ढंग से मनुष्य भ्रमित हो जाता है उसकी अनेक बीमारियां वहां बिल्कुल होती ही नहीं हैं और वह पूर्ण रूप से यह विश्वास करता है कि वे वहां हैं।
तुम लोग भी समान नाव में सवार हो इसलिए इस कहानी को बहुत गहराई से समझने का प्रयास करो। वह तुम्हारे लिए बहुत सहायक हो सकती है।
ध्यान सीखने वाले उस नए शिष्य ने कहा-‘‘सद्गुरु! मेरा स्वभाव बहुत उच्छृंखल और अनियमित है। मैं उसे कैसे ठीक कर सकता हूं?
बीमारी स्वीकार की गई है, उसे उसमें जरा भी संदेह नहीं है, वह उसके उपचार के लिए पूछ रहा है। कभी भी उसके उपचार के लिए मत पूछो। पहले तो उसे खोजने का प्रयास करो कि बीमारी अस्तित्व में है अथवा नहीं है। पहले बीमारी के अंदर जाओ और रोग का निदान करो, उसके लक्षणों से अर्थ निकालने का प्रया करो, उसकी सूक्ष्मता से छानबीन करो और रोग का उपचार बताने से पूर्व उस रोग में गहराई तक प्रवेश करो। केवल परिधि पर ही किसी भी बीमारी को स्वीकार मत करो क्योंकि परिधि वह स्थान है जहां दूसरे लोग तुमसे मिलते हैं, परिधि वह है जहां दूसरे तुम्हारे अंदर प्रतिबिंबित होते हैं और परिधि वह है जहां दूसरे तुमसे बहाना बनाते हैं अथवा अपने को छिपाते हैं। हो सकता है कि वह किसी भी प्रकार से कोई बीमारी न हो और वह केवल दूसरों की निंदा और तिरस्कार का परिणाम हो।
वह ठीक एक शांत झील के समान है और तुम अपनी नारंगी गाउन पहने हुए झील के किनारे खड़े हुए हो और तुम्हें निकट का जल प्रतिबिंबित करते हए नारंगी रंग का प्रतीत होता है। उससे कैसे छुटकारा पाया जाए? कहां उसका उपचार खोजा जाए? और किससे पूछा जाए?
तुरंत ही विशेषज्ञों के पास मत जाओ। पहले यह खोजने का प्रयास करो कि क्या वह वास्तव में एक बीमारी है अथवा केवल वह एक प्रतिबिंब है। केवल सजग बने रहने से ही बहुत कुछ होगा और तुम्हारी अनेक बीमारियां बिना किसी उपचार के पूरी तरह से विलुप्त हो जाएंगी और किसी दवा की भी आवश्यकता नहीं होगी।
बांके ने कहा-‘‘अपने इस स्वभाव को मुझे दिखलाओ।
सजगता के जादू अथवा मंत्र से वह ठीक हो जाता है।
एक बांके जैसे व्यक्ति उपचार पर नहीं, तुरंत ही बीमारी पर कार्य करना प्रारंभ कर देता है। वह कोई मनोविश्लेषक नहीं है, एक मनोविश्लेषक उपचार के लिए कार्य करना प्रारंभ करता है और उनमें यही अंतर है। अब मानसिक रोगों के उपचार के लिए नई प्रवृत्तियां सामने आ रही हैं जो उपचार पर नहीं, बिमारी पर कार्य करना प्रारंभ करती हैं। नई प्रवृत्तियां विकसित हो रही हैं जो वास्तविकता के निकट हैं जो ज़ेन के निकटतम हैं और जो धर्म के भी निकटतम हैं। इसी सदी के अंदर मानसिक रोगों का उपचार और अधिक धार्मिक आवृफति ले लेगा, और तब वह केवल एक उपचार नहीं होगा और वह वास्तव में निरोगी बनाने की एक शक्ति बन जाएगा क्योंकि मनोचिकित्सा उपचार के बारे में सोचती है और निरोगी बनाने की शक्ति तुम्हारी चेतना को बीमारी तक लाती है।
सौ में से निन्यानवें बीमारियां तुम्हारी चेतना को पूरी तरह से उन तक ले जाने में ही मिट जाएंगी। वे झूठी बीमारियां हैं, वे इसलिए मौजूद हैं क्योंकि तुम उनकी ओर से पीठ फेरे हुए खड़े हुए हो। उनका आमना-सामना करो, वे चली जाती हैं और वे मिट जाती हैं। आमने-सामने मुठभेड़ करने, लड़ने-झगड़ने, वाद-विवाद करने का ही अर्थ है एनकाउंटर करना और इसमें ‘एनकाउंटर थैरेपी ग्रुप्स’ सहायता कर सकते हैं, क्योंकि उनका पूरा संदेश यही है कि व्यक्ति और विषय जैसे भी वे हैं, वैसे उनका आमना-सामना किया जाए। उपचार के बारे में मत सोचो, दवा के बारे में मत सोचो और यह भी मत सोचो कि क्या करना है, असली चीज़ पहले यह जानना है कि वहां है क्या।
मन ने तुम्हें इतने अधिक तरीकों से धोखा दिया है कि एक बीमारी जो बाहर परिधि पर प्रतीत होती है लेकिन नीचे गहराई में वहां कोई भी बीमारी होती ही नहीं; अथवा एक रोग जो परिधि पर होना प्रतीत होता है लेकिन जब तुम अपने अंदर जाते हो, तो और तुम पाते हो कि वहां दूसरी अन्य बीमारियां हैं और वह केवल तुम्हें धोखा देने की एक चाल थी तथा वह असली बीमारी नहीं थी।
एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा : मेरा मन बहुत अधिक क्षुब्ध और व्याकुल है। मैं निरंतर तनाव में रहता हूं और वहां व्यग्रता बनी रहती है। मैं सो भी नहीं सकता। इसलिए मुझे ध्यान की कोई ऐसी विधि दीजिए कि जिससे मैं शांत बनकर शांति से रह सवूंफ।
मैंने उससे पूछा-‘‘वास्तव में समस्या क्या है? क्या आप वास्तव में स्वयं के साथ शांत होकर रहना चाहते हैं?’’
उसने कहा-‘‘जी हां! मैं एक खोजी हूं, मैं श्री ओरोविंदो के आश्रम में रहा हूं, मैं श्री रमण के आश्रम में भी रहा हूं और मैं प्रत्येक ऐसे स्थानों में रहा हूं, पर कहीं भी कोई सहायता नहीं मिली।’’
इसलिए मैंने उससे पूछा-‘‘क्या आपने कभी भी इस बारे में विचार किया है कि जब कहीं से कोई भी सहायता नहीं मिलती है तो हो सकता है कि आपकी बीमारी झूठी हो? अथवा आपने उस पर झूठा लेबल लगा दिया हो? अथवा सामग्री रखे जाने वाली बोतल में कुछ अन्य चीज़ रखी हो जिस पर उसका नाम न लिखा हो? आप सरलता से स्वीकार करते हैं कि श्री ओरोविंदो असफल हो गए, श्री रमण असफल हो गए और आप चारों ओर ऐसे सभी स्थानों पर जा चुके हैं और वह बहुत बड़े विजेता होने का अनुभव कर रहे थे कि प्रत्येक व्यक्ति असफल हो गया और कोई भी व्यक्ति उनकी सहायता करने में सफल नहीं हुआ और प्रत्येक व्यक्ति झूठा था।
और तब मैंने उनसे कहा-‘‘देर अथवा सवेर आप जाकर मेरे बारे में भी समान बातें कहेंगे क्योंकि मैं नहीं समझता कि आप सत्य के एक खोजी हैं और मैं यह नहीं देखता कि वास्तव में आपकी दिलचस्पी स्वयं के साथ शांत होने की है। मुझे ठीक-ठीक बतालए कि आपकी व्यग्रता का कारण क्या है? आपका क्या तनाव है? बस मुझे बताते चले जाएं कि आपके अंदर निरंतर किस तरह के विचार आते हैं और आप क्यों उनके बारे में सोचते चले जाते हैं?’’
उसने कहा-‘‘अनेक नहीं, केवल एक विचार। मेरा एक बेटा था। वह अभी भी जीवित है। मैंने उसे घर से बाहर निकाल दिया। मैं एक धनी व्यक्ति हूं और वह एक ऐसी लड़की के साथ प्रेम में पड़ गया जो मेरी जाति की नहीं थी और आर्थिक दृष्टि से भी मेरे स्तर से काप्फी नीचे थी और वह अशिक्षित भी थी। और मैंने अपने पुत्र से कहा-‘‘यदि तुम इस लड़की से विवाह करना चाहते हो तो इस घर में कभी वापस नहीं लौटना और वह लौटकर कभी नहीं आया। और अब मैं वृद्ध होता जा रहा हूं। वह लड़का उसी लड़की के साथ निर्धनता में जी रहा है और मैं निरंतर लड़के के बारे में सोचता रहता हूं और यही मेरी मुसीबत है। आप मुझे ध्यान की कोई विधि दीजिए।’’
मैंने कहा-‘‘ध्यान की वह विधि आपकी कैसे सहायता करेगी?- क्योंकि ध्यान की विधि लड़के को घर में वापस नहीं ला पायेगी। और यह एक ऐसी सरल-सी बात है जिसके बारे में ओरोविंद के पास जाने की अथवा श्री रमण के पास जाने की अथवा मेरे पास आने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। आपकी समस्या के लिए एक तलवार की आवश्यकता नहीं है, एक सुई ही कार्य करेगी। आप तलवारों की ओर देख रहे हैं और तब तलवारें असफल सिद्ध होती हैं क्योंकि आपको केवल एक सुई की आवश्यकता है। यह कोई भी आध्यात्मिक समस्या नहीं है, केवल अहंकार ही समस्या है। एक व्यक्ति को एक ऐसी लड़की के साथ प्रेम में क्यों नहीं पड़ना चाहिए जो आर्थिक दृष्टि से आपसे नीचे की स्तर की हो। क्या प्रेम में कुछ बात आर्थिक होती है? किसी ऐसी वस्तु के बारे में सोचना जिसमें धन, संपत्ति, वित्त, अर्थशास्त्र अथवा किसी स्तर की कोई शर्त अथवा सीमा हो, व्यर्थ है।
तब मैंने उसे एक कहानी सुनाई। एक विवाह तय कराने वाला एजेंट एक युवा व्यक्ति के पास आया और उससे कहा-‘‘मेरे पास एक बहुत सुंदर लड़की है जो ठीक तुम्हारे लिए ही उपयुक्त है।’’
लड़के ने कहा-‘‘मुझे परेशान मत कीजिए। मेरी इसमें कोई भी दिलचस्पी नहीं है।’’
वैवाहिक एजेंट ने कहा-‘‘मैं जानता हूं लेकिन फिक्र मत कीजिए, मेरे पास एक अन्य लड़की भी है जो दहेज में पांच हजार रुपए लाएगी।’’
उस युवक ने कहा-‘‘व्यर्थ की बातें करना बंद कीजिए। मेरी धन में भी दिलचस्पी नहीं है। आप बस तशरीफ ले जाइए।’’
उस व्यक्ति ने कहा-‘‘मैं जानता हूं। आप परेशान न हों। यदि पांच हजार रुपए पर्याप्त नहीं हैं तो मेरे पास एक और दूसरी लड़की है जो दहेज में पच्चीस हजार रुपया लाएगी।’’
लड़के ने कहा-‘‘आप मेरे कमरे से पूरी तरह बाहर निकल जाइए, क्योंकि यदि कभी मैंने विवाह किया तो इस बारे में मैं स्वयं सोचूंगा, एक एजेंट के लिए व्यवस्था करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आप मुझे क्रोध न दिलाइए।’’
एजेंट ने कहा-‘‘ठीक है। अब मैं समझ गया। आपकी सुंदरता में कोई रुचि नहीं है, आपकी दिलचस्पी धन में भी नहीं है। पर मेरे पास एक ऐसी लड़की है जो एक बहुत प्रसिद्ध और एक लंबी समृद्ध परंपरा के परिवार से है और उनके बारे में प्रत्येक व्यक्ति जानता है और अतीत में उस परिवार से चार प्रधानमंत्री आए हैं। इसलिए आपकी दिलचस्पी इस परिवार से है। मैं ठीक हूं न?’’
