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शनिवार, 10 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

आज की राजनीति


मेरे प्रिय आत्मन्!
आज की राजनीति पर कुछ भी कहने के पहले दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो यह कि जो आज दिखाई पड़ता है, वह आज का ही नहीं होता, हजारों-हजारों वर्ष के बीते हुए कल, आज में सम्मिलित होते हैं। जो आज का है उसमें कल भी जुड़ा है, बीते सब कल जुड़े हैं। और आज की स्थिति को समझना हो तो कल की इस पूरी शंृखला को समझे बिना नहीं समझा जा सकता। मनुष्य की प्रत्येक आज की घड़ी पूरे अतीत से जुड़ी है--एक बात! और दूसरी बात--राजनीति कोई जीवन का ऐसा अलग हिंस्सा नहीं है, जो धर्म से भिन्न हो, साहित्य से भिन्न हो, कला से भिन्न हो। हमने जीवन को खंडों में तोड़ा है सिर्फ सुविधा के लिए। जीवन इकट्ठा है। तो राजनीति अकेली राजनीति ही नहीं है, उसमें जीवन के सब पहलू और सब धाराएं जुड़ी हैं। और जो आज का है, वह भी सिर्फ आज का नहीं है, सारे कल उसमें समाविष्ट हैं। यह प्राथमिक रूप से खयाल में हो तो मेरी बातें समझने में सुविधा पड़ेगी।

यह मैं क्यों बीते हुए कलों पर इसलिए जोर देना चाहता हंू कि भारत की आज की राजनीति में जो उलझाव है, उसका बहुत गहरा संबंध हमारी अतीत की समस्त राजनीतिक दृष्टि से जुड़ा है।
जैसे, भारत का पूरा अतीत इतिहास और भारत का पूरा चिंतन, राजनीति के प्रति वैराग सिखाता है।
अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, यह भारत की शिक्षा रही है।
और जिस देश का यह खयाल हो कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, अगर उसकी राजधानियों में सब बुरे आदमी इकट्ठे हो जाएं, तो आश्चर्य नहीं है। जब हम ऐसा मानते हैं कि अच्छे आदमी का राजनीति में जाना बुरा है, तो बुरे आदमी का राजनीति में जाना अच्छा हो जाता है। वह उसका दूसरा पहलू हैं।
हिंदुस्तान की सारी राजनीति धीरे-धीरे बुरे आदमी के हाथ में चली गई है; जा रही है, चली जा रही है। आज जिनके बीच संघर्ष नहीं है, वह अच्छे और बुरे आदमी के बीच संघर्ष है। इसे ठीक से समज लेना जरूरी है। उस संघर्ष में कोई भी जीते, उससे हिंदुस्तान का बहुत भला नहीं होने वाला है। कौन जीतता है, यह बिलकुल गौण बात है। दिल्ली में कौन ताकत में आ जाता है, यह बिलकुल दो कौड़ी की बात है; क्योंकि संघर्ष बुरे आदमियों के गिरोह के बीच है।
हिंदुस्तान का अच्छा आदमी राजनीति से दूर खड़े होने की पुरानी आदत से मजबूर है। वह दूर ही खड़ा हुआ है। लेकिन इसके पीछे हमारे पूरे अतीत की धारणा है। हमारी मान्यता यह रही है कि अच्छे आदमी को राजनीति से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। बट्र्रेंंड रसल ने कहीं लिखा है, एक छोटा सा लेख लिखा है। उस लेख का शीर्षक--उसका हेडिंग मुझे बहुत पसंद पड़ा। हेडिंग हैः दि हार्म, दैट गुड मैन डू--नुकसान, जो अच्छे आदमी पहुंचाते हैं।
अच्छे आदमी सबसे बड़ा नुकसान यह पहुंचाते हैं कि बुरे आदमी के लिए जगह खाली कर देते हैं। इससे बड़ा नुकसान अच्छा आदमी और कोई पहुंचा भी नहीं सकता। हिंदुस्तान में सब अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं। एस्केपिस्ट रहे हैं। भागने वाले रहे हैं। हिंदुस्तान ने उनको ही आदर दिया है, जो भाग जाएं। हिंदुस्तान उनको आदर नहीं देता, जो जीवन की सघनता में खड़े हैं, जो संघर्ष करें, जीवन को बदलने की कोशिश करें।
कोई भी नहीं जानता कि अगर बुद्ध ने राज्य न छोड़ा होता, तो दुनिया का ज्यादा हित होता या छोड़ देने से ज्यादा हित हुआ है। आज तय करना भी मुश्किल है। लेकिन यह परंपरा है हमारी, कि अच्छा आदमी हट जाए। लेकिन हम कभी नहीं सोचते, कि अच्छा आदमी हटेगा, तो जगह तो खाली नहीं रहती, वैक्यूम तो रहता नहीं।
अच्छा हटता है, बुरा उसकी जगह भर देता है। बुरे आदमी भारत की राजनीति में तीव्र संलग्नता से उत्सुक हैं। कुछ अच्छे आदमी भारत की आजादी के आंदोलन में उत्सुक हुए थे। वे राजनीति में उत्सुक नहीं थे। वे आजादी में उत्सुक थे। आजादी आ गई। कुछ अच्छे आदमी अलग हो गए, कुछ अच्छे आदमी समाप्त होे गए, कुछ अच्छे आदमियों को अलग हो जाना पड़ा, कुछ अच्छे आदमियों ने सोचा, कि अब बात खत्म हो गई।
खुद गांधी जैसे भले आदमी ने सोचा कि अब कांग्रेस का काम पूरा हो गया है, अब कांग्रेस को विदा हो जाना चाहिए। अगर गांधी जी की बात मान ली गई होती, तो मुल्क इतने बड़े गड्ढे में पहुंचता, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। बात नहीं मानी गई, तो भी मुल्क गड्ढे में पहुंचा है, लेकिन उतने बड़े गड्ढे में नहीं, जितना मान कर पहुंच जाता। फिर भी गांधी जी के पीछे अच्छे लोगों की जो जमात थी, विनोबा और लोगों की, सब दूर हट गए। वह पुरानी भारतीय धारा फिर उनके मन को पकड़ गई, कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं होना चाहिए।
