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रविवार, 11 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन

भारत के निर्णायक क्षण


(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

एक तो आजादी के पहले भारत में कोई राजनीतिक दल नहीं था। आजादी की लड़ाई थी और सभी उसमें सम्मिलित हुए थे--सभी विचारों के लोग। आजादी के बाद उस संस्था का विघटन जरूरी था, जो आजादी के पहले लड़ाई लड़ रही थी, क्योंकि वह ‘एक विचार’ की संस्था न थी। आजादी के पूरे होते ही उसका काम भी पूरा हो गया था। लेकिन उस संस्था के लोगों को यह अप्रीतिकर लगा बिखर जाना, क्योंकि आजादी की जो लड़ाई लड़ी थी उसका फल भी भोगने का मजा आजादी के बाद आया। तो जबरदस्ती कांग्रेस को बचाने की और सत्ता पर हावी करने की चेष्टा की गयी। ठीक तो यह था कि कांग्रेस को बिखर जाना चाहिए था। उसके होने का अब कोई अर्थ न था, आजादी के बाद। उसका लक्ष्य पूरा हो गया था। उसका काम भी पूरा हो चुका था।

इधर बीस वर्षों में किसी तरह कांग्रेस को खींच-तान कर बांध रखने की कोशिश की गई है, वह देश के लिए अहितकर है। उसका बिखरना बहुत जरुरी है। उसके बिखराव के बाद ही भारत में राजनीतिक दल जैसी संस्थाओं का अस्तित्व बन सकेगा। उसके पहले नहीं बन सकता है। क्योंकि इतना बड़ा संगठन--जो एक अर्थों में गैर राजनीतिक था--हावी है कि उसके मौजूद रहते हुए नये संगठन, विचार के आधार पर, आयडियालाॅजी के आधार पर बन सकें और सत्ता के संघर्ष में सफल हो सकें, यह असंभव है। इसलिए कांग्रेस का बिखराव तो बहुत सौभाग्य सूचक है। देर से हो रहा हैं, बीस साल बाद, जो बीस साल पहले होना चाहिए था।

उसके बिखर जाते ही भारत में लोकतांत्रिक संभावना बढ़ जाती। उसके बिखर जाने के बाद ही विचार के आधार पर राजनीतिक दल खड़े हो सकेंगे और उनकी रुपरेखा स्पष्ट हो सकेगी।
कांग्रेस जब तक मौजूद है ताकत में, तब किसी राजनीतिक दल की विचारधारा स्पष्ट नहीं हो सकती। क्योंकि अस्पष्ट विचारधारा का एक राजनीतिक दल हावी है। उसके प्रतिफलन विरोधी पार्टियों पर भी पड़ते हैं। एक स्पष्ट विचार कांग्रेस का अपना हो, भिन्न विचार के लोग अलग हो जायें तो दूसरी पार्टियां भी कनफ्यूज न रहें और उनको भी अपना विचार साफ करने की सुविधा मिले। और लोकतंत्र के भविष्य और विकास और कार्य के लिए जरूरी है कि बहुत दल हों और एक दल इतना शक्तिशाली न हो कि विरोधी दल में होने का कोई अर्थ ही न रह जाए। इसलिए कांग्रेस का विघटन अत्यंत हितकर है।
निश्चित ही दूसरी बात भी आपने पूछी है कि दूसरे दल भी बहुत अर्थों में विघटन के करीब हैं। जैसे ही कांग्रेस विघटित होगी, दूसरे दलों में भी विघटन पड़ेगा। क्योंकि यह सफाई पूरे मुल्क में होगी। कांग्रेस के विघटित होते ही उसमें जो दक्षिणपंथी वर्ग है, उसके अलग होते ही दक्षिणपंथियों के अलग खड़े होने का कोई अर्थ न रह जाएगा। वह दक्षिणपंथी वर्ग के साथ संयुक्त हो जाएंगे। कांग्रेस के भीतर वामपंथियों के अलग होते ही वामपंथियों का भी कोई अर्थ न रह जाएगा। वामपंथी भी इकट्ठे हो जाएंगे और पोलराइजेशन संभवा हो पाएगा। और अगर ध्रुवीकरण संभव हो जाए तो मुल्क के सामने स्पष्ट विचारधाराओं के दल होंगे जिनको हमें चुुनाव करने में सुविधा होगी। अभी चुनाव करना ही मुश्किल है। क्योंकि जो लेफ्टिस्ट है, वह भी राइटिस्ट भाषा की कुछ बातें बोलता है। और जो राइटिस्ट है, वह भई लेफ्टिस्ट भाषा की कुछ बातें बोल रहा है। और मुल्क के मतदाता के सामने स्पष्ट ही नहीं हो पाता कि कौन कौन है? और यह स्पष्ट न होगा तो बहुत कठिन है। और हमारे जैसे मुल्क में जहां बहुत शिक्षा न हो, यह अत्यंत स्पष्ट हो जाना जरूरी है।
जहां हमें वोट देने के लिए नाम काफी न पडते हो और चिन्ह चुनने पडते हों। जहां चिह्नों के हिसाब से वोट करनी पड़ती हो वहां इतनी कंफ्यूज्ड पार्टियों का होना, मताधिकारी को सिवाय भ्रम में डालने के कुछ भी नहीं होता है। वह समझ ही नहीं पाता कि कौन समाजवादी है, कौन गैर-समाजवादी है। गैर-समाजवादी भी समाजवादी की भाषा बोलता है, समाजवादी भी गैर-समाजवादी की भाषा बोलता है। और कांग्रेस का कंफ्यूजन सारे मुल्क की सब पार्टियों में, सब मताधिकारियों के मन में प्रतिध्वनित होता है। इसलिए कांगे्रेस के विघटित होते ही दूसरी पार्टियों में भी विघटन अनिवार्य होगा। उसके भी वे टुकड़े अलग हो जायेंगे जो स्पष्ट न होंगे, या जिनके संबंध और तरह के होंगे औंर दूसरों से जिनके संबंध हो सकते हैं। तो आनेवाले दस वर्षों में यह विघटन साफ-साफ होकर सुनिश्चित विचार के दल खड़े हो जायेंगे, जो कि एक लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी हैं और मतदाता के मन को स्पष्ट हो सकेगा कि वह किसको चुन रहा है, क्यों चुन रहा है, किस कारण चुन रहा है?
दूसरा फायदा यह होगा कि कांग्रेस के विघटित होते ही कोई भी दल इतना बड़ा नहीं रह जाएगा कि नाम लोकतंत्र का हो और काम बिल्कुल तानाशाही का हो, यह असंभव हो जाएगा। कांग्रेस के पास इतनी बड़ी ताकत थी कि नाम ही लोकतंत्र का है, बीस सालोंसे, लेकिन ईतनी बडी ताकत में, लोकतंत्र सिर्फ नाम है, पीछे काम बिलकुल अधिनायकशाही का हो सकता है। वह भी असंभव हो जाएगा। और यह हो जाना चाहिए। मैं इसको सौभाग्यसूचक मानता हूं और स्वागत योग्य मानता हूं। जिन लोगों नेे कांग्रेस निर्माण की थी, उन्होंने जितना बड़ा काम किया है, उतना ही जो आज कांग्रेस को विघटित कर रहे हैं, वह भी उतना ही बड़ा काम कर रहे हैं।
जन्म लेना भी बहुत बड़ा काम है और दफनाना भी उतना ही बड़ा काम है। और हर चीज के मरने का वक्त आ जाता है, तब उसको दफनानेवालों की जरूरत पड़ती है। निजलिंगप्पा, इंदिरा जी सब कंधे मिला कर उसको दफनाने का काम कर रहे हैं जो कि बहुत ही उचित और देश के हित में है। कांग्रेस के तो अहित में है क्योंकि जो लोग इकट्ठे हैं उनकी शक्ति इसके बाद क्षीण हो जाएगी। लेकिन देश के हित में है। क्योंकि देश में कोई भी दल इतना शक्तिशाली हो, यह उचित नहीं है; और इतना कनफ्यूज्ड हो, जिसके सामने कोई स्पष्ट विचार न हों--सब विचारधारा, सब शेड के लोग जिसके भीतर हों और जिसमें तय करना ही मुश्किल होता होे, ऐसे दल का बिखर जाना जरूरी है। क्योंकि इतने बड़े दल का इतना कंफ्यूूज्ड होना, छोटे दलों को भी कनफ्यूूज्ड करता है, और उनको भी इसी तरह की विचारधारा पकड़ने को मजबूर करता है कि वह सब शेड के लोगों के लिए जगह बना सके।
...तो चित्त के साथ देश की चेतना के लिए स्पष्ट करने के यह लिए बहुत हितकर है। इसमें जितनी देर लगी उतना नुकसान हुआ। अभी जितनी जल्दी हो जाए उतना अच्छा है। मैं समझता हंू कि दस वर्ष में देश के पास अलग आइडियालाॅजी की सब पार्टीयां होंगी इसलिए मैं इसको कुछ अशोभन नहीं मानता हंू, न अशुभ मानता हंू।

प्रश्नः गांधी शताब्दी वर्ष में क्या वे गांधी जी को भूल गए हैं, ऐसा आपको लगता है?

गांधी जी को उनहोंने कभी याद किया हो, यह ही बात गलत है। भूलना तब पड़ता है, जब याद किया हो। गांधीजी से उनका कभी कोई संबंध नहीं रहा। गांधी जी जिंदा थे, तभी वे भूल गए थे और गांधी जी को खुद ही लगना शुरू हुआ था कि उनके साथी उन्हें भूल गए। सोचते थे पहले कभी, एक सौ पच्चीस वर्ष जीना, फिर सोचा कि इतना जीना बेकार है। एक सौ पच्चीस वर्ष जीते तो जितनी तकलीफ वे भोगते, दुनिया में दूसरा आदमी शायद ही भोग। गोडसे तो एक मित्र की तरह आया और उनको विदा कर दिया।
और आजादी के पहले भी गांधी जी के पीछे चलने वाले उनसे सहमत थे, इस भूल में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। गांधी जी भी कांग्रेस के अंग्रेजों से संघर्ष की टैक्टिक्स में एक हिस्सा थे। गांधी जी के बिना वह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी। इसलिए गांधी जी की बहुत सी बातों के लिए राजी होना पड़ता था, जिनसे आज वह राजी नहीं है और हमको परेशानी मालूम पड़ती है।
जैसे गांधीजी की अहिंसा से उनके पीछे चलने वाले बहुत कम लोग सहमत है और अगर सहमत थे तो इतना सहमत थे कि एक पालिसी की तरह इसका उपयोग किया जाए, एक प्रिंसिपल की तरह नहीं। जब आजादी आ गई तो बात खत्म हो गई। पाॅलिसी पूरी हो गई थी और अब अहिंसा की बात को पकड़ रखने का कोई प्रयोजन न था। गांधीजी की सारी व्यवस्था से, उनकी चिंतना से लोग राजी थे इसलिए कि संघर्ष में यह उपयोगी हो सकती है--एक तरकीब, एक टेक्नीक की तरह। लेकिन यह कोई जिंदगी का दर्शन है, इस तरह बहुत लोग राजी नहीं हुए। खुद उनके निकटतम पंडित नेहरू भी उनसे राजी नहीं थे। न उनके ग्रामोद्योग से राजी थे, न उनके चर्खे से राजी थे। न उनकी अहिंसा को सिद्धांत की तरह राजी थे, न उनके भगवान और राम से राजी थे, न उनके धर्म से और प्रार्थना से राजी थे।
गांधीजी से बहुत कम लोग राजी थे। अठ्ठान्नबे प्रतिशत उनके पीछे चलने वाला आदमी इसलिए पीछे चल रहा था कि वह अंग्रेजों से संघर्ष में उपयोगी थे। उनके बिना संघर्ष को चलाना बहुत कठिन था। लेकिन जब संघर्ष पूरा हो गया, तो गांधीजी का काम भी पूरा हो गया। पीछे चलनेवाला आदमी अलग खड़ा हो गया। लेकिन उसके बाद भी वह नाम लेता रहा। क्योंकि एक नया संघर्ष शुरू हुआ--जनता से।
एक संघर्ष था जो अंग्रेज से चलता था, उसमें गांधी को नेता बनाना जरूरी था; फिर एक संघर्ष शुरू हुआ सत्ता में आने से, जनता से। और गांधीजी की जय लगाना जरूरी था ताकि जनता उनके साथ खड़ी रहे क्योंकि गांधी जी का नाम बहुत कीमती हो गया था। उसकी बड़ी के्रडिट थी और उस पुराने साइनबोर्ड को उखाड़ फेंकना गलत था। वह उपयोगी था इसलिए उसका शोरगुल मचाते चले गए। बल्कि उस बोर्ड को इतना बड़ा बनाया कि उस जयकार के पीछे सब पाप छिप जायें, इसलिए गांधी की जय जोर से मनाते चले गए।
सेंटिनरी में क्यों आकर यह बात गड़बड़ हो गयी? बहुत कारण इकठ्ठे हैं। एक तो बीस साल में गांधीजी का जितना जोर से नाम चिल्लाया था, सेंटिनरी में सारी ताकत को लगा कर नाम को चिल्लाया। सेंटिनरी मनाई ही इसलिए कि दस साल कांग्रेस की ताकत और बढ़ जाए। दस साल गांधीजी के नाम का और फायदा मिल जाए, तो उसको जागतिक पैमाने पर मनाने की कोशिश की। और देश में भी इतना पैसा खराब किया उसके ऊपर, उसके पीछे राज यह था कि महात्मा गांधी की जय फिर शुरू हो जाए जोर से। तो महात्मा गांधी के पीछे खड़े जो लोग हैं, छोटी-मोटी जयकार उनकी भी हो जाती है, जब गांधीजी की बड़ी जोर की जय बोली जाती है।
लेकिन जैसे लपट मरने के पहले जोर से भभकती है, ऐसा सेंटिनरी में हो गया। उनकी जयकार भी जोर से भभकी लेकिन तेल भी चुक गया। और एक ही साथ दोनों घटनाएं घट गई, उनका विघटन भी घट गया। और एक लिहाज से अच्छा ही है। गांधीजी के सौ वर्ष पूरे होते हैं और शायद अब दुबारा इस तरह की सेंटिनरी इस दुनिया में गांधी जी की मनाना बहुत मुश्किल पड़ेगा। अब कांग्रेस का भी मृत्युचरण उठ गया। बीस वर्ष भी बहुत हैं। कांग्रेस ने जो किया है उसे देखते हुए, बीस वर्ष भी जिंदा रहना बहुत है। और उसके जिंदा रहने में कांग्रेस की शक्ति महत्वपूर्ण नहीं है। भारत की जनता का इनर्शिया - आलस्य महत्वपूर्ण है। हम सहने में समर्थ हैं। हम किसी भी...बात को सहने में लंबी देर तक संतोष रख सकते हैं।
दूसरा महायुद्ध हुआ तो चर्चिल को बुला लिया था ब्रिटेन ने, नेतृत्व करने को। और युद्ध विजय हुआ, और चर्चिल को उतनी ही सरलता से विदा कर दिया, जितनी सरलता से बुलाया था। काम पूरा हो गया था चर्चिल का, अब कोई जरूरत न थी। युद्ध का वह नेता हो सकता था, शांति में उसकी कोई जरूरत न थी। ब्रिटेन से चुपचाप विदा कर दिया जैसे कुछ लेना-देना न था। हमारी कठिनाई है, कांग्रेस को हमें पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस से विदा कर देना था। उसका काम पूरा हो गया था। लेकिन हमको बीस साल लग गए विदाई समारोह आयोजन करने में। और अभी भी कांग्रेस जी सकती है दो-चार-पांच वर्ष; नये नारे देकर जी सकती है। अगर गांधी का नारा झूठा पड़ जाए, तो कुछ नये नारे खोज कर जी सकती है। लेकिन उसकी मरण प्रक्रिया करीब आ गई है। भीतर से जो उसमें दरार पड़ी है, वह उसको ले डूबेगी।
इस देश की जनता का आलस्य बहुत प्राचीन है। यानी हमारी संस्कृति का आधार ही हमारा आलस्य है। इसलिए स्टेटिक सोसायटी हम बना पाए, डायनैमिक सोसायटी नहीं बना पाए। उसका कोई और गुण न था, गुण यह था सिर्फ कि हम इतने आलसी हैं कि हम कुछ बदलने की इच्छा में ही नहीं रह गए हैं। जहां तक बिना बदले चले, हम चलाना चाहेंगे। आज भी कांग्रेस टूट रही है तो वह हमारे तोड़े नहीं टूट रही है, वह अपने आप टूट रही है। अब हम क्या करें इसमें? हम तो उसे बचा सकते थे अभी और। वह टूट ही रही है तो हम क्या करें?
यह बीस वर्ष जो चलना हो सका है, वह हमारे आलस्य के कारण, संतोष के कारण, वह जो चुपचाप हो रहा है उसे देखते रहने की प्रवृत्ति के कारण। विद्रोह का रुख नहीं है और चीजों का काम पूरा हो जाए तो उन्हें विदा करने की क्षमता भी हममें नहीं है। इसलिए कांग्रेस ही नहीं, और हजारों चीजें चल रही हैं जो कभी की विदा हो जानी चाहिए। यानी जिनका अब कोई अर्थ ही नहीं रह गया है, लेकिन वे चले चली जा रही है।
ऐसा लगता है कि दूसरे मुल्क तो एक सदी में जीते हैं, हम दस-पंद्रह सदियों में इकट्ठे जीते है। दसवी सदी के भी अवशेष बाकी हैं और पांचवीं सदी के अवशेष भी बाकी हैं। उनको मानने वाला भी मौजूद है, उनको चलाने वाला भी मौजूद है। तो करीब-करीब हमारा पूरा इतिहास का जो विस्तार है, उसको इकट्ठे ही करके हम जीते हैं।
जो पुराना है उसको बचा लेते हैं, उसकी लाश हम बचा लेते हैं और उसको घसीटे चले जाते हैं। लाशें इतनी ज्यादा वजनी हो जाती हैं कि जिंदा आदमी उनको खींच ही नहीं पाता। तो जिंदा खड़ा हो जाता है, लेकिन लाशों को नहीं छोड़ता है कि उनको छोड़ दे और आगे बढ़ जाए। तो वह हमारी पुरानी प्रवृत्ति है। वह प्रवृत्ति का फायदा कांग्रेस ने बीस साल उठाया। तो दो-चार-सात साल फायदा और भी उठा सकती है।
लेकिन जो काम कृपा करके कांग्रेस के भीतर के लोग ही कर रहे हैं, वह हमें बहुत पहले कर देना चाहिए था। उससे एक जिंदा देश का सबूत मिलता। करीब-करीब ऐसा ही हमने आजादी के लिए किया था। हम अभी और गुलाम रह सकते थे, अभी कुछ ऐसी कठिनाई न आ गयी होती। अंग्रेज ही छोड़ देने को राजी हो गए, तो हम क्या कर सकते थे? वही कांग्रेस के साथ हुआ। वही मरने को तैयार हो गई, तो हम क्या कर सकते हैं? हमने उसकी कोई हत्या नहीं की, वह आत्महत्या करने को तैयार हुई है।
लेकिन सच ऐसा है कि जब चीजें पक जाती हैं, तो आप न भी गिराएं तो भी गिर जाती हैं। एक फल पक जाएगा, आपने पत्थर नहीं भी मारा तो भी गिरेगा। सब चीजें पकती हैं और गिरती हैं। कांग्रेस भी पक गई है, वह गिर जाना बिल्कूल अच्छा है। और हमें जलसा मना कर उसको विदा दे देना चाहिए कि वह गिर गई हैं। उससे जो वैक्यूम पैदा होगा, वह हितकर होगा। उसमें नये विचारों को पनपने की, नये मतों को पनपनेे की, नये संगठनों को पनपने की सुविधा बनेगी।
वैक्यूम तो रह नहीं सकता, वह भर दिया जाएगा। और निश्चित ही अब वह नयी धारणाओं से भर जाएगा। अब नये सवाल होंगे हमारे सामने। देश की अर्थ रचना को बदलने का सवाल होगा, देश की शिक्षा को बदलने का सवाल होगा, देश के स्वास्थ्य को बदलने का सवाल होगा, देश की जनसंख्या का सवाल होगा, जिंदा मसले होंगे। अब जो नये संगठन खड़े होंगे, नये मत खड़े होंगे उनके सामने जिंदा मसले होंगे। कांग्रेस के सामने जिंदा मसले नहीं हैं। उसके सामने जिंदा मसले थे, सैंतालीस के पहले। वे मसले भी मर चुके, उनका उत्तर भी हो चुका। अब उसके पास उत्तर भी नहीं है जिंदगी के लिए।वह पुराने उत्तर के आधार पर जीने की कोशिश कर रही है, तो वह कितनी देर चल सकती है?

प्रश्नः आपने कहा, डायनेमिक सोसायटी हम नहीं बना पाए। तो आप डायनेमिक सोसायटी के विकसित होने के बारे में क्या कहते हैं?

एक तरह का समाज तो वह है, जो एक ढांचे को विकसित कर लेता है, और फिर उसी ढांचे के अंतर्गत जिए चला जाता है। समय बदल जाता है, परिस्थिति बदल जाती है, लेकिन वह अपना ढांचा नहीं बदलता। एक समाज वह है जो ढांचा निर्मित करता है--ऐसा नहीं कि निर्मित नहीं करता--ढांचा निर्मित करता है, लेकिन परिस्थिति बदलती है, समस्याएं बदलती हैं, तो वह अपने ढांचे को बदलने की तत्परता दिखाता है।
अब जैसे कि हम हैं--हमारे समाज का ढांचा पांच हजार वर्ष से करीब-करीब एक जैसा है। उस ढांचे में बुनियादी फर्क नहीं आएं। सोचने के मुल्य भी हमारे वहीं के वहीं हैं, उनमें भी कोइ फर्क नहीं आएं। और अगर फर्क आ रहा है, तो वह हमारे कारण नहीं आ रहा है, वह ढांचा जिसको हम सम्हालें थे वह खुद ही बिखरने लगता है, यानी वह इतना जरा-जीर्ण हो जाता है कि उसके बिखरने की पूरी स्थिति आ जाती है। वह टूट कर गिर जाता है तो मजबूरी हमारी। बाकी वैसे हम पूरी चेष्टा करते हैं आखिरी दम तक कि उसको सम्हाले रहें, सम्हाले रहें, सम्हाले रहें--उसको थेगडे लगा दें, नये प्लस्तर जोड़ दें, नये खंभों का सहारा दे दें। लेकिन जब तक हमसे बने, हम ढांचे को बचाने की कोशिश करते हैं, उसे मिटा डालने की नहीं।
अब जैसे कोई भी ढांचे की बात हो...
मै जो फर्क कर रहा हूं स्टेटिक सोसायटी और डाइनैमिक सोसायटी में, वह पहला फर्क यह कर रहा हंू कि स्टेटिक सोसायटी अपने ढांचे क परिस्थितियों के बावजूद सम्हालने की कोशिश करती है। हमारा ऐसा समाज रहा है। ऐसा मैं नहीं कह रहा हंू कि डाइनैमिक सोसायटी ढांचे नहीं बनाती, लेकिन डाइनैमिक सोसायटी ढांचों के ऊपर आश्रित नहीं हो जाती, ढांचों को जीती है। और जब समय व्यर्थ हो जाता है, तो उनको फेंक देती है और उनके बाहर हो जाती है।
अब जैसे उदाहरण के लिए--एक हमारी नैतिकता का ढांचा था, वह हमने एक परिस्थिति में विकसित किया था। अब परिस्थितियां बिलकुल बदल गई हैं, लेकिन नैतिकता का ढांचा वही है। और परिणाम में कितनी ही अनैतिकता पैदा हो जाए, हम ढांचे को बदलने को राजी नहीं हैं। अनैतिकता को हम झेल लेंगे, लेकिन हम ढांचे न बदलेंगे। जैसे, उदाहरण के लिए, जैसे हम बाल-विवाह करते थे इस देश में। निश्चित ही बाल-विवाह के साथ नैतिकता का ढांचा दूसरा होगा, होना ही चाहिए। छोटे बच्चों की शादी हो जाती थी, इसके पहले कि वह मैच्योरिटी पर आएं। प्रोढ़ हों सेक्स की दृष्टि से, वे विवाहित हो जाते थे। इसलिए कभी इस मुल्क में युवक और युवती के बीच...

प्रश्नः ...लेकिन आज वह नहीं है?

न। लेकिन हमारे ढांचे का चिंतन वही है, मूल्य वही है। जैसे कि हमने आज से पांच सौ साल पहले एक युवक और युवती को, जो अविवाहित हो...
   
प्रश्नः लेकिन युवक और युवती अपने पैरों पर खड़े होकर अपने आपको पसंद कर लेते हैं। आज तो वह ढांचा नहीं है?

न। आपका मूल्यांकन वही है। आपका मूल्यांकन वही है! लड़के ढांचा तोड़ रहे हैं क्योंकि ढांचा अपने आप गिरा जा रहा है। मैं यह कह रहा हंू कि ढांचा अपने आप बिखर रहा है। आप उसको तोड़ नहीं रहे हैं सचेत होकर।

प्रश्नः ढांचा जो बिखर रहा है, वह नया ढांचा आ रहा है!

न। नया ढांचा आएगा। अगर पुराना ढांचा बिखरेगा तो नया ढांचा आएगा, लेकिन स्टेटिक सोसायटी वह है जो पुराने ढांचे को बचाने की अंतिम चेष्टा करती है। वह उस ढांचे को विदा कर देने के लिए आतुर नहीं होती है। और नये ढांचे को अगर स्वीकार भी करती है तो बड़े बेमन से स्वीकार करती है, मजबूरी में स्वीकार करती है। वह छाती पर आ ही जाता है तो स्वीकार करती है। जो मैं यह फर्क कर रहा हंू, वह फर्क कर रहा हंू, हमारी तत्परता, हमारी उत्सुकता और आतुरता नये के स्वागत की नहीं है। नया आ ही जाए और मेहमान बन ही जाए तो धीरे-धीरे हम उसके लिए भी राजी हो जाएंगे; हम तो पुराने के लिए भी राजी थे, इसके लिए भी राजी हो जाएंगे।

प्रश्नः आज की सोसायटी मे जो आप कह रहे हैं, वह परिस्थिति नहीं है।

न! यह आप एकदम गलत ही खयाल में है। गलत खयाल में इसलिए हैं, जो मैं कह रहा हंू मूल्य की...जैसे मैं उदाहरण के लिए, दो-चार कांक्रीट उदाहरण दूं तो खयाल में आ जाए। इसलिए मैं कह रहा हूं ताकि खयाल में आ सके कि ढांचा हमारा सोचने का पुराना ही है। नया ढांचा आ रहा है, लेकिन हम ला नहीं रहेे। और यह फर्क है स्टेटिक सोसायटी का। डाइनैमिक सोसायटी नये ढांचे को लाने के लिए आतुर होती है।

प्रश्नः आपके खयाल से नये ढांचे सोसायटी अपने आप ला रही है?

न! अगर यह प्रेस कांफ्रेंस है तो आपको विवाद का सवाल नहीं है। अगर विवाद करना हो तो फिर पूरी बात करनी पड़ेगी न! यानी मेरा मतलब यह है कि (अस्पष्ट)आप सवाल पूछते हैं--मैं समझा तुम्हारी बात--अगर आप पूछ रहे हैं तो मैं उत्तर दे रहा हंू। मेरा उत्तर सही है या गलत है, यह आपकी टिप्पणी अपनी होनी चाहिए, उससे मुझे कोई सवाल नहीं हैं फिर। मेरा उत्तर गलत है...नहीं-नहीं, मेरी बात नहीं समझे...और अगर उस पर डिस्कशन करना है न, तब तो लंबा वक्त लगेगा; फिर प्रेस कांफ्रेस का सवाल ही नहीं रह जाता।...नहीं होगा न! क्योंकि प्रश्न पूछ लिया है आपने! मैं कह रहा हंू, स्टेटिक सोसायटी मैं उसको कहता हंू, डायनैमिक सोसायटी इसको कहता हंू, और आपकी सोसायटी को मैं डायनैमिक नहीं कहता हंू। आपको ठीक नहीं लगता है तो उसको आप लिखो, समझे न? फिर उसमें डिस्कशन का उपाय नहीं है...!
   
प्रश्नः आप पोलिटिकल डिस्कशन को लाइन नहीं करना चाहते! क्या करना चाहते हैं आप? मैं जानना चाहता हंू कि क्या परप.ज है आपका?
   
मैं जिंदगी के सारे मसलों पर सोचता हंू। वह मुझे सुन कर आपको तय करना चाहिए। अगर आपको लगे कि डिफरेंस नहीं है...मैं जो कह रहा हंू, अगर आपको लगता हो कि उसमें दूसरे आदमी के और मेरे सोचने में कोई फर्क नहीं है, तो आप लिखिए। अगर लिखने योग्य न लगे तो मत लिखिए। लेकिन यह तो आपको तय करने की बात है।...हां-हां, बिलकुल आपको सोचना पड़ेगा। उसमें मैं एडवाइज दंूगा तो क्या मतलब होगा आपके सोचने का? मैं अपनी बात कहे देता हूं। आपको लगे कि यह लिखने जैसी बात नहीं है, लिखने योग्य नहीं है, मत लिखिए। यह भी लिखने योग्य हो कि यह लिखने योग्य नहीं, तो यह लिखिए। वह आपकी सोचने की बात है। उससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।

प्रश्नः एक दूसरा और सवाल है कि मानवीय कुदरत का एक अंश है और उसके ऊपर कुदरती तत्वों का असर गिरता है। जैसा समुद्र किनारे रहने वाला आदमी और वहां की जो आबोहवा है, वह आबोहवा में वह आदमी दूसरी तरह का होगा,पहाड़ पर रहने वाला दूसरी तरह का होगा--ऐसा ठंडी में, गर्मी में। और आप, वह जो डाइनैमिक सोसायटी की बात चल रही है, उसके ऊपर कैसे उसकी परिस्थिति को बदला जा सकता है?

यह बात महत्वपूर्ण है। क्योंकि हम जैसे भी हैं, हमारे चारों तरफ का मौसम, हवा, प्रकृति सबका परिणाम है। लेकिन इसके बावजूद भी आदमी इतना अवश नही है कि सिर्फ प्रकृति का परिणाम हो, आदमी ही प्रकृति पर परिणामकारी है। जैसे इसी गांव में रह कर एक आदमी परंपरावादी होगा, और एक आदमी क्रांतिकारी हो सकता है। और दोनों के लिए मौसम एक सा होगा, धूप भी एक सी होगी, वर्षा भी एक सी होगी, पहाड़ों पर हरियाली भी एक सी होगी। यह बात बहुत ठीक है कि प्रकृति बहुत दूर तक निर्धारित करती है कि हम कैसे होंगे, लेकिन हम भी बहुत दूर तक निर्धारित करते है कि हम प्रकृति को कैसे होने देंगे! यानी प्रकृति और हमारे बीच वन वे ट्रैफिक नहीं है।

प्रश्नः आप क्या ऐसा कहते है कि प्रकृति पर आप कंट्रोल कर सकते हैं? एक आम का पेड़ है और उस पर जो आम का फल लगता है, क्या आप उसको आम का फल आने की हैसियत से रोक सकते हैं?

मैं आपकी बात समझता हंू। पहले तो आप जो कह रहे है उसकी पूरी मैं बात कर लूं। फिर आपकी बातें करूंगा।
यह बात बहुत ठीक है कि गर्म मुल्क का आदमी थोड़ा सा आलसी होता है, थोड़ा सा आलसी होगा ठंडे मुल्क की बजाय, क्योंकि ठंड एक स्थिति पैदा करती है शरीर में, गर्मी दूसरी स्थिति पैदा करती है। सीमा पर रहने वाला आदमी एक तरह का होगा, देश के मध्य में रहने वाला आदमी दूसरी तरह का होगा। क्योंकि देश के मध्य में रहने वाले आदमी पर मुसीबतें मुश्किल से आयेंगी, सीमा पर रहने वाले आदमी पर मुसीबतें रोज आयेंगी। रोज उनका मुकाबला करना होगा।
एक सुखी देश का आदमी, जहां सामान्यतया जीवन सुख से चल जाता है, एक तरह का होगा। जहां जीवन बहुत कठिनाई से भरा हुआ है वहां आदमी दूसरी तरह का होगा। ये दोनों बातें सच हैं। लेकिन ये बातें इतनी सच नहीं है कि इतनी बातें सोच कर कि जो जैसा है वैसा ही रह जाए। तब फिर ये बातें खतरनाक भी हो सकती हैं। तब गर्म मुल्क का आदमी कह सकता है, हम तो आलसी होंगे ही, क्योंकि हमारा मुल्क गर्म है। लेकिन और गर्म मुल्क भी हैं और जरूरी नहीं है कि उन मुल्कों का आदमी उतना ही आलसी हो। और हमारे मुल्क में सभी लोग आलसी हैं, ऐसा भी नहीं है। प्रकृति निर्धारित करती है, लेकिन इतना निर्धारित नहीं करती जितना हम मान लेते हैं। पचास प्रतिशत शायद वह निर्धारित करती है और पचास प्रतिशत हमारी धारणाएं निर्धारित करती हैं कि हम क्या होंगे?
और हमारी धारणाएं इतनी महत्वपूर्ण हैं कि प्रकृति को भी बहुत सीमाओं पर छूटी हैं और बदलती हैं। जैसे आपने कहा, निश्चित ही अब कोई आम को हम इमली नहीं बना सकेंगे, लेकिन छोटा और बड़ा आम हमारे हाथ में निर्भर होगा। और यह भी कौन कह सकता है कि भविष्य में हम आम को इमली नहीं बना सकेंगे? जैसे-जैसे हमारी समझ गहरी होती जा रही है, वैसे-वैसे हम जानते हैं कि आम का जो बीज है उसमें कोडेड फार्मूला है। वह छोटे से बीज में फार्मूला है छिपा हुआ, जो उसको आम बनाता है। अब जितना हमारा अणुओं में प्रवेश हो रहा है...तो हम यह भी जान रहे हैं कि हम आम के अणु में भी प्रवेश कर सकेंगे और हम यह जान सकेंगे कि कौन सा खास तत्व इसको आम बनाता है। अगर उसको हम उसके बीज से अलग कर सकें तो हम आम को दूसरी शक्ल में ले आएंगे--आम, आम नहीं रह जाएगा।
आज रूस में ऐसे बहुत से फल हैं जो पृथ्वी पर कभी भी नहीं थे। जैसे कि रूस में उन्होंने ऐसे गेहंू की पैदावार भी की है जिसको हर वर्ष काट कर फेंक नहीं देना पड़ता, जो प्रतिवर्ष फसल भी दे सकता है। अब वह बिलकुल ही नई आदमी की खोज है। ऐसा पौधा पृथ्वी पर कभी भी नहीं था गेहंू का, जब कि हर वर्ष ही काट देना पड़ता था फसल। लेकिन एक पौधा दस साल तक काम दे जाए और दस साल गेहंू की फसल दे दे, वह बिलकुल ही नई खोज है। वह आदमी की ही ईजाद है।

प्रश्नः इसमें कोई फर्क तो नहीं हुआ?

हां, गेहूं में भी बहुत बुनियादी फर्क पड़ेगा। बुनियादी फर्क का मतलब यह है ...

प्रश्नः गेहूं बाजरा तो नहीं हो गया?

यह हो सकता है, यह संभावना है। यह संभावना इसलिए है कि जैसे-जैसे हमारी समझ बढ़ती है...गेहूं के, गेहूं होने का एक प्लान है, उस प्लान को अगर हम कल कभी बदल सकते हैं, तो यह भी संभव है। उसमें बहुत कठिनाई नहीं है। जैसे आज तक हमें खयाल था कि लड़की, लड़की होगी--लड़का, लड़का होगा। लेेकिन आज संभावना बढ़ गई है कि हम पेट में लड़के और लड़की में रूपांतरण कर सकें। अगर लड़का लड़की हो सकती है और लड़की लड़का हो सकता है, तो बहुत कठिनाई नहीं है कि गेहूं कल आम हो सके। निश्चित ही वह और तरह का आम होगा क्योंकि वह गेहूं से आएगा। आम ही नहीं होगा, लेकिन इसकी संभावना रोज बढ़ती जाती है क्योंकि जितनी हमारी समझ बढ़ती है प्रकृति के बाबत, उतना ही बदलने की सामथ्र्य बढ़ती है।
लेकिन अगर हमने कोई ऐसी धारणा पकड़ ली हो, कि हम प्रकृति को बदल ही नहीं सकते, तो यह धारणा प्रकृति से ज्यादा मजबूत सिद्ध होगी। और इस धारणा को बदलना बहुत कठिन हो जाएगा। प्रकृति को बदलना इतना कठिन नहीं जितना इस धारणा को बदलना कठिन हो जाएगा।
जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि हमे प्रकृति निर्धारित करती है, लेकिन हम भी लौट कर प्रकृति को निर्धारित करते हैं। आज जमीन पर जो डायनेमिक सोसायटी है, उन्होंने बहुत दूर तक प्रकृति को निर्धारित किया है। जो स्टेटिक सोसायटीज हैं, वे प्रकृति से निर्धारित होती चली जा रही हैं। जैसे, पानी नहीं गिरा है तो डायनेमिक सोसायटी फिकर करेगी कि बादल कैसे लाया जा सके? स्टेटिक सोसायटी सिर्फ प्रार्थना करेगी कि हे भगवान! बादल ला दे। स्टेटिक सोसायटी और कुछ नहीं कर सकती है, भगवान से प्रार्थना कर सकती है कि वह पानी ला दे। यज्ञ कर सकती है। लेकिन बादल लाए जाएं और गांव पर बादलों के ऊपर बर्फ छिड़का जाए और पानी बरसा लिया जाए... वर्षा ज्यदा हो गई, तो गांव के बादल अलग कर दिए जाएं...वह स्टेटिक सोसायटी इसकी फिकर नहीं कर पाएगी।
स्टेटिक सोसायटी अपने ढांचे में जीएगी। यज्ञ हमेशा होता रहा है, वह यज्ञ करती रहेगी। वह यह भी न पूूछेगी कि यज्ञ का अब कोई रेलेवेंस भी रह गया है बादलों से पानी गिराने में, या नहीं रह गया है? इंद्र का कोई संबंध रह गया है बादलों से कि अब नहीं रह गया है? लेकिन हमारी धारणा में बना है यह संबंध। अब भी हम इंद्र की पूजा कर लेंगे और प्रार्थना कर लेंगे। स्टेटिक सोसायटी अपने पुराने ढांचे को पुनर्विचार करने के लिए राजी नहीं होती, रिकंसीडर नहीं करती। जब कि सब ढांचे रोज पुनर्विचार किए जाने चाहिए क्योंकि जिंदगी रोज बदल रही है और हमारा ज्ञान रोज बढ़ता जा रहा है। नये ज्ञान के संदर्भ में पुराने ज्ञान को रोज कसने की हिम्मत हमें दिखानी चाहिए; तो स्टेटिक सोसायटी डाइनैमिक होनी शुरु हो जाएगी।

प्रश्नः वह नया ज्ञान मानव-जाति के उत्थान के लिए आता है कि विनाश के लिए?

ज्ञान न तो उत्थान के लिए आता है, न विनाश के लिए आता है। ज्ञान का हम क्या उपयोग करते है, इस पर निर्भर करता है। हम उसका उत्थान के लिए उपयोग कर सकते हैं और विनाश के लिए भी उपयोग कर सकते हैं। ज्ञान बहुत तटस्थ है। ज्ञान की अपनी आप से कोई खबर नहीं है कि आप क्या करें? ज्ञान सिर्फ ज्ञान है और ज्ञान का उपयोग सदा आप पर निर्भर है--आपके ढांचे पर, सोचने के ढंग पर, परिभाषा पर, विचार पर, मत पर ज्ञान का उपयोग होगा। ज्ञान का उपयोग हमेशा आदमी पर निर्भर है। ज्ञान तो सिर्फ तटस्थ है।

प्रश्नः जो विचार है, वह किस पर निर्भर है?
   
हम पर निर्भर है।

प्रश्नः हम किस पर निर्भर हैं?

यह अगर हम इस तरह पूछते चलें जाएं तो क्या मतलब होगा? हम कहते हैं, भगवान पर निर्भर हैं। आप कहते हैं, भगवान किस पर निर्भर है? क्या करिएगा?

प्रश्नः आपने कहा कि कांग्रेसवालों ने गांधी जी को एक साधन रूप में, उनकी विचारधारा को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया, तो मैं पूछता हूं कि गांधी जी ने जो अहिंसा की बात की, जो चर्खे की बात की, और जो भगवान राम की बात की वह भी एक पोलिटिकल लीडर की हैसियत से, अपने पोलिटिकल हेतु सिद्ध करने के लिए की; नहीं कि इसमें वे मानते थे, इसलिए की। इसके बारे में आपका क्या खयाल है?

मैं समझा, नहीं, गांधी जी के किसी विचार से मैं सहमत नहीं हंू लेकिन उनकी नियति पर कभी शक नहीं करता हंू। न गांधी जी के चर्खे से सहमत हंू, न उनके राम से सहमत हूं, न उनके रामराज्य से सहमत हंू। लेकिन उनकी नियति पर शक नहीं कर पाता हूं--सब तरह से असहमत होते हुए भी। गांधीजी ने जो भी किया, उसका परिणाम कुछ भी हुआ हो, लेकिन वे उसे पूरी अपनी आंतरिक मान्यता से कर रहे थे। जो लगत था, पूरी निष्ठा से कर रहे थे। न तो उनके लिए पोलिटिकल एंड का सवाल था--क्योंकि ऐसे बहुत से मौके आए जब कि ऐसा लगा कि वे अपनी बातों के कारण पोलिटिकल एण्ड खोए दे रहे हैं बजाय बचाने के, लेकिन वे अपनी बातों पर खड़े रहे। ऐसा मुझे नहीं लगता है कि उन्होंने कोई देश के चित्त के शोषण के लिए ये बातें की हों। देश का शोषण हुआ हो, यह बिलकुल दूसरी बात है; लेकिन गांधीजी सचेत रूप से यह नहीं कर रहे थे। उनको जो ठीक लग रहा था, वे वही कर रहे थे।
लेकिन गांधीजी के पीछे चलने वाले लोग बहुत सचेत रूप से चेष्टा कर रहे थे कि गांधीजी का क्या उपयोग किया जा सकता है? इसलिए गांधी जी के आजादी मिल जाने के बाद ही गांधी और गांधी के अनुयायी में इतनी बड़ी खाई पड़ गई कि उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। वह खाई भारी इसलिए पड़ गई कि काम पूरा हो गया था। गांधी तो बाद में भी अपनी बात कहे चले गए। आजादी आ जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा उनमें। क्योंकि अगर पालिटिकल एंड था गांधी के विचार का, तो आजादी आ जाने के बाद उनको बदल जाना चाहिए था।
उनको अब बातें और ढंग से करनी चाहिए थीं। नहीं, वह आजादी के बाद भी...और आजादी के पहले, गांधीजी की जिंदगी में कोई गॅप नहीं हैं! कोई डिस्कंटीन्यूटी नहीं है। आजादी आई या नहीं आई, गांधीजी एक कंटीन्युअस, एक सतत प्रक्रिया हैं। उसमें कहीं कोई गॅप नहीं है।
लेकिन गांधीवादी में और आजादी के पहले और पीछे में बहुत बड़ा गैप है। गांधीवादी आजादी के पहले एक तरह का आदमी था और आजादी के बाद बिलकुल दूसरे तरह का आदमी सिद्ध हुआ। उस दोनों की शक्लों को भी मिलाना मुश्किल है। सिर्फ कपड़े मेल खाते हैं, दोनों की शक्लों में कोई मेल नहीं है। लेकिन गांधी जी की शक्ल वही की वही है। अगर पोलिटिकल एण्ड था तो गांधी जी की शक्ल में भी परिवर्तन हो जाना चाहिए था, लेकिन वह परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता है मुझे।
तो मैं मानता हूं कि उनके लिए तो वह नैतिक विचार और सिद्धांत की बात थी। आजादी उससे आ जाए तो ठीक, न आए तो भी वह अहिंसा पर लगे रहने को तैयार थें। यानी उनकी दृष्टि में स्वराज्य से भी ज्यादा मूल्य अहिंसा का था--उनकी दृष्टि में। वह दृष्टि गलत है या सही, वह दूसरी बात है। उनकी दृष्टि में अहिंसा का मूल्य स्वराज्य से भी ज्यादा था। जिसे वे अहिंसा समझते थे, वे मानते थे, उनके लिए स्वराज्य भी खोया जाए तो हर्ज नहीं है। लेकिन हिंसा के द्वारा स्वराज्य लिया जाए, यह भी वे बरदाश्त नहीं करते।
और जब किसी आदमी की पाॅलिसी होती हैं और सिद्धांत नहीं होता तो वह आदमी हमेशा बदल सकता है, क्योंकि सिद्धांत का कोई सवाल नहीं है। अगर मुझे ऐसा लगता है कि आपके कारण मेरा काम हो सकता है, तो मैं आपके साथ हंू। और आपके विरोधी के साथ होने से हो सकता है, तो आपके विरोधी के साथ हंू। मेरे लिए सवाल काम के पूरे होने का है। गांधीजी की जिंदगी में वैसा नहीं दिखाई पड़ता। वे बिलकुल पागल की तरह जो उन्हें ठीक लगता है, उसे पकड़े हुए हैं। काम बनता हो कि मिटता हो, आता हो कि जाता हो, यह सवाल नहीं है। इसलिए गांधी जी की नीयत पर कोई सवाल नहीं उठता है, मेरी नजर में। हालांकि गांधी जी के किसी सिद्धांत से मैं सहमत नहीं हंू। न तो मैं यह मानता हंू कि गांधी जी की अहिंसा--अहिंसा है, मैं तो मानता हंू, वह हिंसा का ही रूप है।

प्रश्नः आपने यह कहा कि गांधी जी अहिंसा को स्वातंत्र्य से भी ज्यादा चाहते थे, लेकिन अहिंसा छोड़ने वाले नहीं थे, तो उन्नीस सौ सद्त्तीस में, जब कांग्रस ने पहली दफा पाॅवर लिया और कन्हैयालाल मुंशी उनके होम मिनिस्टर थे तब लालबाग में बंबई में उन्होंने मजदूरों पर गोलीबार किया, लाठी चलाई और गांधी जी ने उसका बचाव किया था तो वह किस तरह आप योग्य लिख रहे हैं?

गांधीजी की जिंदगी में एक नहीं बहुत मौके हैं,बहुत मौके हैं, जहां वे हिंसा का बचाव करते हुए मालूम पड़ते हैं, लेकिन गांधीजी की अगर पूरी बात हम समझें तो गांधीजी का सदा खयाल यह है कि एक चुनाव तो हिंसा और अहिंसा के बीच है, उस चुनाव में वे हमेशा अहिंसा के साथ हैं। लेकिन जिंदगी में ऐसा सीधा चुनाव नहीं है। जिंदगी में चुनाव सदा कम हिंसा और ज्यादा हिंसा के बीच है, तो गांधी जी कम हिंसा के साथ हैं। जिंदगी में ऐसा चुनाव है ही नहीं। जिंदगी में इस तरह एब्सल्यूट नहीं होते कि यह है हिंसा और यह है अहिंसा। जिंदगी में तो सिचुएशंस होते हैं, लेकिन कम हिंसा और ज्यादा हिंसा का सवाल होता है। तो गांधीजी को जब भी ऐसा लगा कि जो हिंसा हुई है, अगर वह नहीं होती है तो उससे ज्यादा हिंसा होगी, तब वह हिंसा के साथ दिखायी पड़ते हैं। लेकिन उसमें भी जो उनकी तौल का ढंग है वह अहिंसा का ही है क्योंकि वे मानते हैं कि कम हिंसा अहिंसा के ज्यादा निकट है।
ऐसे बहुत मौके हैं...एक मौका नहीं है, बहुत मौके हैं जब वे हिंसा के साथ मालूम पड़ते हैं। लेकिन उनकी दृष्टि वही है सदा। अगर वे इंग्लैंड के लिए सैनिक भरती करवा रहे हैं तो वह हिंसा की ही बात है। लेकिन उनको ऐसा लग रहा है कि अगर इंग्लैड हारता है तो दुनिया ज्यादा बड़ी हिंसा में पड़ जाएगी--इंग्लैंड का विरोधी अगर जीतता है। अगर इंग्लैंड जीतता है तो दुनिया कम हिंसा में पड़ेगी बजाय जर्मनी के जीतने से, तो वे इंग्लैंड के साथ खड़े हो जाएंगे। जिंदगी में तो शेड्स हैं, जिंदगी में ऐसी दो चीजें टूट कर नहीं खड़ी है कि यह हिंसा है, और यह अहिंसा है--हां और ना में जवाब हो जाए!
जहां तक सिद्धांत में बात करनी हों, वहां तो हम सीधी बात कर सकते हैं कि अहिंसा को मैं पसंद करता हंू। लेकिन जहां जिंदगी के वास्तविक तथ्य को पकड़ना हो तो वहां सदा यह निर्णय करना पड़ेगा कि कम हिंसा या ज्यादा हिंसा। तो गांधीजी कई बार हिंसा के पक्ष में दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन वे वहां भी कम से कम हिंसा के ही पक्ष में हैं। और अगर उनको ऐसा लगता हो कि गोली चलाने से कम हिंसा होगी और गोली न चलाने से ज्यादा हिंसा होने की संभावना है, तो वे शायद गोली चलाने के ही पक्ष में खड़े हो सकतेहैं। लेकिन गांधी जी की निष्ठा अहिंसा पर है। पर मेरी जो अपनी दृष्टि है, मैं उनसे राजी नहीं हंू। मेरा तो अपना मानना ही यही है कि गांधी जी जिसको अहिंसा कहते हैं, वह भी अहिंसा नहीं है। पर वह दूसरी बात है, उससे गांधी जी का कुछ लेना-देना नहीं है।

प्रश्नः आपने कहा, कांग्रेस को हटाने के लिए और दस वर्ष लगेंगे, बीस वर्ष। तो इस ट्रांजिटरी पीरिएड में आप सिंडीकेट और इंडीकेट ग्रुप में, दोनों दल में से कौन से दल को अच्छा मानते हैं?

कांग्रेस को जितने जल्दी मिटाना हो उतना ज्यादा सिंडीकेट को साथ देना चाहिए कांग्रेस को जितने जल्दी मिटाना हो...मोरारजी, कामराज और पाटिल और उनकी कंपनी कांग्रेस को जल्दी मरघट पहुंचा सकती है। इंदिरा जी तो तीन-चार साल देर लगायेंगी। ये ही काबिल होंगे और जल्दी पहुंचा देंगे।

प्रश्नः आपने कहा कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए। और पार्टियां हैं, जनसंघ है, कम्युनिस्ट पार्टी है, स्वतंत्र है,राइटिस्ट है, तो इसमें से कोई पार्टी खत्म हो जाना चाहिए कि नहीं?

मैं समझा आपकी बात। जैसे ही कांग्रेस खत्म होती है, इसमें से बहुत सी पार्टियां खत्म हो जाएंगी--कांग्रेस के खत्म होते से इसमें से बहुत सी पार्टियां टूट जाएंगी।

प्रश्नः कम्युनिस्ट पार्टी भी खत्म होगी क्या?

कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत और बढ़ जाएगी, खत्म नहीं होगी।

प्रश्नः मैैं सोचता हंू, आपने स्पष्ट अभी कह दिया कि कांग्रेस को खत्म हो जाना चाहिए!

बिलकुल स्पष्ट कहा।

प्रश्नः तो दूसरी कौन सी पार्टीयां ऐसी हैं जिनको खत्म हो जाना चाहिए?

हां, हां, खत्म हो जाना चाहिए, जैसे जनसंघ को खत्म हो जाना चाहिए, लेकिन खत्म होगा नहीं। कांग्रेस के खत्म होने से ही जनसंघ की भी ताकत बढ़ेगी, कम्युनिस्ट की भी ताकत बढ़ेगी। कांग्रेस के खत्म होते से ही, कांग्रेस जब बिखराव लेगी, उस बिखराव में इनमें से कुछ पार्टियों की ताकत बढ़ेगी, और कुछ पार्टियां जो बीच में खड़ी हैं, उनके भी बिखराव होंगे और सीधी पोलरिटी हो जाएगी।
हिंदुस्तान में दो बड़ी पार्टियां हो जाएगी--एक पार्टी जो सांप्रदायिक आधार पर खड़ी होगी, एक पार्टी जो समाजवादी आधार पर खड़ी होगी और बाकी शेड्स बीच में से विदा हो जाएंगे। उन शैड्स का विदा हो जाना भी अच्छा है। क्योंकि उनकी वजह से कनफ्यूजन होता है। सीधी साफ बात दो रह जायेंगी।
हिंदुस्तान में आने वाले पंद्रह वर्षो में धीरे-धीरे-धीरे, एक दल तो वह होगा जो पुरातनपंथी है, जो प्राचीनतावादी है, सांप्रदायिक आधार पर किसी तरह खड़ा होगा, भारतीय संस्कृति की दोहाई पर खड़ा होगा और भारत को किसी तरह पुराने आदर्शों पर ढालने की कोशिश करेगा। जनसंघ जैसा एक वर्ग खड़ा हो जाएगा। वह बढ़ेगा, उसकी ताकत बढ़ जाएगी क्योंकि कांग्रेस के भीतर बहुत बड़ा हिस्सा है जो जनसंघी है, जो कांग्रेस के बिखरने से जनसंघ के करीब जाएगा। उसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। बहुत सा हिस्सा है जो समाजवादी है। कांग्रेस के बिखरने से वह समाजवाद की तरफ जाएगा। लेकिन समाजवादी के जो शेड्स हैं, वे भी कांग्रेस के बिखरने से विदा होंगे। वे भी विदा होंगे।
   
प्रश्नः अभी हाल में जो देश में पोलिटिकल पार्टी हैं क्या इनमें कोई पार्टी ऐसी है जिसको रहना चाहिए?
   
हिंदुस्तान में समाजवादी विचार की बचाव की, कोई भी पार्टी आज मुझे ऐसी नहीं लगती, लेकिन वह पार्टी दस वर्षों में विकसित होगी। ये सभी पार्टियां विदा होने जैसी हैं। इनमें से कोई नहीं रहना चाहिए।
   
प्रश्नः आपने जो कांग्रेस विसर्जन और कांग्रेस खत्म करने को कहा, यदि कांग्रेस खत्म हो जाती है और देश में एक नयी पार्टी या नया संगठन खड़ा हो जाएगा, क्या ऐसी परिस्थिती आ जाएगी कि इस देश में जो दंगे फसाद होते हैं--कम्युनिटी-कम्युनिटी के बीच में फसादें होती हैं, वह बंद हो जाएंगी?

असल में जैसे-जैसे समाजवादी विचार लोगों के मन में गहरा जाएगा, सांप्रदायिक विचार कम होता चला जाएगा। समाजवादी हुए बिना कोई भी व्यक्ति संप्रदाय से मुक्त नहीं हो सकता।

प्रश्नः आपने समाजवाद की बात की तो इंडिकेट का समाजवाद, या सिंडिकेट का समाजवाद, इसे भी स्पष्ट करेंगे। दोनों ही समाजवाद की बातें करते हैं!

पहली बात,तो यह है कि, जैसे ही समाजवादी विचार लोगों के प्राणों में गहरा उतरेगा, वैसे ही सांप्रदायिकता विदा होगी। उसके विदा होने का और कोई उपाय नहीं है। समाजवाद का मतलब यह है कि जब हम समाज को एक नये वर्ग में बांटते हैं, तो पुराने वर्गों का वर्गीकरण समाप्त हो जाता है। हम समाजवाद को गरीब और अमीर में बांटते हैं, शोषक और शोषित में बांटते हैं। समाजवाद समाज को वर्गों में बांटता है; न तो वर्णों में बांटता है और न संप्रदायों में बांटता है। वह न तो यह कहता है कि हिंदू-मुस्लिम के बीच संघर्ष है। वह यह कहता है, संघर्ष गहरे में अमीर और गरीब के बीच है।
अगर समाजवाद का चिंतन ठीक से गहरा हो जाए तो हमारे पुराने सारे वर्गीकरण गिर जाते हैं। संघर्ष हिंदू और मुसलमान के बीच नहीं है, संघर्ष अमीर और गरीब के बीच है। अगर यह बात बहुत स्पष्ट हो जाए, तो मुसलमान मजदूर हिंदू मजदूर की छाती में छुरा भोंकने से, या हिंदू मजदूर मुसलमान की छाती में छुरा भोंकने को अर्थहीन मानता है। बल्कि उसे यह भी दिखाई पड़ने लगता है कि निश्चित ही वह जो अमीर और गरीब के बीच बंटवारा है, वह बंटवारा किसी तरह साफ न हो जाए, इसलिए ये सारे संप्रदाय के उपद्रव चलते हैं और चलाए जाते हैं। सिर्फ समाजवादी चित्त ही सांप्रदायिकता से मुक्त हो सकता है। क्योंकि संप्रदाय का विभाजन गिर जाता है। एक नया विभाजन हमें दिखायी पड़ने लगता है।
दूसरी बात, आप यह पूछते हैं कि कौन सा समाजवाद? यह बड़े मजे की बात है। हमारे मुल्क मे जो सवाल खड़ा हो गया है, वह--कौन सा समाजवाद? यह बड़े मजे की बात है। यह सिर्फ इस बात की सूचना देता है, सिर्फ इस बात की कि समाजवाद की धारणा हमारे सामने साफ नहीं हो पाई है, इसलिए कौन सा समाजवाद का सवाल उठता है! समाजवाद की धारणा, अस्पष्ट है। और प्रत्येक व्यक्ति समाजवाद की बातें कर रहा है। इसलिए तय करना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन से समाजवाद की बात हो रही है।
समाजवाद की बातें इस बात की सूचना तो है हीं, कि समाजवाद के अतिरिक्त अब किसी के बचने की उम्मीद नहीं है। समाजवाद से विरोध मे जो खड़ा है, वह भी समाजवाद की भाषा में ही बातें करेगा। यह इस बात की तो स्पष्ट खबर है कि समाजवाद के अतिरिक्त और कोई बच नहीं सकता है। एकमात्र अपील रह गई है समजावाद की। अगर लोकमानस में किसी की भी अपील है तो वह समाजवाद की। तो समाजवाद के विरोधी को भी समाजवाद की ही बात करनी पड़ रही है, लेकिन तब पच्चीस तरह के समाजवाद खड़े हो गए हैं।
मेरी अपनी दृष्टि यह है कि पच्चीस तरह के समाजवाद जब तक है इनमें से मैं कोई चुनाव नहीं करता। जब तक यह पच्चीस तरह के समाजवाद हैं, तब तक समाजवाद की ठीक धारणा विकसित न हो पाएगी। इसलिए मैं इन पच्चीस की फिकर ही नहीं करता। समाजवाद की धारणा कैसे विकसित हो, इसकी चिंता मैं लगता हंू। और अगर वह विकसित हो जाए तो ये पच्चीस फैड आउट हो जाएंगे,...हो जएंगे, वे विदा हो जाएंगे। एक दफा हमें समाजवाद की स्पष्ट धारणा हो जाए तो देश में समाजवाद की एक ही चिंतन पद्धति हो जाएगी। तब ये अपने आप विदा हो जाएंगे। और वे विदा न होंगे, और ये विदा होना भी न चाहेंगे, और ये कनफ्यूज करते रहेंगे। समजावाद को हजार अर्थ देते रहेंगे, हजार नाम देते रहेंगे।

प्रश्नः समाजवाद का आगे उत्तर मत दीजिए। मैं बीच में एक सवाल पूछना चाहता हूं कि दुनिया में जो समजावाद का अभी अच्छा स्वरूप है वह रशिया और चीन इन दोनों में मिलेगा। लेकिन वहां भी हिंसा चलती है। दूसरे देश से भी आक्रमण चलता है और ख्रुश्चेव जैसा आदमी जो समाजवाद की दिशा में आगे काम कर रहा था उसको भी जनता की इच्छा के कारण जाना पड़ा क्योंकि वहां भी जनता सुख और शांती नहीं मानती है। तो आपका समाजवाद क्या रशिया और चीन का जो अभी स्वरूप है उससे आगे जाता है कि उसकी दिशा बदलती है? तो यह जो आपने समाजवाद, तरह-तरह के समाजवाद की बात करते हैं, उसमें से एक विचार का जन्म हो, वैसा समाजवाद आप कह रहे हैं। तो ऐसा भी विचार का जन्म होगा, तब भी जो पोलिटिकल पार्टी.ज होंगी वे उनका अपने लाभ के लिए...करेंगे कि नहीं?

पहली बात तो यह है कि चीन में और रूस में समाजवाद नहीं है। चीन और रूस में समाजवाद के नाम पर एक मैनेजेरियल स्टेट पैदा हुई हैं। समाजवाद नहीं है, लेकिन समाजवाद के सहारे जो क्रांति हुई, वह सोशलिस्ट नहीं है, वह क्रांति मैनेजेरियल है। जहां मालिक था, वहां व्यवस्थापक बैठ गया है, और कोई फर्क नहीं पड़ा है। मालिक की जगह मैनेजर बैठ गया है। और जो स्थिति है, उसको अगर ठीक शब्दों में कहें तो वह स्टेट कैपिटलिज्म है। वह समाजवाद नहीं है, राज्य पंूजीवाद है। पंूजीपतियों की सारी सत्ता को राज्य ने हड़प लिया है और राज्य पंूजीपति बन गया है। और जब राज्य के पास सारी शक्ति इकट्ठी हो गई हो और राज्य पंूजीपति बन गया हो तो पंूजीवादी व्यवस्था से भी बदतर व्यवस्था पैदा हो जाएगी क्योंकि पंूजीवाद में कम से कम पंूजी बिखरी हुई है, पंूजीवादी बिखरा हुआ है। उसके पास इकट्ठी ताकत नहीं है, कम से कम राज्य की पूरी ताकत उसके पास नहीं है। लेकिन रूस और चीन में जो घटना घटी है, वह घटना यह है कि राज्य के हाथ में सारी ताकत इकट्ठी हो गयी है।
समाजवाद वहां भी नहीं आ पाया। वहां पंूजीवाद ने एक नया रूप लिया है, जो राज्य पंूजीवाद का रूप है। मैं जिस समाजवाद की बात कर रहा हंू, वह समाजवाद न तो पंूजीवाद है और न रूस और चीन का साम्यवाद है। मैं समाजवादी व्यवस्था उस व्यवस्था को कह रहा हंू, जहां व्यक्तिगत पंूजीपति की जगह राज्य पंूजीपति होकर नहीं बैठ जाता है बल्कि, जहां कोई मजूदर नहीं रह जाता। बल्कि प्रत्येक व्यक्ति पूंजी का भागीदार हो जाता है।
जैसे उदाहरण के लिए, एक बैंक है, एक तो स्थिति यह है कि एक आदमी का बैंक है, एक पूंजीपति के हाथ में बैंक है, दस पूंजीपतियों के हाथ में बैंक है। यह पूंजीवादी व्यवस्था है बैंक की। बैंक को नेशनलाइज किया। यह स्टेट कैपिटलिज्म की व्यवस्था है। राज्य के हाथ मैं बैंक चला गया। मैं समाजवादी स्थिति उसको कहता हूं, जब बैंक, बैंक से संबंधित सारे लोगों की भागीदारी बन जाए। वह उसके चपरासी की भी उसमें भागीदारी हो। एक फैक्ट्री--जब मजदूर...उसमें पंूजीपति, मैनेजर, उन सबकी भागीदारी बन जाती है।
भागीदारी राज्य के हाथ में नहीं चली जाती है, मालकियत राज्य के हाथ में नहीं जाती, बल्कि उस यूनिट के भीतर काम करने वाले सारे लोगों में कोई भी मजूदर और मालिक नहीं रह जाता है, वे सभी मालिक हो जाते हैं, वे सभी भागीदार हो जाते हैं।
तो मेरी दृष्टि में, एक तरह का जिसको कहना चाहिए सिंडीकेट--एक इस तरह का समूह, जो भीतर से सबको मालिक मानकर जीता है। और मैं राज्य के हाथ में सारी ताकत देने के पक्ष में नहीं हंू। क्योंकि राज्य के हाथ में सारी ताकत जाएगी तो पंूजीवाद तो मिटेगा और समाजवाद आएगा नहीं। और एक नयी व्यवस्था आएगी जो पूंजीवाद से भी महंगी और खतरनाक सिद्ध हो सकती है। क्योंकि इस नयी व्यवस्था में स्वतंत्रता का कोई उपाय न रह जाएगा। पुरानी व्यवस्था में स्वतंत्रता का एक उपाय भी था।
ऐसी समानता का मैं कोई मूल्य नहीं मानता हंू, जो स्वतंत्रता को खोकर मिलती हो। और ऐसी समानता महंगा सौदा है, जो स्वतंत्रता की हत्या पर ही आए। क्योंकि फिर उस व्यवस्था को बदलने की कोई सुविधा न रह जाएगी। आज रूस में व्यवस्था को बदलने का कोई उपाय नहीं रह गया है। आज पृथ्वी पर पूरे मनुष्य जाति के इतिहास में रूस ऐसा मुल्क है, जहां बगावत करीब-करीब असंभव है। जहां भीतर से बगावत की सब जड़ें काट दी गयी हैं। जहां विद्रोह होना ही मुश्किल हो गया है; जहां विद्रोह हो ही नहीं सकता। तो समानता तो आ जाए, लेकिन स्वतंत्रता इतनी नष्ट हो जाए कि समानता अर्थहीन हो जाती है। कोई समानता अर्थपूर्ण तभी है, जब वह स्वतंत्रता को भी अपने भीतर समाहित करती है।
तो मेरी दृष्टि में समाजवाद का अर्थ है, न तो सत्ता व्यक्ति के, पंूजीपतियों के हाथ में रह जाए, और न सत्ता राज्य के हाथ में चली जाए। एक सत्ता एक-एक यूनिट की, एक-एक इंडस्ट्री की, एक-एक गांव के खेत की, खेत पर काम करने वाले मजदूर, फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर, दुकान में काम करने वाला मैनेजर, मुनिम और चपरासी, ये सब भागीदार होते चले जाएं। देश की सारी व्यवस्था भागीदारी की व्यवस्था हो, उस व्यवस्था में राज्य मालिक न बन जाए।
अगर समाजवाद की यह धारणा विकसित न हो तो पंूजीवाद और साम्यवाद--ये दो विकल्प है। अगर समाजवाद की यह धारणा विकसित हो तो तीन विकल्प खड़े हो जाते हैं देश के सामने। और मेरी समझ में दस सालों में मुल्क के साफ-साफ तीन विकल्प खड़े हो जाने चाहिए। एक पंूजीवादी विकल्प है, जो पुरानी व्यवस्था को बचाने की चेष्टा करेगा। एक साम्यवादी विकल्प है, जो पूंजीवाद की बुराइयों को दिखा कर राज्य पंूजीवाद का प्रलोभन देने की चेष्टा करेगा। और एक तीसरा समाजवादी विकल्प है--उस तीसरे को मैं समाजवादी कह रहा हंू--वह विकल्प, जो सारे देश को, किसी को शोषित नहीं रखना चाहता और सभी को इकट्ठी मालकियत बांट देना चाहता है। वह बिलकुल तीसरा विकल्प है। और अगर हम उस तीसरे विकल्प को स्पष्ट मुल्क के सामने रख सकें, तो मेरी समझ यह है कि पोलराइजेशन साफ हो सकता है, इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। तब बहुत तरह के समाजवाद का सवाल नहीं रह जाएगा।

प्रश्नः ऐसा विकल्प तो रक्तपात से आएगा न? या लोकतांत्रिक ढंग से आएगा?
   
अब दुनिया में रक्तपात की बहुत जरूरत नहीं है। इसलिए नहीं है जरूरत, दो कारणों से--अगर रक्तपात से लाना हो तो बहुत संभावना इसकी है कि स्टेट कैपिटलिज्म आप ले आएंगे।
असल में तीन ही रास्ते हैं। एक रास्ता तो यह है कि हम जबरदस्ती आदमी की छाती पर सवार हो जाएं। और रक्तपात का सदा मतलब यह होता है कि माइनारिटी मेजारिटी को बदलना चाहती है। रक्तपात का सदा मतलब यही होता है।
अगर मेजारिटी बदलने को उत्सुक हो तो रक्तपात की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन मैं अकेला आदमी या दस आदमी पूरे गांव को बदलना चाहें तब तो बंदूक से बदलना पड़ेगा। लेकिन मैं मानता हूं कि ऐसी बदलाहट लाने की बात ही उठानी गलत है, क्योंकि पूरा गांव अभी राजी नहीं है। और हम दस को क्या हक है कि हम ऐसी बदलाहट लायें?
दूसरा रास्ता यह है कि हम परसुएड करें, हम लोगों को समझाएं-बुझाएं और एक स्थिति बन जाए कि अधिक लोग राजी हो जाएं तो फिर रक्तपात की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। असल में रक्तपात का मतलब ही यह है कि छोटा हिस्सा बड़े हिस्से को जबरदस्ती बदलने के लिए आतुर हो रहा है। लेकिन चाहे वह बदलाहट अच्छी भी क्यों न हो, अगर बड़ा हिस्सा राजी नहीं हो तो अलोकतांत्रिक है। बड़े हिस्से को राजी करने को सारे उपाय है। परसुएशन के सिवाय कोई रास्ता नहीं है, अगर हम लोगों को राजी कर सकें! फिर मेरा मानना यह है कि अगर समाजवाद रक्तपात से ही आता हो तो ऐसा समझ में पड़ता है कि तो फिर समाजवाद पूरा-पूरा ठीक दर्शन नहीं है। लोग इसके लिए राजी नहीं हो पा रहे हैं।

प्रश्नः मैं यह पूछना चाहता हंू, जो आप बात कर रहे थे वह पास्ट की आप बात कर रहे थे?

नहीं, पास्ट की बात करने से परसुएड करने का कोई सवाल नहीं है। असल में क्रांति की दो दिशाएं हैं--एक तो अतीत से मुक्त करना और भविष्य के प्रति उन्मुख करना। ये दोनों एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं। अतीत से मुक्त करना और भविष्य की ओर उन्मुख करना, ये एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं। क्योंकि जो चित अतीत से मुक्त नहीं है, वह भविष्य की तरफ उन्मुख नहीं हो सकता है। इसलिए एक तरफ अतीत से लड़ाई लडनी पड़ती है और भविष्य का चित्र देना पड़ता है। ये दोनों एक साथ चलेंगे।

प्रश्न: लेकिन वह तो स्टेटिक सोसायटी अतीत में खड़ी रहती है!

हम खड़े ही हैं। मैं यही कह रहा हूं कि हम स्टेटिक सोसायटी अभी भी हैं, इसलिए अतीत से हमें लड़ना पड़ेगा। जो सोसायटी आज है वह स्टेटिक सोसायटी है।
   
प्रश्नः एक बात का मुझे स्पष्टीकरण मांगना है। मेरे पास कुछ लोग आए हैं तो उन्होंने बताया कि आपके प्रवचन के वहां टेप रिकाॅर्ड सुनवाए जा रहे हैं। बाद में ऐसा कहा जाता है, आपके संप्रदाय द्वारा कि अगर रजनीश जी को आप समझ न सकें तो माओ और माक्र्स को भी पढ़ लें तब रजनीश जी समझ में आ जायेंगे। आपका क्या कहना है?
मुझे पता नहीं, लेकिन ऐसे भी माओ और माक्र्स को पढ़ना बुरा नहीं है। मुझे समझने के लिए नहीं, अगर हिंदुस्तान को माओ और माक्र्स से बचाना हो तो भी पढ़ना बहुत जरूरी है।

प्रश्नः पोलिटिकल सिचुएशन क्या है? इंदिरा जी कब तक सत्ता सम्हाल सकती हैं?

इंदिरा जी साल भर से ज्यादा नहीं टिक सकती हैं। इसलिए नहीं टिक सकती हैं कि जिन लोगों को आज उन्होंने अपने पक्ष में खींच लिया है, वे सब आश्वासन के आधार पर हैं। कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है। उनको प्राॅमिसेस दिए हैं। वह छह महीने में मुश्किल में पड़ जाने वाली है। सबको आश्वासन पूरे नहीं किए जा सकते हैं। आज कांग्रेस में निजलिंगप्पा या इंदिरा जी के बीच जो भी आना-जाना चल रहा है, वह सब आश्वासन के आधार पर चल रहा है। जिन-जिन को आश्वासन दे दिए हैं वे इतने ज्यादा हैं, वे पूरे नहीं हो सकते हैं। छह महीने में मुश्किल शुरू हो जाएगी। और जिनके आश्वासन पूरे नहीं होंगे, वे दूसरे कैंप में जाना शुरू हो जाएंगे। और मजा यह है, निजलिंगप्पा के पास आश्वासन देने के लिए ज्यादा पद हैं, इंदिरा जी के पास तो पद भरे हुए हैं। वह उनके पास ज्यादा पद हैं, खाली पद हैं सब। तो वे ज्यादा आश्वासन पूरे कर सकते हैं। तो छह महीने में मुश्किल शुरू होगी। जो पूरे नहीं हो पाएंगे, वे वहां जाना शुरू हो जाएंगे। और सबके पूरे नहीं हो सकते हैं। और इस वक्त पूरे देश की राजनीति आश्वासन से चल रही है, कि यह पद देंगे और यह पद देंगे और यह पद देंगे। वह कठिनाई छह महीने में मालूम होगी। साल भर से ज्यादा नहीं चल सकती हैं।

प्रश्नः लेबल लगाने से...।

बहुत जल्दी लेबल लगाने से फायदा नहीं है। उसमें रेडिकल कुछ भी नहीं है। खोसला कमेटी में रेडिकल कुछ भी नहीं है, एकदम मानवीय है। यह स्वाभाविक है कि अगर चित्रों में चुंबन आए तो बड़ा अच्छा है, उचित है। जीवन में जो है, चित्र से क्यों बचाना?
   
प्रश्नः गांधीवाद और समाजवाद में आप क्या फर्क करते हंै?
   
गांधीवाद समाजवाद नहीं हैं। गांधीवाद पूंजीवाद को बचाने की अंतिम चेष्टा है।
खोसला एक कदम पीछे है, लेकिन फिल्म में आएगा तो पब्लिक में आने में आसानी पड़ेगी।
   
प्रश्नः क्या गांधीज्म फ्राड है?
   
हां, गांधी तो फ्राड नहीं है लेकिन गांधीज्म फ्राड है।
   
प्रश्नः गांधीज्म फ्राड है तो किसने फैलाए? किसने प्रचार किया उसका?

हां, गांधीवादी कर रहे हैं और पूंजीवाद का पूरा समर्थन है।
   
प्रश्नः गांधीज्म यदि फ्राड है तो गांधी भी फ्राड हुए?

नहीं, यह जरूरी नहीं है। यह जरूरी नहीं है। यह जरूरी इसलिए नहीं है, मैंने जो पहले बात कही, वह मैं फिर कहूंगा। गांधी जी को जो ठीक लगता है वह उसे कह रहे हैं, वे फ्राड नहीं हैं। लेकिन गांधी जी जो कह रहे हैं वह फ्राड सिद्ध होगा सेासायटी के लिए यह मैं कह रहा हूं, इसलिए गांधी जी का सवाल नहीं है।

प्रश्नः क्या सामाजिक कोई परिवर्तन आएगा, क्या?

जरूर फर्क पड़ेगा। असल में मेरा मानना यह है कि सेक्स के संबंध में बहुत टैबूज हैं ा और वह टैबूज जो समाज को रुग्ण करते है, बीमार करते हैं। वह टैबूज उठने चाहिए तो समाज ज्यादा स्वस्थ होगा। असल में सेक्स जीवन का सहज अंग है, यह समाज ने अब तक स्वीकार नहीं किया है। वह स्वीकृत होना चाहिए, और उसे छिपा-छिपा कर और चोरी-चोरी और अंधेरे-अंधेरे में डालने की जरूरत नहीं है। वह जिंदगी का हिस्सा है। और जितना उसको प्रकाश मिलना चाहिए, मिलना चाहिए! उसको अंधेरे में डालना जरूरी नहीं है। बल्कि अंधेरे में उसे डाल कर हम ही उसे गंदा और कुरूप कर देते हंै।
चुंबन का अपना सौंदर्य है। वह कुरूप हो सकता है, लेकिन उसका अपना सौंदर्य है। उसे छिपाना तो कुरूप है ही। हिंदी फिल्म पर क्या हो रहा है? हिंदी फिल्म पर यह हो रहा है, ओंठ करीब आएंगे-आएंगे और छह इंच की दूरी पर रह जाएंगे। अब वह छह इंच की दूरी पर ठहरे हुए हैं और जनता तालियां पीट रही है। यह सब बेहूदगी है। उनको करीब लाना हो तो करीब लाना ही चाहिए। छह इंच की दूरी पर नहीं रोकना चाहिए।

प्रश्नः आपके फाॅलोअर... !

मेरा कोई फाॅलोअर नहीं है। मेरा कोई फाॅलोअर नहीं है! मेरा कोई संप्रदाय नहीं है! मेरे मित्र हैं, फाॅलोअर नहीं होने दूंगा, जब तक नहीं होने दूंगा...मेरे मित्र हैं, बस इससे ज्यादा मेरा कोई संबंध नहीं है।

प्रश्नः जैसे गांधी जी के गांधीवादी फाॅलोअर हो गए वैसे आपके फाॅलोअर बन जाएं, तो क्या होगा?

गांधी जी तो पूरी चेष्टा में थे कि फाॅलोअर होने चाहिए। मैं पूरी चेष्टा में हूं कि नहीं होणे चाहिए। गांधी जी की पूरी व्यवस्था ऐसी थी कि उसमें पीछे चलने का पूरा मामला था।

जब ऐसा मुझे लगे कि देश की भलाई के लिए है तो जरूर आ सकता हूं। ऐसा मुझे लगे कि देश की भलाई के लिए है! लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि इस समय जिनको भी देश की भलाई सोचनी हो, उन्हें देश की चेतना को जगाने में लगना चाहिए, एक्टिव पाॅलिटिक्स में नहीं। एक्टिव पाॅलिटिक्स उस जगी हुई चेतना से अपने आप आएगा। हिंदुस्तान को कुछ ऐसे लोग चाहिए जिनका एक्टिव पाॅलिटिक्स से कोई संबंध नहीं है। तो वे ही लोग हिंदुस्तान की चेतना को जगा सकते हैं। एक्टिव पाॅलिटिक्स से मेरा कोई भी मतलब है तो फिर मेरे वेस्टेड इंटरेस्ट शुरू हो जाते हैं। फिर, मैं आपकी चेतना जगाने को उत्सुक नहीं हूं, आपको अनुयायी बनाने को उत्सुक हो जाता हूं। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि आनेवाले बीस-पच्चीस वर्षो में कुछ लोगों को देश की कांशसनेस कैसे बढ़े, और सब तरह की चेतना कैसे बढ़े, उसमें ही लग जाना चाहिए!

प्रश्नः विनोबा जी तो एक्टिव पाॅलिटिक्स में नहीं हैं, लेकिन उससे भी कुछ हुआ नहीं!

विनोजा बी का मामला ऐसा है...मैं यह कह रहा हूं कि एक्टिव पाॅलिटिक्स मेें तो मैं नहीं हूं और न होना चाहता हंू क्योंकि मुझे कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ता, लेकिन पाॅलिटिक्स के बाहर भी होने के पक्ष में नहीं हूं मैं। विनोबा जी उलटे हैं मुझसे। वे कहते हैं, पाॅलिटिक्स से बाहर निकलना कोई नैतिक पुण्य है। और उन्होंने हिंदुस्तान की राजनीति से कुछ अच्छे लोगों को बाहर निकालने का पाप किया है। अब वह बेचारे पाप के पश्चाताप के लिए जयप्रकाश जी जैसे लोग वापस लौटने का सोच रहें हैं। मैं विरोध में नहीं हूं कि कोई पाॅलिटिक्स के बाहर निकले, मैं इस पक्ष में हूं कि कुछ लोग पालिटिक्स के बाहर भी काम करते हों। ताकि चेतना ज्यादा गहरे अर्थों में विकसित हो सके, उनका अपना कोई स्वार्थ न होगा इसलिए। मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि सारे लोग पाॅलिटिक्स के बाहर हो जाएं। विनोबा एंटी-पाॅलिटिकल हैं, मैं एंटी-पाॅलिटिकल नहीं हूं, मैं सिर्फ पाॅलिटिक्स में नहीं हूं। इन दोनों में फर्क है बहुत ज्यादा। विनोबाजी तो बहुत बुनियादी रूप से पाॅलिटिक्स के विरोधी हैं।

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