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शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(पूछें--मैं कौन हूं?)

मैं किस संबंध में आपसे बात करूं? मैं कोई उपदेशक नहीं हूं, और न किसी धर्म के प्रचार की मेरे मन में कोई संभावना है। न ही आप अपने जीवन को कैसा निर्मित करें, इस संबंध में कोई सलाह मैं आपको दूंगा। न ही यह बताना चाहता हूं कि किसी मनुष्य को किन आदर्शों के अनुकूल जीना चाहिए। क्योंकि मेरी दृष्टि में मनुष्य की आज तक की पूरी संस्कृति एक ही बात से अभिशप्त रही हैै, और वह यह है कि हमने हमेशा मनुष्य के जीवन के लिए एक ढांचा और एक आदर्श देने की कोशिश की है। उसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य का विवेक उसकी आत्मा निरंतर परतंत्र से परतंत्र होती गई है। और जो विवेक स्वतंत्र नहीं है, उसका आचरण चाहे कितना ही ऊ पर से शुद्ध हो, उसका व्यवहार चाहे ऊ पर से कितना ही नीतियुक्त हो, उसके जीवन में चाहे कितनी ही सभ्यता और संस्कृति का प्रदर्शन हो, उसकी आत्मा विकृति के, पाप के, पीड़ा के ऊपर नहीं उठ सकती है। मनुष्य का विवेक स्वतंत्र न हो तो उसके ठीक आचरण का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि वैसा आचरण उसके जीवन में कोई आनंद की सुगंध नहीं ला सकेगा। लेकिन निरंतर हमें यह सिखाया गया है और हम इस ढांचे के भीतर पले हैं और बड़े हुए हैं, और यह कोई एक-दो दिन की बात नहीं, हजारों वर्ष से मनुष्य के ऊपर ढांचे और आदर्श थोपे गए हैं।

उसे बताया गया है उसे कैसा होना चाहिए, उसे बताया गया है उसे क्या खाना चाहिए, क्या पहनना चाहिए, कैसे उठना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए, उसे करीब-करीब सारी बातें बता दी गई हैं और उसके सामने एक ही विकल्प है, या तो उन बातों के अनुसार चले, सज्जन हो जाए या उन बातों के विरोध में चले और दुर्जन हो जाये।

या तो उन बातों को स्वीकार कर ले और अपने को उनके अनुसार ढाल ले, और अच्छा आदमी, नीति युक्त आदमी समझा जाये। या उनके विरोध में खड़ा हो जाये, उनके विपरीत चला जाए और अनीतियुक्त हो जाए। मेरी दृष्टि में ये दोनों विकल्प घातक हैं, मनुष्य के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह किसी ढांचे को स्वीकार करे या अस्वीकार करे; सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह अपने उस विवेक को जागृत करे, जिसके विवेक के साथ अपने आप ही उसके निज का आदर्श स्पष्ट होना शुरू होता है। जब तक मैं दूसरों के द्वारा निर्णियत, दूसरों के द्वारा उपदेशित आदर्शों को स्वीकार करता हूं, तब तक मैं अपनी आत्मा को स्वीकार करने को राजी नहीं हुआ हूं। इसका जो दुष्परिणाम हुआ है वह आश्चर्यजनक है। इसका दुष्परिणाम हुआ है या तो थोथे आचरणवान लोग हैं, थोथे इसलिए कि उनके प्राणों में उनके आचरण की कोई जड़ें नहीं हैं, आचरण उनका अत्यंत ऊपरी और बाह्य है। जैसे हम वस्त्रों को पहन कर नग्नता को छिपाये हुए हैं, ऐसे ही वे भी अच्छे आचरण को ओढ़ कर अपने भीतर के पशु को छिपाये हुए हैं। या फिर दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो इसकी प्रतिक्रिया में अपने भीतर की समस्त वासनाओं को स्वच्छंदता दे दिये हैं, और ये दो ही तरह के लोग हैं। या तो नीति युक्त लोग हैं, या नीति विरोधी लोग हैं। लेकिन धार्मिक मनुष्य जमीन पर कहीं भी नहीं हैं।
धार्मिक मनुष्य मैं उस व्यक्ति को कहता हूं जो अपने स्वयं के विवेक में अपने जीवन के आदर्श को अपने भीतर ही खोज लेता है। जो अपने से बाहर कभी भी आदर्श को खोजेगा, वह दास, और गुलाम और एक गहरी इस्लेवरी में पड़ जायेगा। वह उस गुलामी के ऊपर नहीं उठ सकता है। और जिसका चित्त गुलाम है, वह और कुछ भी जान ले, वह सत्य को कभी भी नहीं जान सकता है, वह प्रेम को कभी भी नहीं जान सकता है। वह आनंद से कभी भी परिचित नहीं हो सकता है। दुनिया से प्रेम, सत्य और आनंद इसीलिए तिरोहित हो गए हैं कि आप में से कोई भी अपने को स्वीकार नहीं करता है, आप सब अपने दुश्मन बने बैठें हैं। और या तो आप अपनी वासनाओं को स्वीकार करते हैं, वे आपको पशुओं की तरफ ले जाती हैं, या फिर समाज के द्वारा सिखाए गए आदर्शों को स्वीकार करते हैं, वे आपको पाखंड की और ले जाते हैं। और मनुष्य इन दो घातक विकल्पों के बीच इस बुरी भांति फंस गया है कि उसे इन दो के अतिरिक्त कोई तीसरा मार्ग भी दिखाई नहीं पड़ता। या तो वासनाओं को खुली छूट दे देने का मार्ग है, या फिर वासनाओं के साथ लड़ने और दमन करने का मार्ग है।
मैं आपसे आज की सुबह यह निवेदन करना चाहूंगा, इन दोनों मार्गों ने दुनिया में दो तरह की संस्कृतियां पैदा की हैं, जो आदर्श को आचरण को मानने वाली संस्कृति है वह पूरब के मुल्कों में पैदा हुई है, जो वासना की स्वच्छंदता को स्वीकार करने वाली संस्कृति है वह पश्चिम के मुल्कों में पैदा हुई है। ये दोनों संस्कृतियां घातक हैं। इन दोनों संस्कृतियों में कोई भी चुनने योग्य नहीं है। अभी ठीक-ठीक मनुष्य की संस्कृति पैदा नहीं हो सकी है, वह संस्कृति जिसमें विवेक जागृत हो और अनुशासन ऊपर से न थोपा जाए, वरन अंतस से स्फ ुटित हो, अंतस से विकसित हो। अभी मनुष्य की संस्कृति विकसित नहीं हो सक ी है।
हम दो तरह की अधूरी और खंडित संस्कृतियों के प्रभाव में परेशान रहे हैं। एक संस्कृति जो कि वासनाओं के दमन पर जोर देती है--पूरब की संस्कृति, हमारे मुल्कों की संस्कृति। जिस जमीन के हिस्से पर हम पैदा हुए हैं, वहंा की संस्कृति। उसका परिणाम हुआ है अत्यंत दमन के कारण, अत्यंत रुग्ण, दमित, कुण्ठित व्यक्तित्व पैदा हुए हैं; दीन-हीन व्यक्तित्व पैदा हुए हैं, दरिद्रता से भरे हुए समाज पैदा हुए हैं, दासता और गुलामी से भरे समाज पैदा हुए हैं। सोच-विचार से हीन, पुनरुक्ति करने वाले लोग पैदा हुए हैं और एक अदभुत आश्चर्यजनक रूप से हीनता का, दीनता का वातावरण व्यापक हो गया है। दूसरी तरफ पश्चिम के लोग हैं, उन्होंने स्वच्छंदता के रास्ते को पकड़ा है, वह भी इसकी प्रतिक्रिया है, दमन की प्रतिक्रिया है। स्वच्छंदता के मार्ग पर वासनाएं पागल होकर दौड़ रही हैं। समृद्धि बढ़ती जाती है और शांति क्षीण होती चली जाती है। बाह्य प्रभुता बढ़ती जाती है, आंतरिक नियंत्रण विलीन होता चला जाता है। उनकी अपनी पीड़ा है, उनका अपना दुख है। उनकी अपनी चिंता और एंग्जाइटी है।
एक छोटी सी कहानी कहूं उससे इन दो संस्कृतियों के खंडित रूप आपको स्पष्ट हो सकेंगे। और फिर मैं अपनी चर्चा में ठीक से प्रवेश कर सकूंगा। रोम में एक बहुत पुराने समय में एक बादशाह बीमार पड़ा। उसकी बीमारी धीरे-धीरे घातक से घातक होती चली गई। अंततः चिकित्सकों ने इनकार कर दिया, उसके स्वस्थ्य होने का कोई मार्ग शेष नहीं बचा था। और उन्होंने कहा कि दो-चार दिन जितने देर भी जी जाए, जी जाए, लेकिन अब जीने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन मरने की तो किसी की भी तैयारी नहीं होती उस बादशाह की भी नहीं थी। वह घबड़ाया उसने अपने वजीरों को कहा, किसी साधु को, किसी फकीर को, किसी संन्यासी को खोजो, अगर चिकित्सक हार गए हैं तो किसी चमत्कार का सहारा लो; और आखिर वे एक फकीर को खोज कर ले आए, जिसके बाबत यह कहा जाता था कि वह अगर बीमार को छू दे तो बीमारी ठीक हो जाये और जिसके बाबत खबरें थी कि उसने मुर्दों को भी जिंदा किया है। वह फकीर राजमहल आया, उसने आते ही बादशाह को कहा कि तुम्हें तो कोई विशेष बीमारी नहीं है, उठ कर बैठ जाओ, एक छोटा सा इलाज है तुम्हारी इस छोटी सी बीमारी का--उसका इंतजाम कर लो, इंतजाम होते ही बीमारी दूर हो जायेगी। मरने का कोई कारण नहीं है। राजा ने पूछा कौन सा इलाज है? उसके वजीर भी आशा से भरे और आदमी ने जो इलाज बताया बहुत सरल था, इतना सरल था जिसका कोई हिसाब नहीं बहुत शीघ्र कुछ ही पलों में वह इलाज हो सकता था। उसने यह कहा कि तुम्हारी इस राजधानी में इस बड़े रोम में किसी एक ऐसे आदमी के कपड़े मिल सकेंगे क्या, जो कि सुखी हो, शांत हो; जो कि समृद्ध हो और आनंदित हो। उन्होंने कहा इसकी क्या कमी है? उन कपड़ों का क्या होगा? उन्होंने कहा वे कपड़े लाकर इस बादशाह को पहना दिये जायें, यह बादशाह कपड़े पहनते ही स्वस्थ हो जायेगा।
वजीर बोले यह तो एकदम सरल बात है। वे भागे उनकी राजधानी समृद्ध लोगों से भरी थी। सुखी लोगों से भरी थी। वे बड़े से बड़े लोगों के घर में गए, लेकिन हर जगह से उन्हें निराश लौटना पड़ा। जिससे भी उन्होंने कहा कि हमारे बादशाह बीमार हैं, और एक सुखी और शांत व्यक्ति के कपड़े चाहिए, क्या आपके कपड़े हमें मिल सकेंगे? उसी आदमी ने कहा, राजा के प्राण बचाने को मैं अपने प्राण दे सकता हूं, लेकिन मेरे कपड़े काम नहीं आ सकेंगे, समृद्ध तो मैं हूं लेकिन शांत मैं नहीं हूं। एक, दो, तीन...सुबह से सांझ हो गई , उस नगर के सारे बड़े लोगों से मिलना हो गया और तब उन्हें पता चला कि इलाज तो कठिन मालूम होता है। समृद्ध लोग थे लेकिन शांत नहीं थे। तब किस मुंह से राजा के सामने लौटें, क्या कहें, क्या न कहें? बहुत चिंतित उसके वजीर हुए। और उन्होंने अंतिम प्रयास किया गांव के बाहर दरिद्रों की बस्ती में खोजबीन की कि शायद वहां कोई मिल जाए। नदी के किनारे जब सूरज डूब गया और रात हो गई थी, तो वे उदास गांव की तरफ वापस लौट रहे थे, कोई उन्हें नहीं मिला। लेकिन नदी के किनारे एक पत्थर के पास उन्होंने एक आदमी को बांसुरी बजाते हुए देखा। उसकी बांसुरी में कुछ ऐसे आनंद की ध्वनि थी, कुछ ऐसी शांति की खबर थी कि वे ठहर गये, कुछ ऐसी मोहक हवा थी कि वे रुक गये; उसके पास गये और उन्होंने कहा हो न हो यह आदमी जरूर शांत और आनंदित होगा। उन्होंने जाकर उस आदमी से निवेदन किया कि मित्र! देश का बादशाह बीमार है, उसके बचाने की बड़ी जरूरत है, और बताया गया है कि जो व्यक्ति शांत हो, समृद्ध हो उसके कपड़े ले आओ। क्या तुम शांत हो? क्योंकि हम दिन भर से खोज रहे हैं, समृद्ध लोग तो मिले लेकिन शांत व्यक्ति नहीं मिला। लेकिन तुम्हारे संगीत की लहरों से ऐसी झलक आती है कि तुम्हारे प्राणों में जरूर कोई शांति का स्रोत फूटा है। उस व्यक्ति ने कहा कि मैं तो अपने प्राण बादशाह के लिए देने को तैयार हूं, और निश्चित ही मैं शांत हूं, लेकिन क्षमा करें, अंधेरे में आपको दिखाई नहीं पड़ रहा, मैं नंगा बैठा हूं, मेरे पास वस्त्र नहीं हैं। वह राजा उसी रात मर गया, क्योंकि उस बड़े रोम में एक भी आदमी नहीं मिल सका जो शांत और समृद्ध एक ही साथ हो।
मनुष्य की संस्कृति भी इस तरह के दो विकल्पों से पीड़ित रही है। अब तक ठीक और अखंडित और इंटिग्रेटिड मनुष्य पैदा नहीं हो सका। अखंडित संस्कृति पैदा नहीं हो सकी। ऐसी संस्कृति पैदा नहीं हो सकी जो इन दो विरोधी विकल्पों के बीच में संयम की संस्कृति हो। वह संस्कृति कैसे विकसित होगी? एक तो वासना का मार्ग है, समृद्धि का मार्ग है, धन का मार्ग है, पद, प्रतिष्ठा और शक्ति का मार्ग है, और एक मार्ग दमन का है, सदाचरण का है, दरिद्रता का है, त्याग का है। लेकिन ये दोनों मार्ग एक-दूसरे की प्रतिक्रियाएं हैं। इन दोनों मार्गों में कोई भी मार्ग विवेक का मार्ग नहीं है। विवेक क्या है और कैसे मुक्त हो सकता है? इस संबंध में ही थोड़ी सी आपसे बात करनी हैं। और यदि विवेक मुक्त हो जाये, यदि आपके भीतर की विवेक की शक्ति सारे बंधनों को गिराकर मुक्त हो जाए, तो आपके जीवन में एक डिसिप्लिन, एक अनुशासन अपने आप उत्पन्न होना शुरु होगा, जिसे आप थोपते नहीं हैं, जिसे आप ओढ़ते नहीं हैं, लेकिन जो विवेक की छाया की भांति अपने आप पीछे आता है। जैसे बैलगाड़ी चलती है, तो उसके चाक के निशान उसके पीछे अपने आप बनते चले आते हैं, उन्हें बनाना नहीं पड़ता, वैसे ही जहां विवेक जागृत होता है, वहां आचरण गाड़ी के चाक के निशानों की भांति अपने आप पीछे आता है, उसे निर्मित नहीं करना पड़ता। जो आचरण निर्मित किया जाता है, वह झूठा होता है। जो आचरण कल्टिवेट किया जाता है, वह मिथ्या होता है। जिस बात को हम सीखकर विचार कर आरोपित करके करते हैं उस बात में सत्यता नहीं होती, और न ही प्राण होते हैं। जैसे मैं चाहूं तो प्रेम सीख सकता हूं, लेकिन क्या सीखा हुआ प्रेम सत्य होगा? मैं चाहूं तो प्रेम की सीखी हुई बातें कर सकता हूं। लेकिन क्या प्रेम की सीखी हुई बातें मिथ्या नहीं होंगी? क्या ऐसा प्रेम अभिनय और एक्टिंग से ज्यादा नहीं होगा? निश्चित ही इससे ज्यादा नहीं हो सकता है। क्योंकि जो सीखकर किया जाता है, उसकी जड़ें, बुद्धि और विचार से गहरी नहीं जाती। जो विचार मात्र के कारण किया जाता है, वह अभिनय है। जड़ें जब आत्मा तक होती हैं, तो जो आता है वह सीखा हुआ नहीं होता। वह खिला हुआ होता है।
