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शनिवार, 10 नवंबर 2018

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-01)

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(राष्ट्रीय-सामाजिक)-ओशो

पहला प्रवचन
क्रांति की वैज्ञानिक प्रक्रिया

प्रश्नः समाज में बहुत दिनों से जो असंतोष की भावना व्याप्त है और आज जो वातावरण उत्पन्न हो गया है उसको देखते हुए यह निश्चित धारणा बन रही है कि भारत में अब पूर्ण क्रांति की संभावना पैदा हो गई है। इस संबंध में आपका क्या कहना है?

कठिन सवाल है। भारत का यह जो पांच हजार साल का ढांचा है, वह क्रांति के बिलकुल विपरीत है। शायद दुनिया में कोई समाज इतना क्रांति विरोधी समाज नहीं है, जितना हमारा समाज है और इसलिए हमने कभी कोई क्रांति नहीं की। यह पांच हजार वर्ष के मनुष्य को अगर हम देखें, उसके माइंड, मन को देखे तो हमेशा मालूम पड़ता है कि पूर्ण क्रांति, फुलफ्लेज्ड रिवोल्यूशन हो जाएगी। लेकिन दूसरी तरफ से देखें कि पांच हजार वर्ष तक क्रांति नहीं हुई है, तो या तो ढांचा क्रांति विरोधी है या ढांचे के भीतर भारत की जो आत्माएं हैं, वे क्रांति के पक्ष में होती नहीं दिखाई पड़ती हैं। पांच हजार वर्ष की जो जकड़न है, उससे एक प्रतिक्रिया भी भीतर घनी होती चली गई है। उस प्रतिक्रिया का अगर उपयोग हो सके, तो शायद भारत अकेला मुल्क है जहां क्रांति, रिवोल्यूशन हो सके। और किसी मुल्क में क्रांति हुई भी नहीं।

इसमें दो बातें हैं और दोनों घटित हुई हैं। अगर हम ढांचे को देखे तो ढांचा तो ऐसा है कि क्रांति विरोधी है, लेकिन पांच हजार वर्ष की ढांचे की पीड़ा भी है हमारे साथ। और ढांचे के पीछे बढ़ता विरोध भी है और भीतर ढांचे को तोेड़ देने का बीज अंकुरित होता चला गया है। और यह पांच हजार वर्ष की लंबी प्रतिक्रिया है।
इसका विस्फोट भी हो सकता है, क्योंकि ज्वालामुखी बिलकुल सामने से दिखाई पड़ रहा है और ऊपर से देख कर कोई यह नहीं कह सकता है कि आग भड़क जाने वाली है। ऊपर से सब शांत है, पक्षी गीत गा रहे हैं और सूरज निकला है, आभा हो रही है और कहीं कोई अशांति नहीं है, लेकिन भीतर एक अशांति इकट्ठी होती चली गई है। वह ज्वालामुखी घट भी सकता है। और जो ज्वालामुखी हमेशा फूटता रहता है उससे ज्यादा खतरा नहीं होता है, लेकिन जो ज्यालामुखी पांच हजार साल से शांत रहा है, अगर फूट जाए तो भारी विस्फोट होगा।
मेरे अनुभव में दो बातें हैं। ढांचा हमारा क्रांति विरोधी है, लेकिन हमारी आत्मा धीरे-धीरे ढांचे के विपरीत ही होती चली गई, होती ही चली गई। अगर उस तरफ ध्यान दें तो आशा बनती है कि इस मुल्क में रिवोल्यूशन, क्रांति होगी और वह फुलफ्लैज्ड, पूर्णतः होगी। अगर भारत में क्रांति होने वाली होगी तो फुुुलफ्लैज्ड होगी--एक बारगी ही, पुराने से हम पूरी तरह छुटकारा पा लेंगे। बुरी तरह विद्रोह होगा, साधारण विद्रोह नहीं होगा। साधारण हो ही नहीं सकता है, वह हमारा इतना पुराना हिसाब है।
दोनों ही बाते दिखाई पड़ती हैं, लेकिन अपनी आशा दूसरी बात पर ही बंधी हुई है कि क्रांति हो सकती है और उस दिशा में प्रबल चेष्टा की जाए तो भारत एक बड़ी क्रांति कर सकता है। उसने की नहीं है कभी, यह पक्का है। लेकिन नहीं की है, वह घटना करने के पक्ष में भी सहायक बन सकती है, परंतु हमारा मन जो है वह बहुत विपरीत खंडों में बंटा हुआ चलता है।
मुझे खयाल है, मेरे गांव में एक मुसलमान परिवार था, बहुत अभिजात परिवार था नवाबों का। उनके घर के लोगों को वे कभी किसी के साथ न खेलने दें, न घूमने दें। बहुत ही बांध कर व्यवस्था में रखते थे। उनका एक लड़का मैट्रिक तक मेरे साथ पढ़ता था। उसने कभी सिनेमा नहीं देखा, उसने कभी किसी लड़की से बात नहीं की। उसका कोई दोस्त नहीं था। कार से उस स्कूल में छोेड़ देना और ड्राइवर कार लिए खड़ा ही रहेगा। क्लास के दरवाजे से बिठा कर उसको घर ले जाएगा। फिर वह कालेज पहुंचा। कालेज में जाकर देखा तो वह उलटा हो गया, एकदम उलटा हो गया, ठीक उलटा हो गया। सिवाय शराब के और वेश्या के और कुछ काम न रहा। छह साल वह इंटरमीडिएट में फेल होता रहा। आखिर बाप को उसे वापस बुला लेना पड़ा। उसके पिता मुझसे कहने लगे कि इससे ऐसी आशा नहीं थी। मैंने कहा, ये दोनों संभावनाएं थीं। इतना जो सख्त ढांचा पर बिठाला था। उसके ढांचे को देख कर तो यह आशा नहीं बंधती थी, लेकिन ढांचे के खिलाफ इसका जो मन विद्रोह करता चला गया था उससे यह आशा बंधती थी।
भारत की स्थिति ऐसी है। एक ढांचा है, और एक हम हैं। तो हम तो खिलाफ होते ही चले गए हैं, और ढांचा पुराना, जीर्ण और जर्जर हो गया है! ढांचा बचने की कोशिश करेगा, हर कोशिश करेगा!

प्रश्नः वह अपने आप को सुधारने की कोशिश करेगा?

सुधारने की कोशिश भी करता है, वह भी बचाव के लिए है। मेरी दृष्टि में यही है कि अगर मोरारजी हुकूमत में रहें तो कांग्रेस जल्दी मरेगी, इंदिरा शासक बनती है तो दस साल और जीएगी। इंदिरा उसे भीतर से सुधारने की कोशिश में है और समाजवाद का नारा फिर से उसे बल दे देगा। दस साल फिर वह खींची जा सकती है। ढांचा वही आखिरी बचाव करता है। पहले तो ढांचा जैसा है, वैसा बचने की कोशिश करता है। जब उसे लगता है कि असंभव हो गया है, तो ढांचा ही क्रांति की बातें करनी शुरू कर देता है, जो बिलकुल ही झूठी होती है। नेहरू भी वही करते रहे इस मुल्क के साथ और नेहरू कांग्रेस को बचा सके। बाप की पुरानी ट्रिक बेटी फिर करती है और वह सिर्फ समजवाद की बात है। उससे फिर क्रांति को धक्का पहुंचता है। क्रांति को धक्के की जरूरत नहीं है। अब तो जिससे हम लड़ने जा रहे हैं वही समाजवाद लाने के लिए तैयार है, बात खत्म हो गई और फिर क्रांति की बात ढीली हो जाएगी और ढांचा अपने को फिर संभाल लेगा। पुराना ढांचा आखिरी स्थिति में आ गया है। इसलिए वह क्रांति की भाषा बोलने लगा है। और यह सबसे खतरनाक मामला है।
ढांचा जब तक साफ बोलता है तब तक उससे हम लड़ सकते हैं, जब वह हमारी भाषा बोलने लगता है तब बहुत मुश्किल हो जाती है। वह ढांचा भी उपाय करेगा पूरी तरह। वह समाजवाद की बात करेगा, वह क्रांति की बात करेगा और वह नव-मूल्यों की बात करेगा और यह सारी बात ऐसी होगी जैसे हम पुराने मकान को गिरनेे से बचाने के लिए नया रंग-रोगन करते हैं, नई दीवार के ऊपर फर्श चढ़ा देते हैं सीमेंट की, दरारें भर देते हैं और कहते हैं सब नया हो गया, पुराना है ही कहां! यह ढांचे की आखिरी कोशिश है। वह कोशिश भी भारतीय ढांचा करेगा ही। हमने बहुत बार ऐसा किया है।
बुद्ध ने एक वैचारिक क्रांति इस मुल्क को दी। शंकर ने वह पूरा ढांचा स्वीकार कर लिया और उसे हिंदू धर्म बना लिया और बुद्ध की क्रांति खत्म हो गई। बुद्ध को उन्होंने जड़ से काट दिया। शंकर ने कहा, यह तो सब हमारे वेदांत में है और शंकर ने पूरा का पूरा बौद्ध विचार वेदांत में जबरदस्ती आरोपित कर दिया, जो वहां कहीं नहीं था। उन्होंने सब निकाल कर बता दिया कि यह तो वेदांत में है। हम बच गए। बुद्ध को हमने उखाड़ फेका। इस तरह जड़ से उखाड़ दिया है कि जहां बुद्ध जैसा आदमी इस मुल्क में पैदा हुआ, वहां उसके मंदिर में उसका पुजारी भी नहीं रहा। मंदिर का पुजारी भी खोजना मुश्किल हो गया। इस भांति बौद्ध चिंतन यहां से खत्म हुआ और उसे खत्म करने के लिए हमने यह तरकीब अख्तियार की कि हमने बुद्ध की भाषा को हिंदू भाषा में फौरन ढाल दिया।
यह हम कोशिश करेंगे। भारत इस तरह की पहले कोशिश कर चुका है, इसलिए हम कोशिश करेंगे। यह हम कहेंगे कि हमारी सारी की सारी संस्कृति क्रांतिकारी है। साम्यवाद इसमें है, समाजवाद इसमें है, सब इसमें है। गांधी और विनोबा इसी कोशिश में संलग्न रहे हैं, अरविंद भी इसी कोशिश में संलग्न रहे हैं। यहां तो जो भी पश्चिम में नया हुआ है, फौरन उसे हमारी किताब में बता देने की प्रवृत्ति है। अगर हवाई जहाज बन रहा है, तो हमारे वेद में वह पहले से है। और अभी वैज्ञानिक चांद पर पहुंच गया है, तो हमारा पंडित खोजने लगा होगा कि हम कैसे तरकीब निकाल लें, किस प्रकार अर्थ निकाल लें शास्त्रों से कि यह चांद पर पहुंचने की बात नई न रह जाए और हम कह सकें कि चांद पर तो हम पहले पहुंच चुके थे, हमारे ऋषि-मुनि पहले जा चुके हैं। वह हम करेंगे, और इससे बहुत सचेत होने की जरूरत है क्योंकि यह बहुत धोखेबाज मामला है, इसे पहचानना मुश्किल है।
इसलिए भारत को हमें दो चीजों से सचेत करने की जरूरत पड़ गई है। एक यह कि ढांचा तोड़ना है और दूसरी यह कि ढांचा अपने को बचाने के लिए क्रांति की भाषा बोलगा, इससे सजग होना है। लेकिन आशा बंधती है, आशा बंधने के लिए और कारण भी हैं। बड़ा कारण तो यह है कि पिछले तीन हजार वर्षों से भारत--इधर तीन-चार सौ वर्षों को छोड़ कर--एक बंद मुल्क था। उसका दुनिया से कोई संबंध न था। हम अपने में तृप्त थे और स्वतंत्र थे और कोई तौलने का उपाय न था। लेकिन अब सब नाप और तौल साफ है। सारी दुनिया में जो हो रहा है, उससे ज्यादा दिन अब बचा नहीं जा सकता। वह सब यहां होगा और यह बड़ी आशा है।
बड़ी आशा जो हमारे क्रांति की है, वह हमारे भीतर से कम आ रही है। वह जो बाहर हमारे चारों तरफ हो रहा है, वह हमें धक्का दे रहा है। और यह बहुत जल्दी भारतीय प्रतिभा को स्पष्ट हो जाने वाला है कि अगर हम चूकते हैं समाज के ढांचे को बदलने से, तो हम शायद मनुष्य होने से चूक जाएंगे। दूसरे मुल्क हमारे सीने पर खड़े हो जाएंगे। जैसे आदिवासी में और हममें फासला हो गया है, वैसे ही अमरीका और रूस और हमें फासला हो सकता है। यह फासला बिलकुल संभावी हो गया है। तो इस भय से और इस दबाव में कुछ हो सकता है और भीतर प्रतिक्रिया इकट्ठी हुई है, इससे भी कुछ हो सकता है।

प्रश्नः इस तरह के रिवोल्यूशन, क्रांति के लिए कोई संस्था होनी चाहिए?

संस्था निश्चित ही होनी चाहिए। संस्था होगी, लेकिन एक सीमा के बाद ही क्रांति में संस्था सहयोगी होती है। सीमा के पहले संस्था बाधा बन जाती है। क्रांति के पहले तो हवा होनी चाहिए, क्योंकि हवा ज्यादा क्रांतिकारी होती है और संस्थाए उतनी क्रांतिकारी नहीं होती, क्योंकि जैसे ही संस्था बनी, संस्था में निहित स्वार्थ शुरू हो जाएगा। तो क्रांति का पहला मामला तो हवा बांधना है, संस्था नहीं। उस हवा से संस्थाएं जन्म लेती हैं। जैसे रूस में हुआ है। रूस में जो हवा थी वह निहिलिज्म की थी। वह सिर्फ हवा थी, उसकी कोई संस्था न थी। निमित्त हवा थी, कोई संगठन न था, कोई एटिट््यूट न था--जो सब चीजों को इनकार कर रही थी--यह भी गलत है, वह भी गलत है, सब गलत है। पुराना सब गलत है, ऐसी एक हवा थी। यह हवा घनी होती गई। यह सिर्फ हवा थी, इसका कोई स्वार्थ नहीं था, क्योंकि हवा की कोई अपनी जड़ें नहीं थी कि जहां उसे बैठना था। यह सिर्फ एक सरल वातावरण था। इस सरल वातावरण ने पूरे मूल्क की आत्मा को पकड़ लिया। विचार पकड़ते ही कर्म बनना चाहता है। विचार जैसे ही पकड़ा कि वह कर्म बनना चाहता है। आपको बनाना नहीं पड़ता है। एक दफा विचार पकड़ ले, तो वह सहज ही सक्रिय हो जाता है।
तो हवा से बातें आती हैं और हवा के पहले संस्था नहीं आनी चाहिए, जैसा हिंदुस्तान में हुआ।
हिंदुस्तान में क्रांति के नाम पर संस्थाएं खड़ी हो गईं। उनका अपना स्वार्थ है। हवा है नहीं। हवा है नहीं, तो ‘यह पार्टी है, ‘वह’ पार्टी है। ये मिल जाती हैं, क्योंकि उनके अपने स्वार्थ हैं। और मजा यह है कि उनको अगर अपने स्वार्थ बनाने हैं और संस्था खड़ी रखनी है तो उनका साथ लेना पड़ता है जिसके खिलाफ काम भी करना है। तो यह कैसे होगा? तो धीरे-धीरे जिनके खिलाफ क्रांति करनी है, उनका भी स्वार्थ संस्था को दबा ले जाता है, वह चाहे कम्युनिस्ट हों, चाहे सोशलिस्ट हों, चाहे फलां हों, चाहे ढिकां। उसके पीछे आखिर में वही प्रश्न खड़ा हो जाता है।
तो मेरा मानना है कि अभी हमें बीस साल संस्था की बातें नहीं करनी चाहिए। उन्मुक्त और खुली हवा बनानी चाहिए। और एक दफा हवा पैदा हो जाए तो उससे पच्चीस संस्थाएं निर्मित हो जाएंगी। इसलिए मैं संस्था में उत्सुक नहीं हूं। यह मैं जानता हूं कि संस्था के बिना क्रांति नहीं होती, लेकिन बिना हवा के संस्था नहीं होती। और यही एक प्रक्रिया है कि हवा बन जाए, एक नियमित एटिट््यूट बन जाए इनकार करने का, ‘नो’ करने का। ‘नो’ इनकार करने की हवा ही नहीं है, ‘हां’ करने की ऐसी पुरानी आदत है, इसको तोड़ देने की मेरी उत्सुकता है। और मेरी मान्यता है कि यह नया काम हो सकता है। यह टूट जाए, और हवा एक बन जाए, तो इस हवा से संस्थाएं मिट नहीं सकतीं, लेकिन एक दफा हवा हो जाए तो संस्थाओं को हवा बचाएगी और तब उसे विरोधी का साथ नहीं देना पड़ेगा।
अभी तकलीफ यह है कि अगर आज मैं कोई संस्था बनाना चाहूं तो जिनकी सहायता से भी बनाऊंगा उनके ही खिलाफ मेरा सारा कहना है। तब तो मुश्किल में पड़ गया। वे सारी शर्ते लेकर हाजिर हो जाते हैं। संस्था बनानी है लेकिन वे क्रांति को नहीं मानते हैं। क्रांति चलानी है तो संस्था बनानी पड़ती है लेकिन वे क्रांति को नहीं मानते हैं। क्रांति चलानी है तो संस्था बनानी पड़ती है। इसलिए मैं संस्था में बिलकुल ही उत्सुक नहीं हंू, यह जानते हुए कि संस्था के बिना कोई क्रांति कभी नहीं होती। लेकिन कुछ लोगों को हिम्मत रखनी चाहिए कि वे संस्था न बनाएं ताकि वे हवा फैला दें, और उनका काम इतना है। हमें इतना तीव्र वातावरण पैदा करना पड़ेगा कि संस्था भी क्रांतिकारी हो सके।

प्रश्नः क्या नक्सलवादियों की क्रांति की दिशा सही है?

नहीं, मैं यह नहीं मानता। मैं इसलिए नहीं मानूंगा कि नक्सलाइट सिर्फ एक प्रतिक्रिया, रिएक्शन है--क्रांति, रिवोल्यूशन नहीं। रिवोल्यूशन और रिएक्शन में बड़ा फर्क है। नक्सलाइट पुराने ढांचे के प्रति एक क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया है। वह क्रोध उस सीमा पर पहुंच गया है, जहां वह यह नहीं देखता है कि क्या करना है, क्या छोड़ देना है। वह अंधा हो गया है। अंधा क्रोध भी खतरनाक साबित हो सकता है। जितना अंधा कनफर्मिस्ट खतरनाक होता है, उतना ही अंधा रिवोल्यूशनरी भी। और नक्सलाइट की घटना जो है वह कोई रिवोल्यूशन नहीं है और कोई फिलासफी, दर्शन नहीं है। वह एक तीव्र रिएक्शन है, जो बिलकुल जरूरी था। इसलिए जितने हम जिम्मेवार है नक्सलाइट पैदा करने के लिए, उतने वे बेचारे जिम्मेवार नहीं है। वे तो बिलकुल निरीह हैं। उनको मैं जरा भी जिम्मा नहीं देता। मैं निंदा के लिए भी उनको पात्र नहीं मानता, क्योंकि निंदा उनकी क रनी चाहिए, जिनको रिसपांसिबिल, जिम्मेवार मानूं। हम रिसपांसिबिल हैं।
हमने पांच हजार वर्ष से जरा भी क्रांति नहीं की है, जरा भी नहीं बदले हैं, एकदम मर गए हैं। तो इस मरे हुए मुल्क के साथ कुछ ऐसा होना अनिवार्य है। लेकिन वह शुभ नहीं है। और उसको अगर हमने क्रांति समझा तो खतरा है। रिएक्शनरी हमेशा उलटा होता है और आप जो कर रह हैं उससे उलटा करता है। रिएक्शनरी वहीं होता है, जहां हमारा समाज होता है। सिर्फ उलटा होता है। वह शीर्षासन करता है। हम जो यहां कर रहें हैं, वह उसका उलटा करने लगता है। जिस जगह आप हैं, उससे गहरा वह कभी नहीं जा सकता है, क्योंकि आपका वह रिएक्शन है। अगर आपने मुझे गाली दी और मैं भी तुरंत गाली देता हूं तो आपकी और मेरी गाली एक ही तल पर होने वाली हैं, क्योंकि उसी तरह मैं भी गाली दे रहा हूं तो मैं भी गहरा नहीं हो सकता, गहरा हुआ नहीं जा सकता। गहरे होने के लिए भारत में नक्सलाइट कुछ नहीं कर पाएगा। नक्सलाइट सिर्फ सिम्पटमैटिक हैं--सिम्पटम, बीमारी के लक्षण हैं। बीमारी पूरी हो गई है और अब नहीं बदलते हो तो यह होगा। यानी यह भी बहुत है, यह भी बहुत है मेरी दृष्टि में। लेकिन अगर तुम नहीं बदलते हो और इसके सिवाय तुम कोई रास्ता नहीं छोड़ते हो, अगर क्रांति नहीं आती तो यह प्रतिक्रिया ही आएगी।
अब दो विकल्प खड़े होते हैं मुल्क के सामने--या तो क्रांति के लिए तुम एक फिलाॅसफिक रूट, वैचारिक आयाम की बात करो और क्रांति को एक व्यवस्था दो और क्रांति को एक सिस्टम दो और क्रांति को एक क्रिएटेड पोस्ट बनाओ। अगर नहीं बनाते हो तो अब यह होगा यानी नक्सलाइट जो हैं वे हमारी वर्तमान समाज-व्यवस्था के दूसरे हिस्से हैं। ये दोनों जाने चाहिए। सोसाइटी भी जानी चाहिए और उसका रिएक्शन भी जाना चाहिए, क्योंकि यह बेवकूफी ही थी सोसाइटी का साथ देना। ये जो एक्टिविटीज, घटनाएं हैं, ये इसी के ‘पार्ट एंड पाश्र्यिल’, सहज परिणाम हैं।
आमतौर से ऐसा लगता है कि नक्सलाइट दुश्मन है। मैं नहीं मानता कि वे दुश्मन हैं। वे इसी सोसाइटी के हिस्से हैं, इसी सोसाइटी ने उसे पैदा कर दिया है। इसने गाली दी है तो उसने दुगुनी गाली दी है, बस इतना फर्क पड़ा है। मगर यह माइंड, चित्त इसी से जुड़ा हुआ है। यह सोसाइटी गई तो वह भी गया। अगर यह नहीं गई, तो वह भी जाने वाला नहीं है। यह बढ़ता चला जाएगा।
अब मेरा कहना यह है कि क्रांतिकारी के सामने दो सवाल हैं। ठीक विचार करने वाले के सामने दो सवाल हैं। वह यह कि या तो सोसाइटी में क्रांति आए--और सृजनात्मक रूप में--और नहीं आ पाती है तो नक्सलाइट विकल्प रह जाएगा। और वह कोई सुखद विकल्प नहीं है। वह सुखद भी नहीं है, गहरा भी नहीं है, जरा भी गहरा नहीं है। वह उसी तल पर है, जहां हमारा समाज है। वह सिर्फ रिएक्शन कर रहा है, वह जरूरी है। यह मैं नहीं कहता कि बुरा है तो गैर-जरूरी है। बुरा है, नहीं हो, ऐसी हमें व्यवस्था करनी चाहिए।
और वह व्यवस्था हम तभी कर पाएंगे जब हम पूरी सोसाइटी को बदलेंगे। नक्सलाइट को हम रोक नहीं पायेंगे, उनको रोकने का सवाल ही नहीं है। पूरी सोसाइटी उसे पैदा कर रही है। इसका जड़ होना उसको पैदा कर रहा है, इसके न बदलने की आकांक्षा उसको पैदा कर रही है, इसका पुराना ढांचा उसको पैदा कर रहा है, यह ढांचा पूरी तरह गया तो इसके साथ नक्सलाइट गया।
नक्सलाइट एक संकेत है, जो बता रहा है कि सोसाइटी इस जगह पहुंच गई कि अगर क्रांति नहीं होती तो यह होगा। और अब सोसाइटी को समझ लेना चाहिए। वह पुराना ढांचा तो नहीं बचेगा। या तो क्रांति आएगी या यह ढांचा जाएगा। ये दो चीजें आ सकती हैं और अगर आप मर्जी से लाएं तो क्रांति आएगी, अगर आप सोच कर लाएं तो क्रंाति आएगी, विचार करके लाएं तो क्रंाति आएगी और अगर आप क्रांति न लाएं, इसके लिए जिद में रहे कि नहीं आने देंगे तो यह विचारहीन प्रतिक्रिया आएगी। यानी मेरा कहना है कि नक्सलाइट एक थाटलेस रिएक्शन, विचारहीन प्रतिक्रिया है।

प्रश्नः थाॅटलेस रिएक्शन तो है लेकिन इट हेज ए परपज...एण्ड लुकिंग टु दि परपज, सपोज, सोसाइटी का माइंड, चित्त परिवर्तित हो गया तो यह क्रांति है, तो इसका परपज, लक्ष्य है कि वह प्रचलित मूल्यों को चैलेंज करता है...?

परपज लक्ष्य वैसा ही है जैसे कि आप बीमार है और जोर से बुखार हो गया है। सारा शरीर गर्म है और एक सौ चार डिग्री बुखार है। एक सौ चार डिग्री में जलना सिर्फ खबर है कि भीतर बीमारी है और यह चीज ऐसी है कि शरीर को अस्वस्थ किए दे रही हैं, बेचैन किए दे रही है, उत्तप्त किए दे रही है। यह बुखार का परप.ज है। यह त्वरा का, फीवर, बुखार का परपज है कि आपको खबर दे रहा है कि भीतर डिसी.ज, बीमारी है। डिसीज मिटेगी तो यह बुखार जाएगा और किसी ने अगर ठंडा पानी डाल कर इस बुखार को कम करने की कोशिश की तो डिसी.ज तो नहीं मिटेगी, आदमी मरेगा। नक्सलाइट को सिर्फ ठंडा करने की कोशिश की तो सोसायटी मरेगी। नक्सलाइट सिर्फ फीवर है। परपज है फीवर का, लेकिन फीवर बचाने योग्य नहीं होता है, मिटाने योग्य होता है।
परप.ज तो उसका है कि उसने खबर दी है आपको, आपके शरीर के ऊपर आकर कि आप बचेंगे नहीं, अगर बीमारी दूर नहीं होती तो। अभी बुखार बढ़ता है, एक सौ चार से एक सौ दस तक जाएगा। अब जल्दी बीमारी अलग करो। सिर्फ इतना परपज है उसका और बीमारी अलग हुई कि परपज इसका खत्म हुआ। मगर खतरा है कि कहीं हम बीमारी को इसका विकल्प न मान लें। कहीं हम ऐसा न समझ लें कि बीमारी का दुश्मन है, यह फीवर जो है। यह दुश्मन नहीं है, बीमारी का ही हिस्सा है, बीमारी की ही खबर है, बीमारी से ही जुड़ा है। तो ऐसा नहीं है कि बीमारी को छोड़ें और बुखार को पकड़ लें। ऐसा परपज नहीं है नक्सलाइट का कि हम आज सोसायटी के पुराने ढांचे को छोड़ दें और नक्सलाइट, जो बेवकूफी की बात कर रहा हो उसे पकड़ लें। यह विकल्प नहीं है।
जानना यह है कि नक्सलाइट आपकी पुरानी सोसाइटी पैदा कर रही है। आप पुरानी सोसाइटी को खत्म नहीं करेंगे तो नक्सलाइट पैदा होगा। यानी नक्सलाइट का एक ही परपज है और वह यह कि वह पूरी खबर दे कि पुरानी सोसाइटी आखिरी क्षण में है, और अगर नहीं मरती है तो नक्सलाइट को पैदा कर जाएगी और इससे अगर बचना है तो पुरानी सोसाइटी खत्म करो, उस बीमारी को जाने दो। यह इसका रिएक्शन है। इसको बचाना नहीं है, जाने देना है--सोसाइटी के साथ जाने देना है, बचाना नहीं है। इसलिए नक्सलाइट पुरानी सोसाइटी का दुश्मन है और में मानता हूं कि वह उसी का हिस्सा है जो घबड़ा गया है, क्रोध से भर गया है और जो वह सोसाइटी करती था उससे उलटा काम कर रहा है। ठीक उलटा कर रहा है। पुरानी सोसाइटी जैसे आज अमरीका में है, युरोप में है उसके विरोध में प्रतिक्रिया स्वरूप बीटल्स और बीटनिक पैदा हो गए हैं। वे भी उसी पुरानी सोसाइटी के हिस्से हैं। पुरानी सोसाइटी कहती है कि सड़क पर कपड़े ढांक कर चलो, तो वह सड़क पर नंगा खड़ा हो गया है।
गिन्सबर्ग एक बीटनिक है, वह एक जगह छोटी सी कविता सुन रहा है। अमरीका की घटना है, सुना रहा है किसी को और उसमें नंगी तस्वीर है, भद्दे शब्द हैं, गालिया हैं। एक आदमी खड़ा होकर कहता है कि यह क्या गालियां बक रहे हो। यह कोई बहादुरी नहीं है, कोई बहादुरी का काम दिखाओ। वह गिंसबर्ग कहता है, अच्छी बात! वह अपने सब कपड़े उतार कर नंगा खड़ा हो जाता है। वह नंगा खड़ा हो गया है। उसने कहा, यह बहादुरी का काम है। तुम नंगे हो सकते हो? उस गेदरिंग, सभा में जो लोग इकट्ठे थे, भाग गए वहां से। लोग भाग रहे हैं--औरतें, पुरुष और वह नंगा होकर खड़ा है।
मेरा मानना यह है कि यह जो नंगा खड़ा होना है, यह जो कपड़े पहनने का अति आग्रह है, दबाने का, छिपाने का--उसका ही रिएक्शन है। मानता कपड़े को यह भी है, क्योंकि कपड़े उतार कर बहादुरी दिखा रहा है। यह दिखा रहा है कपड़े उतार कर बहादुरी, हम दिखा रहें हैं...! लेकिन यह है हमारा ही दूसरा विपरीत हिस्सा, डाइमेट्रिकली अपोेजिट, दि पार्ट एण्ड पाश्र्यिल, बिलकुल उलटा रूप है, लेकिन हमसे जुड़ा हुआ है।
जब तक दुनिया में कपड़े पहनने का बहुत आग्रह जिद्दपूर्वक जारी रहेगा, गिंसबर्ग पैदा होगा। अगर हमने मनुष्य के शरीर को इस भांति इनकारा कि इसको देखने ही मत देना, तो कुछ विद्रोही लड़के पैदा होंगे जो कहेंगे कि हम नंगे खड़े होंगे, हम सड़कों पर नंगे चलेंगे। और आज नहीं कल, यह पक्का ही मानना कि लड़के और लड़कियां सड़कों पर नंगे खड़े होकर कपड़ों के खिलाफ बगावत करेंगे, क्योंकि हमने अति आग्रह कर लिया है। कपड़ा पहनना एक सुविधा की बात है, वह एक माॅरेलिटी न बन जाए और कोई पैटर्न न बन जाए कि उघाड़ा होना एक पाप हो जाए।
नक्सलाइट जो है वह हमारी सोसाइटी का हिस्सा है। वह ढांचे से छूट कर उलटा खड़ा हो गया है। लेकिन उलटा खड़ा होना उतना ही पागलपन है। बदलना है सोसाइटी को, सोसाइटी को उलटी नहीं करना है।

प्रश्नः सवाल यह उठता है कि पहले पांच हजार वर्ष पुराने ढांचे को हटाना है या पहले इस नई प्रतिक्रिया को हटाना है? और आखिर जो नया है उसको तो सरलता से ही हटा सकते हैं, क्योंकि वह नया हैं!

नहीं, आप इस खयाल में मत रहना, क्योंकि जो नया पांच हजार साल पुराने को हटा देगा वह पांच हजार साल पुराने से मजबूत सिद्ध हो रहा है, तभी तो हटा रहा है। आप ध्यान रखना, नक्सलाइट को हटाना मुश्किल हो जाएगा। पुराने को हटाना आसान है, क्योंकि पुराना जरा-जीर्ण है और मरने के करीब पहुंच गया है, सिर्फ धक्का देने की बात है। पुराने को हटाना बहुत कठिन नहीं है मामला, क्योंकि वह अपने भीतर मर चुका है और नक्सलाइट ने अगर पुराने को हटा दिया तो बहुत जीवन पा जाएगा। फिर इसको हटाना बहुत मुश्किल होगा। इसको हटाने में पांच हजार साल लग सकते हैं।
मेरी समझ यह है कि मोरार जी को हटा देना बहुत कठिन नहीं है, डांगे बैठ जाए तो हटाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मोरार जी मरी हुई खोल पर खड़े हैं, मरे नहीं हैं, धक्का दिया कि गए, लेकिन इनको हटा कर जो खड़ा हो जाएगा वह नया होगा, अभी जीवंत होगा, अभी यंग होगा, अभी विजयी होगा वह। उसे हटाने में वक्त लग जाएगा जब तक वह उतना नहीं सड़ जाएगा। और जब आप सड़े को नहीं हटा पा रहे हैं तो आप नक्सलाइट को कैसे हटाएंगे, जो बहुत जिंदा है। यानी सावधानी बहुत बरतने की जरूरत है, खतरा बहुत ज्यादा है।
नक्सलाइट का परप.ज है, लेकिन परपज के आगे खतरा भी बहुत बड़ा है और मैं मानता हूं कि खतरा पुरानी सीढ़ी पैदा कर रही है। और एक दफा देश क्रांति के लिए राजी नहीं होता तो विकल्प नक्सलाइट है और नक्सलाइट एक दफा आ गया तो क्रांतिकारी के लिए बड़ा प्राब्लम होगा। पुराने की एक व्यवस्था है--गलत हो या भला। और व्यवस्था को चलाना भी आसान होता है और हटाना भी आसान होता है। नक्सलाइट की कोई व्यवस्था नहीं है, वह एक अव्यवस्था है। अव्यवस्था को चलाना भी मुश्किल है, हटाना भी मुश्किल है। व्यवस्थित चीज को हटाना बहुत आसान है। उसकी एक सीमा है, एक जगह है। वह कहंा है, यह हमें पता है। नक्सलाइट की कोई व्यवस्था या नियम नहीं है, इसलिए उसको हटाना एकदम मुश्किल है। किससे लड़ोगे आप, क्या लड़ोगे? न नियम है, न व्यवस्था है, न कोई ढांचा है--किससे लड़ने वाले हो आप! एक नक्सलाइट जैसी व्यवस्था किसी सोसाइटी में आ जाए तो बहुत मौके इस बात के हैं कि पुराना ढांचा वापस आ जाए--बहुत मौके ऐसे हैं बजाय क्रांति आने के।
अमरीका में बजाय क्रांति आने के पुरानी व्यवस्था वापस लौट आई है और लोग कहने लगे हैं कि इससे पुराना ही अच्छा है, इसने तो जीना मुश्किल कर दिया है। और मेरा कहना यह है कि वे एक ही पहलू के दो हिस्से हैं, उन्हीं के विकल्प हैं! अगर नक्सलाइट हारेगा तो पुराना वापस लौट पड़ेगा। वे जुड़े हुए हैं। अगर नक्सलाइट आ जाए कल और सारा मुल्क अव्यवस्थित हो जाए तो क्रांति नहीं आ जाएगी उससे। उससे सिर्फ इतना होगा कि पुराना ढांचा जो हार गया था वह फिर खड़ा होकर कहेगा कि देखो, यह हो रहा है नया। फिर हमको वापस लौट कर आने में मजा होगा।
मेरा मानना है कि नक्सलाइट अगर सफल हो जाए तो पुराने ढांचे को दो-तीन सौ वर्ष में फिर जिंदा कर जाएगा, इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। क्रांति वह नहीं है, वह प्रतिक्रिया, रिएक्शन है और इसलिए क्रांति की
दृष्टि जो है उसको दोनों से लड़ना है--पुराने ढांचे से और नक्सलाइट से। उसको फिर भी यह कहना है कि तुम उसी के हिस्से हो, तुम इतने क्रोध में हो, तुम उसी के हिस्से हो, तुम उससे बहुत भिन्न नहीं हो। तुम उससे रिबेलियस स्टाइल, विद्रोही ढंग के हो, लेकिन रिवोल्यूशन तुम्हारे मन में नहीं है, तुमने मूल्यों के बाबत सोचा नहीं है। वे मूल्य गलत नहीं हो गए हैं, सिर्फ तुम मूल्यों से परेशान हो गए हो।
परेशान हो जाना एक बात है, गलत हो जाना बिलकुल दूसरी बात है। जैसे कि मैं परेशान हो जाऊंगा, यदि समाज कहे कि एक लड़की से तुम नहीं मिल सकते। मैं परेशान हो जाऊंगा और यदि मैं सब नियमों को तोड़ कर उस लड़की से मिल लंू और उसको उठा कर ले जाऊं तो मैं कोई क्रांति नहीं कर रहा हंू, न समाज के ढांचे को तोड़ रहा हंू, मैं सिर्फ परेशानी जाहिर कर रहा हंू। सवाल यह नहीं कि मुझे एक लड़की मिल जाए कि न मिल जाए, सवाल यह है कि स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध में कायम का मूल्य बदले। मुझे कोई मिल जाए, इससे क्या फर्क पड़ने वाला है। पुराना मूल्य जारी रहेगा बिलकुल। जिस पर मन आए उसको उठा कर ले जाऊं तो पुराना मूल्य और मजबूत हो जाएगा कि देखो, यह गलत काम हो गया और इस आदमी की बात नहीं सुननी चाहिए। यह एक उलझी हुई बात है।
तो मेरी दृष्टि में नक्सलाइट का जो परपज है वह सिर्फ इतना है कि जो विचारशील लोग हैं वह समाज को कह दें कि अब अगर पुराने की कोशिश करोगे तो यह होगा, और यह तुमसे हो रहा है। हालांकि पुराना यह समझाने की कोशिश करेगा कि तुम्हारी नई बातों से हो रहा है यह उपद्रव। पुराना यह समझाने की कोशिश करेगा कि देखो, क्रांति का यह फल हो रहा है।
अभी मैं एक घर में ठहरा, जमशेदपुर में। उस घर के सदस्य कलकत्ता गए हुए थे, तो कलकत्ते की हालत गंभीर हो गई थी। एक गली में दो लोगों ने उन्हें पकड़ लिया। हाथ घड़ी उतार ली और कहा कि आप दूसरी ले लेना, दुकान पास में है। इधर दुकान दूर नहीं है, आप ले लेना। वे मुझसे बोले कि तो मैं क्या करता! यह तो हद्द अभद्रता है। स्त्रियों के कपड़े उतारने, गहने छीनने की बात हद्द अभद्रता है।
यह कोई क्रांति नहीं है। इससे कोई मूल्य नहीं बदलते। इससे कोई मतलब हल नहीं होता। बल्कि डर इस बात का है कि कहीं पुराने मूल्य और मजबूत न हो जाएं, क्योंकि नक्सलाइट्स जैसे पुराने आदमी को पुनः पुराने ढांचे में लगाएंगे तो यह तो निपट बेवकूफी और गंवारी होगी। इससे जीना मुश्किल हो जाएगा। तो यह हो सकता है कि नक्सलाइट जो है पुराने ढांचे के लिए बल सिद्ध हो, निर्बल न कर पाए, क्योंकि यह क्रांति नहीं है। इसलिए मेरी जो चिंतना है, मुझे ऐसा लगता है कि नक्सलाइट से उतना ही सावधान रहना है, जितना शंकराचार्य से।
दूसरी बात यह है कि क्रांति का मूल्य उभरे, उसकी हवा मजबूत हो, इसके लिए बीस वर्ष तक इमीजिएट प्राब्लेम, तात्कालिक समस्याओं को छूना नहीं चाहिए। हमारे लिए यह भी कठिन है। क्रांति इमिजिएट मामला नहीं है कि आज एक मजदूर को दो पैसा ज्यादा मिल जाए। यह क्रांति का मामला नहीं है, मसला नहीं है। मजदूर की उत्सुकता इसी में है। क्रांति का मामला यह नहीं है, क्रांति का मामला वेल्यूज का मामला लंबा है, गहरा है। बीस, पच्चीस, पचास साल लगेंगे, क्योंकि पांच हजार साल का झंझट है हमारे पास। मुल्क के विचारशील आदमी को तात्कालिक प्रश्नों की चिंता ही छोड़ देनी चाहिए। उसे तो मुल्क में निगेटिव माइंड पैदा करने की फिकर करनी चाहिए कि निगेट, निषेध करने वाला माइंड पैदा हो जाए, एंग्री माइंड नहीं, निगेटिव माइंड!
निगेटिव माइंड गुस्से में नहीं, अत्यंत शांति में है, अत्यंत शांति से सोच रहा है और देख रहा है कि यह मूल्य व्यर्थ हो गया है। इसकी व्यर्थता को समाज को दिखा देना है और इसकी जगह कैसे नया मूल्य आए, इसके बाबत चिंतना करनी है।
पुराने को तोड़ देना बहुत कठिन नहीं है। क्रोध में तोड़ा जा सकता है। लेकिन पुराना फिर बन जाएगा, क्योंकि क्रोध स्थायी नहीं होता, फिर थोड़ी देर में वापस लौट आता है। बल्कि कई बार आश्चर्य होता है कि मैंने आपको क्रोध में गाली दे दी तो घंटे भर बाद आपसे क्षमा मांगने आ जाऊंगा और न भी मांगना हो तो भीतर क्षमा मांग लेंगे, पश्चात्ताप तो करेंगे ही। गाली का ही दूसरा हिस्सा पश्चात्ताप है। अगर नक्सलाइट गाली का दूसरा हिस्सा है तो समाज बहुत बदलेगा नहीं।

प्रश्नः अब जो क्रांतिकारी है--सच्चा क्रांतिकारी--इसके बारे में पूछूंगा। क्या आपका विश्वास है कि क्रांतिकारी ‘पाथ आॅफ वर्चू’, नैतिकता के मार्ग का अनुगमन करे! क्या क्रांतिकारी को सदा सत्यवादी होना चाहिए? क्या उससे किसी भी गलत काम की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए? और क्या अगर ये बातें उसमें हैं तो वह समाज में क्रांति लाने में जल्दी सफल होगा?

अगर कोई चीज वर्चू, सदगुण है, रिवोल्यूशनरी माइंड, क्रांतिकारी चित्त, यह तय करेगा कि वर्चू क्या है और वर्चू क्या नहीं है। तो पहला सवाल यह नहीं है कि कौन सा वर्चू? वह पहले यह तय करेगा कि वर्चू क्या है और वर्चू क्या नहीं है। यह भी हो सकता है, जिसे हम अब तक नीति और वर्चू कहते थे वह वर्चू है ही नहीं। यह भी हो सकता है कि उसके पीछे बहुत अनीति और बहुत अवगुण छिपाने का सिर्फ उपाय चला आ रहा हो और वह सिर्फ नाम हो, धोखा हो। तो रिवोल्यूशनरी माइंड किसी तरह यह तय करना चाहेगा कि वरच्यू क्या है। और जो वर्चू है उसे तो फॅारगो, उपेक्षित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उसे फाॅरगो किया तो रिवोल्यूशन असंभव है।
तो बुनियाद में हमें यह सोचना है कि वर्चू क्या है। अगर स्ट्रक्चर, ढंाचा होना वर्चू है तो फाॅरगो नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसको फाॅरगो करके कोई क्रांति नहीं लाई जा सकती, क्योंकि फाॅरगो करके पूरी सोसायटी चल रही है। और क्रांतिकारी भी फाॅरगो करे तो इसी सोसायटी का हिस्सा बना रह जाएगा। अगर सत्य बदलना वर्चू है तो क्रांतिकारी को कहीं तो इनसिस्ट करना पड़ेगा, चाहे जहां जाए।
मेरा मानना है कि सफलता का मूल्य भी क्रांतिकारी का मूल्य नहीं, यानी असफल होने की तैयारी भी क्रांतिकारी के चित्त का हिस्सा है। असल में यह प्रतिक्रियावादी के चित्त का हिस्सा है कि हर हालत में सफल होना। यह कंफर्मिस्ट मांइड, मताग्रही चित्त का हिस्सा है। सक्सेस, सफलता, एण्ड--अंतिम लक्ष्य की तरह मालूम होती है कंफर्मिस्ट माइंड को और इसीलिए वह कंफर्म, निश्चित करता है, क्योंकि कंफर्म, निर्धारित होना ज्यादा आसान है। सोसायटी जो कहती है उसके साथ राजी होने से मैं जल्दी सक्सेसफुल, सफल हो सकता हंू। रिवोल्यूशनरी हारने के लिए तैयार है। यह तैयारी भी रिवोल्यूशनरी माइंड का हिस्सा है। पूरी तरह हार जाने को तैयार है, लेकिन नाॅन-रिवोल्यूशनरी होने को तैयार नहीं।
जिस सोसायटी में हम जी रहे हैं, इसमें रिवोल्यूशन असफल हो सकती है, होती रही है और होगी। कोई जल्दी नहीं है कि सफल हो ही जाए आज। हो सकती है सफल, यानी सफल होने की उसकी आकंाक्षा नहीं होनी चाहिए और इसके पहले तो तय करना चाहिए कि वर्चू क्या है और यह सारी चीजें तय करनी होंगी, यानी मूल्य का उसे रि-कंसीडरेशन, पुनर्विचार करना कि--क्या है नीति, क्या है वर्चू!
जैसे समझ लीजिए कि कल तक यह वरच्यू मानते थे कि एक आदमी ने जिस पत्नी से शादी की है उसके साथ सोना पाप नहीं है। किसी और औरत के साथ जिससे उसकी शादी नहीं हुई है, उसके साथ सोना पाप है। हो सकता है, वैल्यू यह कहे कि जिस स्त्री से प्रेम नहीं है उसके साथ सोना पाप है, चाहे वह पत्नी हो या न हो, यह सवाल नहीं है। जिसके साथ प्रेम है, वह चाहे पत्नी हो या न हो, उसके साथ सोने में कोई पाप नहीं है। वह कहेगा कि जिस औरत से मेरा कोई प्रेम नहीं रह गया है, उससे शादी निर्मूल्य हो गई। बात खत्म हो गई, क्योंकि प्रेम ही शादी का अर्थ है! बात खत्म हो गई और अगर मैं उसके साथ सोए चला जाता हंू तो मैं पापी हंू, क्रिमिनल हंू, क्योंकि जिससे मेरा प्रेम नहीं है, उससे मेरा क्या संबंध है! फिर उससे मेरा संबंध वैश्या का संबंध हो गया, वह मेरी पत्नी नहीं है। क्रांतिकारी यह कह सकता है।
एक लड़की ने अमरीका में एक बड़े न्यायालय को लिखा है कि मैं मां बनना चाहती हंू, लेकिन पत्नी बनने को तैयार नहीं हंू। पत्नी बनना मुझे अपमानजनक मालूम पड़ता है और मां बनना मुझे गौरवपूर्ण मालूम पड़ता है। ऐसा लगता है, जब तक मां नहीं बनती हंू तब तक अतृप्ति रह जाएगी। फिर सोसायटी मुझे क्यों मजबूर करती है। मां बनने के लिए मुझे पत्नी बनना पड़ेगा, यह जबरदस्ती मुझ पर क्यों थोपी जाए। पत्नी बनना मुझे अपमानजनक मालूम पड़ता है और मां बने बिना मैं कभी पूर्ण संतृप्ति नहीं अनुभव कर सकती हंू। और आप केवल यह विकल्प देते हैं कि पत्नी बने बिना मैं मां नहीं बन सकती या बनी तो मेरा बच्चा अपमानित होगा। तो मैं यह पूछना चाहती हंू कि समाज का क्या हक है, इस तरह की अनीति थोपने का!
क्रांतिकारी चित्त का मतलब यह होगा कि वह वरच्यू के बाबत रि-कंसीडरेशन, पुनर्विचार करेगा, लेकिन यह उसे वरच्यू मालूम होगी। जैसे मैं एक लड़की को कहंूगा कि तू मां बन और तू पत्नी मत बनना और इसके लिए तू लड़ना और तब मैं कहूंगा कि तेरी जिंदगी में एक वरच्यू है। तू क्यों झुके? और अपने लड़के को इस बात के लिए तैयार करना कि वह इनकार करे कि मेरा कोई पिता है या मुझे पता नहीं कि कौन मेरा पिता है और पिता का नाम बताने की कोई जरूरत नहीं है और इसमें कोई पाप नहीं है। मेरी मां काफी है। उसको ऐसा तैयार करना। और मैं मानूंगा कि यह लड़का पापी नहीं है, न यह नाजायज है, न यह बुरा है, सिर्फ सोसायटी की धारणा गलत है।
तो वर्चू क्या है? अगर सोसायटी बदलनी है तो पहले वरच्यू की धारणा बदलनी पड़ेगी। इसीलिए मैं हवा पैदा करना चाह रहा हंू और वह हवा पैदा हो जाएगी, लेकिन जो वर्चू मालूम पड़े उस पर तो क्रांतिकारी को खड़ा होना ही पड़ेगा। असफल हुआ तो कोई फिकर नहीं। असफलता का क्या ड़र है? असफलता का डर ही कनफर्मिस्ट, रूढ़िवादी बनाता है। यानी मुझे लगे कि एक स्त्री के साथ बिना शादी किए रहंू तो समाज में असफल हो जाऊंगा तो शादी कर लेनी चाहिए, शादी का ढ़ोंग पूरा कर देना चाहिए। लेकिन तब मैं सफलता के लिए उत्सुक हंू और ठीक से क हा जाए तो तब मैं सदगुणी, ‘मैन आॅफ वर्चू’ नहीं हंू। और अगर यह लगता है कि मित्रता पर्याप्त है और एक स्त्री मेरे साथ रह सकती है और शादी को जोड़ना अनिवार्य नहीं है,ताकि कल सुबह यदि हमें लगे कि अलग हो जाना उचित है तो नमस्कार कर सकूं और कोई कहने वाला न हो कि नहीं, तुम्हारे ऊपर मुकादमा चलेगा। हम स्वतंत्र हों और हम एक क्षण में अलग हो सकें। अब शक यह है कि जिससे हम एक क्षण में अलग हो सकते हैं, उसके साथ ही सिर्फ रहने का आनंद है और जिससे हम अलग हो ही नहीं सकते, उनके साथ रहने का आनंद खत्म हो गया है। तो वर्चू की पूरी धारणा बदलनी पड़ेगी। और जो वर्चू मालूम पड़े, क्रांतिकारी उस पर जिद्द करेगा, नहीं तो वह क्रांतिकारी नहीं है।

प्रश्नः क्रांतिकारी का उसके दुश्मन के साथ क्या संबंध होना चाहिए? उसका बिलकुल सफाया कर देना चाहिए या उसे सुधारना चाहिए? क्या दृष्टि होनी चाहिए?

असल में उसे मिटा देने का खयाल भी क्रांतिकारी नहीं है। कनफर्मिस्ट भी तो यही सोचता है न कि क्रांति की जो बात करे, मिटा दो उसे और अगर क्रांतिकारी भी ऐसा ही सोचता है तो मैं मानता हंू कि वह भी कनफर्मिस्ट है। क्रांतिकारी नहीं कर सकता है मिटाने की बात, क्योंकि क्रांतिकारी यह भी तो मानता है कि एक-एक व्यक्ति को अपने सोचने, अपने रहने, अपने जीने का हक है कि मैं अपनी बात कहंू, समझाऊं।
मिटाने का हक तो क्रांतिकारी को नहीं हो सकता। इसलिए मैं लेनिन या स्टैलिन या माओ को बहुत क्रांतिकारी नहीं मानता। इनका बेसिक जो माइंड है वह वही है--कनफर्मिस्ट वाला। कनफर्मिस्ट कहता था, जेल में डाल दो इस आदमी को, जान ले लो इसकी, इसकी जड़ें काट दो, इसको बचने मत दो। वही हम कर रहे हैं उसके साथ। इस मामले में तो कम से कम हम क्रांतिकारी बिलकुल नही हैं। हमने उसी के रास्ते अख्तियार किए हैं। ठीक क्रांतिकारी इस भाषा में नहीं सोच सकता है, क्योंकि क्रांतिकारी पहले तो व्यक्ति के मूल्य को परम मानता है, अल्टीमेट मानता है और इसीलिए तो वह सोसाइटी के खिलाफ खड़ा है, नहीं तो खड़ा रहने का मतलब क्या है! अगर व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है तो मेरी अकेले की बात क्या मतलब रह जाएगा! जब चालीस करोड़ लोग कहते हैं कि यही बात ठीक है तो ठीक है। बात खत्म हो गई। मुझे अपनी जिद छोड़ देनी चाहिए। मैं अकेला चिल्लाऊं कि यह गलत है तो मैं यह मान कर चल रहा हूं कि प्रत्येक आदमी को यह हक है कि वह अपनी बात कह सके। आप अपनी आवाज उठाएं और यदि कल मैं आपकी गर्दन काट दूं, अगर मेरे हाथ में ताकत आए, तो मैंने क्रांति की हत्या कर दी है। इसीलिए अक्सर कमजोर क्रांतिकारी सत्ता में आते ही गैर क्रांतिकारी हो जाते हैं। क्योंकि उनका आंतरिक चित्त, बेसिक माइंड क्रांतिकारी नहीं है, इसलिए मैं मानता हूं कि स्टैलिन क्रांतिकारी आदमी नहीं है। उसके पास दिमाग जो है वह रूढ़िवादी है, वह क्रांति के चक्कर में आ गया है। लेकिन जैसे ही हुकूमत में आया, वह जार बन गया। फिर उसने वही किया जो जार ने उसके साथ किया। उससे भी ज्यादा शक्ति से वही इसने भी किया।
ठीक क्रांतिकारी का तो मतलब यही है कि वह व्यक्ति के परम मूल्य को स्वीकार करता है इसलिए आपको दबाना, आपको धमकाना, आपको मारना गैर-क्रांतिकारी कृत्य होगा। मैं तो यहां तक मानता हूं कि गांधीजी की वृत्ति भी क्रांतिकारी नहीं है। क्योंकि वे धमकियां देते हैं, सत्याग्रह के नाम पर। आपके सामने मैं उपवास करके बैठ जाऊं, तो मैं धमकी दे रहा हूं कि मैं मर जाऊंगा। अंबेदकर ने कहा कि मेरा हृदय बिलकुल परिवर्तन नहीं हुआ। गांधी सोचते हैं कि हृदय परिवर्तन हुआ है, तो गलत सोचते हैं। मेरा हृदय परिवर्तन हुआ, सिर्फ यह सोच कर कि एक अच्छा आदमी मर जाएगा इसलिए मैं हट जाऊं। इसलिए मैं मानता हूं कि अंबेदकर ज्यादा अहिंसक हैं--हट जाने में, गांधी ज्यादा हिंसक हैं--उपवास करने में। अंबेदकर भी जिद्द कर सकता है कि मरें अपने आप, हम तो जिम्मेवार नहीं हैं। तुम अपनी जिद्द करते हो तो मर जाओ। अंबेदकर हट गया बिन ह्रदय परिवर्तन के और बिना राजी हुए। और मेरी
दृष्टि में अंबेदकर ज्यादा क्रांतिकारी सिद्ध हुआ उस घटना में, बजाय गांधी के। अंबेदकर व्यक्ति के जीवन को ज्यादा मूल्य दे रहा है, अपने विचारों से भी। और हट रहा है, बिना राजी हुए। और मेरी दृष्टि मों ज्यादा क्रांतिकारी की दृष्टी दे रहा है यह आदमी। और कनफर्मिस्ट माइंड का होता तो वह कहता, मरो, तुम गलत हो तो अपने आप मर रहे हो। मैं जो कहता हूं, ठीक है।

प्रश्नः क्रांतिकारी को सत्ता में कब और कैसे जाना चाहिए?

अब तक क्या हुआ है कि जिसको मैं हवा कह रहा हूं वह पूरी नहीं बन पाई और क्रांतिकारी को सत्ता मिल गई। अभी तक क्रांति माइनारिटी, अल्प संख्या का ही खयाल था और मैजारिटी, बहु-संख्या कभी उस पर राजी नहीं हुई है। इसलिए तो माइनारिटी को जब सत्ता मिली तो उसको कष्ट सहना पड़ा गालियां सहनी पड़ीं। मेरा मानना है कि जब तक माइनारिटी मैजारिटी की हालत में न हो, तब तक गाली मिलेगी ही। इसलिए मेरा मानना है क्रांतिकारी को थोड़ी प्रतीक्षा करनी चाहिए। हवा पैदा हो, लोक मानस तैयार हो जाए तब क्रांतिकारी को सत्ता मिले। तो जिस बड़ी मात्रा में लोक मानस तैयार होगा उसी बड़ी मात्रा में हिंसा मुश्किल हो जाएगी। फिर भी मैं यह कहता हूं कि जो मैं कह रहा हूं वह परम आइडियल, आदर्श की बात है। थोड़ी हिंसा मैजारिटी के साथ भी शायद रह जाए। ध्यान में यही होना चाहिए कि किसी भी क्रांतिकारी को सत्ता से तभी संबंधित होने को राजी होना चाहिए, जब मैजारिटी उसके साथ हो, नहीं तो नहीं। नहीं तो वृहत हिंसा होगी और हिंसा के करने में वह क्रांतिकारी कनफर्मिस्ट हो जाने वाला है। एक सर्किल पैदा हो गई है। मेरी दृष्टि यह है कि मूल रूप से क्रांतिकारी, गहरे से गहरा क्रांतिकारी तभी राजी होगा सत्ता में जाने को, जब बहुमत उसकी बात के लिए राजी हो गया हो, उसने उसको परसुएड किया हो।
मेरा मानना है कि जल्दी की आदत भी गैर-क्रांतिकारी है, अधैर्य है। लेकिन सभी क्रांतिकारी हमें दिखाई पड़ते हैं कि बहुत अधैर्य में हैं। यह ऐसा हो गया है कि क्रांतिकारी को हम सोचते हैं कि इसमें अधैर्य होना चाहिए। मेरा मानना यह है कि अधैर्य जो है वह इस बात की खबर है कि मैं जो मान रहा हूं, सोच रहा हूं उस पर मुझे पक्का विश्वास नहीं है। मुझे भी डर है और तब इसका मतलब है कि क्रांतिकारी पूरा क्रांतिकारी चित्त का नहीं है बहुत गहरे में। ऊपर इसके थोड़ी बहुत क्रांति की बात आई होगी, विचार आया होगा। लेकिन वह भी कनफर्मिस्ट है और उसके हाथ में सत्ता जाना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि सत्ता आते ही क्रांति का हिस्सा विदा हो जाएगा। कनफर्मिस्ट पैदा हो जाएगा। क्योंकि फिर यह जो सोसायटी बना रहा है, उससे भिन्न वह बरदाश्त नहीं करेगा। इसलिए क्रांतिकारी सत्ता में जाते ही गैर-क्रांतिकारी हो जाते हैं।
मेरी दृष्टि में ट्राटस्की ज्यादा क्रांतिकारी है, स्टैलिन से और ज्यादा बेसिक क्रांतिकारी है। स्टैलिन सत्ता में गया, तो ट्राटस्की की हत्या करना जरूरी हो गया। रूस में सबसे पहला काम उसने क्रांतिकारियों की हत्या करने का किया। क्योंकि वह सबसे ज्यादा खतरनाक एलिमेंट, तत्व था, क्योंकि जब वह क्रांतिकारी चित्त था तो स्टैलिन से भी राजी नहीं होगा, यदि वह गलत है तो इनकार करेगा। वही माओ कर रहा है कि जितना क्रांतिकारी माइंड है, उसको पहले खत्म कर दो। तो मैं जानता हूं कि ये ठीक क्रांतिकारी लोग नहीं है।
मेरा मानना है कि सत्ता भी बहुमत को परसुएड, राजी करने से बहुत उपाय कर सकती है। सारी एजुकेशन सत्ता के हाथ में है। हम अधैर्य की वजह से दिक्कत में पड़ जाते हैं। नहीं तो हम सारी शिक्षा को बदलने की फिकर करेंगे। बीस साल देर लगेगी, बीस साल बाद जब नई पीढ़ी आएगी, हम उसे परसुएड करने की पूरी कोशिश करेंगे। रेडियो हाथ में है, अखबार हाथ में है, साहित्य हाथ में है, हम सब तरह से परसुएड करेंगे। तलवार ही हाथ में नहीं है और बहुत कुछ हाथ में है। लेकिन जल्दी है, जल्दी तलवार से हो जाती है, लेकिन क्रांति भी मर जाती है। हम परसुएड करें, मुल्क को सोचने और चिंतन का मौका दें।
मेरा मानना है कि क्रांतिकारी हुकूमत में आए तो पूरे मुल्क के चित्त को क्रांतिकारी बनाने का प्रयास उसे करना चाहिए, बजाय इसके कि क्रांति लाने की जल्दी करे। बजाय इसके कि वह समाज की व्यवस्था बदलने की कोशिश करे, उसे फिकर करनी चाहिए कि समाज का मन बदले। मन बदल जाए तो व्यवस्था अहिंसा, नाॅन-वायलेंस में बदल जाए, उसमें कोई बहुत झंझट नहीं है। मन तो बदलता नहीं और व्यवस्था तोड़नी शुरू कर देते हैं, तो वायलेंस, हिंसा शुरू हो जाती है।
समझ लें कि अगर एक क्रांतिकारी हुकूमत में आता है, तो उसके सामने दो विकल्प हैं--एक विकल्प तो यह है कि वह ढांचे को तोड़ दे अभी, ढांचा तोड़ेगा तो हिंसा होनेवाली है और ढांचा तोड़ने में और हिंसा करने में जो सबसे बड़ा नुकसान होनेवाला है वह यह रहेगा कि आदमी क्रांतिकारी न रह जाएगा।
बीस साल की हिंसा और ढांचे की तोड़-फोड़ में और नये ढांचे केे खिलाफ कठिनाइयां न हों इसकी चेष्टा में वह कनफर्मिस्ट हो जाने वाला है। माइंड कोई ऐसी एंटायटी, चीज नहीं है कि क्रांतिकारी कंफर्मिस्ट न हो सके। माइंड बहुत लिक्विडिटी, तरलता है और हम जो करते हैं, वह हो जाते हैं। तो माइंड क्या करेगा? और मुझे अगर ऐसा लग गया कि माइंड ठीक है तो क्रांति खत्म हो गई। क्रांतिकारी का हिस्सा है कि वह जानता है कि मैं गलत भी हो सकता हूं, मेरे गलत होने की संभावना जारी है, इसलिए तलवार उठाना गलत है, क्योंकि इस आदमी को मार डालंू और वह आदमी ठीक हो सकता है। तो क्रांतिकारी के हाथ में सत्ता आई तो मेरी दृष्टि में जो काम उसे करने का है वह माइंड बदलने का है, ढांचा बदलने का नहीं, क्योंकि माइंड पुराना था तो ढांचा पुराना था, माइंड नया हो तो ढांचा नया हो सकेगा, उसमें अड़चन नहीं है।
तो माइंड बदलने की कोशिश करें, ढांचे को गिराने की जल्दी न करें या जिस मामले में बहुमत राजी हो ढांचा बदलने में, तो ठीक है और जिस मामले मंे बहुमत राजी न हो, उस मामले में माइंड को बदलने की फिकर करें। प्रक्रिया लंबी होनी है और क्रांति लंबी ही हो सकती है। अब तक हमारा यही खयाल रहा कि क्रांति दो-चार साल में हो जाए। यह बेवकूफी की बात है। क्रांति जैसी चीज! और कोई मुल्क अगर सौ साल तक क्रांतिकारी होने की हिम्मत न जुटा सकता हो तो, उसे क्रांति की झंझट में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि यह जल्दबाजी में सब दावा कर लेगा। यह जल्दबाजी का मामला नहीं है क्रांति। हमें शिक्षा बदलनी चाहिए, शिक्षा में नये तत्व डालने चाहिए, मुल्क में नये ढांचे की हवा पैदा करनी चाहिए। निगेटिव माइंड कैसे पैदा हो, इसकी फिकर करनी चाहिए। तीव्र और गहन चिंतन पैदा करनी चाहिए मुल्क में और उसमें सत्ताधिकारी को स्वयं से भी प्रश्न करने चाहिए तो मुल्क में जो माइंड बदलने से निगेटिव माइंड पैदा होगा, वह ढांचा तोड़ देगा और तब कोई वायलेंस, हिंसा न होगी, लेकिन अगर हमने फिकर की कि अभी ढांचा बदल देना है तो वाइलेंस शुरू होगा, क्योंकि हमसे कोई पूरी तरह राजी नहीं है।
सच बात तो यह है कि दो आदमी कभी पूरी तरह एक दूसरे से राजी नहीं होते हैं, होना भी नहीं चाहिए, कोई कारण भी नहीं है होने का। हम जब पूरे निकट होते हैं तब भी राजी नहीं होते, लेकिन क्रांतिकारी और कनफर्मिस्ट में यही फर्क है कि कनफर्मिस्ट कहेगा, राजी हो? और नहीं होते हो तो बस खत्म करते हैं। क्रांतिकारी कहेगा कि तुम इस समय राजी नहीं हो तो हम दोनों भिन्न हैं और जहां तक हम राजी हैं, वहां तक हम साथ खड़े हैं। जहां हम भिन्न हैं एक दूसरे से, वहां समझने की कोशिश करें। हो सकता है तुम ठीक हो और हो सकता है मंै ठीक हूं, हम करीब आने की कोशिश करें।
तो मेरा मानना है कि मुल्क में चिंतन की, मनन की, विचार की हवा बननी चाहिए। पुराने ढांचे ने हवा पैदा नहीं होने दी तो यह स्वाभाविक है, क्योंकि उसके लिए तो यह खतरनाक है। लेकिन क्रांतिकारी को इससे खतरा नहीं होना चाहिए, क्योंकि क्रांतिकारी को खतरे का क्या सवाल है। क्रांतिकारी कह यही रहा है कि हम सब खतरे लेने को तैयार हैं, लेकिन जो सही है वह आए तो एक वैल्यू, मूल्य प्रस्तुत होगी। अभी जो भी क्रांतियां हुई हैं वे सब मात्र रूपांतरण हैं, इसलिए खुद ही हम आत्मघात कर लेते हैं। आत्मघात इस अर्थ में कि वह जो क्रांति करता है, सत्ता में पहुंच कर वह वही करता है जो उसका दुश्मन कर रहा था। और तब इस करने की प्रक्रिया में वह वहीं पहुंच जाता है जहां उसका दुश्मन पहुंच जाता है। और जो क्रांतिकारी था उसके साथी वहीं पहुंच जाते हैं जहां वह क्रांति के पहले खड़ा हुआ था। ट्राटस्की ने लिखा है कि क्रांति हो जाने के बाद रूस में यह अनुभव हुआ कि हमें क्रांतिकारियों से भी लड़ना पड़ेगा। जब सत्ता आई हाथ में तो काम ठप्प हो गया, मामला बदल गया।
मैं बहुत दिनों तक शिक्षक था तो मेरा अनुभव था कि कि कक्षा में सबसे ज्यादा रिबेलियस, विद्रोही लड़का है, उसे कैप्टन बना दो तो मामला खत्म हो गया, सब रिबेलियन गया और वह कनफर्मिस्ट हो गया, क्योंकि वह दूसरे को ठीक करने में लग जाता है। अब तो उसकी प्रतीक्षा इसमें है कि व्यवस्था कैसे बना ले। सारे शिक्षक यह प्रयोग करते हैं कि जो सबसे बदमाश लड़का है, उसे कैप्टन बना दो तो मामला खत्म हो जाए। इतना सा पद और मामला खत्म हो गया।
यह जो क्रांतिकारी है, यह क्रांतिकारी है सिचुएशन, परिस्थिति से और ऐसे बहुत कम लोग हैं जो सिर्फ रिवोल्यूशनरी हैं। परिस्थिति विशेष में रिबेलियस, विद्रोही होना साधारण बात है। जैसे कि मैं मजदूर हूं तो मैं कम्युनिस्ट हूं। कल मैं मालिक हो जाऊं तो कैपिटलिस्ट हो जाऊंगा। यह परिस्थिति--वह, सिचुएशन की रिवोल्यूशन है। रिवोल्यूशनरी माइंड नहीं था वह। मजदूर कहता है कि हमें पूंजीपति बरदाश्त नहीं है, तो हम सारे पूंजीपतियों को मिटा देंगे, लेकिन हम मजदूर नहीं रह सकते। अब ये सभी पूंजीपति हो गए, बात खत्म हो गई। सिचुएशन से जो रिवोल्यूशनरी है, वह कनफर्मिस्ट सिद्ध होगा हुकूमत में पहुंचते ही। क्रांतिकारी माइंड का मतलब यह है कि मर जाना, लेकिन गलत को स्वीकृत नहीं करना।

प्रश्नः आपने जैसा अभी बताया कि बिना प्रेम के विवाह अच्छा नहीं है, यदि ऐसा होगा तो डाइवोर्स, तलाक का जो मार्ग है, जो प्रोसीजर, विधि है वह बहुत सरल बनाना चाहिए। लेकिन डाइवोर्स के नियम को यदि सरल बना दिया तो समाज में स्थिरता कैसे रहेगी?

स्थिरता मूल्यवान नहीं है। स्थिरता की दृष्टि ही मूल्यवान नहीं है और स्थिरता की वैल्यू ही झूठी है। जीवन स्थिर है ही नहीं, जीवन गतिमान है इसलिए तो हमने जगह-जगह हिच, अवरोध पैदा कर दी है और मेरा मानना यह है कि स्थिरता का मूल्य भी ओल्ड माइंड का हिस्सा था। क्रांतिकारी का मूल्य जीने का है, और जीने में एक गति है। गति रहते हुए अगर जीवन की व्यवस्था चलती हो तो स्वीकार्य है, गति को रोक कर जीवन की व्यवस्था चलती हो तो अस्वीकार्य है। मेरा तो कहना यह है कि डाइवोर्स के लिए एक पार्टी खबर कर दे रजिस्ट्रार को। दो का क्या सवाल है! पत्नी ने या पति ने खबर कर दी कि हमारा मामला खत्म हो गया है, इसको खत्म कर दिया जाए, बात खत्म हो गई। दूसरे से पूछने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि अलग होने के लिए दूसरे से पूछने का क्या सवाल है।
डाइवोर्स इतना सरल होना चाहिए। विवाह की व्यवस्था कठिन होनी चाहिए और डाइवोर्स की सरल। डाइवोर्स की व्यवस्था इतनी नामिनल, नाममात्र की हो कि जिसका कोई सवाल नहीं है। जैसे सुबह मन में हुआ तो हम जाकर खबर कर दें और तार दे दें और मामला खत्म हो जाए। विवाह की व्यवस्था कठिन होनी चाहिए। आज एक आदमी दरख्वास्त दे तो उसे एक साल का एक्सपेरिमेंटल मैरिज, प्रायोगिक विवाह का लाइसेंस मिलना चाहिए सिर्फ।एक साल साथ रह लें, सोच लें समझ लें। साल भर बाद वे दुबारा आ जाएं दोनों और कहते हों कि हम आगे रहने के लिए विचार करते हैं तो शादी होनी चाहिए।
शादी में उतनी बाधा डालनी चाहिए जितनी हम अभी डाइवोर्स मे डालते हैं, क्योंकि हम तीन साल की बाधा डाल देते हैं डाइवोर्स में और लंबी झंझट में डाल देते हैं। यह सब झंझट शादी में डालनी चाहिए, क्योंकि दो आदमी अगर साथ होने को राजी हो रहे हैं तो हमें, सोसाइटी को पूरी तरह फिकर कर लेनी चाहिए कि क्या वे साथ रह सकेंगे? इसकी पूरी फिकर करनी चाहिए। मजा यह है कि शादी के बाद हम उसकी फिकर करते हैं, लेकिन तब वह बेमानी है। लेकिन एक साल एक्सपेरीमेंटल मैरिज की व्यवस्था करनी चाहिए। इसमें वे पति-पत्नी नहीं हैं, मित्र की तरह साथ-साथ रहेंगे, समझेंगे एक दूसरे को। अब तो कृत्रिम साधनों का इतना उपाय है कि बच्चे पैदा होने का कोई सवाल नहीं है, अब बहुत सुविधा है।
एक्सपेरिमेंटल मैरिज में साल भर के बाद अगर वे आकर अपना अनुभव कहेंगे और भ्रम टूटना हो तो साल भर काफी लंबा वक्त है, दो महीने में टूट जाता है। साल भर बाद अगर वे आकर कहते हैं कि हम दोनों साथ रहने को स्वीकार करते हैं पूरी तरह, तो सारी इंक्वायरी और क्वेश्चनिंग, जांच और पूछताछ होनी चाहिए। उनकी सारी जांच-पड़ताल कर ली जाए, उनके ही कहने कोे न मान लिया जाए, साइकोलाजिस्ट, मनोवैज्ञानिक से भी सलाह ली जाए कि ये ये क्वेश्चन किए गए और ये ये जवाब मिले हैं, क्या ये साथ रह सकेंगे? और उनको बता दिया जाए कि साइकोलाजिस्ट कहता है कि तुम दो साल से ज्यादा साथ नहीं रह सकोगे, तो तुम और सोच लो। तुम साइकोलाजिस्ट से मिल लो, बात कर लो, समझ लो! तुम तो कहते हो साथ रह सकेंगे, तुम्हारा कहना काफी नहीं है, तुम्हारे पूरे माइंड को जो समझ सकता है, उससे बात कर लो और साइकोलाजिस्ट से तुम समझ कर करते हो तो ठीक है, तुम शादी कर लो।
मैरिज में हमें रुकावट डालनी चाहिए और डाइवोर्स एकदम सरल होना चाहिए, क्योंकि मैरिज खतरनाक है, एक क्षण के निर्णय से मैरिज बहुत खतरनाक है, जीवन भर का स्पष्ट निर्णय चाहिए। और असफल विवाह उसमें होने वाले बच्चों के लिए बहुत हानिप्रद है। लेकिन मैं कहता हूं कि अभी नहीं है इसमें आपका इंट्रेस्ट, रुचि बिलकुल या आपकी सोसाइटी का इंट्रेस्ट हो तो ऐसी बेवकूफियां नहीं चलें। मैं मानता हूं कि इंट्रेस्ट होना चाहिए, क्योंकि अंततः बच्चा सोसाइटी का हिस्सा होने वाला है--आपका ही नहीं--सिर्फ एक स्त्री और एक पुरुष का ही निर्णय नहीं है बच्चा। बच्चा पूरी सोसाइटी का सवाल है। पूरी सोसाइटी को सोचना चाहिए, लेकिन सोसायटी ने कभी कुछ नहीं सोचा है। सिर्फ इतना ही सोच लिया है कि बच्चे का खाना-पीना, कपड़े की व्यवस्था पूरी तरह हो जाए तो मामला खत्म हो जाए।
ये दो पति-पत्नी जिंदगी भर लड़ते रहें और यह बच्चा, उनके बीच बड़ा होता रहे तो झगड़े करने से क्या परिणाम होने वाला है। इसके माइंड पर, क्या होने वाला है इसका फल! जिसने प्रेम कभी न जाना हो अपने मां बाप से, उसका फल क्या होने वाला है। यह पूरी स्किजोफ्रेनिक हो जाने वाला है, इसका मस्तिष्क रुग्ण हो जाने वाला है और ये शादी के पहले पूरी तरह भयभीत हो जाने वाला है और जानता है कि क्या होने वाला है शादी के बाद। उसकी पूरी तरह अनकांशस, अचेतन तैयारी है। और वह शादी में वही सब खोज लेगा जो उसने अपने मां बाप में देखा था और यह सब रिपीटेड सर्किल, दुष्चक्र शुरू हो जाएगा।
सोसाइटी अगर सच में बच्चों में उत्सुक है, तो बहुत दूसरा ढंग सोचना पड़ेगा। सच तो यह है कि अगर सोसायटी पूरी तरह से उत्सुक है तो आज नहीं कल बच्चा मां-बाप की प्रापर्टी नहीं समझी जानी चाहिए। वह सोसाइटी की प्रापर्टी है। आज नहीं कल बच्चों के पालने का जिम्मा सोसाइटी का होना चाहिए, मां-बाप का नहीं। उनके पैदा करने का लाइसेंस भी सोसाइटी का होना चाहिए, मां-बाप की इच्छा नहीं। हर मां-बाप को बच्चा पैदा करने का हक भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि बीमार हैं, पागल हैं और बच्चे पैदा किए जाएं, यह निपट गंवारी और बेवकूफी की बात है। वे खुद तो खराब थे ही, खराब सिलसिला जारी कर रहे हैं। तो सोसाइटी जब तक तय न करेगी कि कौन औरत बच्चा पैदा करेगी, किस आदमी के साथ, इनके बिना बच्चा पैदा नहीं किया जा सकता।
आज यह संभावना हो गई है कि हम सेक्स को और बच्चे पैदा करने को डिसकनेक्ट, अलग कर सकते हैं। यह पहले मुश्किल था। अगर मेरी पत्नी हो और मैं इस योग्य नहीं हूं कि उससे बच्चा पैदा हो, तो मैं किसी का वीर्य उधार मंगा सकता हूं, बात खत्म हो गई। मेरा उससे सेक्स का संबंध हो सकता है, उसमें कोई बाधा नहीं है। और उचित होगा कि मेरा बच्चा स्वस्थ से स्वस्थ हो और जब मैं उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा देता हंू तो उसे अच्छे से अच्छा बेसिक बीज, नस्ल क्यों न दूं। उसे अच्छे से अच्छा बीज मिले, सुंदर से सुंदर, स्वस्थ आदमी का वीर्य उसे मिल जाए--यह मैं क्यों न करूं। यह बेवकूफी की बात है कि वह वीर्य मेरा ही हो। इसमें कुछ सेंस, अर्थ नहीं है, यह बिलकुल नाॅनसेंस, अर्थहीन है।
सोसाइटी अगर पूरी तरह फिकर करे--और आज कर सकती है, आज तक कर भी नहीं सकती थी--तो सभी मां बाप को बच्चे पैदा करने का हक नहीं होना चाहिए, उन पर रोक होनी चाहिए कि कौन बच्चा पैदा करेगा, कौन नहीं। हो सकता है, एक युगल, पति-पत्नी में एक ही बच्चा पैदा करने का हकदार हो सकता है, तो उसका हमें बच्चा पैदा करने में उपयोग करना चाहिए। दूसरे व्यक्ति के फिजिकल प्रेजेंस, सशरीर उपस्थिति की जरूरत नहीं है, इसलिए बात खत्म हो गई है। पत्नी का उपयोग हो, तो उसका करना चाहिए।
एक कल्चरल ब्रीडिंग और साइंटिफिक ब्रीडिंग शुरू हो, तो वहां से सोसाइटी का काम शुरू होता है। फिर ये बच्चे कहां पाले जाएं, कैसे पाले जाएं, कैसे वातावरण में पाले जाएं, कैसे साइकिक एटमास्फियर में पाले जाएं, उसकी भी हमें चिंता करनी चाहिए। उनका मां बाप से कितना कांटेक्ट, संपर्क हितकर है, और कितना उन्हें दूर रखना है वह भी समझने की जरूरत है। मेरा मानना है कि बच्चों का चैबीस घंटे मां बाप के पास रहना बहुत अहितकर है। थोड़ी देर के लिए, सात दिन, आठ दिन में, पंद्रह दिन में मां-बाप से मिलना हितकर है। क्योंकि तब उनकी प्रेम-मूर्ति ही प्रकट होती है और बच्चे के मन में एक प्रेम की धारणा बनती है और तब जिनसे वह प्रेम करना सीखता है उनके संबंध में वह उलटी धारणा नहीं बनाता है।
एक मां के पास बच्चा पलता है। मां लड़ती भी है, मां गाली भी देती है। पति उसको प्रेम भी करता है, घृणा भी करता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इस तरह बच्चे का माइंड पहले से स्किजोफ्रेनिक हो रहा है। वह एक ही व्यक्ति को प्रेम भी कर रहा है और घृणा भी कर रहा है। उसका माइंड, मन टूट रहा है और वह जिसको भी कभी प्रेम करेगा, उसको पीछे से घृणा भी करता रहेगा और यह उसके माइंड का हिस्सा हो जाएगा। वह अपनी पत्नी को प्रेम भी करेगा और घृणा भी करेगा। वह कभी सोचेगा कि जान ले लूं और कभी सोचेगा कि अरे, इसके बिना तो मैं जी भी नहीं सकता और ये दोनों एक साथ चलेंगे और इसका कुल कारण है बच्चे का मां के पास निरंतर पलना।
और भी मजे की बात है कि एक ही मां के पास बच्चा बड़ा होता है। उसकी जो फिक्स्ड इमेज, स्थाई छाप स्त्री की बन जाती है उसके भीतर तब वह ऐसी ही पत्नी मांगता है। अनजाने, अनकांशस में उसकी आकांक्षा रहेगी कि उसको ऐसी ही पत्नी मिल सके। और यह तो मिलने वाला नहीं है। यह पत्नी हो नहीं सकती। इसका भी कोई उपाय नहीं है कि मेरी मां मेरी पत्नी हो जाए और यह हो नहीं सकता कि मां जैसा दूसरा व्यक्ति उसको मिल जाए। तो जिंदगी भर उसका जो इमेज है माइंड का वह एक है, पत्नी दूसरी है। इन दोनों में द्वंद्व, कान्फ्लिक्ट है और वह हमेशा परेशानी का कारण है। लड़की को अपने बाप का इमेज, छाप है, वह अपने बाप जैसा पति चाहती है, वह मिलने वाला नहीं है।
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि मां-बाप से बहुत थोड़ा कांटेक्ट, संपर्क चाहिए, वह सुखद है। थोड़ी देर मिल लिए, दिल खिल गया। लेकिन बच्चे के पालने की सारी साइंटिफिक, वैज्ञानिक व्यवस्था होनी चाहिए। जैसे एक जमाना था। जब घर में बच्चे को पढ़ाया जाता था ट्यूशन रख कर। वह कुछ रईस लोग पढ़ा सकते थे अपने बच्चे को ट्यूशन रख कर। यह तो असंभव है कि सबके घर ट्यूशन पढ़ाया जा सके। तो हमको स्कूल खोलना पड़ा। यह ज्यादा साइंटिफिक हुआ और उसमें एक रईस के बच्चे को जो शिक्षा मिलती थी, यह गरीब से गरीब बच्चे को भी मिलना संभव हुआ। रईस भी इतनी व्यवस्था नहीं करता था जो आज गरीब के बच्चे के लिए संभव है। तो आज नहीं कल, बच्चों का पालन-पोषण भी इसी तरह सोशल, सामाजिक बनाना चाहिए। एक-एक परिवार में बच्चे को बड़ा नहीं करना चाहिए। क्योंकि अब हम पूरी साइंटिफिक व्यवस्था कर सकते हैं। साइंटिस्ट, साइकोलाॅजिस्ट, एनालिस्ट, नर्स, डाक्टर, व्यायाम कराने वाला, पूरी तरह माइंड को समझने वाला, इन सबका सारा इंतजाम हम वहां कर सकते हैं। वहां बच्चे बड़े होने चाहिए।
सोसाइटी ने अभी तक उत्सुकता ली ही नहीं है और सिर्फ सोसाइटी ने इतना ही काम कर दिया कि बच्चे पैदा हो गए। वह उसको खिलाएगा, पिलाएगा, बड़ा करेगा। यह जिम्मा उसका है, वह उसको छोड़ कर भाग नहीं सकता। यह कोई इंतजाम नहीं रहा। इसी से यह सोसाइटी पैदा हुई है और हमारे लिए बिलकुल अजीब सा संसार पैदा हो गया है।
मेरा मानना है कि एक वैज्ञानिक समाज की व्यवस्था में सोसाइटी को बहुत खयाल रखना पड़ेगा और जैसे ही बच्चा पलता है दूर मां-बाप से, तो मां-बाप की कलह का कोई असर नहीं है। डाइवोर्स से कलह का कोई संबंध नहीं है। कलह करें क्यों? कलह को इंच भर भी जगह देने की क्या जरूरत है। मेरा मानना है कि डाइवोर्स अगर सीधा सामने खड़ा हो तो नब्बे प्रतिशत मौके आप छोड़ देंगे, कलह एकदम कम हो जाएगा, क्योंकि बेमानी है। दोनों व्यक्ति अलग नहीं हो सकते इसलिए कलह है। आपसे कह दूं कि जाइए, बात खत्म हो गई। इसमें झगड़ा क्या है। मगर जाने को कह नहीं सकता, जा सकते नहीं आप, मैं जा नहीं सकता, बैठना यहीं है तब कलह जारी रहेगी। डाइवोर्स इतना सरल होना चाहिए जैसे एक मित्र से मित्रता है और मित्रता छूट गई है। इससे ज्यादा उसका कोई अर्थ नहीं है और बच्चे की व्यवस्था धीरे-धीरे सोसाइटी के हाथ में चली जानी चाहिए तभी डाइवोर्स इतना सरल हो सकता है।

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