कुल पेज दृश्य

शनिवार, 10 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

नये भारत की दिशा


प्रश्नः यदि अच्छे लोगों के हाथों में राजनीति आ जाए तो क्या परिवर्तन हो सकता है?

वे मित्र पूछ रहे हैं कि मैंने अच्छे-बुरे आदमी की बात की। वे पूछते हैं कि अगर अच्छे आदमी के हाथ में राजनीति आ जाए, तो क्या परिवर्तन हो सकते हैं?
अभूतपूर्व परिवर्तन हो सकते हैं। क्यों? कुछ थोड़ी सी बातें हम खयाल में ले लें। बुरा आदमी बुरा सिर्फ इसलिए है कि अपने स्वार्थ के अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं सोचता। अच्छा आदमी इसलिए अच्छा है कि अपने स्वार्थ से दूसरे के स्वार्थ को प्राथमिकता देता है, प्रिफ्रेंस देता है। अच्छा आदमी इसलिए अच्छा है, कि वह अपने लिए ही नहीं जीता है, सब के लिए जीता है। तो बड़ा फर्क पड़ेगा। अभी ‘राजनीति’ व्यक्तियों के निहित ‘स्वार्थ’ बन गई है, तब राजनीति समाज का स्वार्थ बन सकती है--एक बात।

बुरा आदमी सत्ता में जाने के लिए सब बुरे साधनों का उपयोग करता है और एक बार सत्ता में जाने में, अगर बुरे साधनों का उपयोग शुरू हो जाए, तो जीवन की सब दिशाओं में, सब तरफ जाने में, बुरे साधन प्रयुक्त हो जाते हैं। जब एक राजनीतिज्ञ बुरे साधन का प्रयोग करके मंत्री हो जाए, तो एक गरीब आदमी बुरे साधनों का उपयोग करके अमीर क्यों न हो जाए?

और एक शिक्षक बुरे साधनों का उपयोेग करके वाइस-चांसलर क्यों न हो जाए? और एक दुकानदार बुरे साधनों का उपयोग करके करोड़पति क्यों न हो जाए? क्या बाधा है?
‘राजनीति’ थर्मामीटर है पूरी जिंदगी का। वहां जो होता है, वह सब तरफ जिंदगी में होना शुरू हो जाता है--सब तरफ। तो राजनीति में बुरा आदमी अगर है, तो जीवन के सभी क्षेत्रों में बुरा आदमी सफल होने लगेगा और अच्छा आदमी हारने लगेगा। और बड़े से बड़ा दुर्भाग्य हो सकता है किसी देश का कि वहां बुरा होना सफलता लाता हो, भला होना असफलता ले आता हो।
आज इस देश में भला होना असफलता की पक्की गारंटी है। किसी को असफल होना हो, तो भले होने से अच्छा गोल्डन रुल नहीं है। बस भला हो जाए, असफल हो जाएगा। और जब भला होना असफलता बन जाए, और बुरा होना सफलता की सीढीयां बनने लगे, तो जिंदगी सब तरफ विकृत और कुरुप हो जाए, तो आश्चर्य क्या है!