अब इस समय तक वह लड़का बहुत अधिक क्रोधित हो गया और उसने शारीरिक रूप से उस व्यक्ति को कमरे से बाहर पेंफक देना चाहा और जब वह उसे शारीरिक रूप से दरवाजे के बाहर धकेल रहा था तब उसने कहा-‘‘यदि मैंने कभी विवाह किया भी तो वह अन्य किसी वस्तु के लिए न होकर केवल प्रेम के लिए होगा।’’
एजेंट ने कहा-‘‘तब पहले ही आपने मुझे बताया क्यों नहीं? मेरे पास उस तरह की भी लड़कियां हैं।’’
मैंने उस व्यक्ति को यह कहानी सुनाई।
प्रेम ऐसा नहीं होता कि उसकी व्यवस्था की जाए। वह पूरी तरह से कुछ ऐसी चीज़ होती है जो घटित होती है और जिस क्षण तुम उसकी व्यवस्था करने का प्रयास करते हो तो प्रत्येक चीज़ असफल हो जाती है और तुम चूक जाते हो।
इसलिए मैंने उस व्यक्ति से कहा-‘‘बस आप जाइए और अपने पुत्र से क्षमा मांगिए- यही है वह चीज़ जिसकी आवश्यकता है। ध्यान की कोई भी विधि न ओरोबिंदो, न रमण, न ओशो, कोई भी व्यक्ति इसमें आपकी सहायता नहीं कर सकता। सामान्य रूप से अपने लड़के के पास जाइए और उससे क्षमा मांगिए- यही है वह जो करना आवश्यक है। उसको स्वीकार कीजिए और उसे घर वापस लाकर उसका स्वागत कीजिए। यह केवल अहंकार ही है जो आपकी कठिनाई बना हुआ है। यदि अहंकार मुसीबत खड़ी कर रहा है तब आपकी बीमारी भिन्न है। आप ध्यान में खोज रहे हैं और आप सोचते हैं कि ध्यान के द्वारा शांति मिलना संभव होगी? नहीं।’’
ध्यान केवल उस व्यक्ति के लिए सहायक हो सकता है, जिसे अपने अंदर की बीमारियों के साथ ठीक समझ आ गई हो, जब उसकी समझ में यह आ जाता है कि कौन-सी बीमारी झूठी है, किस बीमारी के साथ उसने गलत तादात्म्य जोड़ लिया है और कौन-सी बीमारी वहां बिल्कुल है ही नहीं तथा इनको धारण करने वाला शरीर का बर्तन खाली है...
जब कोई एक इस समझ तक आ गया है, जब सभी बीमारियों के साथ उस एक व्यक्ति में गहन समझ आ गई है तो निन्यानवें प्रतिशत बीमारियां मिट जाती हैं क्योंकि तुम कुछ कार्य कर सकते हो और वे विलुप्त हो जाती हैं। तब केवल एक विषय रह जाता है और वह चीज़ है आत्मिक खोज- एक गहन वेदना, जो इस संसार से संबंधित नहीं है जो संसार की किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति से संबंधित नहीं है, वह पिता, पुत्र, धन, प्रतिष्ठा और सत्ता से अथवा किसी भी चीज़ से संबंधित नहीं है। वह उनसे संबधित नहीं है, वह पूरी तरह से अस्तित्वगत है। नीचे गहराई में यदि तुम उसके सूक्ष्मतम बिंदु तक पहुंच सकते हो तो वह है- कैसे स्वयं अपनी आत्मा को जाना जाए कि मैं कौन हूं? तब यह वेदना या पीड़ा ही खोज बन जाती है। तब ध्यान सहायता कर सकता है लेकिन कभी भी इससे पूर्व नहीं। इससे पहले दूसरी चीज़ें आवश्यक होती हैं, सुई कार्य करेगी, फिर अनावश्यक रूप से एक तलवार क्यों ढोते हो? और जहां सुई कार्य करेंगी, तलवारें असफल होंगी। यह वह है जो विश्व-भर में चारों ओर लाखों लोगों के साथ हो रहा है।
यह बांके एक सद्गुरु है। उसने कार्य करने का वह सूक्ष्म बिंदु तुरंत पा लिया है।
उसने कहा-‘‘अपनी उस उत्तेजना को मुझे दिखलाओ
सजग बने रहने के मंत्र से वह ठीक हो जाता है।
यह वास्तव में जादू-टोना अथवा मंत्र से वश में करके ठीक हो सकती है। यह बांके उसे अपने वश में करने की बात क्यों कहता है? क्योंकि पूरी चीज़ ही मिथ्या है। इस नए शिष्य ने कभी भी अपने अंदर देखा ही नहीं। वह एक विधि की खोज कर रहा है और उसने रोग का निदान नहीं किया है कि उसकी बीमारी क्या है।
उस नए शिष्य ने कहा-‘‘ठीक अभी तोवह मेरे पास नहीं है,
इसलिए मैं उसे आपको नहीं दिखला सकता।’’
तुम क्रोध के बारे में उसे लाने की व्यवस्था नहीं कर सकते, अथवा कर सकते हो? यदि मैं तुमसे कहूं-‘‘ठीक अभी क्रोधित हो जाओ’’ तो तुम क्या करोगे? यदि तुम अभिनय भी करते हो और यदि तुम किसी भी तरह बहाना बनाने की व्यवस्था भी करते हो तो वह एक क्रोध न होगा क्योंकि नीचे गहराई में तुम अभिनय करते हुए शीतल बने रहोगे। ऐसा होता है। इसका अर्थ क्या है- ‘यह होता है’। ‘यह होता है’ का अर्थ होता है कि जब तुम केवल मूर्च्छित होते हो और यदि तुम उसे लाने का प्रयास करते हो तो तुम सचेत हो जाते हो। यदि तुम चेतन हो तो वैसा नहीं हो सकता, वैसा केवल तभी होता है जब तुम अचेतन होते हो। अचेतनता अथवा मूर्च्छा होना ही चाहिए- बिना उसके तुम क्रोधित नहीं हो सकते।
