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रविवार, 11 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

मधुर मधुर मेरे दीपक जल

प्रश्न-सार:


01-क्या मोहब्बत की घड़ी है आजकल
इक सदी इक लमहा है आजकल
आरजुओं को अब बरसाएं हम कहां
दिल की कलियां खिल रही हैं आजकल
दिल की दुनिया आनंद से आबाद है
मुस्तकिल रोशनी जल रही है आजकल

02-सूफी संत अलगजाली ने कहा है: इश्क-मजाजी और इश्क-हकीकी, भिन्न-भिन्न नहीं है; वरन, इश्क-मजाजी इश्क-हकीकी तक पहंुचने की पहली सीढ़ी है। इश्क-मजाजी यानी भौतिक प्रेम, इश्क-हकीकी यानी अभौतिक प्रेम। और इसी संबंध में दो बड़ी रोचक कथाएं भी उन्होंने कही हैं: पहली, जुलेखा का यूसुफ से प्रेम हो गया। वह प्रेम इतना घनीभूत हुआ कि उसे कोई आकर यह कह देता कि मैंने यूसुफ को देखा है, तो उसे गले का हार दे देती। उसके पास सत्तर ऊंट हीरे थे। धीरे-धीरे वे सब समाप्त हो गए। वह मात्र युसुफ को याद करती थी। यहां तक कि जब वह आकाश की ओर देखती, तो तारों में यूसुफ का नाम ही उसे दिखाई पड़ता।
किंतु विवाह हो जाने के पश्चात उसका प्रेम और व्यापक हो गया और उसने यूसुफ के साथ रहना अस्वीकार कर दिया। उसने यूसुफ से कहा: मैं तुमसे उस समय तक प्रेम करती थी, जब तक उस ईश्वर को नहीं जानती थी। ईश्वरीय प्रेम ने मेरे हृदय में घर कर लिया है। अब मैं उस स्थल पर किसी दूसरे को नहीं रख सकती। दूसरी कथा..इससे भी प्रभावशाली कथा मजनू की है। वह लैला के पीछे पागल हो गया था। यदि उससे कोई उसका नाम पूछता तो वह कह उठता ‘लैला।’ यदि कोई पूछता क्या लैला मर गई, तो वह कह उठता, लैला तो मेरे हृदय में है, उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। मैं ही लैला हूं। एक दिन वह लैला के कूचे से गुजर रहा था, आकाश की ओर उसकी आंखें लगी हुई थीं। किसी ने कहा, मजनू, तुम आकाश को न देखो, बल्कि लैला के घर की दीवालों की ओर देखो। शायद वह दिखाई पड़ जाए। मजनू ने तत्काल उत्तर दिया: मैं तो उन तारों से ही संतुष्ट हूं, जिनका प्रतिबिंब लैला के घर पर पड़ रहा है।
03-ओशो, क्या लौकिक प्रेम ही ईश्वरीय प्रेम में रूपांतरित हो जाता है? समझाने की अनुकंपा करें!

04-मैं प्रेम में मरा जा रहा हूं!

पहला प्रश्नः ओशो!
क्या मोहब्बत की घड़ी है आजकल
इक सदी लमहा है आजकल
आरजुओं को अब बरसाएं हम कहां,
दिल की कलियां खिल रही हैं आजकल
दिल की दुनिया आनंद से आबाद है
मुस्तकिल रोशनी जल रही है आजकल।

आनंद मोहम्मद! रोशनी तो सदा से जल रही थी। रोशनी से ही तुम बने हो। वही तुम्हारा स्वभाव है। हां, बोध अभी-अभी आया, स्मृति अभी-अभी जगी। भूली-बिसरी याद, पुनः याद आने लगी है।
लेकिन जब पहली बार प्रकाश का अवतरण होता है, तो ऐसा ही लगता है जैसे बाहर से आ रहा है, कहीं दूर से आ रहा है। आता है तुम्हारे ही भीतर से, तुम्हारे अंतस्तल से। जब आनंद की वर्षा होती है तो आकाश में नहीं घिरते मेघ, घिरते हैं अंतर-आकाश में। जब सत्य का सूर्य उदय होता है, तो प्राची लाल नहीं होती, तुम्हारा अंतस्तल ही उसके स्वागत में सुर्ख हो उठता है।
जो भी महत्वपूर्ण है, वह भीतर घटता है और जो भी कचरा है, वह बाहर घटता है। कचरा ही बाहर है। हीरे तो भीतर हैं। हीरे तो परमात्मा ने बहुत सम्हाल कर रखे हैं..तुम्हारे अंतस्तल में। तुम भी तो, घर में जो हीरे होते हैं, उन्हें खूब छिपा कर रखते हो; गहरा खोद कर जमीन में, गुप्त किसी को कानोंकान खबर न हो। ऐसे ही परमात्मा ने, जो हीरे हैं वे तुम्हारे भीतर गहरे खोद कर रखे हैं..इतने गहरे कि तुम्हें भी कानोंकान खबर नहीं हुई।
सत्य कोई उपलब्धि नहीं है..सिर्फ सुरति है, जैसा कबीर कहते हैं। है सदा से। पर हम भीतर मुड़ते नहीं। जहां नहीं है वहां खोजते हैं और जहां है वहां पीठ किए रहते हैं। इसीलिए एक क्षण में क्रांति घट सकती है। अगर प्रश्न परमात्मा को पाने का होता, तो यात्रा बहुत लंबी थी, अनंत थी; शायद ही कोई पूरी कर पाता; शायद ही कभी कोई परमात्मा को उपलब्ध हो पाता। वह अपवाद होता। लेकिन परमात्मा कोई उपलब्धि नहीं है। परमात्मा तो वही है जो सदा से उपलब्ध है..जिसे तुमने कभी खोया नहीं; जिसे तुम खोना चाहो तो खो सकते नहीं; खोने के लाख उपाय करो तो भी हारोगे, असफल हो जाओगे। हां, एक काम कर सकते हो: भुला सकते हो। गंवा नहीं सकते, भुला सकते हो। लेकिन जब हम भुला देते हैं, तो करीब-करीब गंवाने जैसा हो जाता है।
सदगुरु तुम्हें परमात्मा से नहीं मिलाता। तुम कभी छूटे ही नहीं। इसलिए परमात्मा से मिलाने की बात ही व्यर्थ है। ये तो थोथे गुरु, झूठे गुरु, परमात्मा से मिलाने की बातें करते हैं। सदगुरु तो तुम्हें केवल स्मृति दिलाता है, झकझोर देता है। जैसे कोई नींद में पड़ा हो और कोई आंखों पर ठंडे पानी के छींटे मार दे..बस इतना। ठंडे पानी के छींटे..और आंखें खुल गईं, और तुम जाग गए! जागरण ठंडे पानी के छींटों से नहीं आया; जागरण तो तुम्हारी क्षमता थी। ठंडे पानी के छींटों ने सिर्फ जो क्षमता सोई-सोई थी, खोई-खोई थी, भूली-भूली थी, उसके प्रति तुम्हें सजग कर दिया।
सदगुरु परमात्मा से नहीं मिलाता; याद दिला देता है कि तुम परमात्मा हो। तत्त्वमसि! तुम वही हो! इंच भर कम नहीं, रत्ती भर भिन्न नहीं।
इसलिए आनंद मोहम्मद, बहुत प्रेम उमगेगा..इतना कि समा न सकोगे। देह बहुत छोटी है। भीतर छिपा प्रकाश बहुत बड़ा है। देह तो बूंद जैसी, और प्रकाश सागर जैसा है। हां, गागर में सागर है। और जब जागोगे, तो गागर को तोड़ कर बहने लगेगा सागर। देह बहुत पीछे पड़ी रह जाएगी; जैसे बीज की खोल पड़ी रह गई और बीज का छिपा प्राण एक विराट वृक्ष हो गया। बीज को देख कर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कभी कि इसके भीतर इतने विराट वृक्ष का आविर्भाव हो सकता है; इतने फूल लगेंगे, इतने रंग-बिरंगे, इतने फल, इतने पत्ते, इतनी प्रशाखाएं, ऐसी आकाश में दूर-दूर तक फैलेंगी इसकी शाखाएं कि हजारों लोग इसके नीचे विश्राम कर सकें। कि इसकी सुगंध उड़ेगी दूर-दूर, कि हवाएं इससे सुवासित हो उठेंगी! कि पक्षी नीड़ बनाएंगे, कि पक्षी गीत गाएंगे! कि सूरज की किरणें इसके पत्तों से रास रचाएंगी! कौन सोच सकता था बीज को देख कर?
तुम्हें देख कर भी कोई नहीं सोच सकता कि परमात्मा छिपा होगा। तुम अभी बीज हो। जरा हिम्मत की और बीज टूटा, खोल पड़ी रह जाती है पीछे। ऐसी ही देह पड़ी रह जाती है पीछे। तुम देह को पार कर फैलने लगते हो।
तुम्हारे भीतर तुम से बड़ा प्रेम छिपा है। तुम्हारे भीतर तुम से विराट चैतन्य छिपा है। तुम्हारे भीतर तुमसे अनंत प्रकाश छिपा है। तुम्हारे भीतर इतना बड़ा आकाश है, कि जब पहली दफा तुम उसे देखोगे तो भरोसा न आएगा। सोचोगे..कोई भ्रम तो नहीं हो रहा? मैं किसी स्वप्न में तो नहीं खो गया हूं? कोई सम्मोहित दशा तो नहीं है? मैं किसी कल्पना के जाल में तो नहीं उलझ गया हूं?
इसलिए गुरु की जरूरत है उस दिन भी। गुरु की दो बार जरूरत पड़ती है जीवन में। एक बार कि पानी के छींटे मारे आंखों पर; और दूसरी बार, कि जब तुम आंखें खोल कर देखो और अपने से पहली बार परिचय हो, तो तुम्हें आश्वासन दे कि घबड़ाओ मत..यही हो तुम, तत्त्वमसि! मत भय करो! नहीं तो अपनी ही विराटता से भय पैदा होता है। अपनी ही अनंतता से छाती थर्रा जाती है! अपने ही आकाश को देख कर भागने का मन होने लगता है। ...‘इतना बड़ा शून्य सम्हालूंगा कहां? इतनी बड़ी संपदा बचाऊंगा कहां? ’
कौड़ी-कौड़ी जोड़ने के हम आदी हैं। कौड़ी की भाषा हमें समझ में भी आती है। लेकिन जब अनंत वर्षा होती है, जब छप्पर तोड़ कर उसकी वर्षा होती है, तब हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं।
इसीलिए तो परमात्मा का पहला संस्पर्श करीब-करीब लोगों को उन्मत्त कर जाता है, विक्षिप्त कर जाता है। ऐसी मादकता से भर जाता है कि कहीं रखते हैं पैर और कहीं पड़ते हैं! कहते हैं कुछ, कह जाते हैं कुछ! करते हैं कुछ, हो जाता है कुछ! जैसे अपने बस के बाहर! जैसे अपना कोई नियंत्रण नहीं। ऐसी ही किसी घड़ी में तो कबीर ने कहा..होनी होय सो होय।
योग प्रीतम का यह गीत, इस पर ध्यान करना..

हर जगह महफिल उसी की है सजी
जिंदगी का गीत सुनना हो..रुको
बह रही रसधार उसकी सब तरफ
इस अमृत का पान करना हो..झुको

तुम सुनो संगीत उसका है मुखर
बस हृदय में मौन का उल्लास हो
तृप्ति का सागर हिलोरें ले रहा
प्राण में बस एक पागल प्यास हो

नृत्य उसका ही अहर्निश चल रहा
हो अगर थिरकन तुम्हारे पांव में
तुम उसी की ज्योति से जगमग हुए
जी रहे हो तुम उसी की छांव में

देख सकते हो कंुआरी आंख से
सब कहीं आनंद-उत्सव चल रहा
हो हृदय अभिभूत तो तुम जान लो
धड़कनों में बस वही तो पल रहा

आनंद मोहम्मद, तुमने हिम्मत की है, साहस किया है। और जो साहस करता है, हिम्मत करता है, उसका दांव व्यर्थ नहीं जाता।
आनंद मोहम्मद मुश्किल में पड़े हैं। मुसलमान होकर मेरे संन्यासी होना मुश्किल की तो बात है ही। सूरत जब संन्यासी होकर लौटे, तो और मुसलमानों ने हजार झंझटें खड़ी कर दीं। लोग कहने लगे, तुम हिंदू हो गए। अब मेरा संन्यासी न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न ईसाई है। मेरा संन्यासी तो सिर्फ संन्यासी है। संन्यास भी कहीं हिंदू, मुसलमान और जैन होता है! ये भेद-भाव संसार में रखो। ये छोटी-छोटी बातें, संन्यास कहीं इनमें बंधेगा, अटकेगा!
लेकिन आनंद मोहम्मद ने फिकर न ली, अपनी मस्ती में डोलते रहे, गीत गुनगुनाते रहे। ...तो जो दांव लगाता है, व्यर्थ नहीं जाता। जितनी कीमत चुकाता है, उससे बहुत गुना पाता है।

हर जगह महफिल उसी की है सजी
जिंदगी का गीत सुनना हो..रुको

और तुम रुके, इसीलिए गीत की पहली कड़ियां तुम्हारे कानों में पड़ने लगीं।

बह रही रसधार उसकी सब तरफ
इस अमृत का पान करना हो..झुको

और तुम झुके, तो तुम मालिक हो गए। जो झुका वह जीता। जो अकड़ा रहा, वह हारा। जीवन का परम गणित बड़ा उलटा है। दुनिया में तो जो अकड़ा रहता है, जितना अकड़ता है, उतना ही जीतता मालूम होता है। यहां तो झुका दुनिया में कोई कि हारा। झुका कि धूल में गिरा। झुका कि लोगों ने उसके सिर को सीढ़ी बनाया। इस दुनिया में तो जो रुका, उसने गंवाया। यहां तो दौड़ चाहिए। अहर्निश दौड़ चाहिए। बिना इसकी फिकर किए कि कहां जा रहे हो, चले चलो; इतना ही ख्याल रहे कि दौड़ धीमी न हो, औरों से तेज हो। न यह पूछने की फुर्सत है, न जानने की, न सोचने की कि कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं? जो इस सोचने में अटका, वह पीछे रह जाता है। सोच-विचार का अवसर कहां है? अवकाश कहां है? यहां दौड़-धाप ऐसी है, कि पहले दौड़ लो, फिर सोच लेंगे बाद में पहंुच कर।
लेकिन परमात्मा के जगत में नियम बिल्कुल विपरीत है। वहां जो दौड़ा, वह भटका। वहां जो रुका, वह पहंुचा। रुकने का नाम ही ध्यान है। चित्त का चलन रुक जाए। चित्त की गति रुक जाए। चित्त का यह आवागमन, यह सतत चहल-पहल, यह चलता हुआ..रास्ता, यह विचार और वासनाओं की दौड़, यह आपाधापी, यह व्यस्तता, ये कल्पना और स्मृति के जाल..चित्त किसी में न उलझे, रुक जाए, ठहर जाए, पूर्णविराम लगा दे..बस ध्यान हुआ। और जो रुका, वह पहंुच गया। क्योंकि जो रुका वह अपने को देखने से कैसे वंचित रहेगा! जब तक दौड़ रहे हो, आंख किसी और चीज पर लगी है..धन पर, पद पर, प्रतिष्ठा पर; जब रुकोगे, आंख अपने आप बंद हो जाएगी। जब दौड़ना ही नहीं, तो बाहर देखना क्या? जब दौड़ना ही नहीं, तो चारों तरफ आंखों को क्यों भटकाना! ये आंखें भी चारों तरफ चंचल भटकती हैं, क्योंकि मन तलाश कर रहा है किस विषय की तरफ दौडूं। अनंत प्रलोभन हैं यहां, सभी तो पाए नहीं जा सकते। दो हाथ हैं, दो पैर हैं, छोटी दौड़ है। छोटा पात्र है, किससे भर लूं? तो मन चारों तरफ टटोल रहा है, किस दिशा में मेरी सफलता होगी? इसीलिए आंखें भटक रही हैं।
आंखें चंचल हैं, क्योंकि मन चंचल है। आंखें सबूत हैं मन की चंचलता की। आंखें द्वार हैं, झरोखे हैं। मन रुका कि आंखें बंद हुईं। मन ठहरा कि आंखों की गति भी गई, आंखें भी थिर हुईं।
और जिसकी आंख थिर हुई, वह अपने भीतर न देखेगा तो और कहां देखेगा? जिसकी आंख बंद हुई, वही क्षमता जो सारे जगत को देखती थी, अपने पर लौटने लगती है। वही रोशनी, जिसमें सारे पदार्थ आलोकित हो रहे थे, अचानक अपने पर गिरती है। और तब मालिकों के मालिक का दर्शन हो जाता है।

बह रही रसधार उसकी सब तरफ
इस अमृत का पान करना हो..झुको

दुनिया में तो अकड़ना, झुकना मत; टूट जाओ, मगर झुकना मत..लोग कहते हैं। मिट जाओ, मगर झुकना मत। यहां तो संघर्ष है..एक-दूसरे को मिटाने का। मिटाने में मिटना ही पड़ेगा। जो तलवार उठाएगा, वह तलवार से ही गिरेगा। परमात्मा के जगत में, अंतर्जगत में, अंतरलोक में, नियम बिल्कुल विपरीत है। वहां झुको। वहां ऐसे मिट जाओ, जैसे हो ही नहीं। और तभी तुम अपनी झोली हीरों से भर पाओगे।
उसकी धार तो बह रही है। नदी के तट पर तुम खड़े हो, अकड़े हुए। प्यासे, मगर अकड़े हुए। झुको कैसे! तुम..और नदी के सामने झुको! तो खड़े रहो अकड़े। नदी कोई छलांग लगा कर तुम्हारी अंजुली में न आ जाएगी। और नदी छलांग लगा कर तुम्हारे कंठ में न उतर जाएगी। नदी को क्या पड़ी। नदी को क्या लेना-देना! जब तुम्हीं झुकने को राजी नहीं..जिसकी प्यास है..तो नदी को भी क्या प्रयोजन! तुमसे नदी जबरदस्ती न करेगी। नदी हिंसा नहीं करेगी। नदी चुपचाप बहती रहेगी। पीना हो तो झुको। बनाओ अंजुली, झुको। भरो हाथ, फिर जी भर कर पियो!

बह रही रसधार उसकी सब तरफ
इस अमृत का पान करना हो..झुको

आनंद मोहम्मद, तुम रुके भी थोड़े, तुम झुके भी थोड़े। इसलिए यह घड़ी आ गई। इसीलिए आज तुम कह सकते हो..

क्या मोहब्बत की घड़ी है आजकल
एक सदी एक लमहा है आजकल
आरजुओं को अब बरसाएं हम कहां?
दिल की कलियां खिल रही हैं आजकल
दिल की दुनिया आनंद से आबाद है
मुस्तकिल रोशनी जल रही है आजकल

लेकिन यह अभी शुरुआत है, भूल मत जाना। सिर्फ यात्रा का पहला कदम है। यद्यपि पहले कदम पर भी यात्रा इतनी मधुर होती है कि लगता है आ गई मंजिल! पहले कदम पर भी आनंद का अनुभव ऐसा गहन होता है! कभी जाना ही नहीं था आनंद। जैसे जन्मों-जन्मों के प्यासे को घूंट भर जल मिल जाए, तो लगता है सब मिल गया।
स्मरण रहे, यह अभी बस शुरुआत है। अभी बहुत कुछ होना है। रुकना मत। अभी और भीतर, और भीतर गति करनी है। बुद्ध ने कहा है: चरैवेति, चरैवेति! चले चलो, चले चलो। और गहरे डुबकी मारो। जितनी गहरी डुबकी भीतर होगी, उतने ही बड़े हीरे-मोती हाथ लगेंगे।
लेकिन शुभारंभ हो गया है। रात बीत गई, सूरज उगने के करीब है। प्राची लाली से भर गई। पक्षी गीत गुनगुनाने लगे। धन्यभागी हो। अड़चनें बहुत आएंगी। बहुत लोग दुश्मनी खड़ी करेंगे। उन सब को मित्र जानना, क्योंकि उनकी सब दुश्मनियां, उनके द्वारा खड़ी की गई सब अड़चनें, अंततः लाभ पहंुचाती हैं, हानि नहीं। अंततः तुम उन्हें धन्यवाद दोगे। एक दिन तुम उन्हें धन्यवाद दोगे। क्योंकि न करते वे अड़चनें खड़ी, न देते चुनौती, न तुम्हारे जीवन में यह क्रांति हो पाती। जितनी बड़ी चुनौती मिलेगी उतनी ही बड़ी क्रांति हो जाती है। संन्यास चुनौती है। और मेरा संन्यास तो और बड़ी चुनौती है।
आमतौर से लोग सोचते हैं, कि मैंने संन्यास को सरल कर दिया। उनकी धारणा बिल्कुल गलत है। आम लोग सोचते हैं कि मैंने तो संन्यास को बिल्कुल संसारी बना दिया। उनकी धारणा बिल्कुल गलत है।
पुराना संन्यास सस्ता है। भाग गए, इससे सस्ता और क्या होगा। भगोड़ेपन से सस्ती और क्या बात होती है? भगोड़ापन कायरता का ही दूसरा नाम है। जिसको तुम त्याग कहते रहे हो अब तक, वह पलायन था; पीठ दिखा दी। और पीठ दिखाने वालों को तुम महात्मा कहते रहे। पीठ दिखाने में कोई बहुत बड़ी कला चाहिए? भाग जाने के लिए कोई बहुत बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए? इसीलिए यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है, कि तुम्हारे तथाकथित महात्माओं के जीवन में कोई बुद्धि का, प्रतिभा का, मेधा का, लक्षण नहीं दिखाई पड़ता। कोई चमक नहीं, कोई दमक नहीं, कोई कौंध नहीं, कोई धार नहीं। बोथले-बोथले? जंग खाई हुई तलवारें, कि साग-सब्जी भी काटो तो न कटे। पुराना संन्यास सस्ता था। सस्ता था, क्योंकि चुनौतियों से भाग जाता था। जब तुम पत्नी से भागते हो, तो किससे भाग रहे हो वस्तुतः? पत्नी एक चुनौती है। चुनौती है प्रतिपल; जैसे कि पति एक चुनौती है, बच्चे चुनौती हैं, परिवार चुनौती है, समाज चुनौती है। इन सब से भाग गए, बैठ गए जाकर दूर एक गुफा में जहां कोई चुनौतियां नहीं हैं; और तुम सोचते हो तुमने बहुत बड़ा काम कर लिया!
मैंने संन्यास को, बीच बाजार में खड़ा कर दिया! जहां सब तरह की चुनौतियां हैं; जहां सब तरफ से पत्थर पड़ेंगे; जहां सब तरफ से अड़चनें आएंगी। और वहां भी तुम्हें धैर्य रखना है, शांति रखनी है, आनंद रखना है, अहोभाव रखना है। जब पत्थर तुम्हारे ऊपर पड़ें, तब भी तुम्हारे प्राणों से धन्यवाद उठता रहे। फिर तुम्हें कोई रोक न पाएगा।
आनंद मोहम्मद ने दूसरा प्रश्न भी पूछा है कि ‘मैं क्या करूं? और मुसलमान हैं, वे कहते हैं, मैं भ्रष्ट हो गया! हिंदू हो गया! और हजार तरह की अड़चनें डाल रहे हैं।’
धन्यवाद दो उनको। वे भी तुम्हारे मार्ग में, सोचते तो हैं कि पत्थर बन जाएंगे। मगर तुम अगर जरा समझ का उपयोग करोगे, तो पत्थर सीढ़ियां बन जाते हैं। पत्थर और सीढ़ियों में भेद ही क्या होता है? उनको पत्थर बनने दो, तुम सीढ़ियां बना लो। तुम रोज-रोज उनके पत्थरों की सीढ़ियां बना कर ऊपर उठते जाओ। तुम इस सबको सहज भाव से स्वीकार करना। आनंद बहुत घना होगा।
अभी मंजिलें और हैं, यह तो पहला ही कदम है। बीच में बहुत पड़ाव भी आएंगे, पड़ावों को भी मंजिल मत समझ लेना। मंजिल तो तभी है जब तुम बचो ही नहीं, सिर्फ आनंद ही आनंद बचे, आनंद को अनुभव करने वाला भी न बचे..तभी समझना कि मंजिल है। जब तक तुम्हें लगे कि मैं हूं, आनंद है, मैं हूं और कैसा महासुख..तब तक जानना, अभी पड़ाव है। जिस दिन अचानक पाओ कि मैं कहां, आनंद ही आनंद है। अनुभोक्ता गया, अनुभव ही अनुभव बचा। अनुभव का सागर लहरें ले रहा है। और खोजे से पता नहीं चलता उसका, जो अनुभव करने निकला था। जो सत्य का साक्षात्कार करने निकला था वह तो न मालूम कहां खो गया! सत्य है। कबीर कहते हैं: हेरत-हेरत हे सखि, रह्या कबीर हिराइ। निकले थे खोजने, खो गए। जिस दिन ऐसा हो, उस दिन मंजिल आ गई। अब आगे जाने का उपाय न रहा, क्योंकि अब जाने वाला ही न रहा। नमक का पुतला था, गल गया, घुल गया। सागर की गहराई खोजने चला था, सागर में लीन हो गया। तब तक यात्रा, अंतर्यात्रा या अंतर की डुबकी गहरी करते जाना है।
मैं आनंदित हूं। मेरे सारे आशीष तुम्हारे साथ हैं!

दूसरा प्रश्नः ओशो, सूफी संत अलगजाली ने कहा है..इश्क-मजाजी और इश्क-हकीकी, भिन्न-भिन्न नहीं है; वरन, इश्क-मजाजी इश्क-हकीकी तक पहंुचने की पहली सीढ़ी है। इश्क-मजाजी यानी भौतिक प्रेम, इश्क-हकीकी यानी अभौतिक प्रेम। और इसी संबंध में दो बड़ी रोचक कथाएं भी उन्होंने कही हैं:
पहलीः जुलेखा का यूसुफ से प्रेम हो गया। वह प्रेम इतना घनीभूत हुआ कि उसे कोई आकर यह कह देता कि मैंने यूसुफ को देखा है, तो उसे गले का हार दे देती। उसके पास सत्तर ऊंट हीरे थे। धीरे-धीरे वे सब समाप्त हो गए। वह मात्र यूसुफ को याद करती थी। यहां तक कि जब वह आकाश की ओर देखती, तो तारों में यूसुफ का नाम ही उसे दिखाई पड़ता। किंतु विवाह हो जाने के पश्चात उसका प्रेम और व्यापक हो गया और उसने यूसुफ के साथ रहना अस्वीकार कर दिया। उसने यूसुफ से कहा: मैं तुमसे उस समय तक प्रेम करती थी, जब तक ईश्वर को नहीं जानती थी। ईश्वरीय प्रेम ने मेरे हृदय में घर कर लिया है। अब मैं उस स्थल पर किसी दूसरे को नहीं रख सकती।
दूसरी कथा: इससे भी प्रभावशाली कथा मजनू की है। वह लैला के पीछे पागल हो गया था। यदि उससे कोई उसका नाम पूछता तो वह कह उठता..लैला! यदि कोई पूछता क्या लैला मर गई, तो वह कह उठता, लैला तो मेरे हृदय में है, उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। मैं ही लैला हूं! एक दिन वह लैला के कूचे से गुजर रहा था, आकाश की ओर उसकी आंखें लगी हुई थीं। किसी ने कहा: मजनू! तुम आकाश को न देखो, बल्कि लैला के घर की दीवालों की ओर देखो। शायद वह दिखाई पड़ जाए। मजनू ने तत्काल उत्तर दिया: मैं तो उन तारों से ही संतुष्ट हूं, जिनका प्रतिबिंब लैला के घर पर पड़ रहा है।
ओशो, क्या लौकिक प्रेम ही, ईश्वरीय प्रेम में रूपांतरित हो जाता है? समझाने की अनुकंपा करें!

नरेंद्र! अलगजाली, ऐसे तो ठीक ही बात कह रहे हैं, मगर मैं जो कह रहा हूं, वह उनसे थोड़ा एक कदम आगे है। अलगजाली सूफी संत नहीं हैं, सूफी दार्शनिक हैं। अलगजाली दुनिया के बड़े दार्शनिकों में से एक हैं। अरस्तू, अफलातूं ऐसे बड़े-बड़े दार्शनिकों की कोटि में उनका नाम है। लेकिन वे रहस्यवादी संत नहीं हैं। कबीर, फरीद, रूमी, बहाऊद्दीन..ऐसे संत नहीं हैं। उनकी चर्चा बारीक है, और सूक्ष्म है; लेकिन बौद्धिक है, अनुभवगत नहीं है। और इसलिए मैं उनसे राजी भी और राजी नहीं भी। राजी इसलिए, कि इशारा तो अनजाने में उनका ठीक है।
जैसे कभी-कभी अंधेरे में भी कोई तीर चलाए और लग जाए। लग जाए तो तीर, न लगे तो तुक्का। अंधेरे में भी तुम तीर चलाते ही रहो तो कभी न कभी लग सकता है। मगर, अंधेरे में चलाए तीर, लग भी जाएं, तो भी तुम तीरंदाज नहीं हो जाते हो, तो भी तुम धनुर्धर नहीं हो जाते हो। और कुछ न कुछ भूल रह जाएगी। और वही भूल रह गई है।
ये दोनों कथाएं प्रीतिकर हैं। ये दोनों कथाएं सूफियों की हैं। लेकिन अलगजाली के हाथ में, इन्होंने सूफियाना रंग खो दिया। तुम थोड़ा चैंकोगे। जैसे पहली कथा में...सूफी ऐसा कभी नहीं कह सकते। मैं तो सूफी हूं, इसलिए मैं ऐसा नहीं कह सकता। पहली कथा में गजाली कहते हैं, कि जब जुलेखा का विवाह हो गया तो उसने यूसुफ के साथ रहना अस्वीकार कर दिया। कहा कि मैं तुमसे उस समय तक प्रेम करती थी, जब तक ईश्वर को नहीं जानती थी।
क्या ईश्वर के जानने में, यूसुफ ईश्वर के बाहर हो गया? क्या ईश्वर के जानने में यह भी नहीं जान लिया गया कि यूसुफ भी ईश्वर है। बस यहीं गजाली चूक गए। यहीं तीर जरा इरछा-तिरछा लगा; अंधेरे में चलाया गया था। लगा भी, और लगा भी नहीं। जिसने ईश्वर को जान लिया, वह यह कैसे कह सकता है कि ईश्वरीय प्रेम ने मेरे हृदय में घर कर लिया है? अब कहां ‘मैं’ और मेरा हृदय? और वह यह भी नहीं कह सकता कि अब मैं उस स्थल पर किसी दूसरे को नहीं रख सकती। जिसने ईश्वर को जान लिया उसे दूसरा बचता ही कहां है? और अगर दूसरा अभी भी बचा है, तो अभी ईश्वर से पहचान नहीं हुई है।
इसलिए दार्शनिक टटोलते हैं अंधेरे में, और कभी-कभी ठीक बात कह जाते हैं। लेकिन फकीर देखते हैं, टटोलते नहीं। उनका अनुभव विचार नहीं है..अनुभव है। दार्शनिकों का काम बड़े और तरह का है।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा धनुर्धर बादशाह, जिसे बड़ा लगाव था धनुर्विद्या से, अपने स्वर्ण-रथ पर सवार एक गांव से गुजरता था। उस गांव में उसने जो देखा, तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। उसे भरोसा न आया..वृक्षों पर, खलिहानों के दरवाजों पर, दीवालों पर, तीर चुभे थे। कोई बहुत बड़ा निशानेबाज गांव में रहता है। क्योंकि हर तीर ठीक एक वर्तुलाकार निशान के मध्य में लगा था..बिल्कुल मध्य में। एक बार भी कहीं कोई चूक नहीं थी। सम्राट ने कहा: रथ रोको। मैंने बहुत धनुर्धर देखे हैं, मैं स्वयं भी धनुर्धर हूं; जीवन भर मैंने यही साधना की है। लेकिन मेरे भी सौ में, निन्यानबे तीर ही ठीक लगते हैं, एक तो कभी चूक ही जाता है। मगर इस गांव में कौन धनुर्धर है, जिसका हमें पता भी नहीं! जिसका एक तीर नहीं चूका है! दीवालों पर, वृक्षों पर, खलिहानों पर, खेतों पर, जहां भी उसके तीर लगे हैं, ठीक लक्ष्य के बिल्कुल मध्य में लगे हैं! मैं उससे मिलना चाहता हूं। गांव के लोगों से पूछो।’
गांव के लोगों से पूछा, लोग हंसने लगे। लोगों ने कहा कि आप फिजूल की बातों में न पड़ें, अरे वह पगला है, पागल है।
सम्राट ने कहा: पागल हो या कोई भी हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? मुझे उसके पागलपन से कुछ लेना-देना नहीं। मगर मैं उसे पुरस्कृत करूंगा। वह हमारे राज्य का सबसे बड़ा धनुर्धर है। उन लोगों ने कहा: आपको बात ही पता नहीं, वह तीर पहले मारता है और बाद में गोला खींचता है। बीच में लगने का सवाल ही नहीं है, जहां भी लगे...।
दार्शनिक भी बस यही करते रहते हैं: तीर पहले मार दिया, फिर बड़े विचार, सिद्धांत, उनसे गोला खींचते हैं। वर्तुल भी बन जाता है। तीर बिल्कुल मध्य में मालूम लगता है। और लगता है कि बात बड़ी गहरी कही।
अलगजाली दार्शनिक तो बड़े थे, विचारक बड़े थे, लेकिन अनुभवी सूफी नहीं हैं। मीरा, या कबीर, या नानक, या दादू, ये सब गजाली के मुकाबले दर्शनशास्त्र में तो हार जाएंगे। मगर इनके पास आंखें हैं और गजाली अंधे हैं। अंधेपन का प्रत्यक्ष सबूत है। कहते हैं: ‘जुलेखा ने यूसुफ से कहा कि अब ईश्वर ने मेरे हृदय में घर कर लिया है।’ जैसे पहले ईश्वर हृदय में नहीं था! अब घर कर लिया है! ईश्वर सदा से वहां है। जानने वाला कभी यह नहीं कहेगा कि अब, घर कर लिया है। था ही, अब मुझे होश आया। और जानने वाला यह भी नहीं कहेगा कि मेरा हृदय। इतनी अस्मिता भी कहां शेष रह जाती है? उसका ही हृदय है, वही घर किए है! मैं कौन हूं? मैं न कल था, न आज हूं। वह कल भी था, और आज भी है। मैं कल भी झूठ था, आज भी झूठ हूं। वह कल भी सच था, आज भी सच है। वह सत्य है, मैं झूठ हूं। सत्य और झूठ का मिलन कैसे हो! जैसे अंधेरे और प्रकाश का मिलन नहीं होता, ऐसे ही सत्य और झूठ का भी मिलन नहीं होता।
इसलिए जो ‘मैं’ भाव से खोजने चला है, वह तभी तक परमात्मा को नहीं देख पाता जब तक ‘मैं’ भाव बना रहता है। जिस दिन ‘मैं’ भाव गिर जाता है, उस दिन चकित हो जाता है। चकित होता है यह जान कर कि मेरे ‘मैं’ भाव के कारण ही मेरी आंखों पर परदा था, नहीं तो परमात्मा तो सदा से मौजूद है। मैं ही अंधा था। या मैंने ही आंख बंद कर रखी थी। अहंकार की धूल ने ही, मुझे अंधा बना रखा था। अहंकार की धूल ही मेरे दर्पण पर जम गई थी और परमात्मा का प्रतिबिंब नहीं बन रहा था।
और फिर जब परमात्मा का अनुभव होगा, तो कोई कैसे कह सकता है कि उस स्थल पर मैं किसी दूसरे को नहीं रख सकती। दूसरा बचता है फिर? फकीरों से पूछो, सूफियों से पूछो।
राबिया ने अपनी धर्म-पुस्तक में से कुछ वचन काट दिए थे। वे वे वचन जहां यह कहा गया है कि शैतान को घृणा करो, उसने काट दिए। एक दूसरा फकीर हसन उसके घर मेहमान था। उसने ये कटे हुए, संशोधन देखे। धर्मशास्त्र में कोई संशोधन कर सकता है! जैसे वेद में तुम संशोधन कर दो, तो सारे हिंदू नाराज हो जाएंगे कि तुम हो कौन संशोधन करने वाले? हमारा शास्त्र..और संशोधन करो! कहीं शास्त्रों में संशोधन होता है, कुरान में या बाइबिल में कहीं संशोधन होता है? वे तो जैसे हैं, वैसे हैं। ईश्वर का संदेश है, उसमें संशोधन करने वाले तुम कौन हो?
हसन ने कहा: राबिया, यह तूने क्या किया? यह तो गुनाह है, यह तो पाप है। यह कुफ्र है। तूने कुरान के वचन काट दिए। तो तू क्या समझती है कि तू मोहम्मद के वचनों में संशोधन करेगी!
राबिया ने कहा: प्यारे हसन, मैं क्या करूं? इसमें मेरा कोई कसूर नहीं। वही करवाता है, मैंने बहुत अपने को रोका, कि यह करना ठीक नहीं। जैसा तुम कहते हो, मैंने भी अपने को बहुत समझाया, बहुत दिन रोका। बहुत दिन कुरान की किताब के पास नहीं जाती थी, कि वहां गई कि संशोधन करूंगी। मगर यह कब तक रुक सकता था, एक दिन यह हो ही गया। यह होना अनिवार्य था। क्योंकि जब से परमात्मा को जाना है, तब से अगर शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो, तो मुझे शैतान नहीं दिखाई पड़ेगा, परमात्मा ही दिखाई पड़ेगा। अब मैं शैतान को घृणा कैसे कर सकती हूं? पहली तो बात यह है कि परमात्मा को जानने के बाद दूसरा कोई बचा नहीं। अब तो शैतान भी परमात्मा में ही लीन हो गया। दूसरी बात, मेरे भीतर प्रेम के अतिरिक्त घृणा नहीं बची। बाहर शैतान नहीं बचा, भीतर घृणा नहीं बची। और यह सूत्र कहता है कि शैतान को घृणा करो। ये दोनों बातें असंभव हो गयीं। न शैतान दिखाई पड़ता है कहीं और न घृणा शेष रही। अब मैं क्या करूं? अब मैं यह तरमीन न करूं, यह सुधार न करूं, यह तरमीन न करूं तो क्या करूं? मजबूरी है, करनी ही पड़ी है।
और गजाली कहता है कि जुलेखा ने कहा: अब मैं उस स्थल पर किसी दूसरे को नहीं रख सकती। नहीं, गजाली को कुछ पता नहीं है। जिसके हृदय में परमात्मा आ गया, पहली तो बात वह मिट जाता है। उसके आते ही तुम डूब गए, मिट गए, समाप्त हो गए। तुम बचोगे? और फिर, कौन दूसरा? और परमात्मा क्या सबको समा लेगा, सिर्फ गरीब यूसुफ को छोड़ देगा? आखिर यूसुफ का कसूर क्या है? यूसुफ को इतनी विशिष्टता, इतना अपवाद? नहीं, कोई भी अपवाद नहीं है। क्या यूसुफ का कसूर यही है कि यूसुफ के प्रेम में पड़ कर जुलेखा को परमात्मा का प्रेम दिखाई पड़ गया? यूसुफ का कोई गुनाह हो गया? सच तो यह है, यूसुफ के प्रति अब आभार होना चाहिए..और भी घना, पहले से भी ज्यादा घना, क्योंकि वही झरोखा बना।
अगर कोई सूफी इस कहानी को कहेगा..अगर मैं इस कहानी को कहूंगा, तो मुझे सुधार करना ही पड़ेगा। यह कहानी का अंत इस तरह नहीं कर सकता हूं। मेरे लिए, इश्क-मजाजी और इश्क-हकीकी, भौतिक प्रेम और अभौतिक प्रेम दो प्रेम नहीं हैं..एक ही प्रेम के दो रूप हैं। जैसे कीचड़ और कमल। कीचड़ में कमल छिपा है और कमल में कीचड़ छिपी है। जब कीचड़ थी तो कमल दिखाई नहीं पड़ता था। और अभी कमल है तो तुम्हें याद भी नहीं आती कि यह गंदी कीचड़ से निकला है और कल फिर कीचड़ में गिर जाएगा, फिर कीचड़ हो जाएगा।
कीचड़ और कमल दो नहीं हैं। रूपांतरण हुआ है। एक ही ऊर्जा है। जिसको हम इश्क-मजाजी कहते हैं, वह, और जिसको कहें इश्क-हकीकी..उन दोनों में केवल रूप का भेद है। वही प्रेम है। प्रेम कहीं दो तरह के होते हैं? प्रेम तो एक ही तरह का होता है। प्रेम यानी प्रेम! हां, विस्तार बड़ा हो जाता है। लेकिन अगर यूसुफ उस विस्तार के बाहर छूट गया, तो जुलेखा को अभी परमात्मा का कोई अनुभव नहीं हुआ है। नहीं तो यूसुफ भी परमात्मा हो जाएगा। जब और सब परमात्मा हो गया, तो यूसुफ ही परमात्मा न होगा!
स्वामी रामतीर्थ अमरीका से भारत वापस लौटे। उन्होंने बड़ी ख्याति अमरीका में पाई। ख्याति पाने योग्य उनकी क्षमता थी। जब भारत वापस आए, तो सोचा था कि जब अमरीका जैसे भौतिकवादी देश में, इतना सम्मान मिला, और लोगों ने इतने प्रेम से, आनंद से, अहोभाव से, एक-एक शब्द को पीया, तो भारत में तो क्या नहीं हो जाएगा! मगर उनकी गलती थी। स्वभावतः उन्होंने चाहा कि भारत की यात्रा काशी से शुरू करें। बस यात्रा वहीं खत्म हो गई। बोले; बीच प्रवचन में एक पंडित खड़ा हो गया, और उसने कहा कि रुकिए। आप संस्कृत जानते हैं, व्याकरण का बोध है? वेद पढ़ा है? रामतीर्थ संस्कृत नहीं जानते थे। पंजाब में पैदा हुए, तो फारसी जानते थे। और उपनिषद और वेद भी पढ़े थे तो उनका फारसी अनुवाद पढ़ा था। संस्कृत नहीं पढ़ी थी। रामतीर्थ ने कहा: लेकिन परमात्मा को जानने के लिए क्या संस्कृत जाननी जरूरी है?
उस पंडित ने कहा: बिना संस्कृत जाने, क्या खाक तुम्हारा ब्रह्मज्ञान! व्याकरण का बोध नहीं है, चले ब्रह्मज्ञान की बातें करने! और पंडितों ने भी साथ दिया। हो-हल्ला हो गया। स्वागत होने की जगह, शोरगुल मच गया, उपद्रव मच गया। काशी के पंडे गुंडों से कुछ कम नहीं। रामतीर्थ के मन को बड़ा धक्का पहंुचा। ऐसी आशा न की थी। यात्रा छोड़ दी। हिमालय चले गए। एक कुटिया में, टिहरी गढ़वाल की पहाड़ियों में एक कुटिया में रहने लगे। उनकी पत्नी को खबर मिली, दूर पंजाब में, कि पति लौट आए हैं, उनके दर्शन को आई। एक प्रसिद्ध विचारक और लेखक, सरदार पूर्णसिंह उनकी सेवा में रहते थे। जब पत्नी को रामतीर्थ ने आते देखा दरवाजे से, दूर चढ़ते हुए पहाड़ी पर, तो पूर्णसिंह से कहा: दरवाजा बंद कर दो, और बाहर तुम रहो और उसको कह देना कि रामतीर्थ मिलना नहीं चाहते। पूर्णसिंह को तो बहुत धक्का लगा। पूर्णसिंह ने कहा, कि हजारों स्त्रियां आपसे मिलने आती हैं, किसी से आपने मिलने से इनकार नहीं किया, सिर्फ इस स्त्री का कसूर क्या है? क्या इसे आप अब भी अपनी पत्नी मानते हैं? नहीं तो रोक क्यों रहे हैं?
बात पते की कही..बहुत पते की कही! ...जब और किसी स्त्री को कभी नहीं रोकते, तो इसी स्त्री का कसूर क्या है? और यह गरीब, दूर पंजाब से यात्रा करके दर्शन करने आई है, इसको दर्शन भी नहीं देंगे!
पूर्णसिंह ने कहा: तो फिर आप तय कर लें! या तो इस पत्नी को दर्शन दें, या मैं भी चला। फिर मैं भी आपके पास रुकने वाला नहीं हूं।
रामतीर्थ को बात ख्याल में आई, कि बात तो सच है। आखिर मैं पत्नी को मिलने से रोक क्यों रहा हूं! जरूर मैं उसे अब भी पत्नी मानता हूं। कहीं, अभी भी भय समाया हुआ है। इसकी चोट उन पर इतनी गहरी पड़ी कि उसी दिन उन्होंने गैरिक वस्त्र छोड़ दिए। यह जान कर तुम हैरान होओगे कि रामतीर्थ जब मरे, तो गैरिक वस्त्रों में नहीं थे। उन्होंने गैरिक वस्त्र छोड़ दिए, कि यह क्या मेरा संन्यास! इस संन्यास का क्या मूल्य है? चोट गहरी पड़ी, पत्नी से मिले और उससे क्षमा मांगी; हालांकि उसे तो कुछ पता ही नहीं था कि बीच में क्या हुआ? उसने पूछा भी कि क्षमा किस बात की? कहा: क्षमा इस बात की कि मैं इनकार कर रहा था मिलने से, बचना चाहता था। उससे सिर्फ मेरा भय प्रकट होता है।
अलगजाली का यह कहना कि जुलेखा ने कह दिया यूसुफ को, कि अब मैं तुझसे प्रेम नहीं कर सकूंगी, क्योंकि अब मेरे हृदय में परमात्मा का वास है, वहां दूसरे की कोई जगह नहीं’..इसमें थोड़ा डर है। इसमें थोड़ा भय है। भय है यह कि कहीं यूसुफ रहा भीतर तो परमात्मा को निकाल बाहर न कर दे। हृदय में जगह भी बहुत छोटी मालूम पड़ती है। हृदय न हुआ, बंबई का कोई अपार्टमेंट हुआ। या तो भगवान जी रहें, या यूसुफ जी रहें; दोनों जी साथ नहीं रह सकते!
परमात्मा का अनुभव तुम्हें विराटता देता है। उसमें एक यूसुफ क्या लाखों यूसुफ समा जाएं! परमात्मा का प्रेम इस योग्य बनाता है कि सारा अस्तित्व तुम्हें प्रीतम जैसा मालूम होने लगे। आदमी तो आदमी, पशु-पक्षी, पौधे, चांद-तारे सब तुम्हारे प्रेम के पात्र हो जाते हैं। सिर्फ बेचारे यूसुफ का कसूर क्या है? इतना ही कसूर कि उसके आधार से, उसके झरोखे से तुम्हें परमात्मा का दर्शन हुआ? यह कसूर है उसका?
नहीं, अलगजाली कोई संत नहीं हैं, कोई सूफी नहीं हैं..दार्शनिक हैं। और दार्शनिक से इस तरह की भूलें होनी स्वाभाविक हैं; अंधेरे में तीर चलाए जा रहे हैं।
तुमने पूछा है, नरेंद्रः ‘ओशो, क्या लौकिक प्रेम ही ईश्वरीय प्रेम में रूपांतरित हो जाता है? ’
निश्चय ही, लौकिक प्रेम ईश्वरीय प्रेम का बीज है। और ईश्वरीय प्रेम, लौकिक प्रेम का खिल जाना है, फूल हो जाना है।
परमात्मा और हमारा होना, संयुक्त है; जैसे तुम और तुम्हारी छाया। तुम चले, तुम्हारी छाया चली। तुम रुके, तुम्हारी छाया रुकी। परमात्मा, और हमारे बीच वही नाता है। परमात्मा अगर सत्य है, तो हम उसकी छाया मात्र। परमात्म-प्रेम अगर सत्य है, तो लौकिक प्रेम उसकी छाया। और परमात्मा की छाया भी सुंदर है। परमात्मा की माया भी संुदर है। आखिर परमात्मा की है, संुदर ही होगी!
इसलिए तो तुमसे कहता नहीं, कि भागो, छोड़ो! क्योंकि यह जो माया है, यह जो छाया है, यह भी उसकी ही है। कहीं इससे भाग खड़े हुए, तो डर यह है कि मूल से भी दूर न हो जाना। हो ही जाओगे। अगर तुम किसी की छाया से भागोगे तो उससे भी तो भाग गए! मैं कहता हूं उसकी छाया को समझो, उसकी छाया को पकड़ो, उसकी छाया को आधार बनाओ..सूत्र। और उसी के सहारे चलते-चलते एक दिन तुम मूल को पकड़ लोगे।

तुम तंुग-हिमालय-शृंग
और मैं चंचल-गति-सुर-सरिता;
तुम विमल हृदय-उच्छ्वास,
और मैं कांत-कामिनी-कविता;
तुम प्रेम और मैं शांति।
तुम सुरा-पान-घन अंधकार..
मैं हूं मतवाली भ्रांति।।

तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुसकान;
तुम वर्षो के बीते वियोग,
मैं हूं पिछली पहचान।
तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग निश्छल तप..
मैं शुचिता सरल समृद्धि।।

तुम मृदु मानस के भाव,
और मैं मनोरंजिनी भाषा;
तुम नंदन-वन-घन विटप,
और मैं सुख-शीतल-तरु-शाखा।
तुम प्राण और मैं काया।
तुम शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म,
मैं मनोमोहिनी माया।।

तुम प्रेममयी के कंठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी;
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह-रागिनी;
तुम पथ हो, मैं हूं रेणु
तुम हो राधा के मनमोहन..
मैं उन अधरों की वेणु।।

तुम पथिक दूर के श्रांत,
और मैं बाट जोहती आशा;
तुम भवसागर दुस्तर,
पार जाने की मैं अभिलाषा;
तुम नभ हो, मैं नीलिमा।
तुम शरत-काल के बाल-इंदु..
मैं हूं निशीथ-मधुरिमा।।

तुम गंध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदु-गति मलय-समीर;
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष
मैं प्रकृति प्रेम-जंजीर;
तुम शिव हो, मैं हूं शक्ति।
तुम रघुकुल-गौरव रामचंद्र..
मैं सीता अचला भक्ति।।

तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान;
तुम मदन पंच-शर-हस्त,
और मैं हूं मुग्धा अनजान;
तुम अंबर, मैं दिग्वसना।
तुम चित्रकार, घन-पटलश्याम..
मैं ताड़िन्तूलिका रचना।।

तुम रण-तांडव-उन्माद नृत्य,
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि;
तुम नाद-वेद ओंकार सार,
मैं कवि शृंगार-शिरोमणी;
तुम यश हो, मैं हूं प्राप्ति।
तुम कंुद-इंदु-अरविंद शुभ्र..
तो मैं हूं निर्मल व्याप्ति।।

तुम तंुग-हिमालय-शृंग
और मैं चचंल-गति सुर-सरिता;
तुम विमल हृदय-उच्छ्वास,
और मैं कांत-कामिनी-कविता;
तुम प्रेम और मैं शांति।
तुम सुरा-पान-घन अंधकार..
मैं हूं मतवाली भ्रांति।।

भेद जरा भी नहीं। भेद आभास मात्र है। ये नदी के दो किनारे, एक ही नदी के दो किनारे हैं। यह किनारा उतना ही नदी का है, जितना वह किनारा। यह लोक उतना ही परमात्मा का है, जितना वह लोक। देह भी उसकी, आत्मा भी उसकी। भेदों को छोड़ो, भेदों के पार उठो। भेदों के पार उठ कर जिस दिन अभेद का दर्शन करोगे, उसी दिन जानना मुक्ति हुई, निर्वाण हुआ; उसी दिन जानना..साक्षात, सत्य; उसी दिन जानना..मुक्ति, मोक्ष। उसके पहले सब बौद्धिक हिसाब-किताब है।
अलगजाली बड़े विचारक हैं। मगर कोई अनुभव इस अतिक्रमण का नहीं है, जहां द्वंद्व मिट जाते हैं। और तथाकथित धार्मिक लोग इन्हीं द्वंद्वों में जीते रहे हैं। इसलिए उन्हें मैं धार्मिक नहीं कहता।
मैने एक दार्शनिक की कहानी पढी। वह बड़ा भक्त है परमात्मा का। दिन-रात उसी की माला जपता है। उसका पोता, छोटा सा बच्चा, जब वह माला जप रहा है, उसकी गोद में आ बैठा। उसने उसे, प्रेमपूर्वक छाती से लगा लिया। लेकिन तभी उसे ख्याल आया कि अरे, यह मैं क्या कर रहा हूं...। ईश्वर मुझे उसके लिए कभी माफ नहीं करेगा। उसकी माला जपना छोड़ कर और अपने पोते को छाती से लगा रहा हूं! उसने एक धक्का मार कर पोते को, गोदी से नीचे गिरा दिया और कहा कि दुष्ट, शैतान! हट जा यहां से! मेरी पूजा, मेरी उपासना को भ्रष्ट कर रहा है।
एक हिंदू संन्यासी मुझे यह कहानी सुना रहे थे। उन्होंने कहा: आपका इस संबंध में क्या कहना? मैंने कहा कि मुझसे अगर पूछो, बुरा न मानो, सच्ची बात कह दूं? उन्होंने कहा कि सच्ची बात पूछने के लिए आपसे...। तो मैंने कहा: परमात्मा पोते के रूप में आया था। और मूरख ने धक्के मार कर खतम कर दिया। जिंदगी भर माला जपी कि आओ, आओ, आओ! कांव-कांव मचा रखी थी! और अब आया तो धक्का मार दिया।
आखिर उस पोते में कौन है? और वह निर्दोष बच्चा, जो गोद में आ बैठा है, वह कोई तुम्हारी पूजा-पाठ को बिगाड़ने आया है? उसे क्या तुम्हारी पूजा-पाठ का पता! सरलचित्त बच्चा, उसे ऐसे धक्का मार दिया जैसे वह शैतान हो!
लेकिन यह धारणा रही।
जिस संन्यासी ने मुझे यह कहानी सुनाई थी, वह भी बहुत चैंका। उसने कहा: मैं तो यह कहानी अक्सर अपने प्रवचनों में लोगों को कहता हूं। और कहता हूं, इसको कहते हैं भक्ति! आपने तो सब गड़बड़ कर दिया!
यह भक्ति नहीं है। अगर यह भक्ति है, तो फिर अभक्ति क्या होगी? और इतना कंजूस हृदय, इतना कृपण हृदय! परमात्मा का प्रेम विराटता देगा, कि इतना संकीर्ण हो जाएगा? कि इतना भयभीत हो जाएगा, इतना सिकुड़ जाएगा? परमात्मा अगर विस्तार है..विराट विस्तार..तो उसका प्रेम भी तुम्हें विराट विस्तार देगा। उसमें एक यूसुफ क्या, हजारों यूसुफ समा सकते हैं। इसलिए तो हमने कंजूसी नहीं की, इस देश में हमने कंजूसी नहीं की। जो समझा तो कंजूसी नहीं की, जिन्होंने नहीं समझा वे कंजूसी कर गए। कृष्ण को हमने कहा कि सोलह हजार सखियां। इसको कहते हैं अकृपणता! यह भी क्या एक पोते को धक्का मार दिया!
और उस संन्यासी को मैंने कहा कि तुम तो कृष्ण-भक्त हो! हरे कृष्ण, हरे राम! सोलह हजार सखियों के बीच कृष्ण नाचते रहे, और घबराए नहीं; और यह पोते से ही घबड़ा गया! और तुम यह कहानी कहते हो!
कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा है। ऐसे ही नहीं कह दिया। कारण है: ऐसा विस्तार, इतनी विराटता! प्रेम का ऐसा सागर, जो सबको समाहित कर ले..कभी और किसी दूसरे में देखा नहीं गया था! राम उन अर्थों में सीमित मालूम होते हैं। इसलिए उनको हम कहते हैं..मर्यादा-पुरुषोत्तम। मर्यादा यानी सीमा। कृष्ण है अमर्याद। मर्यादा नदी की होती है। सागर की क्या मर्यादा! तो राम को हमने आंशिक अवतार कहा। बुद्ध को भी हमने आंशिक अवतार कहा। लेकिन कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा। पूर्णावतार कह कर कृष्ण को, हमने यह उदघोषणा की, कि अगर परमात्मा का प्रेम सघन होगा, तो उसकी कोई सीमा नहीं हो सकती है। जहां सीमा है, वहां संकोच है। और जहां असीम का पदार्पण होता है, वहीं परमात्मा का अनुभव है।
प्रेम झरोखा है। इसी प्रेम से धीरे-धीरे प्रार्थना का आगमन होगा, प्रार्थना से धीरे-धीरे परमात्मा का आगमन होगा। लेकिन ध्यान रखना, इस आगमन से पुराने झरोखे जला नहीं दिए जाएंगे, तोड़ नहीं दिए जाएंगे; पुराने झरोखे और भी समादृत हो जाएंगे, तुम्हारा अनुग्रह और सघन हो उठेगा।
इसलिए तो गुरु के झरोखे से हम परमात्मा को जानते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि फिर गुरु को हम भुला देते हैं। गुरु के प्रति हमारा सम्मान और सघन हो जाता है, क्योंकि उसके ही माध्यम से तो परमात्मा की झलक मिली। कबीर कहते हैं: गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांव। एक घड़ी आती है, जब गुरु के झरोखे से परमात्मा दिखाई पड़ा, गोविंद दिखाई पड़ा। तो कबीर का प्रश्न बिल्कुल ठीक है, ठीक पूछते हैं: गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांव? अब बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। किसके पहले पैर छुऊं? अगर परमात्मा के छुऊं पहले पैर...सोचना! कबीर कहते हैं: अगर परमात्मा के पहले पैर छुऊं तो गुरु का अपमान हो जाएगा, और यह मैं नहीं कर सकता। और गुरु के पहले पैर छुऊं तो परमात्मा का कहीं अपमान न हो जाए। यह मैं कैसे करूं?
गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांव।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय।।
लेकिन बलिहारी कही गुरु की कि धन्य हैं आप कि जल्दी से इशारा कर दिया कि संकोच न कर, परमात्मा के चरण छू ले! मगर यह पद जाहिर नहीं करता कि कबीर ने फिर पैर छुए किसके? आमतौर से इसकी व्याख्या करने वाले लोग कहते हैं कि फिर परमात्मा के छुए, क्योंकि गुरु ने इशारा कर दिया। मैं कहता हूं: नहीं, क्योंकि ‘बलिहारी’ शब्द कुछ और कह रहा है। बलिहारी यह कह रहा है: गुरु ने तो इशारा किया परमात्मा की तरफ, लेकिन अब कैसे परमात्मा के पैर पहले छुए जा सकते हैं? वह बलिहारी शब्द कह रहा है, साफ कर रहा है कि कबीर ने पैर तो गुरु के ही छुए। कहा कि फिर ठीक है, अब ऐसे गुरु के पैर न छुओ तो क्या करो, जो इशारा कर रहा है कि परमात्मा के छू! छोड़ मुझे, भूल मुझे!
तो मेरे हिसाब में तो कबीर ने पैर छुए गुरु के ही।
सीढ़ियां भूल नहीं जानी चाहिए। जो पहंुचा देती हैं उत्तंुग शिखरों पर, उनको नमस्कार नहीं करोगे? नाव जो उस पार लगा देती है, जाते समय उसे धन्यवाद नहीं दोगे?
नहीं, अलगजाली को कुछ भी पता नहीं है। बड़ा तत्त्वदार्शनिक था; लेकिन कोई सूफी नहीं, कोई ज्ञाता नहीं।

तीसरा प्रश्न: ओशो, मैं प्रेम में मरा जा रहा हूं।

सिद्धार्थ!
मरौ हे जोगी मरौ! मरौ मरण है मीठा!
तिस मरणी मरौ जिस मरणी मरि गोरख दीठा।
इसीलिए तो यहां आए हो सिद्धार्थ..मरने की कला सीखने। और प्रेम में मरे तो पुनरुज्जीवन है। प्रेम में मरे तो शाश्वत जीवन है। प्रेम में मरे कि सब पा लिया। प्रेम में मरने से बड़ी और कोई घटना नहीं। सो कंजूसी न करो!
तुम्हारे प्रश्न से ऐसा लग रहा है कि पूछ रहे हो कि बचाओ। जैसे कि कोई नदी में डूब रहा हो, चिल्लाता है। मैं बचाने वाला नहीं। मैं कहता हूं: डूबो, हे डूबो जोगी! डूबो! यह मौका मत चूको क्योंकि जो डूबे सो ऊबरे। मैं बचाने को आने वाला नहीं, क्योंकि बच कर क्या करोगे? बचे तो बहुत जन्मों से हो! बच-बच कर क्या पाया? अब जरा खोने की कला सीखो। अब जरा दांव पर लगाओ सब।
प्रेम में मरना ही होता है। प्रेम मृत्यु है..अहंकार की, अस्मिता की, मैं-भाव की। प्रेम मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु है; वह महामृत्यु है। इसलिए गोरख ने फर्क किया: ‘तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मरि गोरख दीठा!’ ऐसे तो सभी मरते हैं, मगर इस तरह मरने से कोई दर्शन नहीं होता। तिस मरणी मरौ! वह मरनी मरो जिस मरने से गोरख को दिखाई पड़ा। वह कौन सी मरनी है? वह प्रेम की मरनी है। प्रार्थना में मरो, प्रेम में मरो! परमात्मा के मार्ग पर मरो। धर्म मृत्यु की कला है।
तो तुम यह मत पूछो सिद्धार्थ, इस तरह मत पूछो कि ‘ओशो, मैं प्रेम में मरा जा रहा हूं।’ तो कुछ बुरा नहीं हो रहा है। इलाज की चिंता न करो। और यह दर्द ऐसा है भी नहीं कि इसकी कोई दवा हो। और यह दर्द ऐसा है कि जैसे-जैसे दवा करोगे वैसे-वैसे मर्ज बढ़ेगा।
और मेरा काम ही यह है कि तुम्हारी बीमारी बढ़ाऊं। तुम दवा भी मांगते हो, तो रंग-बिरंगा पानी तुम्हें पिला देता हूं, बाकी उसमें कुछ है नहीं; वह सिर्फ सांत्वना है कि ठीक है सिद्धार्थ, रखे रहो बोतलें, भरोसा रहा आएगा। मगर असली बात तो मरना है।
मरो, और फिर छोड़ो सब उस पर! होनी होय सो होय! फिर उसकी जो मर्जी। उबारे तो उबार लेगा, डुबाए तो डुबा देगा। अपनी मर्जी को छोड़ देना ही मृत्यु है..असली मृत्यु।

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन;
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित;
तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,
मांग रहे तुझसे ज्वाला-कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता ‘मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल!’
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक,
स्नेहहीन सागर नित कितने दीपक,
जलमय सागर का उर जलता,
विद्युत ले गिरता है बादल!
विहंस-विहंस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम
वसुधा के जड़ अंतर में भी
बंदी है तोपों की हलचल!
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल।

मेरी निश्वासों के द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर;
मैं अंचल की ओट किए हूं,
अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा की लघुता का बंधन,
है अनादि तू मत घड़ियां गिन;
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझमें भरती हूं आंसू-जल!
सजल-सजल मेरे दीपक जल!

तम असीम तेरा प्रकाश चिर,
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा..
अमिट चित्र अंकित करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल-जल जितना होता क्षय,
वह समीप आता छलनामय;
मधुर मिलन में मिट जाना तू..
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!

युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सिद्धार्थ, जलो, मिटो, गलो। क्योंकि यही है उसे पाने का मार्ग। यही है उसे पाने की एकमात्र विधि। तुम जब तक हो, वह नहीं है। तुम मिटे कि वह है।
पीड़ा तो होती है मिटने में। घबड़ाहट भी होती है। डर भी लगता है। मन कहता है: ‘कहां चल पड़े हो, किस अज्ञात पथ पर! लौट चलो वापस अपनी सुरक्षा में।’ पर वापस, वहां पाया क्या था? वहां मिला क्या, जिसके लिए वापस लौटना चाहते हो?
पीछे लौट कर भी मत देखना, क्योंकि पीछे सिवाय राखों के और कुछ भी नहीं है।

जो जग-मग ज्योति जगाता रहता जग के कण-कण में,
वह क्यों न करेगा ‘क्रीड़ा’ मेरे भी व्याकुल मन में?
आशा है एक दिवस तो चमकेंगी ‘किरणें’ उज्जवल।
तब तक लहरों पर तरणी तिरती रहने दूं अविरल।

घबड़ाओ मत, अगर दूसरा किनारा न भी दिखाई पड़े और पुराना किनारा दिखाई पड़ना भी बंद हो जाए, लगे कि भटक गया, लगे कि मिटने लगा, लगे कि डूबी अब यह मेरी नौका..फिकर मत करना।

जो जग-मग ज्योति जगाता रहता जग के कण-कण में,
वह क्यों न करेगा क्रीड़ा मेरे भी व्याकुल मन में?

वह जो चांद-तारों को चला रहा है, वह जो छिपा है वृक्षों की हरियाली में, फूलों के रंगों में, वह जो व्याप्त है हवा के कण-कण में..वह तुम्हें भी सम्हालेगा। कोई और हाथों की आवश्यकता नहीं है।

मैं भूल न जाऊं उसको जग आंखों से हट जाए,
उसका ही ‘प्रेम’ निरंतर यह ‘जीवन-तरी’ चलाए।
मैं अपनी अभिलाषाएं करती हूं उसे समर्पित।
सौंपे देती हूं सुख-दुख सब पाप-पुण्य चिर-अर्जित।

सब सौंप दो उसे..पाप भी, पुण्य भी। सब सौंप दो उसे..ज्ञान भी, अज्ञान भी। सब सौंप दो उसे..जीवन भी, मृत्यु भी। और उसी क्षण क्रांति घट जाएगी। जब तक कुछ भी बचाओगे, रत्ती भर भी बचाओगे, तब तक क्रांति नहीं घट सकती। सौ प्रतिशत पर ही क्रांति घटित होती है। शुभ घड़ी है। मृत्यु की घड़ी है। मरण की बेला है, क्योंकि मरण की बेला जागरण की बेला है। इस मरण को आत्मसात कर सको तो जागरण बन जाए। अगर घबड़ा जाओ, भाग जाओ, तो फिर नींद है। फिर वही पुरानी नींद। फिर वही पुराने दुखस्वप्न।

निशि के आंचल से मंुह ढंक जग..शिशु है सोने
वाला।
पर पिला रहा है मुझको कोई जागृति का प्याला।

जब मूंद पलक देखेगा जग सुख के सपने प्यारे,
क्या सूने में बैठूंगी मैं व्याकुल गिनती तारे?
विश्राम करेंगे जब सब नीड़ों में श्रम से हारे,
क्या तरी खोजती मैं ही भटकूंगी सिंधु-किनारे?

पर जब इस अस्थिर जग के उस पार जगत है मेरा,
तब क्यों न चलूं उस पार, मैं तोड़ क्षितिज का घेरा।
इस भूले-भटके जग ने समझा है जिसे किनारा,
वह माया-जाल भ्रमों का दिखने में मोहक, प्यारा।

उस पर यह हृदय भटक कर फिरता है मारा-मारा
इस जग के पार क्षितिज से प्रियतम ने मुझे पुकारा।।

मृत्यु की प्रतीति हो रही है, अर्थात उस प्यारे की पुकार कहीं सुनाई पड़ने लगी है। वह कह रहा है: मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा। वह पुकार रहा है कि गलो! जगह दो, ताकि मैं प्रवेश पा सकूं। स्थान खाली करो, ताकि मैं उसे भर सकूं।
जब तक अहंकार तुम्हारे सिंहासन पर बैठा है, परमात्मा को बैठने के लिए जगह नहीं है।

जो प्यास हृदय में जागी क्या रोके रुक सकती है?
चातक की तृष्णा जग के झरने से बुझ सकती है?

छू स्वर्ण-रश्मियों ने उर जाने क्या भाव जगाया।
जाने किस मलयानिल ने मानस का कमल खिलाया।

उन्मत्त हृदय है, मद की दी पिला किसी ने प्याली।
आवेंगी फिर न कभी ये घड़ियां प्यारी, मतवाली।

ऐ हृदय, आज बहने दे नौका को झोंके खाती।
आने दे यदि आती है आंधी तूफान उठाती।

सीमा के बंधन टूटे चेतना लुप्त है मेरी।
मैं आंखें मूंद बढूंगी लहरों पर सागर तेरी।

कितनी नौकाएं डूबीं भव-कूल नहीं है पाया,
फिर भी मैंने इस जर्जर तरणी को आज बहाया।

ऐसे तो सभी को मरना है।

कितनी नौकाएं डूबीं भव-कूल नहीं है पाया,
फिर भी मैंने इस जर्जर तरणी को आज बहाया।

ऐसे तो सभी मरते हैं; लेकिन धन्यभागी है वह, जो बोधपूर्वक मरता है, जो प्रेम में मरता है। देह तो मरेगी ही; लेकिन जो अहंकार को मर जाने देता है, उससे बड़ा सौभाग्यशाली व्यक्ति इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।

आज इतना ही।

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