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शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-(छोड़ें दौड़ और देखें)

मेरे प्रिय आत्मन्!
किस संबंध में आपसे बात करूं यह सोचता था, तो शायद क्या है कि आपके धर्म के दिन चल रहे हैं, हालांकि जिन लोगों के भी धर्म के दिन अलग और अधर्म के दिन अलग होते हैं, उनके जीवन में कोई धर्म के दिन नहीं होते। और न ही हो सकते हैं। यह कैसे संभव है? यह कैसे संभव है कि कुछ दिन धर्म के हों, बाकी दिन धर्म के न हों? यह भी कैसे संभव है कि दिन के किसी घड़ी में आदमी धार्मिक हो फिर बाकी घड़ियों में धार्मिक न हो?
धर्म ऐसी खंडित बात नहीं है।

तो चूंकि धर्म के दिन चलते हैं इसलिए सोचा धर्म के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कहनी चाहिए।
धर्म के संबंध में जितनी बातें कहीं गई हैं, उतनी और किसी संबंध में नहीं कही गई। और जितने ग्रंथ लिखे गए हैं, जितने शास्त्र लिखे गए हैं, जितने प्रवचन और जितने उपदेश धर्म के संबंध में होते हैं और किसी संबंध में नहीं होते हैं। और मनुष्य-जाति ने अपने मस्तिष्क का, अपनी बुद्धि का और विचारों का जितना श्रम और शक्ति धर्म के लिए खर्च की है और किस बात के लिए खर्च की है?
लेकिन बड़ा आश्चर्य है कि आदमी अधार्मिक का अधार्मिक ही है। इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा।
इस सबसे कोई अंतर नहीं आया। पांच हजार साल का श्रम करीब-करीब मिट्टी में गया है।
इसे कहने में कोई संकोच की जरूरत नहीं है। इधर पांच हजार साल में तो हमें ज्ञात है कि धर्म के संबंध में बहुत चिंतन और मनन हुआ लेकिन परिणाम क्या है? यह मनुष्य तो वैसा का वैसा है, इसके भीतर कोई बुनियादी क्रांति, कोई परिवर्तन, कुछ भी नहीं हुआ। हां, अच्छी-अच्छी बातें हम जरूर सीख गए हैं। और हमने बहुत मंदिर बना लिए हैं, बहुत शास्त्र रच लिए हैं, बहुत से संप्रदाय खड़े कर लिए हैं। इन संप्रदायों, इन शास्त्रों और मंदिरों के कारण मुसीबत कम नहीं हुई और बढ़ गई है। क्योंकि ये सब शास्त्र आपस में लड़ते हैं, ये सब मंदिर आपस में लड़ते हैं, ये सब पंडित, पुरोहित आपस में लड़ते हैं। और इनके लड़ने की वजह से मनुष्य को खंडित करते हैं--हत्या होती है, हिंसा होती है और सारी दुनिया में मनुष्य मनुष्य के बीच वैमनस्य पैदा होता है।
यह आश्चर्य की बात है। आश्चर्य की इसलिए कि अगर धर्म सचमुच आया होता, तो दुनिया में इतने धर्म कैसे हो सकते थे? एक ही धर्म होता। एक ही हो सकता है। अगर धर्म वस्तुतः आया होता, तो एक ही धर्म होता। ये जैन, हिंदू, मुसलमान, ईसाई कैसे हो सकते थे? लेकिन धर्म तो नहीं है, हिंदू हैं, जैन हैं, ईसाई हैं, मुसलमान हैं और न मालूम कौन-कौन हैं।
मैं आपसे कहूं कि जो आदमी भी हिंदू है, जैन है, ईसाई है, इसी कारण से वह आदमी धार्मिक नहीं हो सकता है। यह बाधा है। धर्म है असीम और अनंत। उस पर कोई भी सीमा बाधा है। उस पर कोई भी विशेषण बाधा है। क्या कभी आपने सोचा कि कोई अगर कहे कि मैं हिंदू प्रेम करता हूं, कोई कहे मैं मुसलमान प्रेम करता हूं, कोई कहे मैं जैन प्रेम करता हूं, कहेंगे यह पागल है। क्योंकि प्रेम तो बस प्रेम होता है, उस पर कोई सीमा नहीं होती।
कोई कहे कि मैं हिंदू सत्य बोलता हूं, कोई कहे मैं जैन सत्य बोलता हूं तो हैरान होंगे कि सत्य भी हिंदू और जैन कैसे हो सकता है? सत्य तो बस सत्य ही होगा। तो धर्म कैसे हो सकता है हिंदू और मुसलमान? जब प्रेम नहीं हो सकता, सत्य नहीं हो सकता, दया नहीं हो सकती, करुणा नहीं हो सकती तो धर्म कैसे हो सकता है? धर्म क्या इन सबसे गया बीता है? धर्म तो इन सबकी आत्मा है। धर्म तो इन सबका प्राण है। लेकिन धर्म कहीं नहीं दिखाई पड़ता, धर्मों की बहुतायत दिखाई पड़ती है। यही कारण है कि धर्मोत्सव होते हैं, धर्म दिवस आते हैं। लेकिन धर्म नहीं आता। नहीं आ सकता है। कैसे आएगा? क्या रास्ता हो सकता है? और कठिनाई यह है कि अगर धर्म नहीं आया, तो अब तक तो चल गया, आगे नहीं चल सकेगा। अब तक तो चला। अब तक इसलिए चला क्योंकि अधर्म की ताकत बहुत कम थी, अधर्म के हाथ में लाठियां थी, तलवारें थी, अब अधर्म के हाथ में एटम है, हाइड्रोजन बम है। अब यह मरा-मरा, घिसटता हुआ धर्म नहीं चल सकता। और अगर यही चला, तो मनुष्य नहीं चल सकेगा, मनुष्य मरेगा। अधर्म के पास अब बहुत ताकत है, उसके पास असीम शक्ति है। और धर्म के नाम पर ये फिरकापरस्तियां हैं, ये छोटे-छोटे मंदिर और ये छोटे-छोटे मूर्तियों वाले लोग, और छोटी किताबों वाले लड़ने वाले लोग हैं। इनकी थोड़ी-थोड़ी संख्या है, इनके थोड़े-थोड़े संगठन हैं। आपस में इनकी लड़ाई है। अधर्म का कोई संप्रदाय नहीं है। अधर्म का कोई अलग-अलग मंदिर नहीं है, अधर्म इकट्ठा है और धर्म खंडित है और टुकड़ों में बंटा है। अधर्म की लड़ाई सीधे धर्म से है, और धर्म वालों की लड़ाई दूसरे धर्म वालों से है, तो फिर क्या होगा? तो फिर क्या होगा? यह तो स्पष्ट ही है, साफ ही है कि तथाकथित धार्मिक लोग आपस में लड़ कर अपनी सारी शक्ति नष्ट कर देते हैं। और अधर्म जीतता चला जाता है।
मैं आपसे कहूं दुनिया में अधर्म का बढ़ने का कारण अगर साधु-संन्यासी और पंडित आपसे कहते हों कि भौतिक वाद है तो झूठ कहते हैं, दुनिया में अधर्म का बढ़ने का कारण ये धर्मों की बहुतायत है। क्योंकि ये धार्मिक लोग आपस में लड़कर अपनी शक्ति खो देते हैं। और अशुभ की शक्ति बलिष्ट से बलिष्ट होती जाती है। शुभ खंडित है, भले लोग विभाजित हैं, परमात्मा के नाम पर खड़े लोग एक दूसरे के दुश्मन हैं, शैतान के अनुयायी सब इकट्ठे हैं, एक साथ हैं उनका कोई चर्च नहीं, कोई सम्प्रदाय नहीं। इससे धर्म क्षीण होता गया है, इससे धर्म की ताकत रोज क्षीण होती चली गई है, और जब धर्म की ताकत क्षीण होती है, तो ये सारे धार्मिक लोग चिल्लाते हैं, कि जरूर भौतिकवादियों ने सब गड़बड़ किया हुआ है। ये मैटीरियलिस्ट हैं जो धर्म को नष्ट कर रहे हैं, कैसे पागल हैं आप? अगर मैटीरियलिस्ट धर्म को नष्ट कर दे तो इसका मतलब हुआ कि मैटल की ताकत आत्मा की ताकत से बलवान है, शक्तिशाली है। अगर मैटीरियलिज्म, स्प्रिचुएलिज्म को हटा कर नष्ट कर दे तो इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि स्प्रिचुएलिज्म कमजोर है और मैटीरियलिज्म मजबूत, ताकतवर है। तो फिर ऐसे स्प्रिचुअलिज्म को लेकर हम करेंगे भी क्या, जो मैटीरियलिज्म से ही हार जाता है। ऐसी स्प्रिचुएलिज्म की जान भी कितनी है, ऐसे अध्यात्म की शक्ति भी कितनी है? नहीं यह असली कारण नहीं है, असली कारण यह है कि धर्म के नाम पर झूठा धर्म के नाम पर कुछ मिथ्या, धर्म के नाम पर कुछ असत्य को हम पकड़े हुए हैं। और उसके पकड़ने के कारण हम अधार्मिक होते हुए, अपने को धार्मिक समझने का मजा ले लेते हैं।
एक आदमी है मंदिर हो आता है और सोचता है कि धार्मिक हो गया। एक आदमी है सुबह से कोई किताब खोल लेता है, और जितनी ज्यादा पुरानी किताब हो, उतना ही वह बड़ा धार्मिक हो जाता है। उसे खोल लेता है, उसको पढ लेता है, तिलक लगा लेता है, माला डाल लेता है, कुछ और कई तरकीबें हैं, और आदमी की चालाकी बहुत है, उसने बहुत सी तरकीबें ईजाद कर ली हैं, धार्मिक होने की। वस्त्र बदल लेता है, एक ढंग से दूसरे ढंग के कपड़े पहन लेता है, यह कनिंग माइंड है। यह आदमी का बहुत चालाक दिमाग है। धोखा बहुत-बहुत तरकीब से दिया जा सकता है, खुद को। और दुनिया में कोई किसी दूसरे को धोखा नहीं देता, हम सब अपने को धोखा देते हैं।
मैं यह पूछना चाहता हूं , यह मैं आपके सामने एक प्रश्न रखना चाहता हूं आपके मनों के लिए, आपकी खोज के लिए, आपका धर्म से कौन सा संबंध है? आपके प्राणों में धर्म का कौन सा संगीत है। कौन सी जड़ है? धर्म से कौन सा लगाव है आपका। फिर मंदिर क्यों जाते हैं? फिर किसी मूर्ति के सामने सिर क्यों टेकते हैं। क्या यह एक बहुत बुनियादी रूप से नैतिक नहीं है। क्या एक डिसआॅनेस्टी नहंी है? अगर नहीं है आपकी कोई श्रद्धा इन मंदिरों में नहीं है इन शास्त्रों में, क्योंकि आपका जीवन तो कहता है कि आपकी काई श्रद्धा नहीं है, हम सबका इकट्ठा जीवन तो कहता है कि धर्म से हमें कोई संबंध नहीं रहा है। लेकिन फिर भी हम मंदिर तो जाते हैं, महावीर का, कृष्ण का, राम का, जन्मदिन तो बनाते हैं, उनकी पूजा तो करते हैं। यह कैसा धोखा है, और यह धोखा हम किसको दे रहे हैं, किसी और को नहीं, कोई आदमी किसी और को क्या धोखा देगा? हम अपने को धोखा दे रहे हैं।
कल ही मैं एक कहानी कह रहा था, कहानी कह रहा था कि इंग्लैंड में, एक बड़े महानगर में एक नाटक चल रहा था। वहां का जो सबसे बड़ा धर्म पुरोहित था, उसके भी मन में लालसा लगी थी कि नाटक को देखे, और स्मरण रखना आम आदमी से ज्यादा धर्म-ेपुरोहित के मन में लालसा होती है नाटक को देखने की, क्योंकि नाटक उसके लिए वर्जित है। और जहां वर्जना है, जहां निषेध है, वहां आकर्षण है। यहां दरवाजे पर हम लिख दें कि यहंा झांकना मना है। फिर किसकी ताकत है कि बिना झांके निकल जाए। जहां निषेध है, जहां वर्जना है, जहां इनकार है कि मत झांकना, वहंा झांकने का आकर्षण पैदा हो जाना बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए आपके मन में भला नाटक को देखने की उतनी प्यास न जगे, लेकिन धार्मिक धर्म-पुरोहित के मन में बहुत ज्यादा प्यास जगती है, उसे वर्जित है।
तो उस गांव में नाटक आया, उसकी बड़ी प्रशंसा थी, उस धर्मपुरोहित के मन में भी हुआ कि मैं नाटक देखूं, लेकिन नाटक देखना वर्जित था। साधु-संन्यासी धार्मिक लोग नाटक कैसे देख सकते हैं, भले आदमियों की चीज तो नाटक नहीं है। क्या करे, क्या न करे? उसने उस थियेटर के मालिक को एक खत लिखा, और लिखा कि क्या कृपा करके इतनी व्यवस्था नहीं कर सकेंगे कि जब हाॅल में अंधेरा हो जाए तो मैं पीछे के दरवाजे से आ जाऊं और नाटक देख लूं और लोग मुझे न देख पायें। कोई गलती बात तो लिखी नहीं थी, यह तो हम सबकी रोज की बात है, हम सभी करते हैं। कोई ऐसी बात नहीं थी कि हंसे आप। बात ऐसी थी जैसा हम सभी करते हैं। यहां तक मामला कुछ बिगड़ा न था, यह तो बिलकुल स्वाभाविक था, जैसा रोज होता है, सबके साथ होता है, बाहर के दरवाजे पर दिक्कत होती है, हम पीछे के दरवाजे से चले जाते हैं। लेकिन कठिनाई यहां आई कि वह जो हाॅल का मैनेजर था, बड़ा अजीब आदमी रहा होगा। उसने उत्तर में चिट्ठी लिखी, उसने कहा कि मैं बिलकुल राजी हूं, और हमें बड़ी खुशी होगी, हमे बड़ी खुशी होगी कि आप हमारे नाटक को देखने आएंगे। लेकिन एक बड़ी कठिनाई है, इस हाॅल में ऐसे तो दरवाजे हैं जो पीछे की तरफ से हैं, लेकिन ऐसा कोई भी दरवाजा नहीं है, जो भगवान को दिखाई न पड़ता हो? आदमियों की आंख से तो बच जायेंगे, लेकिन भगवान का क्या होगा? हम सब भी सारी दुनिया करीब-करीब ऐसी स्थिति में है। हम दूसरों की आंख में तो धार्मिक हैं, अपनी आंख में धार्मिक हैं क्या? और अगर हम अपनी आंख के समक्ष धार्मिक नहीं हैं, तो परमात्मा की आंख के समक्ष कैसे धार्मिक हो सकते हैं? फिर हमारे यह जो आयोजन हैं ये क्या हैं? करोड़ों रुपया खर्च होता है, रोज है कि नये मंदिर बनते जाते हैं, नई किताबें छपती जाती हैं, नये साधु पैदा होते जाते हैं, नये उपदेशक, नये आंदोलन, अध्यात्म का ऐसा शोरगुल मचा है सारी दुनिया में हजारों साल से जिसका कोई हिसाब नहीं। कि अगर दूसरे प्लेनेट से कोई आए और केवल बातें सुने तो समझे कि जमीन पर तो रामराज कभी का आ चुका होगा। आदमी को न देखे और सिर्फ बातें सुने तब तो हैरान हो जाएगा, लेकिन इतना ये सब हम फिर क्यों करते हैं? कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह है कि जितना मनुष्य पापी होता चला जाता है, उतनी धर्म की बातें करने लगता है। और जितना मनुष्य विकृत होता चला जाता है, उतना पुण्य का विचार करने लगता है। क्यों? क्योंकि हम अपनी इस पाप की स्थिति को भूलना चाहते हैं। और सिवाय इसके कोई उपाय नहीं है। सिवाय इसके कोई उपाय नहीं है कि अगर मैंने बहुत पाप किया है तो मैं भूलने का उपाय करूं, तीर्थ जाऊं या कि मंदिर जाऊं , या कि टीका लगाऊं ताकि मैं कम से कम औरों के सामने तो धार्मिक हो सकूं और जब बहुत से लोगों की आखों में मैं धार्मिक हो जाता हूं, तो धीरे-धीरे रिफ्लेक्शन से, जब और सारे लोग मुझे धार्मिक समझने लगते हैं, और नमस्कार करन लगते हैं और कहते हैं कि बहुत धार्मिक आदमी है, दिन भर राम-राम का नाम इसके मुंह पर बना रहता है। तो उन सबकी बातें सुनकर मुझको भी विश्वास आने लगता है, कि कौन कहता है कि मैं पापी हूं, मैं तो धार्मिक हूं, कि इतने लोग कोई गलती तो नहीं मानते होंगे।
जितने ज्यादा लोग मुझे मानने लगते हैं कि मैं धार्मिक हूं उतना मुझे भी विश्वास आने लगता है और मेरा वह जो पाप का बोध था, वह जो मेरी पीड़ा थी कि अधर्म है मेरे जीवन में वह ढकने लगती है, छिपने लगती है। ढकती जाती है और मैं उसे भूलने लग जाता हूं। हम भूलने के लिए धार्मिक होना चाहते हैं। अगर हम सच में धार्मिक होना चाहते हों, तो यह रास्ता नहीं है कि हम कोई नकल करें धार्मिक होने की, रास्ता यह है कि अपने अधर्म को पहचाने कि वह कहां है? उसकी जड़ें कहां हैं? उन जड़ों को पकड़े और उखाड़ें और परिवर्तित करें। धार्मिक होना बड़ी आधारभूत क्रांति है। धार्मिक होना जन्म से नहीं होता, एक आदमी पैदा हुआ और किसी घर में पैदा हो गया और बस उसी धर्म का हो गया। कितनी बच्चों जैसी बात है, इतनी इम्मैच्योर बात है? कि आप एक घर में पैदा हो गए, उस घर के लोगों के नाम के साथ में जैन की तख्ती लगी थी, आप भी जैन हो गए। कि आप एक घर में पैदा हो गए, उस घर के लोग कुरान को नमस्कार करते थे तो आप मुसलमान हो गए। कितने पागलपन की बात है, इतनी सस्ती बात है धार्मिक होना? मुफ्त में, केवल जन्म के अधिकार से कोई कभी धार्मिक हुआ है? और यह भी आसान नहीं है कि आपके पिता मानते हैं किसी मूर्ति को कि यह भगवान है, और आपने भी मान लिया तो आप धार्मिक हो गए। सच तो यह है कि जो व्यक्ति दूसरों की बातों को मान लेता है, वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता।नहीं हो सकता इसलिए कि उसकी अपनी आत्मगवेषणा नहीं है, उसकी अपनी खोज नहीं है, उसकी अपनी कोई आकांक्षा और प्यास नहीं है, जब मेरी प्यास होगी तो दुनिया में किसी की बात नहीं मानूंगा, जब तक कि मैं खुद पानी न पी लूं। अगर मेरी प्यास है, अगर मेरी प्यास नहीं है, तो आप बिलकुल ठीक कहते हैं, जरूर वहां सरोवर होगा, जरूर वहां होना चाहिए, जब आप कहते हो तो होना ही चाहिए। बात खतम हो गई। आप कहें तो यहीं से मैं नमस्कार किए लेता हूं उस सरोवर को, लेकिन मुझे काम में बाधा न दें, मुझे काम करने दें। मुझे तो कोई प्यास नहीं कि मैं सरोवर तक जाऊं, और खोजूं, जिनकी प्यास नहीं होती पानी के संबंध में वे दूसरों के सिद्धांतों को मान लेते हैं। क्योंकि सिद्धातों से कोई अड़चन नहीं होती, जीवन को बदलने में कोई अड़चन नहीं होती। कोई परिवर्तन करने की जरूरत नहीं होती।
आप जैन बने रहिए, मुसलमान, हिंदू कुछ भी बने रहिए, आपकी जिंदगी एक ढर्रे में चली जाती है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। और आसान है, आप कहते हैं कि परमात्मा है, आप कहते हैं कि आत्मा जरूर होगी, लेकिन हमारी अपनी कोई प्यास नहीं है। हमारी अपनी कोई अभीप्सा नहीं है। हमें खुद ऐसा नहीं लगता कि बिना सत्य को जाने जीवन निराधार है। हमें ऐसा नहीं लगता कि बिना सत्य को जाने जीवन मीनिंगलेस है, अर्थहीन है। हमें ऐसा नहीं लगता है कि बिना सत्य की भूमि को उपलब्ध किए मैं सारा समय व्यर्थ खो रहा हूं, और जिस जीवन संपदा को मैंने पाया है, वह रोज मौत में बदलती जा रही है। मैं मर रहा हूं रोज। मैं मौत की तरफ सरका जा रहा हूं। मेरे हाथ से वह अवसर छीना जा रहा है। हमें कोई प्यास नहीं है, हमें जिस बात की प्यास है, उसका हम खुद प्रयास करते हैं। आप इस बात से तृप्त नहीं होते कि दो हजार वर्ष पहले आपके जो परदादे थे वे बहुत धनी थे। धन आप खुद कमाते हैं। आप इस बात से तृप्त नहीं होते कि हजार वर्ष पहले हमारे परिवार में एक आदमी हुआ जो बादशाह था। नहीं, बादशाहत आप खुद पाना चाहते हैं। लेकिन जब भगवान का सवाल उठता है, आप कहते हैं कि महावीर को जो ज्ञान हुआ था बिलकुल सच्चा था, बुद्ध को जो ज्ञान हुआ था बिलकुल सच्चा था। बड़े महापुरुष हो चुके, हम उनकी पूजा करते हैं और प्रसन्न हैं। लेकिन वह ज्ञान हम कमाने के लिए उत्सुक नहीं हैं। इससे जाहिर है कि हमारे भीतर कोई प्यास नहीं है। अगर हमारे भीतर प्यास हो तो जन्म से कोई किसी धर्म को अंगीकार नहीं करेगा। अगर प्यास हो तो खोजेगा, श्रम करेगा, शक्ति लगाएगा, समय देगा और तब जो उसे जो अनुभव होगा, उस अनुभूति को वह अपनी संपदा मानेगा। वह अनुभूति उसे भीतर से बदलने लगेगी, और वह धार्मिक होने लगेगा। धार्मिक होना उधार स्वीकृति नहीं है। किसी से स्वीकार कर लेने की बात नहीं, लेकिन हम क्या जानते हैं? हम तो सब स्वीकार किए हुए हैं।
सोचे, खोजें अपने भीतर आज जितना जानते हैं, सब स्वीकार किए हुए है। आत्मा है आपने स्वीकार कर लिया है, परमात्मा है आपने स्वीकार कर लिया है, अहिंसा परम धर्म है स्वीकार कर लिया है। आपने खोजा है कुछ? और नहीं खोजा, तो आप सोचते हैं कि बिना खोजे धर्म मिल सकता है, धर्म बाजार में नहीं बिकता, न ही किसी साधु-संन्यासी के बस की बात है कि आपको दे दे। खुद भगवान भी उतर आए तो आपको धर्म नहीं दे सकता। और नहीं तो अब तक भगवान उतर कर सबको धर्म दे दिया होता। खुद तीर्थंकर भी खड़े हो जाएं, आपको धर्म देना चाहें तो नहीं दे सकते। नहीं तो कभी का धर्म सबको मिल गया होता, धर्म दिया नहीं जा सकता, सिर्फ लिया जा सकता है। कोई किसी को दे नहीं सकता, हां, कोई चाहे तो ले सकता है। और लेने में पैसिव एसेप्टिबिलिटी काम नहीं देगी, हम चुपचाप स्वीकार कर लें कि ये सब कहते हैं तो ठीक कहते होंगे, चुपचाप स्वीकृति काम नहीं देगी, पैसिव होना काम नहीं देगा, बहुत एक्टिव सर्च, बहुत सक्रिय खोज काम देगी। लेकिन आप कहेंगे हमें फुर्सत कहां। हम हैं अपने काम में, हम हैं अपनी दौड़ में, धर्म को कौन खोजे, चूंकि हम खुद नहीं खोज सकते इसलिए हमने कुछ दलाल बना रखे हैं। वे खोज लेते हैं, हम उनकी बात मान लेते हैं। चूंकि हम खुद नहीं खोज सकते, हमने पंडित किराए के रख रखे हैं, कुछ शास्त्र पढ़ लेते हैं और हमको बता देते हैं। चूंकि हम खुद प्रार्थना नहीं कर सकते, इसलिए घर में हम पंडित को बुला लेते हैं वह भगवान की प्रार्थना कर देता है, बैठ कर, हम उसको कुछ पैसे दे देते हैं, मामला निपट जाता है। चूंकि हम बहुत व्यस्त हैं, मगर सोचिए तो आपकी यह व्यस्तता यह खबर दे रही है, कि आपके लिए आत्मा, धर्म और परमात्मा से भी बड़ी बातें कुछ और हैं? जिनमें आप व्यस्त हैं। क्या आपको ऐसा अनुभव में आता है कि परमात्मा और धर्म से बड़ी और क्या बात हो सकती है? कौन सी बात बड़ी हो सकती है? यह जो जीवन का व्यवसाय है, यह जो धंधा है जीवन का, रोटी है, और कपड़ा है, और मकान है, और धन है, और दौलत है आप सोचते हैं, यह परमात्मा और धर्म से बड़ा हो सकता है? और अगर सोचते हैं, पता नहीं सोचते हैं या नहीं जीवन से तो हम सब यही सिद्ध करते हैं कि ये बड़ा है, क्योंकि इसके लिए हम कभी नहीं कहते कि हमें फुरसत नहीं, लेकिन परमात्मा और आत्मा की जब बात होती है तो हम कहते हैं, हमें समय कहां, हमें फुरसत कहां? जो महत्वपूर्ण है उसके लिए हमारे पास पूरा जीवन है। जो गैर महत्वपूर्ण है, उसके लिए हम कभी-कभी धार्मिक दिन निकाल लेते हैं, दस-पांच दिन और उसका भी विचार कर लेते हैं।
दस दिन में जितना अधर्म बच जाता होगा, दस दिन खत्म होते से ही एकदम टूट पड़ते हैं, उस अधर्म को पूरा कर लेते हैं, साल का हिसाब पूरा कर लेते हैं। उसे कहीं हम छोड़ते नहीं, उसे कहीं हम छोड़ने को राजी नहीं। क्योंकि किसी तरह कुछ दिन हम निकाल लेते हैं,फिर हम टूट पड़ते हैं, आखिरी हिसाब हम हमेशा पूरा कर लेते हैं। लेकिन थोड़ा विचारें कि क्या सच में यह बात है कि धर्म से भी महत्वपूर्ण कोई बात हो? नहीं धर्म से महत्वपूर्ण कोई दूसरी बात नहीं हो सकती। धर्म से महत्वपूर्ण इसलिए कोई दूसरी बात नहीं हो सकती है कि धर्म की अनुभूति ही व्यक्ति को आनंद, शांति और कृतार्थता के बोध में ले जाती है, उसके अतिरिक्त उसका जीवन चाहे वह कितना ही सोचे कि सफलता की ओर जा रहा है, आखिर में पाया जाता है कि विफल हो गया। दुनिया के बड़े से बड़े सफल जीवन आंतरिक अर्थों में विचार के समक्ष विफल जीवन है। आखिर में उनके हाथ में कुछ भी नहीं है। आखिर में उनके हाथ खाली हैं।
सिकंदर या नेपोलियन या हिटलर इनके पास क्या है? बड़े से बड़े करोड़पति, इनके पास क्या है, बड़े से बड़े सम्राट इनके पास क्या है? क्या है जिसे कहा जा सके, क्या है इनकी उपलब्धि, शायद हम कहें कि इतने बड़े होकर अहंकार की तृप्ति होती है। और तो कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। जिसके पास जितनी ज्यादा संपत्ति है, जितना ज्यादा धन है, जितना बड़ा मकान है, जितना बड़ा साम्राज्य है, उसका अहंकार उतना ही तृप्त होता है, वह सबके ऊ पर है। लेकिन कैसी बच्चों जैसी बात है, जैसे छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, उनसे हम कहें कि हम तुमसे बड़े हैं तो वो बगल के स्टूल पर खड़े हो जायेंगे और कहेंगे हम तुमसे बड़े हैं। क्योंकि हम तुमसे ऊ पर हैं। इस बच्चे पर हम हंसते हैं कि छोटा सा बच्चा है, चाइल्डिश भी है, बचकानी बुद्धि है। बड़ी कुर्सी पर खड़ा होकर समझता है कि हम बड़े हो गए, लेकिन आपको पता है कि जो बड़े मकान में बैठ कर समझ रहा है कि हम बड़े हो गए, वह इससे भिन्न है? उसमें कोई फर्क है? जो आदमी राष्ट्रपति के पद पर बैठ कर सोच रहा है कि हम चपरासी से बड़े हो गए, उसमें कुछ फर्क है? इसमें कोई बुनियादी भेद है? यह तो एक ही बात है, इसमें कोई भी फर्क नहीं है।
एक मित्र ने मुझे एक घटना सुनाई थी। उन्होंने मुझे बताया कि एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट था, वह अपनी अदालत में खुद के बैठने की कुर्सी के अलावा कोई भी कुर्सी नहीं रखता था। लेकिन उसने सात नंबर की कुर्सियां बनवा रखीं थी, वे बगल के कमरे में छिपा रखी थीं। वह देख लेता था कि आदमी कितनी कीमत का है, उस हिसाब से कुर्सी मंगवाता था। उसने नंबर डाल रखे थे, ए नम्बर से सात तक। एक नंबर का छोटा सा मूढ़ा था, छोटा स्टूल था, दो नंबर का बड़ा था, फिर तीन नंबर का, फिर चार नंबर की कुर्सी थी, फिर पांच नंबर की और अच्छी कुर्सी थी, ऐसे ही सातवें नंबर की सबसे बढ़िया कुर्सी थी।