लेकिन तब भी उस लड़के ने कहा-‘‘ठीक अभी तो वह मेरे पास नहीं है
इसलिए मैं उसे आपको नहीं दिखला सकता।’’
‘‘तब ठीक है’’, बांके ने कहा-‘‘जब वह तुम्हारे पास हो, उसे मेरे पास ले आना।’’
उस नए शिष्य ने प्रतिरोध करते हुए कहा-‘‘लेकिन मैं उसे आपके पास नहीं ला सकता
क्योंकि जब वह घटित होती है, तभी वह मेरे पास होती है
वह अचानक उत्पन्न होती है और मैं उसे आपके पास ला सवूंफ
इससे पूर्व ही निश्चित रूप से मैं उसे खो दूंगा।’’
अब बांके ने उसे ठीक मार्ग पर स्थापित कर दिया है। वह पहले ही से उसके साथ गतिशील हो चुका है, वह पहले ही से लक्ष्य के निकट आ रहा है क्योंकि अब वह उन विषयों और वस्तुओं के प्रति सचेत बन रहा है, जिनके प्रति वह कभी भी सचेत नहीं था। पहली बात वह जिसके प्रति सचेत बनता है, वह है कि वह अपने संवेग को ठीक अभी प्रस्तुत नहीं कर सकता है। वह प्रस्तुत किया ही नहीं जा सकता, जब वह होता है तब वह होता है, वह एक अचेतन शक्ति है। तुम उसे सचेत होकर उसके आसपास नहीं ला सकते हो। इसका अर्थ है कि यदि वह आगे की ओर जाता है तो अगला कदम होगा कि वह सचेत बना रहता है और तुम सचेत बने रहते हो तो वह घटित नहीं हो सकता है।
जब कभी क्रोध घटित हो रहा हो और यदि तुम अचानक सजग हो जाते हो तो वह चला जाता है। इसे आजमाओ। क्रोध के ठीक मध्य में जब तुम बहुत अधिक गर्म हो रहे हो और किसी की हत्या कर देना चाहते हो, अचानक सजग और सचेत हो जाओ, तब तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे अंदर एक ‘गियर’ और कुछ चीज़ बदल गई है और तुम एक खटके का अनुभव कर सकते हो। कुछ चीज़ बदल गई है, अब वह समान चीज़ और अधिक नहीं रह गई है। तुम्हारा आंतरिक अस्तित्व : विश्राममय हो गया है। तुम्हारे बाह्य तल को विश्राममय होने में कुछ समय लग सकता है लेकिन तुम्हारा आंतरिक अस्तित्व पहले ही विश्राममय और शिथिल हो गया है। सहयोग टूट गया है और तुम्हारा उससे कोई भी तादात्म्य नहीं रह गया है।
गुरु जिएफ अपने शिष्यों के साथ एक बहुत सुंदर खेल खेला करता था। तुम यहां बैठे हुए हो और वह एक स्थिति सृजित करेगा; वह तुमसे कहेगा : कोई व्यक्ति ‘अ’ आ रहा है और जब वह आता है तो मैं उसके साथ बहुत रूक्षता और कठोरता से व्यवहार करूंगा तथा तुम सभी को मेरी सहायता करना है।
तब ‘अ’ आता है, गुरु जिएफ उसका उपहास उड़ाता हुआ उससे कहता है-‘‘तुम एक पूर्ण बेवकूफ दिखाई दे रहे हो’’ और प्रत्येक व्यक्ति उसकी ओर देखता है तथा उसको यह प्रदर्शित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति उससे सहमत है। तब गुरु जिएफ इस व्यक्ति के बारे में गंदी और आपत्तिजनक बातें कहेगा और प्रत्येक व्यक्ति उससे सहमति प्रकट करते हुए अपना सिर झुकाते हैं। वह व्यक्ति क्रोधित और क्रोधित होता चला जाता है तथा गुरु जिएफ उसी तरह की बातें कहे चला जाएगा और प्रत्येक व्यक्ति सिर झुकाता है जैसे मानो पूर्ण सहमति हो वहां तथा वह व्यक्ति गर्म और उत्त्प्त होता चला जाता है और तब वह फट पड़ता है जैसे एक विस्फोट होता है। जब उसमें विस्फोट होता है, अचानक गुरु जिएफ कहता है-‘‘रुक जाओ और निरीक्षण करो।’’
अंदर कुछ चीज़ शिथिल हो जाती है। वह व्यक्ति तुरंत समझ जाता है कि उसे एक स्थिति में धकेलकर उकसाया गया है और वह क्रोधित हो गया और जिस क्षण वह अनुभव करता है कि यह एक स्थिति है और गुरु जिएफ ने एक खेल खेला है, उसका ‘गियर’ बदल जाता है और वह सजग तथा सचेत हो जाता है। शरीर ठंडा होने में कुछ समय लगेगा और गहरे केंद्र में वहां प्रत्येक चीज़ शीतल है तथा अब वह स्वयं उसकी ओर देख सकता है।
वह ध्यान सीखने वाला शिष्य पहले ही से रास्ते पर है- बांके ने तुरंत ही उसे पथ पर स्थापित कर दिया। पहली चीज़ वह जिसके प्रति सजग बना, वह है-‘‘मैं ठीक अभी उसे आपको दिखला नहीं सकता क्योंकि वह यहां नहीं है।’’
तब ठीक है, उसे मेरे पास ले आना, जब वह तुम्हारे पास हो।
