कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(जागो और देखो)

मेरे प्र्रिय आत्मन्!
मैं कल सुबह एक कहानी कह कर बहुत मुसीबत में पड़ गया। उसी से आज की शुरुआत भी करनी है। कल सुबह मैं बोला और मैंने तैमूरलंग और बादशाह बैजद के संबंध में एक छोटी सी कहानी कही। मैं सोचता था तैमूरलंग और बैजद बहुत समय हुआ मर चुके हैं, इसलिए कोई मैंने परेशानी अनुभव नहीं की। मुर्दों से कोई डर होने का कारण भी नहीं है। लेकिन मैं घर लौटा भोजन किया और सो गया। मैंने देखा कि तैमूरलंग और बैजद दोनों उपस्थित हैं और मुझ पर बहुत नाराज हैं। वे दोनों कहने लगे कि हमने सुना है कि आज सुबह हमारे संबंध में बहुत सी गलत बातें आपने कही हैं। आपने ऐसी कहानी कही है जिसमें हमारी बड़ी निंदा है। आप अपनी कहानी वापस ले लें और क्षमा मांग लें। मैंने उनसे कहा कि क्षमा मांगना तो असंभव है, कल सुबह की मीटिंग में तुम फिर आ जाना, मैं फिर वही कहानी कहूंगा। अभी जब मैं दरवाजे से घुसा तो देखा कि वे दोनों भी आ चुके हैं। जरूर कहीं न कहीं आकर बैठ गए होंगे, जहां तक तो मंच पर ही बैठे होंगे, क्योंकि उनकी आदत नीचे बैठने की नहीं है।

अगर मंच पर जगह नहीं मिली होगी तो पहली कतार में बैठे होंगे, क्योंकि दूसरी कतार में बैठना उनके अहंकार के विरोध में है। हो सकता है किसी डर से कि लोग उनको पहचान न लें और फिर मेरा वायदा भी है कि मैं कहानी फिर से कहूंगा, इसलिए यह भी हो सकता है कि भीड़ में कहीं छिप गए हों, या बाहर खड़े हों।

उन दोनों की पहचान मैं आपको बता दूं, इसलिए जिसके पास भी वे बैठे होंगे पहचान लेगा। तैमूर तो लंगड़ा है और बैजद की एक ही आंख है, वह काना है। जिसके भी पड़ोस में होंगे वह पहचान लेगा। अपने आस-पास आप देखेंगे आपको समझ में आ जाएगा। इधर मंच पर देखेंगे तो खयाल में आ सकता है, कौन बैजद है, कौन तैमूर है। या आपके पड़ोस में, अगर आपको कहीं भी दिखाई न पड़े, तो फिर आंख बंद करके आप भीतर देखना। फिर वे वहीं छिप गए होंगे। क्योंकि सबसे सुरक्षित जगह, जहां कोई भी मनुष्य कभी नहीं देखता है, हर आदमी के भीतर है। जब भी किसी को छिपना होता है, वह वहीं छिप जाता है। आप दुनिया में खोज लेंगे वह नहीं दिखाई पड़ेगा, क्योंकि वह भीतर मौजूद है, और भीतर कोई भी खेाजता नहीं है। क्योंकि मैंने उनको वायदा कर दिया है, आश्वासन दे दिया है कि मैं कहानी कहूंगा इसलिए मैं वह कहानी दोहराता हूं, ताकि वे सुन लें और फिर मैं अपनी चर्चा को शुरू करूं।
तैमूर सारी दुनिया को जीतने के खयाल से निकला था, सारी दुनिया उसे जीतनी थी। जो भी रास्ते में आयेगा उसको मिटा देगा और दुनिया को जीत कर रहेगा। और सभी लोग करीब-करीब इसी इरादे से दुनिया में निकलते हैं कि दुनिया को जीतनी है। तैमूर भी निकला, उसने अनेक बादशाहों को मिटाया, अनेक बादशाहतें जीतीं; फिर बैजद नाम के बादशाह को भी उसने हराया, और हथकड़ियों में बांध कर उसे अपने दरबार में बुलाया। जब बैजद हथकड़ियों में बंधा हुआ तैमूर के दरबार में लाया गया, तैमूर अपने सिंहासन पर बैठा था, बैजद को देख कर जोर से हंसने लगा, एक तो बैजद हार गया था, दूसरे तैमूर की हंसी, उसके मन में तीर की तरह लग गई। उसने बहुत गुस्से से कहा कि तैमूर न तो यह शिष्ट बात है, न यह सज्जन के लिए योग्य है कि एक हारे हुए आदमी को देख कर हंसे। और इस छोटी सी विजय पर इतने इतरा रहे हो इस भूल में मत पड़ो और खयाल रखो कि जो आदमी दूसरे के हार जाने से हंसता है, एक दिन उसे खुद अपनी हार पर आंसू बहाने पड़ते हैं। लेकिन तैमूर बोला बैजद तुम गलत समझ गए, तुम्हारे हार जाने से नहीं हस रहा हूं, और न ही इस छोटी सी फतेह से मुझे कोई खुशी हो गई है। हंस तो मैं दूसरी बात से रहा हूं, और वह यह बात है तुम्हें देख कर मुझे यह आश्चर्य हुआ, अपने को देख कर तो हमेशा होता था, मैं हूं लंगड़ा, तुम हो काने; यह भगवान कैसा पागल है कि अंधों को, लंगड़ों को, कानों को बादशाहतें देता है! यह देखकर मुझे हंसी आ गई।
मैं वहां पर मौजूद नहीं था, अन्यथा मैं तैमूर से कहता कि इसमें भगवान की कोई भूल नहीं है। असल में लंगड़ों और कानों के सिवाय बादशाहत कोई मांगता ही नहीं है। दुनिया में कोई स्वस्थ्य आदमी बादशाहत नहीं मांगता। बल्कि जब कोई आदमी स्वस्थ्य हो जाता है, तो उसके बापदादों की भूल से उसे अगर बादशाहत मिल गई हो तो, उसे ठुकरा देता है, उसे फेंक देता है। हम जानते हैं महावीर को, हम जानते हैं बुद्ध को, बापदादों की भूल से उन्हें बादशाहतें मिल गई थी, बापदादे काने और लंगड़े निश्चित ही रहे होंगे, लेकिन जब वो स्वस्थ्य लड़के उनके घर पैदा हुए, उन्होंने लात मार दी और वे बाहर निकल गए। स्वस्थ्य आदमी किसी का मालिक नहीं होना चाहता। स्वस्थ्य आदमी किसी का मालिक कभी नहीं होना चाहेगा। क्योंकि किसी के मालिक होने में, किसी के ऊपर कब्जा करने में, बीमार चित्त, रूग्ण और हिंसक चित्त की खबर मिलती है। और हमें जब यह रस मिलता है कि हम किसी के मालिक हो गये, और किसी की गर्दन पर हमारा हाथ है और हम चाहें तो उसकी जान ले लें, इसमें जो रस है और आनंद है वह बीमार और विक्षिप्त चित्त का है, वह मेडनेस का है, वह पागलपन का है।
अगर मैं वहां होता तो मैं तैमूर से कहता, भगवान की इसमें कोई भूल नहीं है, तुम्हारा लंगड़ा होना, तुम्हारा काना होना, तुम्हारे भीतर यह हीनता का भाव कि मैं लंगड़ा हूं या काना हूं, तुम्हें सारी दुनिया के सामने अपनी हीनता मिटाने के लिए एक ही रास्ता है कि तुम दबाओ, जीतो, बड़े हो जाओ, पहाड़ पर खड़े हो जाओ, ताकि दुनिया देख सके कि तुम कुछ हो, और कोई इशारा न कर सके कि तुम लंगड़े हो। और जब दुनिया मान ले कि तुम कुछ हो, तो तुमको भी विश्वास आ जाये कि मैं कुछ हूं। मैं लंगड़ा नहीं हूं। मनुष्य में जो अभाव है, जो खालीपन है, उसे भरने के लिए बादशाहतें खोजता है, धन खोजता है, पद खोजता है, और एक दौड़ शुरू होती है। आज की चर्चा मैं इसी बात से शुरु करना चाहता हूं मनुष्य के भीतर अभाव है, एंप्टीनेस है, वहां सब खाली-खाली है, वहां कुछ भी नहीं है। वहां कोई भराव नहीं है, वहां कोई संपदा नहीं मालूम होती, वहां कोई शक्ति नहीं मालूम होती, वहां कोई सहारा, मित्र, साथी, संगी नहीं मालूम होता। वहां बिलकुल लोनलीनेस है, अकेलापन है। उस अकेलेपन में, उस एकाकीपन में घबड़ाहट मालूम होती है, उस घबड़ाहट से बचने को मित्र बनाते हैं, परिवार बसाते हैं, समाज बनाते हैं, राष्ट्र बनाते हैं, यह सब भय पर, फीयर पर खड़े हुए हैं। अपने से बचने के लिए हम परिवार बसाते हैं, ताकि लगे कि हम कुछ हैं, हमारे पास शक्ति है, फिर परिवार मिल कर संप्रदाय बनाते हैं, संगठन बनाते हैं, राष्ट्र बनाते हैं, ताकि हमें लगे कि हमारे पास ताकत है। एक अकेला आदमी शक्तिहीन मालूम होता है, एक संगठन के भीतर उसे शक्ति मालूम होने लगती है, एक अकेला आदमी कमजोर मालूम होता है, एक मुल्क की तरह, राष्ट्र की तरह उसके हाथ में ताकत मालूम होने लगती है। ये सारे के सारे संगठन, परिवार से लेकर राष्ट्र तक सब भय पर खड़े हैं और सब अधार्मिक हैं। जो भी चीज भय पर खड़ी है, वह अधर्म है और भय किस बात का है? भय इस बात का है कि मैं हूं अकेला, अकेले में भय मालूम होता है, मैं हूं खाली, खाली में डर मालूम होता है। मैं हूं नाकुछ, नोबडी, इससे भय मालूम होता है घबड़ाहट मालूम होती है, मुझे कुछ होना चाहिए, मेरे पास धन हो, शक्ति हो, पद हो, मुझे लगेगा कि मैं कुछ हूं। और उस कुछ होने से मुझे थोड़ा आश्वासन मिलेगा, मुझे थोड़ा धीरज बंधेगा, मैं मौत के खिलाफ थोड़ा उपाय कर लूंगा, मौत आने वाली है, सब तरफ से घेरती है, एक दिन मौत आकर हर आदमी को नाकुछ कर देती है, मिट्टी में मिला देती है, मैं उसके खिलाफ इंतजाम कर रहा हूं कि मैं कुछ हूं। मौत मुझे मार नहीं सकती। लेकिन मौत सब छीन लेती है और मार देती है।