राजनीति जितनी स्वस्थ हो, जीवन के सारे पहलू उतने ही स्वस्थ हो सकते हैं। क्योंकि राजनीति के पास सबसे बड़ी ताकत है। ताकत अशुभ हो जाए तो फिर कमजोरों को अशुभ होने से नहीं रोका जा सकता है। मैं मानता हूं कि राजनीति में जो अशुद्धता है, उसने जीवन के सब पहलुओं को अशुद्ध किया है।
राजनीतिज्ञ! पहले पुरानी कहावत थी--सत्ता जिसके पास है, वह दिखाई पड़ता है पूरे मुल्क को, और जाने-अनजाने हम उसकी नकल करना शुरू कर देते हैं। सत्ता की नकल होती है, क्योंकि लगता है कि सत्ता वाला आदमी ठीक होगा। अंग्रेज हिंदुस्तान में सत्ता में थे, तो हमने उनके कपड़े पहनने शुरू किए। वह सत्ता की नकल थी। वे कपड़े भी गौरवपूर्ण, प्रतिष्ठापूर्ण मालूम पड़े। अगर अंग्रेज सत्ता में न होते और चीनी सत्ता में होते तो मैं कल्पना नहीं कर सकता, कि हमने चीनियों की नकल न की होती। हमने चीनियों के कपड़े पहने होते। सत्ता में जो होता हैं--सत्ता में अंग्रेज था, तो उसकी भाषा हमें ज्यादा गौरवपूर्ण मालूम होने लगी। सत्ता के साथ सब चीजें नकल होनी शुरू हो जाती हैं। सत्ताधिकारी जो करता है, वह सारा मुल्क करने लगता है।
तो राजनीति पर तो अत्यंत शुद्धि की जरूरत है। वहां सबसे ज्यादा जरूरत है कि अच्छा आदमी वहां हो, क्योंकि वह हमारे बीच खड़ा होकर नमूना बन जाता है और चारों तरफ लोग उसकी तरफ देख कर वैसा होना शुरू कर देते हैं। और जब एक बार यह पता चल जाए--अनुयायी को यह पता चल जाए, कि सब नेता बेईमान हैं, तो अनुयायी को कितनी देर तक ईमानदार रखा जा सकता है। नहीं, अच्छे आदमी के तो आने से आमूल परिवर्तन हो जाएंगे। फिर अच्छे आदमी की बड़ी से बड़ी जो खूबी है, वह यह है, कि वह कुर्सी को पकड़ नहीं लेगा, क्योंकि अच्छा आदमी कुर्सी की वजह से ऊंचा नहीं हो गया है। ऊंचा होने की वजह से कुर्सी पर बिठाया गया है।
इस फर्क को हमें समझ लेना चाहिए। बुरा आदमी कुर्सी पर बैठने से ऊंचा हो गया है, वह कुर्सी छोड़ेगा, फिर नीचा हो जाएगा। तो बुरा आदमी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहता है। अच्छा आदमी, अच्छा होने की वजह से कुर्सी पर बिठाया गया है। कुर्सी छोड़ने से नीचा नहीं हो जाने वाला है। अच्छा आदमी कुर्सी को छोड़ने की हिम्मत रखता है। और जो लोग कुर्सी को छोड़ने की हिम्मत रखते हैं--जो लोग भी--किसी भी चीज को चुपचाप छोड़ सकते हैं, बिना किसी जबरदस्ती किए उनके साथ, वह मुल्क की जीवनधारा का अवरोध नहीं बनते।
रोज बदलाहट होनी चाहिए। बीस वर्ष में पीढ़ी बदल जाती है। नये बच्चे जवान हो जाते हैं। नई खबरें लाते हैं। नई दुनिया के सपने ले आते हैं। उनको ताकत हाथ में आनी चाहिए, ताकि वे नये सपने ढाल सकें। पुराना जमाना गया। पुराने जमाने में बूढ़ा आदमी जवान आदमी से ज्यादा उपयोगी था।
ध्यान रहे, अब बूढ़ा आदमी, जवान आदमी से ज्यादा उपयोगी नहीं है। उसका कारण है। क्योंकि पुरानी दुनिया का ज्ञान सीमित था। बूढ़ा आदमी जो जानता था, जवान उससे कम जानता था। आज हालत उलटी है। बूढ़ा आदमी जो जानता है, जवान उससे तीस साल आगे का जानता है। इसलिए बूढ़ा आदमी अब उपयोगी नहीं है। उसको जगह जगह से विदा होना चाहिए।
अगर आज कोई गणित पढ़ कर निकलता है, तो बीस साल पहले जो गणित पढ़ कर निकला था, वह उससे ज्यादा जानता है। अगर आज कोई फिजिक्स पढ़ कर आया है, तो बीस साल पहले की फिजिक्स से उसका ज्ञान ज्यादा है। तो अब जमाना बदल गया। पुरानी दुनिया का नियम था, कि बूढ़े के हाथ में सारी ताकत हो, अब नियम बदलना पड़ेगा। बूढ़ा आदमी पिछड़ जाता है। गति बहुत तीव्र हो गई है। नया बच्चा ज्यादा जानकर आता है, नया जान कर आता है। उसको जगह होनी चाहिए। तो अब जवान पर केंद्रित होनी चाहिए सारी व्यवस्था।
लेकिन वह अच्छा आदमी छोड़ सकता है। बुरा आदमी पकड़ लेता है। छोड़ता नहीं है। अच्छा आदमी जब भी पाएगा, कि मुझसे बेहतर आदमी काम करने आ रहा है, तो वह कहता है, अब आ जाओ, मैं हट जाता हूं। अच्छे आदमी की हटने की हिम्मत, बड़ी कीमत की चीज है। बुरे आदमी की हटने की हिम्मत ही नहीं होती है। वह जोर से पकड़ लेता है। एक ही रास्ते से हटता है वह। उसको या तो बड़ी कुर्सी दो, तो वह हट सकता है, नहीं तो नहीं हट सकता, और या फिर मौत आ जाए, तो मजबूरी में हटता है। नहीं तो वह, वैसे नहीं हटता है।
आमूल परिवर्तन हो सक ते हैं! आमूल परिवर्तन हो सकते हैं, और अच्छा आदमी वहां होगा, तो अच्छे आदमी को पैदा करने की व्यवस्था करता है। क्योंकि बुरा आदमी जो प्रतिक्रिया पैदा करता है, उससे और बुरे आदमी पैदा होते हैं। और यह भी ध्यान रहे, कि बुरा आदमी जब चलन में हो जाता है, तो अच्छे आदमी को चलन से बाहर करता है, खोटे सिक्के की तरह।
अगर खोटा सिक्का बाजार में जाए, तो अच्छा सिक्का एकदम बाजार से नदारद हो जाता है। खोटा सिक्का चलने की कोशिश करता है, अच्छे सिक्कों को हटा देता है। बुरे आदमी जब ताकत में हो जाते हैं, तो अच्छे आदमी को जगह जगह से हटा देते हैं।
जीसस को किसने मारा? बुरे आदमियों ने, एक अच्छे आदमी की संभावना को! सुकरात को किसने जहर दिया? बुरे आदमियों ने, पोलिटीशियंस ने, एक अच्छे आदमी को! अच्छा बुरे आदमियों के लिए बहुत अपमानजनक है, उसे बरदाश्त नहीं करता है। और इसलिए अच्छे की संभावना तोड़ता है, जगह-जगह से तोडता है। बुरा आदमी अपने से भी बुरे आदमी चाहता है, जिनके बीच वह अच्छा मालूम पड़ सके। और इसलिए बुरा आदमी अपने चारों तरफ, अपने से बुरे आदमी इकट्ठे कर लेता है। बुद्धू अपने से ज्यादा बुद्धू इकट्ठा कर लेता है, उनका वह गुरु हो सकता है। तो मैं मानता हूं, कि अच्छे आदमी से तो आमूल परिवर्तन होंगे--हो सकते है?

प्रश्नः आपने कहा, व्यक्तिगत चुनाव होना चाहिए, न कि पार्टी के ऊपर जाना चाहिए। क्या यह व्यक्तिगत चुनाव व्यावहारिक है?

समझा! नहीं, किसी देश में आज तक ऐसा नहीं है, कि हम अच्छे और बुरे आदमी को चुनने का विचार करें औैर इसलिए किसी देश में अभी भी, आज भी ठीक लोकतंत्र पैदा नहीं हो सका है। लेकिन यह हो सकता है। और संभव है, व्यावहारिक भी है। लेकिन एक खयाल जकड़ जाता है, तो उससे अन्यथा सोचने में हमें कठिनाई मालूम पड़ती है। दल का एक खयाल पकड़ गया है, कि दल के बिना राजनीति हो नहीं सकती। दल तो होना ही चाहिए। और दल अगर होगा, तो अच्छा आदमी कभी प्रवेश नहीं कर सकता। दल प्रवेश करेगा, आदमी का सवाल नहीं है।
सारी दुनिया की तकलीफ है, भारत की ही नहीं है। भारत की तो बहुत तकलीफ है, क्योंकि हम बहुत नये लोकतंत्र के जगत में खड़े होकर प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन एक अर्थ में हमें सुविधा हो सकती है, कि हम ठीक प्रयोग करने की कोशिश भी कर सकते हैं। क्या हर्ज है, पूरा मुल्क अच्छे-आदमियों को चुने? उनके अपने-अपने विचार होंगे, अपनी धारणाएं होंगी। हम पार्टी बेसिस पर उन्हें नहीं चुनते। उनके अच्छे होने की वजह से चुनते हैं।
वे पचास आदमी इकट्ठे होकर दिल्ली में निर्णय करेंगे, वे पचास आदमी अपने बीच से चुनेंगे, वे ही निर्णय करेंगे। वहां दिल्ली की उनकी लोक-सभा में पार्टियां हो सकती हैं, लेकिन पूरा मुल्क अच्छे आदमी की चिंता करके चुनेगा। वे वहां निर्णय करंेगे, उनके वहां दल होंगे। दस अच्छे सोशलिस्ट चुन जाएंगे,दस अच्छे कांग्रेसी चुन जाएंगे। वे ऊपर जाकर निर्णय करेंगे। हमारे चुनाव का आधार पार्टी नहीं होगी, आदमी होगा। ऊपर पार्टियां होंगी, वह अपना निर्णय करेंगी, अपना प्रधान मंत्री बनाएंगी। वह दूसरी बात है।
लेकिन मुल्क अच्छे आदमी की दृष्टी से चुनाव करेगा, तो बड़ा परिवर्तन हो जाएगा, बड़ी क्र ांति हो जाएगी। चूंकि अच्छे आदमियों की बड़ी जमात वहां इकट्ठी हो, तो मैं नहीं मानता हूं, कि कोई पार्टी की सरकार होनी भी जरूरी है। अगर अच्छे लोगों की जमात हो, तो अच्छे लोगों की सरकार हो सक ती है। वह मिली-जुली हो सकती है। और मिली-जुली सरकार अच्छे आदमियों की हो सकती है। बुरे आदमियों की तो मिली-जुली सरकार नहीं हो सकती, असम्भव है।
यह तो प्रयोग करने की बात है। अव्यावहारिक लग सकता है, लोकतंत्र भी अव्यावहारिक था। प्रयोग किया है, तो लग रहा है। समानता अव्यावहारिक थी, प्रयोग किया है, तोे बढ़ती जा रही है--जिंदगी तो प्रयोग करने से आगे बढ़ती है। जिंदगी तो प्रयोग करने से आगे बढ़ती है! मेरा मानना यह है, कि पार्टियों के दल पर देश को चुनाव करना नहीं चाहिए। देश का आम-जन तो व्यक्ति की फिकर करे, कि कैसा व्यक्तित्व, उसको चुने। ऊपर पार्टियां हो सकती हैं, वे मिल-जुल कर ही काम कर सकती हैं, इकट्ठे भी काम कर सकती हैं।
और भारत जैसे देश में मिल-जुल कर ही काम हो तो अच्छा है। क्योंकि भारत जैसे देश में अभी जब तक पार्टियों का रुख पकड़ जाए, तो एक पार्टी अगर मुल्क के अच्छे की बात भी करे, तो दूसरी पार्टी को सिर्फ इसलिए विरोध करना पड़ता है, कि वह विरोधी है। उसे सब बाधाएं खड़ी करनी पड़ती हैं, सब विरोध करना पड़ता है। भारत जैसे अविकसित देश को तो सबका साथ मिले, सहयोग मिले, एक को-आॅपरेटिव...।
सारे राजनीतिज्ञ चिल्लाते हैं, लोगों को समझाते हैं, को-आपरेशन चाहिए, लेकिन उनसे पूछना चाहिए कि तुम्हारे बीच कितना को-आपरेशन है। वहां कितना तुम मिल-जुल कर काम कर सकते हो। अगर कोई बढ़िया आदमी है, और वह दूसरी तरफ से आया है, दूसरी दिशा से, तो तुम कितना उसका उपयोग कर सकते हो। भारत जैसे अविकसित देश में तो मिली-जुली सरकार बड़ी सार्थक हो सकती है। और ध्यान रहे, आपकी पार्टी की सरकारें पंद्रह साल में मुसीबत में डाल देंगी। वह तो अब तक एक पार्टी थी कांग्रेस, इसलिए मुश्किल न थी।
अब पार्टियां बढ़ती जाएंगी। दस साल में या तो डिक्टेटरशिप, या मिली-जुली सरकार के सिवाय कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। क्या विकल्प है? आज भी क्या विकल्प है? विकल्प तो टूटना शुरू हो गया है। करिएगा क्या, पार्टी कहां ले गई आपको? वह तो एक पार्टी थी, तो ठीक था। कोई अव्यवस्था नहीं मालूम पड़ती थी। अब बराबर वजन की दस पार्टियां हो जाएंगी, तो रोज सरकार बदलेगी। और गरीब मुल्क में--भारत जैसे गरीब मुल्क में, रोज सरकार का बदलना बहुत महंगा है। और रोज सरकार बदलें तो विकास क्या हो? गति क्या हो? आज नहीं कल, आपको मिली-जुली सरकार पर आना पड़ेगा।
पार्टियां भारत के लिए गैर व्यावहारिक हैं--इंप्रेक्टिकल हैं, वह प्रेक्टिकल हैं नहीं। लेकिन मेरी दृष्टी यह है कि फिर भी अगर पार्टी के ढंग से आपने चुनाव किया, तो अच्छे आदमी की खोज बहुत मुश्किल है। अच्छे आदमी की खोज पर चुनाव होने चाहिए, चाहे वह किसी पार्टी का हो। इससे कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। मुल्क को पार्टी से प्रयोजन छोड़ देना चाहिए और वे अच्छे लोग ऊपर इकट्ठे हों, उनकी पार्टियां हो भी सकती हैं, दस मत हो सकते हैं उनके, लेकिन अच्छे लोग मिल कर काम कर सकते हैं, और भारत के लिए मिली-जुली सरकार के अतिरिक्त आगे विकल्प नहीं है। फिर एक ही विकल्प है, या डिक्टेटोरियल कोई व्यवस्था हो या फिर यह विकल्प है कि रोज सरकारें बदलें।
तो बहुत धनी मुल्क रोज सरकार बदल सकते हैं। वह खेल बहुत लक्जूरियस है, वह बहुत महंगा खेल है। उनका कोई नुकसान नहीं होता, हम तो मर जाएंगे। हम तो जिंदा नहीं रह सकते। हमारा तो सारा काम ठप्प हो जाएगा। ऐसे ही काम ठप्प है। रोज सरकार बदल जाए तो--छह महिने में सरकार बदल जाए तो...।
जिन प्रांतों में सरकारें बदली हैं, वहां की हालतें देख कर बहुत घबड़ाहट हो गई है। वहां आज कोई सेक्रेट्री, किसी मिनिस्टर का कोई सुनने का सवाल ही नहीं है, क्योंकि वह कहता है कि आप हो कितनी देर? वह तब तक फाइल ही रखे रहता है, जब तक आप हो। जब आप चले जाओगे, तब देेखा जाएगा। जब दूसरा आएगा, तब वह फाइल विदा कर दी जाएगी। उस फाइल से संबंध उठाने की कोई जरूरत नहीं है। और इतना साफ हो गया है, कि छह महिने में सरकार बदलनी है।
मामला बहुत अजीब हो गया है। आज नहीं कल, मिली-जुली सरकार पर हमें निर्णय लेना ही पड़ेगा। लेकिन यह मिली-जुली सरकार और अच्छी हो सकती है, अगर नीचे का चुनाव अच्छे आदमी के खयाल में हम करें। एक बहुत विभिन्न व्यवस्था हो सकती है, जो कहीं नहीं है, लेकिन कहीं नहीं होने से, यह नहीं है कि नहीं हो सकती है। हो सकती है!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें