कुल पेज दृश्य

रविवार, 11 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन

नया भारत


मेरे प्रिय आत्मन्!
अतीत के इतिहास में क्रांतियां होती थीं और समाप्त हो जाती थीं। लेकिन आज हम सतत क्रांति में जी रहे हैं। अब क्रांति कभी समाप्त नहीं होगी। पहले क्रांति एक घटना थी, अब क्रांति जीवन है। पहले क्रांति शुरू होती थी और समाप्त होती थी। अब क्रांति शुरू हो गई है और समाप्त नहीं होगी। अब आने वाले भविष्य में मनुष्य को सतत क्रांति और परिवर्तन में ही रहना होगा। यह एक इतना बड़ा नया तथ्य है, जिसे स्वीकार करने में समय लगना स्वाभाविक है।
यदि हम सौ वर्ष पहले की दुनिया को देखें, तो कोई दस हजार वर्षों के लंबे इतिहास में आदमी एक जैसा था, जैसा था वैसा ही था। समाज के नियम वही थे, जीवन के मूल्य वही थे, नीति और धर्म का आधार वही था। दस हजार वर्षों में मनुष्य की जिंदगी के आधारों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस सदी में आकर सारे आधार हिल गए हैं और सारी भूमि हिल गई है। जैसे एक ज्वालामुखी फूट पड़ा हो मनुष्य के नीचे और सब परिवर्तित होने के लिए तैयार हो गया हो। अब ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन हम समाप्त कर देंगे। यह परिवर्तन जारी रहेगा और रोज ज्यादा होता चला जाएगा।

अब तक हमने जिस मनुष्य को निर्मित किया था वह एक स्थाई, सुस्थिर समाज का नागरिक था। अब जिस मनुष्य को हमें निर्मित करना है, वह सतत क्रांति का नागरिक हो सके, इसका ध्यान रखना जरूरी है। भविष्य के मनुष्य की रूप-रेखा, या नये मनुष्य की रूप-रेखा के संबंध में सोचते समय पहली बात यह सोच लेनी जरूरी है कि परिवर्तन के जगत में जहां रोज सब बदल जाएगा--हम कैसी नीति विकसित करें, हम कैसा आचरण विकसित करें, मनुष्य को फिर से पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है! महावीर ने, बुद्ध ने, मनु ने, कृष्ण ने और क्राइस्ट ने हमें मनुष्य की जो रूपरेखा दी थी, वह रूप-रेखा आज आउट आॅफ डेट हो गई है; समय के बाहर हो गई है। उसी रूपरेखा को अगर लेकर हम चलते हैं तो अब जिंदगी ढंग की नहीं हो सकती।

इसलिए पहली बात जो मैं कहना चाहता हूं वह यह, कि अब तक के सारे आदर्श और सारे मूल्य जिस भांति और जिस ढांचे में विकसित किए गए थे, वे भविष्य के मनुष्य के काम के नहीं रह गए हैं। अब तक हमने जिस मनुष्य को बनाने की कोशिश की थी वह भय के ऊपर खड़ा हुआ था। नरक का भय था, स्वर्ग का प्रलोभन था। और भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मनुष्य बुरा न करे, इसलिए नरक के भय से हमने उसे पीड़ित किया था और मनुष्य अच्छा कर सके, इसलिए स्वर्ग के प्रलोभन दिए थे। लेकिन आज अचानक इस सदी में आकर स्वर्ग और नरक दोनों ही विलीन हो गए। उनके साथ ही वह नैतिकता भी विलीन हुई जा रही है जो भय और प्रलोभन पर खड़ी थी। आज जो अनैतिकता का सारे जगत में विस्फोट हुआ है, उसका कोई और कारण नहीं है। पुरानी नीति के आधार गिर गए हैं।
मैंने सुना है, एक चर्च के स्कूल में एक पादरी बच्चों को नीति की शिक्षा देने आता था। उसने बच्चों को नैतिक साहस के संबंध में एक छोटी सी कहानी कही, मारल करेज के लिए। उसने बच्चों को समझाने के लिए कहा कि नैतिक साहस मनुष्य के जीवन में बड़ी जरूरी चीज है। वह कहानी बड़ी पुरानी थी। उसने उन बच्चों से कहा कि मैं तुम्हें एक छोटी सी कहानी से समझाऊं--तीस बच्चे किसी पर्वत पर घूमने के लिए गए। वे दिन भर में थक गए हैं। रात सोने के समय सर्द रात है, ठंड लग रही है, बिस्तर तैयार है। उनतीस बच्चे सो गए, लेकिन एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना करने के लिए अंधेरे कोने में ठंड से सिकुड़ा हुआ बैठा है। तो उस पादरी ने बच्चों को कहा कि वह जो एक बच्चा है, उसमें बड़ा नैतिक साहस है उनतीस के विरोध में जाने का। जबकि ठंड है, और ठंड बिस्तर में बुला रही है और दिनभर की थकान है। और जब उन्तीस लोग सो गए हैं, तब भी एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना पूरा किए बिना नहीं सोता है, उसमें बड़ा नैतिक साहस है। वह सात दिन बाद वापस आया। उसने बच्चों से पूछा, मैंने नैतिक साहस की तुम्हें एक कहानी सुनाई थी। मैं तुमसे पूछना चाहता हूं, तुम समझ सके मेरी बात? क्या तुम भी मुझे कोई घटना सुनाओगे जो नैतिक साहस को बताती हो? एक बच्चा खड़ा हुआ। यह बच्चा बीसवीं सदी के पहले कभी भी खड़ा नहीं हो सकता था। एक बच्चे ने खड़े होकर कहा कि हमने भी एक कहानी सोची है और आपकी बात से उसमें नैतिक साहस ज्यादा है। उस चर्च के पादरी ने कहाः ‘मैं सुनना चाहूंगा।’ उस बच्चे ने कहाः ‘आप जैसे तीस पादरी पहाड़ पर गए हुए थे घूमने, भ्रमण करने। वे दिन भर के थके-मांदे वापस लौटे। रात सर्द है, ठंडी है। बिस्तर उन्हें पुकार रहे हैं, लेकिन उन्तीस पादरी प्रार्थना करने बैठ गए हैं, और एक पादरी सोने चला गया है। और उस एक पादरी में बहुत नैतिक साहस है, उनतीस पादरियों के विरोध में जाने का।’
यह बीसवीं सदी के पहले किसी बच्चे ने न सोचा होगा। और यह बात सच है। जब उनतीस लोग प्रार्थना कर रहे हों और उनकी आंखें यह कह रही हों कि जो प्रार्थना नहीं करेगा वह नरक भेज दिया जाएगा; और उनके सारे व्यक्तित्व का सुझाव यह कह रहा हो, उनके गेस्चर, उनकी मुद्राएं यह कह रही हों कि नरक में सड़ोगे, तब एक आदमी का प्रार्थना छोड़ कर नींद के लिए बिस्तर पर चले जाना बहुत हिम्मत की बात है।
लेकिन यह हिम्मत आज की जा सकती है, क्योंकि नर्क और स्वर्ग हवाई कल्पनाओं से ज्यादा नहीं रह गए हैं। लेकिन आज से कुछ सदियों पूर्व वे बड़ी सच्चाइयां थे। और आदमी उन्हीं से भयभीत होकर जी रहा था। तो हमने आदमी को कहा था; झूठ बोलोगे तो नरक में पड़ना पड़ेगा। सत्य बोलोगे तो स्वर्ग का सुख हैं। हमने बहुत प्रलोभन दिए थे। हमने बहुत भय दिखाए थे। आदमी डरा हुआ था। तो वह नीति को मान कर जी रहा था। लेकिन आज सारे भय गिर गए हैं। और आदमी निर्भय हुआ है।
इस निर्भय आदमी पर पुरानी नीति लागू नहीं हो सकती। पुरानी नीति भी पुराने आदमी के साथ मर गई है, मर रही है, मर जाएगी।
लेकिन क्या मनुष्य को अनीति में छोड़ देना है? क्या मनुष्य के अभय और निर्भय होने का अर्थ यह होगा कि वह अनैतिक हो? अगर यह होगा तो समाज निरंतर गहरे खतरों में पड़ जाएगा। क्योंकि नैतिक होने का एक ही अर्थ है कि मैं दूसरे व्यक्ति की भी चितंा करता हूं, मैं अकेला नहीं हूं! मैं इस पृथ्वी पर साथियों के साथ हूं। कोई भी अकेला नहीं है। हमारे चारों तरफ पड़ोसियों का बड़ा जाल है और मैं पड़ोसी के लिए भी दायित्वपूर्ण हूं। मैं उसके लिए भी विचार करता हंू। उसे दुख न पहंुचे, इस भांति जीता हूं। नैतिकता का आधार इतना है, लेकिन अब तक हमने भय के आधार पर इस बात को सम्हाले रखा था। कानून का भय था, पुलिसवाला खड़ा है चैराहे पर। अदालत में मजिस्ट्रेट बैठा है। ऊपर भगवान बैठा है। वह सुप्रीम कांस्टेबल का काम करता रहा अब तक । बड़े से बड़ा पुलिस का हवलदार था। वह ऊपर से बैठ कर नियंत्रण कर रहा है, लोगों को नरक भेज रहा है, स्वर्ग भेज रहा है। लेकिन वह सब विदा हो गया है।
बीसवीं सदी की खोज ने बताया कि भगवान भी हमने अपने भय से निर्मित कर लिया था और उस भगवान का तो हमें कोई भी पता नहीं है, जो है। और जिस भगवान को हमने निर्मित कर लिया था, वह हमारे भय का ही आधार था। वह भगवान भी धीरे-धीरे फेड-आउट हो गया है। वह भी विलीन हो गया है। उसके साथ उसके नरक-स्वर्ग भी विलीन हो गए हैं। उसके पुरोहित-पंडे, वे भी सब विलीन हो गए हैं।
आदमी एकदम वैक्यूम में, खाली जगह खड़ा हो गया है। अब हम उसे डरा कर नैतिक नहीं बना सकते।
तो क्या आदमी का अनैतिक होना ही भविष्य होगा? लेकिन अनैतिक होकर आदमी एक दिन भी नहीं जी सकता है। अगर एक आदमी झूठ बोल कर भी जी लेता है तो सिर्फ इसलिए कि कुछ लोग उसके झूठ का विश्वास करते हैं। अगर हम सारे लोग झूठ बोलने की कसम खा लें तो झूठ बोल कर जीना एक क्षण भी संभव न रह जाएगा। क्योंकि तब झूठ पर विश्वास करने का कोई उपाय न रह जाएगा। झूठ बोल कर भी एक आदमी इसीलिए जी लेता है कि कुछ लोग अब भी सच बोले चले जाते हैं। बेईमानी इसलिए सफल होती है कि बेईमानी है? नहीं, बेईमानी इसलिए सफल होती है कि अब भी कुछ लोग ईमानदार हैं। झूठ के अपने पैर नहीं हैं, उसे सत्य के पैर चाहिए और बेईमानी के पास अपनी कोई आत्मा नहीं है, उसे ईमानदारी की आत्मा चाहिए। और अनैतिकता एक इंच नहीं चल सकती है, क्योंकि चलने के लिए भी नैतिकता की श्वास चाहिए। अगर हम सब एक बारगी तय कर लें अनैतिक होने के लिए, तो अनीति भी नही चल सकेगी। हम तत्क्षण गिर जाएंगे। जीवन का सब ढांचा बिखर जाएगा। जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। एक क्षण जीना मुश्किल है अनैतिक होकर।
और आज जीवन में कठिनाइयां शुरू हो गई हैं, क्योंकि नीति के आधार गिर गए और नई नीति का जन्म नहीं हो सका है। पुरानी नीति मर गई है और नई नीति का कोई जन्म नहीं हो रहा है। और प्रसव का काल लंबा होता चला जाता है। वह बहुत पीड़ादायी है, वह बहुत खतरनाक है, बहुत महंगा पड़ रहा है। सारी पृथ्वी पर वैसा हुआ है। इस देश में भी वैसा हुआ है। क्या होगा? नई नीति कैसे पैदा हो सकती है? पुरानी नीति भय पर खड़ी थी, आज्ञा पर खड़ी थी, आप्तता; आॅथेरिटी पर खड़ी थी। ग्रंथ कहता था इसलिए सही था। गुरु कहता था इसलिए सही था। पिता कहते थे इसलिए सही था, बुजुर्ग कहते थे इसलिए सही था। वह कोई आॅथेरिटी पर खड़ी हुइ बात थी। हम सोचते न थे कि वह सही है या नहीं।
अब बीसवीं सदी में हमने सोचना शुरू किया है तो सब आॅथेरिटी गिर गई है। अब कोई आॅथेरिटी नहीं है। अब कोई यह नहीं कह सकता कि मनु महाराज कहते हैं कि यह सच है। जीसस कहते हैं इसलिए सच है। कैसे हम मानें? जीसस तो यह भी कहते हैं कि जमीन चपटी है और जमीन गोल निकली, और जीसस पर शक पैदा हो गया। पुरानी किताबें कहती हैं, चांद सूरज से बड़ा है लेकिन चांद सूरज से बहुत छोटा निकला। जमीन से बहुत छोटा निकला। तो अब हम पुरानी किताबों पर कैसे भरोसा करें?
पुरानी किताबें इतने मामलों में गलत सिद्ध हो गई हैं कि नैतिक मामलों में भी सही होंगी, इसकी अनिवार्यता नहीं रह गई। वे उसमें भी गलत हो सकती हैं। इसलिए धार्मिक आदमी अपनी किताब में लिखी वैज्ञानिक गलती के लिए भी आखिरी दम तक लड़ता है। उसके लड़ने का कारण है। आज भी, जैन शास्त्रों मे लिखा है कि चांद पर कोई पहुंच नहीं सकता तो जैन साधु अभी भी लड़ाई लड़े जा रहा है। वह यह कह रहा है, कोई पहुंचा नहीं है, सब झूठी खबरें हैं। यह आर्मस्ट्रांग और ये सारी बातें सब झूठी हैं, कोई कहीं पहुंचा नहीं। पहुंच ही नहीं सकता।
अभी एक जैन मुनि मुझे मिलने आए! उन्होंने कहा, कि आप भी क्या इस बात से सहमत हैं कि कोई चांद पर पहुंच गया हैं? चांद पर कोई पहुंच नहीं सकता। चांद पर देवताओं का निवास है, वहां मनुष्य पैर नहीं रख सकता। तो उन्होंने कहाः यह सब गलती हो गई है कुछ। ऐसा मालूम पड़ता है कि हमारे शास्त्रों में लिखा है कि चांद के चारों तरफ देवताओं के विमान ठहरे रहते हैं बड़ी दूरी पर! तो ये किसी देवता के विमान पर उतर गए हैं और भूल से वापस लौट आए हैं और समझ रहे हैं कि हम चांद पर पहुंच गए हैं।
यह आखिर क्यों लड़ाई जारी है? यह जैन मुनि मानने को तैयार क्यों नहीं होता? उसके पीछे बहुत गहरा कारण है। सवाल चांद नहीं है। चांद से जैन मुनि को क्या लेना है? हिंदू संन्यासी को क्या प्रयोजन है? ईसाई पादरी को क्या प्रयोजन है? मुसलमान पंडित को क्या प्रयोजन है? किसी को कोई चांद से प्रयोजन नहीं है। प्रयोजन दूसरा है। अगर चांद पर आदमी पहंुच जाता है तो फिर महावीर के वक्तव्य का क्या होगा? और अगर महावीर का एक वक्तव्य गलत होता है तो दूसरे वक्तव्य भी गलत हो सकते हैं, इसकी संभावना शुरू हो जाती है।
अगर महावीर इतनी बड़ी भूल कर सकते हैं, या जीसस इतनी बड़ी भूल कर सकते हैं, तो फिर दूसरी भूलें भी हो सकती हैं। इसलिए वह धर्मगुरु पूरी चेष्टा करता है--आखिरी दम तक लड़ने की। लेकिन तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता है। कितनी देर तक हम लड़ेंगे? तथ्य तथ्य हैं, और तथ्य सब तरह के झूठों को फाड़ कर सिद्ध हो जाते हैं। सब संदिग्ध हो गया, अब कोई आथेरिटी नहीं है जगत में। यह पहला मौका है, दुनिया में कोई आप्त प्रमाण नहीं रहा। बुद्धि और विवेक के अतिरिक्त अब कोई प्रमाण नहीं है।
क्या हम ऐसी नीति खड़ी कर सकेंगे जो बुद्धि, विवेक और अभय पर खड़ी होती है? निश्चित, ऐसी नीति खड़ी की जा सकती है। और भविष्य के मनुष्य की रूप-रेखा की बुनियाद ऐसी नीति होगी जो विवेक पर निर्भर हो; अंधविश्वास पर नहीं--अभय पर निर्भर हो, भय पर नहीं। दंड और प्रलोभन पर निर्भर न हो, बल्कि मनुष्य के जीवन का स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि, इसकी धारणा पर निर्भर हो। यह हो सकता है। और पुरानी नीति ने हमें नुकसान भी बहुत पहुंचाए हैं। बाधाएं भी बहुत पहुंचाईं। क्योंकि एक बड़ी अदभुत बात है--जो समाज अंधविश्वास को पकड़ लेता है और विवेक का प्रयोग नहीं करता, उसकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती।
पुराना आदमी नैतिक था बुद्धि को खोकर। और बुद्धि को खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बदतर है। पुराना आदमी नैतिक था व्यक्तित्व को खोकर। और व्यक्तित्व को खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बुरा है। पुराने आदमी के पास कोई व्यक्तित्व, कोई इंडिविजुअलिटी न थी, यह भी ध्यान में रख लेना जरूरी है। पुराना आदमी समूह का एक अंग था, व्यक्ति नहीं। गांव में एक आदमी था, वह समूह का अंग था, उसके पास कोई व्यक्तित्व न था। वह अलग से कुछ भी न था। वह भंगी था, ब्राह्मण था, चमार था, बनिया था, एक समूह का हिस्सा था और समूह के ऊपर जिंदा था। वह समूह के खिलाफ इंच भर भी चलता तो कुएं पर पानी बंद था, हुक्का बंद था, भोजन बंद था, विवाह बंद था। वह जिंदा नहीं रह सकता था।
पुरानी दुनिया में कोई व्यक्ति, व्यक्ति होकर जिंदा नहीं रह सकता था। उसे समाज का कल-पुर्जा होकर जिंदा रहना पड़ता था। और अगर वह जरा भी व्यक्ति होने की कोशिश करता, तो अपने आप आत्मघात पर उतर जाता। उसे आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता न रह जाता। पुरानी दुनिया में व्यक्ति का कोई अस्तित्व न था। और इसीलिए अनुशासन था। पुरानी दुनिया की जो डिसिप्लिन थी, वह डिसिप्लिन व्यक्तियों की डिसिप्लिन न थी। वह व्यक्तियों का अभाव था, इसलिए अनुशासन था। अनुशासन का मतलब था, व्यक्ति था ही नहीं। समाज का नियम और कानून चरम था और प्रत्येक व्यक्ति को उसे मानना था, अगर जिंदा रहना था। अगर मरना था तो उसकी मर्जी थी। और मरने को कोई राजी न था इसलिए सब अनुशासनबद्ध थे।
अनुशासन भी खो गया क्योंकि व्यक्तित्व का जन्म हुआ है। अब एक-एक व्यक्ति अपनी हैसियत से कुछ है। वह किसी समाज का अंग ही नहीं है। वह स्वयं भी कुछ है। पूरी स्थिति बदल गई। पहले व्यक्ति समाज का अंग था। अब समाज व्यक्तियों का जोड़ है। इन दोनों बातों में जमीन आसमान का फर्क है। अब समाज व्यक्तियों का जोड़ है, व्यक्तियों के ऊपर निर्भर है। पहले व्यक्ति समाज के ऊपर निर्भर था, इसलिए व्यक्ति की गर्दन घोंटी जा सकती थी। और उसे जो भी करवाना हो, करवाया जा सकता था। अब यह असंभव हो गया है। और अगर हम पुरानी आदत से मुक्त नहीं होते हैं और आज भी हम व्यक्ति की गर्दन को दबाने की कोशिश करते हैं तो बगावत सुनिश्चित है, विद्रोह निश्चित है। सब टूट जाएगा, सब तोड़ दिया जाएगा। लेकिन अब व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को नहीं खोने कोे राजी है।
क्या हम ऐसी नीति, और ऐसा अनुशासन, और ऐसी डिसिप्लिन, और ऐसी शिष्ट विकसित कर सकते हैं जिसमें व्यक्ति मरता न हो, पूरी तरह होता हो और फिर भी जीवन एक नैतिक जीवन बन सके? मेरी दृष्टि में ऐसा विकास हो सकता है। बल्कि सच तो यह है कि व्यक्ति ही नैतिक हो सकता है। पुराने समाजों को मैं नैतिक नहीं मानता। वे मजबूरी में नैतिक थे। क्योंकि व्यक्ति ही न था। पुराने समाज में व्यक्ति का अभाव नीति थी। नये समाज में व्यक्ति का प्रादुर्भाव होगा, व्यक्ति पूरी तरह प्रकट होगा। और नैतिक कैसे वह व्यक्ति हो सके, यह हमें सोचना होगा। दो-तीन बातें मेरे खयाल में आती हैं जो हम सोचें तो उपयोगी हो सकती हैं।
पहली बात तो हमें यह समझना चाहिए कि नैतिकता न तो किसी स्वर्ग से संबंधित है, न किसी नरक से। नैतिकता न तो किसी पुण्य से संबंधित है, न किसी पाप से। नैतिकता न तो किसी दंड से संबंधित है, न किसी प्रलोभन से। नैतिकता ढंग से जीने की व्यवस्था का नाम है। नैतिकता जीवन को ढंग, विज्ञान और विधि देने का नाम है।
अगर किसी व्यक्ति को अधिकतम जीना हो तो वह नैतिक होकर ही जी सकता है। अगर उसे कम जीना हो तो वह अनैतिक हो सकता है। जितना ज्यादा जीना हो उतना ज्यादा लोंगों का साथ जरूरी है। जितना गहरा जीना हो उतने ज्यादा लोंगो की शुभाकांक्षाएं जरूरी हैं। जितनी परिपूर्णता से जीना हो उतने अधिक लोगों का सहयोग और को-आॅपरेशन जरूरी है। आने वाली नैतिकता जीवन की एक विधि होगी। जो सुसाइडल हैं, वह अनैतिक हो सकते हैं, जो आत्मघाती हैं, वह नीति के विपरीत जा सकते हैं। लेकिन जीना है उन्हें तो सबके साथ जीना होगा। सबके साथ जीने का मतलब यह होता है कि मैं सबको साथ देने वाला बन सकूं, तो ही सारे लोग मुझे साथ देने वाले बन सकते हैं।
एक पुरानी व्यवस्था थी--शिक्षक था, क्लास में पढ़ा रहा है। डंडा है उसके हाथ में और बच्चे चुप हैं। वह चुप होना बड़ा बेहूदा था, अग्ली, कुरूप । क्योंकि डंडे के बल पर किसी को चुप करना अनैतिक है। वह अनुशासनबद्ध की क्लास, एक बच्चा बोल न सकता था क्योंकि बोलना खतरनाक और महंगा पड़ सकता था। वह अनुशासन व्यक्ति को खोकर था। नई कक्षा में नये बच्चों के बीच डंडा लेकर शिक्षक अनुशासन पैदा नहीं कर सकता, न करना चाहिए, न वह उचित है! अब नई कक्षा में कैसे अनुशासन हो? डंडा खो गया, शिक्षक की ताकत खो गई। नई कक्षा में विद्यार्थी है। उनके बीच अनुशासन कैसे हो?
अब नई कक्षा में तो अनुशासन का एक ही अर्थ होगा कि विद्यार्थी यह समझ पाए कि वह,वहां कुछ सीखने को उपस्थित है। और सीखना केवल सहयोग, शांति और मौन में ही संभव है। अगर इतना विवेक हम न जगा पायें तो अब भविष्य में अनुशासन कभी भी नहीं हो सकेगा। अब अनुशासन का एक ही अर्थ होगा कि विद्यार्थी को यह पता चले कि अनुशासन मेरे हित में है! अनुशासन के मार्ग से ही मैं सीख सकूंगा, अनुभव कर सकूंगा, खोज सकूंगा। क्योंकि अनुशासन मुझे दूसरों के अंतर्संबंध में प्रीतिकर बना देगा, अप्रीतिकर नहीं। मैं इन तीस लोगों के साथ मित्र होकर ही सीख सकूंगा, अमित्र होकर नहीं। शिक्षक गुरु नहीं है, अब वह मित्र है। और उसके साथ सीखना हो तो मैत्री चाहिए।
अब शिक्षक को पुराना खयाल छोड़ देना चाहिए गुरु होने का। गुरुडम की बात अब आगे नहीं चल सकती। और अगर वह गुरुडम स्थापित करने की कोशिश करेगा तो बच्चे उसके गुरुडम को तोड़ने की हर चेष्टा करेंगे। अब उसके गुरुडम को स्थापित करने की कोशिश, गुरुडम को तुड़वाने के लिए चुनौती देने की चेष्टा है। वह उसे छोड़ देनी चाहिए। अब वह मित्र होकर ही जी सकता है और उचित भी यहीं है कि शिक्षक मित्र हो। वह मित्र है जो हमसे दस साल आगे है। जिसने जिंदगी को दस साल देखा है, पढ़ा है, सुना है, समझा है और वह हमें भी उस जिंदगी के रास्ते पर ले जा रहा है, जहां वह गया है।
मेरे एक मित्र रूस गए हुए थे। और एक छोटे से कालेज को देखने गए थे। वहां वे बड़े परेशान हुए। देखा कि एक लड़का सामने की ही बैंच पर दोनों जूते उपर रखे हुए टिका हुआ बैठा है, पैर फैलाए हुए। वह मित्र मेरे शिक्षक है, उनको बरदाश्त के बाहर हो गया। वे पुराने ढंग के शिक्षक हैं। उनको बहुत क्रोध आया। उन्होंने उस कालेज के प्रोफेसर को जो पढ़ा रहा था, बाहर निकाल कर कहा कि यह क्या बेहूदगी है, यह कैसी अनुशासनहीनता है? सामने ही बैंच पर लड़का जूते टिकाए बैठा है और टिका है आराम से। यह कोई आराम की जगह है? यह कोई विश्राम स्थल है, यह कोई वेटिंग रूम है? ढंग से बैठना चाहिए। उस शिक्षक ने कहा, आप समझे नहीं। मेरे लड़के मुझे इतना प्रेम करते हैं कि मेरे साथ एट इ.ज हो सकते हैं। मेरे लड़के मुझे इतना प्रेम करते हैं, मै कोई उनका दुश्मन थोड़े ही हूं कि वे मेरे सामने डरे हुए और अकड़े हुए बैठें। मैं उनका मित्र हंू। वे आराम से बैठ सकते हैं। और फिर मुझे उनके बैठने से प्रयोजन नहीं। वे किस तरह बैठ कर ज्यादा से ज्यादा सीख सकते हैं, यह सवाल है। अगर उस लड़के को इतने आराम से बैठ कर सुनने में सुविधा हो रही है, तो बात खत्म हो गई। उसके बैठने से क्या प्रयोजन है?
यह एक दूसरा माहौल है, एक मित्रता का माहौल है। जहां हम विद्यार्थी को मित्र मान कर जी रहे हैं और तब एक नये तरह की शिस्त और एक नये तरह का अनुशासन विकसित होगा। क्योंकि शिक्षक यह कह रहा है कि वह इतना प्रेम करते हैं मुझे कि अपने घर में जैसे अपनी मां के पास पैर फैला कर बैठ सकते हैं, वह मेरे पास भी बैठे हुए हैं। मैं उनका कोई दुश्मन नहीं हूं और मेरा काम यह है कि मैं उन्हें कुछ सिखाने को यहां हूं। वे जितने आराम में, जितनी सुविधा से बैठ सकें, सीख सकें, वह मेरा फर्ज है। मैं उतनी उन्हें मुक्ति देता हंू। यह एक बुनियादी फर्क है।
रूम में पिछले तीस वर्षों से परीक्षा करीब-करीब विदा हो गई है। और सारी दुनिया से विदा होनी चाहिए, क्योंकि परीक्षा पुराने तंत्र से संबंधित है जहां हम डंडे के बल सिखा रहे थे और डंडे के बल परीक्षा भी ले रहे थे। परीक्षा भी बहुत बड़ा टार्चर है, बहुत बड़ा अत्याचार है। और परीक्षा के आधार पर सिखाना एक बहुत भयग्रस्त व्यवस्था थी, फियर पर खड़ी हुई थी क्योंकि लड़का सीख रहा था कि कहीं असफल न हो जाए। असफलता का भय उसे घेरे हुए था। सफलता का प्रलोभन घेरे हुए था। वही स्वर्ग और नरक की व्यवस्था थी। अगर वह हार जाता, असफल हो जाता तो खो जाएगा--निंदित, अपमानित, व्यर्थ! अगर जीत जाएगा, सफल हो जाएगा प्रथम हो जाएगा तो स्वर्ग का पृथ्वी पर अधिकारी हो जाएगा।
परीक्षक भी डंडे वाला शिक्षक हो गया। डंडा नहीं है उसके हाथ में। शिक्षक भीतर से अभी भी वही है। डंडा भर उसके हाथ में नहीं है। लेकिन शिक्षक का भीतर से अभी भी मस्तिष्क वही है। वह मित्र अभी भी नहीं हो पाया है। वह पुरानी आकांक्षाएं अभी भी कर रहा है। वह पूछ रहा है कि गुरु को आदर देना चाहिए, गुरु को सम्मान देना चाहिए। गुरु के चरण छूने चाहिए। गुरु के साथ यह व्यवहार करना चाहिए। वह अभी पुराने गुरुडम की व्यवस्था को, मांग किए जा रहा है। उसे पता नहीं कि सब बदल गया। अब विद्यार्थी मित्र ही हो सकता है। अब गुरु का सम्मान नहीं, मित्र का प्रेम मिल सकता है। और मित्र का प्रेम मांगना हो तो सब बदलना पड़ेगा। परीक्षा पुराने ढंग की अनुशासनबद्धता थी। परीक्षा के भय से सब चलता था।
लेकिन परीक्षा बड़ी ही जंगली, क्रूड, असभ्य व्यवस्था है। वह व्यवस्था है जबरदस्ती गर्दन पकड़ कर व्यक्ति के परीक्षण करने की। वह अत्यंत प्रेमपूर्ण नहीं है, अत्यंत क्रोधपूर्ण है। और तब, जब कि सब बदल गया है और परीक्षा का ढांचा पुराना है तो उस परीक्षा को, ढांचे को तोड़ने के सब उपाय चल रहे हैं। चोरी चल रही है, नकल चल रही है, पेपर चोरी से निकाले जा रहे हैं, खोज की जा रही है। शिक्षकों को पैसे दिए जा रहे हैं, रिश्वत दी जा रही है, सब किया जा रहा है। अब विद्यार्थी पढ़ने में उत्सुक नहीं है, परीक्षा देने में उत्सुक है। और परीक्षा देने में जब विद्यार्थी अकेला उत्सुक रह जाए, शिक्षक तो हमेशा से परीक्षा लेने में उत्सुक था। अब पहली दफा विद्यार्थी सिर्फ परीक्षा देने में उत्सुक है। सिर्फ परीक्षा देने में उत्सुकता के मतलब खतरनाक होंगे, महंगे होंगे और तब सब अनुशासन नीचे से टूट जाएगा। परीक्षा विदा होनी चाहिए, शिक्षण पर जोर बढ़ना चाहिए।
मेरे एक मित्र राहुल सांकृत्यायन रूस में कुछ दिनों के लिए संस्कृत के प्रोफेसर थे। जब वे पहली दफा वहां गए...पहली दफे वहां गए तो उनको खयाल तो हिंदुस्तान का था। दस विद्यार्थी थे उनकी कक्षा में, जो संस्कृत पढ़ रहे थे। उन्होंने सात को पास कर दिया और तीन को फेल कर दिया। उनके प्रधान ने, सेेरवातस्की ने उनको बुला कर कहा कि तुम यह क्या कर रहे हो? तीन विद्यार्थी फेल कर रहे हो, तो तुम्हारी तनख्वाह कट जाएगी। क्योंकि तुमने दो साल क्या किया? ये तीन विद्यार्थी फेल होते हैं तो तुम दो साल क्या करते हो? तो उन्होंने कहाः नहीं, फेल तो वे नहीं हो रहे थे, मैंने तो यह सोच कर कि मैं सभी को पास कर दंू तो लोग क्या कहेंगे? मैंने तीन को फेल किया है।
क्योंकि हम हिंदुस्तान में सोच ही नहीं सकते कि सभी पास हो सकते हैं। कुछ तो फेल होने ही चाहिए। और अगर सभी पास हो सकते हैं तो पास होने का हमें मतलब ही नहीं रह जाता है। मतलब क्या रहा? कुछ फेल हों, उनके दुख पर ही तो पास होने वाले का सुख निर्भर है। उन्होंने कहाः मैंने तो देखा कि सभी पास होते हैं...तो मैंने तो जान कर तीन को कम अंक दिए। पास तो सब होते थे, लेकिन कोई यह न सोचे कि मैंने कहीं अपने विद्यार्थियों को...।
और मजा यह है कि रूस में वही शिक्षक परीक्षा भी ले लेता है, जिस शिक्षक ने साल भर पढ़ाया है। क्योंकि वह कहते हैं कि दूसरा शिक्षक कैसे परीक्षा लेगा? जिसने साल भर, दो साल बच्चों को अनुभव किया, उनके साथ जीआ, रहा, वही उन्हें पहचान सकता है। दूसरे शिक्षक कैसे? दूसरा शिक्षक पांच प्रश्न पूछ सकता है। यह भी हो सकता है कि पांच प्रश्नों के उत्तर किसी व्यक्ति को पता हों और पांच के उत्तर दे दे, पास हो जाए और बाकी उसे कुछ भी पता न हो। और यह भी हो सकता है कि दूसरे विद्यार्थी को सब पता हो, सिर्फ पांच प्रश्न चूक गया हो, तो मर गया। उसकी जिंदगी खत्म हो गई। तो वही शिक्षक परीक्षा लेगा जिसने दो साल पढ़ाया है क्योंकि दो साल उसने जाना है कि कौन कहां है, क्या है!
और शिक्षक पर यह जोर है, कि अगर विद्यार्थी पास न हो पाए तो जिम्मेवारी विद्यार्थी की कम, शिक्षक की ज्यादा है। क्योंकि पिछली कक्षा से वह पास होकर आया है। तो दो साल में आप क्या कर रहे थे? तो ऐसे शिक्षक की तनख्वाह कट सकती है, डिमोशन हो सकता है, नीचे उतारा जा सकता है। लेकिन विद्यार्थी को असफल करने की बात खयाल से उतर गई। तो रूस की कक्षा में एक नये तरह का अनुशासन पैदा हुआ।
यह मैंने उदाहरण के लिए कहा। पूरे समाज को भी इस ढांचे में सोचना जरूरी है। भय अलग करें। विवेक और बुद्धि, और मित्रता, और प्रेम लाएं और समझें कि पूरे समाज के ढांचे को भी हमें उस तरह बदलना पड़ेगा। पिता है, वह तक आॅथेरिटी था, वह अब आॅथेरिटी नहीं हो सकता। कल तक वह कहता था कि मैं तुम्हारा पिता हंू इसलिए जो मैं कहता हंू वह ठीक है। अब यह बड़ा अजीब तर्क है। किसी के पिता होने से कोई बात ठीक कैसे हो सकती है और किसी के बेटे होने से कोई बात गलत कैसे हो सकती है?
बात का गलत और सही होना, पिता और बेटे होने पर निर्भर नहीं करता। लेकिन कल तक पिता का इतना कह देना काफी था कि मैं पिता हूं और मेरी उम्र साठ साल है, औा जो मैं कहता हूं वह ठीक है। कल तक यह बात चलती थी। उम्र एक आॅथेरिटी थी, पिता होना एक बल था, वह सब खो गया। वह सब विदा हो गया। लेकिन हमारी आदत पुरानी है। वह सब विदा हो गया है, लेकिन वही कहे चले जा रहे हैं, किए चले जा रहे हैं। उसे कोई सुनता नहीं, मानता नहीं, तो दुख होता है। लेकिन दुख के लिए हम जिम्मेवार हैं। असल में हमें वह कहना ही छोड़ देना चाहिए।
पिता भी अब घर में सिर्फ पहले नंबर का सदस्य है, आॅथेरिटी नहीं रह गई उसकी। वह सिर्फ नंबर एक का सदस्य है परिवार में, आॅथेरिटी नहीं रह गई है उसकी। नंबर एक होने से उसकी बातें सब सही नहीं होंगी अब आगे भविष्य में। पिता को थोड़ा नीचे उतरना पड़ेगा। वह अपने सिंहासन से--उसे थोड़ा नीचे आना पड़ेगा। और सच तो यह है कि पिता अगर सिंहासन पर हो, बेटा सिंहासन के नीचे, तो उनके बीच कोई संबंध नहीं हो सकता।
और मैं आपसे कहता हूं, पुराने बाप और पुराने बेटे के बीच कोई संबंध नहीं रहा। अथाॅरिटी के बीच संबंध हो ही नहीं सकता। अगर बाप एक अधिकार के सिंहासन पर बैठा है और मैं बेटा नीचे धूल में खड़ा हूं--अधिकारहीन, तो हमारे बीच क्या संबंध हो सकता है? आज भी मैं अनुभव करता हूं, बाप और बेटे के बीच बात नहीं होती, क्योंकि बात उनके बीच हो सकती है जो साथ खड़े हो। सिंहासन पर बैठे हों और सिंहासन से नीचे कहीं बात हो सकती है?
तो बाप और बेटे एक दूसरे से बच कर घर में गुजरते हैं। हां, कभी-कभी मिलना होता है। जब बाप को डांटना होता है और बेटे को रुपये लेने होते हैं, तब मिलना होता है। और कभी मिलना नहीं हेाता। बाकी दोनों बच कर चलते हैं। दोनों निकलते हैं करीब से, लेकिन मिलना नहीं होता। क्योंकि अधिकार और निराधिकार का मिलना कैसा? नहीं, पुराने बाप और बेटे के बीच कोई संबंध न था। संबंध हो नहीं सकता था। बेटे की कोई स्थिति न थी! बाप की सब स्थिति थी।
स्थितियां बदली हैं अब। अब बेटे और बाप के बीच संबंध हो सकता है। लेकिन बाप को सिंहासन से नीचे उतर आना पड़े और बेटे के साथ खड़ा हो जाना पड़े। और मैं मानता हूं, यह ज्यादा मानवीय होगा, ज्यादा ह्यूमन होगा। पुराना पिता सिर्फ नैतिक उपदेश देता था। और जो भूलें उसने खुद की थीं, उनकी कभी बात न करता था। वह कुछ ऐसी बातें करता था कि उसने कभी भूल ही नहीं की। सब बेटा भूल कर रहें हैं। वह भी कभी बेटा था, यह बाप भूल ही जाता था।
नये पिता को समझना होगा कि वह भी कभी बेटा था और उसने जो भूलें की हैं, जिंदगी में जिन गड्डों में वह गिरा, जिंदगी में जिन मुसीबतों से वह गुजरा, जिंदगी में जो कड़वे-मीठे अनुभव हुए, वह अपने बेटे को कह दे। यह प्रेम का तकाजा है। वह अपने बेटे को सिर्फ आदर्शों की बात न करे, वास्तविक जिंदगी को भी खोल दे कि यह मेरी जिंदगी थी। और बेटे को यह भी कह दे कि मैं अपने प्रेम में अपना हृदय तुम्हें दे सकता हूं, सब खोल कर, नग्न--यह मैंने भोगा, यह मैंने जिया, यह भूलें मैंने की, ताकि हो सके तो शायद तुम मेरी भूलों से लाभ ले सको। लेकिन पुराना पिता सिर्फ आदर्श कि बाते करता था। उसने कभी कोई भूल की ही न थी। बेटे थोड़ी देर में खोज करके पता लगा लेते थे कि यह पाखंड है। आज भी पता लगा लेते हैं। लेकिन जिस दिन यह पता चलता है कि यह सब पाखंड है, उस दिन बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है। अपने ही हाथों से पिता एकदम अपदस्थ हो जाता है, मां अपदस्थ हो जाती है।
नहीं, मां और बाप को अब समझना होगा कि बेटे खोज लेंगे, बेटे बुद्धिमान हुए हैं, समझें हैं, पढ़े हैं। मां-बाप ने ही पढ़ाया-लिखाया। उन्होंने ही पढ़ने-लिखने की सारी व्यवस्था दी है। अब पढ़े-लिखे बेटे के साथ वह पुराना व्यवहार नहीं कर सकते हैं। उन्हें बदलाहट करनी पड़ेगी। पिता को बदलना होगा, गुरु को बदलना होगा, नेता को बदलना होगा और समाज का पूरा ढांचा मित्रता के आधार पर खड़ा करना होगा, आॅथेरिटी के केंद्र पर नहीं। तब एक नई नैतिकता, एक नया विकास होना शुरू होगा और एक नये मनुष्य को हम निर्मित कर पाएंगे। पुराना मनुष्य गया, उसका ढांचा भी गया। अब आज्ञा से नहीं चलेगा कि हम आज्ञा दे दें और वह मान ली जाए। असल में, आज्ञा बहुत खतरनाक बात है। और पुराना युवक आज्ञा मानता रहा इसलिए दुनिया बहुत मुसीबत में पड़ी।
हिरोशिमा पर जिस आदमी ने एटम गिराया और एक लाख आदमियों का हत्यारा बना, वह जब सुबह उठा सोकर तो किसी ने उससे जाकर पूछा कि रात ठीक से सो सके या नहीं? उस आदमी ने कहाः बिलकुल मजे से सोया! एक लाख आदमियों को आग में भून आया वह आदमी और मजे से सेाया? तो जिसने पूछा उसने कहाः आश्चर्य! एक लाख लोग आग में भुन गए और तुम मजे से सो सके? उसने कहाः उसमें मेरा कोई सवाल नहीं है। मुझे आज्ञा दी गई और मैंने आज्ञा पूरी की! मैंने अपना काम पूरा किया और मैं सो गया। मुझे कोई संबंध नहीं है। उस आदमी ने उस युवक को पूछा कि तुम एटम बम फेंकते वक्त यह न सोचे कि मैं एक लाख लांेगों को मार रहा हंू, ऐसी आज्ञा मानूं या न मानूं? उस आदमी ने कहा, सैनिक को आज्ञा मानंू या न मानूं, ऐसा सोचना ही नहीं पड़ता। सैनिक को आज्ञा माननी ही पड़ती है। सैनिक का मतलब है जो आज्ञा मानता है।
और जो सिर्फ आज्ञा मानता है और सोचता नहीं, उसका मतलब अगर सैनिक है तो सैनिक का मतलब है, जिसकी बुद्धि नष्ट कर दी गई, भ्रष्ट कर दी गई; जिसमें अब कोई विचार न रहा। असल में सैनिक की बुद्धि को नष्ट करने का हम उपाय करते हैं। पूरा मनोवैज्ञानिक उपाय करते है कि सैनिक के भीतर कोई विवेक न रह जाए। क्योंकि जहां विवेक है, वहां आज्ञा का उल्लंघन संभव है। जहां विवेक है, वहां आज्ञा मानी भी जा सकती है, तोड़ी भी जा सकती है। लेकिन दोनों विकल्प मौजूद हैं क्योंकि विवेक निर्णय करेगा।
इसलिए हम एक सैनिक कि बुद्धि को नष्ट करने की व्यवस्था करते हैं। चार साल, पांच साल तक एक सैनिक को कहते हैं, लेफ्ट टर्न, राइट टर्न, आगे जाओ, पीछे आओ, बैठो, उठो। उसको यह मानना पड़ता है। पांच साल बाएं घूमो, दाएं घूमो, दाएं घूमो, बाएं घूमो--घूमता-घूमता पांच साल में उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। उसकी बुद्धि का कोई विचार नहीं रह जाता क्योंकि बाएं घूमनें में क्या विचार करना है? घूमना है। दाएं घूमनें में क्या विचार करना है? घूमना है। कवायद करने में क्या विचार करना है? सिर्फ कवायत करनी है! पांच साल कवायद करने के बाद हम कहते हैं, इस आदमी को गोली मारो। वह समझता है, वही बायें और दायें घूमना है, और गोली मार देता है। उसे याद नहीं आता कि सामनेे जिसे वह गोली मार रहा है, उसकी मां भी होगी। यह सवाल नहीं है। उसे याद नहीं आता, उसकी पत्नी भी होगी, यह सवाल नहीं है। उसे याद नहीं आता, उसका कोई छोटा बेटा भी होगा, जो उसकी घर प्रतीक्षा करता होगा, यह सवाल नहीं है। सवाल सिर्फ एक हैं और वह है कि आज्ञा मानो--आर्डर इ.ज आर्डर। वह आज्ञा मान लेता है।
सारी दुनिया के युवक अतीत में आज्ञा मानते रहे इसलिए चंगीज पैदा हुआ, इसलिए तैमूर पैदा हुआ, इसलिए नादिर पैदा हुआ, इसलिए दुनिया में युद्ध हुए--हिटलर, मुसोलिनी, तोजो, माओ, स्टैलिन पैदा हुए। और आगे भी अगर दुनिया का युवक चुपचाप आज्ञा मानता है, तो युद्धों से मुक्ति नहीं हो सकती। लेकिन मुझे लगता है युवक ने आज्ञा माननी छोड़ना शुरू किया है। युद्धों से बचने की संभावना आगे पैदा होती है। एक अच्छी नैतिक दुनिया में युद्ध नहीं होंगे। क्योंकि एक नैतिक दुनिया में कोई किसी मनुष्य को ऐसे ही मारने को तैयार न हो जाएगा।
पिछले युद्ध में कोरिया में एक बहुत अदभुत घटना घटी। अमरीकी सैनिक जो कोरिया में लड़ रहे थे, उनके जनरल ने अमरीकी सीनेट को एक सीक्रेट रिपोर्ट पेश की और इस रिपोर्ट में यह मांग की है कि एक कठिनाई का सवाल खड़ा हो गया है। सौ अमरीकन जवान जब युद्ध पर जाते है तो चालीस प्रतिशत गोली का उपयोग ही नहीं करते। वह बंदूक को लौटा कर घूम-घाम कर दिन में वापस लौट आते हैं। और उन युवकों से जब पूछा गया, तो उन्होंने कहा, हमें कुछ अर्थ नहीं मालूम पड़ता कि हम क्यों किसी आदमी को गोली मारें? किसी कोरियन की छाती में गोली मारने से हमें कोई संबंध नहीं है। न हमारा कोई झगड़ा है, न कोइ दुश्मनी है। हम भी नौकरी पर चले आए हैं, वे भी नौकरी पर चल आए। उनको भी सिखाया गया है कि आज्ञा मानो, हमको भी सिखाया गया कि आज्ञा मानो, लेकिन ऐसी आज्ञा मानने की इच्छा नहीं होती। इससे अच्छा है कि हम मर जाएं, बजाय हम किसी को मारें।
उनके जनरल ने अमरीकी सीनेट को लिखा है कि यह अगर ट्रेंड, यह अगर वृत्ति बढ़ती गई तो अमरीका का सैनिक कहीं भी नहीं जीत सकेगा। क्योंकि अमरीकी जवान अगर यह कहता है कि हम सोच कर गोली मारेंगे कि मारने योग्य आदमी है या नहीं, तो फिर गोली कभी नहीं मारी जा सकती, क्योंकि कोई भी आदमी मारे जाने योग्य नहीं है। कोई भी आदमी मारे जाने योग्य नहीं है; ज्यादा से ज्यादा कुछ लोग सुधारे जाने योग्य हो सकते हैं, लेकिन मारे जाने योग्य कोई भी नहीं है।
अमरीकी जनरल तो घबड़ाया। लेकिन मैं मानता हूं कि धीरे-धीरे दुनिया के सब जनरलों को घबड़ा जाना पड़ेगा। हिंदुस्तान में भी, पाकिस्तान में भी, चीन में भी युवकों को समझना होगा कि हम आज्ञा मानें या न मानें? पुरानी दुनिया यह कहती थी, मानो ही। आज्ञा अंतिम सत्य है। उसपर कभी सेाचना मत। नई नैतिकता आज्ञा पर इतना जोर नहीं दे सकती। नई नैतिकता कहेगी, सेाचना, विवेक से विचारना और ठीक लगे तो करना। और अगर गलत लगे तो न करने में मर जाना...बजाय गलत करने में जिंदा रहने के।
एक नई नैतिकता और तरह से विकसित होगी। पुरानी नैतिकता लोकल थी, स्थानीय थी। नई नैतिकता जागतिक होगी, युनिवर्सल होगी। पुरानी नैतिकता एक छोटे-छोटे घेरे में बंध के जिती थी। नई नैतिकता का कोई घेरा नहीं होगा। पूरी मनुष्यता उसका विस्तार होगी। पुरानी नैतिकता कहती थी तुम्हारी यह चमड़ी है--तुम्हारी काली, तुम्हारी गोरी, तुम अलग, तुम अलग। पुरानी नैतिकता कहती थी, तुम हिंदू हो, तुम मुसलमान हो--तुम अलग, तुम अलग। नई नैतिकता कहेगी, मनुष्य सिर्फ मनुष्य है, और कोई मनुष्य किसी से अलग नहीं है, और सब मनुष्य एक हैं।
असल में मनुष्यों में जातियां नहीं हो सकतीं। जो लोग बायोलाॅजी पढ़ते हैं वे जानते होंगे कि जाति का क्या मतलब होता है? जाति का सिर्फ एक मतलब होता है। जाति का पता लगाने का उपाय क्या है? हम बंदर को और शेर को दो जातियां कहते हैं। क्यों? हम कुत्ते को और बिल्ली को दो जातियां कहते है, क्यों? कारण हैं! कुत्ते और बिल्ली मिल कर बच्चे पैदा नहीं कर सकतें। शेर और बंदर मिल कर बच्चे पैदा नहीं कर सकते।
जाति का वैज्ञानिक सिर्फ एक अर्थ होता है, जो लोग मिल कर बच्चे पैदा करते हैं, वे एक जाति के हैं। जाति का और कोई अर्थ नहीं होता। अंग्रेज और हिंदू मिल कर बच्चे पैदा कर सकत हैं। मुसलमान और ईसाई बच्चे पैदा कर सकते हैं। काले और गोरे, बाह्मण और भंगी मिल कर बच्चे पैदा कर सकते हैं। मनुष्यों की जाति एक है, दो नहीं। जो मिल कर बच्चे पैदा करते हैं, उनकी जाति एक है। जाति का दो का कोई अर्थ ही नहीं होता है, दो का एक ही अर्थ होता है, कि उनके यंत्र इतने भिन्न है कि वे मिल कर बच्चे पैदा नहीं कर सकते, बस इससे ज्यादा कोई मत लब नहीं होता है।
आदमी एक है, उसकी जाति एक है। पुरानी नैतिकता आदमी को तोड़ कर चलती थी। नई नैतिकता आदमी को तोड़ कर नहीं, जोड़ कर चलेगी। और बड़े आश्चर्य की बात हैं, पुरानी नैतिकता के कारण आदमी कमजोर हुआ, बीमार हुआ, क्षीण हुआ, दीन हुआ, सब तरह से उसका नुकसान हुआ है। अगर हम जगत को एक मान कर जीएं--जीना ही पड़ेगा, क्योंकि जगत एक होता चला जा रहा है--तो मनुष्य ज्यादा समृद्ध होगा।
आज हिंदुस्तान को गरीब होने का कोई कारण नहीं है, सिवाय इसके कि अमरीका अलग और हिंदुस्तान अलग है। आज हिंदुस्तान को रुग्ण और बीमार होने का कोई कारण नहीं है। कारण सिर्फ एक है कि रूस अलग और हिंदुस्तान अलग। आज दुनिया के पास इतने साधन हैं कि जमीन पर एक भी आदमी गरीब न हो। आज इतने साधन हैं कि एक भी आदमी को बीमारी में पड़ने की अनिवार्यता न रहे। आज इतने साधन हैं कि सभी लोग कम से कम सौ वर्ष की उम्र पा सकें। आज इतने साधन है कि सभी लोग ठीक मकानों में रह सकें, भोजन पा सकंे, कपड़े पहन सकें।
लेकिन पुरानी दुनिया के खंड कायम हैं। तो उसका परिणाम यह होता है कि एक मुल्क अति गरीब हो और एक मुल्क अति समृद्ध हो। और अति गरीबी भी मुसीबत है और अति समृद्धि भी मुसीबत है। अमरीका समृद्धि से पीड़ित और परेशान है, हम गरीबी से पीड़ित और परेशान है। और अगर ये सीमाएं बीच की गिर जायें तो मनुष्य सब बंट जाए और जिंदगी बराबर तल पर आ जाए। सारी मनुष्यता बराबर तल पर आ जाए। लेकिन यह नहीं हो पा रहा है, क्योंकि पुराने लोकल माइंड, स्थानिक माइंड अब भी हमको घेरे हुए हैं। भारत माता की जय, पाकिस्तान माता की जय, जर्मन माता की जय, अब भी जारी है।
नये मनुष्य को इन सब माताओं को विदा करना होगा। एक ही माता काफि है--पृथ्वी-माता; अलग-अलग माता बांटने की कोई जरूरत नहीं। और पृथ्वी बंटी हुई नहीं है। पृथ्वी अखंड है।
एक अंतिम बात और कहना चाहूंगा--पुरानी नीति दुख को केंद्र मान कर चलती थी। उसने स्वीकार कर लिया था कि दुख जीवन का केंद्र है। उसके कारण थे। पुराने आदमी ने सुख बहुत कम जाना। पुराना आदमी दुख में ही जीआ। असल में सुख को पैदा करने की व्यवस्था पहली दफा विज्ञान और टेक्नालाॅजी से हमें अब उपलब्ध हुई है। अब तक सुख को पैदा करने की व्यवस्था ही न थी। आज के पहले दस बच्चे पैदा होते थे तो आठ बच्चें मर जाते थे। दो बच्चे जीते थे। और जिस समाज में दस बच्चें मरते हों, उसमें दो बच्चे भी मरे-मरे ही जी सकते थे। क्योंकि उनको भी इतना अदभुत स्वास्थ्य नहीं मिल सकता था।
आज से पुरानी दुनिया में आदमी किसी भांति जी रहा था--दुख में, बीमारी में, पीड़ा में, परेशानी में। दुख जीवन का केंद्र था, इसलिए बुद्ध कह सकेकि जीवन दुख है। इसलिए पुराने विचारक कह सके कि जीवन दुख है। दुख को केंद्र मान कर चले थे हम। और हमने दुख को स्वीकार कर लिया था, दरिद्रता को स्वीकार कर लिया था। इसलिए पुरानी नैतिकता दुख को वरण करने को आदर देती थी कि जो आदमी अपनी तरफ से दुख को वरण करता है, वह बहुत नैतिक आदमी है। वह बहुत सज्जन आदमी है, संत है, साधु है, महात्मा है। पुरानी नैतिकता दुख को वरण करने वाले को तपस्वी, त्यागी और महान कहती थी। क्योंकि दुख था और दुख से बचने का कोई उपाय न था। तब फिर दुख को स्वीकार करके ही कंसोलेेशन और संात्वना उपलब्ध की जा सकती थी।
अब सब बदल गया है। अब दुख को स्वीकार करने की कोई भी जरूरत नहीं है। अगर दुख है तो हम जिम्मेवार है। अगर दुख है तो हम नहीं बदल रहे, इसलिए है। अब दुनिया में दीनता, पीड़ा, परेशानी को स्वीकार करने की कोई जरूरत नहीं है। अब हमें सुख को केंद्र पर रखना पड़ेगा। और जो आदमी सुखी होने को और सबको सुखी करने की कोशिश में संलग्न है, उसे साधुु, सज्जन और अच्छा आदमी कहना पड़ेगा। जो आदमी लोगों के दुख बढ़ाने की कोशिश कर रहा है त्याग के, तप के नाम पर, उस आदमी को नैतिकता के दायरे के बाहर करना पड़ेगा। वह आदमी अनैतिक है।
अब नैतिक वह आदमी है, जो जिंदगी में ज्यादा फूल सुख के खिलाने में संलग्न है। अब वह आदमी नैतिक है, जो जिंदगी से बीमारियां दूर करने में लगा है। पुरानी नैतिकता बड़ी अजीब थी। एक आदमी चोरी न करे, नैतिक हो जाता था । एक आदमी झूठ न बोले, नैतिक हो जाता था। एक आदमी किसी की स्त्री को न भगाए, नैतिक हो जाता है। नैतिकता निगेटिव थी। आपने कभी खयाल किया? पुरानी नैतिकता कहती थीः डू नाॅट डू--यह मत करो। बस, न करो...न करो...न करो...पुरानी सारी नैतिकता निगेटिव थी। वह कहती थी, चोरी मत करो। वह कहती थी झूठ मत बोलो। वह कहती थी, यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो।
अगर बाइबिल के टेन कमांडमेंट्स हम देखें तो वे सब यह कहेंगे कि यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो। नई नैतिकता कहेगी, यह करो, यह करो, यह करो। ‘मत करो’ अर्थहीन है। आप झूठ न बोलें, तो इतना ही है कि आपको झूठ से जो नुकसान पहुंचता है, वह नहीं पहुंच रहा है।
लेकिन इससे जिंदगी बहुत सुख को उपलब्ध न हो जाएगी। अगर जिंदगी को सुखी बनाना है तो मारेलिटी का पाॅजिटिव होना पड़ेगा की यह करो। पुरानी नैतिकता कहती हैं कि चींटी को मत मारो, तो बच कर निकल जाओ। और अगर चींटी मर रही हो तो तुम्हें क्या प्रयोजन है? तुम बच कर बाहर निकलो। तुम्हें मारना नहीं है। पुरानी नैतिकता कहती है, अहिंसा। अहिंसा निगेटिव शब्द है--हिंसा मत करो। वह कहती है कि किसी की छाती में छूरा मत मारो। लेकिन वह यह नहीं कहती है कि किसी की छाती में छूरा लगा हो तो निकालो। पुरानी नैतिकता निगेटिव है। वह कहती है, चींटी मरती है,तो तुम्हें कोई मतलब नहीं हैं। तुम अपने रास्ते जाओ। तुम मत मारो। लेकिन तुम्हारे न मारने से भी चींटी मर सकती है। तो उसेे बचाने का कोई उपाय पुरानी नीती में नहीं है।
पुरानी नीति का निषेधात्मक रूप दुख के कारण था। नई नीति का पाॅजिटिव रूप--अगर हम सुख को केंद्र पर रखते हैं--तो सारी मनुष्य-जाति को सुखी होने का अधिकार है। स्वर्ग कहीं और नहीं है। स्वर्ग हमें कही और रखना पड़ा था। सिर्फ इसिलिए कि पृथ्वी पर बनाने में हम असमर्थ हो गए थे। पृथ्वी दुख थी तो सुख हमें स्वर्ग में रखना पड़ा था।
अब सुख को स्वर्ग में रखने की कोई जरूरत नहीं। हम उसे पृथ्वी पर ही बसा सकते हैं। इसलिए एक नई पाॅजिटिव मारैलिटी, जो कहती हो, यह करो, सुख के साधन बढ़ाओ। अब जैसे समझें; हम एक आदमी को महात्मा कहेंगे, क्योंकि उसने लंगोटी लगा ली है। अब लंगोटी कोई लगा ले, इसकी मौज है। इसमें महात्मा होने की क्या बात है? आपको लंगोटी लगाने का शौक है, मजे से लगाइए। आपको सर्दी में खड़े होने का शौक है, खड़े हो जाइए। आपको धूप मे खड़े होना है, धूप में खड़े हो जाइए। इसमें नैतिक होने का क्या अर्थ है? लेकिन यह आदमी महात्मा है।
लेकिन एक आदमी है दूसरा, जो रात में मरघट से मुर्दे को चुरा कर और चीर-फाड़ करके पता लगा रहा है कि आदमी का पेट कैसे काम करता है? यह आदमी महात्मा नही था पहले। यह चोर था। इसने मुर्दा चुरा लिया। यह पकड़ा जाए तो इसकी सजा हो जाती। लेकिन इस आदमी ने दुनिया के सुख बढ़ाने में बड़ा काम किया। आज अगर हमारे पेट स्वस्थ हैं, तो उन आदमियों की वजह से जिन्होंने मरघट से मुर्दे चुराए। और जिन्होंने मरघट के मुर्दे चुरा कर रात के अंधेरे में छुपके उनको चीरा और फाड़ा और पता लगाया कि आदमी का पेट कैसे काम करता है। अल्सर कैसे बन जाता है और अपेंडिसाइटिस कहां है और क्या है और  क्यों है।
जिन लोगों ने रात के अंधेरे में आदमी के सुख की तलाश की...आदमी के ही विरोध के बावजूद, क्योंकि आदमी चारों तरफ कह रहा था कि यह बात गलत है, यह नहीं होनी चाहिए। आप मुर्दा कैसे चुरा सकते हैं। उन लोगों को हमने अब तक महात्मा नहीं कहा। लुई-फिशर को हम महात्मा नहीं कहेंगे। हम एक आदमी को महात्मा कह देंगे जो कि ठंड में बैठा हुआ है! बड़े मजे की बात है, ठंड़ में कोई बैठे, बड़े मजे से बैठे। कोई तकलीफ देने की जरूरत नहीं। उसको रोकने की भी कोई जरूरत नहीं क्योंकि किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। लेकिन ठंड में बैठना, महात्मा होने का क्या मतलब है? नैैतिक होने का क्या अर्थ है?
पाॅजिटिव मारैलिटी होगी भविष्य की...जो आदमी मनुष्य के सुख को बनाने के लिए कुछ कर रहा है वह आदमी नैतिक होगा। अगर हम एक विधायक नीति की धारणा दे सकें--हम कैसे मनुष्य के सुख को बढ़ायें? और मनुष्य का सुख हजार रास्तों से बढ़ाया जा सकता है। और ध्यान रहे, कोई आदमी अकेला सुखी नहीं हो सकता। हम सब मिल कर अगर चेष्टा करें तो सुख का फूल खिल सकता है। हजार रास्ते हैं। आप रास्ते पर निकलते है और अगर उदास चेहरे से निकलते हैं आप, तो मैं आपको अनैतिक कहूंगा।
अगर आप रास्ते से गुजरते हैं और जो भी आदमी मिलता है, उससे आप कहते हैं, बड़ा दुख में हूं, बड़ी परेशानी में हूं, तो आप अनैतिक आदमी हैं। क्योंकि आपका यह दुख दुसरे को दुखी करता है। मैं आपको नैतिक आदमी नहीं कहूंगा। जो आदमी अपने दुख का रोना रो रह है सुबह से शाम तक, वह बिलकुल अनैतिक है। क्योंकि वह दूसरों को भी दुखी करने के उपाय कर रहा है लेकिन जो आदमी मुस्कुरा रहा है और जो दूसरों को मुस्कुराहट के रास्ते बना रहा है वह आदमी नैतिक है। क्योंकि वह आदमी को खुशी की तरफ ले जाने का मार्ग खोज रहा है।
लेकिन हमारे पुराने साधु-संत सब उदास और गंभीर थे। असल में संत होने के लिए रोती हुई शक्ल लेकर पैदा होना बहुत जरूरी है। नहीं तो कोई आदमी संत नहीं हो सकता है। बिलकुल रोती शक्ल हो कि आंसू अब टपके...अब टपके, तभी कोई संत हो सकता है। संत होने के लिए अगर हंसती हुई, स्वस्थ...तो कठिनाई की बात है। आप संत नहीं हो सकते। संत होने के लिए गंदा होना जरूरी है, इसलिए साधु-संत नहाते नहीं। जैनियों के मुनि नहाते नहीं, स्नान नहीं करते बल्कि जैन शास्त्रों में यह लिखा है कि हाथ पर मैल जम जाए तो उसे पोंछना भी पाप है। उसको जमने देना चाहिए--सब तरह की गंदगी ओढ़ कर सब तरह की उदासी, बीमारी ओढ़ कर...।
हिंदुस्तान से एक आदमी जर्मनी लौटा--काउंट कैसरलिंग, तो उसने अपनी डायरी में लिखा कि हिंदुस्तान में जाकर मुझे पहली दफा पता चला कि स्वास्थ्य एक अनैतिकता है, बीमार होना नैतिकता है। और हिंदुस्तान में जाकर मुझे पता चला कि अस्वच्छ रहना, गंदगी से रहना अध्यात्म है। स्वच्छ रहना और ताजे रहना, साफ-सुथरे रहना भौतिकवाद है, मैटीरियलिज्म है।
नहीं, यह सब हमें बदल देना पड़ेगा। एक नई नीति--स्वस्थ सुखी आदमी को, मुस्काराते आदमी को स्वीकार करेगी। हमें बुद्ध और महावीर की नई मूर्तियां ढालनी होंगी, जिनमें वे खिलखिला कर हंस रहे हों। अब उदास महावीर और उदास बुद्ध नहीं चल सकते हैं। ईसाई तो कहते हैं कि जीसस कभी हंसे ही नहीं क्योंकि हंसने जैसी छोटी-ओछी चीज जीसस कर सकते हैं! उनकी किताबें कहती हैंः ‘जीसस नेवर लाॅफ्ड’--हंसे ही नहीं कभी जिंदगी में। तो उन्होंने जैसा जीसस को बनाया होगा...देखा होगा सूली पर लटके हुए। अगर वे न भी लटकते तो ईसाई उनको लटका देते, क्योंकि गंभीर आदमी को सूली पर लटका होना चाहिए। लेकिन अब हम जीसस को हंसा कर रहेंगे। हमें तो जीसस की नई तस्वीरें बनानी पड़ेंगी, जिनमें वे हंस रहे हों, फूल के बगीचे में खड़े हों।
नये आदमी को सुखी और स्वस्थ और आनंदित--इस पृथ्वी पर; स्वर्ग में नही; इस पृथ्वी पर सुख और स्वास्थ्य को स्वीकार करना पड़ेगा तो हम एक विधायक नीति के आधार रख सकते हैं। और मुझे कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता कि ये आधार क्यों नहीं रखेे जा सकते हैं। मैं आपसे इतनी प्रार्थना करूंगा, इन दिशाओं में सोचें। बड़ा सवाल है, जिंदगी के सामने बड़ी समस्या है कि हम नई नीति को कैसे जन्म दें। इन दिशाओं में सोचें। शायद हम सब सोंचे तो हम कुछ रास्ते खोज लें।
मैं कोई उपदेश देने वाला नहीं हूं कि मैं आपको उपदेश दूं और आप ग्रहण कर लें। वह मामला छोड़ें, वह गुरु-शिष्य का संबंध गया। अब कोई उपदेश देगा, कोई ग्रहण करेगा, यह सवाल नहीं हैं। हम सब इकट्ठे होकर सोच सकें, हम सब मित्र की तरह साथ सोच सकें और नये मनुष्य की रूप-रेखा निर्मित कर सकें, इस दिशा में मैने कुछ बातें कहीं।

मेरी बातों को इतने शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्त 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें