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शनिवार, 10 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

समाज परिवर्तन के चैराहे पर-2


मेरे प्रिय आत्मन्!
पिछली चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। संक्षिप्त में सभी प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि समाज के परिवर्तन में, और परिवर्तन के लिए युवक-वर्ग क्या कर सकता है?

पहली बात, जो युवक वर्ग को करनी है, और कर सकता है, वह है युवक होने की। इस देश में युवक मुश्किल से कोई कभी होता है। बच्चे होते हैं, बूढ़े होते हैं, युवक कोई भी नहीं होता है। और हमने ऐसी व्यवस्था की है कि बचपन से सीधा बुढ़ापा आ जाता है, युवा अवस्था नहीं आ पाती है। उसे हम टाल जाते हैं।
युवक होने का मतलब क्या है?
युवक होने का मतलब उम्र से नहीं है, और इसलिए कोई आदमी बूढ़ा होकर भी युवक हो सकता है। और कोई युवक होकर भी बूढ़ा हो सकता है।

पहला कर्तव्य तो यह है युवक का कि वह सिर्फ उम्र से युवक न हो, चित्त से युवक हो। और भारत के युवक ने वह कर्तव्य अब तक पूरा नहीं किया है। युवा मन के कुछ लक्षण हैं। जैसे युवा मन पीछे की तरफ नहीं देखता, आगे की तरफ देखता है।
जैसे युवा मन स्मृतियों में समय व्यतीत नहीं करता, योजनाओं में शक्ति लगाता है। जैसे युवा मन, स्वर्ग की, मोक्ष की, परलोक की नहीं सोचता, पृथ्वी को बदलने का विचार करता है। इस देश के सारे धर्म चूंकि वृध्द हैं और वृध्द ने इसे निर्मित किए हैं, इसलिए कोई भी धर्म इस पृथ्वी को बदलने का खयाल नहीं करते।
हमारे देश में एक भी धर्म ऐसा पैदा नहीं हो सका, जो इस पृथ्वी को रूपांतरित करने की कल्पना करता है। इस देश के सभी धर्म कहते है, इस पृथ्वी को छोड़ना है, जन्म को छोड़ना है, जीवन को छोड़ना है, सब छोड़ कर, आवागमन से मुक्ति पानी है। दुख है जीवन में। तो बूढ़ा चित्त कहेगा, भाग जाओ जीवन से, युवा चित्त कहेगा कि दुख को बदलें, इतना फर्क होगा। अगर इस मकान में आग लगी है, तो बूढ़ा चित्त कहेगा कि इस मकान से दूर निकल जाओ। युवा चित्त कहेगा, इस आग को बुझाना है, भाग नहीं जाना है।
इस देश में हम निरंतर ही, भागने की, ऐस्केप की, पलायन की बात सोचते रहे हैं।
वह हमारे पुराने चित्त का लक्षण था। युवक को उससे बचना पड़ेगा। उसे इस पृथ्वी को बदलने की चिंता करनी पड़ेगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि इस जीवन के बाद कोई जीवन नहीं है। लेकिन इस जीवन के बाद कोई जीवन है, उसे भी युवा चित्त ही पा सकता है। उसे बूढ़ा चित्त नहीं पा सकता है। और इस जीवन के पार जो जीवन है, जिन्होंने इस जीवन को निर्मित नहीं किया, वे उस जीवन को भी निर्मित नहीं कर सकेंगे। सीढ़ी है यह जीवन, यह व्यर्थ और अकारण नहीं है। परमात्मा की इस विराट योजना में, यह जीवन अकारण नहीं है। लेकिन साधु-संत और महात्मा यही समझा रहे है कि परमात्मा की कोई भूल हो गई है। और हमें इस जीवन से बचने की कोशिश करनी है।
यह जीवन एक सीढ़ी है, उस जीवन के लिए। शरीर एक सीढ़ी है, आत्मा के लिए, संसार एक सीढ़ी है, परमात्मा के लिए। लेकिन कुछ हमारी परम्परा उस सीढ़ी को मिटा डालने को उत्सुक हैं। वह कहती हैं, यह सीढ़ी नहीं चाहिए। हम बिना सीढ़ी के सीधे ऊपर पहुंच जाना चाहते हैं। सीढ़ी टूट जाती हैं, ऊपर तो नहीं पहुंचते। फिर सीढ़ी पर भी नहीं पहुंच पाते, सीढ़ी से नीचे तड़फते रह जाते हैं।
युवा चित्त को पलायनवादी, जो हमारे देश की पुरातन धारा हैं, उसे तोड़ देना पड़ेगा। और उसे तोड़ने को एक सूत्र हमें समज लेना चाहिए। यह हमारी पूरी परम्परा जीवन निषेध की है, लाइफ निगेटिव हैं। यह जीवन का निषेध करती हैं। बूढ़ा चित्त जीवन का निषेध करता है--बूढ़ा आदमी नहीं कह रहा हूं, बूढ़ा चित्त। बूढ़ा चित्त जीवन का निषेध करता हैं। वह ऐसा नहीं होता हैं, जैसा कि सुना हो ईसप की कहानी--एक लोमड़ी अंगूर के बगीचे से निकली। अंगूर के झुपकोंका निमंत्रण मिल रहा हैं और उसने छलांग लगाई, लेकिन झुपके दूर हैं। बहुत कोशिश की है, लेकिन झुपकोंका तक नहीं पहुंच सकी हैं और तभी झाड़ी के पास से एक खरगोश ने पूछा है कि मौसी, क्या बात हैं? अंगूरों तक पहुंच नहीं पा रही हैं! वह थकी लोमड़ी अकड़ कर खड़ी हो गई और उसने कहा, मैं और अंगूरों तक न पहुंच पाऊं? लेकिन अंगूर खट्टे हैं, पहुंचने योग्य नहीं हैं।
यह बूढ़ा चित्त है, जो अपने अहंकार को भी बचा लेता है, नहीं पहुंच पाने की क्षमता को भी छिपा लेता है, और फिर जहां नहीं पहुंच पाता, वहां हम पहुंचना ही नहीं चाहते हैं, इसलिए उस जगह की निंदा में रस हो जाता है। इस देश के युवक को, इस बूढ़े चित्त से बचना पड़ेगा। बड़ा काम है बूढ़े चित्त से बचना और बहुत कठिन काम भी हैं। बहुत कठिन काम है--युवा होना चैबीस घंटे खतरे में जीना है, बूढ़ा होना सुरक्षा में जीना है। इसलिए जो आदमी सुरक्षा के लिए आतुर होता है, वह बूढ़ा हो जाता है। जो खतरे में जीने की तैयारी रखता है, वह युवा रह पाता है। जैसे कोई तलवार म्यान में रख दे तो जंग खाती है, खाली जाएगी, सुरक्षित म्यान में रखी-रखी जंग खा जाएगी। तलवार को जिन्दा रहना हो और धार बचानी हो तो उसे युद्ध में होना चाहिए, चैबीस घंटे खतरे में। चित्त भी तभी युवा रहता है, जब चैबीस घंटे खतरे में जीता है। लेकिन हमारे देश में खतरे में कोई जीना नहीं चाहता है।
युवा आदमी भी इस फिकर में लगता है कि कैसे बिना खतरे के जिंदगी बीत जाए। बिना खतरे से जिंदगी बिताने का मतलब है कि फिर जिंदगी कुनकुनी, ल्युकवार्म होगी। फिर जिंदगी ऐसी होगी, मरी-मरी होगी।
सुना है मैंने कि एक सम्राट ने अपनी सुरक्षा के लिए एक महल बनाया और उस महल को एक ही दरवाजा रखा ऐसा, ताकि कोई चोर, कोई हत्यारा, कोई डाकू महल में प्रवेश न कर जाए। पड़ोस का सम्राट उसके महल को देखने आया। देख कर प्रसन्न हुआ और उसने कहा कि अदभुत है महल। ऐसी सुरक्षा मुझे भी चाहिए। मैं भी ऐसा ही महल बनाऊंगा--एक ही द्वार है, फिर न कोई द्वार है, न कोई खिड़की है, और उस द्वार पर हजारों सैनिकों का पहरा है। आप बिलकुल सुरक्षित हैं, सिक्योर्ड हैं, आपकी जिंदगी में खतरा नहीं है। भवनपति प्रसन्न हुआ है, प्रशंसा सुन कर। मित्र सम्राट को द्वार पर छोड़ने आया है। फिर दुबारा उस मित्र से सम्राट ने कहा कि आप बड़े अदभुत विचार के आदमी हैं। इतना सुरक्षित भवन बनाया, मैं भी बनाऊंगा। जब यह कह रहा है, तभी सड़क के किनारे बैठा एक भिखारी हंसने लगा है।
वे दोंनों युवक हैं--वह सम्राट जिसने मकान बनाया है, वह सम्राट जो विदा हो रहा है। वह भिखारी बूढ़ा है। वह जोर से हंसने लगा है। उस मकान के मालिक ने कहा, क्यों हंस रहे हो? क्या भवन में कोई भूल रह गई है? उस वृद्ध भिखारी ने कहा, मैं यहीं बैठा हुआ, इस मकान को बनता देख रहा हूं। आज आप सामने दिखाई पड़ गए है तो पूछ पड़े--कह दूं, एक भूल रह गई है। सम्राट ने कहाः बोलो, कौन सी भूल है? उसे हम ठीक कर देंगे। उस भिखारी ने कहाः वह जो एक दरवाजा है, आप भीतर हो जाएं और उसको भी बंद कर लें। फिर आप पूरी तरह सुरक्षित हो जाएंगे। अभी खतरा है। इस एक दरवाजे से भी दुश्मन भीतर जा सकता है। और दुश्मन न भी जा सके, तो मौत तो इस दरवाजे से भीतर चली ही जाएगी। आप बंद कर लें इसें, पत्थरों से जुड़वा दें और स्वयं भीतर हो जाएं, फिर मौत भी भीतर न जा सकेगी।
