कुल पेज दृश्य

सोमवार, 12 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

पीले प्याला हो मतवाला

सूत्र:

इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिली हरि में।
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, घन गरजन कंपै मेरी छाती।
दसवैं दारि लागि गई तारी, दूरि गवन आवन भयौ भारी।
चहुं दिसी बैठे चारि पहरिया, जागत मूसि गए मोरी नगरिया।
कहै कबीर सुनहु रे लोई, भानंड़ घड़ण संवारण सोई।
पी ले प्याला हो मतवाला, प्याला नाम अमीरस का रे।


बालपना सब खेलि गंवाया, तरुन भया नारी बस का रे।
विरध भया कबाय ने घेरा, खाट पड़ा न जाय खस का रे।
नाभि कंवल बिच है कस्तूरी, जैसे मिरग फिरे बन का रे।
बिन सतगुरु इतना दुख पाया, बैद मिला नहिं इस तनका रे।
माता पिता बंधु सुत तिरिया, संग नहीं कोइ जाय सका रे।
जब लग जीवै गुरु गुत लेगा, धन जोबन है दिन दस का रे।
चैरासी जो उबरा चाहे, छोड़ कामिन का चसका रे।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, नख-सिख पूर रहा बिस का रे।



मुरसिद नैनों बीच नबी है।
स्याह सफेद तिलों बिच तारा, अवगति अलख रबी है।
आंखी मद्धे पांखी चमके, पांखी मद्धे द्वारा।
तेहि द्वारे दुर्बीन लगावै, उतरै भवजल पारा।
सुन्न सहर में बास हमारी, तहं सरबंगी जावै।
साहिब कबीर सदा के संगी, सब्द महल ले आवै।


जिंदगी सुबह से अब शाम हुई जाती है
देर कुछ पल की बस यह श्वास रुकी जाती है।

उससे मिलना न हुआ जिससे मुझे मिलना था
यूं तो मिले खूब मगर यह भी कोई मिलना था।

गांठ जब लगती हो तो डोर टूट जाती है।
जिंदगी सुबह से अब शाम हुई जाती है।

कोई मेरा न हुआ न मैं किसी का हो सका
चक्र मेरे भाग्य का इस जगह आकर रुका।

जहां फूल तो खिलते नहीं कली बिखर जाती है
देर कुछ पल की बस यह श्वास रुकी जाती है।

किसी का दोष नहीं मैंने ही गल्ती की है
सत्य को छोड़ जो सपनों से मोहब्बत की है।

जो कभी थी ही नहीं वह दुनिया मिटी जाती है
जिंदगी सुबह से अब शाम हुई जाती है।

असंभव आस थी भरने की खुद को भर न सका
नियति शून्य है मेरी मैं यह देख न सका।

आंख में आंसू हैं मगर ओंठों पे हंसी आती है
देर कुछ पल की बस यह श्वास रुकी जाती है।
जिंदगी सुबह से अब शाम हुई जाती है।।

सुबह हुई तो शाम हो ही गई, क्योंकि प्रारंभ में ही अंत छिपा है। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। जिस दिन से पैदा हुए हो, मर रहे हो। सत्तर वर्ष लगें, अस्सी वर्ष लगें इस प्रक्रिया को पूरे होने में, वह बात अलग। लेकिन मृत्यु अचानक नहीं आती। जन्म के साथ, पहली श्वास के साथ ही उसकी पगध्वनि सुनी जाती है। आते-आते समय लग जाता है। जिसे यह बात ख्याल में आ गई कि मैं मर रहा हूं; जिसे हम जिंदगी कहते हैं वह मृत्यु की ही लंबी प्रक्रिया है..उसके जीवन में क्रांति हो जानी अवश्यंभावी है। यह भ्रांति की यह जीवन है, हमें उलझाए रखती है। जीवन समझते हैं तो लिपटते हैं। जीवन समझते हैं तो जोर से पकड़ते हैं कि हाथ से छूट न जाए। मौत दिखाई पड़ जाए, फिर कौन पागल पकड़े! मौत दिखाई पड़ जाए तो हमारी आंखें उसकी तलाश करने लगें, जो असली जीवन है।
यह जीवन जीवन नहीं है, ऐसी प्रतीति प्रगाढ़ हो तो कैसे रोक सकोगे अपने को अनंत जीवन को खोजने से? तब अमृत की तलाश शुरू होती है। पहला कदम यही है कि यह जीवन सिर्फ धोखा है, माया है। प्रतीत होता है जीवन जैसा, है क्या? हड्डी-मांस-मज्जा का ढेर है। श्वास आती है, जाती है। छाती फूलती है, सिकुड़ती है। इसे तुम जीवन कहते हो? बाहर गई श्वास भीतर न आएगी और बस जीवन समाप्त! इतना सस्ता, इतना दो कौड़ी का, इतना परवश, इतना असहाय..इसे तुम जीवन कहते हो! अगर इसे जीवन कहते हो तो फिर मृत्यु क्या है? यह देह अभी है और अभी न हो जाए। जरा सी बात इसे मिटा दे, पानी का बबूला है। सूरज की रोशनी में चमकता है। यूं लगता है जैसे इंद्रधनुष बना हो उसके चारों तरफ रंग-बिरंगा मालूम पड़ता है और जरा सी अलपिन चुभा दो और ऐसे मिट गया जैसे कभी न था! इससे भिन्न है हमारी जिंदगी कुछ? बस अलपिन चुभा दो और गई! पानी की लहर है, हवा का झोंका है।
महावीर ने ठीक कहा है: जीवन ऐसे है जैसे घास की पत्ती पर सुबह की ओस; सूरज निकलेगा, वाष्पीभूत हो जाएगी। और न भी निकले सूरज, जरा सा हवा का झोंका आ जाएगा कि पत्ती से झर जाएगी, मिट्टी में खो जाएगी।
ओस की बूंद है हमारा जीवन। मगर इसको हमने इतना मूल्य दे रखा है, इतना सजाने-संवारने में, इतनेशृंगार में लगे हैं, सब कुछ इसी पर लगा रखा है। फिर रोओगे, फिर पछताओगे।
कबीर कहते हैं: इब न रहूं माटी के घर में।
अब इस मिट्टी के घर में न रहूंगा। रह चुके बहुत। जन्मों-जन्मों से रह रहे हो। कबीर तो घोषणा कर रहे हैं परमात्मा के सामने..इब न रहूं माटी के घर में..अब हो गया बहुत। आखिर नासमझी की भी एक सीमा होती है। अब नहीं रहूंगा इस मिट्टी के घर में। मिट्टी ही तो है। इधर श्वास गई, उधर लोगों ने अरथी उठाई। इधर श्वास गई, उधर लोग गड्ढा खोदने लगे। मिट्टी मिट्टी में मिल ही जाएगी। और मिट्टी के लिए कितना शोरगुल था! कितने उपद्रव थे! कितने राग-रंग थे! मिट्टी के लिए कितनों को सताया, कितनों को मिटाया! मिट्टी ने न मालूम कैसे-कैसे सपने देखे! सारे संसार की विजय-यात्रा करनी चाही। सारे संसार की संपदा इकट्ठी करनी चाही। पद और प्रतिष्ठा के तमगे लगाना चाहे। और भूल ही गई मिट्टी कि बस मिट्टी है! देर नहीं लगेगी गिरने में। सब धन-संपत्ति पड़ी रह जाएगी। सब विजय-यात्रा विषाद में बदल जाएगी।
कबीर को दिख गई यह बात! तुम्हें भी दिखनी चाहिए। बहुत हो गया समय! संकोच करो अब, थोड़ी लाज भी करो, थोड़े शर्माओ भी।
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिलि हरि में।
कबीर कहते हैं: अब तो इस मिट्टी के घर में नहीं रहना। अब तो हरि में मिलूंगा, अब तो चैतन्य में निवास करूंगा, अब तो सच्चिदानंद में डूबूंगा। बहुत हो गए खिलौनों से खेल। अब तो सत्य को पकड़ूंगा। अब नहीं और सपने; नहीं अब बनानी हैं और कामनाएं और तृष्णाएं और वासनाएं। अब सब मिटा दूंगा ये मिट्टी के घर-घूले। ये रेत में बनाए महल सब गिरा दूंगा। ये कागज की नावें सब डुबा दूंगा। अब तो जो है और सदा है, और सदा रहता है, उससे ही नाता जोड़ूंगा, उससे ही सेतु बनाऊंगा। उसका ही नाम हरि है। हरि कोई व्यक्ति नहीं है। इस भ्रांति में मत रहना कि राम कहीं कोई व्यक्ति है कि जो तुम्हें मिलेगा और कहेगा कि ‘आइए, विराजिए, पधारिए, कि भले आए, बहुत दिन से प्रतीक्षा करता था, कि बड़े सौभाग्य हमारे, कि पलक-पांवड़े बिछाए बैठा था।
हरि कोई व्यक्ति नहीं है। ईश्वर के संबंध में व्यक्ति की धारणा बिल्कुल छोड़ दो। भगवान व्यक्ति नहीं है, भगवत्ता है; चैतन्य, सत्य, आनंद..ऐसे गुणों का स्मरण करो। यह सारा जगत उसमें व्याप्त है। फूल-फूल पर उसकी छाप है। पत्ते-पत्ते पर उसके हस्ताक्षर हैं। मगर व्यक्ति की तलाश बंद कर दो, नहीं तो वह तुम्हें कभी मिलेगा नहीं। अब कोई चला धनुर्धारी राम को खोजने। अब कहां मिलेंगे धनुर्धारी राम? कोई चला बांसुरी बजाने वाले कृष्ण को खोजने। कहां मिलेंगे बांसुरी बजाने वाले कृष्ण? तुम्हारे मन की कल्पना है। तुम चाहो तो कल्पना को इतना साकार कर ले सकते हो कि खुली आंखों सपना दिखाई पड़ने लगे। मगर सपना चाहे बंद आंख देखो, चाहे खुली आंख; चाहे रात का हो सपना, चाहे दिवस का..सपना सपना है। और सपना चाहे संसार का हो और चाहे स्वर्ग का..सपना सपना है। परमात्मा को व्यक्ति की तरह देखने के कारण ही करोड़ों-करोड़ों लोग उससे वंचित हैं, क्योंकि मौलिक रूप से ही उनकी खोज गलत शुरू हो जाती है।
परमात्मा व्यक्ति नहीं है, एक भाव है..अहोभाव है।
परमात्मा व्यक्ति नहीं है..प्रार्थना की परम स्थिति है।
परमात्मा व्यक्ति नहीं है..ध्यान में उतरी हुई धन्यता है।
परमात्मा व्यक्ति नहीं है..शून्य है। निर्विचार, निर्विकल्प समाधि है।
कबीर कहते हैं: इब न रहंु माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिली हरि में। अब तो मिलना है मुझे भगवत्ता में। अब इस छोटे से घर से काम न चलेगा। अब तो सारे विश्व को, विराट को अपना घर बनाऊंगा। अब बंधा न रहूंगा सीमा में। अब तो असीम के साथ भांवरें डालनी हैं। अब तो विवाह रचाना है।
कबीर और जगह कहते हैं: मैं तो राम की दुल्हनियां। ये प्रतीक हैं। अगर भांवरें ही डालनी हों तो शाश्वत के साथ डालो। क्षणभंगुर के साथ भांवरें डालोगे, पछताओगे। अगर आश्वासन ही लेना है, देना है, तो शाश्वत को दो, लो। क्षणभंगुर को आश्वासन दोगे-लोगे, टूटेंगे आश्वासन। खुद का ही भरोसा नहीं है कि कल हम होंगे या नहीं और कल के हम आश्वासन देते हैं।
सुनी है मैंने यह कथा; महाभारत की है। युधिष्ठिर सुबह-सुबह बैठे हैं। अज्ञातवास के दिनों की बात है। एक भिखमंगा द्वार पर दस्तक दिया है। युधिष्ठिर कुछ काम में लगे हैं। कहा कि कल आ जाना। भीम ने सुना, उठाया नगाड़ा, बजाता नगाड़ा बाहर की तरफ भागा। युधिष्ठिर ने पूछा: कहां जाते हो? उसने कहा: गांव में खबर कर दूं कि मेरे भाई ने समय पर विजय पा ली है। एक भिखमंगे को कहा है कि कल भिक्षा दूंगा। समय पर विजय पा ले, वही कह सकता है कल भिक्षा दूंगा। कल का क्या भरोसा, कल हो या न हो! एक पल का तो भरोसा नहीं है। अभी हो, अभी मिट जाओ। और तुम कल तक का आश्वासन दे रहे हो।
युधिष्ठिर को बात समझ में आई। दौड़े, भिखमंगे को पकड़ा और कहा: भैया, तू भिक्षा ले जा। अभी ले जा, क्योंकि जो करना है वह अभी। कल पर टालना तो तभी हो सकता है जब हमें भरोसा हो कि कल हम भी होंगे।
चीन की एक पुरानी कथा है। एक सम्राट अपने वजीर पर नाराज हो गया। उसने उसे मृत्यु का दंड दे दिया। लेकिन नियम था उस साम्राज्य का कि जब किसी का मृत्यु दंड हो तो एक दिन पहले सम्राट स्वयं मिलने आता था। फिर यह तो उसका खुद वजीर था और इस वजीर ने बड़ी सेवाएं की थीं। लेकिन कोई बात पर नाराज हो गया था। और क्रोध में दंड दे दिया था। ऐसे मन ही मन पछताया भी था पीछे, लेकिन अब लौटना तो हो ही नहीं सकता। थूका चाटा नहीं जा सकता। तो आया वजीर को मिलने, अपना घोड़ा बांधा कारागृह के बाहर, सींखचों के भीतर वजीर बंद है। ताला खुला, सम्राट भीतर आया। वजीर से कहा: कुछ भी मांगना हो तो मांग लो। तुमने मेरी बहुत सेवाएं कीं। यद्यपि तुम्हारी भूल के कारण मुझे दंड देना पड़ा, लेकिन मेरे मन में पछतावा है। पर अब कुछ भी हो नहीं सकता।
सम्राट यह कह ही रहा था कि वजीर दहाड़ मार कर रोने लगा। सम्राट ने कहा: तुम और रोते हो! तुम जैसा शूरवीर मैंने नहीं देखा। मैंने तुम्हें युद्ध के मैदानों पर नंगी तलवारों में घिरे देखा है। तुम्हारी आंख में मैंने कभी आंसू नहीं देखे। तुम और मौत से डरो, यह तो मैं सोच भी नहीं सकता था!
वजीर ने कहा: मौत से कौन डर रहा है मालिक, मैं किसी और बात के लिए रो रहा हूं।
सम्राट ने पूछा: वह कौन सी बात है, मैं पूरी करूंगा।
वजीर ने कहा कि नहीं आप पूरी न कर सकेंगे। कोई भी पूरी न कर सकेगा वह बात ही कुछ ऐसी है।
जिद्द की सम्राट ने तो उसने कहा: आप कहते हैं तो कह देता हूं आप जिस घोड़े को लेकर आए हैं उसके कारण रो रहा हूं।
सम्राट ने कहा: पागल हो गए हो! घोड़े के लिए क्यों रोओगे?
वजीर ने कहा कि जीवन भर इस जाति के घोड़े की मैं तलाश करता रहा, क्योंकि मैंने बारह वर्ष अपने जीवन के इसी साधना में लगाए थे। एक सदगुरु के पास बैठ कर मैंने घोड़ों को आकाश में उड़ाने की कला सीखी थी, मगर एक खास जाति का घोड़ा ही उड़ने में समर्थ हो सकता है, और आज जब मरने की घड़ी है और केवल चैबीस घंटे मेरे हाथ में बचे हैं, तब यह घोड़ा मुझे दिखाई पड़ा। जिंदगी भर इसकी तलाश करता था। इसलिए रो रहा हूं कि यह भी खूब मजाक रही, खूब विडंबना हुई! बारह साल मैंने खर्च किए थे..बड़ी आशा में कि घोड़ों को उड़ा कर दुनिया में एक चमत्कार पैदा कर दूंगा। और अब आप आए हैं इस घोड़े पर बैठ कर। मरते वक्त मुझे और पीड़ा देने आए हैं। मृत्यु से नहीं रो रहा हूं मालिक, इस घोड़े को देख कर रो रहा हूं।
सम्राट के मन में वासना जगी कि काश मेरे पास उड़ने वाला घोड़ा हो, जो दुनिया में किसी सम्राट के पास नहीं है। उसने कहा: कितना समय लगेगा घोड़े को उड़ना सीखने? वजीर ने कहा: एक वर्ष। सम्राट ने कहा: तो एक वर्ष के लिए तुम बाहर आ जाओ। अगर घोड़ा उड़ना सीख गया तो न केवल तुम्हारा मृत्यु दंड रद्द, मैं अपनी बेटी से तुम्हारा विवाह करूंगा, आधा साम्राज्य भी तुम्हें दूंगा। और अगर घोड़ा उड़ना नहीं सीखा तो कोई हर्ज नहीं है। साल भर के बाद मौत हो जाएगी। मैं इसमें कुछ गंवा नहीं रहा हूं।
वजीर घोड़े पर बैठ कर अपने घर लौटा। पत्नी, बच्चे रो रहे थे। क्योंकि आज आखिरी दिन था। पति को घर आए देख कर, पत्नी ने पूछा: आप और कैसे लौट आए, क्या चमत्कार घटा? पति हंसने लगा, उसने कहा कि ऐसी-ऐसी घटना घटी। सम्राट को मैंने कहा कि एक साल में घोड़े को उड़ना सिखा दूंगा। इसलिए एक साल तो बचा।
पत्नी ने कहा कि यह तुमने क्या किया, और मुश्किल डाल दी। मुझे भलीभांति पता है, तुमने ऐसी कोई कला कभी सीखी नहीं। तुम झूठ बोले हो। और झूठ ही बोलना था तो कम से कम दस-पांच साल तो मांगते। एक साल तो यूं गूजर जाएगा...और यह एक साल हमारी छाती पर पत्थर की चट्टान की तरह रहेगा, गर्दन पर तलवार लटकी रहेगी। अब गया एक दिन, और एक दिन गया और मौत फिर खड़ी है सामने। इससे तो मर जाना ही बेहतर था। यह एक साल तो हमारे लिए, सबके लिए मृत्यु सिर पर खड़ी रहेगी। यह तो और भारी पड़ जाएगा। यह तुमने क्या किया?
उस वजीर ने कहा: नासमझ, तुझे जिंदगी का कुछ हिसाब पता है? अरे साल भर में क्या नहीं हो सकता। घोड़ा तो नहीं उड़ेगा, यह पक्का है। मगर और बहुत कुछ हो सकता है। राजा मर सकता है, मैं मर सकता हूं। कम से कम घोड़ा तो मर ही सकता है।
और जो घटना घटी वह बहुत हैरानी की है। राजा ही नहीं मरा, घोड़ा ही नहीं मरा, वजीर भी मर गया। तीनों मर गए, साल भर में तीनों समाप्त हो गए।
जिंदगी बिल्कुल पानी की धार है। और हम पानी की धार में पैर को अड़ा कर सारी ताकत लगा कर खड़े हैं। जो कोई नहीं कर सका वह हम करने की कोशिश कर रहे हैं। जीत लेंगे जैसे। जैसे अपने को अपवाद सिद्ध कर देंगे।
कबीर कहते हैं: इब न रहूं माटी के घर में।
अब नहीं। बहुत हो चुका। सीमा होती है। अब सीमा के बाहर की बात हो गई।
इस ‘इब’ शब्द पर ध्यान देना। इब न रहूं...क्योंकि जब भी क्रांति घटित होती है तो अब में ही घटित होती है। कबीर यह नहीं कह रहे हैं कि कल बदलूंगा, परसों बदलूंगा, अगले वर्ष, कि जब बुढ़ापा आएगा तब संन्यास ले लूंगा। कबीर टाल नहीं रहे हैं। कबीर का वचन बहुत अदभुत है: इब न रहूं! बस अभी, इसी क्षण! इस देह में अब नहीं रहना है।
देह में नहीं रहने का क्या अर्थ है? क्या आत्महत्या कर लेनी है? क्या गर्दन काट लेनी है? क्या पहाड़ से कूद जाना है? क्या फांसी लगा लेनी है? नहीं; इब न रहूं माटी के घर में, इसका अर्थ है अब और अपने को इस माटी के घर के साथ तादात्म्य नहीं कर सकता। अब नहीं कह सकता हूं कि मैं देह हूं। अब कहना चाहता हूं कि मैं सच्चिदानंद हूं, अनलहक हूं, अहं ब्रह्मास्मि! अब यह उदघोष करना चाहता हूं। बहुत दिन माटी से जुड़ा रहा। अब वह जोड़ तोड़ देना चाहता हूं।
इधर माटी से जोड़ तोड़ो, उधर अमृत से जोड़ बन जाता है। दोनों जोड़ साथ नहीं रह सकते। हाथ से मिट्टी गिर जाए, अमृत से हाथ भर जाते हैं। जब तक हाथ मिट्टी से भरे हैं, अमृत के लिए अवकाश नहीं, स्थान नहीं।
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिली हरि में।
अब इसी क्षण हरि में मिलूंगा! ...इस वचन के बाद भी कबीरदास बहुत वर्षों तक जिंदा रहे। इसलिए हरि में मिलने का अर्थ ऐसा नहीं है कि कोई मरने के बाद ही हरि में मिलता है। हरि का और मरने से क्या लेना-देना! अभी घटना घट सकती है..और अभी ही घटना घट सकती है! कल पर टाला तो सदा को टाला। जिसने कहा कल, उसने असल में यह कहा: ‘कभी नहीं!’
कल कभी आता है? कल कभी आया है! जो आता है वह तो आज है। सदा आज है। परमात्मा तो सिर्फ एक ही समय जानता है। न बीता कल जानता है, न आने वाल कल जानता है। परमात्मा तो सिर्फ आज को ही पहचानता है। ‘आज’ भी कहना ठीक नहीं, आज भी बड़ी बात हो गई। परमात्मा भी बस, ‘अब’ को ही पहचानता है। यह क्षण, यह क्षण की प्रगाढ़ता, यह क्षण जो तुम्हें घेरे हुए है। यह धड़कती हुई छाती, यह श्वास का आना-जाना। यह दूर ट्रेन की आवाज, यह पक्षियों की चहचहाहट। यह क्षण..अपनी समग्रता में। बस इस क्षण के बाहर और कोई समय नहीं। बीता कल तुम्हारी स्मृति में है। आने वाला कल तुम्हारी कल्पना में है। न बीते कल का कोई अस्तित्व है, न आने वाले कल का कोई अस्तित्व है। अस्तित्व है तो बस, अब का। और अब से भी छोटा लगता है कबीर का शब्द..‘इब।’ इब और भी प्यारा है।
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिली हरि में।

ओ! मेरी श्वासों में उलझे
मेरी उलझन सुलझा दे रे!

यह उर में कैसी, उथल-पुथल
तन आज शिथिल, मन आज विकल,
निर्जीव उंगलियां तारों पर,
स्वर-लहरी में भारी हलचल।

भूले अतीत रागों को गायक
फिर वीणा पर गा दे रे!

मैंने फूलों का उर झांका,
कांटों-कांटों में भरमाई,
मैं जलधि-उर्मियों पर नाची,
मैं चट्टानों से टकराई।

तू पार, न तुझको छू पाई
मुझको ही पार लगा ले रे!

यह घोषणा परमात्मा से क्यों कर रहे हैं वे? इसलिए कि हमारी सामथ्र्य के बाहर है, कि हम परमात्मा के साथ एक हो जाएं। हम तो केवल प्रार्थना कर सकते हैं। हम तो पुकार दे सकते हैं।

तू पार, न तुझको छू पाई
मुझको ही पार लगा ले रे!

तू है बहुत दूर; हाथ हमारे बहुत छोटे, बहुत बौने। तू है आकाश में चमकते तारे जैसा; हम हाथ भी बढ़ाते हैं तो तुझ तक कहां पहंुच पाते हैं! हां, तू चाहे तो तेरे हाथ तो कहीं भी पहंुच सकते हैं। तेरी किरणें तो किसी भी हृदय के अंधकार को तोड़ सकती हैं।

ओ! मेरी श्वासों में उलझे
मेरी उलझन सुलझा दे रे!

हमारे लिए तो तू दूर है, लेकिन तू तो...तेरे लिए हम दूर नहीं हैं, क्योंकि तू हमारी श्वासों में उलझा है। हमें पता नहीं इसलिए दूर है। हमें पहचान नहीं, इसलिए दूर है। तुझे तो पहचान है, तुझे तो पता है!

ओ! मेरी श्वासों में उलझे
मेरी उलझन सुलझा दे रे!

तू चाहे तो अभी सुलझ जाए बात। तू चाहे और बात न हो, तो हम क्या करें? हम सिर्फ पुकार दे सकते हैं। हम अपने समग्र प्राणों से तुझे पुकार सकते हैं। हम रोएं-रोएं से पुकार सकते हैं। हमारा कण-कण आवाहन दे सकता है, रो सकता है।
वही कबीर कह रहे हैं: इब न रहूं माटी के घर में। मेरी तरफ से तुझसे कहे देता हूं, मेरी तरफ से कोई बाधा नहीं डालूंगा। तू कुछ कर, तोड़ दे मेरा तादात्म्य। मिटा दे मेरी भ्रांतियां। हिला और जगा दे मुझे। यह नींद और ये नींद के दुःस्वप्न बहुत झेल लिए।
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिली हरि में।
अब तो बस तुझमें मिलने की आकांक्षा है, मगर मेरे बस के बाहर की आकांक्षा कर रहा हूं। तू है विराट, हम हैं क्षुद्र। तू है सागर, हम हैं बूंद। बूंद सागर को तलाश करने भी जाएगी, बहुत संभावना है रास्तों में कहीं भटक जाए, खो जाए, मरुस्थलों में डूब जाए। लेकिन अगर सागर बूंद को खोजने आए तो जरूर खोज लेगा। फिर बूंद को सागर का कुछ पता भी तो नहीं, जाए तो किस दिशा में जाए? सागर का कोई नाम-धाम भी तो हो, सागर की कोई पहली पहचान भी तो हो। सागर सामने भी आ जाएगा तो बूंद कैसे पहचानेगी कि यही सागर है? पहचान के लिए भी तो कोई पुराना परिचय चाहिए। हां, सागर पहचान लेगा, क्योंकि बूंद सागर की है।

ओ! मेरी श्वासों में उलझे
मेरी उलझन सुलझा दे रे!

यह उर में कैसी, उथल-पुथल
तन आज शिथिल, मन आज विकल,
निर्जीव उंगलियां तारों पर,
स्वर-लहरी में भारी हलचल।

मैं तो इतना ही निवेदन कर सकता हूं कि मेरे हृदय में एक उथल-पुथल मची है, एक क्रांति उठी है, एक ज्वाला जगी है।

यह उर में कैसी, उथल-पुथल
तन आज शिथिल, मन आज विकल,

और यह जो भी हो रहा है, आज हो रहा है, अभी हो रहा है।

मन आज विकल, तन आज शिथिल,
निर्जीव अंगुलियां तारों पर,
स्वरलहरी में भारी हलचल।

और मेरी अंगुलियां तो निर्जीव हैं, मैं तो मिट्टी ही हूं। तू छू दे तो जीवन मिले। तेरा स्पर्श आए तो मिट्टी सोना हो जाए। मैं तो जो छूता हूं वही मिट्टी सिद्ध होता है। सोना छूता हूं तो मिट्टी हो जाती है। तेरा दिव्य स्पर्श चाहिए, तेरा संस्पर्श चाहिए..तो क्रांति घट सकती है।
कबीर सिर्फ उदघोषणा कर रहे हैं।
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, ...
अपना निवेदन किए देते हैं। कहते हैं कि मैं अपनी पहचान तुझे बता दूं, ताकि तू मुझे खोजे तो कुछ अड़चन न हो। तू तो कुछ कहता नहीं, कहां है! तू तो बुलाता नहीं। तू तो द्वार पर दस्तक देता नहीं। मैं ही तुझे अपना पता-ठिकाना बताए देता हूं।
छिनहर घर..टूटा-फूटा घर है यह। जहां टूटे-फूटे घर को देख लेना, समझना कि मैं ही हूं।
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, ...
टूटा-फूटा घर है, जर्जर टाटी है। बस माटी ही माटी है।
...घन गरजन कंपै मेरी छाती।
और मौत चारों तरफ घनघोर गरज रही है और मेरी छाती कंप रही है।
कबीर का वचन बड़ा प्यारा है। कबीर यह ही नहीं कह रहे हैं कि यह मेरे साथ ही हो रहा है। जहां भी ऐसा हो रहा हो वहीं तू समझना कि यही अड़चन है, यही रोग है, यही बीमारी है। और तू ही निदान है और तू ही उपचार है!
कबीर अपने परिचय में हम सबका परिचय दे रहे हैं। कबीर अपने संबंध में कह कर हम सबके संबंध में कह रहे हैं।
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, घन गरजन कंपै मेरी छाती।

मुस्कान के इरादे अश्कों में ढल गए
आए बहार बनके खिजां बनके ढल गए।

सारे जहां को रोशन कर सकते जिस शमां से
झुलसा दिया गुलशन को और खुद भी जल गए।

हकीकत न जान पाए गम और खुशी की हम
थे गुल गले लगाए कांटों में छल गए।
डूबे कभी यादों में खोए कभी ख्वाबों में
दो कलों में आज के बरबाद पल गए।
नजरें तो टिकी हुई थीं चांद और सितारों पर
खुद अपने ही आंगन की जमीं पर फिसल गए।
दूर-दूर खोजा करतीं जिन्हें निगाहें
अफसोस बहुत पास से मेरे निकल गए।
मालूम ये न चल सका कब मौत आ गई
यूं हौले-हौले हाथों से बरसों निकल गए।
किस्मत को दोष दें या गफलत को अपनी यारो
कई मंसूर और रूमी इसी जहां में सम्हल गए।
हम आए बहार बनके खिजां बनके ढल गए।।

यह हम सबकी कहानी है। हम आते तो हैं बहार बन कर और पतझड़ बनकर विदा हो जाते हैं। आते हैं तो हम बड़ी रौनक से, बड़ी शान से। हर बच्चा वसंत की तरह आता है और हर बूढ़ा पतझड़ की तरह जाता है। आते तो हैं बड़े ख्यालों से, बड़ी अभिलाषाओं से। आते तो हैं बड़े अकड़े हुए, बड़े अरमानों से भरे हुए। आते तो हैं न मालूम कितनी-कितनी इच्छाएं पूरी करने..और जाते हैं हाथ में केवल जीवन का विषाद, विफलता, रिक्तता लिए।
एक स्कूल में एक अध्यापक जीवन के सत्य को ही समझा रहा था। समझाने के बाद उसने बच्चों से पूछा, कि वह कौन है कि जो आता है तो सिंह की तरह गरजता हुआ आता है और जाता है तो कुत्ते की तरह दुम दबा कर जाता है।
एक छोटे बच्चे ने कहा: मेरे पिता जी! उसने देखा होगा बेचारे ने। बच्चे देखते रहते हैं। बच्चे काफी सावधान होते हैं। चित्त ताजा होता है अभी; दर्पण पर प्रतिबिंब ठीक-ठीक बनते हैं। सोच-विचार भला ज्यादा न हो, लेकिन दृष्टि अभी निर्मल होती है। देखता होगा रोज पिताजी आते तो हैं बड़े अकड़े हुए और जब घर से जाते हैं कुट-पिट कर, तो बिल्कुल पूंछ दबाए हुए चले जाते हैं।
लेकिन जीवन की भी ऐसी ही दशा है। आते हैं सभी सिंह की तरह गरजते हुए। तुमने भी कितने सपने पाले थे! अब कहां हैं वे सपने? उनकी धूल भी न बची। तुमने भी कितने अरमान नहीं संजोए थे, अब कहां हैं वे सारे अरमान? एक-एक गिरते गए। राह क्या चलते गए, अरमान उजड़ते गए। धीरे-धीरे विषाद का तिक्त स्वाद ही मुंह में रह जाता है। मरते समय हाथ बिल्कुल खाली होते हैं और मरते वक्त एक गहन उदासी होती है। वह मृत्यु की नहीं होती। मरते वक्त जब तुम किसी को देखते हो तो यह कभी मत सोचना कि वह मरने से डरने के कारण इतना परेशान हो रहा है। नहीं; वह परेशान इसलिए हो रहा है कि जीवन यूं ही चला गया। मौत तो सिर्फ अब इतना कह रही है कि अब और जीवन नहीं है और तुमने जो गंवा दिया अब उसको लौटा लेने का कोई उपाय नहीं। गए दिन, गए; अब आ नहीं सकते। जो अतीत हुआ, व्यतीत हुआ, अब उसे फिर नहीं पाया जा सकता।
और कैसी-कैसी बातों में गंवा दिए दिन, कैसे-कैसे खेल थे, कैसी-कैसी बचकानी बातें थीं! लड़ाई थे, झगड़े थे, द्वंद्व थे। ईष्र्या थी, वैमनस्य था, लोभ था, मोह था। किन-किन चीजों पर बर्बाद कर दिया जीवन के अमूल्य अवसर को! इस सारे अवसर को तुम सेतु बना सकते थे परमात्मा से मिलने का।
कबीर कहते हैं: अब मैं सजग हो गया। अब और धोखा नहीं खाऊंगा। अब तो तय कर लिया है।
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाई रहूं मिली हरि में।
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, घन गरजन कंपै मेरी छाती।
दसवैं दारि लागि गई तारी, दूरि गवन आवन भयौ भारी।
और कबीर कहते हैं: जब से यह निर्णय हुआ, जैसे ही यह निर्णय हुआ, कि दसवें द्वार पर ध्यान चढ़ गया। कबीर ने दस सीढ़ियां मानी हैं..परमात्म-विकास की, आत्म-यात्रा की, अंतर्यात्रा की। दसवीं आखिरी सीढ़ी है, जिसके पार फिर महाशून्य है, जहां से छलांग लगती है। वह सीमा-रेखा है..सीमांत, सरहद..जहां से मनुष्य सीमा तोड़ देता है और असीम के साथ एक होता है। वह दसवां द्वार। जिसको योगियों ने ‘सहस्रार’ कहा है, कवियों ने और-और नाम दिए हैं, ऋषियों ने सप्तम द्वार कहा है..उसको ही कबीर दसवां द्वार कहते हैं।
भीतर के जगत को अनेक तरह से बांटा जा सकता है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है। इसमें विवाद भी मत समझना, इसमें कुछ विरोध भी नहीं है। इस च्वांगत्सु-भवन को तुम कितने ही हिस्सों में बांट सकते हो, कई तरह से बांट सकते हो। खंबों के हिसाब से बांट सकते हो तो एक तरह के खंड होंगे। खंबों की बिल्कुल फिकर ही मत करो, भूमि के हिसाब से बांट सकते हो। तब और तरह के खंड हो जाएंगे। रहेगा यही भवन।
सब खंड कृत्रिम हैं; उनका उपयोग है, उपादेयता है उनकी, लेकिन उनका कोई सत्य नहीं है। लेकिन कुछ मूढ़ इन्हीं बातों में बहुत उलझे रहते हैं कि कबीर कहते हैं दस द्वार; योगी कहते हैं सात..सत्य कौन? सिर्फ मूढ़ ही इस तरह की चर्चाओं में पड़ते हैं। मेरे पास एक सज्जन आए। मैं आगरा में मेहमान था। उस इलाके में एक खास संप्रदाय का काफी प्रचार है: राधास्वामी संप्रदाय। तो उन्होंने मुझसे कहा कि चैदह खंड होते हैं। राधास्वामी संप्रदाय के हिसाब से चैदह खंड होते हैं। कोई अड़चन नहीं, चैदह खंडों में बांट सकते हो। मगर जिस अकड़ से उन्होंने कहा, जिस मूढ़ता से उन्होंने कहा, वे यह कह रहे थे कि कबीर के दस द्वार ठीक नहीं..चैदह। योगियों के सात तो बिल्कुल गलत हैं..चैदह!
वे नक्शा भी लाए थे अपने साथ जिसमें चैदह खंड बताए गए हैं। आखिरी खंड-सच्च खंड! और उस नक्शे पर उन्होंने यह भी दिखाया हुआ था, ठीक-ठीक तो मुझे याद नहीं, लेकिन नक्शे पर यह भी दिखाया हुआ था कि महावीर पांचवें खंड तक पहंुचे, क्योंकि उन्होंने पांच की ही बात की। पतंजलि सातवें तक पहंुचे, क्योंकि उन्होंने सात की ही बात की। कबीर दस तक पहंुचे, क्योंकि उन्होंने दस की बात की। और मोहम्मद, जीसस कोई तीसरे पर अटका है, कोई चैथे पर अटका है। ऐसा पूरा सब नक्शा था, कौन कहां अटका है। सिर्फ उनके गुरु..राधास्वामी संप्रदाय के चलाने वाले..वे चैदहवें तक पहंुचे..सच्च खंड तक! उन्होंने चैदह की बात की।
मैंने उनसे कहा कि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो; मैं तुम्हारे गुरु को जानता हूं, वे चैदहवें पर अटके हैं। असली में होते अट्ठाइस हैं। उन्होंने कहा: क्या कहते हैं? मैंने कहा: मैं अट्ठाइस तक पहंुचा, इसलिए अट्ठाइस होते हैं। तुम्हारे गुरु को मैं देख रहा हूं, चैदहवें पर अटके हैं। चिल्ला रहे हैं..उबारो! अब मेरा अट्ठाइस से चैदहवां इतना दूर है कि उबारूं भी कैसे! मैं उनसे कहता हूं: थोड़े और चढ़ो।
उन्होंने तो बड़ी गंभीरता से लिया। वे दूसरे दिन और पांच-सात लोगों को लेकर आ गए कि आपने तो हमें बहुत दुविधा में डाल दिया है..अट्ठाइस! मैंने कहा: तुम पागल हो, मैं मजाक कर रहा था! मजाक इसलिए कर रहा था कि तुम्हारी मूढ़ता भरा नक्शा देख कर मैं हैरान हुआ। कहीं बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद, कबीर, इनको तुम ऊपर-नीचे रख सकते हो! सीमा के जो बाहर गया, फिर उसको ऊपर-नीचे रखने का कोई उपाय नहीं। गंगा गिर गई सागर में और एक गंदा नाला भी गिर गया सागर में; अब भी तुम यही चिल्लाए चले जाओगे कि गंगा का जल पवित्र और गंदे नाले का जल पवित्र नहीं? अब कहां गंगा और कहां गंदा नाला! जब सागर में दोनों मिल गए, दोनों ने अपने तट छोड़ दिए, दोनों अपनी सीमा के पार हो गए...। गंदा नाला और गंगा भी एक हो जाते हैं सागर में। और तुम्हारे सागर में अभी कबीर और महावीर और बुद्ध जैसी गंगाएं भी एक नहीं हो पाए, क्या खाक सागर है! वहां भी कंपार्टमेंट, दीवालें उठा रखी हैं, खंड बांट रखे हैं! यह कोई सागर न हुआ।
और परमात्मा सागर से भी विराट है, क्योंकि सागर की भी सीमा होती है। उसकी तो कोई सीमा नहीं। सब विभाजन मनुष्यों तक हैं। जैसे ही हम मनुष्यता के पार उठे...मन के पार गए कि मनुष्य के पार गए। ‘मनुष्य’ शब्द ख्याल रखना, मन से बना है।
दुनिया में दो ही तरह के शब्द हैं मनुष्य के लिए, दोनों बड़े अर्थपूर्ण हैं। एक तो है आदमी, जो ‘आदम’ से बना है। आदम का अर्थ होता है: मिट्टी। वह आदमी का एक पहलू है। अगर बाहर से देखो तो आदमी मिट्टी। इसलिए वह शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। उर्दू, अरबी, परसियन उन सब में जो शब्द हैं वे ‘आदम’ से बने हैं। वे आदमी के एक पहलू की खबर देते हैं..उसके बाहर के रूप की, मिट्टी के। इब न रहूं माटी के घर में! वे माटी के घर की खबर देते हैं, ‘आदमी’..वह शब्द महत्वपूर्ण है। और दूसरा शब्द है ‘मन’ उससे बना ‘मनुष्य’; उससे ही अंग्रेजी का बना..‘मैन।’ वह मन को ही अंग्रेजी में लिखने का ढंग है।
बस दुनिया की भाषाओं में दो ही तरह के शब्द हैं..एक अदम से बना है और एक मन से। मन का अर्थ है..मनुष्य के भीतर की जो सोच-विचार की क्षमता है, वह जो ऊहापोह है, उससे मनुष्य बना। ये दो मनुष्य के पहलू हैं: बाहर मिट्टी; भीतर विचार। और एक मनुष्य का अतिक्रमण है, जहां न मिट्टी है, न विचार है, जहां दोनों के पार है। उसको ही हम आत्मा कहते हैं, परमात्मा कहते हैं। जहां मिट्टी भी छूट गई और विचार भी छूट गए। जहां न बाहर का घर रहा न भीतर का घर रहा। मन भीतर का घर है; तन बाहर का घर है। न जहां मन है न तन, वहां फिर कोई सीमा नहीं, वहां तुम पूरे आकाश हो! उस आकाश में कौन पीछे कौन आगे!
कबीर का यह दसवां द्वार एक और अर्थ में भी महत्वपूर्ण है। जैसे मैंने आदमी और मनुष्य के संबंध में कहा, ऐसे ही यह दस शब्द का आंकड़ा भी कबीर का बहुत महत्वपूर्ण है। अगर बाहर से परमात्मा के संबंध में सोचो तो वह एक है; जैसा कि अद्वैतवादी कहते हैं, कि वह दो नहीं, एक। शंकराचार्य कहते हैं: वह एक है। एक को कहने का उनका ढंग है कि वह दो नहीं, अद्वय है, अद्वैत है। यह दार्शनिक प्रक्रिया है परमात्मा के संबंध में..विचार की। लेकिन बुद्ध इससे राजी नहीं। बुद्ध कहते हैं: वह शून्य है। यह परमात्मा को भीतर से देखने और भीतर से कहने का ढंग है।
पहला ढंग है दार्शनिक का; दूसरा ढंग है रहस्यवादी का। पहला ढंग है विचारक का; दूसरा ढंग है द्रष्टा का। दर्शनशास्त्र कहेगा: एक है परमात्मा। रहस्यवादी दीवाने, मस्त फकीर कहेंगे: शून्य है। एक और शून्य से मिल कर बनता है दस। कबीर ने दोनों चुन लिए। कबीर ने कहा कि कोई झगड़ा नहीं। विचार की तरफ से कहो तो एक है; बाहर से देखो तो एक है; भीतर से देखो तो शून्य है। हम दोनों को चुन लेते हैं। हम कहते हैं: दस है। और दसवां द्वार समाधि की अवस्था है। समाधि की अवस्था का अर्थ होता है, जहां सारी समस्याओं का समाधान हो गया। जहां कोई व्याकुलता न रही, कोई संताप न रहा, कोई चिंता न रही; कोई भय न रहा, कोई लोभ न रहा, कोई अहंकार न रहा। जब ऐसी परम अवस्था में तुम्हारी डुबकी लगती है, उसका नाम है तारी।
कभी-कभी संगीत को सुनते समय तुम जागे भी होते हो और जागे नहीं भी होते, ऐसी हालत बन जाती है। अगर तुमने मधुर संगीत सुना है, संगीत में तुम्हें रस है, अगर कभी किसी वीणावादक के साथ तुम डूब गए हो तो तुम्हें अनुभव होगा तारी का, तारी एक बड़ी अनूठी अवस्था है। तारी का अर्थ होता है..न सोए, न जागे; मध्य में खड़े। एक अर्थ में जागे, एक अर्थ में सोए। इस अर्थ में सोए कि जितना आदमी सोई अवस्था में विश्राम में होता है उतने ही तुम विश्राम में हो। इसलिए गहन संगीत को सुन कर वैसी ही ताजगी आ जाएगी जैसी गहरी निद्रा के बाद आती है। जैसे डुबकी लग गई। एक रसमय-विभोर हो गए। ताजे निकलोगे, पुनरुज्जीवित, नये-नये! जैसे गहरी नींद के बाद सुबह उठते हो। तुम्हारी पलकें उतनी ही ताजी होती हैं जितने गुलाब के फूल की कलियां, पंखुड़ियां। तुम्हारी आंखें उतनी ही ताजी होती हैं जैसे आकाश के तारे। तुम्हारे चेहरे पर वही ताजगी होती है जो ओस की होती है। ऐसा ही गहरे संगीत को सुन कर भी घट जाएगा। लेकिन तुम सो नहीं गए थे; तुम जागे भी थे। सच तो यह है कि तुम इतने जागे थे जितने तुम साधारणतः कभी जागे नहीं होते, क्योंकि साधारणतः तुम्हारे मन में हजार विचार चलते हैं, भागे-भागे होते हो..यह आया, वह गया...। कोई अंत ही नहीं आता; सिलसिला जारी ही रहता है। मन के रास्ते पर विचारों का आंदोलन चलता ही रहता है। तुम विचारों से घिरे ही रहते हो। जैसे राजनेताओं का घेराव हो जाता है न, ऐसा तुम्हारा घेराव चैबीस घंटे रहता है। तुम्हारे भीतर नारेबाजी चलती ही रहती है..झंडा ऊंचा रहे हमारा! तुम्हारे भीतर चिल्ल-पों मची ही रहती है। तुम्हारे भीतर खींचा-तानी होती ही रहती है। अगर तुम अपने भीतर गौर से देख लो तो तुम्हें पार्लियामेंट का पूरा दृश्य दिखाई पड़ जाए।
पार्लियामेंट को हमने हिंदी में अनुवाद किया है..‘संसद।’ बड़ी भूल हो गई। कभी न कभी इस शब्द को बदलना पड़ेगा। संसद शब्द का अर्थ होता है: साथ बैठना जिन्हें आता हो। हद हो गई! कम से कम हमारी संसद तो संसद है ही नहीं। साथ बैठना, अरे साथ खड़े होना भी नहीं आता। लत्तम-लत्ता, जूता-जूती..इसका नाम संसद। कम से कम इस शब्द को तो भ्रष्ट न करते। इन शब्दों के कुछ अर्थ थे। ऐसा ही अर्थ होता है सभ्य का। सभ्य का अर्थ होता है: जिसे सभा में बैठने का ढंग आता हो। संसद का अर्थ होता है: जो साथ बैठ सके। संसद का ठीक वही अर्थ होता है, जो सदगुरु की मौजूदगी में सत्संग का होता है। और सांसद का अर्थ होता है: जो जानता है कला साथ होने की, संवाद की। मगर कहां संवाद, गाली-गलौज होती है! सामान फेंका जाता है, कुर्सियां उठ जाती हैं। हर रोज रिकॅार्ड पर से चीजें कटवानी पड़ती हैं, क्योंकि ऐसे शब्द बोल जाते हैं सांसद, जो रिकॅार्ड में नहीं लिखे जा सकते। मैं-मैं, तू-तू ही नहीं होती; मां-बहनों की गाली भी हो जाती है। रिकार्ड पर कहां रखो उनको! आने वाली सदियां क्या कहेंगी कि यह क्या मामला था! रोज रिकॅार्ड से कटवाना पड़ता है, कि इतना हिस्सा छोड़ दो। आदमी रखने पड़ते हैं वहां, क्योंकि कुछ सांसद तो ऐसे बिफर जाते हैं, ऐसी उछल-कूद मचा देते हैं, उनको पकड़ कर बाहर निकालना पड़ता है। यह संसद न हुई, कोई पागलखाना हुआ। साथ बैठने का ढंग...!
तुम अपने मन को गौर से देखो, तो तुम वहां खींचा-तानी देखोगे। दो विचारों को साथ बैठने का ढंग नहीं आता। विचार बड़े राजनीतिज्ञ होते हैं। कोई किसी की टांग खींच रहा है, कोई किसी की पूंछ खींच रहा है। कोई किसी की शेरवानी ले भागा।
तुम अगर थोड़ी देर के लिए शांत बैठ कर अपने विचारों को देखो, तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि इन विचारों के कारण ही बाहर के जगत में इतना उपद्रव है, क्योंकि यही विचार तुम्हारा निर्माण करते हैं, यही विचार औरों का निर्माण करते हैं। इनकी ही कलह बाहर के युद्ध बन जाती है। इनकी ही कलह बाहर फैल जाती है। अगर किसी तरह तुम्हारी खोपड़ी में खिड़कियां बनाई जा सकें और उन खिड़कियों में से झांका जाए तो जो दर्शन होगा, जो दिखाई पड़ेगा..जो देख लेगा वही चैंकेगा। अभी तो कोई नहीं देख सकता, यही भला है। लेकिन तुम तो देख ही सकते हो। मगर तुम भी कभी शांत बैठ कर देखते नहीं कि क्या तुम्हारे भीतर चल रहा है। शायद इसी डर से नहीं देखते कि कौन देख कर और झंझट मोल ले, और चिंता बढ़ाए।
कभी बैठ कर दस मिनट एक कागज पर जो भी तुम्हारे मन में चलता हो लिख लेना..बिना संपादन किए। फिर पीछे जला देना, किसी को दिखाने की जरूरत नहीं। दरवाजे में ताला लगा कर और लिख कर और फिर जला देना। इस में डर की कोई जरूरत नहीं। संशोधन मत करना, संपादन मत करना, जोड़ना मत, हटाना मत..जैसा आए! तुम बड़े हैरान होओगे, क्या-क्या बातें तुम्हारे भीतर चल रही हैं और कहां-कहां से शुरू हो जाती हैं! मोहल्ले में एक कुत्ता भौंक गया, तुम्हें सुनाई पड़ गया, बस चल पड़ा एक सिलसिला। कुत्ते ने चला दिया! तुम भी कैसी चीजों के शिकार हो! कुत्ता भौंका, तुम्हारे भीतर एक सिलसिला शुरू हो गया। तुम्हें याद आ गई एक स्त्री जिससे तुम्हारा प्रेम था, जिसके पास कुत्ता था। अब कुत्ता तो एक तरफ रहा, अब वह स्त्री आ गई। अब उस स्त्री के साथ जो-जो बीता...और क्या नहीं बीता! जो भी दुर्दिन बीत सकते थे, सब बीते। और उसको ही सोचते-सोचते और कुछ आ जाएगा। चल पड़ा सिलसिला। अब तुम जिंदगी भर सोचते रह सकते हो। एक कुत्ता बटन दबा गया और कुत्ते को पता ही नहीं था कि उसने बटन दबा दिया। वह अनजाने में ही दबा गया और तुम चल पड़े। जब तुम घंटे भर बाद लौट कर सोचोगे कि अरे, कहां से शुरू हुई यह यात्रा और कहां पहंुच गई; यह मेरे भीतर क्या चलता रहता है..तो तुम बहुत हैरान होओगे! एक विक्षिप्तता है, एक पागलपन है। यह तुम्हारा मन है।
मन हमेशा ही पागल है। देह मिट्टी है, मन पागल है। इन दोनों का तुम जोड़ हो। आदमी और मनुष्य यह तुम हो अभी और जाना है दोनों के पार।
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिली हरि में।
दोनों बातें कह रहे हैं कबीर कि अब मुझे आदमी भी नहीं होना और अब मुझे मनुष्य भी नहीं रहना; अब तो मुझे हरि हो जाना है..अनलहक, अहं ब्रह्मास्मि! अब तो मुझे उसमें अपनी सारी सीमाएं डुबा देनी हैं। अब तो मुझे चैतन्य-रूप हो जाना है। अब तो मुझे सिर्फ साक्षी हो जाना है।
तुम्हारे भीतर एक तीसरा तत्व भी है, जो साक्षी है, जो देखता है..देह को, मन को..बस उसके साथ एक हो जाना है। वही साक्षी परमात्मा की किरण है तुम्हारे भीतर। उसी साक्षी को पकड़ लो, तो उसी धागे को पकड़ कर तुम परमात्मा के सूरज तक पहंुच जाओगे। और जब दसवें द्वार पर पहुंचते हो तो तारी लग जाती है। देह का पता नहीं रहता, मन का पता नहीं रहता। सोए हो कि जागे हो, यह भी पता नहीं रहता। नींद जैसा विश्राम और जागरण जैसी ताजगी; दोनों साथ-साथ होती हैं। उसका नाम तारी है। तारी बड़ी अदभुत दशा है!
संगीत में कभी-कभी शायद तुम्हें अनुभव हो जाए या प्रकृति के किसी सौंदर्य को देखते समय..सूर्यास्त को या हिमालय पर होती हुई सुबह को, हिमालय के बर्फ से ढके शुभ्र-शिखरों पर, सूरज की गिरती हुई किरणें और जैसे स्वर्ण बिखर गया हो, उसे देख कर; कि रात आकाश तारों से भरी हो और उन आकाश के तारों की अनंत रहस्यमयता में तुम डूब गए हो..तो शायद कभी-कभी तुम्हें तारी का छोटा सा क्षण भर का अनुभव हो। मगर वह क्षण भर का होगा, क्योंकि आकस्मिक है; तुमने उसकी कोई भूमिका निर्मित नहीं की है; तुमने उसकी कोई पात्रता अर्जित नहीं की है।
योगी को वही अनुभव पात्रता से होता है। वह अपने पात्र को साफ करता है। अपने मन को शांत करता है। अपने विचारों से अपने को मुक्त करता है। साक्षी में लीन होता है! धीरे-धीरे, धीरे-धीरे एक ऐसी घड़ी आ जाती है कि उसके भीतर सन्नाटा छा जाता है। तब सूर्यास्त उसके भीतर होने लगते हैं, सूर्योदय उसके भीतर होने लगते हैं। जब चांद-तारे उसके भीतर उगने लगते हैं, तब सारा आकाश उसके भीतर होने लगता है, डोलने लगता है। तब सारा ब्रह्मांड उसके भीतर खड़ा हो जाता है। तब वह भीतर के सौंदर्य को देख कर विस्मयविमुग्ध हो जाता है। वह अवस्था है तारी की। कल उसी को कबीर ने कहा था..खुमारी; आज कहते हैं..तारी दोनों का एक ही अर्थ है।
दसवैं दारि लगि गई तारी, दूरि गवन आवन भयौ भारी।
कबीर कहते हैं: यह इतनी ऊंची बात है कि उससे लौटना मुश्किल हो जाता है, उससे वापस आना मुश्किल हो जाता है।
रामकृष्ण को जब तारी लग जाती थी तो कभी-कभी छह घंटे, कभी आठ घंटे, एक बार तो छह दिन तक लगी रही। शिष्य बड़ी मुश्किल में पड़ जाते थे। उनके शरीर की रक्षा करनी पड़ती, देखभाल करनी पड़ती। वे किसी और लोक में ही खो जाते। भूल ही जाते तन-मन की सुध-बुध! कहीं और ही उनकी सुधि हो जाती, किसी और आयाम में उनका प्रवेश हो जाता। और जब भी वे वापस लौटते तो रोते कि मुझे फिर क्यों वापस भेज दिया, वापस बुला लो, वापस लौटा लो, अब यहां मन नहीं लगता! यह मेरा देश नहीं। इस परदेश में मुझे फिर क्यों भेज दिया? शिष्य तो प्रसन्न होते कि रामकृष्ण परमहंसदेव वापस लौट आए और परमहंसदेव रोते। उनकी तारी टूट गई, उनकी समाधि टूट गई।
दूर गवन आवन भयौ भारी।
कबीर कहते हैं: इतने दूर निकल गया था, दसवें द्वार पर कि लौटना मुश्किल हो जाता है, आना बहुत मुश्किल हो जाता है। और आ भी जाओ, तो भी तुम फिर वही नहीं होते जो तुम गए थे तब थे। जिसने परमात्मा की झलक पा ली, वह रूपांतरित हो जाता है। जिसने उसकी जरा सी भी अनुकंपा पा ली, जिसने दो बूंदाबांदी भी अपने ऊपर उसके अमृत की पा ली, फिर वह वही नहीं रह जाता जो था..आदमी नहीं रह जाता, मनुष्य नहीं रह जाता। वह भगवान ही हो जाता है..भगवत्ता में लीन हो गया।
चहंु दिसी बैठे चारि पहरिया, जागत मूसि गए मोरी नगरिया।
और कबीर कहते हैं: जब तक यह न हो जाए तब तक सावधान रहना, होशियार रहना; क्योंकि चारों तरफ भी तुम अगर पहरेदार बिठा दो और पहरेदार जागे भी रहें, तो भी मौत आएगी और तुम्हें लूट कर ले जाएगी। सिर्फ समाधि में ही एक ऐसा धन मिलता है, जिसको कोई लूट नहीं सकता।
कहै कबीर सुनहु रे लोई...
‘लोई’ कबीर की पत्नी का नाम है। अपनी पत्नी को संबोधन करते हुए कह रहे हैं: कहै कबीर सुनहु रे लोई, भांनड़ घड़ण संवारण सोई। वह जो तोड़ने वाला है, जोड़ने वाला है, वही सम्हालने वाला भी है। इतने अदभुत सूत्र कहने के बाद कबीर यह याद दिलाते हैं लोई को, क्योंकि हो सकता है लोई के मन में सवाल उठा हो कि अब मैं क्या करूं? अब कैसे इस दसवें द्वार को पाऊं?
स्वभावतः जब कोई ऐसी अनिर्वचनीय घटना का संकेत देने लगेगा और तुम्हारे ओठों में उसका स्वाद धीरे-धीरे उतरने लगेगा और तुम्हारे कानों में उस संगीत की पहली-पहली दूर की ध्वनि सुनाई पड़ने लगेगी..जैसे दूर, बहुत दूर कोई कोयल बोले..तो स्वभावतः सवाल उठेगा: कैसे इसे पाएं? हम तो पाने की ही भाषा जानते हैं। कैसे पाएं? क्या करें? हम तो करने और पाने की दुनिया में उलझे हुए हैं। देखा होगा कबीर ने कि जब वे यह बातें कह रहे थे कि..
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिली हरि में।
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, घन गरजन कंपै मेरी छाती।
दसवैं दारि लागि गई तारी, दूरि गवन आवन भयौ भारी।
चहंु दिसी बैठे चारि पहरिया, जागत मूसि गए मोरी नगरिया।
इन अदभुत वचनों को सुन कर लोई बैठी-बैठी सोचने लगी होगी। सदगुरु उन्हीं प्रश्नों के उत्तर नहीं देते जो तुम पूछते हो; उनके भी उत्तर देते हैं, जो तुम कभी नहीं पूछते; उनके भी उत्तर देते हैं जो तुम पूछना चाहते हो, लेकिन पूछ नहीं पाते; उनके भी उत्तर देते हैं जो तुम्हारे अचेतन में पड़े हैं और तुम्हारे मन में चेतन भी नहीं हो पाते। देखा होगा लोई की तरफ। देखा होगा कि लोई के मन में आकांक्षा जगी है..कैसे पाऊं इस दशम द्वार को? कैसे यह समाधि भी मेरी हो? कैसे अमृत को पा लूं? तत्क्षण उत्तर आ गया।
कहै कबीर सुनहु रे लोई, ...
..कि ऐ लोई, सुन। इन भ्रांति के शब्दों में मत खो जा, इन भ्रांति की आकांक्षाओं में मत डूब जा, सुन!
...भांनड़ घड़ण संवारण सोई।
वह जो तोड़ने-जोड़ने वाला है, वही सम्हालने वाला भी है। तुझे कुछ करना नहीं है; सिर्फ अपने को उस पर छोड़ दे। होनी होय सो होय। फिर उसे जो करना है वह करेगा।

वह रवि कहता है, ‘पगली इसका है कहां किनारा?
इस ‘उद्य-अस्त’ में मेरा बीता है जीवन सारा।

मैं उठता-गिरता फिरता इस पथ में मारा-मारा।
पर फल न मिला है कुछ भी, हो भी कुछ ‘कूल-किनारा!’

‘मैं’ नित्य जहां से चलता आ जाता वहीं ‘सवेरे।’
ऐसे ही व्यर्थ गगन में देता रहता हूं फेरे।

पा जाता पार क्षितिज का पर पुनः क्षितिज आ जाता।
‘अवसान’ जिसे कहते हैं है वही ‘उदय’ कहलाता।

जिसके ‘वियोग’ की मेरे प्राणों में जलती ज्वाला,
क्या जग में जनमा कोई उसका ‘पथ’ पाने वाला।

जब ‘एकाकार’ बनेंगे घुल-मिल कर ‘सांझ-सवेरे’,
जिस दिवस शांत होगी यह ‘ज्वाला’ अंतर की मेरे,

जब होगा शून्य जगत सब अपना अस्तित्व मिटा कर,
तब अपने आप मिलेंगे सब उस ‘अनंत’ में जाकर।

है वही ‘मुक्त’ कर सकता जिसने जग-जाल बिछाया।
यह वही मिटा सकता है जिसने यह खेल बनाया।

जिसकी इच्छा की विस्तृत सागर भी, एक लहर है,
उस छवि के दर्शन पाने लोचन पाना दुस्तर है।

कितना ही ऊंचा कोई चढ़ जाए इस अंबर में।
वह उसे गिरा देता है अवनी पर फिर पल भर में।

कितनी ‘नौकाएं’ निशि-दिन ‘सागर’ पर बहती रहतीं,
उन से ‘विनाश’ की गाथा आ-आ कर लहरें कहतीं।

तू अपनी जर्जर ‘नौका’ क्यों खेती व्यर्थ अकेली,
जब सुलझाने वाला है अंत ‘अनंत’ पहेली।

