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रविवार, 11 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

पीवत रामरस लगी खुमारी

सूत्र:

छारि पर्यौ आतम मतवारा।
पीवत रामरस करत बिचारा।।
बहुत मोलि महंगै गुड़ पावा।
लै कसाब रस राम चुवावा।।
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा।
मांगि मांगि रस पीवै बिचारा।।
कहैं कबीर फाबी मतवारी।
पीवत रामरस लगी खुमारी।।

सील-संतोख ते सब्द जा मुख बसै, संतजन जौहरी सांच मानी।
बदन विकसित रहै ख्याल आनंद मैं, अधर मैं मधुर मुसकान बानी।
सांच गेलै नहीं झूठ बोलै नहीं, सुरत मैं सुमति सोइ स्रेष्ठ ज्ञानी।
कहत हौं ज्ञान पुकारि कै सबन सों, देत उपदेस दिल दर्द जानी।
ज्ञान को पूर है, रहनि को सूर है, दया की भक्ति दिल माहिं ठानी।
ओर ते छोर लौं एक रस रहत है, ऐस जन जगत मैं बिरलै प्रानी।
ठग्ग बटमार संसार में भरि रहे, हंस की चाल कहं काग जानी।

चपल और चतुर हैं बनै बहु चकिने, बात मैं ठीक पै कपट ठानी।
कहा तिन सों कहों दया जिनके नहीं, घात बहुतें करैं बकुल ध्यानी।।
दुर्मती जीव की दुबिध छूटे नहीं, जन्म जन्मांत पड़ नर्क खानी।
काग कूबुद्धि सूबुद्धि पावै कहां, कठिन कट्ठोर बिकराल बानी।
अगिन के फुंज हैं सितलता तन नहीं, अमृत और विष दोऊ एक सानी।
कहा साखी कहे सुमति जागा नहीं, सांच की चाल बिन धूर धानी।
सुकृति और सत्त की चाल सांची सही, काग बक अधम की कौन खानी।
कहै कबीर कोउ सुघर जन जौहरी, सदा सावधान पियो नीर छानी।।

जॅार्ज गुरजिएफ से उनके एक शिष्य ने पूछा: ‘आप मनुष्य को प्रेम करते हैं या नहीं? ’ पूछने का कारण था, क्योंकि गुरजिएफ मनुष्य के संबंध में अति कठोर सत्य बोलता था। कहता था: मनुष्य है ही नहीं फृथ्वी फर, मशीनें हैं। मनुष्य तो कभी-कभार फैदा होता है..कोई बुद्ध, कोई जीसस, कोई जरथुस्त्र; शेष तो सब यंत्र हैं। धोखे में हैं मनुष्य होने के। मनुष्य हो सकते थे, हो सकते हैं; लेकिन मनुष्यता जन्म के साथ नहीं मिलती, उपलब्ध करनी होती है, अर्जित करनी होती है, आविष्कृत करनी होती है।
गुरजिएफ यह भी कहता था कि आत्मा सभी व्यक्तियों में नहीं होती। यह और भी कठोर बात थी; क्योंकि सदा से ऐसा ही कहा जाता रहा है कि आत्मा प्रत्येक के भीतर है। लेकिन गुरजिएफ कहता था: सोई हुई आत्मा का होना और न होना बराबर है। जागे, तो ही है; सोई हो, तो नहीं है। कितनों की आत्मा जागी हुई है? जिनकी जागी है वे ही आत्मवान हैं, शेष सब आत्महीन हैं।
इसलिए प्रश्न स्वाभाविक था और शिष्य ने पूछा कि आप मनुष्य को प्रेम करते हैं या घृणा? आपके वचन बड़े कठोर हैं। गुरजिएफ ने जो कहा: उस पर खूब ध्यान देना। गुरजिएफ ने कहा: मनुष्य जैसा है उसे तो मैं घृणा करता हूं। उसकी सात पीढ़ियों पीछे तक घृणा करता हूं। और मनुष्य जैसा हो सकता है उसके प्रति मेरे मन में सिवाय समादर के और कुछ भी नहीं।
मनुष्य जैसा है, वह तो कूड़ा-करकट है। लेकिन जैसा हो सकता है! जैसा है, वह तो कीचड़ है, लेकिन हो सकता है कमल। बीज का क्या मूल्य; बीज जब विकसित हो, फूल खिलें, गंध उड़े, तो कुछ मूल्य है। हम केवल संभावना की भांति पैदा होते हैं। जीवन एक अवसर है..जीवन को पाने का। इससे ही तृप्त मत हो जाना, नहीं तो चूक जाओगे। इससे ही राजी मत हो जाना। मत समझ लेना कि जन्म मिल गया तो जीवन मिल गया। जन्म मिला तो केवल मृत्यु मिली, क्योंकि जन्म का अंत मृत्यु में है।
जीवन तो मिलता है..जन्म से नहीं; ध्यान से। एक और जन्म चाहिए..ध्यान का जन्म। द्विज होना होगा। एक जन्म तो मिलता है माता-पिता से। एक जन्म देना होता है स्वयं को। जो माता-पिता से मिलता है वह तो देह का जन्म है। देह तो मरेगी; वह तो क्षणभंगुर है। पानी का बबूला है; अभी है अभी नहीं। एक और जन्म है, जो स्वयं को ही देना होता है। वही शाश्वत है। वही ले जाता है महाजीवन में।
कबीर के ये सूत्र, उसी महाजीवन की तरफ एक-एक सीढ़ियों की भांति हैं। सीधे-सादे वचन, पर महावाक्य हैं ये।

कितनी दूरी मंजिल की हो
चलते चलते कट जाती है।

विदा दिवस-मणि की बेला में,
धरती तम-वसना बन जाती,
रजनी सुधि बुधि भूली जैसी
अगम गगन में सेज बिछाती;

कितनी रात अंधेरी हो पर
धीरे-धीरे कट जाती है।

साहस हो तो बढ़ चल आगे
हार न पंथी भर न निराशा,
कुहू निशा की बेला में भी
देख सितारा राह दिखाता;

घनी अंधेरी उजियाले की
एक रेख से फट जाती है।

भूल न भावुकता में भोले,
दुर्बलता न कभी फल पाई,
नहीं याचना से जीवन में
दो कण भी भिक्षा मिल पाई?

विश्वासों की कुछ किरणों से,
दुख की बदली छंट जाती है।

नींद रंगीली बन सकती है,
सपने स्वर्णिम बन सकते हैं,
ढलते रवि की किरणों में भी
इंद्रधनुष नव तन सकते हैं;

राह कंटीली प्रिय संबल पर
हंसते-हंसते कट जाती है।

कितनी दूरी मंजिल की हो
चलते-चलते कट जाती है।

यात्रा तो लंबी है। मार्ग तो कठिन है। चढ़ना है पर्वत-शिखर की ओर। उतार आसान होते हैं, चढ़ाव कठिन होते हैं। और यह तो अंतिम चढ़ाव है। चैतन्य के शिखर को छूना; इससे बड़ी न कोई यात्रा है, न कोई बड़ा अभियान है।
लेकिन घबड़ाना मत। कितनी ही हो दूर मंजिल, चलते-चलते कट जाती है। एक-एक कदम चल कर..लाओत्सु ने कहा है..दस हजार मीलों की यात्रा पूरी हो जाती है। यही सोच कर कोई बैठ रहे कि इन छोटे से कदमों से कैसे पहुंच पाऊंगा, तो फिर कोई यात्रा संभव नहीं; छोटी सी दूरी भी पूरी नहीं हो सकती। प्रत्येक को एक ही कदम तो मिला है। एक बार एक ही कदम तो चल सकते हो। मगर एक-एक कदम चलते-चलते अनंत यात्रा भी पूरी हो जाती है।
ये छोटे-छोटे कदम हैं जो कबीर सुझा रहे हैं। पहले तो बात करते हैं उस अंतिम घड़ी की, उस शिखर की, ताकि तुम्हारे मन में वीणा बज उठे। पहले तो दिखाते हैं दृश्य..दूर गौरीशंकर का, प्रभात के सूर्य में स्वर्ण जैसा चमकता हुआ! ताकि तुम्हारे भीतर भी एक अदम्य अभीप्सा जाग सके। और अभीप्सा जागे तो ही कोई यात्रा पर निकल सकता है। इतनी कठिन यात्रा छोटे-मोटे विचारों से नहीं होती..महासंकल्प चाहिए, समग्र संकल्प चाहिए!
इसलिए सारे संतों ने पहले तो परमात्मा की आनंद-अनुभूति के गीत गाए हैं कि तुम्हारे भीतर बीज अंकुरित हो उठे। उठे एक अदम्य भाव कि मैं भी पाकर रहूंगा। यह भरोसा जगाया है कि मिल सकता है तुम्हें भी। और फिर उस लंबी यात्रा के पड़ावों की चर्चा की है।
छारि पर्यौ आतम मतवारा।
कहते हैं कबीरः जैसे वर्षा हो उठे, जैसे घिर जाएं मेघ और अमृत बरस उठे..ऐसा हुआ है!
छारि पर्यौ आतम मतवारा।
ऐसी वर्षा हुई है आनंद की कि आत्मा मतवाली हो गई है।
पीवत रामरस करत बिचारा।
अब रामरस पी रहा हूं, जी भर कर पी रहा हूं। जितना पी सकूं उससे ज्यादा बरस रहा है। इस आनंद-अमृत में मदमस्त हूं, नाच रहा हूं, गा रहा हूं। और एक विचार उठता है: बहुत मोलि महंगै गुड़ पावा।’ लेकिन यह जो मधुरिमा मिली है, यह जो गुड़ मिला, यह जो मिठास मिली, यह बहुत कीमत चुका कर मिला। यूं ही नहीं मिला, मुफ्त नहीं मिला।
धर्म मुफ्त नहीं है और भिक्षा मांगने से नहीं मिलता। और धर्म सस्ता नहीं है और थोथे क्रियाकांडों, यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ, इस सब धोखे में समय मत खराब करना, ऐसे नहीं मिलता।
कहते हैं कबीर: बहुत मोलि महंगै गुड़ पावा।
बहुत कीमत चुकाई, तब यह मधुरिमा मिली है, तब यह मिठास मिली है। क्या कीमत चुकाई?
लै कसाब रस राम चुवावा।
वह जो कषाय रस भरे हुए थे, उनको निकाल बाहर किया। क्रोध है, मोह है, लोभ है, काम है, ईष्र्या है, मद है, मस्तर है..कषाओं से हम घिरे हैं। कषाय यानी शत्रु। इन शत्रुओं को जब निकाल कर बाहर किया...लै कसाब! राम ने जब ये सब कषाएं ले लीं, जब हमने सब ये कषाएं उसे दे दीं, उसके चरणों में चढ़ा दीं...!
फूल चढ़ाने से कुछ भी न होगा। फूल तुम्हारे हैं भी नहीं। तोड़ लिए गुलाब की झाड़ी से और चढ़ा दिए परमात्मा फर। परमात्मा भी तुम्हारा झूठा..पत्थर की मूर्ति; और फूल भी उधार..वे भी गुलाब के, तुम्हारे नहीं। झूठे परमात्मा पर उधार फूल चढ़ा कर तुम सोच रहे हो, अमृत की वर्षा होगी? तुम उस अलौकिक आनंद को उपलब्ध हो सकोगे? तुम उस स्वर्ण-शिखर पर पहुंच सकोगे? तुम्हारा पुनर्जन्म हो सकेगा? तुम्हारे जीवन में ऐसे वसंत आएगा? नहीं, इतनी सस्ती बात नहीं है।
कबीर कहते हैं: सब कषाएं जब उसके हाथ में दे दीं..अहंकार, मद-मत्सर, काम, क्रोध, लोभ सब चढ़ा दिए उसके पैरों पर...ये चढ़ाने की चीजें हैं। फूल चढ़ाने से क्या होगा? दीये जलाने से क्या होगा? नारियल फोड़ने से क्या होगा? सिर चढ़ाओ, अहंकार चढ़ाओ।
आदमी बड़ा चालबाज है। नारियल आदमी के सिर जैसा मालूम पड़ता है, इसलिए उसको खोपड़ा भी कहते हैं न! उसके आंखें भी होती हैं, दाढ़ी-मूंछ। आदमी ने तरकीब निकाल लीः अपना सिर चढ़ाने की जगह नारियल चढ़ाने लगा। अपना लहू चढ़ाने की जगह उसने मंदिर की मूर्तियों पर कुमकुम चढ़ा दी, लाल रंग से मूर्तियां पोत दी हैं। किसको धोखा दे रहे हो?
बहुत मोलि महंगै गुड़ पावा।
लै कसाब रस राम चुवावा।।
जब राम ने सब कषाएं रखवा लिए अपने चरणों में, तब रस की वर्षा हुई, तब उसने अमृत पिलाया।
तुम्हारा पात्र अगर गंदा हो तो उसमें अमृत भी पड़ेगा तो गंदा हो जाएगा। तुम्हारा पात्र अगर जहर से भरा हो तो उसमें अमृत कौन डालेगा! पहले तो इस सारे जहर को परमात्मा को सौंप देना होगा। और कुछ तुमसे मांगता नहीं परमात्मा..कोई धन नहीं मांगता, कोई पद नहीं मांगता, कोई प्रतिष्ठा नहीं मांगता। मांगता है तुम्हारे रोग, तुम्हारी बीमारियां, ताकि तुम्हें स्वास्थ्य दिया जा सके।

ज्योतित दीप झरो!

वसुधा के आंगन में नभ के
ज्योतित दीप झरो!

घोर अमा के अंधकार में
नभ, भू, तम की गहन धार में
शुभ आलोक भरो!
ज्योतित दीप झरो!

निर्मल-नभ का हास्य अनोखा
धरणी मंद-मंद मुस्काती,
नई नवेली बनी सुहागिन
तारों से शुभ मांग सजाती,

दीप अवनि से उमग-उमग कर
तम पर टूट पड़ो।

प्रार्थनाएं तो करते हैं लोग कि जलो दीप, ज्योतित दीप झरो! प्रार्थनाएं तो लोग करते हैं: अंधकार गहन है। हे परमात्मा, हे ज्योतिर्मय..ज्योति दे! पर कीमत चुकाने की बात ही भूल जाते हैं, बस प्रार्थनाएं चलती रहती हैं। और ऐसी प्रार्थनाएं न सुनी जाती हैं, न ऐसी प्रार्थनाएं कभी किसी सार्थकता को उपलब्ध होती हैं। ऐसी प्रार्थनाओं में गंवाया समय बस सिर्फ गंवाया समय है। प्रार्थना का मूल्य तभी है, प्रार्थना की प्रामाणिकता तभी है, जब तुम उसके साथ मूल्य भी चुकाने को राजी होओ। और मूल्य क्या है? कूड़ा-करकट सब चढ़ा दो उसके चरणों में। देने योग्य तुम्हारे पास और है भी क्या? हीरे-जवाहरात तो हैं भी नहीं: कंकड़-पत्थर हैं। मगर इनको ऐसे छाती से लगा कर बैठे हो!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: क्रोध छूटे नहीं छूटता। क्रोध से पाया क्या है जो इतना जोर से पकड़े हो? दुख पाया, पीड़ा पाई, जहर पाया; फिर भी छूटता नहीं और उनकी बात से ऐसा लगता है जैसे क्रोध ने उन्हें पकड़ा है।
शेख फरीद के पास ऐसे ही किसी आदमी ने जाकर पूछा था..फरीद कबीर के समसामयिक थे..कि क्रोध नहीं छूटता। फरीद मस्तमौला आदमी थे। बैठे थे, उठ कर खड़े हो गए। पास ही खंबा था मंदिर का, उस खंबे को जोर से पकड़ लिया और चिल्लाने लगे: छुड़ाओ! छुड़ाओ! भीड़ इकट्ठी हो गई। लोगों ने कहा कि आपका दिमाग तो ठीक है? आप अचानक पागल तो नहीं हो गए? खंबे को आप ही पकड़े हो और कहते हो: बचाओ! छुड़ाओ!
फरीद ने कहा: इस आदमी को उत्तर दे रहा हूं। यह कहता है क्रोध से छुड़ाओ; जैसे कि क्रोध ने तुम्हें पकड़ा हो! अब यह खंबा थोड़े ही मुझे पकड़े है; मैं ही इसको पकड़े हूं। यह रहा, छोड़ दिया तो छूट गया।
इस बोध को स्मरण में लो। ये भी तरकीबें हैं तुम्हारे मन की..क्रोध से छुड़ाओ, मोह से छुड़ाओ, लोभ से छुड़ाओ। इसमें तुमने मौलिक भ्रांति को स्वीकार ही कर लिया कि जैसे इन्होंने तुम्हें पकड़ा है।
इन्होंने तुम्हें नहीं पकड़ा है; तुम्हीं इन्हें पकड़े हो। तुम जिस दिन छोड़ना चाहोगे, क्षण भर भी देर नहीं करनी होगी। तुमने निर्णय किया और छूटे, तत्क्षण छूटे।
लै कसाब रस राम चुवावा।
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा।
कितने शरीर के नगरों में से तुम गुजर चुके, कब सीखोगे पाठ? प्रत्येक शरीर एक गागर थी, जिसमें परमात्मा का सागर उतर सकता था। मगर तुम भरे रहे..राख से, कूड़े-करकट से, कंकड़-पत्थर से। तुमने परमात्मा को अवकाश न दिया, स्थान न दिया। कितने शरीरों से गुजर गए हो यूं..अंधे, आंख बंद किए! कितने अवसर तुमने गंवाए हैं उसकी अनुकंपा अपार है कि फिर-फिर तुम्हें अवसर देता है; थकता ही नहीं; आशा नहीं छोड़ता; तुम पर भरोसा नहीं छोड़ता। तुमने उस पर भरोसा नहीं किया है; उसका भरोसा अडिग है, अथक। आज नहीं कल तुम लौट ही आओगे। सुबह नहीं तो दोपहर, दोपहर नहीं तो सांझ तुम लौट ही आओगे।
मांगि मांगि रस पीवै बिचारा।
तुम कितने नगरों से निकले और मांग-मांग कर चाहते थे रस मिल जाए। बड़े नासमझ हो। कबीर कहते हैं: बड़े बेचारे हो, बड़े दया-योग्य हो, दया के पात्र हो।
मांगि मांगि रस पीवै बिचारा।
आशा रखते हो कि मांगने से अमृत मिल जाएगा। मांगने से अर्थ है..हमारी वासनाएं, हमारी आकांक्षाएं, हमारी अभिलाषाएं। ये सब भिखमंगेपन के सबूत हैं। हम मांगते ही चले जाते हैं..यह दो, वह दो। हमारी मांग कभी समाप्त ही नहीं होती। एक मांग पूरी नहीं होती कि दस नई मांगे खड़ी हो जाती हैं। हमारा भिक्षापात्र भरता ही नहीं, भरना जानता ही नहीं!
मांगि मांगि रस पीवै बिचारा।
रस कहां मिला तुम्हें? बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून। रहीम ने ठीक कहा है। मांगने से कुछ भी न मिलेगा। कुछ चीजें हैं जो बिना मांगे मिलती हैं, क्योंकि कुछ चीजें हैं जो मालिकों को मिलती हैं, भिखमंगों को नहीं मिलतीं। भिखमंगों को वही मिलता है जो भिखमंगों के योग्य है। मालिकों को वही मिलता है जो मालिकों के याग्य है।
तुम जरा क्रोध, लोभ, माया, मोह परमात्मा के चरणों में तो रख कर देखो, अचानक तुम पाओगे तुम मालिक हो गए! इनके जाते ही तुम्हारी गुलामी कट गई, तुम्हारी जंजीरें टूट गईं, तुम्हारा कारागृह नष्ट हो गया। और परमात्मा केवल मालिकों को ही दे सकता है। जिनकी कोई मांग नहीं, उनको दे सकता है। जिनकी कोई मांग नहीं, वे पाने के अधिकारी हैं। मांगा कि चूके। नहीं मांगो। मांगने के ऊपर उठ जाओ..तत्क्षण वर्षा हो जाएगी, तत्क्षण वसंत आ जाएगा।

धीरे-धीरे उतर क्षितिज से
आ वसंत-रजनी!

तारकमय न वेणी बंधन,
शीश फूल कर शशि का नूतन,
रश्मि-वलय सित फन-अवगुंठन,
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे
चितवन से अपनी!
पुलकती आ वसंत-रजनी!

मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि
भर पद-गति में अलस तरंगिणि
तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्मित से सजनी!
विहंसती आ वसंत-रजनी!

पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,
कर में हो स्मृति की अंजलि,
मलयानिल का चल दुकूल अलि!
घिर छाया-सी श्याम, विश्व को
आ अभिसार बनी,
सकुचती आ वसंत-रजनी!

सिहर-सिहर उठता सरिता..उर
खुल-खुल पड़ते सुमन सुधा भर,
मचल-मचल आते पल फिर फिर,
सुन प्रिय की पदचाप हो गई
पुलकित यह अवनी!
सिहरती आ वसंत-रजनी!

सिहरती आ वसंत-रजनी!
पुलकित हो गई यह अवनी!

यह सारी पृथ्वी जैसे वसंत के आगमन पर दुल्हन बन जाती है, ऐसे ही तुम जब अपने को शून्य कर लेते हो व्यर्थ की वासनाओं से, तो उतरता है एक महावसंत। कहो उसे निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य, परमात्मा, या जो भी नाम तुम्हें प्रिय हो। फूल पर फूल तुम्हारे भीतर खिलते चले जाते हैं..चैतन्य के फूल! और अपूर्व सुगंध उठती है!
लेकिन यह मालिकों के ही जीवन में वसंत आता है। भिखमंगों के जीवन में कभी वसंत नहीं आता। संन्यास मालिक बनने की प्रक्रिया है। इसलिए संन्यासी को स्वामी कहते हैं। स्वामी का अर्थ है: मालिक। अब वह भिखमंगा नहीं। मगर संन्यास ऊपर से ही लिया तो किसी अर्थ का नहीं। तुम्हारे भीतर मालकियत की घोषणा होनी चाहिए। और एक ही उपाय है कि तुम चुका दो, परमात्मा जो कीमत मांगता है।
कहै कबीर फाबी मतवारी।
और कबीर कहते हैं: जब तक मांगा तब तक हम दयनीय अवस्था में रहे, कुछ न पाया। और अब! ऐसी वर्षा हो रही है, ऐसी अनंत आनंद की धार बह रही है..फाबी मतवारी! ऐसी मस्ती छा रही है।
पीवत रामरस लगी खुमारी।
अब जो राम-रस पीया है, तो ऐसी खुमारी लगी है जो टूट नहीं सकती। यह जो शराब पी ली है परमात्मा की, अब बस यह नशा उतरने वाला नहीं। जो नशा उतर जाए वह भी कोई नशा है! नशा चढ़े और उतरे नहीं, वही नशा है।
कबीर कहते हैं: मांग-मांग कर नहीं मिला था और बिना मांगे मिला है। ऐसे ही तुम्हें भी मिलेगा।
और इस खुमारी को पाए बिना जाना मत, विदा मत होना। कितनी ही प्रतीक्षा करनी पड़े, प्रतीक्षा करना। और कितना ही श्रम करना पड़े, श्रम करना। और कितनी ही कठिनाई हो उसके चरणों में अहंकार चढ़ाने में, झेल लेना कठिनाई, मगर यह सिर चढ़ा ही देना है!

मैं मिलन प्रतीक्षा में प्रिय की
अलि हंस कर दिवस बिता लूंगी

मेरे शीतल निश्वासों से
मधु वात सिहर सी जाती है,
मेरी अंतर-ज्वाला से ही
यह रात्रि सुलगती जाती है,

सखि, मैं वियोग के तम में ही अपना
उज्ज्वल विध पा लूंगी।

पथ मेरा परिचित है, पथ का
अणु-अणु मेरा चिर-परिचित रे!
मंजिल कितनी ही दूर रहे
यह गैल सदा की परिचित रे।

पथ के कंटक को भी अलि मैं,
सुख से दो पग में छा लूंगी।

अंतर में ज्वाल उठा करती
नयनों से धार बहा करती;
उर की इस विकल रागिनी को
दुनिया दे कान सुना करती।

सखि, मैं प्रिय के सुख-हेतु तार
उर के सब आज बजा लूंगी।।

उस परमात्मा के सामने तुम्हारे हृदय की वीणा बजनी चाहिए। भिखमंगा यह नहीं कर सकता। वह तो रोता है, गिड़गड़ाता है। उसकी वीणा पर क्या आनंद के गीत उठेंगे? वह क्या वसंत को पुकारेगा? वह तो कौड़ियों के पीछे दीवाना है। उसकी नजर तो कौड़ियों पर अटकी है।
रामकृष्ण कहते थे: चील आकाश में भी उड़ती है तो भी उसकी नजर घूरे पर पड़े मरे चूहे में लगी रहती है। उड़ती आकाश में है, लेकिन नजर घूरे पर लगी रहती है। मरे चूहे में! तुम मंदिर में भी बैठे हो, नजर कहां है? कोई मरा चूहा! किसी घूरे पर। हाथ में पूजा का थाल है, नजर कहां है? मुख पर राम-राम है और बगल में छुरी। नजर कहां है?
और नजर ही निर्णायक है। क्या तुम कर रहे हो, क्या तुम कह रहे हो..इसका कोई मूल्य नहीं। तुम्हारी दृष्टि में क्या है? क्योंकि तुम्हारी दृष्टि ही तुम्हारी सृष्टि है। वही तुम्हें निर्मित करती है। वही है सृजन की प्रक्रिया।
यह तो कबीर ने उस परम दशा की बात कही। अब वह कहते हैं मार्ग की बात। मंजिल की पहले कही, कि थोड़ी तुम्हारी हृदय-तंत्री झनझना उठे। अब मार्ग की बात..
सील संतोख ते सब्द जा मुख बसै, संतजन जौहरी सांच मानी।
सील-संतोख! एक तो शील...शील का अर्थ साधारण आचरण नहीं होता, साधारण नैतिकता नहीं साधारण चरित्र नहीं। साधारण चरित्र तो दो कौड़ी का है। वह तो तुम्हारा अहंकार का ही आभूषण है। उससे तुम्हें मान मिलता, मर्यादा मिलती, पद-प्रतिष्ठा मिलती। लोग कहते हैं: ‘अहा, कैसा धार्मिक व्यक्ति है, कैसा चरित्रवान! कलियुग में भी सतयुगी है!’ और तुम्हारा अहंकार फूलता है।
और चरित्र ऊपर से थोपी हुई बात है। जो तुम्हारे मां-बाप ने, समाज ने, चर्च ने, पंडित-पुरोहितों ने सिखा दिया है, वही तुम्हारा चरित्र बन जाता है। और शील! शील ध्यान से उठी हुई सुगंध का नाम है। कोई और नहीं सिखाता उसे; वह तुम्हारे भीतर का आविर्भाव है। जब तुम शांत होते हो तो तुम्हारे जीवन में एक प्रसाद होता है, एक सौंदर्य होता है, एक गरिमा, एक महिमा। बाहर से आरोपित नहीं, अभ्यास की गई नहीं..तुम्हारे भीतर से जागी। तुम्हारे भीतर मौन होते चैतन्य ने ही तुम्हें जो दृष्टि दी है, उसके अनुसार तुम चलते हो..वह शील। पंडित-पुरोहित जो समझाते हैं, उनके अनुसार चलते हो..वह चरित्र। चरित्र थोथा होता है। उसकी गहराई चमड़ी से भी ज्यादा गहरी नहीं होती; जरा सा खरोंच दो, खत्म हो जाता है।
एक युवक न्यूयार्क गया। वह अपने मित्र के साथ बगीचे की एक बैंच पर बैठा हुआ है। एक सुंदर युवती निकली। उस युवक ने अपने मित्र से पूछा: यह कौन है? उसने कहा: यह है सुजान। दस डालर। उसके पीछे एक दूसरी स्त्री आती थी, पूछा, यह कौन है? कहा: यह है अन्ना। बीस डालर। उसके पीछे एक तीसरी स्त्री आती थी, कहा: यह कौन है? कहा: गिलोरिया। पचास डालर। मित्र ने पूछा कि क्या न्यूयार्क में एक भी चरित्रवान स्त्री नहीं है? हर स्त्री की कीमत बता रहे हो!
मित्र ने कहा: चरित्रवान स्त्रियां क्यों नहीं हैं! हैं! मगर तुम उनकी कीमत न चुका सकोगे।
बस कीमत के भेद हैं। तुम खुद ही सोचो। तुमसे कोई पूछे कि दस रुपये का नोट पड़ा है राह के किनारे, उठाओगे? तुम कहोगे: कभी नहीं, मैं कोई चोर हूं! लेकिन कहे कि दस लाख रुपये पड़े हैं, तो फिर तुम कहोगे, जरा विचार करना पड़ेगा। दस लाख छोड़ना मुश्किल हो जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक लिफ्ट में सवार हुआ। साथ एक महिला और थी। एकांत, लिफ्ट जैसे ही दरवाजा बंद हुआ ऊपर की तरफ उठी, मुल्ला ने पूछा, अगर हजार रुपये दूं तो तुम मेरे साथ चलने को राजी हो? उस स्त्री ने कहा: तुमने मुझे क्या समझा है? अभी रोकती हूं लिफ्ट और अभी शोरगुल मचाती हूं।
मुल्ला ने कहा: ठहर, पहले पूरी बात सुन ले। दस हजार दे सकता हूं। उस स्त्री ने कहा: दस हजार! शांत हो गई। कहा: ठीक है। तो मुल्ला ने कहा: और दस रुपया? उस स्त्री ने कहा: अभी दरवाजा खोलती हूं और चीख मारती हूं।
मुल्ला ने कहा: अब चीख वगैरह मारने की कोई जरूरत नहीं। उस स्त्री ने कहा: मुझे तुमने समझा क्या है? मुल्ला ने कहा: वह तो अपन ने तय ही कर लिया। अब तो मोल-भाव कर रहे हैं। तू कौन है, वह हम समझ गए। हम कौन हैं, वह तू समझ गई। हम खरीददार, तू बेचने वाली। दस हजार में बेच सकती है, तो बात ही खतम हो गई, बात तो तय हो गई। अब रहा मोल-भाव करने का, तो वह तो दस रुपये से ज्यादा मेरे पास हैं नहीं।
हर आदमी की कीमत है यहां। यहां बड़े से बड़े राजनेताओं की कीमत है, राष्ट्रपतियों की कीमत है, प्रधानमंत्रियों की कीमत है। हां, जरा बड़ी कीमत है स्वभावतः। पुलिसवाले की बेचारे की उतनी कीमत है जितनी उसकी हैसियत है।
जिनको तुम चरित्रवान कहते हो, यह हो सकता है उनकी कीमत जरा ज्यादा हो और तुम न चुका सको। मगर चरित्र की कीमत होती है, क्योंकि चरित्र अंतर से आविर्भूत नहीं होता; बाहर से ही थोपा गया है। और बाहर से भी थोपा गया है तो प्रलोभन के आधार पर ही थोपा गया है। तुम्हें कहा गया है कि अगर सच बोलोगे; अगर ईमानदार रहोगे तो स्वर्ग में बड़ा सुख मिलेगा। उस सुख को पाने के लिए तुम सच भी बोल रहे हो; लेकिन अगर कोई सुख देने को यहीं राजी हो जाए, तो फिर तुम सोचोगे कि अब मरने के बाद की बात बाद में देखेंगे, पहले यहां सुख ले लें, और बाद की कौन जान आया है! कोई लौट कर कहता तो नहीं आकर कि बाद में क्या घटता है। हाथ की आधी रोटी खोना कल्पना की पूरी रोटी के लिए..नासमझी है। तुम्हारा गणित तुमसे कहेगा कि राजी हो जाओ; अभी फिलहाल इसको तो निपटाओ, फिर आगे का आगे देखेंगे। और अभी जिंदगी पड़ी है, और पुण्य कर लेंगे। मगर यह अवसर छोड़ना ठीक नहीं।
चरित्र का कोई आधार नहीं होता, स्रोत नहीं होता तुम्हारे भीतर। ऊपर से टांगा हुआ होता है। जैसे कोई कागजी फूल ले आए और वृक्षों पर लटका दे। शायद पास-पड़ोस के लोगों को धोखा भी हो, लेकिन कागज के फूल, कागज के फूल हैं असली फूल वृक्षों की जड़ों से जुड़े होते हैं।
और यही फर्क है चरित्र और शील में। चरित्र होता है कागजी, आरोपित। शील होता है अंतःस्फूर्त; भीतर से जागा हुआ। जैसे झरने का कलकल-नाद, ऐसे तुम्हारे ध्यान का जो कलकल-नाद है, वही शील है।
कबीर कहते हैं: सील-संतोख! दोनों को एक साथ रखा, क्योंकि जहां शील है वहां संतोष है ही। चरित्रवान जरूरी नहीं है कि संतोषी हो।
अक्सर लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि हम हर तरह से नैतिक जीवन जी रहे हैं, मगर हर जगह अनैतिक लोग मजा लूट रहे हैं। यह कैसा न्याय है! भ्रष्ट लोग धन पा रहे हैं, पद पा रहे हैं। यह परमात्मा का कैसा न्याय है? इनको संतोष नहीं है अपने चरित्र से। चरित्र से इन्हें कोई रस भी नहीं है। ये चाहते थे चरित्र के साथ इनको पद भी मिले, प्रतिष्ठा भी मिले तो ये मानेंगे कि परमात्मा न्यायशील है। और इन बेईमानों को समझाने के लिए पंडित-पुरोहितों ने रास्ते निकाल लिए हैं, वे कहते: उसकी दुनिया में देर है, मगर अंधेर नहीं। देर की तरकीब निकाल ली, क्योंकि नहीं तो समझाएं कैसे! यहां दिखाई तो यही पड़ता है कि बेईमान सिर पर बैठ जाते हैं। ईमानदार सब जगह चारों खाने चित्त और बेईमान छाती पर चढ़े हैं। अब कैसे लोगों को समझाएं कि ईमानदार रहो! बेईमानी जीतती मालूम पड़ती है। असत्य जीतता मालूम पड़ता है। सत्य की जगह-जगह हार है। कैसे समझाएं सत्यमेव जयते, कि सत्य की विजय होती है? तो उन्होंने एक तरकीब निकाली, एक फार्मूला निकाला कि देर है, अंधेर नहीं; घबड़ाओ मत। थोड़ी देर लगेगी; इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में, मगर मिलेगा।
मगर देर भी क्यों? आग में हाथ डालते हो, अभी जलता है कि देर लगती है? और मजा यह है कि ईमानदारों के लिए ही देर है, बेईमान अभी मजा ले रहे हैं! उनके लिए न देर है न अंधेर है। और क्या पता जो देर कर रहा है, वह आखिर में अंधेर भी करे! और जो यहां जीत रहे हैं, कौन जाने वहां भी जीत जाएं, क्योंकि जीतने की कला उन्हें आ जाएगी। छाती पर बैठने का गणित वे समझ लेंगे। बहुत संभावना तो यही है कि जो तुम्हारे सिर पर यहां बैठे हैं, वे ही लोग तुम्हारे सिर पर स्वर्ग में भी बैठेंगे, अगर कहीं कोई स्वर्ग होगा। क्योंकि तुम्हारी आदत हो जाएगी लोगों को सिर पर ढोने की, उनकी आदत हो जाएगी सिर पर बैठने की। बहुत संभावना तो यही है कि अगर कोई भी दूसरा लोक है तो इसी लोक का सिलसिला होगा। इसी लोक के साथ उसका तारतम्य होगा; वह इससे विपरीत नहीं हो सकता। इसी में उसकीशृंखला जुड़ी होगी।
मगर ये झूठे चरित्र को बनाए रखने के लिए ये सारी तरकीबें ईजाद करनी पड़ीं।
शील के साथ संतोष होता ही है। शीलवान वही है, जिसके साथ संतोष भी हो। जो शील से भरा है उसके मन में कभी यह सवाल ही नहीं उठता कि बेईमान जीत रहा है; वह तो जानता है..मैं जीत ही गया हूं। ठीकरे मेरे पास नहीं हैं, न हों। उसे दया आती है जिनके पास ठीकरें हैं उन पर, क्योंकि वह जानता है..असली संपदा मेरी है और ये बेचारे व्यर्थ की चीजों में उलझे हैं और व्यर्थ की चीजों के लिए कितना गंवा रहे हैं!’
रामकृष्ण के पास एक आदमी आया, दस हजार रुपये रामकृष्ण को भेंट करना चाहता था। रामकृष्ण ने कहा कि तू ही इनको रख, तू ही इनको रखने का पात्र है; क्योंकि हम हैं भोगी, तू है त्यागी। वह आदमी तो बहुत चैंका। उसने रामकृष्ण से कहा, आप कह क्या रहे हैं; आप होश में हैं परमहंस देव? मुझ भोगी को त्यागी बता रहे हैं, और आप जैसा त्यागी, अपने को भोगी कह रहा है!’
रामकृष्ण ने कहा कि नहीं, भोगी मैं हूं, क्योंकि मैंने कचरा छोड़ा और रामरस पी रहा हूं। और तुमने रामरस छोड़ा और कचरा छाती से लगाए बैठे हो। त्यागी कौन? त्यागी तुम हो! हीरे छोड़ दिए, कंकड़-पत्थर पकड़े-त्यागी तुम। मैंने तो हीरे पकड़े, कंकड़-पत्थर छोड़े..यह कैसा त्याग! मैं तो भोगी हूं।
जिन्होंने जाना है वे यही कहेंगे। तेन त्यक्तेन भुंजीथा:। जिन्होंने त्यागा है वे ही जानते हैं भोग का असली अर्थ, भोग का असली राज; क्योंकि उन्होंने ही भोगा है, और बाकी तो सिर्फ भोग की भ्रांति में हैं। बुद्ध ने भोगा, कृष्ण ने भोगा, कबीर ने भोगा, फरीद ने भोगा, नानक ने भोगा; बाकी तुम तो भ्रांति में हो। तुम सब त्यागी हो। तुम असली चीज तो छोड़े हो। पास ही अमृत की धार बह रही है, उसको छोड़े हो और एक गंदे नाले में पानी पी रहे हो, तो त्यागी नहीं तो कौन हो! महात्यागी हो।
जहां शील है वहां एक अपूर्व संतोष होगा। लेकिन शील उठता है भीतर से; वह ध्यान का परिणाम है।
सील-संतोख ते शब्द जा मुख बसै, ...
कबीर जो ध्यान के लिए शब्द उपयोग करते हैं वह शब्द है..‘सबद।’ जिसके भीतर राम की धुन अपने आप उठने लगी है, उठानी नहीं पड़ती; जिसके भीतर ओंकार का नाद होने लगा है..उसको ‘सबद’ कहते हैं वे। जिसके भीतर अनाहत बजने लगा। जिसने सुन लिया परम संगीत। जिसने जीवन की परम संगीतमयता का अनुभव कर लिया। मैं उसको ध्यान कह रहा हूं; वे उसको ‘सबद’ कहते हैं, वह उनका शब्द है।
सील-संतोख ते सब्द जा मुख बसै, संतजन जौहरी सांच मानी।
संतजन ऐसे ही व्यक्ति को सच्चा मानते हैं, बाकी सब झूठे हैं; क्योंकि बाकी सब थोथे हैं, ऊपर-ऊपर रंग लिया है चेहरे को, मुखौटे लगा लिए हैं।
होली आई और दिल्ली में एक घटना घटी। एक बड़े नेताजी को..लोग बहुत दिन से फिकर में थे कि होली आए तो मजा चखाएं। होली है इसीलिए कि जिनको तुम गाली नहीं दे सकते..नहीं तो अदालत में मुकदमा चलेगा..उनको तुम होली के दिन गाली दे सकते हो। वह सुविधा है। और तुम देखते हो कि होली पर जो गालियां दी जाती हैं, उन गालियों का नाम है..‘कबीर!’ क्योंकि कबीर ने ऐसी कुटाई की है, ऐसा सिर फोड़ा है पंडितों का, पुरोहितों का कि ‘कबीर’ शब्द ही एक तलवार की धार हो गया है।
और पकड़ो नेताओं को; और जो साल भर तुम्हारी छाती पर मूंग दलते हैं मलो उनके चेहरों पर कालिख, कोलतार...तो नेताजी को पकड़ लिया लोगों ने और खूब कोलतार मला और आशा रखते थे कि महीने दो महीने भी छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। शाम को देखने गए कि हालत क्या है। नेताजी बैठे मुस्करा रहे! कोलतार का कोई पता ही नहीं! लोग बड़े चैंके। उन्होंने कहा कि हुआ क्या, इतने जल्दी आपने धो कैसे डाला!
उन्होंने कहा कि तुम नेताओं का राज ही नहीं जानते। वह देखो! ...कोने में मुखौटा पड़ा था, जिस पर कोलतार पोता था।
कोई नेताजी का असली चेहरा होता है! वे तो कई चेहरे रखते हैं..जब जैसी जरूरत हुई। चेहरा बदलते उन्हें देर नहीं लगती, क्षण में बदल लेते हैं। उनका असली चेहरा पकड़ में नहीं आता। अब यह भी कहना पक्का नहीं कि अभी जो चेहरा है वह असली होगा। यह दूसरा मुखौटा हो सकता है। संभावना यही है, क्योंकि असली चेहरा तो केवल संतों के पास होता है।
...संतजन जौहरी सांच मानी।
संतजन असली जौहरी हैं, पारखी हैं। जो मनुष्य को पहचानते हैं उन्होंने इस बात को आधार बनाया है: सील संतोख तुम्हारे भीतर के सबद से उठें तो तुम सच्चे मनुष्य हुए; तुम पहली बार मनुष्य हुए।
बदन विकसित रहै ख्याल आनंद मैं, अधर मैं मधुर मुसकान बानी।
और तुम्हारा जीवन एक कमल की तरह खिलता रहे। ख्याल आनंद मैं...और सदा भीतर आनंद के फूल खिलते रहें। ...अधर है मैं मधुर मुसकान बानी। और तुम्हारा जीवन एक मुस्कराहट हो, तो ही ऐसा संतोष...। मुरदा संतोष नहीं। एक मुरदा संतोष होता है..अंगूर खट्टे वाला संतोष कि लोमड़ी नहीं पहुंच सकी अंगूरों तक, तो यह कह कर चल दी कि अंगूर खट्टे हैं। यही संतोष, तुम्हें दिखाई पड़ेगा अधिक लोगों में। वे कहते हैं: रखा क्या है धन में, क्योंकि पा नहीं सके; रखा क्या है महलों में, क्योंकि पा नहीं सके। अब इस तरह संतोष कर रहे हैं! यह संतोष नहीं हैं। यह चालबाजी है। यह अपने को समझाना है। यह सांत्वना है, संतोष नहीं। संतोष बड़ी और बात है।
संतोष का अर्थ है: महलों से बड़ा महल पा लिया; हीरों से बड़े हीरे पा लिए; यह जगत जो दे सकता है, उससे बड़ी संपदा अनुभव कर ली, उपलब्ध कर ली..इसलिए संतोष है। इसलिए..नहीं कि अंगूर खट्टे थे।
इस देश में तुम्हें अंगूर खट्टे वाला संतोष बहुत फैला हुआ मिलेगा। क्या करें, लोग दीन-हीन हो गए हैं सदियों से, अब इसी दीन-हीनता को उन्होंने गौरव बना लिया। दीन-हीनता को भी उन्होंने सुंदर शब्द दे दिए हैं..‘दरिद्रनारायण।’ दरिद्र होना भी जैसे गरिमा की बात हो गई! दरिद्र होने में एक आध्यात्मिकता आ गई। अछूत को अब कहने लगे..‘हरिजन।’ हरिजन हमने कहा है बुद्धों को और अब अछूत होना काफी है हरिजन होने के लिए। सभी ब्राह्मण भी हरिजन नहीं हैं; कभी-कभार कोई हरिजन होता है।
और अब तो शूद्र होना काफी है हरिजन होने के लिए। हम अच्छे शब्द देने में बड़े होशियार हो गए हैं, बड़े कुशल हो गए हैं! अच्छे शब्द लगा देते हैं। असलियत को ढांपने के लिए, छिपाने के लिए शब्दों का जाल बिछा देते हैं। संतोष, सांत्वना, धैर्य, शांति..और सबके पीछे भीतर जलती हुई आग है, विषाद है, पराजय है, विफलता है।
नहीं, यह संतोष कबीर का संतोष नहीं। यह संतोष मेरा संतोष नहीं। संतोष तो वह, जब तुम्हारे भीतर सहस्रदल कमल खिलें!
बदन विकसित रहै ख्याल आनंद मैं, अधर मैं मधुर मुसकान बानी।
सांच गैले नहीं झूठ बोलै नहीं, सुरत मैं सुमति सोई श्रेष्ठ ज्ञानी।
सांच गेलै नहीं झूठ बोलै नहीं, ...
सत्य को छोड़े नहीं, झूठ बोले नहीं।
...सुरत मैं सुमति सोई स्रेष्ठ ज्ञानी।
और जिसकी अंतप्र्रज्ञा में परमात्मा का स्मरण सतत बहता रहे, वही है ज्ञानी; वेद का ज्ञाता नहीं, कुरान का ज्ञाता नहीं। उपनिषद और गीता कंठस्थ हों, इससे कुछ नहीं होता। भीतर सुरति बहती रहे। और जब भीतर सुरति बहती है, स्मृति बहती है, तो परमात्मा सब जगह दिखाई पड़ने लगता है।

तुम छिपो चाहे जहां प्रिय, मैं तुम्हें पहचान लूंगी।

कुमुदिनी के शशि बनो, अथवा
कमल के रवि बनो तुम;
तुम उषा के प्राणवल्लभ, या
निशा की छवि बनो तुम।
दिवस हो या रात्रि हो, पर मैं तुम्हें तो जान लूंगी।

तुम्हीं में अरमान मेरे
हो तुम्हीं धन-मान मेरे,
हैं तुम्हारे ही लिए
दिन-रात नंदित गान मेरे।
मैं तुम्ही में घुल गई प्रिय, और क्या वरदान लूंगी।
तुम छिपो चाहे जहां प्रिय, मैं तुम्हें पहचान लूंगी।

भीतर अंतर्धारा बहने लगे उसके स्मरण की, तो वृक्षों से झांकती हुई धूप और छाया उसकी ही माया है। फिर भीतर खिले फूल कि बाहर खिले फूल, सब उसके ही फूल हैं; सब खिलावट उसकी है। फिर भीतर उठे गंध या बाहर उठे गंध, सब उसकी ही सुगंध है। यह सारा अस्तित्व उसका मंदिर है। फिर उसी के स्वर्ण-कलश चारों तरफ चमकने लगते हैं। फिर तुम जहां झुके वहां काबा। फिर तुम जहां बैठे शांत और मौन होकर, वहां काशी। फिर नहीं तुम्हें किसी तीर्थ-यात्रा पर जाने की कोई जरूरत है; तुम जहां हो वहीं तीर्थ है।
सांच गेलै नहीं झूठ बोलै नहीं, ...
मगर ध्यान रखना, इस भेद को सदा ध्यान रखना इन पूरे सूत्रों में..कि एक तो है चरित्रगत सत्य, कि सत्य बोलूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए। भीतर झूठ उठ रहा है और तुम सत्य बोल रहे हो कबीर इसकी बात नहीं कर रहे हैं। कबीर कह रहे हैं: भीतर से ही सत्य उठे; बोलना न पड़े, थोपना न पड़े, आरोपण न करना पड़े। और जब भीतर से ही सत्य उठे तो झूठ तुम कैसे बोलोगे? बोलना भी चाहो तो न बोल सकोगे। बोलने जाओगे, तो भी सत्य ही निकल जाएगा।
कहत हौं ज्ञान पुकारि कै सबन सों, देत उपदेस दिल दर्द जानी।
और ऐसा जो ज्ञानी है, जिसके भीतर सुरति बहने लगी है, जिसके भीतर सत्य का आविर्भाव हुआ है, झूठ जिसके भीतर से हट गया है; जैसे अंधकार हट जाए दीये के जलने पर, ऐसे सत्य के जलने पर झूठ हट जाता है..वह बोलता है तो किसी शाब्दिक, सैद्धांतिक, बौद्धिक विवाद को पैदा करने के लिए नहीं; किसी को हिंदू, मुसलमान, ईसाई बनाने के लिए नहीं; किसी पंथ, किसी संप्रदाय के निर्माण के लिए नहीं। अगर वह बोलता है तो सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे दिल के दर्द को पहचानता है, तुम्हारी पीड़ा को पहचानता है। और उसके पास तुम्हारी पीड़ा के लिए, तुम्हारी प्यास के लिए कुछ है। उसकी उपलब्धि है कि तुम्हारी पीड़ा मिटा दे, कि तुम्हारी प्यास बुझा दे। उसने जो पाया है, उसे बांटने के लिए बोलता है।
ज्ञान को पूर है, रहनि को सूर है, ...
जहां ध्यान है, वहां ज्ञान है। ध्यान है दीये की ज्योति और ज्ञान है दीये का प्रकाश। और जहां ध्यान है, जहां ज्ञान है, वहां स्वभावतः तुम्हारे बाहर भी प्रकाश विकीर्णित होने लगेगा। जिस घर में दीया जलेगा, उसकी खिड़की से, द्वार-दरवाजों से भी रोशनी बाहर पहुंचने लगेगी। वही आचरण है।
ज्ञान को पूर है, रहनि को सूर है, ...
और एक बात ख्याल रखना: जिस व्यक्ति के भीतर भी ध्यान से अनुभव पैदा होता है, उसके विपरीत जीवन नहीं जीया जा सकता। फिर चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। गर्दन कटे तो कट जाए। मंसूर की कट गई, लेकिन ‘अनलहक’ का उदघोष बंद न हुआ। मंसूर के गुरु जुन्नैद ने कहा भीः मंसूर, इसको अपने भीतर ही रख। यह घोषणा कि मैं ईश्वर हूं, कि मैं सत्य हूं। तुझे मुश्किल में डालेगी। मुझे भी मुश्किल में डालेगी। इसको अपने भीतर ही रख। इसको बोल मत।
मंसूर कहता कि जरूर, आप जैसी आज्ञा देते हैं वैसा ही करूंगा। और फिर मस्ती आ जाती, फिर खुमारी लग जाती और फिर चिल्ला बैठता..अनलहक! जुन्नैद ने बहुत बार कहा कि देख तू आश्वासन देता है और तोड़ देता है। मंसूर ने कहा कि आश्वासन जो देता है वह नहीं तोड़ता..आश्वासन मैं देता हूं, लेकिन मैं ही नहीं रह जाता। जब वह परमात्मा मुझ पर सवार हो जाता है..तो फिर मैं नहीं रह जाता। फिर वही बोलता है। इसलिए फिर जो होगा होगा।
मंसूर को सूली लगी, लेकिन आखिरी दम तक जब तक श्वास रही, अनलहक का उदघोष होता रहा; मैं ईश्वर हूं, इसकी घोषणा मंसूर करता रहा। असत्य बोला नहीं जा सकता। सत्य जान लिया जाए तो सत्य ही बोला जा सकता है।
तुम्हें दिखाई पड़ जाए कि कहां दरवाजा है और कहां दीवाल, तो तुम दरवाजे से ही निकलोगे, दीवाल से कैसे निकलोगे? हां, अंधा आदमी बेचारा कभी-कभी दीवाल से टकरा सकता है। मगर आंख वाला! वह दरवाजे से निकलता है।
ज्ञान को पूर है, रहनि को सूर है, ...
क्यों रहनी के लिए ‘सूर’ कहा कबीर ने? क्योंकि ज्ञान तो तुम्हारे भीतर होता है, किसी को उसका पता भी नहीं चलता; लेकिन जब तुम अपने ज्ञान को जीवंत करते हो, जब तुम अपने ज्ञान को जीने लगते हो, तो औरों को पता लगेगा और अड़चन शुरू होगी। इसलिए ज्ञान से जो पूर होता है, उसको एक न एक दिन रहनी में ‘सूर’ भी होना पड़ता है। उसको बड़ा साहस चाहिए, अदम्य साहस चाहिए; क्योंकि अंधों की दुनिया में आंख वाला आदमी होना, इससे बड़ा और कोई उपद्रव नहीं है। पागलों के बीच पागल न होना, इससे बड़ा और कोई खतरा नहीं है।
और यहां चारों तरफ अंधों की भीड़ है, पागलों की जमातें हैं। इसलिए तुमने बुद्धों के साथ हमेशा दुव्र्यवहार किया। फिर पीछे तुम पूजा करते हो सदियों तक; वह पूजा केवल तुम्हारे अपराध-भाव के कारण है। क्योंकि बुद्धों से तुमने जो दुव्र्यवहार किया है, उससे तुम्हारे मन में ग्लानि होती है। जब वे विदा हो जाते हैं तो ग्लानि जोर से तुम्हें पकड़ लेती है। फिर तुम पूजा करते हो।
बुद्ध ने कहा था मेरी मूर्ति मत बनाना। आज दुनिया में जितनी बुद्ध की मूर्तियां हैं, उतनी किसी और की नहीं। क्या हुआ? क्यों लोगों ने मूर्तियां बनाईं? बुद्ध के साथ जो दुव्र्यवहार किया था, उस पाप का प्रक्षालन कर रहे हैं। उस अपराध-भाव से पूजा उठ रही है। यह पूजा भी झूठी है। यह सिर्फ अपने अपराध-भाव को पूरा करने के लिए है। यह अपने ही सामने अपने आप की प्रतिमा को सुंदर कर लेने का उपाय है..कि देखो हम कितने भक्त, कितने प्रार्थना से भरे हुए, कितने पूजा से भरे हुए! यह भुलाने की कोशिश है।
अगर जीसस को आज दुनिया में मानने वालों की सर्वाधिक भीड़ है, तो उसका कारण जीसस को लगी सूली है। सूली से बड़ा अपराध-भाव पैदा हो गया। हमने मारा जीसस को तो अब कैसे पश्चात्ताप करें, कैसे प्रायश्चित्त करें? ...पूजा करो, अर्चना करो, फूल चढ़ाओ! तुम्हारी सारी पूजा झूठी है, क्योंकि अपराध से उठी है, आनंद से नहीं। आनंद तो तुम्हारे पास है ही नहीं।
ज्ञान को पूर है, रहनि को सूर है, दया की भक्ति दिल माहिं ठानी।
जिसके भीतर ज्ञान भरता है, उसके आचरण में साहस आ जाता है। आना ही पड़ेगा, क्योंकि अब उसे सत्य को जीना पड़ता है; अब कोई उपाय नहीं, कोई विकल्प नहीं। भीतर सत्य है, सत्य बाहर आकर रहेगा।
दया की भक्ति दिल मांहि ठानी...
और अब उसकी एक ही भक्ति है, वह है करुणा। वह भगवान के मंदिर में पूजा करने नहीं जाता। वह तो अपनी करुणा लुटाता है, अपना प्रेम लुटाता है। उसकी करुणा के कारण जहां-जहां पीड़ा है, जहां-जहां लोग भटके हैं, जहां-जहां लोग अटके हैं, उन्हें सुलझाता है।
ओर ते छोर लौं एक रस रहत है, ऐस जन जगत में बिरलै प्रानी।
ऐसा व्यक्ति ओर से छोर तक एक होता है, अखंड; यह उसकी पहचान है। उसमें टुकड़े नहीं होते, खंड-खंड नहीं होता। तुम खंड-खंड हो। तुम एक भीड़ हो। तुम्हारे भीतर बहुत लोग छिपे हैं। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ; तुम्हारा कुछ भरोसा नहीं है। अभी कुछ कहोगे, कल बदल जाओगे। तुम्हारे आश्वासन सब झूठे हैं। तुम किसी स्त्री से कहोगे कि मैं तुझे जीवन भर प्रेम करूंगा और तुम इसका भी पक्का नहीं कर सकते कि कल भी उसे प्रेम करोगे; जीवन भर की तो बात और।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री से कह रहा था कि तुझसे संुदर कोई स्त्री इस दुनिया में नहीं है। मैं तुझे जीवन भर प्रेम करूंगा। जीवन भर ही क्या, अगर कोई और भी आगे जीवन हुआ तो भी तुझे ही प्रेम करूंगा।
स्वभावतः स्त्रियां ऐसी बातों से प्रसन्न हो जाती हैं। वह स्त्री बहुत प्रसन्न हो गई। मुल्ला ने कहा: ठहर, बहुत प्रसन्न मत हो जा, क्योंकि यह मेरी आदत है। ऐसा मैं कई स्त्रियों से कह चुका और आगे भी कहूंगा।’
एक और घटना मैंने सुनी है कि मुल्ला एक स्त्री से प्रार्थना किया कि मुझसे विवाह कर ले। उस स्त्री ने साफ इनकार कर दिया। मुल्ला ने कहा कि देख, अगर मुझे इनकार किया, अभी मर जाऊंगा। आत्महत्या कर लूंगा।
स्त्री थोड़ी डरी। उसने कहा: क्या यह बात सच है?
मुल्ला ने कहा: सच है! यह मेरी पुरानी आदत है। यह कोई आज की बात नहीं है। जब भी कोई स्त्री मुझे इनकार करती है, मैं तत्क्षण आत्महत्या करने की बात करता हूं।
तुम्हारे भीतर तुम जरा गौर करना। तुम्हारे आश्वासन, तुम्हारे भरोसे, तुम्हारे वचन, क्या मूल्य रखते हैं? एक क्षण के बाद के लिए भी तुम क्या वचन दे सकते हो? तुम्हारे भीतर एक स्वर ही अभी नहीं है; अभी एक व्यक्ति का जन्म ही नहीं हुआ है। अभी तुम विभक्त हो, खंड-खंड हो। एक बाजार हो, एक भीड़ हो।
ओर ते छोर लौं एक रस रहत है, ...
जिसके भीतर ध्यान का दीया जलता है, उस रोशनी में एकता पैदा होती है।
...ऐस जन जगत मैं बिरलै प्रानी।
बहुत मुश्किल से ऐसा व्यक्ति जगत में मिलेगा, जो ओर-छोर एक है।
लट खुलती जाती निशि की शशि ने आनन दिखलाया,
तारों की आंखें चमकीं रजनी ने जाल बिछाया।

निद्रा की साड़ी ओढ़े दुनिया ने दुख भुलाया।
बेहोशी ने स्वप्नों का है सुंदर कंुज खिलाया।

निशि की अलसित पलकों में क्या नये स्वप्न हैं जागे
बजते हैं तार हृदय के, क्या होने वाला आगे?

इन किरणों की डोरी से ऊपर को कौन चढ़ाता?
सौरभ-सा आज हृदय उड़ अनजान दिशा को जाता।

सागर की लहरें, मानो, सोने की तरणी लातीं।
किस छवि की शुभ्र पताका मुझको उस पार बुलाती।

कुछ ऐसा अनुभव होता..हूं विकल जिसे पाने को,
वह स्वयं आ रहा मुझको अपने घर ले जाने को।

तुम तैयार भर हो जाओ; तुम एक भर हो जाओ, अखंड..और यह घटना घटेगी।

कुछ ऐसा अनुभव होता..हूं विकल जिसे पाने को,
वह स्वयं आ रहा मुझको अपने घर ले जाने को।

फिर परमात्मा को खोजने नहीं जाना पड़ता, वह स्वयं ही तुम्हें लेने आ जाता है अपने स्वर्ण-रथ पर। वह तुम्हें खोजता आता है। उसे आना ही पड़ेगा।
ठग्ग बटमार संसार में भरि रहे, हंस की चाल कहं काग जानी।
और इस जगत में इस तरह के विरले लोग पहचाने नहीं जा सकते, क्योंकि यहां की मुसीबत एक है कि यहां ठगों से दुनिया भरी है। यहां कौओं की बहुत भीड़ है। यहां कोई हंस आ जाए तो कौए पहले तो उसे मान ही नहीं सकते। पहले तो कौए कोशिश करेंगे कि कुछ गड़बड़ हो गई, कुछ प्रकृति की भूल हो गई। रंग दो इसको भी कोलतार से। और कौओं की ही अदालतें हैं और कौओं के ही जज हैं और कौओं की ही पुलिस और कौओं के ही न्याय, और कौओं के ही नेता, और कौओं की सारी दुनिया है! हंस अकेला पड़ जाता है, उसकी सुने कौन! यहां राजनीति है, कूटनीति है; धर्म कहां? यहां चालबाजी है, बेईमानी है, पाखंड है; सत्य कहां?
मालिक को विश्वास नहीं है
तो मैं दोनों गाएं घर पर ला कर ही
दुह दिया करूंगा;
साहब, दोनों बड़ी मरकही,
जरा, पास कोई मत आए,
मंुह अंधियारे लाना होगा,
अपना नौकर खड़ा करा दें,
दूध नपा लें।

बड़े सवेरे ग्वाला लेकर गाएं आता,
टुन-टुन टुन-टुन घंटी बजती,
पड़े रजाई में
जाड़े की सुखद सुबह में अच्छा लगता,
फिर मटकी में धारों के फिर-फिर गिरने का शब्द
मधुर कानों को लगता।
अपने संस्कारों में हम अब भी किसान हैं,
उससे जो संबद्ध हमें प्यारा लगता है,
फिर होता संतोष दूध अब शुद्ध
मुझे औ’ मेरे लड़कों को मिलता है।

एक रात कुछ तुकें तोड़ते
और जोड़ते सुबह हो गई;
सोचा, खुद ही बाहर जाकर दूध दुहा लूं।
जो देखा हैरत अंगेज था।

ग्वाला, गाएं नहीं, बैल की जोड़ी लाता,
कुछ लंबे कंबल उनकी पीठों पर डाले,
दूध मिला पानी भी अपने घर से लाता,
औ‘ घुटनों में दाब दोहनी
हाथ चलाने का केवल अभिनय भर करता,
मंुह से ‘षिर-षिर’ स्वर निकालता,
औ’ पी-पी कर शुद्ध दूध हम सपरिवार दिन-प्रतिदिन
अंदर ज्यादा ताकत अनुभव करते।
राजनीति के कैसे-कैसे रूप विचरते!
यहां सब तरफ पाखंड है। इसलिए सत्य सूली पर चढ़ाया जाता रहा। सत्य को बरदाश्त करना मुश्किल है, क्योंकि बहुतों के न्यस्त स्वार्थों को चोट पहंुचती है।
चपल और चतुर हैं बनै बहु चकिने, बात मैं ठीक पै कपट ठानी।
बड़े चतुर हो गए हैं लोग, बड़े कुशल हो गए हैं लोग। बात में बड़े होशियार हो गए हैं लोग और भीतर सिर्फ कपट है, धोखा है।
बहुत दिनों से जमे हुए थे एक मेहमान
अंततः
तंग आकर एक दिन यूं बोले यजमान..
‘महोदय जी, आपकी याद करते होंगे
आपके परिवार जन
बच्चे बेचैन होंगे,
बीबी तड़फती होगी मन ही मन
बेचारी
विरह में जलती होगी आप बिन
घर छोड़े आपके हो चुके हैं..
एक महीना और सात दिन!’

पलंग पर पैर पसारते हुए मेहमान ने कहा..
‘अरे वाह! आपने अच्छी याद दिलाई,
मैं तो भूल ही गया था भाई!
कल ही मैं घर एक तार कर दूंगा
बीबी को, बच्चों को
..सबको बुला लूंगा।’

कहा तिन सौं कहों दया जिनके नहीं, घात बहुतें करैं बकुल ध्यानी।
क्या कहा जाए उनके संबंध में..कबीर कहते हैं..जिनके जीवन में प्रेम नहीं, करुणा नहीं। और इस तरह के लोग बहुत हानि कर रहे हैं। ‘बकुल ध्यानी’ उनको कबीर कह रहे हैं। देखा है बगुले को ध्यान करते? बगुला कैसा खड़ा होता है! हिलता नहीं, डुलता नहीं। योगियों ने तो उसका एक आसन ही बना लिया..बगुलासन। है भी; योगी की तरह खड़ा हो जाता है बगुला, एक टांग पर खड़ा रहता है! हिले-डुले, खतरा है। हिले-डुले, पानी हिल-डुल जाए। पानी हिल-डुल जाए, मछलियां चैंक जाएं। तो उसे खड़े रहना पड़ता है बिल्कुल योग साधे। जब कुछ भी नहीं हिलता, कुछ भी नहीं डुलता, मछलियां आश्वस्त होकर आस-पास घूमने लगती हैं। बगुला उसी की प्रतीक्षा करता है, फिर झपट्टा मार देता है।
कबीर ने कहा है: इस तरह के बकुल ध्यानी बहुत घात कर रहे हैं, जिन्हें ध्यान का कुछ भी पता नहीं। ऐसे मैं न मालूम कितने महात्माओं को जानता हूं, जिन्होंने न कभी ध्यान किया न कभी करने की सोची, मगर ध्यान दूसरों को करवा रहे, ध्यान दूसरों को समझा रहे हैं। इस तरह के लोग जितना नुकसान पहंुचाते हैं उतना नुकसान राजनैतिक भी नहीं पहंुचा सकते।
बकुल ध्यानियों से सावधान रहना। ये शास्त्रों को पढ़ लेते हैं और शास्त्रों की व्याख्या करते रहते हैं। ये शब्दों की खाल निकालने में बड़े कुशल हो जाते हैं।
दुर्मती जीव की दुबिध छूटे नहीं, जन्म जन्मांत पड़ नरक खानी।
ध्यान रहे, इस तरह की दुर्मति से अगर जिए तो दुविधा छूटेगी नहीं और जन्मों-जन्मों तक दुख पाओगे, नरकों में पड़ोगे।
काग कूबुद्धि सूबुद्धि पावै कहां, कठिन कठोर बिकराल बानी।
कौआ सुबुद्धि पाए कहां! वह बैठता नहीं हंसों के पास। हंसों की बात ही उसे बड़ी कठिन-कठोर लगती है। कौआ चाहता है यह सुनना कि कोई कहे कि ‘अहा, कैसे सुंदर तुम्हारे बोल हैं! कैसा संगीतपूर्ण तुम्हारा जीवन है!’ कौआ चाहता है कोई कहे कि तुमने कोयल को मात दे दी। लेकिन कोई प्रबुद्ध पुरुष ऐसा तो नहीं कह सकता। वह तो सत्य को कहेगा, चाहे सत्य कितना ही कड़वा हो। वह तो सत्य के अतिरिक्त असत्य नहीं कह सकता है, चाहे असत्य कितना ही तुम्हें मधुर क्यों न लगे, असत्य की तुम्हारी आकांक्षा कितनी ही क्यों न हो। तुम खुशामद सुनना चाहते हो और कबीर जैसे लोग तुम्हारे सिर पर लट्ठ मार देते हैं। इसलिए कौए पहंुच ही नहीं पाते सुनने हंसों के पास। कौए अपनी कांव-कांव में ही लगे रहते हैं।
अगिन के पंुज हैं सितलता तन नहीं, अमृत और विष दोऊ एक सानी।
समझो। तुम्हें परमात्मा ने सब कुछ दिया है। देह भी दी है, आत्मा भी दी है। अमृत भी दिया है, विष भी दिया है। दोनों को सानो मत, दोनों को अलग-अलग करो। अमृत को पीओ। जहर में मिला कर मत अमृत पीओ, क्योंकि एक जीवन का महानियम है कि अश्रेष्ठ की एक बूंद भी श्रेष्ठ के पूरे सागर को नष्ट कर देती है। श्रेष्ठ कोमल होता है। एक पत्थर मार दो गुलाब के फूल पर, पत्थर का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, गुलाब का फूल नष्ट हो जाएगा, क्योंकि गुलाब का फूल एक श्रेष्ठता के जगत में जीता है। पत्थर एक निम्न अस्तित्व है, कठोर है। गुलाब कोमल है।
ऐसे ही संतों के वचन हैं। उनकी आलोचना बड़ी आसानी से की जा सकती है। उन पर पत्थर फेंके जा सकते हैं; वे गुलाब के फूल हैं। और गुलाब के फूल जल्दी ही नष्ट भी हो जाते हैं। पत्थर पड़े रहेंगे और तुम यह मत सोचना कि पत्थर जीत गए। पत्थर क्या जीतेंगे! गुलाब के फूल मिट सकते हैं, मगर हारते नहीं; फिर फिर लौट आते हैं; आते ही चले जाएंगे। जब तक हर पत्थर गुलाब न हो जाएगा, गुलाब के फूल आते ही रहेंगे।
कहा साखी कहे सुमति जागा नहीं, सांच की चाल बिन धूर धानी।
और ऐसे लोग भी तुकबंदियां करते हैं और सोचते हैं ‘साखी’ कह रहे हैं।
‘साखी’ कबीर का अपना शब्द है। साखी शब्द को समझना; वह साक्षी का रूप है। जिसको साक्षी का अनुभव हुआ हो, उसके वचन का नाम..‘साखी।’ जिसने अपने भीतर साक्षी को जान लिया हो..ध्यान की वह अंतिम शुद्धता, कि मैं केवल साक्षीमात्र हूं..ऐसा जिसने जान लिया हो उसके बोल का नाम साखी। तुकबंदियों से साखियां नहीं बनतीं।
ये कबीर के जो वचन हैं, ये साखियां हैं। हालांकि तुम्हें कवि मिल जाएंगे, जो इनसे अच्छे वचन लिख देंगे। इन वचनों में कुछ बड़ी कविता नहीं है। ये वचन तो साधारण हैं..कविता की दृष्टि से। मगर साक्षी हैं ये, क्योंकि कबीर के अनुभव की गवाही देते हैं।
और लोग हैं कि तुकबंदियां बना रहे हैं। तुकबंद कवि हो जाते हैं। दुनिया से ऋषि खो गए, तुकबंद बचे हैं। ऋषि और कवि में यही भेद है। कवि वही कहता है जो कहने में मधुर लगता है और ऋषि वही कहता है जो सत्य है। मधुर लगे, कठोर लगे, यह बात अप्रासंगिक है।
सुकृति और सत्त की चाल सांची सही, काग बक अधम की कौन खानी।
मत फिकर करना कौओं की और मत फिकर करना बगुलों की; इन दो से बचना। कौए कहते हैं कबीर पंडितों को, क्योंकि वे कांव-कांव लगाए रखते हैं; और बगुले कहते हैं कबीर झूठे महात्माओं को, क्योंकि वे एक टांग पर खड़े हैं। नजर मछलियों पर लगी है, लेकिन योग-साधन कर लिया है, योगासन साधे खड़े हैं। माला जप रहे हैं।
कबीर की भाषा में कौए हैं..पंडित, और बगुले हैं..तथाकथित महात्मा; इन दोनों से बचना। अगर इन दोनों से बच सको तो सत्य तक पहंुच सकते हो। और फिर सत्य की चाल सीधी है, साफ है। ये दो भटकाते हैं। इन दो से सावधान हो जाना।
कहै कबीर कोऊ सुघर जन जौहरी, सदा सावधान पियो नीर छानी।
हां, मिल जाए अगर कभी कोई जौहरी..जिसने जाना हो, पहचाना हो, देखा हो, जीआ हो परमात्मा को, जो सदा सावधानी से उसके अमृत को पी रहा हो..तो फिर बैठना उसके सत्संग में, फिर डूब जाना उसके साथ, तल्लीन हो जाना। फिर उसके संगीत में अपने को मिटा देना, गला देना। फिर उसके सत्संग में अपने को बचाना मत। फिर रत्ती भर कंजूसी न करना। फिर दूर दर्शक की तरह नहीं; साधक की तरह उसके पास बैठना। तो एक दिन तुम्हारे जीवन में भी यह घटना घट सकेगी..
छारि पर्यौ आतम मतवारा।
पीवत रामरस करत बिचारा।।
बहुत मोलि महंगै गुड़ पावा।
लै कसाब रस राम चुवावा।।
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा।
मांगि मांगि रस पीवै बिचारा।।
कहैं कबीर फाबी मतवारी।
पीवत रामरस लगी खुमारी।।

 आज इतना ही।  

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