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शनिवार, 3 नवंबर 2018

समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा 

कोरा शब्दः लोकतांत्रिक समाजवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!
पिछली चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि आप समाजवाद या साम्यवाद की जो आलोचना कर रहे हैं उसमें डेमोक्रेटिक सोशलिज्म (लोकतांत्रिक समाजवाद) के संबंध में शायद आपने विचार नहीं किया।
डेमोक्रेटिक सोशलिज्म या लोकतांत्रिक समाजवाद आत्मविरोधी शब्दों से निर्मित हुआ है, जैसे कोई कहे वंध्या-पुत्र। बांझ स्त्री का बेटा, अगर कोई कहे तो जैसी गलती होगी, वैसी ही यह गलती है। अगर बच्चा है तो स्त्री बांझ न रही होगी, अगर स्त्री बांझ है तो बच्चा नहीं हो सकता है। इसलिए वंध्या-पुत्र शब्द तो बनता है, सत्य नहीं होता। डेमोक्रेटिक सोशलिज्म जैसी कोई चीज नहीं है, लोकतांत्रिक समाजवाद जैसी कोई चीज नहीं है, शब्द भर है; क्योंकि समाजवाद लाने में ही लोकशाही की हत्या करनी पड़ती है। लोकशाही की बिना हत्या के तथाकथित समाजवाद नहीं लाया जा सकता। इस बात का फर्क समझ लेना उचित होगा कि लोकशाही की हत्या क्यों करनी पड़ती है।

डेमोक्रेसी या लोकशाही का पहला सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीने, कमाने, खाने, अर्जित करने, इकट्ठा करने की स्वतंत्रता रहे। लोकशाही का बुनियादी आधार यह है कि किसी व्यक्ति के साथ अन्याय न हो पाए और लोकशाही का यह भी बुनियादी आधार है कि बहुमत अल्पमत पर अन्याय न कर सके।
अगर एक गांव में सौ मुसलमान हों और दस हिंदू हों और वे दस हिंदुओं की हत्या करना चाहें और कहें कि हम लोकशाही ढंग से हत्या कर रहे हैं क्योंकि सौ लोग कहते हैं कि हत्या करो और दस लोक कहते हैं कि मत करो--ज्यादा लोग हत्या करने के पक्ष में हैं, इसलिए यह हत्या जो है एक डेमोक्रेटिक है, तो हम कहेंगे, गलत है यह बात। लोकशाही का मतलब ही यह है कि बहुमत भी अल्पमत पर अन्याय न कर पाए। पूंजीवाद या पूंजीपति अल्पमत है।


समाजवाद जिस बहुमत की बात कर रहा है और जिस बहुमत की बात लेकर चलता है, वह अल्पमत को नष्ट करने के लिए लोकशाही का उपयोग करे तो लोकशाही का बुनियादी आधार गिर जाता है। और आज एक अल्पमत है, कल दूसरा अल्पमत है। आज कुछ लोग कहते हैं संपत्ति बंटनी चाहिए, किसी के पास ज्यादा, किसी के पास कम न हो, क्योंकि संपत्ति ने ईष्र्या को जन्म दिया है। लेकिन पूछना जरूरी यह है कि जिन लोगों ने संपत्ति पैदा नहीं की, जिन लोगों ने संपत्ति के उत्पादन में और सृजन में कोई हाथ नहीं बंटाया, जो चुपचाप खड़े देखते रहे, लेकिन अर्जित हो जाने के बाद संपत्ति की मांग और बंटवारे की बात जरूर कर रहे हैं--क्या यह अन्यायपूर्ण नहीं है?
यह बड़े मजे की बात है कि जब भी कोई नया आविष्कार हुआ, जिससे दुनिया में संपत्ति आई, तो उस आविष्कार को बेचना भी मुश्किल हुआ। आविष्कारक हमेशा पागल मालूम पड़े। मनुष्य-जाति का बड़ा हिस्सा, बहुमत सदा ही रूढ़िवादी रहा है। विकास किया है इक्के-दुक्के लोगों ने। लेकिन अंत में भागीदार सब हो जाते हैं। मैंने सुना है, एक बहुत बड़े आविष्कार को लेकर एक वैज्ञानिक कई लोगों के पास गया। वह पचास रुपये में भी बेचने को राजी था, लेकिन कोई लेने को राजी नहीं था; क्योंकि बात पागलपन की मालूम पड़ती थी। कार की पहली डिजाइन भी पागलपन था, कोई लेने को तैयार नहीं था। जिस आदमी ने उस डिजाइन को लेने की हिम्मत जुटाई और हिम्मत दिखा कर संपत्ति के उत्पादन का एक नया द्वार खोला और वह आदमी जब संपत्ति पैदा कर लेगा, तो वे जो चुपचाप देख रहे थे कि यह डिजाइन पागलपन की है, यह संभावना गलत है--जब संपत्ति अर्जित हो जाएगी, तब वे कहेंगे कि हम भी इसमें भागीदार हैं, क्योंकि संपत्ति सबकी है।
संपत्ति बहुत थोड़े से लोगों ने पैदा की है और उन थोड़े से लोगों ने जब पैदा कर ली है तो जिन्होंने पैदा नहीं की है, वे मालकियत के लिए जरूर दावेदार हैं। लोकशाही का मतलब यह है कि जिसने पैदा किया है वह उसका मालिक है। अगर वह बांटता है तो उसकी खुशी है, लेकिन मांगने वाले का हक नहीं हो सकता। अगर इसे मांगले वाले का अधिकार बताया जाता है तो यह बात कहां रुकेगी, कहना कठिन है। संपत्ति भी प्रतिभा से पैदा हुई है। आज हम संपत्तिशाली की प्रतिभा से पीड़ित हैं। हम कहते हैं कि संपत्ति बांट दो। कल हम कहेंगे कि कुछ लोगों के पास सुंदर स्त्रियां हैं, कुछ लोगों के पास कुरूप स्त्रियां हैं, यह अन्याय नहीं सहा जा सकता, यह असमानता नहीं देखी जा सकती। सुंदर स्त्रियों पर सबका समान अधिकार होना चाहिए। गलती नहीं होगी, तर्क वही है, तर्क में कोई भेट नहीं है। परसों हम कहेंगे, कुछ लोग प्रतिभाशाली हों, बुद्धिमान हों और कुछ लोग मूढ़ और अज्ञानी हों, यह बरदाश्त के बाहर है। असमानता नहीं सही जाती। बुद्धि का ठीक-ठीक वितरण होना चाहिए। तर्क वही है, लेकिन तर्क बिलकुल एंटी-डेमोक्रेटिक है।
एक-एक आदमी अलग है। एक-एक आदमी की अलग-अलग क्षमता है। हम आदमी की सृजनशीलता, क्षमता और प्रतिभा अलग है और उसी के अनुसार वह संबंधित वस्तुएं बनाएगा, जिनकी मालकियत भी उसकी ही होगी। अगर वह बांटता है, तो यह उसकी खुशी है; लेकिन मांगने का हक अन्याय है। समाजवाद बहुत से अन्यायों की स्वीकृति देता है, क्योंकि अन्याय के लिए बहुमत को तैयार किया जा सकता है। बहुमत के तैयार होने से अन्याय न्याय नहीं हो जाता और न असत्य सत्य हो जाते हैं। व्यक्तिगत संपत्ति व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और लोकशाही उस अधिकार को स्वीकार करती है और जब कोई कहता है, ‘लोकशाही वाला समाजवाद’ तो झूठी बात कहता है; क्योंकि लोकशाही की बुनियादी बात उसने तोड़नी शुरु कर दी है। दूसरी मजे की बात है कि समाजवाद जिन मूल्यों पर खड़ा हुआ है, वह मूल्यों की सिर्फ बात करनाहै, उन्हें ला नहीं सकता। विषय के स्पष्टीकरण के लिए थोड़े से मूल्यों की चर्चा कर लेना उपयोगी होगा।
स्वतंत्रता शायद मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक मूल्यवान तथ्य है, संभवतः उससे बड़ा कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि स्वतंत्रता पहला आधार है जिससे व्यक्ति का संपूर्ण विकास हो सके। इसलिए परतंत्रता मनुष्य के जीवन की सबसे बुरी दशा है और स्वतंत्रता सबसे सुंदर और श्रेष्ठ। समाजवाद स्वतंत्रता पर हमला किए बिना स्थापित नहीं हो सकता। हां, यह हो सकता है कि बहुमत राजी हो अल्पमत की स्वतंत्रता को काट देने के लिए। लेकिन तब भी यह अनुचित है। स्वतंत्रता की हत्या लोकशाही नहीं हो सकती? लोकशाही का प्राण या आत्मा है, विचार की स्वतंत्रता। समाजवाद विचार की स्वतंत्रता बरदाश्त नहीं कर पाता, क्योंकि विचार की स्वतंत्रता में पूंजीवाद के समर्थन की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। वह उसे कठिन मालूम होने लगता है, वह उसे आमूल तोड़ देना चाहता है। व्यक्ति की संपत्ति और व्यक्ति के विचार की स्वतंत्रता की हत्या करने के बाद भी अगर समाजवाद लोकतांत्रिक हो सकता है, तो वह बहुत आश्चर्य है, वह कैसे लोकतांत्रिक हो सकता है?
लोकतांत्रिक समाजवाद झूठा शब्द है। असल में लोकतंत्र ‘शब्द’ का आदर है। समाजवाद उस आदर को भी छोड़ना नहीं चाहता। रूस भी लोकतांत्रिक है, चीन भी। सब लोकतांत्रिक हैं। शब्दों के साथ आदमी बड़ा खिलवाड़ करता है। वह शैतान के ऊपर भी भगवान का लेबल लगा सकता है। रोके कौन, रोकना बहुत कठिन है। साफ समझ लेना चाहिए कि डेमोक्रेसी पूंजीवाद का मूल्य है, समाजवाद का मूल्य नहीं है और डेमोक्रेसी बचेगी तो पूंजीवाद के साथ बचेगी। समाजवाद के साथ लोकतंत्र नहीं बच सकता। लोकतंत्र पूंजीवादी जीवन-व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है। वह पूंजीवाद के साथ बचेगा। ऐसे ही और भी मूल्य हैं जो हमें दिखाई नहीं पड़ते, हमारे खयाल में नहीं आते, लेकिन उन सार मूल्यों की हत्या बड़ी सुविधा से की जा सकती है। उनकी हत्या की जा रही है। व्यक्ति का अपना पृथक चरम मूल्य (अल्टीमेट वैल्यू) है, लेकिन समाजवाद व्यक्ति को नहीं, समाज को, भीड़ को मूल्य देना चाहता है। वह मूल्य देना चाहता है कि मूल्य है समाज का और समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान स्वीकार योग्य है।
हमेशा से व्यक्ति का बलिदान होता रहा है बड़े-बड़े सिद्धांतों, बड़े-बड़े नामों के आधार पर--कभी राष्ट्र के लिए, कभी धर्म के लिए, कभी कुरान के लिए, कभी गीता के लिए--न मालूम किन-किन बातों के लिए आदमी का बलिदान होता रहा। लेकिन आदमी ऐसा प्राणी है जो इतिहास से कुछ भी नहीं सीखता। पुराने शब्द हट जाते हैं, तो वह नई बलिवेदियां बना लेता है और फिर उन पर व्यक्ति को काटना शुरू कर देता है। समाजवाद नई बलिवेदी है अगर मनुष्य के इतिहास से कोई भी एक शिक्षा लेनी हो तो वह एक शिक्षा लेनी जैसी है और वह यह है कि व्यक्ति को किसी के लिए बलिदान नहीं किया जा सकता है। बड़े से बड़ा राष्ट्र भी एक व्यक्ति को बलिदान करने का हकदार नहीं है और बड़े से बड़ा सिद्धांत भी एक व्यक्ति को बलिदान करने का हकदार नहीं है; क्योंकि व्यक्ति जीवंत चेतना है और इस जीवंत चेतना की किसी भी व्यवस्था, किसी भी संस्था और किसी भी संगठन के लिए बलिदान करना उचित नहीं है। लेकिन हम आदी हैं व्यक्ति की हत्या करने के और अब भी हम नये उपाय निकाले जा रहे हैं कि व्यक्ति को किस मंदिर की वेदी पर चढ़ा दें। नई वेदी समाजवाद की है।
समाजवाद लोकशाही नहीं है। समाजवाद अगर हम बलपूर्वक लाते हैं, लाने की चेष्टा करते हैं, तब तो वह लोकशाही हो ही नहीं सकती। एक ही अर्थ में समाजवाद किसी दिन जीवन में अनायास, सहज अपने आप आए, तो जीवन की स्वतंत्रता की हत्या किए बिना आ सकता है, अन्यथा संभव नहीं है।
आज मेरे एक मित्र ने मुझे सूचना दी कि किसी अखबार में उन्होंने पढ़ा कि पैसिफिक महासागर में एक छोटा सा द्वीप है--उस द्वीप की आबादी ज्यादा नहीं है। कुछ ही सौ लोग वहां हैं। लेकिन उस द्वीप के पास फासफोरस की खदानें हैं और इतनी संपत्ति उन खदानों से पैदा हो जाती है कि एक-एक व्यक्ति को करीब आठ हजार रुपये उससे उपलब्ध हो जाते हैं। उस छोटे से द्वीप पर कोई गरीब नहीं है, कोई अमीर नहीं है, क्योंकि लोग कम हैं और संपत्ति ज्यादा है। वह द्वीप शायद पृथ्वी पर अभी पहला समाजवादी है। लेकिन वह समाजवादी है, ऐसा उसे पता भी नहीं है। समाजवाद के पैदा होने की भी कोई जरूरत नहीं है। संपत्ति इतनी ज्यादा है और लोग इतने कम हैं। उन्होंने मुझे खबर दी कि वहां अगर कोई मेहमान होता है किसी के घर में और इतना कह देता है कि यह रेडियो बहुत सुंदर है तो उस घर के लोग तत्काल उसे रेडियो दे देते हैं, क्योंकि वह कह देते हैं कि जिसे पसंद आ गई चीज, उसकी हो गई। संपत्ति है बहुत और संपत्ति की पकड़ हो गई है क्षीण। किसी दिन इस पृथ्वी पर समाजवाद आ सकता है--आना चाहिए--आएगा, अगर समाजवादियों ने जल्दी नहीं की। अगर समाजवादियों ने जल्दी की तो यह हो सकता है कि कभी भी न आ सके। सदा के लिए अवरुद्ध हो जाए। संपत्ति ज्यादा हो और व्यक्ति कम, इसकी व्यवस्था हम जिस दिन कर लेंगे, उस दिन लोकतंत्र की हत्या किए बिना समाजवाद आ सकता है। लेकिन तब उसका हमें पता भी नहीं चलेगा कि वह कब आया। वह चुपचाप आ जाएगा, जैसे जिंदगी में सब महत्वपूर्ण चीजें आती हैं।
एक बात और ध्यान देने जैसी है। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए, क्योंकि...कई मित्रों ने पूछा है कि आप कहते हैं कि श्रम का कोई उपयोग ही नहीं है पूंजी के उत्पादन में...?
ऐसा मैंने नहीं कहा कि श्रम का उपयोग नहीं। मैंने कहा यह कि श्रम आज नहीं कल, गैर-जरूरी तत्व होता चला जाएगा। रोज होता चला गया। श्रम ने पंूजी के अर्जन मे साथ दिया है, लेकिन सृजन का मूल केंद वह नहीं है। सृजन का मूल केंद्र मनुष्य का मस्तिष्क है, मनुष्य की बुद्धि है और मनुष्य की प्रतिभा है जिसने सृजन के नये-नये आयाम खोजे। और यह भी ध्यान रहे कि श्रम जो है, वह बहुत जल्दी मर जाने वाली चीज है। अगर मैं आज दिन भर काम करूं तो आज दिन भर काम न करने से मेरे पास श्रम बचेगा नहीं कि मैं उसे तिजोरी में रख लूं और कल उसका उपयोग कर लूं। अगर मैंने आज दिन भर काम नहीं किया तो आज मैं जो काम कर सकता था, वह मैं कभी न कर सकूंगा, क्योंकि श्रम को बचाया नहीं जा सकता। श्रम रोज खो जाता है। ऐसा नहीं कि एक मजदूर काम करे जिंदगी भर तो उसका शोषण नहीं होगा, वह तो मर ही जाएगा। क्योंकि श्रम बचाया नहीं जा सकता। वह यह नहीं कह सकता कि मैंने अपने श्रम को तिजोरी में बंद कर रखा है। मैंने बचा लिया है।
पंूजीवाद ने पहली दफा श्रम को बचाने की व्यवस्था सोची। वह जो पैरी-सेवल कमोडिटी थी, उसको सुरक्षा योग्य बनाया। धन की ईजाद से श्रम बचने योग्य हुआ। आज मैं श्रम करता हूं और पांच रुपये तिजोरी में बंद कर लेता हूं, पांच रुपये की शक्ल में मेरा श्रम स्थायी हुआ, बचा। अगर पांच रुपये की शक्ल में न मिले तो श्रम गया। ऐसा नहीं है कि मेरे पास श्रम होता, लेकिन मजा यह ह कि मैं कहूंगा कि मैंने दस रुपये का श्रम किया और मुझे सिर्फ पांच रुपये मिले, जब कि अगर मैं नहीं करता तो एक पैसे का भी श्रम नहीं होता। यह जो पांच रुपये मुझे मिले हैं, निश्चित ही किसी दिन मुझे दस रुपये मिलने ही चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पूंजी-उत्पादन की जो व्यवस्था है, उसको तोड़ कर रुपये मिल जाएंगे। इस पूंजी-उत्पादन व्यवस्था को और विकासमान करना होगा। पूंजीवाद जैसा आज है वैसा पर्याप्त नहीं है। आप ऐसा मत सोच लेना, जैसा कई मित्रों ने का है कि जो पूंजीवाद आज है, आप उसका समर्थन कर रहे हैं।
नहीं, जो पूंजीवाद आज है, उसमें बहुत परिष्कार की गुंजाइश एवं अनिवार्यता है। आज जो पूंजीवाद है, वह बिलकुल प्राथमिक है--वह पूंजीवाद का क ख ग है। अभी उसे बहुत विकसित होना है, लेकिन समाजवादी शोरगुल उसे विकसित नहीं होने देगा। यह हो सकता है कि कल पांच रुपये की जगह दस रुपये भी श्रमिक को दिए जा सकें और यह भी हो सकता है कल दस रुपये के श्रम की जगह बीस रुपये दिए जा सकें और यह भी हो सकता है कि जो आदमी श्रम न करे, उसे भी दिया जा सके और अंततः ठीक से हम टेक्नालाॅजिकल रेवोल्यूशन से गुजर जाएं तो यह भी हो सकता है कि जो आदमी श्रम की मां करे उसे कम पैसे मिलें, और जो आदमी आराम करने के लिए राजी हो जाए उसे ज्यादा पैसे मिल जाएं। यह भी हो सकता है। यह इसलिए हो सकता है कि श्रम की मांग बढ़ी, और बहुत सी चीजों से जुड़ी है। अगर कल आपके गांवों में सारे स्वचालित यंत्र लगा दिए जाएं तो हजारों-लाखों लोग बेकार हो जाएंगे, लेकिन स्वचालित यंत्र जो संपत्ति पैदा करेंगे, उसका करिएगा क्या? इन बेकार लोगों को ही वह देनी पड़ेगी। उनको बेकारी का मुआवजा देना पड़ेगा। लेकिन कोई आदमी कह सकता है कि मैं चैबीस घंटे बेकार नहीं रह सकता। मैं पागल हो जाऊंगा। मुझे दो घंटे काम चाहिए तो इस आदमी को कम पैसा देना पड़ेगा, क्योंकि यह दोनों बातें मांगता है। पैसा भी मांगता है और काम भी मांगता है। जो बेकाम होने के लिए बिलकुल तैयार हों--जो कहते हैं हम सिर्फ पैसे ही मां लेते हैं, हम काम नहीं मांगते, उन्हें ज्यादा भी मिल सकता है। वह पचास साल के भीतर संभव हो सकता है--अगर उत्पादन की व्यवस्था को परिष्कृत किया जाए और उसे जगह-जगह तोड़ने का उपाय न किया जाए। तोड़ने के उपाय बड़े मजेदार है और बड़ी तरकीब से भरे हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते हैं।
एक तरफ देश के नेता चिल्लाते हैं कि देश गरीब है। संपत्ति उत्पादित होनी चाहिए। दूसरी तरफ जो संपत्ति का उत्पादन करे, उस पर जितनी ज्यादा संपत्ति उत्पादन करे, उतना ज्यादा कर वे लगाते चले जाते हैं। यह बिलकुल मूढ़तापूर्ण बात है। अगर संपत्ति ज्यादा चाहते हैं तो जो आदमी एक लाख पैदा करे, उस पर ज्यादा टैक्स। जो दो लाख पैदा करे उस पर कम, जो तीन लाख पैदा करे, उस पर और कम। दस लाख करे, उस पर बिलकुल नहीं। जो करोड़ करे, उसको उलटा सरकार टैक्स दे तो संपत्ति ज्यादा पैदा हो सकती है। संपत्ति के ज्यादा पैदा होने का सीधा सूत्र यह है कि लोगों के इंसेंटिव को जगाओ। इंसेंटिव को मारते हैं आप। आप कहते हैं, लाख पैदा किया। आपने दो लाख यदि पैदा किया तो नब्बे हजार टैक्स हो जाएगा। तीन लाख किया तो और टैक्स हो जाएगा, चार लाख किया तो जो कमाया, वह टैक्स में जाएगा और टैक्स के भरने के इंतजाम की जो दौड़-धूप है, वह अलग है; तो आदमी सोचता है, कमाने की जरूरत ही क्या है। जो कमा सकते हैं, उनको आप रोक रहे हैं और जो नहीं कमा सकते हैं, वह जो बड़ा वृहत समाज है हमारा, जो लिथार्जी से भरा है, जो कुछ नहीं कमा सकता है, उसके आप गीत गा रहे हैं। मुल्क को मार डालने की तरकीब है। ये गीत अच्छे लग सकते हैं, लेकिन यह महंगे और खतरनाक हैं।
मनुष्य समाज का बहुत बड़ा हिस्सा बिलकुल ही सृजनात्मक नहीं है। मनुष्य-समाज का बहुत बड़ा हिस्सा रोटी मिल जाए, भोजन मिल जाए और बच्चा पैदा करने की सुविधा मिल जाए तो तृप्त है। उसे और कुछ नहीं करना है। मनुष्य-जाति के बड़े हिस्से ने खाना खाने, बच्चा पैदा करने के अतिरिक्त कोई बड़ा काम नहीं किया है। मनुष्य-जाति के बहुत थोड़े से हिस्से ने सृजन के फूल खिलाए हैैं। चाहे वह दिशा कोई भी हो, कविता हो, चित्र हो, धन हो, विज्ञान हो, धर्म हो, हर क्षेत्र में बहुत थोड़े से मनुष्यों ने सृजन के शिखर पाए हैं। इनको रोकने की चेष्टा चल रही है, यह बहुत एब्सर्ड लाॅजिक है। कहते तो यह हैं कि संपत्ति चाहिए देश को और प्रशंसा उसकी करते हैं जिसके पास संपत्ति नहीं है। जिसके पास संपत्ति नहीं है, उसके पास क्यों नहीं है? करोड़ों साल से वह भी पृथ्वी पर है। उसके भी पुरखे जमीन पर थे। उसके पास संपत्ति क्यों नहीं है? कभी इस पर सोचा है? उसने संपत्ति पैदा नहीं की, बच्चे पैदा किए। वह दरिद्र होता चला गया, उसकी दरिद्रता बढ़ती चली गई, लेकिन बहुत आश्चर्य है कि जिन्होंने संपत्ति पैदा की, वे आज अपराधी हैं। उनको आज समाज की सूली पर लटकना पड़ेगा। उनका भी एक ही अपराध है कि तुमने भी बच्चे पैदा क्यों नहीं किए? तुम भी चुपचाप बिना धन सृजन किए क्यों न बैठे रहे? तुम्हारा बहुत बड़ा पाप है कि तुमने धन पैदा किया। अब वह जिन्होंने नहीं पैदा किया है, वे बदला लेंगे और कहेंगे कि हम तुम्हारी गर्दन दबाएंगे। तुमने हमें चूस लिया, यह बड़े आश्चर्य की बात है। यह धन चूस कर पैदा नहीं हुआ है। यह धन कुछ लोगों ने बड़ी प्रतिभा और बड़े श्रम से पैदा किया है। इसमें बड़ी बुद्धि और बड़े नये आयामों की खोज है, लेकिन वह हमारे खयाल में नहीं है। इनको हम मिटाने पर तुले हैं। इनको हम काटेंगे, हमारा बस यही अंधा तर्क है।
अभी मैं एक परिवार-नियोजन केंद्र को देखने गया। सारा शासन चिल्ला रहा है। सारा देश कोशिश में लगा है कि परिवार-नियोजन हो, लेकिन हमारे तरीके बड़े अजीब है। अगर परिवार-नियोजन करना है तो फिर हमें सोचना चाहिए, उस पूरे संदर्भ में। जैसे मैंने कहा कि अगर संपत्ति उत्पादित करनी है तो जितनी ज्यादा जो संपत्ति पैदा करें, वह पुरस्कृत होना चाहिए। अभी वह दंडित होता है। जब दंडित होगा तो संपत्ति किसलिए पैदा करेगा और जो पैदा नहीं करने वाला है, वह तो करेगा नहीं। जो कर सकता था, वह रुकेगा। मुल्क गरीब होगा रोज-रोज। मुल्क अमीर नहीं हो सकता।
मैं गया उस परिवार-नियोजन केंद्र में। मैंने उस अधिकारी से पूछा कि तुम्हें पता है कि सरकार बैचलर पर कम टैक्स लगाती है या ज्यादा? शादीशुदा पर कम टैक्स लगता है कि ज्यादा? जिसके दो बच्चे हैं, उस पर कम टैक्स लगता है कि ज्यादा? उसने कहा कि इससे परिवार-नियोजन का क्या संबंध है? मैंने कहा, तब तो इसका मतलब हुआ परिवार-नियोजन से बुद्धि का ही कोई संबंध नहीं है। अगर बच्चे बढ़ते हैं किसी घर में तो टैक्स बढ़ला चाहिए, तो बच्चे रुकेंगे। बच्चे बढ़ते हैं, तो टैक्स कम होता है और सरकार कहती है कि हमको बच्चे कम पैदा करने हैं। बच्चे अगर बढ़ते हैं तो टैक्स बढ़ना चाहिए। जिसके घर में तीन बच्चे हों, उस पर कम टैक्स, जिसके चार हों, उस पर और ज्यादा, पांच हों तो और ज्यादा। छठवां हो तो उसकी फीस कई गुनी होनी चाहिए स्कूल में। उसको दवाई महंगी मिलनी चाहिए, क्योंकि जितने बच्चे ज्यादा होंगे, उतने उस पर टैक्स बढ़ने चाहिए तो वह डरेगा और बच्चे रोकेगा। लेकिन जितने बच्चे बढ़ेंगे टैक्स कम हो जाएगा। गैर-शादीशुदा आदमी पर टैक्स ज्यादा है। शादीशुदा होने पर कम हो जाएगा। अजीब बेवकूफी है। गैर-शादीशुदा आदमी पर टैक्स बिलकुल मत लगाओ। कम करो, ताकि लोग ज्यादा देर तक शादी न करें और शादीशुदा पर जोर से टैक्स लगाओ, ताकि शादी महंगी पड़ने लगे, लोग देर से करें, कम करें। हर बच्चे के साथ टैक्स को बढ़ाओ। एक तरफ चिल्लाओ कि बच्चे कम, दूसरी तरफ जो बच्चे ज्यादा पैदा करे, उस पर टैक्स कम करो, तो इसका अर्थ क्या हुआ?
संपत्ति के मामले में भी यही हो रहा है। जीवन के बहुत पहलुओं पर यही हो रहा है कि हमारे सामने कोई साफ उद्देश्य न होने से कुछ भी हम किए जा रहे हैं। देश गरीब है तो संपत्ति पैदा करने की सुविधा जुटाओ। देश गरीब है तो संपत्ति को सारी दुनिया से निमंत्रित करो, लेकिन इस मुल्क का खयाल है कि दूसरे मुल्क से लोग आ जाएंगे तो हमें चूस लेंगे।
मैंने आपसे कहा कि श्रम अगर उपयोग में न आए, तो बिना चूसे ही खत्म हो जाता है। अगर सारी दुनिया की संपत्ति इस मुल्क में निमंत्रित हो तो इस मुल्क का जो बहुत सा श्रम रोज व्यर्थ मर रहा है, वह सारा का सारा पूंजी में परिवर्तित हो जाए। लेकिन हमारा खयाल यह है कि अगर दूसरे मुल्क की पूंजी हिंदुस्तान में आई तो हमारा शोषण हो जाएगा। शोषण नहीं हो जाएगा, वरन हमारा जो श्रम रोज गंगा के पानी जैसा समुद्र में गिरता जा रहा है, उसका उपयोग कर लो तो ठीक है, अन्यथा वह नष्ट हो जाएगा। नर्मदा का पानी भी रोज गिरा जा रहा है समुद्र में। उपयोग कर लो तो ठीक, अन्यथा वह गिर जाएगा।
ऐसे ही मनुष्य में जो श्रम की शक्ति पैदा होती है, वह रोज ही तिरोहित हो जाती है अनंत में। उपयोग कर लो, उसे ट्रांसफार्म करो, संपत्ति बना लो, वह बच जाएगी। लेकिन हम बहुत अजीब लोग हैं, हम कहते हैं कि दस रुपये का श्रम अगर गंगा में चला जाए तो कोई हर्जा नहीं, लेकिन हम पांच रुपये पर राजी न होंगे। कहीं कोई हमारा पांच रुपये का शोषण न कर ले। जैसे कि पांच रुपये हमारे पास थे और किसी ने छीन लिए। कोई छीन नहीं रहा है। शोषण की पूरी की पूरी धारणा बड़ी नासमझी से भरी हुई है।
पूंजीवाद श्रम को संपत्ति में बदलने की प्रक्रिया है और अगर पूंजीवाद को ठीक से विकास का मौका दिया जाए तो वह सारे श्रम को संपत्ति में बदलने का मार्ग खोज ले सकता है। लेकिन समाजवादी कहते हैं कि नहीं, हम राज्य के हाथ में यह सब देंगे और मजे की बात यह है कि राजनीतिज्ञ से ज्यादा अयोग्य वर्ग आज पृथ्वी पर कोई भी नहीं है और कभी भी नहीं था। इसका कारण है। इसका कारण यह है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में योग्यता का मूल्य है।
राजनीति के क्षेत्र में योग्यता का कोई भी मूल्य नहीं है। जो आदमी किसी भी बाजार में जूता बेचने को दुकान पर भी न रखा जा सके, वह शिक्षामंत्री हो सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं हो सकती है, क्योंकि शिक्षामंत्री के होने से, शिक्षा से योग्यता का कोई संबंध नहीं है। राजनीति एक मात्र अयोग्यों के लिए द्वार है। जिनके पास कोई योग्यता नहीं, वे राजनीति के योग्य हो सकते हैें, क्योंकि राजनीति किसी तरह के विशेष ज्ञान, किसी तरह की विशेषता का कोई आग्रह नहीं करती। इसलिए राजनीति अदभुत गोरख-धंधा है। उसमें कोई भी आदमी जो सिर्फ एक कला जानता है कि दस-बीस आदमियों को अपने पीछे इकट्ठा कर सके, शोरगुल मचा सके, वह आदमी राजनीति में योग्य हो जाता है। लेकिन फिर वह करेगा क्या? वह शिक्षामंत्री बनेगा और युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर और शिक्षाशास्त्री उसके आगे-पीछे चक्कर काटेंगे और वह आदमी अंगूठे से दस्तखत करेगा और शिक्षा को संचालित करेगा।
यह समझ के बिलकुल बाहर है। वह आदमी जिसको कोई पता नहीं है मेडिकल साइंस का, वह स्वास्थ-मंत्री हो जाएगा और स्वास्थ पर मुल्क का मार्गदर्शन करेगा, मुल्क के स्वास्थ को ठीक करने का विचार करेगा। राजनीति अयोग्य व्यक्ति के लिए गति है, लेकिन वह धन को भी अपने हाथ में लेना चाहती है। वह कहती है कि व्यवसाय, सारा धन, सारे उत्पादन भी राजनीतिज्ञों के हाथ में चले जाने चाहिए। वह भी कहीं से संचालित होना चाहिए। मुल्क को किसी भी तरह दिवालिया करने की उसने कसम खा रखी है--दिवालिया करके ही रहेंगे। मुल्क सब तरह से दिवालिया हो जाए, तब तक हम रुकने वाले नहीं हैं।
मेरी अपनी दृष्टि और ही है। मेरी दृष्टि यह है कि राजनीतिज्ञ को, तभी इस दुनिया में मनुष्य को खतरे में ले जाने से रोका जा सकता है, जब कि राजनीतिज्ञ को सीधा ही शासन का मालिक न होने दिया जाए। इसलिए मेरी दृष्टि तो यही है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि पार्लियामेंट बनाएं, लेकिन पार्लियामेंट में से मंत्रिमंडल न बने। पार्लियामेंट में जो पार्टी ज्यादा बहुमत में हो, उस बहुमत की पार्टी को हक हो कि एक शिक्षाशास्त्री को खोजे पूरे मुल्क में और शिक्षामंत्री बनाए। खोजे एक चिकित्सक को और स्वास्थ्य मंत्री बनाए। लेकिन जनता का प्रतिनिधी स्वास्थ मंत्री और शिक्षामंत्री नहीं होना चाहिए। यह माॅबोक्रेसी है, डेमोक्रेसी नहीं है। यह भीड़-तंत्र हुआ, लोकतंत्र नहीं हुआ।
जनता अपने प्रतिनिधि चुन कर भेजे। जिन लोगों की ज्यादा संख्या हो पार्लियामेंट में, वे लोग अपने आदमी खोजें मुल्क में; लेकिन जिस पद के लिए खोजें, उस पद की योग्यता पूरी होनी चाहिए तब माॅबोक्रेसी की जगह मेरिटोक्रेसी का इंतजाम आ सकता है। गणतंत्र जब तक गुणतंत्र (मेरिटोक्रेसी) से नहीं जुड़ता, तब तक गणतंत्र निपट नासमझी की कहानी है। तब तक गणतंत्र मनुष्य को नीचे ही ले जाएगा, ऊपर नहीं ले जा सकता। जनता का प्रतिनिध बिलकुल ठीक है--चुना जा सकता है। जनता का हक है, अपना प्रतिनिधि चुनने का, लेकिन अपने प्रतिनिधि को शिक्षामंत्री बनाने का हक जनता को नहीं हो सकता है। हां, जनता का प्रतिनिधि शिक्षा शास्त्रियों को खोजे--जिनको ठीक समझे, वह जनता का प्रतिनिधि चुनेगा। लेकिन कैबिनेट और मुल्क के शासन का हक विशेषज्ञों के हाथ में होना चाहिए। जब तक एक्सपर्ट के हाथ में, गुणवान लोगों के हाथ में राज्य नहीं है, तब तक सब तरह के खतरे हैं और आज तो जीवन की प्रत्येक चीज स्पेशलाइज्ड है। आज तो एक छोटी से छोटी चीज के लिए विशेषज्ञ हैं।
आज पुराना जमाना गया कि आप गए वैद्य के पास। उसने आपसे पूछा नहीं और नाड़ी देखी और दवा दे दी। उसने यह भी नहीं पूछा कि पेट में दर्द है, आंख में दर्द है कि पीठ में तकलीफ है। नाड़ी देखी और दवा दे दी। वह स्पेशलाइजेशन के पहले की बात है, जब वैद्य सभी कुछ जानता था। अब हालतें बदल गई हैं। मैंने सुना है कि आज से पचास साल बाद एक गांव में एक औरत, एक डाक्टर के आफिस गई और उसने कहा, मेरी आंख में तकलीफ है। वह डाक्टर उसे भीतर ले गया। फिर उसने पूछाः आपकी किस आंख में तकलीफ है। उसने कहा कि बाईं आंख में दर्द है। उस डाक्टर ने कहाः माफ करिए, मैं दाईं आंख का डाक्टर हूं। बाईं आंख का डाक्टर आगे है। एक आंख भी कितनी बड़ी बात है कि असल में दोनों आंख का डाक्टर भी ज्यादा दिन तक नहीं चलेगा! एक आंख इतनी बड़ी घटना है। इतनी बड़ी जटिलता है, लेकिन जिंदगी का जो सबसे जटिल तंत्र है राज्य, वह अविशेषज्ञों के हाथ में है। वे मुल्क को बर्बाद करते चले जाएंगे और अविशेषज्ञों का मन होता है कि सब पर कब्जा कर लो। धन की भी ताकत मेरे हाथ में हो, उद्योग मेरे हाथ में हों, सब मेरे हाथ में हों। धर्म भी मेरे हाथ में हो, विज्ञान भी मेरे हाथ में हो, लेकिन उसकी चाह को अगर हमने पूरा होने दिया तो खतरा होगा।
इसलिए मैं एक धारणा आपको देना चाहता हूं मेरिटोक्रेसी की, गुणतंत्र की। गुणतंत्र गणतंत्र के माध्यम से काम करने की धारणा है और आज नहीं कल, सारी दुनिया में जहां भी समझ बढ़ गई है, वहां एक्सपर्ट मूल्यवान होता चला जा रहा है। आज नहीं कल, इस बात की बहुत संभावना है कि वह जो विशेषज्ञ हैं, वह जो ज्ञानी है उसके हाथ में सब चला जाए।
मेरे एक मित्र ने खबर भेजी है कि जैसा आज आप कह रहे है कि सिर्फ पूंजीवाद ही जानता है, पूंजी को पैदा करना। ऐसा ही कुछ जमाने पहले ब्राह्मण कहते थे कि ब्राह्मण ही जानता है ज्ञान पैदा करना। अब वे ब्राह्मण कहां हैं? उन्होंने पुछवाया है कि अब ज्ञान कोई भी पैदा कर रहा है--वैसे ही आप जो कहते है, ये पूंजीपति भी चले जाएंगे तो कोई भी पूंजी पैदा करेगा?
उन मित्र से मैं निवेदन करना चाहूंगा कि उन्हें शायद पता नहीं है कि हम ऐसा नहीं कहते रहे है कि ब्राह्मण ही ज्ञान पैदा कर सकता है। हम ऐसा कहते रहे हैं कि जो ज्ञान पैदा करता है, यह ब्राह्मण है और आज भी ब्राह्मण ही ज्ञान पैदा कर रहा है सारी दुनिया में। आइंस्टीन ब्राह्मण है, बनिया नहीं। और बट्र्रेंड रसल ब्राह्मण है। माक्र्स भी ब्राह्मण है। ये सब ब्राह्मण हैं। यदि हिंदुस्तान में माक्र्स पैदा होता तो कभी का महर्षि हो जाता। ये सब ब्राह्मण हैं।
ब्राह्मण का मतलब क्या है? कोई जन्म से ब्राह्मण नहीं होता। जन्म से बांधने की वजह से बड़ी भूल हो गई और अन्याय हो गया। यह धारणा कि मनुष्य चार प्रकार के होते हैं, बड़ी कीमती अंतर्दृष्टि है। भूल तो यहां हो गई कि हमने जन्म से इसे बांध दिया। कोई आदमी जन्म से ब्राह्मण नहीं होता, लेकिन कुछ लोग हैं जिनके लिए जीवन भर ज्ञान की खोज ही जिनकी आत्मा है। कुछ लोग हैं, धन की खोज ही जिनकी आत्मा है। कुछ लोग हैं, शक्ति की खोज ही जिनकी आत्मा है। कुछ लोग हैं, श्रम ही जिनकी आत्मा है। यह जो चार की कल्पना थी--ब्राह्मण की, शूद्र की, वैश्य की, क्षत्रिय की, वह कल्पना जन्म से संबंधित होकर रुग्ण हो गई। धारणा कुछ और थी। धारणा यह थी कि चार टाइप के लोग हैं दुनिया में और वह धारणा अभी भी गलत नहीं हे। और कभी गलत नहीं होगी। वह धारणा सदा रहेगी। कुछ लोग हैं जो धन पैदा कर सकते है, वह कुछ ही लोग हैं। जरूरी नहीं कि धनिक का बेटा धन ही पैदा कर सकता है। इसलिए लिक्विडिटी तो होनी ही चाहिए, लेकिन धन पैदा करने वाली प्रतिभा कुछ लोगों में है, वे ही वणिक हैं, ज्ञान कुछ लोग पैदा कर सकते हैं। अब माक्र्स बीस साल तक ब्रिटिश म्युजियम की लाइबे्ररी में बैठ कर पढ़ता रहा और इतना उसने पढ़ा कैपिटल लिखने के लिए कि जब लाइब्रेरी बंद होती तो चपरासी उसे अक्सर बेहोश हालत में घर पहुंचाता, क्योंकि वह दिन भर पढ़-पढ़ कर बेहोश हो जाता, यह आदमी ब्राह्मण है। असल में
दुनिया में विचार का जन्म बिना ब्राह्मण के होता ही नहीं। कहीं भी दुनिया में जब कोई ज्ञान लाएगा तो वह टाइप ब्राह्मण का होगा। धन कुछ लोग पैदा कर सकते हैं और राजनीति की जो दौड़ है, वह धनिक की दौड़ नहीं है।
राजनीति की जो दौड़ है, अगर वह ठीक और शुद्ध हो तो क्षत्रिय की दौड़ है। वह जो टाइप है शक्ति के लिए, शक्ति की खोज में चलता है, जीवन भर उसकी दौड़ है। दुनिया में शूद्र भी मिट नहीं जाएगा। हां, शूद्र जन्म से कोई भी नहीं होना चाहिए; लेकिन शूद्र का कुल मतलब इतना है कि जो श्रम कर लेता है, खाना खा लेता है, बच्चा पैदा करता है और मर जाता है। बहुत लोग शूद्र हैं। ब्राह्मणों के घर भी शूद्र पैदा होते हैं। वणिकों के घर में भी पैदा होते हैं, क्षत्रियों के घर में भी पैदा होते हैं। शूद्र का मात्र मतलब इतना ही है, इसलिए शूद्र बुरा शब्द नहीं है। उसका कुल मतलब इतना है कि ऐसा आदी, जो खा लेता है, पी लेता है, पैदा कर लेता है, प्रकृति का काम पूरा कर लेता है और एक पशु के तल पर जीकर समाप्त हो जाता है। लेकिन हमारा जो सोचने का ढंग है, वह यह है कि ब्राह्मण जन्म से है। जन्म वाला ब्राह्मण खो गया। जन्म वाला धनी भी नहीं बच सकता। लेकिन जिसमें धन की प्रतिभा है, उसकी स्वतंत्रता तो बचनी चाहिए कि वह धन खोज सके। सेवा जिसे करनी है, श्रम जिसे करना है, वह श्रम कर सके। ज्ञान जिसे खोजना है, वह ज्ञान खोज सके।
समाजवाद सब पर रोक लगाता है। आज रूस में ज्ञान की खोज पर बुनियादी रोक है। सभी तरह का ज्ञान नहीं खोजा जा सकता है। अगर कोई आज रूस में कहे कि मैं ध्यान के संबंध में कुछ खोज कर रहा हूं तो उपाय नहीं है। आज रूस में संन्यासी होने का उपाय नहीं है। संन्यासी की भी अपनी खोज है और कौन कह सकता है कि उसी की खोज अंतिम सिद्ध न होगी? जब सब ज्ञान थक जाए तो पता नहीं उसी की खोज सही हो। आइंस्टीन जैसा खोजी भी जीवन के अंत में यही कहता है कि सब खोज कर मैं उस जगह पर पहुंचा, जहां मैं कह सकता हूं कि जितना खोजा उतना ही पाया हूं कि अज्ञानी हूं। जितना खोजा उतना ही पता चला कि और अनंत खोजने को है। अंत में इतना ही कह सकता हूं कि जीवन एक रहस्य है। और उसका कोई आर-पार नहीं है। यह आदमी संन्यासी हो गया और रहस्य के किनारे पहुंच गया, लेकिन रूस में रहस्य की बात नहीं की जा सकती। ईश्वर वहां वर्जित खोज है। वह खतरनाक बात है। इसका मतलब हुआ कि ब्राह्मण के लिए पेदा होने के उपाय रोके गए। धन भी नहीं खोजा जा सकता।
अभी आज मुझे किसी ने कहा कि संभवतः रूस ने निमंत्रित किया है फोर्ड को कि वह रूस में मोटर के कारखाने डाले। अमरीका से फोर्ड को बुलाइएगा और अपने मुल्क में जो फोर्ड पैदा होता है, उसकी पचास साल में हत्या कर दी। वह तो रूस में ही पैदा हो सकता था फोर्ड, कोई अमरीका से ही लाने की जरूरत थी? लेकिन आज अमरीका को निमंत्रण देना पड़ेगा फोर्ड बुलाने के लिए। मामला क्या है? क्या रूस के पास वह जो वैश्य था, वह जो बुद्धि थी, जो धन पैदा करती, वह नहीं पैदा हो सकती? वह हो सकती थी, लेकिन उसे पचास साल में रोका गया है। उसको सब तरह से रोका और तोड़ा है। उसको मिटा डाला है। आज वह जंजीर में कसी है। आज उसके फैलने का उपाय नहीं रह गयाहै। समाजवाद इन चारों तरह के व्यक्तियों को स्वतंत्रता नहीं देता। इसलिए मैं मानता हूं कि वह अमानवीय है।
पूंजीवाद एक मानवीय व्यवस्था है जो सब तरह के व्यक्तियों को सब तरह की दिशाओं में, सब तरह की पूरी स्वतंत्रता देती है। अगर नहीं दे रही है तो कोशिश कर रही है कि वह पूरी दे। अगर कहीं रुकावट है तो उस रुकावट को हटाना चाहिए, लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि क्या जरूरत है बीमारी दूर करने की? बीमार को ही दूर कर दो। वे कहते हैं, क्या फायदा है इलाज करने से। मारो इस मरीज को। पूंजीवाद में खामियां हैं, वे खामियां दूर की जा सकती हैं; लेकिन कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, जो कहते हैं इतनी खामियां हैं, मारो मरीज को। लेकिन उन्हें पता नहीं कि यह मरीज का मरना पूरी मनुष्य-जाति का मरना हो सकता है।
इसी संदर्भ में मैं आपको कहूं। कल मैंने गांधी जी को कुशल बनिया कहा तो कुछ लोगों को बड़ी तकलीफ हो गई। वे बनिया थे। बनिया इसी हिसाब से, जो मैंने चार वर्ग बताए। तो किसी ने कहा कि आपने बड़ी निंदा का शब्द उपयोग कर दिया। कुछ लोगों का खयाल है कि ‘बनिया’ शब्द निंदा का है। बनिए को भी लगता है कि बनिया शब्द निंदा का है। कोई शब्द निंदा का नहीं है। बनिया सिर्फ एक फैक्ट है। वणिक एक तथ्य है। वह भी एक तरह का आदमी है और मैं कहता हूं, गांधी ब्राह्मण नहीं हैं और गांधी शूद्र भी नहीं हैं। गांधी का मूल व्यक्तित्व बनिया का है, लेकिन यह तथ्य की बात है। कंडेमनेशन भी नहीं है, लेकिन हम तो इतने सोचने में क्षीण हो गए हैं कि या तो हम प्रशंसा समझते हैं या निंदा समझते हैं। फैक्ट को तो हम समझते ही नहीं कभी कि कोई बात फैक्ट भी हो सकती है। अगर मैं आपसे कह दूं कि फलां आदमी को टी.बी. है तो वह कहेगा कि आप हमको गाली दे रहे हैं। टी.बी. है तो इसमें गाली की क्या बात है? गांधी जी बनिया है, इसलिए मैंने कहा। कोई निंदा नहीं की है। तो उस मित्र ने कहा कि आप और दो-चार उल्लेख दें।
हजार उल्लेख दिए जा सकते हैं, फिर भी एक-दो मैं देना चाहूंगा। महावीर त्यागी ने संस्मरण लिखा है। गांधी जी उनके गांव में आए--रात बड़ी सभा हुई। गांधी जी ने सभा में लोगों से दान मांगे। कोई जो देना चाहे, दे दे। किसी ने रुपये दिए, किसी ने कान के इयर-रिंग दिए, किसी ने पैर की पायल दी, किसी ने चूड़ी दी। गांधी यह सब वही मंच पर डालते गए। लोगों से लेते गए और मंच पर डालते गए और फिर महावीर त्यागी से कह गए कि मैं जाता हूं और तुम सब समेट कर ले आओ। वह सब समेट कर रात बारह बजे पहुंचे। उन्होंने सोचा कि गांधी जी सो भी गए होंगे, लेकिन उन्हें पता नहीं कि कुशल वणिक की बुद्धि क्या चीज है--सोना पीछे, हिसाब पहले। वह बुद्धि पहले हिसाब करती है। तो सोचा, इतनी रात न जाऊं, लेकिन बारह बजे गया तो देखा कि बूढ़े गांधी जाग रहे हैं और गांधी जी ने कहाः ले आए! जल्दी से खोल कर सब देखा। न केवल देखा, उन्होंने कहाः फिर से जाओ। इसमें एक ही इयर-रिंग है। कोई स्त्री मुझे एक इयर-रिंग नहीं देगी, देगी तो दोनों देगी। इयर-रिंग दो होने चाहिए। महावीर त्यागी एक बजे रात वापस भागे। रोते-धोते वहां पहुचे। गैस जला कर फिर ढूंढा, मिल गया वह आभूषण। वैश्य की नजर बड़ी गहरी होती है। वह लेकर लौटा बेचारा। सोचा, सो गए होंगे गांधी जी, लेकिन नहीं, वे अभी जाग रहे थे। जब इयर-रिंग मिल गया तब कहा कि अब हिसाब ठीक है।
मैं कोई डैरोगेट्ररी बात नहीं कह रहा हूं, यह भी प्रतिभा का एक ढंग है। इसमें कुछ निंदा की बात नहीं है। और यदि हम इस व्यक्तित्व को समझ लेते तो हिंदुस्तान की जिंदगी में बड़ा फर्क पड़ता। क्योंकि बनिए के हाथ में नेतृत्व हो तो खतरा होने वाला ही है। गांधी को काम दूसरे करने पड़े। काम क्षत्रिय का करते थे। भगतसिंह उस काम को ठीक से कर लेता, सुभाष ज्यादा ठीक से कर लेते। लेकिन वह नहीं हो सका और उसका परिणाम हुआ कि जो वैश्य की प्रतिभा कर सकती थी, वह उसने किया। पार्टीशन हुआ, आजादी कटी हुई और मरी हुई हाथ में आई; क्योंकि वैश्य प्रतिभा समझौते पर सदा राजी होती है। बनिया अतिवादी नहीं होता है। वह कहता है, आओ आधा-आधा कर लें। तो गांधी के नेतृत्व का परिणाम है वह बंटवारा; क्योंकि वणिक की बुद्धि झगड़े की नहीं होती है, कम्प्रोमाइज की होती है। उसे निपटारा करना है। आधा-आधा बांट लो और क्या ज्यादा झंझट करनी है। गांधी ऐसा कहें या न कहें, यह सवाल नहीं है।
गांधी के नेतृत्व ने जो मन देश को दिया, वह बनिया का था। और गांधी का इसलिए अंग्रेजों से मेल पड़ा, क्योंकि वह कौम बनियों की कौम थी। गांधी के सिवाय अंग्रेजों से किसी का मेल न पड़ा। भगतसिंह से कैसे मेल पड़ता? सुभाष से कैसे मेल पड़ता? गांधी से पड़ा। पड़ा इसलिए कि दोनों का माइंड एक टाइप का था। बनिया कौम थी। इधर भूल से क्षत्रिय की ताकत मिल गई थी। उधर वैश्य ही लड़ने वाला था, इसलिए देख कर बड़ी हैरानी होगी कि अंग्रेजों ने गांधी की जितनी सुरक्षा की, दुनिया के किसी राज्य ने कभी राज्य के दुश्मन की ऐसी सुरक्षा नहीं की। हम न बचा सके गांधी को अंग्रेजों के जाने के बाद, अंग्रेजों के वक्त गांधी बचा रहा।
बड़े मजे की बात है, अंग्रेजों ने पूरी सुरक्षा दी गांधी को; क्योंकि अंगे्रजों को साफ हो गया कि नाता इसी से बना कर रखो। आज नहीं कल, यही आदमी काम का है। बाकी सबसे झंझट हो जाएगी। गांधी और अंग्रेजों के बीच एक इनर कम्यूनियन, जिसको कहते हैं, एक आंतरिक संबंध हो गया। वह संबंध होना बिलकुल निश्चित था। वह बिलकुल स्वाभाविक था। वह टाइप एक था। अंग्रेज गांधी को समझा सके, और गांधी अंग्रेज को समझा सके और उनका तालमेल बैठ गया, इसलिए हिंदुस्तान आजादी न ले पाया!
हिंदुस्तान को आजादी मिली और मिली हुई आजादी गुलामी से भी बदतर होती है। आजादी छीनी जाती है, ली जाती है, मांगी नहीं जाती। आजादी समझौतों से, वार्ताओं से नहीं मिलती और जब आजादी ली जाती है तो उसमें एक जिंदगी हाती है। उसके खून में गति होती है। और जब आजादी मिलती है, तो वह मरे हुए लोथड़े की तरह होती है। मिली आजादी, लेकिन बेरौनक! उसमें कोई महिमा न थी। और मिलने का जो दुष्परिणाम हुआ, वह भी हुआ।
गांधी रोज-रोज समझाते रहे पूरे मुल्क को कि हिंसा नहीं, हिंसा नहीं! क्योंकि वैश्य-चित्त हिंसा नहीं कर सकता। क्या आपको खयाल आता है कभी कि महावीर क्षत्रिय थे, लेकिन उनके पीछे जो कौम इकट्ठी हुई वह बनियों की है। महावीर क्षत्रिय हैं। जैनियों के चैबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, लेकिन जैनी कोई क्षत्रिय नहीं है, वे सब बनिए हैं। बात क्या है? बनिए को अहिंसा अपील कर गई और कोई बात नहीं है। वह जो मुल्क के भीतर बनिया दिमाग था, उसने कहा, यह आदमी बिलकुल ठीक कह रहा है, क्योंकि न हम हिंसा करेंगे, न दूसरे हमारी हिंसा करेंगे। जंचती है यह बात। सम्मिलित हो जाओ। गांधी के हाथ में होने की वजह से अहिंसा आंदोलन बनी और अहिंसा के आंदोलन की वजह से हिंदुस्तान को बड़े दुर्भाग्य भी झेलने पड़े। बड़ा दुर्भाग्य तो यह हुआ कि हिंदुस्तान के मन में अंग्रेजों के खिलाफ जो बिलकुल सहज घृणा और हिंसा थी, गांधी ने उसको कभी प्रकट नहीं होने दिया--उसको दबाया। जरा कहीं हिंसा प्रकट हुई कि गांधी का वैश्य पीछे हट गया। उसने कहा कि नहीं भाई, हम दुकानदार आदमी हैं, हम समझौता करते हैं, हम ऐसी बात नहीं करते हैं। वह पीछे हट गया।
मुझे एक कहानी याद आती है। मुझे खयाल आता है कि कहीं राजस्थान में एक छोटी सी लोक कहानी है। कहानी है कि एक क्षत्रिय है, राजपूत है, वह मूंछ पर ताव देता हैं और घर के सामने बैठा रहता है और उसने गांव भर में खबर कर दी है कि मेरे घर के सामने दूसरा आदमी मूछ पर ताव देकर नहीं निकल सकता है। तो दूसरे लोग मूंछ यहां अपनी नीची कर लेते हैं कि कौन झंझट करे। वह अपने तख्त पर बैठा रहता है तलवार लिए। एक बनिया नया गांव में आया। उसको भी मूंछ रखने की धुन है। वह उसके सामने से निकला। उसने कहाः ऐ भाई, रुक, पहले मूंछ नीची कर। उसने कहाः तू कौन है मेरी मूंछ नीची करने वाला? राजपूत ने कहाः तो फिर ले यह तलवार सम्हाल। आओ हम निपटारा कर लें। उस बनिए ने यहां तक नहीं सोचा था कि तलवार से निपटारा करना पड़ेगा। उस बनिए ने कहाः ठीक है, लेकिन एक काम करो। अगर मैं मर जाऊंगा तो मेरे बच्चे परेशान होंगे, स्त्री परेशान होगी और तू मर जाएगा तो तेरी पत्नी विधवा होगी, बच्चे भीख मांगेंगे। तो एक काम कर। तू पहले घर में जाकर अपनी पत्नी व बच्चों का सफाया कर आ और मैं अपने घर में कर आता हूं। फिर हम दोनों लड़ लें। फिर कोई डर नहीं। क्षत्रिय ने कहाः बिलकुल ठीक है। अक्ल ही होती क्षत्रिय के पास ज्यादा तो मूंछ पर ताव देकर बैठा न रहता। बनिया घर गया। क्षत्रिय अपने घर गया तो उसने तो सबका फैसला कर दिया। अपने बच्चे सब काट डाले। बाहर आकर खड़ा हो गया। बनिया वहां से मूंछ ही नीची करके आ गया। उसने कहाः मैंने सोचा, क्यों नाहक का झगड़ा करना, मूंछ ही नीची कर लेता हूं।
यह जो चित्त है, इसका अपना अस्तित्व है। निंदा, प्रशंसा--इनसे मुझे प्रयोजन नहीं है। मात्र तथ्य से जरूर प्रयोजन है। इसमें कोई निंदा नहीं है कि क्षत्रिय ऐसा है, वैश्य ऐसा है। गांधी जी भी झंझट में पड़ें, कहीं चोरा-चोरी की घटना हो या कहीं कुछ और हो जाए, फौरन पीछे हट जाना उनका नियम था। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदुस्तान के मन में अंग्रेजों के खिलाफ जो सहज घृणा पैदा हुई थी, हिंसा पैदा हुई थी, वह दब गई और उस दबाव की वजह से हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू हुए। अगर हिंदुस्तान अंग्रेजों से सीधा लड़ता तो हिंदू-मुस्लिम कभी भी नहीं लड़ते। जब हम न लड़ पाए और घृणा इकट्ठी हो गई तो कहीं न कहीं वह निकलेगी। तो हमें रास्ता खोजना पड़ा। हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए।
आमतौर से लोग समझते हैं कि गांधी जी ने हिंदू-मुस्लिम दंगे रोकने की कोशिश की। मैं आपसे कहता हूं गांधी जी ही परोक्ष रूप से जिम्मेवार थे सारे हिंदू-मुस्लिम दंगों के लिए। अगर थोड़ी सी साइकोलाॅजी का, थोड़े मानस-शास्त्र का खयाल हो तो समझ में आएगी बात। इतनी जोर से रोक दी सब तरफ से हिंसा, जो बिलकुल स्वाभाविक थी कि हिंदुस्तान आग लगा देता अंग्रेजी सल्तनत को। फेंक देता उन्हें मुल्क के बाहर। वह सब वेग रोक दिया गया। अब वह वेग कहां जाए, वह घृणा कहां से निकले?
आपको पता है, एक आदमी दफ्तर में काम करे, मालिक उसको डांट दे, उसकी तबीयत होगी कि गर्दन दबा दे उसकी; लेकिन मालिक की गर्दन कैसे दबाएगा? वह हंसता रहेगा, मुस्कुराता रहेगा, पूंछ हिलाता रहेगा। फिर घर चलेगा। फिर उसकी साइकिल देखें, पैड़ल जोर से चलेगी। क्यों? मालिक को जो नहीं मार पाया, वह पैडल पर ही जोर आजमा रहा है। अब वह जा रहा है तेजी से। अब उसकी पत्नी को समझना चाहिए कि पति परमात्मा घर लौट रहे हैं और मालिक से कोई झंझट हो गई है, लेकिन पत्नी को क्या पता? वह बड़े मजे से प्रतीक्षा कर रही है कि पतिदेव लौटते होंगे। पतिदेव लौट रहे हैं। पति को भी पता नहीं, लेकिन वह गर्दन पकड़ेंगे पत्नी की। रोटी जल गई, बिस्तर ठीक नहीं लगे, हजार बातें हैं। पत्नी को ठीक किए बिना नहीं मानेंगे। उसको करना था मालिक को ठीक, वह कर नहीं पाया। घृणा भीतर थी, वह निकास चाहती है, वह बढ़ेगी। अगर भीतर की नाली बंद कर देंगे तो घर भर में गंदगी बढ़ेगी। नाली भी चाहिए घर में।
हिंसा है, उसका बहाव भी चाहिए। अगर वह ठीक जगह न बह जाए तो गलत जगह से बहेगी और ठीक जगह से बही हुई हिंसा की बजाय गलत जगह से बही हुई हिंसा बहुत महंगी पड़ेगी। लेकिन पत्नी कर क्या सकती है? पति को मार नहीं सकती। अभी तक पत्नी की इतनी हिम्मत नहीं हुई--हो जानी चाहिए, लेकिन पतियों ने समझाया हुआ है कि हम परमात्मा हैं। अब परमात्मा को मारो तो झंझट है। हालांकि मन में शक तो उठता है, लेकिन मानना पड़ता है; क्योंकि उसी ने प्रचार किया है। तो पत्नी बेटे का रास्ता देखेगी, लौटता होगा स्कूल से। ये सब अनकांशस डैविएशंस हैं। बेटा चला जा रहा है नाचता हुआ, उसे कुछ पता नहीं, फिल्म का गीत गाता हुआ। पकड़ लेगी मां गर्दन कि गंदे गीत गा रहे हो? कल भी यही गा रहा था। परसों भी यही गा रहा था। तुमने भी यह गया है, तुम्हारे पति ने भी यही गाया है, उनके बाप-दादे यही गा रहे थे। यह कोई नया नहीं है, लेकिन उसकी गर्दन पकड़ लेती है कि गंदा गीत गाते हो! अब वह बेटा क्या करे? मां को थप्पड़ मारे? अभी तक दुनिया इतनी सभ्य नहीं हो पाई है। वह बेटा जाएगा अपने कमरे में और गुड़िया की टांग तोड़ कर चार हिस्से कर देगा।
माइंड की एनर्जी.ज हैं--ऊर्जाएं हैं। गांधी ने हिंदुस्तान की हिंसा को रोक कर दमन पैदा किया। वह अंग्रेजों की तरह बही होती तो एक शानदार मुल्क पैदा होता। हिंदुस्तान पाकिस्तान दो मुल्क नहीं होते। लड़ कर तलवार पर धार आ गई होती, लड़ कर हमारी जिंदगी में रस, उमंग, आशा आ गई होती। वह नहीं हो पाया। लेकिन तलवार हमें चलानी पड़ी और पड़ोस में ही चलानी पड़ी, फिर मुसलमान और हिंदू टकराएं और इसलिए पंद्रह अगस्त के बाद जो इतनी बड़ी हिंसा हुई, जिसमें दस लाख लोग मारे गए, इसका जिम्मेवार कौन हैं? लोग बहुत बेईमान हैं। वे कहते हैं, अंगे्रजों ने भड़का दिया--कोई कहता है जिन्ना ने भड़का दिया--नहीं साहब, न जिन्ना, न अंग्रेज। असली कारण यह है कि हिंदुस्तान के मन में आग थी, उसको निकालने का कोई मौका नहीं था, और जब हिंदुस्तान बंटा, एक मौका मिल गया कि अब ठीक है, निकाल लो, वह राहत निकली। सैकड़ों वर्षों से गुलामी की जो पीड़ा थी, उसको बहनेका का कोई उपाय न था, वह बही। हिंदुस्तान भी बंटा, लोभ भी मरे। अगर दस लाख लोग ही मरने थे तो अंगे्रजों से हम कभी का देश छीन लिए होते। दस लाख लोग मरने को किसी भी दिन तैयार होते, तो अंग्रेज उसके दूसरे दिन ही हिंदुस्तान में न होते। लेकिन वह न हो सका।
जब मैं कहता हूं, गांधी जी वैश्य हैं, तो मैं बहुत सोच कर कह रहा हूं, गाली नहीं दे रहा हूं और सम। लेना कि वह वैश्य हैं, इसलिए आगे भी उनसे समझ कर संबंध रखना। वैश्य का अपना उपयोग है, उसकी अपनी जगह है। यह अपनी जगह बहुत कीमती है। ब्राह्मण का अपना उपयोग है, वह अपनी जगह कीमती है। शूद्र का अपना उपयोग है, वह अपनी जगह कीमती है। और किसी की कीमत मानवीय अर्थों में कम और ज्यादा नहीं होती है, लेकिन यह साफ-साफ होना चाहिए। समाजवाद इस सबको लीप-पोत देना चाहता है। मनुष्यों में जो विभिन्न टाइप हैं, उनको पोंछ डालना चाहता है। वह कहता है, मनुष्य एक जैसा है।

एक अंतिम बात, एक मित्र ने कहा है कि आपने कहा कि गांधी जी ट्रेन का विरोध करते थे, टेलीग्राफ का विरोध करते थे, हवाई जहाज का विरोध करते थे। और दो-तीन मित्रों ने पूछा है कि आप गलत बात कह रहे हैं, यह कहां लिखा है?

मैं बहुत हैरान होता हूं। मालूम होता है, आप कुछ पढ़ते-लिखते नहीं हैं। गांधी जी की किताब ‘हिंद-स्वराज्य’ पढ़ें तो मैंने जितना कहा है, उससे हजार-गुना विरोध उसमें यंत्रों का लिखा है। लेकिन ‘हिंद-स्वराज्य’ उन्नीस सौ पांच में लिखी थी, इसलिए कोई कहेगा, उन्नीस सौ पांच में लिखी मिताब से उन्नीस सौ अड़तालिस में मरने वाले आदमी की बाबत निर्णय लेना ठीक नहीं है। मैं भी नहीं मानता, लेकिन उन्नीस सौ पैंतालिस में नेहरू को गांधी जी ने एक पत्र लिखा है। नेहरू ने पूछा है गांधी जी से कि उन्नीस सौ पांच में लिखी ‘हिंद-स्वराज्य’ नाम की किताब में आपने रेलगाड़ी का, टेलीफोन का विरोध किया है, क्या आप अब भी उस विरोध को राजी है? तो गांधी जी ने लिखा है उन्नीस सौ पैंतालिस में कि मैं ‘हिंद-स्वराज्य’ के शब्द-शब्द से आज भी राजी हूं। मालूम होता है; पढ़ते-लिखते नहीं हैं। चिट्ठियां तो बहुत से लोगों ने लिख दीं कि आपको तथ्य पता नहीं है। सच बात यह है कि गांधी जी भी बहुत कम पढ़ने-लिखने में विश्वास करते थे ओर उनको मानने वाला और भी कम पढ़ता-लिखता मालूम होता है।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या आपने कहा कि गांधी और उनके आचार-विचार में विरोध हैं? लेकिन आपने कोई उदाहरण नहीं दिए!

मैं एक-दो उदाहरण देना चाहूंगा। गांधी जी जीवन भर अहिंसा का उपदेश देते हैं, लेकिन गांधी का व्यक्तित्व वायलेंट है, एक हिंसक व्यक्तित्व है। लेकिन वे अहिंसा की बातें करते थकते नहीं हैं। आप कहेंगे कि आप कैसे कह रहे हैं? इसलिए कह रहा हूं कि इस थोड़ा समझना पड़ेगा। अगर मैं आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाऊं और कहूं कि मेरी बात मानते हैं कि नहीं, नहीं तो छुरा मार दूंगा, तो आप कहेंगे कि बड़े हिंसक आदमी हो। उलटा कर लें। मैं आपकी छाती पर छुरा नहीं रखता, छुरा अपनी छाती पर रखता हूं और कहता हूं कि मेरी बात मानते हो कि नहीं, नहीं तो छुरा मार लूंगा, तब मैं अहिंसक हो जाऊंगा? छुरे की सिर्फ दिशा बदल जाने से क्या आदमी अहिंसक हो जाता है?
गांधी जी जिंदगी भर यह धमकी देते रहे हैं कि मैं अपने को मार डालूंगा, अगर मेरी बात नहीं मानते हो। यह हिंसक दबाव है। श्री अंबेदकर को गांधी जी ने दबाया, उपवास और अनशन करके। गांधी जी ने जिंदगी में किसी का हृदय परिवर्तन नहीं किया, यद्यपि इतने उपवास किए। अंबेदकर बेचारा झुक गया, राजी हो गया। बाद में अंबेदकर ने कहा कि गांधी जी इस भ्रम में न पड़ें कि मेरा कोई हृदय-परिवर्तन हो गया। मैं अब भी मानता हूं कि मैं ही सही था और गांधी जी गलत थे, लेकिन फिर भी यह सोच कर कि इस आग्रह के पीछे अगर गांधी जी की जिंदगी चली जाए तो महंगा सौदा हो जाएगा, मैं झुक गया। मेरा हृदय परिवर्तन नहीं हुआ। गांधी जी की जबरदस्ती की वजह से झुक गया हूं। गांधी जी मरने की धमकी जिंदगी भर देते रहे। मरने की या मारने की, दोनों धमकियां हैं हिंसा की, लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ती हैं। हमें दिखाई पड़ती है कि खुद को मारने की धमकी दे रहे हो तो अहिंसा हो गई। सच बात यह है कि वह बहुत सूक्ष्म हिंसा है। यह अहिंसा नहीं है। अहिंसा का मतलब यह है कि जहां धमकी ही नहीं, न दूसरे को मारने की, न खुद को मारने की।
गांधी जी के साथ जो लोग रहे, गांधी के बेटों से पूछे--हरिदास गांधी से पूछे कि गांधी अहिंसक थे? तो हरिदास मुसलमान क्यों हुआ? गांधी अहिंसक थे तो हरिदास ने शराब क्यों पी, मांस क्यों खाया? गांधी अहिंसक थे तो हरिदास जिंदगी भर गांधी जी के खिलाफ क्यों रहा? असल में गांधी जी की अहिंस भी इतनी टार्चरिंग, इतनी सेडिस्ट थी कि अपने बेटे को भी उन्होंने अच्छी तरह सता डाला। हरिदास भागा उनको छोड़ कर। यह बाप तो मार डालेगा। उसे पता नहीं था कि एक बेटे का बाप जो ठीक से नहीं हो पाया, वह कल राष्ट्रपिता होने वाला है। असल में एक बेटे का बाप होना बहुत कठिन है, राष्ट्रपिता होना बहुत आसान है; क्योंकि राष्ट्रपिता होने में किसी का पिता नहीं होना पड़ता है।
हरिदास से पूछें तो पता चलेगा कि गांधी का व्यक्तित्व हिंसक था कि अहिंसक था। कस्तूरबा से पूछें, हालांकि कस्तूरबा और गांधी जी को लेकर बहुत लेख लिखे जा रहे हैं कि बड़ा आदर्श दांपत्य जीवन था। बकवास करने में हमारी कौम का कोई मुकाबला ही नहीं है। अब गांधी जी और कस्तूरबा के बीच सतत कलह की जिंदगी बीती, लेकिन हम कहेंगे वह आदर्श दांपत्य जीवन था। कस्तूरबा से पूछें, पूरी जिंदगी उठा कर देखें, लेकिन उसको देखने की जरूरत नहीं। हम तो शोरगुल मचाने में, नारेबाजी करने में बड़े कुशल हैं। जब गांधी जी के घर अफ्रीका में कोई मेहमान होता तो उसका पाखाना भी वह कस्तूरबा से साफ करवाते। अब कस्तूरबा रो रही हैं, रोती हुई पाखाने का डिब्बा लेकर सीढ़ियां उतर रही है तो गांधी जी उससे नीचे खड़ा होकर कह रहे हैं कि रो मत, सेवा हंस कर करनी चाहिए। अब उसको बेचारी को दूसरे का पाखाना ढोना पड़ रहा है। वह कोई सेवा नहीं कर रहीं है, वह पति के चक्कर में पड़ गई है और पति एक सिद्धांत के चक्कर में है। वह पाखाना ढुलवा रहा है, लेकिन साथ में यह भी कि हंसते हुए पाखाना ढोओ। कई बार कस्तूरबा का हाथ पकड़ कर आधी रात गांधी जी ने घर के बाहर कर दिया है कि निकल जा घर के बाहर--अगर मेरे सिद्धांत नहीं मानती।
यह व्यक्तित्व अहिंसक नहीं है, यह व्यक्तित्व बिलकुल हिंसक है, लेकिन सिद्धांत है अहिंसा का। असल में अहिंसा के सिद्धांत के कारण गांधी जी के व्यक्तित्व को समझना मुश्किल हो गया है। जिंदगी बड़ी उलझी बात है, इतनी आसान नहीं है। इसलिए जब मैं कुछ कहता हूं तो बहुत जल्दी निर्णय न लें--सोचें। सिद्धांतों को नहीं, सत्यों को देखें, और अंधे भक्तों की भांति नहीं, सजग विचारों की भांति सोचें--समझें--खोजें। गांधी जी के व्यक्तित्व को उनकी समग्र नग्नता में समझना हितकर है, क्योंकि उस भांति हम इस देश के अत्यंत जड़बद्ध पाखंड को समझने में सफल हो सकते हैं। इस देश की ऊंची सिद्धांतवादी संस्कृति और वस्तुतः एकदम विपरीत वास्तविकता को समझने के लिए गांधी जी बिलकुल एक फेस हिस्ट्री का काम दे सकते हैं।

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