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गुरुवार, 8 नवंबर 2018

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

सीखे हुए ज्ञान से मुक्ति

कुछ थोड़े से प्रश्नों पर थोड़ी सी बातें मैं आपसे कहूं, उसके पहले एक निवेदन कर देना उचित है, वह यह कि मेरे उत्तर आपके उत्तर नहीं हो सकते हैं। प्रश्न आपका है, तो अंततः आपको अपना ही उत्तर खोजना होगा। किसी दूसरे का उत्तर काम नहीं देगा। लेकिन हम उत्तर खोजने की तलाश में होते हैं, शास्त्रों में खोजते हैं, सिद्धांतों में खोजते हैं, गुरुओं में खोजते हैं, और यह आशा रखते हैं कि शायद उत्तर कहीं हमें मिल जाए। लेकिन कभी बाहर से कोई उत्तर नहीं मिलता है। सत्य के संबंध में, आत्मा के संबंध में, परमात्मा के संबंध में कोई उत्तर कभी बाहर से नहीं मिलता। आप कहेंगे कि कैसी मैं बात कहता हूं? शास्त्र भरे पड़े हुए हैं, उत्तरों से और पंडितों के मस्तिष्क भरे हुए हैं, और हम सब भी तो छोटे-मोटे पंडित तो हैं कि, थोड़ा बहुत जानते हैं; हम सबके मन में भी बहुत उत्तर हैं। लेकिन स्मरण रखें, उत्तर कितने भी इकट्ठे हो जाएं, प्रश्न समाप्त नहीं होगा। प्रश्न वहीं का वहीं बना रहेगा। उत्तरों का संग्रह हो जाएगा। प्रश्न को उत्तर स्पर्श नहीं करेंगे। इसलिए कोई कितना ही पढ़े, कितना ही सिद्धांतों को, थिरीज को, आइडियोलाॅजिस को समझ लें, इकट्ठा कर ले, सारे शास्त्रों को पी जाए फिर भी जीवन का उत्तर उसे उपलब्ध नहीं होता है। उत्तर बहुत हो जाते हैं उसके पास लेकिन कोई समाधान नहीं होता। समाधान न हो तो प्रश्न का अंत नहीं होता है। प्रश्न का अंत न हो तो चिंता समाप्त नहीं होती है। चिंता समाप्त न हो तो वह जो चित्त की अशांति है, जो केवल ज्ञान के मिलने पर ही उपलब्ध होती है, उपलब्ध नहीं की जा सकती। फिर भी मैं आपको उत्तर दे रहा हूं, यह जानते हुए भी कि मेरा उत्तर, आपका उत्तर नहीं हो सकता, फिर किसलिए उत्तर दे रहा हूं?


दो कारण हैं, एक तो इसी भांति मैं आपको बता सकता हूं कि जो उत्तर आपने दूसरों से सीख लिए हैं, वे व्यर्थ हैं। लेकिन भूल होगी उनको हटा दें, और जो मैं उत्तर दूं उन्हें अपने मन में रख लें, यह भी दूसरे का ही उत्तर होगा। तो मैं जो उत्तर दे रहा हूं, एक अर्थ में केवल निषेधात्मक हैं, एक अर्थ में केवल डिस्ट्रक्टिव हैं। चाहता हूं कि आपके मन में जो उत्तर इकट्ठे हैं वे नष्ट हो जाएं, लेकिन उनकी जगह मेरा उत्तर बैठ जाए, यह नहीं चाहता हूं।


मन खाली हो, प्रश्न भर रह जाए, प्रश्न हो मन खाली, जिज्ञासा हो; हमारे पूरे प्राण प्रश्न के साथ संयुक्त हो जाएं। हमारे पूरी श्वास-श्वास में प्रश्न समस्या खड़ी हो जाए, तो आप हैरान होंगे, आपके ही भीतर से उत्तर आना प्रारंभ हो जाता है। जब पूरे प्राण किसी प्रश्न से भर जाते हैं, तो प्राणों के ही केंद्र से उत्तर आना शुरु हो जाता है। जो भी ज्ञान उपलब्ध हुआ है, वह स्वयं की चेतना से उपलब्ध हुआ है। कभी भी, इतिहास के किन्हीं वर्षों में, अतीत में या भविष्य में कभी यदि होगा, तो वह अपने ही भीतर खोज लेना होता है। समस्या भीतर है, तो समाधान भी भीतर है। प्रश्न भीतर है, तो उत्तर भी भीतर है। लेकिन हम कभी भीतर खोजते नहीं, और हमारी आंखें बाहर भटकती रहती हैं, और बाहर खोजती रहती हैं। कुछ कारण हैं, जिससे ऐसा होता है, हमारी आंखें बाहर खुलती हैं, इसलिए हम बाहर खोजते हैं।
एक फकीर औरत राबिया हुई, उसके बाबत एक कहानी मैं सारे मुल्क में कहता रहा हूं। वह एक दिन सुबह जब सूरज उग रहा था, अपने झोपड़े के भीतर बैठी थी। एक यात्री फकीर बायजीद या हसन उसके घर मेहमान था। वह बाहर आया, उसने सूरज को उगते देखा, बड़ी सुंदर सुबह थी, आकाश सुबह की लालिमा से भरा था और पक्षी गीत गाते थे। और वृक्षों में ताजगी थी और रौनक थी, और ठंडी हवाएं बहती थीं। उसने जोर से चिल्लाया, राबिया वहां भीतर क्या कर रही हो? बाहर आओ। बहुत संुदर सुबह है, और बहुत अदभुत सूरज उग रहा है। एक क्षण सन्नाटा रहा, फिर राबिया ने कहाः क्या उचित न होगा हसन कि तुम्हीं भीतर आ जाओ, क्योंकि एक सूरज को तुम उगते देख रहे हो, जो बाहर है, और एक सूरज को मैं भी उगते देख रही हूं, जो भीतर है। और तुम्हारा सूरज तो बुझ जाएगा, डूब जाएगा, और मेरा सूरज कभी डूबता नहीं, बुझता नहीं। तो क्या उचित होगा कि मैं तुम्हारे सूरज को देखने बाहर आऊं , या यह उचित होगा कि तुम भीतर आ जाओ और उस सूरज को देखो जिसे मैं देख रही हूं। हसन को ख्याल न होगा कि सुबह के सूरज की बात इतने दूर चली जाएगी। लेकिन राबिया ने ठीक कहा, एक ज्ञान बाहर है, एक प्रकाश बाहर है, अगर आपको गणित सीखनी है, केमिस्ट्री सीखनी है, फिजिक्स सीखनी है, इंजीनियरिंग सीखनी है तो आप किसी स्कूल में भर्ती होंगे, किताब पढ़ेंगे, परीक्षाएं होंगी और सीख लेंगे, यह लर्निंग है, नालेज नहीं। यह सीखना है, ज्ञान नहीं।
विज्ञान सीखा जाता है, विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं होता। लेकिन धर्म सीखा नहीं जाता, उसका ज्ञान होता है, उसकी लर्निंग नहीं होती, उसकी नाॅलिज होती है। एक प्रकाश बाहर है,जिसे सीखना होता है, एक प्रकाश भीतर है, जिसे उघाड़ना होता है। जिसे डिस्कवर करना होता है।
तो जिन प्रश्नों को आप पूछ रहे हैं, वह कोई केमिस्ट्री, फिजिक्स, गणित, भूगोल इनसे संबंधित प्रश्न नहीं हैं, कि कोई उनके उत्तर दे सके। जो आप पूछ रहे हैं वह मनुष्य की उस अंतसचेतना से संबंधित प्राणों की बात है, जिसे खुद के भीतर ही खोदना पड़ता है, श्रम करना होता है और तब ही समाधान उपलब्ध होता है। यह आपसे प्रारंभ में निवेदन कर दूं, तो फिर मेंरे, मैं जो कहूंगा उसे समझने में आसानी होगी, समझने में और पकड़ने से बचना हो सकेगा। वह भी छोड़ देने योग्य है, जो मैं आपसे कहूं, वह भी जो आपने और सीख लिया है, उचित है कि आप सबसे मुक्त हो जायें, ताकि स्वयं को जान सकें।

सबसे पहले प्रश्न पूछा हैः महावीर, बुद्ध, गांधी, विनोबा, क्या इनकी शिक्षा हमें आत्म-ज्ञान देने में सहायक नहीं हो सकती?

नहीं। किसी की शिक्षा कभी आत्म-ज्ञान देने में सहायक नहीं होती। असल में शिक्षा ही आत्म-ज्ञान से संबंधित नहीं है। शिक्षा नहीं साधना आत्म-ज्ञान देती है। शिक्षा नहीं होती आत्म-ज्ञान की। अन्यथा अब तक दुनिया आत्मज्ञानी हो जाती। हम विद्यालय, विश्वविद्यालय बना सकते हैं, हम विद्यापीठ खोल सकते हैं, और वहां समझाया जा सकता है, और वहां पढ़ाया जा सकता है। शिक्षा नहीं होती है धर्म की, और दुर्भाग्य यही है कि हम सारे लोग धर्मों में शिक्षित हैं। इसीलिए दुनिया में धर्म के नाम पर अधर्म है। कोई हिंदू है,कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है। यह शिक्षा का परिणाम है। शिक्षा धार्मिक तो नहीं बनाती, हिंदू बना देती है, मुसलमान बना देती है, ईसाई बना देती है और तब ये हिंदू और मुसलमान और ईसाई मिल कर धर्म की हत्या करने में संलग्न हो जाते हैं। ये हजारों साल से धर्म की हत्या कर रहे हैं। ये करते रहेंगे। जब तक दुनिया में संप्रदाय होंगे, विशेषण होंगे, धर्म के नाम पर अलग-अलग संगठन, आॅर्गनाइजेशन, पाॅलिटिक्स होगी, तब तक दुनिया में धर्म के अंकुर के पनपने के लिए सुविधा बहुत कम है। दुनिया में धार्मिक आदमी नहीं पैदा हो पाता, क्योंकि धर्म के नाम से जो अड्डे बने हैं, वे मनुष्य के मन को इस भांति से शिक्षित और दीक्षित कर देते हैं कि उसके जीवन में स्वतंत्र विचार की, स्वतंत्र प्रतिभा की, चेतना की, जन्म की सारी संभावना नष्ट हो जाती है। आप पैदा होते हैं और शिक्षा शुरु हो जाती है, शिक्षा शुरु हो जाती है कि आप हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, शिक्षा शुरु हो जाती है कि कुरान, बाइबिल या गीता परम वचन हैं, परम सत्य हैं। शिक्षा शुरु हो जाती है कि ईश्वर है, आत्मा है, या ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है।
सोवियत रूस में शिक्षा वो देते हैं कि ईश्वर नहीं है। बीस करोड़ लोग; उन्होंने शिक्षित करने की कोशिश की है नास्तिकता में। दूसरे मुल्क हैं, वहां हम शिक्षित कर रहे हैं लोगोें को धर्मों के लिए। उन्हें रटवा रहे हैं, याद करवा रहे हैं। फिर ये बातें हमारे मन में बैठ जाती हैं। फिर इनको हम दोहराने लगते हैं, और सोचने लगते हैं, यही सत्य है। शास्त्र हमारे भीतर से बोलने लगते हैं, और हम सोचते हैं हम बोल रहे हैं। संप्रदाय बोलने लगते हैं, हम सोचते हैं हम सोच रहे हैं, अगर मैं आपसे पूछूं कि ईश्वर है? तो आपके मन में, अनेकों के मन में उठेगा--है। लेकिन आप विचार करना यह ‘है’ आपका है या सिखाया हुआ? यह आपको सिखाया गया है, समझाया गया है या आपने जाना? अगर आप ऐसे घर में पैदा हुए हैं , ऐसे धर्म में जो ईश्वर को नहीं मानता, जैसे अगर आप जैन हैं, या बौद्ध हैं, तो अगर मैं पूछूं क्या ईश्वर है? तो आपके मन में उठेगा ईश्वर नहीं है, आत्मा ही है। क्यों? क्या आप जानते हैं ईश्वर नहीं है? नहंी आपको सिखाया गया है कि ईश्वर नहीं है। दुनिया में कुछ भी सिखाया जा सकता है, और कुछ भी प्रचारित किया जा सकता है। कुछ भी मनों में भरा जा सकता है। अबोध मन बच्चों के होते हैं, कोई भी बात डाली जा सकती है। डाला जा सकता है, ईश्वर है, डाला जा सकता है ईश्वर नहीं है। समझाया जा सकता है ईश्वर के चार हाथ हैं, चार सिर हैं, या कुछ और समझाया जा सकता है। यह हमारे मन में बहुत गहरे बैठ जाएगा। यह शिक्षा आपको आत्मज्ञान जानने में बाधा हो जाएगी। क्योंकि इसके कारण आप कभी स्वतंत्र चिंतन करने में समर्थ न होंगे। आपका चिंतन हमेशा इसी शिक्षा से शुरू होगा, और इसी शिक्षा को सिद्ध करके समाप्त हो जाएगा। यह पक्षपात ग्रस्त मन होगा, यह क्लोज्ड माइंड होगा। यह खुला हुआ मन नहीं होगा यह खोज नहीं सकता। खोज के लिए ख्ुाला और मुक्त मन चाहिए। जानने के लिए, ज्ञान के लिए जंजीरें और दीवालें नहीं चाहिए, जानने के लिए पक्षपात नहीं चाहिए। प्रिज्युडिस नहीं चाहिए। कोई मत, कोई सिद्धांत नहीं चाहिए। जिज्ञासा जब मुक्त होती है, तो सत्य तक ले जाती है। और जिज्ञासा जब बंध जाती है, तो सत्य तक नहीं केवल मत तक, सिद्धांत तक, संप्रदाय तक ले जाकर समाप्त हो जाती है। अभागे हैं वे लोग जो सिखाए हुए धर्म को ही धर्म समझकर समाप्त हो जायेंगे। और धन्यभागी हैं वे लोग, जो उस धर्म को जान सकेंगे जो अनसीखा है और कभी सिखाया नहीं जा सकता। जिसे कोई सिखा नहीं सकता। जिसे अपने भीतर उघाडना और खोजना पड़ता है। इसलिए किसी की भी शिक्षा, यह नहीं कहता कि महावीर की या मोहम्मद की, या कृष्ण की या क्राइस्ट की, किसी की भी शिक्षा घातक है। शिक्षा नहीं। क्योंकि शिक्षा आती है बाहर से, शिक्षा कोई और देता है, कोई और सिखाता है हमें और वह शिक्षा हमारे मन में जाकर स्मृति बन जाती है। तोते की भांति हम उसे याद कर लेते हैं।
एक छोटे बच्चे को हम कहें ईश्वर है, वह क्या समझेगा? क्या जानेगा? और फिर हम साथ में यह भी कहें कि ईश्वर को जो नहीं मानता वह नरक में भेजा जाता है। छोटा बच्चा भयभीत हो जाएगा। और फिर हम उसे यह भी कहें कि जो ईश्वर को मानता है, स्वर्ग में ईश्वर उसे बड़े सुख देता है, उसका लोभ पकड़ लेगा। फिर वह अपने आस-पास अपनी मां को देखता है, अपने पिता को, अपने परिवार को, वे सारे लोग ईश्वर का झंडा लेकर मंदिरों में जाते हैं, पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, बड़े लोग बच्चे को लगता है सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं। शक्तिशाली हैं, क्योंकि बच्चा अगर जरा गड़बड़ करे तो उसका कान पकड़ते हैं, चांटा लगाते हैं। उसे घुटने टिकाते हैं, वह जानता है कि ये बड़े शक्तिशाली लोग हैं, बड़े ज्ञानी है, अगर ये भी मंदिर में जाते और ईश्वर को मानते हैं, तो जरूर ईश्वर है। फिर भय, कि अगर ईश्वर को न माना जाए तो नरक है। फिर प्रलोभन कि अगर ईश्वर को माना जाए तो स्वर्ग है। इस सारी स्थिति में ईश्वर है, यह भाव मन में बैठ जाता है। यह स्मृति का, मैमोरी का हिस्सा हो जाता है। फिर जब भी कोई उससे पूछेगा, जब वह बड़ा हो जाएगा, बार-बार पुनुरुक्त होने से ये संस्कार, यह कंडिशनिंग उसके भीतर बैठ जाएगी। जब भी प्रश्न आएगा ईश्वर है, तो वह कहेगा, है। और अगर जरूरत पड़े तो इस ईश्वर पर वह अपनी जान भी गंवा सकता है। या दूसरे की जान भी ले सकता है, ईश्वर वादी करते रहे हैं यह। ये धार्मिक लोग बहुत खतरनाक लोग हैं, इनके नाम पर बहुत खून है, ये तथाकथित मंदिर और मस्जिद की पूजा करने वाले लोग, जितना पाप किए हैं इस जमीन पर उतना कोई भी नहीं किया। इन्होंने बहुत हत्याएं की हैं, बहुत आग लगाई हैं। बहुत बच्चे काटे हैं, बहुत स्त्रियों की इज्जत लूटी है। बहुत धन बर्बाद किया है।इनके नाम पर बहुत पाप है। ये वही लोग हैं, जिनके दिमाग में एक विचार बैठा दिया, विचार इतना परिपक्व हो जाता है, उनके अहंकार को इतना पकड़ लेता है कि उस विचार को धक्का लगे तो वे समझते हैं, मुझे धक्का लगा।
अगर कोई कह दे कि ईश्वर नहीं है, तो वह लकड़ी लेकर, तलवार लेकर खड़े हो जाएंगे, ईश्वर की रक्षा का जिम्मा उनके ऊपर है। कहते तो वो यह है कि ईश्वर सबका रक्षक है, लेकिन दिखाई यह पड़ता है कि ईश्वर की रक्षा भी उनके भक्त करते रहते हैं। मंदिरों पर तालों की जरूरत है और सिपाहियों की। और संप्रदायों को तलवारों और बंदूकों की जरूरत है। संप्रदायों को भी फौजों की जरूरत है, उनको भी राज्यों की जरूरत है। राजनीतिज्ञों के और राजाओं के सहारे की जरूरत है, तब सब काम फैलेगा। सारे धर्म ये सीखी हुई बातें, ज्ञान तो नहीं लाती, मनुष्य के अज्ञान को, अज्ञान की जो पीड़ा है, उसको नष्ट कर देती हैं। अगर कोई हमें न बताया जाए कि ईश्वर है या नहीं, अगर कोई सिद्धांत हमें न सिखाए जाएं, अगर किसी संप्रदाय में हमें दीक्षित न किया जाए, तो आज नहीं कल हमारे जीवन में समस्याएं और प्रश्न, दुख और पीड़ा, अज्ञान हमें बेधना शुरु कर देंगे, वे हमें पीड़ा देना शुरु कर देंगे, उनकी चिंता हमें सताने लगेगी और हमें लगेगा क्या है इस जीवन का अर्थ? क्या है प्रयोजन? क्यों हैं हम? क्यों है हमारी सत्ता? कौन हूं मैं? ये प्रश्न किसी के सिखाने के नहीं हैं, ये तो जीवन की पीड़ा और जीवन का अनुभव उठा देगा, और जब कोई बंधे-बंधाए उत्तर न हों, तो फिर क्या करेंगे? बंधे-बंधाए उत्तर, रेडीमेड उत्तर बड़े खतरनाक हैं। समस्या उठती है, उत्तर वहीं के वहीं तृप्त कर देता है, ईश्वर तो है, भाग्य तो है, ईश्वर यह सब लीला कर रहा है, उसकी लीला से यह सब हो रहा है। अगर गरीब हैं तो पुराने जन्मों के कर्मों से गरीब हैं, और अगर अमीर हैं, तो पिछले जन्मों के पुण्यों का फल है। सारी बातें तैयार हैं, कोई भी समस्या उठती है, सब उत्तर तैयार हैं, इसलिए कोई भी समस्या जीवन को कंपा नहीं पाती, जीवन को पीड़ा नहीं दे पाती, जीवन में संताप और चिंता नहीं पैदा कर पाती। जीवन में एक घबड़ाहट, एक बेचैनी, एक अशांति खोज की एक प्यास पैदा नहीं हो पाती; क्योंकि यह शिक्षा बंधे-बंधाए उत्तर दे देती है, और मामला समाप्त हो जाता है। उधर उत्तर वास्तविक धर्म की छाती पर बैठ जाते हैं, और नष्ट कर देते हैं। समस्या होना जरूरी है, समाधान से ज्यादा महत्वपूर्ण, समस्या है, उत्तर से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न है। बंध-बंधाए शास्त्रों से ज्यादा महत्वपूर्ण स्वयं की समस्या है। मगर शास्त्र उसकी हत्या कर देंगे। एक पीड़ा उठेगी मन में कि मैं जानूं कि मैं कौन हूं, क्यों हूं? और उत्तर तैयार हैं, वो इस पीड़ा को पोंछ कर समाप्त कर देंगे और कहेंगे क्या जानने की बात है, महावीर सर्वज्ञ हुए, उन्होंने सब बता दिया है। बुद्ध भगवान हुए उन्होंने सब बता दिया है। मोहम्मद पैगंबर थे खुदा के उन्होंने जो कह दिया उसके आगे कुछ कहने को नहीं है। सब लिखा है पढ़ लो, समझ लो, याद कर लो, जानने की तुम्हें क्या जरूरत है? दुनिया भर के बुद्धि के लिए कुछ ठेकेदारों पर हमने सब जिम्मा छोड़ दिया है। और हम सोचते हैं उन्होंने हमारे लिए सब चिंतन कर लिया और सब जान लिया है। इस भांति अगर हम अबुद्धि में घिर गए हों, और अगर अज्ञान में खड़े रह गए हों, तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। जिम्मेवार हम हैं। जिम्मेवार मैं हूं, जिम्मेवार आप हैं। हम अपनी बुद्धि को उधार दिए हुए हैं, और इसी को मैं कहता हूं शिक्षा। नहीं धर्म के लिए कोई शिक्षा नहीं होती, साधना होती है। धर्म के लिए उत्तर नहीं होते, प्रश्न होते हैं। धर्म के लिए समाधान नहीं होते, समस्या होती है। समस्या में जीना जरूरी है, और दूसरों के उत्तरों को फेंक देना जरूरी है, अपनी समस्या में जीएं, अपनी समस्या में, और तब आप पाएंगे कि कठिन है, तपश्चर्या है, अपनी समस्या में जीना बड़ी कठिन बात है, अपने प्राॅब्लम के साथ जीना बड़ी कठिन बात है, क्योंकि वह चैन न लेने देगा, वह कांटे की तरह चुभेगा, वह प्राणों में शूल की भांति बिंधा रहेगा। जब तक कि उत्तर न आ जाए तब तक वह सताएगा, तब तक वह पीड़ा देगा, और वह पीड़ा आपको उठाएगी, वह पीड़ा आपको खोज में भेजेगी, वह दुख आपको दुख के निरोध के मार्ग पर ले जोयगा। लेकिन हम तो सब शिक्षित लोग हैं, हम तो सब जानते हैं, हम तो सब शास्त्रों से भरे हैं। यही तो पीड़ा है, यही तो कठिनाई है; यही तो बड़ी बाधा है।
एक जगह मैं गया था, एक छोटे बच्चों का अनाथालय था। और वहां मुझे उन्होंने कहा कि हम इन्हें धर्म की शिक्षा देते हैं। मैं थोड़ा चैंक जाता हूं जब कोई कहता है कि धर्म की शिक्षा, फिर पीछे शिक्षा आयोग बैठा हुआ है, उन्होंने मुझे बुलाया, कुछ गलती से बुला लिया होगा। वह धर्म की शिक्षा देने के लिए विचार करते थे, मुझे भी भूल से उन्होंने बुला लिया। वे कहने लगे कि धर्म की कैसे शिक्षा दी जाए, यह आप बताइए? मैंने कहाः मैं तो यह चाहता हूं कि धर्म की जितनी भी शिक्षा चल रही है, वह छीन ली जाए। दुनिया में सारे लोगों के मस्तिष्कों से धर्म अलग कर दिए जाएं, मस्तिष्क मुक्त हो। मनुष्य सोच सके इसकी कृपा करें। पर वो तो विचार करने बैठे थे कि गीता कैसे पढ़ाई जाए स्कूल में, कुरान कैसे पढ़ाया जाए, और अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम यह कैसे जपवाया जाए। वह तो इसको विचार करने बैठे थे। वे बहुत परेशान हुए। वे बोले कि आप तो बहुत गड़बड़ आदमी हैं, मैंने उनसे कहा कि मैं गड़बड़ हूं अगर, और अगर आप ठीक हैं तो फिर ठीक है, फिर यह दुनिया गड़बड़ नहीं होनी चाहिए; लेकिन जिसको आप धर्म की शिक्षा कह रहे हैं, वह हजारों साल से दी जा रही है। वे किताबें और वे ग्रंथ और बातों हजारों साल से लोगों को रटाई जा रही हैं, दुनिया इससे बदतर और क्या हो सकती है, जो है। इससे ज्यादा करप्टेड, इससे ज्यादा सड़ी हुई, कोई समाज, कोई संस्कृति, कोई सभ्यता हो सकती है, जो हमारी है। पांच हजार साल के बाद हम कीड़े-मकोडों की तरह जी रहे हैं, पांच हजार साल की शिक्षा के बाद भी वही हिंसा, वही घृणा, वही एक-दूसरे की छाती पर छुरा भोंक देने की इच्छा, वही सब हममे मौजूद है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। अब मनुष्य वैसे का वैसा है। और फिर भी आप खयाल करते हैं और शिक्षा दें, और गीता पिलाएं, और कुरान, और बाइबिल और इनको सिखाएं। और बहुत आश्चर्यजनक है।
उस बच्चों के स्कूल में मैं गया। वहां भी मैं परेशान हुआ। उन्होंने कहाः हम धर्म की शिक्षा देते हैं। मैंने कहाः यह बात ही अजीब लगती है, फिर भी मैं समझूं क्या शिक्षा देते हैं? उन्होंने कहाः हम बच्चों को सब बातें सिखाते हैं, आप कुछ भी पूछिए ये उत्तर देंगे। मैंने कहाः आप ही पूछें, मैं सुनूंगा।
उन्होंने पूछाः आत्मा है?
उन सारे बच्चों ने हाथ उठा दिए कि है।
छोटे-छोटे बच्चे, मुझे बड़ी दया मालूम होने लगी, यह तो बड़ा अनाचार हो गया। छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें आत्मा का कोई पता नहीं, वे कहने लगे--है। ये बूढ़े हो जाएंगे और हाथ इनके ऐसे ही हिलते रहेंगे और ये कहेंगे--है। और इन्हें कुछ भी पता नहीं, इन्हें कुछ भी पता नहीं। वह बचपन में सिखाया गया खयाल, बुढ़ापे तक हाथ हिलाते रहेंगे कि है। जब भी कोई सवाल करेगा ये हाथ उठा देंगे।
उन बच्चों को देखता हूं, आपको देखता हूं, कोई बहुत फर्क थोड़े ही पाता हूं।
तो मैंने उनसे कहाः यह आत्मा कहां है?
उन सारे बच्चों ने हृदय पर हाथ रख दिया, उन्होंने कहाः यहां है। मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछाः क्या तुम्हें पता है कि हृदय कहां है? उसने कहाः यह तो हमें बताया नहीं गया।
हम भी अगर आपसे पूछें, आत्मा कहां है? आपके हाथ उठेंगे और हृदय पर चले जाएंगे। आप जानते हैं, इसको मनोवैज्ञानिक कंडीशंड रिफ्लेक्स कहते हैं।
पावलफ नाम का विचारक हुआ रूस में। उसने कुत्तों पर बड़े प्रयोग किए। वह कुत्तों को खाना, अगर आपके पास भी कुत्ते हैं, कई के पास होंगे, पश्चिम के प्रभाव में कई के पास आ गए हैं। आदमी से नाता टूटता जाता है, कुत्ते से जुड़ता जाता है। तो पावलफ के पास बहुत कुत्ते थे, तो खाना देता था। खाना रखते से उनके मुंह से लार टपकने लगती थी, पावलफ ने एक काम किया जब खाना देता था, तब ही घंटी भी बजाता था। खाना चलता घंटी बजती, कुत्तों के मन में घंटी और खाने के बीच संबंध जुड़ गया। कुछ दिन ऐसे ही चला, महीने-दो महीने, फिर पावलफ ने रोटी देनी बंद कर दी, सिर्फ घंटी बजाई। कुत्तों की लार टपकने लगी। यह है कंडीशंड रिफ्लेक्स। एक आदत हो गई।
आपसे पूछें आत्मा है? आप कहते हैं--है। सिर हिल जाता है, यह कंडीशन रिफ्लेक्स है, यह कुत्ते-घंटी की आवाज पर लार टपका रहे हैं। आपसे पूछें, आत्मा कहंा है, हाथ यहां चला जाता है, यह कंडीशन रिफ्लेक्स है, यह केवल एक आदत है जो बार-बार दोहराने से पैदा हो जाती है। इसमें कोई मामला नहीं है, यह कोई ज्ञान नहीं है। आपके मन में उठता है कि परमात्मा तो ऊ पर आकाश की तरफ देखने लगते हैं, आप पागल हो गए हैं, परमात्मा छप्पर की तरफ है? कि नीचे है कि आस-पास है, लेकिन जब भी कोई आदमी प्रार्थना करता है तो ऊ पर की तरफ हाथ उठाता है। यह कंडीशन रिफ्लेक्स है, यह खयाल बिठा दिया गया है दिमाग में कि परमात्मा ऊपर है। क्यों? नीचे क्यों नहीं है? दाएं-बाएं क्यों नहीं है, ऊपर क्यों है? एक मुसलमान है तो वह काबा की तरफ हाथ जोड़ कर खडा हो जाता है, एक हिंदू है तो सूरज की तरफ हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है। तो यह सब कंडीशन रिफ्लेक्स है, सिखाई गई बातें हैं। यह कोई ज्ञान नहीं है। स्मृति में कुछ बातें डाली जा सकती हैं, बैठाई जा सकती हैं। बैठ जाने पर वे सक्रिय हो जाती हैं। और फिर व्यक्ति उन्हीं के घेरे में जीवन भर घूमता रहता है, उनसे कभी मुक्त नहीं हो पाता।
धर्म का ज्ञान, धर्म का अनुभव किन्हीं की शिक्षाओं से नहीं होता, वरन सबकी शिक्षाएं छोड़ देने से होता है, सबके शास्त्र भूल जाने से होता है। जो भी सीखा है, उसे अनलर्न करना होता है, उसे भूलना होता है, उसे छोड़ना होता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि क्या करें? मैं कहता हूं कृपा करें, कुछ थोड़े भूलने की कृपा करें। कुछ दया करें, थोड़ा भूलें, आप काफी जानते हैं, इस जानने को थोड़ा छोड़ें। थोड़े अज्ञानी बनें। थोड़ा ज्ञान से मुक्त हों। अज्ञान बड़ी अदभुत बात है, ज्ञान नहीं। क्योंकि झूठा ज्ञान, जो वस्तुतः आपने नहीं जाना है, वही सुसाइडल सिद्ध होगा। वही आत्मघाति सिद्ध होगा। नहीं छोड़े उस ज्ञान को जो आपने नहीं? जाना, कभी किसी क्षण में विचार करते हैं किसी एकांत क्षण में, किसी मौन क्षण में, कभी सोचा है कि क्या मैं जानता हूं, परमात्मा, आत्मा, स्वर्ग, नरक, भाग्य, प्रारब्ध, पुनर्जन्म, क्या मैं जानता हूं? बहुत से प्रश्न इसी संबंध में हैं, कि प्रारब्ध होता है या नहीं। पुनर्जन्म होता है या नहीं? अगर भाग्य सत्य है, तो फिर हमारे करने से क्या होगा? कितनी योनियां होती हैं, चैरासी करोड़ होती हैं या कितनी होती हैं? ये सब प्रश्न हैं, थोड़ा विचार करें, इसमें से क्या आप जानते हैं? अगर मौन क्षण में थोड़ा भी समझने की कोशिश की तो ख्याल में आएगा यह सब सिखाया गया है, यह हमारा जानना नहीं है। फिर जो सिखाया गया है, उसको ही जानने की तरह जो ढोता है, वह बोझ ढो रहा है। इस बोझ को उतार दें, हलके हो जाएं।
जिसे वस्तुतः ज्ञान को पाना है, उसे सबसे पहले झूठे ज्ञान को छोड़ना पड़ता है। जिसे ज्ञान पाना है, उसे सबसे पहले झूठे ज्ञान को छोड़ना पड़ता है। सीखे हुए ज्ञान को छोड़ना पड़ता है, बड़ी पीड़ा होगी, क्योंकि अहंकार टूटेगा, जैसे कोई प्याज को छीलता हो, और एक-एक, एक-एक पर्त उसकी उखाड़ता जाता हो, ऐसे आपको लगेगा जैसे कोई हमारे अहंकार को छील रहा है, एक-एक पर्त खींच कर निकाल रहा है। और जैसे प्याज को उखाड़ते-उखाड़ते आखिर में कुछ भी हाथ नहीं आता, वैसे ही आपके ज्ञान की स्थिति है, खींचते-खींचते, देखते कौन सा मेरा ज्ञान नहीं आप छोड़ते गए, आखिर में आप पाएंगे हाथ खाली हैं, अज्ञान पूरा है, लेकिन अज्ञान का बोध विनम्रता लाता है। और थोथे ज्ञान का बोध दंभ लाता है, इसलिए पंडित से ज्यादा घना दंभ और किसी का नहीं होता। जानने वाले का दंभ कि मैं जानता हूं, मैं हू सर्वज्ञ। मैं हूं तीर्थंकर, मैं हूं पैगंबर, मैं हंू अवतार; या मैं हूं जानने वाला, यह जो ‘मैं’ है यह जानने से भरता है। और ‘मैं’ खतरनाक है। जितना ‘मैं’ घना है, उतना ही आत्मा को नहीं जाना जा सकता, तो जरूरी है कि इस ज्ञान को छोड़ें, इसकी पर्तें उखाड़ें, दर्द होगा बहुत, कपड़े उतारने जैसा नहीं, चमड़ी उतारने जैसा दर्द होगा।
कपड़े तो हम रोज बदल लेते हैं, चमड़ी भी रोज बदलती जाती है, हमें पता नहीं चलता। जो चमड़ी आपके पिछले वर्ष थी, इस वर्ष नहीं है। और सात वर्षों में तो सब बदल जाता है, आदमी का सब सामान बदल जाता है। वह भी बदल रही है, लेकिन मन की जो खोलें हैं, वो नहीं बदलतीं। उनको उखाड़ना बड़ी पीड़ा होगी, जैसे हमारे प्राण ही छीने जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि थोथा अज्ञान हटेगा, तो भीतर डर लगेगा कि मैं तो अज्ञानी हूं, अज्ञानी होने में भय मालूम होगा। लेकिन इस भय को सहना ही साहस है। और सत्य के लिए साहस की परीक्षा चुकानी पड़ती है। जो अज्ञान में खड़ा हो जाए, जिसे यह स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे कि मैं कुछ भी नहीं जानता, जिसे यह स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे कि ये आवाजें दूसरों की हैं, जो मेरे भीतर गूंज रही हैं, मैं केवल इको कर रहा हूं, प्रतिध्वनि कर रहा हूं । जैसे पहाड़ के पास कोई चिल्लाए।
हम एक पहाड़ के पास गए, कुछ मित्र मेरे साथ थे, वैन मेरे साथ थी। उन्होंने जोर से कोयल की आवाज की तो पहाड़ से कोयल की आवाज आई। फिर हम लौटने लगे, तो उन्होंने कितनी अदभुत पहाड़ी थी, मैंने उनसे कहा कि हर आदमी ऐसा ही है। दूसरों की आवाजें हैं, हम तो ईकोइंग पाॅइंट हैं। हम तो दोहराते हैं।
कृष्ण ने गीता कही होगी और हम, हम इको कर रहे हैं, प्रतिध्वनि कर रहे हैं। महावीर ने वचन कहे होंगे हम इको कर रहे हैं। क्राइस्ट ने कुछ कहा होगा,हम इको कर रहे हैं। हम दोहरा रहे हैं। हमारे होने की जरूरत क्या है, ये पहाड़ियां काफी हैं, दोहराने को। हमारे होने की कौनसी आवश्यकता है, हमारी कोई अपनी निज सत्ता ही नहीं है, हम केवल दोहराने वाले हैं। सुबह से उठकर अखबार दोहराते हैं। वह आजकल की गीता है, वह पुरानी गीता है। फिर कुछ और दोहराते हैं, फिर रेडियो सुनते हैं, और दिन-रात दोहरते हैं,और जानना, जानना रत्ती भर भी नहीं है। ज्ञान के लिए अज्ञान में खड़ा होना जरूरी है। सारे थोथे ज्ञान को छोड़ देना जरूरी है। फिर क्या होगा? मुझसे लोग पूछते हैं फिर क्या होगा, जब हम अज्ञान में खड़े हो जायेंगे? कभी आपने आग में खड़े होकर देखा, क्या होगा यदि आपको आग में खड़ा कर दिया जाए? आप पूछेंगे मुझसे, अगर आपको आग में खड़ा कर दिया जाए, आप मुझसे पूछेंगे कि क्या होगा? नहीं पूछने की आपको फुरसत नहीं होगी, आप कूदेंगे और आग के बाहर हो जाएंगे। अज्ञान की अग्नि और भी ज्यादा पीड़ादायी है। और भी ज्यादा पीड़ादायी, और भी ज्यादा जलाने वाली। लेकिन थोथा ज्ञान बचाए रखता है उस पीड़ा से। अज्ञान में खड़े हो जाएं और देखें आपमें एक क्रांति घटित होगी। जिस दिन आप समस्त इस थोथे ज्ञान को जान पायेंगे कि मेरा नहंी है, यह सब घंटी बजी और लार टपकी वाला ज्ञान है, यह ज्ञान मेरा नहीं, यह सीखा हुआ है। यह लर्निंग है, नाॅलेज नहीं । यह मेमोरी है, स्मृति है, ज्ञान नहीं। जिस दिन आपको लगेगा आप अज्ञान में खड़े होंगे और अज्ञान में खड़े होने से बड़ी कोई पीड़ा नहीं है, और वह पीड़ा आपके भीतर शक्ति को जन्म देती है, वह चैलेंज बन जाती है, चुनौती बन जाती है कि अब मैं कुछ करूं। तब फिर आप ऐसे प्रश्न नहीं पूछेंगे कि चैरासी करोड़ योनियां होती हैं या नहीं? आदमी मर जाता है तो कितनी देर जिंदा रहता है और फिर स्वर्ग जाता है कि नरक जाता है? कितनी देर रुकता है और फिर नया जन्म होता है? फिर ये आपके प्रश्न न होंगे। तब आपकी समस्या कुछ और होगी। कुछ और।
मैंने सुना है तिब्बत में था एक मिलरेपा नाम का एक फकीर। एक व्यक्ति उसके पास गया, रिवाज था कि जो भी जाए वह तीन बार परिक्रमा करे गुरु की फिर तीन बार नमस्कार करे झुक कर, फिर निवेदन करे समय पाकर अपने प्रश्न को। बहुत से शिष्य इकट्ठे थे, एक नया शिष्य पहुंचा मारपा, उसने न तो तीन चक्कर लगाए मिलारेपा के, न तीन बार झुक कर प्रणाम किया। गया जोर से गुरु के कंधे पकड़ लिए और कहा कि मुझे कुछ पूछना है। गुरु ने कहाः कैसे नासमझ हो? कैसे अशिष्ट? तुम्हें यह भी पता नहीं अभी मैं दूसरों को उत्तर दे रहा हूं। तुम्हें यह भी पता नहीं कि तीन परिक्रमा लगानी चाहिएं, तीन बार प्रणाम करना चाहिए? उसने कहा सब मुझे पता है, लेकिन जो आग में खड़ा हो वह औपचारिकता नहीं निभा सकता। मैं बाद में परिक्रमा लगा लूंगा, तीन की जगह तीन सौ और तीन सौ बार पैर पड़ लूंगा, लेकिन कृपा करें अभी मुझे कुछ पूछना है, उसकी बात कर लें। क्योंकि आप भी शायद मुझे विश्वास न दिला सकेंगे कि अगर तीन चक्कर लगाते वक्त मैं मर गया, बिना जाने तो जिम्मा किसका होगा, मेरा या आपका?
और अगर तीन बार पैर पड़ते वक्त मैं समाप्त हो गया, और मेरी श्वास टूट गई, और मैं बिना जाने मर गया तो कौन होगा इसका जिम्मेवार मैं या आप? मिलरेपा ने कहा, ऐसे लोग मुश्किल से आते हैं,जो आग से घिरे हों। और जब कोई ऐसा व्यक्ति आता है, जिसमें ऐसी प्यास हो, ऐसी पीड़ा हो तो असल में उसे किसी के पास आने की जरूरत ही नहीं, उसकी पीड़ा ही, उसकी प्यास ही उसके लिए द्वार बन जाएगी। जब कोई प्यासा होता है, तो सरोवर की तरफ खोज अपने आप शुरू हो जाती है। घने जंगल होते हैं, दरख्त बहुत लंबे होते हैं वहां, क्यों, क्योंकि घने जंगल में अगर सूर्य की रोशनी पानी है तो दरख्त को अपने सारे प्राणों की शक्ति इकट्ठा करके, ऊपर उठना होता है। उसे अपनी जड़ें बहुत गहरे भेजनी होती हैं, तब वह पानी उपलब्ध कर पाता है। घने जंगल होते हैं, दरख्त बड़े हो जाते हैं, घने जंगल न हों, दरख्त छोटे हो जाते हैं। पीड़ा घनी हो, तो प्राणों का संकल्प बहुत ऊंचा उठने लगता है। और पीड़ा तीव्र हो तो प्राणों की जड़ें बहुत गहरी बैठने लगती हैं। और पीड़ा ही न हो, केवल बातचीत हो, कौतुहल हो, जैसे हम पूछते हैं कि कौन सा अभिनेता सबसे अच्छा, वैसे ही हम पूछते हैं कौन सा भगवान सबसे अच्छा है? कृष्ण कि महावीर या बुद्ध कि कौन? जैसे हम पूछते हैं कि आज बाजार में चावल के कितने भाव हो गए। ऐसे ही हम पूछते हैं कि यह गीता ठीक कि बाइबिल? कि पुनर्जन्म होता है कि नहीं होता? ये हमारे कौतुहल हैं, क्युरेसिटीज हैं। यह हमारी प्यास और अभीप्सा नहीं है। तो मैं आपको कहूं किसी की शिक्षा ज्ञान नहीं देगी, सबकी शिक्षा छोड़ देने से अज्ञान का अनुभव होगा, अज्ञान का अनुभव छलांग का बिंदु बन जाता है। इस पर हम और बाद में विचार करें।

दो-एक प्रश्न और हैं, जो भी ऐसे ही हैं।
उन्होंने पूछा हैः ज्ञान क्या है?

मैं समझता हूं उनको भी मैंने जो कहा, खयाल आया होगा।
उन्होंने यह भी पूछा है कि शिक्षा-पद्धति हमारी आज की क्या ज्ञान देती है?

उनको मेरी बात खयाल में आई होगी, कोई शिक्षा-पद्धति ज्ञान नहीं दे सकती।

इसी संबंध में पूछा है कि हरेक चीज सीखनी पड़ती है--खाना, कपड़ा पहनना मां सिखाती है, अक्षर लिखना-पढ़ना सीखना पड़ता है, क्या उसी तरह सदाचार भी बिना सीखे कैसे मिल सकेगा? उसे भी सीखना पड़ेगा?

हमें ऐसा जरूर लगता है कि सब-कुछ तो हमें सीखना पड़ता है, तो फिर धर्म भी हम सीखेंगे। क्या कभी खयाल किया, रोटी खाना सीखा आपने? कपड़े पहनना सीखा? बहुत सी और बातें सीखीं, प्रेम सीखा या नहीं सीखा? कोई है एकाध जिसने प्रेम सीखा हो? और अगर कोई होगा तो लोग हसेंगे कि ये अभिनेता है। अभिनेता भर प्रेम सीखते हैं, और तो कोई प्रेम सीखता नहीं। प्रेम उत्पन्न होता है, सीखा नहीं जाता। और सीख लिया जाए तो सीखा होने की वजह से ही झूठा हो जाता है। दुनिया में अब खतरे हैं, प्रेम भी सीख लिए जाने के। क्योंकि बहुत अभिनेता हैं, उनका बहुत प्रदर्शन है, दूसरे भी उनकी नकल में पड़े हैं, बहुत डर है इस बात का कि थोड़े दिनों में सारी जमीन, सारी पृथ्वी पर अभिनेता ही अभिनेता ही रह जायें, और तब बड़ा खतरा पैदा होगा। खतरा पैदा यह होगा कि वो प्रेम भी सीखा हुआ करेंगे।
मैंने सुना है कि कुछ मुल्कों में कुछ संस्थाएं नई-नई खोली गई हैं, जहां वे प्रेम की भी शिक्षा देते हैं। हो सकता है कि कभी हम भी सीखें, यहां भी शिक्षा शुरू हो। करनी पड़ेगी। क्योंकि हमें लगता है कि सब चीजें सीखी जाती हैं। फिर प्रेम क्यों न सीखा जाए? जरूर सीखा हुआ प्रेम बड़ा व्यवस्थित होगा। सीखा हुआ प्रेम, उसके डायलाॅग, उसकी बातचीत सब बड़ी सुमधुर होगी। हो सकता है बातचीत कम हो और गीत ज्यादा हों। क्योंकि गीत सीखे जा सकते हैं और गाए जा सकते हैं। और सारी चीजें बंधी होंगी, नियमित होंगी, समय पर होंगी, सब चीजें जिसको हम कहें नियमबद्धता में होंगी। लेकिन प्रेम बचेगा क्या? इस सब उपद्रव में प्रेम के तो प्राण कभी के निकल जाएंगे। हम हंसते हैं प्रेम के सीखने पर। लेकिन आपने खयाल किया प्रार्थना आप सीखी हुई करते हैं। अगर प्रेम नहीं सीखा जा सकता तो प्रार्थना कैसे सीखी जा सकती है? प्रार्थना प्रेम का ही तो विकसित रूप है। जो व्यक्ति और व्यक्ति के बीच प्रेम है, वही व्यक्ति और समष्टि के बीच प्रार्थना है। जो मेरे और आपके बीच प्रेम है, वही मेरे और समस्त के बीच प्रार्थना है। तो प्रेम का ही तो विकसित और परम रूप प्रार्थना है। लेकि न प्रार्थना तो हम सीखते हैं, प्रेम हम नहीं सीखते। इसी वजह से प्रेम तो सच्चा होता है, प्रार्थना झूठी हो जाती है। ऐसी भी प्रार्थना है, जो बिना सीखी पैदा होती है, उसकी ही मैं बात कर रहा हूं। ऐसा भी धर्म है जो बिना सीखा पैदा होता है, जिसे उघाड़ना होता है। और तब वह प्रेम की भांति सरल होता है, सहज होता है, स्पांटेनियस होता है, सहज स्फूर्त होता है। और तब उसकी बात ही और है। तब वह पूरे जीवन को बदल जाता है। तब वह पूरे जीवन को स्वर्ण-किरणों से भर देता है। तब व पूरे जीवन को अमृत की वर्षा से भर देता है। जो जागता है प्रेम वही, जो जागती है प्रार्थना वही, जो धर्म आविष्कृत करना होता है, स्वयं में वही।
धर्म सीखा नहीं जाता। स्मरण रखें, जो भी श्रेष्ठ है वह सीखा नहीं जाता। जो भी सीख लिया जाए, सीखने के कारण ही मैकेनिकल हो जाता है। श्रेष्ठ नहीं रह जाता। जो भी श्रेष्ठ है, सुंदर है, शिव है, सत्य है, वह सीखा नहीं जाता। उसके लिए कुछ और करना होता है, कुछ और, कुछ और का मतलब है उसके लिए अपने को उघाड़ना पड़ता है, खोलना पड़ता है।
जैसे हम यहा बैठे हैं, सुबह हो सूरज उगे, दरवाजे बंद हों और हम जाएं बाहर और पोटलियों में प्रकाश को भर-भर कर भीतर लाएं तो क्या होगा? पोटलियां अंदर आ जाएंगी प्रकाश बाहर रह जाएगा। प्रकाश को ऐसे नहीं लाना होता भर-भर कर उसके लिए तो द्वार खोल देने होते हैं, प्रकाश भीतर आ जाता है। ठीक ऐसे ही कुछ भीतर नहीं भरना होता है, प्रेम या प्रार्थना के जन्म के लिए, बल्कि भीतर के सब हृदय के द्वार खोल देने होते हैं। सब भांति मन को उघाड़ देना होता है, सब दीवालें गिरा देनी होती है और तब हम पाते हैं हम समस्त से संयुक्त हो गए हैं। और प्राणो में एक उर्जा पैदा होती है, एक आकर्षण, एक प्रवाह जो हमने कभी नहीं जाना, वही है प्रेम, वही है प्रार्थना, वही है परमात्मा। लेकिन उसके लिए कुछ सीखना नहीं, सीखे हुए को अलग करना है। जैसे किसी दर्पण पर धूल जम जाए तो हम क्या करेंगे? हम करेंगे धूल को हटा देंगे ताकि दर्पण निखर जाए, वैसे ही जो हमने सीख लिया है, वह धूल की भांति हमारे चित्त के दर्पण को पकड़ लेता है; इस धूल को हटा देना है, ताकि दर्पण साफ हो जाए।
जैसे कि मैं अभी आपकी नदी के करीब से निकला,तो दूर-दूर तक हरियाली ने आपकी सारी नदी को ढाक लिया है, अब अगर नदी को लाना हो तो क्या करेंगे, पानी डालेंगे नदी में? क्या करेंगे? नहीं उस हरियाली को अलग करना होगा, पानी नीचे मौजूद है। हरियाली हटाएंगे और पानी के दर्शन शुरु हो जाएंगे। ठीक वैसे ही हमारा चित्त जीवन की यात्रा में बहुत सा कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लेता है। जैसे कि हम दिन भर किसी रास्ते पर पैदल चलें तो बहुत सी धूल इकट्ठी हो जाती है। जाते ही स्नान करते हैं, धूल को झाड़ देते हैं, लेकिन जिंदगी में हम कभी स्नान नहीं करते, मन का कभी स्नान नहीं होता, धूल जमती जाती है, जमती जाती है, रोज-रोज जमती जाती है, मन का दर्पण ढकता जाता है, ढकता जाता है, शिक्षा और संस्कार और समाज, और प्रोपेगेंडा, और संप्रदाय सब इकट्ठे होते जाते हैं, गीता और समाचार और रेडियो और सिनेमा सब बैठते चले जाते हैं और मन की झील पर काईं की पर्तों की पर्तें जम जाती हैं, काईं ही काईं दिखाई पड़ती है, मन के कहीं दर्पण का पता ही नहीं चलता। इस सबको उखाड़ना है। इस सबको छांट कर अलग कर देना है।
जिस दिन चेतना, मात्र चेतना की भांति रहती है, और सब अलग हट जाता है,उसी दिन आप पाते हैं कि वह आंख मिल गई, जो देखती है। वे प्राण मिल गए जो प्रेम करते हैं। वह ऊर्जा उपलब्ध हो गई, जो प्रार्थना बन जाती है। सत्य को या परमात्मा को खोदना है अपने भीतर, सीखना नहीं है। कहीं से लाना नहीं है, बल्कि कहीं से जो बहुत कुछ आ गया है, अलग कर देना है। परमात्मा कोई बाहर से आने वाला मेहमान नहीं है, घर के भीतर ही खो गया अपना ही कोई परिचित है। कोई बाहर से आने वाला अपरिचित नहीं, घर के ही भीतर खो गया कोई अपना ही आदमी, बल्कि हमारी स्वयं की सत्ता है।
इसलिए यह जो सीखने का खयाल है, गलत है, इस सीखने ने ही नुकसान पहुंचाया है। सीखने से मुक्त हो जाए तो मनुष्य में ज्ञान की तरफ, ज्ञान की उन्मुकता और ज्ञान के द्वार खुलने शुरु हो जाते हैं।

एक प्रश्न और आपसे अभी चर्चा कर लूं।
पूछा है कि हम जैसे शांति पाना जानते हैं, वह क्या वास्तव में शांति नहीं है, क्या उस शांति में भी अशांति है?

निश्चित ही। आप शांति पाना चाहते हैं, यही तो अशांति का लक्षण है। आप शांति पाना चाहते हैं, यह अशांत मन का लक्षण है। शांत मन तो शांति नहीं पाना चाहेगा। उसे पता भी नहीं चलेगा कि शांति पानी है। शांति खोजनी है। जितने ज्यादा अशांत लोग होते हैं, उतने ज्यादा अशांति की खोज शुरू हो जाती है। लेकिन अशांत मन शांति को कैसे खोजेगा, यही तो कंट्राडिक्शन है। अशांत मन कैसे शांति को खोजेगा? अंधेरा प्रकाश को खोजने चला जाए, तो कैसे पाएगा?
अशांत मन कभी शांति को नहीं पा सकता। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं हमें शांति पानी है, मैं उनसे कहता हूं आप कहीं और जाएं। क्योंकि मैं यह नहीं बता सकता कि शांति कैसे पाई जाए, मैं यह बता सकता हूं कि अशांति कैसे छोड़ी जाए। मत खोजिए शांति को, खोजिए अशंाति को, वह आपका तथ्य है। आप अशांत हैं, तो अशांति आपका तथ्य है, वह आपकी वास्तविकता है। इस अशांति को खोजिए, समझिए क्या है? क्यों है? कौन से कारण हैं? अकारण तो नहीं है ना कुछ? शांति-अशांति जो भी है, कोई कारण होगा।
एक डाक्टर के पास आप जाएं, और कहें मुझे स्वास्थ्य चाहिए तो वह क्या करेगा? वह कहेगा आप कहीं और जाएं, हम तो बीमारियों को मिटाते हैं, स्वास्थ्य नहीं देते। स्वास्थ्य देने वाला कोई डाक्टर कभी हुआ ही नहीं। बीमारी जरूर मिटाई जा सकती है, बीमारी मिट जाए तो जो शेष रह जाता है, उसका नाम स्वास्थ्य है। अशांति मिट जाए तो जो शेष रह जाता है उसका नाम शांति है। अशांत मन शांति को नहीं खोजता, न खोज सकता है। अशांत मन को अपनी अशांति समझनी चाहिए। अशांति के कारण समझने चाहिए, काॅ.जेलिटी समझनी चाहिए, पूरी वजह समझनी चाहिए क्यों यह अशांति है?
एक व्यक्ति मेरे पास आए, मुझसे उन्होंने कहा कि मैं दूर से आ रहा हूं। किसी ने कहा कि मैं आपके पास जाऊं मेरा मन बहुत अशांत है। तो मुझे शांति चाहिए, मैं इस आश्रम में गया, उस आश्रम में गया, पांडिचेरी या गया, अरुणाचल गया, शिवानंद के गया, यहां-वहां न मालूम। मैंने कहाः बहुत दुकानों पर आप घूम आए, अब मेरी दुकान पर आए हैं। कहीं-कहीं कोई बिकती है शांति। उन लोगों ने क्या कहा आपसे? किसी ने कहा, राम-राम जपो; किसी ने कहा, माला फेरो; किसी ने कहा, सब भगवान पर छोड़ दो, भाग्य है, सब होता है। सब ठीक हो जाएगा, उस पर छोड़ने से सब ठीक हो जाएगा। मैंने कहा, मैं मुश्किल में हूं, मैं आपको कोई उपाय नहीं बता सकता। लेकिन हां, कोई डाइग्नोसिस हो सकती है, कोई निदान हो सकता है, उपाय नहीं। उपचार की मेरी संभावना नहीं है, न सुविधा है। न मैं समझता हूं कि उपचार संभव है। हां निदान हो सकता है। विचार हम कर सकते हैं।
तो मैंने कहा बेहतर है आप रुक जाएं। अपने मन की बातें मुझसे कहें। रुक गए धीरे-धीरे एक-दो दिन में थोडी मैत्री बनी, तो उन्होंने अपने मन की बातें कहनी शुरु कीं। अशांति थी कि उनके लड़के ने एक ऐसी लड़की से विवाह कर लिया, जो उनकी जात की नहीं है। अशांति थी, कि उनकी पत्नी यद्यपि अब वो बूढ़े हो गए, अब भी उनकी आज्ञा नहीं मानती। अशांति थी कि मरने के बाद क्या होगा? क्योंकि वह बड़े ठेकेदार हैं और जिंदगी में बहुत पाप किया है। अशांति थी कि राम-राम बहुत दिन जपते हो गए, अभी तक राम के दर्शन नहीं हुए। ये सब अशांतियां थीं और बहुत अशांतियां थी, इन सबको सुन कर हमें हंसी आती है। आपकी अशांति कोई दूसरी तरह की है? बहुत गौर से देखेंगे तो अशांतियां बहुत दूसरी तरह की नहीं हैं? मैंने उनसे कहा कि इन अशांतियों से समझिए, दूसरे को सुनाऊंगा आपकी अशांतियां तो वह हंसेगा और आप गंभीर होकर बैठे हैं, आप भी हंसिए। समझिए थोड़ा आपको भी हंसी आएगी। लड़कियों की और लड़कों की भी कोई जात होती है? प्रेम भी कोई जाति देखता है? लड़की में कोई खराबी है, जिससे आपके लड़के ने विवाह कर लिया है? नहीं खराबी तो नहीं है, लेकिन मुझसे बिना पूछे किया। मेरी बिना आज्ञा के किया। तो मैंने कहाः थोड़ा समझिए, अशांति अहंकार की है। मेरी आज्ञा, आप सोचते हैं कि आपकी आज्ञा से आपका लड़का चलेगा। आप कल मर जाएंगे, लड़का फिर भी रहेगा, फिर क्या होगा? आप सोचते हैं आपकी आज्ञा से लड़का पैदा हुआ है? जो आपकी आज्ञा से प्रेम करेगा।
आप सोचते हैं लड़का मरने लगे, आपकी आज्ञा से बच सकता है। लड़के का अपना जीवन है, अपना व्यक्तित्व है, अपनी धारा है, आप कृपा करें उसे अपने मार्ग पर जाने दें, आप कौन हैं? क्या केवल यह संयोगवश कि आप भी कारणभूत हुए थे, उसके जगत में पैदा होने में, तो आप मालिक हो गए उसके। नहीं, प्रेम करने का हक आपको है, मालिक बनने का हक नहीं है। तो आप कृपा करें, मालिक बनें। क्रोध न करें, समझें थोड़ा, समझें और अपने मन को थोड़ा पहचाने, यह मन कैसा अहंकारग्रस्त होकर दुख और पीड़ा उठा रहा है। अगर हम अपनी सारी अशांति को समझें तो उस अशांति में हमें कारण दिखाई पड़ेंगे, और फिर अगर हमको अशांत रहना हो, तो उन कारणों को हम किए चले जाएं, और अगर हमें शांत होना हो, तो उन कारणों से थोड़ा बचें, शांति खोजने की कोई जरूरत नहीं है। अशांति को पहचानने की और खोजने की थोड़ी जरूरत है। अशांति को जाने, अशांति मिटनी शुरू हो जाएगी।
जिस दिन चित्त में कोई कारण नहीं रह जाते हैं अशांत होने के, उस दिन जो शेष रह जाती है घटना वह शांति है। अशांति के विरोध में शांति नहीं है। अशांति के अभाव में शांति है। अशांति की शत्रु शांति नहीं है, अशांति जब नहीं होती, तब जो होती है वह शांति है। अशांति से शांति का अभी तक मिलना ही नहीं हुआ, और न कभी होगा। जैसे आप सूरज से पूछें कि तुम्हारा मिलना कभी अंधेरे से हुआ? तो वह कहेगा, अभी तक तो नहीं हुआ, आप हैरान हो जाएंगे, आप रोज अंधेरे से मिलते हैं, सूरज की अभी तक मुलाकात नहीं हुई अंधेरे से। वह जहां भी जाता है, वहां अंधेरा नहीं पाता। शांति अब तक अशांति से नहीं मिली है। अशांति अब तक शांति से नहीं मिली है। तो अशांत चित्त को लेकर शांत होने चले हों तो पागल हैं। यह तो मिलना हो ही नहीं सकता, जमीन घूम आइए। अगर चित्त अशांत है तो शांति से मिलना नहीं हो सकेगा। लेकिन अशांत चित्त माला लिए बैठा है, आंख बंद किए बैठा है, राम-राम जप रहा है, गीता पढ़ रहा है, रामायण पढ़ रहा है, मंदिर में जा रहा है, तीर्थ में जा रहा है, कि शांत हो जाऊं; गुरुओं के पैर पकड़ रहा है, इस कौन से उस कौने तक गुरु बदल रहा है, सोच रहा है कि शांत हो जाऊं । इस मंदिर से उस मंदिर भाग रहा है, इस दुकान से उस दुकान यह अशांत मन कभी शांत नहीं हो सकता, न कभी हुआ है। अशांति को समझें। पहचानें, उसके वैज्ञानिक कारण को देखें। ज्ञान, कारण का ज्ञान मुक्ति लाता है, मुक्ति की सामथ्र्य लाता है। मुक्ति की सुविधा उपस्थित करता है। बोध शक्तिशाली बनाता है और फिर जब अशांति के कारण क्रमशः विलीन होने लगते हैं, तो आप पाते हैं कि शांति तो भीतर थी, अशांति लाई गई थी। शंाति स्वरूप थी, अशांति थोपी गई थी। अशांति हम खोज-खोज कर घर ले आए थे, और उसकी वजह से शांति दब गई थी। जब अशांति नहीं होगी, शांति आप स्वयं हैं। सत्य आप स्वयं हैं।
वह शांति को पा सकता है, जो अज्ञान में है वह ज्ञान में प्रविष्ट हो सकता है। यह सबूत है इस बात का, बीमार होना इस बात का सबूत है कि स्वस्थ हुआ जा सकता है, केवल मुर्दे ही बीमार नहीं होते, जिंदा आदमी बीमार होता है। बीमारी सबूत है स्वस्थ्य हो जाने की संभावना का। अशांति सबूत है, शांत हुआ जा सकता है, तभी तो अशांति का बोध हो रहा है, नहीं तो अशांति का बोध भी नहीं होता। अज्ञान का बोध हो रहा है, किसी केंद्र पर ज्ञान है। प्रत्येक की संभावना है, शांत और सत्य और संुदर को पाने की, लेकिन अगर सम्यक दिशा में प्रयोग हों तो, और अगर असम्यक दिशा में हम भटकें, तो फिर बहुत कठिन है।
मैंने सुना है एक यात्री पेकिंग की तरफ जाना चाहता था। कोई पेकिंग से थोड़ा दूर होगा, दो-चार, दस मील, उसने एक राहगीर से पूछा कि पेकिंग कितनी दूर है? उस राहगीर ने कहाः जिस तरफ तुम्हारा मुंह है अगर उसी तरफ चले जाओ तो पूरी जमीन पर चक्कर मारने के बाद पेकिंग आएगा। और अगर कृपा करो, जिस तरफ तुम्हारी पीठ है, उस तरफ मुंह कर लो, तो पेकिंग केवल तीन मील के फासले पर है। तो शांति कितनी दूर है? जिस तरफ आपका मंुह है, अगर उस तरफ ही चले जाएं तो वह जो चैरासी करोड़ योनियों का प्रश्न पूछा है, चैरासी करोड़ योनियों का चक्कर मार कर भी पेकिंग नहीं आएगा। और अगर मुंह फेर लें, तो पेकिंग तीन मील के फासले पर भी नहीं है। आप पेकिंग में ही खड़े हैं। आप वहीं हैं जहां पेकिंग है। आप वहीं है जहां सत्य है।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

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