आठवां प्रवचन
भारत किस ओर
मेरे प्रिय आत्मन्!भारत किस ओर, यह सवाल भारत की जिंदगी में पहली बार उठा है। पांच हजार साल के इतिहास में यह सवाल कभी उठा नहीं था। क्योंकि भारत किसी ओर जाने की हालत में नहीं है। जहां है, वहीं ठहरने की हालत में खड़ा है। पिछला पूरा हमारा अतीत का इतिहास, ठहराव का है--खड़े होने का इतिहास, ठहर जाने का इतिहास, उसमें कोई गति नहीं है--मूवमेंट नहीं है। हम कभी भी किसी तरफ भी नहीं गए हैं। एविंग्टन ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मनुष्य की भाषा में बहुत से शब्द झूठे हैं। उन झूठे शब्दों में एक शब्द उसने गिनाया है, अवेट ठहराव। मर गया एडिंग्टन। ओर मेरा मन होता है, किसी ने उसको कहा कि हो आओ भारत, और देखो! व्यर्थ ही एक असली शब्द देखोगे, भारत रूका है। एडिंग्टन ने इतिहास में कहा है, कि ठहरते हुए परिवर्तन के नियम हैं, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। लेकिन भारत ने इस नियम के विरुद्ध पंाच हजार वर्षों तक लड़ाई की है, और ठहरने की कोशिश की है। हम ठहर गए हैं। जैसे कोई पानी रुक जाए किसी नदी का। गति बंद हो जाए, सागर की यात्रा बंद हो जाए, तो सिर्फ सड़ता है...!
ठीक ऐसे ही पांच-छह हजार वर्षों के इतिहास में भारत की जीवन-धारा के प्रति हुआ है। सब ठहरा हुआ है। सब रुका हुआ है। हम यही भूल गए हैं कि इतिहास जैसी भी कोई चीज है। अगर सब ठहरा हुआ हो तो इतिहास का कोई अर्थ नहीं होता है।
इसलिए भारत ने कभी इतिहास नहीं लिखा। भारत के पास अपना कोई लिखा हुआ इतिहास नहीं है। कहानियां लिखी हैं, पुराण लिखे हैं लेकिन इतिहास नहीं लिखा। सोचता है, इतिहास की बुद्धि पैदा नहीं हुुई; क्योंकि जब चीजे वहीं की वहीं, सदा वहीं की वहीं हैं, तो इतिहास क्या लिखना है? बदलाहट होती है, परिवर्तन होता है, तो इतिहास का बांध पैदा होता है।
लेकिन सौभाग्य से...मेरी दृष्टि से, और अब बहुत लोगों की दृष्टि से...दुर्भाग्य से--आज भारत उस जगह खड़ा हो गया है, कि या तो उसे कहीं जाना होगा या मरना होगा। इसके सिवाय तीसरा कोई विकल्प नहीं है। अगर हम कहीं नहीं जाते हैं, तो मनुष्य के विराट जगत से हमारा संबंध विच्छिन्न हो जाएगा। और इसिलिए सोचना और विचार करना जरूरी है। किधर, किस तरफ, कहां जाने की बात है? कहां हम जा रहे हैं?
इसे समझना जरूरी है, कि भारत का पूरा मन कैसा है? इसे समझ लेना उचित है। क्योंकि भारत यानी क्या--नहरें, महासागर, नदियां, पहाड़? नहीं, भारत का यह मतलब नहीं है। भूगोल भारत नहीं है। भारत का आदमी, और आदमी से क्या मतलब है? उसके हाथ-पैर हैं? नहीं, आदमी से मतलब--उसका मन, बुद्धि! भारत का मन क्या है? भारत का मन गतिविरोधी है। भारत का मन रुक जाने और ठहर जाने का आग्रही है। अगर कोई धक्के दे दे मजबूरी में, तो हम स्थान छोड़ दें। लेकिन जगह छोड़ने का हमारा मन नहीं करता। जो जहां है, वहां ठहर जाने की हमारी हजारों साल की मन की चेष्टा रही है; इसिलिए सब चीजें ठहर गई हैं। बैलगाड़ी जैसी बनी थी, ठीक वैसी ही है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा है कोई फर्क नहीं पड़ा।
शायद हम सोचते नहीं है। बैलगाड़ी में फर्क पड़े, तो बैलगाड़ी में फर्क पड़ते-पड़ते ही जेट प्लेन बनता है। वह बैलगाड़ी में ही हुआ निरंतर-निरंतर विकास है। आज बैलगाड़ी पर बैठ कर और जेट प्लेन पर बैठ कर सोचना मुश्किल है, कि इन दोनों में क्या संबंध है। क्योंकि बीच की सीढ़ियां नहीं होती हैं; लेकिन वहीं दिक्कत होती है। हम बैलगाड़ी पर ही खड़े हैं। वहां से हम नहीं बदलते हैं; बल्कि हम उसमें गौरव अनुभव करते हैं।
न बदलना गौरवपूर्ण है हमारे मन में! और हम निरंतर यह क हते हैं, कि मिस्त्र कहां है अब! यूनान कहां है, सीरियां कहां है, बेबीलोन कहां है! सारी संस्कृतियां दुनिया की पैदा हुई और मर गईं। चीनी सबसे पुरानी संस्कृति है, खो गई। एक हम हैं, जिनकी पुरानी संस्कृति अभी भी जिंदा है। हम इसमें भी गौरव अनुभव करते हैं। जब कि सच्चाई यह है कि जैसे एक व्यक्ति पैदा होता है, जवान होता है, बूढ़ा होता है और मरता है। यही नैसर्गिक व्यवस्था है। ऐसे ही संस्कृति भी पैदा होती है, जवान होती है, बूढ़ी होती है और मरती है। मरनी चाहिए ही! जन्मने के साथ ही अनिवार्य प्रक्रिया है।
अगर कोई संस्कृति मरने से इनकार कर दे, तो नये जीवन के अंकुर पैदा होने बंद हो जाते हैं। नया जीवन,उसका आगमन, उसके सब द्वार बंद हो जाते हैं। भारत की संस्कृति ने मरने की इनकार कर दिया है। कोई आदमी तो मरने से इनकार नहीं कर सकता, मर जाएगा, मर ही जाएगा। बदल जाएगा। लेकिन कोई समाज, कोई संस्कृति किसी व्यक्ति को बदलते चले जाते हों, लेकिन अगर मन पर शक कर ले, तो ठहर सकता है। ठहराव के कुछ परिणाम भी हमने भोगे हैं। हम सदा से गरीब हैं, और गरीब ही बने रहे।
ठहरा हुआ समाज समृद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि ठहरा हुआ समाज किसी भी आयाम में किसी भी दिशा में, संपत्ति को ज्ञान को, कोई प्रयास नहीं करता। ठहरा हुआ समाज भी उसके पास है, उसमें ही तृप्त होता है। तृप्त न हो, तो ठहर नहीं सकता है। ठहरने का सूत्र है, कंटेंटमेंट। ठहर जाओ--उसकी आधारशिला है, संतोष कर लो। संतुष्ट ठहर जाता है, असंतुष्ट गति करता है।
अगर भारत को आगे गति करनी है तो उसको अपने पुराने संतोष के मानसिक ढांचे को तोड़ देना पड़ेगा। एक असंतोष चाहिए ही। जो है उससे तृप्त होना गलत है। क्योंकि जो हो सकता है, अगर हम तृप्त हो सकते है, वह कभी नहीं होगा। जो है, उसके अतिरिक्त होना जरूरी है ताकि जो हो सके, उस तरफ गति होती रहे, हम आगे बढ़ते रहें। भारत तृप्त है। गरीबी है, उससे तृप्त हैं। गुलामी आएं, उससे तृप्त है।
एक हजार साल तक हम गुलाम न रहते; अगर हमारी तृप्ति की यह गहरी आस्था न होती। हम गुलामी से भी तृप्त हो गए। एक हजार साल इतनी बड़ी कौम गुलाम रहे, यह हैरान करने वाला है। जब तक कि उस कौम का पूरा मानसिक ढांचा गुलामी का न हो। एक हजार साल तक किसी को गुलाम रखना बहुत मुश्किल है, जब तक कि वह कौम किसी दूसरे ढंग से गुलामी के लिए राजी न हो। हम राजी हैं। राजी होने का कारण यह था कि हम हर चीज को स्वीकार करते हैं। वह जैसी है, उसके साथ वैसे ही होने को राजी हैं।
दो रास्ते हैं समाज के--या तो जिंदगी गलत हो तो जिंदगी को बदलो। और अगर जिंदगी गलत हो, तो एक रास्ता यह है कि अपने को गलत जिंदगी के साथ राजी कर लो। या तो दुनिया को बदलो या बाहर की दुनिया के साथ राजी हो जाओ।
भारत ने दूसरा रास्ता पकड़ा हुआ है। जैसी भी स्थिति हो उसके साथ मनुष्य को ही राजी हो जाना है, बदलना नहीं है बाहर की स्थिति को। गरीबी हो, तो गरीबी में राजी हो जाना हैं, बीमारी हो, बीमारी में राजी हो जाना है। और राजीपन के लिए हमने बड़ी फिलासफीज खोजी हैं, बड़े दर्शन खोजे हैं। वह हमें समझाते हैं। जो कर रहा है, वह भगवान कर रहा है। तो फिर हम कुछ कर नहीं सकते। गरीबी है, तो भगवान कर रहा है। बीमारी है, तो भगवान कर रहा है। हमने रास्ते खोजे है कि हर आदमी के भाग्य में जो लिखा है, वही हो रहा है। कुछ अन्यथा हो नहीं सकता है। हम एक-एक आदमी को समझाते रहे हैं कि तुम्हारे पिछले जन्मों के फल तुम भोग रहे हो। अब कुछ हो नहीं सकता, फल भोगने के बारे में। गरीब आदमी अपने पिछले जन्मों का फल भोग रहा है। अमीर आदमी भी पिछले जन्मों को फल भोग रहा है। इसलिए दोनों के बीच कोई झगड़ा नहीं है, कोई संघर्ष नहीं है। दोनों ही अपने पिछले जन्मों से बंधे हैं। और दोनों का आज की जिंदगी से कोई संबंध नहीं है, आज की जिंदगी से कोई मतलब नहीं है, गरीबी-अमीरी का। गुलामी भी हम भोग रहे हैं। वह भी हमारे भाग्य, हमारे कर्मों का फल है। डाल हमने एक व्याख्या विकसित की, कि जिसमें जिंदगी जैसी है, हम उसके साथ राजी हो सकते हैं। उस व्याख्या ने भारत को ठहरा दिया, खड़ा कर दिया। वह ठहरा ही रहा, लेकिन दुनिया की हवाएं आई, हमारी सब दीवालें टूट गईं, हमारे सब घेराबंदी-मोर्चे टूट गए, हमारे सब ज्ञान-व्याख्याएं टूट गईं। चारों तरफ से दुनिया आई और हमको बहुत हिला दिया और बहुत तकलीफ में डाल दिया हम फिर भी आंखे बंद करने के आदी हैं। अगर दुनिया हमें हिलाती भी हो, तो हम आंख बंद करके अपनी पुरानी सुरक्षा के घर में पहुंच जाते हैं।
अभी पुरी के शंकराचार्य ने कहा कि चांद पर आदमी पहुंच ही नहीं सकता है, हमारी किताब में लिखा है। तो यह आर्मस्ट्रांग और उसके साथी जो पहुंचे, यह सब झूठी अफवाह है। यह सब चल नहीं सकती। यह आंख बंद करने की तरकीबें हैं। तो हम आंख बंद कर लेंगे, सोचेंगे नहीं? और शंकराचार्य ने कहा, अगर कोई पहुंच भी गया हो, तो फिर पक्का है कि वह चांद नहीं है, जो हमारे शास्त्रों में लिखा है। वह चांद-सूरज से भी आगे है। ये आंखें बंद हैं। जिंदगी के तथ्य अगर उघड़ जाएं तो हम फिर आंख बंद करने की कोशिश करते हैं, कि आंख बंद कर लो और इनकार कर दो, कि यह चांद तो चांद ही नहीं है। हम तो दूसरे ही चांद की बात करते हैं। उस चांद पर आदमी का पैर पड़ ही कैसे सकता है?
हम पिछले दो-तीन सौ वर्षों से जब से विश्व संपर्क में आए हैं तब से हम इसी तरह निरंतर इनकार करने की कोशिश कर रहे हैं, और अपनी आंख बंद करने की कोशिश कर रहे हैं बहुत। यह हो गई बात! और इस आंख बंद करने में हमने बहुत सी तरकीबें उपयोग की हैं। जैसे अगर हम पिछले तीन सौ वर्षों का भारत का विचार देखें तो अतीत का गुणगान है! एक ही रास्ता था आशा का, वह यह, कि हम अतीत का गुणगान करें। तो पिछले दो सौ वर्षों में हमारे अच्छे से अच्छे आदमी से लेकर, बुरे से बुरे आदमी, अतीत के गुणगान में लगे हुए हैं। वे सिर्फ यह कह रहे हैं, कि कभी हम बहुत अदभुत थे। सब ज्ञान हमारे पास था। अगर लोगों की किताबें हम पढ़ें, तो घबड़ाने वाली होंगी। वे कहते हैं, एटम बम हमारे वेद में लिखा हुआ है। उसी से निकला हुआ है। यहां तक वे कहते हैं कि जर्मनी हमारे ग्रंथ चले गए, उन्हीं से ही खोज-बीन करके सारे विज्ञान की बात निकली है। हमारे ग्रंथों में सब है। कभी हम सब जानते थे, सब हमने जान लिया था। हम पीछे की तरफ लौट गए।
ध्यान रहे, मनोविज्ञान का एक छोटा सा नियम है और कीमती है भारतीय संस्कृति को समझाने के लिए। फ्रायड ने इसे रिडक्शन का, रिग्रेशन का नियम कहा है। अगर कोई आदमी बहुत मुसीबत में पड़ जाए, एक जवान आदमी अगर बहुत मुसीबत में पड़ जाए, तो फौरन उसका चित्त बचपन में वापस लौट जाएगा। वह रोने लगेगा बच्चों की तरह, और हाथ-पैर पटकने लगेगा और वह बच्चा ही हो जाएगा। वह भूल जाएगा कि वह जवान आदमी है; क्योंकि बचपन में सब सुरक्षा थी, सब खतरा था, कोई चिंता न थी। फिर सोचता, वापस बचपन में लौट जाएगा।
यहां तक कि घटनाएं हैं, कि बहुत चिंता के दबाव में कई बार आदमी इतने बचपन में उतर जाता है कि चालीस साल के आदमी को भी चम्मच से दूध पिलाना पड़े, तो ही वह खाना खा सकता है; नहीं तो नहीं खा सकता है। वह बिलकुल बच्चा हो गया है। जब आप भी, हम भी, मुसीबत में होते हैं तो चाहते हैं, कि किसी के गोद में सिर रख लें। वह बचपन में लौट जाने की इच्छा है। कोई सिर पर हाथ फेरे, कोई समझाए--वह बचपन में लौट जाने की इच्छा है।
चिंता घबड़ा देती है, पीछे लौटने को मजबूर कर देती है। भारत चिंतित हो गया है पूरी तरह से! एक हजार साल की गुुलामी, और हजारो साल की बीमारी और दरिद्रता, चिंता, और कोई आशा नहीं। क्यों?
दरिद्रता और बढ़ेगी, दीनता और बढ़ेगी। वह घबड़ा गया है, तो पीछे का गुणगान करने लगा है। वह क हने लगा अतीत में हमारा गोल्डन-ए.ज था। पीछे हमारा स्वर्ण-युग था, रामराज्य था। वहां हम बिलकुल सुख से थे। सब शांति थी। सब आनंद था।
ये सब बातें सरासर व्यर्थ हैं। पीछे न सुख था, न शांति थी। पीछे और भी दुख थे, और भी अशांतियां थीं; लेकिन उनका हमको पता नहीं चलता। और न पीछे आदमी अच्छा था, जैसा हमको खयाल में होता है, कि पीछे सारे लोग अच्छे लोग थे--सतयुग था। यह सब हमारी आज की स्थिति से पीछे भाग जाने की प्रवृत्ति के सिवाय और कुछ भी नहीं है। पीछे अच्छा आदमी क्या, कौन सा सुख था? कौन सी शांति थी? गरीबी इतनी है, कि इससे ज्यादा थी? गरीबी, पीछे जितना हम लौटते हैं, बढ़ती चली जाती है; लेकिन गरीब आदमी का हमने कोई इतिहास नहीं लिखा। हमने कुछ राजाओं की, बड़े लोगों की कुछ कहानियां याद रखी हैं, उन्हीं को हम दोहराए चले जाते हैं। राम, सुख में होंगे? लेकिन राम के पास विराट मनुष्य का समूह था, उसकी हमें क्या खबर है? राम अच्छे रह हैं। लेकिन राम के आस-पास जो विराट समूह था, वह अच्छा है, इसकी हमें क्या खबर है? खबर तो नहीं है; बल्कि कुछ उलटी ही खबर मालूम पड़ती है।
ऐसा लगता है कि बाद में सिर्फ महापुरुष याद रह जाते हैं और सामान्यजन भूल जाते हैं। अभी, अभी हम सब जिंदा हैं, हम सब आज नहीं कल, ‘नहीं’ हो जाएंगे। हजार-दो हजार साल बाद इस युग में शायद गांधी का नाम याद रह जाएगा, और तो सब नाम भूल जाएंगे। दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे। गांधी का युग ‘गांधी-युग’ कितना अदभुत रहा होगा। गांधी कितना अदभुत आदमी है--कितना अदभुत युग रहा हो, लेकिन हमारा गांधी से क्या संबंध है? दो हजार साल बाद गांधी की तस्वारे के आधार पर हमारी धारणा बनेगी और दो हजार साल में गांधी की तस्वीर को बनाते चले जाएंगे, आदमी से भगवान बनाते चले जाएंगे। वह तस्वीर बिलकुल झूठी हो जाएगी, बहुत बड़ी हो जाएगी। और तस्वीर के आधार पर हम सोचेंगे, दो हजार साल पीछे के आदमी के बाबत कि क्या सुनहरा स्वर्ण युग रहा होगा?
लेकिन गांधी के जमाने में कौन सा स्वर्ण युग था? यह तो हो भी सकता है कि हमारा गोडसे से कुछ मेल-जोल हो, गांधी से क्या मेल-जोल है? गांधी के शिष्यों का तो गोड़से से मेल-जोल ज्यादा मालूम पड़ता है। गांधी से कोई मेल-जोल नहीं मालूम पड़ता। लेकिन दो हजार साल बाद गांधी हमारे प्रतीक की तरह बचेंगे, रिप्रेजेंटेटिव रहेंगे। हमारे वह, प्रतिनिधि हो जाएंगे। और उनके आधार पर पूरे युग का नाम होगा--‘गांधी-युग’। वह सब नाम झूठा हो जाएगा।
आज राम हमें याद हैं, आम आदमी का हमें कुछ भी पता नहीं है, आज हमें बुद्ध याद है, महावीर याद हैं। आम आदमी का कुछ भी पता नहीं है। लेकिन लगता ऐसा है, कि अगर दुनिया बहुत अच्छी होती, तो बुद्धि और महावीर की याद नहीं रह सकती थी। यह ध्यान रहे, एक छोटे प्राइमरी स्कूल का शिक्षक भी जानता है, कि अगर काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखो, तो ही दिखाई पड़ता है। दीवार पर लिखें खड़िया से, तो दिखाई नहीं पड़ता है। लिख तो जाएगा, दिखाई नहीं पड़ेगा। अगर महावीर और बुद्ध का जमाना बहुत अच्छे लोगों का जमाना होता तो सफेद दीवार पर महावीर और बुद्ध कभी के खो गए होते, उनका पता नहीं चलता।
दीवाल काली थी। उस काली दीवाल पर एक महावीर या बुद्ध या राम या कृष्ण जैसा आदमी हो जाता है। सफेद रेखाएं लिए हुए। वह हजारों वर्ष तक दिखाई पड़ रहा है। दीवार बहुत काली रही होगी। चारों तरफ का समाज बहुत काला रहा होगा। जिस समाज ने बुद्ध को भगवान क हा होगा, जिस समाज ने कृष्ण को भगवान कहा होगा, जिस समाज ने राम को कहा होगा, सर्वोत्तम तुम्हीं हो, वह समाज अंधेरे, काले ब्लैक बोर्ड की तरह रहा होगा। तभी ये सफेद रेखाएं उभर आई हैं। अगर समाज भी अच्छा रहा हो, तो अच्छा आदमी खो जाएगा। होगा तो, लेकिन उसका कोई पता नहीं चलेगा। हमें पता है, हमारे सारे महापुरुषों का, दस-पांच महापुरुषों को हम गिनती कर सकते हैं। और पीछे जो समाज है, उस समाज का हमें कोई पता नहीं है, लेकिन अंदाज हम लगा सकते हैं।
दुनिया की पुरानी से पुरानी किताब, भारत की या भारत के बाहर--कोई किताब यह नहीं कहती, कि आज का जमाना अच्छा है। सारी किताबें यह कहती हैं, पहले के जमाने अच्छे थे। और एक भी किताब ऐसी नहीं है पहले के जमाने की, क्योंकि वह किताब भी मिल जाए, तो वह भी कहती है, पहले के जमाने अच्छे थे। चीन में कोई छह हजार वर्ष पुरानी एक किताब है, जो यह कहती है--अगर उसकी भूमिका पढ़ें तो ऐसा लगता है, कि आज के सुबह के अखबार का एडिटोरियल है। उसकी भूमिका में लिखा हुआ है, आजकल के लोग एकदम पापी हो गए हैं। बेटे बाप की नहीं सुनते। शिष्य गुरु की नहीं सुनते। छह हजार साल पुरानी किताब है। कोई किसी की नहीं मानता। पत्नियों की, पतियों में कोई आस्था नहीं रह गई है। सब तरफ चोरी है, बेईमानी है, भ्रष्टाचार है।
क्या हो गया है जगत का? जगत कहां जा रहा है। पहले सब अच्छा था, अब सब खराब हो गया है। छह हजार साल पहले भी अगर यही लिखना पड़ता है, तो वह पहले कब था, जब सब अच्छा था? दस हजार साल पुरानी ईंट मिली है बेबीलोन में, किसी मंदिर के द्वार पर लगी ईंट होगी, जिस पर लिखा हुआ है, सत्य बोलना धर्म है। लोग जरूर असत्य बोलते रहे होंगे। नहीं तो, दस हजार साल पहले मंदिर के सामने एक पत्थर लगाने की जरूरत नहीं पड़ती, अगर लोग सत्य बोल रहे हों।
जहां लोग असत्य बोलते हैं, वहीं सत्य की शिक्षा देनी पड़ती है। जहां लोग अधार्मिक होते हैं, वहीं धर्म की चर्चा चलती है। धार्मिक लोगों में क्यों चलेगी? बीमार आदमी अस्पताल जाता है, स्वस्थ आदमी तो नहीं जाता है। बुद्ध सुबह उठते हैं और रात सोते तक लोगों को समझा रहे हैं--झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, संयम ग्रहण करो, व्रत रखो। तो ठीक है! सुबह से सांझ तक बुद्ध का दिमाग खराब मालूम होता है। लोग अगर सच बोलते हों, तो बुद्ध किसको समझा रहे हैं? महावीर किसको समझा रहे हैं कि हिंसा मत करो, अगर लोग अहिंसक थे?
निश्चित ही जो शिक्षाएं हैं, वह बताती हैं, कि लोग हिंसक रहे होंगे, इसलिए अहिंसा की शिक्षा देनी पड़ती है। लोग झूठ बोलते रहे होंगे, इसलिए सत्य बोलने को समझाना पड़ता है। लोग बुरे रहे होंगे, इसलिए अच्छे आदमी का--अच्छे आदमी के निर्माण का निरंतर श्रम करना पड़ता है।
नहीं! अतीत का हमने एक भ्रम पाला है। एक हजार साल की गुलामी ने हमारे मन को ऐसा दलित कर दिया है। ऐसा अपमानित हमने अनुभव किया है, कि हमारे पास कुछ भी नहीं है, और आगे अगर भविष्य में हमें आशा होती, तो हम भविष्य की तरफ देखते। भविष्य में कोई आशा न देखी, क्योंकि हम कोई करनेवाले लोग नहीं। भविष्य के प्रति केवल वे आशावान होते हैं, जो पैदा करते हैं, सृजन करते हैं, श्रम करते हैं। हम तो बैठकर जो होता है, उसे झेलने वाले लोग रहे हैं। तो भविष्य की तरफ तो हम देख नहीं सकते थे। इसलिए एक हजार साल की गुलामी में हमें मजबूरी में पीछे की तरफ देखना पड़ा और वर्तमान देखने योग्य नहीं था। छाती पर अंग्रेज के जूते थे, या छाती पर किसी और के जूते थे। जूते बदलते चले गए, पैर बदलते चले गए, छाती हमारी वही रही। एक हजार साल तक, किसी न किसी का जूता हमारी छाती पर था। इस तरफ आज देखना कठिन है, क्योंकि सिवाय जूतों के तलुओं के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है।
तो या तो आगे देखो--आगे वह देख सकता है, जो सृजन की चिंता रखता हो। या तो पीछे देखो! बच्चे सदा आगे देखते हैं, बूढ़े सदा पीछे देखते हैं। अगर किसी बूढ़े को आरामकुर्सी पर बैठे देखें, तो यह मत सोचना कि वह आगे की सोच रहा है। वह हमेशा पीछे की सोच रहा है, जब वह जवान था, जब वह बच्चा था। आगे तो मौत है, आगे तो कुछ है ही नहीं। और अगर कोई बूढ़ा व्यक्ति भी आगे की तरफ देखते मिल जाए, तो फिर कहना कि वह बूढ़ा नहीं है, वह जवान है।
बच्चे पीछे की तरफ नहीं देखते--पीछे क्या देखना है? पीछे कुछ है ही नहीं देखने का। सब आगे है। बच्चे भविष्य की तरफ देखते हैं। बूढ़े अतीत की तरफ देखते हैं। नये समाज भविष्य की तरफ देखते हैं। पुराने समाज अतीत की तरफ देखते हैं। समाज भी बच्चे और बूढ़े होते है। एक हजार साल में हम वर्तमान की तरफ देख नहीं सके; क्योंकि बहुत दुखद था, देखने योग्य नहीं था। भविष्य अंधकारपूर्ण था, कुछ आशा न थी। अतीत ही भर एक उपाय था, एक विकल्प था, कि हम पीछे की तरफ देखें। हमने ‘पीछे’ के खूब गीत गाए। हमने पीछे की खूब कहानियां--हमने पीछे की फिलासफी के बहुत बड़े-बड़े चित्र बनाए, और उन चित्रों ने हमें बड़ी दिक्कत में डाल दिया है।
दिक्कत में यह डाल दिया है, कि अब, जब हम उस जगह खड़े हैं, जहां हमें तय करना है कि भारत कहां जाए, तो उन एक हजार वर्ष की गुलामी के दमन के भीतर अतीत की बनाई गई झूठी स्मृति हमारे मन को कहती है कि पीछे लौट चलो। वही अच्छा था। इसलिए तो हम रामराज्य की बातें करते हैं कि हम पीछे लौट चलें। राम का राज्य ही अच्छा था। पीछे लौट चलें। राम-राज्य का सवाल नहीं है, वह प्रतीक है। पीछे लौटने का हमारा मन है, पीछे सब अच्छा था। बड़े शहर मिटाओ, छोटे-छोटे गांव अच्छे थे। हालांकि जो आदमी यह कहता हुआ मिलेगा, वह रहेगा दिल्ली में, रहेगा अहमदाबाद में, रहेगा बड़ौदा में। वह छोटे गांव में नहीं रहता है। पर वह कहता है, बड़े गांव नहीं चाहिए, छोटे-मोटे गांव बड़े सुंदर थे। उससे कहो, रहो छोटे गांव में!
छोटे गांव गंदगी के घर हैं। छोटे गांव बीमारी के घर हैं। और छोटे गांव एक बहुत भीतरी गुलामी से पीड़ित हैं। छोटे गांवों में किसी व्यक्ति का कोई व्यक्तित्व नहीं था। किसी व्यक्ति की कोई हैसियत नहीं थी। लेकिन छोटे गांव का हम एक पोएटिक, एक काव्यात्मक रूप खींच लेते हैं और उस पोएट्री में छोटे गांव की कीचड़ और गंदगी और बदबू, और बीमारी और गुलामी सब छिप जाती है। सिर्फ हरे वृक्ष और चांद--सब वही, वही रह जाता है कविता में! असली दौड़--असली दौड़ बिलकुल मिट जाती है।
हम पुराने दिनों की जितनी भी तस्वीरें खींचे हुए हैं, सब कविता से भरी हुई हैं, तथ्यों से नहीं। तथ्य बड़े खतरनाक मालूम पड़ते हैं। तथ्य बहुत ही पीड़ादायी मालूम पड़ते हैं। जब तथ्य बहुत पीड़ादायी होते हैं, तो समाज कविताओं में जीने लगता है। हमने बहुत सी कविताएं कर ली हैं अतीत की। अब जब कि हमें, चुनाव खड़ा हो गया है, तो कहां जाएं? कहां है रास्ता? कौन सी दिशा होगी भारत के लिए? तो हमारा मन कहता है, आगे तो क्या हो सकता है? एक हजार साल की गुलामी ने बताया, कि आगे कुछ भी नहीं है। पीछे ही कुछ हो सकता है। हम पीछे लौट चलें। हम पुरानी व्यवस्था ले आएं। हम बड़े उद्योग न बनाएं, बड़ी इंडस्ट्री न लाएं, टेक्नालाॅजी से बचें। हम तो पीछे लौटें। विज्ञान से बचें, हम तो अपने घरों में बैठ कर गीता रामायण पढ़ते थे, या बरसात में आल्हा-ऊदल पढ़ते थे, मंच पर। पीछे लौटें--आगे जाने में खतरा मालूम पड़ता है।
खतरा क्या है, आगे जाने में? खतरा एक ही है कि हमारे पास बूढ़ा चित्त है, जो आगे जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता है। वह कहता है, अतीत ही अच्छा था और जो हो चुका था, वही अच्छा था, उसी में बैठ जाएं। लेकिन बूढ़े चित्त के समाज को, अगर पीछे जाने की धुन सवार हो जाए तो दो परिणाम होते हैं--पीछे जाया नहीं जा सकता--पहली बात। असंभव है यह--पीछे जाना असंभव है। लेकिन जाने की कोशिश में हम जो लोग जा सकते थे, वह भी असंभव हो जाता है। पीछे जाने की कोशिश तो असंभव है। यह संभव नहीं है कि हम मनुष्य को पीछे ले जाएं। यह उतना ही असंभव है, जैसे किसी व्यक्ति को हम वापस गर्भ में पहुंचा देना चाहें, उतना ही असंभव है। तो उसे छोटा-छोटा करके, उसे अंग बना लें, और मां के गर्भ में बड़ी व्यवस्था है, सिक्योरिटी की। उतनी सिक्योरिटी फिर जिंदगी में कभी भी नहीं हो सकती। बहुत सुरक्षा थी मां के पेट में। न भोजन की चिंता है, न नौकरी की, न इंप्लायमेंट की, न कुछ करना पड़ता है--जीना है सिर्फ। और इतनी सुखद है मां के पेट की व्यवस्था कि हमने बड़ी से बड़ी कीमती कोच बनाई है, गद्दे, तकिए बनाए हैं, लेकिन मां के पेट में जो आराम बच्चे को उपलब्ध होता है, अभी तक हम ऐसी व्यवस्था नहीं कर पाए हैं। अब शायद हम कर पाएं। अभी जो अंतरिक्ष में यात्री जा रहे हैं, उनके लिए जो हमने केप्सूल बनाए हैं, वे शायद मां के गर्भ से मिलते-जुलते हैं। उतना आराम देने को उसमें कोशिश की है।
बच्चा इतने आराम में जीया है मां के गर्भ में, कि कई बार मन हो सकता है, कि वापस लौट जाएं। लेकिन क्या वापस लौटा जा सकता है? जिंदगी पीछे नहीं जाती, जिंदगी सदा आगे जाती है। गंगा कितनी ही कोशिश करे कि ‘गंगोत्री में वापस चली जाऊं’...वही छोटा सा झरना, वही ऊंचा पहाड़! वही चांद का निकलना! वही सूरज! फिर पीछे वापस लौट जाऊं! लेकिन गंगा पीछे नहीं लौटती। सोचती रहेगी कि पीछे लौटूं, जाती आगे ही है।
जाने का श्रम आगे है। समय की कोई रेखा पीछे नहीं छूटती है। समय सदा आगे है। समय का मतलब है भविष्य। समय का मतलब अतीत नहीं है। समय के साथ एक खूबी है कि जहां से हम गुजर आए, वह मिट गया है, अब कहीं भी नहीं है। न वे रास्ते हैं, न वे ब्रिज हैं। वह पीछे जो था वह गया, खो गया! अब सब आगे है। लेकिन हम यह कह सकते हैं, कि कोई कौम पीछे की तरफ सोचती रहेगी, कि कैसे पीछे जाएं? जितनी देर हम यह सोचेंगे, कि कैसे पीछे जाएं, और पीछे की असफल कोशिश करेंगे--उतनी देर में जितना आगे जा सकते थे, उसमें अवरोध पड़ेगा, और कुछ भी नहीं होगा। भारत के मन में पीछे जाने का बड़ा अवरोध है, भारी मोह है पीछे जाने का--एकदम पीछे लौट जाने का। कितनी खतरनाक बात है कि अगर यह हमारे मन से नहीं मिट जाती, तो हम पीछे तो जाएंगे ही नहीं, क्योंकि प्रकृति में उपाय नहीं है, पीछे जाने का; लेकिन आगे जाने में हमारे कदम हालिं्टग हो जाते हैं, बहुत मुश्किल से उठते हैं, मजबूरी में उठते हैं, और जाने में जो आनंद अनुभव होना चाहिए, उसकी जगह विषाद अनुभव होता है, कि चलना है हमें पीछे और जा रहे हैं आगे। विषाद अनुभव होता है, कुछ मालूम होता है, चिंता मालूम होती है और एक कंडेमनेशन, एक निंदा चलती रहती है, कि यह सब क्या हो रहा है? यह सब बुरा हो रहा है! यह सब ठीक नहीं हो रहा है! और धक्के मिलते ही, जाना पड़ता है आगे।
जो आनन्द से आगे की तरफ जाते हैं, उनकी गति तीव्र हो जाती है। जो प्रेम से आगे की तरफ जाते हैं, उनकी गति नृत्य बन जाती है। जब दुख से, जबरदस्ती, परेशानी में आगे जाते हैं--जाना पड़ता है जिन्हें आगे, उनके पैर बोझिल हो जाते हैं। पत्थर हो जाते हैं और हर एक नया कदम उन्हें और दुख से भर जाता है। और ध्यान रहे कि आदमी का जो पुराना मन है, वह नये के हमेशा विरोध में है। और इस भारत में तो पुराना ही मन है। जवान से जवान आदमी के पास भी नया मन मुश्किल से मिलता है। पुराना ही मन मिलता है। ओल्ड माइंड है, वह भीतर बैठा हुआ है।
एक जवान आदमी है, एम. एससी. में पढ़ता है। आशा करनी चाहिए कि विज्ञान का विद्यार्थी है, तो वह तर्क बुद्धि का प्रयोग करता होगा--करता है; लेकिन परीक्षा के वक्त हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता है। वह जो ओल्ड माइंड है भीतर वह लौट आता है घबड़ाहट के क्षण में। जब डर लगता है कि परीक्षा सामने आई है, कहीं मैं असफल न हो जाऊं तो सोचता है, क्या हर्जा है, हनुमान को भी मना लो--पता नहीं, हों। एक नारियल फोड़ने में भी क्या हर्जा है? लेकिन हमें पता नहीं कि हनुमान के सामने नारियल फोड़ना रिश्वत का ही एक रूप है, और जो समाज हजारों साल से भगवान को रिश्वत देता रहा है, वह अगर मिनिस्टरों को देने लगे तो कोई हैरानी की बात नहीं होगी।
हमारा मन नया नहीं है, यद्यपि कि सारे जगत से नई हवाएं आईं। बहुत मुश्किल से हमने आने दीं। हम द्वार दरवाजे बंद किए रहेते हैं, अंदर न आ जाएं वे हवाएं। हम तो अपने मंदिर में सब तरफ से बंद करके, धुआं करके, दीप जला कर, घंटे का नाद करके, हम भीतर बैठे रहना चाहते हैं, बाहर का कुछ सुनाई भी न पड़े। मंदिर में ही अपने बंद हैं, बंद थे हजारों वर्ष तक; लेकिन बंद नहीं रह सके। जिंदगी ने चारों तरफ से आकर हमारी दीवालें गिरा दीं, सूरज कई तरफ से झांकने लगा, आकाश दिखाई पड़ने लगा।
बहुत तरफ से हवाएं आई हैं, वह आ गई हैं। विज्ञान आया है, विचार आया है, तर्क आया है। सारा तर्क हममें प्रविष्ट हो गया है; लेकिन हमारे पास मन पुराना है। तो हम एक युवक को विज्ञान पढ़ा देते हैं, लेकिन फिर भी हम वैज्ञानिक नहीं कहे जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा टेक्नीशियन बन कर, वह आदमी बन जाता है। वह जान लेता है। वह जान लेता है कि बिजली कैसे काम करती है? वह जान लेता है कि बिजली कैसे पैदा की जाए? वह सब जान लेता है, लेकिन टेक्नीशियन होकर रह जाता है। साइंटीफिक माइंड, एक वैज्ञानिक बुद्धि उसमें पैदा नहीं हो पाती। वह हो ही नहीं पाती, क्योंकि पीछे जो मन है...!
मैं एक डाक्टर के घर ठहरा हुआ था कलकत्ते में। बड़े डाक्टर हैं। सांझ को मुझे लेकर निकलते हैं--ले जा रहे हैं सभा में, लड़की को छींक आ गई, कहाः एक मिनट रुक जाएं। मैंने उनसे कहाः तुम डाक्टर हो। कहाः हां, मैं डाक्टर हूं। मैंने कहाः तो फिर आगे बढ़ो, रुकना नहीं, क्योंकि डाक्टर को तो कम से कम जानना चाहिए, कि छींक क्यों आती है? और तुम्हारी लड़की को छींक आए, इसमें मेरा क्या संबंध है? डाक्टर मुश्किल में पड़ गए। कहा, कि आप ठीक कहते हैं, छींक आने के तो कारण दूसरे हैं, फिर भी एक मिनट के रुक जाने में हर्ज क्या है? मैंने उनसे कहा, हर्ज बहुत ज्यादा है। एक मिनट रुकने का नहीं, मैं दिन भर रुक जाऊं! वह सवाल नहीं है। लेकिन यह जो माइंड है हमारा, जो कहता है, रुक जाओ, हर्ज क्या है! यह पुराना मन बहुत हर्ज देने वाला है। यह मुल्क की सारी गति को रोक देगा। तुम्हारी लड़की की छींक पर रुकता है, तो रुकता है, और रुकने वाला मुल्क को हजार तरह की बाधाएं पहुंचाता है। मैंने कहाः अगर मेरा वश चले तो तुमसे डाक्टरी का सर्टिफिकेट वापस ले लूं। तुम्हारे पास जो मन है वह एक ओझा का है, गांव के बाहर जोे भूत-प्रेत झाड़ता है--तुम ओझा बन जाओ, भूत-प्रेत झाड़ो। डाक्टर होने की तुम्हें जरूरत नहीं है, और तुम खतरनाक डाक्टर हो। यह तुम्हारी आस्था अवैज्ञानिक है और काम तुम वैज्ञानिक का कर रहे हो। तुम्हारा चित्त विरोध में खड़ा हुआ है। और यह छोटे-छोटे लोगों की बात नहीं है, बड़े-बड़े लोगों के साथ भी यही है।
पिछले कुछ वर्ष पहले आपको पता होगा, आचार्य विनोबा भावे बीमार पड़ गए, उन्होंने दवा लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहाः दवा मैं नहीं लूंगा। सारा मुल्क चिंतित हुआ कि इतना अच्छा आदमी साधारण से बुखार में मर जाए और बुखार तेज था, बुखार बढ़ता चला गया। मेरे एक मित्र के घर में वह मेहमान हुआ। उस मित्र ने मुझे कहा कि मैंने समझाया कि बाबा, आप मकान के भीतर सो जाएं...आंगन में मत सोएं, इतना तेज बुखार है। दवा आप लेते नहीं, खुला आकाश है, ओस भी पड़ती है। आप भीतर आ जाएं। विनोबा ने कहाः तुम पक्का विश्वास दिलाते हो, कि भीतर कोई कभी नहीं मरता है! अगर भीतर कोई मर सकता है तो फिर क्या डरने की जरूरत है? वह मित्र बेचारे चुप रह गए, अभी इसका क्या जवाब दें? भीतर भी आदमी मर तो सकता है। भीतर भी मर जाता है। दवाइयों का आग्रह किया गया। तो उन्होंने कहा, कि क्या तुम कहते हो कि दवा लेने वाला नहीं मरता? तो फिर क्या फायदा है दवा लेने से? सारे मुल्क से दबाव आया, मुल्क के सभी लोग चिंतित हुए, हजारों लोग वहां पहुंच गए। दो पैसे की दवा से ठीक हो सकते थे। लाखों रुपये खर्च हो गए मुल्क के। सारे, सब लोग गए, राष्ट्रपति हैरान हुए, दिल्ली परेशान हुई, पटना परेशान हुआ, कलकत्ता परेशान हुआ, सब राजधानियां डांवाडोल हो गईं, सारे लोग पहुंच गए। बड़े-बड़े डाक्टरों को लेकर पहुंचे। बंगाल के मुख्यंमत्री थे डाक्टर, उन्होंने जाकर कहा कि यह प्रार्थना करते हैं कि दो पैसे की दवा ले लें। उन्होंने कहा--विनोबा ने, एक ही शर्त पर ले सकता हूूं, कि दवा लेने से अगर मैं बच जाऊं, तो तुम यह नहीं कह सकोगे कि दवा के कारण बचा! बचा तो मैं भगवान की इच्छा से। अगर यह शर्त मानते हो, तो मैं दवा ले लेता हूं। डाक्टर बेचारे ने शर्त मान ली। जिन मित्र के घर ठहरे थे, उन मित्र ने कहा कि हद्द का पागलपन है।
हमारी आस्थाएं, हमारा पुराना मन, सब पागलपन से भरा हुआ है। सारी दुनिया आदमी की उम्र बढ़ाए ले रही है और हम कह रहे हैं कि हमारी उम्र भगवान तय कर रहे हैं। दवाओं ने हजारों बीमारियों को खत्म कर दीं, जो भगवान ने कभी खत्म नहीं कीं, लेकिन हम यही कहते चले जा रहे हैं कि भगवान बीमार करेगा या भगवान ठीक करेगा। बीच में हम किसी को, आदमी को, आदमी की बुद्धि को, विचार को, विकास को स्वीकार करने को राजी नहीं है। छोटे आदमी से लेकर बड़े आदमी के मन का जो ढांचा है, वह ढांचा वैज्ञानिक नहीं है--अवैज्ञानिक है। वह ढांचा रूढ़ियों, बहुत पुरानी रूढ़ियों में सोचने का आदी है। वह यही कहता है कि अगर बीमारी भगवान चाहता है, तो भगवान ठीक करेगा तो ठीक होगी, नहीं ठीक करेगा तो नहीं ठीक होगी।
बच्चे पैदा हो रहे हैं मुल्क में। जोर से एक चीज पैदा होती है हमारे मुल्क में, बच्चे पैदा होते है, और कुछ तो पैदा होता नहीं। तो सब कहे चले जा रहे हैं कि भगवान दे रहा है। हम क्या कर सकते हैं? अब भगवान अकाल लाएगा दस-पांच साल में और करोड़ों बच्चे मरेंगे, क्योंकि हम जो बच्चे पैदा कर रहे हैं, उनके लिए भोजन कहां है? उनके लिए वस्त्र कहां हैं? और परेशानी बढ़ती चली जाएगी, बीमारी, गरीबी बढ़ती चली जाएगी; क्योंकि जिस बड़े पैमाने पर हम बच्चे पैदा कर रहे हैं, उस पैमाने पर तो अब जीना मुश्किल है। वह तो पुरानी तरकीबें टूट गई हैं।
बुद्ध के जमाने में हिंदुस्तान की आबादी दो करोड थी। पाकिस्तान बंटा तो हमने सोचा कि बड़ा हिस्सा मुल्क का चला गया, लेकिन सिर्फ जमीन गई। बीस साल में हमने पाकिस्तान से ड्योढ़े बच्चे फिर पैदा कर लिए। हम कोई खोने देंगे संख्या अपनी? हम तो चालीस कोटि हैं, और वह बढ़ते चले जाएंगे। यह संख्या तो हमने पैदा कर ली। बीमारी हमने रोक ली। मौत को हमने लंबा किया है। मौत हमने आगे बढ़ाई है। आज से सौ साल पहले दुनिया में दस बच्चे पैदा होते थे, तो कम से कम सात बच्चे मर जाते थे। आज यह हालत नहीं है। आज गरीब से गरीब मुल्क में दस बच्चे पैदा होते हैं, तो तीन बच्चे मर पाते हैं। सात बच्चे, और कुछ मुल्कों में तो मुश्किल से एक बच्चा मरता है। कुछ मुल्कों में यह अनुपात भी कम हुआ है। और इस बात की आशा है, कि कोई बच्चा पैदा होगा तो मरेगा नहीं। क्यों मरा बच्चा पैदा हो? लेकिन जिस भांति हम पैदा करते हैं, बच्चों को...हमने मरने से रोक लिया है, उम्र बढ़ी है।
रूस की औसत उम्र उन्नत्तिस वर्ष थी, जब क्रांति हुई उन्नीस सौ सत्रह में। आज रूस की औसत उम्र बहत्तर वर्ष है। निश्चित ही लंबी औसत उम्र बढ़ गई, बीमारियां दूर हो गईं। कुछ बीमारियां बिलकुल ही पता नहीं हैं बच्चो को। अगर रूस में जाएं तो उन बीमारियों के बाबत पूछें, तो बच्चे कहेंगे, हां, इतिहास में लिखी हुई बीमारी है। अब इनका कुछ पता नहीं चलता। कुछ बीमारियां विदा हो गई हैं बिलकुल। सौ, दो सौ वर्ष बाद आदमी विश्वास न कर सकेगा, कि ये बीमारियां कैसी होती थी? आदमी स्वस्थ हुआ, बीमारी दूर हुई, आगे उम्र बढ़ी है और वैज्ञानिक कहते है, कि अगर कोशिश जारी रही, तो कोई वजह नही है कि हम किसी आदमी को इनडिफेनिट, अनिश्चित समय के लिए जिंदा न रख सकें! कोई कारण नहीं है।
लेकिन भारत का पुराना मन यही कहे चला जा रहा है, जो भगवान करेगा वह होगा, जो भाग्य करेगा वह होगा। दवा क्या करेगी? डाक्टर क्या करेगा? चिंतन क्या करेगा? विज्ञान क्या करेगा? कोई कुछ नहीं करेगा। जो होना है सो होगा। यह जो भाव हमारे मन में बैठा हुआ है तो हम भविष्य का निर्माण कैसे करेंगे? फिर भगवान जो करेगा वह होता रहेगा। हम खड़े होकर देखते रहेंगे। हम तटस्थ, दर्शक की भांति खड़े रहेंगे। यह जिंदगी जीना है! एक तमाशबीन की तरह हम खड़े हुए हैं! तमाशबीन की तरह खड़े रहने पर भी जिंदगी तो जीनी ही पड़ती है; लेकिन तब बहुत कष्टपूर्ण हो जाती है, बहुत दुखद हो जाती है।
युवक के पास भी, विज्ञान की शिक्षा देने के बाद भी, हम नया मन पैदा नहीं कर पा रहे हैं, यंग माइंड पैदा नहीं हो पा रहा है। जो सोचे, जो लड़े, जो जिंदगी को बदले, जो संघर्ष के लिए आतुर हो; कि जिंदगी जैसी मिलेेगी हम उसे वैसा ही नहीं छोड़ेंगे, अच्छा बनाएंगे, बेहतर बनाएंगे। जमीन स्वर्ग बनाई जा सकती है। और आज पहली दफा यह संभव है, कि हम जमीन को स्वर्ग बना सकें।भारत भी आज सुखी हो सकता है।
भारत सुखी कभी नहीं हुआ है। शायद आपको खयाल न हो कि भारत में मोक्ष की और स्वर्ग की जो इतनी चर्चा चलती है, उसका कारण यह नहीं है कि इतने लोग धार्मिक है। लाख-दो लाख आदमियों में मुश्किल से एक आदमी धार्मिक होता है। क्योंकि सत्य की खोज किसकी है? और इतने लोग धार्मिक क्यों मालूम पड़ते है? भारत में इतना दुख है और सुख की कोई आशा नहीं है। तो स्वर्ग में सुख की आशा बांधनी पड़ती है। दुख के कारण स्वर्ग की यह आकांक्षा पैदा होती है। और बट्र्रेंड रसल ने कहीं कहा है और मैं भी सोचता हूं, भारत के लिए तो बिलकुल लागू होगा--उसने तो पूरी मनुष्यता के लिए कहा है, कि अगर आदमी पूरी तरह सुखी हो सके तो धर्म विदा हो जाएगा।
शायद भारत के अभी जो धार्मिक लोग दिखाई पड़ते हैं, ये तो धार्मिक नहीं रह जाएंगे, अगर भारत सुखी हो सके। क्योंकि इनके धार्मिक होने का कुल कारण दुख है। इतना दुख घेरे हुए है कि कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती। तो अगले जन्म में आगे पृथ्वी से दूर, मृत्यु के बाद फिर हम सुख की कल्पना करते हैं। हमने कल्पना क्या की है सुख की, वह भी देखने लायक है। स्वर्ग में हमने कल्पना क्या की है? वह भूखे आदमी की खबर है उस कल्पना में, गरीब की खबर है।
अगर आप तिब्बती का स्वर्ग देखेंगे, तो आप हैरान हो जाएंगे। तिब्बती कहता है, स्वर्ग में बड़ी उत्तप्त हवाएं बहती हैं। बड़ी गर्मी है, सूरज निकलता है और बड़ा गरम है, उष्ण है। तिब्बत का स्वर्ग उष्ण है क्योंकि तिब्बत में आदमी ठंड से पीड़ित है तो स्वर्ग में भी उसने सब्स्टीट्यूट...इधर तो नहीं हो रहा है, इधर तो ठंड में मरे जा रहे हैं। तिब्बत के स्वर्ग में है, कि वहां लोग रोज स्नान करते हैं। तिब्बत में एक
दिन स्नान करना वर्ष में मुश्किल पड़ जाता है। तो तिब्बत के स्वर्ग के लोग रोज स्त्रान करते हैं। इतना बड़ा आनंद है यह। तो हम कहेंगे--यह कैसा आनंद? यह क्या तुम सोच रहे हो? हम तो दिन में दो बार स्नान यहीं करते हैं। लेकिन तिब्बत के आदमी के मन को इतनी पीड़ा है, इतनी ठंड है, कि स्त्रान भी नहीं कर सकता है। नदी में तैर भी नहीं सकता है। तिब्बती स्वर्ग में लोग नदियों में घंटों तैरा करते हैं। बड़ा उष्ण है। सूरज निकलता है और सब तरफ धूप ही धूप है। बर्फ बिलकुल नहीं है तिब्बत के स्वर्ग में। तिब्बत के नरक में बर्फ है। और ऐसी बर्फ है जो इटर्नल कभी नहीं पिघलती, जमी हुई है। और जो शरारत करेंगे, पाप करेंगेे, उनको उस नर्क में डाल दिया जाएगा; जहां वह बर्फ में गलेंगे।
हमारा नरक बिलकुल उलटा है। हमारे नरक में बर्फ का पता नहीं है। अगर बर्फ मिल जाए, तो मजा आ जाए नरक के लोगों को। वहां आग ही आग जल रही है हमारे नर्क में। कड़ाहे जल रहे हैं आग के और लोगों को कड़ाहों में डाला जा रहा है। हम गर्मी से पीड़ित लोग हैं, तो नरक में गर्मी है। हमारा स्वर्ग बिलकुल एअरकंडीशंड है, बिलकुल वातानुकूलित है। वहां शीतल मंद समीर दिन भर बहा करती है। सूरज उगता है तो भी गर्म नहीं होता है, ठंडा ही बना रहता है। हमारे स्वर्ग में, ठंडक की हमने व्यवस्था की है, क्योंकि हम गर्मी से पीड़ित है। स्वर्ग हमारी मनोकामना है, जो हम यहां नहीं पूरा कर पा रहे हैं, वह वहां है।
हमारे स्वर्ग में और क्या-क्या कल्पनाएं हैं, वह सोच कर हम समझ ले सकते हैं कि हमारी तकलीफें क्या है? स्वर्ग में वृक्ष हैं--कल्पवृक्ष! जिनके नीचे बैठ कर आप जो भी भोजन बुलाना चाहें, फौरन आ जाएगा। कल्पवृक्ष के नीचे जो भी कामना करें--यह कपड़े चाहिए आपने कामना की, वे मौजूद हो गए। आपने कहा--यह भोजन चाहिए, कामना की, वह मौजूद हुआ। यह कल्पवृक्ष क्या है? यहां न कपड़े मिल रहे हैं, न भोजन मिल रहा है, न कोई कामना पूरी हो रही है। अब एक ही उपाय है कि मरने के बाद कल्पवृक्ष मिल जाए, तो उसके नीचे बैठ जाएं। यह कल्पवृक्ष हमारी भूख, हमारी गरीबी, हमारी परेशानी का सबूत है। इस कल्पवृक्ष की कल्पना हम इसीलिए कर रहे हैं।
हिंदुस्तान जैसे मुल्कों में स्त्रियां बहुत जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं--हो ही जाएंगी। क्योंकि जो दुव्र्यवहार हम करते हैं, उन्हें बूढ़ा करने वाला है। तीस साल की लड़की है--पांच-सात-आठ बच्चे भी खड़े हो सकते है। वह बूढ़ी हो ही जाएगी। तो हमारे स्वर्ग में जो कल्पना है, वह पता है, क्या है? वहां कोई स्त्री कभी बूढ़ी नहीं होती। वहां सोलह साल के ऊपर उम्र बढ़ती ही नहीं। बस सोलह पर एकदम डैड-स्टाॅप आ जाता है। सोलह के बाद उम्र नहीं बढ़ती, सोलह पर ही ठहरी रह जाती है। वह हमारी कामना है। हम अपने चारों तरफ स्त्रियों को जवानी में बूढ़ा होते देखते हैं। वह हमारी कामना है कि ऐसा होता है, वह यहां तो नहीं हो पा रहा है, तो हम स्वर्ग में कर लेते हैं। वहां हम व्यवस्था कर लेते हैं। स्वर्ग हमारी आकांक्षाओं के सबूत हैं, तथ्यों के नहीं। जो यहां संभव नहीं है वह वहां संभव बना लिए गए हैं। और उनकी हम आशा कर रहे हैं।
भारत में इतने लोगों के धार्मिक होने का कारण धर्म नहीं है। अगर धर्म होता इतने लोगों के धार्मिक होने का कारण, तो जिंदगी बिलकुल दूसरी हो जाती। जिंदगी एक आनंद होती, एक शांति होती, एक मौज होती, एक परमात्मा का प्रसाद होती। लेकिन जिंदगी वैसी नहीं है। परमात्मा के प्रसाद में फूल खिलते हैं, सूरज निकलता है, पक्षी गीत गाते हैं। यहां न सूरज निकलता है, न फूल खिलते हैं, न कोई गीत होता है, सब उदास है।
आदमी धार्मिक नहीं है। आदमी सब दुखी हैं, और दुखी आदमी क्या करे? दुख को मिटाए--एक रास्ता है। या सुख को किसी सपने में खो जाए--दूसरा रास्ता है। भूखा आदमी रात सोता है, तो आप यह मत सोचना कि रात में वह लोगों को भोज देने का सपना देखेगा। नहीं, भोज लेने का सपना देखेगा। भूखा आदमी सोता है रात, तो लगता है कि राजा का राजपूत आ गया है, और कहता है, चलिए। राजा ने आपके लिए आज भोजन का निमंत्रण भेजा है, वह बैठा है, राजा की मेज पर भोजन कर रहा है। रात भर भोजन करता है, भूखा आदमी।
अगर आप भूखे न हों, तो एक आधा दिन उपवास करके देख लें, तो पता चल जाएगा, कि रात भर भोजन ही भोजन का सपना चलता है। उपवास जिसने किया, वह रात भर भोजन में ही जीएगा। साधारण आदमी दो दफे खाना खाता है, उपवास वाला चैबीस घंटे खाता है, मन ही मन खाता है, बाहर नहीं खाता। बाहर तो उपवास किए हुए है और प्रतीक्षा करता है, कि कब सुबह हो कि असली भोजन शुरू हो जाए। हमारे भीतर सपने जो हैं--हम उन्हीं चीजों को देखने लगते हैं, जो बाहर नहीं मिल रहा है, जो बाहर नहीं है!
इसलिए भारत ने स्वर्ग बना लिया है, परलोक बना लिया है। उन स्वर्गों और परलोकों की कोई जरूरत नहीं है। हम इस पृथ्वी को ही स्वर्ग और परलोक बना ले सकते हैं। लेकिन उसके लिए संघर्ष करने का--यह सपना काफी नहीं होगा। उसके लिए किताब में कल्पवृक्ष बनाना काफी नहीं होगा। कल्पवृक्ष बनाया जा सकता है और विज्ञान ने करीब-करीब कल्पवृक्ष लाकर खड़ा कर दिया है। और इस बात की संभावना है कि सौ वर्षों में कुछ देश तो निश्चित ही कल्पवृक्ष के नीचे हो जाएंगे।
अमरीका करीब-करीब कल्पवृक्ष के आस-पास उसकी गाड़ी पहुंच रही है। वह करीब पहुंच रहा है, जहां जिंदगी की सारी जरूरतें शायद पूरी हो जाएं। अभी बिहार में अकाल पड़ा था तो मैंने एक अखबार में खबर पढ़ी। एक अमरीकी मां ने यह खबर दी थी। एक अमरीकी मां से उसकी छोटी छोटी बेटी ने पूछा, कि यह अकाल क्या है? क्योंकि अकाल अमरीका के नये बच्चों को बिलकुल ही ऐतिहासिक घटना है, वहां तो नहीं पड़ता है। उसने पूछा कि अकाल क्या है? उसकी मां ने कहाः अकाल! वहां बिहार में आदमियों के पास खाने को रोटी नहीं है। तो उस लड़की ने कहाः फिर वे पेस्ट्री क्यों नही खा लेते? क्योंकि उस लड़की को पता है कि जिस दिन घर में रोटी वगैरह नहीं बनती, उस दिन केक-पेस्ट्री से काम चल जाता है। उसने कहाः रोटी नहीं है तो केक-पेस्ट्री खा लें। उसकी मां ने कहाः पागल! इनके पास केक-पेस्ट्री भी नहीं है, तो फिर कैसे काम चला सकते हैं। उसकी मां ने कहाः तुझे पता ही नहीं, उनके पास फल भी नहीं है! तो उसकी मां ने कहाः कि फ्रीज ही अगर उनके पास होता, तो फिर क्या था? फ्रीज भी तो नहीं है। उस लड़की को समझाना मुश्किल पड़ गया उसकी मां को, कि अकाल का क्या मतलब है? ओवर फैड अमरीका तो अतिरिक्त भोजन पा रहा है इसलिए अमरीका में उपवास के कल्ट शुरू हो गए है।
जहां भी ओवर फीडिंग हो जाता है, वहां उपवास करवाने की जरूरत शुरू हो जाती है। बुद्ध के घर में बहुत भोजन रहा होगा, महावीर के घर में बहुत भोजन रहा होगा, ओवर फैड थे। इसलिए उपवास करने का मजा उनको आया। गरीब आदमी को उपवास करवाइए, बड़ी मुश्किल हो जाती है। अमरीका में उपवास की कल्ट चल पड़ी है। नेचरोपैथी है, और होमियोपैथी है, और पच्चीस पैथी और पच्चीस आश्रम हैं, जहां लोग जा-जा कर उपवास कर रहे हैं। उस उपवास से मजा आ रहा है। उसका कारण है शरीर ने बहुत अतिरिक्त इकट्ठा कर लिया है। वे ओवरलोड हो गए हैं, उसको निकालना जरूरी है और ज्यादा खा रहे हैं, ज्यादा खाने को मिल रहा है। यहां बिहार में, हिंदुस्तान में गरीब आदमी को समझाएं कि उपवास बड़ी ऊंची चीज है, तो वह कहेगा, उपवास तो हम रोज ही करते हैं। भोजन ऊंची चीज है, उपवास ऊंची चीज नहीं है।
लेकिन, हमने किया क्या है? हमने किया यह है कि जो हमें करना था संघर्ष, वह संघर्ष न करके हम सपने देखते रहते हैं। हम एक सपना देखनेवाली कौम हैं। क्या हम भविष्य में सपना ही देखना चाहते हैं? या हम भारत को एक संघर्षशील समाज बनाना चाहते है? सपना देखना है, तो फिर अतीत की बातें दोहराए चले जाएं और अगर संघर्ष करना है, तो अतीत से मन को मुक्त करें। बहुत कठोर है यह प्रक्रिया--अतीत से मन को मुक्त करने के लिए। लेकिन मुक्त करना पड़ेगा और अगर हमारा मन पास्ट से, अतीत से मुक्त नहीं होगा, तो हम भविष्य को निर्माण करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। अतीत से मुक्त हो जाएं। इस पृथ्वी पर अभी जो दो घटनाएं घटी हैं, वे इसी बात की खबर लाती हैं।
अमरीका नई कौम है, तीन सौ वर्ष से पुरानी उसकी कहानी नहीं है। तीन सौ वर्ष पहले यूरोप के कुछ भगोड़े जाकर अमरीका में बस गए। तीन सौ वर्ष की कुल कथा है, कोई इतिहास नहीं है। अगर वे कितने ही पीछे जाएं, तो भी बहुत पीछे नहीं जा पाते। तीन सौ वर्ष के पीछे सब खत्म हो जाता है। अमरीकी कौम नई है। नई कौम होने की वजह से, अतीत न होने के कारण, अमरीका को भविष्य में देखने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था। इसलिए अमरीका इतनी संपत्ति पैदा कर सका। इतनी सुव्यवस्थित व्यवस्था, इतना जीवन को इस लायक बना सका कि वह चांद पर जाने के खेल में भी सम्मिलित हो सके और जीत भी सके।
यह जो तीन सौ वर्षों का नया समाज है, यह नया मन हमारे पास भी हो सकता है। रूस ने उन्नीस सौ सत्रह में पुराने मन को इनकार कर दिया। उसने कहा, अब विदा करते हैं। अब एक नई तारीख शुरू होती है। उन्नीस सौ सत्रह के पहले, और उन्नीस सौ सत्रह के बाद! रूस दो दफों में तोड़ दिया उन्होंने। जीसस क्राइस्ट के आगे-पीछे टूटता था इतिहास। रूस ने तोड़ दिया उन्नीस सौ सत्रह के पहले और उन्नीस सौ सत्रह के बाद। पुराने को नमस्कार कर लिया, कि अब नहीं हमें पीछे देखना है, आगे देखना है। तो पचास वर्षों में रूस ने जो काम किया है, वह पुरानी कौमें पांच हजार वर्षों में भी करने में समर्थ नहीं हो पाती।
अभी हम देख रहे हैं कि चीन हमारे बाद खड़ा हुआ है; लेकिन अतीत को इनकार करने के कारण आज इतनी बड़ी शक्ति उसने अर्जित कर ली, कि आज बड़ी से बड़ी ताकत को धमकी देने की स्थिति में है। रूस को धमकी देने की स्थिति में हैं। और हम, हम उसके पहले आजाद हुए हैं, बहुत कमजोर हो गए हैं। उन्नीस सौ सैंतालीस में जो हमारी हालत थी, उससे हमारी हालत और नीचे है, पैर डगमगा गए हैं। सारा मुर्दाघर हुआ चला जाता है। हम और अराजक हुए चले जाते हैं। शक्ति पैदा नहीं होती, संपत्ती पैदा नहीं होती, भविष्य निर्मित होता दिखाई नहीं पड़ता, तो फिर डर के मारे हम पीछे के घर में लौट जाते हैं। लेकिन पीछे कोई घर नहीं है, सिवाय स्मृति के। वहां कोई घर नहीं है कहां जाएंगे? भारत बहुत लाचार हालत में है--बहुत आवारा हालत में है।
चीन ने भी अतीत को इनकार कर दिया है, और नया सृजन शुरू हो गया है। वह ठीक है या गलत! यह दूसरी बात है। रूस ठीक है या गलत, यह दूसरी बात है। मैं जो कह राहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि जिन कौमों ने भी अतीत को इनकार कर दिया है और नये होकर खड़े हो गए हैं, उनके जीवन में एक ऊर्जा, एक एनर्जी पैदा हुई है जो क्रिएटिव है।
इजरायल नयेे से नया मुल्क है, नई जमीन मिली हैै, नया देश बना है, सब नया है। पिछले अरबों के युद्ध में इजरायल ने जो ताकत दिखाई है, वह अभूतपूर्व है। उसका क्या कारण है? उसका कारण हैं, अरबों के पास पुराना मन है, पुराना जराजीर्ण चित्त है। और इजरायल के पास युवा चित्त है। युवा चित्त बूढ़े चित्त को हरा कर सदा सफल हो जाता है।
हमारे पास युवा चित्त नहीं है। हम अतीत से जकड़े हुए हैं। जब कि हम पीछे और पीछे, सिवाय पीछे देखने के हम आगे देखते ही नहीं। हमारा हाल ऐसा है, वह ऐसा कहो कि फोर्ड ने गाड़ियां बनाईं, कारें बनाईं, बस आगे लाइट लगा दिए। अगर हिंदुस्तान में हम गाड़ी बनाते, तो हम लाइट पीछे लगाते--गाड़ी आगे, लाइट पीछे। उड़ती हुई धूल दिखाई देती, बड़ा मजा आता। जो छूट गया वह दिखाई पड़ता। और आगे, आगे सिवाय दुर्घटना के और क्या हो सकता था? पूरी कौम के चित्त का प्रकाश जो है वह पीछे की तरफ लगा हुआ है। गर्दन लकवा खा गई है, पैरालाइज्ड हो गई है, पीछे देखती है। आगे देखती ही नहीं, और चलना आगे है। रोज गड्ढे मिल जाते हैं, रोज मुश्किल खड़ी हो जाती है, रोज और बड़ी मुश्किलें खड़ी होंगी। गुलाम कौम को मुश्किलें ज्यादा नहीं होती हैं, क्योंकि मालिक को मुश्किलों का ध्यान रखना पड़ता है।
स्वतंत्र कौम की मुश्किलें ज्यादा हो जाती हैं क्योंकि ध्यान उन्हें रखना है, कोई मालिक नहीं है। अगर अब भी हमारी आंख पीछे की तरफ लगी है--रूस में जाएं और छोटे बच्चों से पूछें, वह क्या सोच रहे हैं? सोच रहे हैं, मंगल पर कैसे घर बनाए? छोटे स्कूल के बच्चे भी डिजाइन बनाने की कोशिश करते हैं कि चांद पर घर कैसा बने? अमरीका के बच्चे आंदोलित है कि और अंतरिक्ष में कैसे प्रवेश कर जाएं। वे किसी दूर भविष्य की यात्रा पर निकल रहे हैं।
हमारे बच्चे...? वे सब रामलीला देख रहे हैं, और कुछ भी नहीं। रामलीला बुरी नहीं है। रामलीला बड़ी प्रीतिकर है, लेकिन बार-बार देखना दुखद है, और खतरनाक है। और उसी-उसी को देखे चले जाना अतीत की उड़ती धूल को देखना है। भविष्य के सपने नहीं हैं हमारे मन में, अतीत की राख है। भविष्य का सूरज नहीं है हमारे मन में, बीते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त हैं। यह उनकी स्मृति रह गई है।
भारत कहां जाएगा? भारत कहां जा रहा है? अभी तो कहीं जाता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। लेकिन दो विकल्प हैं--या तो भारत लौट कर अतीत में ड़ूबने की कोशिश करे, जो असंभव होनी निश्चित है। और या अतीत को छोड़े, भविष्य को अंगीकार करे, नया सोचे और नया बनाए और पुराने ढ़ांचे तोड़े और पुराने मकान गिराए और पुरानी जिंदगी के बहुत बीते सूत्रों को हटाए।
भूल-चूक थोड़ी हो सकती है, लेकिन भूल-चूक से कोई ड़रने की जरूरत नहीं है। एक ही भूल-चूक दुबारा नहीं होनी चाहिए, बस। नई भूल तो रोज करनी ही चाहिए। नई भूल कोई रोज करता है, तो सीखता है। फिर पुरानी भूल ही दोहराने लगें, तो नासमझ हैं। लेकिन कोई भूल के डर से कुछ करे ही नहीं, तो इससे बड़ी भूल कोई भी नहीं हो सकती।
भविष्य नया! पुराने को विदा! हमें कोई तारीख तय करनी चाहिए, जिस दिन हम पुराने को नमस्कार कर लें। और क हें कि उसके बाद हम आगे की तरफ देखेंगे। आने वाली पीढ़ी तय कर सकती है, और आने वाली पीढ़ी को तय करना पड़ेगा। लेकिन आने वाली पीढ़ी भी कुछ सोच नहीं रही है।
आने वाली पीढ़ी प्रतिक्रिया में है, सिर्फ रिएक्शन में है। पुरानी पीढ़ी से परेशान है, गुस्से में है, गुस्सा और परेशानी ठीक है; लेकिन अकेले गुस्से और परेशानी से कुछ भी नहीं होगा। पुरानी पीढ़ी की प्रतिक्रिया से कुछ भी नहीं होगा। थोड़े-बहुत दिन यह युनिवर्सिटी में पढ़ता रहता है तब तक वह कुछ नई बातें करता हुआ दिखाई पड़ता है। और फिर घर गया और घोड़े पर सवार होकर शादी तरने निकल जाता है। घोड़े पर सवार हो जाता है वह। पहन लेता है वही पुराने कपड़े और किसी लड़की को, जिसे न उसने कभी देखा है और न कभी चाहा, न कभी प्रेम किया, उससे विवाह करने चल पड़ता है।
कैसा नया मन है यह? नया मन नहीं है यह, पुराना ही मन है। वही पुराना ढांचा है। कोई लड़का नहीं कह सकता अपने पिता को कि जिस लड़की को मैंने प्रेम नहीं किया, उसके साथ जीना तो बहुत ज्यादा क्रिमिनल है, अपराध की बात है। कोई लड़की अपने पिता से नहीं कहती, कि जिस युवक को मैंने नहीं देखा, जिसे मैंने कभी चाहा नहीं, जिसने मेरे मन में कोई जगह नहीं बनाई, तुम उसके साथ मुझे बांध देते हो, इसका कारण क्या है? नहीं, लेकिन हमारे पास चित्त नहीं है। नया चित्त नहीं है। हम पुराने चित्त से ही घिरे हैं। जवानी हमें मिलती है, वह शरीर की है, मन हमारा जवान नहीं हो पाता है।
मैं आपसे कहना चाहता हंू कि अगर भारत का कोई भविष्य, कोई सृजनात्मक, कोई आशापूर्ण बनाना हो, तो पुराने को विदा तर दें। कष्टपूर्ण है! पिता मर जाए तो मन यही होता है, कि लशा घर में रख दें। दुख तो भारी होता है। पिता मर गए हों, किसको दुख नहीं होता है। प्राण कंपते हैं विदा देते; लेकिन फिर भी रोते हुए हम मरघट जाते हैं। रोते हैं, दुखी होते हैं, लेकिन क्या उपाय है? मरघट विदा करना पड़ता है।
संस्कृतियां भी मर जाती हैं, सभ्यताएं भी मर जाती हैं। दुख भी होता है। पीड़ा भी होती है। उस दिन उनको मरघट पहुंचा कर जलाने की हिम्मत भी जुटानी चाहिए। अर्थी बांध लें पुरानी संस्कृति की, सभ्यता की! और मरघट में जला आएं!
एक दफा मुल्क खाली हुए भविष्य को देखें। इतनी ऊर्जा पैदा होगी, इतनी शक्ति, जो सब तरफ से बंद है, वह मुक्त हो जाएगी। जैसे किसी झरने के ऊपर से पत्थर हट जाएं।
भारत के जीवन में नये के अंकुर फूटें, यह नई पीढ़ी को सोचना है, लेकिन नई पीढ़ी क्या सोचती है? वह तो कभी घर के कांच फोड़ देती है। कभी खिड़कियां तोड़ देती है। कभी किसी गरीब मास्टर को, जो वैसे ही बहुत गरीब है, पत्थर मार देती है। नई पीढ़ी प्रतिक्रिया में है। नई पीढ़ी सृजनात्मक विचार में नहीं है।
पुरानी पीढ़ी पुराने से चिपकी है। नई पीढ़ी पुराने पर पत्थर मार कर चुपचाप खड़ी हो जाती है। जैसे कुछ टूट जाएगा। कुछ भी नहीं टूूटेगा। कांच तोड़ने से क्या टूटता है? खिड़कियां मिटाने से क्या मिटता है? एक शिक्षक को पत्थर मार देने से क्या होने वाला है? नहीं, बड़े सवाल नहीं हैं। छोटी बातों में नई पीढ़ी उलझती है, तो खतरा है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं--हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ नई पीढ़ी को इन्हीं बेवकूफी की बातों में उलझाए रखना चाहते हैं। अगर नई पीढ़ी उन चीजों से उलझी रही, तो भारत का पुराना ढांचा जिंदा रहेगा, बरकरार रहेगा, वह कभी टूटने वाला नहीं है। क्योंकि नई पीढ़ी को डाइवर्ट किया जाता है। उसे फिजूल की बातें सिखाई जा रही है। नये लड़कों को कहा जाता है कि कारखाना बड़ौदा में बने कि अहमदाबाद में। नया लड़का युनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। वह गोली खा रहा है, इसके लिए कि कारखाना बड़ौदा में बने, कि कारखाना अहमदाबाद में! नया लड़का कहेगा--कहीं भी बने, नये लड़के के लिए कारखाना बन रहा है। वह अहमदाबाद का नया लड़का होगा कि बड़ौदा का, यह सवाल नहीं है। युनिवर्सिटी कहां खड़ी हो जाए? गोली चलेगी। एक गांव की रेखा, एक काम की रेखा, कहां खत्म हो? नये लड़के को इसमें उलझाया जा रहा है। नये लड़के से कोई भी बेवकूफियां करवाई जा रही हैं।
हिंदुस्तान का राजनीतिज्ञ नये लड़कों का बुरी तरह शोषण कर रहा है। और उससे कुछ भी गलत करवा रहा है। और मजा यह है कि मंच पर खड़े होकर वह गालियां भी देता है कि कांच क्यों तोड़ दी है?
दीवाल क्यों फोड़ दी है? गड़बड़ क्यों की? और पीछे के रास्ते से वह चाहता है, कामना करता है कि नया लड़का इसमें ही उलझा रहे। जिस दिन नया लड़का इससे मुक्त हो जाएगा, पहला काम उस राजनीतिज्ञ को नीचे उतारने का होने वाला है।
भारत भटक सकता है, अगर नई पीढ़ी ने थोड़ी भूल-चूक की। नई पीढ़ी को बहुत सोचने का वक्त है। और एक नया मुल्क और एक नया समाज कैसे निर्मित करे? एक-एक विश्वविद्यालय चर्चा का, डायलाॅग का स्थान बन जाना चाहिए--जहां हम मिल कर भविष्य के लिए सोचें, विचार करें। क्या हो सकता है, पुराने को कैसे विदा करें? कैसे नये का जन्म दें! अगर इसका विचार चल पड़े तो कोई कठिनाई नहीं है। हमारे पास दुनिया में किसी भी युवक से कम ताकत नहीं है। हमारे युवा के पास उतनी ही ताकत है, शायद थोड़ी ज्यादा है। ज्यादा इसलिए है, कि जैसे कोई खेत बहुत दिन तक बंजर पड़ा रहे, उसमें कोई खेती न हो! पड़ोस के खेत में खेती होती रहे, तो पड़ोस का बहुत सा खेत धीरे-धीरे शक्तिहीन हो जाता है। जिस खेत में खेती न हुई हो, उस खेत में आज कोई अगर दाने फेंक दे कि बहुत से खेत झेंपे खड़े रह जाएं!
भारत ने तीन-चार हजार वर्षों से चिंतन नहीं किया है। उसके मन की उर्वर शक्ति बिलकुल पड़ी हुई है। अगर कहीं हमने चिंतन किया, तो हम पच्चीस साल के भीतर पृथ्वी पर किसी को भी पीछे छोड़ देने में समर्थ हैं। बड़ी उर्वर शक्ति पड़ी है बंद। उसका उपयोग हो जाए, तो बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन भारत कहां जाएगा, यह प्रश्न नहीं है। यह हम पर निर्भर है, कि कहां हम ले जाएंगे? जो पीछे की तरफ ले जाना चाहते है, उनसे बचना। वह हजारों साल से मुल्क को नुकसान पहुंचा रहे हैं। देश को आगे की तरफ, नये की तरफ, नवीन की तरफ, परिवर्तन की तरफ ले जाना है। सोचना, विचार करना, खोजना, मार्ग निकालना--यह हो सकता है। एक बहुत निर्णायक क्षण है, बहुत निर्णायक, डिसिसिव मूवमेंट है भारत की जिंदगी में। अगर हमने उसको खो दिया, तो हो सकता है हजारों साल बाद फिर निर्णायक क्षण आए। लेकिन खोने की कोई जरूरत नहीं है।
यह थोड़ी सी बातें मैंने इसी आशा में कहीं कि सोचना! मेरी बातें मान लेना जरूरी नहीं है, हो सकता है, मैं जो कह रहा हूं सब गलत हो। हो सकता है, मैं भी जो कह रहा हूं, वह कहीं न ले जाए। मेरी बातें मान मत लेना, सोचना, विचार करना। मुल्क अगर दस साल सिर्फ विचार करने में लग जाए, सब तरफ संदिग्ध हो जाए, डाउटफुल हो जाए, सोचने लगे, खोजने लगे...! गीता, कुरान, बाइबिल सबको एक तरफ उठा कर रख दें। कृष्ण, बुद्ध, महावीर को कहें नमस्कार! हमें खुद सोचने दो। बहुत दिन हम तुम्हारी छाया में सोचते रहे, तो शायद कुछ हो सकता है। यह जो मैं कह रहा हूं; इसी आशा में कि आप सोचेंगे। अगर मेरी बातों को गलत पाएं, फेंक दे कचरे में। अगर कोई बात ठीक मालूम पड़ जाए, तो वह आपकी अपनी हो जाती है। और जो सत्य अपना हो जाए, वह सक्रिय हो जाता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, इससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
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