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रविवार, 11 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(सत्संग)

प्रश्न-सार:

01-आज बड़ी मुद्दत के बाद आपके सन्मुख होने का अवसर मिला। एक अजब अनुभव से गुजरा। ऐसा लगता था जैसे आंखों के सामने प्रकाश ही प्रकाश है। और बड़ी अजीब सी सुगंध से नासापुट भर गए थे। रीढ़ में अंदर पसीना सा जा रहा था। मैं कहां था, खबर नहीं है। शब्दों का बस संगीत था..पहली बार, अर्थ न था। ...आनंद! प्रभु आनंद!

02-मुझ पर ऐसे जैन संस्कार पड़े हैं कि मन की सूक्ष्म वैचारिक अवस्था यानी आत्मा। और आप उसी मन को मारने के लिए, छोड़ने के लिए कहते हैं। मैं समझ नहीं पाता। दुविधा में पड़ जाता हूं। कृपया प्रकाश डालें।

03-आप कहते हैं, होनी होय सो होय। तो क्या कुछ न करें? बस उसी पर छोड़ दें?


पहला प्रश्नः ओशो, आज बड़ी मुद्दत के बाद आपके सन्मुख होने का अवसर मिला। एक अजब अनुभव से गुजरा। ऐसा लगता था जैसे आंखों के सामने प्रकाश ही प्रकाश है। और बड़ी अजीब सी सुगंध से नासापुट भर गए थे। रीढ़ में अंदर पसीना सा जा रहा था। मैं कहां था, खबर नहीं है। शब्दों का बस संगीत था..पहली बार, अर्थ न था। ...आनंद, प्रभु आनंद!



स्वभाव! सन्मुख होना ही सत्संग है। लेकिन सन्मुख होना सिर्फ भौतिक अर्थों में कोई सार्थकता नहीं रखता। ऐसे तो कोई सामने बैठ सकता है और फिर भी उसकी पीठ हो। अगर मन में विचारों का ऊहापोह चल रहा है, तो सन्मुख होकर भी तुम विमुख ही रहोगे। मन में ऊहापोह समाप्त हो गए हों, विचारों की तरंगें न हों, मन एक शांत झील हो गया हो..तो फिर तुम कहीं भी हो, सन्मुख हो।
सन्मुखता एक आंतरिक अवस्था है। बैठते-बैठते सत्संग में कभी घटती है। तुम्हारे घटाए तो घट नहीं सकती, कि तुम चाहो तो घट जाए। क्योंकि तुम्हारी चाह भी बाधा है। तुम्हारी चाह भी एक विचार है, एक चेष्टा है। और जहां विचार है, चेष्टा है, वहीं विमुखता है। इसलिए अनायास ही घटती है। धैर्य चाहिए। बैठते रहे सत्संग में, उठते रहे सत्संग में कोई जल्दी न की, कोई अपेक्षा न की..तो किसी न किसी दिन तुम अचानक अपने को सन्मुखता में पाओगे। और तब यह घड़ी घेर लेगी तुम्हें। यह अपूर्व अनुभव होगा। क्योंकि जब तुम सदगुरु के सन्मुख होते हो तो तुम भी मिट जाते हो, सदगुरु भी मिट जाता है।
इस आधारभूत बात को ठीक से समझ लेना। जब तक मैं का भाव है, तभी तक तू भी है। मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक शिष्य हैं तभी तक गुरु भी हैं। गुरु की तरफ से तो न गुरु है न शिष्य है। शिष्य की तरफ से शिष्य भी है और गुरु भी है। जैसे ही शिष्य-भाव मिटा, जैसे ही तुम शांत हो गए, इतनी भी अस्मिता न रही, इतना भी अहंकार न रहा कि मैं हूं, कि मैं शिष्य हूं, कि मैं धार्मिक हूं, कि संन्यासी हूं, कि सत्य का खोजी हूं, अन्वेषी हूं..ऐसा कोई भाव ही न रहा; एक निर्भावदशा हो गई..उसी क्षण गुरु भी मिट गया। न तुम रहे न गुरु रहा। तब अपूर्व प्रकाश का अनुभव होगा। वह प्रकाश मेरा नहीं है, वह प्रकाश तुम्हारा नहीं है; वह प्रकाश परमात्मा का है। जहां मैं नहीं, जहां तू नहीं वहां जो शेष रह जाता है उसी का नाम परमात्मा है..उस शून्य का, उस सन्नाटे का!
वही हुआ। तुम कहते हो: ‘आज बड़ी मुद्दत के बाद आपके सन्मुख होने का अवसर मिला।’
मुद्दत के बाद भी मिल जाए तो जल्दी है। मुद्दत के बाद भी मिल जाए तो सौभाग्य है। क्योंकि लोग इतने अंधे हैं, आते भी हैं मगर आते कहां हैं! बहरे हैं, सुनते हैं मगर सुनते कहां! न सुनते हैं, न देखते हैं; क्योंकि भीतर इतना उपद्रव चल रहा है, भीतर इतना शोरगुल मचा है। इस शोरगुल के कारण ही हम चूक रहे हैं। नहीं तो वृक्षों के पास बैठ जाओगे, वहां भी यही प्रकाश प्रकट होगा। जहां बैठ जाओगे शांत होकर, मौन होकर, जहां मैं मिटा वहीं प्रकाश प्रकट हुआ। यह मैं की मृत्यु पर अनुभव होता है।
सन्मुख होने का इतना ही अर्थ है कि शिष्य का मैं मिट जाए। विमुख होने का अर्थ है..मैं सघन। फिर पीठ हो गुरु की तरफ या मंुह हो गुरु की तरफ कुछ भेद नहीं पड़ता। पास रहो कि हजार मील दूर रहो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम कहते हो: एक अजब अनुभव गुजरा।
अजब लगेगा, क्योंकि कभी पहले हुआ नहीं। अन्यथा बिल्कुल स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। मगर जैसे अंधे आदमी को अचानक आंख मिले तो प्रकाश का अनुभव बड़ा अजब अनुभव होगा; हालांकि जिनके पास आंखें हैं वे कहेंगे, इसमें अजब क्या, इसमें गजब क्या? अंधे को आंख मिलें और फूलों के रंग दिखें और इंद्रधनुष सतरंगा और तितलियों के पंख! अजब अनुभव होगा। आंख वालों से कहेगा कि बड़ा अजब अनुभव हुआ; वे कहेंगे, इसमें अजब क्या! फूलों में रंग होते हैं, इंद्रधनुष सतरंगा होता है, तितलियों के पर परमात्मा अपनी तूलिका से खूब रंगता है! इसमें अजब कुछ भी नहीं। मगर अंधा भी ठीक कह रहा है, गलत नहीं कह रहा है। ऐसा पहले नहीं हुआ था। उसके पास ऐसी कोई स्मृति नहीं है जिसके आधार पर इसे समझ सके।
अजब का इतना ही अर्थ होता है कि हमारा अतीत कोई कंुजी नहीं देता, हमारा अतीत पृष्ठभूमि नहीं देता; हमारे अतीत से कोई संदर्भ नहीं उठता; हमारा अतीत एकदम अवाक रह जाता है, मौन रह जाता है, बोल भी नहीं पाता। एक क्षण को आश्चर्यचकित, विमुग्ध, ठगे-ठगे हम रह जाते हैं। अवाक। वाणी खो जाती है। शब्द खो जाते हैं, ज्ञान खो जाता है, सूझ-बूझ खो जाती है। एक रहस्य किसी अज्ञात लोक से उतर कर हमें घेर लेता है। हम रहस्य में नहा जाते हैं।
यही परमात्मा के अनुभव की शुरुआत है स्वभाव! परमात्मा ने पहली बार दस्तक दी तुम्हारे द्वार पर।
निश्चित ही परमात्मा को हमने पहले जाना नहीं। उसकी दस्तक भी अपरिचित है। अगर सामने भी परमात्मा खड़ा हो जाए तो हम एकदम से पहचान न सकेंगे। इसीलिए तो सदगुरु की जरूरत है, कि जब परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम्हें झकझोरे और कहे कि भर आंख देख लो, जी भर पी लो! इसी की तलाश थी जन्मों-जन्मों से। जिसको खोजते थे, आज द्वार पर खड़ा है। कहीं ऐसा न हो कि आई शुभ घड़ी चूक जाए। भर लो झोली, भर लो प्राण! यह जो सुगंध बरस रही है, यह सदा के लिए तुम्हारी हो सकती है।
लेकिन प्रत्यभिज्ञा दो तरह से हो सकती है: या तो तुम्हारी स्मृति में कोई अनुभव हो तो तुम पहचान कर लो; या किसी और, पहचान जिसको हो, उसके कहे पर भरोसा कर लो, श्रद्धा कर लो। इसीलिए धर्म श्रद्धा के बिना नहीं जी सकता। विज्ञान बिना संदेह के नहीं जी सकता, धर्म बिना श्रद्धा के नहीं जी सकता। उनकी विधियां विपरीत हैं। विज्ञान को जीना हो तो संदेह करना ही होगा। विज्ञान की पूरी कला संदेह की कला है। संदेह को निखारो, उसको धार दो। जितना संदेह कर सकते हो उतनी ही तुम्हारे भीतर वैज्ञानिक प्रतिभा विकसित होगी। कुछ भी मान न लो, परीक्षण करो, प्रयोग करो हजार-हजार तरह से जांचो, परखो। जब कोई उपाय ही न रह जाए इनकार करने का तब मानना। और तब भी मत कहना कि सत्य है यह; इतना ही कहना परिकल्पना है, हाइपोथिसिस है। इतना ही कहना कि अब तक जो मैंने जांचा-परखा है, उसमें ठीक लग रहा है; लेकिन कल हो सकता है और नये तथ्यों का पता चले और गलत हो जाए। इसलिए कामचलाऊ है। विज्ञान के सभी सिद्धांत कामचलाऊ हैं। अभी तक के लिए सच हैं, कल का कुछ भरोसा नहीं।
विज्ञान कहता है कि सब तरफ से जांचना; फिकर इसकी ही करना कि किसी तरह गलत हो जाए। जब गलत हो ही न सके तो मान लेना। मजबूरी में मानना।
और धर्म कहता है बिल्कुल उलटी बात। धर्म कहता है: श्रद्धा के बिना एक कदम आगे न बढ़ा जा सकेगा। तुम्हारे अनुभव में तो परमात्मा की कोई पहचान नहीं है। अगर तुम इनकार करते गए तो यह पहचान कभी होगी भी नहीं। किसी पहचान करने वाले से दोस्ती बना लो। किसी पहचान करने वाले का हाथ पकड़ लो। किसी की पहचान हो गई हो, उसके साथ अपना तारतम्य जोड़ लो। यही शिष्यत्व है। उसके साथ संदेह करोगे, विचार करोगे, तर्क करोगे, विवाद करोगे..दूर-दूर रहोगे फिर, फासला बना रहेगा। उसके साथ तो प्रेम ही हो सकता है।
श्रद्धा प्रेम की ही सघनता है..इतनी सघनता कि सदगुरु अगर दिन को रात कहे तो भी शिष्य मानने को राजी हो जाता है। ऐसा नहीं कि मानने के लिए चेष्टा करता है। चेष्टा की, तो उसका अर्थ है कि भीतर अभी संदेह था। चेष्टा करता ही नहीं।
तिब्बत में एक बहुत महत्वपूर्ण कथा है। मारपा अपने गुरु के पास गया। मारपा एक बहुत अदभुत संत हुआ। मारपा नया-नया था, लेकिन श्रद्धा उसकी प्रगाढ़ थी। ऐसी प्रगाढ़ कि एक दिन गुरु ने कहा कि श्रद्धा अगर पूरी हो तो आदमी जल पर भी चल सकता है। गुरु तो समझा ही रहा था। लेकिन मारपा गया और नदी पर चल गया। और शिष्यों ने देखा मारपा को नदी पर चलते देख कर ईष्र्या जगी। उन्होंने भी कोशिश की, किनारे पर डुबकी खा गए। मारपा नया-नया था, और शिष्य पुराने थे। और उन्होंने गुरु को आकर कहा कि मारपा नदी पर चल रहा है। गुरु भी थोड़ा हैरान हुआ। उसने सोचा भी नहीं था कि कोई चलेगा; वह खुद भी कभी चला नहीं था। यह तो शास्त्र को समझा रहा था। फिर एक दिन यह हुआ कि गुरु समझा रहा था कि श्रद्धा अगर पूर्ण हो और कोई पर्वत से भी कूद पड़े तो खरोंच नहीं लगती। मारपा गया और कूद गया। और खरोंच न लगी। और शिष्यों ने भी सोचा, हिम्मत की, लेकिन देखी गहराई; पानी पर तो चलने की कोशिश भी की थी कि किनारे डूब गए, वापस लौट आए थे; यहां से तो लौटने का भी उपाय नहीं था, यहां से गिरे तो गए। छोटे-मोठे पत्थरों पर से कूद कर देखा, उसी में हाथ-पैर टूट गए। लौट कर गुरु को कहा। गुरु को अहंकार जगा। गुरु कोई गुरु न रहा होगा। थोथे गुरु! सौ में निन्यानबे थोथे ही होते हैं। जहां असली सिक्के होते हैं वहां नकली सिक्के भी चलेंगे ही। असली होते हैं, इसलिए तो नकली चलते हैं। असली न हों तो नकली चल भी नहीं सकते।
और नकली सिक्कों की एक खूबी होती है..अर्थशास्त्र का नियम है..कि नकली सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। तुम्हारी जेब में अगर दस रुपये का एक नकली नोट है और दस रुपये का एक असली नोट है तो पहले तुम नकली को चलाओगे। स्वभावतः इससे जितनी जल्दी झंझट मिटे उतना बेहतर। पान वाले को पकड़ाओगे, सब्जी वाले को पकड़ाओगे, जहां भी चल जाए चला दोगे। असली को बचाओगे, नकली को चलाओगे। और अगर सभी के पास नकली रुपये हैं तो बाजार में नकली रुपये ही चलेंगे, असली तिजोड़ियों में बंद हो जाएंगे।
और यही अकसर सदगुरुओं के संबंध में होता है। असली सदगुरु चल नहीं पाते।
नकली सदगुरु खूब चलते हैं। नकली सदगुरु इसलिए चल जाता है कि वह तुम्हारी आकांक्षाओं की तृप्ति का भरोसा दिलाता है, आश्वासन दिलाता है। वह तुम्हें सांत्वना देता है, संक्रांति नहीं; वह तुम्हें संतोष देता है, रूपांतरण नहीं; वह तुम्हारी मलहम-पट्टी करता है; तुम्हारे जीवन को नये आयाम नहीं देता।
ऐसा ही यह मारपा का गुरु रहा होगा। उसे अहंकार जगा कि जब मेरा शिष्य नदी पर चल गया, पहाड़ से कूद गया, तो मैं तो चल ही सकता हूं। पूछा उन्होंने मारपा को कि तू कैसे चला। उसने कहा कि कुछ नहीं, बस आपका नाम लिया और चल गया। गुरु के अहंकार की तो कोई सीमा न रही कि मेरा नाम जब इतना काम कर सकता है तो मैं क्या नहीं कर सकता! गुरु ने शिष्यों को इकट्ठा किया और कहा: आओ नदी पर! और गुरु चला कि पहले ही कदम पर डुबकी खा गया। पहाड़ से कूदने की तो फिर उसने कोशिश ही नहीं की।
गुरु को डुबकी खाते देख कर मारपा बड़ा हैरान हुआ। पूछा गुरु से, इसका राज क्या है? गुरु मारपा के चरणों पर गिर पड़ा और उसने कहा: ‘मुझे माफ करो।’ मेरा अपना कोई अनुभव नहीं है। मैं तो शास्त्र समझा रहा था। लेकिन तुम्हारी श्रद्धा अपूर्व है, कि तुमने झूठे पर भी श्रद्धा की तो भी काम कर गई।’
श्रद्धा का रसायन बड़ा गहरा है। झूठे पर भी श्रद्धा काम कर सकती है, क्योंकि सवाल झूठ और सच का नहीं है सवाल श्रद्धा का है। श्रद्धा तुम्हारे भीतर एक आत्मबल जगाती है, एक ऊर्जा का स्फुरण होता है तो कभी-कभी झूठे गुरुओं के पास भी सच्ची श्रद्धा ने भवसागर पार कर लिया है। और अकसर सच्चे गुरुओं के पास भी श्रद्धा न हो तो लोग पत्थरों की तरह बैठे रहे हैं; उनके प्राणों में कोई वीणा नहीं बजी, कोई गीत नहीं जगा।
स्वभाव, तुम्हारे भीतर धीरे-धीरे श्रद्धा का जन्म हो रहा है। मैं रोज श्रद्धा में नये-नये पत्ते लगते देख रहा हूं। तुम धीरे-धीरे मिटे जा रहे हो। जितना मिटोगे उतना ही प्रकाश अनुभव होगा। जहां मिटे, कि प्रकाश ही प्रकाश है। अहंकार अंधेरा है और निरहंकारिता प्रकाश है। अहंकार दुर्गंध है और निर-अहंकारिता सुगंध है।
तो इस भ्रांति में मत पड़ना कि मेरा प्रकाश था, जो तुमने जाना। इस भ्रांति में मत पड़ना कि वह मेरी सुगंध थी, जो तुमने जानी। वहां कहां मेरा, कहां तेरा! वहां सुगंध है; न मैं है न तू है। वहां प्रकाश है, न मैं है न तू है।
तुम कहते हो: ‘ऐसा लगता था जैसे आंखों के सामने प्रकाश ही प्रकाश है।’
अब तुम किसी झूठे गुरु से जाकर कहोगे तो वह कहेगा: ‘हां, वह मेरा प्रकाश था..वह मेरी समाधि का, मेरे योग-बल का!’ अगर कोई कहे वह मेरा प्रकाश था, तो समझ लेना कि यह जगह रुकने की नहीं है; यहां से हट जाना। क्योंकि जहां मेरा और मैं है वहां तुम मिट न सकोगे। वहां तुम्हारा तू भी जिंदा रहेगा, सूक्ष्म भाव से जिंदा रहेगा।
तुम कहते हो: ‘और एक बड़ी अजीब सी सुगंध से नासापुट भर गए।’
पहली बार जब अनुभव होता है तो आश्चर्य-विमुग्ध कर जाता है, चकित कर जाता है, चैंका जाता है।
‘रीढ़ में अंदर पसीना सा आ रहा था।’
जब तुम्हारे भीतर प्रकाश भरेगा, ऊर्जा उठेगी तो रीढ़ पर यह अनुभव हो सकता है। क्योंकि रीढ़ तुम्हारे मस्तिष्क से जुड़ी है। रीढ़ और मस्तिष्क अलग-अलग नहीं हैं। वैज्ञानिक तो कहते हैं: मस्तिष्क रीढ़ का ही फूल है। जैसे वृक्ष में फूल लगता है, ऐसे रीढ़ के ही ऊपर जाकर मस्तिष्क लगा है। मस्तिष्क रीढ़ का ही एक विकसित रूप है। रीढ़ और मस्तिष्क एक हीशृंखला में बंधे हैं।
इसलिए जैसे ही तुम्हारे भीतर मस्तिष्क में अहंकार-शून्यता पैदा होगी, मैं-भाव मिटेगा, विचार क्षण भर को भी ठहर जाएंगे..वैसे ही रीढ़ में कोई सोई ऊर्जा जगने लगेगी। उसको ही हमने कुंडलिनी कहा है। वह बड़ी उत्तप्त ऊर्जा है। लगेगा पसीना-पसीना हो गए। लेकिन बड़ा प्रीतिकर लगेगा वह अनुभव भी। और वह पसीना भी बहुत शीतल कर जाएगा। वह कोई साधारण पसीना नहीं है। पहले तो साधारण ही लगेगा, क्योंकि हम साधारण पसीने से ही परिचित हैं, और किसी तरह का पसीना तो हमने जाना नहीं।
जब मोहम्मद को पहली बार परमात्मा का अनुभव हुआ, तो वे भागे हुए घर आए और कंबल ओढ़ कर सो गए। उन्होंने पत्नी से कहा: और कंबल जितने घर में हों, मेरे ऊपर डाल दे। मुझे लगता है बुखार है। पसीना-पसीना हुआ जा रहा हूं। पत्नी ने उनके ऊपर कंबल पर कंबल डाल दिए। वे कंप रहे हैं और पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। पत्नी ने पूछा कि आप भले-चंगे घर से गए थे, अभी थोड़ी देर पहले ही घर से गए थे। अचानक ऐसा बड़ा बुखार कैसे आ गया?
मोहम्मद ने कहा: तू पूछती है तो मैं तुझे कहता हूं। मगर किसी और को मत बताना। मैं पहाड़ी पर जाकर बैठा था ध्यान करने, कि आवाज आई..बोल! गुनगुना! पढ़!, मैं बहुत घबड़ाया। आवाज बाहर से भी आती लगती थी और भीतर से भी आती लगती थी। जैसे बाहर और भीतर एक हो गए थे! कोई मेरे अंतस्तल से बोल रहा था और वही आकाश से भी बोल रहा था। और मैं तो बेपढ़ा-लिखा हूं, तो मैंने कहा, मैं पढ़ूं क्या खाक! मैं तो बेपढ़ा-लिखा हूं! लेकिन फिर आवाज आई कि तू फिकर मत कर, जब मैं साथ हूं तो लंगड़े पर्वत चढ़ जाते हैं, अंधे रोशनी देख लेते हैं। नहीं जो पढ़े हैं वे पढ़ने लगते हैं। नहीं जिनके कंठ हैं उनसे गीत फूट पड़ते हैं। तू गा, गुनगुना, पढ़! और कुछ हुआ कि मैं गुनगुनाने लगा। और ऐसी अदभुत ऋचाएं उतरने लगीं, जो मेरे बस के बाहर हैं, जो मेरी नहीं हैं।
ऐसे कुरान का जन्म हुआ। कुरान का इतना ही अर्थ होता है..कुरान शब्द का अर्थ होता है..पढ़।
मोहम्मद ने अपनी पत्नी से कहा: किसी और को मत कहना। या तो मैं पागल हो गया हूं या कवि हो गया हूं; दो में से कुछ एक हो गया है। और एक बात पक्की है कि जो हुआ है वह मेरे वश के बाहर है, मेरी सामथ्र्य के बाहर है।
मोहम्मद की पत्नी ही मोहम्मद की पहली शिष्या थी। उसने कहा कि नहीं; घबड़ाने की कोई बात नहीं, यह बुखार नहीं है। उम्र में भी बड़ी थी। मोहम्मद से अनुभवी भी थी। मोहम्मद छब्बीस वर्ष के थे, पत्नी चालीस वर्ष की थी। उसने कहा कि कुछ अनूठा हुआ है, कुछ ईश्वरीय हुआ है। यह अवस्था दिव्य भाव की है, यह समाधि की है। तुम्हारे भीतर से परमात्मा गुनगुनाया है। तुम उसकी बांसुरी बन गए हो। घबड़ाओ मत। उठो! और जो आज्ञा हो उसका पालन करो।
ऐसा ही पसीना तुम्हें स्वभाव, आ गया होगा। घबड़ाना मत। कभी और भी ज्यादा आ सकता है। कभी तो बिल्कुल ऐसा लग सकता है कि जैसे एक सौ दस डिग्री बुखार है। ऐसी प्रज्वलित अग्नि भीतर उठती है, तुम्हारे ही प्राणों में सोए हुए अंगारे सारी राख झाड़ देते हैं। ऐसे उत्तप्त हो उठते हो तुम! धीरे-धीरे फिर इस उत्ताप को भी सहने की क्षमता आ जाती है। इसको भी आत्मसात कर लेने का गुण आ जाता है। फिर इसका उठना बंद हो जाता है।
कहते हो: ‘मैं कहां था, खबर नहीं है।’
तुम थे ही नहीं। होते तो खबर होती। कहते हो कि शब्दों का बस संगीत था..पहली बार अर्थ न था। वही मुझे सुनने का ठीक-ठीक ढंग है। जब तुम मुझे ऐसे सुन सको, जैसे कोई पहाड़ी झरने का कल कल नाद सुनता है या हवाओं के झोंकों का गुजरना वृक्षों से, या पक्षियों का गीत, या दूर से आती कोयल की आवाज..ऐसे जब तुम मुझे सुन सकोगे...। क्योंकि जब तक अर्थ खोजने की इच्छा बनी रहती है तब तक तुम दूर बने रहते हो; सुन रहे हो, लेकिन भीतर तुम सोच रहे हो कि ठीक है या गलत है; मेरे विचार से मेल खाता कि नहीं खाता; मैं जो अब तक मानता रहा हूं उसके साथ बैठता कि नहीं बैठता। जब तक तुम इस हिसाब में पड़े हो...अर्थ का और क्या अर्थ होता है? अर्थ का यही अर्थ होता है कि तुम अपने साथ तारतम्य बिठाने की कोशिश कर रहे हो; अपने अतीत, अपने मन के साथ जोड़-तोड़ बिठा रहे हो। ...तब तक तुम सुनोगे तो जरूर, लेकिन चूक जाओगे।
सत्संग का वह ढंग नहीं। सत्संग तो पागलों की जमात है। यह तो मतवालों की बात है। सुना नहीं कबीर ने कल कहा; कि कबीर तो कलाल है, शराब बेचने वाला है! और यह कबीर का सत्संग तो शराबखाना है।
सभी सत्संग मधुशालाएं हैं। मंदिर-मस्जिदों से उनका क्या लेना-देना! मंदिर-मस्जिद तो होशियार लोग चलाते हैं, चालाक लोग चलाते हैं। संतों के पास मधुशालाएं निर्मित होती हैं। वहां पियक्कड़ इकट्ठे होते हैं। वहां लोग सुनते हैं। अर्थ की चिंता किसको। वहां पीते हैं। आम खाते हैं, गुठलियां नहीं गिनते।

गायक मेरी उलझी वीणा,
कैसे अरे बजा जाते हो?

मैंने चुप-चुप सपने पाले,
चुप-चुप उर अरमान सम्हाले,
पर जीवन-रहस्य को तुम ही,
आकर सदा बजा जाते हो।

दृग में घिर-घिर बादल आते,
दृश्य सामने के छिप जाते,
नीर भरी पुतली में छलिया,
रह-रह तुम्हीं लजा जाते हो।

मधु-पीड़ा यह उर का स्पंदन,
यह अतीत की सुख कर उलझन,
अंतर्यामी अंतर में तुम,
धड़कन बन कर छा जाते हो।

परमात्मा अर्थ नहीं है, अनुभव है; शब्द नहीं है, शून्य है।

गायक मेरी उलझी वीणा,
कैसे अरे बजा जाते हो?

तुम हो एक उलझी वीणा। जन्मों-जन्मों से तुमने अपने तार उलझा रखे हैं। तुम सुलझाओगे तो और उलझ जाओगे। तुम ही तो उलझाने वाले हो, सुलझाओगे तुम कैसे? तुम तो रख दो अपनी वीणा उसके सामने।
गुरु तो बहाना है, निमित्त है। उसके बहाने तुम परमात्मा के सामने अपनी वीणा रख देते हो। कहते हो कि मैं तो बजाने की बहुत कोशिश कर चुका, सिवाय विसंगीत के कुछ भी पैदा नहीं होता। तार टूट जाते हैं, सब तार उलझ गए हैं; कुछ ठीक-ठिकाना नहीं है। इस वीणा से संगीत पैदा भी हो सकता है, इसकी संभावना भी छोड़ चुका हूं। अब तुम ही बजाओ।

गायक मेरी उलझी वीणा,
कैसे अरे बजा जाते हो?

और तब वे अपूर्व क्षण आने लगते हैं। जब उसकी अंगुलियां, अदृश्य अंगुलियां तुम्हारी वीणा से अपूर्व संगीत को पैदा कर जाती हैं। वह अर्थ नहीं है, संगीत है।
संगीत में कोई अर्थ होता है? संगीत में जो अर्थ खोजने गया, वह भूल में पड़ जाएगा। संगीत तो पीओ, जीओ, नाचो, गुनगुनाओ। संगीत से भरपूरित हो जाओ।
मैं जो तुम्हें दे रहा हूं, वह संगीत है, सिद्धांत नहीं।

मैंने चुप-चुप सपने पाले,
चुप-चुप उर अरमान सम्हाले,
पर जीवन-रहस्य को तुम ही,
आ कर सदा बजा जाते हो।

कितना ही तुम उपाय करो, तुम्हारी बुद्धि से जीवन के रहस्य को जानने की कोई विधि नहीं है, कोई द्वार नहीं है। जितना तुम उपाय करोगे, उतनी ही मुश्किल हो जाएगी।
ईसप की कहानी है सेंटीपीट के संबंध में। एक शतपदी, सौ पैर वाला जानवर चला जा रहा है। सदा से चलता रहा है। एक खरगोश ने उसे देखा! और उसने कहा: चाचा! एक बात मुझे हमेशा बड़ी जिज्ञासा और कुतूहल से भर देती है कि सौ पैर हैं, कौन सा पहले उठाना, कौन सा पीछे उठाना, कैसे सम्हाल लेते हो? न लड़खड़ाते, न उलझ जाते। और सौ पैर! मैं तो कल्पना ही करता हूं तो घबड़ा जाता हूं, कि नंबर एक उठाऊं कि नंबर दो कि नंबर तीन, फिर कौन सा किसके बाद! सौ का हिसाब!
शतपदी ने कहा: मैंने कभी सोचा नहीं! सोचता हूं, उत्तर देता हूं। और सम्हल कर शतपदी चला और लड़खड़ा कर गिर पड़ा। उठना चाहा तो फिर गिर पड़ा। खरगोश को उसने बड़े तर्रा कर देखा और कहा: इस तरह से गलत जिज्ञासा कभी किसी और से मत करना। अब तक मैं चलता रहा जन्म से, कभी यह झंझट उठी ही न थी। अब मैं भी मुश्किल में पड़ गया हूं कि कौन पहले कौन पीछे! सौ की संख्या मुझे भी कहां आती हैं, वैसे भी मैं कभी स्कूल में भरती हुआ नहीं।
कहा कि भैया, तूने जो मेरे साथ किया सो ठीक, मैं किसी तरह अपना गुजार बसर कर लूंगा, मगर अब किसी और शतपदी से इस तरह की जिज्ञासा मत करना। नहीं तो हमारा वंश ही नष्ट हो जाएगा।
तुमसे कोई पूछ ले, कैसे श्वास लेते हो? तुम भी ऐसी ही मुश्किल में पड़ जाओगे। हालांकि अब तक लेते रहे हो। और तुमसे कोई पूछ ले, कैसे खून को भीतर चलाते हो? खून दौड़ रहा है, तीव्र गति से दौड़ रहा है। और कैसे भोजन को पचा लेते हो! और कैसे रोटी की, सब्जी की...किस कीमिया से रक्त बन जाता है, हड्डी-मांस-मज्जा बन जाती है? तुमसे कोई पूछे तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, कभी सोचा नहीं; यह सब हो रहा है।
जीवन का जो भी गहन है, सब हो रहा है। जीवन की गहनता के लिए कोई उत्तर नहीं है। और जिस दिन तुम समग्र जीवन को इसी तरह स्वीकार कर लेते हो तो तुम फिर कबीर का वचन कह सकते हो..होनी होय सो होय।

मैंने चुप-चुप सपने पाले,
चुप-चुप कर अरमान सम्हाले,
पर जीवन-रहस्य को तुम ही,
आकर सदा बजा जाते हो।

जीवन-रहस्य तो एक संगीत की तरह है, जो परमात्मा बजाता है; एक सिद्धांत की तरह नहीं है जो गणित की तरह ब्लैक-बोर्ड पर समझाया जाता है। एक संगीत की तरह है जो वीणा पर बजाया जाता है, कि बांसुरी पर बजाया जाता है।
ऐसी ही एक प्रीतिपूर्ण घड़ी से स्वभाव तुम गुजरे। यह घड़ी बार-बार आएगी, मगर कुछ बातें ख्याल रखना। इसे लाना मत चाहना, नहीं तो रुक जाएगी। अब इसकी प्रतीक्षा मत करना। यह प्रीतिकर थी, मधुर थी। यह तुम्हें मस्त कर गई। स्वभावतः मन कहेगा: और-और, फिर-फिर हो। बस तुमने चाहा कि फिर-फिर हो, कि अड़चन हो जाएगी। तुम्हारे किए हुई भी नहीं थी, तुम्हारे चाहे होगी भी नहीं। हो गई, धन्यवाद दो परमात्मा को और भूल जाओ।
कहते हैं न, नेकी कर और कुएं में डाल! नेकी कर के कुएं में डालो या न डालो, मगर जब भी ऐसे अनुभव हो, अनुभव करो और कुएं में डाल। पीछे लौट कर देखना ही मत। और कभी भी यह इच्छा, आकांक्षा, अभीप्सा मत जगाना कि अब फिर ऐसा हो; जो कि स्वाभाविक है। अगर हो ऐसा तो मैं तुम्हें कुछ दोष न दे सकूंगा। यह निरंतर का अनुभव है, रोज का अनुभव है। पहली बार जब किसी को ध्यान होता है या ऐसे अपूर्व अनुभव होते हैं, तो स्वभावतः उसके मन में यह वासना जगती है कि अब रोज-रोज ऐसा हो, अब फिर-फिर ऐसा हो। बस वही वासना बाधा बन जाती है। क्योंकि पहली बार जब हुआ था ऐसा, तब कोई वासना नहीं थी; तब तो अकस्मात; आई थी कोई हवा और उड़ा ले गई थी तुम्हें! आई थी कोई गंध और डुबा गई थी तुम्हें। वर्षा हो गई थी। लेकिन अब तो तुम एक नई शर्त लगा कर बैठे हो..होनी चाहिए! जहां इस तरह का दावा है, आग्रह है..होनी चाहिए..वहीं बाधा पड़ जाती है।
इसलिए पहली बात ख्याल रखना, दुबारा ऐसा हो, इसकी आकांक्षा मत रखना। होगा बहुत बार होगा, और-और गहरा होगा। अभी तो कुछ भी नहीं हुआ। यह तो पहली बूंदा-बांदी है। अभी तो मूसलाधार वर्षा होगी। लेकिन अगर इसी की तुमने आकांक्षा की तो बूंदा-बांदी भी बंद हो जाएगी।
और इसको बौद्धिक विश्लेषण का विषय भी मत बनाना। इस पर बैठ कर मत सोचना कि क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ, नहीं तो शतपदी की हालत में पड़ जाओगे। और उलझ जाओगे। जो एक घटना हुई थी, जिससे कि बहुत कुछ सुलझ सकता था, उस घटना को भी अगर बौद्धिक विचारणा बना लिया तो वह घटना भी उलझा जाएगी सुलझाने की बजाय। योग प्रीतम का यह गीत तुम्हारे लिए है:

आंखों के अंसुवन में
ओंठों की पुलकन में
ढुलक-ढुलक जाए मेरा प्यार रे!
प्राणों का पंछी तो
उड़ा-उड़ा जाए रे!
सांसों का सरगम तो
छिड़ा-छिड़ा जाए रे!
खुशियां हैं मन में अपार रे!
प्रीतम की बगियन में
प्यार भरी बतियन में
झरती है रस की फुहार रे!
बांहों में सारा
आकाश समा जाए रे!
सांसों में सारा
वातास समा जाए रे!
तन मन हो जाए बेसम्भार रे!
जयरा की गुनगुन में
हियरा की धड़कन में
उसका ही बज रहा सितार रे!

बजने दो। उसका सितार है! तुम विश्लेषण में मत पड़ना। बरसने दो, उसका अमृत है। तुम किसी केमिस्ट से जाकर इसका विश्लेषण मत करवाना। चुपचाप पीए जाओ। और-और की मांग मत उठाना, नहीं तो मन वापिस आ जाता है पीछे के दरवाजे से। और जहां मन आया वहीं हमारा संबंध परमात्मा से टूट जाता है।

दूसरा प्रश्नः ओशो, मुझ पर ऐसे जैन संस्कार पड़े हैं कि मन की सूक्ष्म वैचारिक अवस्था यानी आत्मा। और आप उसी मन को मारने के लिए, छोड़ने के लिए कहते हैं। मैं समझ नहीं पाता, दुविधा में पड़ जाता हूं। कृपया प्रकाश डालें।

मदन लाल दुधेड़िया! संस्कार धूल है। बाहर से पड़ता है। संस्कार से कोई संक्रांति नहीं होती। जैन घर में पैदा हुए तो जैन संस्कार पड़ जाएगा और मुसलमान घर में पैदा होते तो मुसलमान संस्कार पड़ जाता, और ईसाई घर में बड़े होते तो ईसाई संस्कार पड़ जाता और अगर कम्युनिस्ट रूस में पैदा होते तो कम्युनिजम का संस्कार पड़ जाता। अभी महावीर का गुणगान गाते हो; मुसलमान घर में होते, मोहम्मद का गुणगान गाते। और कम्युनिस्ट घर में होते तो माक्र्स का गुणगान गाते।
संस्कार बाहर से पड़ते हैं। संस्कारों से मुक्त होना है। संस्कारों से जब तक जकड़े हो, चाहे वे कितने ही शुभ क्यों न मालूम होते हों, तब तक तुम बंधन से पार न हो सकोगे।
संस्कार न शुभ हैं, न अशुभ। संस्कार मात्र जंजीरे हैं।
तो जब मैं तुमसे कहता हूं मन से मुक्त हो जाओ, तो मैं यही कह रहा हूं कि संस्कारों से मुक्त हो जाओ। मन और है क्या? संस्कारों का जोड़ है। हिंदू मन, जैन मन, बौद्ध मन। ये मन के भेद हैं। लेकिन क्या तुम्हें मन के पार कोई चीज समझ में नहीं आती? तुम्हारे भीतर कोई नहीं है क्या, जो मन को भी देख सकता हो? एक विचार उठा, क्या तुम उसे देख नहीं सकते?
मन के पर्दे पर विचार उठता है। मगर देखने वाला दर्शक तो भिन्न है, द्रष्टा तो भिन्न है। तुम फिल्म देखने जाते हो; पर्दे पर बहुत सी तस्वीरें आती हैं और जाती हैं और कई बार तुम भूल ही जाते हो, तल्लीन हो जाते हो, ऐसे तल्लीन हो जाते हो, कि लगता है जैसे तुम नाटक के हिस्से हो। लोग नाटक का भाग ही बन जाते हैं। तस्वीरें कुछ भी नहीं हैं; तुम्हें भलीभांति मालूम है कि वहां पर्दे पर कुछ भी नहीं है, कोरा पर्दा है, धूप-छांव का खेल है। मगर उसमें भी खो जाते हो। अगर कोई करुण दृश्य आ जाए तो लोगों की आंखों से आंसू टपक जाते हैं। चुपचाप अपना रूमाल निकाल कर आंखें पोंछ लेते हैं कि कोई और पड़ोसी न देख ले। वह तो भला हो फिल्म वालों का कि कमरे में अंधेरा रखते हैं। जरा कोई सनसनीखेज दृश्य आ गया किसी हत्यारे का पीछा पुलिस की कार कर रही है हत्यारा भी भागा जा रहा है पहाड़ों के गोल रास्तों पर और आवाजों की आवाजें, कारों की आवाजें और कारों के पीछे कारें! तुम जो टिके बैठे थे कुर्सी से एकदम रीढ़ सीधी कर के बैठ जाते हो। तुम्हारी कंुडलिनी अगर कभी सीधी होती है तो बस ऐसे समय में सीधी होती है, अन्यथा कभी सीधी नहीं होती। श्वास रुक जाती है, आंखों का झपकना रुक जाता है।
फिल्म देखने से आंखें खराब नहीं होतीं; आंखें खराब होती हैं झपकना बंद होने से। नवीनतम संशोधन यही कहते हैं। फिल्म तो तुम जितनी चाहो देख सकते हो, अगर आंखें झपकते रहो तो कोई तुम्हारी आंखों को नुकसान नहीं होगा। लेकिन आंखें झपकने की फुर्सत किसको है! आंखें झपकने का ख्याल कौन रखे! और फिर ऐसे चमत्कारी दृश्य सामने घट रहे हों!
एक देहाती पहली दफा फिल्म देखने गया था। पहला शो खत्म हो गया, वह टिकट लेकर फिर आकर बैठ गया। दूसरा शो भी खत्म हो गया, वह टिकट लेकर फिर तीसरे शो के लिए आ गया। मैनेजर ने पूछा कि दादा! आज क्या जाने का इरादा नहीं है? बात क्या है? मैटिनी भी देखा, पहला शो भी देखा, अब दूसरे शो में भी आ गए।
उस देहाती ने कहा कि मैं जाऊंगा नहीं जब तक कि असली चीज न देख लूं। असली चीज क्या है?
फिल्म में एक दृश्य आता है कि हेमामालिनी एक झील में स्नान करने को उतर रही है। उसने करीब-करीब सब कपड़े उतार दिए, बस आखिरी कपड़ा उतारने को है कि तभी एक रेलगाड़ी छक-छक-छक करती गुजर जाती है। जब तक रेलगाड़ी गुजरती है तब तक हेमामालिनी झील में उतर जाती है। रेलगाड़ी गुजर जाने के बाद वह झील में तैर रही है। वह जो आखिरी कपड़े का उतारना है, वह रेलगाड़ी की वजह से...।
तो उस देहाती ने कहा कि कभी तो लेट होगी! हम बिना देखे असली दृश्य जाएंगे नहीं।
अब ऐसी अवस्था में कौन आंखें झपके! इधर तुम आंख झपको उधर कुछ से कुछ हो जाए। लोग आंखें फाड़ कर बैठे रहते हैं। अमरीका जैसे देशों में जहां टेलीविजन बहुत जोर से फैल गया, रोग की तरह फैल गया; क्योंकि अमरीकी औसतन पांच घंटे टेलीविजन देख रहा है। खास कर छोटे बच्चे। आंखों का कैंसर टेलीविजन से शुरू हो रहा है। और कारण है..आंख का नहीं झपकना। आंख झपकती है अकारण नहीं, उसकी जरूरत है। हर बार आंख झपकती है, धूल पोंछ जाती है; आंख को ताजा कर जाती है। हर बार आंख झपकती है, आंख को गीला कर जाती है। उतना ही गीलापन आंख की ताजगी के लिए जरूरी है; नहीं तो आंख सूखने लगती है। आंख सूखी रहे पांच घंटे तक तो खतरा है। आंख के तंतु बड़े सूक्ष्म हैं। वे सूखने लगेंगे; उनके सूखने से कैंसर भी हो सकता है।
लेकिन पर्दे पर दृश्यों को देख कर हम इतने तल्लीन हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि दृश्य हैं; मान ही लेते हैं कि हम इसी के हिस्से हैं।
बस वैसी ही मदनलाल, हमारे चित्त की अवस्था है। चित्त भी एक पर्दा है। उस पर विचार चल रहे, वासनाएं चल रहीं, कल्पनाएं चल रही हैं, स्मृतियां चल रहीं..फिल्में चल रही हैं। तुम कौन हो? तुम द्रष्टा हो! तुम मन नहीं हो।
इसलिए जिसने तुम से कहा हो कि मन की सूक्ष्म वैचारिक अवस्था यानी आत्मा, उसने बिल्कुल ही गलत कहा है। आत्मा मन की सूक्ष्म वैचारिक अवस्था नहीं है। आत्मा है चैतन्य! आत्मा है साक्षीभाव। आत्मा है केवल साक्षीभाव। और मन है सारी स्मृतियों का, कल्पनाओं का वासनाओं का मेला। तुम द्रष्टा हो! तुम्हारे द्रष्टा का तुम्हें स्मरण आ जाए, बस क्रांति होनी शुरू हो गई। मगर भूल जाते हैं लोग।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर बहुत बड़े पंडित हुए। एक नाटक देखने गए थे। और नाटक में एक लफंगा है, वह बड़ी छेड़-छाड़ कर रहा है, एक स्त्री को बहुत परेशान कर रहा है। ईश्वर चंद्र-भले आदमी, नैतिक आदमी, साधु आदमी; उनकी बर्दाश्त के बाहर हुआ जा रहा है। वह यह भूल ही गए...। पंडित बड़े हैं, मगर यह भूल ही गए कि नाटक ही है। एक रात जंगल में वह स्त्री अपने भटक गए बेटे को खोजने निकली, तो वह लफंगा उसका पीछा कर लेता है। आकाश में बादल घिरे हैं, और बिजलियां चमक रही हैं। रात का अंधेरा और जंगल का एकांत। और वह दुष्ट उस स्त्री को पकड़ लेता है उसकी साड़ी खींचने लगता है।
बस फिर उनके बरदाश्त के बाहर हो गया। सामने की पंक्ति में बैठे थे; मारी छलांग, निकाल लिया जूता, लगे पीटने उस लफंगे को! उनसे ज्यादा समझदारी तो उस अभिनेता ने की। उसने जूता उनका अपने सिर पर रख लिया और कहा जनता से कि मेरे जीवन में मुझे बहुत पुरस्कार मिले हैं, मगर इससे बड़ा पुरस्कार नहीं मिला। मैंने भी नहीं सोचा था कि मेरा अभिनय इतना कुशल हो सकता है कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसा महापंडित अभिनय को सत्य समझ लेगा।
तुम ईश्वर चंद्र की हालत सोचो। बेचारे बड़े झेंपे हुए नीचे उतरे। बात तो सच थी। अभिनेता ने जूता वापिस नहीं लौटाया। उसने कहा: इसको तो मैं सम्हाल कर रखूंगा, यह तो इनाम है। कहते हैं उसके बच्चों के पास वह जूता अब भी उसके घर में सुरक्षित है। है भी बड़ा इनाम!
पंडित होने से कोई ज्ञानी नहीं होता। ईश्वर चंद्र बड़े पंडित थे, मगर ज्ञानी नहीं कहे जा सकते। भूल ही गए। अभिनय को सत्य मान लिया।
बस यही हमारी भी भूल है। मन के पर्दे पर चलते विचारों को इतना सत्य मान लेते हैं; और उनके साथ अपने को जोड़ लेते हैं..फिर तुम जैन हो गए, अगर जैन विचारों के संस्कार दौड़ रहे हैं मन पर! जैन फिल्म देख रहे तो जैन हो गए। हिंदू फिल्म देख रहे, हिंदू हो गए। और मुसलमान फिल्म देखी तो मुसलमान हो गए। हालांकि न तुम हिंदू हो, न जैन हो, न मुसलमान हो। तुम जागरूकता हो। तुम होश हो। तुम ध्यान हो; मन नहीं।
इसलिए मेरी बातें सुन कर तुम्हें थोड़ी दुविधा तो हुई होगी; क्योंकि तुम्हारा संस्कार...और मेरी बातें विपरीत पड़ रही हैं। मैं कह रहा हूं कि मन से मुक्त हो जाओ। फिर न केवल तुम्हारा मन ही अभिनय हो जाता है; यह सारा जगत अभिनय हो जाता है, लीला हो जाता है। फिर तुम इस सारे जगत को एक द्रष्टा की तरह देखते हो। फिर तुम जगत में भी हो सकते हो और जगत से मुक्त भी।
यही मेरे संन्यास की धारणा है: जगत में और जगत के नहीं; कमलवत। नहीं तो बस भूल जाते हो। चार पैसे मिल गए कि एकदम अकड़ आ जाती है। चार पैसे, उनसे तुम्हारा ऐसा जोड़ हो जाता है कि पैर जमीन पर नहीं पड़ते। कहीं रखते हो पैर, कहीं पड़ते हैं पैर। फिर ये चार पैसे कल चले जाएंगे, फिर बहुत पछताओगे, फिर अकड़ टूट जाएगी। किसी पद पर पहंुच गए, किसी कुर्सी पर पहंुच गए; बैठे हो कुर्सी पर, लेकिन भूल ही जाते हो कि यह कुर्सी की ऊंचाई तुम्हारी ऊंचाई नहीं है। कल कोई और कुर्सी पर चढ़ बैठेगा। और जब तुम बैठे हो तभी कोई तुम्हारी टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है। जिसके हाथ में जो आ गया...। क्योंकि कुर्सी पर कोई शांति से तो किसी को बैठने नहीं देता, औरों को भी तो बैठना है! कोई तुम्हीं एक अकेले थोड़े ही माई के लाल हो!

एक बांस लंबा
आंगन में गड़ा हुआ है,
दो दर्जन बंदर प्रतियोगी

उस पर चढ़ने,
चोटी तक जाने को
अपने हाथ-पांव मारते,
कशमकश करते कब से।

एक नहीं चोटी पर अब तक पहंुच सका है..
एक जरा-सा उठा,
दूसरे ने आ उसकी टांगें खींचीं;
और तीसरा पूंछ दूसरे की, पंजों से पकड़ लटकता;
उसकी टांग, हाथ में इसके,
इसकी टांग, हाथ में उसके,
उसकी दुम, इसके पंजे में,
इसके पंजे में, उसकी दुम..
गुत्थिम-गुत्था,
लपटा-झपटी,
हाथा-पाई,
गर्द-उड़ाई!
कोई हर्ज नहीं
कोई जो पहंुच नहीं चोटी तक पाता,
मांसपेशियां एक-दूसरे की तो है मजबूत बनाता।

व्यायाम चल रहा है। हर कुर्सी के आस-पास तुम देखोगे, कुश्तम-कुश्ती हो रही है, गुत्थम-गुत्थी हो रही है। मगर जो बैठा है कुर्सी पर, वह सोचता है वह ऊंचा हो गया, बड़ा हो गया। कुर्सी से एक तादात्म्य हो गया। मान लिया कि मैं कुर्सी हूं! मैं धन हूं! मैं पद हूं!
थोड़ा तो होश रखो!
न तो तुम देह हो, न तुम मन हो, न तुम पद, न तुम प्रतिष्ठा। तुम केवल साक्षीमात्र हो। हां, खेल हैं बहुत; खेलो, जी भर कर खेलो। स्मरण बनाए रखो, ताकि कोई भी खेल तुम्हारी छाती पर बैठ न जाए। कोई भी खेल भारी न होने लगे। हलके रहो, निर्भार रहो।
मगर लोग भूल ही जाते हैं; खेल को भी असली मान लेते हैं। शतरंज खेलते हैं; लकड़ी के हाथी-घोड़े; लकड़ी के राजा-वजीर..और ऐसे तल्लीन हो जाते हैं! तलवारें खिंच गई हैं शतरंज के खेल पर। गर्दनें कट गई हैं। ताश खेलते हैं। ताश के राजा-रानी। मगर उनमें भी कैसा लगाव बन जाता है! असली राजा-रानी मिट गए, मगर ताश के राजा-रानी मिटने वाले नहीं हैं। और जब तुम खेलते हो तो कितना तादात्म्य बना लेते हो! भूल ही जाते हो।
विस्मरण तुम्हारा रोग है। मुझसे पूछो तो कहूंगा: विस्मरण संसार है। स्मरण-सुरति कबीर की भाषा में..मोक्ष है, मुक्ति है, समाधि है। खेलो जरूर अभिनय..और कुशलता से खेलो! जीवन है तो कुछ तो करना होगा। मैं नहीं कहता कि सब भाग कर और बैठ जाओ गुफाओं में। कुछ लोग गुफाओं में बैठ सकते हैं इसीलिए कि बाकी लोग काम में लगे हैं। अगर सभी लोग गुफाओं में बैठ जाएं, तो एक भी नहीं बैठ सकता फिर गुफाओं में, फिर सभी को वापिस आना पड़े। यह ख्याल रखना। इसलिए मैं पुराने संन्यास के खिलाफ हूं, क्योंकि उसकी आधारशिला गलत है।
इमेनुअल कांट ने नैतिकता के नियमों में एक नियम निर्धारित किया है, जो बहुत महत्वपूर्ण है। उसका नियम है कि इस आधार से तौल लेना कि कौन सी चीज नैतिक है और कौन सी अनैतिक! यह कसौटी है। जैसे सुनार के पास सोने को कसने के लिए पत्थर होता है, ऐसा इमैनुअल कांट ने इसको पत्थर कहा है। जिस नियम को सारे लोग मान लें और उस नियम की ही मौत हो जाए, समझ लेना कि वह नियम अनैतिक है।
इस आधार से तो पुराना संन्यास अनैतिक है; क्योंकि अगर सारे लोग संन्यासी हो जाएं, पुराने ढब के, तो संन्यास टिक ही नहीं सकता। महावीर को भी भोजन देने के लिए कोई गृहस्थ चाहिए, श्रावक चाहिए। और शंकराचार्य को भी भोजन देने के लिए कोई श्रावक चाहिए, कोई गृहस्थ चाहिए। और बुद्ध को भी भिक्षा देने के लिए कोई श्रावक चाहिए, कोई गृहस्थ चाहिए। अगर सारे ही लोग भिक्षु हो जाएं तो भिक्षा किससे मांगो? असंभव हो जाएगा संन्यास!
इमेनुअल कांट का सिद्धांत उपयोगी है। ऐसा संन्यास अनैतिक है।
इसलिए मैं संन्यास की एक नई परिभाषा दे रहा हूं। खेलो! संसार के खेलों से कुछ भागने की जरूरत नहीं है। बस इतना ही स्मरण रखो कि मैं द्रष्टा हूं। मैं तुम्हें रोकता भी नहीं कि फिल्म देखने मत जाना। जाना हो तो बराबर चले जाना, मगर ख्याल रखना: फिल्म मत बन जाना, तादात्म्य मत कर लेना। लोग तादात्म्य कर लेते हैं, वहीं अड़चन खड़ी हो जाती है। और जब एक दफा तादात्म्य कर लिया तो तादात्म्य करने के लिए सब तरह के तर्क भी खोज लेते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक रात सपना आया कि वह मर गया। सपना ऐसा भयानक था कि जाग गया तो भी टूटा नहीं। अपनी पत्नी को हिलाया और कहा: सुनती हो, मैं मर गया! पत्नी ने कहा कि नसरुद्दीन, होश में हो? अगर मर जाते तो कौन मुझे जगाता, कौन मुझसे कहता?
नसरुद्दीन ने कहा: अब तू कुछ भी कह, मगर जो मुझे घट चुका है सो घट चुका। अपनी आंखों देखा है। अब मैं किसी की मानने वाला नहीं हूं।’
पहले तो पत्नी ने समझा कि मजाक कर रहा है मगर बात मोहल्ले में फैल गई। दूसरे दिन वह लोगों से भी कहने लगा। दुकान पर ग्राहकों से भी कहता कि भई कुछ पता है, मैं मर गया! मजाक धीरे-धीरे गंभीर हो गया, बात बिगड़ने की हो गई। पहले तो लोगों ने समझाया-बुझाया लेकिन वह समझने-बूझने के बाहर, वह हजार तर्क दे। वह कहे प्रमाण क्या है कि मैं जिंदा हूं? कोई प्रत्यक्ष प्रमाण लाओ!
आखिर उन्होंने कहा कि अपने बस के बाहर है। एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। मनोवैज्ञानिक ने बहुत खोज-बीन की। उसने कहा: ठीक है तुम एक बात तो मानते हो नसरुद्दीन कि अगर मुर्दा आदमी के हाथ में सुई चुभाएं या चाकू से काटें तो खून नहीं निकल सकता?
नसरुद्दीन ने कहा: कभी नहीं निकल सकता। जब मर ही गया आदमी तो उसमें खून क्या निकलेगा! मरते ही से खून पानी हो जाता है।’
मनोवैज्ञानिक को ढाढस बंधा। उसने कहा अब रास्ता निकाल लेंगे। पकड़ा नसरुद्दीन को, ले गया आईने के पास। कहा कि अंगुली करो आगे आईने के। उठाया चाकू और थोड़ी सी अंगुली काटी। खून गिरने लगा। कहा, देखो अंगुली में, देखो आईने में, खून निकल रहा है कि नहीं?
नसरुद्दीन ने कहा: निकल रहा है।
तो मनोवैज्ञानिक ने कहा: अब क्या कहते हो?
नसरुद्दीन ने कहा: अब मैं यही कहना चाहता हूं कि अब तक का सिद्धांत कि मुर्दा आदमी से खून नहीं निकलता, गलत था। खून निकलता है। अपनी आंख से देख रहा हूं। और तुम भी गवाह हो।
आदमी जो मान ले, उसे उससे हटाना बहुत मुश्किल है। वह अपनी मान्यता के लिए तर्क इकट्ठे कर लेता है। तर्कजाल, वितर्क, वितंडा। और इसलिए सारे धर्मो ने, सारे दर्शनशास्त्रों ने अपने-अपने तर्क इकट्ठे कर लिए। तर्कों की कोई कमी है। तुम जिस चीज के लिए चाहो तर्क उसके लिए इकट्ठा कर सकते हो। तर्क तो बिल्कुल बच्चों का खेल है।
और लोग तर्क पर बड़ा भरोसा किए हुए हैं। सिर्फ बचकाने लोग ही तर्कों पर भरोसा करते हैं। तर्कों का मूल्य नहीं। जिनको तर्क का थोड़ा अनुभव है, जो तर्क में थोड़े गए हैं...।
मैं तर्कशास्त्र का विद्यार्थी था। नौ महीने तक मैंने अपने प्रोफेसर को इंच भर आगे नहीं बढ़ने दिया। आखिर उन्होंने सिर पीट लिया, उन्होंने कहा कि भाई परीक्षा करीब आ रही है; तुम इंच भर आगे बढ़ने नहीं देते। परीक्षा होनी है कि नहीं होनी है? बाकी का क्या होगा? और मैं भी थक गया।
तो मैंने कहा कि फिर तर्कशास्त्र क्या खाक पढ़ाते हैं। तर्कशास्त्र पढ़ाने का तो अर्थ ही यह है कि होने दो तर्क।
उन्होंने इस्तीफा लिख कर दे दिया, कि या तो यह विद्यार्थी रहे और या मैं। अब हम दोनों; ये दो तलवारें एक ही म्यान में नहीं रह सकतीं।
पिं्रसीपल ने मुझे बुलाया और कहा कि वे हमारे पुराने अध्यापक हैं, आदृत अध्यापक हैं; उनको हम ऐसे नहीं छोड़ सकते। बीस साल की उनकी सेवाएं हैं। तुम तो आज यहां हो, कल चले ही जाओगे। तो मैं तुमसे हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं कि तुम चले ही जाओ। और प्रार्थना इसलिए करनी पड़ती है, क्योंकि मैं समझ रहा हूं कि तुमने गलती कुछ भी नहीं की है। तुम्हारी बात भी ठीक है कि जब तर्कशास्त्र ही पढ़ाते हो तो कम से कम तर्क तो यहां तो होने दो, और कहीं नहीं तो ठीक है। गणित की कक्षा में अगर गणित न हो...। तो तुम्हारी बात मैं भी मानता हूं, मगर मैं हाथ जोड़ता हूं। वे बूढ़े आदमी हैं, उनको क्षमा करो। तुम किसी और कालेज में भर्ती हो जाओ। मैंने कहा: मेरी बदनामी इतनी हो गई है कि कौन कालेज मुझे लेगा?
उन्होंने कहा: यह बात सच है। मैं कोशिश करता हूं। उन्होंने ही कोशिश की, दूसरे कालेज के पिं्रसीपल को समझाया-बुझाया। मैं गया। उन्होंने कहा: भई हम लेने को तो राजी हैं, लेकिन लिखित तुम्हें देना होगा कि चुपचाप बैठोगे। इस शर्त पर हम तुम्हें लेने को राजी हैं। क्योंकि वहां तो जो तर्कशास्त्र का प्रोफेसर है, जिस कालेज में तुम हो, वह तो अखिल भारतीय ख्याति का व्यक्ति है। हमारा तर्कशास्त्र का प्रोफेसर तो बिल्कुल नया है, उसकी तो तुम जान ले लोगे। लिखित दे दो।
तो मैंने कहा कि मैं लिखित भी दे दूं; मगर जब वे तर्क की बात करेंगे तो मुझे अपने पर ही भरोसा नहीं कि मैं चुप रह सकूंगा। गलत-सही कुछ भी कहा...। तो आप ऐसा करें कि मैं आऊंगा ही नहीं कक्षा में, उपस्थिति मुझे मिलनी चाहिए। क्योंकि मेरे चुपचाप बैठे रहने से भी क्या फायदा है!
वे इसके लिए राजी हो गए। मैं कक्षा में गया नहीं कभी, उपस्थिति मुझे पूरी मिली, परीक्षा भी मैंने दी।
तर्क का कोई अंत नहीं है। और तर्क से कभी कोई निष्पत्ति नहीं होती। इतना ही मैं उन प्रोफेसर से कहता था: एक बार तुम यह कह दो कि तर्क से कोई निष्पत्ति नहीं होती, फिर मैं चुप हो जाऊं। इसको वे कहने को राजी नहीं थे। वे मानते थे कि तर्क से निष्पत्ति होती है, तो मैंने कहा: निकालना निष्पत्ति! नौ महीने में एक नहीं निकली। और आप अगर कहें तो कभी भी नहीं छोडूंगा इस क्लास को, परीक्षा ही नहीं दूंगा। निष्पत्ति जिस दिन निकल जाएगी उस दिन मैं चला जाऊंगा।
निष्पत्ति निकलती ही नहीं तर्क से। जितने पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं, उतने ही विपक्ष में दिए जा सकते हैं। ईश्वर के पक्ष में जो तर्क हैं वही विपक्ष में हो जाते हैं। ईश्वर के पक्ष में तर्क है कि दुनिया को कोई तो बनाने वाला चाहिए। हर चीज को बनाने वाला होता है। जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है, ऐसे ईश्वर ने जगत को बनाया। लेकिन नास्तिक पूछता है, ईश्वर को किसने बनाया? अगर हर चीज को बनाने वाला चाहिए तो ईश्वर को बनाने वाला भी कोई होगा! अब झंझट खड़ी होगी। अब तुम कहोगे: ईश्वर को और किसी महा ईश्वर ने बनाया..महा ब्रह्मा ने। तो वह पूछेगा: उसको किसने बनाया, फिर उसको किसने? फिर उसको किसने?
पुरानी कहानी है, एक सम्राट ने घोषणा की कि मैं एक ऐसी कहानी सुनना चाहता हूं जिसका अंत न आता हो। बहुत लोग आए, कहानियां सुनाईं। आखिर कहानी का अंत तो आएगा ही। लेकिन एक आदमी आया और उसकी कहानी का अंत नहीं आया। उसकी कहानी बड़ी भी नहीं थी। फिर भी अंत नहीं आया। उसकी कहानी बड़ी छोटी थी। उसने कहा: एक शिकारी शिकार खेलने गया। एक झील के तट पर हजारों वृक्ष, हजारों वृक्षों पर लाखों पक्षी बैठे हैं। उसने गोली मारी, चिड़िया उड़ गई..फुर्र।
सम्राट ने फूछा: फिर क्या हुआ?
उसने कहा: फिर उसने गोली मारी। चिड़िया उड़ गई फुर्र।
सम्राट ने कहा: निकल बाहर हो। इस कहानी का तो अंत आएगा ही नहीं।
उसने कहा: इसीलिए तो आपसे मैं...। आप ही चाहते हैं कि कहानी का अंत न आए। अब कोई ला दे इस कहानी का अंत! जब भी तुम पूछोगे..फिर? ...फिर उसने गोली मारी, चिड़िया फुर्र!
तर्क का कोई अंत नहीं। मारो गोलीः चिड़िया फुर्र। कोई तर्क किसी निष्पत्ति पर नहीं ले जाता है। लेकिन तर्क को लोग मान लेते हैं, क्योंकि बचपन से तर्क दोहराए जाते हैं।
क्या है जैन होना, क्या है हिंदू होना, क्या है बौद्ध होना? सिर्फ तर्कों के विभिन्न जाल हैं। मैं तुम्हें न तो हिंदू बनाना चाहता, न बौद्ध, न ईसाई। मैं तुम्हें तर्कों के जाल से मुक्त करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम इस बात को समझ सको कि सभी संस्कार, चाहे कितने ही तर्कनिष्ठ मालूम होते हों, मूलतः तर्कनिष्ठ नहीं है। नहीं तो अभी तक आस्तिक-नास्तिक कोई निर्णय ले लेते न। कोई दस हजार साल से लड़ रहे हैं, कोई निर्णय है? आस्तिक-आस्तिक, नास्तिक-नास्तिक। जैनों और हिंदुओं ने निर्णय लिया कोई? पांच हजार साल से साथ-साथ रह रहे हैं। वही विवाद, वैसा का वैसा, वहीं का वहीं।
दुनिया के कोई धर्म एक दूसरे से निर्णय क्यों नहीं ले पाते? तीन सौ धर्म हैं पृथ्वी पर। तीन सौ में से एक तो कम कर दो तुम, दो सौ निन्यानबे तो कर दो! सब अपना तर्क देते हैं। और तुम किसी के तर्क को भी कितना ही गलत करो, वह और-और तर्क खोज लेता है, जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं वैसे ही मन में तर्क लगते हैं। और तुम्हारा तर्क हो तो प्रीतिकर लगता है, क्योंकि तुम्हारे अहंकार को आच्छादित करता है, तुम्हारे अहंकार को पोषित करता है, तुम्हारे अहंकार को मजबूत करता है।
मैं नहीं चाहता कि तुम मन को छोड़ कर जंगल में भाग जाओ, कि संसार को छोड़ कर जंगल में भाग जाओ। मैं चाहता हूं कि तुम यहीं रहो, जहां हो; इतना बोध भर रखो कि मैं मन नहीं हूं, मैं देह नहीं हूं, मैं संसार नहीं हूं। फिर यह अभिनय चलने दो पर अभिनय ही हो। अगर यह संसार अभिनय ही रह जाए तो तुम मुक्त हो गए। यही संन्यास है।
एक गांव में रामलीला हुई। हनुमान जी गए हैं, लक्ष्मण जी बेहोश पड़े हैं, उनके लिए दवा-दारू लेने, संजीवनी-वटी लेने, संजीवनी-वटी उनको मिली नहीं। जो लक्षण बताए थे उस पहाड़ पर वैसे लक्षण की बहुत सी औषधियां थीं। वह पूरा पहाड़ ही ले आए।
अब गांव की रामलीला..और भारतीय गांव। एक रस्सी पर चढ़ कर आते हैं एक पुट्ठे की पहाड़ी लिए हुए हैं। मगर रस्सी की घिर्री उलझ जाती है। न उलझे तो ही चमत्कार। सो वे बीच में अटके हैं। नीचे लक्ष्मण जी पड़े हैं, वे भी बीच-बीच में थोड़ी आंख खोल कर देख लेते हैं कि बहुत देर हुई जा रही है। रामचंद्र जी ऊपर देख रहे हैं कि अभी तक आए नहीं! और जनता देख रही है कि आ तो गए, बीच में अटके हैं; उतरते क्यों नहीं? बड़ी झंझट मची है। मैनेजर घबड़ा गया कि अब करना क्या! वह ऊपर चढ़ा, उसने चाकू से रस्सी काट दी। सो हनुमान जी धड़ाम से मय पहाड़ के नीचे गिरे! रामचंद्र जी को जो कहना चाहिए था वही उन्होंने कहा, कि ले आए पवनसुत! जड़ी-बूटी ले आए?
हनुमान जी ने कहा: ऐसी की तैसी पवनसुत की! पहले यह बताओ, रस्सी किसने काटी?
अब यह सारा खेल ही बिगड़ गया। रामचंद्र जी ने फिर भी समझाने की कोशिश की कि लक्ष्मण जी बेहोश पड़े हैं। उन्होंने कहा: पड़े रहने दो, मरते हों तो मर जाएं! इधर मेरे घुटने में चोट लग गई। और कौन कहता है बेहोश पड़े हैं; जब मैं ऊपर अटका था तो खोल-खोल कर आंख देख रहे थे।
अब यह अभिनय न रहा; अब भूल से अभिनय सच्चा हो गया। अब ये भूल ही गए कि अभी खेल को कायम रखना था; इन्होंने खेल से संन्यास ही ले लिया। ये पुराने ढंग का संन्यास। इतनी जल्दी भी क्या थी, थोड़ी देर में फर्दा गिरता, फिर मालिश वगैरह करवा लेते, फिर पता लगा लेते कि कहां है वह मैनेजर का बच्चा! फिर निपट सुलझ लेते, मगर जरा पर्दा तो गिर जाने देते।
संसार एक अभिनय है और मौत पर्दे गिराती है। जल्दी क्या है भागने की? मौत तो खुद ही हटा लेगी। पर्दा तो अपने आप गिर जाएगा। लेकिन एक तरफ लोग हैं जो इस अभिनय को इतना सत्य समझ लेते हैं कि इसी में उलझ जाते हैं और दूसरी तरफ लोग हैं, वे भी इस अभिनय को इतना सत्य समझ लेते हैं कि इससे भाग खड़े होते हैं। ये दोनों गलत हैं। तुम्हारा भोगी भी गलत है, तुम्हारा त्यागी भी गलत है। दोनों ने एक बात पर तो सहमति जाहिर कर दी है कि यह अभिनय बहुत सच्चा है। एक पकड़ रहा है, एक छोड़ रहा है। एक छाती से लगाए है, एक घबड़ा कर भाग रहा है। मगर दोनों मानते हैं कि यह संसार बहुत सत्य है।
संन्यास की वास्तविक धारणा केवल इतनी है कि तुम जानो कि मन तुम नहीं हो, और संसार तुम्हारे मन का ही फैलाव है। तुम द्रष्टा हो। देखो मौज से अपने भीतर बैठ कर। देखो सब राग-रंग। देखो पतझड़-वसंत।
जब मैं कहता हूं मन से मुक्त हो जाने के लिए तो मेरा कुल अर्थ इतना ही है कि तुम्हारी ऊर्जा मन से अपना तादात्म्य तोड़ दे और चैतन्य में विराजमान हो जाए।
मदन लाल दूधेड़िया, दुविधा में पड़ोगे अगर संस्कार को जोर से पकड़ा। लेकिन संस्कार को इतने दिन तो पकड़े रहे, तो पहंुचना क्या हुआ? कहां पहंुच पाए? अब मैं कह रहा हूं संस्कार को छोड़ कर देखो। थोड़ा यह प्रयोग भी कर लो। थोड़ी इस मदिरा को भी पीओ, थोड़ी इसकी भी चुस्की लो। उस संस्कार ने तो कहीं नहीं पहंुचाया है; शायद संस्कार-मुक्त होने से कहीं पहंुच जाओ।
और कहां पहंुचना है? अपने भीतर पहंुचना है। अपने अंतरतम में पहंुचना है! वहां तुम परम शुद्ध हो, वहां तुम परमात्मा हो। मगर वह परमात्म-रूप केवल चैतन्य-रूप है, सच्चिदानंद है, सत् है, चित् है, आनंद है। थोड़े ध्यान में उतरो, ताकि इन संस्कारों से छुटकारा हो सके।
संस्कार का अर्थ ही होता है धूल-दर्पण पर जम गई धूल। हटाओ, पोंछो दर्पण को, ताकि दर्पण उसका प्रतिफलन दे सके जो है।

आखिरी प्रश्नः ओशो, आप कहते हैं: ‘होनी होय सो होय।’ तो क्या कुछ न करें? सब उसी पर छोड़ दें?

रामदास! कुछ न करें, यह भी करना होगा। यह भी एक ढंग का करना है..कुछ न करें, कि हम कुछ न करेंगे। यह नकारात्मक कृत्य है, लेकिन है कृत्य ही। सब उसी पर छोड़ दें..यह छोड़ना भी कृत्य है। कौन छोड़ रहा है? और छोड़ना क्या है? क्या छोड़ना क्रिया नहीं है?
अगर तुम बात को ठीक से समझे..‘होनी होय सो होय’..तो फिर न तो कुछ करने को बचता है, न न करने को बचता है; न तो कुछ पकड़ने को बचता है, न कुछ छोड़ने को बचता है। जो हो रहा है, ठीक हो रहा है; हम केवल दर्शक रह जाते हैं। न पकड़ना है, न छोड़ना है; न करना है, न न करना है। जो हो रहा है, हो ही रहा है। हम सिर्फ दर्शक रह गए, द्रष्टा रह गए..देखेंगे और देखने से इंच भर इधर-उधर नहीं जाएंगे, कर्ता नहीं बनेंगे।
नहीं तो तुम भूल में पड़ोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसके तीन साथियों ने बार-बार मुझे सुन कर..कि मौन से रहो, शून्य में जीयो-निर्णय कर लिया कि जाते हैं, एक महीने का मौन लेते हैं। बैठ गए गुफा में जाकर। एक महीने का मौन ले लिया। कोई पांच-सात मिनट ही बैठे होंगे कि पहले ने कहा: अरे, पता नहीं मैं घर का ताला लगा पाया कि नहीं लगा पाया! दूसरे ने कहा: अरे मूरख! मौन लिया महीने भर का, पांच मिनट टिका नहीं, सब बर्बाद कर दिया!
तीसरे ने कहा: तू महामूरख है! वह तो बोला सो बोला, तू क्यों बोला?
मुल्ला नसरुद्दीन ने हाथ जोड़े आकाश की तरफ और कहा: हे प्रभु! मुझे छोड़ कर ये सब मूरख बोल गए! मैं ही भला, अब तक बोला ही नहीं।
बस पांच-सात मिनट में सब खत्म हो गया।
मौन बैठना है, यह आग्रह भी कृत्य है। मौन बैठा नहीं जाता; समझ से मौन फलित होता है। अपने को जबरदस्ती मौन बिठा लोगे, तो ये सब बातें उठेंगी। हो सकता था पहला आदमी न भी कहता कि पता नहीं घर में ताला लगा पाया या नहीं, लेकिन भीतर तो कहता ही; मौन तो खंडित तभी हो जाता, चाहे ऊपर न भी बोलता। दूसरा चाहे दूसरे की बारी आने फर कुछ भी न कहता, लेकिन भीतर तो कहता कि इस मूरख ने अपना मौन तोड़ लिया; बाहर न भी कहता तो भी चल जाता, लेकिन मौन तो टूट ही जाता। कुछ मौन के बाहर और भीतर बोलने का सवाल नहीं है। यह मौन जबरदस्ती आरोपित है। यह टूट ही जाएगा। यह टिक नहीं सकता। समझ इस बात की कि मैं सिर्फ द्रष्टामात्र हूं; फिर कोई मौन सम्हालना नहीं पड़ता, सम्हल जाता है। बीच बाजार में रहोगे और भीतर मौन की सतत धारा बहती रहेगी।
अब तुमने सुना कि कबीर कहते हैं ‘होनी होय सो होय’ और मैं कबीर के समर्थन में हूं कि जो होना है सो होगा। तुम क्यों फिकर लेते हो? तुम क्यों चिंता में पड़ते हो? तुम तो द्रष्टामात्र हो। तुम्हें चिंता लेने का, संताप करने का कोई भी कारण नहीं। तुम तो देखो। दुखांत होगा नाटक तो ठीक और सुखांत होगा तो ठीक। तुम्हें क्या पड़ी है? लेकिन तब तुम्हारे सामने सवाल उठा..‘तो क्या कुछ न करें? ’ करने से तुम न छूटोगे। अब तुमने दूसरा निर्णय लिया..‘तो अच्छी बात है। होनी होय सो होय! तब हम बैठेंगे, कुछ न करेंगे।’ मगर वह बैठना भी कृत्य हो गया। जबरदस्ती बैठ जाओगे गुफा में जाकर, बार-बार देखोगे बाहर गुफा के कि अभी तक कुछ हो नहीं रहा है! होनी होय सो होय, मगर हो कुछ भी नहीं रहा है और हम बैठे हैं इतनी देर से! तुम्हारे बैठने में तुम्हारा अहंकार ही रहेगा। यह कुछ बोध नहीं है। यह कोई समझ नहीं है। यह कोई प्रज्ञा से उठी क्रांति नहीं है।
अब तुम कहते हो: ‘सब क्या उसी पर छोड़ दें? ’
तो क्या कुछ बचा लेने का इरादा है कि थोड़ा-बहुत तो बचा लें! मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू! कि बाकी तू सम्हाल। कि जब बुरा हो जाए तो कहेंगे ‘होनी होय सो होय’; और जब भला हो जाए तो झंडा लेकर निकल पड़ेंगे कि झंडा ऊंचा रहे हमारा! देखो यह हमने ही किया!
अब तुम पूछ रहे हो: ‘तो क्या सब उसी पर छोड़ दें? ’
मगर छोड़ोगे तुम! तो छोड़ना कृत्य हो गया। छोड़ने वाला है कौन? सब उस पर छूटा ही हुआ है। पागल हो तुम, जो सोचते हो कि हम पकड़े हैं। सब उसी का है, सब उस पर ही छूटा हुआ है। और तुम कुछ कर रहे हो, इस भ्रांति में हो। जो हो रहा है वही हो रहा है; तुम्हारे किए से कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम नाहक ही हाथ-पैर न मारो।
भोगी भी हाथ-पैर मारते हैं, त्यागी भी हाथ-पैर मारते हैं। संन्यासी मैं उसको कहता हूं जो यह समझ लेता है: अपने हाथ-पैर मारने की बात ही नहीं। हम हैं ही नहीं, वही है! हम उसके अंग-मात्र हैं।
जैसे पानी की लहर..सागर की लहर..अलग तो हो नहीं सकती सागर से। सागर ही उसमें नाचता है तो नाचती है। सागर ही सो जाता है तो सो जाती है।
यह बोध की बात है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, यह करने की कम, समझने की बात है।
बस समझ लिया कि सब हो गया। तुम और परमात्मा में भेद नहीं है। तुमने मान लिया है कि मैं अलग हूं तो झंझटें आ रही हैं। अब अलग मान लिया है तो कुछ करूंगा। और फिर अगर किसी ने कहा कि तुम्हारे करने से असफलता हाथ लगती है, दुख हाथ लगता है, तो तुम कहते हो: अच्छी बात है, तो नहीं करेंगे! मगर करने की भाषा नहीं बदलती, वही की वही भाषा जारी रहती है।
तुम अपनी भाषा में जरा झांक कर देखो।
एक जैन मुनि प्रवचन दे रहे थे। अहिंसा पर उन्होंने बड़ी तात्विक चर्चा की और कहा कि पशु-पक्षियों को मारना महापाप है। मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा हो गया। उसने कहा: आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। एक बार एक मछली ने मेरे प्राण बचाए। जैन मुनि ने देखा कि एक तो मुसलमान...अच्छा है। नसरुद्दीन को कहा कि तू हमारे साथ रह। जहां भी हम प्रवचन देंगे, हम कहेंगे..पूछो इससे! तो तू खड़े होकर कहना कि एक मछली ने हमारे प्राण बचाए। सो यह नियम हो गया; वे बोलते और मुल्ला नसरुद्दीन खड़े होकर कहता कि एक मछली ने हमारे प्राण बचाए। फिर धीरे-धीरे दोनों में काफी निकटता बढ़ गई, एक दिन मुनि ने पूछा एकांत में कि तू पूरी बात तो बता कि घटना क्या हुई?
नसरुद्दीन ने कहा: आप यह न पूछें तो अच्छा है! क्योंकि मुझे भूख लगी थी और मछली को मैंने खा लिया। सो इस तरह उसने मेरे प्राण बचाए। यह आप पूछें ही मत! बस उतना ही काफी है कि एक मछली ने मेरे प्राण बचाए, क्योंकि इससे आगे मैंने कहा तो झंझट हो जाएगी।
जरा बात की गहराई में उतरो तो तुम और बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। ऊपर से तो लगता है, कहते हो: तो क्या हम कुछ न करें, सब कुछ उसी पर छोड़ दें? जरा भीतर उतरो। सब कुछ उसी पर छोड़ने का मतलब यह है कि तुम चाहो, तो कुछ बिना छोड़े भी रह सकते हो। जैसे तुम्हारे हाथ में है छोड़ना! जैसे यह तुम्हारा निर्णय है छोड़ो या न छोड़ो!
नहीं, ऐसा नहीं है। सब उसके हाथ में ही है।
यह ऐसा ही है जैसा कि हवा का एक झोंका आए और एक सूखी पत्ती हवा में ऊपर उठ जाए और सोचने लगे कि क्या सब हवा पर छोड़ दूं, कि जहां ले जाए जाऊं; पूरब तो पूरब, पश्चिम तो पश्चिम? सब हवा पर छोड़ दूं?
हवा पर छूटा ही हुआ है। मगर पत्ती यह अकड़ ले सकती है कि अच्छा, चल तुझ पर छोड़ते हैं सब; पूरब चल तो पूरब, पश्चिम चल तो पश्चिम। तुझ पर ही श्रद्धा करते हैं। ले समर्पण करते हैं।
मगर क्या इसमें कुछ समर्पण हो रहा है? पत्ती तो जाती ही वहां जहां हवा को जाना था। मगर पत्ती के पास सोच-विचार नहीं है। इतना ही फर्क है तुम में और पत्ती में।
एक ढेर लगा था पत्थरों का, एक बच्चा आया और उसने एक पत्थर उठा कर महल की खिड़की की तरफ फेंक दिया। अब पत्थर ऊपर उठा तो उसने नीचे पड़े पत्थरों से कहा कि मित्रो, मैं जरा आकाश की सैर को जा रहा हूं। किसके मन में नहीं होती आकाश की सैर की इच्छा! पत्थरों के मनों में भी होती है। तड़फते हैं; नहीं जा सकते, यह बात और है।
बाकी पत्थर तो कसमसा कर रह गए, ईष्र्या से जले-भुने हो गए। देखा अपनी आंखों से, इनकार भी नहीं कर सकते। पत्थर जा ही रहा था आकाश की तरफ। क्या हुआ! किसी ने कहा: अवतारी पत्थर है। ईश्वर की बड़ी इस पर कृपा है। यह कोई साधारण पत्थर नहीं है। हम तो पहचान ही न पाए इसको अब तक। हमारे ही बीच रहा और हमने इसको न पहचाना। हम जैसा अंधा कौन होगा? अरे हम पूजा करें इसकी! इसका स्मरण करें, इसकी मूर्तियां बनाएं।
और पत्थर गया और जाकर टकराया महल की खिड़की से। कांच की खिड़की चकनाचूर हो गई। स्वभावतः पत्थर कांच से टकराएगा तो पत्थर और कांच का स्वभाव ऐसा है कि पत्थर नहीं टूटेगा और कांच टूटेगा। इसमें कुछ पत्थर की खूबी नहीं है। लेकिन पत्थर ने कहा: मैंने हजार बार कहा है, कोई सुनता नहीं, मेरे बीच में कोई न आए! जो मेरे बीच में आएगा, चकनाचूर हो जाएगा। अब देखा! अब देखा फल!
और गिरा अंदर जाकर कालीन पर महल की। कहा कि थक गया हूं बहुत; थोड़ा विश्राम कर लूं। सजा हुआ कमरा महल का और उसने कहा कि लगता है मेरे आने की खबर पहले ही पहंुच गई है। सब इंतजाम कर रखा है, कालीन बिछा रखे हैं, झाड़-फानूस लगा रखे हैं, तस्वीरे टांग रखी हैं, दीये जला रखे हैं। हो भी क्यों न मैं कोई साधारण पत्थर तो हूं नहीं! आकाश में उड़ सकता है जो पत्थर, जिसके पंख हैं..ऐसा पत्थर हूं। अवतारी पत्थर हूं!
और तभी महल के नौकर ने आवाज सुनी पत्थर की, टकराने की, कांच के टूटने की। भागा हुआ अंदर आया, पत्थर को उठाया। पत्थर ने कहा कि मेरा स्वागत किया जा रहा है; हाथ में लेकर मेरा सम्मान किया जा रहा है; खुद सम्राट मालूम होता है, मेरे सम्मान-स्वागत में आया है!
और नौकर ने पत्थर वापस फेंक दिया खिड़की से। पत्थर नीचे गिरने लगा, तो उसने कहा कि बहुत समय हो गया अपने मित्रों को छोड़े, घर-द्वार छोड़े! और मातृ-भूमि से श्रेष्ठ तो इस जगत में कुछ भी नहीं वापिस जाऊं और अपनी अनंत-अनंत यात्राओं की कथा भी अपने मित्रों को सुनाऊं कि कैसे-कैसे महलों में वास हुआ, कैसे-कैसे सम्राटों के हाथों में स्वागत मिला, कहां-कहां फूलमालाएं चढ़ीं!
गिरा वापस पत्थरों की भीड़ में। पत्थर इकट्ठे हो गए। और उसने कहा कि जानते हो, क्या-क्या हुआ? खूब बढ़ा-चढ़ा कर उसने कहानी कही। पत्थरों ने कहा: आप एक काम करें, अपनी आत्म-कथा लिखें। बच्चों के काम आएगी। सदियों-सदियों तक लोग स्मरण रखेंगे। कहते हैं वह पत्थर अपनी आत्म-कथा लिख रहा है।
तुम छोड़ोगे क्या? तुम पकड़ोगे क्या? तुम हो कहां? न पकड़ना है, न छोड़ना है..सिर्फ जागना है। और मजा यह है: पकड़ो तो तुम बने रहोगे, छोड़ो तो तुम बने रहोगे; जागे कि तुम मिटे। या तुम मिट जाओ तो जाग जाओ। मिटना और जागना एक ही घटना के दो पहलू हैं। जागने में अहंकार नहीं बचता। अहंकार अंधकार है, कैसे बचेगा? जागना प्रकाश है।
इसलिए रामदास, कबीर जो कहते हैं या मैं जो कहता हूं..‘होनी होय सो होय’..उसका अर्थ समझो। उसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, सब उसी पर छोड़ देना है। उसका यह अर्थ नहीं है कि आलस्य में पड़ जाओ, कि अकर्मण्य होकर बैठ जाओ। यह पूरा देश ऐसे ही आलसी हुआ, ऐसे ही अकर्मण्य हुआ।
नहीं; जो कर रहे हो करो, लेकिन जानो भलीभांति; कर रहा है वही हमारे द्वारा! उसके हाथ हजार हैं। हम सब उसके हाथ। जो हो रहा है उसके द्वारा हो रहा है। इसलिए तुम्हें चिंता नहीं पकड़ेगी। हारोगे तो उसकी हार, जीते तो उसकी जीत है। कैसी चिंता? कैसी अस्मिता? न अकड़ आएगी, न विषाद आएगा। तुम जीवन से ऐसे गुजर जाओगे..अछूते!
कबीर ने कहा है: ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, ऐसे जतन से ओढ़ी कबीरा।
काश, तुम भी ऐसा ही एक दिन कह सको अपने अंतिम क्षणों में कि जीवन की चादर को जैसा का तैसा रख दिया..इतने जतन से ओढ़ कर, इतने होश से ओढ़ कर! जरा भी दाग न पड़ा! तो बस, तुम्हारे जीवन की पूर्णता आ गई, तुम्हारे जीवन में फूल लगे, तुम्हारे जीवन में सुगंध उड़ी, तुम सार्थक हुए! अन्यथा लोग ऐसे ही धक्के खाते हैं और मर जाते हैं। बहुत कम लोग हैं जिनके जीवन में फूल लगते हैं, कमल खिलते हैं।
और सब के जीवन में फूल लग सकते हैं! और सबके जीवन में कमल खिल सकते हैं। सब का जन्मसिद्ध अधिकार है।

आज इतना ही।  

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