देख लेता था, अगर ऐसा-वैसा आदमी हुआ, और ऐसे-वैसे आदमी ही ज्यादा हैं इस दुनिया में, तो उनको वैसे ही खड़े-खड़े निपटा देता था। दिखा की हां, इसकी जेब में कुछ गर्मी है, या कि सिर थोड़ा अकड़ा हुआ है, या कि रीढ़ बड़ी सीधी करके चलता है, या कि कपड़ों पर चमक है; तो फिर वह नंबर के हिसाब से कुर्सियां बुला लेता था। एक दिन एक आदमी आया और उसने सब गड़बड़ कर दिया। वह आदमी ही गड़बड़ था। आया तो देखने में ऐसा लगा कि नोबडी, ना-कुछ, कोई खास नहीं। लेकिन आते से उसने...तो उसने कोई बुलाने की जरूरत नहीं समझी, चपरासी अपने कोने में ही बैठा रहा। उस आदमी ने आकर कहा कि क्या आप मुझे पहचाने नहीं? फलां-फलां गांव का मैं मालगुजार हूं। यह सुनते से ही वह हैरान हुआ उसने जल्दी से चपरासी को, क्यों बैठा हुआ है, जा जल्दी से ला, नंबर दो वाली, नंबर दो ले आ। वह नंबर दो लेने भीतर गया, तब तक उसने बताया शायद आपको अभी खयाल नहीं आया, सरकार ने मुझे रायबहादुर की पदवी दी थी। कुर्सी नंबर दो की लेकर चपरासी बीच में ही था, उसने चिल्ला कर कहा कि रख, रख...उसको वहीं रख, नंबर चार ले आ।
वह भीतर गया तब तक उसने बताया कि नहीं आप अब भी मुझे नहीं पहचान पाए, अभी दस लाख रुपया मैंने वारफंड में दिया है, उसका भी आपको पता नहीं है। बहुत हैरान हो गया, आदमी बड़ा ही गड़बड़ था, सब हिसाब खराब किए दे रहा था, वह चपरासी तब तक चार नंबर की कुर्सी लाता था, उसने चिल्लाया कि तू रुक, नंबर छह ले आ। उस आदमी ने कहा कि काहे को चपरासी को व्यर्थ परेशान करते रहे हैं? नंबर सात ही बुलवा लें मुझे सब पता है, क्योंकि अभी मैं कुछ और बातें बताऊं गा, अभी कुछ और बातें हैं बताने की, क्योंकि मैं आगे अभी और दस लाख का फंड देने का विचार करके आया हूं। आप नंबर सात ही बुलवा लें।
हमें हंसी आती है, इस मजिस्ट्रेट पर, लेकिन हम सब इसी तरह के लोग हैं। छोटी कुर्सी पर बैठा हुआ छोटा आदमी है, बड़ी कुर्सी पर बैठा हुआ बड़ा आदमी है। छोटे मकान में बैठा आदमी छोटा, बड़े मकान में छोटा आदमी बड़ा; जमीन पर खड़ा आदमी छोटा, आकाश में लटक जाए किसी तरकीब से तो बड़ा। यह दौड़ है हमारी। जिसको हम कहते हैं हमें फुर्सत नहीं है, हमें समय नहीं कि हम धर्म के और आत्मा के बाबत विचार कर सकें। किस चीज से समय नहीं है आपको? समय नहीं है नंबर एक की कुर्सी वाला नंबर दो की कुर्सी पर जाने में लगा है। और नंबर दो की कुर्सी पर जाना कोई आसान है, क्योंकि नंबर दो की कुर्सी पर कोई पहले से बैठा है। और नंबर दो की कुर्सी वाला नंबर तीन की कुर्सी पर जाने में लगा है। और ये सातों कुर्सियां बड़े आश्चर्य की बात है, ऐसी सीढ़ियों की तरह नहीं खड़ी हैं, ये सातों कुर्सियां एक गोल घेरे में रखी हैं। और हर एक के आगे कोई न कोई कुर्सी है, ऐसा कोई आदमी आज तक जमीन पर नहीं हुआ जिसके आगे कोई कुर्सी न हो, जिस पर उसे पहुंचना है। हुआ कोई एक आध आदमी जिसने कहा हो मैं आखिरी नंबर एक आ गया। न सिंकदर ने कहा, न नेपोलियन ने कहा, न किसी ने कहा। किसी न यह नहीं कहा कि मैं नंबर एक आ गया, दौड़ खत्म। इसका क्या मतलब है, इसका मतलब है जरूर मनुष्य दस चक्कर में घूम रहे हैं, नहीं तो कोई न कोई तो पहले नंबर आ जाता इतने हजार सालों में। कोई न कोई तो एक जगह पहुंच जाता, जहां वह कहता कि अब सब मेरे पीछे हैं, मैं सबसे आगे मेरी आत्मा तृप्त हो गई। आज तक किसी आदमी ने नहीं कहा, इससे जाहिर होता है, मनुष्यता एक गोल चक्कर में घूम रही है, उसने आज तक नहीं कहा कि कोई हमारे आगे है। हमेशा कोई हमारे पीछे है, न तो कोई बिलकुल आगे है, न कोई बिलकुल पीछे है, इस चक्कर में हम उलझे हैं और कहते हैं धर्म के लिए हमें फुरसत कहां, समय कहां। कभी भाग-दौड में थोड़ा बहुत निकाल लेते हैं, वह दूसरी बात है, थोड़ा ध्यान रख लेते हैं, पता नहीं कि परमात्मा हो ही और बाद में कोई दिक्कत दे। पता नहीं कहीं आत्मा निकल ही आए और बाद में झंझट हो, इसलिए थोड़ा बहुत लगाव उस तरफ भी थोड़ा-बहुत खर्च करते रहना, उचित है, उपयोगी है। यह हमारी जो व्यवसायी बुद्धि है, उस तरह हम सोचते हैं। लेकिन स्मरण रखें इस दौड़ में सिवाय दुख के और क्या है? आप सभी कुछ न कुछ दौड़ लिए हैं, स्मरण करें इस दौड़ में सिवाय दुख के और क्या मिला है? और जिस भांति आप आज तक दौड़े हैं, अगर वही आपका मस्तिष्क और वही आपकी बुद्धि और वृत्ति रही तो आगे भी तो इसी भांति दौडेंगे। और अगर आज चालीस साल की उम्र तक या पचास साल की उम्र तक आपको कोई जीवन के रस की अनुभूति उपलब्ध नहीं हुई, तो क्या आप सोचते हैं कि इन्हीं पटरियों पर आगे हो जाएगी। तो उनसे पूछ लें जो आपसे आगे चले गए हैं, या उनसे पूछ लें जो कि खत्त्म हो गए हैं, और लाशें पड़ी हैं, और कब्रों में दफना दिए गए हैं। तो पूछ लें अपने चारों तरफ लेकिन हम पूछने को भी राजी नहीं हैं। हम देखने को भी राजी नहीं हैं कि जो हम कर रहे हैं, उससे किसी और को भी कुछ मिला है। एक साधारण बुद्धि भी विचार कर लेती है कि मैं जो काम करने जा रहा हूं, इससे किसी और को भी कुछ मिला है? लेकिन बड़ा आश्चर्य, बड़ा मिरेकल है हर आदमी उस जगह गड्ढे खोद रहा है, जहां कुछ भी मिलने को नहीं है, और अपने आस-पास नहीं देख रहा है कि करोड़ों लोग भी उस तरह के गड्ढे खोद रहे हैं, जिनको कुछ भी नहीं मिला। और उनसे भी पहले अरबों लोग वहां गड्ढे खोद चुके हैं, उन्हीं गड्ढों में गिर गए हैं और मर गए हैं और कुछ भी नहीं मिला। लेकिन आंख उठा कर देखने की आप कहते हैं फुर्सत नहीं, आप कहते हैं कि मैं अपना गड्ढा खोद रहा हूं। पास देखूं, आंख उठा कर देखने को मैं धर्म कहता हूं, आंख उठा कर देखें चारों तरफ क्या हो रहा है? जिस पड़ोसी से आपके मन में ईष्र्या भर रही है, और सोचते हैं, कि वैसा मकान मेरे पास हो जाए, थोड़ा आंख उठा कर देखें उस पड़ोसी को उस मकान में क्या मिल गया है। जिस बड़े पद पर बैठे देख कर आदमी को जलन पड़ती है, प्राण अकुलाते हैं कि मैं भी वहां पहंुच जाऊं, थोड़ा उसमें झांकें और देखें उसे क्या मिल गया है?
एक कहानी आपसे कहूं। एक युवक गुरुकुल से वापस लौटा, गुरु को छोड़ कर जा रहा था, उसकी अंतिम परीक्षाएं भी पूरी हो गई, सभी विद्यार्थी बड़े-बड़े घरों के थे, वे सब गुरु को कुछ न कुछ भेंट दे रहे थे। वह भी देना चाहता था। गुरु के पैर में सिर रखा उसने और कहा कि मैं बड़ा दीन-हीन मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। मैं क्या भेंट करूं? गुरु ने कहाः कोई भेंट की बात नहीं, तुमने प्रेम दिया, श्रद्धा दी, वह बहुत है, वह अमूल्य है। तुम निश्चिंत जाओ, मन में कोई पश्चाताप न करो। लेकिन उसने कहा, एक ही शर्त पर मैं जाऊं गा, आप मुझे विश्वास दिला दें कि जब भी मेरे पास कुछ हो, जो भी छोटा-मोटा मैं भेंट करने आऊं , तो आप इंकार नहीं करेंगे। इसी शर्त पर वह गया। रात जाकर राजधानी में अपने एक मित्र के घर ठहरा, उसने अपने दुख की बात कही कि मैं सोचता था कि अगर मेरे पास कुछ भी होता तो अपने गुरु को दे देता, तो मेरा मन आनंदित होता। मैं बड़े भार में दबा हूं, मेरे मन में बड़ी चोट, बड़ा दुख है। उसने कहा तुम क्यों परेशान हो, इस गांव का जो राजा है, वह जो भी व्यक्ति जाता है, जो व्यक्ति उस राजा के पास जाता है, जो भी मांगता है सुबह जाकर वह उसे भेंट कर देता है, तो तुम जाओ, और राजा से भेंट मांग लो। क्या मांगना है? अभी तक उसने सोचा नहीं था। उसने सोचा था कि अगर एक सोने की मोहर भी मैं पा सका जीवन में तो भेंट कर दूंगा। लेकिन जब उसने सुना कि राजा जो भी मांगो दे देता है, तो फौरन बोला मैं पांच सोने की मोहरें चाहता हूं। उसने कहा कोई बड़ी कठिनाई नहीं, तुम जाओ और सुबह ही चले जाओ।
वह सुबह ही सुबह उठ कर चला गया, कोई पांच ही बजे होंगे और राजा बगिया में टहलता था उठ कर। पुराने दिनों के राजाओं की बात है, आज-कल के राजा पांच बजे बगियाओं में नहीं टहलते, ऐसे तो आज-कल कोई राजा ही नहीं होते, क्योंकि सभी राजा हो गए हैं। मगर पुराने जमाने की बात है। वह पांच बजे उठ कर बगिया में टहलता था, यह युवक गया, इसने जाकर हाथ जोड़े और कहा कि मैं एक याचक हूं, मैं शायद प्रथम याचक हूं दिन का और मैंने सुना कि प्रथम याचक जो भी मांगता है, आप दे देते हैं। क्या मैं निवेदन करूं? राजा ने कहाः खुशी से, खुशी से। राज्य इतना धनी है हमारा कि यहां दान का सुख हमें नहीं मिल पाता। कभी कोई आता ही नहीं, वर्षों से प्रतीक्षा करता हूं, तुम आ गए बड़ी खुशी, बोलो क्या मांगते हो? जो मांगोगे दूंगा। सोच कर आया था पांच मागूंगा लेकिन उसने कहा, जो मांगोगे दूंगा, उसने सोचा पचास क्यों न मांग लूं, या कि पांच सौ क्यों न मांग लूं, या कि पांच हजार, या कि पांच लाख, वह सोच में पड़ गया, राजा ने कहा मालूम होता है तुम तय करके नहीं आए।
असल में कौन इस दुनिया में तय करके आया है कि क्या मांगना है? तो उसने कहा कि मैं एक चक्कर लगा आऊं , तब तक तुम तय कर लो। जो मांगोगे दे दूंगा इसलिए बहुत चिंता मत करो, जो भी तय करना है कर लो। वह और भी आश्वस्त हुआ, संख्या बढ़ने लगी। जैसे-जैसे आदमी आश्वस्त होता है कि मिल सकता है, वैसे-वैसे संख्या बढ़ती जाती है। जैसे-जैसे कुछ मिलता है, उसकी दौड़ बड़ी होती चली जाती है, क्योंकि विश्वास आता है कि मिल सकता है। इसीलिए तो दरिद्र धनी होता है, दरिद्रता मिटाने को लेकिन और बड़ा धनी होकर और बड़ा दरिद्र हो जाता है, क्योंकि मांग उसकी बढ़ती चली जाती है।
राजा चक्कर लगाकर लौटा,वह युवक अब तब आसमान छूने लगा था, गणित की जितनी संख्याएं उसे मालूम थीं, वो सब पार हो चुकी थीं। अब उसे कुछ नहीं सूझ रहा था कि आगे और...आज उसे पछतावा हो रहा था कि गणित में पहले एक और कुशलता क्यों न प्राप्त कर ली? संख्याएं याद नहीं आ रही थीं आगे की अब और क्या मागूं? तब उसने सोचा कि संख्याओं से काम नहीं चलेगा, क्योंकि हम मांगे संख्याओं में और राजा के पास पीछे बहुत कुछ पीछे शेष रह जाए, तो बाद में पछतावा हो। इसलिए उचित है कि हम राजा से कहें कि जो भी तेरे पास है, सब दे दे। और जैसे हम इस मकान के भीतर आए हैं, एक कपड़ा पहन कर, ऐसा जो कपड़ा तुम पहने हुए हो, उसी को पहने ही बाहर हो जाओ। भीतर जाने की जरूरत नहीं है। स्वाभाविक था, कौन पागल होता, आप होते, मैं होता? जो कि यही बात नहीं करता, जिनके दिमाग में भी गणित साफ है, वो यही करते जो भी होशियार हैं, जिनको कि हम कहते समझदार हैं, वो यही करते। कोई नासमझ होता बात अलग है, उसने ठीक समझदारी का काम ही किया।पूछें अपने से आप क्या करते? यही करते। आदमी खोजना कठिन है, जो यही नहीं करता। और अगर ऐसा आदमी मिल जाए तो समझना कि वह परमात्मा के रस्ते पर है। कोई भी यही करता, यह सीधी-साफ गणित की बात है। इसमें कुछ उलझन भी तो नहीं है।
राजा लौटा उस युवक ने कहा कि क्षमा करें, मैंने निर्णय किया है क्या मैं बताऊं ? राजा ने कहाः बोलो। तुम्हारा निर्णय मैं समझ गया। क्योंकि ऐसी स्थिति में क्या निर्णय कोई कर सकता है? उसे मैं भी सोच सकता हूं, लेकिन तुम बोलो, संकोच न करो। उसने कहा मैंने निर्णय किया है, आप बाहर हो जायें मकान के। और जो भी आपका है, मुझे दे दें। राजा ने ऊपर हाथ उठाए, परमात्मा को कहा कि तुझे धन्यवाद! वह आदमी आ गया जिसकी मुझे वर्षों से प्रतीक्षा थी। युवक घबड़ा गया। वह तो सोचा था कि राजा घबरा जाएगा। उसने हाथ उठाए परमात्मा से कहा कि धन्यवाद! आ गया वह आदमी जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी। अब भार इस पर देता हूं, अब मेरी मुक्ति हुई। वह युवक बोला ठहर जायें, ठहर जाएं अभी धन्यवाद न दें। आप एक चक्कर और लगा आएं, मैं थोड़ा और विचार कर लूं। क्योंकि मैं तो बड़ी कठिनाई में पड़ गया। मैं तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मैं थोड़ा विचार कर लूं, मौका एक और दे दें, आपकी बड़ी कृपा होगा, राजा ने कहा देखो जो बहुत विचार करता है, वो फिर राजा नहीं हो सकता। बहुत विचार की जरूरत नहीं, अभी तो तुम युवा हो, यह तो बूढ़ों की बात है, तुम क्यों विचार करते हो? तुम तो लो और मुझे जाने दो, तुम देर मत करो क्योंकि देर का मतलब गड़बड़ है। जो विलम्ब करता है और विचार करता है, वह झंझट में पड़ जाता है। तुम तो लो और मुझे जाने दो।