खुद गांधी जी ने जीवन भर बड़ी हिम्मत से, बड़ी कुशलता से भारत की आजादी का संघर्ष किया। उसे सफलता तक भी पहुंचाया। लेकिन जैसे ही सत्ता हाथ में आई, गांधीजी हट गए। वह भारत का पुराना अच्छा आदमी फिर मजबूत हो गया। गांधी ने अपने हाथ में सत्ता नहीं ली, यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। जिस हमें हजारों साल तक, जिसका नुकसान हमें भुगतना पड़ेगा। गांधी सत्ता आते ही हट गए। सत्ता दूसरे लोगों के हाथ में गई। जिनके हाथ में सत्ता गई, वे गांधी जैसे लोग नहीं थे। गांधी से कुछ संभावना हो सकती थी कि भारत की राजनीति में अच्छा आदमी उत्सुक होता। गांधी के हट जाने से वह संभावना भी समाप्त हो गई।
फिर सत्ता के आते ही एक दौड़ शुरू हुई। बुरे आदमी की सबसे बड़ी दौड़ क्या है? बुरा आदमी चाहता क्या है? बुरे आदमी की गहरी से गहरी आकांक्षा अहंकार की तृप्ति है, ईगो की तृप्ति है। बुरा आदमी चाहता है, उसका अहंकार तृप्त हो और क्यों बुरा आदमी चाहता है कि उसका अहंकार तृप्त हो? क्योंकि बुरे आदमी के पीछे एक इनफिरिआरिटी काम्पलेक्स, एक हीनता की ग्रंथि काम करती रहती है। जितना आदमी बुरा होता है, उतनी ही हीनता की ग्रंथि ज्यादा होती है। और ध्यान रहे, हीनता की ग्रंथि जिसके भी भीतर हो, वह पदों के प्रति बहुत लोलुप हो जाता है। सत्ता के प्रति, पाॅवर के प्रति बहुत लोलुप हो जाता है। भीतर की हीनता को वह बाहर के पद से पूरा करना चाहता है।
बुरे आदमी को मैं, शराब पीता हो, इसलिए बुरा नहीं कहता। शराब पीने वाले अच्छे लोग भी हो सकते हैं। शराब न पीने वाले बुरे लोग भी हो सकते हैं। बुरा आदमी इसलिए नहीं कहता, कि उसने किसी को तलाक देकर दूसरी शादी कर ली हो। दस शादी करने वाला, अच्छा आदमी हो सकता है। एक ही शादी पर जन्मों से टिका रहने वाला आदमी भी बुरा हो सकता है। मैं बुरा आदमी उसको कहता हूं, जिसकी मनोगं्रथि हीनता की है, जिसके भीतर इनफिरिआरिटी का कोई बहुत गहरा भाव है। ऐसा आदमी खतरनाक है, क्योंकि ऐसा आदमी पद को पकड़ेगा, जोर से पकड़ेगा, किसी भी कोशिश से पकड़ेगा, और किसी भी कीमत, किसी भी साधन का उपयोग करेगा। और किसी को भी हटा देने के लिए, कोई भी साधन उसे सही मालूम पड़ेंगे।
हिंदुस्तान में अच्छा आदमी--अच्छा आदमी वही है, जो न इनफिरिआरिटी से पीड़ित है और न सुपिरिआरिटी से पीड़ित है। अच्छे आदमी की मेरी परिभाषा है, ऐसा आदमी, जो खुद होने से तृप्त है, आनंदित है। जो किसी के आगे खड़े होने के लिए पागल नहीं है, और किसी के पीछे खड़े होने में जिसे कोई अड़चन, कोई तकलीफ नहीं है। जहां भी खड़ा हो जाए वहीं आनंदित है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाए तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में न जाए, तो राजनीति केवल पाॅवर पाॅलिटिक्स, सत्ता और शक्ति की अंधी दौड़ हो जाती है। और शराब से कोई आदमी इतना बेहोश कभी नहीं हुआ, जितना आदमी सत्ता से और पाॅवर से बेहोश हो सकता है। और जब बेहोश लोग इकट्ठे हो जाएं सब तरफ से, तो सारे मुल्क की नैया डगमगा जाए, इसमें कुछ हैरानी नहीं है!
यह ऐसे ही है--जैसी किसी जहाज के सभी मल्लाह शराब पी लें, और आपस में लड़ने लगें प्रधान होने को! और जहाज उपेक्षित हो जाए, डूबे या मरे इससे कोई संबंध न रह जाए, वैसी हालत भारत की है।
राजधानी में भारत के सारे के सारे मदांध, जिन्हें सत्ता के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है, वे सारे अंधे लोग, बेहोश लोग इकट्ठे हो गए हैं। और उनकी जो शतरंज चल रही है, उस पर पूरा मुल्क दांव पर लगा हुआ है। पूरे मुल्क से उनको कोई प्रयोजन नहीं है, कोई संबंध नहीं है। भाषण में वे बातें करते हैं, क्योंकि बातें करनी जरूरी हैं। प्रयोजन बताना पड़ता है। लेकिन पीछे कोई प्रयोजन नहीं है। पीछे एक ही प्रयोजन है भारत के राजनीतिज्ञ के मन में, कि मैं सत्ता में कैसे पहुंच जाऊं? मैं कैसे मालिक हो जाऊं? मैं कैसे नंबर एक हो जाऊं? यह दौड़ इतनी भारी है, और यह दौड़ इतनी अंधी है...कि इस दौड़ के अंधे और भारी और खतरनाक होने का बुनियादी कारण यह है कि भारत की पूरी परंपरा अच्छे आदमी को राजनीति से दूर करती रही है।
तो मैं आप से कहना चाहूंगा, अगर भारत के लिए कभी भी एक स्वस्थ राजनीति को जन्म देना हो, तो भारत की इस पुरानी धारणा को बिलकुल मिट्टी में फेंक देना, आग में डाल देना, पानी में डुबा देना। यह धारणा नहीं मिटेगी, तो भारत के लिए सौभाग्य का उदय नहीं हो सकता है--एक बात।
दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं, कि भारत का पूरा का पूरा अतीत नाॅन-डेमोक्रेटिक है। भारत का दिमाग लोकतांत्रिक नहीं है। भारत का दिमाग अत्यधिक अलोकतांत्रिक है। भारत की पूरी की पूरी परंपरा मनुष्य को समान स्वीकार नहीं करती है। नहीं तो शूद्र और ब्राह्मण असंभव हो जाते। भारत की पूरी धारणा आदमी-आदमी के बीच वर्गों, वर्णों को स्वीकार करती है। एक आदमी जन्म से ही नीचा है और एक आदमी जन्म से ही ऊंचा है, ऐसी हमारी मान्यता है। यह मान्यता बड़ी खतरनाक है। यह कुछ लोगों को पैदायशी गुलाम बना देती है। और कुछ लोगों को पैदाइशी मालिक होने का भ्रम दे देती है। लोकतंत्र की जो हम नई रचना करने में लगे हैं, उसके विपरीत है यह सारी धारणा। लोकतंत्र प्रत्येक व्यक्ति को बराबर मूल्य देता है। जन्म से नहीं तय करता है कि कौन छोटा है, कौन बड़ा है! धन से तय नहीं करता, कौन छोटा है, कौन बड़ा! पद से तय नहीं करता है, कौन छोटा है, कौन बड़ा है!
प्रत्येक व्यक्ति बराबर है। ऐसे लोकतंत्र की संरचना में हम लगे हों और हमारे पूरे माइंड की, हमारी पूरी की पूरी संस्कृति, हमारे मन की पूरी आधारशिलाएं एंटी-डेमोक्रेटिक हों, लोकतंत्र विरोधी हों तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। मन तो हमारे पास लोकतंत्र विरोधी है, लोकतंत्र का हम निर्माण कर रहे हैं। तो लोकतंत्र की बातें करते हैं, भीतर हमारे मन में लोकतंत्र कहीं भी नहीं है। इसलिए जो आदमी भी सत्ता पर बैठ जाता है वही पागल हो जाता है, वही तानाशाह होने की कोशिश में संलग्न हो जाता है। वही डिक्टेटोरियल हो जाने की कोशिश में संलग्न हो जाता है।
गद्दी पर बैठते ही इस मुल्क में कोई आदमी लोकतांत्रिक नहीं रह जाता। लोकतांत्रिक आदमी ही नहीं है। जब तक ताकत नहीं है, तब तक वह हाथ जोड़ कर आपके द्वार पर खड़ा होता है। जैसे ही ताकत आती है, वह आपको पहचानना बंद कर देता है। यह बड़ी अजीब बात है। और अगर यह बात जारी रहती है, तो भारत आज नहीं कल, किसी न किसी तरह की ताना शाही में फंस जाने को आबद्ध होगा।
आज जो दिल्ली में हो रहा है, वह किसी आने वाली तानाशाही की सूचनाएं हैं। वह आज नहीं कल, इस वर्ष नहीं अगले वर्ष, हम उसी गड्ढे में गिरेंगे, जहां दुनिया के सभी लोकतंत्रों के गिरने का डर होता है। हमारा डर सबसे ज्यादा है। हमारा डर सबसे ज्यादा इसलिए है कि हमने स्वीकार ही यह किया है कि राजा को हम मानते थे भगवान! जो देश राजा को भगवान मानता रहा हो--अब भी उसके मन में वही भाव है। भाव कहीं खो नहीं गया है, और आदमी आदमी के बीच समानता की हमारी कोई दृष्टि नहीं है।
तो बहुत खतरा है इस बात का--कि आज नहीं कल, लोकतंत्र की हत्या हो जाए। और शक्ति के पीछे अंधे लोग किसी भी क्षण हत्या कर सकते हैं। वे लोकतांत्रिक तभी तक हैं, जब तक लोकतंत्र उन्हे सत्ता तक पहुंचाए। सत्ता में पहुंचते ही उनका लोकतंत्र विदा हो जाता है। किसी ने कहा--मुझे लगता है, भारत में सही हो जाएगा। शायद किसी ने कहा है--लोकतंत्र तानाशाहों को चुनने की एक प्रक्रिया है! लोकतंत्र भी तानाशाहों को चुनने की एक प्रक्रिया है? तानाशाह भी आपकी मर्जी से चुने जाएं ऐसी प्रक्रिया है! अगर लोकतंत्र का यही मतलब हो, तो भारत में वह दिखाई पड़ता है। और जो संघर्ष हमें दिखाई पड़ रहा है सब तरफ, वह हमारे भीतर मनों में जो उपद्रव है, कांफ्लिक्ट है--मन है एंटी-डेमोक्रेटिक! और व्यक्तित्व हम देश का बनाना चाहते हैं--लोकतांत्रिक!
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। लोकतांत्रिक व्यक्तित्व तभी बन सकता है जब भीतर मन भी लोकतांत्रिक हो! भारत का पूरा मन बदल जाए, तो भारत की राजनीति स्वस्थ, सुंदर, सुखद हो सकती है। और वह तब सत्ता का आग्रह और दौड़ ही नहीं रह जाएगी। भारत सदा व्यक्ति का पूजक है और जो कौमें भी व्यक्ति की पूजा करती है, वह लोकतांत्रिक नहीं हो सकतीं। व्यक्ति की पूजा का मतलब ही यह है, कि एक व्यक्ति महान है और दूसरे लोग हीन हैं। एक व्यक्ति महात्मा है, दूसरे लोग हीन-आत्मा हैं। एक भगवान है, दूसरे लोग साधारण हैं। व्यक्ति की पूजा करने वाली कोई कौम, कभी लोकतांत्रिक नहीं हो सकती क्योंकि लोकतंत्र की घोषणा यही है कि कोई महान नहीं है, कोई छोटा नहीं है, सब समान हैं।
समानता का यह भाव हमारे भीतर बिलकुल नहीं है। हम सदा से पैर छूते रहे हैं, हम सदा से सिर झुकाते रहे हैं, हम सदा से किसी को बड़ा और किसी को छोटा मानते रहे हैं। यह छोटा और बड़ा मानने की, हमारी जो अब तब की पूरी-पूरी कल्पना और धारणा रही है, वही धारणा आज भी काम कर रही है। इसीलिए तो एक आदमी राजनैतिक पद पर खड़ा हो जाए, तो भगवान हो जाता है। सारे अखबार उसकी खबरों से भर जाते हैं, सारी खुशियां उसको मिल जाती हैं। फिर मुल्क में कोई नहीं रहता, वही रह जाता है। पद से वह आदमी नीचे उतरा और वह बिलकुल भूल जाता है; उसका कोई पता नहीं चलता। राधाकृष्णन कहां खो गए? पता लगाना मुश्किल है। कहां रहते हैं? यह भी पता लगाना मुश्किल है। एक आदमी सत्ता से नीचे उतरा, कि गया; वह हमारे लिए फिर भगवान नहीं रह गया। सत्ता पर पहुंचा कि एकदम भगवान हो जाता है।
यह जो हमारी स्थिति रही और हम व्यक्ति को इस भांति सत्ता पर बल देते रहे, और पद को इतना मूल्य देते रहे; तो फिर इस मुल्क में स्वस्थ वातावरण निर्मित होना मुश्किल हो जाएगा। मुझे लगता है, कि हम शायद सर्वाधिक रूप से पद-पीड़ित समाज हैं। पद सब कुछ है। पद से हीन व्यक्ति की कोई हमें चिंता और विचार नहीं है। अगर ऐसा होगा, तो सभी एंबीशियस और महत्वाकांक्षी लोग पदों की तरफ दौड़ने लगेंगे।
आज कोई आदमी अच्छा शिक्षक नहीं होना चाहता। क्यों हो? शिक्षकों के दिवस पर मैं दिल्ली बोलने गया था। तो मैंने शिक्षकों से कहा कि मैं बहुत हैरान हूं। राधाकृष्णन शिक्षक थे और राष्ट्रपति हो गए; इसीलिए तुम शिक्षक-दिवस मना रहे हो? मुझे तो समझ नहीं आता कि इसमें क्या फर्क है? मैंने उनसे प्रार्थना की, जब कोई राष्ट्रपति शिक्षक हो जाए तब तुम शिक्षक-दिवस मनाना। अभी तो शिक्षक-दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं लगता है।
एक शिक्षक राजनीतिज्ञ हो जाए, तो यह शिक्षक का अपमान हुआ कि सम्मान? एक राजनीतिज्ञ शिक्षक हो जाए और कहे, कि अब दिल्ली छोड़ता हूं और जाकर बड़ौदा के पास एक गांव में शिक्षक हो जाऊंगा; तो तुम शिक्षक-दिवस मनाना। लेकिन शिक्षक राजनीतिज्ञ हो जाए तो शिक्षक-दिवस शुरू हो जाता है। और इसका परिणाम यह होता है कि सब शिक्षक थोड़ी-बहुत कोशिश करके कुछ न कुछ होने की दौड़ में लग जाते हैं। हिंदुस्तान का एक भी शिक्षक अब शिक्षा में उत्सुक नहीं है। कम से कम उप-शिक्षामंत्री हो जाए, शिक्षामंत्री हो जाए, इंस्पेक्टर ही हो जाए कम से कम! दौड़ जारी है।
कोई शिक्षक शिक्षा में उत्सुक नहीं है; क्योंकि शिक्षा का कोई सम्मान नहीं है। जर्मनी में कोई किसी शिक्षक को कहे कि चलो, मंत्री बना देते हैं; तो वह कहेगा, ‘पता नहीं, मैं प्रोफेसर हूं।’ वह इस तरह से कहेगा, ‘क्या मुझे अपदस्थ करना चाहते हो? नीचे उतारना चाहते हो? मैं प्रोफेसर हूं विश्वविद्यालय का! मंत्री होने का क्या सवाल है?’
कब ऐसा दिन इस मुल्क में होगा? उस दिन राजनीति स्वस्थ हो सकेगी। जब यह सारा का सारा मुल्क एक ही महत्वाकांक्षा से भर जाए पद की; तो एक बहुत ही उपद्रवपूर्ण कलह शुरू हो जाएगी। हमें बहुत दिशाओं में सम्मान बांटना चाहिए। शिक्षक का अपना सम्मान है, संगीतज्ञ का अपना है, चित्रकार का अपना है, अभिनेता का अपना है, संन्यासी का अपना है। लेकिन सब विलीन हो गया, अब किसी का सम्मान नहीं है। पद पर जो खड़ा हो, उसका ही सम्मान है।
आज अगर किसी संन्यासी को भी सम्मानित होना हो, तो पहले किसी मिनिस्टर को खोजना पड़ता है। मिनिस्टर संन्यासी के पास आकर हाथ जोड़ कर बैठ जाए, तो संन्यासी भी प्रतिष्ठित हो जाता है; नहीं तो संन्यासी का भी अब प्रतिष्ठित होने का कोई उपाय नहीं। अगर ऐसी स्थिति हमने बनाई, तो स्वाभाविक होगा कि सभी एंबीशियस, सभी महत्वाकांक्षी लोग राजनीति की तरफ दौड़ें।
सभी ओछे, क्षुद्र मन के, हीन मन के लोग राजनीति की तरफ दौड़ें, तो वहां अगर एक अंतर-कलह की...और जहां बहुत लोग संघर्ष करने में लगें, वहां के साधन अशुद्ध हो जाएं तो आश्चर्य नहीं! दिल्ली वैसा ही अड्डा बन गया! छोटे अड्डे--अहमदाबाद है, भोपाल है, पटना है। सब छोटे अड्डे हैं। और छोटे-छोटे अड्डे हैं। फिर एक-एक गांव छोटा-छोटा अड्डा हो गया।
सारा मुल्क, सारा देश सत्ता पाने की चेष्टा में इस भांति पागल है कि समझ के बाहर हैै; कि यह मुल्क कुछ और भी सोचेगा? और भी विचारेगा, कोई और दिशा नहीं है? कोई जिंदगी में और क्रिएटिव, सृजनात्मक दिशा नहीं है? कोई दिशा नहीं मालूम पड़ती। सब अखबार उनके, सब रेडियो उनके लिए, सब सम्मान उनके लिए, तो फिर सभी आदमी पागल हो जाएंगे। और जो आदमी जितना पागल होता है उतना ज्यादा पद का आकांक्षी होता है।
पागल आदमी कहीं ऊंची जगह खड़े होकर घोषणा करना चाहता है; कि मैं कुछ हूं। समबडी होने की बड़ी गहरी आकांक्षा पागल आदमी में होती है। अगर दुनिया कभी अच्छी हुई, तो शायद हमें पता चले कि दुनिया के आधे पागल इसीलिए पागल होने से बच गए, कि उन्हें राजनीति में जाने का मौका मिल गया। अगर हिटलर राजनीति में न जाए, तो पागलखाने में हो। अगर माओ राजनीति में न जाए, तो राजनीति में जाने के सिवाय और कोई जगह नहीं मिल सकती, जहां वह हो।
हमारे राजनीतिज्ञ उतने बड़े पागल नहीं होते हैं। उतने बड़े राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। छोटे-मोटे पागलखानों मंे इनकी भी जगह हो सकती है, बहुत बड़े पागलखाने में इनके लिए जगह नहीं हो सकती है। लेकिन पागलपन पैदा हुआ है। और एक मैडनेस है। यह भी अगर हम गौैर करें; तो हमारे अतीत की धारणाओं से ही निकलती है बात। पद के बड़े ही सम्मान करन ेवाले लोग रहे। सत्ता और शक्ति के, धन के और व्यक्ति-पूजा के हम इतने दीवाने रहे हैं कि वह हमारा सब जारी है। अब भी वैसे का वैसा ही जारी है। लोकतंत्र ऐसे निर्मित नहीं हो सकता। यह धारणा हमें छोड़नी पड़ेगी। यह रुग्ण धारणा है, छोड़नी पड़ेगी कि व्यक्ति पूजा के योग्य है या व्यक्ति छोटे और बड़े हैं।
इंग्लैंड में चर्चिल की जरूरत थी, बुला लिया। युद्ध आया, चर्चिल की जरूरत थी; चर्चिल हुकूमत में आ गया। युद्ध गया, दुनिया सोच भी नहीं सकती कि चर्चिल ऐसे चुपचाप विदा कर दिया जाएगा। हम कभी विदा नहीं करते। हम कभी कर ही नहीं सकते थे; क्योंकि हम सोचते कि इतना बड़ा काम किया चर्चिल ने, अब हम कैसे छोड़ सकते हैं! तो पूजा करो, मूर्तियां खड़ी करो, मालाएं पहनाओ, गुणगान करो। अब हम यह काम करते हैं। चर्चिल को हम कभी नहीं छोड़ सकते थे। इंग्लैंड ने ऐसी सरलता से छोड़ दिया, जैसे काम पूरा हो गया। बुलाया था, काम पूरा हो गया, आदमी गया। व्यक्ति की कोई पूजा नहीं है, व्यक्ति का उपयोग है।
हम व्यक्ति की पूजा करते हैं, व्यक्ति का कोई उपयोग नहीं। तो एक दफा एक आदमी छाती पर बैठ जाए, उसकी जरूरत भी पूरी हो जाए, तो वह आदमी फिर बैठा ही चला जाता है। और कोई आदमी इस
देश में रिटायर तो होना नहीं चाहता। कोई कभी रिटायर नहीं होना चाहता। वह तो जो लोग मर गए है, अगर उनको फिर मौका मिल जाए, तो कब्रों से वापस लौट आएं। वह तो अगर मरघटों में खबर कर दी जाए कि राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा है, मुर्दे भी खड़े हो सकते हैं। तो मुर्दे सब खड़े हो जाएंगे। कोई आदमी सत्तर-पचहत्तर साल का, कितना ही हो जाए, वह किसी पद से हटना नहीं चाहता है। भारत की राजनीति में एक उपद्रव यह है कि वृद्धजन हटना नहीं चाहते। तो जो युवा हैं, जो उनकी जगह जाना चाहते हैं, संघर्षरत हैं, वह इस कलह का कारण बन गए हैं।
वृद्धों को हटाने योग्य क्षमता आनी चाहिए। सच तो यह है, कि वृद्धों को पता होना चाहिए, कि बच्चों का खेल है कुछ। उम्र ज्यादा हो जाए, प्रौढ़ता बढ़ जाए, तो दूसरे बच्चों को खेलने का मौका होना चाहिए। उन्हें हट आना चाहिए। कोई हटना नहीं चाहता, जब तक उसे धक्का न दिया जाए। और धक्का देने पर भी जब तक वह कुर्सी को पकड़ रहे किसी तरह से, आखिरी दम तक; तब तक वह पकड़े रहेगा, छोड़ नहीं सकता। ऐसी बेहूदगी...पर एब्सर्डिटी हो गई है, कि उस सब में बड़ा अजीब मालूम पड़ रहा है, कि यह मुल्क कैसे आगे बढ़े!
वृद्ध को हटने के योग्य क्षमता जुटानी चाहिए। जो काम कर सकते हैं, व्यक्तियों की पूजा नहीं--काम का सम्मान होना चाहिए। और काम पूरा हो जाए तो व्यक्तियों को हटना चाहिए और हमें हटाने की हिम्मत होनी चाहिए। यह अकृतज्ञता नहीं है। वह कोई ग्रेटिट््यूट की कमी नहीं है। यह सिर्फ इस बात की स्वीकृति है कि बीमार था आदमी, हमने डाक्टर को बुला लिया था। अब बीमारी खत्म हो गई, अब डाक्टर को हम वहीं बिठाए हुए है; तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। डाक्टर को अब विदा कर देना चाहिए, सम्मानपूर्वक।
हिंदुस्तान आजाद हुआ। जिन लोगों ने स्वतंत्रता का संघर्ष किया, जरूरी नहीं है कि वे सत्ता करने में भी कुशल हों। यह बिलकुल उलटी बात है। इससे कोई संबंध नहीं है। सच तो यह है कि जो लोग सेवा करने में कुशल हैं, उनके हाथ में सत्ता देना बड़ा खतरनाक हो सकता है। जो लोग युद्ध के--जो लोग स्वंतत्रता के युद्ध में लड़ने में, जिन्होंने बड़ी क्षमता दिखलाई है, जरूरी नहीं है कि वे सत्ता करने में भी उतनी ही कुशलता दिखाएं। लेकिन ऐसा ही हो गया है।
वह जेल जाना सर्टिफिकेट हो गया सत्ता करने का। जेल जानेवाले को हमें सम्मान देना चाहिए, लेकिन सम्मान देने का मतलब यह नहीं कि वह सत्ता में बैठ जाए। तो कोई भी ऐरा-गैरा आदमी, जो किसी भी तरह जेल गया था, या किसी तरह से अब भी जेल का झूठा सर्टिफिकेट ला सकता हो, तो वह सत्ता का हकदार हो गया। हमें व्यक्तियों की फिकर है, हमें कामों की जरा भी फिकर नहीं है। इसलिए सारी की सारी राजनीति अजीब हालत में पड़ गई। देश आजाद हुआ था। सोचा जाना चाहिए था कि कौन लोग काम के साबित हो सकते हैं? नहीं, यह नहीं सोचा गया। किन लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। आजादी की लड़ाई लड़ना एक बात है, सत्ता करना बिलकुल दूसरी बात है! जीवन को व्यवस्था देना, समाज को गति देना बिलकुल दूसरी बात है।
तो ऐसी हालत हो गई कि जो लोग अंगूठा से निशान लगाते हैं, वे शिक्षामंत्री होकर बैठ गए हैं। इसकी कोई फिकर ही नहीं रही, कि शिक्षामंत्री होने का क्या मतलब हो सकता है! एक अत्यंत अव्यवस्था और अराजकता पैदा हुई है। वह अब भी जारी है। उसमें अभी भी कोई फर्क नहीं हो गया है। व्यक्ति की पूजा होनी छोड़ देनी चाहिए। काम महत्वपूर्ण है, व्यक्ति नहीं। और राष्ट्र महत्वपूर्ण है, समाज महत्वपूर्ण है, व्यक्ति नहीं! कौन हितकर है, उसे हम पुकारेंगे; कौन हितकर नहीं है, उसे हम विदा कर देंगे। विदा अपमान नहीं है, विदा केवल काम का पूरा हो जाना है। लेकिन वह कोई भाव मुल्क में पैदा नहीं होता है।
और तीसरी आखिरी बात आपसे कहना चाहता हूं, जिससे उलझन भारी होती चली जाती है। भारत का जो मन है, वह जो हमारा नेशनल माइंड है, उस राष्ट्रीय चित्त में एक बहुत गहरी बात है और वह बात बिलकुल असामाजिक है, एंटी-सोशल है। भारत के पांच-छह हजार वर्ष के चिंतन ने एक-एक व्यक्ति को निपट स्वार्थी बना दिया है। अपने तक केंद्रित कर दिया है। हर व्यक्ति का अपना मोक्ष है भारत में। हर व्यक्ति का अपना सुख है।
सामूहिक सुख, सामूहिक मुक्ति, सामूहिक आनंद की कोई कल्पना ही नहीं है--है ही नहीं। हमने कभी सोचा ही नहीं इस तरह। हम तो हरेक को समझाते हैं, पति को हम कहते हैं, तू अपनी फिकर कर, पत्नी अपनी फिकर करे, तेरा बेटा अपनी फिकर करे। कोई किसी के सुख में भागीदार नहीं है। हमने एक-एक व्यक्ति को इस तरह तोड़ दिया है, कि जिसको कम्युनिटी कहें, समाज कहें, वह भारत में पैदा ही नहीं हुआ। प्रत्येक व्यक्ति अपनी फिकर कर रहा है, अपना मोक्ष, अपना स्वर्ग खोज रहा है। अपने पाप-पुण्यों का हिसाब रख रहा है।
दूसरे से क्या संबंध है? दूसरे से कोई संबंध नहीं है। एक अंतर्संबंधी की भावना ही पैदा नहीं हुई। इसलिए समुदाय कैसे सुखी हो? समाज कैसे सुखी हो? समाज कैसे बढ़े, आगे विकसित हो? यह हमारे मन में नहीं है। एक-एक व्यक्ति अपनी-अपनी फिकर में लगा है। एक-एक व्यक्ति पहले मोक्ष की फिक्र करता था, अब एक-एक व्यक्ति पद की, धन की! एक-एक व्यक्ति अपनी-अपनी फिकर कर रहा है। इसलिए पूरा मुल्क एक बड़ी अंतर-कलह में, एक कांफ्लिक्ट में और युद्ध में पड़ा हुआ है। जहां भी व्यक्तियों के व्यक्तिगत स्वार्थ बहुत महत्वपूर्ण हों और समाज का कोई स्वार्थ न हो, वहां यह हो जाना सुनिश्चित है। राजनीति में उसके सब फफोले और घाव और फोड़े फूटने शुरू हो गए हैं। यहां एक-एक व्यक्ति अपने में उत्सुक है। यहां कोई व्यक्ति किसी दूसरे में उत्सुक नहीं है।
एक किताब मैं पढ़ रहा था--‘उन्नीस सौ पचहत्तर’ किताब का नाम है। लेखकों ने घोषणा की है--बड़ेे अर्थशास्त्री हैं, तीन लेखक--उन्होंने घोषणा की है, कि भारत में उन्नीस सौ अठहत्तर तक, उन्नीस सौ पचहत्तर और अस्सी के बीच इतना बड़ा अकाल पड़ेगा कि जिसमें दस करोड़ से बीस करोड़ तक लोग मर सकते हैं। और मुझे लगता है कि उन्होंने जो दलीलें दी हैं, वे सब सही हैं, उनमें कुछ कमी नहीं है। यह हो सकता है। दिल्ली में एक बहुत बड़े नेता से, नाम उनका नहीं लूंगा--नाम लेने से इस मुल्क में बड़ी मुश्किल होती है; बड़ी झंझटें खड़ी हो जाती हैं--उनका नाम नहीं लूंगा, उनसे मैंने कहा कि आपने यह किताब पढ़ी है? उन्नीस सौ अठहत्तर में अर्थशास्त्री कहते हैं--भारत में मुल्क के इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ेगा। उन्होंने कहा, उन्नीस सौ अठहत्तर अभी बहुत दूर है, अभी तो उन्नीस सौ बहत्तर का सवाल है। उन्नीस सौ अठहत्तर से किसको मतलब है? न हम रहेंगे, न सवाल है। वह जो रहेंगे, वह जानेंगे।
किसी को मतलब नहीं है पूरे देश से। प्रत्येक को अपने से मतलब है कि मैं कितनी देर सत्ता में, संपत्ति में, रह सकता हूं। इसके बाद बात खत्म हो जाती है। पूरा मुल्क--हमारा पूरा मुल्क व्यक्तियों की भीड़ है, समाज नहीं है। हम एक भीड़ हैं, न हम राष्ट्र हैं, न हम समाज हैं, हम एक क्राउड हैं, बड़ी। इसलिए हम कभी भी गुलाम हो सकते हैं। गुलाम रहे हम एक हजार साल इसीलिए! क्योंकि इस मुल्क में कोई समाज था ही नहीं। अगर एक आदमी का कोई कत्ल कर रहा था--दूसरे लोगों ने सोचा, हमें क्या मतलब है? अगर एक प्रांत जीत लिया गया, एक राज्य हर गया--दूसरे राज्यों ने सोचा, हमें क्या मतलब है? लोग हारते चले गए, किसी को मतलब न था।
दुश्मन बहुत कम आए थे हिंदुस्तान में। शायद बाबर हजार-पांच सौ आदमियों को लेकर प्रविष्ट हुआ था। करोड़ों के मुल्क को जीत लेना कितना कठिन था; लेकिन यहां एक-एक आदमी था, यहां मुल्क था ही नहीं। तो पांच सौ आदमी एक आदमी के खिलाफ बहुत मजबूत पड़ गए। इतने थोड़े से अंग्रेज इतने बड़े मुल्क पर, इतने दिन हुकूमत कर सके, उसका और कोई कारण न था। यहां कोई समाज था ही नहीं। उनका एक समाज था। अगर तीन लाख अंग्रेज भी भारत में थे, तो वे हमसे ज्यादा थे। हम चालीस करोड़ बेकार थे। वे तीन लाख का एक समाज था, एक कम्युनिटी थी। यह चालीस करोड़ की भीड़ है। इस भीड़ में कोई अर्थ नहीं, किसी को किसी से कोई प्रयोजन नहीं।
अगर भारत को कहीं भी, इन जीवन की सारी गंदगियों को, राजनीति के सारे उपद्रवों को शांत करना हो, और एक ठीक राजपथ पर भारत के भविष्य को ले जाना हो, तो भारत की व्यक्तिगत स्वार्थ की प्रवृत्ति को तोड़ना ही पड़ेगा। एक-एक बच्चे को सिखाना पड़ेगा, कि ‘तुम्हारा सुख’ जैसी चीज नहीं होती। ‘हमारा सुख’ जैसी चीज होती है। ‘तुम’ जैसा कुछ नहीं होता, ‘हम’ जैसी कोई चीज होती है। सुख व्यक्ति का नहीं होता, हम सबका सामूहिक अंतर्सम्बंध है। और दुख भी अंतर्संबंध है। लेकिन हम भारत को समझा रहे हैं। एक आदमी गरीब है, तो हम कहते हैं, अपने कर्मों का फल भोग रहा है। हम समाज से तोड़ देते हैं उसको। हम यह नहीं कहते कि समाज की गलत व्यवस्था का फल भोग रहा है। हम कहते हैं, अपने कर्मों का फल भोग रहा है।
राष्ट्र की कोई आत्मा, समाज की कोई अपनी आत्मा न हो, तो जो हो रहा है, वह होगा। और विघटन होगा, और डिसइंटीग्रेशन होगा। मद्रास कहेगा--मैं अलग। बंगाल कहेगा--मैं अलग। केरल कहेगा--मैं अलग। और अभी तो यह प्रांतों की बातें हैं, जिले भी पीछे नहीं रहेंगे। बड़ौदा कहेगा, अहमदाबाद के साथ बंधे रहने की जरूरत क्या है? और अगर भारत की बुद्धि को पूरा खुल कर खेलने का मौका दिया जाए...मैंने सुना है, बुद्ध के जमाने में भारत में दो हजार राज्य थे... अगर भारत की बुद्धि को पूरा मौका दिया जाए या भारत की प्रतिभा कोे, ‘जीनियस’ को, जिसको हम बड़ा आदर करते हैं--तो दो हजार से ज्यादा राज्य फिर हो सकते हैं। कोई कठिनाई नहीं है।
हमारी बुद्धि ही अजीब है। नर्मदा किसकी है, मध्यप्रदेश की है कि गुजरात की? झगड़ा चलेगा वर्षों तक। वहां प्यासा कोई मर जाए, खेत में पानी न पहुंचे, यह झगड़ा चलता रहेगा। नर्मदा का पानी किसका? कौन कितना ले? यह तय नहीं हो सकता। नर्मदा हिंदुस्तान की नहीं है। या तो मध्य प्रदेश की है या गुजरात की है। और एक जिला मैसूर में रहना चाहिए कि महाराष्ट्र में, इस पर गोलियां चलेंगी, दंगे-फसाद होंगे--आश्चर्यजनक है! आने वाले बच्चे हमारे सोचेंगे, क्या हमारे मां-बाप पागल थे? क्या था इनके दिमाग में? हो क्या गया था? जिला गुजरात में होता है कि महाराष्ट्र में, फर्क क्या पड़ता है? जिला हिंदुस्तान का है। लेकिन हिंदुस्तान का न कोई जिला है, न कोई नदी है, न कोई पहाड़ है। सब पहाड़, सब नदियां, सब जिले किसी प्रदेश के हैं। और चीजें आगे बढ़ती चली जाएंगी।
अभी मैं पटना में था, बिहार में। वहां वे कहते हैं, हमारा झारखंड अलग होना चाहिए। मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड के लोग कहते हैं, बुंदेलखंड अलग होना चाहिए। तैलंगाना अलग होना चाहिए, विदर्भ अलग होना चाहिए। सब अलग होना चाहिए। अगर हम पूरा मौका दें तो एक-एक आदमी, आखिरी जो नतीजा है एनालिसिस का, वह यह है--कि मैं अलग, तुम अलग। मैं एक अलग राष्ट्र, तुम एक अलग राष्ट्र! इसने हमें तीन हजार वर्ष तक पीड़ित किया था, वह फिर वैसा होना शुरू हो गया है।
यह हैरानी की बात है, कि हमने अंग्रेजी की गुलामी में पहली दफे एक राष्ट्र की शक्ल ली है। हम इसके पहले कभी राष्ट्र नहीं थे। यह इतना दुखद है कि गुलाम कौम राष्ट्र बनी और आजाद कौम कभी राष्ट्र नहीं थी।
चर्चिल ने हिंदुस्तान की आजादी के दिन, पंद्रह अगस्त को यह कहा था--कि तुम फिकर मत करो, उनको आजाद हो जाने दो, तुम एक पंद्रह-बीस साल में देखोगे, कि उन्होंने गुलामी की सब व्यवस्था फिर से पैदा कर ली है। दो सौ साल का हमारा उन्हें अनुभव है। और उसने कहा--कि सब टूट जाएंगे और बिखर जाएंगे। वह आपस में लड़ जाएंगे, टूट जाएंगे, बिखर जाएंगे। और हमने वह सारा बिखराव शुरू कर दिया है; लेकिन इन बिखरावों को अगर हमने इमिजिएट समझा, कि अभी का मामला है, तो गलती हो जाएगी। फिर हल...फिर हल नहीं होगा। इसलिए मैंने कहा, ‘आज’ बिलकुल आज नहीं है। हमारा पूरा अतीत उसके पीछे खड़ा है। आज की राजनीति बिलकुल आज की नहीं है। पूरा अतीत पीछे से धक्के दे रहा है। उसे अगर हम समझेंगे, तो हम काॅ.जेज, कारण अलग कर सकते हैं। और अगर हमने समझा कि पीछे का कोई सवाल नहीं है, यह सवाल बिलकुल आज का है, तो हम जो भी हल करेंगे, वे हल दस परेशानियां खड़ी करंगे और हल नहीं हो सकता है। पूरे भारत के चित्त को बदलना जरूरी है।
तीन चार बातें मैंने कहीं--उन्हें दोहरा दूं--पहली बात! अच्छा आदमी राजनीति के प्रति वैराग छोड़े और बुरे आदमी को राजनीति में जाने से रोकने के सब उपाय होने चाहिए। लेकिन बुरे आदमी की अपनी तरकीबें हैं। वह कहता है, यह सवाल अच्छे-बुरे आदमी के चुनाव का थोड़े ही है। यह सवाल तो कम्युनिस्ट, कांग्रेसी और सोशलिस्ट का है। अच्छे और बुरे के बीच विकल्प ही नहीं होता है। वह कहता है, सोशलिस्ट को चुनो, कम्युनिस्ट को चुनो, कांग्रेस को चुनो! किसको चुनना है? और तीनों बुरे आदमी खड़े हैं। सवाल अच्छे और बुरेे के बीच नहीं है, सवाल कम्युनिस्ट और कांग्रेसी, जनसंघी और कांग्रेसी के बीच है। और दोनों मौसेस भाई हैं, इसमें कोई फर्क नहीं है।
अभी मुझसे किसी ने पूछा कि मोरार जी को चाहेंगे? मोरार जी भाई को चाहेंगे आप कि इंदिरा को? तो मैंने कहा, इंदिरा बहन हैं, और मोरार जी भाई हैं। भाई-बहन में कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं है। झगड़े घरेलू हैं और भीतरी! और कोई आ जाए तो फर्क नहीं पड़ता। भाई उतने साबित होंगे, जितनी बहन साबित होने वाली है। भाई-बहन के झगड़े हैं, चुनाव बहुत ज्यादा नहीं है। लेकिन हम इस चुनाव में पड़ जाते हैं, कि इसको चुनें या उसको।
मैंने सुना है कि जापान में बैरे बहुत कुशल हैं। सारी दुनिया में आप जाएं, तो वह आपसे पूछेंगे कि आप भोजन के बाद चाय लेंगे कि नहीं लेंगे? जापान में ऐसा नहीं पूछेंगे। वह पूछेंगे--भोजन के बाद चाय लेंगे या काफी? विकल्प आपको ‘नहीं’ का देते ही नहीं। चाय लेंगे या काफी? तो आदमी को सीधे ही सूझता है कि क्या लंू, चाय लूं कि काफी? अगर किसी ने पूछा कि भोजन के बाद चाय लेंगे कि नहीं लेंगे, तो विकल्प दो है, कि लेना है कि नहीं लेना है। पहले वाला बैरा ठीक पोलिटिकल नहीं है, राजनीतिक नहीं है। उसकी समझ कम है। वह आदमी को गलत विकल्प दे रहा है, इनकार करने का विकल्प भी दे रहा है। नहीं, विकल्प यह देना चाहिए कि चाय लोगे कि काफी? तो कुछ आदमी सोचेगा, कि यह ले लूं कि वह। उसे ‘नहीं’ का खयाल ही नहीं आता, इमिजिएट नहीं का खयाल नहीं आता।
हमारे सामने आदमी खड़े होते हैं। एक लाल रंग की टोपी लगाए है, एक सफेद रंग की टोपी। वह दोनों एक जैसे हैं। वह कहते हैं, किसको चुनते हैं, सफेद टोपी कि लाल टोपी को? और हमको खयाल आता है कि इसको चुनें कि उसको? लेकिन यह खयाल नहीं आता कि बुरे आदमी को चुनें कि अच्छे आदमी को? इसका विकल्प नहीं है।
बुरे आदमी को हटाना जरूरी है--सब तरफ से, चाहे वह कांग्रेसी हो और चाहे कम्युनिस्ट हो, चाहे सोशलिस्ट हो, यह सवाल नहीं है। हिंदुस्तान के सामने सवाल यह है, कि अच्छा आदमी कैसे जाए और एक नई हवा पैदा करनी चाहिए कि अच्छे आदमी को चुनो; वह किस पार्टी का है, यह दो कौड़ी की बात है? पार्टियों का मूल्य उतना बड़ा नहीं है। अंततः आदमी कैसे जाए? बुरे आदमी को हटाने की, अच्छे आदमी के वैराग को तोड़ने की जरूरत है।
दूसरी बात आपसे मैंने कही कि यह जो इतने लंबे दिनों से हम जिस भाषा में सोचते रहे हैं, जो हमारे सोचने की कैटेगरीज हैं, धारणाएं हैं, उन धारणाओं ने ‘व्यक्ति’ को ज्यादा मूल्य दे दिया है, ‘समाज’ का कोई मूल्य नहीं! समाज का मूल्य स्थापित करना जरूरी है। यह मैंने कहा--कि हम व्यक्ति को आदर देते हैं, पूजा देते हैं, काम की कोई चिंता नहीं है। व्यक्तियों का कोई आदर और पूजा नहीं होती है, और हम गैर लोकतांत्रिक हैं। हमारी चिंतना छोटे और बड़े की भाषा में सोचती है। अब तक हमारा लोकतांत्रिक मन नहीं हो सका और लोकतंत्र खड़ा करने चले हैं! यह मैंने कहा कि हीनभाव के लोग राजनीति में तीव्रता से दौड़ते हैं, और हीनभाव का आदमी खतरनाक है। क्योंकि एक तरह से रुग्ण है, बीमार है। उन आदमियों को भेजने, सोचने, तैयार करने की जरूरत है, जो न हीन हैं, न श्रेष्ठ हैं--जो, जो हैं, वह होने में आनंदित हैं--जो कहीं से भी हट सकते हैं बिना कठिनाई के, कहीं भी काम में लाए जा सकते हैं। व्यक्ति-पूजा बंद करनी जरूरी है। और समाज का हित कैसे हो, यह चिंतन ज्यादा मूल्यवान है।
राष्ट्र नहीं है, समाज नहीं है हमारे पास। वह पैदा करना है। वह पैदा नहीं होगा हमारे पुराने ढांचे में सोचने से, और हम उस पुराने ढांचे के कारण जो भी सोचते हैं, उससे राष्ट्र टूटता है। उससे राष्ट्र टूटता चला जाता है। हम जो भी सोचते हैं--कहीं सोचते हैं, भाषावर प्रांत हो, तो राष्ट्र टूटता है। अब हम सोचते हैं, एक राष्ट्रभाषा हो, उससे भी राष्ट्र टूट रहा है। हम जो भी करते हैं, उससे चीजें टूटती हैं, बिखरती हैं, बनती नहीं है। कोई जरूरत नहीं है राष्ट्रभाषा की। जब राष्ट्र ही नहीं है, तब राष्ट्रभाषा कैसे होगी? राष्ट्र हो तो राष्ट्रभाषा भी हो सकती है। राष्ट्र है ही नहीं, आप राष्ट्रभाषा के लिए चिल्ला रहे हैं। नहीं हो सकता। देश में पच्चीस राष्ट्र हैं, पच्चीस राष्ट्रभाषाएं रहेंगी अभी। और अगर एक लादने की कोशिश की, तो ये पच्चीस टूट जाने वाले हैं, एक लादी नहीं जा सकती। अभी तो राष्ट्र को पैदा करो। उन पच्चीस को निकट लाओ और राष्ट्र बनेगा, तो राष्ट्रभाषा बन जाएगी। राष्ट्रभाषा राष्ट्र की छाया है, इसके पहले नहीं आती। राष्ट्र है ही नहीं, तो राष्ट्रभाषा भी और राष्ट्र को तोड़ने का कारण बनेगी। राष्ट्रभाषा तो बन नहीं सकती।
मैं आपसे कहता हूं--राष्ट्रभाषा अभी पचास साल नहीं बन सकती; क्योंकि राष्ट्र है नहीं। तो बेहतर है, मत उपद्रव खड़े करो। जितनी भाषाएं हैं, उनको स्वीकार कर लो। थोड़ी मेहनत होगी, अनुवाद से काम चलाओ; लेकिन राष्ट्रभाषा का सवाल छोड़ दो। जो भी तोड़ता हो, वह सवाल छोड़ दो; जो जोड़ता हो, वे सवाल इकट्ठे करो। जिससे हम जुड़ते हों, इकट्ठे होते हों, करीब आते हों, वह सब हम करें और एक राष्ट्र और एक समाज बने। एक लोकतांत्रिक चित्त पैदा हो, और भले आदमी के लिए हमने जो दीवालें उठाई हैं, वह हम अलग कर दें, तो शायद जैसा उलझाव हमें दिखाई पड़ती है, वह बदल सकता है।
मैं नहीं जानता, क्योंकि मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं, लेकिन दिखता जो है, वह मैंने आपसे कहा। आपने शायद सोचा होगा कि आज की राजनीति पर मैं उन्हीं सब बातों की बातें करूंगा, जो रोज सुबह आप अखबार में पढ़ रहे हैं, तो आपने गलत सोचा होगा। उससे मुझे कोई मतलब नहीं है। सिर्फ वह लक्षण हैं बीमारियों के, लक्षण हैं सिर्फ ऊपर के। भीतरी बीमारियां और हैं।
लक्षणों के सोचने से कुछ हल नहीं होता है। एक आदमी को बुखार चढ़ा है, एक आदमी हाथ को गरम देख कर समजे कि गरम होना बीमारी है, ठंडा पानी डालो, ठंडा करो इस आदमी को। हो जाएगा आदमी ठंडा! बिलकुल ठंडा हो जाएगा! नहीं, बीमारी है, बुखार नहीं है, बीमारी। वह जो गर्मी मालूम हो रही है, वह बीमारी नहीं है, बीमारी कहीं भीतर है, बुखार सिर्फ खबर है। बुखार सिर्फ खबर दे रहा है, कि आदमी भीतर कहीं रुग्ण हो गया है। उस भीतर के रोग को खोजो, तो यह बुखार चला जाएगा। बुखार सिर्फ सिंबालिक है। तो यह जो हमें दिखाई पड़ रहा है, सब फीवर है, सब बुखार है, इसको बीमारी मत समझ लेना। नहीं तो ठंडा पानी डालने से और मुश्किल होगी। इसको नहीं, इसके भीतर कहां कारण छिपे हैं।
कुछ कारण मैंने सुझाए, आप सोचना। हो सकता है ठीक हों, हो सकता है गलत हों। कोई मेरी बात ठीक होनी चाहिए, ऐसा सवाल नहीं है। वह पुराने जो व्यक्तिवादी लोग थे, उनका दावा था यह, कि हम जो कहते हैं वह ठीक है। वह मैं नहीं कहता। मैं कहता हूं, समाज सोचे। मैंने कहा, आप सोचें। सोचने से ठीक निकलेगा, मेरे कहने से ठीक नहीं होता। न आपके कहने से ठीक होता है।
हम सब एक डायलाॅग में जुड़ जाएं। हम सोचें, विचारें। समाज सोचे तो धीरे-धीरे मंथन होगा और ठीक निकलेगा। ठीक निकल सकता है। आशा खोने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन दिल्ली की तरफ देखो, तो बहुत निराशा होती है। दिल्ली की तरफ देख कर एकदम निराशा होगी। दिल्ली की तरफ देखें ही मत। यह बड़ा देश है, दिल्ली तो कुछ भी नहीं है। बड़े देश की तरफ देखें, इसके एक-एक आदमी को सोचने-विचारने के लिए तैयार करें। हवा पैदा करें, तो शायद एक दिन आ सकता है, कि इस तरह की बेवकूफियां जो चलती हैं रोज, इनसे छुटकारा हो जाए। छुटकारा न हुआ तो देश का बहुत नुकसान पीछे अतीत में हुआ है, आगे भी होगा।
हम विकसित मुल्कों से कम से कम तीन सौ वर्ष पीछे हैं। अमरीका जहां है, वहां से हम तीन सौ वर्ष पीछे हैं; ज्यादा हो सकते हैं। अगर हमें हमारे साधन पर छोड़ दिया जाए तो हम तीन सौ साल बाद भी चांद पर नहीं पहुंच सकते। बहुत पीछे हैं, और उनकी गति रोज बढ़ती चली जा रही है। मैं एक आंकड़ा पढ़ रहा था--कि जीसस से मरने के अठारह सौ वर्ष तक मनुष्य का जितना विकास हुआ अठारह सौ वर्षो में उतना पिछले डेढ़ सौ वर्षों में हुआ है, और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना विकास हुआ, उतना पिछले पंद्रह वर्षों में हुआ है, और पिछले पंद्रह वर्षों में जितना विकास हुआ, वह आने वाले डेढ़ वर्ष में होगा।
लेकिन हम कहां होंगे? हम अपनी बैलगाड़ी लिए अपना चरखा चलाते रहेंगे। हमारी मर्जी। कोई हमें रोक नहीं सकता, धक्का नहीं दे सकता। लेकिन दुनिया आगे चली गई है, आदमी बहुत आगे चला गया है, हम बहुत पीछे रह गए हैं। हमारे झगड़े भी बहुत टुच्चे हैं, ओछे हैं, छोटे हैं, बहुत छोटे हैं। झगड़े भी बड़े हों तो भी दुख मालूम पड़ता है। झगड़े भी बड़े हों, तो मुल्क ऊपर उठता है। झगड़े ही बड़े छोटे हैं। कोई बहुत बड़े झगड़े नहीं हैं। यह सोचने की आपसे प्रार्थना की।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत आनंदित हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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