दूसरा कदम ले लिया गया है।
उस शिष्य ने प्रतिरोध करते हुए कहा-‘‘लेकिन मैं उसे आपके पास नहीं ला सकता
क्योंकि जब वह मुझे घटित होती है तभी वह मेरे पास होती है।
वह अनायास ही उत्पन्न होती है।

‘‘मैं नहीं जानता कि कब वह उदित होता है। हो सकता है तब मैं आपसे बहुत अधिक दूर हूं। हो सकता है कि आप मुझे उपलब्ध न हो सकें और उसके परे भी यदि मैं उसे आपके पास लाता हूं तो जिस समय मैं आपके पास पहुंचूं, वह वहां नहीं होगा।’’ वह पहले ही से एक गहरी समझ तक पहुंच गया है।
तुम अपने क्रोध को मेरे पास नहीं ला सकते, क्या तुम उसे ला सकते हो? क्योंकि उसके लाने के वास्तविक प्रयास करने में ही, तुम सजग हो जाओगे। यदि तुम सचेत हो तो तुम्हारी पकड़ खो जाएगी, वह शांत होकर लुप्त होना शुरू हो जाती है। जिस समय तुम मेरे पास पहुंचते हो वह फिर और होगी ही नहीं।
बांके के पास पहुंचना कहीं अधिक सरल था, पर मेरे पास पहुंचना अधिक कठिन है और तुम्हें मुक्ता से होकर गुजरना होगा। जिस समय तक तुम्हें मुझसे भेंट करने का समय दिया जाएगा और तुम मेरे पास पहुंचोगे वह वहां नहीं होगा क्योंकि मिलने का समय लेना होता है अन्यथा तुम अनावश्यक समस्याएं लेकर आओगे। वे स्वतः अपने आप ही गिर जाती हैं और यदि वे बनी रहती हैं तब वे मेरे पास लाने योग्य हैं।
जिस समय तक तुम मेरे पास आते हो तुम उनसे होकर पहले ही गुजर चुके होगे और यदि तुम समझ जाते हो तो इसका अर्थ है कि विषय आते हैं और चले जाते हैं तथा वे ध्यान देने योग्य नहीं हैं, वे आते-जाते रहते हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं तथा तुम हमेशा बने रहते हो। तुम्हें ही वह व्यक्ति होना है जो उनके बारे में अधिक सावधान रहे, न कि वे विषय जो आते हैं और चले जाते हैं। वे मौसमों के समान हैं, जलवायु बदलती रहती है : सुबह वह भिन्न थी, शाम को वह पुनः बदलती है। वह बदलती ही रहती है। उसे खोजो, जो कभी नहीं बदलता है।
वह ध्यान सीखने वाला नया शिष्य पहले ही एक सुंदर समझ तक पहुंच चुका हैं वह कहता है-
 ‘‘वह अनायास ही उत्पन्न होती है और मैं उसे आपके पास ला सवूंफ-
इससे पूर्व ही मैं उसे निश्चित रूप से खो दूंगा।
सद्गुरु बांके ने कहा : उस स्थिति में वह तुम्हारे
सच्चे स्वभाव का भाग नहीं हो सकती।
------क्योंकि सच्चा अथवा वास्तविक स्वभाव हमेशा वहां बना रहता है। वह न कभी उदित होता है और न कभी अस्त होता है, वह हमेशा वहां बना रहता है। क्रोध उठता है और चला जाता है, घृणा उत्पन्न होती है और मिट जाती है, तुम्हारा तथाकथित प्रेम उत्पन्न होता है और मिट जाता है। तुम्हारा सच्चा स्वभाव हमेशा ही वहां रहता है।
इसलिए जो आता है और चला जाता है, उस सभी के साथ न तो तुम बहुत अधिक फिक्र करो और न उससे संबंध रखो अन्यथा वर्ष और वर्षों और जन्म-जन्मों तक तुम उसके साथ संबंध बनाए रख सकते हो तथा तुम कभी भी उस स्थिति तक नहीं आ पाओगे।
इसी कारण फ्रॉयड धारा के मनोचिकित्सक कभी भी अधिक अभिप्राय की पूर्ति नहीं करते। वे मरीज को अपने साथ वर्षों तक तीन, चार और पांच वर्षों तक काउच पर लिटाए रखते हैं और उन विचारों तथा विषयों के बारे में बातचीत और बातचीत किए चले जाते हैं, जो उन लोगों के मन में आते जाते रहते हैं। स्मरण रहे कि पूरे फ्रायडिन मनोविश्लेषक का संबंध उन विचारों के साथ है जो आते हैं और चले जाते हैं, तुम्हारे बचपन मे क्या हुआ, तुम्हारी युवावस्था में क्या हुआ, तुम्हारे सेक्स जीवन में क्या हुआ- और यह चलता ही चला जाता है। इसका संबंध ‘क्या हुआ’ के साथ होता है न कि ‘किसको हुआ’ उसके साथ- और बांके और फ्रॉयड में यही अंतर है।
यदि तुम्हारी दिलचस्पी ‘क्या हुआ’ के साथ है तब बहुत कुछ हो चुका है। चौबीस घंटों में भी बहुत कुछ होता है और यदि तुम उससे जुड़े हुए हो तो वह वर्षों लेगा तथा तुम उससे जुड़ते चले जाते हो। यह तुम्हारे पूरे जीवन में आने वाले मौसमों के बारे में ठीक बातचीत करने के समान होगा कि वह कैसा रहा है, कभी बहुत गर्म, कभी बहुत बादलों से घिरा हुआ, कभी बरसात, कभी यह और कभी वह। लेकिन इस सभी का प्रयोजन क्या है?
और क्या होता है? एक मनोविश्लेषक एक मनोरोगी की कैसे सहायता करता है? वह बहुत थोड़ी सहायता करता है। वह पूरी तरह से उसे समय देता है, बस सभी कुछ इतना ही होता है। दो वर्षों तक तुम निरंतर उन विषयों और चीज़ों के बारे में बातचीत करते रहते हो। ये दो वर्ष अथवा एक और वर्ष तथा इससे भी अधिक, केवल तुम्हें समय देता है, घाव अपने आप ठीक हो जाते हैं, तुम फिर से समायोजित हो जाते हो। निश्चित रूप से एक विशिष्ट समझ भी उत्पन्न होती है जब तुम अपनी स्मृति में एक जुलाहे की ढरकी के समान गतिशील होते हुए पीछे लौटते हो और फिर आगे आते हो क्योंकि तुम्हें अपनी स्मृतियों का निरीक्षण करना होता है तो एक विशिष्ट समझ उत्पन्न होती है। इस निरीक्षण करने के कारण लेकिन वह मुख्य बात नहीं है।
तुम्हारे साक्षी होने के साथ फ्रॉयड की कोई भी दिलचस्पी नहीं है। वह सोचता है कि तुम्हारे द्वारा अपना अतीत बताने से उसे शब्दों द्वारा मौखिक रूप से बाहर लाने के द्वारा और उनमें केवल संबंध जोड़ने से गहरे में कुछ चीज़ बदल रही है। गहरे में कुछ भी नहीं बदल रहा है। थोड़ा-सा अंदर का कूड़ा-करकट बाहर निकल जाता है। तुम्हें कोई भी नहीं सुनता है और फ्रॉयड तथा उसके मनोविश्लेषक तुम्हें इतना अधिक ध्यान से सुनने का अभिनय करते हैं। वास्तव में तुम्हें उसके लिए धन देना होता है। वे लोग व्यवसायिक रूप से सुनने वाले हैं। वे एक तरफ से तुम्हारी सहायता करते हैं क्योंकि तुम किसी व्यक्ति से घनिष्ठता से बात करना चाहते थे- यह भी सहायता करता है। इसी कारण लोग अपने दुखों के बारे में बात करके थोड़े से विश्राममय हो जाते हैं कि किसी व्यक्ति ने तो इतने धैर्य और करुणा से उनकी बात सुनी। लेकिन अब कोई भी व्यक्ति नहीं सुनता है, किसी भी व्यक्ति के पास इतना समय नहीं है।
बर्टेंड रसेल ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है : कि आने वाली इक्कसवीं सदी में वहां व्यवसायिक रूप से सुनने वालों का बहुत बड़ा व्यवसाय होगा। प्रत्येक चार-पांच घरों के बाद पास-पड़ोस में वहां एक ऐसा घर होगा, जिस पर ‘व्यवसायिक श्रोता’ का एक बोर्ड लगा होगा क्योंकि यही है वह मनोविश्लेषण- क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति एक ऐसी शीघ्रता में होगा कि किसी भी व्यक्ति के पास कोई समय ही न होगा। पति, पत्नी से बात करने में समर्थ न होगी, पति पत्नी से बात करने में समर्थ न होगा, लोग फोन के द्वारा ही प्रेम करेंगे अथवा एक-दूसरे को टेलीविजन स्क्रीन पर ही देखेंगे। जब तुम एक मित्र को टेलीविजन स्क्रीन पर ही देख सकते हो और वह तुम्हें देख सकता है, फिर उससे जाकर मिलने का क्या उपयोग होगा और ऐसा ही होने जा रहा है। टेलीफोन के पास स्क्रीन भी होंगे जिससे तुम उसे देख सके हो और उससे बातचीत भी कर सकते हो तथा वह भी तुम्हें देखते हुए बातचीत कर सकता है, इसलिए मिलने का फिर प्रयोजन क्या है? क्योंकि एक कमरे में एक-दूसरे के सामने बैठे हुए तुम आखिर करोगे क्या? यह पहले ही से हो रहा है और दूसरी टेलीफोन और टेलीविजन द्वारा मिट चुकी है। संपर्क खो जाएंगे इसीलिए व्यवसायिक श्रोताओं की आवश्यकता होगी।
तुम मनोविश्लेषक के पास जाते हो और वे तुम्हें एक मित्र के समान सुनते हैं। निश्चित रूप से तुम्हें उसकी फीस अदा करनी होती है और अब संसार में मनोविश्लेषक सबसे अधिक महंगे व्यक्ति बन गए हैं और केवल बहुत धनी व्यक्ति ही उनका खर्च उठा सकते हैं। लोग इसके बारे में शेखी हांकते हैं-‘‘मैं पांच वर्षों तक मनोविश्लेषण कराता रहा हूं। आप उसमें कितनी वर्षों तक रहे? गरीब लोग उसका खर्च गवारा नहीं कर सकते।
लेकिन पूरब की ध्यान की विधियों का एक भिन्न दृष्टिकोण है : उनका संबंध इससे नहीं है कि तुम्हारे साथ क्या हुआ, उनकी दिलचस्पी उस व्यक्ति में है, जिसे घटना घटी है। उसे खोजो : वह कौन है?
एक फ्रॉयडियन कोच पर नीचे लेटे हुए तुम्हारी दिलचस्पी मन की विषय-वस्तुओं के साथ होती है। एक ज़ेन मठ में बैठे हुए तुम्हारा संबंध उस व्यक्ति के साथ होता है जिसे यह घटना घटी, तुम्हारी दिलचस्पी विषय-वस्तु में न होकर व्यक्ति में होती है।
सद्गुरु बांके ने कहा : उस स्थिति में वह तुम्हारे वास्तविक स्वभाव का भाग नहीं हो सकती,
यदि वह होती तो तुम मुझे किसी भी समय दिखा सकते थे।
जब तुम्हारा जन्म हुआ था वह तुम्हारे पास नहीं थी
और तुम्हारे माता-पिता ने भी उसे तुम्हें नहीं दिया था
इसलिए अनिवार्य रूप से वह तुम्हारे अंदर बाहर से ही आना चाहिए।
मैं तुम्हें सुझाव देता हूं :
वह जब कभी भी तुम्हारे अंदर आती है
तुम एक डंडे से स्वयं अपने को तब तक पीटते रहो
जब तक कि वह स्थिर होकर खड़ी न रह सके
और स्वयं ही भाग न जाए।
वह केवल मजाक कर रहा है- उसे करना शुरू मत कर देना। शब्दानुसार लाठी लेने की आवश्यकता नहीं है।
ज़ेन में सचतेनता को लाठी कहा जाता है जिससे तुम स्वयं अपने को पीट सकते हो। इस बारे में स्वयं को पीटने का कोई अन्य उपाय नहीं है, क्योंकि यदि तुम एक डंडा उठाते हो तो शरीर ही पीटा जाएगा, पर तुमको नहीं। तुम अपने को नहीं केवल शरीर को मार सकते हो। डंडे से शरीर को पीटने का अर्थ है कि जब तुम क्रोध का अनुभव करते हो, निरंतर सजग बने रहो, उस तक सचेतनता को लाओ, सजग और होशपूर्ण बने रहो, सचेतना के डंडे से अंदर निरंतर चोट करते रहो, जब तक कि वह आवेग स्थिर होकर रुके और भाग जाए। केवल एक ही चीज़ है जिससे उत्तेजना भरा स्वभाव खड़ा नहीं रह सकता और वह सचेतनता है। केवल अपने शरीर को पीटने से काम नहीं चलेगा। यही है वह चीज़ जो लोग करते हैं, दूसरों के शरीर को अथवा अपने ही शरीर को पीटते रहे हैं। बांके का यह अर्थ नहीं है। वह उपहास कर रहा है और वह उस प्रतीक की ओर संकेत कर रहा है, ज़ेन के लोग शब्द व्यवहार में जिस सचेतनता के लिए कहते हैं : यही वह घड़ी है जिससे किसी एक के स्वयं को घटित होता है।
ज़ेन परंपरा में जब एक सद्गुरु मरता है तो वह अपना डंडा अथवा छड़ी अपने उस प्रधान शिष्य को सौंपता है जिसे वह अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुनता है और वह ही उसका स्थान लेने जा रहा है। जिस डंडे अथवा छड़ी को वह अपने साथ पूरे जीवन-भर रखता रहा है, वह उसे वही छडी़ देता है। इसका अर्थ है कि उसने जिसको भी यह छड़ी अथवा डंडा दिया है वह अंदर स्थिरता को उपलब्ध हो गया है और पूर्ण सचेत है। सद्गुरु का डंडा अथवा छड़ी को प्राप्त करना महानतम उपहार है क्योंकि वह उसके द्वारा स्वीकार किया जाता है, वह उससे सहमत है और वह यह पहचानता है कि अब उसके अंतरस्थ में डंडे जैसी स्थिरता और सचेतनता जन्म ले चुकी है, वह सचेत हो गया है कि तुमको क्या कुछ घटित होता है और वह किसको घटित होता है। यह अंतर वहां है। एक अंतराल आ गया है, वहां एक शून्यता है, अब परिधि का तुम्हारे केंद्र से तादात्म्य नहीं जुड़ा है।
बांके ने कहा : ‘मैं तुम्हें सुझाव देता हूं कि जब कभी तुम्हारे अंदर उत्तेजना आती है तो यह क्रोध अनिवार्य रूप से बाहर से ही आ रहा है। जब तुम्हारा जन्म हुआ था तब वह तुम्हारे पास नहीं था, न उसे तुम्हारे माता-पिता अथवा दूसरे किसी व्यक्ति ने उपहार की भांति दिया है इसलिए वह कहां से आ रहा है? वह अनिवार्य रूप से बाहर ही से आ रहा है, तुम्हारी परिधि अनिवार्य रूप से दूसरी परिधियों का स्पर्श कर रही है। तुम्हें वहां से ही यह तरंगें और लहरें मिलना चाहिए। इसलिए सचेत बनो क्योंकि जिस क्षण तुम सचेत होते हो तुम अचानक केंद्र पर पेंफक दिए जाते हो।
अचेत बनने से तुम परिधि पर ही रहते हो
सचेत बनते ही तुम केंद्र पर पेंफक दिए जाते हो।
और केंद्र से तुम देख सकते हो कि परिधि पर क्या हो रहा है। तब यदि दो व्यक्ति परिधि पर स्पर्श करते हैं, तब दो व्यक्ति परिधि पर कठिनाई उत्पन्न करेंगे लेकिन तुम्हारे लिए वह कोई भी कठिनाई नहीं होगी। तुम हंस सकते हो, तुम उसका आनंद ले सकते हो और तुम कह सकते हो : यह सजग बने रहना एक जादू जैसा लगता है।
एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध एक कस्बे के निकट से गुजर रहे थे कि कुछ लोग आए और उन लोगों ने उन्हें बुरी तरह से गालियां देते हुए अभद्र शब्दों का प्रयोग करते हुए उत्तेजना दिलाने वाले कार्य किए और वह केवल वहां शांत खड़े रहे। वे लोग थोड़ी-सी उलझन में पड़े क्योंकि वह प्रतिक्रिया नहीं कर रहे थे, तब उस समूह में से किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा-‘‘आप शांत क्यों हैं? जोकुछ हम लोग कह रहे हैं आप उसका उत्तर दीजिए।’’
बुद्ध ने कहा-‘‘तुम लोग थोड़ी देर से आए। तुम लोगों को दस वर्ष पूर्व आना चाहिए था क्योंकि तब मैं प्रतिक्रिया कर सकता था लेकिन अब मैं यहां हूं ही नहीं, जहां से तुम मेरे साथ ये कार्य कर रहो, अब एक दूरी उत्पन्न हो गई है। अब मैं केंद्र पर चला गया हूं जहां तुम मुझे स्पर्श नहीं कर सकते। तुम लोग कुछ देर से आए। मुझे तुम लोगों के लिए खेद है लेकिन मैं इसका आनंद लेता हूं। अभी में शीघ्रता मैं हूं क्योंकि जिस दूसरे कस्बे में मैं जा रहा हूं वहां लोग मेरी प्रतीक्षा करेंगे। यदि तुम लोगों की बात अभी भी समाप्त नहीं हुई है, तब मैं इसी रास्ते से लौटते हुए गुजरूंगा। तुम लोग फिर आ सकते हो। यह सजग बने रहना एक जादू अथवा मंत्र जैसा लगता है।’’
वे लोग परेशान हो गए। ऐसे व्यक्ति के साथ क्या किया जाए? उस समूह में से एक दूसरे व्यक्ति ने कहा-‘‘क्या वास्तव में आप कोई भी अन्य बात कहने नहीं जा रहे हैं?
बुद्ध ने कहा-‘‘उस कस्बे से, जहां से मैं ठीक अभी आ रहा हूं लोग बहुत-सी मिठाइयां भेंट करने के लिए लाए, लेकिन मैं केवल तभी कुछ लेता हूं जब मैं भूखा होता हूं और मैं उस समय भूखा नहीं था इसलिए मैंने उन्हें मिठाइयां वापस दे दीं। मैं तुम लोगों से पूछता हूं, वे लोग उनका क्या करेंगे?’’
इस पर उस व्यक्ति ने कहा-‘‘निश्चित रूप से वे कस्बे में जाएंगे और उन मिठाइयों को लोगों में प्रसाद की तरह बांट देंगे।’’
इस पर बुद्ध ने हंसना शुरू कर दिया और कहा-‘‘तुम लोग वास्तव में कठिनाई और झंझट में पड़ गए हो, अब तुम लोग क्या करोगे? ‘‘तुम लोग मेरे लिए ये गंदे और भद्दे शब्द लेकर आए- इसलिए अब इन्हें वापस ले जाओ। और मैं तुम्हारे गांव वालों के लिए दुःख प्रकट कर रहा हूं क्योंकि अब वहां के लोगों को प्रसाद में यह गंदे और भद्दे शब्द मिलेंगे।’’
जब तुम केंद्र पर होते हो तो सजग बने रहना एक जादू और मंत्र जैसा लगता है, तुम उसका आनंद ले सकते हो। जब तुम शीतल होते हो तो तुम पूरे संसार का आनंद ले सकते हो। जब तुम गर्म और उत्तेजित होते हो, तुम उसका आनंद नहीं ले सकते, क्योंकि तुम उसके अंदर इतना अधिक पाते हो कि तुम उससे तादात्म्य जोड़कर उसमें खो जाते हो। तुम उसके अंदर इतने अधिक अव्यवस्थित हो जाते हो कि तुम कैसे उसका आनंद ले सकते हो?
यह विरोधाभासी लग सकता है लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि एक बुद्ध ही इस संसार का आनंद ले सकता है, तब प्रत्येक चीज़ एक जादू से भरी हुई ठीक प्रतीत होती है।

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