उस सम्राट ने कहाः तुम बड़े पागल मालूम होते हो। अगर मैं एक दरवाजा और बंद कर दूंगा तो मौत के आने की जरूरत न रह जाएगी, मर ही जाऊंगा। यह मकान नहीं, कब्र हो जाएगा। उस बूढ़े ने कहाः कब्र तो यह हो गया है, थोड़ी सी कमी है, इस दरवाजे की। सम्राट को बात तो खयाल में आई। उसने उस बूढ़े फकीर से कहा, तुम आखिर हो कौन? उस बूढ़े फकीर ने कहाः कभी इसी तरह के कपड़े में रहने के हम आदी थे। लेकिन जब यह पता चला कि जितने दरवाजे बंद होते चले जाते हैं जिंदगीमें उतनी कब्र बन जाती हैं जिंदगी, तो हमने सब दरवाजे ही तोड़ डाले, हमने सब दीवालें ही हटा डालीं। अब हम खुले आकाश के नीचे ही रहते हैं। खतरे हैं बहुत, लेकिन जिंदगी भी है बहुत।
युवा चित्त खतरे में जीने का नाम है।
युवक के सामने एक ही कत्र्तव्य है, सुरक्षा से बचें। सुरक्षा हमें खायगा ही। सुरक्षा के कारण हम नयें की खोज नहीं कर पाते। क्योंकि सुरक्षा सदा पुराने के साथ होती है। नयें में सदा भूल-चूक हैं, नये में सदा असफलता हैं। नया पुराने के बराबर प्रमाणित होगा या नहीं होगा, यह सदा डर हैं। नयें से कहीं पहुंचेंगे, नहीं पहंुचेंगे, यह भय है। नये का डर, नये का भय, हमें पुराने के साथ की उपलब्धता है। सुरक्षा पुराने को पकड़ा देती है और नये से--इसलिए हम नया अविष्कार न करेंगे, नई खोज न करेंगे, जिन्दगी के लिए नये नीयम न निकालेंगे, जीवन के संबंधो में नये संबंध स्थापित न करेंगे। पुरानी लीक को पकड़ेंगे और चलेंगे।
बूढ़ा चित्त पुरानी लीक पर चलने वाला चित्त है। भटकता नहीं कभी, भूलता नहीं कभी, लेकिन जीता भी नहीं कभी। भटकन भी चाहिए, भूल भी चाहिए, असफलता भी चाहिए। ध्यान रहे, जो असफल होने की हिम्मत जुटाते हैं, उनके ही सफल होने की संभावना भी है। जो असफलता से बच जाते हैं वे सफलता से भी बच जाते हैं। ये दोनों चीजें साथ हैं। जो भूल नहीं करते हैं, वे कभी ठीक भी नहीं कर पाते हैं। और जो भूल करने की हिम्मत जुटाते हैं, उनमें कभी ठीक भी हो सकता है।
तो मैं इतना ही कहंूगा संक्षिप्त में कि युवक युवक होने की फिकर करे! इतना ही काफी है। इस फिकर में सब आ जाएगा।

एक दूसरे मित्र ने पूछा हैः उन्होंने पूछा हैं कि विश्वास नहीं करना चाहिए, आपने कहा, विचार करना चाहिए, और आपने गंगा और अमेजान के उदाहरण दिए हैं। उन मित्र ने पूछा है कि गंगा और अमेजान भी तो समुद्र पर विश्वास करके समुद्र तक जाती हैं। अगर उनको विश्वास ही न हो कि समुद्र है, तो वे समुद्र की तरफ जाएंगी कैसे? तो हम भी विश्वास करके ही जा सकेंगे, अन्यथा जाएंगे कैसे?

इस बात को थोड़ा ठीक से समझना उचित होगा। अमेजान और गंगा समुद्र के विश्वास के कारण समुद्र तक नहीं जाती। अमेजान और गंगा अपने अति बल के कारण समुद्र तक जाती हैं, नहीं तो छोटे-मोटे नाले भी विश्वास करके सागर तक पहुंच जाएंगे। अति बल है, प्रवाह है, शक्ति है, वह शक्ति सागर तक ले जाती है। कोई विश्वास नहीं हैं अमेजान को कि सागर है कहीं। पता ही नहीं है, तो विश्वास कैसे होगा? और अमेजान के पास कोइ शास्त्र भी नहीं हैं जो पुरानी नदियों ने लिखे हों और पुराने गुरु छोड़ गए हों, जिस पर वे भरोसा कर लें। पुरानी नदियों ने लौट कर भी नहीं बताया है, नई नदियों को कि सागर है! जो गई हैं, वह तो सागर में चली गई, उनके पास कोई परंपरा भी नहीं है, विश्वास का कोई उपाय नहीं है। अमेजान जाती है, अपने भीतर की ओवरफ्लोइंग, भीतर-ए-ताकत, वह सागर तक ले जाती है।
आदमी भी विश्वास से नहीं पहुंचता परमात्मा तक, पहुंचता है ओवरफ्लोइंग एनर्जी से।
उसके भीतर भी अतिरेक में बहती हुई शक्ति चाहिए, और जब कोई भी व्यक्ति अतिरेक में बहता है तो सागर तक पहुंच जाता है। सागर का कोई कृपा नहीं है उस पर। अतिरेक और बहाव सागर में अनिवार्य रूप सें ले जाते हैं। और जो आदमी विश्वास करता है, पहली बार, जो आदमी विश्वास करता है, उसमें शक्ति का अभाव होता है। असल में इंपोटेंसी ही विश्वास करती है। कारण हैं उसके। क्लीवता विश्वास करती है। क्योंकि ध्यान रहे, दूसरे में विश्वास अपने में विश्वास की कमी का द्योतक है।
असंदिग्ध रूपेण विश्वास आत्म-विश्वास की कमी का प्रमाण है।
जिस आदमी को अपने में जितना कम विश्वास है, उतना वह दूसरों में ज्यादा विश्वास करता है। और जिस आदमी को अपने पर पूरा विश्वास है, उसे दूसरे में विश्वास की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अपने में विश्वास और बात है, दूसरे में विश्वास और बात है। और अपने में विश्वास करना नहीं पड़ता कि आप कोशिश करके करेंगे। अगर कोशिश करके करेंगे तो वह झूठ होगा। जो आदमी अपने में कोशिश करके विश्वास करेगा, दो बातें तय हो गयीं--एकः मूलतः उसको अपने में अविश्वास है। तब तो उसे कोशिश करनी पड़ रही है। कोशिश करके विश्वास कर लेता है। और जिसको अपने में अविश्वास था उसका अपने पर विश्वास से कितना बलवान हो सकता है? नहीं, कोई बलवान नहीं होगा, सिर्फ ऊपर से लेबल चिपका हुआ लेबल होगा, जो जरा में फाड़ा जा सकता है। स्किन-डीप भी नहीं होगा, जरा चमड़ी उखाड़ी और सब बह जाएगा।
हम दूसरे में विश्वास इसलिए कर रहे हैं। कोई बुद्ध में, कोई महावीर में, कोई राम में, कोई मोहम्मद में, कोई कृष्ण में--इसमें राम, बुद्ध, कृष्ण का कोई कसूर नहीं है, हम कमजोर हैं। हमें डर लगता है कि अकेले में खड़े न हो सकेंगे, तो किसी का सहारा लेकर खड़े हो जाएं। डर लगता है, के अपने में तो विश्वास न कर सकेंगे, किसी और में कर लें। यह और में विश्वास सब्स्टीट्यूट है, यह अपने में विश्वास की कमी को भरने का उपाय है, लेकिन भरती नहीं है कमी, भर सकती नहीं है। किसी दूसरे का विश्वास आत्म-विश्वास को बढ़ा नहीं सकता है, घटाता चला जाएगा। और घटाता चला जाएगा।
यह जो मैंने कहा है कि विश्वास मत करें, यह नहीं कहा है कि अपने में विश्वास मत करें। असल में अपने में विश्वास का सवाल नहीं है, अपने को पहचानें। उस पहचान में शक्ति आएगी। उस शक्ति से भरोसा आएगा, उस भरोसे से श्रद्धा जन्मेगी, वह करनी नहीं पड़ेगी।
एक बच्चे को अपने पैर में विश्वास नहीं करना होता है। चलना होता है, चलने से विश्वास आ जाता है कि पैर है और चलते हैं। एक बच्चे को पहले यह नहीं सीखना पड़ता है कि मैं अपने पैर में विश्वास करूं, तब चल सकूंगा। चलता है, तो विश्वास आता है, क्योंकि चलना बता देता है कि मेरे पैर चलते हैं, पहले से विश्वास करके नहीं चलता। विश्वास करके चल भी नहीं सकता। हां, कोई लंगड़ा हो तो वह पहले विश्वास करेगा। चलूंगा, चल कर बताऊंगा, और तब पाएगा, पहले कदम से कि गिर पड़ा है और विश्वास सब खंडित हो गया है। तब वह दूसरे पर विश्वास करेगा, कोई और चला देगा। भगवान की कृपा से, लंगड़े-लूले भी पहाड़ चढ़ जाते हैं! शास्त्र पढ़ेगा, सोचेगा, चलो भगवान की कृपा से चढ़ जाएंगे, चलने से भरोसा आता है।
जब मैंने कहा कि विचार करो, तो जितना आप विचार करेंगे उतना आत्म-विश्वास आएगा। क्योंकि जितना आप विचार करने में समर्थ होंगे, उतना, जैसा बच्चे को चलने में विश्वास आता है, आपको अपनी आत्मा में विश्वास आएगा। वह विश्वास, वह बहती हुई शक्ति, सागर तक ले जाती है। सागर तक पहुंचने का सवाल नहीं है, सागर तक पहुंच ही जाएंगे। सिर्फ इतनी शक्ति होनी चाहिए कि बह सकें और देखें।
नदी को, अगर सागर तक पहुंचने का मार्ग समझेंगे, कुछ पता नहीं, कहीं कोई रास्ते पर मील के पत्थर नहीं लगे हैं नदी के लिए, कि जब यहां से जाओ, बाएं मुड़ो, चैरस्तों पर पुलिसवाले नहीं खड़े हैं, कि बताएं कि सागर पूरब की तरफ है, कहां पश्चिम की तरफ भागी जा रही हो? नदी भागती है! भागती है! अनजान, अपरिचित रास्तों को तोड़ती भागती चली जाती है। जहां रास्ता मिलता है, बनता है, भागती चली जाती है और पहले से बना हुआ कोई रास्ता नहीं है कि तैयार है, उस पर से पहुंच जाए। रेल की पटरी थोड़े ही है नदी कि रेल की पटरी बनी है तैयार, रेल के डिब्बे दौड़ रहे हैं!
आदमी नदियों जैसा नहीं है, रेल के डिब्बों जैसा हो गया है, होना नदियों जैसा चाहिए। बंधी हुई पटरियां है, हिंदुओं की रेल की पटरी बंधी है, मुसलमानों की पटरी बंधी है। दौड़ रहे हैं डिब्बे। जरा सी भी पटरी इधर-उधर हो जाती, तो डिब्बे टकरा जाते हैं, हिंदू-मुस्लिम दंगे हो जाते हैं। फिर डिब्बे में बैठ कर अपनी-अपनी पटरियों में सवार हो जाते हैं, और दुगनी ताकत से अपनी पटरी को पकड़ लेते हैं।
लेकिन, नदियां ऐसे नहीं जा रही हैं। बंधी हुई लीक नहीं है वहां। सागर का कोई पता नहीं है। अपना भरोसा है सिर्फ। असल में अगर हम ठीक से समझें तो नदी अपने भरोसे बढ़ते-बढ़ते सागर हो जाती है, यह कोई सागर की खोज में नहीं जाती। आदमी भी अपने पर भरोसा रखें, बढ़ते-बढ़ते परमात्मा हो जाता है। परमात्मा को खोजने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। आदमी ही अपने भरोसे बढ़ते-बढ़ते एक दिन अचानक पाता है कि मैं आदमी नहीं हूं, मैं तो सागर हो गया हूं। यह भरोसा नहीं है, विश्वास नहीं है पहले से किया गया, यह बिलीफ नहीं है। एक दिन यह ज्ञान बन जाता है। विचार से जो चलता है, वह ज्ञान तक पहुंच जाता है। विश्वास से जो चलता है, वह अज्ञान में सदा के लिए ठहर जाता है। क्योंकि विश्वास चलाता ही नहीं हैं, विश्वास चला ही नहीं सकता। विश्वास में कोई गति ही नहीं है ।

एक मित्र ने पूछा हैः चमत्कारों के संबंध में आपका क्या खयाल है?

चमत्कार शब्द का हम प्रयोग करते हैं, तो साधु-संतों का खयाल आता है। अच्छा होता कि पूछा होता कि मदारियों के संबंध में आपका क्या खयाल है? दो तरह के मदारी हैं--एकः जो ठीक ढंग से मदारी है, आनेस्ट। वे सड़क के चैराहों पर चमत्कार दिखाते हैं। दूसरेः ऐसे मदारी हैं, डिसआनेस्ट, बेईमान! वे साधु-संतों का वेश सिद्ध करके, वही चमत्कार दिखलाते हैं, जो चैरस्तों पर दिखाए जाते हैं। ईमानदार मदारी तो स्वागत योग्य है, क्योंकि उसकी एक कला है। बेईमान मदारी सिनर है, अपराधी है, क्योंकि मदारीपन के आधार पर, वह कुछ और मांग कर रहा है।
अभी मैं पिछले वर्ष एक गांव में था। एक बूढ़ा आदमी आया। मित्र लेकर आए थे, उन्होंने कहा कि आपको कुछ काम दिखलाना चाहते हैं। मैंने कहा, दिखाएं। उस बूढ़े आदमी ने बडें अदभुत काम दिखलाए। रुपयों को मेरे सामने फेंका, वह दो फीट ऊपर जाकर हवा में विलीन हो गया। फिर पुकारा, वह दो फीट पहले हवा में प्रकट हुआ, हाथ में आ गया। मैंने उस बूढ़े आदमी से कहा, बड़ा चमत्कार करते हैं आप। उसने कहा, नहीं, यह कोई चमत्कार नहीं है। सिर्फ हाथ की तरकीब है। मैंने कहा, तुम पागल हो! सत्य साईंबाबा हो सकते थे, क्या कर रहे हो? क्यों इतनी सच्ची बात बोलते हो? इतनी ईमानदारी इस युग में उचित नहीं है। लाखों लोग तुम्हारे दर्शन करते। तुम्हें मुझे दिखाने न आना पडता, मैं ही तुम्हारे दर्शन करने आता।
वह बूढ़ा आदमी कहने लगा, चमत्कार कुछ भी नहीं है। सिर्फ हाथ की तरकीब है। उसने सामने ही--कोई मुझे मिठाई भेंट कर गया था--एक लड्डू उठा कर मुंह में डाला, चबाया, पानी पी लिया। फिर उसने कहा कि नहीं, पसंद नहीं आया। फिर उसने पेट जोर से खींचा पकड़ कर, लड्डू को वापस निकाल कर सामने रख दिया। मैंने कहा, अब तो पक्का ही चमत्कार है। उसने कहा कि नहीं। अब दुबारा आप कहिए, तो मैं न दिखा सकूंगा, क्योंकि लड्डू छिपा कर आया और वह लड्डू पहले मैंने ही भेंट भिजवाएं थें। इसके पहले जो दे गया है, अपना ही आदमी है।
मगर यह ईमानदार आदमी है, एक अच्छा आदमी है। यह मदारी समझा जाएगा। इसे अगर कोई संत समझता तो बुरा न था, कम से कम सच्चा तो था। लेकिन मदारियों की जमात हैं, और वह कर रहे हैं यही काम। कोई राख की पुड़िया निकाल रहा है, कोई ताबीज निकाल रहा है, कोई स्विस मेड घड़ियां हवा से निकाल रहा है। और छोटे, साधारण जन नहीं हैं--जिनको हम साधारण नहीं कहते हैं, गवर्नर हैं, वाइस चांसलर हैं, हाईकोर्ट के जजेस हैं, वह भी ईन मदारियों के आगे हाथ जोड़े खड़े हैं। इससे सिर्फ एक पता चलता है कि हमारे जजेस, हमारे वाइस चांसलर, हमारे गवर्नर भी ग्रामीण से ऊपर नहीं उठ सके हैं। उनकी बुद्धि भी साधारण ग्रामीण आदमी से ज्यादा नहीं। फर्क इतना है कि ग्रामीण आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं है, उनके पास सर्टिफिकेट हैं। ये सर्टिफाइड ग्रामीण हैं।
यह चमत्कार--इस जगत में चमत्कार जैसी चीज सब में होती नहीं, हो नहीं सकती। इस जगत में जो भी होता है, नियम से होता है। हां, यह हो सकता है, नियम का हमें पता न हो। यह हो सकता है कि कार्य, कारण का हमें बोध न हो। यह हो सकता है कि कोई लिंक, कोई कड़ी अज्ञात हो, जो हमारी पकड़ में नहीं आती, इसलिए बाद की कड़ियों को समझना बहुत मुश्किल हो जाता है।
बाकू में--उन्नीस सौ सत्रह के पहले, जब रूस में क्रांति हुई थी--उन्नीस सौ सत्रह के पहले, बाकू में एक मंदिर था। उस मंदिर के पास प्रति वर्ष एक मेला लगता था। वह दुनिया का सबसे बड़ा मेला था। कोई दो करोड़ लोग वहां इकट्ठे होते थे। और बहुत चमत्कार की जगह थी वह, वह जो मंदिर की रेती थी, वह अग्नि का मंदिर था और एक विशेष दिन को, एक विशेष घड़ी में, उस अग्नि के मंदिर में, अपने आप अग्नि उत्पन्न होती थी। वेदी पर अग्नि की लपटें प्रकट हो जाती थीं। लाखों लोग खड़े होकर देखते थे। कोई धोखा न था, कोई जीवन न था, कोई आग जलाता न था, कोई वेदी के पास जाता न था। उस वेदी पर अपने आप अग्नि प्रकट होती थी, चमत्कार भारी था। सैकड़ों वर्षों से पूजा होती थी, भगवान प्रकट होते, अग्नि के रूप में अपने आप!
फिर उन्नीस सौ सत्रह में वहां क्रांति हो गई। जो लोग आए, वह विश्वासी न थे, उन्होंने मड़िया उखाड़ कर फेंक दी और गड्ढे खोदे। पता चला, वहां तेल के गहरे कुएं हैं--मिट्टी के तेल के। मगर फिर भी यह तो बात साफ हो गई कि मिट्टी के तेल के घर्षण से भी आग पैदा होती है, लेकिन खास दिन ही होती थी। तब तो और खोज-बीन करनी पड़ी, तो पता चला कि जब पृथ्वी एक विशेष कोण पर होती है, अपने झुकाव के, तभी नीचे के तेल में घर्षण हो पाता है। इसलिए निश्चित दिन पर प्रतिवर्ष वह आग पैदा हो जाती है। जब यह बात साफ हो गई, तब वहां मेला लगना बंद हो गया। अब भी वहां आग पैदा होती है, लेकिन अब कोई इकट्ठा नहीं होता है। क्योंकि कार्य, कारण पता चल गया है, बात साफ हो गई है। अग्नि देवता अब भी प्रकट होते हैं, लेकिन वह केरोसिन देवता होते हैं, अब वह अग्नि देवता नहीं रह गए! चमत्कार जैसी कोई चीज नहीं होती। चमत्कार का मतलब सिर्फ इतना ही होता है कि कुछ है जो अज्ञात है, कुछ है जो छिपा है, कोई कड़ी साफ नहीं है, वह हो रहा है।
एक पत्थर होता है अफ्रीका में, जो पानी को, भाप को पी जाता है, पोरस होता है, थोड़े से उसमें छेद होते हैं, वह भाप को पी लेते हैं। तो वर्षा में वह भाप को पी जाता है, काफी भाप को पी जाते हैं। उस पत्थर का पोरस होना दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन वह स्पंजी है। उसकी मूर्ति बन जाती है। वह मूर्ति जब गर्मी पड़ती है, जैसे सूरज से अभी पड़ रही है, उसमें से पसीना आने लगता है। उस तरह के पत्थर और भी दुनिया में पाए जाते हैं। पंजाब में एक मूर्ति है, वह उसी पत्थर की बनी हुई है। जब गर्मी होती है, तो भक्तगण पंखा झलते हैं, उस मूर्ति को, कि भगवान को पसीना आ रहा है। और बड़ी भीड़ इकट्ठी होती है, क्योंकि बड़ा चमत्कार है--पत्थर की मूर्ति को पसीना आए!
तो जब मैं उस गांव में ठहरा था, तो एक सज्जन ने मुझे आकर कहा कि आप मजाक उड़ाते हैं। आप सामने देख लीजिए चल कर। भगवान को पसीना आ रहा है। और आप मजाक उड़ाते हैं! आप कहते है, भगवान को सुबह-सुबह दतौन क्यों रखते हो, पागल हो गए हो? पत्थर को दतौन रखते हो? पागल हो गए हो! कहते हो, भगवान सोएंगे, अब भोजन करेंगे। जब उनको पसीना आ रहा है, तो बाकी सब चीजें भी ठीक हो सकती हैं। वह ठीक कह रहा है, उसे कुछ पता नहीं है, कि वह जो पत्थर है, पोरस है। वह भाप को पी जाता है, गर्मी पड़ती है, उसमें से पसीना निकलता है। जिस ढंग से आप में पसीना बह रहा है, उसी ढंग से उसमें भी बहने लगता है। आप में भी पसीना कोई चमत्कार नहीं है। आपका शरीर पोरस है, तो वह पानी पी जाता है, और जब गर्मी होती है, तो शरीर की अपनी एअरकंडीशनिंग की व्यवस्था है। वह पानी को छोड़ देता है, ताकि पानी भाप बन कर उड़े, और शरीर को ज्यादा गर्मी न लगे। वह पत्थर भी पानी पी गया है। लेकिन जब तक हमें पता नहीं है, तब तक बड़ा मुश्किल होता है। फिर इस संबंध में, जिस वजह से उन्होंने पूछा होगा, वह मेरे खयाल में है। दो बातें और समझ लेनी चाहिए।
एक तो यह कि चमत्कार संत तो कभी नहीं करेगा! नहीं करेगा, क्योंकि कोई संत आपके अज्ञान को न बढ़ाना चाहेगा और कोई संत आपके अज्ञान का पोषण न करना चाहेगा। संत आपके अज्ञान को तोड़ना चाहता है, बढ़ाना नहीं चाहता। और चमत्कार दिखाने से होगा क्या? और बड़े मजे की बात है, क्योंकि हम कभी पूछते नहीं कि जो लोग राख कि पुड़िया निकालते हैं, आकाश से ताबीज गिराते हैं, इन सबको कहना चाहिए कि काहे को मेहनत कर रहे हैं, राख की पुड़िया से किसका पेट भरेगा? एटामिक भट्टियां आकाश से उतारो, कुछ काम होगा! जमीन पर उतारो, गेहूं उतारो--गेहूं के लिए अमरीका के हाथ जोड़ो! और असली चमत्कार हमारे यहां हो रहे हैं। तो गेहंू क्यों नहीं उतार लेते हो? राख की पुड़िया से क्या होगा, गेहूं बरसाओ!
जब चमत्कार ही कर रहे हो, तो कुछ ऐसा चमत्कार करो कि मुल्क का कुछ हित हो सके। सबसे ज्यादा गरीब मुल्क है दुनिया का, और सबसे ज्यादा चमत्कार यहां हो रहा है! धन बरसाओ, सोना बरसाओ, मिट्टी को सोना बना दो। चमत्कार ही करने हैं तो कुछ ऐसे करो। स्विस मेड घड़ी चमत्कार में निकले, तो क्या फायदा होगा? कम से कम मेड इन इंडिया तो निकालो। तो क्या होने वाला है? मदारीगिरी से होगा क्या? कभी हम सोचें कि हम इस पागलपन में किस भ्रांति में भटके हैं?
पिछले दो ढाई हजार वर्षों से, इन्हीं पागलों के चक्कर में लगे हुए हैं। और हम कैसे लोग हैं कि हम यह नहीं पूछते कि माना कि आपने राख की पुड़िया निकाल ली, अब क्या मतलब है, होना क्या है? चमत्कार किया, बिलकुल चमत्कार किया, लेकिन राख की पुड़िया से होना क्या है? कुछ और निकालोें, कुछ काम की बात निकालो। वह कुछ निकल सकती नहीं! नहीं, तो यह मुल्क दीन क्यों हो, दरिद्र क्यों हो? यहां तो एक चमत्कारी संत पैदा हो जाए, तो सब ठीक हो जाए!
एक हजार साल गुलाम रहे थे, और यहां ऐसे चमत्कारी पड़े हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। गुलामी की जंजीरें नहीं कटतीं। ऐसा लगता है कि अंग्रेज के सामने चमत्कार नहीं चलता। चमत्कार के लिए हिंदुस्तानी होना जरूरी है क्योंकि अगर खोपड़ी में थोड़ा भी विचार चलता हो, तो चमत्कार के कटने का डर रहता है। तो जहां विचार बिलकुल न चलता हो वहा चमत्कार ही हो। सब से बड़ा चमत्कार यह नहीं है कि लोग चमत्कार कर रहे हैं। सबसे बड़ा चमत्कार यह है कि हम खुद भी होते हुए चमत्कार देख रहे हैं, देखे चले जा रहे हैं और घरों में बैठ कर चर्चा कर रहे हैं कि चमत्कार हो रहा है! और कोई इन चमत्कारियों की जाकर गर्दन नहीं पकड़ लेता कि जो खो गई घड़ी है, उसको बाहर निकलवा ले, कि क्या मामला है, क्या कर रहे हो? वह नहीं होता है।
हम हाथ पैर जोड़ कर खड़े...उसका कारण है! हमारे भीतर कमजोरियां है। जब राख की पुड़िया निकलती है तो हम सोचते हैं कि भई, शायद और भी कुछ निकल आए, पीछे। राख की पुड़िया से कुछ होने वाला नहीं है न, आगे कुछ और संभावना बनती है। आशा बंधती है। और कोई बीमार है, किसी को नौकरी नहीं मिली है, किसी की पत्नी मर गई है, किसी का किसी से प्रेम हो गया है, किसी का मुकदमा चल रहा है, सबकी तकलीफें हैं। तो लगता है, जो आदमी ऐसा कर रहा है, अपनी तकलीफ भी कुछ कम कर रहा है। दौड़ो इसके पीछे।
बीमारी, गरीबी, परेशानी, उलझनें कारण हैं कि हम चमत्कारियों के पीछे भाग रहे हैं। कोई धार्मिक जिज्ञासा कारण है? धार्मिक जिज्ञासा से इसका कोई संबंध नहीं है। धार्मिक जिज्ञासा से इसका कोई वास्ता नहीं है। धार्मिक जिज्ञासा का क्या हल होगा, इन सारी बातों से? लेकिन लोग करते चले जाएंगे, क्योंकि हम गहरे अज्ञान में हैं, गहरे विश्वास में हैं। लोग करते चले जाएंगे और शोषण होता चला जाएगा। पुराने चित्त ने चमत्कारी आदमी पैदा किया था। लेकिन जिन-जिन कौमों ने चमत्कारी चित्त पैदा किए उन-उन कौमों ने विज्ञान पैदा नहीं किया।
ध्यान रहे, चमत्कारी चित्त वहीं पैदा हो सकता है जहां एंटी साइंटिफिक माइंड हो, जहां विज्ञान विरोधी चित्त हो। जहां विज्ञान आएगा वहां चमत्कार मरेगा। क्योंकि विज्ञान कहेगा, चमत्कार को कि हम का.ज और इफेक्ट में मानते हैं। हम मानते हैैं, कार्य और कारण में। विज्ञान किसी चमत्कार को नहीं मानता। अब कितना अदभुत है मामला। विज्ञान किसी चमत्कार को नहीं मानता है, उसने हजारों चमत्कार किए हैं। जिनमें से अगर एक भी कोई संत कर देता, तो हत हजारों-लाखों साल तक उसकी पूजा करते। अब यह पंखा चल रहा है, यह माइक आवाज कर रहा है। यह चमत्कार नहीं होगा, क्योंकि यह विज्ञान ने किए हैं और विज्ञान किसी चीज को छिपाता नहीं है। सारे कार्य-कारण प्रकट कर देता है। आदमी का हृदय बदला जा रहा है। दूसरे का हृदय उसके काम कर रहा है। आदमी के सारे शरीर के पार्ट बदले जा रहे हैं।
आज नहीं कल, हम आदमी की स्मृति भी बदल सकेंगे। उसकी भी संभावना बढ़ती जा रही है। कोई जरूरी नहीं है कि एक आइंस्टीन माइंड, वह मर ही जाए! आइंस्टीन मरे--मरे, उसकी स्मृति को बचा कर हम एक नये बच्चे में ट्रासप्लांट कर सकते हैं। इतने बड़े चमत्कार घटित हो रहे हैं, लेकिन कोई नासमझ न कहेगा कि ये चमत्कार हैं। कहेगा, यह चमत्कार क्या है? और कोई आदमी की फोटो में से राख झड़ रही है, हम हाथ जोड़ कर खड़े है कि चमत्कार हो रहा है, बड़ा आश्चर्य है! अवैज्ञानिक विज्ञान विरोधी चित्त है। विज्ञान ने इतने चमत्कार घटित किए हैं कि हमें पता ही नहीं चलता, क्योंकि विज्ञान चमत्कार का दावा नहीं करता। विज्ञान खुला सत्य है, ओपन सीक्रेट है।
और यह जो बेईमानों की दुनिया है यहां...इसलिए अगर किसी आदमी को कोई तरकीब पता चल जाती है, तो उसको खोल कर नहीं रख सकता, क्योंकि खोले तो चमत्कार गया। इसलिए ऐसे मुल्क का ज्ञान रोज बढ़ जाता है। अगर मुझे कोई चीज पता चल जाए और चमत्कार करना हो तो, पहली जरूरत तो यह है कि उसके पीछे जो राज है, वह मैं प्रकट न करूं। आयुर्वेद ने बहुत विकास किया, लेकिन आयुर्वेद का जो वैद्य था, वह चमत्कार करता था। इसलिए आयुर्वेद पिछड़ गया। नहीं तो आयुर्वेद की आज की स्थिति एलोपैथी से कहीं बहुत आगे होती। क्योंकि एलोपैथी की खोज बहुत नई है। आयुर्वेद की खोज बहुत पुरानी है। इसलिए एक वैद्य को जो पता है, वह अपने बेटे को भी न बताएगा, क्योंकि चमत्कार गड़बड़ हो जाएगा। मजा लेना चाहता है!
टीका, टापू लगा कर और साफा वगैरह बांध कर बैठा रहेगा और मर जाएगा। वह जो जान लिया था, वह छिपा जाएगा, क्योंकि वह कड़ी अगर पूरी बता दे, तो फिर चमत्कार नहीं होगा, लेकिन तब साइंस बंद करनी पड़ी। हिंदुस्तान में कोई साइंस नहीं बनती। जिस आदमी को जो पता है, वह उसको छिपा कर रखता है। वह कभी उसका पता किसी को चलने नहीं देता, क्योंकि पता चला कि चमत्कार खत्म हो गया। इस वजह से हमारे मुल्क में, ज्ञान की बहुत दफे किरणें प्रकट हुईं, लेकिन ज्ञान का सूरज कभी न बन पाया, क्योंकि एक-एक किरण मर गई। और उसे कभी हम बपौती न बना पाए कि उसे हम आगे दे सकें। उसको देने में डर है, क्योंकि दिया तो कम से कम जिसको देंगे उसे तो पता ही चल जाएगा कि अरे...!
एक महिला मेरे साथ प्रोफेसर थी--वह संस्कृत की प्रोफेसर थी। वह इसी तरह एक मदारी के चक्कर में आ गई, जिनकी फोटो से राख गिरती है और ताबीज निकलते हैं। उसने आकर मुझे से आशीर्वाद मांगा कि मैं अब जा रही हूं, सब छोड़ कर। मुझे तो भगवान मिल गए हैं। अब कहां यहां पड़ी रहूंगी? आप मुझे आशीर्वाद दें। मैने कहा, यह आशीर्वाद मांगना ऐसा है, जैसे कोई आए कि अब मैं जा रहा हूं कुएं में गिरने और उसको मैं आशीर्वाद दूूं। मैं न दंूगा। तुम कुएं में गिरो मजे से, लेकिन इसमें ध्यान रखना कि मैंने आशीर्वाद नहीं दिया। क्योंकि मैं इस पाप में क्यों भागीदार होऊं। मरो तुम, फंसू मैं। यह मैं न करूंगा। तुम जाओ, मजे से गिरो। लेकिन जिस दिन तुम्हें पता चल जाए कि कुएं में गिर गई हो और अगर बच सकती हो, तो मुझे खबर जरूर कर देना।
पांच-सात साल बीत गए, मुझे याद भी नहीं रहा, उस महिला का क्या हुआ, क्या नहीं हुआ। पिछले वक्त बंबई में बोल रहा था सभा में, तो वह उठ कर आई और उसने मुझे आकर कहाः आपने जो कहा, वह घटना हो गई है। तो मैं कब आकर पूरी बात बता जाऊं, लेकिन कृपा करके किसी और को मत बताना। मैंने कहा, क्यों? उसने कहा, वह भी मैं कल बताऊंगी। वह कल आएगी! उसने कहाः अब बड़ी मुश्किल हो गई, जिन ताबीजों को आकाश से निकलते देख कर मैं प्रभावित हुई थी, अब मैं उन्हीं संत की प्राइवेट सेक्रेट्री हो गई हूं। अब मैं ही वह ताबीज बाजार से खरीद कर लाती हूं, बैग में रखती हूं, बिस्तर के नीचे छिपा आती हूं। प्रकट होने का सब राज पता हो गया है। अब मैं भी प्रकट कर सकती हूं। लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। उसी चमत्कार से तो मैं आयी। अब वह चमत्कार सब खत्म हो गया है। अब मैं क्या करूं? मैने कहाः अब छोड कर आ जा। उसने कहाः अब मैं छोड़ कर आ जाऊं, तो उसमें तो और भी मुश्किल है।
कालेज में नौकरी करती थी, तो मुझे सात सौ रुपये मिलते थे। अब मुझे कोई दो-ढाई हजार रुपये का फायदा महीने का हो रहा है। और इतने रुपये आते हैं मेरे पास कि जितने उसमें से उड़ा दूं, वह अलग है, उसका कोई हिसाब नहीं है। इसलिए मैं आ तो नहीं सकती। इसलिए मैं आपसे कहती हूं। कृपा करके किसी और को मत कह देना। अब मेरा काम अच्छा चल रहा है। अब नौकरी है, लेकिन अब तो चमत्कार व अध्यात्म का कोई लेना-देना नहीं है।
इसलिए पता न चल पाए--वह सारा का सारा...चल रहा है! ज्ञान सदा प्रकट होने को उत्सुक होता है। बेईमानी सदा अप्रकट रहना चाहती है। ज्ञान सदा खुलता है, बेईमानी सदा छिपती है। नहीं, कोई मिरेकल जैसी चीज दुनिया में नहीं होती, न हो सकती है। और अगर होती होगी, तो पीछे जरूर कारण होगा। यह हो सकता है, आज कारण न खोजा जा सके, कल खोज लिया जाए, परसों खोज लिया जाए।
यह हो सकता है, जीसस ने किसी के हाथ पर रखा हो और आंख ठीक हो गई हो, लेकिन फिर भी चमत्कार नहीं है। क्योंकि पूरी बात अब पता चल गई है। अब पता यह चल गई है कि कुछ अंधे तो सिर्फ मानसिक रूप से अंधे होते है। वे अंधे होते ही नहीं, सिर्फ मेंटल ब्लाइंडनेस होती है। उनको सिर्फ खयाल होता है अंधे होने का और यह खयाल इतना मजबूत हो जाता है कि आंख काम करना बंद कर देती है। अगर कोई भी आदमी उनको भरोसा दिलवा दे कि तेरी आंख ठीक हो गई, तो वह तत्काल उनका मन वापस लौट आएगा और आंख के तल पर काम करना शुरू कर देगा।
आज तो यह बात जाहिर हो गई है कि सौ में से पचास बीमारियां मानसिक हैं, इसलिए पचास बीमारियां तो ठीक की ही जा सकती हैं, बिना दवा के और सौ बीमारियों में से भी, जो बीमारियां असली हैं, उनमें भी पचास प्रतिशत हमारी कल्पना से बढ़ोतरी हो जाती है। वह पचास प्रतिशत कल्पना भी काटी जा सकती है। सौ सांप में से केवल तीन सांप में जहर होता है--तीन प्रतिशत सांपों में। सत्तानबे प्रतिशत सांप बिलकुल ही बिना जहर के होते हैं। लेकिन सत्तानबे प्रतिशत सांपों के कांटने से भी आदमी मर जाते हैं। इसलिए नहीं कि जहर था, इसलिए कि सांप ने काटा। सांप के काटने से कम मरता है, सांप ने काटा मुझे, इसलिए ज्यादा मरता है।
तो जिस सांप में बिलकुल जहर नहीं है, उससे आपको कटवा कर भी आपको मारा जा सकता है। तब एक चमत्कार तो हो गया। क्योंकि जहर था नहीं। कोई कारण नहीं मरने का। लेकिन सांप ने काटा, यह भाव इतना गहरा है, यह मृत्यु बन सकती है। तब फिर मंत्र से आपको बचाया भी जा सकता है। झूठा सांप मार रहा है, झूठा मंत्र बचा लेता है। झूठी बीमारी को झूठी तरकीब बचा जाती है।
मेरे पड़ोस में एक आदमी रहते थे। वह सांप झाड़ने का काम करते थे। उन्होंने सांप पाल रखे थे। तो जब भी किसी सांप का झड़वाने वाला आता, तब वह बहुत शोरगुल मचाते, ड्रम पीटते और पुंगी बजाते और बडा शोरगुल मचाता, धुआं फैलाते। फिर उनका ही पला हुआ सांप आकर एकदम सिर पटकने लगता। जब वह सांप, जिसको काटे, वह आदमी देखता रहे कि सांप आ गया, वह सांप को बुला देता है। वह कहता, पहले सांप को मैं पूछूंगा कि क्यों काटा? मैं उसे डांटूंगा, समझाऊंगा, बुझाऊंगा। उसी के द्वारा जहर वापस करवा दूंगा। तो वह डांटते, डपटते, वह सांप क्षमा मांगने लगता, वह गिरने लगता, लोटने लगता। फिर वह सांप, जिस जगह काटा होता आदमी को, उसी जगह मुंह को रखवाते। बस वह आदमी ठीक हो जाता।
कोई छह या सात साल पहले उनके लड़के को सांप ने काट लिया, तब बड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि वह लड़का सब जानता है। वह लड़का कहता है, इससे मैं न बचूंगा, क्योंकि मुझे तो सब पता ही है सांप अपने घर का ही है। वह भागे हुए मेरे पास आए और कहा कि कुछ करिए, मेरा लड़का मर जाएगा, सांप ने काट लिया। मैंने कहा, आपका लड़का और सांप के काटने से मरे, तो चमत्कार हो जाएगा। आपने कितने लोगों को सांप का जहर उतारा है। उसने कहा कि मेरे लड़के पर न चलेगा। क्योंकि उसको सब पता है कि सांप अपने ही घर का है। वह कहता है, यह तो घर का ही सांप है। वह बुलाइए, जिसने काटा हैं। तो आप चलिए, कुछ करिए, नहीं तो मेरा लड़का जाता है। सांप के जहर से कम लोग मरते हैं, सांप के काटने से ज्यादा लोग मरते है। वह काटा हुआ दिक्कत दे जाता है। वह इतनी दिक्कत दे जाता है कि जिसका हिसाब नहीं।
मैंने सुना है कि एक गांव के बाहर एक फकीर रहता था। एक रात उसने देखा कि एक काली छाया गांव में प्रवेश कर रही है। उसने पूछा कि तुम कौन हो, कहां जा रही हो? उसने कहा, मैं मौत हूं, और आपने पूछ लिया तो आपसे कहती हूं कि गांव में मुझे एक हजार आदमी मारने हैं, उनको लेने जा रही हूं। फकीर निशिं्चत रहा। गांव में महामारी फैल गई, लोग मरने शुरू हो गए। महीने भर में, दस हजार से ऊपर लोग मर गए। फकीर ने कहा, मौत भी झूठ बोलने लगी? हद्द हो गई, कहा था हजार मारने हैं। महीने भर बाद मौत वापस लौटती थी, तो फकीर ने कहाः रुक! हद्द हो गई, हम तो सोचते थे, जिंदगी बेईमान हो गई है, मौत भी बेईमान हो गई ? तूने कहा था, एक हजार मारने हैं, दस हजार आदमी मर चुके हैं और अभी मरते ही जा रहे हैं।
उस मौत ने कहा, मैंने तो एक ही हजार मारे, नौ हजार तो घबड़ाहट में मर गए हैं। और मैं तो आज जा रही हंू और पीछे लोग मरते रहेंगे, उनसे मेरा कोई संबंध नहीं है। वह खुद मर रहे हैं। वह आत्महत्याएं हैं। एक आत्महत्या तो वह है, जो हमें दिखाई पड़ती है कि एक आदमी कुएं में डूब कर मर गया, एक आत्महत्या वह है, जो आदमी भरोसा करके मर जाता है, यदि मर गया, वह भी आत्महत्या हो गई। ऐसी आत्महत्याओं पर मंत्र काम कर सकते हैं, ताबीज काम कर सकते हैं, राख काम कर सकती है। इसमें संत-वंत का कोई लेना-देना नहीं है। अब हमें पता चल गया है कि उसकी मानसिक तरकीबें हैं, तो ऐसे अंधे आदमी हैं!
एक अंधी लड़की मुझे भी देखने को मिली, जो मानसिक रूप से अंधी थी, जिसको डाक्टरों ने कहा कि उसको कोई बीमारी नहीं है। जितने लोग लकवे से परेशान हैं, उनमें से कोई सत्तर प्रतिशत लोग मनसिक रूप से लकवा पा जाते हैं। पैरालिसिस पैरों में नहीं होती है, पैरालिसिस दिमाग में होती है, सत्तर प्रतिशत।
सुना है मैंने, एक घर में दो वर्ष से एक आदमी लकवे से परेशान है। उठ नहीं सकता है, न हिल सकता है। सवाल ही नहीं है उठने का--सूख गया है। एक रात आधी रात घर में आग लग गई है। सारे लोग घर के बाहर पहुंच गए है। घर के बाहर जाकर पता चला कि अरे! घर के प्रमुख को तो हम भीतर ही छोड़ आए, अब क्या होगा? लेकिन देखा कि प्रमुख तो भागे चले आ रहे हैं! वह तो बिलकुल चमत्कृत हो गए। आग की तो बात भूल गए। देखा कि चमत्कार हो गया। लकवा जिसको दो साल से लगा है, वह भागा चला आ रहा है। उन्होंने कहाः अरे! आप, आप तो चल सकते हैं! उसने कहाः मैं! मैं कैसे चल सकता हूं? वह वहीं वापस गिर गया। मैं चल ही नहीं सकता।
अभी लकवे के मरीजों पर सैकड़ों प्रयोग किए गए हैं। लकवे के मरीज को हिप्नोटाइज करके, बेहोश करके चलवाया जा सकता है। और वह चलता है, तो उसके अंग में तो कोई गड़बड़ नहीं है, हिप्नोेसिस में तो वह चलता है। बेहोशी में चलता है। और होश में आकर लकवा होता है। चलता है, चाहे बेहोशी में ही चलता हो, एक बात का तो सबूत है कि उसके अंगों में कोई खराबी नहीं है, क्योंकि बेहोशी में अंग कैसे चल सकते हैं, अगर खराब हों। लेकिन होश में आकर वह लकवे में पड जाता है। तो इसका मतलब साफ है।
बहुत से बहरे हैं, जो झूठे बहरे हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि उनको पता है। उनको पता नहीं है, क्योंकि उनके अचेतन मन ने उनको बहरा बना दिया है। बेहोशी में सुनते हैं, होश में बहरे हो जाते हैं। ये सब बीमारियां ठीक हो सकती हैं, लेकिन इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है--इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है! चमत्कार नहीं है। विज्ञान जो भीतर काम कर रहा है, साइकोलाॅजी, वह भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। वह आज नहीं कल, पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगा और तब ठीक ही बातें हो जाएं!