इस अपनी टूटी-फूटी नौका को लेकर उस अनंत सागर में उतरना, आकांक्षाओं से भरे..यह कर लूंगा, वह कर लूंगा; ऐसा कर लूंगा, वैसा कर लूंगा..सब नासमझी है। छोड़ो उस पर।
मनुष्य एक ही काम कर सकता है..एक ही काम करने योग्य है: छोड़ दे। कह दे कि राजी हूं तेरी रजा से, कि तेरी मर्जी मेरी मर्जी! कि अब तुझसे भिन्न नहीं हूं। अब तू जहां चलाएगा, चलूंगा और जो तू कराएगा, करूंगा। जिस दिन ऐसा समर्पण घटित होता है, उसी दिन क्रांति हो जाती है; उसी क्षण मिल गए हरि में। अगर तुमने कहा कि ऐसा होना चाहिए, तो तुम अभी अपने संकल्प को अलग किए हो। और संकल्प अलग है तो तुम अलग हो। संकल्प का अलग होना अहंकार का अलग होना है।
छोड़ो सब संकल्प, छोड़ो सब विकल्प, छोड़ो अहंकार। कह दो उससे, कर जो तुझे करना हो, मैं हर हाल में राजी हूं! और फिर देखो, जो तुम कर नहीं पाए जन्मों-जन्मों में, वह क्षण में हो जाता है।
पी ले प्याला हो मतवाला, प्याला नाम अमीरस का रे।
और तब फिर पीने ही पीने को है। मधुशाला के द्वार खुल जाते हैं। जिसने सब छोड़ दिया, समर्पण किया...समर्पण ही संन्यास है...उसके लिए मधुशाला के द्वार खुल गए।
पी ले प्याला हो मतवाला..फिर पीओ जितना पीना हो। ...प्याला नाम अमीरस का रे..फिर उस परमात्मा के नाम का अमृत-रस पीओ।
बालपना सब खेलि गंवाया, ...
बचपन तो खेलने में बीत गया।
...तरुन भया नारी बस का रे।
और युवा हुए तो नये खेल सीख लिए। स्त्री हुए तो पुरुषों के साथ खेल चला; पुरुष हुए तो स्त्रियों के साथ खेल चला। वे भी नये खेल हैं। जवानी के खेल हैं। खिलौने जरा बड़े हैं। कुछ बहुत फासला नहीं, कुछ बहुत भेद नहीं। बचपन में गुड्डे-गुड्डियों से खेलते थे। बड़े हो गए, असली आदमी..स्त्रियों से खेलने लगे; मगर खेल वही है।
विरध भया कफ-बाय ने घेरा, खाट पड़ा न जाय खस का रे।
फिर बूढ़े हो गए, फिर हजार बीमारियों ने घेर लिया, खाट पर पड़े रहे। खाट से खसकना भी मुश्किल हो गया।
ऐसे जिंदगी गंवाते हैं अधिकतम लोग। और जब कि मजा यह है..कबीर कहते हैं: नाभि कंवल बिच है कस्तूरी, ...और तुम्हारे ही नाभि-कमल के भीतर कस्तूरी छिपी है, परम धन छिपा है। ...जैसे मिरग फिरे बन का रे। जैसे मृग खोजता फिरता है कस्तूरी को, जंगल में भटकता फिरता है, क्योंकि गंध उसे मालूम होती है..और गंध उसके भीतर से ही उठती है। तुम जिसे खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। धन खोज रहे हो; धन तुम्हारे भीतर छिपा है।
और जिसे तुम धन कहते हो, यह कोई धन है? यह धन तो क्षण भर में मिट्टी हो जाता है। अभी कुछ दिन पहले हजार रुपये के नोट चलते थे, धन थे। फिर हजार रुपये का नोट बंद हो गया, फिर वह धन नहीं रहा; फिर लोगों ने उसकी सिगरेट बना कर पी ली और किसी ने उस पर अपना नाश्ता बिछा कर कर लिया। जिसको कल तक ऐसा सम्हाल कर रखा था, लोगों ने रास्तों पर फेंक दिया। क्या करोगे, कागज का टुकड़ा हो गया! कागज का टुकड़ा कल भी था, अब भी वही है; कुछ भेद नहीं पड़ा। लेकिन बस मान्यता की बात थी। मान्यता थी तो धन था। आज मान्यता नहीं है तो धन नहीं है।
तुम जिस चीज में अपनी मान्यता चिपका देते हो, वही धन मालूम होने लगता है। जिस चीज में से मान्यता हट जाती है, वही व्यर्थ हो गया। सब खेल मन का है, मान्यता का है। लेकिन भीतर एक ऐसा धन है जो मान्यता का नहीं है..जो वस्तुतः धन है। और उसे पा लेते ही व्यक्ति धनी हो जाता है, सम्राट हो जाता है।
और भीतर एक ऐसा पद है, जिसे कोई नहीं छीन सकता। अब देखते हो मोरारजी भाई देसाई को..पड़े चारों खाने चित! कोई जीवन-जल पिलाने वाला भी नहीं मिलता। पद का कोई मूल्य है? आज हो पद पर तो छाती फुला कर बैठ जाओ। कल पद पर नहीं रह जाओगे, दो कोड़ी की कीमत हो जाएगी। कीमत पद की थी, तुम्हारी थी नहीं। लेकिन भीतर एक पद है, जिसको कोई भी नहीं छीन सकता। वह पद दसवें द्वार का है, समाधि का है।
हमने तो समाधि को ही पद कहा है। परमात्मा को जिसने पाया, उसी ने पद पाया; बाकी तो सब बकवास है।
ऐसे जिंदगी मत गंवाना तुम जैसे आम लोग गंवा देते हैं। बचपन यूं गया खेल-खिलौनों में, फिर जवानी गई आपा-धापी में..धन-दौलत, पत्नी, बच्चे; फिर बुढ़ापा बीमारी में, रोग में। और फिर आई मौत।
बिन सदगुरु इतना दुख पाया, ...
कबीर कहते हैं: बिना सदगुरु के इतना दुख पाया।
...बैद मिला नहिं इस तन का रे।
यह जो भीतर की बीमारी थी, इसका कोई वैद्य नहीं मिला, जब तक कि सदगुरु नहीं मिला। बाहर की बीमारियों के लिए तो बहुत चिकित्सक मिल गए; लेकिन यह जो भीतर की बीमारी थी, जो घुन की तरह खाए जाती थी, यह जो रोग था बेहोशी का, यह जो मूच्र्छा थी, इसको मिटाने वाला तब मिला जब गुरु मिला।
बिन सतगुरु इतना दुख पाया, बैद मिला नहिं इस तन का रे।
माता-पिता बंधु सुत तिरिया, संग नहीं कोइ जाय सका रे।
कोई साथ नहीं जाएगा। इस जगत के सब संगी-साथी बस मन के भुलावे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। तो उसने नसरुद्दीन को कहा कि नसरुद्दीन, एक वचन दे दो। मैं जानती हूं कि मेरे मरते ही तुम ज्यादा दिन अविवाहित न रह सकोगे। तुम विवाह करोगे ही।
नसरुद्दीन ने कहा: कभी नहीं! तुझे देखने के बाद तुझ जैसा अब कोई दिखाई नहीं पड़ता। कौन है तेरे जैसा सुंदर, कौन है तेरे जैसा सौम्य! अब तो जिंदगी भर रोऊंगा, तड़फूंगा तेरे लिए। अगले जन्म में मिलने की आकांक्षा और प्रार्थना और परमात्मा से मांग करूंगा। वही सब बातें कहीं जो कि पत्नियां मरती हैं तो पति कहते हैं; पति मरते हैं तो पत्नियां कहती हैं। लेकिन पत्नियां इतनी आसानी से इस तरह की बातें मानती नहीं।
पत्नी ने कहा: तुम छोड़ो ये बातें। मेरी घड़ी दो घड़ी की श्वास है, एक बात का वचन दे दो कि मेरे जो कपड़े हैं वे तुम चाहे शादी कर लेना, मगर मेरे कपड़े और मेरे गहने तुम्हारी आने वाली पत्नी न पहने। उससे मेरी आत्मा को बड़ा दुख होगा।
पत्नियां भी बड़ी अजीब होती हैं। जिंदा में ही ईष्र्या नहीं, मरने के बाद भी ईष्र्या..कि तुम्हारी पत्नी न पहने मेरे कपड़े-लत्ते। नहीं तो मेरी आत्मा को बड़ा दुख होगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: तू फिकर ही मत कर। वैसे भी फातिमा को तेरे कपड़े आएंगे नहीं। अभी-अभी कह रहा था कि तुझे देखा तो फिर कोई देखने जैसा न रहा; अब वे भूल ही गए! और मरने के बाद की बात ही अलग है! मामला तय ही है। रास्ता ही देख रहे हैं कि कब मरे। इधर वह मरी नहीं कि उधर उनका विवाह हुआ नहीं। एक अर्थ में विवाह वे कर ही बैठे हैं, सब तैयारी चल रही है।
डाक्टर आया था देखने पत्नी को तो डाक्टर ने नसरुद्दीन से कहा कि हालत बहुत खराब है, दुख की बात है, दो-तीन घंटे से ज्यादा नहीं जीएगी।
नसरुद्दीन ने कहा कि आप दुख न करें, अरे तीस साल जब सहा तो तीन घंटे और सह लेंगे। आप नाहक दुख न करें!
यहां कौन अपना है? यहां कोई अपना नहीं, यहां सब बातें हैं। कसमें हैं, वायदे हैं; मगर सब बातें हैं। और बातों में हम खूब उलझ जाते हैं। हम कागज के फूलों में भी अटक जाते हैं। हम झूठे-झूठे संुदर शब्दों में भी खो जाते हैं।
माता-पिता बंधु सुत तिरिया, संग नहीं कोइ जाय सका रे।
जब लग जीवै गुरु गुत लेगा, धन जीवन है दिन दस का रे।
कबीर कहते हैं कि धन हो, यौवन हो..बस दस दिन की बात है। आया नहीं कि गया नहीं..पता भी नहीं चलेगा कि कब आया और कब गया। लेकिन एक संबंध इस जगत में है, जो शाश्वत है। पूरब ही उस संबंध को खोज पाया। पश्चिम अब नया-नया उस खोज में संलग्न हुआ है। अगर हमने दुनिया को कोई देन दी है, अगर कोई दान है पूरब का सारी दुनिया को, तो वह शिष्य और गुरु के संबंध का दान है। दुनिया में वैसा कोई संबंध और जगह नहीं होता। माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी सब जगह होते हैं; मगर शिष्य और गुरु का संबंध बिल्कुल पूर्वीय घटना है। पश्चिम में होता है विद्यार्थी और शिक्षक का संबंध; वह बड़ी अलग बात है। उसका कोई संबंध गुरु और शिष्य से नहीं है। गुरु और शिष्य तो बड़ी और बात है।
गुरु का अर्थ है: जो तुम्हारे अंधेरे को तोड़ दे। और शिष्य का अर्थ है कि गुरु को अंधेरे को तोड़ लेने दे, राजी रहे; क्योंकि अंधेरा तोड़ना कोई सस्ता काम नहीं। तुम्हें खंड-खंड करना होगा। तुम्हारे सारे न्यस्त स्वार्थ अस्त-व्यस्त हो जाएंगे। तुम्हारे भीतर क्रांति घटित होगी। तुम्हें अतीत से विच्छिन्न करना होगा। तुम्हारे भविष्य को नष्ट करना होगा, ताकि न बचे अतीत, न भविष्य; तुम वर्तमान के ही हो जाओ।
गुरु तो आग की तरह है; मृत्यु की तरह है। गुरु में मरना होगा, ताकि तुम्हारा पुनरुज्जीवन हो सके। गुरु तो आग है जिसमें जलना होगा, ताकि शुद्ध स्वर्ण की तरह तुम बच पाओ। यह तो समर्पण का, प्रेम का, श्रद्धा का आत्यंतिक रूप है। यह संबंध भर एक ऐसा है जो भौतिक नहीं है, शारीरिक नहीं है, जैविक नहीं है; जिसके लिए कोई तुम्हारे शरीर के रसायन में जगह नहीं है।
स्त्री-पुरुष में आकर्षण है; वह तो शारीरिक रसायन का आकर्षण है। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि इंजेक्शन लगाने से ही फर्क हो जाता है। अगर तुम्हारा पति तुममें उत्सुक न हो, उसका मतलब इतना ही है कि उसमें पुरुष हार्मोन कम हो गए; इंजेक्शन दिलवा दो। पुरुष हार्मोन के इंजेक्शन दिलवाते ही से वह तुम में उत्सुकता लेने लगेगा, स्त्री में उत्सुकता लेने लगेगा। यह उत्सुकता उसकी नहीं है; यह बेचारा भ्रांति में है। यह तो इंजेक्शन से जो हार्मोन चले गए हैं उसके खून में, वे उसको तड़फड़ा रहे हैं, वे उसको परेशान कर रहे हैं। स्त्री को हार्मोन दिलवा दो तो स्त्री उत्सुक हो जाएगी पुरुषों में। हार्मोन अलग कर लो तो बदलाहट हो जाती है। अब तो स्त्री को भी पुरुष बनाया जा सकता है, पुरुष को स्त्री बनाया जा सकता है..हार्मोन इतने बदले जा सकते हैं।
तो यह तो खेल रसायनशास्त्र का हुआ। इसमें कुछ अध्यात्म नहीं है। इसमें तो पशु में और तुममें कोई भेद नहीं है।
मनुष्य-जाति के जितने और संबंध हैं, वे सभी साधारण हैं, प्राकृतिक हैं। सिर्फ गुरु और शिष्य का संबंध अनूठा है, जिसका प्रकृति में कोई स्थान नहीं है; जिसको मनोवैज्ञानिक नहीं समझा सकता; जिसको भौतिकशास्त्री नहीं समझा सकता; जिसको रसायनशास्त्री नहीं समझा सकता। शिष्य को काटो कितना ही, तुम उसमें कहीं भी ऐसा रसायन न पाओगे जिससे गुरु और उसके संबंध का पता चले। हां, अगर पुरुष है तो स्त्री के प्रति आकर्षण का कारण मिल जाएगा। अगर बाप है तो बेटे के प्रति आकर्षण का कारण मिल जाएगा। अगर मां है तो बेटे के प्रति आकर्षण का कारण मिल जाएगा। लेकिन शिष्य और गुरु का संबंध बिल्कुल ही अभौतिक है। और चूंकि अभौतिक है, इसलिए मृत्यु भी इसे नष्ट नहीं कर सकती। यह शाश्वत है।
कबीर ठीक कहते हैं: जब लग जीवै गुरु गुत लेना।
जब तक जीवन रहेगा, तब तक यह संबंध रहेगा। और जीवन तो सदा है: यह आत्मा का संबंध है। कुछ संबंध शरीर के होते हैं, कुछ संबंध मन के होते हैं। आत्मा का एक ही संबंध है। शरीर के संबंध शरीर की बदलाहट के साथ बदलते जाते हैं। जवानी में जिसको प्रेम किया था, उसको बुढ़ापे में तुम वैसा ही थोड़े प्रेम कर पाओगे। जवानी ही न रही, वह जोश ही न रहा; वह जैविकता ही बदल गई।
एक पति-पत्नी अपने विवाह की पचासवीं वर्ष-गांठ मना रहे थे तो उन्होंने तय किया...पत्नी ने ही सुझाव दिया। पत्नियां इन मामलों में बहुत होशियार हैं! सुझाव दिया कि हम उसी होटल में चलें जहां हनीमून के लिए गए थे..महाबलेश्वर चलें।
पति ने कहा: ठंड के दिन, वैसे ही मैं सर्दी-जुकाम से परेशान रहता हूं। मगर पत्नी कहां सुने, तो कहा: ठीक है। गए महाबलेश्वर। उसी कमरे में ठहरे, उसी होटल में। वही भोजन किया। वह भोजन भी नहीं पचा। शाम को ही डाक्टर को बुलाना पड़ा। पचास साल पहले जो भोजन किया था, अब उसको पचाने की सामथ्र्य भी तो चाहिए। मगर पत्नी भी जिद पर अड़ी थी। जब दोनों सोने लगे, पत्नी ने कहा: अरे ऐसे ही सो जाओगे क्या? कम से कम चंुबन तो लो। पति ने कहा: चलो ठीक है, यह भी सही। अब महाबलेश्वर तक आ गए, अपाच्य हो गया; चलो यह भी सही। अब जो-जो झेलना है सो झेल ही लो। क्या पता था, नहीं तो हनीमून ही न करते। अगर पहले ही पता होता कि इतनी मुसीबतें पीछे आएंगी...। और एकदम पति उठा बिस्तर से और जाने लगा कहीं। पत्नी ने कहा: अरे कहां जा रहे? तो कहा कि दांत तो ले आने दे बाई! चुंबन क्या खाक लें! दांत तो बाथरूम में रख आया हूं। अपने दांतों की सफाई करके...बड़ी देर लग गई खटर-पटर करते। पत्नी ने कहा: क्या कर रहे हो? कहा कि दांत साफ तो कर लूं और लगे हाथ तेरे भी साफ कर दिए।
जवानी जवानी थी; अब बुढ़ापे में उसकी कोई सार्थकता नहीं रह गई, कोई अर्थ नहीं रह गया।
जो बचपन में सार्थक था वह जवानी में सार्थक नहीं रह जाता। बच्चे लिए फिरते हैं, अपने खिलौनों को छाती से लगाए फिरते हैं और फिर एक दिन व्यर्थ हो जाते हैं खिलौने। कोने-कातरों में पड़े कहां खो जाते हैं पता ही नहीं चलता। जिन खिलौनों के बिना सो भी नहीं सकते थे, छाती से लगा कर सोते तो ही नींद आती थी, फिर वे कहां पड़े-पड़े खो जाते हैं कूड़े-करकट में, कहां रद्दी में बिक जाते हैं, कुछ पता ही नहीं चलता। ऐसे ही एक दिन जवानी के खिलौने बुढ़ापे में व्यर्थ हो जाते हैं और बुढ़ापे के खिलौने मौत व्यर्थ कर देगी। सब खिलौने ही खिलौने हैं। इसमें कुछ एकाध तो ऐसा सेतु खोज लो, जो खिलौना न हो। कुछ तो एकाध ऐसा नाता बना लो, जो शाश्वत हो..जो जन्म और मृत्यु के पार हो। वही नाता गुरु और शिष्य का नाता है।
चैरासी जो उबरा चाहे, छोड़ कामिन का चसका रे।
कबीर कहते हैं:...कामिनी इस देश में सभी कामनाओं का प्रतीक है। चूंकि ये पुरुषों को संबोधन किए गए होंगे वचन, इसलिए ठीक है, ‘कामिनी’ का उपयोग किया। लेकिन स्त्रियां भी ध्यान रखें: जो स्त्रियों के संबंध में सच है पुरुषों के लिए, वही पुरुषों के संबंध में सच है स्त्रियों के लिए। यह बात कभी भूलनी नहीं चाहिए। नहीं तो ऐसी भ्रांति होती है कि स्त्रियों के कारण ही दुनिया में सारा उपद्रव है। और तुम्हारे साधु-संत यही समझाते फिरते हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। अगर स्त्री नरक का द्वार है, तो स्त्रियां तो नरक जा ही नहीं सकतीं, क्योंकि द्वार तो चाहिए। यह तो साधु-संत खूब फंसा गए! पुरुष ही द्वार से जा सकते नरक और स्त्रियां चाहे स्वर्ग न जा सकें, मगर नरक तो जा ही नहीं सकतीं। जब द्वार ही हैं तो नरक के बाहर ही रहेंगी। द्वार तो बाहर ही रहता है न। पुरुषों को भेज देती होंगी कि चलो भीतर।
न तो स्त्रियां नरक के द्वार हैं, न पुरुष। स्त्रियां पुरुषों की चाहना करती हैं; चाह में द्वार है नरक का। पुरुष स्त्रियों की चाहना करते हैं; चाह में द्वार है।
कामिनी कामना का प्रतीक है, समझना। फिर पुरुष की हो कि स्त्री की, कुछ भेद नहीं पड़ता। अगर चैरासी, अगर जन्मों-जन्मों की अनंतयात्रा से बचना हो तो कामना की, वासना की, तृष्णा की आदत छोड़ दो।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, नख-सिख पूर रहा बिस का रे।
क्या चाह रहे हो? यहां चाहने योग्य क्या है? तुम्हारी देह भी और दूसरे की देह भी सब विष से भरी है।
मुरसिद नैनों बीच नबी है!
तुम दूसरों में तलाश रहे हो सौंदर्य को, सत्य को..पुरुष स्त्रियों में, स्त्रियां पुरुषों में; कोई धन में, कोई प्रतिष्ठा में।
मुरसिद नैनों बीच नबी है!
अरे पागल, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, जिस सदगुरु की, जिस परमात्मा की, जिस नबी की, ऐ उपदेशक, ऐ मुर्शिद! वह तेरी आंखों के बीच में बसा है। दोनों आंखों के बीच में, जहां हम तीसरी आंख कहते हैं..तृतीय-नेत्र, शिव-नेत्र..इन दोनों आंखों के बीच में बसा है।’
स्याह सपेद तिलों बिच तारा, अवगति अलख रबी है।
उस मालिक की अदभुत गति है। पकड़ में न आए, बुद्धि की, तर्क के जाल में न आए..ऐसी रहस्यमय उसकी गति है।
आंखी मद्धे पांखी चमके, ...
इन दोनों आंखों के मध्य में वह पक्षी की तरह है। क्यों पक्षी की तरह? बड़ा प्यारा शब्द उपयोग किया। आंखी मद्धे पांखी चमके..क्योंकि वह उड़ सकता है। वह उड़ सकता है अनंत तक, इसलिए पक्षी कहा।
आंखी मद्धे पांखी चमके, पांखी मद्धे द्वारा।
और उस पक्षी के मध्य में ही द्वार है परमात्मा के प्रवेश का, क्योंकि वह उड़ सकता है, पंख फैला सकता है।
तेहि द्वारे दुर्बीन लगावै, ...
वहीं से देखो। दोनों आंखों के मध्य में जो तीसरी आंख है, वहां से देखो। ये दो आंखें बाहर देखती हैं, तीसरी आंख भीतर देखती है। और जो भीतर देखती है वहीं आंख द्वार है परमात्मा की।
तेहि द्वारे दुर्बीन लगावै, ...वहीं लगाओ दूरबीन। ...उतरै भवजल पारा। तो संसार से पार हो जाओ। तो इस व्यर्थ के उपद्रव, दुख, पीड़ा, जाल से मुक्त हो जाओ।
सुन्न सहर में बास हमारी, तहं सरबंगी जावै।
हमारा आत्यंतिक निवास तो हमारे ही भीतर एक शून्य है उसमें है।
सुन्न सहर में बास हमारी, तहं सरबंगी जावै।
जहां सबको जाना है, आज नहीं कल, देर-अबेर जाना ही पड़ेगा। खोज लो अपने भीतर छिपे शून्य को, क्योंकि उसी शून्य में पूर्ण का अवतरण होता है। इस शून्य को ही ध्यान कहते हैं, समाधि कहते हैं। तुम्हारे भीतर यह शून्य छिपा है। लेकिन ये दो आंखें इसे न देख पाएंगी। इन दोनों आंखों के बीच में एक तीसरी आंख है।
भीतर देखो! बाहर देखने से ही नहीं मिलेगा। और भीतर देखो तो तुम्हारी तीसरी आंख पक्षी बन जाए, उड़ चले शून्य गगन में।
साहिब कबीर सदा के संगी, ...
और तब तुम जानोगे कि अरे मैं जिसे खोजता था वह तो मेरे भीतर बैठा था! कितना खोजा, कहां-कहां भटका और वह सदा से भीतर वास कर रहा था!
कबीर साहिब सदा के संगी, ...
तब तुम पाओगे कि मालिक तो भीतर बैठा था, सदा से साथ था।
...सब्द महल ले आवै।
बस शून्य के महल में तुम आ जाओ।
कौन लाएगा उस शून्य के महल में तुम्हें? सदगुरु का शब्द; उसकी पुकार; उसका झकझोरना।
सब्द महल ले आवै, साहिब कबीर सदा के संगी।
सदगुरु का हाथ पकड़ लो। सदगुरु को कैसे पहचानोगे? कोई बाह्य लक्षण तो होते नहीं। सौ मैं निन्यानबे तो झूठे गुरु होते हैं। कैसे पहचानोगे सदगुरु को?
सदगुरु की एक ही पहचान है: किसी के पास बैठ कर शांति मिले, सुगंध मिले। किसी के पास बैठ कर संतोष मिले। किसी के पास बैठ कर संगीत मिले। किसी के पास बैठते-बैठते तारी लगने लगे। बस वही पहचान है, और कोई पहचान नहीं। जिसके पास बैठ कर तारी लग जाए, फिर उसका हाथ पकड़ लेना, फिर छोड़ना मत। तो उसके शब्द तुम्हें जगा देंगे। उसकी पुकार तुम्हें जगा देगी। एक न एक दिन उसकी सुनते-सुनते तुम्हारे भीतर भी यह भाव सघन हो जाएगा..
इब न रहूं माटी के घर में, इब मैं जाइ रहूं मिलि हरि में।
अब इस मिट्टी के घर में और नहीं रहूंगा। अब हरि में मिलने की अभीप्सा जग गई है। जिस दिन यह अभीप्सा जगे, उसी दिन समझना तुम्हारा सच्चा जन्म हुआ; सच्चे जीवन की शुरुआत हुई। तुम द्विज बने, ब्राह्मण बने, क्योंकि ब्रह्म की आकांक्षा जगी। जब तक ब्रह्म की आकांक्षा नहीं, तब तक प्रत्येक व्यक्ति शूद्र है, ब्राह्मण नहीं। ब्रह्म की आकांक्षा ही ब्राह्मण बनाती है।

आज इतना ही।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें