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शनिवार, 3 नवंबर 2018

समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

धर्म-विरोधी तथाकथित समाजवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है कि हम तो स्वयं की आत्मा को पाना चाहते हैं, और आपने कल जो बातें कहीं उनसे स्वयं की आत्मा को पाने का क्या संबंध है?

संबंध अवश्य है। आज रूस में या चीन में अपनी आत्मा को पाने का कोई उपाय नहीं रह गया है और अगर आज रूस या चीन में माक्र्स भी पैदा होना चाहे तो पैदा नहीं हो सकता। महावीर, बुद्ध, मोहम्मद और क्राइस्ट के पैदा होने की तो बात बहुत दूर है। स्वयं मनुष्य की आत्मा की खोज भी स्वतंत्रता की एक हवा में संभव है। मनुष्य की आत्मा की स्वीकृति भी, जिसे आप समाजवाद कहते हैं, वह नहीं देता है। समाजवाद मौलिक रुप से भौतिकवादी जीवन व्यवस्था है। समाज की मौलिक धारणाओं में एक यह भी है कि मनुष्य पदार्थ से ज्यादा नहीं है। इस बात को थोड़ा समझ लेना आवश्यक है, क्योंकि मेरी समझ में ऐसा समाजवाद, जो मनुष्य की आत्मा को स्वीकृति नहीं देता, बहुत घातक सिद्ध होगा।


उन मित्र ने आगे पूछा है कि यदि हमें अपनी आत्मा को खोजना है तो समाजवाद की आलोचना का इससे क्या संबंध है?


यह संबंध गहरा और सीधा है। समाजवाद मनुष्य-जाति के इतिहास में आत्मा के विरोध में खड़ा हुआ सबसे बड़ा विचार है।
दुनिया में नास्तिकता कभी भी सफल नहीं हो पाएगी और दुनिया में कोई नास्तिक समाज, कोई नास्तिक संगठन, कोई नास्तिक देश चरम आत्मिक संभावनाओं को प्राप्त नहीं कर सका। इसका कारण यह है कि नास्तिकों ने सीधे ही आत्मा और परमात्मा पर हमला बोल दिया। वे हार गए, जीत नहीं सके; लेकिन साम्यवाद ने पीछे के रास्ते से हमला बोला है और साम्यवाद ने पहली बार जमीन पर एक नास्तिक देश और एक नास्तिक समाज को पैदा कर दिया है। चार्वाक नहीं जीता, एपीकुरस नहीं जीता। जहां दुनिया के नास्तिक हार गए वहां माक्र्स, लेनिन और एंजिल्स जीत गए। रहस्य क्या है?
रहस्य यह है कि साम्यवाद पीछे के दरवाजे से नास्तिकता को लाता है। वह धर्म का सीधा विरोध नहीं करता है, वह सीधा विरोध धनपति का करता है और पीछे से वह यह कहता है कि अगर धनपति को मिटाना है तो धर्म को मिटाना जरूरी है, क्योंकि धर्म को बिना मिटाए धनपति को नहीं मिटाया जा सकता। वह यह भी कहता है कि अगर धनपति को समाप्त करना है तो अब तक की जो विचारधाराएं धनपति को खड़े होने का आधार बनती थीं, उनको भी गिरा देना होगा। माक्र्स की भी मान्यता थी कि सब दृष्टिकोण वर्गीय होते हैं। अगर धनपति धर्म की बात करता है तो सिर्फ इसीलिए करता है कि धर्म उसकी सुरक्षा बन जाएगा। यह धारणा आमूल भ्रांत है। धर्म का वर्ग से कोई संबंध नहीं है, न ही दर्शनों का। उत्पादन व्यवस्थाओं से बंधा है।
लेकिन माक्र्स की अतिस्थूल भौतिकवादी दृष्टि ऐसा ही देख सकती थी। इसलिए उसने पूंजीवाद को हटाने के लिए धर्म को हटाने का भी विचार दिया। उसकी दृष्टि मनुष्य के भीतर आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है--इस विचार के कारण ही तो स्टैलिन इतनी हत्याएं करने में सफल हुआ है, क्योंकि यदि आदमी केवल पदार्थ है, तोे गर्दन काटने में कोई भी नहीं कटता है। पदार्थ न मरता है, न कटता है। माओ भी सुविधा से हत्या कर सकता है, क्योंकि आदमी सिर्फ पदार्थ है, वहां पीछे कोई आत्मा नहीं है। साम्यवादी पहली बार दुनिया में निस्संकोच बिना अंतःकरण की किसी पीड़ा के हत्या करने में सफल हो सके। उसका कारण केवल यही है कि आदमी की आत्मा को इनकार ही कर दिया गया है और आदमी की आत्मा के विकास और आविष्कार की जो सम्भावनाएं है वे भी क्षीण करने का प्रयत्न निरंतर चलता रहा है। इस संबंध में भी दोे बातें समझ लेनी आवश्यक हैं।
पहली बात तो यह समझ लेनी आवश्यक है कि मनुष्य के भीतर जो आत्मा है उसको भी प्रकट होने के लिए सुविधाएं और परिस्थितियां चाहिए। एक बीच के भीतर पौधा छिपा हुआ है, लेकिन अभी बीच को तोड़ देंगे तो पौधा मिलेगा नहीं। पौधा छिपा है जरूर, लेकिन प्रकट होने के लिए व्यवस्था चाहिए, पानी चाहिए, खाद चाहिए, जमीन चाहिए, सूरज की किरणें चाहिए, कोई प्रेम करने वाला चाहिए जो उस बीज के भीरत से पौधे को प्रकट कर पाए। प्रत्येक आदमी के भीतर आत्मा बीज की तरह है। आदमी को काटने से मिलेगी नहीं, इसलिए प्रयोगशाला में आदमी की आत्मा कभी भी न पाई जा सकेगी। मैंने सुना है, माक्र्स ने कभी मजाक में कहा था कि मैं तुम्हारे ईश्वर को मान लूंगा अगर प्रयोगशाला की टेस्ट-ट्यूब में ईश्वर को पकड़ कर बताया जा सके और फिर उसने यह भी कहा, ध्यान रहे, भूल कर कहीं अपने ईश्वर को प्रयोगशाला की टेस्ट-ट्यूब में ले मत आना, क्योंकि जो ईश्वर टेस्ट-ट्यूब की पकड़ में आ जाएगा वह ईश्वर ही क्या रह जाएगा।
नहीं, ईश्वर को टेस्ट-ट्यूब में नहीं पकड़ा जा सकेगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह नहीं है। टेस्ट-ट्यूब बहुत छोटी चीज है और आदमी के शरीर को काट कर भी हम उसकी आत्मा को नहीं पकड़ पाएंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह नहीं है। अगर मेरे मस्तिष्क को अभी काट दिया जाए तो वहां कोई विचार जैसी चीज नहीं मिलेगी। लेकिन विचार है। अगर आपके हृदय को काटा जाए तो वहां प्रेम जैसी कोई चीज नहीं मिलेगी, लेकिन प्रेम है। प्रमाण क्या है? प्रयोगशाला में कहीं पकड़ में आता है?
आप सिद्ध नहीं कर सकते है कि प्रेम है, क्योंकि हृदय के खोजने से, तोड़ने-फोड़ने से कहीं उसका कोई पता नहीं चलता, लेकिन फिर भी आप जानते हैं कि वह है और आप कहेंगे कि दुनिया भर की प्रयोगशालाएं सिद्ध कर दें कि प्रेम नहीं है तो भी मैं मानने को राजी नहीं हूं, क्योंकि मैंनेे प्रेम को जाना है--अनुभव है, पदार्थ के पार है। लेकिन समाजवाद का बुनियादी आधार अनात्मवाद है और एक बार किसी समाज ने यह स्वीकार कर लिया कि आत्मा नहीं है तो वह बीज बोना बंद कर देगा, क्योंकि जब बीज--अंकुर है ही नहीं तो फिर बीज को बोने की जरूरत नहीं है।
मनुष्य-जाति के ऊपर सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह होगा कि यदि यह स्वीकृत हो जाएगा, कि आत्मा नहीं है तो आत्मा का प्रकट होना निरंतर धीरे-धीरे बंद हो जाएगा,बीज पड़े-पड़े सड़ जाएंगे, लेकिन उनसे अंकुर नहीं आएंगे। अगर लोगों ने यह मान लिया कि बीजों में वृक्ष होते ही नहीं तो कौन बीज को बोएगा, कौन बीज को पानी देगा, कौन बीज को बड़ा करेगा?
समाजवाद की सबसे खतरनाक धारणा उसका शरीरवाद है। और यह भी ध्यान रहे कि आत्मा को प्रकट होने के लिए जो सुविधाएं चाहिए वह समाजवाद छीन लेता हैः अभी जो समाजवाद आएगा वह निश्चित छीन होगा, क्योंकि अभी समाजवाद को लाने के लिए पहली आवश्यकता तो यह है कि आदमी की स्वतंत्रता छीन ली जाए। और आदमी की स्वतंत्रता का बहुत बड़ा हिस्सा उसकी आर्थिक स्वतंत्रता है। अर्जन की स्वतंत्रता, अर्जित के स्वामित्व की स्वतंत्रता आदमी की मूलभूत स्वतंत्रता है। मैं जो पैदा करूं वह मेरा हो सके, मैं जो निर्मित करूं वह मेरा हो सके।
मनुष्य की बुनियादी स्वतंत्रता है उसकी आर्थिक स्वतंत्रता। उसके हाथ से आर्थिक स्वतंत्रता के छीने बिना समाजवाद स्थापित नहीं हो सकता। हां, यदि पूंजीवाद ठीक से विकसित हो जाए तो किसी आदमी की स्वतंत्रता बिना छीने समाजवाद का जन्म हो सकता है। वह जन्म होगा पूंजी के अत्यधिक हो जाने पर, उसके पहलेे नहीं। इसलिए अभी दुनिया में कोई भी देश, अमरीका भी, अभी उस हालत में नहीं आ सका है जहां समाजवाद सहज जन्म ले ले। लेकिन अमरीका शायद पचास वर्षों में उस जगह आ जाए। अभी तो हमें बलपूर्वक समाजवाद आरोपित करना पड़ेगा। आरोपित समाजवाद में स्वतंत्रता का हनन होगा और जितनी स्वतंत्रता मरती है, उतनी ही भीतर आत्मा के फैलने की संभावना कम हो जाती है। आत्मा के लिए स्वतंत्रता का आकाश चाहिए और जब आर्थिक स्वतंत्रता छिनती है तो दूसरा हमला मनुष्य की वैचारिक स्वतंत्रता पर होता है, क्योंकि समाजवाद के पक्षधर यह कहते हैं कि अगर हम वैचारिक स्वतंत्रता दें तो हम समाजवादी व्यवस्था का निर्माण नहीं कर पाएंगे। इसलिए हम समाजवाद से विपरीत विचारधारा को स्वीकार नहीं करेंगे।
रूस में एक ही दल है और कैसे मजे की बात है कि एक ही दल चुनाव भी लड़ता है। इसी कारण स्टैलिन को दुनिया में जितने वोट मिलते थे, उतने किसी आदमी को कभी नहीं मिले। सौ प्रतिशत वोट स्टैलिन को मिलते थे और उसका प्रचार सारे विश्व में किया जाता था कि स्टैलिन को सौ प्रतिशत वोट मिल रहे हैं। कोई यह पूछेगा नहीं कि उसके विपरीत कौन खड़ा था। उसके विपरीत कोई खड़ा ही नहीं है। इस बात का अर्थ क्या है? इस बात का अर्थ यह है कि विचारों की कोई स्वतंत्रता नहीं है।
पिछले पचास वर्षों में रूस में अदभुत घटनाएं घटी हैं। वैज्ञानिकों को भी सरकार आज्ञा देती है कि किस भांति सोचो। उनको भी कहती है कि कौन सा सिद्धांत निकालो, उनको भी कहती है कौन सा सिद्धांत माक्र्स के अनुकूल नहीं हैं। तो रूस में पिछले तीस वर्षों में बायोलाजी में इस तरह के सिद्धांत भी चलते रहे जो सारी दुनिया में कहीं मान्य नहीं हैं। सारी दुनिया में प्रयोगकत्र्ता कह रहे थे कि यह गलत है, लेकिन स्टैलिन की आज्ञा के अनुसार वे सही थे। स्टैलिन के मरने पर वे गलत हो गए, उसके पहले वे गलत नहीं हो सके। रूस के वैज्ञानिक भी हां में हां भर रहे थे कि यही ठीक है, क्योंकि वैज्ञानिक को भी पार्टी-निर्देश पर जीना है।
उन्नीस सौ सत्रह के पहले रूस ने दुनिया के श्रेष्ठतम बुद्धिमान लोग पैदा किए। उनके नाम भी स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं। लेकिन उन्नीस सौ सत्रह के बाद उस हैसियत का एक आदमी भी रूस पैदा नहीं कर सका। लियो टाल्सटाय, मैक्सिम गोर्की, तुर्गनेव, गोगोल, दोेस्तोवस्की या चैखव आदि की हैसियत का एक आदमी भी रूस पचास वर्षों में पैदा नहीं कर पाया। बात क्या है? रूस ने लेखक पैदा किए, पुरस्कार दिए, विचारक पैदा किए, पुरस्कृत किए, लेकिन एक भी विचारक उस गरिमा का नहीं है जो रूस ने अपनी गरीबी के और अत्यंत परेशानी के दिनों में पैदा किए थे, जो उसने जारों की अत्यंत हीन व्यवस्था में पैदा किए। उतने विचारशील, उतने बुद्धिमान, उतने सृजनात्मक व्यक्तित्व भी रूस पैदा नहीं कर पाया। बात क्या है? वह पैदा होने की जो मूलभूत संभावना है आत्मा के जन्म और विचार की स्वतंत्रता; वही छीन ली गई है। तुर्गनेव कैसे पैदा हो? दोेस्तोवस्की कैसे पैदा हो?
लेनिन भी वापस रूस में पैदा नहीं हो सकता। लेनिन को भी पैदा होने के लिए अमरीका या इंग्लैंड खोजना पड़ेगा। लेनिन भी रूस में पैदा नहीं हो सकता। सच तो यह है कि जो जानते हैं, वे कहते हैं कि लेनिन को भी जहर देकर ही मारा गया। जिस आदमी ने क्रांति की थी, जिस आदमी ने रूस को समाजवादी बनाना चाहा था, वह भी मारा ही गया। दूसरा आदमी था ट्राटस्की, जिसने क्रांति में दूसरा बड़ा हिस्सा लिया था, वह भागता फिरा था। उसका कुत्ता छूट गया था। रूस में तो कम्युनिस्टों ने उसके कुत्ते की भी हत्या कर दी और फिर मैक्सिको में जाकर उसकी भी हत्ता कर दी। मनुष्य-जाति के इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर हत्या का खेल कहीं भी नहीं हुआ। सरल था, क्योंकि आत्मा है ही नहीं, सिर्फ पदार्थ है। तो गुड्डे गुड्डियों को मारने और काटने में क्या अंतर पड़ता है? और फिर यह भी जरूरी है कि जिनके भीतर आत्मा ही नहीं, उन मनुष्यों की स्वतंत्रता की भी क्या जरूरत है? समाजवाद अगर ठीक से सफल हो, जैसा समाजवाद आज है, तो वह प्रत्येक आदमी को मशीन में बदल लेने को तैयार है।
मैंने पीछे एक बात कही है; उसे पुनः इस संदर्भ में दोेहराना चाहूंगा कि मनुष्य की गुलामी पूरी तरह से तभी समाप्त होगी, जब मनुष्य के श्रम का स्थान हम पूरी तरह यंत्र से बदल डालेंगे। जिस दिन मनुष्य को श्रम करने की आवश्यकता ही न रह जाएगी और सारे स्वचालित यंत्र उसकी जगह काम करने लगेंगे, उस दिन ही श्रमिक सब तरह की दीनता से मुक्त हो सकेगा। एक मार्ग तो यह है जो कि पूंजीवाद के विकास से संभव हो सकता है। दूसरा मार्ग यह है कि यदि हम शीघ्रता करें और आज ही समाजवाद लाना हो तो हम आदमी को ही मशीन बना सकते हैं जो कि रूस और चीन में किया जा रहा है।
वह दूसरा विकल्प है कि आदमी को मशीन में बदल दोे। उसे सोचने की क्या जरूरत है, और जिनकी समझ यह है कि आदमी सिर्फ शरीर ही है उनका कहना भी फिर ठीक है, तर्कयुक्त है। उचित भोजन मिलना चाहिए, अच्छे कपड़े मिलने चाहिए, सुविधाजनक निवास मिलना चाहिए। लेकिन ठीक आत्मा भी मिलनी चाहिए, यह भी किसी समाजवादी नारे में सुना है? रोटी मिलनी चाहिए, कपड़ा मिलना चाहिए, मकान मिलना चाहिए, आत्मा भी मिलनी चाहिए। यह भी कोई समाजवादी नारा है? नहीं; आदमी को रोटी मिल जाए, कपड़े मिल जायंे, मकान मिल जाए--बात समाप्त हो गई। इससे ज्यादा आदमी को जरूरत क्या है? बल्कि जो लोग इस संबंध में सोचते हैं वे तो कहते हैं, सोच-विचार से आदमी को परेशानी होती है। अच्छा है कि सोच-विचार छीन लिया जाए तो आदमी बिलकुल निशिं्चत पशु की भांति जी सके। खाने-पीने को खूब हो, मकान हो, कपड़े हों, रहें, काम करें, सुख से जीएं।
सोचने की क्या जरूरत है? सोचने से चिंता पैदा होती है, सोचने से परेशानी पैदा होती है, सोचने से बगावत पैदा होती है, सोचने से आदमी के भीतर हजार तरह की बातें उठती हैं। सुख में बाधा पड़ती है, सोचना छोड़ दोे। समाजवादी कहेगा कि सुख से रहो, सोचने की क्या जरूरत है और इंतजाम करेगा कि सोचने की कोई आवश्यकता न रह जाए। व्यवस्था उसने की भी है। सबसे बड़ी व्यवस्था तो यह कि है कि, प्रत्एक बच्चे के मन में इसके पहले कि बुद्धि पैदा हो, समाजवाद की गलत-सही धारणाओं को ठूंस कर डाल दोे, ताकि जब उसमें विचार पैदा हो तब तक उसकी आत्मा जंजीरों में कस गई हो।
रूस में जाकर छोटे से बच्चे से पूछो, ईश्वर है? वह कहेगा नहीं है। मेरे एक मित्र उन्नीस सौ छत्तीस में रूस गए और उन्होंने एक स्कूल में जाकर पूछा कि ईश्वर है? तो उस स्कूल के बच्चों ने कहा, आप इतनी उमर के होकर भी ऐसा नासमझी का सवाल पूछतेे हैं। ईश्वर हुआ करता था, अब नहीं है। छोटे बच्चों को सिखाया जा रहा है कि कोई आत्मा नहीं, कोई ईश्वर नहीं, कोई धर्म नहीं, कोई जीवन का बड़ा मूल्य नहीं। जीवन का एक ही मूल्य है कि किसी तरह आदमी को ठीक छप्पर, ठीक मकान, ठीक भोेजन, ठीक कपड़ा मिल जाए।
रूस में एक अदभुत तरह की अव्यवस्था पैदा हो गई है। रूस में दोे वर्ण हैं। एक सत्ताधिकारियों या व्यवस्थापकों का और एक मैनेज्ड या व्यवस्थापितों का। रूस में वर्ग मिटे नहीं, सिर्फ नकाब बदल गई है। रूस में कुछ लोग हैं जो व्यवस्था कर रहे हैं और कुछ लोग हैं जो व्यवस्थित किए जा रहे हैं और दोे वर्ग स्पष्ट बंट गए हैं। और वर्ग ही नहीं हैं। मैं कहता हूं, वह वर्ण है। वर्ग और वर्ण में थोड़ा सा फर्क होता है। वर्ग तरल होता है, एक वर्ग से दूसरे वर्ग में जाना आसान होता है। वर्ण निश्चित होता है, ठोस होता है। लचीला या तरल नहीं होता। जैसे कि शूद्र वर्ण है, वर्ग नहीं। क्योंकि शूद्र कुछ भी कोशिश करे तो ब्राह्मण नहीं हो सकता। कुछ भी उपाय करे तो ब्राह्मण में प्रवेश नहीं कर सकता। ब्राह्मण वर्ण है, वर्ग नहीं। उसका घेरा निश्चित है, बंधा है।
रूस में एक नई वर्ण-व्यवस्था पैदा हो रही है, जैसे हिंदुस्तान में कभी पैदा हुई थी। वह वर्ण-व्यवस्था व्यवस्थापक और व्यवस्थापित की है। उसको तोड़ने का कोई उपाय नहीं है। समस्या बहुत जटिल है और वह जो व्यवस्थापक है, वह क्यों नीचे वालों को प्रवेश करने दे? उसके अपने हित हैं, अपने न्यस्त स्वार्थ हैं।
इस भूल में मत पड़िए कि रूस में स्टैलिन को भी वही अधिकार थे जो रूस के एक गरीब मजदूर को हैं। इस भूल में भी मत पड़िए कि रूस में समानता है या चीन में समानता है या माओ और माओ के चपरासी में कोई समान अधिकारों की बात है। आज समान हुआ ही नहीं जा सकता है, जब तक संपत्ति अतिरिक्त नहीं हो जाती। जब तक संपत्ति इतनी नहीं हो जाती कि संपति का स्वामित्व खोखला मालूम पड़े, तब तक दुनिया में सिर्फ वर्ग बदलेगे, वर्ग मिटेंगे नहीं। वर्गविहीन समाज कभी पैदा होगा तो वही समाज होगा, जिसमें संपत्ति व्यर्थ हो गई होगी। संपत्ति जब तक सार्थक है, तब तक वर्गविहीन समाज पैदा नहीं हो सकता। जिनके हाथ में संपत्ति आएगी, ताकत आएगी, वे नया वर्ग बना लेंगे।
तब मेरी अपनी दृष्टि यह है कि बजाय वर्ण का वर्ग बेहतर है; क्योंकि वर्ण सुस्थिर हो जाता है, कठोर हो जाता है। गतिमयता खो जाती है। कम से कम वर्ग में गतिमयता रहती है। एक गरीब अमीर हो सकता है, एक अमीर गरीब हो सकता है। गरीब और अमीर वर्ग हैं, वर्ण नहीं। लेकिन रूस में जो व्यवस्था है, वह वर्णों को जन्म दे रही है और स्थापित होती चली जा रही है। स्थापित हितों और व्यवस्थापित लोगों के बीच इतनी बड़ी दरार है कि जिसको पार करना असंभव होता जा रहा है। लेकिन समाजवाद की बुनियादी धारणा पर भी थोड़ा सोच लेना जरूरी है।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप समाजवाद की इस धारणा को नहीं मानते कि सबको समान होने का हक है?

इस पर थोड़ा विचार करना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि सारे लोग समान नहीं हैं और सारे लोग समान नहीं हो सकते। समान होने के हक की बात नहीं है। सारे लोग समान हैं नहीं। यह तथ्य है। और सारे लोग समान हो भी नहीं सकते। फिर भी मैं कहता हूं, सारे लोगों को समान अवसर होना चाहिए विकास का। इसका क्या मतलब होगा? इसका मतलब होगा कि प्रत्येक व्यक्ति को असमान होने की समान सुविधा होनी चाहिए। हर आदमी जो होना चाहता है, उसे होने का समान हक होना चाहिए; लेकिन एक हक पूंजी पैदा करने का हक भी है, एक हक ज्ञान अर्जित करने का हक भी है। सारी दुनिया के लोग आइंस्टीन नहीं हो सकते, न सारी दुनिया के लोग बुद्ध या महावीर हो सकते हैं। कोई एक व्यक्ति जन्मजात आइंस्टीन होने की क्षमता लेकर पैदा होता है।
लेकिन धन के संबंध में हमने कभी यह नहीं सोचा कि धन पैदा करने की क्षमता भी उतनी ही जन्मजात है, जितनी कि कविता पैदा करने की, जितनी गणित की, जितनी दर्शन की, जितनी धर्म की। धन पैदा करने की क्षमता जन्मजात है। कोई फोर्ड पैदा नहीं किया जाता, पैदा होता है। कुछ लोग धन पैदा करने की प्रतिभा लेकर पैदा होते हैं और कुछ लोग धन पैदा करने की प्रतिभा लेकर पैदा नहीं होते। यह तथ्य है। और अगर उन लोगों को जो धन पैदा करने की प्रतिभा लेकर पैदा होते हैं, धन पैदा करने से रोका जाए, तो दुनिया दीन बनेगी, दरिद्र बनेगी, समृद्ध नहीं बन सकती।
यह ऐसा ही है जैसे कल हम कहने लगें कि सारे लोगों को समान कविता करनी पड़ेगी, कोई जरूरत नहीं कि कालिदास और शेक्सपीयर ऊपर चढ़ कर बैठ जाएं। यह बरदाश्त के बाहर है। हम वर्ग-विहीन कविता का समाज बनाएंगे, हर आदमी को एक-सी कविता करनी पड़ेगी। तुकबंदी हो सकती है, शेक्सपीयर और कालिदास पैदा नहीं होंगे। फिर कविता हम सब कर सकते हैं, शब्द जोड़ सकते हैं, तुकबंदी कर सकते हैं; लेकिन कालिदास और शेक्सपीयर तुकबंद नहीं हैं। बात कुछ और है। रंग तो हम भी फेंक सकते हैं किसी पोस्टर पर, रंग हम भी पोत सकते हैं किसी कैनवस पर, लेकिन पिकासो या वानगाग जन्मजात पैदा होते हैं।
सोशलिज्म मनुष्य-जाति की जन्मजात भिन्नता को स्वीकार नहीं करता, यह बड़ी खतरनाक बात है। एक-एक व्यक्ति अपनी तरह का पैदा होता है, दूसरी तरह का नहीं। सच तो यह है कि हर आदमी अनूठा, अद्वितीय, यूनिक, बेजोड़ है; जिससे किसी दूसरे का कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इस दुनिया में सब आदमी एक जैसे पैदा भी नहीं होते। कभी पैैदा नहीं हुए, इसीलिए तो प्रत्एक आदमी के पास आत्मा है।
आत्मा का मतलब है भिन्न होने की क्षमता।
श्मशानों में समानता हो सकती है, फिएट कारे एक लाख बिलकुल एक जैसी हो सकती हैं; लेकिन दोे आदमी एक जैसे नहीं हो सकते। फिएट कार के पास आत्मा नहीं है, सिर्फ यंत्र है। यंत्र समान हो सकते हैं और अगर आदमियों को समान करने की जबरदस्ती कोशिश की गई तो आदमी यंत्र के तल पर ही समान हो सकता है। उससे ऊपर के तल पर समान नहीं हो सकता। या तो आदमी को यंत्र बनाओ, वह समान हो जाएगा। आदमी जितना ऊपर चढ़ेगा, असमान हो जाएगा। जितना नीचे उतरेगा, उतना समान हो जाएगा। नींद के मामले में हम करीब-करीब समान हैं। भूख के मामले में हम करीब-करीब समान हैं। छाया और धूप के मामले में हम करीब-करीब समान हैं। सबको मकान चाहिए, खाना चाहिए, भोजन चाहिए, स्त्री चाहिए। इन मामलों में हम पशुओं से भी समान हैं।
लेकिन जैसे ही हम ऊपर उठते हैं, एक बुद्ध, एक महावीर, एक कालिदास, एक पिकासो, एक आइंस्टीन, एक बट्र्रेंड रसल--असमानता शुरू हो जाती है। जितने ऊपर जाती है आत्मा, उतनी असमान होने लगती है। जितने ऊपर जाती है, उतनी सिर्फ अकेली रह जाती है। फिर महावीर या बुद्ध जैसा आदमी अकेला रह जाता है जो करोड़-करोड़ वर्षों तक दूसरा आदमी उस जैसा नहीं होगा, लेकिन हम सबको भीड़ की ईष्र्या कह सकती है कि अब हम नहीं होने देंगे।
हम सबको समान रखेंगे--अगर एक भी समानता का यह पागलपन पैदा हो जाए जो कि सारी दुनिया में पैदा हो रहा है, तो हम मनुष्य की ऊंचाइयों को नष्ट कर देंगे और सबको लेवलिंग कर देंगे जमीन पर--सबके पास मकान, सबके पास कपड़े, सबके पास औरतें, सब काम करें--खाना खाएं, सो जाएं, सिनेमा देखें, मनोरंजन करें। इस तल पर जीवन समान हो सकता है, लेकिन समान अवसर प्रत्येक को मिलना चाहिए।
समाजवाद समान अवसर पर पहला हमला बोल देता है। वह संपत्ति पैदा करने वाले को काट देता है, छांट देता है। फिर इसके बाद वह जो विचार में असमान हैं, उनको छांटने की कोशिश में लग जाता है। वह कहता है कि हम समान करके रहेंगे, तो हम असमान विचार भी नहीं पैदा होने देंगे। अब आश्चर्य है कि रूस के पचास साल के इतिहास में कोई बड़ा विवाद नहीं हुआ--पचास साल! जब कि सच बात यह है कि मनुष्य की जिंदगी में एक भी विचार ऐसा नहीं है जिस पर विवाद न हो सके। सब विचार अपनी-अपनी जगह से देखे जाते हैं, और दूसरा आदमी जरूरी नहीं है कि राजी हो। श्रेष्ठतम विचारों का विरोध भी निश्चित है। जितनी बुद्धिमत्ता बढ़ती है, उतना विरोध भी बढ़ता है। लेकिन पचास साल में कोई बड़ा विवाद--रूस के वर्णों को मथ डाले--ऐसा कोई विचार, कोई आंदोेलन, कोई विरोध, कोई बगावत, कोई विद्रोह--कोई भी नहीं। क्योंकि वे कहते हैं, हम समाजवादी व्यवस्था बनाने में लगे हैं। अभी हम विरोध नहीं कर सकते, अभी हम विद्रोह नहीं सह सकते। अभी स्वतंत्र चिंतन की सुविधा नहीं है हमारे पास। वी कैन नाॅट अफर्ड। अभी हम सब स्वतंत्र चिंतन बंद रखेंगे, फिर जब सब ठीक हो जाएगा, तब हम छोड़ेंगे स्वतंत्र चिंतन को।
लेकिन ध्यान रहे, अगर पचास साल तक लोगों के पैर बांध दिए जाएं और पचास साल बाद उनसे कहा जाए कि ठीक है तुम मुक्त हो, दौैड़ो, चढ़ोे पहाड़; लेकिन पहाड़ तो बहुत दूर है। घर के सामने वह निकल कर चल पाए, यह भी असंभव है। चिंतन भी रुक जाए तो बंद होना शुरू हो जाता है। चिंतन को सुविधा न हो, बगावत को, तो मरना शुरू हो जाता है।
जिन मित्र ने पूछा है कि आत्मा को पाने का इससे क्या संबंध है, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि मनुष्य की आत्मा पर सबसे बड़ा खतरा है और वह यह है कि सारी दुनिया में धीरे-धीरे राजनीतिज्ञ सारे अधिकार राज्य के हाथ में केंद्रित कर लेना चाहता है। मनुष्य की आत्मा ही अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहता है औैर इसके खिलाफ आवाज, इसके खिलाफ विचार जरूरी है; लेकिन जब समाजवाद स्वतंत्रता पर हमला करता है, तब बड़ी तरकीब से करता है। उसकी तरकीब है कि हम समानता लाना चाहते हैं, इसलिए स्वतंत्रता पर हमला करना जरूरी है; क्योंकि स्वतंत्रता रहेगी तो हम समानता कैसे लाएंगे!
समाजवाद फ्रीडम की बात नहीं, इक्वलिटी की बात करता है। वह कहता है, समानता पहली चीज है। जब तक समानता नहीं है, तब तक स्वतंत्रता नहीं होगी। पहले समानता चाहिए, समानता के लिए स्वतंत्रता की हत्या करनी पड़ेगी। यह चुनाव हमें ठीक से समझ लेना चाहिए कि पहला मूल्य किसका है? समानता का या स्वतंत्रता का? प्रिफरेंस किसको देना है? पूरी मनुष्य-जाति को यह निर्णय जल्दी ही लेना पड़ेगा। क्या हम समानता को ज्यादा मूल्य देते हैं या स्वतंत्रता को? ध्यान रहे, अगर स्वतंत्रता रहे तो समानता की आगे भी संभावना है, लेकिन समानता के लिए अगर स्वतंत्रता खो दी जाए, तो आगे स्वतंत्रता की कोई संभावना नहीं रह जाती, क्योंकि स्वतंत्रता एक बार खोकर वापस लाना बहुत कठिन है और समानता की जो बात है, वह बहुत अवैज्ञानिक है, अमनोवैज्ञानिक है, एंटी-साइकोलाॅजिकल है।
आदमी समान नहीं है और इसलिए आदमी पर जबरदस्ती अगर हम समानता का आरोपण करेंगे तोे वह आदमी को मारेगी, मिटाएगी, नष्ट करेगी। आदमी को असमान होने की, भिन्न होने की, विभिन्न होने की, विपरीत होने की, विद्रोह करने की, इनकार करने की सारी सुविधा होनी चाहिए, तभी मनुष्य की आत्मा उस स्वतंत्रता से फलती है, फूलती है, विकसित होती है। समाजवाद अभी मनुष्य की आत्मा के विरोध में सबसे बड़ी आवाज है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि समाजवाद गरीबों का कल्याण करना चाहता है। क्या आप गरीबों के कल्याण का विरोध करते हैं?

मैं और गरीबी के कल्याण का विरोधी भला कैसे हो सकता हूं? कोई भी क्यों होगा? लेकिन यह ध्यान रहे कि गरीबों का कल्याण करने की आवाज हजारों सालों से चलती है और न मालूम कितने गरीबों के कल्याण करने वाले पैदा हो गए; लेकिन कल्याण गरीबों का नहीं होता, सिर्फ गरीबों के कल्याण की आवाज पर वह जो कल्याण करने वाले हैं, अपना कल्याण कर लेते हैं। और गरीब अपनी जगह पड़ा रह जाता है। उस गरीब के कल्याण से उसका कोई संबंध नहीं होता। लेकिन गरीब साथ जरूर दे देता है। साथ दे देता है, यह आवाज सुन कर कि हमारे कल्याण के लिए यह सब हो रहा है, कुर्बान भी कर देता है, गोली भी खा लेता है, मर भी जाता है। समाजवाद के लिए जो शहीद होते हैं, वे और हैं समाजवाद की ताकत जिनके हाथ में आती है, वे और हैं। समाजवाद के लिए जो मरेगा, वह गरीब होगा। समाजवाद की जिसके हाथ में ताकत आएगी, वह गरीब नहीं है। वह फिर अमीरों का नया वर्ग होगा। असल में ताकत जिसके हाथ में आ जाएगी, वह तत्काल अमीर हो जाएगा।
आदमी आदमी में फर्क क्या है? आज जो गरीब की तरफदारी कर रहा है, जैसे ही वह कल शक्ति में पहुंचता है, उसके अपने न्यस्त स्वार्थ हो जाते हैं। अब उसे शक्ति में रहना जरूरी हो जाता है, तो वह जिनके ऊपर सीढ़ी बना कर आया था, उन सीढ़ियों को काटना शुरू कर देता है, क्योंकि उन्हीं सीढ़ियों से कल दूसरा भी कोई ऊपर आ सकता है। गरीब का कल्याण कभी भी नहीं हुआ। हां गरीब के कल्याण पर आंदोेलन बहुत हुए, क्रांतियां बहुत हुई, हत्याएं बहुत हुई। और गरीब का कल्याण नहीं हुआ। अभी गरीब के कल्याण से थोड़ा चैंकने की जरूरत है।
अब जब भी कोई आदमी कहे कि मैं गरीब का कल्याण चाहता हूं, तब जरा सम्हल जाने की जरूरत है कि कोई खतरनाक आदमी आया है। अब यह फिर गरीब की छाती पर पैर रखेगा और गरीब नासमझ है, नासमझ न होता तो गरीब न होता। नासमझ होने की वजह से गरीब है। इसलिए वह फिर नया मसीहा उसे मिल जाता है। नये पैगंबर मिल जाते हैं। नये नेता मिल जाते हैं। ए फिर उसकी छाती पर चढ़ जाते हैं। हिटलर भी गरीबों का कल्याण करके छाती पर चढ़ता है, मुसोलिनी भी गरीबों का कल्याण करने के लिए छाती पर चढ़ता है--माओ भी, स्टैलिन भी। सारी दुनिया में सब गरीबों का कल्याण करना चाहते हैं और गरीब का कोई कल्याण होता दिखाई नहीं पड़ता। नहीं, गरीब का कल्याण इन कल्याण करने वालों से नहीं होगा।
गरीब का कल्याण न होने का कारण क्या है? कारण सिर्फ एक है कि संपत्ति कम है और लोग ज्यादा हैं। गरीब का कल्याण ऐसे नहीं हो सकता। किसी को भी बिठा दोे सत्ता में। उसके बैठ जाने से कुछ भी नहीं होने वाला है। सवाल असली यह है कि संपत्ति कम है और लोग ज्यादा हैं। संपत्ति ज्यादा होनी चाहिए। संपत्ति लोगों से ज्यादा होनी चाहिए। उनकी जरूरत से ज्यादा होनी चाहिए। यह संपत्ति कैसे पैदा हो, यह सवाल है। लेकिन जो संपत्ति पैदा कर सकते हैं, गरीब उनके खिलाफ खड़ा हो जाता है। जो गरीब के लिए हितकर हो सकते हैं; गरीब उनके खिलाफ खड़ा हो जाता है। आदमी की यह आदत बहुत पुरानी है।
यह बहुत आश्चर्य है। गैलीलियो को फांसी पर लटका दिया और आज गैलीलियो की खोज से सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है। जीसस को हमने सूली पर लटका दिया, लेकिन जीसस की खोज सारी दुनिया को मनुष्य बनाने का कारण बन रही है। सुकरात को हमने जहर पिला दिया, लेकिन सुकरात ने जो कहा, वह अनंतकाल तक मनुष्य की आत्मा के विकास के लिए अनिवार्य रास्ता है।
आदमी बहुत अजीब है। वह अपने कल्याण करने वालों को कभी नहीं पहचान पाता है कि कौन उसका कल्याण कर रहा है। असल में जो जितना शोरगुल मचाता है कल्याण करने का, वह उतना ही आगे दिखाई देने लगता है और जो कल्याण कर रहे हैं वे चुपचाप काम में लगे रहते हैं। उनका शोरगुल कुछ पता भी नहीं चलता कि कौन कल्याण कर रहा है। और हम तो प्रचार से प्रभावित होते हैं।
मैं आप से कहना चाहता हूं कि जिन लोगों ने कल्याण किया, वे लोग कुछ और हैं। कोई वैज्ञानिक जो अपनी लेबोरेटरी में बैठ कर खोज कर रहा है, वह कल्याण कर सकता है, लेकिन एक राजनीतिज्ञ नहीं--जो दिल्ली में बैठा है और तिकड़मबाजियां भिड़ा रहा है कि किसकी टांग खींचें, किसकी कुर्सी उलटाएं? इससे हित होने वाला नहीं है। एक लेबोरेटरी में अनजान आदमी जिसका गरीब कभी नाम भी नहीं जानेगा कि उसका बच्चा...किस पैनेसिलिन की खोज से बच रहा है? कौन उसकी टी.बी. के लिए इंतजाम कर रहा है? कौन उसकी कैंसर के लिए फिकर कर रहा है, कौन उसकी उम्र बढ़ा रहा है? उसका उसे पता भी नहीं चलेगा। कौन उसके घर बिजली को रोशनी जला रहा है? उसे पता भी नहीं चलेगा। लेकिन राजनीतिज्ञ ऐसा है जो कुछ भी नहीं कर रहा है, केवल झंडा पकड़ना जानता है और जोर से चिल्लाना जानता है। असल में कुछ लोगों को जोर से चिल्लाने में बहुत मजा आता है।
मैंने सुना है, एक सड़क के किनारे एक लड़का जोर से चिल्ला रहा है। अखबार बेच रहा है। एक आदमी ने उससे पूछा कि क्या बचा लेते हो? एक-एक आने में अखबार बेच रहे हो, तुम्हें क्या बच जाता है? उसने कहा, बचता कुछ भी नहीं। एक-एक आने में वह जो सड़क पर दूसरी तरफ लड़का अखबार बेच रहा है, उससे खरीदता हूं और एक-एक आने में बेच देता हूं। उस आदमी ने कहा, तुम बड़े पागल हो। लड़के ने का, पागल नहीं हूं। फिर उसने पूछा, तुम्हें मिलता क्या है? लड़के ने कहा, मुझे जोर से चिल्लाने का मजा मिलता है। उस आदमी ने कहा कि तुम बड़े होकर राजनीतिज्ञ हो सकते हो।
मनुष्य का कल्याण करने वाले कौन लोग हैं? वे चुपचाप अपने काम में संलग्न हैं। उनकी खोजें जिंदगी के अंधेरे कोनों में काम कर रही हैं। वे मर जाएंगे, आपके लिए। आपको पता भी नहीं चलेगा कि कौन वैज्ञानिक आपके लिए जहर चख कर मर गया, इसलिए कि वह जहर किसी की जिंदगी न ले ले। आपको पता न चलेगा कि कौन वैज्ञानिक बीमारियों के कीटाणु की परीक्षा करते-करते बीमार होकर मर गया कि वह कीटाणु किसी दूसरे को बीमार न कर सकें। आपको पता न चलेगा कि कौन वैज्ञानिक आटोमेटिक यंत्र खोज रहा है, जिससे किसी आदमी को श्रम करने की जरूरत न रह जाए। लेकिन राजनीतिज्ञ चिल्लाता रहेगा कि हम कल्याण करने वाले हैं, हम कल्याण कर रहे हैं। राजनीतिज्ञ से कल्याण नहीं होता, क्रांतियों से कल्याण नहीं हुआ। बड़े मजे की बात है कि क्रांतियों से कोई कल्याण नहीं हुआ, बलकि क्रांतियों ने कई अर्थों में हजार तरह की हानियां पहुंचाई हैं। मनुष्य के विकास में व्यवधान पैदा किए, बाधाएं खड़ी कीं। जो सहज गति से जीवन की धारा जाती थी, उसे बहुत जगह से तोड़ा और रोका।
अब ऐसी क्रांति की जरूरत है जो बाकी की क्रांतियों को भुला दे। अब एक ऐसी क्रांति की जरूरत है, जो कल्याण करनेवालों से कहे कि आप क्षमा करें। बहुत कल्याण हो चुका। पंाच हजार साल से जो हमारा कल्याण करते हैं, अभी तक नहीं कर पाए, अब आप चुप हो जाएं। अब आपकी कोई जरूरत नहीं है।
गरीब के कल्याण का मतलब है, संपत्ति का उत्पादन और गरीब के कल्याण का मतलब है, ऐसे यंत्रों का उत्पादन जो संपत्ति को हजार गुना रूप से पैदा करने लगे। गरीब के कल्याण का मतलब है, पृथ्वी को वर्ग-विद्वेष से विहीन करने का उपाय, वर्ग-विद्वेष नहीं। लेकिन सारे समाजवादी वर्ग-विद्वेष पर जीते हैं। उनका सारा जीना क्लास-कांफ्लिक्ट पर है। गरीब को अमीर के खिलाफ भड़काओ, कारखाना कम चले, कारखाने बंद हों, हड़ताल हो, बाजार बंद हों, मोर्चे हों--इनमें लगे रहें। गरीब को पता नहीं कि जितने मोर्चे होते हैं, जितनी हड़तालें होती हैं, जितना कारखाना बंद होता है--गरीब अपने हाथों से गरीब होने का उपाय कर रहा है; क्योंकि ऐसे देश की संपत्ति कम होगी।
कौन कर रहा है कल्याण? अगर कल्याण करना है तो जोर से लग जाओ संपत्ति पैदा करने में। जोर से कर्म में लगो, जोर से उत्पादन करो। वर्ग-विद्वेष की आग लगाकर उत्पादन की व्यवस्था को मत रोको; बल्कि वर्गों को निकट लाओ। लेकिन नेता वर्गों को निकट लाए तो नेता को कौन पूछे? नेता तभी पूछा जाता है जब वह किसी को लड़ाता है। बिना लड़ाए नेता का कोई अस्तित्व नहीं। इसलिए दुनिया में जब तक नेता रहेंगे, तब तक लड़ाई रहेगी। नेता को विदा करिए, लड़ाई विदा हो जाएगी। नेता लड़ाई निर्माण करता है। वे नेता का भोजन है--उसका आधार, उसका प्राण, उसकी आत्मा, उसका परमात्मा है।
हिटलर ने लिखा है अपनी आत्म-कथा में कि अगर बड़ा नेता होना हो तो बड़ी लड़ाई की जरूरत है और अगर असली लड़ाई न चल रही हो तो कोल्ड-वाॅर--ठंडी लड़ाई चलाते रहो; लेकिन लड़ाई जारी रखो और लोगों को भयभीत रखो। क्योंकि भयभीत हालत में लोग नेता को पकड़ते हैं। जब लोग निशिं्चत हो जाते हैं, तब कहते हैं--हम निशिं्चत हैं, नेता की क्या जरूरत? नहीं, लड़ाई जारी रखो तो वे कहेंगे, कोई अगुवा चाहिए, कोई नेता चाहिए। लड़ाई जारी रखो तो वे कहेंगे, कोई आगे चाहिए--बुद्धिमान, समझदार, जो लड़ सके। हम गरीब हैं, हम कैसे लड़ सकेंगे? इधर हिंदुस्तान में आजादी के बाद के बीस-बाईस वर्षों में वर्ग-विद्वेष की आग पैदा करके हिंदुस्तान के औद्योगीकरण में इस भांति पीठ में छुरा भोंका गया है; लेकिन यह गरीब को कभी पता न चलेगा कि उसने अपनी ही पीठ में छुरा भोंका है।

एक मित्र ने पूछा है कि आप यह जो बातें कर रहे हैं, ये पूंजीपतियों के बड़े पक्ष में हैं। आप उनके खिलाफ कुछ न कहेंगे?

जरूर उनके खिलाफ बहुत कुछ कहूंगा। कहना ही पड़ेगा। क्योंकि पूंजीपति भी वर्ग-विद्वेष को पैदा करने में आधारभूत बनता है। असल में जो आदमी धन कमा लेता है, वह तत्काल अपने को अलग दुनिया का हिस्सा समझने लगता है जो कि गलत बात है। धन कमाने से कोई आदमी बड़ा नहीं हो जाता है। धन कमाने से कोई आदमी किसी ऊंचे पहाड़ पर नहीं चढ़ जाता है। अगर एक आदमी चित्र बना लेता है तो वह पहाड़ पर नहीं चढ़ जाता है। एक आदमी मूर्ति बना लेता है तो पहाड़ पर नहीं चढ़ जाता है। लेकिन आदमी धन कमा लेता है तो अहंकार के पहाड़ पर चढ़ जाता है। जब तक अमीर धनपति धन के माध्यम से अपने अहंकार की तृप्ति करेगा, तब तक अनिवार्य रूप से वह गरीब को ईष्र्या से जन्म देगा।
मैंने कल कहा कि गरीब की ईष्र्या को भड़काया जा रहा है। लेकिन गरीब में इतनी ईष्र्या क्यों है? गरीब में इतनी ईष्र्या का पचास प्रतिशत कारण गरीबी है। पचास प्रतिशत कारण पड़ोस में खड़े अमीर का अहंकार है। अमीर को अहंकार छोड़ना पड़ेगा। धन कमाना उसका आनंद है; लेकिन धन कमा कर वह किसी अहंकार को अर्जित करके किसी पहाड़ पर खड़ा हो जाए तो फिर आस-पास के लोग भी उसे पहाड़ से नीचे उतारने की कोशिश करेंगे। असल में धन कमा लेना अहंकार की तृप्ति का मार्ग या माध्यम नहीं बनना चाहिए। बल्कि सच तो यह है कि जितना धन हो, उतना आदमी को निर-अहंकारी हो जाना चाहिए--कि उसने धन की बहुलता को देख लिया और यह भी पा लिया कि बहुत धन मिलने से भी क्या मिल जाता है!
आखिर महावीर और बुद्ध अमीरों के बेटे थे; लेकिन लात मारकर वह अमीरी के बाहर चले गए। क्या कारण था? बुद्ध जब दूसरे गांव में ठहरे तो उस गांव का सम्राट आया और उसने कहाः मैं तुम्हें समझाने आया हूं। तुम पागल हो गए हो। तुम यह धन, यह इज्जत और यह प्रतिष्ठा और यह राजमहल छोड़ कर क्यों भागे? मैं तुमसे अपनी लड़की का विवाह कर देता हूं। लौट आओ! मेरे राज्य को सम्हालो! बुद्ध ने कहाः जो राज्य मैं छोड़ कर आया वह बड़ा था। अब मुझे प्रलोधन मत दोे। सम्राट ने कहाः लेकिन छोड़ कर क्यों आए? बुद्ध ने कहा कि मैंने देखा, सब था, लेकिन फिर भी भीतर कोई कमी थी जो धन से पूरी नहीं हुई।
मेरी अपनी समझ है कि निर्धन का अहंकार छूटना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उसे पता नहीं कि धन के मिलने पर कुछ नहीं मिलता। लेकिन धनी का अहंकार छूट जाना चाहिए। ठीक अर्थों में वही आदमी धनी है जिसे यह भी दिखाई पड़ गया है कि धन मिल गया, मकान मिल गया। बड़ी फैक्टरी है, बड़ी कार है--सब है, लेकिन भीतर फिर भी कोई जगह खाली रह गई है। उस खाली जगह को जो धन से भर लें तो अहंकार पैदा होता है। उस खाली जगह को जो धन की पृष्ठभूमि में से देख लें तो निर-अहंकार पैदा होता है। धनी को अहंकार छोड़ना पड़े तो गरीब को ईष्र्या छोड़ने में बड़ी सुविधा हो जाए, लेकिन धनी अपने अहंकार में अकड़े तो गरीब के पास सिवाय ईष्र्या के क्या बचता है? और तब नेता को सुविधा मिल जाती है कि गरीब की ईष्र्या को भड़काए और गरीब की ईष्र्या को भड़काता है तो धनी और अकड़ता है। वह अपने बचाव में लगता है, वह अपने अहंकार की और सुरक्षाएं चाहता है। यह सब खतरनाक उपाय हैं। इससे ईष्र्या और भड़केगी। आग और फैलेगी।
नहीं, अगर इस देश को समृद्ध बनाना हो तो वर्ग-विद्वेष को कम करना पड़ेगा। धनी का पहला काम यह है--गरीब से भी पहले; क्योंकि गरीब की ईष्र्या बड़ी स्वाभाविक है; लेकिन धनी का अहंकार बिलकुल अस्वाभाविक है। धनी का अहंकार बहुत थोथा है और गरीब की ईष्र्या बड़ी वास्तविक है।
एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है। मैंने सुना है, एक अस्पताल है। उसमें जेलखाने के कैदियों को रखा जाता है। लेकिन अस्पताल में भी, जेलखाने के कैदियों की खाटों में नंबर हैं। एक नंबर की खाट पर जो कैदी जरा मजबूत है और अधिकारी जिसे मानते हैं, उसे रखा जाता है। नंबर एक की खाट है, फिर नंबर दोे, सौ नंबर की खाट वाला आदमी को ना-कुछ समझता है, नो-बडी। जो कैदी, नंबर एक की खाट पर रहता है, जंजीर से बंधा है, जकड़ कर बंधा है, लेकिन अकड़ कर जीता है कि मैं कुछ हूं। नंबर एक की जो खाट है उस अस्पताल में, दरवाजे के पास है और वह नंबर एक का जो कैदी है सुबह उठ कर कहता है, अहा, कितना खूबसूरत सूरज निकला है और निन्यानबे खाटों पर बंधे हुए मरीज वहीं अकड़ कर रह जाते हैं कि सूरज हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। धन्य है एक नंबर की खाट वाला आदमी। वह नंबर एक की खाट वाला आदमी गौर से देखता है। कभी कहता है, रात कैसा चांद निकला है, गुलमोहर के फूल खिले हैं। कभी कहता है--सुगंध आ रही है रातरानी की, कभी कहता है, आकाश में बगुलों की कतार उड़ गई। वह हमेशा बात करता रहता है, दरवाजे के पास। सारे मरीज उससे कहते हैं कि धन्यभागी हो तुम और मन में रोज भगवान से प्रार्थना करते हैं कि कितने लोग मर रहे हैं। नंबर एक की खाट का आदमी कब मरेगा? वैसे उससे कहते हैं, तुम धन्यभागी हो। पिछले जन्म मेें अच्छे कर्म किए होंगे, इसलिए नंबर एक की खाट मिली। हम अभागे हैं, हम को निन्यानबे नंबर की खाट है। किसी को पचास नंबर की। लेकिन मन में कहता है, कब मरोगे! कई दफा उसे हृदय का दौैरा आता है।
नंबर एक की खाट के लोगों को अक्सर हृदय का दौैरा आता है। उसे कई दफे हृदय का दौैरा आता है, तो उन सबके प्राणों में खुशी दौैड़ जाती है कि अब मरा, अब मरा। लेकिन नंबर एक की खाट के मरीज बड़ी मुश्किल से मरते हैं। वह फिर ठीक हो जाता है और फिर कहने लगता है कि आज तो तोते इकट्ठे हो गए हैं, गुलमोहर के वृक्ष पर। उनके गीत सुनते हो? लेकिन किसी को कुछ सुनाई नहीं पड़ता। लोग कानों को समेट कर दुख में भरे रह जाते हैं। लेकिन नंबर एक का मरीज भी कब तक बचेगा? वह भी मरा। जब वह मरा तो निन्यानबे मरीजों में दौैड़ मच गई। जैसे दिल्ली में मचती है, किसी नंबर एक के आदमी के मरने पर। खूब दौैड़े वे, अफसरों की खुशामद की, पैर पकड़े। डाक्टरों के पैर पड़े। जो उनके पास रिश्वत थी, देने लगे। फिर एक आदमी रिश्वत में जीत गया और नम्बर एक की खाट पर पहुंच गया। जाकर उसने पहला काम किया, जो कोई भी करेगा। जब कोई राष्ट्रपति के पद पर पहुंचेगा, तब करेगा। जब नंबर एक की जगह पर पहुंचेगा, तब करेगा। उसने जाकर दरवाजे के बाहर देखा, देखते ही मुश्किल में पड़ गया। न वहां कोई गुलमोहर का पौधा था, न वहां कोई रातरानी थी, न वहां से सूरज दिखाई पड़ता था। न वहां से आकाश दिखाई पड़ता था। बाहर भी परकोटे की बड़ी मजबूत पत्थर की दीवाल थी। उसके अतिरिक्त वहां से कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था! लेकिन उसने कहाः आप जानते हैं, उसने क्या कहा? लौट कर उसने यह कहा कि धन्य हैं मेरे भाग्य, सूरज निकला है, पक्षी गीत गा रहे हैं! फूल खिले हैं! बाकी निन्यानबे मरीज फिर उसकी मृत्यु की प्रार्थना करने लगे। आखिर तुम भी मरोगे ही। कब मरोगे?
मैंने सुना है, उस अस्पताल में ऐसा सैकड़ों वर्ष से चला आ रहा है। लेकिन वह नंबर एक का आदमी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि कह दे कि बाहर कोई फूल नहीं है, कोई सूरज नहीं है। वह जो धन की नंबर एक की व्यवस्था में पहुंच जाती है, उसको हिम्मत जुटा कर कहना चाहिए कि धन मिल गया, आत्मा नहीं मिल गई। धन मिला गया, कोई सत्य नहीं मिल गया। धन मिल गया, प्रेम नहीं मिल गया, और तब उस धनिक को अत्यंत निर्धन भीतर अनुभव करना चाहिए। अगर यह अनुभव हो तो वह अहंकार का केंद्र न बने। अगर वह अहंकार का केंद्र न बने तो नीचे चारों तरफ ईष्र्या की आग न पैदा करे। अमीर को अहंकार छोड़ना पड़े अगर वर्ग-विद्वेष मिटाना हो और अमीर को सिंहासनों से नीचे आना पड़े यदि ईष्र्या की व्यर्थ आग बुझानी है तो।
मनुष्यता धन के कारण ऊंची नहीं हो जाती। अगर दफ्तर में कोई चपरासी है तो इसी वजह से वह छोटा आदमी नहीं हो जाता। आदमियत अलग बात है और जिस आदमी को आदमियत का ध्यान नहीं, वह आदमी समाज को बहुत तरह का नुकसान पहुंचाता है। धनी को ध्यान रखना पड़ेगा कि धन आदमियत नहीं है और एक मजदूर के भीतर भी परमात्मा है और जब मजदूर की तरफ देखता है तो इस भांति नहीं देखना है जैसे कि पशु की तरफ देखता हो। तो हम वर्ग-विद्वेष की आग को बुझा सकेंगे। बुझ सकती है आग, और अगर आग बुझे तो देश सृजन में लग सकता है। संपत्ति पैदा हो सकती है।

एक मित्र ने पूछा है कि हिंदुस्तान क्यों संपत्ति पैदा नहीं कर पाया?

नहीं कर पाने के कुछ कारण हैं। एक-दोे पर मैं बात करूं। पहला तो कारण यह है कि हमने न मालूम किस दुर्भाग्य के क्षण में संपत्ति के विरोध मेें निर्णय ले लिया है। हमने गरीबी की पूजा की है हजारों साल से। हम गरीब को आदर देते हैं। शायद इसका कारण यह है कि हम बहुत गरीब थे और अमीर की ईष्र्या के कारण यह हम गरीब को आदर देने लगे। अगर हम भिखमंगे हैं और हमें सम्राट होने का कोई उपाय न हो तो आखिर में हमारा मन यहीं इंतजाम करेगा कि हम सम्राट होना ही कब चाहते हैं। हम तो भिखारी होने में ही आनंदित हैं। यह हमारे अहंकार की आखिरी तरकीब होगी। हजारों साल से भारत गरीब है। उसकी गरीबी इतनी लंबी हो गई है कि उसकी गरीबी में भी अहंकार को तृप्त करने का उपाय खोजना जरूरी था। इसलिए हमने उपाय खोज लिया। हम गरीबी को ‘सादगी’ कहने लगे। हम गरीबी को ‘अपरिग्रह’ कहने लगे। हम गरीब आदमी को आदर देने लगे, और अगर कोई गरीब गरीबी स्वीकार कर ले स्वेच्छा से तो हम उसके चरण छूने लगे, पैर पकड़ने लगे।
जैनियों के चैबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं। गरीब का कोई बेटा तीर्थंकर की तरह क्यों स्वीकृत नहीं हो सका? न होने का कारण था; क्योंकि गरीब के पास त्याग करने को कुछ भी नहीं है और हम त्याग तौल सकते हैं कि कौन आदमी कितना बड़ा है। हम धन से ही मानते हैं, धन हो तो धन से तौलते हैं और कोई धन छोड़े तो धन से तौलते हैं। महावीर बड़े आदमी हैं; क्योंकि उन्होंने बहुत धन छोड़ा। बुद्ध बड़े आदमी हैं; क्योंकि उन्होंने बहुत धन छोड़ा। बुद्ध अगर गरीब के घर में पैदा हों तो कौन फिकर करता है; क्योंकि छोड़ा क्या? हम पूछते, कितनी मुहरें छोड़ीं, कितने घोड़े, कितने हाथी? वह कहते, कुछ था नहीं हमारे पास। तो हम कहते, भाग जाओ। तुम तीर्थंकर नहीं हो सकते। तीर्थंकर होने के लिए हजारों-करोड़ों रुपये चाहिए। हम रुपए से ही तौलते हैं, गरीब आदमी रुपये से ही तौलता है। धन को भी रूपए से तौलता है। त्याग को भी रुपये से तौलता है।
मैं जयपुर में मेहमान था। एक आदमी ने मुझसे कहा, एक भरी संन्यासी हैं, उनसे आप मिलें। बहुत अदभुत आदमी हैं। मैंने कहाः तुमने किस तराजू से पता लगाया है कि बहुत बड़े संन्यासी हैं? उन्होंने कहाः खुद जयपुर महाराज उनके पैर छूते हैं। तो मैंने कहाः तुम्हारे मन में जयपुर महाराज का आदर है, संन्यासी का तो कोई आदर नहीं है। अगर जयपुर महाराज पैर न छुएं तो संन्यासी गया।
मैं एक संन्यासी के पास कभी रुका था। वह दो-चार बातचीत के बाद जरूर यह चर्चा चलाते कि मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी। मैंने उनसे एक दिन पूछा कि लात आपने कब मारी? उन्होंने कहाः कोई तीस साल हो गए। मैंने कहाः लात ठीक से लग नहीं पाई। तीस साल के बाद भी आपको याद है, कि आपने लाखों रुपये पर लात मार दी। तो अभी भी मजा वही है। लाखों थे तो भी अकड़ लाखों की थी। अब भी जो अकड़ है, वह लाखों के छोड़ने की अकड़ है, लेकिन है पैसा ही आधार। गरीब आदमी पैसे को आधार बना लेता है; लेकिन दुर्भाग्य के क्षण में हमारी गरीबी को अंगीकार कर लिया और हमने कहा कि गरीबी भी सौभाग्य है। संतोष करो इसलिए संपत्ति पैदा न हो सकी। संपत्ति पैदा करने के लिए गरीबी का आदर छोड़ना पड़ेगा। दरिद्र को नारायण नहीं कहना है। बहुत हो चुकी यह नासमझी। दरिद्र नारायण नहीं है। दरिद्रता महारोग है। प्लेग, हैजा को जैसे मिटाना है, वैसे ही दरिद्रता को भी मिटा देना है। दरिद्रता नहीं बचने देनी है। संपत्ति की स्वीकृति हमारे मन में आए तो हम संपत्ति पैदा कर लेंगे। हम वही पैदा करते हैं, जो हम पैदा करने की आकांक्षा जगा लेते हैं। हमने गरीबी पैदा कर ली, क्योंकि हमने गरीबी को स्वीकार कर लिया है।
गांधी जी से कोई पूछता था कि आप थर्ड क्लास में क्यों चलते हैं, तो वह कहते थे चूंकि फोर्थ क्लास नहीं है। अब गांधी जी का मन तृप्त न होगा, जब तक नरक की रेलगाड़ी में न चलें। क्योंकि फोर्थ क्लास में क्यों चलते हैं? वे कहेंगे, फिफ्थ क्लास नहीं है इसलिए। हम कहेंगे गांधी महात्मा है; क्योंकि वे थर्ड क्लास स्वीकार कर रहे हैं। हम सब थर्ड में चलते हैं तो हमें लगेगा कि यह है महात्मा असली। क्योंकि थर्ड क्लास में हमारे प्राण ही परेशान हो रहे हैं। हम भी चाहते हैं कि फस्र्ट क्लास में चलें, लेकिन फस्र्ट क्लास में चलना नहीं हो पाता है। तो अब थर्ड क्लास में जो चलेगा, उसको हम कहेंगे। यह है महात्मा। अब हम किसको आदर देंगे? हम अब थर्ड क्लास को आदर का आधार बनाने की कोशिश करेंगे कि थर्ड क्लास में चलना भी बड़े महत्व की बात है। इससे हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है।
इस अहंकार की भूखी तृप्ति ने इस देश में संपत्ति को पैदा करने में बाधा डाल दी। इसको हटा देना पड़ेगा। संपत्ति की अपनी जरूरत है। संपत्ति सब कुछ नहीं है, लेकिन बहुत-कुछ है। संपत्ति से आत्मा नहीं मिल जाएगी, लेकिन संपत्ति के बिना आत्मा को पान भी बहुत मुश्किल है। संपत्ति से कम से कम जो सबसे बड़ी कीमती बात मिलती है, वह यह है कि शरीर को भूलने की सुविधा मिलती है। रोटी का उपयोग एक ही है कि शरीर भूल जाता है। भूख में शरीर भूलना मुश्किल है। सिर में दर्द हो तो सिर नहीं भूल सकता। दर्द न हो तो सिर भूल जाता है। पैर मैं कांटा गड़ा हो तो आत पैर में ही चली जाती है, वहां कांटे के पास निवास करने गलती है। कांटा निकल जाए, आत्मा पैर से विदा हो जाती है। जहां अभाव है, वहां खटकता रहता है। गरीब शरीर में ही जी पाता है। क्योंकि शरीर ही खटकता रहता है।
अमीर के लिए एक सुविधा है कि वह शरीर को भूल सकता है और मैं मानता हूं इसलिए सारी दुनिया को अमीर किया जाना जरूरी है, ताकि एक-एक आदमी शरीर को भूल सके। जिस दिन हम शरीर को भूल पाते हैं, उसी दिन आत्मा की सुधि आनी शुरू होती है। उस दिन खयाल आना शुरू होता है कि फिर मैं क्या हूं? जब शरीर की कोई जरूरत नहीं बचती है तो सवाल उठता है, अब मेरी क्या जरूरत है? अब मैं क्या खोजूं? धर्म की और आत्मा की खोज मनुष्य की सभी सुविधाओं की तृप्ति के बाद पैदा हुई खोज है। वह लास्ट लक्जरी है। वह आखिरी विलास है। वह सुविधाओं के बाद की अंतिम चरम यात्रा है। लेकिन हमने जो निर्णय लिया था, वह भ्रांत था। वह निर्णय यदि हम बदल दें तो आज सारी स्थिति बदल सकती है।
और एक बात। हमने एक और निर्णय भी लिया था, इस गरीबी के साथ राजी होने के लिए। वह निर्णय यह था कि आदमी गरीब है अपने पिछले जन्मों के पापों के कारण। वह भी संतोष की व्यवस्था थी। हम कहते थे, अमीर अपने पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण अमीर है। गरीब अपने पिछले जन्मों के पापों के कारण गरीब है। इससे तृप्ति मिलती थी, संतोष मिलता था। और हम गरीबी में ही जी लेते थे। इसलिए गरीबी का मिटना मुश्किल हो गया। गरीबी हमारे पिछले जन्मों के कर्मों का परिणाम नहीं है। गरीबी हमारी इसी जन्म की भूलों का फल है। इस जन्म में हम जो कर रहे हैं, वह अगर संपत्ति पैदा नहीं कर रहा है, तो गरीबी अनिवार्य हो जाएगी। दूसरी बात, गरीबी एक-एक व्यक्ति की व्यक्तिगत व्यवस्था का भी फल नहीं, हमारी सामूहिक अंतर-व्यवस्था का भी फल है। ये दोे बातें अगर खयाल में आ जाएं तो गरीबी मिटाई जा सकती है। जब तक हम सोचते थे, आदमी की उम्र भाग्य से तय है, तब तक आदमी की उम्र नहीं बढ़ाई जा सकी। लेकिन अब उम्र बढ़ी हैै, क्योंकि भाग्य का विश्वास घटा है।
तिब्बत में एक रिवाज था। बच्चे जब पैदा होते तो पहले उन्हें बर्फीले पानी में डुबा देते। फिर निकाल लेते। सात दफा डुबकी देते। दस में से सात बच्चे मर जाते, तीन बच्चे बचते; लेकिन उनका मानना यह था कि जो मर गया, वह मर ही जाता है, इसलिए मर गया। जो बच गया है, वह बच ही जाता है। और हमने परीक्षा कर ली कि कौन बचने को आया, कौन मरने को आया। तो चलता रहा तिब्बत में यह रिवाज। करोड़ों-करोड़ बच्चे मरते रहे। जरूरी नहीं था कि जो बच्चा जिंदा पानी में पैदा होते ही डुबा दिया जाए, वह मर ही जाता। हां, रेसिस्टेंस उसका थोड़ा कम जरूर था। लेकिन रेसिस्टेंस थोड़ा बढ़ाया जा सकता था, इलाज किया जा सकता था। लेकिन मारने का इंतजाम कर लिया। उम्र तब बढ़नी शुरू हुई, जब हमें खयाल आया कि उम्र कोई भाग्य का निर्णय नहीं है। तो उम्र बढ़ गई। पहले हम सोचते थे कि बीमारी भी पिछले जन्मों के कर्मों का फल है तो हम बीमार से नहीं लड़े। जिस दिन खयाल आ गया कि बीमारी पिछले जन्मों के कर्मों का फल नहीं है, बीमारी को बदल दिया गया। आज बहुत सी बीमारियां विदा हो गईं। एक वक्त आएगा कि जमीन पर बीमारी बहुत असंभव बात हो जाएगी।
गरीबी को हमने स्वीकार किया, इसलिए गरीब हैं। हमें पूरे मन से गरीबी को अस्वीकार करना पड़ेगा तो ही गरीबी मिट सकती है और अगर सारा मुल्क तय कर ले तो कोई भी कठिनाई नहीं है गरीबी को मिटा देने में। क्योंकि गरीबी को मिटाने का मतलब है पहले तो गरीबी को मिटाने का संकल्प लें। लेकिन अब गरीब को नई नासमझियां समझाई जा रही हैं। उसे समझाया जा रहा है कि तेरा शोषण किया जा रहा है, इसलिए तू गरीब है। तो तू शोषक को मिटा। शोषक मिट जाएगा, तो तू अमीर हो जाएगा। यह बड़ी नासमझी की और आत्मघाती दलील है।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप कहते हैं कि गरीब का शोषण नहीं हो रहा है? आप गलत कहते हैं। गरीब से दस रुपये का काम लिया जाता है और उसे दोे रुपये दिए जाते हैं।

मैं उनसे पूछता हूं, वह काम न करे दस रुपये का। वह दोे रुपये का काम न करे। वह अपनी मजदूरी को, अपने इस श्रम को जहां दस रुपये में बिकता हो, बेच दे। वह कहां बेचेगा दस रुपये में? वह जो दोे रुपये में बेच रहा है, अगर न बेचे तो दोे पैसे में भी नहीं बेच पाएगा। दस रुपये का मूल्य कैसे है उसका? मूल्य कैसे तय होता है? मूल्य के तय होने का मतलब क्या है?
माक्र्स ने एक बहुत ही अजीब बात लोगों को समझाई कि गरीब जितने का काम कर रहा है उससे कम का पैसा उसे दिया जा रहा है। लेकिन गरीब को जो पैसा दिया जा रहा है, अगर वह काम न करे तो उसके श्रम का पैसा उसे मिलने वाला कहां है और उसे ज्यादा कहां मिल जाएगा? जितना मिल रहा है उससे ज्यादा की तलाश की जा सकती है, उससे ज्यादा का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन अगर इस ढंग से सोचा जाए कि यह शोषण किया जा रहा है, तो हम गरीब और अमीर के बीच एक दुश्मनी खड़ी करते हैं और उत्पादन की व्यवस्था अगर दुश्मनों की व्यवस्था हो जाए, तो देश समृद्ध नहीं हो सकता। उत्पादन की व्यवस्था मित्रों की व्यवस्था होनी चाहिए। इसमें गरीब को सोचना चाहिए कि छीनने का नहीं, संपत्ति को और ज्यादा पैदा करने का खयाल है। इसमें अमीर को सोचना चाहिए कि वह जितना मुनाफा इकट्ठा करता है, उतना मुनाफा इकट्ठा करने का सवाल नहीं, उस मुनाफे को भी नियोजित करने का सवाल है और संपत्ति पैदा करने में; तो हम इस देश को कल अमीर बना सकते हैं।
लेकिन आज समाजवादी जो बातें कर रहे हैं, अगर उनकी बात मान ली गई तो आज जितना मुल्क गरीब है, बीस साल बाद और भी ज्यादा गरीब होगा; क्योंकि वे संपत्ति-उत्पादन की तरफ सोच ही नहीं रहे हैं, वे संपत्ति-विभाजन, वितरण, बांट लेने की तरफ सोच रहे हैं और गरीब को बिलकुल ठीक लगता है कि संपत्ति बंटे और मुफ्त मिल जाए। वह गरीब इसलिए है कि श्रम करने की, सृजन करने की, पैदा करने की जो प्रबल आकांक्षा होनी चाहिए--वह उसमें नहीं है। तो वह कहता है, अगर बंट कर मिल जाए तो बहुत अच्छा है। तो वह कहता है--काम-धाम बंद करो, मोर्चा लगाओ, हड़ताल करो! संपत्ति बंटनी चाहिए, संपत्ति मिल जानी चाहिए।
यह जो हम आकांक्षा पैदा कर रहे हैं गरीब में, अगर हिंदुस्तान के गरीब की आत्मा में यह आकांक्षा प्रवेश कर गई तो हिंदुस्तान सदा के लिए गरीब होने की सील-मुहर अपनी छाती पर लगा लेगा। फिर गरीबी से छुटकारा पाना बहुत असंभव हो जाएगा।

एक मित्र ने पूछा है कि आप पूंजीपतियों के पक्ष में बोल रहे हैं, तो आपको पूंजीपतियों से पैसे तो नहीं मिल रहे हैं?

बड़ा मजा है, हमारे सोचने का सारा ढंग ऐसा है। अगर मैं समाजवाद के पक्ष में कोई बात करता हूं तो मेरे पास पत्र आते हैं कि आपको चीन से पैसे तो नहीं मिल रहे हैं? आप माओ के एजेंट तो नहीं हैं? अगर मैं समाजवाद की आलोचना करता हूं तो वे कहेंगे, आपको अमरीका से तो पैसे नहीं मिल रहे हैं, आप किसी पूंजीपति के एजेंट तो नहीं हैं? क्या इस दुनिया में सोचना गुनाह है? सिवाय एजेंट के और कोई नहीं सोचता, सिर्फ एजेंट ही सोचते हैं? असल में जिन्होंने यह पूछा है वे जरूर कहीं न कहीं एजेंसी से संबंधित होंगे, क्योंकि हमारी कल्पना में यह बात नहीं आती कि कोई आदमी सीधा भी सोच सकता है। हम पूछेंगे, जरूर किसी का एजेंट होगा। इसका मतलब हुआ कि आदमी के पास अपनी आत्मा नहीं है, अपने सोचने का ढंग नहीं है।

एक और मित्र ने पूछा है कि आप कभी समाजवाद के पक्ष में कहते हैं, कभी पूंजीवाद के पक्ष में कहते हैं। आप ऐसी विपरीत बातें करके हमें परेशानी में डाल देते हैं!

असल में हमारी कठिनाई यह है कि समाजवाद और पूंजीवाद को जो विपरीत समझता है, वह गलत समझता है। पूंजीवाद की विकसित अवस्था समजावाद है। वह विपरीत नहीं है और जब मैं पूंजीवाद के पक्ष में कहता हूं तो मैं उस प्रक्रिया की बात कर रहा हूं जिससे कि अंत में समाजवाद उपलब्ध होगा। उन दोेनों में विरोध नहीं है। लेकिन चूंकि हम दुश्मनी की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं, इसलिए हम और तरह से सोच ही नहीं पाते हैं। को-आपरेशन नहीं, कांफ्लिक्ट--सहयोग नहीं, संघर्ष की भाषा में सोचो--यही हमें सिखाया जा रहा है। नेता संघर्ष की भाषा में सोचता है। मैं कोई नेता नहीं हूं। मुझे लगता है कि समाजवाद लक्ष्य है, लेकिन पूंजीवाद प्रक्रिया है और इसलिए मैं समाजवाद के पक्ष में हूं और पूंजीवाद के विपक्ष में नहीं हूं।
इसे ठीक से समझ लेना जरूरी है। न मालूम कितने मित्रों ने यही लिख कर पूछा है कि आप कभी यह कहते हैं, कभी वह कहते हैं। आप कल जवान थे, आज बूढ़े हो गए। पहले बालक थे, फिर जवान हुए, फिर बूढ़े हो गए। आपसे कोई कहे कि बड़े इनकंसिस्टेंस आदमी मालूम पड़ते हैं। कभी बच्चा होते हैं, कभी जवान होते हैं, फिर बूढ़े हो जाते हैं। नहीं, इसको आप इनकंसिस्टेंस नहीं कहेंगे, इसको कहेंगे ग्रोथ। यह विकास है। बचपन से जवानी आती है, जवानी से बुढ़ापा आता है। पूंजीवाद से समाजवाद आएगा, समाजवाद से साम्यवाद आएगा, साम्यवाद से अराजकतावाद आएगा। जिस दिन साम्यवाद ठीक से व्यवस्थित होगा, राज्य की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन यह क्रमिक अवस्थाएं हैं समाज की। ये विरोध नहीं हैं, ये विकास हैं।
मैं कोई भी असंगति की बात नहीं कह रहा हूं। मेरी दृष्टि में उसकी संगति है, इसलिए मेरी अपनी समझ यह है कि हिंदुस्तान में समाजवाद की बातेें करने वाले लोग समाजवाद नहीं लाएंगे। हो सकता है, वे समाजवाद के आने में बाधा डालें; क्योंकि पूंजी का तंत्र तोड़ दें और हिंदुस्तान में समाजवाद कभी न आ सके; लेकिन कोई सोच भी न पाएगा कि बिड़ला या टाटा समाजवाद ला रहे हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, वे ला रहे हैं। लाने का मतलब यह है कि वे जो संपत्ति पैदा कर रहे हैं, अगर वह बड़े पैमाने पर फैलाई जाए तो संपत्ति के उत्पादन की अंतिम परिणति समाजवाद ही है। समाजवाद आ जाएगा, वह सहज परिणाम होगा पूंजीवाद का, लेकिन माक्र्स ने थीसिस और एंटी-थीसिस की भाषा समझा दी है। वाद और प्रतिवाद के कलह की, सर्वहारा की क्रांति की और बगावत की बात उसे समझा दी है। माक्र्स के पास विकास की कोई धारणा नहीं है, और इसलिए माक्र्स में एक बुनियादी कमजोरी है जब कि जीवन का बुनियादी नियम विकास है। क्रांति तो तब जरूरी होती है जब विकास को कोई रोकने को आमादा हो जाए, लेकिन विकास ही न हुआ हो तो...समझ लें कि मैंने कल कहा कि मां के पेट से पांच महीने का बच्चा निकालना पड़े तो इसको मैं गलत कहूंगा। यह खतरनाक है। बच्चा मरेगा, मां भी मर सकती है और अगर बच्चा किसी तरह बचा तो मरा हुआ बचेगा। लेकिन यह भी हो सकता है कि मां के पेट में नौ महीने के बाद भी बच्चा पैदा न हो और मां का पेट काटना पड़े। क्रांति तब की जाती है जब विकास में कोई अवरोध डाल दे। अवरोध हटाने के लिए क्रांति की जरूरत है। क्रांति समय के पहले जरूरी नहीं है।
अमरीका में अगर पचास साल के बाद समाजवाद न आया तो क्रांति की जरूरत हो सकती है। न तो अभी रूस में जरूरत थी, न अभी चीन में जरूरत थी और न अभी हिंदुस्तान में जरूरत है। लेकिन जहां जरूरत नहीं वहां हो रही है। लेनिन ने भविष्यवाणी की थी कि लंदन तक कम्युनिज्म का जो यात्रा-पथ है--वह मास्को से पेकिंग--पेकिंग से कलकत्ता औैर कलकत्ता से लंदन की तरफ जाएगा। बड़ी खतरनाक भविष्यवाणी थी, लेकिन पूरी होती मालूम पड़ती है। पेकिंग तक को पक्का सीमेंट रोड बन गया है, कलकत्ते तक भी पगडंडियां आनी शुरू हो गई हैं। यदि लेनिन की भविष्यवाणी पूरी हो गई तो वह पूरे एशिया के लिए, पूरी दुनिया के लिए दुर्भाग्य की बात होगी। अभी वे पगडंडियां तोड़ी जा सकती हैं। अभी वे पगडंडियां पक्की, मजबूत हिस्सा नहीं बन गई हैं, लेकिन कोई दृष्टि न हो, तो कैसे तोड़ी जाएं?
सबसे बड़े मजे की बात यह है कि कम्युनिज्म के पास आंदोेलन है, समाजवाद के पास विचार है, लेकिन पूंजीवाद के पास कोई विचार नहीं, कोई फिलासफी नहीं, इसलिए वह खड़ा नहीं हो पाता, वह सरकता जाता है। वह डिफेंसिव है और जब तक पूंजीवाद रक्षा का उपाय करेगा, तब तक मरेगा। पूंजीवाद की रक्षा का उपाय करने का मतलब यह है कि हार अब स्वीकृत हो गई। जिस आदमी को, जिसे व्यवस्था को जीतना हो, उसे रक्षा का उपाय नहीं पकड़ना चाहिए, लेकिन पूंजीवादी रक्षा कर रहा है। वह कहता है--कलकत्ता गया तो कोई बात नहीं, अभी बंबई सम्हालो। कल बंबई जाए, तो दिल्ली सम्हालो। कल दिल्ली जाए तो सम्हालते चले जाओ और पीछे हटते चले जाओ।
नहीं, इस तरह नहीं होगा। जब कोई आंदोेलन हिंसात्मक ईष्र्या पर खड़ा होता है, उसके पास बड़ी आग की लपटें होती हैं, वह फैलती चली जाती है। आग की उन लपटों के खिलाफ विचार की प्रबल शक्ति हो सकती है; क्योंकि मेरी समझ यह है कि पूंजीवाद बिना अपनी दलील दिए मरा जा रहा है। वह बिना गवाह उपस्थित किए ही हारता जा रहा है। एक ही विपक्षी उपस्थित होकर सारा निर्णय लिए ले रहा है। पूंजीवाद को अपनी फिलासफी सामने रखनी चाहिए और पूंजीवाद को यह स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि समाजवाद पूंजीवाद का हिस्सा है, उसके विकास का हिस्सा है। समाजवाद पूंजीवाद का पहला नहीं, उसका अंतिम चरण है और जिस दिन पूंजीवाद इस व्यवस्था, इस विचार को सामने रख पाए, उस दिन हम कलकत्ता से भी पीछे हटा सकते हैं और पेकिंग से भी पीछे हटा सकते हैं, और पेकिंग से भी वापस मास्को और मास्को से भी वापस लौटा सकते हैं। उसमें कोई ज्यादा कठिनाई नहीं है।
बेचैनी है आज रूस में भी। आज रूस में भी बहुत परेशानी है, बहुत तनाव है। रूस का युवा-वर्ग आज उत्तेजित और परेशान है, लेकिन बगावत की वहां सुविधा नहीं है। वह बगावत वहां भी पहुंचनी चाहिए। अमरीका का भी कसूर यही है कि उसके पास भी कोई आक्रामक विचार नहीं है, सिर्फ रक्षात्मक विचार है, इसलिए वह परेशानी में है। लेकिन मुझे लगता है कि समाजवाद पेकिंग और कलकत्ता होता हुआ लंदन नहीं जाएगा। अगर समाजवाद को कहीं से भी फैलना है दुनिया सें, तो वह केंद्र वाशिंगटन होगा। समाजवाद वाया वाशिंगटन; उसके सिवाय कोई सम्यक रास्ता नहीं हो सकता है। वाशिंगटन के ही माध्यम से अगर दुनिया में समाजवाद फैलेगा तो सुखद, स्वस्थ और सहज हो सकता है।

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