वह युवक बोला कि नहीं, नहीं। इतनी कृपा करें, अबोध हूं, नामसझ हूं मुझे कुछ अनुभव नहीं, आप एक चक्कर लगा आएं, सिर्फ एक चक्कर। आपको पता है लौट कर क्या हुआ, वह युवक वहंा नहीं था, वह युवक भाग गया था। इसको मैं देखना कहता हूं। जिंदगी को चारों तरफ देखें, यह है अंतर्दृष्टि। जरा खोलें आंख और देखें कि चारों तरफ क्या हो रहा है? लेकिन आप अपना गड्ढा खोदने में लगे हैं, कोई अपना गड्ढा नहीं खोद रहा, सब अपनी कब्रें खोद रहे हैं। जिसको हम समझते हैं, मकान बना रहे हैं, वह आखिर में कब्र सिद्ध होता है। क्या होगा? और कुछ हो ही नहीं सकता, चूंकि यह सारे जीवन की दौड़ मौत में समाप्त होती है। इसलिए स्वभावतः जो भी हम करते हैं, वही हमारी कब्र का सामान बन जाता है। जो भी हम करते हैं तो फिर क्या हो, थोड़ा आंख खोल कर देखें चारों तरफ। थोड़ा विचार करें, थोड़ा होश से भरें, और तब आप पायेंगे कि धर्म के सिवाय शायद और कुछ भी सार्थक नहीं है। धर्म के सिवाय शायद और कोई सहारा नहीं है। धर्म के सिवाय शायद और कोई संबल नहीं है। और धर्म क्या है? संसार का अर्थ हैः दौड़ का जीवन, दौड़ना है कुछ पाना है, कुछ पाना है, कुछ पाना है। धर्म का क्या अर्थ है? धर्म का अर्थ है उसकी खोज जो है। संसार का अर्थ है उसकी खोज जो मिलेगा। संसार हमेशा आशा में भविष्य में है, संसार एक होप है। धर्म का क्या अर्थ है? धर्म का अर्थ है जो है। भविष्य में नहीं इसी क्षण; अभी और यहीं। संसार है हमेशा भविष्य में, कल मिलेगा, मेहनत करूं, कल मिलेगा। पाऊं , इकट्ठा करूं, जोडूं; धर्म है वह जो मौजूद है, इसी क्षण अभी और यहीं। वह जो है भीतर, वह जो सदा से आपके साथ है, वही आप हो, वही आपका स्वरूप है। वही आपकी आत्मा है। वही आपका होना है, वही आपका आॅथेंटिक बीइंग है। वह है। धर्म कोई पाने की चीज नहीं, धर्म है। संसार पाने की चीज है। संसार दौड़ने की चीज है। धर्म तो है, उसे कहां पाइएगा, उसे कहां जाकर पाइएगा? लेकिन जब तक संसार की दौड़ चित्त में होती है, तो चित्त इससे योग्य नहीं हो पाता, नहीं ठहर पाता कि उसे देख सकें जो है।
जब तक हम कुछ होने की दौड़ में हैं, तब तक हम उसे नहीं देख सकेंगे जो हम हैं। यही वासना और आत्मा का फर्क है। वासना है दौड़, कुछ होने की दौड़; और आत्मा है ठहर जाना उसमें जो हम हैं। कुछ भी होने की दौड़ वासना है, और उसमें ठहर जाना जो हम हैं, जो भी हम हैं, आत्मा है। वासना संसार है, आत्मा धर्म है। कैसे इस आत्मा को उपलब्ध करें, कैसे इसे जाने? कैसे इसे पहचानें?
तो मैंने कहा दौड़ के प्रति जागें, दौड़ की व्यर्थता को देखें, उठाएं मुर्दों को, उनसे पूछें जो जिंदा हैं, जो मुर्दा होने के इंतजार में हैं उनसे पूछें; आस-पास देखें, देखें कि यह कथा क्या है? यह क्या हो रहा है सब?
एक फकीर था, गांव के बाहर रहता था। फकीर तो बाद में हुआ, पहले तो एक बादशाह था वह। अपने महल में रहता था। एक रात सोया था, सोया क्या था, करवटें बदलता था। क्योंकि जिसके पास बहुत कुछ है, वह सो कैसे सकता है? उसे रखवाली होती है, उसे करवटें बदलनी होती हैं। जिसके पास कुछ नहीं है, वही सो सकता है। जिसके पास कुछ है और खोने का, चोरी जाने का डर है, वह कैसे सो सकता है? तो वह तो राजा था, बहुत उसके पास था, कैसे सोता, करवटें बदलता था, तभी उसने देखा कि ऊपर उसके छप्पर पर कोई चलता है, तो हैरान हुआ। रात बादशाह के महल के छप्पर पर कौन है? उसने चिल्ला कर पूछा कि कौन है यहां ऊपर? कौन चल रहा है? उसने कहा क्षमा करें, मेरा ऊं ट खो गया है, उसे खोजता हूं। उसने कहा कि पागल, कौन पागल है यह? ऊंट कहीं छप्परों पर खोते हैं? ऊंट कहीं छप्परों पर खोजने से मिलेंगे? ऊपर से वह आदमी जो भी रहा हो, खूब हंसने लगा और उसने कहा कि तू सम्पत्ति में स्वयं को खोजता हो, साम्राज्य में सत्य को खोजता हो, चीजें इकट्ठी करके आनंद खोजता हो, परिग्रह में शांति खोजता हो, और तुझे विरोध न दिखता हो, लेकिन मैं छप्पर पर ऊंट खोजता हूं तो तुझे विरोध दिखता है? क्या मेरी खोज से तेरी खोज ज्यादा असंगत नहीं है? राजा भागा बाहर आया, यह आदमी पागल नहीं था, यह तो पकड़ने जैसा था, पूछने जैसा था, लेकिन वह आदमी मिला नहीं। वह आदमी तो भाग गया। लेकिन दूसरे दिन वह राजा भी भाग गया। उसने देखा ऊं ट छप्परों पर नहीं मिल सकते। परिग्रह में परमात्मा भी नहीं मिल सकता। वे दिशाएं अलग हैं, वासना में आत्मा नहीं मिल सकती, वे दिशाएं विरोधी हैं। फिर वह गांव के बाहर फकीर हो गया और गांव के बाहर रहने लगा। फिर तो अनेक लोगों से उसके झगड़े हो जाते और अनेक लोग उसको मारने को उतारू हो जाते, उसकी बात कुछ गड़बड़ थी। असल में जिन्होंने जाना है, उनकी बात थोड़ी गड़बड़ हो ही जाती है। जिन्होंने नहीं जाना उनकी बात बिलकुल ठीक-ठीक होती है, उसमें कुछ गड़बड़ नहीं होता।
झगड़ा उसका उपद्रव हो जाता था, कोई भी राहगीर निकलता वह चैरस्ते पर रहता था, कोई भी राहगीर निकलता उससे पूछता बस्ती का रास्ता कहां है? तो वह कहता बाईं तरफ चले जाओ, और भूल कर भी दाएं तरफ मत देखना। एकदम बांए तरफ जाओ। कोई भी उसकी बात मान लेता, फकीर की बात कौन झूंठ बोले, लेकिन बाईं तरफ जाकर आदमी पाते कि वे तो मरघट में पहुंच गए। वहां मरघट था गांव का। वह गुस्से में वापस लौटा दो-चार मील चल कर कहता तुम कैसे पागल हो? मरघट में भेज दिया। बस्ती कहां है? तो वह कहता जहां तक मेरी समझ है, जिसको लोग बस्ती कहते हैं, वहां बसने वाला कोई भी नहंी है, सब उजड़ने वाले हैं। वहां तो सब मुर्दे हैं जो तैयार हैं मुर्दा होने को। वहां तो मरने की तैयारियां चल रही हैं, जिसको लोग बस्ती कहते हैं। सो मैंने से बस्ती कहना बंद कर दिया है, ये मरघट से कोई नहीं भागता, जो बस गया है वहीं बसा हुआ है। इसलिए मैं इसको बस्ती कहता हूं।
इस पर झगड़ा हो जाता, लोग उसको मारने को उतारू हो जाते। तुमने हमारा समय खराब किया। मरघट भेज दिया। लेकिन मैं भी आपसे यही कहना चाहता हूं, चारों तरफ आंख खोल कर देखें आप पाएंगे जो जिंदा हैं वो मरने की तैयार में हैं। जो मर गए हैं वे मरघट पर हैं। जो अभी पैदा नहीं हुए वे भी मरने की तैयारी के किसी क्रम में गुजर रहे होंगे। मरने का इतना जाल फैला हुआ है, या तो कुछ लोग मर गए हैं, या कुछ लोग मरने वाले हैं या कुछ लोग पैदा होकर मरेंगे। इस मरने के जाल में आप इतने व्यस्त हैं कि कहते हैं कि मुझे फुरसत कहां कि मैं धर्म को जानूं। तो फिर मरिए। लेकिन फिर होश से मरिए, समझ कर मरिए कि मरने का काम चल रहा है, इसमें हम लगे हुए हैं, तो मरेंगे ठीक है, गड्ढा खोद रहे हैं, इस में हमारी कब्र बनेगी। लेकिन जरा गौर से देखेंगे तो कोई आदमी अपना गड्ढा अपनी कब्र नहीं खोदना चाहता। कोई आदमी मरना नहीं चाहता, कोई आदमी मिटना नहीं चाहता। तो फिर धर्म है, तो फिर आत्मा का मार्ग है, वहां भीतर चलें, वहां खोजें, वहां जागें और देखें वहां देखने पर पता चलता है कि सच में हम दौड़ते थे, इसलिए उसे खो गए थे, जो हमारे पास था। जो निरंतर हमारे पास था, दौड़ने के ऊहापोह में, दौड़ने के ज्वर में, फीवर में याद नहीं रहा था, कई बार हो जाता है, कई बार हो जाता है। जब हम बहुत तेजी से दौड़ते हैं, तो दौड़ की तेजी, दौड़ की गति उसको भुला देती है, जो हमारे पास है। जो हमारे निकट है। ऐसा ही हुआ है। धर्म है स्वरूप, संसार है दौड़ और दौड़ क्या है? दौड़ है अहंकार की। इसके प्रति जागें। सजग हों, जो जागता है, सजग होता है, विचार करता है, देखता है, वह फिर बहुत ज्यादा दिन तक उस गड्ढे को नहीं खोद सकता है जो उसकी कब्र बनेगा। फिर वह उस मंदिर को खोजने लगता है, जो उसका शाश्वत आवास बन सकता है, वह मंदिर ही धर्म है, वह मंदिर ही परमात्मा का मंदिर है, वह भीतर है। वह सबके पास है। अभी और यहीं मौजूद है। छोड़ें दौड़ और देखें, इतना सरल सा सूत्र है धर्म का--छोड़ें दौड़ और देखें।
यह छोटे से सूत्र पर विचार करना। विचार करने को कह रहा हूं, मानने को नहीं। यह नहीं कहता हूं कि मेरी बात मान लेना। क्योंकि मेरी बात अगर मान ली तो मैं आपका दुश्मन हो गया। अगर मेरी बात मान ली तो आपकी खोज खत्म। ऐसे तो आपने बातें मान ली हैं किसी न किसी की, नहीं किसी की मत मानना। मैं जो कहता हूं सोचना, विचार करना, देखना प्रयोग करना; हो सकता है बात मेरी बिलकुल ही गलत हो, हो सकता है कि बिलकुल ही झूठी हो। तो जब आप देखेंगे, खोजेंगे, विचार करेंगे उसका असत्य दिख जाएगा और आप बंधन से बच जाएंगे। हो सकता है उसमें कुछ हो, हो सकता है उसमें कोई रहस्य हो, कोई राज हो, कोई बीज हो, जो खोजें और मिल जाए तो आपका जीवन परिवर्तित हो जाए। लेकिन मेरी बात मानना मत क्योंकि जो मान लेता है, वह खोजता नहीं प्रयोग नहीं करता। मानना मत। इसका क्या अर्थ है? इसका क्या यह अर्थ है कि मेरी बात मत मानना? क्योंकि जो नहीं मानता वह भी नहीं खोजता। जो मान लेता है वह भी नहीं खोजता। जो विश्वास कर लेता है वह भी रुक जाता है, जो अविश्वास कर लेता है वह भी रुक जाता है। फिर क्या करना? न विश्वास करना, न अविश्वास करना, मेरी बात पर विचार करना। होशपूर्वक विचार करना। विचार करने से आपके भीतर ऊर्जा जगेगी, हमने हजारों साल से विचार करना बंद किया हुआ है, हम विचार नहीं करते, हम तोतों की भांति रटते हैं, कोई गीता रटता है, कोई कुरान रटता है, कोई बाइबिल रटता है, सब रट रहे हैं। सोच नहीं रहे। सोचें तो जीवन में क्रांति हो जाए, अभिनव जीवन पैदा हो जाए। सोचें। देखें जीवन को। जो भी कर रहे हैं, रुके एक क्षण और देखें कि मैं क्या कर रहा हूं? और वस्तुतः इसका कितना मूल्य है क्या इसके लिए मैं जीवन समाप्त करूं? और अगर यह सोच सारी दुनिया में पैदा हो सके, थोड़े से लोगों में भी यह क्रांति और अग्नि पैदा हो सके तो इस दुनिया में अब, इस बीसवीं सदी में इतना कपड़ा, इतना भोजन, इतने मकान सबके लिए उपलब्ध हो सकते हैं कि किसी को चिंता का कोई कारण न हो। लेकिन यह सोच किसी को नहीं है और सब बडे से बड़े होने में, बड़ी से बड़ी कुर्सी पर चढ़ने में लगे हुए हैं। उसके कारण वे खुद की आत्मा तो खोते हैं और सारे जगत से शांति और आत्मा को भी नष्ट कर देते हैं। जो व्यक्ति अपने भीतर धर्म को नहीं खोजता, उसका जीवन बाहर के जगत में अधर्म का प्रचार और प्रसार बन जाता है।
तो जहां करोड़-करा.ेड, अरबों लोग अज्ञान के स्थिति में बिना अपने को जाने, बिना अपने को खोजे रह रहे हों, वहां इतना विषाक्त, इतनी कलह, इतना क्लेश, इतनी घृणा भर गई है कि हर दस-पांच साल में उसे निकालने के लिए एकाध युद्ध करना पड़ता है। युद्ध निकास है। सारी हमारी घृणा, सारे उपद्रव हमारे दिमाग के जल जाते हैं, निकल जाते हैं। दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या की है हमने, आपने, मैंने, हमने दस करोड़ लोगों की हत्या की, दो महायुद्धों में, फिर भी हमारे सिर पर कोई चिंता नहीं आती, कोई लहर नहीं आती कि कैसी दुनिया है ये, यह क्या हो रहा है? और अब हम तैयारी कर रहे हैं, सबके विनाश की। क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं शांति में नहीं है, वह स्वयं अशांति फैलाने के और कुछ भी नहीं कर सकता। जो व्यक्ति खुद बीमार है, वह बीमारी के रोगाणु तो फैलाएगा और करेगा क्या? तो धर्म न केवल व्यक्ति की बल्कि समस्त समष्टि की आधारशिला है। और जितने हम उससे दूर होते हैं, उतने ही हम विकृत, और पतित और दीनहीन, दरिद्र और दुखी होते चले जाते हैं। जितने हम उसके निकट होंगे, उतनी ही एक गौरवपूर्ण गरिमा उत्पन्न होगी, व्यक्तित्व का जन्म होगा, भीतर एक आनंद का जगत उदघाटित होगा। द्वार खुलेंगे उस दुनिया के जिसका हमें कोई भी पता नहीं, उस अननोन, उस अज्ञात स्रोत का हमारे भीतर आगमन होगा जिसकी छोटी सी ध्वनि भी हमें नाद से भर देगी, नृत्य से भर देगी। जिसकी थोड़ी सी खबर भी संगीत बन जाएगी। जिसका थोड़ा सा आगमन भी हमारे सोए और मुर्दा प्राणों में जीवन की अदभुत लहर बन जाएगा। उस जीवन को आने दें, उस अज्ञात और अनंत जीवन को आने दें। लेकिन कैसे? रुकें और भीतर देखें, वहीं उस दर्शन से ही उसको द्वार मिलता है।

ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इनको इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे उस परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
जिसकी मैंने बात की, और उस परमात्मा से प्रार्थना करता हूं जागरण दे, प्रकाश दे सबके जीवन में आनंद और शांति दे। धर्म आ सके जमीन पर, तो जमीन मोक्ष बन सकती है। और धर्म तिरोहित होता जाए जमीन से तो हम नरक में जी रहे हैं और और बड़े नरकों की तैयारी में जी रहे हैं। परमात्मा प्रकाश दे। पुनः सबको प्रणाम करता हूं।


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