एक फूल है कागज का उसे हम घर में खोंस कर लगा देते हैं, वह ऊ पर से लगाया जाता है। और एक फूल है पौधे का, वह पौधे के प्राणों से उसकी पूरी आत्मा से प्रकट होता है, फूलता है, इन दोनों फूलों में क्या भेद है? एक फूल बाहर से लाया गया है, बनाया गया है, लगाया गया है। एक फूल लाया नहीं गया, आया है; बनाया नहीं गया, विकसित हुआ है। और इन दो फूलों में जो अंतर है वही अंतर वास्तविक और मिथ्या आचरण में होता है। जहां-जहां मिथ्या आचरण बहुत ज्यादा प्रभावी हो गया है, वहां-वहां मनुष्य अत्यधिाक पीड़ित और दुखी है, यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह बिल्कुल ही स्वाभाविक है। हम सारे लोग दुखी और पीड़ित हैं, क्यों? हम सारे लोग इसलिए दुखी और पीड़ित हैं कि जो भी आनंद के स्रोत हमारे भीतर हो सकते हैं, वे बाहर से नहीं लाये जा सकते। और जब भी उन्हें हम बाहर से लाने की कोशिश करते हैं तो भीतर के स्रोत दबे रह जाते हैं, और बाहर से लाई हुई चीजों में हम इतने दब जाते हैं, कि उस दबने के कारण भीतर के फूल आने मुश्किल हैं। यह करीब-करीब ऐसा ही है कि अगर किसी फूल के पौधे की कली में हम बहुत से कागज के फूल ऊपर से बांध दें तो कागज के फूल तो झूठे होंगे ही, कागज के फूल उस कली के ऊ पर घिर कर उस कली के भी प्राण ले लेंगे। उस कली को भी फिर सूरज की रोशनी नहीं पहुंच सकेगी, उस कली को भी फिर हवाएं नहीं पहुंच सकेंगी; वह कली भी फिर मुरझायेगी और मर जायेगी। जब भी कोई व्यक्ति बाहर की दुनिया से कुछ लाकर अपने को सजाता है, और हम सब भांति जब भी कुछ लाते हैं बाहर की दुनिया से लाते हैं और अपने को सजाते हैं, इसे थोड़ा हम समझें। साधु हैं, सन्यासी हैं, धर्म के विचार करने वाले लोग हैं, वे भी आपसे कहेंगे कि बाहर की चीजों को मत लाइये, बाहर की चीजों से आत्मा का क्या संबंध? लेकिन वे यह कहेंगे कि धन बाहर है, उसको मत लाइए, मकान बाहर है उसकी चिंता मत करिये, परिवार बाहर है उसके विचार मत करिये, लेकिन वे आपसे कहेंगे कि गुरु की शरण में जाइए, जैसे कि गुरु भीतर हो। वे आपसे कहेंगे कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट को मानिए, जैसे कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट भीतर हों। वे आपसे कहेंगे कि शास्त्रों को स्वीकार करिए, जैसे कि शास्त्र भीतर हों। धन बाहर है, शास्त्र भी बाहर हैं, परिवार की पत्नी और पति बाहर हैं, तो गुरु, तीर्थंकर और ईश्वर के अवतार भी बाहर हैं। वह अधूरी बात है।
जो धन को इसलिए बुरा कहती है कि वह बाहर है और गुरु को स्वीकार करती है, शास्त्र को स्वीकार करती है, परम्परा को स्वीकार करती है, दूसरों के दिये गये उपदेशों और सत्यों को स्वीकार करती है वह बात गलत है, बाहर की दृष्टि वह अधूरी है। अगर धन बाहर है, तो जिसको हम धर्म कहते हैं वह भी बाहर है। अगर जिस मकान में मैं रहता हूं वह बाहर है, तो जिस मकान में तथाकथित भगवान ठहरे हुए हैं और रहते हैं, वह मंदिर भी बाहर है। बाहर होने को समझना होगा। और जो भी बाहर है, अगर मैं उसे अपने ऊ पर थोपता हूं, तो मैं अपने विवेक को और अपनी आत्मा को दबाता हूं, मेरा विवेक और मेरी आत्मा जिस मात्रा में दमित हो जायेगी, उसी मात्रा में मैं कुरुप हो जाऊंगा, क्रिपिल्ड हो जाऊंगा, विकलांग हो जाऊंगा; मेरा जीवन कुम्हला जायेगा। क्योंकि मेरा जीवन वहां है, जहां मेरी निज आत्मा है। मेरे जीवन के सारे स्रोत वहां हैं, जहां मेरा निज विवेक है। लेकिन इधर पांच हजार वर्षों से मनुष्य के विवेक के विरोध में बहुत बड़ा षडयंत्र चला है, बहुत बड़ी कांस्पेरेंसी है। हजारों साल से कुछ निहित स्वार्थों ने मुनष्य के विवेक को मुक्त होने में बाधा डाली है। समाज मनुष्य के विवेक के विरोध में है। राज्य मनुष्य के विवेक के विरोध में हैं। मां-बाप बच्चे के विवेक के विरोध में हैं। स्कूल, शिक्षा, शिक्षक विद्यार्थी के विवेक के विरोध में हैं। दुनिया में जिनके हाथ में भी ताकत है, वे कभी विवेक के पक्ष में नहीं हो सकते, क्योंकि विवेक में विद्रोह के अणु होते हैं। विवेक में रिबेलियन हो सकता है। अगर बच्चे विवेकपूर्ण हैं तो बाप को भय हो सकता है क्योंकि विवेकपूर्ण बच्चे किसी बात को इसलिए स्वीकार नहीं करेंगे कि वह उनके पिता ने कही है। विवेकपूर्ण बच्चे किसी बात को इसलिए स्वीकार नहीं करेंगे कि वह गीता में लिखी है या बाइबिल में लिखी है या कुरान में लिखी है। जो विवेकशील है वह किसी बात को इसलिए स्वीकार नहीं करेगा कि वह महावीर ने कही है, गांधी ने कही है या विनोबा ने कही या और किसी माहत्मा ने कही है।
विवेक सिवाय अपने और किसी को कभी स्वीकार नहीं करता है। विवेक सिवाय विवेक युक्तता के और किसी शास्त्र को नहीं मानता है। विवेक सिवाय विवेकशीलता के और किसी चरण में सिर नहीं रखता है। इसलिए विवेक तो खतरनाक है, समाज के लिए, अधिकारियों के लिए, राज्य के लिए, राजनीतिज्ञों के लिए, साधु-संन्यासियों के लिए, मठाधीशों के लिए, पुरोहितों के लिए सबके लिए खतरनाक है। इसलिए एक षडयंत्र है हजारों साल से मनुष्य के विवेक को विक सित मत होने देना। और इसको किस-किस तरकीब से विकसित किया गया है, वह समझने जैसा है। दुनिया के सारे धर्म, दुनिया के सारे शास्त्र, दुनिया की सारी ट्रेडिशंस, सारी परंपराएं आपस में बहुत से मामलों में विरोधी हैं। ईसाई कहते हैं, पुनर्जन्म नहीं है, मुसलमान कहते हैं पुनर्जन्म नहीं है, हिंदू-जैन कहते हैं पुनर्जन्म है। हिंदू कहते हैं ईश्वर है, जैन कहते हैं कोई स्रष्टा ईश्वर नहीं है। हिंदू और जैन कहते हैं आत्मा शाश्वत है, आत्मा ईकाई है, आत्मा मौलिक तत्व है, बौद्ध कहते हैं आत्मा न तो शाश्वत है, न ईकाई है, न मौलिक तत्व है। जैन कहते हैं, मोक्ष है, वहंा आत्मा परम आनंद में विराजमान होगी, बौद्ध कहते हैं कोई मोक्ष नहीं है। क्योंकि जैसे ही व्यक्ति की वासनाएं विलीन होती हैं, उसकी आत्मा भी उसी भांति विलीन हो जाती है, जैसे दीये की लौ बुझ कर विलीन हो जाती है।
दुनिया के ये सारे धर्म हजार बातों में एक-दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन एक बुनियादी बात में किसी का विरोध नहीं है। वे सब विवेक के विरोधी हैं और श्रद्धा के पक्षपाती हैं। वे सब इस बात का कहेंगे कि विवेक, विवेक खतरनाक है, श्रद्धा, स्वीकृति, विश्वास और वे सब इस बात का प्रचार करते रहे हैं कि जो विश्वास करता है, वह बचा लिया जायेगा। जो विश्वासी होगा वह बच जायेगा और जो विवेकशील है वह भटक जायेगा। इससे खतरनाक कोई टीचिंग मनुष्य को कभी नहीं दी गई। अगर विवेक भटकायेगा, तो फिर बचायेगा कौन? और अगर विश्वास बचायेगा तो इसका मतलब हुआ कि अंधी अंाखें चलायेंगी, और आंखें चला नहीं सकती। विश्वास का क्या अर्थ? बिलीफ का क्या अर्थ? विश्वास का अर्थ है, जो तुम्हें तुम्हारी बुद्धि को, तुम्हारी आंखों को बिलकुल ठीक भी न मालूम पड़ता हो, उसे भी तुम इसलिए स्वीकार कर लेना कि कोई कहता है कि वह ठीक है। जो तुम्हारे ज्ञान में न आता हो, उसे भी तुम मान लेना कि वह है। ईश्वर पर विश्वास कर लेना कि वह है, आत्मा पर विश्वास कर लेना कि वह है। कर्म पर विश्वास कर लेना कि वह है।
विश्वास करने की वृत्ति पांच-छह हजार वर्षों से निरंतर पोषित की गई है। उस विश्वास की वृत्ति ने मनुष्य के विवेक को नष्ट कर दिया। उस विश्वास की वृत्ति ने मनुष्य के विवेक को परतंत्र कर दिया। वह विश्वास की वृत्ति पहले मनुष्य की वासनाओं में होती है, क्रोध में होती है, लोभ में होती है, वह भी विश्वास है। जब आपके भीतर क्रोध उठता है, तो आप विवेक करते हैं। आप सोचते हैं कि यह क्रोध उचित है या अनुचित? यह अर्थपूर्ण है या अनर्थपूर्ण? यह क्रोध क्यों है मेरे भीतर और क्यों मैं इसे अंगीकार करूं? आप विवेक करते हैं? कोई विवेक नहीं करता। जब क्रोध उठता है,तो आप क्रोध करते हैं, क्रोध पर विश्वास करते हैं। जब सैक्स उठता है तो सेक्स पर आप विचार करते हैं, कि कौन सा अर्थ है इसमें, कौन सा रस है इसमें? नहीं। उस पर भी आप विश्वास करते हैं। एक तरफ वे मनुष्य हैं जो वासनाओं पर विश्वास करते हैं, दूसरी तरफ वे मनुष्य हैं जो महात्माओं पर, शास्त्रों पर और ग्रंथों पर विश्वास करते हैं। लेकिन दोनों तरफ विश्वास काम कर रहा है। और जहां विश्वास है, वहां अंधापन है। एक कुएं से छूटते हैं, खाई में गिर जाते हैं।
न तो वासनाओं पर विश्वास करने की जरूरत है और न महात्माओं पर विश्वास करने की जरूरत है। जरूरत है विवेक करने की और समग्र जीवन में विवेक करने की। वासना में भी, शास्त्र में भी, महात्मा में भी, परंपरा के संबंध में भी विवेक की जरूरत है। विवेक का रास्ता विश्वास के रास्ते से बिल्कुल अलग है, निश्चित ही आंख वाले के चलने का ढंग और अंधे के चलने के ढंग में फर्क होता है। अंधा टटोलता है, अंधा पूछता है, अंधा स्वीकार करता है और चलता है। आंख वाला देखता है, खोजता है, न टटोलता है, देखने से उसके चलने की गति आती है, देखने से उसकी दिशा आती है। विश्वास ने सारी मनुष्यजाति को अंधा कर दिया है। और जब भी कभी इसमें कोई आंख वाला पैदा हो जाता है, तो बाकी अंधे मिलकर उसके दुश्मन हो जाते हैं। स्वाभाविक है, अंधों को बहुत दुख होता है आंख वालों से। इसलिए तो सुकरात को जहर पिला देते हैं, इसीलिए तो क्राइस्ट को सूली पर लटका देते हैं, इसीलिए तो महावीर को पत्थर मारते हैं और परेशान करते हैं। और क्या कारण है, जब भी आंख वाला आपके बीच खड़ा होगा, अंधे परेशान हो जाएंगे, क्यों? क्योंकि आंख वाला आदमी अंधों का अपमान बन जाता है। आंख वाला आदमी अंधों का अपमान बन जाता है। कभी आंख वाले आदमी को इस समाज ने बरदाश्त नहीं किया। लेकिन बहुत दिन बाद जब वह आदमी मर जाता है तो यह समाज उसे स्वीकार कर लेती है। क्यों? क्योंकि स्वीकृति में अंधेपन को कोई बाधा नहीं है। महावीर जिंदा आपके बीच खड़े हो जाएं तो खुद जैन उनको इनकार कर देंगे। कृष्ण लौट कर आ जाएं खुद हिंदू उनको इनकार कर देगा। एक छोटी सी घटना कहूं उससे मेरी बात ख्याल में आये। महावीर को विश्वास कर लेना एक बात है, महावीर को सहना और झेलना बिल्कुल दूसरी बात है। आंख वाले आदमी को अंधों का समाज कभी नहीं झेल सका।
 क्राइस्ट के बाबत एक मीठी कथा दोस्तोवस्की ने लिखी। उसने अपने एक उपन्यास में एक बड़ी काल्पनिक बात लिखी। बड़ी अर्थपूर्ण। उसने लिखा कि अट्ठारह सौ साल के बाद क्राइस्ट को यह खयाल आया कि अब तो लाखों लोग मुझे मानने वाले हैं। वह बात और थी जब मैं अट्ठारह सौ वर्ष पहले जेरुसलम में प्रकट हुआ। वह बात और थी, उस वक्त नासमझ थे लोग। पुरोहित दुश्मन थे, पंडित विरोधी थे, समाज का निर्माण मेरे ढांचे के अनुकूल न था। इसलिए लोगों ने मुझे सताया, मुझे परेशान किया, मुझे कांटों का ताज पहनाया और मुझे सूली पर लटका दिया। वह ठीक भी था। क्योंकि उस वक्त लोगों में कुछ समझ न थी। लेकिन अब तो जमीन पर लाखों ईसाई हैं, अब तो लाखों वे लोग हैं जो मेरे क्राॅस को लटकाए हुए हैं। लाखों वे लोग हैं जो सुबह और शाम मेरा नाम लेते हैं। लाखों मेरे मंदिर, मेरे चर्च हैं, लाखों मेरे सन्यासी हैं, मेरे पुरोहित हैं; मेरी साध्वियां हैं, साधु हैं, अब तो दुनिया बिल्कुल दूसरी होगी। क्राइस्ट अट्ठारह सौ वर्ष के बाद वापस जेरुसलम में सुबह-सुबह उतरे। यह देखने के लिए कि अब स्थिति क्या है?
जेरुसलम में एक झाड़ के नीचे वे आकर खड़े हुए, रविवार का दिन है लोग चर्च से वापस लौट रहे हैंै। उन्होंने चिल्ला कर कहा कि मित्रों! पहचाने? मुझे पहचाना? चर्च के सामने ही बड़ा दरख्त है, उसके नीचे ही क्राइस्ट खड़े हैं। लोग हंसने लगे और कहा कि यह कौन आदमी है जो क्राइस्ट का रूप रंग लिए खड़ा है? यह कौन बहरूपिया है? यह कौन अभिनेता मालूम होता है। वे सारे लोग उनके पास आ गये और हंसने लगे कि मित्र जल्दी इस वेश को बदलो पुरोहित बाहर निकलने वाला है, मुसीबत में पड़ जाओगे। क्योंकि पुरोहित कहता है कि क्राइस्ट एक बार हुए, वे बार-बार थोड़ी होते हैं। और तुम तो निश्चित मुसीबत में पड़ जाओगे, तुम तो बिलकुल क्राइस्ट जैसे ही मालूम हो रहे हो। लेकिन क्राइस्ट ने कहा, मेरा ही पुरोहित है, मेरा ही पुरोहित है; क्या मुझे नहीं पहचानेगा? लेकिन लोग हंसने लगे, उन्होंने कहा, पागलपन छोड़ो, यह पागलपन छोड़ो! ईश्वर का पुत्र अपने को कह रहे हो, थोड़ा सोचो तो, विचारो तो। इस अट्ठारहवीं सदी में कोई तुम्हें ईश्वर का पुत्र मानेगा? इतने में ही बड़ा पादरी वह आर्चबिशप वहां से निकला, भीड़ लगी देखी वह अंदर आया, उसने कहा यह कौन बदमाश है, इसे नीचे उतारो। क्राइस्ट चिल्लाए क्या तुम मुझे नहीं पहचान रहे हो? उसे कहा मैं भली-भांति पहचानता हूं। नीचे उतरो, यह ढोंग करने की क्या जरूरत है? चार आदमियों ने क्राइस्ट को नीचे पकड़कर उतार लिया, वे हैरान हुए अट्ठारह सौ साल पहले भी पुरोहित ने उनके साथ ऐसा ही व्यवहार किया था, लेकिन वह पुरोहित दूसरों का था, यह पुरोहित तो अपना ही था। उसके गले में चमकता हुआ सोने का पाॅलिश किया हुआ क्राॅस लटका हुआ था। वह तो ईसा के नाम पर ही जीता था। लेकिन ईसा को खदेड़ कर रस्से बांध कर चर्च में ले जाया गया, वे तो हैरान हो गये। उन्होंने सोचा कि अट्ठारह सौ साल में क्या कोई फर्क नहीं आया है? क्या मेरे साथ फिर ये दुबारा वही करेंगे, फिर सूली लगायेंगे? जाकर उस पादरी ने उन्हें एक बड़े कमरे में बंद कर दिया और ताला लगवा दिया और कहा कि अपने दिमाग को ठीक कर लो सुबह तक तो छोड़ दिये जाओगे और अगर यह पागलपन तुम्हारे दिमाग में है कि तुम ईश्वर के पुत्र हो तो तुम्हारी सिवाय सजा के और कोई रास्ता नहीं है। सिवाय क्राइस्ट के कोई दूसरा ईश्वर का पुत्र नहीं है। और वह क्राइस्ट अट्ठारह सौ साल पहले हो चुका, अब तो वह परमात्मा के पास सिंहासन के निकट बैठा हुआ है। लेकिन रात को दो बजे, वह महापुरोहित ताला खोला और कमरे में आया और क्राइस्ट के पैरों में गिर पड़ा। और बोला कि मैं तुम्हें पहचान गया था, लेकिन बाजार में तुमको नहीं पहचान सकता, भीड़ में तुमको नहीं पहचान सकता हूं। क्योंकि तुम बहुत पुराने डिस्टर्बर हो, तुम जब भी आते हो, तुम तभी गड़बड़ खड़ी कर देते हो। हम मुश्किल से किसी तरह धर्म को व्यवस्थित करते हैं, और जब भी कोई क्राइस्ट जैसा आदमी पैदा हो जाता है, सब गड़बड़ा जाता है, सब मामला खराब कर देता है। सारी व्यवस्था तोड़ देता है। तुम बहुत पुराने विघ्नकारक हो, तुम्हारे आने की कोई जरूरत नहीं है, हम पादरी, हम तुम्हारे पुरोहित, तुम्हारा नाम लेकर सब काम ठीक से चला रहे हैं, आप कृपा करें और वहीं ऊ पर मोक्ष में विराजमान रहें, आपको यहां नीचे लौट-लौट कर आने की जरूरत नहीं। मैं आपको पहचान गया कि आप वही हैं, लेकिन समाज में मैं आपको नहीं पहचान सकता हूं क्योंकि समाज में आपको पहचानने का मतलब है चर्च का मिट जाना। समाज में आपको पहचानने का मतलब है क्राइस्ट की स्वीकृति का और क्रिश्चियनिटी का मिट जाना। क्योंकि क्रिश्चिएनिटी क्या है? क्राइस्ट के खिलाफ, क्राइस्ट के नाम पर खड़ी हुई परम्परा। क्रिश्चियन लड़ सकता है, कैथोलिक एक प्रोटेस्टेन से लड़ सकता है। एक क्रिश्चियन एक प्रोटेस्टेन को मार सकता है, प्रोटेस्टेन कैथोलिक को जला सकता है। एक दूसरे का चर्च मिटा सकता है। और क्राइस्ट ने कहा था जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। और क्राइस्ट ने कहा थो जो तुमसे कहे कि मेरे साथ एक मील तक बोझ ढोकर चलो, तुम दो मील तक उसके साथ चले जाना।
और क्राइस्ट को जब सूली दी गई थी तो उन्होंने कहा था कि हे परमात्मा! इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं? क्या ये ही क्राइस्ट और इस क्रिश्चियनिटी में कोई मेल है? कोई संबंध है? इस सूली पर चढ़े हुए आदमी में और उसके नाम पर खड़े हुए धर्म में कोई नाता है? महावीर नग्न थे, अपरिग्रही थे। क्या महावीर में और जैनों की समृद्धि में और परिग्रह में कोई संबंध है? किस भांति का संबंध है? किस भांति का नाता है? मैं तो देखता हूं तो हैरान हूं, जो जिसको मानने वाला है अगर विचार करेगा तो करीब-करीब उसका दुश्मन है। और ठीक उन्हीं उसूलों के खिलाफ खड़ा है, जिन उसूलों को मानने की वह दुहाई दे रहा है। यह हुआ है। जब भी आंख वाला पैदा होगा, तो हम एक ही व्यवहार उसके साथ कर सकते हैं, या तो वह राजी हो जाये आंखें फोड़ने को, और अंधा हो जाये, और या फिर एक रास्ता यह है कि हम उसको मिटा दें। हां जब वह मर जाये तो हम उसकी पूजा करें, उसका मंदिर बनायें क्योंकि उसमें कोई खतरा नहीं है। महावीर की पूजा में कोई खतरा नहीं है, लेकिन महावीर को जानने में बहुत खतरा है। क्योंकि महावीर को जानने में आपको अपने सारे प्राण परिवर्तित करने पड़ेंगे। महावीर की पूजा करना एकदम आसान है, पूजा करने में कुछ भी नहीं करना पड़ता। पूजा करने में कुछ भी नहीं करना पड़ता। वह बिल्कुल सरल है। इसलिए धर्म पूजा करते हैं, अंधे पूजा करते हैं, आंख वाले ही केवल चल सकते हैं।
श्रद्धा सिखाई गई, विश्वास सिखाया गया, इसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य-जाति का विवेक कुंठित हो गया। और जब विवेक कुंठित हो जाएगा,और जब विश्वास गहरा हो जाएगा तो स्वाभाविक है फिर अंधा आदमी यह नहीं देखता, अंधा आदमी यह नहीं देखता कि विश्वास कहां गहरा है? अंधे आदमी को कोई भी विश्वास पकड़ाया जा सकता है। जो क्राइस्ट को मानता था, महावीर को, बुद्ध को मानता था अगर प्रचार ठीक से चले वही माक्र्स को मानने लगेगा, वही गांधी को मानने लगेगा। बीस करोड़ का मुल्क है सोवियत रूस, उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति के पहले सारे लोग धार्मिक थे, सारे लोग चर्च में जाते थे, प्रार्थना करते थे, दीप जलाते थे। उन्नीस सौ सत्रह में वहां क्रांति हुई, नया धर्म वहां हुकू मत में आ गया, कम्युनिज्म वहां हुकूमत में आ गया, उसके अलग पुरोहित हैं, उसके अलग चर्च हैं, उसके अलग भगवान हैं। उसकी अलग शास्त्र है, गीता नहीं, कुरान नहीं, बाईबिल नहीं, कैपिटल उसका शास्त्र है। वह नया धर्म वहां हुकूमत में आया, उसने खूब प्रचार किया पंद्रह-बीस साल; आज रूस में धर्म को पूछने वाला, गिना-चुना मिलना मुश्किल है। आज वहां चर्च में दीपक जलाने वाला खोजना मुश्किल है। आज वहां क्राइस्ट पर हंसने वाले मिल सकते हैं, मानने वाले नहीं मिल सकते।
विश्वास की पुरानी आदत थी तो हम क्राइस्ट को मनवाते थे, विश्वास जड़ था दिमाग में और हमेशा कहा गया था कि विश्वास करो, विश्वास करो, जब दूसरी हुकूमत आई, दूसरी ताकत के लोग आये और उन्होंने कहा कि विश्वास करो माक्र्स पर, विश्वास करो कैपिटल पर क्योंकि विश्वास मुक्तिदायी है। वह पुराना विश्वास क्राइस्ट को पकड़ता था, उसने कैपिटल को पकड़ लिया। वह महावीर को पकड़ता था, उसने माक्र्स को पकड़ लिया। वह पहले कुछ पकड़ता था, उसने नई बात कोई पकड़ ली। मनुष्य जब तक विश्वासी है, तब तक उसे कुछ भी पकड़ाया जा सकता है क्योंकि मनुष्य अंधा है। जो हवा आयेगी वह उसी को पकड़ लेगा। जो हवा आयेगी उसी को पकड़ लेगा। विश्वास खतरनाक है। विश्वास बहुत आत्मघाति है। विश्वास बहुत सुसाइडल है। क्या रास्ता है? अब रास्ता है कि विश्वास छोड़ें। विवेक को जगायें। शायद मेरी बात से ऐसा लगे कि मैं यह कह रहा हूं, अविश्वासी हो जायें। नहीं, क्योंकि अविश्वास भी विश्वास का एक रूपांतरण है, वह भी विश्वास का एक रूप है। एक आदमी कहता है कि मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं, यह भी विश्वास है, एक आदमी कहता है, मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता, यह भी विश्वास है। ये दोनों में से कोई भी ईश्वर को जानता नहीं है। एक विश्वास करता है, एक अविश्वास करता है; एक का आस्तिक विश्वास है, एक का नास्तिक विश्वास है, लेकिन दोनों विश्वासी हैं। मैं अविश्वासी होने को नहीं कह रहा हूं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप आस्तिक हैं तो नास्तिक हो जायें, आस्तिक भी एक धर्म है, नास्तिक भी एक धर्म है, क्योंकि दोनों विश्वास पर खड़े हैं और दोनों अंधे हैं। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि आप विश्वास मात्र छोड़ें, और अपने विवेक को जगाने में लगें। और यह पहली बुनियाद है, जिसको विवेक जगाना हो उसको विश्वास छोड़ना ही पड़ेगा क्योंकि विश्वास के रहते विवेक कभी नहीं जगाया जा सकता। कोई कारण नहीं रह जाता विश्वास के रहते विवेक को जगाने का। जब हमारे सब सहारे गिर जाते हैं तो हमें अपने पैरों को खोजना पड़ता है, और उन पर खड़े होना पड़ता है। जब तक हमारे हाथ में सहारे होते हैं, तब तक अपने पैरों पर खड़े होने का कोई कारण नहीं है। कोई महावीर का कंधे का सहारा लिये खड़े हैं, कोई बुद्ध के, कोई क्राइस्ट के कंधों का सहारा लिये खड़ा है। जब तक आप किसी का सहारा लिये हैं, तब तक स्मरण रखें आपके भीतर सोये हुए विवेक को जगने का कोई कारण नहीं है। वह तभी जग सकता है, जब आप समझें कि मैं बेसहारा हूं, कोई सहारा नहीं है। किसी मनुष्य को कोई सहारा नहीं है, प्रत्येक मनुष्य अकेला है, अकेली उसकी अपनी ताकत और शक्ति है। उसके पास अपनी चेतना है, वही उसका सहारा है।
एक पुरानी घटना है। एक घर में एक बूढ़े आदमी की आंखें चली गईं। अस्सी साल का बूढ़ा था। उसके दस लड़के थे, दस बहुएं थीं, पत्नी थी। उन सबने उससे कहा, आंखों का इलाज करवा लो। उस बूढ़े ने कहा क्या करूंगा? अस्सी साल का हुआ, दो-चार वर्ष जीना है। फिर दस लड़के हैं मेरे, दस लड़कों की बीस आंखें हैं, दस बहुएं हैं उनकी बीस आंखें हैं एक मेरी पत्नी है उसकी दो आखें, ऐसा मेरे पास बयालीस आंखें हैं। क्या बयालीस आंखें इस बूढ़े आदमी के लिए पर्याप्त नहीं हैं। दलील उसकी दुरुस्त थी। तर्क उसका बिलकुल ठीक था, गणित में कोई भूल-चूक न थी। ठीक था उसका नतीजा, जिस घर में बयालीस आंखें हों, जिसके आस-पास, उस अस्सी साल के बूढ़े को अपनी आंख की क्या जरूरत है? वह नहीं माना। मानने का कोई कारण भी नहीं था। समझाया-बुझाया नहीं माना। बूढ़े किसकी मानते हैं? बच्चे तो किसी की मान भी लें, बूढ़े किसी की मानते हैं? मानने के लिए सरल चित्त चाहिए, बूढ़े का चित्त बहुत जटिल हो जाता है, वह कभी किसी की नहीं मानता। इसीलिए तो बूढ़े के जीवन में कोई क्रांति नहीं होती। बच्चे के जीवन में कोई क्रांति हो सकती है। बूढ़ा तो धीरे-धीरे जड़ हो जाता है, वह बूढ़ा भी जड़ हो गया था, उसने कहा कि नहीं, क्या गलत कहता हूं मैं, बयालीस आंखें हैं,मुझे क्या जरूरत । लेकिन उसके पंद्रह दिन बाद ही मकान में आग लग गई, रात का वक्त था, वे बयालीस आंखें एकदम बाहर हो गईं, और उन्हें खयाल भी न आया कि एक दो बिना आंखों वाला आदमी भी घर में है। जैसे ही आग लगी सब अपने शरीर को लेकर बाहर भाग गये, जिस शरीर की आंख थी उसको साथ दिया। जब वे बाहर पहुंच गये और लपटों में सारा मकान जलने लगा तब उन्हें ख्याल आया कि कोई बाबा को भी लाया कि नहीं? सबसे पूछा, पता चला, उनको तो कोई नहीं लाया। वह बूढ़ा उसी जलते हुए मकान में जल गया। शायद जलते वक्त उसको पता चला हो कि अपनी एक ही आंख हो तो काम की है, दूसरे की बयालीस आंखें भी किसी काम की नहीं हैं। लेकिन तब क्या फायदा था, तब तो आग लग गई थी और वह जल रहा था। हमको भी मृत्यु के क्षण में पता चलेगा कि न महावीर की आंख काम दे सकती है, न बुद्ध की, न कृष्ण की, न राम की; कितनी ही बड़ी आंखें हों, कितने ही बड़े महापुरुष हों, तीर्थंकर हों, ईश्वर हों, नामालूम क्या हों? जो भी हों, कितनी ही उनकी बड़ी आंख हो, कितनी ही तेजस्वी आंख हो, आपके किसी काम की नहीं है। आपकी धुंधली आंख ही जलते हुए मकान से आपको बाहर ले जाने में साथी होगी। दूसरे की चमकदार सूरज जैसी आंख भी किसी काम नहीं पड़ सकती। लेकिन यह अगर उस वक्त पता चले जब मकान में आग लग गई हो, तो फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता, और यह उसी वक्त पता चलता है, उसी वक्त पता चलता रहा है। जो आदमी पहले जाग जाता है, वह अपनी आंख को पैदा करने के उपाय करने लगता है।
पहली जरूरत है, विश्वास को जाने दें, और विवेक की खोज में संलग्न हों। आप कहेंगे विवेक हम कहां से लाएं? मैं आपको स्मरण दिलाऊं, जैसे हम कहीं भी जमीन में गड्ढा खोदें, यह दूसरी बात है कि किसी जमीन में गड्ढा जल्दी खुद जाये और पानी निकल आये। और किसी जमीन में गड्ढा थोड़ी देर से खुदे और पानी जरा मुश्किल से निकले और तीसरी जमीन में बहुत पत्थर हों और बहुत मुसीबत पड़े और बहुत गहराई में पानी निकले। लेकिन जहां जमीन है, वहां गड्ढा खोदने पर पानी मिलना अनिवार्य है। इसलिए जहां मनुष्य है, वहां खोदने पर विवेक मिलना अनिवार्य है। यह दूसरी बात है कि किसी मनुष्य में खोदने पर जल्दी मिल जाये, और किसी मनुष्य में खोदने पर देर से मिले, और देर और जल्दी भी इसीलिए पड़ेगी कि हमने बहुत से संस्कार इकट्ठे करके कहीं पत्थर इकट्ठे कर दिए हैं, और उनके कारण पानी के स्रोत दूर हो गये हैं। लेकिन अगर हम अपने मन की खुदाई करें, तो ऐसा एक भी मनुष्य नहीं है, जिसके भीतर विवेक का स्रोत न हो। लेकिन हम खोदते नहीं , हम तो बाजार से पानी खरीद लाते हैं और काम चला लेते हैं। कुआं कौन खोदता है। हम तो बाहर से पानी ले आते हैं और काम चला लेते हैं। घर में एक हौज बना लेते हैं, नौकरों से उसमें पानी भरवा लेते हैं और काम चला लेते हैं। लेकिन कभी आपने हौज के विज्ञान और कुएं के विज्ञान को समझा? जब हौज बनानी पड़ती है तो क्या लाना पड़ता है? पत्थर लाना पड़ता है, सीमेंट लानी पड़ती है, मिट्टी लानी पड़ती है, फिर उनको जोड़कर दीवार बनाते हैं। फिर उस दीवार में बाहर से पानी लाकर भरना पड़ता है। कुआं बनाते हैं तो क्या करना पड़ता है, कुआं बनाने में बिलकुल उलटा काम करना पड़ता है। हौज बनाने में मिट्टी, गारा, ईंट, चूना, पत्थर लाना पड़ता है, कुआं बनाने में मिट्टी, गारा, ईंट, चूना पत्थर जो भी हो उसको खोदकर बाहर करना पड़ता है। हौज बनती है तो पानी बाहर से लाना पड़ता है और कुआं बनता है तो पानी अपने आप आता है। हौज का पानी थोड़ेे दिन में सड़ जाता है, कुएं का पानी जीवित होता है, वह लीविंग होता है। वह सड़ता नहीं है। उसके जीवित स्रोत होते हैं। लेकिन हम में से अधिक हौज की तरह हैं, और बहुत कम लोग कुएं की भांति। हम सारा ज्ञान बाहर से लाते हैं, और उसको खोपड़ी की दीवारों में भरते हैं। चूना, ईंट, मिट्टी, श्रद्धा के इकट्ठे करके दीवारें बनाते हैं और उन दीवारों में वह ज्ञान भर देते हैं। यही तो पंडित का लक्षण है। दिमाग में सब पानी बनाकर हौज भर लेता है। और इसलिए तो पंडित का दिमाग बहुत जल्दी सड़ जाता है। डिटोरिरेट हो जाता है। इसीलिए कि कोई भी बाहर से लाई हुई चीज सड़ जाएगी उसके कोई भीतर तो स्रोत नहीं होते। और यही तो कारण हैं कि पंडितों के दिमाग से दुनिया चलती है, इसलिए दुनिया में झगड़े और उपद्रव होते हैं। क्योंकि विकृत, अस्वस्थ, बीमार मस्तिष्क से जो भी निकलेगा, वह उपद्रव लायेगा। मस्जिद का पंडित, मंदिर के पंडित से लड़वाता है। गीता का पंडित, कुरान के पंडित से लड़ जाता है। महावीर का पंडित,बुद्ध के पंडित से लड़ जाता है।
पंडित लड़ते हैं, पंडित हिंसा पैदा करवाते हैं क्योंकि मस्तिष्क में बाहर से आया हुआ पानी बहुत जल्दी सड़ जाता है, वह जीवित नहीं है। लेकिन ज्ञानी, जिसने जाना है वह लड़ाता नहीं, जोड़ता है। उसके भीतर जीवित ज्ञान का स्रोत है, उसने कुआं खोदा है, हौज न बनाएं, कुआं खोदें। हौज बनानी हो श्रद्धा की दीवाल बनायें, कुआं बनाना हो, सब श्रद्धा के नाम पर इकट्ठे पत्थर अलग करें, हटायें अपने मन से उस सबको जो आपने इकट्ठा कर रखा है। जो भी आपको लगता है कि मेरा जाना हुआ नहीं है, धर्म के लिए कह रहा हूं, इंजीनियरिंग के लिए नहंी कह रहा हूं, कि आप इंजीनियरिंग की किताब में पढ़े हों तो उनको हटा दें, और भूल जायें कि नक्शा कैसे बनाया जाता है। यह नहीं कह रहा हूं कि आपने डाक्टरी की किताबें पढ़ी हों, तो भूल जायें और समझ में न आए कि कौन सी दवा किस मरीज को दी जाती है। यह नहीं कह रहा हूं कि आप यहां तक आयें हैं तो घर जाने का रास्ता भूल जाएं, यह नहीं कह रहा हूं। यह कह रहा हूं कि आत्मा के संबंध में जो भी जाना हो, सीखा हो, उसे हटा दें। जो चीजें बाहर हैं, उनके बाबत बाहर का ज्ञान काम दे सकता है। इंजीनियरिंग, डाक्टरी या कोई और जो चीज भी बाहर है, उसके संबंध में बाहर का ज्ञान काम दे सकता है, लेकिन आत्मा बाहर नहीं है। जो बाहर नहीं है, उसके संबंध में बाहर का कोई ज्ञान काम नहीं दे सकता। जो भीतर है, उसे भीतर ही जानना होगा। इसलिए आत्मा के संबंध में कोई लर्निंग, कोई नाॅलेज, कोई ज्ञान सार्थक नहीं है। विज्ञान सीखा जा सकता है, धर्म सीखा नहीं जा सकता। विज्ञान रटा जा सकता है, धर्म रटा नहीं जा सकता। लेकिन हैरान होंगे लोग धर्म को रट रहे हैं, रोज सुबह उसको पाठ कहते हैं। कोई गीता का पाठ कर रहा है, कोई कुरान का, कोई बाइबिल का, कोई कुछ और का। रोज सुबह से रट रहे हैं, जिंदगी बीत गई उनके रटते हुए, रटते-रटते उनका दिमाग जड़ हो गया। रटते-रटते उनका दिमाग स्टूपिड हो जाएगा क्योंकि जो जितना रटेगा उतनी मस्तिष्क की ऊर्जा और तेजस्विता नष्ट हो जाएगी। और इस जड़ मस्तिष्क को हम धार्मिक कहते हैं। यह धार्मिक मन नहीं है। धार्मिक मन है तेजस्वी मन, रटने वाला नहीं देखने वाला। पाठ याद करने वाला नहीं भीतर के ज्ञान को खोदने वाला।
पहला सूत्र हैः श्रद्धा को, विश्वास को हटा दें। फिर क्या करें? फिर जीवन में जो भी प्रश्न खड़ा हो, जो भी समस्या खड़ी हो, वहां विवेक का उपयोग करें। हमेशा खोजें कि मैं जो रिस्पोंस कर रहा हूं, जो उत्तर दे रहा हूं, कोई भी समस्या खड़ी है, क्या मैं उत्तर ग्रंथों से दे रहा हूं? जैसे मैं आपसे पूछूं कि क्या आत्मा है? और अपने भीतर देखें क्या उत्तर आता है? अगर आपके भीतर उत्तर आता है, हां, आत्मा है या उत्तर आता है कि नहीं, आत्मा नहीं है, तो पूछें अपने से कि यह उत्तर मुझसे आ रहा है या शास्त्रों से आ रहा है। यह कहां से आ रहा है? यह मेरा सीखा हुआ उत्तर है या मैं जानता हूं? और अगर आपको लगे सीखा हुआ उत्तर है, हटा दें। उस कचरे को बाहर करें। फिर कोई उत्तर नहीं आयेगा, जब आपसे मैं पूछूंगा, आत्मा है? तो आपमें एक साइलेंस पैदा हो जायेगी, उत्तर नहीं आयेगा, क्योंकि उत्तर था शास्त्र का, उसको आपने हटाया। तब मैं पूछता हूं, आत्मा है? एक साइलेंस भीतर रह जाएगा। आप अपने से पूछें, आत्मा है? और अगर उत्तर आये, तो देखें यह उत्तर कहां से आ रहा है? अगर शास्त्र से आ रहा है, हटा दें। फौरन हटा दें। फिर पूछें आत्मा है? और जब कोई उत्तर न आये और भीतर एकदम साइलेंस रह जाये, तो समझें कि शास्त्र से छुटकारा हुआ। शास्त्र हट गया, और यह बड़े आश्चर्य की बात है उस साइलेंस से, उस शांति से उत्तर मिलना शुरु हो जाता है। क्योंकि वह शांति आत्मा का हिस्सा है, क्योंकि वह शांति आत्मा का स्वरूप है। शास्त्र का उत्तर अटकाये हुए था, वह भीतर नहीं जाने देता था, उसको हटा दें। रह जायें मौन, पूछें आत्मा है? और कोई उत्तर न आये और सन्नाटा रह जाये। और गहरे पूछें, आत्मा है? गहरा सन्नाटा रह जाये। सब शास्त्र को हटा दें, सब बुद्धि की सोची हुई बातों को हटा दें, फिर देखें क्या होता है? उस साइलेंस से, उस शांति से, उस मौन से आत्मा की अनुभूति आनी शुरु हो जाती है। शास्त्र को हटाएं, सत्य आपके भीतर है। प्रश्न पूछें और चुप रह जायें,बाहर के किसी उत्तर को आने न दें। उस स्थिति में जब बाहर का कोई भी उत्तर नहीं आने दिया जाता, प्रश्न मेरा होता है, और अकेला प्रश्न मेरे प्राणों में गूंजता रह जाता है, तो एक वक्त आता है जब शांति पूर्ण होती है भीतर, तो आपको अनुभूति के द्वार खुल जाते हैं। उत्तर है शास्त्र में नहीं, शून्य में। उत्तर है शब्द में नहीं मौन में। उत्तर है शास्त्र में नहीं, स्वयं में। उत्तर है भीतर। प्रश्न जहां है, वहीं उत्तर है, लेकिन हम उधार उत्तर लेकर उस उत्तर को जो हमारे भीतर है, नहीं आने देते। इस स्थिति को मैं ध्यान कहता हूं।
पूछें--मैं कौन हूं? और चुप रह जाएं और महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को किसी को भीतर न आने दें, कहें कि बाहर, बहुत आदर है आपके प्रति लेकिन कृपया बाहर। क्योंकि उन्होंने भी अपने भीतर कभी किसी को नहीं आने दिया। महावीर ने अपने भीतर किसी को नहीं आने दिया। क्राइस्ट ने अपने भीतर किसी को नहीं आने दिया। कहा कि बाहर। बहुत सम्मानपूर्वक कह दें कि कृपा कर तीर्थंकरों, अवतारों बाहर रुको, मुझे खोजने दो मेरा उत्तर, तुम बाहर रुको। क्योंकि उन्होंने भी यही किया। जिस आदमी को भी सत्य को पाना है, उसे सत्य के संबंध में सीखे सब उत्तरों को विदा कर देनी आवश्यक है। और फिर देखें क्या होता है? फिर देखें, उस साइलेंस से क्या पैदा होता है, देखें? उस सन्नाटे से किसका जन्म होता है, देखें? कौन आता है उस गहन प्रगाढ़ता में से, उस निब्रता में से कौन पैदा होता है, देखें? उस बीज से कौन सा अंकुर निकलता है, देखें? वह अंकुर आपको मुक्त कर देगा। वह अंकुर आपके जीवन को शांति से, आनंद से भर देगा। वह अंकु र आपको वहां पहंुचा देगा, जहां महावीर और क्राइस्ट पहुंचते हैं, जहां बुद्ध पहुंचते हैं, जहां कोई भी मनुष्य कभी पहुंचा है। लेकिन वह उत्तर आता है मौन से। वह आता है, निरंतर, घने से घने मौन से। मन को मौन करें और जब तक शास्त्र भरे हुए हैं, मन मौन नहीं हो सकता। जब तक शब्द भरे हुए हैं मन मौन नहीं हो सकता।
ये स्वयं को बाहर के प्रभाव से निष्प्रभाव करना ध्यान है। समाधि है। इस समाधि से जो साक्षात है; वह अननाॅन जो अज्ञात सत्य है, अनंत और अनादि, वह जो सनातन जीवन की धारा है, वह जो गहरे से गहरे में प्राणों में जो स्वर है; वह जो संगीत है, जो पौधे में फूल बन रहा है, पक्षी में गीत बन रहा है, आपके प्राणों में धक-धक है, चारों तरफ जो प्राणवंत आंदोलित हो रहा है, वह जो प्राण की सब तरफ लहरें और तरंगें उठ रही हैं, उसके मूल स्रोत से आपको जोड़ देता है। उस स्रोत का द्वार आपके भीतर है। लेकिन द्वार पर शास्त्रों की दीवार रखी है, दरवाजे पर बड़ी-बड़ी मोटी किताबें रखी हैं। दरवाजे पर बड़े-बड़े महापुरुष आपने बुलाकर खड़े कर लिये हैं। उनको भी कष्ट दे रहे हैं, खुद भी कष्ट पा रहे हैं। उनको कहें कि जायें, शास्त्रों को कहें कि विदा हो जायें, मुझे मेरे भीतर जाने का द्वार दें। जाएं और वहां देखें। केवल वही व्यक्ति जो सब भांति की श्रद्धाओं से अपने को मुक्त कर लेता है, आत्मश्रद्धा से भरता है। केवल वही व्यक्ति जो बाहर की सब श्रद्धाओं से मुक्त हो जाता है, उसके भीतर आत्म श्रद्धा उत्पन्न होती है। केवल वही व्यक्ति जो बाहर की सब भांति की शरणों से अपने को अशरण कर लेता है, उसे आत्मशरण मिलती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं, इस स्थिति के बाद जिस व्यक्ति को भीतर सत्य की, शांति की अनुभूति हो जाती है, उसके आचरण में आलोक प्रेम का, सेवा का फैलना शुरु हो जाता है। मुझे अभी किसी मित्र ने पहले-पहल आकर कहा कि मैं प्रेम पर बोलूं, मैं प्रेम पर नहीं बोला; कोई मुझसे कहे फूल पर बोलो, मैं फूल पर नहीं बोलूंगा, मैं तो बीज पर बोलूंगा। फूल पर बोलने से क्या फायदा? मैं तो बीज पर बोलूंगा, बीज के बोने की बात करूंगा, बीज को बढ़ाने की बात करूंगा, बीज को कैसे पानी दें, कैसे संभालें, कैसे बागडोर लगाएं उसकी बात करूंगा। फूल तो अपने आप आ जाएगा, फूल तो अपने आप आता है। लेकिन जो आदमी फूलों की चिंता में पड़ जाता है और फूलों का विचार करने लगता है और बीज को भूल जाता है, उसका फूल तो कभी नहीं आता, कभी फूल आ नहीं सकता है। एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा को मैं पूरा करूंगा।
माओत्से तंुग का नाम आपने सुना होगा? माओत्से तंुग ने बचपन की एक घटना लिखी है। उसने लिखा है कि मेरी मां को बगिया लगाने का बहुत-बहुत प्रेम था। उसकी बगिया में ऐसे खूबसूरत फूल थे कि दूर के गांवों से भी लोग देखने आते। लेकिन मां बूढ़ी हो गई, बीमार पड़ गई। बीमारी में उसे एक ही चिंता थी, अपने मरने की नहीं, अपने फूलों के मर जाने की। वह बहुत दुखी थी तो माओत्से ने कहा कि ठीक है तुम चिंता न करो, मैं तुम्हारें फूलों की देखभाल कर लूंगा। वो छोटा सा लड़का था। वह फूलों की देखभाल करने गला, पंद्रह या बीस दिन बाद मां ठीक हुई। वह दिन भर बगीचे में ही लगा रहता था कि कहीं मां के फूल नष्ट न हो जायें, लेकिन खुद भी हैरान था, सारी मेहनत के बाद भी फूल थे कि कुम्हलाते गये, सूखते गये, पौधों के पत्ते भी फीके पड़ गये, मुर्दा पड़ गये, उदास हो गये। वह बड़ा हैरान था दिन भर मेहनत करता था।
पंद्रह-बीस दिन बाद मां जैसे ही थोड़ी उठने लायक हुई, फौरन पहले बगीचे में आई। देखा तो उसकी आंख में आंसू आ गए, उसने कहाः तुमने यह क्या किया? बगिया तो उजाड़ डाली, यह तुमने किया क्या? उसकी आंखों में आंसू आए बगिया उजड़ने से, माओ भी रोने लगा, वह बोला कि मैं क्या करूं, मैं तो एक-एक फूल को चूमता था, एक-एक फूल को प्रेम करता था, एक-एक फूल पर पानी छिड़कता था, कपड़े से एक-एक फूल को झाड़ता था, पत्ते-पत्ते को साफ करता था; पता नहीं क्या हुआ कि फूल तो सब मरते ही चले गये। उसकी मां हंसने लगी, उसका रोना हंसने में बदल गया। उसने कहाः तू है पागल। फूलों के प्राण फूलों में थोड़ी होते हैं? फूलों के प्राण तो जड़ में होते हैं, जो दिखाई नहीं पड़ती। फूलों को थोड़ी पानी देता होता है, जड़ को पानी देना होता है। फूलों को थोड़ी पोंछना और प्यार करना होता है, जड़ को सम्हालना होता है। अदृश्यमय है जड़। दृश्य में है फूल। अदृश्य को संभालें, दृश्य अपने आप संभल जाता है। और जो फूल को सम्हालता है और जड़ को भूल जाता है, वह नष्ट हो जाता हैै।
हमारे मुल्क में अहिंसा को सम्हालते हैं, प्रेम को संभालते हैं, अपरिग्रह को संभालते हैं, ब्रह्मचर्य को संभालते हैं, ये सब फूल हैं। और जड़, जड़ की कोई फिक्र नहीं है। और इसलिए फूल कुम्हलाते जाते हैं। अहिंसा की बकवास होती है, अहिंसा कहां है? हिंदुस्तान पूरा मुल्क अपने को अहिंसक कहता है, इस जैसा हिंसक मुल्क खोजना कठिन है। क्या हुआ हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त? किसने किया वह सब? अभी चीन और पाकिस्तान का हमला हुआ तो क्या हुआ? सारे मुल्क में कैसा फीवर चढ़ गया, हिंसा का? सारे कवि एकदम हिंसा उगलने लगे। सारे राजनैतिक हिंसा उगलने लगे। जिनके दिमाग में भी थोड़ा पागलपन था, क्रोध था वो भी भाषण करने लगे, वे भी गीत लिखने लगे। इनको छोड़ दें, साधु और संत भी कहने लगे कि इस वक्त तो अब अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत है। अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत? साधु और संत भी कहने लगे कि जाओ और अहिंसा के देख की रक्षा के लिए हिंसा करो। वरन करो अब तो युद्ध। यह कहां की अहिंसा है, अहिंसा, यह कोई अहिंसा नहीं है। सब थोथा पाखंड और झूठ है। हो नहीं सकती अहिंसा, हो नहीं सकता प्रेम, हो नहीं सकती शांति, हो नहीं सकता अपरिग्रह। क्योंकि जड़ आत्मा को तो हमने खो दिया है। अहिंसा कैसे हो सकती है? जो आत्मा को पाता है, उसके जीवन में अहिंसा आती है, प्रेम आता है, करुणा आती है, दया आती है, सेवा आती है। सब अपने आप आता है, ये तो फूल हैं, आत्मा की जड़ हैं। इसलिए मैंने प्रेम की बात नहीं की, क्योंकि प्रेम की बात तो व्यर्थ है। बात मैंने की कैसे आपके भीतर जो आपका स्वरूप है, वह प्रकट हो सके। जब स्वरूप प्रकट होगा उसके साथ ही ये सब फूल अपने आप आएंगे। अगर इन फूलों को लाना है तो स्वयं को मुक्त करना होगा और स्वयं के विवेक को जाग्रत करना होगा। उसके सिवाय और कोई मार्ग नहीं है।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और आप सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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