आप एक साधु के पास गए। उसने आपको देख कर कह दिया, आपका फलां नाम है? आप फलां गांव से आ रहे हैं? बस आप चमत्कृत हो गए। हद्द हो गई। कैसे पता चला मेरा नाम, मेरा गांव, मेरा घर? क्योंकि टेलीपैथी अभी अविकसित विज्ञान है। अभी दूसरे के मन के विचार को पढ़ना पूरी तरह विकसित नहीं हो सका, लेकिन बुनियादी सूत्र प्रकट हो चुके हैं। दूसरे के मन को पढ़ने की साइंस धीरे-धीरे विकसित हो रही है और साफ हुई जा रही है। उसका साधु से कोइ लेना-देना नहीं है। कोई भी पढ़ सकेगा, कल जब साइंस हो जाएगी, कोई भी पढ़ सकेगा, अभी भी काफी काम हुआ है। और दूसरे के विचार को पढ़ने में बड़ी आसानी हो गई है। छोटी सी तरकीब आपको बताता हूं, आप भी पढ़ सकते हैं। एक, दो-चार दिन प्रयोग करें, तो आपको पता चलेगा कि यह तो बड़ा आसान खेल है। दो-चार दिन में हो सकता है। लेकिन जब आप खेल देखेंगे तो आप समझेंगे भारी चमत्कार हो रहा है।
एक छोटे बच्चे को लेकर बैठ जाएं। रात अंधेरा कर लें, कमरे में। उसको दूर कोने में बिठा लें, आप यहां बैठ जाएं और उस बच्चे से कह दें कि हमारी तरफ ध्यान रख। और सुनने की कोशिश कर कि हम तुमसे कुछ कहने की कोशिश कर रहे हैं। और अपने मन में एक ही शब्द ले लें और उसको जोर से दोहराएं। अंदर ही दोहराएं, गुलाब! गुलाब को जोर से दोहराएं, गुलाब, गुलाब, गुलाब! आप तीन दिन के भीतर पाएंगे कि बच्चे ने पकड़ना शुरू कर दिया। वह वहां से कहेगा, क्या आप गुलाब कह रहे हैं? तब आपको पता चलेगा कि बात क्या हो गई है!
जब आप बहुत जोर से भीतर गुलाब दोहराते हैं, तो दूसरे तक उसकी विचार तरंगें पहुंचनी शुरू हो जाती हैं। बस, वह जरा रिसेप्टिव होने की कला सीखने की बात है। बच्चे रिसेप्टिव हैं। फिर इससे उलटा करना शुरू करें, बच्चे को कहें कि वह एक शब्द दोहराए और आप उस तरफ ध्यान रख कर, बैठ कर पकड़ने की कोशिश करें। बच्चेने तीन दिन में पकड़ा है, तो आप छह दिन में पकड़ लेंगे कि वह क्या दोहरा रहा है। और जब एक शब्द पकड़ा जा सकता है, तो फिर कुछ भी पकड़ा जा सकता है।
हर आदमी के भीतर विचार की तरंगें मौजूद हैं, वह पकड़ी जा सकती हैं। लेकिन इसका विज्ञान अभी बहुत साफ न होने की वजह से, कुछ मदारी इसका उपयोग कर रहे हैं। जिनको वह तरकीब पता है, वह कुछ उपयोग कर रहे हैं। फिर वह आपको दिक्कत में डाल देते हैं।
यह सारी की सारी बातों में कोई चमत्कार नहीं है। न चमत्कार कभी पृथ्वी पर हुआ है, न कभी होगा। चमत्कार सिर्फ एक है कि अज्ञान है, बस और कोई चमत्कार नहीं है! इग्नोेरेंस है, एक मात्र मिरेकल है! और अज्ञान में सब हिप्नोेटिक होते रहते हैं। जगत में विज्ञान है, चमत्कार नहीं। प्रत्येक चीज का कार्य है, कारण है, व्यवस्था है। जानने में देर लग सकती है। जिस दिन जान ली जाएगी, उस दिन हल हो जाएगी। उस दिन कोई कठिनाई नहीं रह जाएगी।

एक आखिरी प्रश्न और है--

एक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि चेतना बिगड़ गई है। उन्होंने पूछा है, चेतना यानी आत्मा, आत्मा बिगड़ कैसे सकती हैं? आत्मा तो कभी बिगड़ ही नहीं सकती है। वह तो सदा शुद्ध-बुद्ध हैं!

इसे थोड़ा समझना उचित है। जब मैं कहता हूं, चेता बिगड़ गई है, तब मेरा मतलब वही है, जैसे सागर शांत, मौन है, कोई तूफान नहीं है, तब भी सागर है। और जब तूफान उठता है और लहरें उठती हैं और सागर बिलकुल विक्षिप्त हो जाता है, तब भी सागर है। लेकिन तूफान की हालत में सागर बिगड़गया है। बेचैन हो गया है, परेशान हो गया है। ब्रह्म ही सागर है। वह जो शांत था, वह भी सागर था। यह जो अशांत है, यह भी सागर है। असल में शांत के भीतर अशांत होने की क्षमता सदा प्रसुप्त है। अशांत के भीतर, शांत होने की क्षमता प्रसुप्त है। तो जब मैं कहता हूं, चेतना बिगड़ गई है तो मेरा मतलब इतना ही है कि, जो हमारे भीतर छिपा है, वह तूफान में हैं, अशांत है, रुग्ण है, अस्वस्थ है--बेचैनी में है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह बेचैनी में है, तो वापस नहीं लौट सकता। वापस लौट सकता है। वह चैन में हो सकता है, शांत हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है।
लेकिन शास्त्र कहते हैं, आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है। उनका मतलब उतना ही है, जैसे तूफान...जब तूफान में हो...सागर, और सागर से कोई कहे कि पागल, इस तूफान में होने को अपना स्वरूप मत समझ लेना। तू तो शांत सागर है। इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब यह नहीं है कि सागर में तूफान नहीं है, सागर में तूफान है। लेकिन सागर से हम कह रहे हैं कि इस तूफान को तू अपना स्वभाव मत समझ लेना। तू शांत हो सकता है। तूफान ही नहीं है तू, तू तूफान के बाहर भी हो सकता है।
जिन्होंने कहा है कि आत्मा शुद्ध है, बुद्ध है, वे सिर्फ तुम्हें स्मरण दिला रहे हैं कि तुम अपनी इस रुग्ण अवस्था को ही अपनी चरम स्थिति मत समझ लेना। यह सिर्फ विकार है तुम्हारा, तुम निर्विकार में लौट सकते हो। लेकिन हम भी बहुत चालाक लोग हैं। हम इतना विकार सेे भरे हुए हैं कि हम कहते हैं, अच्छा, शुद्ध बुद्ध है, तब तो कुछ करना ही नहीं है। आत्मा शुद्ध बुद्ध है, तो करना क्या है। आत्मा तो सदा शुद्ध है, तो करना क्या है? कुछ भी नहीं करना है।
हिंदुस्तान को बिगाड़ने वाली शिक्षाओं में यह सबसे बड़ी शिक्षा सिद्ध हुई है। हिंदुस्तान के चरित्र को नीचे गिराने में हिंदुस्तान के व्यक्तित्व को नष्ट करने में, यह बहुत ऊंची बात जो बिलकुल सही है, सहायक हुई है। इस बात ने कि हम शुद्ध-बुद्ध हैं तो फिर क्या सवाल है? एक चोर से कहो, वह कहेगा, आत्मा चोरी करती ही नहीं। यह चोरी वगैरह सब माया है। एक हत्यारे से कहो, वह कहेगा, न कोई मरता है, न कोई मारता है। गीता में लिखा हैः न हन्यतेेे हन्यमानेे शरीरे--न कोई मरता है, न मारता है, न हमने मारा, न कोई मरा। आत्मा तो मरती ही नहीं, आत्मा अमर है। क्या करिएगा, कैसे समझाइएगा इसको?
एक ब्रह्मवादी को आप समझा नहीं सकते। क्योंकि बात तो ठीक ही कह रहा है, लेकिन ठीक बात को, गलत परिणामों में उपयोग कर रहा है। हिंदुस्तान के ब्रह्मवाद ने, हिंदुस्तान के व्यक्तित्व को रुग्ण किया, बीमार किया, क्योंकि बात तो सच थी। लेकिन सच बात होने से ही उसको हम सत्य के लिए उपयोग करेंगे, यह जरूरी नहीं है। हमने कहा कि सब ठीक है। तब कुछ भी नहीं करना है, यह सब माया है। यह सब बुराई है, विकार है, यह सब असत्य है, यह सपने की भांति है। सत्य में तो कभी कोई विकार होता ही नहीं, बस सत्य ठीक है।
इसलिए साधु-संतों, जहां यह समझाया जाता है, आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, ब्रह्म निर्विकार है, वहां सब तरह से पापियों को आप बैठा हुआ पाएंगे। वह सिर हिला रहे हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, महाराज! आत्मा तो निर्विकार है। वह अपने को समझा रहे हैं कि आत्मा तो निर्विकार है, इसलिए अब विकार करने में कोई डर नहीं है, कोई भय नहीं है। क्योंकि यह विकार वगैरह सब सपना है। यह मैटाफिजिकल कनिंगनेस है, यह आध्यात्मिक ढंग की बेईमानी है, जिसको हम कर सकते हैं, जिसको हमने किया है। इसलिए हिंदुस्तान एक तरफ ऊंची से ऊंची बात करेगा और दूसरी तरफ नीचा से नीचा आदमी पैदा करेगा।
पश्चिम के लोग हमारा भरोसा नहीं करते है। ओरिएंटल कनिंगनेस कहते हैं हमें। पश्चिम के लोग जानते हैं कि पूरब के लोग बदमाश हैं और उसका कारण है उसे जानने का, कि हमारे संबंध में जब भी आते हैं, तो हम तरफ की शरारत करते हैं। हां, एक ही बात में वह हमारा मुकाबला नहीं कर सकते, ब्रह्मवाद की जब चर्चा चले, तो वे एकदम हार जा सकते हैं, क्योंकि वह हमें तरकीब पता है, क्योंकि सब असत्य है, सब सपना है!
ध्यान रहे, जब जगत सपना है तो चोरी भी सपना है और साधु भी सपना है, फिर फर्क क्या है? दो सपने में कोई फर्क होता है? कोई फर्क नहीं होता है। जब सभी माया है, तो बुरा आदमी भी माया है, अच्छा आदमी भी माया है। दो माया में कुछ फर्क होता है? कोई फर्क नहीं होता। और आत्मा निर्विकार है, सदा अपनी स्थिति में है। वह न कहीं आई, न कहीं गई, न उसने कुछ बुरा किया, न कुछ भला किया, चलते में वह अचल है, बोलते में वह अबोला है। पाप करने में पुण्य में है। वह...हैं!
नहीं, मैं इस तरह की बातों में सहयोगी नहीं हो सकता हूं। यह हमें तोड़ना पड़ेगा--अगर इस देश के चरित्र को बदलना है। और परिवर्तन के चैराहे पर चरित्र सबसे बड़े से बड़ा सवाल है हमारा। अगर चरित्र को बदलना है, तो हमें समझना पड़ेगा कि यह गलत चरित्र पैदा करने में हमने कौन सी तरकीबों का उपयोग किया है। सब से बडी तरकीब यह है हमारी, कि हमने इस चरित्र को कहा कि यह माया का हिस्सा है। जब माया का हिस्सा है, तो बात खत्म हो गई। इस माया के हिस्से के कारण बात खत्म हो गई। हमने ऐसे साधु पैदा किए, जो शराब पी रहे हैं, भांग पी रहे हैं, भोग कर रहे हैं। और उनसे जब कहा, तो उन्होंने कहा कि आत्मा तो कभी करती नहीं, आत्मा तो कभी भांग खाती नहीं। भांग डालो तो शरीर में ही जाती हैं, आत्मा तक जाती नहीं, जा सकती है? आप कितनी ही भांग डालो, वह शरीर में चली जाती है। यह शरीर तो सब असार है। सार तो आत्मा है, उसमें कुछ होता नहीं है।...
हमारे चरित्र की बुनियादी कमी, हमारे ब्रह्मवाद की छाया से पैदा हुई है। नहीं, जरूरी न था कि ब्रह्मवाद से यह पैदा होती, लेकिन हमने पैदा कर ली है! और हमें यह समझ लेना चाहिए। नहीं, हम जैसे हैं, हम जो हैं, उस होने में हम पूरी तरह विकार से ग्रस्त हैं। हम जो हैं, वहां पूरी तरह पाप है।। हम जो हैं, वहां पूरी तरह बीमारी है। लेकिन आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, इसका मतलब? इसका मतलब है, आत्मा का शुद्ध-बुद्ध होना उसकी परम संभावना है, उसकी अल्टीमेट पाॅसिबिलिटी है, हम चाहें तो इन सबके बाहर होकर शुद्ध-बुद्ध हो सकते हैं। हम जैसे हैं, यह हमारा होना परम स्वभाव नहीं है। यह होना हमारा विकार है। यह हमारा स्वभाव से च्युत होना है। लेकिन हम लौट सकते हैं।
उस लौटने की याद जब हम दिलाते हैं और सोने से कहते हैं कि तू कचरा नहीं है, तू कचरा हो ही नहीं सकता। लेकिन सोने में कचरा हो सकता है। सोना कचरा नहीं हो सकता, लेकिन सोने में कचरा हो सकता हैं। सोने में धूल हो सकती है, मिट्टी हो सकती है, पत्थर कंकड़ हो सकते हैं। सोने से हम कहते हैं, सोना, तू कभी मिट्टी नहीं हो सकता। लेकिन सोने में मिट्टी हो सकती है। और तब अगर सोना समझ ले कि मैं मिट्टी हो ही नहीं सकता, तो आग में जाने की क्या जरूरत है? मैं तो शुद्ध-बुद्ध सोना हूं। तो वह सोना मिट्टी में मिला जुला ही रह जाएगा। नहीं, सोने को आग में जाना पड़ेगा। मिट्टी जल जाए, कचरा जल जाए, सोना बच जाए। वह जो सोने से हम कहते हैं, तू मिट्टी नहीं हो सकता, वह हम उसे उसकी परम स्थिति के स्मरण के लिए कह रहे हैं, वह उसकी आज की स्थिति का स्थापन नहीं है, उसकी परम स्थिति की स्मृति है।
लेकिन उस स्मृति का हमने दुरुपयोग किया है। यह ऐसा ही है, जैसे अस्पताल में हम जाएं और लोगों से हम कहें कि आत्मा तो स्वस्थ है, अस्पताल में क्या कर रहे हो? लेकिन जो स्वामी कहता है कि आत्मा तो स्वस्थ है, वह भी अस्पताल में इलाज करवा रहा है। फिर, आत्मा स्वस्थ है, तो तुम यह क्या करवा रहे हो? यह तो शरीर बीमार है, रहने दो, जाओ। आत्मा स्वस्थ है, इसका मतलब ही यह होता है कि रुग्ण हो सकती है। स्वास्थ्य में रुग्णता की संभावना निहित है। जो रुग्ण भी नहीं हो सकता, वह स्वस्थ भी नहीं हो सकता। संभावना है सदा विपरीत, और प्रत्येक चीज में पोलेरिटी है, प्रत्येक चीज में विपरीत मौजूद है। सिर्फ मरा हुआ आदमी नहीं मर सकता है। जिंदा आदमी मर सकता है। जन्म के साथ मौत की पोलेरिटी है। मौत का...हैं। स्वस्थ आदमी बीमार हो सकता है।
विपरीत सदा मौजूद है। उस विपरीत को झूठा कह कर हलना होगा। अगर हमने उसको झूठा कहा, तो फिर बदलने के लिए हम कुछ भी न करेंगे। इस परिवर्तन के चैराहे पर, जहां समाज खड़ा है वहां हमें यह भी निर्णय लेना होगा कि हमारे अतीत के विचार की तर्कना ने यह चरित्र दिया, यही चरित्र हमें आगे भी बचाए रखना है? या कि हमें इस चरित्र को रूपांतरित करना है? यह चरित्र को रूपांतरित करना है, तो हमें चरित्र के पीछे की आधार भूमियों में भी परिवर्तन करने होंगे। फिलासफी भी बदलनी होगी, दर्शन भी बदलना होगा। तब यह चरित्र बदलेगा, क्योंकि दर्शन ही हमारे चरित्र का फैलाव बन जाता है।
और थोड़े से प्रश्न रह गए हैं। बहुत से आपके मन में रह गए होंगे, लेकिन सभी प्रश्नों के उत्तर मैं दूं, यह जरूरी भी नहीं है, यह उचित भी नहीं है। मैंने जिन प्रश्नों के उत्तर दिए हैं, वह इसी आशा से दिए कि वे उत्तर मेरे हैं, आपके नहीं हैं और भूल कर आप उनको अपना मत समझ लेना, अन्यथा आप विश्वास में पड़ जाएंगे। ये उत्तर मेरे हैं, और मेरे भी कल होंगे, इसका भी वायदा नहीं है, क्योंकि मैं अपने आपसे अपनेपन को नहीं बांध सकता हूं। सिर्फ मरा हुआ आदमी बांध सकता है। सिर्फ मरा हुआ आदमी कंसिस्टेंट हो सकता है, जिंदा आदमी को इनकंसिस्टेंट होना ही पड़ेगा, अगर वह जिंदा है। आज जो मैंने कहा, वह कल मैं कैसे कहूंगा, क्योंकि चैबीस घंटे में गंगा का बहुत पानी बह जाएगा। ये उत्तर आज तक जो मैं हूं, उसके हैं, कल मैं जो होऊंगा उसके लिए नहीं, उसके लिए नहीं हैं। आपके होने का सवाल ही नहीं है। आप आप हैं, मैं मैं हूं।
लेकिन यह मैंने उत्तर क्यों दिए हैं? उत्तर मैंने इसलिए नहीं दिए हैं कि आपके प्रश्न मर जाएं। उत्तर इसलिए दिए हैं कि आपके प्रश्न और जिंदा हो जाएं। उसमें और निखार आ जाए। आप सोचने पर निकल पड़ें, आपकी सोचने की यात्रा शुरू हो जाए। मुझसे राजी और नाराजी होना सवाल नहीं है। मुझे सुनने वालों में निरंतर यह भूल होती है। कोई मुझसे राजी हो जाता है, वह कहता है,हां मैंने आपको मान लिया, कोई मुझसे नाराज हो जाता है, तो कहता है, हम आपको मानते नहीं। ये दोनों नासमझ हैं। मुझे मानने, न मानने का सवाल ही नहीं है। मैं अनुयायी खोजने निकला ही नहीं हूं, इसलिए अकारण कोई मेरा अनुयायी बन जाता है, कोई मेरा शत्रु बन जाता है, अकारण। मेरा कोई संबंध ही नहीं है। मैं आपसे कहता हूं, सिर्फ इसलिए कि आप सोचने लगें, विचारने लगें। और अगर इन दिनों में आपके मन में कुछ भी विचार पैदा हुआ हो, स्वीकृति नहीं, विचार--अस्वीकृति नहीं, विचार, तो यह श्रम सार्थक हुआ।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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