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शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(भार क्या है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!
किस संबंध में आपसे बात करूं, इस पर विचार करता हूं। सबसे पहली बात जो मेरे खयाल में आती है, वह यह इधर मनुष्य के जीवन में निरंतर पीड़ा, दुख और अशांति बढ़ती गई है। बढ़ती जा रही है। जीवन के रस का अनुभव, आनंद का अनुभव विलीन होता जा रहा है। जैसे एक भारी बोझ पत्थर की तरह हमारे मन और हृदय पर है, हम जीवन भर उसमें दबे-दबे जीते हैं, उसी बोझ के नीचे समाप्त हो जाते हैं। लेकिन किसलिए यह जीवन था, किसलिए हम थे, कौन सा प्रयोजन था? इस सबका कोई अनुभव नहीं हो पाता। यह कौन सा बोझ है जो हमारे चित्त पर बैठ कर हमारे जीवन रस को सोख लेता है? कौन सा भार है, जो हमारे प्राणों पर पाषाण बन कर बोझिल हो जाता है? इस संबंध में ही आपसे थोड़ी बात कहूं। इससे पहले कि मैं अपनी बात शुरू करूं, एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात भी जो मैं कहना चाहता हूं खयाल में आ सकेगी।

बहुत पुराने समय की बात है, एक पहाड़ के ऊपर, एक बहुत दुर्गम पहाड़ के ऊपर एक स्वर्ण का मंदिर था। उस मंदिर में जितनी संपदा थी, उतनी उस समय सारी जमीन पर भी मिला कर नहीं थी। सारा मंदिर ही स्वर्ण का था, रत्न रचित था। उस मंदिर का जो प्रधान पुजारी था, उसकी मृत्यु निकट आई, तो उसके सामने सवाल उठा कि वह मंदिर के दूसरे पुजारी को नियुक्त कर दे।

उस मंदिर की प्रथा थी कि जो व्यक्ति उस युग का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति हो, वही मंदिर का पुजारी हो सकता था। तो सारे देश में शक्तिशाली व्यक्ति को खोजने की योजना बनी। कैसे सारे देश में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति को खोजा जाए? तो घोषणा की गई कि जो व्यक्ति एक निश्चित समय पर, जिन-जिन व्यक्तियों को भी यह ख्याल हो कि वे शक्तिशाली हैं, पर्वत के नीचे इकट्ठे हो जाएं। निश्चित समय पर, सारे प्रतियोगी पर्वत की चढ़ाई पर निकलें, जो सबसे पहले मंदिर में पहुंच जाएगा, वही शक्तिशाली सिद्ध होगा और मंदिर का पुजारी हो जाएगा। स्वाभाविक था कि जिनमें भी बल था, वे सारे लोग इकट्ठे हुए, बहुत से युवक इकट्ठे हुए, ऐसा मौका कौन चूक सकता था। निश्चित दिन पर उन सारे लोगों ने पर्वत की चढ़ाई शुरु की। बलिष्ठ से बलिष्ठ लोग आये थे, बहुत दुर्गम चढ़ाई थी, चढ़ाई शुरु करते वक्त जो जितना बलिष्ठ था, उसने उतना ही बड़ा पत्थर भी अपने कंधे पर रख लिया, इसलिए ताकि उसका पौरुष उस पत्थर के भार से प्रकट हो सके। पौरुष चिह्न की तरह, अपनी शक्ति के चिह्न की तरह कुछ तो डर ही गए, उनसे पत्थर उठाते नहीं बने, वे यह सोच कर कि जब हम से पत्थर भी नहीं उठता और लोग इतने-इतने बड़े पत्थर लेकर पहाड़ चढ़ रहे हैं, भाग गये और लौट गये। फिर भी सौ युवक बड़े-बड़े पत्थर लेकर पहाड़ पर चढ़ने शुरु हुए, वैसे ही पहाड़ कठिन था; ऊंची दुर्गम चढ़ाई थी, फिर पत्थरों का भार था, कोई एक महीने की लम्बी चढ़ाई थी। बहुत दूर, बहुत दुर्गम में वह मंदिर था; इसीलिए तो स्वर्ण का था, इसीलिए तो रत्न खचित था, जो मंदिर जितना दूर होता है, उतना ही सोने का होता है। जो मंदिर जितना दुर्गम होता है, उतना ही रत्न खचित होता है। और जहां जितनी संपदा है, जितना धन है उतनी ही दुर्गम चढ़ाई है।
वे उस पर्वत पर चढ़ना शुरू किए। भार था भारी, धूप थी कठिन, पर्वत था सीधा। कुछ गिरे, खड्डों में और अपने पत्थरों के साथ ही मर गये। कुछ बचे वे घिसटते हैं, चलते हैं, भूखे-प्यासे; खाने को ठहरने की भी फुर्सत नहीं है। किसको है? दुनिया में किसी को भी नहीं है। पानी पीने की भी फुरसत नहीं है, किसको है, क्योंकि दूसरा बिना पानी पीए आगे निकला जाता है। और कौन चूके? स्वर्ण के मंदिर का मालिक होना कौन चूके? तो न खाते हैं, न पीते हैं, न विश्राम करते हैं, न दिन देखते हैं, न रात देखते हैं; आधी रात उठ आते हैं, थके-मांदे आधी रात सोते हैं। जल्दी उठते हैं, फिर भागना शुरू हो जाता है। कुछ गलत तो करते नहीं। हमेशा ऐसा ही हुआ है, जिनको भी पहाड़ पर चढ़ना है, ऐसे ही चढ़ना होता है। आज भी वैसा ही होता है, आगे भी शायद वैसा ही होता रहेगा। एक-एक कर वे गिरने लगे, जो जीवित थे, आगे बढ़ते थे; उन्हें लौट कर देखने की फुर्सत भी नहीं थी। कौन गिर जाता था, पड़ोस में किसको देखने की फुर्सत थी? जो साथ-साथ चलते थे, कोई गिर जाता था तो लौट कर रुकने की किसको फुरसत थी? क्योंकि दूसरे आगे निकले जाते थे, मरने वालों के लिए कौन रुकता है? कौन ठहरता है? दुनिया में कोई नहीं ठहरता, मरने वाले का कोई साथी नहीं, कोई ठहरने वाला नहीं। जो चलते हैं उनसे साथ है, वह साथ भी मित्रता का नहीं, शत्रुता का है, क्योंकि कौन आगे निकल जाये, यह डर है। लेकिन किसी तरह चढ़ाई पूरी हुई, सौ निकले थे मुश्किल से दस-बारह जीवित रहे। बहुत थे, फिर भी बहुत थे, सौ में से दस बचे थे, काफी थे। अंतिम दिन था, कोई थोड़ा आगे था, कोई थोड़ा पीछे था। अब गति बढ़ गई थी, अंतिम दिन था और निर्णायक घड़ी थी। तभी उन सबने देखा कि एक युवक जिन्हें वे समझे थे कि मर गया, जिन्हें वे समझे थे वह सबसे पहले ही वह सबसे अंतिम था, वह अचानक उनके पास से तेजी से आगे निकला जाता है। तो घबरा गये, लेकिन फिर हंसने लगे, क्योंकि उस पागल ने अपना पत्थर जो था कंधे का वह कहीं फेंक दिया था। बिना ही पत्थर के बढ़ा जाता था। उन्होंने उससे चिल्ला कर भी कहा कि पागल हो तुम, ऐसे बढ़े जाने से फायदा भी क्या, वहां कौन तुम्हें पूछेगा, तुम्हारा पौरुष चिह्न कहां है? पत्थर कहां है? देखते हो इतना पत्थर लेकर हम चढ़ते हैं, और तुम ऐसे ही चढ़े जा रहे हो। लेकिन उसने कुछ ध्यान न दिया। निश्चित ही जब पत्थर उसके सिर पर न था तो उसकी गति बहुत बढ़ गई थी। पत्थर का न होना उसकी शक्ति बन गई थी।
तीव्रता से वह गया और सबसे पहले पहुंच गया। वह सुबह पहुंच गया, दूसरे सांझ पहंुचे। लेकिन जो दूसरे थे उन्होंने सोचा, पागल है, इसका प्रयोजन क्या है, पहुंच जाने का। कौन इसे पूछेगा? लेकिन जब वे सांझ पहुंचे तो चकित रह गये, पुजारी ने उसे भार सौंप दिया था। वह नया पुजारी नियुक्त हो गया था। उन सबने शिकायत की जाकर कि यह क्या बात है? यह कैसा अन्याय है, यह कैसा धोखा है? उस पुजारी ने कहाः न तो धोखा है, न अन्याय है और न ही ऐसी बात है कि मुझे तथ्यों का पता न हो। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि इस जगत में सबसे शक्तिशाली वही है, जो अपने भार को छोड़ने का सामथ्र्य रखता है। और मैं तुमसे यह भी पूछना चाहता हूं कि किसने तुमसे कहा था कि तुम पत्थर लेकर चढ़ो? यह किसने तुम्हें सुझाव दिया था कि तुम अपने कंधों पर पत्थर भी ले लेना? बात तो सिर्फ चढ़ने की थी, भार लेने की कहां थी? निश्चित ही तुम्हारे अहंकार ने तुम्हें सुझाव दिया होगा कि मैं हूं बड़ा बली, तो बड़ा पत्थर लेकर चलूं। तुम्हारे अहंकार ने तुम्हारे कान में कहा होगा कि पत्थर सिर पर ले लो। अन्यथा ऐसी तो कोई बात न थी, किसने खबर की थी? इस युवक ने अदभुत साहस का, शक्ति का परिचय दिया है और सबसे बड़ी शक्ति और साहस यह है कि जबकि तुम सब पत्थर से बंधे थे, उस अकेले ने पत्थर छोड़ने की हिम्मत की। दुनिया में भीड़ से अलग होने से बड़ी और कोई कठिन बात नहीं है। जो भीड़ कर रही हो, जो सब कर रहे हों उससे एक व्यक्ति का अलग होकर कुछ कर लेना, अत्यंत नैतिक शक्ति का, आत्मिक शक्ति का प्रतीक है। इसलिए इसे मंदिर का पुजारी बना दिया। और उसने उन सबको विदा करते वक्त कहा और स्मरण रखो अंत में भगवान के दरवाजे पर वे ही प्रविष्ट होंगे, जिनके कंधे पर कोई भार नहीं है, जो निर्भार है, जो जितना निर्भार है, वह उतना ही ऊपर उठ जाता है। जो जितना भारी है वह नीचे बैठ जाता है।
इसी संबंध में थोड़ी सी बात कहूं कि यह भार क्या है, यह वेट क्या है जो आपकी जान लिए लेता है। मेरी जान लिए लेता है। सारी दुनिया में सारे मनुष्यों की जान लिए लेता है। भार क्या है? यह कौन सा पाषाण-भार है जो आपके कंधे पर है? कौन सी चीज है जो दबाए देती है, ऊपर नहीं उठने देती? आकांक्षाएं तो आकाश छूना चाहती हैं लेकिन प्राण तो पृथ्वी से बंधे रहते हैं। क्या है, कौन सी बात है? कौन रोके है, कौन अटकाए है, किसने यह सुझाव दिया कि इस पत्थर को अपने सिर पर ले लेना? किसने समझाया? शायद हमारे अहंकार ने हमको भी फुसलाया है। शायद हमारी अस्मिता ने, ईगो ने हमको भी कहा है कि भार सिर पर ले लो। क्योंकि इस जगत में जिसके सिर पर जितना भार है, वह उतना बड़ा है। बड़े होने की दौड़ है, इसलिए भार को सहना पड़ता है। एक और कहानी कहूं उससे बात और ख्याल में आ जाये।
एक बादशाह बहुत थक गया, परेशान हो गया। और कौन बादशाह नहीं थक जाता, नहीं परेशान हो जाता? बहुत थक गया, बहुत परेशान हो गया। जैसे-जैसे राज्य उसका बढ़ा, वैसे-वैसे चिंता बढ़ी। वैसे-वैसे बेचैनी और परेशानी बढ़ी। सोचा था सम्राट हो जाएगा, अंत में पाया कि जिनको जीता है, उन्हीं का गुलाम हो गया। लेकिन फिर कोई उपाय न था। बादशाह बन जाना तो सरल, फिर बादशाहत से छूटना बहुत कठिन। यह आप जान कर हैरान होंगे कि आदमी जिन जंजीरों से बंध जाता है, उन जंजीरों को अगर कह भी दिया जाये, खुद तोड़ दो तो भी तोड़ना कठिन हो जाता है। क्योंकि जंजीरों के साथ बहुत दिन रहते-रहते प्रेम हो जाता है। मित्रता हो जाती है। भार और बीमारियों से भी संबंध हो जाता है। वे भी एकदम छोड़कर चली जायें तो खालीपन और अकेलापन लगेगा।
तो बादशाह सोचता तो बहुत था कि यह तो झंझट सिर ले ली लेकिन छोड़ता कुछ भी नहीं था। और सारी दुनिया में ऐसा होता है, सभी सोचते हैं कि बहुत झंझट सिर ले ली, लेकिन झंझट से भी प्रेम हो जाता है, उसके बिना भी तो हम अकेले और खाली हो जायेंगे। लेकिन एक दिन बहुत ऊब गया तो उसने सोचा कि अपने को समाप्त कर लूं, घोड़े को निकाला और जंगल की तरफ गया, सोचा था किसी खाई खड्ढ में गिर जाऊं और मिट जाऊं। अत्यंत बोझिल हो गया सब। कोई रस न रहा, कोई नींद न रही, कोई चैन न रहा। जंगल में भागा जाता था, एक बांसुरी की आवाज सुनी कोई पहाड़ी झरने के किनारे गीत गाता था। अदभुत थे स्वर। रुका और देखा कि कौन यहां जंगल में इतनी शांति से और बांसुरी बजा सकता है? गया, देखा, एक भेड़ों को चराने वाला चरवाहा है, बैठ कर झरने के किनारे बांसुरी बजा रहा है। उस राजा ने कहा तुम्हें ऐसी कौन सी संपदा, कौन सा साम्राज्य मिल गया है कि इतनी खुशी से गीत गा रहे हो। उस युवक ने कहा, परदेसी तुम चाहे कोई भी हो, एक भर मेरे लिए प्रार्थना करना कि भगवान मुझे कभी साम्राज्य न दे। उसने पूछा क्यों? उसने कहा, जहां तक मैंने सुना है, जहां तक मैंने जाना है केवल वे ही सम्राट हो सकते हैं, जिनके पास कोई साम्राज्य नहीं होता। जिनके पास साम्राज्य होता है, वे गुलाम हो जाते हैं। इसलिए दुआ करना परमात्मा से मेरे लिए, प्रार्थना करना कि मैं कभी कोई साम्राज्य मुझे न मिले। राजा ने कहाः अदभुत बात कहते हो, ऐसा क्या है तुम्हारे पास, जिसकी वजह से तुम साम्राज्य को ठुकराने का सोचते हो? उसने कहा ऐसा क्या है, जो मेरे पास नहीं है? वृक्षों में जो फूल खिलते हैं, वे मेरे लिए भी उतने ही खिलते हैं, जितने बादशाहों के लिए खिलते हैं। आकाश में जो तारे निकलते हैं, वे मेरे लिए भी उतने ही निकलते हैं, जितने बादशाहों के लिए निकलते हैं। हां एक फर्क जरूर है, मैं चरवाहा हूं इसलिए फूलों को देख सकता हूं, तारों का गीत सुन सकता हूं; कोई बादशाह न फूल देख सकता है, न तारों का गीत सुन सकता है, क्योंकि बादशाहत इतनी बड़ी चिंता है, आंख भी अंधी हो जाती है और कान भी बहरे हो जाते हैं। इसलिए क्षमा करें, यह दुआ मुझे न दें कि मुझे बादशाहत मिल जाए।
राजा ने कहाः तुम शायद ठीक कहते हो, मैं तुमसे सहमत हूं। और शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं इस राज्य का मालिक हूं। जाओ अपने गांव में और पूरे राज्य में कह दो कि जो यह चरवाहा कहता है, उसकी गवाही बादशाह ने भी दी है। उसने भी कहा कि यह ठीक कहता है। जाओ अपने गांव में भी यह कह देना।
लेकिन सारी दुनिया, सारे मनुष्य का मन कुछ ऐसी गलत धारणाओं में परिपक्व होता है, निर्मित होता है कि जिन पत्थरों को हम अपने ऊ पर अपने ही हाथों से रखते हैं, जिस भार के नीचे हम दबे जाते हैं और श्वासें घुटी जाती हैं, उस भार को भी अलग करने का मन नहीं होता। सच तो यह है कि है यह हमें दिखाई ही नहीं पड़ता कि इस भार को रखने वाले हाथ मेरे ही हैं। कौन सी चीजें हैं, कौन सा केंद्र है जिस पर भार इकट्ठा होता है, कौन से तत्व हैं जिनसे पत्थर की तरह भार संग्रहीत होता है। उनकी ही मैं आपसे चर्चा करना चाहता हूं।
केंद्र है मनुष्य का अहंकार। केंद्र है मनुष्य की यह धारणा कि मैं कुछ हूं। केंद्र है मैं का बोध। और यह मैं इस जगत में सबसे ज्यादा असत्य, सबसे ज्यादा भ्रामक, सबसे ज्यादा इलुजरी है। यह मैं कहीं है नहीं। इस शैडोई, इस अत्यंत भ्रामक, इस अत्यंत भ्रमपूर्ण मैं के लिए सारी दौड़ चलती है जो कि कहीं है ही नहीं। कभी आंख बंद करके अपने भीतर खोजें कि यह मैं कहां है? तो आप खोज नहीं सकेंगे। कभी शांत होकर विचार करें कि यह मैं मेरे भीतर किस जगह है? यह मैं कहां छिपा है? आप पूरे मन को खोदें, उखाड़े इस मैं को आप कहीं पाएंगे नहीं। जैसे प्याज होती है, उसे छीलें, उसमें पर्त पर पर्त निकलती जायेगी, आखिर में आप पायेंगे कि कुछ भी नहीं बचा। भीतर खाली, कोरा रिक्तस्थान है। पर्त पर पर्त तो बहुत थी लेकिन भीतर कुछ भी न था। ठीक वैसे ही मनुष्य का यह मैं है, इसमें पर्तें तो बहुत हैं, जो हमने ही जमाई हैं, लेकिन एक-एक पर्त को निकालें तो भीतर पाएंगे कि वहां कुछ भी नहीं है। दो-चार पर्त हम उखाड़ें और विचार करें। इस मैं के साथ आपका नाम जुड़ा हुआ है, मेरा नाम जुड़ा हुआ है। अगर आपका नाम राम है, कोई राम को गाली दे दे तो आप अपना होश खो देंगे। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि किसी का कोई नाम होता है? क्या कभी विचार किया कि राम क्या मेरा नाम है? क्या किसी का भी कोई नाम है? नाम तो अत्यंत काल्पनिक औपचारिक बात है। कामचलाऊ है, जरूरत है इसलिए आपके ऊपर लगा दिया, ऊ पर से चिपका हुआ लेबिल है, आपके प्राणों से नाम का क्या संबंध है। लेकिन हमारे प्राणों से हम इस नाम को बहुत संबंधित मान कर जीते हैं।
एक फकीर हुआ, राम ही नाम था उसका। किसी ने उसे गाली दी, वह खूब हंसने लगा। गाली देने वाला चैंक गया और उसने पूछा कि आप हंसते क्यों हैं? उसने कहा तुम सांझ राम की तरफ आना, तो बतायेंगे। वह थोड़ा हैरान हुआ, उसने कहा कि कौन राम? उसने कहा कि मेरी तरफ आना, तो बतायेंगे। सांझ वह आया और उसने पूछा कि आप क्यों हंसे? उसने कहा मुझे हंसी इसलिए आ गई कि तुमने जैसे ही राम को गाली दी मुझे क्रोध आने वाला था, क्रोध उठा था फिर मुझे एकदम से खयाल आया कि क्या मैं राम हूं? या कि कामचलाऊ एक शब्द है, और तब मुझे हंसी आ गई। एक शब्द जो बिलकुल कामचलाऊ है, उस पर की गई चोट मुझे कैसे पहुंच सकती है? उसे की गई चोट मुझे कैसे पहुंच सकती है, उसकी की गई प्रशंसा मुझ तक कैसे पहुंच सकती है? लेकिन आइडेंटिटी हमारी बहुत गहरी है, नाम और हम बिल्कुल एक हो गये हैं। उसमें कोई फर्क, फासला नहीं रहा। इसीलिए तो आदमी मर जाता है लेकिन कब्र पर उसका नाम हम लगा ही देते हैं। न केवल जिंदों के नाम होते हैं बल्कि मुर्दों के भी हमारी दुनिया में नाम होते हैं।
एक आदमी तो मिट जाता है, मर जाता है लेकिन मंदिर पर नाम लगा जाता है। वे यहां तख्तियां कहीं न कहीं जरूर लगी होंगी। नाम से इतना गहरा, इतना गहरा, नाम जो कि बिलकुल, बिलकुल ही औपचारिक, बिलकुल औपचारिक बात है; जिसका हमारे प्राणों से कोई भी, कोई गहरा संबंध नहीं है, कोई संबंध ही नहीं है। जिसे अ कहते हैं, उसे ब कहें, स कहें कुछ भी कहें, एक कहें, दो कहें, तीन कहें काम चल जाएगा। जो इतनी कामचलाऊ बात है, वह हमें इतनी महत्वपूर्ण है? और यह नाम हमारे अहंकार का बड़ा बुनियादी हिस्सा है, इसे हटाएं, देखें नाम किसी का भी नहीं। किसी का भी नहीं है। पौधों के कोई नाम हैं, पक्षियों के कोई नाम हैं? मछलियों के कोई नाम हैं? फिर भी वे हैं, बिना नाम के पौधे हैं, बिना नाम के पक्षी हैं, बिना नाम के मछलियां हैं, बिना नाम का सारा संसार है सिर्फ आदमी को छोड़ कर। आदमी का भी कोई नाम नहीं है, बच्चा पैदा होता है, अनाम। कोई उसका नाम नहीं। लेकिन हम नाम चिपका देते हैं। और फिर वह नाम के केंद्र पर जीने लगता है। उसका नाम ऊंचा हो, उसका नाम अखबार में हो, उसके नाम की इज्जत हो, उसके नाम की चर्चा हो, उसके नाम की प्रशंसा हो, उसके नाम पर फूलों की मालाएं हों, जिंदगी में, मरने के बाद भी।
एक आदमी था अमरीका में, शायद अकेला ही आदमी था लेकिन मन में तो सबके यही होता है। वह आदमी मरने के करीब था। मरने के करीब था डाक्टरों ने उससे कहा कि आप अब ज्यादा नहीं जी सकेंगे, उसकी उम्र भी काफी हो गई थी, अट्ठासी वर्ष का था। एक-दो दिन में आप मर जाएंगे। उसने अपने सेक्रेटरी को बुलाया। बड़ी भारी उसकी इंडस्ट्री थी, उस इंडस्ट्री के विज्ञापन करने वाले बहुत से विशेषज्ञ थे, उनको बुलाया और उनसे कहा कि मेरी एक इच्छा है, इसको पूरा करने का उपाय करो। उन्होंने कहा, कौन सी इच्छा? उसने कहा कि मैं इसके पहले कि मरूं, मैं अखबारों में अपने मरने की खबर पढ़ना चाहता हूं। आखिर कौन-कौन अखबार मेरी फोटो छापते हैं और कौन-कौन अखबार मेरा नाम छापते हैं? उन्होंने कहा कि हो सकता है, इसमें क्या कठिनाई है? अफवाह उड़ा दी गई कि वह मर गया। सांझ तीन बजे अफवाह उड़ा दी गई कि वह मर गया और सांझ संध्या के सभी संस्करणों में उसके फोटो, उसके मरने की खबर, वह सब छाप दी गई। रात उसने निश्चिंतता से जब सारे अखबार पढ़ लिए तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। फिर रात दो बजे मर गया। फिर दूसरी खबर उसके मरने के बाद छापी गयी वह मनुष्य जाति का पहला आदमी था, जिसने अपने मरने की खबर पढ़ी।
लेकिन क्या आप भी मनुष्य-जाति के ऐसे दूसरे मनुष्य नहीं होना चाहते? पूछें जरूर होना चाहते हों। कितना रस उस आदमी को आया होगा कि सारे अखबारों में फोटों हैं। सारे अखबारों में नाम हैं। मरते हुए आदमी को भी, जीते हुए आदमी का भी रस क्या है? जीते हुए आदमी का भी एक ही रस है, उसके नाम पर हीरे जड़ जायें, उसके नाम पर फूल पड़ जाएं। और नाम जो बिलकुल बेमानी है। जो बिलकुल मीनिंगलेस है। यह एक पर्त है, और ऐसी बहुत सी पर्तें हैं, कोई जैन है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है। है क्या कोई जैन, कोई हिंदू, कोई मुसलमान? आदमी आदमी जैसा पैदा होता है, और पच्चीस नासमझियां उसे सिखा दी जाती हैं। जड़ की तरह हमारे माइंड को कंडीशन कर देती हैं। मैं हिंदू हूं, आप मुसलमान हैं, कोई ईसाई है, कोई जैन है, कोई बौद्ध है, कोई पारसी है, कोई सिख है, कोई कुछ और है; हजार तरह के पागलपन हैं। पागलपन इसलिए कहता हूं कि जो चीज भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ती है, वह पागलपन है। जो चीज भी मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है, वह स्वस्थ्य चित्त की दशा है। किसने मनुष्य जाति को खंडित किया, छोटी-छोटी सीमाएं छोटी-छोटी सीमाएं, दो आदमियों के बीच दीवाल बन कर खड़ी हो जाती हैं। और ऐसी दीवाल जिसके आर-पार हाथ फैलाने असंभव हैं। और ऐसी दीवाल कि जब भी हाथ फैलाये जाते हैं तो एक-दूसरे की गर्दन पक ड़ने को फैलाये जाते हैं, और कोई दूसरे काम के लिए कभी नहीं फैलाये जाते। जब कभी हिंदू मस्जिद में जाता है तो मस्जिद जलाने को जाता है, जब कभी मुसलमान मंदिर में आता है तो मूर्ति तोड़ने को आता है; दूसरा कोई रास्ता नहीं है। एक आदमी दूसरे आदमी के बीच यह कैसा पागलपन है? क्या कोई आदमी हिन्दू और जैन, और मुसलमान पैदा होता है? आदमी सिर्फ आदमी की तरह पैदा होता है। और एक हिन्दू घर के बच्चे को मुसलमान के घर में रख दिया जाये तो वह मुसलमान की तरह बड़ा होगा, और एक जैन के बच्चे को ईसाई के घर रख दिया जाये तो वह ईसाई की तरह बड़ा होगा। तो ईसाईयत सिखावट है, जन्म का हिस्सा नहीं। यह हमारे स्वभाव या स्वरूप का हिस्सा नहीं। यह जाति सारी सिखावट है। लेकिन इस जाति के नाम पर क्या नहीं हो सकता? इस जाति के नाम पर हजारों लोगों की हत्याएं हो सकती हैं, इस जाति के नाम पर हजारों लोग कुर्बान हो सकते हैं, इस जाति के नाम पर कोई मर सकता है, कोई मार सकता है। यह होता रहा है, इसकी कोई कथा बताने की मुझे जरूरत नहीं है। तीन हजार साल की कहानी और क्या है? तीन हजार साल की कहानी यह है मनुष्य जाति की कि कोई भी छोटा-मोटा नारा लगाओ और दूसरे आदमी की हत्या करने का उपाय खोज लो। कितने लोग धर्म के नाम पर काटे और मारे गये हैं, इसका पता है? अगर हिसाब लगाएंगे तो घबड़ा जाएंगे, अधर्म के नाम पर एक आदमी नहीं मारा गया। किसी अधार्मिक लोगों ने मिल कर एक मकान में आग नहीं लगाई, आज तक। अधार्मिक लोगों के किसी संगठन ने कोई बड़े पैमाने पर हत्याकांड नहीं किये, कोई हजारों लोगों को, लाखों लोगों को बे-घरबार नहीं किया। स्त्रियों की इज्जत नहीं छीनी, बच्चों की छाती में छुरे नहीं घोंपे। किसने किया यह? यह उन लोगों ने किया जिन्हें यह वहम है कि मैं हिन्दू हूं, मैं मुसलमान हूं, मैं जैन हूं, मैं ईसाई हूं, उन लोगों ने किया। और यह वहम है। और इस वहम के पीछे एक जिंदा आदमी की छाती में छुरा घोंपा जा सकता है। जिंदा आदमी की छाती में, एक वहम के पीछे कि मैं हिंदू हूं। और आपका हिन्दू होना क्या है? या मेरा मुसलमान होना क्या है? एक सिखावट, एक कंडीशनिंग जो बचपन से मेरे दिमाग में डाल दी गई कि तुम हिंदू हो, हिंदू धर्म तुम्हारा है; हिंदू धर्म के लिए जीना और हिन्दू धर्म के लिए मरना। अगर मैं दूसरे घर में होता तो मुझे सिखाया जाता तुम मुसलमान हो, मुसलमान धर्म के लिए जीना और मुसलमान धर्म के लिए मरना। मैं जहां होता, मुझे वही बेवकूफी सिखा दी जाती, मैं उसी बेवकूफी में जीता और मरता। यह क्या है? यहां जो मैं कह रहा हूं उसे आप खोजेंगे तो सच्चा नहीं पाएंगे। क्या अपने दिमाग में तलाशेंगे तो नहीं पाएंगे कि आप क्या हैं? किसने आपसे कहा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान हैं? किसने आपको सिखाया? जिस घर में आप पैदा हुए हैं उस घर की धारा ने आपको सिखाया। यह दुनिया बहुत अच्छी नहीं होगी, जहां इस तरह की बातें सिखाई जाती हैं। एक वक्त अगर दुनिया में मनुष्य के इतिहास में अच्छा वक्त वही होगा, जब हम आदमी को सबसे पहले आदमी होना सिखाएं, और ऐसी कोई बात न सिखाएं जो उसकी आदमियत से ऊपर बैठ जाए। लेकिन हम सब आदमी पीछे हैं, हिंदू पहले हैं, अगर आदमी पर कोई संकट हो हमें कोई परेशानी नहीं होती, लेकिन हिंदू धर्म पर संकट हो तो हमारे प्राण संकट में पड़ जाते हैं। और ऐसी और पर्त पर पर्तें हैं--राष्ट्रीयता की पर्त है कि कोई भारतीय है कोई पाकिस्तानी है। कोई चीनी है, कोई जर्मन है। जमीन पर कोई कहीं कोई रेखा नहीं है, सिवाय राजनीतिज्ञों ने जो नक्शे बनाएं हैं उनके अलावा। जमीन अखंड और अविभाजित है। कहीं कोई सीमा नहीं है जहां एक देश समाप्त होता हो और दूसरा शुरु होता हो। लेकिन राजनैतिक की बुद्धि ने हर जगह सीमा बना रखी है। क्योंकि बिना सीमा के राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता। सीमा है तो राजनीति है, सीमा नहीं तो राजनीति नहीं हो सकती है। और बड़े मजे की बात है, जहां सीमा है वहां युद्ध है, वहां हिंसा है। युद्ध को ही हम संग्राम कहने लगे हैं। संग्राम का मतलब होता है दो गांवों की सीमा। ग्राम का मतलब तो गांव होता ही है, संग्राम का मतलब होता है दो गांव की सीमा। जहां दो गांव की सीमा है वहीं लड़ाई है, वहीं युद्ध है, इसलिए हम उसको संग्राम कहते हैं। जहां दो गांव मिलते हैं वहीं लड़ते हैं। जहां दो देश मिलते हैं वहीं लड़ते हैं। जहां दो आदमी मिलते हैं वहीं लड़ाई शुरु।
ये सीमाएं कि मैं भारतीय हूं, यह भी वैसा ही वहम है जैसा कि मैं हिन्दू हूं या जैन हूं, या मुसलमान हूं। इस दूसरी राष्ट्रीयता के वहम ने, इस राष्ट्रीयता की पर्त ने, इस आइडेंटिटी ने कि मैं भारतीय, मैं चीनी, मैं ईसाई कि मैं फलां, मैं ढिकां; इसने भी मनुष्य-जाति को बहुत कष्ट दिए हैं, वह भी हमारे प्राणों पर भार बनकर बैठी है। सारी दुनिया के युद्ध किसलिए होते रहे हैं। अभी सारे राजनीतिज्ञ कहते हैं हम शांति चाहते हैं, युद्ध नहीं चाहते, लेकिन उन पागलों से कोई कहे कि जब तक तुम देश चाहते हो, तब तक शांति और युद्ध? शांति कैसे हो सकती है, युद्ध कैसे बच सकता है? जब तक हम सीमा चाहते हैं; तब तक युद्ध होगा। जब तक हम भेद चाहते हैं किसी तरह का, तब तक हिंसा होगी। और यह हमारे प्राणों पर, हमारी छाती पर बैठ जायेगी भार बनकर।
दो महायुद्ध लड़े गये, दस करोड़ आदमियों की हत्या हुई। मां-बाप कैसे पागल हैं, अपने बच्चों को लड़ाई में भेजते हैं इसलिए कि तुम भारतीय हो, तुम पाकिस्तानी हो? अगर दुनिया में मां-बाप अपने बच्चों को प्रेम करते हों, दुनिया में युद्ध बंद हो जायेंगे। क्योंकि कोई भी बाप कह देगा बच्चा पहले है, आदमी पहले है देश, वक्त सब बकवास है, कोई बच्चा नहीं जा सकता लड़ने के लिए। हिंदुस्तान में भी बच्चा लड़ता है तो मां का बच्चा मरता है, पाकिस्तान का बच्चा लड़ता है तो पाकिस्तान की मां का बच्चा मरता है, लेकिन दोनों मांओं को यह ख्याल नहीं आता कि हमारे बच्चे लड़ते हैं और मरते हैं, किसलिए? इसलिए कि राजनीतिज्ञ कुछ सीमाएं खींचे हुए हैं। और उन्होंने विभाजन कर दिया है कि तुम भारतीय हो और तुम पाकिस्तानी हो। अगर दुनिया में मां-बाप का प्रेम सच्चा हो तो दुनिया में कोई युद्ध नहीं हो सकता क्योंकि मां-बाप कहेंगे, बच्चे हैं, न कोई भारतीय है और न कोई पाकिस्तानी है। इसलिए बच्चे लड़ने से इनकार करते हैं।
ऐसी पर्त पर पर्त हमारे दिमाग में है। अमीर होने का, गरीब होने का ख्याल है। किस वजह से आप अमीर हैं, इसलिए कि आपके खींसे में कुछ ज्यादा पैसे हैं? इसलिए आप अमीर हैं। किसी के खींसे में कम पैसे हैं, इसलिए गरीब है? दोनों के अमीरी और गरीबी अलग करके दोनों को खड़ा करें, दोनों में क्या फर्क है? दोनों की कमीजें छीन लें और खड़ा करें, दोनों में क्या फर्क है? जो अमीर है उसके चार पैसे छिन जाते हैं गरीब हो जाता है, जो गरीब है उसको चार पैसे मिल जाते हैं, अमीर हो जाता है। आप कहां अमीर और गरीब हैं। आप तो दोनों से कुछ अलग हैं क्योंकि अमीर गरीब हो सकता है, गरीब अमीर हो सकता है, तो आप कहां अमीर और गरीब हैं। लेकिन नहीं, अमीर सोचता है मैं अमीर हूं, और गरीब, गरीब को मेरे पास बैठने का भी कोई हक नहीं है।
पद और प्रतिष्ठाएं खड़ी की हैं हमने। जो आदमी जरा ऊं चाई पर बैठ जाता है वह उनसे बड़ा हो जाता है, जो नीचे बैठे हैं। यह सारा का सारा सोचें-विचारें, हमारे मन पर यह क्या भार है? कितने पत्थर की तरह ये सारी अहमता की पर्ते हम पर बैठी हैं। इनमें से एक-एक पर्त को जो अलग करता है वह मनुष्य धीरे-धीरे निर्भार होकर, धार्मिक हो जाता है। धार्मिक मनुष्य को दुनिया में पैदा होने की जरूरत है, लेकिन यह अहंकार की कोई भी पर्त धार्मिक नहीं होने देती। आप सोचते होंगे कि हम मंदिर हो आये तो धार्मिक हो गये, इतना सस्ता मामला नहीं है। या आप सोचते होंगे कि हमने कुरान पढ़ लिया, गीता पढ़ ली, तो हम धार्मिक हो गये; मामला इतना आसान नहीं है। धार्मिक होने के लिए सारे प्राणों का परिवर्तन जरूरी है। और प्राणों का परिवर्तन निश्चित ही कष्ट साध्य है। क्योंकि ये सब हमारे मोह हो गये हैं, इनमें से कुछ भी छीनने पर हमे घबड़ाहट लगती है। जो डरेगा और इन्हें पकड़ेगा वह कभी निर्भार नहीं हो सकता, पत्थर उसके सिर पर बैठे रहेंगे। धार्मिक आदमी का न कोई देश है, धार्मिक आदमी की न कोई जाति है, धार्मिक आदमी का न कोई नाम है, धार्मिक आदमी का न कोई पद है, धार्मिक आदमी की यह सारी कोई भी बातें नहीं हैं। तब चित्त निर्भार होता है। तब चित्त वेटलैसनैस को उपलब्ध होता है। तब चित्त अभेद को, अखंडता को उपलब्ध होता है। यही तो सारी खड्ढ थे, यही तो सारी बाधाएं थीं, यही तो सारी रुकावटें थी, परमात्मा से मिलता चाहते हैं, बगल के आदमी से मिल नहीं पाते। दूर पहुंचने की कल्पना है, जो निकट है उससे कोई संबंध नहीं है। पड़ोसी से कोई प्रेम नहीं है, परमात्मा की खोज है। कैसे यह होगा, यह एप्सर्ड है? यह बिल्कुल असंगत, नासमझी की बात है। जो पड़ोसी से मिल सकता है वह एक दिन जरूर परमात्मा से मिल जायेगा क्योंकि पड़ोसी परमात्मा की शुरुआत है। वहां से परमात्मा शुरू हो रहा है। लेकिन पड़ोसी से मिलना असंभव है क्योंकि पड़ोसी है गरीब, मैं हूं अमीर। पड़ोसी से मिलना असंभव है, वह है मुसलमान, मैं हूं हिन्दू। पड़ोसी से मिलना इसलिए असंभव है कि वह एक मकान में जाता है पूजा करने जिसका नाम चर्च है और मैं एक मकान में पूजा करने जाता हूं जिसक ा नाम मंदिर है। कैसी मूर्खताएं हैं, कैसी नासमझियां हैं?
आज दोपहर को ही मैं कहता था। एक साधु मेरे पास मेहमान हुए। उन्होंने सुबह उठ कर ही मुझसे कहा कि मुझे जैन मंदिर जाना है। मैं कुछ हैरान हुआ, मैंने कहा कि जैन मंदिर में जाकर क्या करियेगा? क्या काम अटक गया है, क्या सुबह से ही परेशानी आपको हो गई? उन्होंने कहा कि आप इतना भी नहीं समझते? वहां मैं एकांत में ध्यान करूंगा, आत्मचिंतन करूंगा, सामायिक करूंगा इसलिए जाना चाह रहा हूं, मैंने कहा आप सच बोल रहे हैं कि इसी के लिए जाना चाहते हैं या कि कोई और मामला है? उन्होंने कहा, नहीं, नहीं इसी के लिए जाना चाहता हूं, और तो क्या मामला हो सकता है। साधु आदमी हूं, मेरा और क्या मामला होगा? मैंने कहा फिर मैं आपको सलाह दूंगस कि मेरे पास में, बगल में एक चर्च है, यहां का जो जैन मंदिर है वह तो बाजार में है, वहां तो बड़ा शोरगुल है, वहां तो बड़ी भीड़-भाड़ है, वहां क्या करियेगा? और कैसे करियेगा? उससे तो बेहतर जहां आप मेरे पास ठहरे हैं, यहीं सन्नाटा और एकांत है, तो ध्यान यहीं कर लीजिए। और अगर आदमी का मकान नापसंद है, भगवान का ही मकान पसंद है तो मेरे बगल में चर्च है। चर्च में सन्नाटा है, क्योंकि ईसाईयों का धर्म रविवार को समाप्त हो जाता है, आज रविवार नहीं है। तो आप चलिए वहां एकदम सन्नाटा है, वहां न कोई आदमी है, न कोई है, कोई भी नहीं है वहां। सांझ का वक्त है, पुरोहित भी सिनेमा गया होगा। चपरासी कहीं जुआ खेलता होगा, कुछ और करता होगा, आप चलें। वह कहने लगे, चर्च? मैं कैसे चर्च जा सकता हूं? आप समझे नहीं, मैं आपसे जैन मंदिर का पता पूछता हूं, आप वह ही मुझे बता दें। तो मैंने उनसे कहा तब न आपको ध्यान करना है, न आपको स्मरण करना है, न आपको शांति चाहिए, आपको जैन मंदिर जाना है। क्यों जैन मंदिर जाना है? एक वहम पैदा किया बचपन से कि तुम जैन हो इसलिए। और कितना आश्चर्य है गृहस्थ तो गृहस्थ जिसको हम साधु कहते हैं वह भी इसी चक्कर में है, वह भी कहता है मैं जैन साधु, मैं हिंदू साधु, मैं मुसलमान साधु, मैं ईसाई साधु।
समाज छोड़ दी लेकिन समाज की बेवकूफी नहीं छोड़ी। समाज ने जो सिखाया था, उसको पकड़े हुए हैं, समाज ने जो बताया था वह उसकी पट्टी बांधे हुए हैं, वो सिर पर तिलक लगाये हुए हैं और उसका जनेऊ पहने हुए हैं। समाज ने जो सिखाया था, उसे पकड़े हैं। और इस ख्याल में है कि हमने समाज छोड़ दिया, रिननसियेशन ले लिया,सन्यासी हो गये हैं। सन्यासी वह है जो समाज की सिखाई हुई सारी नासमझियों को त्याग कर देता है। वह नहीं जो घर छोड़कर भाग जाता है। घर कोई नासमझी है? घर तो मिट्टी का है, उसको छोड़कर भाग जाना बहुत आसान है, सवाल है मन के भीतर जो दीवारें हैं विचार की, वह जो मन के घर हैं, उनको तोड़ने का सवाल है। उनका भार है मनुष्य के ऊ पर।
आपको किसी दिन अगर ऐसा कोई संन्यासी मिल जाये, जिसका कोई धर्म न हो, तो समझना कि यह संन्यासी है। जब तक किसी संन्यासी का कोई धर्म है, उसका कोई घर है, उसकी कोई गृहस्थी है, वह किसी समाज का हिस्सा है, उसे उसके समाज ने जो सिखाया था, उसके मन पर बैठा हुआ है। अगर उसके धर्म पर हमला आ जाये तो वह सन्यासी भी बातें करने लगता है तलवार की। वह भी कहता है कि अब अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत है। वह भी कहता है। वह सब संन्यास-विन्यास उसका विलीन हो जाता है। वह भी कहता है धर्म खतरे में है, भाइयों इकट्ठे हो जाओ। वह भी उसी समाज का हिस्सा है, उसी आॅर्गनाइजेशन का। उसी संगठन का। नहीं ये सारी पर्तें हमारी जो हमें सिखाई जा रही हैं, निरंतर, छोटे से बच्चों के साथ जो अपराध हुआ है दुनिया में उससे बड़ा अपराध किसी के खिलाफ कभी नहीं होता। मां-बाप अपनी सभी शत्रुताओं को, मां-बाप अपनी सभी घृणाओं को मां-बाप अपने सब द्वेष और मत्सर को, मां-बाप अपनी सब सीमाओं को छोटे और नन्हें बच्चों के सिर पर लाद जाते हैं। अगर आप धार्मिक आदमी हैं तो आप अपने मन से तो इन सीमाओं को तोड़ें ही, कृपा करें जो नये बच्चे पैदा हो रहे हों, उन पर इन सीमाओं को न लादें, तो एक नई दुनिया बन सकती है, जो धार्मिक हो। एक ऐसी दुनिया बन सकती है, जहां परमात्मा के मंदिर हों, जैन-हिंदू-बौद्ध-ईसाई के नहीं। और एक ऐसा समय आ सकता है, जब लोगों के बीच दीवालें न हों, और जिन चित्तों में दीवालें न होंगी, वे चित्त निर्भार हो जाते हैं। मुक्त हो जाते हैं, बंधन से टूट जाते हैं उनके, उनकी काराएं गिर जाती हैं। मन से यह सारा परिवर्तन, सारी तोड़-फोड़ करनी जरूरी है, बहुत कुछ नष्ट करना होगा मन के भीतर, क्योंकि बहुत कुछ गलत है, जो हमारे भीतर बैठा हुआ है। यह सब हमारे अहंकार का हिस्सा है इसीलिए तो हम खुश होते हैं, अगर आप जैन हैं और मैं कह दूं कि जैन धर्म बहुत महान धर्म है, आप ताली बजायेंगे; क्यों? आपके अहंकार को तृप्ति हुई, क्योंकि वही धर्म महान है जो आप मानते हैं। आपका अहंकार तृप्त हुआ, जब कोई कह देता है कि भारतीय संस्कृति महान है, और भारत सारी दुनिया का गुरु है; तो सभी नासमझ बड़े प्रसन्न हो जाते हैं क्योंकि उनके अहंकार की तृप्ति हो रही है, क्योंकि मैं भारतीय हूं। और जब भारतीय संस्कृति महान होती है तो उसके साथ मैं भी महान हो जाता हूं। अगर कोई गाली दे दे कि भारतीय संस्कृति तुच्छ है और कु छ नहीं, तो उस पर मुकदमा चलाइये, पकड़िये, हत्या करिये उसकी कि इसने बहुत गड़बड़ काम किया। क्यों? आपके अहंकार को चोट पहुंचा दी। इसीलिए तो आप धर्म की प्रशंसा के लिए पंडितों को इकट्ठा करते हैं कि वे आपके धर्म की प्रशंसा करें। क्यों? धर्म की प्रशंसा आपकी प्रशंसा है, इनडायरेक्ट, अपरोक्ष खुशामद है। पीछे के रास्ते से आपके अहंकार को फुसलाया जा रहा है, खुशामद की जा रही है। आप प्रसन्न हो रहे हैं। साधु, पंडित, सन्यासी यही कर रहे हैं आपके धर्म की खुशामद करते हैं, बदले में आप उनका पैर छूते हैं। वे आपके अहंकार को फुसलाते हैं, आप उनके अहंकार को तृप्त करते हैं। और यह म्युचुअल, यह पारस्परिक खेल चल रहा है, सैकड़ों वर्षों से। और उसके दुष्परिणाम पूरी मनुष्य-जाति भोग रही है। यह तोड़ना होगा, इसे जड़ से तोड़ना होगा। अगर धार्मिक होने का ही खयाल है तो एक क्रांति से गुजरे बिना कोई आदमी धार्मिक नहीं होता। धर्म से बड़ी कोई रेवोल्यूशन नहीं है, धर्म से बड़ा कोई इंकलाब नहीं है। उससे बड़ी कोई क्रांति, उससे बड़ा कोई विद्रोह, उससे बड़ा रिबेलियन नहीं है। क्योंकि सारे चित्त को बदलना होता है। सारे चित्त की सारी पर्तें तोड़ देनी होती हैं और एक नये चित्त के आगमन के लिए द्वार देना होता है। नाम, जाति, देश या और किसी तरह की सीमा भार है। ऐसा भारी मन यात्रा नहीं कर सकता। ऐसा बंधा हुआ मन यात्रा नहीं कर सकता। कैसे करेगा? यात्रा के लिए तो खुलापन चाहिए, मुक्ति चाहिए, अनकंडीशंड चाहिए। ये सब संस्कारिक चित्त जो है कभी यात्रा नहीं कर सकता। कैसे यात्रा करेगा? संस्कारिक चित्त जो है वह बंधा हुआ चित्त है, गुलाम है।
एक छोटी सी कहानी कहूं, मुझे बहुत प्रीतिकर है, बहुत जगह कही है, रोज-रोज कहता हूं।
एक रात कुछ मित्रों ने शराब पी ली। फिर गये, नदी पर गये। चांद था खूब, चांदनी थी, नांव में बैठे थे और यात्रा किए। पतवारें उठाईं, खूब पतवारें चलाईं, सुबह-सुबह जब ठंडी हवाएं चलने लगीं, तो उनका नशा टूटा। रात भर हो गई थी, आधी रात हो गई थी चलते-चलते, यात्रा करते-करते नाव में। सोचा ना मालूम कहां निकल आये, ना मालूम किस दिशा में? एक मित्र को कहा नीचे उतर कर देखो कहां चले आयें हैं? किस दिशा में? क्योंकि जो नशे में है उसे दिशा का पता होगा? जो नशे में है उसे यह भी पता नहीं किस तरफ चले, कहां चले? एक ने उतर कर नीचे देखा वह हंसने लगा, वो बोला मत घबड़ाओ, सब नीचे उतर आओ, हम वहीं खड़े हैं, जहां हम रात खड़े थे। वे बहुत हैरान हो गये कि बात क्या हुई, इतनी मेहनत बेकार गई? वे नांव की जंजीर खोलना भूल गये, जो खूंटे से बंधी थी।
और यह अधिक धार्मिक लोग सांप्रदायिक, सिखाये हुए नशे के कारण बहुत उपवास करते हैं, बहुत पूजा-पाठ करते हैं, बहुत मंदिर जाते हैं, बहुत पतवार चलाते हैं। लेकिन जब मौत की ठंडी हवाएं लगेंगी तब ये उतर कर नीचे देखेंगे कि नांव कुछ आगे बढ़ी की नहीं, और नीचे उतर कर पायेंगे कि नांव तो खूंटे से बंधी है, जिंदगी बेकार हो गई। करो लाख उपवास, करो लाख मंदिर जाना, करो कपड़े इस तरह बदलो, उस तरह बदलो, हजार ढोंग करो, लेकिन तब तक चित्त तुम्हारा गुलाम है, जब तक चित्त परतंत्र है, तब तक परमात्मा का कोई द्वार न कभी रहा है, न हो सकता है। परतंत्र चित्त परमात्मा को नहीं पा सकता। परमात्मा के पाने के लिए परिपूर्ण स्वतंत्र चित्त चाहिए। मतलब यह है कि परमात्मा जो कि परिपूर्ण स्वतंत्रता है, उसे पाने के लिए तुम्हें भी तो स्वतंत्रता की भूमिका चाहिए। परमात्मा जो कि मोक्ष है, तो उसे पाने के लिए तुम्हें भी तो पहले मुक्ति की भूमिका चाहिए। एक गुलाम एक बादशाह से कैसे मिलेगा? एक बादशाह से मिलने के लिए बादशाहत चाहिए। गिड़गिड़ा कर नहीं मिलता मोक्ष, पैर पड़ कर नहीं मिलता मोक्ष, भीख में नहीं मिलता, पात्रता पैदा करनी होती है। और पात्रता की पहली शुरुआत है स्वतंत्र चित्त। फ्रीडम। फ्रीडम का यह मतलब नहीं कि सफेद चमड़ी के लोग बैठे तो उनकी जगह काली चमड़ी के लोग बैठ गये तो फ्रीडम हो गई।
स्वतंत्रता का यह मतलब है कि तुम व्यक्ति बन जाओ, व्यक्ति। इंडिविजुअल। कौन है इंडिविजुअल, किसको हम व्यक्ति कहें? उसको व्यक्ति कहा जाता है, जो समाज के सारे प्रभावों से अपने चित्त को मुक्त कर लेता है, वह व्यक्ति हो जाता है। और बाकी लोग...? बाकी लोग भीड़ के हिस्से हैं, क्राउड के हिस्से हैं। व्यक्ति नहीं हैं। एक भीड़ है, उसके हिस्से हैं। भीड़ चिल्लाती है धर्म संकट में है, वे भी चिल्लाते हैं। भीड़ कहती है मंदिर चलो, वे भी जाते हैं, भीड़ कहती है तिलक लगाओ, वे भी लगाते हैं, व्यक्ति नहीं हैं वे। व्यक्ति वह है जो समाज के द्वारा दिये गये संस्कारों को काट कर और स्वयं के चिंतन को उपलब्ध होता है। जो खुद की आंखों से देखता है, जो खुद के कानों से सुनता है। खुद की बुद्धि से विचारता और परखता है। आप परखते हैं, खुद की आंख से? या कि तीन हजार साल पहले कोई मनु हो गये, या कोई महावीर हो गये, या कोई बुद्ध हो गये, या कोई माक्र्स हो गये उनकी आंख से देखते हैं दुनिया को या कि अपनी आंख से देखते हैं? उनके कान से सुनते हैं, या कि अपने कान से सुनते हैं? हजारों साल का प्रभाव है, उस प्रभाव के द्वारा आप देखते ही जीते हैं या व्यक्ति की तरह जीते हैं? जो व्यक्ति जितना परंपरागत है उतना ही सत्य से दूर होता है। जो व्यक्ति जितना ट्रेडिशन में बंधा है उतनी उसकी यात्रा नहीं होती, नहीं हो सकती है। यही तो कारण है कि दुनिया में इतना धर्म, इतनी चर्चा, इतने उपदेश, इतने ग्रंथ, इतना सब प्रचार है लेकिन दुनिया में धर्म कहीं दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई हो ही नहीं सकता।
धर्म है परंपरा विरोधी, और जिस धर्म को हम जानते हैं वह है परम्परा का पुत्र। यह धर्म झूठा है। जो धर्म ट्रेडीशन से बंधा है, वह सच्चा नहीं हो सकता। टेडीशन है समाज की सुविधा। इसे समझें। ट्रेडीशन साधना नहीं है, परंपरा साधना नहीं है, वह है समाज की सुविधा। समाज अपनी सुविधाअ के लिए बहुत सी व्यवस्थाएं किये हुए है। उन्हीं व्यवस्थाओं में आप बंधे रहें, समाज विद्रोह से बचने के लिए बहुत से संस्कार बच्चों में डालता है। बच्चे विद्रोही न हो जायें, बाप की दुनिया से बिलकुल न टूट जाएं, इसलिए उनके मन को कसता है और यंत्र चालित करता है। ये समाज की जरूरतें हैं, लेकिन समाज की जरूरत और आत्मा की जरूरत में भेद है। जो व्यक्ति दूसरों को बहुत ज्यादा स्वीकार करता है, उसका क्या अर्थ है? जो व्यक्ति दूसरों पर श्रद्धा करता है, उसका क्या अर्थ ह ै? जो व्यक्ति अपने पर नहीं मुझ पर श्रद्धा करता है, या मैं किसी और पर श्रद्धा करता हूं इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है आत्म अविश्वास। इसका अर्थ है, अपने पर श्रद्धा नहीं। जब भी कोई दूसरे पर श्रद्धा करता है, तो समझना कि उसमें खुद पर कोई श्रद्धा नहीं है। वह कहां जायेगा, कैसे चलेगा, क्या करेगा? और दूसरे इस दुनिया में तो साथ भी दे सकते हैं लेकिन मोक्ष के मार्ग पर परमात्मा के रास्ते में, आत्मा के रास्ते में तो अकेले जाना है, वहां कोई दूसरा साथ नहीं दे सकता। जिस व्यक्ति की दूसरों पर श्रद्धा है वह कभी वहां नहीं पहुंच सकता, जहां अकेले पहंुचने के सिवाय कोई रास्ता नहीं।
क्या कभी दो आदमी एक साथ परमात्मा के पास पहुंचे हैं ऐसा सुना है? आज तक कभी ख्याल में आया है यह कि दो आदमी इकट्ठे परमात्मा के पास पहुंच गए हों? कभी इसकी खबर सुनी कि दो आदमी इकट्ठे मोक्ष में पहुंच गए हों? कभी ऐसा सुना कि भीड़ दरवाजा खोल कर भगवान के घर में प्रविष्ट हो गई हो। इंडिविजुअल्स, एक-एक आदमी, अकेला-अकेला। दूसरे को साथ ले जाने का कोई उपाय नहीं। सच तो यह है कि जहां दूसरे साथ हैं, उसका नाम संसार है; और जहां आप बिलकुल अकेले हैं उसका नाम आत्मा है। तो रास्ता बिलकुल अलग होगा। किसी पर श्रद्धा, किसी पर विश्वास, परंपरा के ऊ पर जकड़ साथ नहीं दे सकती। परंपरा है, श्रद्धा है, विश्वास है, शास्त्र हैं, सदगुरु हैं, ये सब भार की तरह ऊ पर बैठे हैं। क्योंकि ये आपको नहीं उठने देंगे। वो आपके ऊ पर नहीं बैठे हैं, आप उनको बिठाये हुए हैं, उनकी कल्पनाओं को।
महावीर किसको बांधे हुए हैं और कब महावीर ने कहा कि तुम मुझसे बंध जाना। लेकिन हम उनको बांधे हुए हैं, हम उनसे अपने को बांधे हुए हैं। महावीर के जीवन में एक घटना है, बड़ी अदभुत है। उनका शिष्य गौतम, वर्षों तक महावीर के पास था, लेकिन उसे ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ। सबसे ज्यादा ज्ञानी वही था, सबसे बड़ा पंडित वही था। उनके पास जो भी लोग थे सबसे ज्यादा होशियार, सबसे ज्यादा बुद्धिमान, सबसे ज्यादा स्मृतिधर वही था। लेकिन उसे ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ था। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, पंडितों को कब ज्ञान उत्पन्न हुआ है? ज्ञानी बात और है। ज्ञानी का अर्थ है जिसने जाना, पंडित का अर्थ है, जिसने पढ़ा। और जानने और पढ़ने में जमीन-आसमान का अंतर है। एक आदमी प्रेम के संबंध में किताबें पढ़ ले, एक आदमी प्रेम करे और जाने इसमें अंतर होगा कि नहीं? हां प्रेम पर व्याख्यान दिलवाना हो तो पंडित जीत जाये। एक आदमी नदी में तैरे, तैरना जानता हो, और एक आदमी तैरने के संबंध में जितने शास्त्र हैं सब पढ़ ले; हां तो यह तो जरूर सच है कि अगर व्याख्यान दिलाना हो तो वह जिसने शास्त्र पढ़े हैं, वह जीत जाये लेकिन अगर नदी में नांव डूब रही हो, तब पता चले कि शास्त्र काम देते हैं कि तैरना काम देता है।
ऐसा एक बार हुआ था, वह भी मैं बताऊं फिर महावीर की बात आपको बताऊं गा। एक मल्लाह और एक पंडित नदी में यात्रा कर रहे थे। उस पंडित ने रास्ते में पूछा कि वेद-शास्त्र पढ़े हैं? उस मल्लाह ने कहा कि नहीं महाराज! मैं दरिद्र आदमी, मैं क्या वेद-शास्त्र...मैं तो कुछ पढ़ना ही नहीं जानता। पंडित ने कहाः तेरी आठ आना जिंदगी बेकार गई। और तभी जोर की हवाएं चलने लगीं और नांव डगमग होने लगी, मल्लाह ने पूछा, महाराज तैरना आता है, महाराज ने कहा, नहीं। उसने कहाः आपकी सोलह आना जिंदगी गई। अब मैं तो जाता हूंू, आप अपने वेद-शास्त्र सम्हालें।
पंडित और ज्ञानी में फर्क है। पंडित तो बड़ा था गौतम, लेकिन ज्ञान उसने नहीं मिला था। महावीर से उसने कहा, मेरे पीछे जो आये, देखता हूं आनंद से भर गये। मेरे पीछे जो आये, देखता हूं उनकी चेतना में फूल लग गये, मेरे पीछे जो आये उनकी सुगंध दूर-दूर तक फैल रही है, लेकिन मैं..? यह मुझे क्या गड़बड़ हो रही है कि मैं नहीं उपलब्ध हो पा रहा हूं, आखिर मुझे कब मुक्ति का अनुभव होगा? महावीर ने कहाः थोड़ी सी तेरे जीवन में बाधा पड़ गई है। क्या बाधा? अदभुत बात महावीर ने कही, महावीर ने कहा, तू सब तो छोड़ कर आ गया, लेकिन तूने आकर मुझे पकड़ लिया। तेरी जो मुट्ठी थी वह, जिन चीजों पर थी, धन पर थी, बच्चों पर, स्त्री पर किसी पर भी होगी, जो भी था; जिस पर तेरी मुट्ठी बंधी थी वो तूने खोली और जल्दी से फिर बंद कर ली; अब महावीर स्वामी पर मुट्ठी बांध ली। लेकिन मुट्ठी अब भी बंद है और खुली मुट्ठी चाहिए। तब तो सत्य मिल सकता है, बंधी मुट्ठी को कैसे मिलेगा। हाथ तो खुला हो। तो मुझको भी छोड़ दे। लेकिन गौतम के तो आंसू आ गये, पत्नी को तो छोड़ना बहुत आसान है, महावीर को छोड़ना बहुत कठिन। पत्नियां तो बहुत से लोग छोड़ देते हैं, लेकिन महावीर को छोड़ने की कितने लोग हिम्मत करते हैं? पत्नी बेचारी को छोड़ देना एकदम आसान बात है, गरीब औरत उसे छोड़कर भाग जाने में कोई कठिनाई है? बल्कि हो सकता है साथ में रहने में कठिनाई हो रही हो। बच्चों को छोड़ कर भाग जाना कितनी सरल बात है, कौन सी कठिनाई है? साथ रहने में भार और जिम्मेवारी है। इसलिए जितने गैर जिम्मेवार और निकम्मे लोग हैं, उन सबके लिए संन्यास का द्वार खुला है। लेकिन महावीर को, बुद्ध को, राम को, कृष्ण को छोड़ना बहुत कठिन है। क्योंकि उनके साथ सारी सिक्योरिटी जुड़ी है कि अगर महावीर को छोड़ दिया तो फिर कौन सहारा है? फिर कौन हाथ पकड़ कर बैकुंठ ले जाए, मोक्ष ले जाए? फिर कौन दीया दिखाये, अंधेरे में। सारी सुरक्षा उनके साथ जुड़ी है। वही अवतार हैं, वही कल्याणकारी हैं, उनके पैर पड़ो, वे ही आगे लगाएंगे पार। उनके साथ तो सारी कमजोरी, अकेलापन उन्हीं में सुरक्षा है, उनको छोड़ने में दिक्कत है। वह नहीं छूटता था गौतम से महावीर का भाव। आखिर से महावीर से गौतम का भाव छूटे या न छूटे, महावीर दुनिया से एक दिन छूट ही गए। महावीर एक दिन चल बसे, गौतम तो पकड़े रहा, लेकिन महावीर हवा हो गये। देह तो पड़ी रह गई, वह गांव के बाहर गया। रास्ते में लौटता था, यात्रियों ने कहा कि तुम्हें पता है, महावीर का तो मोक्ष हो गया, निर्वाण हो गया। एकदम रोने लगा, रोज समझाता था लोगों को आत्मा अमर है, उस वक्त याद न रही। एकदम रोने लगा।
पंडित रोज समझाता है आत्मा अमर है, लेकिन जब मौत सामने आती है तो कंपने लगता है। वह तो किताब में पढ़ा था कि आत्मा अमर है, वह कोई तैरना थोड़ी जानता था, तैरने के बाबत शास्त्र जानता था, वह तो घबराने लगा, गौतम रोने लगा, महावीर छोड़ दिया तो मेरा क्या होगा? उस वक्त भी उसको महावीर की चिंता नहीं आई, मेरा क्या होगा? चिंता तो अपनी थी, वही महावीर सहारा थे, और वह रोने लगा और कहने लगा कि महावीर के रहते मैं मुक्त नहीं हो सका तो अब जब महावीर नहीं रहे, तो मैं तो डूब गया। मेरी जिंदगी तो मुश्किल हो गई। फिर उसने कुछ सम्हाला अपने को और पूछा यात्रियों से, क्या महावीर ने मेरे लिए कोई अंतिम संदेश छोड़ा है? निश्चित ही उन्होंने कहा, संदेश छोड़ा है। छोटा सा संदेश है हम तो समझ ही नहीं सके, उसका अर्थ क्या है? लेकिन सुना था वहां, तुम जाओ वहां और लोग भी बता देंगे एक छोटा सा संदेश सुना था कि गौतम के लिए वे कुछ कह गये हैं। वह एकदम बोला कि जल्दी कहो कि वह क्या कह गये हैं? उन यात्रियों ने कहा कि महावीर ने कहा है, गौतम से कह देना और यह बात दुनिया भर के गौतमों से कह देने योग्य है, जहां भी जो जिसको पकड़े हुए है, वह गौतम की स्थिति में है। महावीर ने कहा है, गौतम से कह देना, तू पूरी नदी तो पार कर गया लेकिन किनारे को पकड़कर क्यों रुक गया है, इसको भी छोड़ दे। एक आदमी पूरी नदी पार कर ले और फिर किनारे को पकड़ कर रुक जाये, तो भी नदी में ही रुका रहेगा। नदी को पार करना काफी नहीं है, किनारे को भी छोड़ना जरूरी है। वह सारे संसार को छोड़ कर आया था, महावीर को किनारा समझ कर उनके पास तैरता हुआ आया, सारी नदी को छोड़ दिया, लेकिन फिर किनारे को पकड़ कर वहीं रुक गया। तो फिर भी वह नदी में पड़ा हुआ है। महावीर कह गये गौतम को कह देना, तू सारी नदी पार कर गया अब तू किनारे को भी छोड़ दे। यह भाव उसको जैसे ही स्मरण में आया, क्योंकि महावीर की मृत्यु हो गई थी; अब किनारा कहीं था भी नहीं, हवा थी। तत्क्षण जो काम महावीर की मौजूदगी में नहीं हो सका वह हो गया। जिस सुबह महावीर ने देह छोड़ी, उसी सांझ गौतम को ज्ञान उपलब्ध हो गया।
कठिन है, परंपरा को, शास्त्र को, गुरु को छोड़ना। क्यों कठिन है? भयग्रस्त मन है, छोड़ देंगे फिर पता नहीं क्या होगा? लेकिन जो नहीं छोड़ता, जो अभय को नहीं पाता, फीयरलेसनेस को नहीं लाता अपने भीतर, वह पकड़े रहे, पकड़े रहे, उसके पकड़े रहने से कोई फायदा नहीं है। उसकी पकड़न ही उसकी रुकावट हो जायेगी।
सारी दुनिया में धर्म का पतन हुआ है, धर्म का ह्रास हुआ है क्योंकि सभी लोगों ने धर्म को पकड़ लिया है, वह उनकी मुट्ठियों में बंद हो गया है, जबकि धार्मिक लोगों की मुट्ठियां खुली चाहिएं। खुली मुट्ठी, खुला मन, उन्मुक्त मन, ओपन माइंड, क्लोज्ड नहीं, बंद नहीं, तो पूछे अपने से कि क्या मेरा मन बंद है, अगर बंद है तो चोट करें उस पर, तोड़ें उसके ताले, दीवारें गिरा दें, दरवाजे मिटा दें। इतना साहस हो तो निश्चित मैं आपसे कहता हूं बहुत थोड़े ही समय में कोई भी व्यक्ति शांति को, सत्य को, परमात्मा को अनुभव कर सकता है लेकिन अगर इतना साहस न हो, जंजीरें आपके हाथ में हों, आपको कहा गया हो कि तोड़ना हो तोड़े दें, पत्थर आपके निकट हों, जिन पर जंजीरें पटकने से टूट जाएंगी, लेकिन आपको जंजीरों से प्रेम हो गया हो, बहुत दिन साथ रहने से और आप उनको संभाले रखें और फिर भी पूछते रहें कि स्वतंत्रता का रास्ता क्या है? परमात्मा का रास्ता क्या है? तो कोई भी क्या करेगा? कोई भी कुछ नहीं कर सकता है।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
एक यात्री एक पहाड़ी सराय में आकर ठहरा। पहाड़ी सराय थी, धर्मशाला थी। बड़े घने जंगल में थी, बड़े दुर्गम मार्ग पर थीं। यात्री अक्सर वहां से निकलते, शिकारी निकलते, वे वहां ठहरते। यह नया युवक भी...अपने घोड़े को सांझ उसने आकर बांधा, उस सराय में ठहरा। जैसे ही वह उस सराय में घुस रहा था, सराय के बाहर ही एक पिंजड़े में एक तोता लटका हुआ था। और वह तोता जोर-जोर से कह रहा थाः स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। बड़ा हैरान हुआ। बड़ी उसकी आवाज में, बड़ी पीड़ा थी। हैरान हुआ, किसने इसे सिखाया? उसके मालिक ने, सराय के मालिक ने उसे सिखाया था। तो स्वतंत्रता, स्वतंत्रता वह दिन भर चिल्लाता था। यह युवक भी बड़ा विद्रोही, बड़ा स्वतंत्रता प्रेमी था, अभी-अभी वह जेल से छूटा था, अपने मुल्क की लड़ाई के लिए लड़ता था। गुलामी के खिलाफ लड़ता था, एक राजनैतिक विद्रोही था। उसको यह तोता बहुत पसंद आया। अंदर गया, उसने निर्णय किया कि रात इसका पिंजड़ा खोल देंगे, इतना परेशान हो रहा हैः स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। रात जब सराय का मालिक सो गया, वह युवक गया, उसने पिंजड़ा खोला, स्वतंत्रता चिल्लाने वाले तोते को बाहर निकाला। वह चिल्लाता तो है स्वतंत्रता-स्वतंत्रता लेकिन उनके सीखचों को तोता पकड़े हुए है। वह युवक अंदर हाथ डालता है, वह तोता और अंदर सिकुड़ता है, सींखचे पकड़े हुए है और घबड़ाहट में जोर से चिल्लाता हैः स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। युवक बहुत हैरान हुआ कि यह कैसा तोता है? लेकिन फिर भी मेहनत की, किसी तरह झपटा, बेचारा छोटा सा तोता था, किसी तरह निकाल लिया, निकाल कर उसको बाहर उड़ा दिया। सोचा कि बड़ी तृप्ति से रात वह सोया। लेकिन सुबह जब उसकी नींद खुली तो देखा कि तोता अपने पिंजड़े में वापस बैठा और चिल्ला रहा हैः स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।
बस यही कहानी कहता हूं, इस पर विचार करना। इस कहानी को अपने मन में ले जाना और सोचना। चिल्ला रहे हैंः मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष; आत्मा, आत्मा, आत्मा; ईश्वर, ईश्वर, ईश्वर। पकड़े हुए हैं पिंजरे को, मैं आपको खींच भी दूं अभी इस हाल के आप बाहर हुए कि वापस आप उसी पिंजरे में बैठे हुए हैं। मैं गाड़ी में बैठकर जाऊंगा मैं देखूंगा कि आप पिंजड़े में बैठे हुए हैं, चिल्ला रहे हैंः स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। इसका कोई अर्थ नहीं है, मत चिल्लाइए, मत बकवास करिए, चुप हो जाइये; गुलामी में रहना है, गुलाम रहिए, चिल्लाहट क्यों मचा रहे हैं, क्यों मंदिर जा रहे हैं, किसलिए? क्यों खोज रहे हैं धर्म? छोड़िए, गुलामी पसंद है, गुलामी में रहिये। लेकिन अगर स्वतंत्रता का ख्याल आ गया है तो चिल्लाइये मत, गीता के श्लोक मत बकिये। मत राम-राम की रट लगाइये, मत मोक्ष-मोक्ष की बातें करिये, देखिये कहां-कहां गुलामी है, तोड़िये। जहां-जहां सींखचा मिले छोड़िए, आ जाइये बाहर, कौन किसको बंद किये हुए है। हम बंद हैं इसलिए बंद हैं। हम अपनी इच्छा से बंद हैं। कौन किसे परमात्मा से दूर किये है? हम अपने हाथ से दीवारें खड़ी किए हुए हैं। अगर सच में किसी मनुष्य के मन में अभीप्सा पैदा होती है, प्यास पैदा होती है, जानना है सत्य को, जानना है ईश्वर को, कोई रुकावट नहीं है। कभी कोई रुकावट नहीं रही है। तोड़ डालिये थोड़े-मोड़े बंधन हैं, मिटा डालिए। और उठिए स्वतंत्र होकर। जब आप स्वतंत्र होंगे, सत्य आपके पीछे आ जायेगा। जब आप सब भांति मुक्त होंगे चित्त की काराओं से आप पायेंगे मोक्ष आपके भीतर विराजमान है। कहीं कुछ दूर नहीं है, थोड़े से सींखचे हैं, सारी रुकावट उनकी है, चित्त की कुछ दीवारें, कुछ जंजीरें हैं, इन्हें तोड़ना जरूरी है। जो मनुष्य स्वतंत्र होता है, वह मनुष्य परमात्मा को पाने का अधिकार पा जाता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, जरूर आपके पिंजड़े को थोड़ा-बहुत हिला दिया हो, कोई कष्ट हुआ हो, कोई तकलीफ हुई हो, तो मुझे क्षमा करना। वैसे मेरा तो इरादा पिंजड़ा तोड़ ही देने का है, हिलाने का नहीं है। भगवान इतनी ताकत दे कि अपने-अपने पिंजड़े के हम बाहर हो सकें। स्वतंत्रता चिल्लाएं नहीं, बल्कि स्वतंत्र हो सकें इसकी कामना करता हूं। वे ही लोग धार्मिक हैं जो स्वतंत्र हैं। वे ही लोग धार्मिक हैं जो अपनी सारी परतंत्रता को तोड़ डालते हैं। वे ही लोग धार्मिक हैं जो व्यक्ति हैं। उनके ही भीतर ही आत्मा का बोध हो सकता

इन बातों को इतने प्रेम से शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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