तीसरा प्रवचन
पूंजीवाद की नैसर्गिक व्यवस्था
मेरे प्रिय आत्मन्!एक मित्र ने पूछा है कि पूूंजीवाद तो स्वार्थ की व्यवस्था है और फिर भी आप उसका समर्थन कर रहे हैं?
इस संबंध में थोड़ी सी बात समझ लेना जरूरी है। पहली बात तो यह समझ लेना जरूरी है कि आज तक मनुष्य को जो बहुत सी गलत बातें सिखाई गई हैं, उनमें एक गलत बात यह है कि अपने लिए जीना बुरा है। मनुष्य पैदा ही इसलिए होता है कि अपने लिए जीए! मनुष्य को समझाया जाता रहा है कि दूसरे के लिए जीओ, अपने लिए जीना बुरा है। बाप बेटे के लिए जीए, और बेटा फिर अपने बेटे के लिए जीए; और इस तरह न बाप जी पाए, न बेटा जी पाए! समाज के लिए जीओ, राष्ट्र के लिए जीओ, मनुष्यता के लिए जीओ, भगवान के लिए जीओ, मोक्ष के लिए जीओ। बस, एक भूल भर मत करना--अपने लिए मत जीना। यह बात इतनी बार समझाई गई है कि हमारे प्राणों में गहरी पैठ गई है कि अपने लिए जीना जैसे पाप है, जब कि कोई भी आदमी अगर जीए तो सिर्फ अपने लिए ही जी सकता है और अगर दूसरे के लिए जीना भी निकलता है तो वह अपने लिए जीने की गहराई का परिणाम है, वह उसकी सुगंध है।
कोई आदमी इस जगत में दुसरे के लिए नहीं जी सकता, असंभव है यह। मां भी बेटे के लिए नहीं जीती है और अगर बेटे के लिए मरती है तो वह मां का आनंद है। बेटा सिर्फ बहाना है। अगर नदी में एक आदमी डूब रहा हो और आप किनारे पर खड़े हों और दौड़ कर जब आप उस आदमी को बचाते हैं
तो शायद आप लोगों से कहें कि इस आदमी को मरने से बचाने के लिए मैंने अपना जीवन दांव पर लगा दिया। आप बिलकुल गलत कह रहे हैं। सच्चाई कुछ और है।
सच्चाई यह है कि आप उस आदमी को डूबते हुए न देख सके। यह आपकी पीड़ा है, यह आपका कष्ट था। इस कष्ट को मिटाने के लिए आप कूदे हैं और उस आदमी को आपने बचाया है। उस आदमी से आपका कोई संबंध नहीं है और अगर आपको यह पीड़ा नहीं होती, तो आप न बचाते। दूसरे लोग भी थे नदी के किनारे, जिन्हें कोई पीड़ा न हुई थी। वे अपने रास्ते चले गए। जब कोई आदमी किसी को नदी में डूबने से बचाता है, तब भी अपनी ही पीड़ा के निवारण के लिए। वह उस आदमी को डूबते हुए देख कर अपने को नहीं देख सकता, यह उसके लिए असंभव है। बहुत गहरे में अपनी पीड़ा का ही वह निवारण कर रहा है।
अगर एक आदमी जाकर गरीबों की सेवा कर रहा है तो वह गरीबों की सेवा नहीं कर रहा है। अगर कह रहा है तो गलत कह रहा है। वह आदमी गरीब को गरीब देखना असंभव पा रहा है। उसके भीतर एक पीड़ा जन्म ले रही है, जिसे दूर किए बिना वह नहीं रह सकता। वह अपनी पीड़ा दूर करने को गरीब की सेवा करने गया है। आज तक कोई मनुष्य दूसरे के लिए नहीं जीया है, सब मनुष्य अपने लिए जीते हैं। लेकिन अपने लिए जीना दो तरह का हो सकता है। एक अपने लिए ऐसा जीना जिसमें दूसरे को मारना भी आ जाए, मिटाना भी आ जाए। एक ऐसा जीना जिसमें दूसरे का जीवन भी विकसित होता हो। लेकिन परोपकार की बात बहुत खतरनाक है। जब भी हम किसी आदमी को सिखाते हंै कि दूसरे के लिए जीओ, तभी वह आदमी रुग्ण, बीमार और अस्वस्थ होना शुरू हो जाता है।
मैंने सुना है, एक बाप अपने बेटे को समझा रहा था। वह उसे अच्छी शिक्षाएं दे रहा था और अच्छी शिक्षाएं बड़ी खतरनाक होती हैं बहुत बार। वह अपने बेटे से कह रहा है कि भगवान ने तुझे इसलिए पैदा किया है कि तू दूसरे की सेवा कर। पुराने जमाने का बेटा होता तो मान लेता और सेवा करने निकल जाता। उस नये जमाने के बेटे ने कहाः मैं समझ गया, भगवान ने मुझे दूसरों की सेवा के लिए पैदा किया है। मैं यह पूछना चाहता हूं, भगवान ने दूसरों को किसलिए पैदा किया? इसलिए कि मेरी सेवा लें? तो भगवान ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया या इसलिए कि दूसरे मेरी सेवा करें और मैं उनकी सेवा करूं? तो भगवान बहुत कनफ्यूज्ड मालूम होता है। यह उलटी झंझट क्यों करनी? एक-एक आदमी अपनी कर ले, यह सरल व्यवस्था है। मैं आपकी करूं और आप मेरी करें--ऐसी उलझन में पड़ने का प्रयोजन ही क्या है?
और ध्यान रखें, जब भी कोई आदमी किसी की सेवा करता है तो नीचे पैर भी दबाता है, ऊपर गर्दन भी पकड़ लेता है। सेवा करने वाला हमेशा गर्दन पकड़ लेता है, हालांकि गर्दन पकड़ने की यात्रा पैर दबाने से शुरू करनी पड़ती है। सेवक से सदा सावधान रहना; क्योंकि सेवक कहेगाः मैंने सेवा की है, मैंने कुर्बानी की है तुम्हारे लिए। जो मां अपने बेटे से कहती हैः मैंने कुर्बानी की है तुम्हारे लिए, वह मां अपने बेटे को क्रिपिल्ड करके रहेगी, पंगु कर देगी, जान ले लेगी। जो बाप अपने बेटे से कहेगा तेरे लिए मैंने सब गंवाया है, वह इस बेटे की गर्दन जिंदगी भर दबाएगा। स्वाभाविक है दबाना। स्वाभाविक इसलिए है कि उसने कुर्बानी की है, शहीद हुआ है और शहीदी का बदला किससे ले? उसने कुर्बानी की है, वह बदला किससे ले? वह किससे कहे कि मैंने इतनी कुर्बानी की है। लेकिन किसी मां ने अगर कभी कहा हो कि मैंने कुर्बानी की है बेटे के लिए, तो मां ही नहीं है। उसे मां होने का पता नहीं चला। मां होने का आनंद है वह, बेटे से उसका कोई संबंध नहीं है। और अगर बेटा न होता तो वह मां जिंदगी भर तड़पती कि किसके लिए न्योछावर कर दूं, किसके लिए परेशान हो जाऊं, किसके लिए जागंू, किसकी प्रतीक्षा करूं?
मनुष्य का व्यक्तित्व, मनुष्य का स्वभाव अपने लिए जीने का है; लेकिन यह सीधी, साफ बात स्वीकृत नहीं है। हम इसे गाली देेते हैं। हम कहते हैं, यह स्वार्थ है। स्वार्थ ही स्वाभाविक है। अस्वाभाविक नहीं है स्वार्थ। अस्वाभाविक वहां होता है जहां मेरा स्वार्थ आपके स्वार्थ की हत्या करना शुरू करे। इसलिए समाज की व्यवस्था ऐसी नहीं होनी चाहिए जिसमें हम कहें कि समाज के लिए कुर्बानी करो।
समाज की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि हम प्रत्येक को अपने हित के लिए जीने का मौका दें और समाज तथा कानून एवं राज्य सिर्फ वहीं बाधा बनें, जहां कोई व्यक्ति किसी के स्वार्थ की हत्या करता हो, अन्यथा समाज को बीच में आने की कोई भी जरूरत नहीं। लेकिन तथाकथित समाजवादी, साम्यवादी चिंतन कहता है कि व्यक्ति का बलिदान करेंगे समाज की बलिवेदी पर। समाज है लक्ष्य, व्यक्ति को जीना है समाज के लिए और जब भी ये बड़े लक्ष्य पैदा किए जाते हैं तो व्यक्ति की कुर्बानी दी जा सकती है। फिर व्यक्ति निहत्था हो जाता है। वह कहता है, क्या कर सकते हैं? इतना बड़ा समाज है, उसके हित में कुर्बानी देनी है। आज तक मनुष्य-जाति ने जितनी हत्याएं की हैं, वह इसी तरकीब से की हैं। कोई इस्लाम के लिए मर रहा हे, कोई इस्लाम के लिए मरवा रहा है कि जाओ, मरो, इस्लाम के लिए तो बहिश्त निश्चित है। अपने लिए मत जीओ, जीओ इस्लाम के लिए। कोई कह रहा है, हिंदू होने के लिए जीओ, हिंदू के मंदिर की मूर्ति के लिए जीओ। मूर्ति बचे, तुम मिटो, कोई फिकर नहीं। तुम मर जाओ, लेकिन मूर्ति को बचाओ, मंदिर को बचाओ। कोई कहता है, हिंदुस्तान के लिए जीओ; कोई कहता है, पाकिस्तान के लिए। कोई कहता है, चीन के लिए, कोई कहता है, समाजवाद के लिए जीओ। कोई भी नहीं कहता कि प्रत्एक अपने लिए जीओ। जब कि वही सहज और सरल है। लेकिन सरल और सहज सत्य छूट जाते हैं, हमारे खयाल से उड़ जाते हैं। उनका खयाल भी भूल जाता है। हर आदमी अपने लिए ही जी सकता है और अगर हमने जोर-जबरदस्ती की तो वह पाखंडी हो जाएगा। इसलिए हमारे सेवक निश्चित अनिवार्यरूपेण पाखंडी हो जाते हैं, क्योंकि वह जीते तो अपने लिए है, लेकिन दिखाते फिरते हैं कि वह किसी और के लिए जी रहे हैं। एक दोहरी जिंदगी हो जाती है। भीतर कुछ होते हैं, बाहर कुछ होते हैं--होगा ही।
नेता दिखाता है कि वह सारे राष्ट्र के लिए मरा जा रहा है। अपनी कुर्सी के लिए मरता है, लेकिन सारे राष्ट्र की बात करता है। सारा राष्ट्र यानी वह कुर्सी, जिस पर वह बैठा है। यदि वह कुर्सी नहीं, तो सारा राष्ट्र कहीं भी जाए, उससे फिर कोई मतलब नहीं। राजनीतिक मरा जा रहा है देशों के लिए, वादों के लिए, संस्कृतियों के लिए, सभ्यताओं के लिए। धर्मगुरु मरे जा रहे हैं धर्मों के लिए, संप्रदायों के लिए, लेकिन कोई भी इन सबके लिए नहीं मर रहा है। ये सब बातें हैं। मर रहा है अपने पद, अपनी प्रतिष्ठा, अपने अहंकार के लिए। लेकिन इस सीधे सत्य को हम कब स्वीकार करेंगे? स्वीकार न करने के कारण हिपोक्रेसी पैदा होती है, स्वीकार न करने के कारण पाखंड पैदा होता है और पाखंड इतने जाल बुनता है कि जिंदगी बिलकुल गलत रास्ते पर भटक जाती है।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि स्वार्थी होना स्वस्थ होना है, इसमें कुछ भी पाप नहीं है और मैं तो मानता हूं कि महावीर, बुद्ध या क्राइस्ट से ज्यादा स्वार्थी आदमी पृथ्वी पर दूसरे नहीं हुए हैं। क्यों? क्योंकि वे निपट अपने आनंद, अपने मोक्ष, अपनी आत्मा, अपने परमात्मा की खोज के लिए जी रहे हैं और मजे की बात यह है कि उनसे बड़े परोपकारी कहीं भी नहीं हुए; क्योंकि जो आदमी अपने को पा लेता है वह अपने को बांटना शुरू कर देता है। जब अपने को पा लेता है तो एक नया आनंद शुरू होता है अपने को बांटने का। और जब कोई आदमी भीतर आनंद से भर जाता है तो करेगा क्या?
कभी आपने खयाल किया है? आनंद जब भी भीतर भर जाता है तो जैसे बादल बरसना चाहते हैं वैसे आनन्द भी बंटना चाहता है, लेकिन वह भी स्वार्थ है। इसी तरह जब कोई आदमी भीतर दुख से भर जाता है तो दुख भी बरसना चाहता है। वह दूसरे को दुखी करेगा, इसलिए ए जो शहीद तरह के लोग चारों तरफ घूमते रहते हैं--कोई मां-बाप की शक्ल में घूम रहा है, कोई शिक्षक की शक्ल में घूम रहा है, कोई नेता, कोई गुरु तो कोई महात्मा की शक्ल में। असल में ए जो शहीद दूसरे के लिए जीने की कोशिश कर रहे हैं--ये बड़े खतरनाक लोग हैं, क्योंकि पहले तो ये अपने फूल को न खिला पाएंगे और भीतर दुखी होते चले जाएंगे; और जितने दुखी होंगे उतनी ज्यादा सेवा करेंगे और जितनी ज्यादा सेवा करेंगे उतनी आपकी गर्दन दबाएंगे कि मैंने आपकी सेवा की है, अब इसका बदला चाहिए। उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले जिन-जिन लोगों ने इस देश की सेवा की थी, वे उन्नीस सौ सैंतालिस के बाद बदला ले रहे हैं। सेवा का बदला चल रहा है। वह जेल गए, वह सर्टिफिकेट लेकर खड़े है कि यह है मेरे पास सर्टिफिकेट। अब राष्ट्रपति का पद चाहिए। लेकिन हमने कब कहा हक जेल जाने से राष्ट्रपति का पद मिलता है? आपकी बड़ी कृपा थी, आप जेल गए, आपको मजा आया होगा। आप आजादी के लिए लड़े, यह आपकी खुशी रही होगी। किंतु परिणाम स्वरूप अब तुम क्या सदा के लिए मुल्क की गर्दन बांधोगे? किसने तुमसे कहा था? लेकिन सेवक बदला मांगता है। बदले के सिक्के कोई भी हो सकते हैं। इसलिए सेवक कब एकदम से मालिक हो जाता है, पता नहीं चलता। सेवक, मालिक होने की तैयारी ही कर रहा है। दुनिया में सच्ची सेवा केवल वे ही लोग कर पाते हैं जो परम स्वार्थी हैं। परम स्वार्थी का मतलबः जो अपने हित, अपने कल्याण को पूरी तरह खोजते हैं। जिस दिन उन्हें अपना मंगल, अपना सुख, अपना आनंद मिल जाता है, अनिवार्यरूपेण दूसरे के जीवन में उनका सुख फैलना शुरू हो जाता है। करिएगा क्या? जिस दिन सब भीतर होना--बहेगा, बंटेगा। लेकिन तब वैसा व्यक्ति जानता है कि मैं जो कुछ कर रहा हूं, वह मेरी खुशी है।
बुद्ध एक गांव में गए। उस गांव के लोगों ने कहा, आपने बड़ी कृपा की है कि इतने मील चल कर आए हमें समझाने। बुद्ध ने कहाः ऐसी बात मत करो। तुमने बड़ी कृपा की है कि मैं बोलने आया और तुम सुनने आ गए हो। मैं भर गया हूं और कुछ बरसना चाहता हूं। तुम न आओ तो मैं तुम्हें खोजता हुआ आऊंगा, जैसे बादल खोज रहा हो सूखी जमीन, कहां बरस जाए! नदी खोज रही हो सागर कि कहां ढलक जाए! फूल खोज रहा हो सूरज कि कहां बिखर जाए! बुद्ध ने कहा कि मैं भर गया हूं किसी चीज से और उसे बांटने के लिए तुम्हें खोजता आ रहा हूं, तुम मुझे धन्यवाद मत दो। अनुगृहीत मैं हूं कि तुम आ गए और तुम्हें मैं बांट सकूंगा।
जो जानते हैं वे भलीभांति जानते हैं कि सेवा भी बहुत गहरा स्वार्थ है। वह सेवा करने वाला का आनंद है; लेकिन यह आनंद तभी होगा, जब हम स्वार्थ को स्वीकार कर लें। पूंजीवाद की व्यवस्था अत्यंत नैसर्गिक व्यवस्था है। वहां हम किसी को किसी पर बलिदान नहीं कर रहे हैं। प्रत्एक व्यक्ति अपने लिए जी रहा है, जीनेकी खोज कर रहा है। इस खोज से दूसरे के लिए भी जीएगा; क्योंकि कोई भी आदमी अकेला नहीं जी सकता है। जीने का मतलब ही संघर्षो में जीना है। और जब सारे लोग अपना सुख खोजते हैं, तब अनिवार्यतः वे शेष के लिए भी सुख का स्रोत बन जाते हैं। अगर हजार आदमी यहां बैठ कर अपना सुख खोजें तो हजारगुना सुख कल पैदा हो जाएगा। वह सुख बंटेगा, वह जाएगा कहां? लेकिन प्रत्येक आदमी दूसरे के लिए कुर्बानी करे, अपना सुख न खोजे और हजार आदमी में हर आदमी नौ सौ निन्यानबे के लिए कुर्बानी करता रहे, वहां दुख की दुख इकट्ठा हो जाएगा। वहां सुख इकट्ठा नहीं हो सकता।
मेरे मित्र, जिन्होंने पूछा है--उन्होंने यही कहा है कि स्वार्थ के कारण ही तो दुनिया बरबाद है।
मैं आपसे कहना चाहता हंू कि स्वार्थ के कारण नहीं, परोपकार की अस्वाभाविक, अवैज्ञानिक शिक्षाओं के कारण दुनिया परेशान है। अगर आप सहज अपना ही सुख खोज सकें तो काफी है। इतना ही कर दें दुनिया में आप, तो बहुप काफी है। जन्म और मृत्यु के बीच में अपना सुख खोज लें तो यह दुनिया आपको धन्यवाद देगी; क्योंकि जो आदमी अपना सुख खोज लेता है, वह दूसरे को दुख देना बंद कर देता है। क्यों? क्योंकि जो जानता है कि उसे सुख चाहिए, वह यह भी जान लेता है कि दूसरे को दुख देकर सुख लाना असंभव है। वह दूसरे को दुख देना बंद कर देता है; और जो आदमी यह जान लेता है कि दूसरे को
दुख देने से मेरा सुख कम होता है, वह यह भी बहुत जल्दी जान लेता है कि दूसरे को सुख देने से मेरा सुख बढ़ता है। यह गणित है सीधा। यह जिस दिन दिखाई पड़ जाता है, उस दिन जिंदगी में क्रांति हो जाती है।
लेकिन दुनिया के सारे धर्म त्याग सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं, त्याग करो, वे कहते हैं, स्वयं को छोड़ो, वे कहते हैं, स्वार्थ छोड़ो। वैसे स्वार्थ शब्द का अर्थ बड़ा साफ है। स्वार्थ का अर्थ है, स्व के लिए जो अर्थपूर्ण हो। स्व का मतलब है आत्मा, जो अपने हित में...लेकिन जो मेरे हित में है--क्या जरूरी है कि वह आपके अहित में हो? जितनी गहराई में उतरेंगे, उतना ही पाएंगे कि जो मेरे हित में हो सकता है वह वस्तुतः आपके अहित में नहीं हो सकता है, क्योंकि बहुत गहरे में हम सबके प्राण कहीं संबंधित और एक हैं। यह असंभव है कि जो मेरा हित हो बहुत गहरे में वह आपका अहित हो जाए। उलटी बात सच है कि जो आपका अहित हो, वह अनजाने में मेरा भी अहित हो जाए।
मैं एक पहाड़ पर गया था। उस पहाड़ पर एक ईको-पाॅइंट था। मेरे साथ दस-पांच मित्र गए थे। उनमें एक मित्र थे--उस ईको-पाॅइंट पर जैसी आवाज की जाए, पहाड़ वही आवाज दोहराता था। वह मित्र कई जानवरों की आवाज जानते थे। उन्होंने कुत्ते की आवाज में भोंकना शुरू कर दिया। उस पहाड़ से कई हजार कुत्ते भोंकने लगे। सौ गुनी आवाजें होकर लौटने लगीं। कुत्ते ही कुत्ते पहाड़ पर फैल गए। मैंने उन मित्र से कहाः देख रहे हैं, आपने एक कुत्ते की आवाज की, चारों तरफ से हजार कुत्ते भोंकने लगे। अपनी ही आवाज के कारण आप हजार कुत्ते की आवाज में घिर गए। कितना अच्छा हो कि कोयल की आवाज में बोलो! वह जानते थे। उन्होंने कोयल की आवाज निकाली। पहाड़ कोयल की मधुर आवाज से गूंजने लगा। फिर वह उठ आए और सहज चुप हो गए। कोई घड़ी भर बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि आपने कुछ इशारा किया। मैंने पूछाः क्या लगा? उन्होंने कहाः मुझे ऐसा लगा कि यह प्रतिध्वनि वाला पहाड़ पूरी जिंदगी की तस्वीर है। हम वहां जो हो जाते हैं वही लौट आता है हजार-हजार गुना होकर। कुत्ते की आवाज बोलेंगे तो कुत्तों से घिर जाएंगे। दुख देंगे तो दुख बरस जाएगा, कांटे फेकेंगे तो कांटे लौट आएंगे, आनंद बांटेगे तो आनंद हजार गुना होकर बहने लगेगा, प्रेम देंगे तो प्रेम लौट आएगा, क्रोध लौट आएगा। जिंदगी एक प्रतिध्वनि है।
लेकिन इसलिए मैं कहता हूं कि मैं स्वार्थ के विरोध में नहीं हूं। यदि आप अपना ही स्वार्थ खोज लें, तो इस जगत के लिए इतने परोपकारी सिद्ध होंगे कि और किसी भांति नहीं सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए मैं स्वार्थ की व्यवस्था का विरोध नहीं करता हूं, पुरा समर्थन करता हूं। और स्वार्थ की व्यवस्था ही विकसित होते-होते समाजवादी व्यवस्था बन सकती है; क्योंकि सारे लोग अपना स्वार्थ खोजें, नहीं तो कल उन्हें दिखाई पड़ जाएगा कि बहुत सी जगह हम एक दूसरे के स्वार्थ में व्यर्थ बाधक बन रहे हैं। वह बाधाएं भी हटा लें। अपने स्वार्थ को, सुख को, हजार गुना कर लें, तो आज नहीं तो कल, मनुष्य-जाति समाजवाद के करीब पहुंच सकती है--स्वार्थो के संघर्ष से नहीं, बल्कि स्वार्थ के सहयोग की खोज से।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि पूंजीवाद में भ्रष्टाचार, ब्लैक मार्केटिंग है, रिश्वत है। इन सबके लिए आप क्या कहते हैं?
इस सबका कारण पंूजीवाद नहीं है। इस सबका कारण पूंजी का कम होना है। जहां पूंजी कम होगी वहां भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सकता। लोग होंगे बहुत, पूंजी होगी कम, तो लोग सब तरह के रास्ते खोजेंगे पूंजी की मालकियत करने के। अगर दुनिया से भ्रष्टाचार मिटाना हो तो भ्रष्टाचार मिटाने की फिकर ही न करें। भ्रष्टाचार सिर्फ बाई-प्राॅडक्ट है, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन सारे नेता भ्रष्टाचार मिटाने में लगे हैं, सारे साधु भ्रष्टाचार मिटाने में लगे हैं। वे कहते हैं, हम भ्रष्टाचार मिटाएंगे, जब कि असली सवाल यह है कि संपत्ति कम है, भ्रष्टाचार होगा। भ्रष्टाचार संपत्ति के कम होने का स्वाभाविक परिणाम है। अगर हम हजार लोग यहां हैं और खाना दस आदमियों के लिए है, तो क्या आप समझते हैं कि खाना चोरी से प्राप्त करने की कोशिश नहीं की जाएगी?
एक मनोवैज्ञानिक समाजवादी हिटलर के किसी कारागृह में बंद था! उसने लिखा है कि वहां जाकर मुझे आदमी की असली तस्वीरों का पता चलना शुरू हुआ, क्योंकि चैबीस घंटे में एक ही बार रोटी मिलती थी और वह थी अत्यंत अल्प होती थी कि पेट न भर पाए। मैंने ऐसे लोगों को जो कवि थे, लेखक थे, डाक्टर थे, इंजीनियर थे, प्रतिष्ठित थे, कोई किसी गांव का मेयर था, उसको भी रात में दूसरों के बैग में से रोटी का एक टुकड़ा चुराते हुए देखा। जिनकी नैतिकता की सदा चर्चा थी, जिनके अभिनंदन होते थे, हजारों की थैलियां जिनको भेंट की जाती थीं, उस आदमी को भी एक सिगरेट के लिए घुटने टेक कर गिड़गिड़ाते देखा और किसी को कुछ नहीं लग रहा है कि क्या गलत हो रहा है। उसने खुद लिखा है कि मुझे जो पूरी रोटी मिलती थी वह पूरी तो नहीं थीं, एक वक्त का भी पेट नहीं भरता था और एक दफे उसे खा लो तो दिन भर तकलीफ होती थी; क्योंकि पेट भरा भी नहीं है, भूख बुझी भी नहीं है। और रोटी भी खत्म हो गई। उसने लिखा है कि एक टुकड़ा फिर खा लिया; थोड़ी देर भूख को सहा। फिर इस आशा में कल्पना देखते हुए कि अब थोड़ी देर में फिर एक टुकड़ा खा लेंगे, और थोड़ा रुको--ऐसे चैबीस घंटे में कई बार छोटा-छोटा टुकड़ा! उसने यह भी लिखा है कि यहां आकर मुझे पता चला है कि मैं चैबीस घंटे रोटी के संबंध में ही सोचने लगा हूं। ईश्वर, आत्मा, चेतन, अचेतन, साइकोलाॅजी, एनालिसिस सब खो गए हैं--फिलासफी--सब गए। सदा से मैं सोचता था यही महत्वपूर्ण है, वहां जाकर अचानक पता चला कि रोटी ही सब कुछ है और उसने कहा--मैं भी नहीं कह सकता हूं कि अगर मुझे मौका मिल जाए तो मैं किसी की रोटी न चुरा लूं।
यह जो भ्रष्टाचार हे, यह तो रिश्वतखोरी है, इस बात का सबूत है कि देश में लोग ज्यादा है और संपत्ति कम है। इस सीधे से तथ्य को हम न समझेंगे। एक आदमी को जब बुखार चढ़ता है, तो कुछ लोग बुखार को बीमारी समझ लेते हैं। वे कहते हैं--इस आदमी का शरीर गरम हो गया है, एक सौ दो डिग्री बुखार है। ठंडा पानी डाल कर इसका बुखार इसी वक्त ठीक करो। वह उसको मार डालेंगे। बुखार बीमारी नहीं है, सिर्फ खबर है कि भीतर अव्यवस्था हो गई है। यह जो भ्रष्टाचार हमें दिखाई पड़ता है--यह बीमारी नहीं है, यह सिर्फ खबर है कि पूंजी कम और लोग ज्यादा हैं; लेकिन भ्रष्टाचार खत्म करना है, पूंजी बढ़ानी नहीं है, लोग कम करने नहीं है। लोगों को भगवान पैदा कर रहा है तो भगवान से बड़ा भ्रष्टाचारी इस वक्त फिर कोई भी नहीं है; क्योंकि लोग जितने पैदा होते जाएंगे, भ्रष्टाचार बढ़ेगा। संख्या बढ़ती जाएगी, संपत्ति पैदा नहीं करनी है और संपत्ति हम पैदा करेंगे और जनसंख्या भगवान पैदा करेगा तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। तालमेल बैठाना असंभव हो जाएगा। इधर हमको भगवान के इस निरंतर के वरदान पर रोक लगानी पड़ेगी। उनसे हाथ जोड़ कर कहना पड़ेगा कि अब बस, अब लोग नहीं चाहिए और अगर लोग भेजते हो तो सबके हाथ दस एकड़ जमीन और एक-एक फैक्टरी एक-एक आदमी के साथ भेजो, अन्यथा यह काम नहीं चलेगा।
लोग अनैतिक नहीं हैं, जैसा कि सारे धर्मगुरु और नेता समझते हैं। लोग अनैतिक नहीं है, स्थिति अनैतिक है कोई अनैतिक नहीं है। न कोई नैतिक होता है, न कोई अनैतिक। इस अनैतिक स्थिति में भी कोई अगर बहुत श्रम करे तो नैतिक हो सकता है; लेकिन तब उसकी कुल जिंदगी नैतिक होने में ही व्यय हो जाएगी। वह कुछ और नहीं कर पाएगा। बस किसी तरह अपने को चोरी से रोक ले, आंख बंद करके हाथ-पैर रोक कर खड़ा हो जाए। श्वास रोक ले, चोरी से रोक ले, बस यही उनकी उपलब्धि होगी। इसमें बहुत श्रम करके कोई नैतिक हो सकता है, लेकिन यह स्थिति अनैतिक है। सिचुएशन इ.ज इम्मारल, और इसलिए इस स्थिति को बदलने का सवाल है, न कि भ्रष्टाचार रोको, ‘भ्रष्टाचार रोको’ आंदोलन चलाओ, नारे लगाओ, भाषण दो। कोई भी नहीं रोक पाएगा। रुकेगा अपने आप अगर संपत्ति बढ़ती है, विकसित होती है। अगर हम संपत्ति इतनी पैदा कर लेते हैं कि संपत्ति काफी हो, तो कोई चोरी करने नहीं जाएगा।
एक मित्र ने पूछा है कि बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम--वे सब तो त्याग की बात कर रहे हैं! वे तो कहते हैं, त्याग करो और आप कहते हैं, संपत्ति बढ़ाओ!
मैं आपसे कहता हूं, संपत्ति बढ़ाओ। बुद्ध, राम, कृष्ण क्या कहते हैं पक्का तय करना मुश्किल है; लेकिन अगर वे यह कहते हैं कि संपत्ति मत बढ़ाओ तो गलत कहते हैं। मजा तो यह है कि जिनके पास संपत्ति ही न हो वे त्याग क्या करेंगे? बुद्ध कह सकते हैं कि त्याग करो। बुद्ध संपत्ति में पैदा हुए हैं। बुद्ध, यशोधरा को छोड़ कर जा सकते हैं, जंगल में बारह वर्ष तपश्चर्या के लिए। यशोधरा के लिए पीछे महल है और सब सुरक्षा है। अगर आज का कोई बुद्ध यशोधरा को छोड़ कर जाएगा बारह वर्ष, तो बारह वर्ष के बाद यशोधरा चकले में मिलेगी, घर पर नहीं मिलेगी। और बुद्ध अपने बेटे राहुल को छोड़ कर जा सकते हैं, लौट कर वह घर पर ही मिलता है; किंतु यदि आज छोड़ कर जाएंगे तो किसी यतीमखाने में या बंबई के किसी रास्ते पर भीख मांगता मिलेगा। पता लगाना मुश्किल होगा कि बेटा कहां है। बुद्ध के पास बहुत था। जिसके पास भी बहुत है वे छोड़ने की बात कर सकते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जिनके पास बहुत है उनकी बात उन्होंने मान ली है जिनके पास कुछ भी नहीं है।
इस देश के सारे मनीषी धनपति घरों से आए और इस देश की सारी जनता दीन और दरिद्र है। लेकिन उसने उन्हें मान क्यों लिया? उसका भी तर्क है। उससे उसे बड़ा सुख मिला। उसने कहाः देखो, धन कमा कर क्या करना है। बुद्ध के पास इतना धन था, वे छोड़ कर सड़कों पर भीख मांग रहे हैं; तो हम तो पहले ही से बुद्ध हैं, हम तो पहले ही से भीख मांग रहे हैं। हिंदुस्तान के दरिद्र मन को तृप्ति मिली। बुद्ध और महावीर ने जब सड़कों पर भीख मांगी, तो हम बड़े खुश हुए। हमने जो बुद्ध और महावीर के चरणों में श्रद्धा का सिर रखा उसका कारण बुद्ध और महावीर न थे, उसका कारण हमारी दीनता और दरिद्रता को मिली तृप्ति थी। क्या रखा है इन महलों में, कुछ भी सार नहीं है, नहीं तो महल वाले महलों को छोड़ कर कैसे आते? तो हम तो धन्य हैं कि पहले से ही महल में नहीं हैं।
लेकिन ध्यान रहे, महल को छोड़ कर सड़क पर खड़ा होना एक अलग अनुभव है और सड़क पर ही खड़ा रहना हो और महल पर कभी न गए हों तो यह बिलकुल दूसरी स्थिति है। इसलिए बुद्ध भिखारी नहीं हैं, बुद्ध के भिखारीपन में भी एक सम्राट की हैसियत है और बुद्ध की चाल में एवं उनकी आंखों में भिक्षु का खयाल कहीं भी नहीं है। मालकियत है, वे छोड़ कर आए हैं, वे ठुकरा कर आए हैं। कुछ चीजें बेकार हो गई हैं, और एक हम हैं जिन्होंने उन चीजों का जाना ही नहीं। बेकार नहीं हुई, भीतर प्राण कह रहे हैं कि महल मिल जाए, लेकिन न महल खोजन की ताकत है, न महल खोजने का श्रम करना है, न महल खोजने की बुद्धिमत्ता जुटानी है। फिर हम कहते हैं, क्या करेंगे महल खोज कर? जिनके पास महल था वे महल छोड़ कर सड़कों पर भीख मांग रहे हैं। बेकार है महल, इस तरह हम अपने को समझा रहे हैं।
भारत अपने को समझाता रहा और समझा-समझा कर मरता चला गया है। यह बड़ी कठिन बात है भारत के मन के सामने। किसी न किसी रूप में हमें यह समझ लेना चाहिए कि बुद्ध और महावीर और इस तरह के सारे लोग संपन्नता को छोड़ कर आए हुए लोग थे। इन्हें विपत्रता का पता नहीं हो सकता है। बुद्ध के पास बुद्ध के बाप ने सारी सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर दी थीं--जो भी उस समय राज्य में उपलब्ध हो सकती थीं वह सब खोज कर इकट्ठी कर दीं। अब बुद्ध जब स्त्रियों की तरफ नहीं देखते हैं तो बात और है। बुद्ध देख चुके स्त्रियों के आर-पार कि अब स्त्री में कुछ नहीं है। अब ऐसे आदमी, जिनको स्त्री कभी छूने को नहीं मिली, देखने को नहीं मिली, वह भी अपने घर में बैठ कर बुद्ध बनने की कोशिश कर रहे है। ऐसे लोग फंस जाएंगे इस कोशिश में। उनके चित्त को स्त्रियां ही स्त्रियां घेर लें तो आश्चर्य तो नहीं है न? स्त्री को आर-पार देख जाने के बाद एक छुटकारा है।
लेकिन स्त्री से दूर खड़े होकर जो ब्रह्मचर्य साध रहे हैं, ए यदि स्त्री से बुरी तरह बंध जाएंगे तो इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है न? अभाव में संतोष को पकड़ लेना एक बात है, लेकिन संपन्नता को विवेक से छोड़ देना बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन नेतृत्व मिल गया उनको और पूरा देश राजी हो गया, इसलिए
देश संपन्न नहीं हुआ, समृद्ध नहीं हुआ और हमने ऐसी फिलासफी पकड़ ली--ए फिलासफी आॅफ पावर्टी, जिसको पकड़ कर बैठ गए और अब उसमें बड़ा रस ले रहे हैं। बहुत हो चुका यह रस। खुजली खुजलाने का यह रस काफी हो चुका। इससे अब छुटकारा चाहिए।
देश की प्रतिभा को स्पष्ट रूप से समझ लेना पड़ेगा कि धन चाहिए और धन के चाहने में सबसे बड़ी जरूरत है कि धन मिल जाए तो ही आदमी धन के आर-पार जा सकता है। अन्यथा बहुत कठिन है। मैं यह नहीं कहता कि कोई एकाध आदमी नहीं जा सकता। किसी ने लिख कर भेज दिया कि फलां संत गरीब थे और वह चले गए। एकाध आदमी जा सकता है लेकिन नियम नहीं बनाया जा सकता एक आदमी के आधार पर।
इस गांव में मलेरिया फैल जाए और एक आदमी बिना मलेरिया के इंजेक्शन के बच जाए तो इसको नियम नहीं बनाया जा सकता कि देखो, एक आदमी को इंजेक्शन नहीं लगा, उसको मलेरिया नहीं हुआ, इसलिए किसी को इंजेक्शन मत लगाओ। वह एक आदमी बच गया है, कुछ भूल-चूक हो गई मलेरिया के कीटाणुओं की; लेकिन यह नियम नहीं हो सकता और अगर इसको नियम बनाया तो पूरा गांव मरेगा और अगर पूरा गांव मरेगा तो इस आदमी के भी मरने की संभावना बढ़ जाएगी। हो सकता है, दूसरों को जो इंजेक्शन लगे हैं, वे ही इसको बचाने में कारगर हुए हों। इस तक बीमारी पहुंचने में रुकावट पड़ी हो।
एक आदमी को इस अपवाद का नियम बनाने की भूल नहीं करनी चाहिए। लेकिन हमारा देश कर रहा है। हमारा देश सामान्य मनुष्य से नियम नहीं बनाता। हमारा देश नियम बनाता है अपवादों को, एक्सेप्शन को। वह जो असामान्य है और अकेला है, उसको हम नियम बना लेते हैं। उसके अनुसार हम साधारण-साधारण जनों को व्यवस्थित, बदलने, नियमित करने की कोशिश करते हैं। असाधारण व्यक्तियों को साधारण आदमी के लिए आदर्श बनाना, साधारण आदमी की हत्या करने जैसा है; लेकिन यह हो रहा है आज तक। अब महावीर को आदर्श बना लो कि वह नग्न खड़े हैं और सारे लोगों को नग्न खड़ा कर दो तो कठिनाई हो जाएगी। महावीर वस्त्रों में रह चुके, महावीर वस्त्रों का सुख ले चुके, महावीर वस्त्रों में जी चुके। महावीर वस्त्रों का सुख ले चुके, महावीर वस्त्रों में जी चुके। महावीर को नग्न होने में जो आनंद है, उस आनंद में पहने गए वस्त्रों का हाथ है। इसलिए एक आदमी जो नंगा ही पैदा हुआ है, नंगा ही बड़ा हुआ है, वस्त्र देखे नहीं, दूर से देखी है चमक वस्त्रों की, उससे कहो नग्न रहने में आनंद है--तो वह क हेगा नग्न होने में क्या आनंदित होना है? वह कहेगा, महावीर कुछ विशेष होंगे, भगवान होंगे, तीर्थंकर होंगे, इसलिए नग्न रहे। मुझे तो कपड़े में बहुत आनंद आता है। लेकिन ध्यान रहे, महावीर कपड़ों के कारण नग्नता में आनंद ले पा रहे हैं, यह आदमी नग्नता के कारण कपड़ों में आनंद ले पाएगा। दोनों की चित्त-दशा में बहुत फर्क नहीं है। दोनों का तर्क एक ही है कि जो अनजाना है, अपरिचित है, वह सुखद है। जो परिचित है, वह व्यर्थ है। इसकी नग्नता परिचित होकर व्यर्थ हो गई है।
इन शिक्षाओं से मुक्त होना पड़ेगा। ये शिक्षाएं नाॅन-डाइनैमिक सोसाइटी, स्टेटिक सोसाइटी पैदा करती हैं। इस शिक्षाओं ने एक मरा एवं रुका हुआ जड़ समाज पैदा किया है, जिसमें कोई बहाव नहीं है। एक बढ़ता हुआ, गतिमान समाज इनसे पैदा नहीं हो सका। अगर गतिमान समाज पैदा करना हो तो संतोष पर हीं, असंतोष पर आधार रखना पड़ेगा। यह जो हम निरंतर पूछते हैं कि हम गरीब क्यों हैं, हम गरीबी से संतुष्ट थे तो हम गरीब रहेंगे, क्योंकि अमीरी पैदा करनी पड़ेगी और पैदा वह करेगा जा गरीबी से असंतुष्ट हो। तभी अमीरी पैदा हो पाएगी, अन्यथा पैदा नहीं हो पाएगी। सम्पत्ति पैदा करनी है। संपत्ति कहीं रखी नहीं है कि हमें मिल जाए, अभी हम जाएं और मिल जाए। संपत्ति ह्यूमन क्रिएशन है और जो चीज मानवी सृजन है उसे पैदा करने के लिए उसकी मूलभूत जो जरूरत है, वह है एक असंतुष्ट खोजने वाला चित्त। हमारे पास चाहिए एक डिस्कटेंट माइंड, एक ऐसा मन जो असंतुष्ट है और सदा खोज रहा है। हमारी सारी शिक्षाएं संतोष दिलाने वाली हैं। संतोष दिलाने वाली शिक्षाएं देश को जड़ बनाती हैं, गतिमान नहीं बनाती हैं।
मेरे एक मित्र ने पूछा है कि गांधी जी की कल मैंने बात की--उन्होंने पूछा है कि गांधी जी तो चाहते थे कि देश सुखी हो, देश समृद्ध हो, देश के लोग मंगल को, कल्याण को उपलब्ध हों...?
जरूर चाहते थे। लेकिन नरक का रास्ता अच्छी चाहों से पटा हुआ है। अकेली अच्छी चाह का सवाल नहीं है। मैं बहुत चाहता हूं कि आपकी कैंसर ठीक हो और पानी पिला रहा हूं, तो कैंसर ठीक होने वाली नहीं है। मैं बहुत चाहता हूं कि आपकी टी.बी. ठीक हो, लेकिन ताबीज बांधता हूं तो चाह से टी.बी. ठीक न होगी। टी.बी. ठीक करने के विज्ञान को समझना पड़ेगा। गांधी जी कहते थे कि देश संपन्न हो, सुखी हो, लोग अच्छे हों, लेकिन गांधी जी जो भी तरकीबें बताते थे वह विपन्नता की, दरिद्रता की होती थीं। गांधी जी अगर सफल हो जाएं तो हिंदुस्तान का भाग्य सदा के लिए दरिद्र रह जाएगा। सच तो यह है कि अगर गांधी जी की बात मान ली जाए तो अभी पचास करोड़ की संख्या में से कम से कम हिंदुस्तान में पच्चीस करोड़ आदमी आज ही मरने की हालत में छोड़ देने पड़ेंगे।
अगर सारी दुनिया गांधी जी की बात मान ले, तो इसी समय साढ़े तीन अरब आबादी में से कम से कम दो अरब आदमी को गांधी की शिक्षा मानने से इसी वक्त मरना पड़ेगा। न तो चंगीज, न हिटलर, न स्टैलिन, न माओ और न सब दुनिया के हत्यारे मिल कर जितना मनुष्य को मार सके, उतना गांधी जी का विचार अकेला मार सकता है। क्यों? क्योंकि गांधी जी जो बातें कर रहे हैं, वह औद्योगिक युग के पहले की, सामंती युग की बातें हैं। उस सामंती युग के जिन उपकरणों की वे बात कर रहे हैं, चर्खा और तकली की, वह सारे के सारे उपकरण इतनी बड़ी मनुष्यता के लिए उपयोगी नहीं हैं। वे इसे जिंदा नहीं रख सकते। ये आदमी मर जाएंगे अभी। तो गांधी जी जो देखने में इतनी बड़ी अहिंसा की बात करते हैं, भूल कर उनकी बात मत मान लेना, नहीं तो बाद में इतिहास लिखेगा कि इससे बड़ा हिंसक आदमी नहीं हुआ; क्योंकि इतने लोग इसने मार डाले। इतने लोगों को जीने के लिए तकनीकी उत्पादन की वैज्ञानिक व्यवस्था चाहिए। लेकिन गांधी जी जो व्यवस्था सुझा रहे हैं, वह रामराज्य के जमाने की है, जब दुनिया की आबादी इतनी छोटी थी कि उस व्यवस्था से काम चल सकता था। उस दिन चर्खा-छाप धीमी और शिथिल व्यवस्था से काम चल सकता था। आज तीव्र व्यवस्था चाहिए। इतने मुंह हैं, इतने सिर है, इतने लोग हैं। आदिम व्यवस्था से गांधी जी इन्हें बचा सकते हैं। गांधी जी की बात मानी तो दरिद्रता पक्की हो जाएगी।
और उन मित्र ने पूछा है कि आप गांधी जी की आलोचना करते हैं, जब कि उनका व्यक्तित्व और उनके विचार और आचार में सदा एकरूपता थी!
इससे बड़ी झूठी कोई और बात नहीं हो सकती है। गांधी जी के आचार और विचार में इतनी बड़ी खाई थी कि जितनी दुनिया में शायद ही किसी आदमी के विचार और आचार में रही हो। आप कहेंगे, कैसी हैरानी की बात करते हैं?
गांधी जी जिंदगी भर रेलगाड़ी का विरोध करते रहे और जिंदगी का ज्यादा समय रेलगाडी में ही बिताया। जिंदगी भर विरोध किया एलोपैथी का और कहते थे, रामनाम ही सबसे बड़ी दवा है, लेकिन जब भी मरने के करीब पहुंचे, एलोपैथी की सहायता ली और बचे। न तो राम-नाम से बचे, न नेचरोपैथी से बचे। मरने के पहले जरूर सब उपाय कर लेते थे। नेचरोपैथी, रामनाम सब जब हो गया और जब मरने के करीब पहुंचे तो एलोपैथी ने बचाया। पूरी जिंदगी एलोपैथी का विरोध करते रहे और पूरी जिंदगी एलोपैथी उनको बचाती रही। पूरी जिंदगी रेलगाड़ी का, तार का, पोस्ट आफिस का विरोध किया और जितनी चिट्ठियां उन्होंने लिखीं, पोस्ट आफिस का उपयोग किया--मैं नहीं समझता मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी और आदमी ने ऐसा किया हो। गांधी जी दुश्मन हैं ट्रेन के। ट्रेन में नहीं चलना है, ट्रेन का होना पाप है, ट्रेन इस दुनिया से हट जानी चाहिए। सारे नये उपकरण के विरोधी और सब नये उपकरणों का उन्होंने पूरी तरह उपयोग किया और लोग कहते हैं उनके आचार-विचार में बड़ी एकता है। कैसी एकता है आचार-विचार में? वे जो कह रहे हैं कर कभी नहीं पा रहे हैं और जो कर रहे हैं वह बहुत भिन्न है--अगर उनकी पूरी जिंदगी की व्यवस्था को ठीक से देखें। लेकिन जिसको हम महात्मा मान लेते हैं उसकी तरफ हम आंख बंद कर लेना जरूरी समझते हैं।
मेरी तो उनसे एक ही दफा मुलाकात हुई और दुबारा नहीं हुई। मुझे आकांक्षा भी नहीं हुई। बहुत छोटा था, तब उनसे मिलने गया था। मेरे गांव से वे निकल रहे थे। सारा गांव जा रहा था तो मैं भी गया था और बहुत छोटा था। मेरी मां ने मेरी जेब में तीन रुपये रख दिए थे कि वहां स्टेशन पर भीड़-भाड़ होगी, खाना-पीना, आना-जाना, तीन-चार मील का रास्ता भी था। स्टेशन के प्लेटफार्म पर बहुत भीड़ थी तो यह सोच कर कि इतनी भीड़ में मुझ छोटे से बच्चे को तो उन्हें देखना भी मुश्किल होगा, इसलिए मैं प्लेटफार्म की दूसरी तरफ चला गया जहां प्लेटफार्म नहीं था। गांधी जी की गाड़ी आई, मैं उनकी खिड़की में चढ़ कर भीतर भी चला गया। उनकी नजर मुझ पर नहीं गई--मेरे मलमल के कुर्ते में वह जो तीन रुपए का वजन लटका हुआ था और रुपए दिखाई पड़ रहे थे, उन पर गई। उन्होंने जल्दी से कहाः यह क्या है? तीन रुपये निकाल लिए और कहा कि हरिजन-फंड में दे दो बेटे और हरिजन-फंड की पेटी में डाल दिए। मैंने कहा, ठीक है। मैं इससे खुश भी हुआ। सोचा कि अच्छा हुआ कि मैंने रुपये पहले ही खर्च नहीं कर दिए। लेकिन जैसी कि मेरी बुद्धि है, तो चलते समय मैंने वह पेटी उठा ली और कहा कि यह पेटी मैं ले जाता हूं। मेरे स्कूल के गरीब बच्चों के काम ये रुपये आ जाएंगे। ले जाने की कोई बात न थी। ले भी मैं नही जाता, लेकिन जानना चाहता था कि गांधी जी क्या कहते हैं। उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, पेटी मत उठाओ, यह हरिजन-फंड की पेटी है। मैंने उनकी आंखों में झांका। जिस व्यक्ति को मैं खोजने आया था, वह व्यक्ति वहां नहीं था!
मैं नीचे ट्रेन से उतर कर खड़ा हो गया। ट्रेन चली गई और उस भीड़ में वह मुझको देखते रहे, क्योंकि उनकी समझ में भी शायद खयाल आया हो कि क्या हो गया है? घर लौटने पर मेरी मां ने मुझसे पूछा कि महात्मा जी से मिले? मैंने कहाः महात्मा जी आए ही नहीं। उसने कहाः क्या मतलब? सब लोग तो कह रहे थे, निकले ट्रेन से। मैंने कहा, निकले श्री मोहनदास कर्मचंद गांधी, महात्मा जी नहीं। मेरी मां नहीं समझी। उसने कहाः क्या मतलब है तुम्हारा? मैंने कहाः श्री मोहनदास कर्मचंद गांधी कुशल दुकानदार है, सफल बनिया है। और उसके बाद मैंने गांधी जी को बहुत समझने की कोशिश की और जितना मैंने समझने की कोशिश की, मेरी जो पहली उनके संबंध में धारणा बनी वह धारणा मिटी नहीं, और मजबूत होती गई। मैं यह नहीं कहता कि मेरी धारणा को कोई माने लेकिन इतना मैं जरूर कहता हूं कि किसी भी आदमी के संबंध में पथरीली धारणाएं नहीं बनानी चाहिए, अन्यथा देश के चिंतन को धक्का पहुंचता है, और अंततः यह धक्का घातक हो जाता है।
अब सबको यही खयाल है कि वह जो कहते थे, उससे देश का कल्याण होगी ही; क्योंकि वे महात्मा थे। महात्मा होने से ही कल्याण होता है, ऐसा भी नहीं है। अभी मैं गया राजकोट। वहां जिस मैदान में मेरी सभा थी, वहां मैंने बहुत गाय-बैल खड़े देखे। मरी हालत में थे। मैंने पूछाः ये क्यों इकट्ठे हैं? तो पता चला कि जहां-जहां पानी की कमी है वहां-वहां से इनको इकट्ठा कर लिया गया है। इनको बचाने की कोशिश की जा रही है। जिनसे मैंने पूछा, उन्होंने कहा कि एक बहुत अदभुत बात आपको बताऊं? एक महात्मा अभी आए और उन्होंने इन सबको मोतीचूर के लड्डू खिलाए। उस दिन चालीस गाएं मर गईं। महात्मा का फोटो अखबार में छपा कि कितनी महान आत्मा है। गायों को मोतीचूर के लड्डू खिला रहे हैं! लेकिन महात्मा होने में ऐसा लगता है कि अक्ल का न होना जैसे बहुत जरूरी है। भूखी गरीब गाय को, जिसको पानी नहीं, भोजन नहीं मिलता है उसको मोतीचूर के लड्डू खिला रहे हैं तो इससे तो छाती में छुरा मारना ज्यादा आसान है। उससे गाय सुविधा से मरेगी, शांति से मरेगी। मोतीचूर के लड्डू से चालीस गाएं मरीं, लेकिन महात्मा ने मोतीचूर के लड्डू खिलाए और लोगों ने कहा कितना अदभुत गऊभक्त महात्मा है, मोतीचूर के लड्डू खिला रहा है!
हिंदुस्तान की गरीबी गांधी जी की बात से मिटेगी नहीं, क्योंकि गरीबी मिटाने के लिए टेक्नालाॅजी चाहिए और गांधी जी टेक्नालाॅॅजी के सबसे बड़े दुश्म हैं। वे कहते हैं, टेक्नीक नहीं चाहिए, टेक्नीक शैतान का आविष्कार है। जब कि टेक्नालाॅजी ही मनुष्य को बचाएगी और टेक्नालाॅजी ही मनुष्य की दरिद्रता मिटाएगी और टेक्नालाॅजी ही कल जब जमीन पर ज्यादा लोग हो जाएंगे तो उनको चांद पर पहुंचाएगी, मंगल पर पहुंचाएगी, क्योंकि पचास साल के बाद जमीन पर रहने योग्य जगह नहीं रह जाएगी। मैं नहीं जानता गांधी जी के चरखे के द्वारा किस भांति आदमी को चांद पर पहुंचाया जा सकेगा। मैं नहीं जानता कि गांधी जी के चरखे के द्वारा किस तरह अरबों, खरबों लोगों को भोजन और कपड़े दिए जा सकेंगे। लेकिन डर कोई नहीं है, क्योंकि गांधी जी की जय बोलने वाले भी उनको मानते नहीं हैं। लेकिन खतरा हो सकता है। अगर उन्हें माना जाए तो दुनिया को दो हजार साल पीछे लौटा कर वे रख दें। जिसे वे राम-राज्य कहते हैं, वह अत्यंत पिछड़ी हुई व्यवस्था का नाम है, आज की इस व्यवस्था से बहुत ज्यादा पिछड़ी हुई व्यवस्था का नाम है, लेकिन वे उसकी ही आकांक्षा करते हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि आप जो कह रहे हैं--यही तो पुरानी हिंदू संस्कृति कहती है, यही तो पुरानी हिंदू संस्कृति का असली समाजवाद है!
मैं कुछ समझा नहीं कि वे क्या पूछ रहे हैं।
उन्होंने यह भी लिखा है असली समाजवाद हिंदुस्तान में पहले हो चुका है!
दुनिया में कभी नहीं हुआ और हिंदुस्तान में तो बिलकुल नहीं हुआ, न अतीत में कभी होने की संभावना ही थी। जिसको आप पुरानी संस्कृति कहते हैं उससे जितनी जल्दी छूटें, उतना अच्छा है। सिर्फ अपनी होने से बीमारी अच्छी नहीं हो जाती। लेकिन जिस जाल में हम जकड़े होते हैं हजारों साल से, वह अच्छा लगने लगता है। किस चीज को आप कह रहे हैं? कब था समाजवाद भारत में?
जिन्होंने यह पूछा है उन्होंने यह कहा है कि सब अच्छी बातें भारत में थीं, वहीं लौट चलना चाहिए।
कोई अच्छी बात नहीं थी जहां लौटने की जरूरत हो। अगर अच्छी बात होती तो हम उसे छोड़ कर ही न आए होते। अच्छी बात छोड़ कर कभी भी कोई नहीं जाता है और अगर जाता है तो और अच्छे की तलाश में ही जाता है। लेकिन हम बड़े भ्रम में हैं। हमारा खयाल है कि भारत सोने की चिड़िया थी। कभी नहीं थी। हां, कुछ लोगों के लिए थी, कुछ लोगों के लिए आज भी है, सबके लिए कभी भी नहीं थी। हम सोचते हैं कि भारत में कभी ताले नहीं पड़ते थे। लोग इतने अच्छे और ईमानदार थे कि घरों में ताले नहीं पड़ते थे। मुझे नहीं समझ में आता है कि यह बात सच हो सकती है। होगी सच तो कारण कुछ और होंगे, जो हम सोचते हैं वह नहीं है। क्योंकि बुद्ध लोगों को समझा रहे हैं कि चोरी मत करो, महावीर समझा रहे हैं कि चोरी मत करो। अगर लोग इतने अच्छे थे कि ताले की जरूरत नहीं थी तो बुद्ध और महावीर का दिमाग खराब रहा होगा--किसको समझ रहे हैं कि चोरी मत करो? चोरी बराबर थी। तब एक ही मतलब निकलता है कि ताले उन घरों पर नहीं होंगे जिनके भीतर चुराने को कुछ भी न हो और कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता। या ताले बनाने की अक्ल पैदा न हुई होगी या घर के भीतर ताले लगाने जैसा कुछ न होगा। लेकिन ताले नहीं थे, यह इस बात का सबूत नहीं है कि लोग चोर न थे; क्योंकि सारे शास्त्र कह रहे हैं कि चोरी मत करो। बुद्ध सुबह से शाम तक यही समझाते हैं कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, यह मत करो, वह मत करो। यह सारे लोग क्यों समझा रहे हैं यह बातें? सुकरात ढाई हजार साल पहले भी यूनान में यही कहता गया है कि लड़के बिगड़ गए हैं, कोई मां-बाप की नहीं सुनता, शिक्षक का कोई आदर नहीं है। लोग बेईमान हो गए हैं, भ्रष्टाचारी हो गए हैं।
छह हजार साल पुरानी किताब है चीन में। उसकी भूमिका अगर पढ़ें तो ऐसा लगता है कि आज के ही सुबह के अखबार का एडिटोरियल है। उसमें लिखा है कि लोग बहुत बिगड़ गए हैं, नैतिक ह्रास हो गया है। लोग भौतिकवादी हो गए हैं, भ्रष्टाचार फैल गया है, कोई किसी की सुनता नहीं, ऐसा लगता है कि महाप्रलय निकट है। वह छह हजार साल पहले की किताब है और उसमें लिखा भी है कि पहले के लोग अच्छे थे। पहले के लोग अच्छे थे, यह मिथ और कल्पना से ज्यादा नहीं है। असल में पहले के लोगों को हम भूल चुके और जो थोड़े से लोग हमें याद रह गए हैं, उनके कारण ही सब गड़बड़ होती है। महावीर याद हैं, महावीर के समय का आम आदमी हमें याद नहीं है तो लगता है कि महावीर के जमाने में सब लोग अच्छे रहे होंगे। महावीर के जमाने में अगर सब लोग अच्छे होते, तो महावीर की हमें याद भी न आती अब तक। महावीर अब तक दिखाई इसीलिए पड़ रहे हैं। स्कूल में तख्ते पर मास्टर लिखता है तो काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखता हैं। सफेद दीवाल पर लिखे तो लिख भी सकता है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगा, काले तख्ते पर दिखाई पड़ता है। महावीर ढाई हजार साल तक दिखाई पड़ते है कि एक महापुरुष थे। जब तक समाज का तख्ता बिलकुल ब्लैक-बोर्ड न रहा हो, तब तक ढाई हजार साल तक दिखाई नहीं पड़ सकते कि वे महापुरुष थे। दस-पांच महापुरुष मनुष्य-जाति में दिखाई पड़ते हैं। बाकी सारी मनुष्यता एक काले तख्ते की तरह है जिसके ऊपर लकीरें उभरी हुई दिखाई पड़ती हैं, लेकिन कोई मनुष्यता कभी अच्छी नहीं थी। जितनी अच्छी आज है, उतनी अच्छी भी नहीं थी। हम रोज अच्छाई की तरफ विकास कर रहे हैं।
लेकिन एक धारणा हमारे मन में है कि पतन हो रहा है। पहले सतयुग हो चुका, गोल्डन ए.ज हो चुकी, अब कलियुग है, अब तो पतन ही पतन है। जिस कौम के मन में यह भाव बैठ जाएगा कि आगे पतन है उसका पतन निश्चित है, क्योंकि भाव ही गतिमान करते हैं। हम अपने स्वर्ण-युग को पीछे रखे बैठे हैं। सब अच्छा हो चुका। अब तो सब बुरा होना है, यह हमने पक्का मान लिया है, यह हमारे प्राणों में बैठ गया है। यह हमारा संस्कार बन गया है। कि आगे बुरा--और बुरा होना है। तो बगल में जब कोई किसी को छुरा भोंकता है तो कहते हैं, आ गया कलियुग। जब कोई किसी की स्त्री को लेकर भाग जाता है, तो हम कहते हैं, आ गया कलियुग और आपके ऋषि-मुनि लेकर भागते रहे, तब सतयुग था और आपके देवी-देवता आकाश से उतर कर दूसरों की स्त्रियों के साथ व्यभिचार करते रहे, तब सतयुग था और अब कलियुग आ गया, क्योंकि बगल का कोई आदमी ले गया है। अजीब बातें है। राम की औरत चोरी चली जाए तब सब अच्छी दुनिया है और अभी कोई दूसरे रामचंद्र जी पड़ोस में आपके रहते हों, उनकी औरत चोरी चली जाए तो कलियुग आ गया।
नहीं, आदमी रोज अच्छा हो रहा है। अगर भविष्य में अच्छा बनना है तो स्वर्ण-युग आगे है, अंधेरा पीछे है, प्रकाश आगे है। अगर भविष्य को निर्मित करना है तो आशा चाहिए और आशा न हो तो भविष्य निर्मित नहीं हो सकता। मेरी दृष्टि में मनुष्य के पैर जो इतने डगमगाए मालूम पड़ते हैं, उसका एक कारण यही है। आशा आगे नहीं मालूम पड़ती, आगे अंधेरा है, अंधेरा हम पैदा किए हुए हैं। इतना अच्छा आदमी पृथ्वी पर कभी नहीं था, जितना अच्छा आदमी आज है। अभी बिहार में अकाल पड़ा। दो करोड़ आदमी मर सकते थे उस अकाल में लेकिन मरे केवल चालीस। यहदो करोड़ आदमी कैसे बचे? सारी दुनिया दौड़ पड़ी। दूर-दूर देश के अनजान बच्चों ने अपने खाने के पैसे बचाए, आइस्क्रीम के पैसे बचाए, सिनेमा देखने के पैसे बचाए। सारी दुनिया दौड़ पड़ी। बिहार में कोई अनजान आदमी मर रहा है, जिससे कोई संबंध नहीं है, उसको बचाना है। ऐसा कभी नहीं हुआ था, पहली दफा हुआ है। आज वियतनाम में युद्ध हो तो भी यहां बंबई का प्राण भी कंपता है कि गलत हो रहा है। कहीं कुछ गलत हो रहा है, तो सारी दुनिया पीड़ा अनुभव करती है। मनुष्यता पहली दफा बोध को उपलब्ध हुई है। मनुष्य विकसित हुआ है, मनुष्य की समझ विकसित हुई है, मनुष्य का सुख विकसित हुआ है। लेकिन एक अंतिम बात...
दो-तीन मित्रों ने पूछा हैः आप अमरीका की इतनी तारीफ करते हैं, लेकिन वहां हिप्पी बढ़ रहे हैं, बीटनिक बढ़ रहे हैं, कोई एल एस डी ले रहा है, कोई मेस्कलीन ले रहा है, कोई शराब पी रहा है। लेकिन इतने अशांत हैं, नींद नहीं है--ट्रैंक्वेलाइजर चाहिए। ये सारी स्थितियां हैं और आप इतनी तारीफ करते हैं और कहते हैं, कि अमरीका में समाजवाद आएगा, वहां तो इतनी अशांति है...?
आपको पता होना चाहिए, कोई जानवर अशांत नहीं होता है। सुना है कभी किसी भैंस को अशांत होते? सुना है कभी किसी गधे को रात कभी नींद न आई हो? नहीं सुना होगा। कभी सुना है कोई गधा बोर हुआ हो, ऊबा हो। कभी सुना है कि किसी बैल ने आत्महत्या कर ली कि जिंदगी बेकार है? कोई पशु न तो ऊबता है, न अशांत होता है, न चिंतित होता है, न आत्महत्या करता है। क्या कारण है? बुद्धि बहुत अविकसित होती है। बुद्धि जितनी विकसित होती है, उतनी सेंसिटिव होती है, उतनी संवेदनशीलता होती है, उतनी चीजें दिखाई पड़नी शुरू होती हैं, उतनी समझ बढ़ती है। जितना चारों तरफ का फैलाव होता है, उतनी अर्थ और मीनिंग की खोज शुरू होती है। आज अमरीका में वह जो हिप्पी है या बीटल है या बीटनिक है या जो और तरक के बगावती लड़के हैं, वे इस बात की खबर हैं कि चेतना नये स्तर छू रही है। वहां चेतना नई चीजों को देख रहीं है जो हमें कभी दिखाई नहीं पड़ीं। मनुष्य की बुद्धि ज्यादा विकसित हुई है। उसकी ज्यादा विकसित बुद्धि उसे चिंता दे रही है। लेकिन ध्यान रहे, जितनी ज्यादा चिंता होगी उतनी बड़ी शांति को उपलब्ध किया जा सकता है। शांति और अशांति का तल हमेशा बराबर होता है। अगर कोई आदमी सिर्फ दो इंच तक अशांत हो सकता है तो वह दो ही इंच तक शांत भी हो सकता है। अगर कोई आदमी हजार मील तक अशांत हो सकता है, तो हजार मील तक शांत होने की क्षमता भी विकसित हो जाती है।
हमारे जीवन की क्षमता, हमारी पात्रताएं, दोनों दिशाओं में एक साथ बढ़ती हैं। अगर मेरे मन में कुरूप का बोध स्पष्ट हो जाए तो सौंदर्य का बोध भी उतना ही विकसित होता है। जिस आदमी को बहुत सौंदर्य का बोध होगा उस आदमी को कुरूपता का भी उतना ही बोध हो जाएगा, क्योंकि सौंदर्य उसे सुख देगा। जिस आदमी की जितनी बड़ी चेतना का विस्तार होगा, उतनी चिंता उसको घेरने लगेगी, क्योंकि दूसरे की चिंता भी उसके घेरे के भीतर आ जाएगी। आज मनुष्यता ज्यादा बुद्धिमान है, इसलिए ज्यादा चिंतित है। लेकिन ज्यादा चिंतित होने के कारण पीछे नहीं लौटना है, और आगे जाना है कि जितनी मनुष्यता चिंतित है उतने हम शांति के नये मार्ग खोज सके। पुराने मार्ग काम नहीं देंगे, नये मार्ग खोजने पड़ेंगे। मनुष्य एक कगार पर है, चेतना एक नई छलांग के निकट है।
उदाहरण के लिए जब पहली दफा बंदर झाड़ के नीचे उतरा होगा और चार हाथ-पैर को छोड़ कर दो हाथ-पैर से चला होगा, तो पहली बात यह कि बड़ा आकवर्ड मालूम हुआ होगा, और जो बंदर चार हाथ-पैर से चलने वाले वृक्षों पर बैठे होंगे उनके बुजुर्ग उन्होंने कहा होगा मूर्ख यह क्या कर रहा है, कितना बेहूदा मालूम पड़ रहा है? कहीं बंदर ऐसा चलते हैं दो हाथ से? और जो दो हाथ से चला होगा उसको तकलीफ भी हुई होगी, चिंता भी हुई होगी, उसकी रात रीढ़ दुखी होगी, जिंदगी खराब हुई होगी, वह परेशानी में भी पड़ गया होगा। लेकिन उसी बंदर से मनुष्यता विकसित हुई।
आज जो विकसित चेतना पीड़ा अनुभव कर रही है, आत्महत्या तक पहुंच गई है, वही मनुष्य चेतना एक नई मनुष्यता को जन्म देने के करीब है। मनुष्य में एक नई चेतना का उदभव निकट है, और ध्यान रहे इसमें आदिवासी जंगल के भागीदार न हो पाएंगे और ध्यान रहे, इसमें आपके मंदिरों और मस्जिदों में बैठे लोग भजन-कीर्तन कर लें, लेकिन भागीदार न पाएंगे। ये सब संतोष खोज रहे हैं, वे असंतोष से भयभीत हैं। आज तो असंतोष की आग में कूदने को जो राजी है और उस आग को भी पार करने की क्षमता दिखाए, वही नये मनुष्य को जन्म देने के सौभाग्य का भागीदार हो सकता है। हम अभागे हैं उस अर्थ में। अभी हम हिप्पी पैदा नहीं कर सकते, अभी हम उतने गहरे शांत भी नहीं हो सकते। अमरीका उस जगह खड़ा है एक वैंगार्ड की तरह, एक आगे की सीमा-रेखा पर जहां छलांग करीब है। इस छलांग के पहले बहुत बार मन होगा कि पीछे लौट जाएं। इसलिए तो श्री महेश योगी जैसे लोगों का वहां प्रभाव पड़ता है। यह पीछे लौटने वाले लोग श्री महेश योगी जैसे व्यक्तियों से प्रभावित हो रहे हैं। वे कह रहे हैं कि कहां के झंझट में पड़ते हो, छोड़ो चिन्ता आंख बंद करके राम-राम भजो, माला फेरो, पीछे लौट चलो। श्री गांधी जी का भी प्रभाव अमरीका पर पड़ा है। हिंदुस्तान से ज्यादा। उसका भी कारण यह है कि वह जो पीछे लौटने वाला बैकवर्ड माइंड है वह घबड़ा गया है छलांग से। वह कहता है, आगे खाई है, पीछे लौट चलो। ठीक कहते हैं गांधी जी, क्या जरूरत है टेक्नालाॅजी की, इतने बड़े मकान का क्या करोगे, वापस लौटो।
लेकिन यह वापस लौटने वाला नारा सदा से था। इससे कोई हित नहीं हुआ है। जाना है आगे, पीछे लौटा नहीं जा सकता। उपाय भी नहीं है। हो भी उपाय तो लौटना खतरनाक है, क्योंकि अब पीछे लौट कर कुछ नहीं पाया जा सकता है। एक बार एक बच्चा चैथी क्लास में आ गया, अब कितना ही मन कहता हो, पहली क्लास में लौट चलो, बड़े सरल सवाल थे वहां, तो भी कोई मतलब नहीं। उसे लौटा भी दो तो अब सवाल बेमानी दिखाई पड़ेंगे। पहली क्लास को तीन क्लास की प्रौढ़ता आ गई। मनुष्य का चित इतना विकसित हो गया है कि उसे रामराज्य में नहीं ले जाया जा सकता है, उसे कोई प्रीमीटिव सोसाइटी में नहीं ले जाया जा सकता है। हां, यह हो सकता है, एक-दो दिन के लिए अच्छा लगे, जंगल चला जाए, लेकिन दो दिन के बाद ऊब जाएगा।
अभी यहां बीस-पच्चीस मित्र मेरे साथ कश्मीर गए। वे बंबई से आगे कश्मीर के लिए, पहलगाम में मेरे साथ थे। पहलगाम में जो रसोइया मेरा खाना बनाता था, वह रोज मुझसे कहता कि पीर बाबा मुझे किसी तरह बंबई पहुंचा दें। मैंने कहाः तू क्या पागल है? यह बंबई के लोग मेरे साथ यहां आए हुए हैं पहलगाम। तू धन्यभागी है, तू पहलगाम में ही मजे में रह। उसने कहाः बिलकुल मजा नहीं आता है, बल्कि कई बार ऐसा लगता है कि यहां लोग क्या देखने आते हैं। यहा कुछ भी तो नहीं है, मुझे बंबई पहुंचा दो। मैं मानता हूं कि उसे बंबई मिलनी चाहिए। क्यों? क्योंकि एक तो बड़ा फायदा यह होगा कि तब वह पहलगाम कभी-कभी देखने में आनंद उठा सकेगा।
मनुष्यता आगे जाती है। पीछे कभी-कभी दिन दो दिन के लिए हाली डे मनाया जा सकता है। वह सुखद है, लेकिन पीछे जाया नहीं जा सकता है। हां, किसी दिन मौज में आ जाए, राजघाट पर बैठ कर चर्खा चलाएं, जैसा नेतागण चलाते हैं, वह ठीक है। लेकिन अगर कोई कहता हो कि चरखे की इंडस्ट्री का सेंटर बना लें, तो गलत बात है। कोई कहता हो, चरखा ही चलाओ तब खतरा है। हां, वैसे कभी-कभी फोटो उतरवाने के लिए चर्खा चलाना काफी सुखद है, अच्छी हाबी है और बढ़िया हाबी है, सस्ती हाबी है और फायदा ज्यादा लाती है। लेकिन पीछे लौटना असंभव है। न कोई भारतीय संस्कृति, न कोई मुसलमान संस्कृति, न कोई ईसाई संस्कृति--कोई संस्कृति पीछे लौट कर मनुष्य को सुख नहीं दे सकती है। आगे और आगे और जहां आगे है--वहां न हिंदू बचेगा, न ईसाई बचेगा, न मुसलमान बचेगा। वहां मनुष्य बचेगा। भविष्य मनुष्य का है और इस भविष्य को लाने के लिए कितनी सृजनात्मकता चाहिए--उसका हम विचार करें! कितनी संपत्ति पैदा करें, कितना स्वस्थ आदमी पैदा करें, कितना शरीर बलशाली हो, कितना सुख जन्मा सकें कि उस सुख से संगीत आए--उस सुख से आत्मा की तलाश भी आए! उस सुख से हम किसी दिन प्रभु के मंदिर पर भी खड़े हो सकें!
इस पुस्तक को पढ़ने से जीवन बदल जाता है
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