और फूलों की बरसात हुई-दुसरा
एकढीठ-छात्र
जब यामूका एक ढीठ छात्र था।
वह सद्गुरु डोक्यंन से भेंट करने गया।
सद्गुरु को प्रभावित करने के लिए उसने उनसे कहा...
‘वहां कोई मन नहीं है, वहां कोई भी शरीर नहीं है-
और न वहां कोई बुद्ध ही है।
वहां न कुछ अच्छा है, वहां न कुछ भी बुरा है।
वहां न कोई सद्गुरु है, और न कोई भी छात्र है।
वहां न कोई कुछ दे रहा है, और वहां न कोई कुछ ले रहा है।
जो कुछ हम सोचते हैं, हम देखते हैं और अनुभव करते हैं
वह साथ नहीं है। ये प्रतीत होनेवाली कोई भी चीजें-
वास्तव में अस्तित्व में नहीं हैं।’
डोक्यूंन खामोशी से बैठा हुआ अपने पाइप से धूम्रपान कर रहा था,
और कुछ भी नहीं कह रहा था।
अचानक उसने अपना डंडा उठाया, और यामूका पर प्रहार करते हुए
उसने उसकी विकट रूप से पिटाई कर दी।
यामूका क्रोध में उछलने कूंदने लगा।
डोक्यूंन ने कहा : ‘जब इनमें से कोई चीज़ें-
वास्तव में अस्तित्व में नहीं हैं और सभी कुछ एक शून्यता है
तो तुम्हारा यह क्रोध कहां से आ रहा है?
इस बारे में विचार करना।
उधार ज्ञान से बहुत अधिक सहायता नहीं मिलती है। दूसरे किनारे पर पहुंचने के लिए केवल आत्मा ही वाहन बन सकती है।
तुम सोचते हुए सूचनाएं एकत्रित किए चले जा सकते हो- लेकिन वे कागज की नौकाएं हैं और उनसे समुद्री यात्रा में कोई भी सहायता नहीं मिलेगी। यदि तुम इसी किनारे पर बने रहते हो और उनके बारे में बातचीत किए चले जाते हो, तो वह ठीक है- यदि तुम कभी भी समुद्री यात्रा पर नहीं जाते हो तो कागज से बनी नौकाएं भी असली नौकाओं की भांति उतनी ही अच्छी हैं, लेकिन यदि तुम कागज़ की नौकाओं के साथ समुद्री यात्रा पर जाते हो, तो तुम डूब जाओगे। शब्द और कुछ भी नही ंहैं बल्कि वे कागज की नौकाएं ही हैं- वे उतनी भी वास्तविक और सारपूर्ण नहीं हैं।
और जब हम ज्ञान संग्रहीत करते हैं, तो हम करते क्या हैं? अंदर से कुछ भी नहीं बदलता है। आत्मा पूर्ण रूप से अप्रभावित बनी रहती है। ठीक धूल की भांति ही, सूचनाएं तुम्हारे चारों ओर इकट्ठी हो जाती हैं- ठीक उसी तरह जैसे एक दर्पण पर चारों ओर धूल इकट्ठी हो जाती है, दर्पण वैसा ही बना रहता है, केवल वह अपने प्रतिबिम्बित करने के गुण को खो देता है। तुम मन के द्वारा क्या जानते हो, उससे कुछ भी अंतर नहीं पड़ता है- तुम्हारी चेतना समान बनी रहती है। वास्तव में वह और अधिक बुरी हो जाती है, क्योंकि इकट्ठा किया गया ज्ञान, तुम्हारी प्रतिबिम्बित करने वाली चेतना के चारों ओर ठीक एक धूल के समान जम जाता है और तुम्हारी चेतना कम से कम प्रतिबिम्बित करती है।
तुम जितना अधिक जानते हो, तुम उतने ही कम सचेत बनते हो। जब तुम पूर्ण रूप से विद्वता और उधार ज्ञान से भर जाते हो, तुम पहिले ही से मृत हो जाते हो। तब तुम्हारे अपने की भांति तुम्हारे पास कुछ भी नहीं आता है। प्रत्येक चीज़ उधार की और तोते के समान होती है।
मन एक तोता है। मैंने सुना है कि जोसेफ स्टालिन के दिनों में एक बहुत ख्यातिप्राप्त साम्यवादी, मास्को के पुलिस स्टेशन पर आया और उसने अपने तोते के खोने की रिपार्ट लिखवाई। क्योंकि यह व्यक्ति एक बहुत ख्यातिप्राप्त साम्यवादी था, इसलिए पुलिस स्टेशन के प्रमुख अधिकारी ने उससे तोते के बारे में पूछताछ की, क्येंकि उसके खोजने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण था। अपनी जांच के दौरान उसने पूछा- ‘क्या यह तोता मनुष्य की तरह भी बोल सकता है? उस साम्यवादी कामरेड को अंदर थोड़े से भय का अनुभव हुआ और तब उसने कहा- ‘हां, वह बात भी करता है, लेकिन कृपया नोट कीजिए, वह जो कुछ भी राजनैतिक मत प्रकट करता है, वह पूरी तरह से उसका अपना होता है।
लेकिन एक तोते के पास कैसे अपना कोई मत हो सकता है? एक तोते के पास अपना कोई मत अथवा राय हो ही नही सकती- और न मन ही हो सकता है, क्येंकि मन एक यांत्रिकत्व है। एक तोता एक मन की अपेक्षा कहीं अधिक जीवंत होता है। एक तोते के पास भी अपने कुछ मत हो सकते हैं, लेकिन उसके पास मन नहीं हो सकता। मन एक कम्प्यूटर अथवा एक बायोकम्प्यूटर की भांति होता है। वह सूचनाएं संग्रहीत करता है। वह कभी भी मौलिक नहीं होता है, वह हो भी नहीं सकता है। जो कुछ भी उसके पास है, वह उधार दूसरों से लिया हुआ है।
तुम केवल तभी मौलिक बनते हो, जब तुम मन का अतिक्रमण कर जाते हो। जब मन गिर जाता है और चेतना तुरंत ही प्रत्यक्ष रूप से अस्तित्व के साथ सम्पर्क करते हुए उसका साक्षात्कार करती है, तुम मौलिक बन जाते हो। तब पहली बार प्रामाणिक रूप से तुम स्वयं में होते हो, अन्यथा सभी विचार उधार के होते हें तुम धर्म ग्रंथों को उद्धृत कर सकते हो, तुम हृदय के द्वारा सभी वेदों, कुरान और गीता को जान सकते हो, लेकिन उससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता, वे तुम्हारे अपने नहीं हैं और जो ज्ञान तुम्हारा अपना नहीं है, वह खतरनाक है, वह अज्ञान की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक है, क्येंकि वह छिपा हुआ अज्ञान है और तुम यह देखने में समर्थ नहीं होगे कि तुम स्वयं अपने को ही धोखा दे रहे हो। तुम अपने साथ नकली सिक्के लिए चल रहे हो और सोच रहे हो कि तुम एक धनी व्यक्ति हो, तुम नकली पत्थर साथ लिए हुए चल रहे हो और सोच रहे हो कि वे कोहनूर हैं। देर अथवा सबेर तुम्हारी निर्धनता प्रकट होगी ही और तब तुम्हें आघात लगेगा।
जब कभी मृत्यु निकट आती है, अथवा जब तुम मरने लगते हो, तब यही घटना घटित होती है। उसी आघात में मृत्यु तुम्हें अचानक सचेतनता देती कि तुमने कोई भी चीज़ प्राप्त नहीं की है- क्योंकि केवल वही चीज एक प्राप्य होती है, जिसे आत्मा प्राप्त करती है। तुमने ज्ञान के कुछ खण्ड यहां से और कुछ खण्ड वहां से एकत्रित कर लिए हैं और तुम ज्ञान का एक महान कोष बन गए हो, लेकिन उद्देश्य यह नहीं है, और विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो कि सत्य की खोज में हैं। उनके लिए यह एक सहायता न होकर एक अवरोध है। ज्ञान तो अतिक्रमण करने के लिए होता है। जब वहां कोई भी ज्ञान नहीं होता है, तो जानना घटित होता है, क्योंकि जानना तुम्हारा स्वभाव है, वह चेतना का गुण है। वह ठीक एक दर्पण के समान है। जो कुछ वहां होता है, दर्पण उसे प्रतिबिम्बित करता है। चेतना उस सत्य को प्रतिबिम्बत करती है, जो ठीक तुम्हारे सामने होता है, जो ठीक तुम्हारी नाक की सीध में होता है।
लेकिन मन बीच में आ जाता है- और मन बकबक किए चले जाता है और सत्य ठीक तुम्हारे सामने ही बना रहता है और मन व्यर्थ की बातें किए चले जाता है। तुम मन के साथ जाते हो और चूक जाते हो। मन विफल होने का एक बहुत बड़ा कारण है।
इस सुंदर प्रसंग में प्रवेश करने से पूर्व, थोड़ी सी चीज़ें और। पहिली बात : ज्ञान उधार का होता है, इसका अनुभव करो। प्रामाणिक रूप से इसका अनुभव करना ही उसका छूट जाना बन जाता है। तुम्हें और कुछ भी नहीं करना होता है। सामान्य रूप से यह अनुभव कर लेना है कि तुम जो कुछ भी जानते हो, तुमने उसे सुना अथवा पढ़ा है और तुमने उसे जाना नहीं है। यह ग्रह्य ज्ञान का प्रकट होना न होकर तुम्हारे मन की ही एक कंडीशनिंग अथवा एक स्थिति है। यह तुम्हें पढ़ाया गया है, तुमने उसे सीखा नहीं है। सत्य सीखा जा सकता है... पढ़ाया नहीं जा सकता। सीखने का अर्थ है कि जो कुछ भी तुम्हारे चारों ओर है उसके प्रति उत्तरदायी बने रहना। यही है बहुत अच्छी तरह से सीखना, लेकिन यह ज्ञान नहीं है।
इस बारे में सत्य को सिवाय उसे खोजने के द्वारा पाने का अन्य कोई भी मार्ग नहीं है। उस तक जाने का वहां कोई छोटा रास्ता अथवा पगडंडी नहीं है। उसे पाने के लिए तुम उसे उधार नहीं ले सकते, तुम उसे चुरा नहीं सकते और तुम उसे धोखा नहीं दे सकते। वहां पूरी तरह से कोई भी मार्ग नहीं है, जब तक तुम अपने अंदर बिना मन के नहीं हो जाते-क्योंकि मन संशयग्रस्त होकर डगमगा रहा है, मन निरंतर कांप रहा है, मन कभी भी स्थिर नहीं होता और वह एक निरंतर गतिशील हो रहा है। मन ठीक एक हवा के समाना है जो निरंतर बह रही है और वह हवा में कांपती हुई एक ज्योति के समा है। जब मन वहां नहीं होता है तो हवा थम जाती है और ज्योति भी अकम्प और स्थिर हो जाती है। जब तुम्हारी चेतना एक स्थिर ज्योति के समान हो जाती है, तो तुम सत्य को जानते हो। तुम्हें सीखना है कि कैसे मन का अनुरण न किया जाए।
कोई भी व्यक्ति तुम्हें सत्य नही ंदे सकता है। कोई भी नहीं- एक बुद्ध, एक जीसस अथवा एक कृष्ण भी उसे तुम्हें नहीं दे सकते हैं। और यह बात सुंदर है कि कोई भी व्यक्ति उसे तुम्हें नहीं दे सकता है, अन्यथा वह बाजार की एक वस्तु मात्र बनकर रह जाती। यदि वह दी जा सकती, तब उसे बेचा भी जा सकता है। यदि उसे दिया जा सकता है तब उसकी चोरी भी की जा सकती है। यदि उसे दिया जा सकता है, तो तुम उसे अपने मित्र से उधार भी ले सकते हो। यह सुंदर है कि सत्य किसी भी तरह से हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, यदि तुम उसे नहीं समझते, तुम उस तक नहीं पहुंच सकते। जब तक तुम स्वयं वह हो नहीं जाते वह कभी भी तुम्हारे पास नही ंहो सकता है। वास्तव में, वह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे तुम रख सकते हो। वह कोई सामग्री, कोई वस्तु और एक विचार नहीं है। तुम वह हो सकते हो, लेकिन तुम उसे अपने पास रख नही ंसकते हो।
इस संसार में, हमारे पास प्रत्येक वस्तु हो सकती है- प्रत्येक वस्तु हमारे आधिपत्य का एक भाग बन सकती है। सत्य पर कभी भी अधिकार नहीं किया जा सकता है। वस्तुएं अधिकार में रखी जा सकती हैं, विचारों का स्वामी बना जा सकता है, पर सत्य का कभी भी नहीं। सत्य एक सारभूत तत्व है। तुम वह हो सकते हो, लेकिन तुम उस पर आधिपत्य नही ंकर सकते। तुम उसे अपने पास अपनी सेप़्ाफ में नहीं रख सकते हो, तुम उसे अपनी पुस्तक में नहीं रख सकते हो और न तुम उसे अपने हाथ में रख सकते हो। जब वह तुम्हारे पास होता है तुम वही होते हो। तुम सत्य ही बन जाते हो। यह एक धारणा अथवा विचार नहीं है, पर स्वयं में होना है।
दूसरी बात जो स्मरण रखना है, वह है मनुष्य की प्रवृत्ति की, जो अपने पास उस चीज को प्रदर्शित करने का प्रयास करती है, जो उसके पास नही ंहोती है। यदि वह तम्हारे पास है तो उसे प्रदर्शित करने का प्रयास मत करो, वहां उसका कोई प्रयोजन नहीं है। यदि वह तुम्हारे पास नहीं हैं तो उसे तुम दिखाने का यों प्रयास करते हो जैसे मानो वह तुम्हारे पास है। इसलिए स्मरण रहे, तुम जो कुछ भी लोगों को दिखाना चाहते हो, वह चीज़ तुम्हारे पास नहीं होती है।
यदि तुम एक धनी व्यक्ति के घर जाते हो, उसके अतिथि बनते हो- तो कुछ भी नहीं बदलता है, यदि वह वास्तव में समृद्ध है तो कोई भी चीज नहीं बदलती है, वह पूरी तरह तुम्हें स्वीकार करता है। एक निर्धन व्यक्ति के घर जाओ, तो वह प्रत्येक चीज़ बदलता है। वह अपने पड़ोसी से फर्नीचर उधार ला सकता है, वह किसी अन्य व्यक्ति से गलीचा मांगकर ला सकता है और पर्दे किसी अन्य व्यक्ति से ले सकता है। वह तुम्हें प्रभावित करना चाहता है कि वह समृद्ध है। यदि तुम धनी नहीं हो तो तुम लोगों को प्रभावित करना चाहोगे कि तुम धनी हो। और यदि तुम नहीं जानते हो, तो तुम चाहोगे कि लोग यह सोचें कि तुम जानते हो। जब कभी भी तुम किसी व्यक्ति को प्रभावित करना चाहते हो, तो इसे याद रखो, क्योंकि प्रभावित करना मनुष्य की एक प्रवृत्ति है, क्येंकि कोई भी नहीं चाहता कि वह निर्धन दिखाई दे- और जहां चीजों का संबंध दूसरे संसार से है, वहां यह और भी अधिक है।
जहां तक इस संसार की वस्तुओं का संबंध है, तुम एक निर्धन व्यक्ति हो सकते हो और यह निर्धनता से अधिक नहीं है। लेकिन जहां तक आत्मा, परमात्मा, मुक्ति और सत्य का संबंध है उसे सहन करना बहुत अधिक हो जाता है, इस बारे में अपनी निर्धनता को सहना बहुत कठिन हो जाता है। तुम लोगों को प्रभावित करना चाहते हो कि तुम्हारे पास कुछ चीज है और जहां तक इस संसार की वस्तुओं का संबंध है उन्हें प्रभावित करना कठिन है क्योंकि वे वस्तुएं दृश्यमान हैं। लोगों को दूसरे संसार की चीजों के बारे में प्रभावित करना सरल है क्येकि वे चीजें दिखाई नहीं देतीं। तुम बिना जाने हुए लोगों को प्रभवित कर सकते हो कि तुम जानते हो।
समस्या तब उत्पन्न होती है जब तुम दूसरों को प्रभावित करते हो, तो इस बारे में यह संभावना होती है कि उनकी आंखों में उनके दृढ़ विश्वास को देखकर तुम स्वयं से ही प्रभावित होकर यह सोच सकते हो कि तुम्हारे पास ‘कुछ चीज’ है। यदि अनेक लोग कायल हो जाते हैं कि तुम जानते हो, तो धीमे-धीमे तुम आश्वस्त हो जाओगे कि तुम जानते हो- इस बारे में यही समस्या है, क्योंकि दूसरों को धोखा देना अधिक बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन यदि तुम अपने प्रयासों के द्वारा स्वयं ही धोखा खा जाते हो तब तुम्हें तुम्हारी मूर्च्छा से बाहर लाना लगभग असंभव होगा, क्योंकि तुम सोचते हो कि यह बिल्कुल भी मूर्च्छा अथवा नींद नहीं है। तुम सोचते हो कि तुम पूरी तरह जागे हुए हो। तुम्हें तुम्हारे अज्ञान से बाहर लाना बहुत कठिन होगा, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम पहले ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो चुके हो। तुम्हें तुम्हारी बीमारी से बाहर लाना बहुत कठिन होगा, क्योंकि तुम विश्वास करते हो कि तुम स्वस्थ हो और पहले ही से पूर्ण हो।
जो सबसे बड़ा अवरोध तुम्हारे और सत्य के मध्य खड़ा हुआ है, वह यह है कि तुमने दूसरों के द्वार स्वयं अपने को आश्वस्त किया है कि ‘वह’ तुम्हारे पास पहले ही से है। इसलिए यह एक दुष्चक्र है। पहली बात : तुम दूसरों को कायल करने का प्रयास करते हो- और तुम दूसरों को कायल कर सकते हो क्योंकि वह चीज़ अदृश्य है। दूसरी बातः ‘वह’ दूसरों के पास नहीं है, इसलिए वे उसे नहीं जानते हैं। यदि तुम जाओ और परमात्मा के बारे में बात करना शुरू कर दो और बातें किए चले जाओ, तो देर अथवा सबेर लोग यह सोचना शुरू कर देंगे कि तुम परमात्मा के बारे में जानते हो- क्योंकि वे भी उसे नहीं जानते। परमात्मा शब्द के सिवाय वे उसके बारे में कोई भी बात नहीं जानते, और तुम सिद्धांतों और तत्वज्ञान के बार में तर्क-वितर्क करते हुए बहुत अधिक चालाक और चतुर बन सकते हो। और यदि तुम उन्हें बताते चले जाते हो तो केवल उबाहट के कारण वे तुमसे कहेंगे- हां, हम विश्वास करते हैं कि आप जानते हैं, लेकिन अब बात समाप्त की कीजिए।’
मैंने सुना है कि एक बार ऐसा हुआ : वहां यहूदियों के हसीदी पंथ का महान रहस्यदर्शी बालशेम मौजूद था। परमात्मा को जानने का दावा करने वाला एक सिद्धांत उससे भेंट करने आया। उधार ज्ञान को बटोरने वाले लोग दावेदार बनते हैं। क्योंकि विद्वान होने से मेरा अर्थ उस व्यक्ति से है जो कोई भी बात शास्त्रों, शब्दों और भाषा के द्वारा जानता है और जिसने कभी भी स्वयं सत्य का साक्षात्कार नहीं किया है। और उसने पुराने पैगंबरी और ओल्ड टेस्टामेंट के बारे में बातचीत करना शरू कर दी और उनके बारे में व्याख्या करने लगा... निश्चित रूप से उसके पास प्रत्येक चीज उधार की थी जो मौलिक न होने के साथ उसके भाग पर मूर्खतापूर्ण थी क्येंकि वह एक ऐसे व्यक्ति से बातचीत कर रहा था, जो जानता था।
बालशेम करुणावश उसे सुनता रहा और अंत में उसने कहा : ‘बहुत बुरा है, बहुत ही अधिक बुरा है कि महान दार्शनिक मैमोनाइड्स तुम्हें जानता था----।’
मेमोनाइड्स बहुत अधिक महान यहूदी दार्शनिक है, इसलिए वह दावा करने वाला विद्वान बहुत अधिक प्रसन्न हुआ, महान मेमोनाइड्स ने यह कह कर कि वह उसे जानता है उसे जो सम्मान दिया था, उससे वह बहुत आनंदित हुआ... । इसीलिए उसने कहा : ‘मै। बहुत अधिक प्रसन्न हूं कि आप मुझे पहिचानते हैं और आप मुझे मान्यता देते हैं, पर केवल एक बात मैं ओर पूछना चाहता हूं आप यह क्यों कहते हैं?- ‘बहुत बुरा है, बहुत अधिक बुरी बात हुई कि महान मेमोनाइड्स ने तुम्हें जाना--... आखिर आपके कहने का अर्थ क्या है? कृपया मुझे यह बतलाइये। आप कहना क्या चाहते हैं?’
बालशेम ने कहा : ‘तब तुमने उन्हें बोर किया होगा, पर मुझे नहीं।’
केवलमात्र ऊब जाने के कारण लोग यह विश्वास करना शुरू कर देते हैं- ‘हां, तुम जानते हो- लेकिन कृप्या खामोश हो जाओ।’ और सिवाय इसके तुम कुछ नहीं जानते, और तुम उतने ही अज्ञानी हो जितने वे हैं। वहां केवल एक ही अंतर है, तुम उसे व्यक्त करने में अधिक पारंगत हो, तुमने कुछ अधिक पढ़ा है और तुमने थोड़ी सी अधिक धूल-धमास इकट्ठी की है, और वे लोग तर्क-वितर्क नहीं कर सकते, और तुम उन्हें उनके स्थानों पर बिठाकर खामोश बना सकते हो। उन्हें विश्वास करना होगा कि तुम जानते हो, और इससे उन्हें कोई भी अंतर नहीं पड़ता कि तुम उसे जानते हो अथवा नहीं?
यदि तुम सोचते हो कि तुम जानते हो तो प्रसन्न बने रहो, लेकिन तुम एक ऐसी पत्थर की दीवार खड़ी कर रहे हो कि उसे तोड़ना तुम्हारे लिए ही कठिन होगा- क्योंकि यदि तुम दूसरों को कायल करते हो, तो तुम भी उससे आश्वस्त हो जाते हो, कि हां, मैं जानता हूं। इसी तरह से वहां बहुत अधिक तथाकथित सद्गुरू हैं। वे कोई भी बात नहीं जानते, लेकिन उनके पास अनुसरणकर्त्ता हैं और उन अनुसरणकर्त्ताओं के कारण ही वे आश्वस्त हैं कि वे जानते हैं। उनके अनुसरणकर्त्ताओं को उनसे अलग कर दो कि तुम देखोगे कि उनका आत्मविश्वास चला गया है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि लोग अपने अंदर गहराई में केवल स्वयं को आश्वस्त करने के लिए ही कि वे जानते हें, अनुसरणकर्त्ताओं को इकट्ठा कर लेते हैं। बिना अनुसरण करने वालों के तुम कैसे स्वयं अपने को आश्वस्त कर सकते हो? वहां कोई अन्य उपाय नहीं है- और तुम अकेले हो। और प्रत्यक्ष रूप से स्वयं अपने को धोखा देना कठिन है और दूसरों के द्वारा स्वयं अपने को धोखा देना सरल है। जब तुम किसी व्यक्ति से बात करते हो तो उसकी आंखों में एक चमक देखते हो, तुम उससे कायल हो जाते हो कि अनिवार्य रूप से तुम्हारे पास कुछ चीज है अन्यथा उसकी आंखों और उसके चेहरे पर यह चमक क्यों आई? वह प्रभावित हुआ था। इसी कारण हम लोगों को प्रभावित करने के लिए इतने अधिक व्यग्र होते है। मन, लोगों को प्रभावित करना चाहता है, जिससे उनके द्वारा वह प्रभावित हो सकें और तब उसके उधार ज्ञान पर विश्वास कर सकें जैसे मानो वह एक ईश्वरीय ज्ञान है। इससे सावधान रहो। यह छल-कपट के जालों में से एक है। एक बार तुम उसमें गिर जाते हो तो तुम्हारे लिए उससे बाहर आना कठिन होगा।
एक विद्वान पंडित की अपेक्षा एक पापी, सत्य तक कहीं अधिक सरलता से पहुंच सकता है, क्येंकि पापी अपने अंदर गहराई में यह अनुभव करता है कि वह एक अपराधी है। वह पश्चाताप कर सकता है और वह अनुभव करता है कि उसने कुछ कार्य गलत किए हैं। तुम एक भी पापी ऐसा नहीं खोज सकते हो जो आधारभूत रूप से प्रसन्न हो। वह अपराध का अनुभव करता है कि उसने कुछ कार्य गलत किया है और अपने अचेतन में वह पश्चाताप करता है ओर जो कुछ उसने किया है वह उसे अनकिया करना चाहता है, जिससे उसके जीवन में एक संतुलन लाया जा सके ओर किसी दिन वह उस संतुलन को लायेगा। लेकिन यदि तुम एक ज्ञानी हो, शब्दों, सिद्धांतों और दर्शनशास्त्र के एक महान पंडित हो, तब यह होना कठिन है, क्योंकि तुम अपने उधार ज्ञान के बारे में कभी भी अपराधबोध का अनुभव न करते हुए उसके बारे में अहंकारपूर्ण प्रसन्नता का अनुभव करते हो।
एक बात का स्मरण बना रहे, तुम्हें जो भी चीज़ अहंकार की अनुभूति कराती है वह एक अवरोध है और जो भी चीज तुम्हें निर्हकारिता की अनुभूति देती है, वही मार्ग है।
यदि तुम एक पापी अथवा अपराधी हो और तुम अपराध करने का अनुभव करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम्हारा अहंकार हिल गया है। अपराध करने के द्वारा तुम अहंकार इकट्ठा नहीं कर सकते। ऐसा अनेक बार हुआ है कि एक अपराधी ने एक क्षण में छलांग लगा ली है और वह एक संत बन गया है। ऐसा ही प्रथम रामकथा लिखने वाले भारतीय संता बाल्मीक को घटित हुआ। बाल्मीक एक डाकू और हत्यारे थे और एक क्षण में उनका रूपांतरण हो गया। ऐसा कभी भी किसी पंडित के साथ घटित नहीं हुआ और भारत अनेक पंडितों और विद्वान ब्राह्मणों का एक महान देश है। भारतीय विद्वानों के साथ तुम उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकते ओर उनके पास हजारों वर्षों की एक लम्बी विरासत है और वे लोग शब्दों और शब्दों तथा केवल शब्दों पर ही जीते रहे हैं। लेकिन ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि एक विद्वान अथवा पंडित ने एक क्षण में छलांग लगाई हो, उसके अंदर विस्फोट हुआ हो और अपने अतीत से मुक्त होकर वह पूर्णरूप से नूतन बन गया हो। इस ढंग से ऐसा कभी भी नहीं हुआ। लेकिन अपराधियों के साथ एक क्षण में ऐसा कई बार हुआ है, क्योंकि अपने अंदर गहराई में, वे जो कुछ भी कर रहे थे, वे अहंकार के साथ व्यवस्था बनाने में कभी भी समर्थ नहीं हुए। वे जो कुछ भी कर रहे थे वह अहंकार को तोड़ने वाला था- और अहंकार ही वह पत्थर की दीवार है।
यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम एक नैतिकवादी और एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति हो, तो तुम सूक्ष्म अहंकार सृजित करोगे। यदि तुम सोचते हो कि तुम एक ज्ञानी हो, तो तुम एक सूक्ष्म अहंकार सृजित करोगे। स्मरण रहे, कि सिवाय अहंकार के वहां कोई भी पाप नहीं है, इसलिए उसे कभी इकट्ठा मत करो और वह हमेशा मिथ्या चीजों के द्वारा इकट्ठा हो जाता है, क्योंकि असली चीज़ें उसे हमेशा खण्ड-खण्ड कर देती हैं। यदि तुम वास्तव में जानते हो तो अहंकार विलुप्त हो जाता है और यदि तुम नहीं जानते हो तो वह इकट्ठा होकर बड़े से बड़ा और मज़बूत बन जाता है। यदि तुम वास्तव में एक निर्मल हृदय और धार्मिक व्यक्ति हो तो अहंकार विलुप्त हो जाता है, लेकिन यदि एक कट्टर धर्मनिष्ठ और नैतिकतावादी हो तो अहंकार शक्तिशाली हो जाता है। यह हमेशा निर्णय करने का एक मापदण्ड होना चाहिए कि तुम जो कुछ भी कर रहे हो वह अच्छा है अथवा बुरा है, उसका निर्णय अहंकार के द्वारा करो। यदि अहंकार शक्तिशाली बन गया है, तब वह गलत है, जितनी भी शीघ्र हो सके उसे तुरंत छोड़ दो। यदि अहंकार शक्तिशाली नही ंहै, तो वह अच्छा है।
यदि तुम प्रत्येक दिन मंदिर और प्रत्येक रविवार को चर्च जाते हो, और तुम अहंकार के मजबूत होने का अनुभव करते हो तो चर्च मत जाओ- मंदिर जाना बंद कर दो, क्योंकि वह एक विष है और वह तुम्हारी सहायता नहीं कर रहा है। यदि तुम चर्च जाने के द्वारा यह अनुभव करते हो कि तुम धार्मिक हो अथवा तुम दूसरों की अपेक्षा कहीं अधिक महान, कहीं अधिक निर्मल और कुछ असाधारण व्यक्ति हो और यदि यह रवैया तुम्हारे अंदर आता है कि तुम दूसरों की अपेक्षा कहीं अधिक धार्मिक हो तब उसे छोड़ दो, क्योंकि यह दृष्टिकोण ही संसार में मौजूद केवल मात्र पाप है। अन्य सभी कार्य बच्चों के खेल जैसे हैं। यही दृष्टिकोण कि मैं तुम्हारी अपेक्षा कहीं अधिक धार्मिक हूं, केवल मात्र पाप है।
केवल वही करो जिससे तुम्हारा अहंकार मजबूत न होता हो और देर अथवा सबेर तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे, क्योंकि जब वहां अहंकार नहीं है और एक क्षण के लिए भी वह तुम्हें छोड़ देता है- तो अचानक आंखें खुलती हैं और तुम उसे देख लेते हो। एक बार उसे देख लिया, तो वह कभी नहीं भूलता। एक बार दृष्टि मिल गई, तो वह तम्हारे जीवन में एक ऐसा शक्तिशाली चुम्बक बन जाता है कि वह तुम्हें विश्व के केंद्र के निकट से निकट खींचता चला जाता है। देर अथवा सबेर तुम्हारा उसमें विलय हो जायेगा।
लेकिन अहंकार प्रतिरोध करता है, अहंकार समर्पण करने से रोकता है। वह प्रेम का प्रतिरोध करता है, वह प्रार्थना करने से रोकता है, वह ध्यान करने से रोकता है और वह परमात्मा का भी प्रतिरोध करता है। सम्पूर्ण अस्तित्व के विरुद्ध लड़ने में, अहंकार ही एक प्रतिरोध है और इसी कारण वह एक पाप है और अहंकार की दिचस्पी हमेशा लोगों को प्रभावित करने की है। तुम जितना अधिक लोगों को प्रभावित करना चाहते हो, अहंकार उतना ही अधिक भोजन पाता है। यह एक सत्य है। यदि तुम किसी भी व्यक्ति को प्रभावित नहीं कर सकते हो तो तुम्हारे समर्थक अपने को वापस खींच लेते हैं और अहंकार कंपना शुरू हो जाता है उसके पास वास्तविकता में कोई भी आधार नहीं है और वह दूसरी की राय पर निर्भर है।
अब इस प्रसंग में प्रवेश करो : एक ढीठ छात्र।
यह एक विरोधाभास है, क्योंकि एक छात्र कभी भी ढीठ नहीं हो सकता, और यदि वह है, तो वह एक छात्र नहीं हो सकता। एक छात्र उद्धत अथवा अविनीत नहीं हो सकता, क्योंकि एक छात्र होने का अर्थ है- ग्राह्यशील होना, सीखने को तैयार होना। और सीखने के लिए शीघ्रता क्या है? सीखने की तत्परता का अर्थ है : मैं जानता हूं कि मैं अज्ञानी हूं। यदि मैं जानता हूं कि मैं जानता हूं, तो मैं कैसे सीख सकता हूं? तो द्वार बंद हैं, मैं सीखने को तैयार नहीं हूं; वास्तव में, मैं सिखाने को तैयार हूं।
एक ज़ेन मठ में एक बार ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति आया और वह दीक्षा लेना चाहता था। सद्गुरु ने कहा : ‘यहां हमारे पास दीक्षा लेने वालों की दो श्रेणियां हैं मेरे पास आश्रम अथवा मठ में पांच सौ निवासी हैं और हमारे पास दो श्रेणियां हैं एक तो है शिष्य और एक है सद्गुरु की। इसलिए तुम किस श्रेणी में सम्मिलित होना चाहोगे?’ वह व्यक्ति पूर्णरूप से नया था। उसे थोड़ी सी हिचकिचाहट का अनुभव हुआ। उसने कहा यदि यह संभव है तो मैं सद्गुरु जैसी दीक्षा लेना चाहूंगा।’
सद्गुरु केवल मज़ाक कर रहा था। वह केवल हास-परिहास कर रहा था- और उसने उसके अचेतन की गहराई में झांकना चाहता था।
प्रत्येक व्यक्ति एक सद्गुरु होना चाहता है और यदि तुम शिष्य भी बनते हो तो तुम केवल एक साधन की भांति। एक सद्गुरु बनने का तुम उसका साधन की भांति प्रयोग करते हो। तुम्हें एक अनिवार्यता की भांति उससे होकर गुज़रना होता है, अन्यथा तुम कैसे एक सद्गुरु बन सकते हो? इसलिए तुम्हें एक शिष्य बनना होता है, लेकिन अहंकार की खोज सद्गुरु बनने की होती है, अहंकार सीखना नहीं, सिखाना चाहता है और यदि तुम सीखते भी हो, तो वह सीखना इस विचार के साथ होता है कि कैसे सिखाने के लिए तैयार हुआ जाये?
तुम मुझे सुनते हो। सुनने के साथ मेरे पास भी दो श्रेणियां हैं : तुम एक शिष्य के समान सुन सकते हो और तुम एक होने वाले सद्गुरु की भांति सुन सकते हो। यदि तुम एक होने वाले सद्गुरु के समान सुनते हो तो तुम चूक जाओगे क्योंकि तुम उसे उस भक्ति की भांति नहीं सुन सकते हो। यदि तुम तैयार होने की और चमत्कार होने की केवल प्रतीक्षा कर रहे हो कि कैसे छलांग लगाकर एक सद्गुरु बना जाए और दूसरों को सिखाया जाये तो तुम ग्राह्यशील नहीं बन सकते हो। यदि तुम एक शिष्य हो और साथ में सद्गुरु बनने का कोई भी विचार नहीं है, केवल तुम तभी सीख सकते हो। पूरब में पुरानी परम्पराओं में से एक यह थी कि एक व्यक्ति सिखाना तब तक शुरू न करता था, जब तक कि उसका सद्गुरु उससे वैसा न कहे।
वहां बुद्ध का एक शिष्य था जो अनेक वर्षों तक उनके साथ बना रहा। उसका नाम पूर्ण था। वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया और तब भी वह बुद्ध के ही साथ बना रहा। अपना बुद्धत्व घटने के बाद भी वह सुबह प्रत्येक दिन बुद्ध को सुनने के लिए आता। अब वह स्वयं एक बुद्ध था, उसमें कुछ भी कमी नहीं थी, अब वह अपने अधिकार के साथ खड़ा था, लेकिन पवचन में उसका आना जारी रहा।
एक दिन बुद्ध ने पूर्ण से पूँछा : ‘‘ अब भी तुम क्यों आते रहते हो? अब तुम आना बंद कर सकते हो।’’
और पूर्ण ने कहा :‘‘ जब तक आप ऐसा नहीं कहते, तो मैं अपना कैसे बंद कर सकता हुँ। यदि आप ऐसा कह रहे हैं, तो ठीक है’’
तब उसने बुद्ध के प्रवचनों में जाना बंद किया, लेकिन वह संघ के साथ, सुनिश्चित पद्धति से ठीक एक छाया की भांति भ्रमण करता रहा। तब कुछ वर्षो के बाद तुम ने पुनः उससे कहा :‘‘पूर्ण। तुम मेरा अनुसरण क्यों किये चले जाते हो? बुद्ध जाओं और लोगों का सिखाओं। तुम्हें यहाँ मेरे साथ रहने की जरूरत नहीं है।’’
और पूर्ण ने कहा : ‘‘ मै प्रतीक्षा कर रहा था। जब आप ऐसा कह रहे हैं तो मैं बाहर जाऊँगा। मैं एक शिष्य हूँ, इसलिए जो कुछ भी आप कहते हैं मैं उसका अनुपालन करूंगा। यदि आप ऐसा कहते हैं, तो ठीक है। इसलिए मुझे कहाँ जाना चाहिए। मुझे किस दिशा में जाना चाहिए? मुझे किसे सिखाना चाहिए? आप पूरी तरह से मझे निर्देश दीजिए और मैं उसका अनुसरण करूंगा। मैं तो एक अनुसरणकर्ता हूं।’’
इस व्यक्ति ने अनिवार्य रूप से बुद्ध के पूर्ण रूप से सुना है, क्योंकि जब वह बुद्धत्व को उपलब्ध भी हो जाता है, वह एक शिष्य ही बना रहता है। और इस बारे में ऐसे लोग है जो पूर्ण से अज्ञानी है, और वे पहिले से ही सद्गुरु है। यदि वे सुन भी रहे है तो वे इस दृष्टिकोण से सुन रहे है कि देर अथवा सवेर उन्हें भी सिखाना होगा। तुम केवल दूसरों को बताने के लिए सुनते हो कि तुमने क्या सीखा है। मन यह विचार पूरी तरह गिरा दो, क्योंकि यदि वहाँ वह विचार है, यदि होने वाला सद्गुरु वहाँ है, तो शिष्य उस विचार के साथ मौजूद नहीं रह सकता, वे कभी भी एक साथ नहीं रह सकते।
एक शिष्य, पूरी तरह से एक शिष्य होता है। एक दिन ऐसा होता है कि वह एक सद्गुरु बन जाता है, लेकिन वह एक लक्ष्य नहीं है, वह केवल एक परिणाम है। केवल एक सीखने वाला बनने के द्वारा ही कोई एक बुद्धिमान बनता है। वह एक फल अथवा परिणाम है, लक्ष्य नहीं है। यदि तुम पूरी तरह से बुद्धिमान बनने के लिए ही सीखते हो, तो तुम कभी नहीं सीख पाओगे, क्योंकि बुद्धिमान बनना एक अहंकारपूर्ण लक्ष्य है, वह अहंकार की ही एक यात्रा हैं और यदि तुम केवल परिपक्व होने की प्रतीक्षा कर रहे हो और एक सद्गुरु बन जाते हो, तो यह शिष्यत्व केवल वह द्वार है जिससे होकर गुजर जाना है। अच्छा है, जितनी शीघ्र हो सके वह समाप्त हो जाए, क्योंकि तुम उसमें प्रसन्न नहीं हो और तुम चाहते हो उसका अंत हो जाए- तब तुम एक शिष्य नहीं हो और तुम कभी भी एक सद्गुरु नहीं बनोगे------ क्योंकि जब एक शिष्य परिपक्व होता है, वह सहज स्वाभाविक रूप से एक सद्गुरू बन जाता है। वह केई लक्ष्य नहीं होता है जिसका कि अनुसरण करना होता है, वह एक उपाजात अर्थात एक बाईप्रोडक्ट की भाँति घटित होता है।
एक ढीठ छात्र, जो अविनीत और रुक्ष भी है, वह सोच रहा है कि पहले से ही जानता है--... और केवल वह धृष्टता ही है जो एक ऐसे मन के साथ हो सकती है, जो सोचता है कि वह उसे पहले से ही जानता है।
जब यामूका एक ढीठ और धृष्ट छात्र था
वह सद्गुरु डोक्यंन से भेंट करने गया
सद्गुरु को प्रभावित करने के लिए उसने उनसे कहा------
ये यामूका जैसे लोग मेरे पास लगभग प्रतिदिन आते हैं। मैं अनेक ऐसे लोगों से मिला हूँ। यह यामूका तो एक नमूना हैं। वे लोग मेरे पास आते हैं और कभी-कभी में उनसे बहुत अधिक मजा लेता हुँ।
एक बार ऐसा हुआ कि मेरे पास एक व्यक्ति आया और वह एक घंटे तक बात करता रहा और उसने पूरी वेंदांत सुना डाला। वह कई दिनों से मुझे पत्र लिखते हुए मुझसे भेंट करने के लिए समय माँग रहा था। उसे बहुत दूर से यात्रा करके आना था और वह यह कहता रहा था कि वह थोड़े से प्रश्न पूँछना चाहता हैं जब वह आया तो वह प्रश्न पूंछने के बारे में भूल गया और उसने मुझे उत्तर देना प्रारम्भ कर दिया और मैंने उससे कोई भी बात पूंछी नहीं थी। एक घंटे तक वह बातें, बातें और बाते ही करता रहा और वहाँ कोई भी अंतराल तक न था कि मैं उसे टोंक सकूँ। नहीं, वह तब भी नहीं सुनता इसलिए मुझे हाँ और हाँ कहना पड़ा। और मैंने उसे सुना और उसका आनंद लिया और एक घंटे बाद उसने कहा : ‘‘अब मुझे जाना होगा, क्योंकि मेरा समय समाप्त हो गया- लेकिन मैंने आपसे बहुत सी बातें सीखीं। और मैं इस भेंट को हमेशा हमेशा के लिए याद रखूंगा। मैं इस स्मृति को प्रिय मानते हुए अपने पास रखूंगा और आपने मेरी सभी समस्याओं का समाधान कर दिया।’’
वास्तव में यही उसकी समस्या थी कि वह बातचीत करके कुछ बातें कहना चाहता था और मुझे कुछ जानकारी देना चाहता था। क्योंकि मैंने उसे सुना इसलिए वह बहुत प्रसन्न था। वह वैसा ही बना रहा, लेकिन वह बहुत प्रसन होकर गया।
लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं कि वे निश्चित रूप से जानते हैं कि ‘सभी ब्रह्मा ही हैं। भारत ज्ञान के साथ बहुत अधिक बोझिल है और मूर्ख लोग इस बोझ के कारण ही और अधिक महान मूर्ख बन गए हैं, क्योंकि वे जानते है और वे ज्ञानियों की भांति बातें करते हैं। वे कहते है कि सभी कुछ ब्रह्म ही है और सत्य अद्वैत और अंत में वे कहते है-‘‘मेरा मन बहुत अधिक तनावग्रस्त रहता है। क्या आप किसी बात का सुझाव दे सकते है’’।
यदि तुम जानते हो कि अस्तित्व अद्वैत है, यदि तुम जानते हो कि द्वैत विद्यमान नहीं है तो तुम कैसे मुसीबत में पड़कर तनावग्रस्त हो सकते हों यदि तुम इसे जानते हो तो सारी कठिनाईयाँ मिट जाती है सारी चिंता विलुप्त हो? जाती है और दुःख मिट जाते है, लेकिन यदि तुम उनसे यह कहते हो कि तुम नहीं जानते हो, तो वे इसे सुनेंगे ही नहीं। और यदि तुम केवल उन्हें सुनते चले जाओ, तो अंत में सत्य अपने आप ही प्रकट हो जाएगा।
एक कचहरी में एक बार ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति पर जेब घड़ी चुराने का इल्ज़ाम लगाया गया। वह व्यक्ति जिसकी घड़ी चुरा ली गई थी उसे थोड़ा कम दिखाई देता था। उसकी दृष्टि कमजोर थी और वह केवल चश्में के साथ ही देख सकता था। वह अपना चश्मा कहीं रखकर भूल गया था और जब सड़क पर चलते हुए इस व्यक्ति ने जेब काट कर उसकी घड़ी ले ली। जब न्यायाधीश ने जाँच पड़ताल करते हुए उससे पूछा- ‘‘क्या आप इस व्यक्ति को पहिचान सकते हैं कि यही वह व्यक्ति है जिसने आपकी घड़ी ली है?’’
लूटे हुए व्यक्ति ने उत्तर दिया : ‘यह कहना कठिन है, क्योंकि मेरी दृष्टि कमजोर है और बिना चश्में के मैं ठीक से नहीं देख सकता हूं और प्रत्येक चीज थोड़ी धुंधली दिखाई देती हैं इसलिए मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यही वह व्यक्ति है अथवा नहीं है, लेकिन मेरी घड़ी चुरा ली गई और मैं महसूस करता हूं कि यही वह व्यक्ति है।’’
लेकिन क्योंकि वहाँ कोई दूसरा चश्मदीद गवाह अथवा अन्य कोई प्रमाण नहीं था और और उसे सिद्ध नहीं किया जा सकता था, मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को मुक्त करना पड़ा, और उसने कहा :‘‘ अब तुम मुक्त किये जाते हो। तुम जा सकते हो।’’
लेकिन वह व्यक्ति थोड़ी उलझन में दिखाई दिया। न्यायधीश ने कहा : ‘‘अब तुम जा सकते हो, तुम मुक्त हो।’’ वह व्यक्ति तब भी उलझन में दिखाई दिया और न्यायाधीश ने पूछा :‘‘ क्या तुम कोई अन्य बात पूछना चाहते हो?’’
उसने कहा :‘‘हाँ, क्या मैं वह घड़ी पा सकता हूं’ क्या मैं उसे अपने पास रख सकता हूँ?’’
यही है, जो हो रहा है--... लोग बातें किये चले जाते है और यदि तुम उन्हें सुनते चले जाओ और अंत में तुम पाओगे कि उनका सभी वेंदात व्यर्थ है और आखिर में वे कुछ ऐसी बात पूँछते है जो सत्य को प्रकट कर देती है। वह दूसरा व्यक्ति केवल मौखिक रूप से वाग्यव्यवहार कर रहा है।
यह यामूका सद्गुरु डोक्यंन से भेंट करने गया। डोक्यून जापान में सबसे अधिक प्रेमपूर्ण व्यक्तियों में और सबसे अधिक सम्मानित लोगों में एक बुद्ध था।
सद्गुरु को प्रभावित करने की चाह से उसने कहा...
जब तुम एक सद्गुरु को प्रभावित करना चाहते हो तो तुम एक मूर्ख हो, तुम पूर्ण रूप से एक निर्बुद्धि हो। तुम चाहो, तो सारे संसार को प्रभावित कर सकते हो लेकिन कम-से-कम इस बारे में एक सद्गुरू को प्रभावित करने का प्रयास मत करें। अपने हदय के द्वार खोलो। मूर्खतापूर्ण बातें मत करो, और कम से कम वहाँ तो सच्चे बने रहो।
यदि तुम एक डॉक्टर के पास जाते हो, तो अपनी सारी बीमारियाँ उनके सामने खुलकर कह देते हो,, तुम उसे जाँच करने और रोग का निर्णय लेने की अनुमति देते हो। जो कुछ भी वहाँ है तुम उस बारे में प्रत्येक बात बतलाते हो और तुम उससे केई भी बात नहीं छिपाते हों यदि तुम डॉक्टर से कुछ भी छिपाते हो, तो पहली बात तो यह कि तुम उसके पास क्यों जाते हो? छिपाते चले जाओ। लेकिन यदि तुम उससे छिपाते हो तो फिर कैसे उससे सहायता पाने की आशा कर सकते हो?
तुम एक डॉक्टर से शरीर के बारे में प्रत्येक चीज बतलाते हो और एक सद्गुरु से तुम्हें अपनी आत्मा की प्रत्येक चीज बतानी होगी, अन्यथा कोई भी सहायता पाना संभव नहीं है जब तुम एक सद्गुरू के पास जाते हो, तो पूर्ण से जाओं उसके और अपने मध्य शब्दों का अबोध सृजित मत करो केवल उससे वहीं कहो जो तुम जानते हों। यदि तुम कुछ भी नहीं जानते हो तो कहो-‘‘मैं नहीं जानता हूँ।’
जब पी.डी. ऑस्पेंस्की गुरु जिएफ के पास आया तो वह पहले से ही विश्व प्रसिद्ध एक महान विद्वान था- स्वयं गुरु जिएफ की अपेक्षा वह विश्व में कहीं अधिक विख्यात था। उन दिनों गुरु जिएफ एक अज्ञात फकीर था और ऑस्पेंस्की के द्वारा वह विख्यात बना। गुरु जिएफ से मिलने के पूर्व ही उसे एक महान ग्रंथ लिखा था। वह पुस्तक वास्तव में अद्वितीय है, क्योंकि वह उसमें इस तरह लिखता है जैसे मानो वह जानता है, और वह एक ऐसा पारंगत व्यक्ति कि वह धोखा दे सकता है। वह ग्रंथ है : टरशियम ओरगेनम- धर्मप्रधान व्यवस्था का तीसरा विचार और यह वास्तव में वह विश्व की अद्वितीय पुस्तकों में से एक है। क्या-कभी अज्ञान भी ये कार्य कर सकता हैं यदि तुम कार्यकुशल हो तो अपने अज्ञान के साथ भी तुम वे कार्य कर सकते हो।
इस पुस्तक में आस्पेंसकी यह दावा करता है- और उसका दावा ठीक भी है कि संसार में वहाँ प्रामाणिक पुस्तकें केवल तीन ही है : पहली है : अरस्तू की ‘आरगेनम’, जिसमें धर्मप्रधान व्यवस्था के प्रथम विचार है, दूसरी है, नेकन की ‘नोवम आरगेनम’ अथवा धर्मप्रधान व्यवस्था के नूतन विचार और तीसरी है- ‘टरशियम आरेगेनम’ अर्थात धर्मप्रधान व्यवस्था का तीसरा विचार। और वास्तव में यें तीनों पुस्तके अद्वितीय हैं। सभी तीनों लेखक अज्ञानी है, इसमें से कोई भी सत्य के बारे में कोई भी बात नहीं जानता है, लेकिन वे सभी बहुत पारंगत व्यक्ति है। बिना सत्य को जाने हुए उन्होनें वास्तव में चमत्कार किया है और इतनी अधिक सुंदर पुस्तके लिखी है। वे लगभग उसके चारों ओर आ गए है और वे लगभग पहुंच ही गए है।
जब आस्पेस्की गुरू जियेफ के पास आया तो उसका एक नाम था और गुरु जिएफ कोई भी नहीं था। निश्चित रूप से वह इस जानकारी के साथ आया था कि गुरु जिएफ एक आत्मवान व्यक्ति है, वह वास्तव में एक जानकारियां बटोरने वाला व्यक्ति नहीं है, बल्कि उसमें बहुत महत्वपूर्ण और सारभूत तत्त्व है। गुरु जिएफ ने किया क्या? उसने एक बात बहुत सुंदर की और वह मौन बना रहा। औस्पेस्की प्रतीक्षा करता रहा और प्रतीक्षा करते हुए वह बहुत बैचेन हो गया। इस व्यक्ति के सामने उसके पसीना निकलना शुरू हो गया, क्योंकि वह उसकी ओर देखते हुए पूर्ण रूप से मौन बना रहा। वह घबरा देने वाली स्थिति थी। उसकी जलती हुई आंखें उसके अंदर बहुत बहुत गहराई तक प्रविष्ट हो रही थीं- यदि वह चाहता तो अपनी आंखों से तुम्हें जला सकता था और उसका चेहरा कुछ ऐसा था कि यदि वह चाहता तो अपने चेहरे से ही तुम्हारे अस्तित्व को थर्रा सकता था। यदि वह तुम्हारे अंदर देखता तो तुम बहुत व्याकुल हो उठते। वह एक पत्थर की मूर्ति के समान बैठा रहा और आस्पैंस्की ने कॉपना शुरू कर दिया जैसे उस पर जूड़ी बुखार ने आक्रमण कर दिया हो। तब उसने साहस कर पूछा : ‘लेकिन आप मौन क्यों हैं? आप कुछ कहते क्यों नहीं?’
गुरुजिएफ ने कहा : ‘पहले तो एक चीज का निर्णय हो जाना है, पूर्णरूप से निर्णय हो जाना है, केवल तभी मैं एक भी शब्द कहूंगा। दूसरे कमरे के अंदर चले जाओ। तुम वहां कागज का एक टुकड़ा पाओगे। तुम जो कुछ भी तुम जानते हो, उस पर लिख देना और उसे भी लिख देना, जिसे तुम नहीं जानते हो। दो खाने बना लेना : एक तुम्हारे ज्ञान का हो और एक तुम्हारे अज्ञान का हो। क्योंकि जो कुछ भी तुम जानते हो, मुझे उस बारे में बात करने की कोई भी ज़रूरत नहीं है। हम उसके साथ ही समाप्त हो जाते हैं, तुम जानते हो, फिर उस बारे में बात करने की कोई भी ज़रूरत नहीं है। जो कुछ भी तुम नहीं जानते हो, मैं उसके बारे में बात करूंगा।’
ऐसा कहा जात है कि ऑस्पेंस्की इस कमरे के अंदर गया, कुर्सी पर बैठा, कागज और पेंसिल को उठाया और अपने जीवन में पहली बार उसने यह अनुभव किया कि वह कुछ भी नहीं जानता है। इस व्यक्ति ने उसके पूरे तथाकथित ज्ञान को नष्ट कर दिया, क्योंकि पहली बार वह सचेतनता के साथ यह लिखने जा रहा था : मैं परमात्मा को जानता हूं। पर इसे कैसे लिखा जाए- क्योंकि वह नहीं जानता था। कैसे लिखा जाए : मैं सत्य को जानता हूं?
ओस्पेंस्की एक प्रामाणिक व्यक्ति था। आधा घंटे के बाद वह वापस लौटा और गुरुजिएफ को कोरा कागज़ देते हुए कहा : ‘अब आप कार्य शुरु कीजिए। मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।’
गुरुजिएफ ने पूछा :‘तुम टरशियम ओरगेनम कैसे लिख सके? तुम कोई भी बात नहीं जानते और तुमने लिखा है- ‘धर्म प्रधान व्यवस्था का तीसरा विचार।’
यह ऐसा ही है जैसे मानो लोग अपनी नींद में लिखते चले जाते हैं, अपने सपनों में लिखे चले जाते हैं और वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं और वे नहीं जानते कि उनके द्वारा क्या हो रहा है?
सद्गुरु को प्रभावित करने के लिए यामूका ने कहा :
वहां कोई मन नहीं है, वहां कोई भी शरीर नहीं है, और न वहां कोई बुद्ध है
वहां न कुछ अच्छा है, वहां न कुछ भी बुरा है
वहां न कोई सद्गुरु है, और न कोई भी छात्र है
वहां न कोई कुछ दे रहा है और वहां न कोई कुछ ले रहा है।
जो कुछ भी हम सोचते हैं, हम देखते हैं और अनुभव करते हैं-वे सत्य नहीं है; ये प्रतीत होने वाली कोई भी चीजें वास्तव में अस्तित्व में नहीं हैं।
यह सर्वोच्च सिखावन है, यह अंतिम सत्य है। यह बुद्ध की पूरी परम्परा का सारभूत तत्व है- बुद्ध कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु शून्य है। यह वही है, जिसके बारे में मैं तुम्हारे साथ सोसान के वचनों पर व्याख्या करते हुए बातचीत कर रहा था : प्रत्येक वस्तु में शून्यता है, प्रत्येक वस्तु केवल सापेक्ष है और पूर्ण रूप से कुछ भी अस्तित्व में नहीं है। यह सर्वोच्च समझ है, लेकिन तुम इस बात को एक पुस्तक में पढ़ सकते हो। यदि तुम इसे एक पुस्तक में पढ़ते हो तो वह पूरी तरह मूर्खतापूर्ण लगेगा।
वहां मन नहीं है, वहां शरीर नहीं है।
वहां बुद्ध भी नहीं है
बुद्ध ने कहा है : ‘मैं हूं ही नहीं’। लेकिन जब बुद्ध इसे कहते हैं, तो उसके अर्थ हैं कि वह कुछ चीज़ है। जब यामूका इसी बात को कहता है तो उसका अर्थ कुछ भी नहीं है। जब बुद्ध इसे कहते हैं तो वह बहुत महत्वपूर्ण है : ‘मैं हूं ही नहीं’- वह कहते हैं, ‘यदि मैं नहीं हूं, इसलिए और अधिक सजग बनो- जो तुम नहीं हो सकते।
वह कहते हैं- ‘यह मेरा अनुभव और समझ है। ‘व्यक्तित्व केवल एक लहर के समान है अथवा वह पानी पर खींची गई एक रेखा है। वह एक आकृति है और रूप अथवा आकृति निरंतर बदल रही हैं। रूप सत्य नहीं है। केवल अरूप ही सत्य हो सकता है। केवल अपरिवर्तनीय ही सत्य हो सकता है। और बुद्ध कहते हैं : तुम्हारा रूप विलुप्त होने के लिए सत्तर वर्ष का समय ले सकता है, लेकिन वह विलुप्त हो जाता है- और वह, जो एक दिन नहीं था और पुनः जो एक दिन नहीं होगा, वह मध्य में नहीं हो सकता। मैं नहीं था एक दिन और एक दिन मैं नहीं रहूंगा। दोनों ओर कुछ भी नहीं है- तो क्या ठीक मध्य में, मैं हूं, यह संभव नहीं है। दो अनस्तित्व के मध्य में यह अस्तित्व कैसे विद्यमान हो सकता है? दो शून्यताओं के मध्य में, वहां कैसे कोई महत्वपूर्ण चीज़ हो सकती है? वह एक झूठा सपना होना चाहिए।
सुबह तुम यह क्यों कहते हो कि सपना झूठा था? वह था, लेकिन तुम क्यों कहते हो कि वह मिथ्या था? असली और नकली होने का मापदण्ड क्या है? तुम निर्णय कैसे करोगे? और सुबह प्रत्येक व्यक्ति यह कहता है- ‘मैंने सपना देखा था और वह सपना मिथ्या था।’ सपने का अर्थ है- नकली या मिथ्या होना- लेकिन क्यों? मापदण्ड यह है कि शाम को वह वहां नहीं था, जब मैं सोने के लिए गया, तो वह वहां नहीं था, जब मैं पुनः नींद से बाहर आया, तो भी वह वहां नहीं था, इसलिए वह मध्य में कैसे हो सकता है? कमरा वास्तविक है, सपना नकली है- क्योंकि जब तुम सोने गए तो कमरा वहा ंथा और जब तुम नींद से बाहर आए कमरा तब भी वहां था। कमरा असली और सत्य है, सपना मिथ्या है, क्येंकि सपने के पास उसके चारों ओर दो शून्यताएं हैं और दो शून्यताओं के मध्य में कुछ भी नहीं होता है। लेकिन कमरा बना रहता है, इसलिए तुम कहते हो : कि कमरा असली और सत्य है और सपना नकली और असत्य है।
एक बुद्ध इस संसार से बाहर आकर जाग गया है और वह उसे ठीक एक सपने के समान ही देखता है। तुम्हारा संसार भी मिथ्या है। वह इस बड़े सपने से जिसे हम संसार कहते हैं, बाहर आकर जाग गया है और तब वह कहता है- ‘वह वहां नहीं था, अब पुनः वह वहां नहीं है इसलिए मध्य में वह कैसे बना रह सकता है? इसीलिए बुद्ध, शंकराचार्य यह कहे चले जाते हैं-‘संसार एक भ्रांति है, वह एक सपना है। लेकिन तुम उसे नहीं कह सकते, तुम केवल शब्द लेकर उन्हें दोहरा नहीं सकते।
इस याकूमा ने अनिवार्य रूप से इसे सुना होगा, अनिवार्य रूप से पढ़ा होगा अथवा अध्ययन कर उसे सीखा होगा। वह एक तोते के समान दोहरा रहा है-
वहां न मन है, वहां न शरीर है और वहां न कोई बुद्ध है।
वहां न कुछ अच्छा है और वहां न कुछ भी बुरा है
क्येंकि वे सभी संबंधित और सापेक्ष हैं। स्मरण रहे, बुद्ध किसी भी चीज़ को सापेक्ष और मिथ्या कहते हैं और किसी चीज को परिपूर्ण सत्य कहते हैं। सत्य का मापदण्ड स्वयं भू होना अथवा परिपूर्णता है और सपनों का मापदण्ड है सापेक्षता।
इसे समझने का प्रयास करो, क्योंकि यह आधारभूत है। तुम कहते हो तुम्हारा मित्र लम्बा है। तुम्हारे कहने का क्या अर्थ है? उसका लम्बा होना अथवा लम्बा न होना केवल तभी कहा जा सकता है- जब वह किसी व्यक्ति की अपेक्षा लम्बा हो। वह किसी अन्य व्यक्ति के समाने ठिगना हो सकता है, इसलिए उसमें लम्बाई नहीं है। लम्बाई केवल एक संबंध है, वह एक सापेक्ष घटना है। किसी अन्य व्यक्ति की तुलना में वह लम्बा है और किसी अन्य व्यक्ति की तुलना में वह बौना हो सकता है। इसलिए वह क्या है- वह एक बौना है अथवा एक लम्बा व्यक्ति है? नहीं ये दो चीजें सापेक्षताएं हैं। वह स्वयं में क्या है- लम्बा अथवा बौना? वह स्वयं में न लम्बा है और न बौना है। इसी कारण बुद्ध कहते हैं- ‘अच्छा भी अस्तित्व में नहीं है और बुरा भी अस्तित्व में नहीं है।’
कौन पापी है और कौन एक संत है? समझो!- यदि संसार में वहां केवल संत हों, तो क्या वहां कोई संत होगा? यदि संसार में सभी लोग पापी हों तो क्या वहां पापी होंगे? संत के कारण ही पापी अस्तित्व में है। और पापियों के कारण ही संत अस्तित्व में है- वे परस्पर संबंधित हैं। इसलिए यदि तुम एक संत होना चाहते हो तो तुम एक पापी को सृजित करोगे, बिना पापियों के हुए तुम वहां एक संत नहीं हो सकते। इसलिए सजग बनो, एक संत मत बनो, क्येंकि यदि तुम एक संत बन जाते हो तो इसका अर्थ है कि कहीं दूसरी ध्रुवता को भी अस्तित्व में आना होगा।
संत होना मिथ्या है, पापी होना भी मिथ्या है। तुम स्वयं अपने में क्या हो? यदि तुम अकेले हो, क्या तुम एक पापी अथवा एक संत हो? तब तुम कोई भी नहीं हो। इस वास्तविकता में देखो, कोई भी अन्य चीज से असंबंधित तुम कौन हो?- बिना संबंध में स्वयं के अंदर देखो- तभी तुम परिपूर्ण सत्य तक आओगे, अन्यथा प्रत्येक चीज केवल एक सापेक्ष सीमा है। सापेक्षताएं और संबंध ही सपने हैं।
सत्य एक सापेक्षता नहीं है, वह एक परिपूर्णता है। तुम कौन हो?
यदि तुम अपने अंदर जाते हो और तुम कहते हो कि मैं प्रकाश हूं, तो फिर तुम सपना देख रहे हो, क्येंकि बिना अंधकार के प्रकाश का क्या अर्थ हो सकता है? प्रकाश को वहां बने रहने को अंधकार की आवश्यकता होती है। यदि तुम कहते हो कि मैं अपने अंदर आनंदित हूं, तो पुनः तुम सपना देख रहे हो, क्योंकि वहां आनंद को होने के लिए दुःख की जरूरत होती है। तुम किसी भी शब्द का व्यवहार नहीं कर सकते हो, क्योंकि सभी शब्द व्यवहारिक सापेक्षताएं हैं। इसी कारण बुद्ध कहते हैं कि हम किसी शब्द व्यवहार का प्रयोग नहीं कर सकते क्योंकि अंदर वहां शून्यता है। यह शून्यता भी भरेपन के विरुद्ध है, यह ठीक इस तरह कहने की भांति है कि सभी शब्द व्यवहार शून्य है। परिपूर्ण सत्य में कोई भी शब्द व्यवहार लागू नहीं होता है और तुम कोई भी बात नहीं कह सकते हो।
बुद्ध हिंदुओं के साथ यह कहने में सहमत न होते कि सत्य ‘सत चित्-आनंद’ है, क्योंकि वह कहते है। सत, असत के कारण अस्तित्व में है; चित, अचित के कारण अस्तित्व में है और आनंद, दुःख के कारण अस्तित्व में है। संत, अस्तित्व है। परमात्मा को अस्तित्वगत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब अनास्तित्व की जरूरत होगी और अनिस्तत्व कहां रहेगा? परमात्मा को चैतन्य अथवा चेतना भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब अचेतन की ज़रूरत होगी और अचेतन कहां अस्तित्व में होगा? परमात्मा को परमानंद भी नहीं कहा जा सकता, क्येंकि तब दुःख की भी ज़रूरत होगी।
बुद्ध कहते हैं कि तुम जो कोई भी शब्द प्रयोग करते हो, वह व्यर्थ है, क्येंकि उसका विरोधी जरूरी होगा। स्वयं अपने अंदर देखो, तब तुम भाषा का प्रयोग नहीं कर सकते क्योंकि वहां केवल मौन रह जाता है। केवल मौन के द्वारा ही सत्य की ओर संकेत किया जा सकता है। और जब वह कहते हैं : ‘सारे शब्द व्यवहार शून्य हैं, सारे शब्द शून्य हैं, सभी वस्तुएं शून्य हैं, सभी विचार शून्य हैं,’ तो उनके कहने का अर्थ है- वे सापेक्ष हैं और सापेक्षता एक सपना है।
वहां न कुद अच्छा है, वहां न कुछ भी बुरा है
वहां न कोई सद्गुरु है और न कोई भी छात्र है
वहां न कोई कुछ दे रहा है और वहां न कोई कुछ ले रहा है
जो कुछ भी हम सोचते हैं, हम देखते हैं और अनुभव करते हे।, वे सत्य नहीं है।
यह प्रतीत होने वाली कोई भी चीजें, वास्तव में अस्तित्व में नहीं हैं।
बुद्ध की सिखावनों में यह सबसे अधिक गहन और गूढ है। इसलिए एक बात का स्मरण रखना है कि तुम सर्वाधिक गूढ़ शब्दों को कभी भी दोहरा सकते हो और तुम फिर भी एक मूर्ख और निर्बुद्धि बने रहोगें यह यामूका मूर्ख है। वह बुद्ध के समान ठीक उन्हीं शब्दों को दोहरा रहा है।
शब्द तुम्हारी आत्माको वहन करते हैं। जब वहीं शब्द बुद्ध कहते है, तो उनके पास एक भिन्न शक्ति और एक भिन्न सुवास होती है। शब्द बुद्ध की और उनकी आत्मा की भी कुछ चीज उनके अंतरस्थ अस्तित्व को उसके स्वाद और सूक्ष्म गुणों को भी वहन करते हैं। उन शब्दों के द्वारा उनकी अंतरस्थ एकलयता का संगीत भी वहन किया जाता है। जब याकूमा उन्हें दोहराता है, तो वे शब्द बासी और मृत हैं और वे कोई भी सुवास साथ लेकर नहीं चलते।
याद रहे, केवल गीता को दोहराने के द्वारा यह मत सोचो कि कुछ भी चीज होने जा रही है, यद्यपि वे शब्द समान हैं और कृष्ण ने जिन शब्दों को कहा था, तुम उन्हें ही दोहरा रहे हो। पूरे विश्व भर में हजारों ईसाई मिशनरी उन्हीं शब्दों को दोहराये चले जाते हैं जिन्हें जीसस ने कहा था। वे शब्द मृत हैं। अच्छा यही है कि उनको न दोहराया जाए, क्योंकि तुम जितना अधिक दोहराते हो, वे उतने ही अधिक पुराने और बासी हो जाते हैं अच्छा यही है कि उनका स्पर्श ही न किया जाए, क्येंकि तुम्हारा स्पर्श ही ज़हरीला है। अच्छा यही है कि प्रतीक्षा की जाये। तब तुम एक क्राइस्ट चेतना अथवा एक कृष्ण चेतना अथवा एक बुद्ध चेतना को उपलब्ध होते हो, तब तुम्हारी खिलावट होना शुरू हो जायेगी, तब तुमसे निकल कर बाहर चीजें आना शुरू हो जायेगी- पर इससे पूर्व कभी भी नहीं। एक ग्रामोफोन रिकार्ड मत बनो... क्येंकि तब तुम केवल दोहरा सकते हो लेकिन उसकी किसी बात का कोई अर्थ नहीं है।
डोक्यूंन खामोशी से बैठा हुआ अपने पाइप से धूम्रपान करता रहा--...
वह एक बहुत आकर्षक व्यक्ति है... वह कभी कोई फिक्र ही नहीं करता। उसने उसे टोंका नहीं और उसने समान्य रूप से अपने पाइप से धूम्रपान करना जारी रखा।
स्मरण रहे, केवल ज़ेन सद्गुरु ही धूम्रमान कर सकते हैं क्येंकि वे दावेदार नहीं बनते, वे छल कपट नहीं करते। तुम उनके बारे में क्या सोचते हो, वे उसकी फिक्र नहीं करते। वे स्वयं के साथ चैन और विश्राम में रहने वाले लोग हैं। तुम एक जैन मुनि के बारे में एक पाइप से धूम्रपान करने की बात सोच भी नही ंसकते, अथवा न एक हिन्दू संयासी द्वारा भी- यह असंभव है। ये लोग नियमों और विधानों का पालन करने वाले लोग हैं और उन्हांने स्वयं अपने को बलपूर्वक अनुशासित किया हुआ है। यदि तुम धूम्रपान नहीं करना चाहते हो तो उसकी कोई भी आवश्यकता नहीं है, लेकिन यदि तुम करना चाहते हो तो स्वयं अपने को किसी मृत चीज़ के लिए बाध्य मत करो, क्योंकि वह कामना कहीं छिपी रहेगी ओर वह कामना ही बाध्य बनेगी। और क्यों? यदि तुम एक पाइप से धूम्रपान करना चाहते हो, तो उसे क्यों न करो? उसमें गलत क्या है? जितने तुम मिथ्या हो, उतना ही धूम्रपान करना भी मिथ्या है और पाइप और धूम्रपान करना वैसा ही सत्य है जैसे कि तुम हो।
लेकिन ऐसा क्यें नहीं? अंदर गहरे में तुम असाधारण बनना चाहते हो, और साधारण नहीं रहना चाहते। पाइप से धूम्रपान करना तुम्हें बहुत सामान्य बना देगा। यही है वे कार्य, जो सामान्य लोग कर रहे हैं- पाइप से धूम्रपान करना, चाय अथवा कॉफी पीना, हंसना, हास-परिहास करना- यह सभी कुछ कार्य सामान्य लोग भी कर रहे हैं। तुम एक महान संत हो- तुम सामान्य चीज़ें समान्य रूप से कैसे कर सकते हो? तुम एक महान संत हो- तुम असाधारण हो।
असाधारणता का आवरण ओढ़ने में तुम अनेक चीजों को छोड़ते हो। यदि तुम उन्हें पसंद नहीं करते हो तो उन्हें छोड़ने में कुछ भी बुरा नहीं है, वह ठीक है। केवल यह कहने के लिए कि तुम सामान्य हो, स्वयं अपने को पाइप से धूम्रपान करने के लिए बाध्य बनाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि मन ऐसे ही कार्य किए चले जाता है। किसी भी उस कार्य को करने की आवश्यकता नहीं है जिसे तुम नहीं करना चाहते हो, लेकिन यदि तुम चाहते हो तो ‘पोज़’ मत करो और गंभीरता का मुखौटा ओढ़ने का प्रयास मत करो। तब सहज सामान्य बनो। कुछ भी गलत नहीं है यदि तुम सहज और सरल हो तो कोई भी चीज़ गलत नहीं है? तुम यदि सरल नहीं हो तो प्रत्येक चीज़ गलत है।
यह व्यक्ति डोक्यूंन अनिवार्य रूप से सहज सरल रहा होगा।
डोक्यूंन खामोशी से बैठा हुआ अपने पाइप से धूम्रपान करता रहा।
बहुत ध्यानपूर्ण होकर वह केवल विश्राम करते हुए उस दावेदारी की बातें सुन रहा था।
और वह कुछ भी नहीं कह रहा था
अचानक उसने अपना डंडा उठाया
और यामूका पर उससे प्रहार करते हुए
उसने उसकी बुरी तरह धुनाई कर दी।
डोक्यूनं ने कहा : जब इनमें से कोई भी चीज़ें
वास्तव में अस्तित्व में नहीं हैं और सभी कुछ एक शून्यता है
तो तुम्हारा यह क्रोध कहां से आ रहा है?
इस बारे में विचार करना।
डोक्यूंन ने एक स्थिति सृजित की और केवल स्थितियां ही गुप्त रहस्य को प्रकट करती हैं। वह कह सकता था-‘‘जोकुछ भी तुम कह रहे हो, वह केवल उधार ज्ञान की सूचना मात्र है।’’ उससे बहुत अधिक अंतर नहीं पड़ता क्योंकि जो व्यक्ति उसके सामने बैठा हुआ था वह गहरी नींद में सोया था। केवल बात कहने से वह उससे बाहर न आता, हो सकता है कि वह नींद में अधिक देर तक बने रहने में उसकी सहायता करता और वह तर्क-वितर्क भी करना प्रारंभ कर सकता था। वस्तुतः कुछ कहने की अपेक्षा डोक्यूंन ने अपने डंडे से उस पर कठोर प्रहार करते हुए ठीक कार्य ही किया क्योंकि यामूका उसके लिए तैयार नहीं था, बिना आशा के अचानक वह प्रहार हुआ वह इतना अधिक अचानक किया गया था कि वह उसके अनुसार अपने चरित्र को व्यवस्थित न कर सका और न वह ढोंग रचते हुए उसे व्यवस्थित कर सका। वह चोट इतनी अधिक अचानक थी कि उसका मुखौटा हट गया और असली चेहरा प्रकट हो गया। केवल बातचीत करने से वह संभव न हुआ होता। डोक्यूंन अनिवार्य रूप से बहुत करुणावान रहा होगा।
केवल एक क्षण-भर के लिए क्रोध उभरकर बाहर आ गया और उसका असली चेहरा प्रकट हो गया क्योंकि यदि प्रत्येक चीज़ शून्य है तो तुम कैसे क्रोधित हो सकते हो? फिर क्रोध कहां से आ सकता है? कौन क्रोधित होगा, यदि वहां एक बुद्ध नहीं है और तुम वह नहीं हो। वहां कुछ भी नहीं है, केवल शून्यता ही विद्यमान है? शून्यता में क्रोध कैसे संभव है?
डोक्यूंन जोकुछ कर रहा है, वह इस याकूदा को उधार जानकारी से उसे सारभूत तत्व तक लाने को कह रहा है और वह उसे कठोर चोट पहुंचाने के द्वारा कर रहा है। एक स्थिति की आवश्यकता है, क्योंकि एक स्थिति में अचानक तुम वास्तविक रूप से वही बन जाते हो जो भी तुम हो। यदि शब्द स्वीकार किए जाते, यदि डोक्यूंन बातचीत करते हुए उससे कहता-‘‘यह गलत है और यह ठीक है’’ तो मन की निरंतरता में सहायता करता है। तब वहां एक संवाद होगा लेकिन उसका कोई भी उपयोग नहीं होगा। वह एक आघात देता है, वह तुम्हें तुम्हारी वास्तविकता तक वापस लाता है। अचानक सभी विचार विलुप्त हो जाते हैं। यामूका, यामूका है, वह एक बुद्ध नहीं है। वह एक बुद्ध के समान बात कर रहा है और केवल एक चोट से ही बुद्ध विलुप्त हो जाता है और अंदर से क्रोधित यामूका बाहर आ जाता है।
डोक्यूंन ने कहा : जब इनमें से कोई भी चीज़ें-
वास्तव में अस्तित्व में नहीं हैं और सभी कुछ एक शून्यता है
तो तुम्हारा यह क्रोध कहां से आ रहा है?
इस बारे में विचार करना।
बुद्ध के बारे में बात मत करो, सत्य के बारे में बात मत करो और वास्तविकता के बारे में बात मत करो, इस क्रोध के बारे में विचार करोकि यह कहां से आता है?
यदि तुम वास्तव में क्रोध के बारे में सोच रहे हो कि वह कहां से आता है तो तुम शून्यता तक पहुंच जाओगे।
अगली बार जब तुम क्रोध का अनुभव करो अथवा यदि नहीं कर सकते तो मेरे पास आना। मैं तुम पर एक कठोर चोट करूंगा। मैं उसे दिए चले जाता हूं लेकिन डोक्यूंन की अपेक्षा मेरी चोटें कहीं अधिक सूक्ष्म हैं। मैं एक असली डंडे का प्रयोग नहीं करता, वह आवश्यक नहीं है; तुम इतने अधिक नकली हो कि एक असली डंडे की कोई भी आवश्यकता नहीं है। मुझे तुम्हें भौतिक रूप से चोट देने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन आत्मिक रूप से मैं उसे दिए चले जाता हूं। मैं ऐसी स्थितियां सृजित किए चले जाता हूं, जिनमें मैं तुम्हारे बुद्धत्व के मुखौटे से तुम्हें तुम्हारे यामूकापन में वापस लाने का प्रयास करता हूं, क्योंकि तुम्हारे अंदर वह यामूका ही वास्तविक है और बुद्ध होना केवल एक मुखौटा है। स्मरण रहे मुखौटे को नहीं यामूका को ही रहना है। मुखौटे को नहीं यामूका को ही श्वास लेनी है और मुखौटे को नहीं यामूका को ही भोजन पचाना है। मुखौटा नहीं यामूका ही प्रेम में पड़ेगा, यामूका ही क्रोधित होगा और यामूका को ही मरना भी है इसलिए अच्छा यही है कि तुम मुखौटे से मुक्त होकर अपने यामूकापन में ही वापस लौट आओ।
स्मरण रहे, बुद्ध एक मुखौटा नहीं बन सकता। यदि यामूका स्वयं ही अपने अंदर गहराई में चलता चला जाता है तो वहां बुद्ध को पालेगा और स्वयं के अंदर में कैसे जाना है? कोई भी संवेग जो अंदर से आता है, उसका अनुसरण करो और पीछा करते हुए वापस पीछे लौटो। क्या क्रोध आया है? अपनी आंखें बंद कर लो; यह एक सुंदर क्षण है क्योंकि क्रोध अपने अंदर से ही आया है, वह तुम्हारे अस्तित्व के प्रामाणिक केंद्र से आता है इसलिए ठीक अपने पीछे की ओर देखो, गतिशील होकर केवल देखो कि वह कहां से आ रहा है?
तुम सामान्य रूप से क्या करते? और यह यामूका क्या कर सका? उसने यदि विचार किया होता कि यह क्रोध इस डोक्यूंन के कारण ही उत्पन्न हुआ है क्योंकि उसने तुम्हें कठोरता से पीटा और इसी कारण क्रोध उत्पन्न हुआ था। तुमने डोक्यूंन की ओर एक स्रोत की भांति देखा होता। पर डोक्यूंन स्रोत नहीं है, यह हो सकता है कि उसने तुम पर कठोर प्रहार किया हो लेकिन वह स्रोत नहीं है, यदि उसने बुद्ध पर प्रहार किया था तो क्रोध नहीं आता, वह तो यामूका है।
लौटकर पीछे जाओ, स्रोत के लिए बाहर की ओर मत देखो, अन्यथा क्रोध का यह सुंदर क्षण खो जाएगा और तुम्हारा जीवन इतना अधिक नकली बन गया है कि एक क्षण के अंदर तुम फिर से अपने मुखौटे को पहन लोगे, तुम मुस्कराओगे और तुम कहोगे-‘‘जी हां! प्यारे सद्गुरु! आपने बहुत अच्छा कार्य किया।
नकली शीघ्र ही अंदर से आएगा, इसलिए उस क्षण से चूको मत। जब क्रोध आ गया है तो इससे पूर्व कि नकली आता है वह ठीक एक क्षणांश होता है। क्रोध सत्य है, वह जोकुछ तुम कह रहे हो, उसके अपेक्षा वह कहीं अधिक सत्य है और तुम्हारे मुंह से बुद्ध के कहे गए शब्द मिथ्या हैं। तुम्हारा क्रोध सत्य है क्योंकि वह तुमसे संबंध रखता है, वह सभी कुछ जो तुम्हारा अपना ही है, वह सत्य है। इसलिए इस क्रोध के स्रोत की ख्ल्लाज करो कि वह कहां से आ रहा है। अपनी आंखें बंदकर अपने अंतरस्थ की ओर गतिशील हो जाओ, वह खो जाए, इससे पूर्व पीछे लौटकर स्रोत तक जाओ और तुम शून्यता पर पहुंचोगे। अधिक पीछे लौटकर और अधिक अपने अंतरस्थ तथा अधिक अपनी गहराई में जाओ और एक क्षण आता है जब वहां कोई भी क्रोध नहीं होता है। अंदर केंद्र पर वहां कोई भी क्रोध नहीं है। अब बुद्ध एक चेहरा नहीं होगा और एक मुखौटा नहीं होगा। अब कोई वास्तविक चीज़ अंदर प्रविष्ट हो गई है।
यह क्रोध कहां से आता है? वह तुम्हारे केंद्र से कभी नहीं आता है, वह अहंकार से आता है और अहंकार एक मिथ्या सत्ता है। यदि तुम और गहराई में जाते हो तो तुम पाओगे कि वह केंद्र से न आकर परिधि से आता है। केंद्र पर परिपूर्ण शून्यता है इसलिए वह केंद्र से नहीं आ सकता है, वह अहंकार से आता है और अहंकार समाज के द्वारा निर्मित एक झूठी सत्ता है, वह एक पहचान और एक सापेक्षता है। अचानक तुम पर कठोर चोट होती है और अहंकार आघात लगने का अनुभव करता है और वहां क्रोध आता है। यदि तुम किसी व्यक्ति की सहायता करते हो, किसी व्यक्ति को देखकर मुस्कराते हो और नीचे झुककर किसी व्यक्ति को सम्मान देते हो अथवा उसकी चापलूसी करते हो, यदि तुम एक स्त्री से कहते हो-‘‘आप कितनी अधिक सुंदर हैं’’ और वह मुस्कराती है तो वह मुस्कान अहंकार से आ रही है क्योंकि केंद्र पर वहां न तो सुंदरता है और न कुरूपता है, केंद्र पर वहां परिपूर्ण शून्यता है, वहां कोई आत्मा भी नहीं है, अनत्ता है और उस केंद्र को ही पाना है।
एक बार तुम उसे जान लेते हो तो तुम एक अनस्तित्व की भांति गतिशील होते हो। तुम्हें कोई भी व्यक्ति क्रोधित नहीं बना सकता और तुम्हें कोई भी व्यक्ति प्रसन्न, अप्रसन्न और दुखी नहीं बना सकता। नहीं, उस शून्यता में सभी द्वैतताएं, प्रसन्नता-अप्रसन्नता, दुखी और आनंदित होना सभी मिट जाते हैं। यही बुद्धत्व है। यही है वह जो बोधि-वृक्ष के नीचे गौतम सिद्धार्थ को घटित हुआ था। वह शून्यता पर पहुंच गए थे। तब प्रत्येक चीज़ मौन हो जाती है। तुम विरोधों के पार चले जाते हो।
एक सद्गुरु तुम्हें तुम्हारे अंतरस्थ की शून्यता की ओर जाने में तुम्हारी सहायता करने के लिए होता है और सद्गुरु को उन विधियों की योजना बनानी होती है जो तुम्हें तुम्हारे अंतरस्थ के तीर्थ और मौन तक ले जाए। केवल ज़ेन सद्गुरु ही डंडे से पीटते हैं और कभी-कभी वे एक शिष्य को खिड़की के बाहर भी पेंफक देते हैं अथवा वे उस पर कूद पड़ते हैं क्योंकि तुम इतने अधिक नकली बन गए हो कि ऐसी तीव्र और प्रभावी विधियों की आवश्यकता होती है और विशेष रूप से जापान में क्योंकि जापान में सभी कुछ बहुत अधिक बनावटी और नकली है।
जापान में एक मुस्कान भी बनावटी है। प्रत्येक व्यक्ति मुस्कराता है, वह केवल एक आदत है और जहां तक समाज का संबंध है, वह एक सुंदर आदत है क्योंकि जापान में यदि तुम कार चलाते हुए टोकियो की सड़क पर एक व्यक्ति को टक्कर मारकर चोटिल कर देते हो तोकुछ ऐसी घटना घटित होगी जो अन्य कहीं और घटित नहीं हो सकती है : चोट खाने वाला व्यक्ति मुस्कराएगा और झुककर तुम्हें धन्यवाद देगा। अन्य कहीं भी न होकर ऐसा केवल जापान में ही हो सकता है। वह व्यक्ति कहेगा-‘‘यह मेरी ही गलती है’’ और तुम कहोगे-‘‘नहीं, यह मेरी गलती है।’’ यदि तुम दोनों जापानी हो तो दोनों ही कहेंगे-‘‘यह मेरी ही गलती है और दोनों ही एक-दूसरे के सामने झुकेंगे, मुस्कराएंगे और अपने रास्तों पर आगे चले जाएंगे। एक तरफ से यह अच्छा है क्योंकि एक-दूसरे पर नाराज होने और चीखने-चिल्लाने तथा भीड़ एकत्र कर लेने का क्या लाभ और उपयोग है?
प्रारंभिक बचपन से ही जापानियों को हमेशा मुस्कराते रहने का अनुशासन सिखाया जाता है और यही कारण है कि पश्चिम में उन लोगों के बारे में यह सोचा जाता है कि वे लोग बहुत धूर्त और चालाक हैं और तुम उन पर विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि तुम नहीं जानते कि वे लोग क्या अनुभव कर रहे हैं। तुम यह नहीं जानसकते कि एक जापानी क्या अनुभव करता है क्योंकि वह कभी भी किसी भी चीज़ को बाहर आने की अनुमति नहीं देता है।
यह एक पराकाष्ठा है कि प्रत्येक चीज़ नकली और झूठी है, उस पर रंग-रोगन लगाया गया है। इसलिए ज़ेन सद्गुरुओं को इन तीव्र और कठोर विधियों की योजना बनानी पड़ी क्योंकि केवल इनके द्वारा ही जापानी मुखौटे नीचे गिरते अन्यथा वे स्थाई रूपसे लगभग उनकी त्वचा बन गए हैं, जैसे मानो त्वचा के अंदर उनकी कलम लगा दी गई हो।
केवल जापान में ही नहीं, अब ऐसा ही पूरे संसार-भर में घटित हो रहा है। केवल डिग्रीज़ अर्थात मात्रा और तापमान का अंतर हो सकता है लेकिन अब पूरा संसार ही इसी तरह का है। प्रत्येक व्यक्ति हंसता है, मुस्कराता है, पर न तो हंसी असली है और न मुस्कान। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के बारे में अच्छी-अच्छी बातें कहता है पर कोई भी व्यक्ति उन पर विश्वास नहीं करता और न कोई भी व्यक्ति उस तरह से अनुभव करता है, वह एक सामाजिक शिष्टाचार बनकर रह गया है।
तुम्हारा व्यक्तित्व एक सामाजिक घटना है। तुम्हारी आत्मा, इस व्यक्तित्व के नीचे गहराई में दप़्ाफन है। तुम्हें एक चोट अथवा धक्के की आवश्यकता है जिससे तुम्हारे व्यक्तित्व को बाहर पेंफक दिया जाए अथवा कुछ क्षणों के लिए तुम उसके साथ और अधिक तादात्म्य न बना सको और अपने केंद्र पर पहुंच जाओ, जहां प्रत्येक चीज़ में शून्यता है।
ध्यान की पूरी कला ही यह है कि कैसे सरलता से व्यक्तित्व को छोड़कर केंद्र की ओर गतिशील हुआ जाए और एक व्यक्ति बनकर न रहा जाए। ध्यान की पूरी कला और अंतरस्थ के परमानंद की पूरी कला ही यही है कि एक व्यक्ति बनकर मत रहो और केवल होना भर रह जाओ।
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