लेकिन हमारी सारी दौड़ ये अपने भीतरी अभाव को, खालीपन को, नथिंगनेस को भरने की सारी दौड़, अंततः मौत मिट्टी कर देती है और हमें पता चलता है कि हम फिर ना-कुछ हो गए। इसीलिए दुनिया में हर आदमी मौत से डरा हुआ है। मौत से डरने का मतलब! मौत से डरने का मतलब है कि फिर मौत हमें उघाड़ कर ना-कुछ कर देगी। राष्ट्रपति को भी नाकुछ कर देगी, चपरासी को भी नाकुछ कर देगी। जिसके पास धन है उसको भी ना-कुछ कर देगी, जो निर्धन है उसको भी ना-कुछ कर देगी। और हम कुछ भी करें, कहीं भी दौड़ें, बड़े आश्चर्य की बात है, कोई कहीं भी दौड़े, गरीबी में, अमीरी में, पद में प्रतिष्ठा में, अपमान में, सम्मान में, कहीं से भी दौड़े और किसी भी रास्ते से दौड़े, बड़े आश्चर्य की बात है हर आदमी कहीं से दौड़े और कहीं से जाए, आखिर में मौत में पहुंच जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारी सब दौड़ अंततः हमें मौत में ले जाती है। यानि आप जो मेहनत कर रहे हैं, जो दौड़ रहे हैं, वह कहां के लिए? आप अपनी मौत में जाने के लिए दौड़ रहे हैं और मेहनत कर रहे हैं।
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात खयाल में आए।
एक बादशाह हुआ, उसने रात सपना देखा सपने में उसने देखा कि मौत उसके सामने खड़ी है, और मौत उससे कह रही है कि सावधान! कल मुझे तैयार मिल जाना, सूरज डूबने के पहले तैयार हो जाना, मैं तुम्हें कल लेने आ रही हूं। वह सुबह उठा घबड़ा गया, कोई भी घबड़ा जाता। उसने ज्योतिषी बुलवाए और उनसे पूछा, स्वप्न को जानने वाले मनोवैज्ञानिक बुलवाए, उनको पूछा, उस जमाने के जो फ्रायड होंगे, उनको बुलवाया, उनसे पूछा, पूछा कि क्या मामला है, इस स्वप्न का क्या अर्थ है? उन्होंने कहा कि अर्थ साफ है, मौत सांझ के पहले आ जाएगी, इसमें अर्थ पूछने की क्या बात है? उस राजा ने पूछा कि मैं बचने के लिए क्या करूं? उन्होंने कहाः एक ही उपाय है, आपके पास जो तेज से तेज घोड़ा हो, उस पर बैठ जाएं और भागें, और क्या हो सकता है? और क्या उपाय हो सकता है? राजा था, उसके पास तेज से तेज घोड़ा था। उसने तेज से तेज घोड़ा कसवाया, फिर उसे कोई फिक्र न रही, उसे कोई और फुरसत भी न रही कि कोई और इंतजाम कर ले, एक ही फिकर थी, भागे, वह वैसा ही उठा था, वैसे ही घोड़े को कसवाया और भागा। हवा की रफ्तार से भागा। सांझ होते-होते जब सूरज ढलने को था, तो वह सैकड़ों मील पार कर गया था।
एक बगीचे में, एक घनी छाया के दरख्त के नीचे उसने घोड़े को बांधा, घोड़ा भी थक गया था, वह भी थक गया था। रात सो लेगा सुबह फिर भागेगा। इतना ही तो हम करते हैं, दिन भर भागते हैं। रात सो लेते हैं, फिर सुबह भागते हैं। वह भी थक गया था, वह भी आदमी था, रुक गया, घोड़े को बांध दिया रात सोने की तैयारी करने लगा, लेकिन घोड़े को बांध कर हटता ही था, उसने देखा कि मौत उसके कंधे पर हाथ रखे खड़ी है। वह तो घबड़ा गया, उसने पूछा कि यह क्या बात है, तुम यहंा कैसे? मौत से उसने पूछा कि तुम यहां कैसे? मौत ने कहा कि मैंने तो तुमसे कल कहा था कि तैयार मिलना, और तुम तैयार मिल गए। इसी जगह को मिलने के लिए तो कहा था। ख्याल करो सपने में कौन सा दरख्त था? उस आदमी को खयाल आया, दरख्त देखा सपने में यही दरख्त के नीचे मौत से मिलना हुआ था। उस मौत ने कहा था, कि मैं परेशान थी कि पता नहीं तुम कहीं धीरे-धीरे कोई छोटे-मोटे घोड़े पर बैठ कर तो नहीं आ रहे, नहीं तो सांझ तक न पहुंच पाओ! तुम ठीक तेजी से आए हो, वक्त पर पहुंच गये, चलो। यही जगह मिलने के लिए तो कहा था। वह तेज दौड़ उस जगह ले आई, जहां मौत प्रतीक्षा करती थी। और हमारी तेज दौड़ भी कहां ले जायेगी? किसी की भी दौड़ कहां ले जाती है? हम किस तरफ भागे जा रहे हैं? क्या है लक्ष्य, कहां आप जाते हैं? कहां मैं जाता हूं? निश्चित ही हम मौत की तरफ जाते हैं, इसके सिवाय तो कोई बात संदिग्ध हो सकती है, यह बात असंदिग्ध है कि हर आदमी कैसे भी चले, कुछ भी करे, मौत की तरफ जाता है। हमारा हर उपाय, हमारा हर कदम मौत की तरफ पड़ता है और हम उस दरख्त के नीचे पहुंच जाते हैं, जिस दरख्त के नीचे जिसकी मौत प्रतीक्षा कर रही है, वह वहीं पर पहुंच जाता है।
बड़े आश्चर्य की बात है हम अपने भीतर के अभाव से भागते हैं और आखिर में पता चलता हैं कि मौत के अभाव में पहुंच जाते हैं। अभाव मिटता नहीं है। और जो भी उपाय हम करते हैं, जो भी प्रयोग हम करते हैं, जीवन में, वे सब निष्फल हो जाते हैं। समस्या यह है कि मैं भीतर खाली हूं, भीतर मुझे कोई संगी-साथी नहीं, भीतर कोई संपदा नहीं, भीतर कोई शक्ति नहीं, भीतर सब खाली-खाली है, रिक्त है। भीतर शून्य है, इस शून्य से बचने को भागते हैं, भागते हैं, आखिर में पाते हैं समस्या तो वही की वही रही,और जीवन समाप्त हो गया। जिन समाधानों से हम अपने जीवन को सुलझाना चाहते हैं, वे समाधान सिद्ध नहीं होते, समस्या नष्ट नहीं होती, उनसे आदमी की समस्या का अंत नहीं आता, आदमी पाता है अकेला था, प्रेम करता है, परिवार बसाता है, मौत में फिर पाता है कि अकेला हो गया। फिर कोई उसका साथी-संगी नहीं रह जाता। जिंदगी भर जिनको इकट्ठा किया था, वे फिर उसे विदा दे देते हैं, तुम जाओ, वह अकेला था, फिर अकेला हो जाता है। संपत्ति इकट्ठी करता है, आया था, तब उसके पास कुछ भी नहीं था, इकट्ठा करता है, इकट्ठा करता है, आखिर में पाता है कि संपत्ति उसे छोड़ देती है,उसे अकेले ही उसे यात्रा करनी होती है। कोई संपत्ति उसके साथ नहीं जाती। जो भी हम करते हैं, वह समस्या है, समाधान नहीं है। जिस खालीपन से भागते हैं, वह खालीपन आखिर में मिल जाता है। जरूर हमारे जीवन की दृष्टि में कुछ भूल है, इस भूल का नाम ही अधर्म है। इस भूल का नाम अधर्म है कि जीवन का हमारा तर्क और गणित कुछ गलत है। एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समझाऊं शायद समझ में आ जाए कि हमारे तर्क कैसे भूल भरे होते हैं, और जिन बातों को हम समाधान समझते हैं, वह समाधान नहीं होते, वे फिर समस्या को वहीं के वहीं खड़ा कर देते हैं।
एक ट्रेन में, तेजी से दौड़ती हुई एक गाड़ी में, दो व्यक्ति एक स्टेशन से सवार हुए। एक सज्जन पुरुष थे, एक सज्जन महिला थीं। दोनों ही थे, उस डब्बे में। सज्जन पुरुष ने बैठने के बाद सिगरेट पीनी शुरू कर दी। ऐसा कौन सज्जन पुरुष है, जो सिगरेट नहीं पीता? ऐसा कौन सज्जन पुरुष है, जो किसी न किसी तरह के नशे न करता हो? ऐसा कौन सज्जन पुरुष है, जो किसी न किसी तरह की बेहोशी, उलझाव के रास्ते न खोजता हो? हां, रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं, कोई शराब पीता होगा, कोई सिगरेट पीता होगा, कोई तंबाकू खाता होगा, कोई मंदिर में जाकर भजन करता होगा; कोई सुबह से उठ कर गीता पढ़ता होगा, लेकिन ये सब नशे की तरकीबें हैं। अपने को भुलाने के, फाॅरगेटफुलनेस के उपाय हैं, वह जो भीतर घबड़ाहट है, अकेलापन है, अभाव है, उसको भुलाने के उपाय हैं, किसी तरह अपने को भूल जायें कहीं भी भूल जायें, किसी तरह भी हमको याद न रहे, हम हैं, लेकिन क्या होगा?
वह सज्जन सिगरेट पीने लगे। महिला भी अपना कुत्ता साथ में लिए हुई थीं। वह अपने कुत्ते से खिलवाड़ करने लगीं। लेकिन धुआं उनको भारी पड़ रहा था। महिला ने उन सज्जन को कहा कि सिगरेट बुझा दीजिए, मुझे एतराज है। सज्जन ने कहाः एतराज तो मुझे भी है, कुत्ते को नीचे फेंक दीजिए। कुत्ते को मैं देख नहीं सकता, बरदाश्त नहीं कर सकता, यह भी क्या जहालत है कि आदमी कुत्ते को लिये बैठा हुआ है? स्वाभाविक था कि यह तो मामला बिगड़ गया। महिला के कुत्ते का अपमान, महिला का अपमान हो गया। सज्जन की सिगरेट को फेंके जाने की बात, सज्जन को ही फेंके जाने की बात हो गई, सारी बात तुम्हारे अहंकार पर चोट कर देती है। ये तो सब सिम्बल्स हैं, ये तो सब प्रतीक हैं अहंकार के। महिला ने झपट कर सज्जन की सिगरेट मुंह से खींची और बाहर फेंक दी। बिलकुल इसी जमाने की बात है, पहले जमाने की महिलाओं की बात नहीं कह रहा हूं। महिला कोई साधारण नहीं थी, कुलीन थीं, संभ्रांत परिवार से थीं। उनके बापदादे बड़े मकानों में रहे थे, उनके बापदादों के शरीर में खून नहीं बहता था, हीरे-जवाहरात बहते थे। साधारण महिला नहीं थी कि सह लेती, उन्होंने उनकी सिगरेट छीनी और बाहर फेंक दी। लेकिन सभ्रांत व्यक्ति भी, सज्जन भी कोई साधारण न थे। यद्यपि बापदादों ने सोना नहीं खाया उनके, चांदी नहीं खाई थी, लेकिन उनके बापदादे जेल गए थे, और उनके देश के आंदोलन में उन्होंने बड़ी मुसीबतें झेली थीं। और वो खादी पहनते थे, और वे चरखा चलाते थे। और वक्त-बेवक्त उन्होंने अपनी जान लड़ा दी थी। फिर देश में आजादी भी आ गई थी तो उन्होंने त्याग का अपने फल भी ले लिया था, पुराने जमाने के लोग गलत थे, वो त्याग यहां करते थे, स्वर्ग में फल मांगते थे। अब लोग समझदार हैं, वो त्याग यहीं करते हैं, यहीं फल ले लेते हैं। वे गलती में थे। वे पहले समझते थे बाद में वहां स्वर्ग में जायेंगे, तो मिनिस्टर हो जाएंगे, वे यहीं हो जाते हैं। गणित करीब खिसका लिया है, दूर का फांसला छोड़ दिया है, ठीक है, होशियार लोग ऐसा करते हैं। करना चाहिए। नासमझ हैं, जो दूर की बीतों में मौजूदा को छोड़ दें।
तो यद्यपि उनका कोई बहुत कुलीन परिवार न था, लेकिन कुलीन परिवार से क्या होता है, उनका परविार देशभक्त था। और उनके बाप ने सजाएं भोगी थीं। और उसकी वजह से वो भी काफी ऊंची जगह पहुंच गये थे। उन्होंने भी उठ कर झपट कर महिला का कुत्ता छीना और डब्बे के बाहर फेंक दिया। यह कहानी कहने में तो मुझे देर लग रही है, मामला तो बहुत जल्दी हो गया, एक सेकेंड में हो गया था। सिगरेट फेंकी गई थी, पीछे कुत्ता फेंक दिया गया था। फिर स्वाभाविक था कि महिला ने चेन खींची, गाॅर्ड दौड़ा, कंडक्टर दौड़े। और नीचे क्या हुआ? नीचे एक चमत्कार हुआ एक मिरेकल हो गया। मिरेकल यह हो गया कि वह कुत्ता लंगड़ाता हुआ आया, अपने मुंह में सिगरेट को दबाए हुए था। सज्जन ने सिगरेट झपट कर छीन ली, महिला ने अपना कुत्ता उठा लिया, फिर गाड़ी में बैठ गये, फिर गाड़ी चलने लगी, सज्जन सिगरेट से धुआं फेंकने लगे, महिला अपने कुत्ते को खिलाने लगी। मामला वहीं का वहीं था। समस्या वहीं की वहीं थी, उन्होंने जो समाधान खोजा, वह कोई समाधान नहीं था। इतनी परेशानी हुई, झगड़ा हुआ, कुत्ते की टांग टूटी; गाड़ी रुकी, यह सब हुआ, लेकिन बात आखिर में वहीं की वहीं थी। वह कुत्ता सिगरेट को मुंह में दबाये खड़ा था, सज्जन ने अपनी सिगरेट छीन ली, महिला ने अपना कुत्ता उठा लिया, फिर डब्बे में वही कथा थी, धुआं फिर फेंका जा रहा था, कुत्ता फिर खिलाया जा रहा था; वह समाधान समाधान नहीं था।
जीवन में रोज हम ऐसा करते हैं कि जिनको हम समाधान कहते हैं, उनसे समस्याओं का कोई अंत नहीं होता। समस्या वही बनी रहती है, समाधान व्यर्थ हो जाता है। और छोटे-छोटे मामलों में ही नहीं जीवन के वृहत्तर, गहरे से गहरे मामलों में भी यही होता है। आपका कौन सा समाधान समाधान सिद्ध हुआ है। आपने अपने जीवन की कौन सी समस्या हल कर ली है? कोई एकाध समस्या हल करने का आपको ख्याल आता है? समाधान तो बहुत पकड़े होंगे, समस्याएं अलग खड़ी होंगी, समाधान अलग पड़े होंगे। कोई समस्या हल नहीं हुई होगी। बड़े आश्चर्य की बात है, और बड़े रहस्य की कि किसी आदमी की एक इंडिविजुअल समस्या हल हो भी नहीं सकती। या तो किसी मनुष्य की सारी समस्याएं हल हो जाती हैं या फिर सारी समस्याएं बनी रहती हैं। यह इसलिए होता है कि वस्तुतः समस्याएं अलग-अलग नहीं हैं, समस्या बुनियाद में एक है। और आप हर समस्या के लिए अलग-अलग समाधान खोजते हैं, क्रोध आता है, तो उसके लिए समाधान खोजते हैं; लोभ आता है तो उसके लिए अलग समाधान खोजते हैं; घृणा आती है, उसके लिए अलग समाधान खोजते हैं, ईष्र्या आती है, उसके लिए अलग समाधान खोजते हैं, भूल में हैं आप। ये बीमारियां अलग-अलग नहीं हैं, मनुष्य की सारी बीमारियां बुनियाद में एक बात पर खड़ी हैं और वह बात यह है कि वह जो है, जैसा है, उसे स्वीकार करने को राजी नहीं है। उससे अन्यथा होना चाहता है, उससे भिन्न होना चाहता है, छोटा है तो बड़ा होना चाहता है, गरीब है तो अमीर होना चाहता है। कुरूप है तो सुंदर होना चाहता है, कमजोर है तो शक्तिशाली होना चाहता है। और हमारी पूरी संस्कृति, और हमारी पूरी शिक्षा, और हमारे पूरे संस्कार इस बात को सहारा देते हैं कि मैं एक तराजू रखूं, उसमें एक किलो का बाट रखूं एक पलड़े पर, दूसरे पलड़े पर दो किलो का बाट रखूं। दो किलो का पलड़ा जमीन से लग जाएगा तो क्या हम दो किलो के पलड़े को फूल-मालाएं पहनाएंगे, और हाथ जोड़ेंगे कि तुम बहुत महान हो, तुमने इस एक किलो को हरा दिया? हम कहेंगे इसमें कौन सी खास बात है, वह एक किलो का बाट है ,तुम दो किलो के बाट हो। अगर मुझे आप हरा दें और मेरी छाती पर बैठ जाएं तो आपके गले में लोग फूल-मालाएं पहनाएंगे कि तुमने बहुत गजब कर दिया, और मैं इतना ही समझूंगा कि मैं एक किलो का बाट हूं और आप दो किलो के बाट हैं। इसमें इतने आश्चर्य की बात क्या है?
जीवन जैसा है, मैं जैसा हूं, कोई भी अपने व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं कर रहा है, हम सब अपने व्यक्तित्व से भागे हुए हैं, हमें कुछ और होना है। और जिनकी नकल हम करना चाहते हैं, अगर उनके पास जाकर जांच करेंगे, तो आपको पता चलेगा कि वे किसी और की नकल करना चाहते हैं। अगर आप उनके पास दोनों मिल कर जाएंगे तो आप पाएंगे कि वे किसी तीसरे की नकल करना चाहते हैं। अगर आप तीनों मिलकर चैथे के पास जाएंगे तो आखिर में आप उस आदमी को नहीं खोज सकते, जिसकी सब नकल करना चाहते हैं। हर आदमी किसी और की नकल करना चाहता है। हम सब एक चक्कर में घूम रहे हैं और एक-दूसरे की नकल करना चाहते हैं। जब तक यह चक्कर है, हम एक-दूसरे की नकल करना चाहते हैं और यह हमें सिखाया गया है। हमें हजारों साल से यह सिखाया गया है कि तुम महावीर जैसे हो जाओ, बुद्ध जैसे हो जाओ, गांधी जैसे हो जाओ; इस जैसे हो जाओ, उस जैसे हो जाओ लेकिन कोई यह कहने को नहीं है आपसे कि आप आप जैसे हो जाओ और किसी और जैसा होने की आपको जरूरत नहीं है। जब तक मनुष्य को यह गलत बात सिखाई जाएगी कि तुम किसी और जैसे हो जाओ, तब तक जीवन में दुख और पीड़ा अनिवार्य है, कोई समस्या हल नहीं हो सकती। और मैं आपसे निवेदन करूं, क्या आपको पता है कि कभी कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा हुआ है? राम को हुए कितने वर्ष हुए, कृष्ण को हुए कितने वर्ष हुए, क्राइस्ट को हुए कितने वर्ष हुए; कोई दूसरा क्राइस्ट, कोई दूसरा कृष्ण, कोई दूसरा महावीर दिखाई पड़ता है, इस पूरे मनुष्यजाति के इतिहास में। इसमें इंडिविजुअल्स तो दिखाई पड़ते हैं, टाइप्स कहां दिखाई पड़ते हैं? कोई दूसरा महावीर, तीसरा महावीर, चैथा महावीर दिखाई पड़ता है? नहीं प्रत्येक मनुष्य की प्रतिभा अद्वितीय है। यूनीक है। इसलिए नकल घातक है, आदर्श खतरनाक हैं, किसी दूसरे जैसे होने की चेष्टा कष्टपूर्ण है। और उससे कभी कोई हित और हल नहीं हो सकता।
अगर एक बगीचे में फूल लगे हों और गुलाब चमेली जैसा होने में लग जाए, और चमेली चंपा जैसी होने में लग जाए और कुछ कुछ और होने में तो वह बगिया उजड़ जाएगी, उसमें कोई फूल नहीं खिलेगा कभी, उसमें कोई पत्ता हरा नहीं दिखोगा कभी। क्योंकि सब पौधे चिंता में, एंजायटी में पड़ जाएंगे। चंपा को चमेली जैसा होना है, कितने प्राण संकट में पड़ जाएंगे? और होगा क्या? चंपा क्या चमेली हो सकती है? नहीं, चंपा कभी चमेली नहीं हो सकती। हां, एक बात हो जायेगी, जो चंपा चमेली होने की कोशिश करेगी, वह चंपा नहीं हो पाएगी। चंपा कैसे हो पाएगी? उसकी सारी व्यस्तता तो चमेली होने में व्यय हो जाएगी, उसकी सारी शक्ति तो चमेली होने में लग जाएगी। चमेली तो हो नहीं सकती, क्योंकि अपने स्वभाव के बाहर कोई भी नहीं जा सकता, अपने व्यक्तित्व के बाहर दूसरा व्यक्ति नहीं बन सकता; लेकिन एक बात हो जाएगी, चंपा चमेली नहीं हो पाएगी, लेकिन चंपा भी नहीं हो पाएगी। और तब उस वृक्ष के पौधे के प्राण कितने संकट में, पीड़ा में पड़ जाएंगे। सारी मनुष्य-जाति के प्राण इसी तरह के संकट में पड़े हैं।
धर्म कहता है कि तुम्हारा जो स्वभाव है, वही धर्म है। वही धर्म है। और उसे छोड़ कर किसी दूसरे की तुम नकल मत करना। परधर्म भयावह। वह दूसरे का जो धर्म है भयभीत करने वाला है, उसका मतलब यह नहीं है कि तुम हिंदू हो तो मुसलमान से डरना, या मुसलमान के धर्म से डरना; और जैन हो तो ईसाई के धर्म से डरना। नहीं, प्रत्येक व्यक्ति का जो स्वरूप है, वह उसका धर्म है। उससे अन्यथा होने की सब कोशिश अधर्म है, और उस अधर्म में उसके व्यक्तित्व में जो पंगुता आयेगी, क्रिपिल्डनेस आएगी, टूटेगा, खंडित होगा, सड़ेगा, मरेगा लेकिन आनंद, सुवास, संगीत पैदा नहीं हो सकते। आदर्श ने मार डाला है। हर आदमी की छाती पर पत्थर की तरह आदर्श सवार हैं। वह किसी जैसा होना चाहता है, बिना इसकी फिकर किए कि मैं क्या हूं? जब तक आप किसी जैसा होना चाहते हैं, तब तक आप किसी जैसा होना चाहते हैं, तब तक आप चिंता को आमंत्रण दे रहे हैं, तब तक आप दुख को बुलावा दे रहे हैं। कृपा करें, अपने जैसे होने का इरादा करें। यह अपने जैसे होने का इरादा क्या है? इसको मैं धर्म कहता हूं। अपने जैसे होने के इरादे को मैं साधना कहता हूं। दूसरे के जैसे होने के इरादे में ईष्र्या है। काम्पिटीशन है, स्पर्धा है, आप सोचते होंगे हम महावीर जैसा होना चाहते हैं तो महावीर की बड़ी प्रशंसा हो रही है, इस भूल में मत पड़ जाइये, महावीर से आपके मन में ईष्र्या हो रही है। आप सोचते हों कि हम बुद्ध के जैसा होना चाहते हैं तो बुद्ध के बड़े अनुयायी हैं; धोखे में मत पड़िए आप अनुयायी वगैराह कुछ भी नहीं है, बुद्ध की शांति, बुद्धि का आनंद आपके भीतर ईष्र्या पैदा कर रहा है, काम्पिटीशन पैदा कर रहा है, आप भी उन जैसा होना चाहते हैं। आपके बगल का आदमी बड़ा मकान बनाता है, आप भी बड़ा मकान बनाना चाहते हैं, तो क्या आप उस आदमी को आदर करते हैं जो आपके बगल में रहता है?
एक आदमी बहुत धन इकट्ठा कर लेता है, आप भी इकट्ठा करना चाहते हैं, तो क्या आप उस आदमी को आदर करते हैं, जिसने धन इकट्ठा कर लिया? नहीं, आपके अहंकार को पीड़ा हो रही है, मैं भी वैसा क्यों न हो जाऊं ? आदर्श, अहंकार आधारित होते हैं। गांधी हों, कोई भी हों, कोई भी आ जाए; उसको देख कर आपके अहंकार को चोट लगती है कि ये आदमी इतना ऊंचा हो सकता है तो मैं क्यों न हो जाऊं । लेकिन आपसे निवेदन करूं, इस जगत में केवल वे ही आदमी ठीक-ठीक विकसित हो पाते हैं, जो किसी की नकल नहीं करते और जिनकी आप नकल करना चाहते हैं, खयाल करें उनने किसी की कभी नकल नहीं की है। क्राइस्ट ने किसकी नकल की? बुद्ध ने किसकी नकल की? लाओत्से ने किसकी नकल की? वे किसकी टुकापियां थे? वे खुद थे। अपने खुदी थे। इनडिविजुअलिटी थी। आपमें कोई इनडिविजुअलिटी है? धर्म का संबंध इनडिविजुअल से है, व्यक्ति से है; आपमें कोई इनडिविजुअलिटी है? आप व्यक्ति हैं? आप बिलकुल व्यक्ति नहीं हैं। आपके खयाल समाज से उधार मिले खयाल हैं। आपकी ईष्र्याएं, आपकी जलनें दूसरों की नकल के बोझ से हैं, आपके पास खुद का क्या है? और जब आप इस सारी नकल और दौड़ में पड़े रहेंगे तो अपनी आत्मा को कैसे पा सकेंगे? आत्मा का अर्थ है व्यक्तित्व। आत्मा का अर्थ है, उस खुद की निजता को पा लेना, जो आपकी है और किसी दूसरे से उधार नहीं पाई गई। आपके विचार दूसरों के, आपके आदर्श दूसरों के, आपका आचरण दूसरों का, आपके कपड़े दूसरों से उधार लिए हुए, आपके मकान दूसरों की नकल पर बनाए हुए, आपका सारा ढंाचा दूसरों का; आपकी अपनी आत्मा कहां है? और अगर खुद की कोई आत्मा न हो, सारा व्यक्तित्व उधार हो तो स्वाभाविक है कि आप नरक में होंगे। जिसके पास अपनी आत्मा होती है और व्यक्तित्व उधार नहीं होता, जिसके प्राण अपने होते हैं और किसी से दूसरे से मांगकर नहीं लाए गए होते, वह व्यक्ति यहीं और इसी जमीन पर मोक्ष को उपलब्ध कर लेता है। आत्मा को पा लेना मुक्त हो जाना है। कैसे यह होगा? यह होगा, सारे आदर्श छोड़ देने होंगे। हिम्मत करके किसी की भी नकल करनी छोड़ देनी होगी। हिम्मत करके स्वीकार कर लेना होगा कि मैं कौन हूं, क्या हूं और उस स्वीकृति से एक क्रांति पैदा होती है। जब मैं स्वीकार करता हूं कि मैं जो हूं वही होऊंगा, मेरे भीतर जो पोटेंशियलिटी है, जो बीज है, उसी को विकसित करूंगा, मैं किसी की नकल नहीं करूंगा। अगर मैं गुलाब हूं तो गुलाब सही, अगर मैं घास का एक फूल हूं तो घास का फूल सही, गौरव इसमें नहीं है कि कोई गुलाब का फूल हो जाए, गौरव इसमें है कि फूल खिले और पूरा खिल जाए और ये सब फासले, गुलाब के फूल के और घास के फूल के मनुष्य निर्मित हैं। अगर मनुष्य जमीन पर न हो तो गुलाब का फूल घास के फूल से बेहतर है? फूल फूल हैं, और सारा जजमेंट, सारा वैल्युएशन मनुष्य का है। हां एक वैल्युएशन फिर भी होगा, एक ऐसा फूल होगा जो पूरा खिल गया, वह चाहे गुलाब का हो, चाहे घास का हो, एक ऐसा फूल होगा जो पूरा नहीं खिल पाया है, जिसकी पंखुड़ियां बंद रह गईं, वह चाहे घास का हो, चाहे गुलाब का हो, मूल्यांकन दो हैं, फूल खिल जाए, सौरभ प्रकट हो जाए तो तो आनंद हैं, तो तो ठीक है, फूल मुड़ा रह जाये, पंखुड़ियां खिल न पाएं, प्रांण संकुचित, कुंठित रह जायें तो विकृति है, बीमारी है। मैं आपसे कहूं किसी को किसी जैसा नहीं होना है, प्रत्येक को उसके भीतर जो है, उसे खिलाना है, पूरा फुलाना है।
कैसे यह होगा? डर तो यह है कि जब हम अपने भीतर देखते हैं तो पाते हैं क्रोध, पाते हैं लोभ, पाते हैं काम, पाते हैं सेक्स, पाते हैं अहंकार; तो हमें डर लगता है, डर लगता है कि इन सबको लेकर हम क्या करेंगे? तो हम जल्दी से उनकी नकल करना शुरु करते हैं, जिनमें अहंकार नहीं है, क्रोध नहीं है, जिनमें लोभ नहीं है हम उनकी नकल करना शुरु करते हैं। हमको तो लगता है, डर कि हम तो लोभी हैं, क्रोधी हैं, बुरे आदमी अगर हम अपने भीतर ही रह गए और किसी की नकल न की तो मर जाएंगे, यह क्रोध ही क्रोध है और तो यहां कुछ भी नहीं है। बात सच है, यह ठीक है कि भीतर क्रोध है, भीतर अहंकार है, भीतर लोभ है लेकिन क्या किसी ऐसे व्यक्ति की नकल करके जिसके भीतर लोभ न हो आप अपने लोभ को मिटा सकेंगे।
एक फकीर हुआ बायजीद उसके पास एक युवक गया और उसने कहा कि कृपा करें और आपके वस्त्र मुझे दे दें। मैं भी संन्यासी होना चाहता हूं, मैं अपने वस्त्र पहन लूं ऐसे पवित्र वस्त्र और कहां मिलेंगे? बायजीद ने कहा वस्त्र तो मैं तुझे सारे दे दूं, लेकिन मैं तुझसे एक प्रश्न पूछता हूं कि अगर कोई स्त्री किसी पुरुष के वस्त्र पहन ले तो क्या पुरुष हो जाएगी? या कोई पुरुष स्त्री के वस्त्र पहन ले तो क्या स्त्री हो जाएगा? अगर यह होता हो तो तू मेरे वस्त्र ले जा और पहन ले।
आपको हंसी आती है कि वह आदमी बड़ा नासमझ रहा होगा, लेकिन महावीर के पीछे महावीर के जैसी शक्लें बनाये हुए जो घूम रहे हैं, वो कोई अगल हैं? या बुद्ध के पीछे बुद्ध के जैसे कपड़े लगा कर जो घूम रहे हैं, वो कोई अलग हैं? उनकी भी बुद्धि, उनका भी गणित यही है। गणित यह है कि तुम जैसे रहते हो, तुम जैसे उठते-बैठते हो, तुम जो खाते हो, पीतो हो ठीक हम भी वैसा ही करेंगे तो सब हो जायेगा। नहीं, इस तरह कुछ भी नहीं होगा। प्राण बदलते हैं, अंतस बदलता है तो आचरण बदलता है, आचरण के बदलने से किसी का अंतःकरण न कभी बदला है और न बदल सकता है। अंतस कैसे बदलेगा? एक रास्ता ही हम जानते रहे हैं, क्रोध है तो उससे विरोधी गुण को लाओ। क्रोध है तो क्षमा को लाओ, झूठ है तो सत्य को लाओ, हिंसा है तो अहिंसा को लाओ। यही जानते रहे हैं। अगर हमारे भीतर क्रोध है, तो हम अक्रोध को लायें, गलत है यह बात; गलत इसलिए है कि क्रोध है, क्रोधी मन अक्रोध को कैसे ला सकता है, लोभ है तो लोभी मन त्यागी कैसे हो सकता है? अहंकार है तो अहंकारी मन विनीत कैसे हो सकता है? ह्युमिलिटी कैसे आ सकती है? और इसलिए तो यह गड़बड़ हो जाती है, देखा आपने, उन लोगों को देखा जो बहुत विनीत हैं, और उनके विनय में आपको अहंकार दिखाई पड़ता है या नहीं दिखाई पड़ता है? उनको यही अहंकार हो जाएगा कि मुझसे बड़ा विनीत और कोई भी नहीं। आपने सेवकों के दंभ को देखा है? आपने साधुओं के दंभ को देखा है? उनको यही दंभ हो जाएगा, मुझसे बड़ा त्यागी और कोई भी नहीं। स्वाभाविक है अहंकार हो तो विनय आ ही नहीं सकती। फिर क्या रास्ता है? अहंकार चला जाए तो विनय आती है। अहंकार के रहते विनय नहीं लाई जा सकती। अहंकार का अभाव है विनय। अहंकार की विरोधी नहीं है, स्मरण रखें बहुत सूक्ष्म बात है। अर्थपूर्ण है, उस पर पूरे जीवन की दिशा निर्भर करेगी।
क्रोध और क्षमा में विरोध नहीं है, क्षमा क्रोध की विरोधी नहीं है। क्योंकि जहां क्रोध होता है, वहां क्षमा हो ही नहीं सकती। क्षमा क्रोध का अभाव है। जहां क्रोध नहीं होता, वहां जो है उसका नाम क्षमा है। इसलिए आप क्षमा को ला नहीं सकते, आप क्रोध को जरूर हटा सकते हैं। क्षमा को लाना हो तो किसी का अनुसरण करना पड़ता है, क्रोध को हटाना हो तो खुद का आत्मानुसंधान और विश्लेषण करना होता है। मेरे भीतर क्रोध है, क्यों है? मैं इस तथ्य के प्रति जागूं, देखूं, पहचानूं और एक बड़े आश्चर्य की बात है, बहुत आश्चर्य की बात है जब तक हम क्रोध से लड़ते हैं, तब तक क्रोध में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। नहीं हो सकता इसलिए कि क्रोध से लड़ना अपने ही दोनों हाथों को लड़ाने जैसा है। क्रोध की ताकत भी मेरी है और लड़ने वाले की ताकत भी मेरी है, लड़ने वाला कौन है, और क्रोध करने वाला कौन है, ये कोई दो हैं? ये एक ही व्यक्ति है। क्रोध भी वही करता है, क्रोध से लड़ता भी वही है। जब एक ही व्यक्ति अपने ही दोनों हाथों को लड़ाएगा, तो क्या होगा? क्या कोई जीत हो सकती है? जीत तो नहीं होगी कोई हाथ नहीं जीतेगा, क्योंकि दोनों के पीछे एक की ताकत है। लेकिन एक बात हो जायेगी, दोनों हाथ लड़ते-लड़ते हाथों में तो कोई नहीं जीतेगा, लड़ाने वाला धीरे-धीरे मर जाएगा। उसकी ताकत नष्ट हो जाएगी। क्रोध से लड़ने वाला क्रोध को नहीं जीत पाता, लड़ने में अपनी ही शक्ति को खो देता है। और जिसकी शक्ति जितनी कम हो जाती है, वह उतना क्रोधी हो जाता है। कमजोर का लक्षण है क्रोध। इसलिए आप देखेंगे आपके बड़े-बड़े ऋषि-मुनि जिनकी आप कथाएं पढ़ते हैं, वे क्रोध में हद दर्जा आगे थे, उन्होंने अभिशाप दिए, लोगों को जलाने के, मार डालने के, जन्मों तक परेशान करने के अभिशाप दिए। धन्य थे ऋषि-मुनि! क्रोध से लड़े थे, क्रोध से लड़ कर कमजोर हो गए थे, तो क्रोध और प्रदीप्त हो गया, जितना आदमी कमजोर हो उतना क्रोध बढ़ जाता है। कोई व्यक्ति कभी भी अपने किसी दुर्गुण से लड़ कर विजय नहीं पा सकता। फिर क्या करे?
पहली बात लड़ाई छोड़ दे, बिलकुल छोड़ दे। आप कहेंगे तब तो बड़ा मुश्किल होगा। अगर मैंने क्रोध से लड़ाई छोड़ दी, फिर तो मैं एकदम क्रोधी हो जाऊंगा। अगर आप क्रोधी हैं तो समझ लें कि कोई हर्जा नहीं है, अगर मैं क्रोधी हूं तो मुझे पूरी तरह जानना चाहिए कि मैं क्रोधी हूं और अपने पूरे क्रोध से परिचित होना चाहिए। यह आपकी शक्ति है, इससे घबड़ाइए मत, इससे परिचित होइए और एक रहस्य का अनुभव करिए कि जैसे ही आप लड़ाई छोड़ेंगे कि आपके पास लड़ने में जो शक्ति व्यय होती थी, वह बच जाएगी। और वह बची हुई शक्ति आपको शक्तिशाली बनाएगी। और जितना व्यक्ति शक्तिशाली होता है, उतना ही क्रोध कम होता है। क्योंकि क्रोध कमजोर का लक्षण है। क्रोध है वीकनेस। जितनी शक्ति आती है, उतना क्रोध कम होता है। क्रोध से लड़ाई छोड़िये, फिर क्या करिये? क्रोध के प्रति जागिए, लड़िए मत। भागिए मत, जागिए। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि आप जाइए और क्रोध करिये। मैं यह कह रहा हूं कि क्रोध के प्रति जागिए। देखिए अपने भीतर कि कहां-कहां क्रोध है? किन-किन चित्त की स्थितियों में क्रोध है, कहां-कहां सेक्स है, कहां-कहां अहंकार है, जागिए, पहचानिए; और लड़ाई छोड़ दीजिए, लड़ाई में आप एक बात मान लेते हैं कि क्रोध अलग है। अहंकार अलग है, सेक्स अलग है, ये कोई भी अलग नहीं हैं। आपके चित्त की स्थितियां हैं, शक्तियां हैं। जब आप इनको स्वीकार करके देखना शुरु करेंगे तो एक बहुत आश्चर्य की बात है, कुछ परिवर्तन हैं, जो मात्र देखने से हो जाते हैं। इस जगह अंधेरा हो और हम एक दीया ले आयें और अंधेरे को देखें, क्योंकि अंधेरे को देखने के लिए दीया लाना पड़ेगा। हम अंधेरे को देखें तो अंधेरा विलीन हो जायेगा, जैसे ही प्रकाश आएगा अंधेरा विलीन हो जाएगा।
जब कोई व्यक्ति अपने पूरे प्राणों की शक्ति से अपनी किसी बुराई को देखना शुरू करता है तो यह बहुत आश्चर्य की बात है कि उस देखने के प्रकाश में बुराई क्रमशः विलीन और क्षीण हो जाती है। दर्शन अदभुत शक्ति है और दर्शन बहुत ट्रांसफाॅर्मिंग फोर्स है। परिवर्तनकारी, क्रांतिकारी शक्ति है। इस दर्शन की शक्ति को ही ध्यान कहा गया है। ध्यान का अर्थ यह नहीं है कि आप बैठे हैं और राम-राम, राम जप रहे हैं, उससे तो माइंड डल हो जाएगा। उससे तो मस्तिष्क की जड़ता आ जाएगी। कोई एक शब्द बार-बार दोहराने से कोई मस्तिष्क का विकास होगा, जिन कौमों ने भी इस तरह के शब्द दोहराए हैं, उनकी पूरी कौमें की कौमें जड़ हो गई हैं। उनसे न कुछ अविष्कार हुआ, न कोई सर्जन हुआ, न उनसे कुछ क्रिएशन हुआ। दरिद्र, दीन, दुखी, पीड़ित पूरी कौम हो गई है। क्योंकि मन बैठा हुआ है और आप राम-राम जप रहे हैं, इससे क्या होगा? एक आदमी बैठा-बैठा कुर्सी-कुर्सी जप रहा है, एक आदमी बैठा हुआ झाड़-झाड़ जप रहा है तो क्या होगा? अगर पूरा मुल्क इसको समझ ले और इस तहर करने लगे तो मुल्क मर गया, तो मुल्क सड़ गया और उसकी पूरी संस्कृति उसके प्राण खो देगी। राम-राम जपना ध्यान नहीं है। और न बैठ कर माला फेरना ध्यान, क्या इडियाटिक हमने सारी बातें पकड़ रखी हैं, कैसी मूर्खतापूर्ण? एक आदमी एक माला को लिये है और गुरिए सरका रहा है और सोच रहा है कि भगवान के करीब पहुंच रहे हैं, गुरिए सरकाने से? लेकिन हमको यह खयाल रहे, यह ध्यान नहीं है; ध्यान का अर्थ है चित्त की हर एक स्थिति के प्रति सजग हो जाना, अवेयरनेस। अगर मेरे भीतर क्रोध है तो मैं अपने सारे प्राणों को इकट्ठा करूं और क्रोध के प्रति जाग जाऊं। फिर देखें क्या होता है? आपके जागते ही क्रोध विलीन होने लगेगा। आप जितने होश से भरेंगे, कभी होश से भर कर क्रोध करके देखें, फिर मेरी बात समझ में आ जाएगी। क्रोध आए, उसी वक्त एकदम सजग हो जाएं, और अपने क्रोध को देखें और देखें कि क्रोध कहां है? आप हैरान हो जाएंगे, आप जागेंगे, जानेेंगे क्रोध गया। सोया हुआ आदमी क्रोध करता है। सोया हुआ आदमी सपने देखता है, जागने के बाद सपना कहां?
ये सब सपने हैं, इनसे लड़ने की जरूरत नहीं है, जागने की जरूरत है। जीवन की इन सारी चित्त की विकृतियों के प्रति जागें और देखें कि जागने से क्या होता है? कितना आश्चर्य है और कई बार ऐसा हो जाता है कि हम कहीं और समस्या को खोजते रहते हैं और समस्या कहीं और होती है। यह क्रोध का होना समस्या नहीं है, निद्रा का होना, मूच्र्छा का होना समस्या है। हम खोजते हैं अक्रोध में हल, अक्रोध में कोई हल नहीं है। क्षमा में कोई हल नहीं है। हल है जागरण में, होश से भर जाने में। विवेक में। लेकिन हम कहीं और खोजते हैं, एक कहानी कहूं उससे शायद खयाल आ जाए।
एक राजा का बड़ा वजीर मर गया था। जब बड़ा वजीर मर गया तो सवाल उठा कि उसके राज्य में जो सबसे बुद्धिमान आदमी हो उसको खोजा जाए। तो बड़ी-बड़ी परीक्षाओं की व्यवस्था की गई। बहुत से लोगों ने परीक्षाएं दी फिर अंततः बहुत सी सीढ़ियां पार करते-करते तीन व्यक्ति चुने गए। वे उस राज्य के सर्वाधिक बुद्धिमान लोग थे। लेकिन अब भी सवाल था, उन तीन में से एक को चुनना था। इसलिए अंतिम निर्णायक परीक्षा तय की गई। एक दिन पहले अफवाह उड़ा दी गई, जैसा आजकल सभी परीक्षाओं में एक दिन पहले पता चल जाता है कि पेपर क्या आने वाला है। ऐसी न मालूम कैसी गड़बड़ हुई कि अफवाह पहले ही उड़ गई कि क्या परीक्षा होने वाली है? अफवाह यह थी कि कल राजा सुबह ही उन तीनों को एक कमरे में बंद कर देगा, उस कमरे में एक ही दरवाजा है, उस दरवाजे पर उस समय के इंजीनियरों, गणितज्ञों, मैथेमेटिशियंस की सलाह से एक ऐसा अदभुत ताला लगाया गया है, जो गणित की एक पहेली है। जो गणित में बहुत होशियार होगा वही उस पहेली को हल कर सकता है और ताले को खोलने की तरकीब निकाल सकता है, उसकी कोई चाबी नहीं है। उसकी एक पहेली है।
एक यांत्रिक पहेली है, जो आदमी उस दरवाजे को खोल कर बाहर निकल जायेगा वह वजीर बना दिया जाएगा। वह सबसे बुद्धिमान आदमी सिद्ध हो जाएगा। आप सोच सकते हैं, बेचारे बड़ी मुसीबत में पड़ गये। पर्चा पता न चले तो भी मुसीबत कम होती है, पर्चा पता चल जाये तो मुसीबत और बढ़ जाती है। रात आराम से सोते तो उस रात बड़ी मुश्किल हो गई। भागे, गये दुकानों की किताबों पर गये, क्योंकि क्या करते, जब भी आदमी को खोज करनी होती है तो वह किताब की तरफ जाता है, शास्त्र की तरफ जाता है। उन्होंने पुराने शास्त्र खुजवाए कि तालों के संबंध में कोई ग्रंथ हो तो उसको देखें, गणित की किताबें लाए, इंजीनियरिंग, यांत्रिकी की किताबें लाए, रात भर लेकिन यह दोनों ही आदमियों ने किया। एक बड़ा पागल था। उसको पर्चा पता चल गया, फिर भी उसने कोई फिकर नहीं की। दोनों उस पर हंसते थे कि यह मूढ़ है, वह अपना चादर तान कर सो गया। समझा उन्होंने कि इसकी हिम्मत नहीं है, प्रतियोगिता में खड़े होने की, शायद भाग जाएगा सुबह होने के पहले। वे दोनों रात भर शास्त्रों को पढ़ रहे हैं, गणित का हिसाब लगा रहे हैं। वह उन्होंने जिंदगी में कभी किया नहीं था, तो शाम को जितने कंफ्यूज्ड थे, सुबह उससे ज्यादा कंफ्यूज्ड हो गये। गणित से परिचित न थे। इंजीनियरिंग से परिचित न थे, बड़े-बड़े शास्त्र, मोटे, और हमारा ख्याल यह होता है कि जितना बड़ा शास्त्र होता है उतना ही बड़ा सत्य उसमें होता है। किसी धर्म की छोटी किताब हो तो वह धर्म छोटा हो जाता है। शास्त्र बड़ा। फिर जितना पुराना शास्त्र हो, उतना ज्यादा सत्य होता है, तो सभी धर्म कोशिश करते हैं कि हमारा शास्त्र सबसे मोटा, खूब मोटी जिल्द में छाप दें, खूब मोटे पन्ने में, बड़े-बड़े अक्षरों में और सबसे पुराना, क्योंकि सबसे पुराना जो होता है वह उतना ही कीमती उतना ही सच होता है।
तो पुराने से पुरानी किताबें बेचारे ले आएं, एक किताब पलटें फिर दूसरी, क्योंकि रातभर थोड़ा सा वक्त जिंदगी बड़ी कितनी। रात छोटी, बहुत शास्त्र सारे कमरे में भर लिए, फिर से उस पर, इस पर; रात भर, सुबह तक हालत उनकी यह हो गई कि अगर आप उनसे पूछते कि दो और दो कितने? तो वे नहीं बता सकते थे। पंडित बता सकते हैं कि दो और दो कितने? नहीं बता सकते, कोई पंडित नहीं बता सकता। क्योंकि पंडित होते-होते दिमाग तो विकृत हो जाता है। उसकी रटी हुई बातें पूछ लें तो बता देगा, लेकिन जिंदगी कोई समस्या खड़ी कर दे तो खड़ा रह जाएगा। उससे पूछें गीता के श्लोक का अर्थ फौरन बता देगा, वह तो मशीन है, उसने तो याद किया हुआ है। लेकिन जिंदगी कोई समस्या खड़ी कर दे तो मुश्किल हो जायेगी।
लेकिन सुबह तक उन्होंने समझा कि हम तो तैयार हो गए, वह आदमी सोकर उठा, रोज की बजाय और देर से उठा, तो उन्होंने कहा, तुम बिलकुल मूढ़ मालूम होते हो, रात भर सोये रहे, वह कुछ भी नहीं बोला। क्योंकि जो जानता है वह मूढ़ों की बात पर कुछ भी नहीं बोलता है। तीनों चले राजमहल की तरफ, जिन दो का शास्त्र ज्ञान घना हो गया था उनके पैर तो डगमग हो रहे थे, कहीं रखते थे ,कहीं पड़ते थे। हमेशा ऐसा ही हुआ है, पंडित पैर कहीं रखता है, कहीं पड़ता है। पंडित से अंधा कोई होता है दुनिया में? क्योंकि आंख तो बचती ही नहीं, वह तो पढ़ते-पढ़ते ही नष्ट हो जाती है। खैर किसी तरह डगमगाते हुए वे महल द्वार तक पहुंचे, मगर तीसरा आदमी गीत गुनगुनाता हुआ चल रहा था, वह अपने भीतर गणित चला रहे थे। रात भर जो सीखा था, वह घूम रहा था, घूम रहा था, चक्कर खा रहा था। पैर कहां, हम कहां, उसका कहां पता था। हिसाब चल रहे थे भीतर कि अगर ऐसा हो तो क्या हो, वैसा हो तो क्या हो?
पहुंचे राजमहल। सच थी, अफवाह सच भी, पर्चा सच में ही पता चल गया था। वे एक कमरे में बंद कर दिए गए। और राजा ने कहाः जो पहले निकल आएगा, वह बड़ा वजीर हो जायेगा। बड़ा भारी ताला, ताला क्या जैसे बड़ी मशीन उस दरवाजे पर लटकी थी। उस मशीन में बड़े कलपुर्जे थे, हर कलपुर्जे पर गणित के अंक और चिह्न बने हुए थे। उनके तो प्राण निकल गए, ये दोनों तो उन्हें देख कर ही घबड़ा गए। खैर अब वह तो हल करना ही था, बंद थे भीतर, निकलना ही था। वजीर हो न हों, कम से कम बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। अपनी-अपनी कागज कलम लेकर देखने में लग गये और यह भी आपको बता दूं, हालांकि बताना नहीं चाहिए क्योंकि यह शिष्टाचार नहीं है; घर से चलते वक्त उन्होंने कुछ किताबें उन्होंने अपने खीसें में और कपड़ों में भी छुपा ली थी। अगर जरूरत पड़ जाए...। यह मुझे कहना नहीं चाहिए, क्योंकि यह बात ठीक नहीं है, किसी के बाबत बताना। लेकिन ऐसा कौन परीक्षार्थी है, जो किताबें छिपा कर नहीं जाता है? खींसे में छिपाता है, कोई दिमाग में घुसेड़ लेता है, बात तो एक ही है, कोई फर्क है क्या? तो वो बहुत सी किताबें भी ले गए थे, उनका बोझ अलग था, वो जल्दी उन्होंने जैसे ही राजा बाहर हुआ किताबें खोली। जल्दी हिसाब-किताब लगाने में लग गये, ताले को इधर से देखते थे, उधर से देखते थे, नीचे से, ऊ पर से एक-एक अंक लिखते थे। मगर वह जो तीसरा पागल था, निपट ही पागल रहा होगा; वह तो आंख बंद करके वहां भी बैठ गया एक कोने में। उन्होंने सोचा कि यह जड़बुद्धि इसका क्या होगा? वह कुछ अजीब ही था, वह न कुछ किताब लाया था, न उसने कुछ रात पढ़ा था, लेकिन आंख बंद किये बैठा था, ऐसा भी नहीं लगता था कि कुछ सोचता है। क्योंकि सोचने से भी तो चेहरे पर सलवटें आ जाती हैं। सोचने से भी तो चिंताएं आ जाती हैं, लेकिन वह तो बिलकुल निश्चिंत था, जैसे अपने घर में मजे से सोया हो। वह बैठा रहा, बैठा रहा, ये तो अपनी किताबों में धीरे-धीरे डूबते गए, धीरे-धीरे किताबें ही रह गई, वे भूल ही गए; वे तो अपने काम में लगे थे, एक चक्कर था चल रहा था।
वह आदमी एकदम उठा, न मालूम उसे क्या हुआ, एकदम उठा, दरवाजे पर गया; हैंडिल घुमाया और हैरान रह गया, दरवाजा खुला हुआ था, ताला नकली था, ताला लगा हुआ नहीं था। हैंडिल घुमाया दरवाजा खुल गया, वह तो एकदम हैरान रह गया, बाहर निकला दरवाजा अटका दिया। ये दो बेचारे तो अपनी किताबों में, अपनी रामायण में, गीता में, कुरान में इस तरह से लगे हुए थे, इन्होंने यह भी नहीं देखा अब दो ही हैं भीतर, एक बाहर चला गया। यह देखने की फुर्सत किसको थी? उन्हें तो तब पता चला जब राजा उस आदमी को भीतर लेकर आया और कहा कि महानुभवों, गणितज्ञों, शास्त्रियों रुक जाओ, हे पंडितो! अब रुको, अब कृपा करो, जिसको निकलना था वह निकल गया। वे तो, चैंक कर उन्होंने आंखें खोलीं, उनकी तो समझ में नहीं आता था, वहां तो गणित घूम रहे थे, उन्होंने कहा, क्या बात है? कि ये तुम्हारा मित्र निकल चुका। और तुमसे यह निवेदन करना है कि सबसे समझदार आदमी दुनिया में वही है, जो किसी समस्या को हल करने के पहले यह देख ले कि समस्या है भी या नहीं।
सिर घूमता जाता है और मनुष्य विकृत से विकृत होता चला जाता है। मैं आपको कहूं, देखें कि जीवन की समस्या क्या है? और मैं आपको कहता हूं कि भगवान के द्वार पर कोई ताला नहीं है, प्रेम के हृदय पर कोई ताला नहीं है, सत्य के भवन में कोई ताला नहीं है, आप धक्का दें और दरवाजा खुल जायेगा। लेकिन आप तो जमाने में घूम रहे हैं, सिर्फ उस दरवाजे पर धक्का देने का आपको ख्याल नहीं आता। वह धक्का क्या है? चित्त के प्रति जागें, जायें, खड़े हों और देखें, चित्त को देखें, अपने माइंड को देखें, पहचानें, सजग हों और आप पायेंगे कि आपकी सजगता मात्र आपका हैंडल पर हाथ रखना मात्र दरवाजे को खोल देता है। और आप वहां पहुंच जाते हैं, जहां के लिए आप दौड़ते थे और खोजते थे और नहीं पहुंच पाते थे। वह चिंरतन सत्य, वह आलोक, वह शांति, वह आनंद, वह सच्चिदानंद प्रत्येक के भीतर मौजूद है, लेकिन थो..ड़ा धकायें तो।
क्राइस्ट ने कहा हैः नाॅक एंड द डोर शैल बी ओपन अनटू यू। कहा है कि खटखटाओ और दरवाजे खुल जाएंगे। मैं आपसे निवेदन करता हूं, क्राइस्ट ने कुछ जरा सख्त बात कह दी, खटखटाओ! मैं कहता हूं, हाथ रखो और खुल जाएंगे। और भी अगर चाहते हैं, तो मैं कहता हूं, हाथ भी मत रखो, दरवाजे की तरफ देखो और खुल जाएंगे। जस्ट सी। सिर्फ देखो। मात्र अपने चित्त को देखो और परमात्मा के द्वार खुल जायेंगे।
चित्त से भागो मत, स्वयं से भागो मत, कोई पलायन, कोई एस्केप मत करो। जागो और देखो। अपने को स्वीकार कर लो और फिर देखो कि क्या होता है। क्या होगा वह मैं नहीं कह सकता, क्योंकि उसे कभी कोई मनुष्य नहीं कह सका कि क्या होगा। होगा कुछ अदभुत, अलौकिक जो हम नहीं जानते, जो बिलकुल अननोन है, जो बिलकुल अज्ञात है, जिसे हमने कभी नहीं जाना, कभी नहीं पहचाना। उस अदभुत प्रीतम से मिलना हो सकता है। एक ऐसे आलोक, एक ऐसे अमृत, एक ऐसी शांति के निकट पहुंच सकते हैं जो अनंत सनातन है, अनादि है। जिसे हमने कभी नहीं पहचाना। क्योंकि हम तब चक्कर में थे, हमें तो पता ही नहीं कि और भी कुछ है। मनुष्यकृत मनुष्य की दुनिया के बाहर एक दुनिया और है प्रकृति की, परमात्मा की। मनुष्य के विचारों के पीछे एक अदभुत लोक है सनातन और अमृत। एक ऐसा आलोक है, एक ऐसी सत्ता है, एक ऐसा एक्झिस्टेंस है, जहां कोई मृत्यु नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई दुख नहीं। जहां शास्वत संगीत सदा से निनानिद हो रहा है। उसकी तरफ आंख खुलते ही, जागते ही पहुंचना हो जाता है। उसके लिए आमंत्रण देता हूं, यह आमंत्रण ही धर्म का आमंत्रण है।
मस्जिद के ऊपर से होती अजान धर्म का आमंत्रण नहीं है, मंदिर के बजते हुए घंटे धर्म का आमंत्रण नहीं है। क्योंकि घंटे और अजान आपस में लड़ते हैं और आदमी को कटवाते हैं। धर्म का आमंत्रण तो एक है--मंदिर में जाओ, मस्जिद में जाओ। यह नहीं, यह तो किन्हीं सांप्रदायिकों के, किन्हीं पुरोहितों के षडयंत्र और जाल हैं; धर्म का आमंत्रण तो यह है कि सब मंदिर, सब मकान, सब मस्जिद छोड़ो, अपने भीतर जाओ। क्योंकि अगर परमात्मा का कोई मंदिर है तो वहां है। मैं उस मंदिर में चलने के लिए निवेदन करता, प्रार्थना करता। इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता कि वहां क्या होगा। वहां यह होगा कि आप तो मिट जाओगे और परमात्मा होगा। वहां यह तो होगा कि आपकी बूंद तो मिट जाएगी लेकिन सागर प्रकट होगा। उस सागर की तरफ अपनी बूंद को ले चलें और देखें, जागें, पहचानें।
परमात्मा करे, प्रत्येक के जीवन में यह मौका आए कि वह मिट सके और परमात्मा हो सके। प्रत्येक के जीवन में यह अवसर आए कि वह समाप्त हो जाए और सत्य उपलब्ध हो जाए।
यह हो सकता है लेकिन जो मृत्यु से डरेंगे और भागेंगे और अभाव से डरेंगे और भागेंगे उनको कभी नहीं हो सकता। लेकिन जो मरने के लिए आज राजी है, मिटने के लिए आज राजी है और जो अपने अहंकार को छोड़ कर और अपने भीतर देखने के लिए आज राजी है, वह आज ही हो जाएगा।
अंततः आपसे कहूं जो मृत्यु से भागते हैं, वे मृत्यु में पहंुच जाते हैं। जो मृत्यु को स्वीकार कर लेते हैं और जागते हैं, वे मोक्ष में पहुंच जाते हैं। जो अभाव से भागते हैं, वे बड़े से बड़े अभाव में घुसते जाते हैं, और जो अभाव को अंगीकार कर लेते हैं वे परमभाव में पहुंच जाते हैं, वे परमात्मा में पहुंच जाते हैं। शून्य हो जायें, अभाव को अंगीकार कर लें और देखें कि पूर्ण आ जाता है। परमात्मा ये करे।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम इतनी शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत आनंदित, अनुगृहीत हूं। सबके चरणों में प्रणाम करता हूं, क्योंकि सभी के चरण परमात्मा के चरण हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें