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सोमवार, 12 नवंबर 2018

होनी होय सो होय-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन-प्रज्ञा संन्यास है

प्रश्न-सार:

01-तुम्हें पा के मैंने जहां पा लिया है
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है।
जमाने के गम प्यार में जल गए हैं
उम्मीदों के लाखों दीये जल गए हैं
न उजड़ेगा जो आशियां पा लिया है!
तुम्हें पा के मैंने जहां पा लिया है!

 02-मेरे बूढ़े ससुर जवान बेटे की अचानक मृत्यु से विक्षिप्त से हो गए हैं, और मैं संसार से बिल्कुल मुक्ति पाना चाहती हूं। किंतु मेरे ये गेरुआ वस्त्र कहीं उनकी मृत्यु का कारण न बनें। और मैं संन्यास लेना चाहती हूं। कृपया मार्गदर्शन करें। बड़ी आशा लेकर आई हूं।


 03-मैं आपको सुनते-सुनते सो जाता हूं। पता नहीं है तारी है या खुमारी है। या केवल साधारण निद्रा मात्र। प्रकाश डालने की कृपा करें।

 04-मैं राजनीति में हूं। क्या राजनीति छोड़ कर संन्यासी बन जाऊं?




पहला प्रश्नः ओशो!
तुम्हें पाके मैंने जहां पा लिया है
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है।
जमाने के गम प्यार में जल गए हैं
उम्मीदों के लाखों दीये जल गए हैं
न उजड़ेगा जो, आशियां पा लिया है!
तुम्हें पा के मैंने जहां पा लिया है!

कृष्ण चैतन्य! मनुष्य दिखाई पड़ता है बहुत छोटा; है नहीं। लगता तो है जैसे ओस की एक बूंद; पर है महासागर। ऊपर से देखो तो ओस की बूंद ही मालूम होगा; भीतर जागो तो असीम सागर है।
मुझे पाकर तुमने मुझे नहीं पाया, अपने को ही पाने की कला पा ली है। मुझे पाकर तुम्हें अपने को ही भीतर से देखने का राज, कंुजी मिल गई है। भीतर से देखो स्वयं को तो तुम्हारी कोई सीमा नहीं है; सारा आकाश तुमसे छोटा है; सारे चांद तारे तुम्हारे भीतर हैं। लेकिन हम मनुष्य को बाहर से देखते हैं। हम अपने को भी बाहर से देखते हैं। दूसरे को बाहर से देखें, समझ में आता है; लेकिन अपने को भी दर्पण में देखते हैं और दर्पण में देख कर पहचानते हैं। हमारी खुद से भी पहचान अंतर की नहीं है, जो कि होनी चाहिए, क्योंकि वहीं हम विराजमान हं, वहीं हमारा होना है। जहा हम हैं वहीं पैर जमा कर अपने को नहीं देखते हैं। खुद को देखने के लिए भी दर्पण चाहिए। दर्पण में क्या दिखाई पड़ेगा? रूप-रेखा, रंग-ढंग, आकृति। वह तुम नहीं हो। न तुम देह हो, न तुम मन हो..तुम साक्षी हो।
सदगुरु के पास बैठने का और तो कुछ अर्थ नहीं है; यही अर्थ है कि साक्षी का धीरे-धीरे जागरण होने लगे। तुम नींद में थे। मैंने तुम्हें पुकारा और तुम थोड़ी करवट बदलने लगे हो, तुम्हारी पलकें थोड़ी-थोड़ी खुलने लगी हैं। तुम्हें जो अनुभव हो रहा है, वह तुम्हारा ही है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं है। तुम्हारे भीतर जो पड़ा था उसे ही मैंने झकझोरा है। जो संपदा तुम्हारी थी, तुम्हें उससे परिचित कराया है। तुम्हें तुमसे परिचित कराया है! तब ऐसा होगा। लगेगा ऐसा ही। प्रथमतः ऐसी ही प्रतीति होगी..‘तुम्हें पा के मैंने जहां पा लिया है, जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है। जमाने के गम प्यार में जल गए हैं...’
मनुष्य दुखी क्यों है? बस छोटी सी बात के कारण कि उसे प्यार की कला नहीं आती। उसकी पीड़ा क्या है? कि प्रेम प्रकट नहीं हो पाता। अप्रकट प्रेम ही पीड़ा बनता है और प्रकट प्रेम ही आनंद हो जाता है। अप्रकट प्रेम ऐसा है जैसे बीज और प्रकट प्रेम ऐसा है जैसे बीज वृक्ष बना, वसंत आया, फूल खिले, गंध उड़ी। वृक्ष जब फूलों से लद जाता है तो उसके आनंद का पारावार नहीं है, क्योंकि पा ली उसने अपनी नियति, अपना गंतव्य, अपना लक्ष्य। अपने को व्यक्त कर लिया। गा लिया गीत जो गाना था। नाच लिया नृत्य जो नाचना था। कर लीं बातें चांद-तारों से। हो गया संवाद सूरज से। हवाओं के साथ भांवर डाल ली। आकाश में शाखाएं फैला दी हैं। पृथ्वी में दूर तक जड़ें पहंुचा दी हैं। पृथ्वी के रस को भी चखा, आकाश की मुक्ति को भी जाना। परिपूर्णता हो गई।
मनुष्य भी एक बीज है। और जब तक उसमें सहस्रदल कमल का फूल न खिल जाए..जिसको योगी कहते सहस्रदल कमल; जिसको बुद्ध ने कहा निर्वाण; जिसको महावीर ने कहा कैवल्य; जिसको कबीर कहते हैं सुरति या दशम द्वार..दसवां द्वार न खुल जाए...मनुष्य की देह में नौ द्वार खुले हुए हैं, एक द्वार बंद है। नौ द्वार यानी नौ छेद। जननेंद्रिय से लेकर आंखों तक गिनती कर लेना, नौ छेद हैं; इनसे तुम जगत से जुड़े हो। आंख से तुम जुड़े हो प्रकाश से। कान से तुम जुड़े हो ध्वनि से। नाक से तुम जुड़े हो गंध से। मंुह से तुम जुड़े हो स्वाद से। ये नौ द्वार तुम्हें जगत से जोड़े हुए हैं। यही तुम्हारा लेन-देन है, व्यवसाय है जगत से, व्यापार है। एक दसवां द्वार भी है..सहस्रार। तुम्हारे मस्तिष्क में सबसे ऊंचाई पर वह बंद पड़ा है। वह तब तक बंद रहेगा जब तक तुम जागोगे नहीं। जब तक ध्यान की गरिमा गहनतम न होगी जब तक ध्यान की त्वरा न होगी, जब तक ध्यान एक जलती हुई अग्नि न बन जाए, तब तक दसवां द्वार नहीं खुलेगा। जैसे ही ध्यान की अग्नि प्रज्वलित होगी, झटके से दसवां द्वार खुल जाता है। कबीर कहते हैं: खुली किबरिया! और जैसे ही दसवां द्वार खुलता है, जैसे नाक के बिना गंध नहीं, आंख के बिना रंग नहीं..ऐसे ही दसवें द्वार के बिना परमात्मा नहीं। दसवें द्वार से परमात्मा का अनभुव होता है। दसवें द्वार की प्रतीति परमात्मा है। जैसे ही दसवां द्वार खुला अचानक, फिर किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं रह जाती। तुम जानते हो तुम परमात्मा हो और तुम जानते हो शेष सब भी परमात्मा है।
लेकिन दसवें द्वार को खोलने के दो उपाय हैं: एक है ध्यान; एक है प्रेम। बुद्ध, महावीर ध्यान के आग्रही हैं। खूब जागरण को सघन करो..इतना सघन, जैसे कि किरणें इकट्ठी हो जाएं तो आग बन जाएं। ऐसे तुम्हारे जागरण की किरणें इकट्ठी हो जाएं, मारें धक्का तो खुले किबरिया! भक्त कहते हैं प्रेम। प्रीति की ऐसी उमंग तुम में उठे, ऐसा अंधड़, ऐसा तूफान उठे कि सारे अस्तित्व को डुबा देने की क्षमता तुम में आ जाए। बेशर्त प्रेम तुम कर सको तो प्रार्थना हो जाती है। मांगो मत प्रेम के उत्तर में कुछ, तो प्रेम ही किबड़िया को खोल देगा। मांगा कि चूके। मांगा कि भिखमंगे हुए। प्रेम अगर इसलिए दिया कि उत्तर में कुछ मिल जाए...और लोग इसीलिए प्रेम करते हैं कि उत्तर में कुछ मिल जाए। देते कम, लेना ज्यादा चाहते हैं। आदमी की व्यवसायी बुद्धि ऐसी है। व्यवसाय का अर्थ ही यह होता है: लगाओ कम पूंजी, कमाओ ज्यादा।
एक यहूदी ने नया-नया विक्रेता अपनी दुकान पर रखा था। यहूदी बाहर गया था, लौटा तो विक्रेता बहुत प्रसन्न था। उसने कहा कि मालिक, आप जान कर प्रसन्न होंगे कि जो कोट वर्षों से आप नहीं बेच पाए वह मैंने बेच दिया। वह जो काले रंग का कोट था वह बेच दिया।
कितने में बेचा? यहूदी ने बड़े घबड़ा कर पूछा। तो उसने कहा कि जितने उस पर दाम पड़े थे..अट्ठानबे सेंट। यहूदी ने माथा ठोक लिया, कहा: पागल, वह अट्ठानबे डालर का कोट था, अट्ठानबे सेंट का नहीं। बेचारा विक्रेता तो एकदम हतप्रभ हो गया। सोचा था धन्यवाद मिलेगा, यह तो मुसीबत हो गई। उसके चेहरे का रंग उड़ गया, पीला जर्द हो गया, चक्कर सा मालूम होने लगा। लेकिन यहूदी ने कहा: घबड़ा मत, फिर भी दस परसेंट का लाभ हमको हुआ है।
व्यवसाय का तो ढंग यही है: लगाओ कम से कम।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने पूछा कि काफी मजे-मौज चल रहे हैं, खूब व्यवसाय चल रहा है मालूम होता है! बोला कि हां, अच्छा चल रहा है। एक रुपये में चीज खरीदते हैं, दो में बेच देते हैं। एक परसेंट का लाभ, मगर बस मजा चल रहा है।
एक रुपये की चीज को दो रुपये में बेचता है, इसको एक परसेंट का लाभ बता रहा है! लोग कम से कम लगाएं और ज्यादा से ज्यादा ले लें, यह व्यवसाय बुद्धि है। और प्रेम में भी हम इससे भिन्न नहीं करते हैं। कौड़ी देना चाहते हैं। हीरा पाना चाहते हैं। मगर जो व्यवसाय में चल जाता है, वह प्रेम में नहीं चलेगा। प्रेम व्यवसाय नहीं है। प्रेम से ज्यादा गैर-व्यावसायिक और कोई जीवन आयाम ही नहीं है। यह काम ही सौदे का नहीं है। यह काम तो दीवानों का है। और दीवानों की बड़ी कृपा है होशियारों पर, क्योंकि अगर होशियार ही होशियार दुनिया में होते तो प्रेम के फूल बिल्कुल समाप्त ही हो गए होते; प्रेम की भाषा ही भूल गई होती। यह तो कभी-कभी कोई दीवाना, कोई कबीर, कोई मीरा, कोई चैतन्य पैदा हो जाता है और प्रेम के पाठ हम भूल नहीं पाते; फिर-फिर हमें प्रेम की याद दिला जाता है, हमारी क्षमता की खबर दिला जाता है।
काश, तुम बेशर्त दे सको! देने में ही आनंद पा सको, लेने में नहीं। दान बन सको। धन के दान को मैं दान नहीं कहता, क्योंकि धन का दान तो बड़ी बेईमानी का दान है। उन्हीं से चुराया था, उन्हीं से छीना था, उन्हीं को वापस दे दिया! उन्हीं की जेबें काटीं, उन्हीं को दान कर दिया! यह कोई दान हुआ? धन तो तुम लेकर आए नहीं थे, इसलिए धन का दान कैसे करोगे? धन तो यहीं बटोरा। फिर यहीं बटोरा और यहीं दान कर दिया। प्रेम का ही दान हो सकता है, क्योंकि प्रेम तुम लेकर आए थे, यहां बटोरा नहीं। वह तुम्हारी निजता है। वह तुम्हारे प्राणों का स्वभाव है। वह तुम्हारे भीतर की गंध है। वह परमात्मा ने तुम्हारे भीतर रचा है। उसे तुमने किसी से लूटा नहीं है, किसी का शोषण नहीं किया। नहीं तो एक तरफ शोषण करते रहो और दूसरी तरफ मंदिर बनाते रहो। लोग करोड़ का शोषण करते हैं; लाख रुपये का दान कर देते हैं; सोचते हैं ऐसे भगवान को भी राजी रखेंगे, ऐसे परलोक में भी इंतजाम कर लेंगे। यहां भी मजे से रहेंगे, वहां भी मजे का इंतजाम कर रहे हैं। पहले से ही वहां के लिए भी उन्होंने सूत्रपात डाल दिए।
लेकिन धन तुम्हारा है ही नहीं। यह ख्याल कि मैंने धन का दान किया..भ्रांति है, अहंकार है। हां, प्रेम तुम्हारा है। और प्रेम का ही मात्र दान हो सकता है। भक्त कहता है प्रेम को लुटाओ, दो! और मजा यह है कि जितना दोगे उतना ही पाओगे! तुम्हारे भीतर अजस्र स्रोत खुलने लगे। जैसे कुएं से कोई पानी भरता रहे तो नये-नये झरने कुएं को भरते जाते हैं। कंजूस हो कोई, कुएं पर ताला मार दे..डर से कि कहीं कुएं का पानी न चुक जाए..तो सड़ जाएगा पानी, तो जहर हो जाएगा पानी, तो पीने योग्य न रह जाएगा। सांप-बिच्छू पलेंगे कुएं में। और किसी दिन अगर जरूरत हुई तो जान लेगा उस कुएं का पानी। कुआं तो ताजा रहता है, जीवंत रहता है..जितना पानी खींचा जाए उतने ही झरने खुले रहते हैं। जब पानी नहीं खिंचता तो झरने अपने आप बंद हो जाते हैं; उनकी जरूरत ही न रही।
ऐसा ही तुम पाओगे। जितना प्रेम दोगे उतना ही तुम्हारे भीतर नये झरने फूटने लगेंगे। जिस दिन तुम बांटते ही रहोगे, गणना भी न करोगे, तौलोगे भी नहीं कि कितना बांटा, हिसाब भी न रखोगे कि कितना बांटा..उस दिन तुम्हारे भीतर अनंत स्रोत खुल जाएंगे, उन्हीं अनंत स्रोतों से जो ऊर्जा बहेगी, उसके धक्के से किबड़िया खुल जाएगी, दसवां द्वार खुल जाएगा।
मैं तो दोनों रास्तों से राजी हूं। तुम्हें जो पट जाए, तुम्हें जो रुच जाए। मेरा किसी रास्ते पर कोई मोह नहीं है। सब रास्ते उसी तक ले जाते हैं, इसलिए रास्तों का क्या मोह करना!
कृष्ण चैतन्य, तुम कहते हो: ‘जमाने के गम प्यार में जल गए हैं।’
निश्चित ही प्रीति जला देती है सारे दुखों को, सारी चिंताओं को। प्रेम की अग्नि राख कर देती है कूड़ा-करकट को, बच रहता है खालिस सोना। और तब निश्चित ही जीवन को एक नई दिशा मिलती है, नहीं तो उलझे हैं व्यर्थ की चिंताओं में। जिन चिंताओं से कुछ लेना-देना नहीं है, उनमें उलझे हैं। कितनी ही चिंताएं करो, जिनका कोई हल तुम्हारे हाथ में नहीं है, उनमें उलझे हैं। जिनसे कुछ छुटकारा नहीं..जैसे मृत्यु..उसकी कितनी चिंता लोग करते रहते हैं! मगर मृत्यु तो निरपवाद रूप से आएगी चिंता क्या करनी है! आनी ही है, बात खतम हो गई। लेकिन उसकी ही चिंता में लगे रहते हैं। मरते दम तक चिंता करते रहते हैं। किसी तरह बचे रहें! बच कर कुछ पाया नहीं, जिंदगी खाली की खाली थी, जिंदगी रूखी-सूखी थी, एक फूल भी न खिला, एक बूंद भी अमृत की न निर्मित हुई; मगर फिर भी..जीना है; जीने का मोह, तृष्णा! कौन जाने आज तक नहीं हुआ, कल हो जाए, तो कल को बचाना है। जीना है। मृत्यु से घबड़ाए हुए हैं। और मृत्यु तो आकर रहेगी। घबड़ाने में ही जिंदगी चली जाएगी और मृत्यु तो आकर रहेगी। किसी ने दो शब्द कह दिए कठोर और तुम दुखी हो गए..और कितनी चिंताएं! वर्षों बीत जाते हैं और किसी के कठोर शब्द तुम्हारे भीतर गूंज ही उठाते रहते हैं..प्रतिशोध की, बदले की। शब्द ही तो थे, शब्दों में भी क्या रखा है? सब अर्थ मनगढ़ंत हैं।
खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कहानी है। एक आदमी लेबनान आया, परदेस से आया है। लेबनान की भाषा नहीं जानता। भौचक्का सा घूम रहा है। बड़ा नगर। देहाती है। एक महल जैसे भवन में लोगों को आते-जाते देखा। बहुत लोग आ-जा रहे हैं तो वह भी चला गया। भीतर पहंुचा तो उसे बिठाया गया। बहुत लोग भोजन कर रहे हैं, तो उसने समझा कि शायद राजमहल है, राजा ने कोई भोज दिया है। मन ही मन सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे ही स्वागत में भोज दिया हो, क्योंकि मैं ही एक अजनबी हूं यहां। और तभी थाली सज कर आ गई..सुंदर-संुदर खाद्य पदार्थ, सजे हुए बैरे! वह थी एक होटल, मगर उसने समझा कि राजमहल है। राजमहल समझा तो उसके मजे का अंत न रहा। व्याख्या की बात है। फूला नहीं समाया। कहा कि राजा हो तो ऐसा हो। एक हमारा राजा है जिसने कभी एक दो कौड़ी का भी आयोजन न किया! इसको कहते हैं दिल! इसको कहते हैं दिलदारी!
फूला जा रहा था, मस्ती से भोजन कर रहा था। जब भोजन पूरा हो गया तो बैरा बिल लेकर आया। बैरे को वह समझ रहा था कि कोई राजदूत। शुभ्र वस्त्रों में सजा-बजा बैरा था! बिल लेकर आया तो उसने समझा कि राजा ने धन्यवाद दिया है कि आप आए, बड़ी कृपा की, भूल मत जाना, कुछ भूल-चूक हुई हो तो क्षमा करना, फिर आते रहना। पढ़ तो सकता नहीं था, भाषा तो आती नहीं थी, तो वह झुक-झुक कर धन्यवाद दिया बैरे को। बैरा मांगे पैसे, वह झुक-झुक कर धन्यवाद दे। बैरा जितना पैसे मांगे वह उतना ही धन्यवाद दे। बैरे ने कहा कि अच्छी झंझट हुई! लेकर मैनेजर के पास गया। सोचा कि शायद राजदूत अपने प्रधान के पास ले जा रहा है। मैनेजर का शानदार कमरा था वह झुक-झुक कर खूब धन्यवाद देने लगा। मैनेजर ने कहा: यह आदमी तो अजीब है! हम कुछ कहते हैं, यह कुछ कहता है! यह कौनसी भाषा बोल रहा है, यह भी पता नहीं। और मस्त बड़ा दिखता है। पागल है या पिए है? इसे अदालत ले जाओ।
अदालत का भवन और भी बड़ा था। उसने कहा कि मालूम होता है, सम्राट ने स्वयं बुलवाया है। मजिस्ट्रेट की शान देख कर तो वह समझा कि सम्राट है। वह तो एकदम चारों खाने गिर पड़ा नीचे..साष्टांग दंडवत! और सम्राट को झुक-झुक कर नमस्कार करने लगा। मजिस्ट्रेट ने कहा: यह आदमी या तो पागल है या पक्का शरारती है। हम कुछ कहते हैं, यह कुछ कहता है। उत्तर देता ही नहीं। इसको गधे पर बिठा कर, तख्ती लटका कर इसके गले में कि यह आदमी बेईमान है, बदमाश है, गांव में घुमाया जाए।
वह तो बड़ा ही खुश हुआ। जब उसके गले में तख्ती लटकाई गई तो उसकी छाती फूल कर दुगनी हो गई। उसने कहा: वाह रे लोगो, खिलाया भी पिलाया भी, राजा ने खुद स्वागत भी किया और अब जुलूस निकाल रहे हैं..शोभायात्रा! बच्चे भी इकट्ठे हो लिए, कुछ लोग भी पीछे चल पड़े। फालतू लोगों की कमी तो हैं नहीं दुनिया में। वे ऐसे ही घूमते रहते हैं कि कहीं कोई जुलूस हो, कोई हो-हल्ला हो तो साथ हो लें। वह झुक-झुक कर लोगों को नमस्कार करे और तख्ती दिखाए..क्योंकि यह समझे कि सम्राट ने, कुछ प्रमाण-पत्र दिया है; शायद पद्मभूषण या भारतरत्न या ऐसी कोई पदवी दी है या क्या मामला है! भीड़ में लेकिन एक ही दुख उसे खल रहा था कि आज इतना बड़ा स्वागत हो रहा है, काश अपने गांव का कोई होता! वही एक बात अखर रही थी कि गांव में जाकर कहूंगा तो कोई मानेगा नहीं। वे कहेंगे, सब झूठी बातें कर रहा है, गप्प-शप्प मार रहा है। एकाध भी गवाह होता।
तभी उसे भीड़ में अपने गांव का एक आदमी दिखाई पड़ा, जो कि कोई दस-पंद्रह साल पहले गांव छोड़ दिया था और लेबनान आकर बस गया था। उसने उस आदमी की तरफ देखा और उसको इशारे से हाथ किया कि देखो, तख्ती देखो! मेरी हालत देखो! क्या मजा आ रहा है! गांव का आदमी अब तक भाषा समझने लगा था, लेबनान का रंग-ढंग समझने लगा था, उसने एकदम सिर झुकाया और भीड़ में गुप्प हो गया। इसने कहा: हद हो गई! ईष्र्या की भी सीमा होती है! अरे ईष्र्यालु तेरा स्वागत नहीं हुआ तो इतनी ईष्र्या की तो बात न थी। दो शब्द तो बोल लेता ऐसे भाग जाना...।
व्याख्या की बात है। किसी ने दो शब्द कह दिए, तुम क्या व्याख्या करते हो, सब इस पर निर्भर करता है। जैसी चाहो व्याख्या कर लो। शब्दों में क्या है! शब्दों में कुछ अर्थ थोड़े ही है। शब्द तो कामचलाऊ हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है। न गालियों का कोई मूल्य है, न गीतों का कोई मूल्य है। समझो तो गालियां और गीत सब एक जैसे हैं। मान और सम्मान समान हैं। सफलता-असफलता समान हैं। प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा समान हैं। यश-अपयश समान हैं।
प्रेम का जब उदभव होता है तो सब कूड़ा-करकट जल जाता है। फिर अपमान खलता नहीं, दया आती है, उलटे दया आती है कि बेचारा नाहक कष्ट उठा रहा है। न मालूम कितना भीतर जला होगा, भुना होगा। न मालूम भीतर कितने क्रोध में पीड़ा पाई होगी, तब ये गालियां आई हैं। गालियां ऐसे तो पैदा नहीं हो जातीं; जैसे बच्चे ऐसे ही तो पैदा नहीं हो जाते, पहले नौ महीने गर्भ में मां को कष्ट झेलना पड़ता है। वैसे ही जो आदमी गाली देता है, वह भी कोई से आकस्मिक रूप से गाली आकाश से थोड़े ही उतरती है। गर्भ होता है गाली का भी। नौ महीने तक उसको गर्भ में रखना पड़ता है। बड़ी तकलीफ झेलनी पड़ती है। तुम्हें तकलीफ देने के पहले वह खुद बहुत तकलीफ झेल लेता है, तभी तुम्हें तकलीफ देता है। और तुम्हारे ऊपर है कि तुम तकलीफ लो या न लो। गाली न लो, बात खत्म हो गई।
और जो प्रेम की कला जानता है वह गाली नहीं लेता। जिसे फूल चुनने आ गए वह क्यों कांटे चुने? माना कि कांटे हैं गुलाब की झाड़ी में, तो रहने दो। जिसे फूल चुनने आ गए वह कांटों से बच जाता है, फूल चुन लेता है। तब यह सारा जगत नई अर्थवत्ता से, एक नई गरिमा से भर जाता है।
तुम ठीक कहते कृष्ण चैतन्यः
‘जमाने के गम प्यार में जल गए हैं
उम्मीदों के लाखों दीये जल गए हैं’
और फिर ही उम्मीद का दीया जलता है। क्योंकि तब ही पहली बार तुम्हें लगता है कि हां, जीवन व्यर्थ नहीं है; कि हां, जीवन निरर्थक नहीं है; कि हां, जीवन एक दुर्घटना मात्र नहीं थी। इसके पीछे एक गहन प्रयोजन था। इसके पीछे एक छिपी हुई अंतर्यात्रा थी। हम किसी दिशा में चल रहे थे। पहंुच कर ही पता चलता है..मंजिल पर पहंुच कर ही पता चलता है कि हम मार्ग पर थे। मंजिल पर पहंुचे बिना पता भी चले तो कैसे चले?
नदी जब उतरती है हिमालय से तो कैसे जाने कि सागर की तरफ जा रही है, कैसे माने कि सागर है? न जाना, न देखा, न पहचाना और जो सागर में गई नदियां, वे लौट कर कहती नहीं। यह नदी तो सागर में जब गिरेगी, तब ही जानेगी कि अरे वे सारी पर्वतशृंखलाएं, वे लंबी यात्राएं, खाई-खड्डे, उलटे-सीधे मार्ग, अड़चनें, सब इस गंतव्य के लिए थीं, इस महासागर में लीन होने के लिए थीं। तब सब अचानक सार्थक हो जाता है। सब दुख, सब सुख सीढ़ियां बन गए। तब सारी यात्रा पीछे लौट कर स्पष्ट हो जाती है, जो पहले कभी स्पष्ट नहीं थी। अंतिम अनुभव में ही किबड़िया जब खुले, दसवां द्वार जब खुले, तब तुम पाओगे कि जो भी जीवन में जाना, माना, पहचाना, उस सबकी एक गहन अर्थवत्ता थी। वह सब एक तारतम्य में बंधा था। उसकी एकशृंखला थी। वह किसी दिशा में हमें गतिमान कर रहा था। पहंुच कर ही पता चलता है कि हम पथ पर थे।
प्रेम जब जला कर कचरे को अलग कर देता है, जीवन की चिंताएं, दुख, पीड़ाएं व्यर्थ..तुमने उधार ले ली थीं..जब सब समाप्त हो जाती हैं। तुम्हारी भूल थी, तुम्हारी गलत व्याख्या थी। तुम्हारे ही सोचने के कारण तुम्हारी चिंताएं थीं। जब वे सब गल जाती हैं, पिघल जाती हैं और जब खालिस सोना ही बचता है, तो उम्मीद का दीया जलता है। पहली बार तुम्हारे जीवन में आशा की किरण उतरती है, क्योंकि पहली बार भगवत्ता से मिलन होता है।
लेकिन ध्यान रहे कृष्ण चैतन्य, मैं तो निमित्त हूं, उससे ज्यादा नहीं। जो तुम्हारे भीतर हो रहा है, तुम्हारे ही भीतर हो रहा है। मैं उसे कर नहीं रहा हूं। हो सकता है मेरी मौजूदगी सहयोगी बन गई हो, लेकिन जब भी धन्यवाद दो तो मुझे छोड़ देना, धन्यवाद परमात्मा को ही देना। धन्यवाद सब उसके लिए, कृतज्ञता सब उसकी तरफ। तुम्हारा सिर झुके उसके लिए। मुझे बीच में मत लेना।
मैं बस निमित्त मात्र हूं। मेरे बहाने तुम चुप बैठना सीख गए। मेरे बहाने तुम्हें सत्संग की कला आ गई। मेरे बहाने तुम संगीत में डूबने लगे। मेरे बहाने तुम नाचे, गाए। मेरे बहाने तुम शांत हुए, मौन हुए। मगर यह सब बहाना है। यह किसी और के बहाने भी हो सकता था। इसलिए बहानों की क्या फिकर लेनी! अब जिस बहाने हो गया ठीक। मगर जो हो गया है, वह उस परमात्मा के द्वारा ही हो रहा है। और वह परमात्मा तुम्हारे भीतर ही छिपा पड़ा है।
जैसे हम किसी को सोते से जगा दें, तो जागरण उसी के भीतर मौजूद था। अगर कोई आदमी कोमा में पड़ा हो, फिर तुम कितना ही हिलाओ-डुलाओ, ठंडे पानी के छींटे उसकी आंखों पर मारो, अलार्म बजाओ, घंटे ठोको..कुछ भी न होगा। अजान दो, कुछ भी न होगा। वे कोमा में पड़े हैं। या कोई मर ही गया हो, अब तुम कितना ही शोरगुल मचाओ, अच्छा-बुरा कुछ भी कहो, अब कुछ भी न होगा। वह तो जीवित हो और अभी जागने की क्षमता हो, तो कुछ हो सकता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी। जब उसे लेकर उतर रहे थे ऊपर की मंजिल से, जीना छोटा, संकरा, नीचे के दरवाजे पर आकर अरथी को धक्का लग गया दरवाजे का और पत्नी उठ बैठी। मुल्ला की तो श्वास जैसे रुक गई। एक क्षण तो सकते में आ गया। फिर वह तीन साल जिंदा रही। फिर मरी। फिर वही जीना। फिर अरथी उतरने लगी। जैसे ही नीचे दरवाजे के करीब आने लगी अरथी, मुल्ला चिल्लाया: भाईयो, जरा सम्हाल कर! यह वही दरवाजा है। पिछली बार ठोकर मार कर तुम तो घर चले गए, फिर तीन साल जो मुझ पर गुजरी वह मैं ही जानता हूं।
मगर अगर पत्नी मर गई होती तो दरवाजे की ठोकर से भी जग नहीं सकती थी। मरी नहीं थी तो ही जग गई।
कृष्ण चैतन्य, तुम्हारे भीतर जागरण है, छिपा पड़ा है। मैंने तुम्हें झकझोरा। तुम जग गए, जगने लगे। तुमने आंखें खोल लीं। सुबह सूरज निकलता है कंकड़ पत्थर तो फूल नहीं बन जाते; कलियां फूल बन जाती हैं, क्योंकि कलियां फूल बन सकती हैं, उनमें बनने की क्षमता है। कंकड़-पत्थर तो कंकड़-पत्थर ही रहेंगे, चाहे रात हो चाहे दिन हो, क्या फर्क पड़ता है? लेकिन कलियों को बहुत फर्क पड़ता है! और सूरज की किरणें आकर कलियों की पंखुड़ियां भी खोलती नहीं, एक-एक पंखुड़ियां नहीं खोलतीं। बस सूरज की किरणों की मौजूदगी निमित्त बन जाती हे, कलियां खिल जाती हैं।
सत्संग निमित्त है। सदगुरु तो सूरज की भांति है। शिष्य कली की भांति है। वह खिल सकता है, इसलिए खिल जाता है। और जरूर, फिर लाखों उम्मीदों के दीये जलते हैं, क्योंकि पहली बार लगता है कि पैरों में घूंघर बंधे। पहली बार तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ते। पहली बार खुमारी चढ़ती है, आंखें मस्त होने लगती हैं। कोई भीतरी शराब रोएं-रोएं को डुबा लेती है। और पहली बार दिखाई पड़ता है..हम क्या हो सकते हैं, हमारे होने की कितनी बड़ी क्षमता है, हम विराट हैं! अहं ब्रह्मास्मि!

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई
खेतों पर अंधियारी घिर आई
पश्चिम की सुनहरिया धंुधराई
टीलों पर टालों पर
इक्के-दुक्के अपने घर जानों पर
धीरे-धीरे उतरी शाम
आंचल से छू तुलसी की थाली
दीदी ने घर की ढिबरी बाली
जमुहाई ले लेकर उजियाली
जा बैठी ताकों में
घर भर के बच्चों की आंखों में
धीरे-धीरे उतरी शाम

इस अधकच्चे से घर के आंगन में
न जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन
लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे-झूठे, मीठे-कड़वे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब झुक कर मेरे सिरहाने
कहती है
भटको बेबात कहीं
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं
धीरे-धीरे उतरी शाम

भटको बेबात कहीं...कितने ही भटको, कहीं भी भटको, एक दिन तो इस घर आ ही जाना है..यह परमात्मा का घर। जन्मों-जन्मों की भटकन के बाद भी आना है।

भटको बेबात कहीं
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं

फिर कौन निमित्त बन जाएगा..कबीर, कि दादू, कि फरीद, या मैं..इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये सब बहाने हैं। किसकी अंगुली का इशारा तुम्हें चांद को दिखा देगा, इससे क्या फर्क पड़ता है? चांद दिख गया, अंगुली भुला देनी चाहिए। अंगुलियों को हम धन्यवाद नहीं देते; चांद दिख जाए।

प्रात होते..
सबल पंखों की अकेली एक मीठी चोट से
अनुगता मुझ को बना कर बावली को..
जान कर मैं अनुगता हूं..
उस बिदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी
युता हूं..
उड़ गया वह बावला
पंछी सुनहला
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को
प्रात होते!

वही जो
थके पंखों को समेटे..
आसरे की मांग पर विश्वास की चादर लपेटे..
चंच की उन्मुख विकलता के सहारे
नम रही ग्रीवा उठाए..
सिहरता-सा, कांपता-सा,
नीड़ की..नीड़स्थ सब-कुछ की प्रतीक्षा भांपता-सा,
निकट अपनों के निकटतर भवितव्य की अपनी प्रतिज्ञा के..
निकटतम इस वि-बुध सपनों की सखी के
आ गया था
आ गया था
रात होते!

उड़ गया वह बावला
पंछी सुनहला
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को।
प्रात होते!

सांझ पक्षी आ जाते हैं, वृक्षों पर बसेरा कर लेते हैं। रात भर विश्राम, सुबह होते उड़ जाते हैं।
कृष्ण चैतन्य, तुम्हारी सुबह अब करीब है। तैयारी करो..उड़ने की तैयारी करो। पंखों को झटको, धूल-धवांस झाड़ो। कूड़ा-करकट इकट्ठा हो, अलग करो। व्यर्थ के बंधन, व्यर्थ के आग्रह, व्यर्थ के पक्षपात, सिद्धांत शास्त्र सब गिरा दो।
सुबह करीब है। उड़ने की घड़ी आ गई। रात जो बना ली थीं बहुत सी आसक्तियां, लगाव, अब उनसे पार उठना है। सूरज निकलेगा, आकाश में उसकी किरणों का जाल फैलेगा। दूर तुम्हें पुकारेगा। उसी के दीये जल गए हैं, जिनको तुम उम्मीदों का दीया कह रहे हो, उसकी धीमी-धीमी पुकार आने लगी। सुबह की धुंध कटने लगी। भोर हो गई, अब उड़ना होगा। अब अपने असली घर की तरफ जाने का क्षण करीब आ रहा है। उसकी तैयारी में लगो।
मैं यहां कोई औपचारिक धर्म तुम्हें नहीं दे रहा हूं। औपचारिक धर्म सस्ता होता है: मंदिर गए, सिर पटक लिया, आ गए; दो पैसे दान कर दिए, कि कभी सत्यनारायण की कथा करवा ली, कि बैठ कर कभी माला फेर ली। मैं तुम्हें कोई औपचारिक धर्म नहीं दे रहा हूं। न तो यहां जो दिया जा रहा है वह हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न ईसाई। यहां तो सिर्फ सुबह होने की खबर दी जा रही है। सुबह कैसे करीब आए, उसका विज्ञान समझाया जा रहा है। और जब सुबह आ जाए तो तुम कैसे उड़ सको..तुम जो कि वर्षों से, जन्मों से नहीं उड़े हो, फिर कैसे अपने पंखों को उड़ा सको, फिर कैसे पंखों को तौल सको आकाश में, क्योंकि फिर लौटना नहीं है। उस अनंत यात्रा पर निकलने की तैयारी की ही ये सूचनाएं हैं।
इसलिए तुम कह पा रहे हो..

‘तुम्हें पा के मैंने जहां पा लिया है
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है।
जमाने के गम प्यार में जल गए हैं
उम्मीदों के लाखों दीये जल गए हैं
न उजड़ेगा जो आशियां पा लिया है!
तुम्हें पा के मैंने जहां पा लिया है!’

दूसरा प्रश्नः ओशो, मेरे बूढ़े ससुर जवान बेटे की अचानक मृत्यु से विक्षिप्त से हो गए हैं और मैं संसार से बिल्कुल मुक्ति पाना चाहती हूं। किंतु मेरे ये गेरुआ वस्त्र कहीं उनकी मृत्यु का कारण न बनें। और मैं संन्यास लेना चाहती हूं। कृपया मार्गदर्शन करें। बड़ी आशा लेकर आई हूं।

 उर्मिला! बेटे की मृत्यु से कोई विक्षिप्त नहीं होता। हां, बेटे से आसक्ति हो तो विक्षिप्तता आ सकती है। मृत्यु से नहीं, आसक्ति से। और आसक्ति तो विक्षिप्तता लाएगी ही। लेकिन हम बड़े होशियार हैं। हम अपनी आसक्तियों को छिपा लेते हैं और झूठे बहानों पर थोप देते हैं। बेटा मर गया, इसलिए विक्षिप्त हैं। मरना तो होगा ही..बेटे को भी, बाप को भी, सभी को। मृत्यु जैसा प्रगाढ़ सत्य टालोगे कैसे? कोई आज गया, कोई कल जाएगा। किसी की बारी आज आ गई, किसी की कल आ जाएगी। बेटा जरा क्यू में आगे खड़ा होगा, बाप जरा क्यू में पीछे खड़ा है। क्यू तो मौत के दरवाजे पर ही लगा है। और क्यू रोज छोटा होता जा रहा है, तुम रोज दरवाजे के करीब आते जा रहे हो। लेकिन यह सोच कर कि बेटे की मृत्यु के कारण मैं विक्षिप्त हूं, फिर तुमने अपनी आसक्ति बचा ली।
मेरे एक मित्र का बेटा मर गया। वे बिल्कुल पागल हालत में थे। यहां तक कि उन्होंने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की। मुझे खबर मिली तो मैं उन्हें देखने गया। वे बड़े राजनेता थे। उनको पार्लियामेंट का पिता कहा जाता था। शायद सबसे पुराने संसद-सदस्य थे वे; अंग्रेजों के जमाने से संसद के सदस्य रहे थे। रो रहे थे, आंख से आंसू गिर रहे थे। लेकिन बगल में तारों की गिड्डी लगा रखी थी। मैं पहंुचा। औपचारिक थोड़ी बात हुई, फिर तारों की गिड्डी मेरी तरफ सरका दी कि देखो, जवाहरलालजी का पत्र आया, तार आया, राष्ट्रपति का..राजेंद्र प्रसाद का; इसका उसका...। उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे द्वारका प्रसाद मिश्र। द्वारका प्रसाद मिश्र का नहीं आया, यह भी नहीं भूले वे बताना।
मैंने उनसे कहा: बेटा मर गया, तुम ये तार इकट्ठे किए बैठे हो! और मैंने तो सुना है कि आपने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की। कहीं यह द्वारका प्रसाद का पत्र नहीं आया, तार नहीं आया..इसी कारण तो नहीं?
उन्होंने कहा: आप भी इसी क्षण में मजाक करते हैं!
मैं मजाक नहीं कर रहा।
और मैंने कहा: आत्महत्या करने की दो बार कोशिश करनी पड़ती है! अरे, कर ली तो कर ली। वह भी कुछ ऐसी ही रही होगी ढीली-ढाली।
लोग गोलियां ले लेते हैं, मगर वे भी हिसाब से लेते हैं कि कहीं मर ही न जाएं! कितने ही लोग कोशिश करते हैं आत्महत्या की..मगर कोशिश! और सब इंतजाम कर लेते हैं बचने का पहले ही।
मैंने कहा: दो बार आपने कोशिश की। होशियार आदमी हैं, समझदार आदमी हैं। राजनीति में जिंदगी भर खेले, आत्महत्या तक न कर सके! अरे करनी थी तो कर ही लेनी थी।
वे तो कहने लगे कि आप कैसी बातें करते हैं! जो भी आता है वह मुझसे सांत्वना प्रकट करता है। और आप उलटी-सीधी बातें कर रहे हैं!
मैंने कहा: आप सांत्वना प्रकट करवाना चाहते हैं, इसलिए बैठे हैं यह ढोंग रचा कर। सांत्वना में रस ले रहे हैं।
और मैंने कहा कि ख्याल रखना कि बेटे के मरने से कुछ इसका लेना-देना नहीं है। मामला कुछ और है।
उन्होंने कहा: क्या मामला है?
मैंने कहा: आपका दूसरा बेटा भी है। मैं आपसे पूछता हूं, छाती पर हाथ रख कर कहा कि अगर यह दूसरा बेटा मर जाता तो आप आत्महत्या करने की कोशिश करते, यह ढोंग कर के बैठते?
उन्होंने थोड़ा सोचा और कहा कि नहीं; दूसरा मरता तो मैं आत्महत्या नहीं करता। दूसरा मरता तो मैं सोचता अच्छा ही हुआ। क्योंकि इस दूसरे ने मुझे इतना दुख दिया है...। यह दूसरा किसी काम का ही नहीं है।
तब मैंने कहा कि मामला बेटे का नहीं है। दोनों ही बेटे हैं, लेकिन पहला था मंत्री और मुख्यमंत्री होने की संभावना थी। उसके कंधे पर महत्वाकांक्षा की बंदूक रख कर बाप चलाने की कोशिश कर रहा था। और दूसरा बेचारा साधारण है, जैसा साधारण आदमी होता है। कोई नेता नहीं है। कोई महत्वाकांक्षी नहीं है। मेरे हिसाब से तो दूसरा बेहतर आदमी है। हां माना कि कभी-कभी शराब भी पी लेता है। पर मेरे हिसाब से तो राजनीति की शराब से तो साधारण शराब कुछ बुरी नहीं। पहले बेटे के मरने से आप परेशान नहीं हैं। अगर सच ईमानदारी से मुझसे कहो तो परेशानी यह है कि वह मुख्यमंत्री होने के करीब था अब; और यह कोई वक्त था मरने का, कम से कम मुख्यमंत्री हो जाता।
वे खुद नहीं बन सके मुख्यमंत्री कभी, वे खुद मंत्री नहीं बन सके। रहे तो बहुत दिन राजनीति में, मगर उतने चालबाज नहीं थे, उनसे बड़े चालबाज हाथ मार ले गए। तो वे हमेशा पिछड़ते ही रहे। ट्रेन चूकते ही रहे। मगर बेटा चालबाज था; वह ठीक गति से चल रहा था।
मुझसे बोले कि अब आपसे मैं छिपा नहीं सकता। और जब आपने बात ही छेड़ दी तो बात सच है। पीड़ा मुझे यही हो रही है कि यह भी कोई मरने का वक्त था! अरे मरना तो सभी को है, कम से कम मुख्यमंत्री तो हो जाता!
मैंने कहा: क्या फर्क पड़ता है, मुख्यमंत्री होकर भी मरता! ठीक से समझो, उनको मैंने कहा कि बेटे के मरने की तकलीफ नहीं है; महत्वाकांक्षा को चोट लगी है। आसक्ति को चोट लगती है। अहंकार को चोट लगती है। और सबसे बड़ी चोट यह लगती है कि बेटा मर गया, अब मुझे मरना होगा। जब बेटा तक नहीं बचा तो मैं कैसे बचूंगा?
इससे तुम उर्मिला, इस भाव को तो बिल्कुल छोड़ ही दो कि जवान बेटे की अचानक मृत्यु से...। सभी मृत्युएं अचानक होती हैं। तुम सोचती हो, तुम्हारे ससुर के जवान बेटे की मृत्यु ही अचानक हुई; तो बाकी लोगों की मृत्यु क्या खबर दे कर आती है? कि डाकबंगले में स्थान बना रखना, कि ब्लू-डायमंड में कम से कम कमरा रिजर्व करवा लेना, मैं आती हूं! सभी की अचानक होती है। बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी अचानक ही मरता है। अभी क्षण भर पहले जिंदा और क्षण भर बाद नहीं। सभी की मृत्यु असमय होती है। हालांकि हम कहते हैं कि फलां की मृत्यु हो गई, असमय हो गई; जैसे कि कुछ की समय पर होती है! किसकी समय पर होती है? सभी मृत्युएं असमय होती हैं, अचानक होती हैं।
और जवान, अगर गौर से देखो, तो शरीर से जवान लोग शायद अधिक नहीं मरते। लेकिन बूढ़े भी चित्त से तो जवान ही होते हैं..वही आकांक्षाएं, वही वासनाएं, वही इच्छाएं, वही जवानी के रोग। क्या फर्क पड़ता है? बूढ़ों में कुछ फर्क पड़ता है? तुम जाकर दिल्ली में देख लो, बूढ़े से बूढ़े..जिनको कभी का मर जाना चाहिए था..इनको कहो कि असमय जिंदा हैं तो समझ में आता है। कि अचानक जिंदा! जिनको नहीं होना चाहिए, किसी वजह से भी होने का कोई कारण नहीं है...और न केवल जिंदा हैं, बल्कि छाती पर बैठे हैं। और ऐसे अड़ कर बैठे हैं कि डर लगता है पता नहीं, मरेंगे कि नहीं मरेंगे! तुम दिल्ली में जाकर जरा उपद्रव देखो..बूढ़ों के उपद्रव देखो! तो तुम्हें पता चलेगा कि कोई जवान ही जवान नहीं होते। शरीर बूढ़े हो जाते होंगे मगर वासनाएं तो जवान ही होती हैं। बूढ़ों की और विक्षिप्त हो जाती है; क्योंकि जवान तो कुछ कर भी सकता है अपनी वासनाओं के लिए, बूढ़े तो कुछ भी नहीं कर सकते।
मुल्ला नसरुद्दीन बैठा कुरान पढ़ रहा था। सुबह, सर्दी की सुबह। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। लेकिन कुरान कौन पढ़ाता है! वह तो बूढ़े ऐसा रख लेते हैं कुरान को सामने...मगर देख रहा था सड़क पर। एक संुदर स्त्री निकली, एकदम आवाज दीः फजलू, फजलू! दांत ला।
फजलू ने कहा कि कुरान पढ़ने में दांत की क्या जरूरत है? अरे..उसने कहा..दांत ला पहले, एक जवान स्त्री जा रही है। सीटी बजाने का मन हो रहा है।
यह सीटी बजाने का मन, दांत न हों तो भी समाप्त नहीं होता। जवान तो सभी मर जाते हैं। प्रौढ़ हो ही कौन पाता है! हां, कोई बुद्ध, कोई कबीर, कोई जीसस, कोई महावीर, कोई मोहम्मद..ऐसे लोग प्रौढ़ होते हैं, बाकी तो अप्रौढ़ ही मरते हैं। शरीर के धोखे में मत आना। शरीर तो बूढ़ा सभी का हो जाता है, लेकिन आत्मा की प्रौढ़ता जिसकी हो जाए उसकी मृत्यु धन्य भाग है..नहीं तो सभी की मृत्यु वैसा ही है दुर्भाग्य, जैसा उनका जीवन था।
और तू कहती है उर्मिला कि वे विक्षिप्त से हो गए हैं बेटे की अचानक मृत्यु से। क्या तू सोचती है जितने लोग विक्षिप्त होते हैं वे सब बेटों की अचानक मृत्यु से विक्षिप्त होते हैं? बेटे की मृत्यु तो सिर्फ बहाना होगी। अगर बेटा न मरता तो किसी और कारण विक्षिप्त होते। अगर विक्षिप्त होने की भीतर संभावना थी, तो कारण कोई न कोई मिल भी जाता..मिल ही जाता! ये तो बहाने हैं कि बेटा मर गया। अच्छा बहाना मिल गया। अब लोग कुछ कह भी नहीं सकते। अब विक्षिप्त होने के लिए तुम्हें पूरी स्वतंत्रता मिल गई। नहीं तो किसी और बहाने विक्षिप्त होते। धंधे में नुकसान लग जाता। और ऐसा ही नहीं कि नुकसान लगने से लोग विक्षिप्त होते हैं; अरे कभी-कभी ज्यादा लाभ हो जाता है, उससे भी विक्षिप्त हो जाते हैं। लाटरी खुल गई और विक्षिप्त हो गए। आदमी को विक्षिप्त ही होना हो तो बहानों की इस संसार में कोई कमी नहीं है।
एक स्त्री के पति को लाटरी मिल गई। वह बहुत घबड़ाई। पति तो दफ्तर में थे, घर खबर आई कि लाटरी मिल गई है..दस लाख रुपया। वह इतनी घबड़ा गई...ईसाई स्त्री, पास के पड़ोस के पादरी के पास भागी गई और पादरी से कहा कि अब आप ही सम्हालो। मैं डरती हूं, क्योंकि मुझे मालूम है, उन्हें दस रुपये का नोट भी पड़ा मिल जाए तो रात भर नहीं सो सकते। उनकी एकदम हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, खून की चाल बढ़ जाती है। दस लाख रुपये! बरदाश्त न कर सकेंगे। वे मर ही जाएंगे। नहीं तो पागल हो जाना तो निश्चित ही है। अब आप बचाओ। आप ही बचा सकते हो, और कोई नहीं बचा सकता।
पादरी ने कहा: बिल्कुल फिकर मत कर। यही हमारा काम है। मैं आता हूं। पति के आने के पहले मैं आ जाता हूं। पादरी आकर जम कर बैठ गया। पति दफ्तर से आए। पादरी ने पूरी की पूरी व्यवस्था बना ली थी कि धीरे-धीरे बताना है। एकदम से दस लाख रुपया ज्यादा हो सकता है। सिर की नसें फट जाएं, कुछ भी हो जाए।
तो पादरी ने कहा: सुनते हो, पचास हजार रुपये मिले हैं लाटरी में! फिर देखा उसने कि क्या असर पड़ता है। अगर पचास हजार पचा जाए तो फिर पचास हजार और बताएंगे। वे भी पचा जाए तो फिर और, फिर और, ऐसे धीरे-धीरे बता कर दस लाख बता देंगे।
पति ने कहा: पचास हजार! अगर पचास हजार मुझे मिले हैं तो पच्चीस हजार आपके चर्च के लिए दान। पादरी वहीं गिरा, उसका हार्ट फेल हो गया।
उसने सोचा ही नहीं था कि यह..पच्चीस हजार एकदम से!
कुछ कहा नहीं जा सकता कि कौन किस कारण पागल हो गया है। कारण इत्यादि अकारण हैं।
तू कहती है उर्मिला: मेरे ससुर जवान बेटे की अचानक मृत्यु से विक्षिप्त से हो गए हैं। अगर गौर से देखो तो अधिकतम लोग विक्षिप्त से हैं। किसी का पता चल जाता है, किसी का पता नहीं चलता। शायद बेटे के मरने से तेरे ससुर की असलियत का पता चल गया, और कुछ मामला ज्यादा नहीं हो गया है। डिग्रियों के फर्क हैं। कोई निन्यानबे डिग्री पागल, कोई सौ डिग्री पागल, कोई एक सौ एक डिग्री बस इतना फर्क है। कोई गुणात्मक भेद नहीं है, परिमाण का भेद है। ससुर रहे तो होंगे निन्यानबे डिग्री पागल, तू फिर से विचार करना। बेटे के मरने से पहले की जरा हालत पर विचार करना ससुर की। निन्यानबे डिग्री तो रहे ही होंगे। हां, हो सकता है बेटे ने ऊंट पर आखिरी तिनका कि उंट बैठ गया। कोई आखिरी तिनके से ऊंट बैठता है; मगर बोझ काफी था, आखिरी तिनके ने पूरा कर दिया। शायद बेटे की चोट आखिरी हो गई। चोटों पर चोटें पड़ी होंगी। चोंटें तो पड़ेंगी। जहां आसक्ति है वहां चोट पड़ेगी। जहां आसक्ति है वहां विक्षिप्तता की संभावना है। आसक्ति विक्षितता है-छिपी हुई; बीज है उसका।
लेकिन हम विक्षितता को भी छिपाने के उपाय कर लेते हैं। कोई आदमी बैठा हुआ माला फेर रहा है; उसको हम पागल नहीं कहते लेकिन अगर रूस में वही आदमी माला फेरे, फौरन उसको पागलखाने भेजा जाएगा। क्योंकि यह कोई बात हुई कि सुबह-सुबह बैठे और माला फेर रहे! रूस जाओ तो भूल कर माला मत फेरना, नहीं तो लोग समझेंगे विक्षिप्त हो, क्योंकि उन्होंने धर्म की आड़ छोड़ दी। अब धर्म की आड़ में विक्षिप्तता नहीं चल सकती वहां।
मैं एक सज्जन को जानता हूं, जो नल से पानी भरें, स्त्री दिख जाए, फिर से बर्तन मांजें, फिर से पानी भरें। मेरे पड़ोस में ही रहते थे। उनकी बड़ी ख्याति थी, उनको लोग महात्मा मानते थे..है तो पहंुचा हुआ सिद्ध! कभी कभी तो उनको दस दफा, बीस दफा, बर्तन मांजना पड़े। मगर वे भी एक थे जिद्दी। अब यह पागलपन ही है, मगर धार्मिक हवा में इसका नाम धार्मिकता है। स्त्री दिख भर जाए...।
पड़ोस में ही एक स्त्री रहती थी, मैंने उससे कहा कि मैं तुझे दस रुपये दूंगा, तू आज महात्मा को दिखती ही रह। कब तक ये मलते हैं बर्तन, देखें!
उसे दस रुपये मिले, उसने कहा ठीक है। तो महात्मा बर्तन मलें, वे जब बर्तन मल कर जैसे ही पानी भरें, वह स्त्री फिर निकल आए। एक दफा, दो दफा, तीन दफा, ...वही की वही स्त्री। पच्चीस-तीस दफा उन्होंने बर्तन मला। दोपहर होने लगी, फिर राज कुछ उन्हें समझ में आ गया। बर्तन वहीं पटका और भागे हुए आकर मेरे पास आए। कहा कि बंद करवाइए! मैंने कहा: भाई मेरा इसमें क्या लेना-देना है? उन्होंने कहा: वही की वही औरत बार-बार आ रही है, मुझे शक है कि आपका इसमें हाथ है।
मैंने कहा: तुम्हीं क्यों नहीं बंद करते? तुम ही कह दो कि आओ जिसको आना हो, आज बर्तन नहीं मलेंगे! तुम मालिक हो, तुम मुख्तियार हो।
और मैंने कहा: स्त्री देख कर तुम्हारा बर्तन कैसे गंदा हो जाता है, यह भी मेरी समझ में नहीं आता! आंख पर पानी मार लिया करें। बर्तन तो देख ही नहीं सकता कि स्त्री आई कि पुरुष आया, कौन आया! बर्तन तो बर्तन है। न आत्मा बर्तन में, न आंखें बर्तन में, बर्तन को क्या पता! बर्तन को नाहक घिसते हो! समय खराब करते हो। और स्त्री आई, आंख पर पानी मार लिया, या स्त्री आई तो आंखें बंद ही कर लीं।
और फिर मैंने उनसे कहा कि मां के पेट में नौ महीने रहे कि नहीं? फिर मां के स्तन से दूध पीआ कि नहीं? और दिन में और दूसरे काम भी करते रहते हो, स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं, तब झंझट में नहीं आते? कि कपड़े पहने चले जा रहे, स्त्री दिख गई, फौरन कपड़े धोने लगे। अगर महात्मा ही हो तो कुछ ऐसे काम कर के दिखाओ। यह बर्तन का क्या कसूर है?
और मैंने कहा: यह सस्ती महात्मागिरी मैं नहीं चलने दूंगा। मैंने तो स्त्री को रख छोड़ा है। दस रुपये उसको रोज दूंगा। वे महात्मा दूसरे दिन मोहल्ला ही छोड़ कर चले गए। पता चला वे दूसरे मोहल्ले में महात्मा हो गए हैं।
इसको महात्मापन कहोगे? यह विक्षिप्तता है। एक आदमी बैठा किताब में राम-राम, राम-राम, राम-राम लिखता रहा है और लोग कहते हैं: अहा! कैसा धार्मिक पुरुष! तुम जरा एक किताब में बैठ कर लिखो न कोकाकोला-कोकाकोला-कोकाकोला, और तुम्हारी पत्नी देखेगी, बेटा देखेगा और कहेगा कि अच्छा चलो डाक्टर के पास! यह क्या कर रहे? और राम-राम लिखो तो धार्मिक और बेचारे कोकाकोला ने क्या बिगाड़ा है! इससे ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय कोई मंत्र ही नहीं है। राम-राम लिखो, हिंदुओं का होगा। अल्लाह-अल्लाह लिखो, मुसलमानों का होगा। मगर कोकाकोला सब का! एकमात्र नाम है जो अंतर्राष्ट्रीय है, जिसके लिए कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। रूस में भी नहीं! अगर रूस में भी कोई एक अमरीकन चीज तुमको मिल सकती है तो कोकाकोला। मगर कोकाकोला लिखे आदमी तो पागल! और कुछ अंट-संट लिखे..हिरीम् श्रीम् श्रीम्...मंत्र लिख रहा है..वेदमंत्र!
तेरे ससुर उर्मिला पहले से ही कुछ गड़बड़ रहे होंगे। यह बेटे ने तो कलई खोल दी। उनका इलाज करवाओ, इसमें बेटे के मरने का कोई कसूर नहीं।
उनको आवश्यकता है कि थोड़ा आसक्ति से मुक्त होना सीखें। उनको आवश्यकता है कि जीवन के इस परम सत्य को स्वीकार करना सीखें कि मृत्यु है और बेटे की मौत से कुछ पाठ सीखें कि जब बेटा तक नहीं बचा तो मैं कितनी देर बचूंगा! विक्षिप्त होने की क्या बात है, संन्यस्त होने की जरूरत है! विक्षिप्त होने का कहां सवाल है, ध्यानस्थ होने का सवाल है। बेटा मर गया तो ध्यान करो। बेटा मर गया हो समाधि साधो, कि कहीं तुम भी ऐसे ही न मर जाओ। यह बेटा तो बेकार गया, कहीं तुम भी बेकार न चले जाओ। यह बेटा तो खाली कारतूस निकल गया, तुम्हें भी खाली ही कारतूस की तरह टांय-टांय फिस्स हो जाना है, कि कुछ जीवन में उपलब्धि करनी है?
और तू इस चिंता में संन्यास रोक रही है अपना, कि कहीं मेरे गेरुआ वस्त्र पहनने से उनकी मृत्यु न हो जाए! मेरे एक लाख संन्यासी हैं, अभी तक किसी के ससुर की मृत्यु तो नहीं हुई। सिर्फ गणित के आधार पर ही काफी है। मत घबड़ा! ऐसे कहीं कोई मरता है? जब बेटे की मृत्यु से भी नहीं मरे तो तेरे गेरुआ पहनने से मर जाएंगे! यह तू बहाना खोज रही है अब..यह ससुर की आड़ कि कहीं ससुर न मर जाएं। और तू गेरुआ नहीं पहनेगी तो ससुर नहीं मरेंगे, यह पक्का है? अगर यह पक्का हो तो मैं कहता हूं गेरुआ मत पहन। रहने दो बेचारे ससुर को जिंदा, सदा जिंदा रहने दो! लेकिन ससुर तो मरेंगे, गेरुआ पहनो या न पहनो। गेरुआ पहनने से कोई नहीं मरता। न तो अब तक कोई ससुर मरा, न कोई सास मरी, न कोई पिता मरे, न कोई मां मरी, न कोई पत्नी मरी, न कोई पति मरा, न कोई बेटा ...कोई नहीं मरता। गेरुआ पहने से किसी के मरने का क्या सवाल? अरे गेरुआ भी और रंगों में एक रंग है। काला कपड़ा पहन लो, कोई नहीं मरता; पीला पहन लो, कोई नहीं मरता; हरा पहन लो, कोई नहीं मरता..गेरुआ पहन लिया कि मर गए! गेरुआ क्या कोई जहर है? हां, इतना जरूर है कि मर गए होंगे तो गेरुआ पहन कर एकदम उठ कर खड़े हो जाएंगे कि क्यों, यह तूने क्या किया? और बेटे की चोट से उनको जो थोड़ी अस्त-व्यस्तता हुई है, वह रास्ते पर आ जाएंगे। क्योंकि अक्सर ऐसा होता है, छोटी चोट को भुलाने के लिए बड़ी चोट की जरूरत पड़ती है।
जैसे तुम्हारे सिर में दर्द है और मैं बता दूं कि सिरदर्द! सिरदर्द में क्या रखा है, तुमको टी.बी. है। सिरदर्द एकदम खतम हो जाएगा। जब टी.बी. है तो कौन सिरदर्द की फिकर करे! फिर बाद में समझा दूंगा कि टी.बी. नहीं है, वह तो सिरदर्द का इलाज था।
बर्नार्ड शॅा ने अपने जीवन में उल्लेख किया है। उसने अपने डाक्टर को खबर की, फोन किया कि मुझे हृदय का दौरा पड़ा है। डाक्टर खुद बूढ़ा है, पुराना डाक्टर है। बर्नार्ड शॅा खुद बूढ़ा, उसका डाक्टर बूढ़ा। अब हृदय का दौरा पड़ा है आधी रात को तो बेचारा डाक्टर उठा, तीन मंजिल सीढ़ियां चढ़ा, जब तक वह ऊपर पहंुचा तो उसकी छाती फूलने लगी, श्वास चढ़ गई वह डाक्टर एकदम लेट गया, कुर्सी पर लेट गया। बर्नार्ड शॅा बिस्तर पर लेटा था, उठ कर बैठ गया, कहा: ‘क्या हुआ? ’ वह बोले ही नहीं। तो बर्नार्ड शॅा उठा, पानी के छींटे मारे, पंखा किया। पंद्रह-बीस मिनिट के बाद डाक्टर आंख खोला, और बोला कि अब थोड़ा ठीक लग रहा है।
चलते वक्त डाक्टर ने फीस मांगी। बर्नार्ड शॅा ने कहा: फीस काहे की? उलटा तुम्हारी मुझे सेवा करनी पड़ी। डाक्टर ने कहा कि वह तुम्हारा इलाज था। तुम देखो भले-चंगे दिखाई पड़ रहे हो। तुम भूल ही गए अपनी झंझट। अब घर में आदमी मर रहा हो सामने, तो किसको याद रह जाए अपने हृदय के दौरे पड़ने की! उसने कहा कि वह तो तुम्हारा इलाज था। फीस तो लूंगा फीस उसने ली। और बर्नार्ड शॅा ने कहा कि बात भी उसकी ठीक थी, क्योंकि पंद्रह-बीस मिनट उसकी हवा करना, पंखा करना, पानी पिलाना, उसमें मैं भूल ही गया, भूल क्या बिल्कुल ठीक ही हो गया! जब तक वह ठीक हुआ, तब तक मैं बिल्कुल स्वस्थ ही था।
शायद उर्मिला तेरे गेरुए वस्त्रों में पहंुच जाना उनको ऐसा धक्का दे कि वे सम्हल जाएं। भूल ही भाल जाएं बेटे की असमय मृत्यु; सोचने लगें कि उर्मिला को क्या हो गया! यह असमय का संन्यास! मौत पर तो आदमी का बस नहीं है, इसलिए कुछ कर नहीं सकते, अब बेटे से कुछ लड़-झगड़ नहीं सकते। लेकिन तुझसे लड़-झगड़ सकते हैं, बातचीत करेंगे, बकवास करेंगे, अपना ज्ञान दिखलाएंगे। चलो एक नई व्यस्तता हो जाएगी। कौन जाने इसी में विक्षिप्तता ठीक हो जाए! इसी में बेटे की मौत भूल जाए..और बड़ा उपद्रव हो गया!
मेरा संन्यास मौत से कुछ छोटा उपद्रव नहीं है।
तो मैं तो कहूंगा कि ससुर से अगर तेरा कुछ भी लगाव हो, थोड़ी करुणा उन पर हो, तो संन्यास ले ही ले। मरेंगे-वरेंगे नहीं। ऐसे कोई मरता ही नहीं। मरना कुछ आसान मामला है? कोई ऐसी छोटी-मोटी बातों से मरता है। बेटा जुआ खेलने लगे तो बाप नहीं मरता, शराब पीने लगे तो बाप नहीं मरता; संन्यास लेने से मर जाएगा? संन्यास लेकर कौन सा पाप किया? हो सकता है संन्यास लेने से उनको भी थोड़ा बोध आए।
और संन्यास सिर्फ गैरिक वस्त्र ही तो नहीं है। गैरिक वस्त्र तो केवल बाह्य आवरण है संन्यास का। साथ में ध्यान को लेकर जा, आनंद को लेकर जा। नाचती हुई जा! तो शायद तेरा नृत्य, तेरा गीत, तेरा संगीत, तेरा आनंद उनको छुए। शायद उन्हें भी होश आए कि अब अपने भी दिन कम बचे हैं, अब कुछ कर लेने जैसा कर लेना चाहिए।
डर मत। डरने की कोई जरूरत नहीं है। और अगर ससुर मर भी जाएं तो पाप मेरा, तू फिकर छोड़। मैं लोगों के पाप अपने ऊपर ले लेता हूं। उसका निपटारा मैं कर लूंगा। कयामत के दिन जब पूछताछ होगी, तू मेरी तरफ इशारा कर देना कि इस आदमी ने संन्यास दिया था, हमारा कोई कसूर नहीं है। और ये इतने मेरे संन्यासी गवाह हैं कि पाप मेरा रहेगा, क्योंकि मैं जानता हूं: मृत्यु होती ही नहीं, पाप कैसे होगा! कोई कभी मरा है? सिर्फ देह बदलती है। जैसे कपड़े कोई बदल ले।
मृत्यु सबसे बड़ा झूठ है इस जगत में और सबसे बड़ा सत्य होकर बैठ गया है। लेकिन तुम झूठों में जीते हो। तुम्हारा अहंकार झूठ है। तुम्हारा जन्म झूठ है। तुम्हारी मृत्यु झूठ है। न तो तुम कभी जन्में हो, क्योंकि जन्म के पहले भी तुम थे। तुम्हारा अहंकार झूठ है, क्योंकि तुम परमात्मा से अलग नहीं हो, भिन्न नहीं हो; इसलिए कैसा मैं? वही है एकमात्र वही है! और तुम्हारी मृत्यु भी झूठ है, क्योंकि तुम हो ही नहीं तो मरेगा कौन? परमात्मा थोड़े ही मरेगा, परमात्मा थोड़े ही मर सकता है। तुम मृत्यु के बाद भी रहोगे।
असल में ‘मैं’ असली झूठ है, जिसके कारण दो झूठ और पैदा हो गए..जन्म और मृत्यु। यह ख्याल कि मैं अलग हूं, नई-नई भ्रांतियां पैदा करवाता है कि मेरा जन्म हुआ, अब मेरी मृत्यु होगी।
मैं हूं ही नहीं..यह जानना ही संन्यास है। मैं असत्य हूं, यह अहंकार झूठ है; परमात्मा सत्य है; मैं उसी की एक लहर हूं..यह जानना संन्यास है। और जिसने ऐसा जान लिया कि मैं सिर्फ एक लहर मात्र हूं, उसके जीवन में कहां मृत्यु, कहां जन्म?
तू मृत्यु और जन्म से मुक्त होकर जा। शायद तेरी मुक्ति तेरे ससुर को भी इशारा बन जाए, शायद उनका जीवन क्रांति का कारण बन जाए।
इस अवसर को छोड़ मत।
तू कहती है: ‘और मैं संन्यास लेना चाहती हूं, बड़ी आशा लेकर आई हूं!’
बड़ी आशा लेकर आई है तो खाली हाथ मत जा। मैं तेरी झोली भरने को राजी हूं।

तीसरा प्रश्नः ओशो, मैं आपको सुनते-सुनते सो जाता हूं; पता नहीं यह तारी है या खुमारी है, या केवल साधारण निद्रा मात्र है। प्रकाश डालने की कृपा करें!

 धर्मदास! भैया, तारी या खुमारी तो जरा मुश्किल है। निद्रा ही होगी। तारी और खुमारी होती तो प्रश्न उठता ही नहीं। लेकिन कुछ चिंता न लेना। धर्म-सभा का यह नियम है। वहां जो न सोए सो नासमझ है। समझदार तो गहरी निद्रा लेते हैं। यही तो अवसर है सोने का। रात इत्यादि तो दूसरे कामों के लिए बनी है..चिंताएं हजार, सपनों की भीड़, कहां फुर्सत है! धर्म-सभा ऐसी जगह है..न चिंता, न फिकर; न घर, न द्वार; न पत्नी, न बच्चे, एकदम निशिं्चत! ऐसा अवसर कौन छोड़े! लोग घुर्राटे लेते हैं।
मैं तो बहुत से डाक्टरों को जानता हूं। अनिद्रा के रोगियों को वे कहते हैं: भैया, धर्म-सभा में जाओ! अगर कोई और शामक दवा काम न करे तो फिर यह दवा जरूर काम करती है।
और धर्मदास, मैं तुम्हें जानता हूं, भलीभांति पहचानता हूं; सो सौ प्रतिशत नींद ही है।
मैटरनिटी हास्पिटल के जनरल वार्ड से नर्स गोद में एक काला-कलूटा, अधमरा सा बच्चा लिए बाहर निकली। बाहर खड़े अनेक व्यक्तियों के बीच से नसरुद्दीन जोर से बोला: सिस्टर, यह बच्चा मेरा है! नर्स को तो बहुत आश्चर्य हुआ। वह बोलीः मगर नसरुद्दीन, तुमने पहचाना कैसे कि यह तुम्हारा ही बच्चा है?
नसरुद्दीन बोला: अजी, मैं अपनी बीबी को अच्छी तरह जानता हूं, जो भी चीज बनाती है ऐसा ही जला-भुना देती है।
सो धर्मदास, मैं तुम्हें जानता हूं। खुमारी, समाधि..इस झंझट में तुम न पड़ोगे। तुम तो मजे से सो रहे होओगे। और नाम ही तुम्हें धर्मदास का किसलिए दिया है? धार्मिक हो। और धार्मिक आदमी और करे क्या! दर्शन को भी तुम आते हो तो मैं चकित होता हूं कि कैसे चले आ रहे हो! नींद तुम्हारी ऐसी गहरी है।
मगर कुछ लोग नींद में भी चलते हैं। सौ में से दस प्रतिशत लोग नींद में चल सकते हैं, मनोवैज्ञानिक कहते हैं। नींद में उठते हैं, काम भी कर लेते हैं, फिर सो जाते हैं। जाकर किचन में टटोल कर कुछ खा-पी आते हैं, फिर सो जाते हैं। और सुबह उनसे पूछो, उन्हें कुछ याद नहीं है। नींद में चलना संभव है।
तुम्हें जब देखता हूं आते, तो मैं सोचता हूं: ये चले आ रहे, चमत्कार! सब सोया है तुम्हारे भीतर। तुम्हें देख कर मुझे नींद का ही पहले ख्याल आता है। असल में तुम अगर ज्यादा मेरे साथ सत्संग करो तो तुम्हारे जगने की कम संभावना है, मेरे सो जाने की ज्यादा है। तुम्हारा अभ्यास गहरा है।
कई संन्यासी अपने बच्चों को संन्यास लिवाने ले आते हैं। जब तक उनका नाम पुकारा जाए, तब तक बच्चे सो जाते हैं। तो बेचारे पिता या मां थोड़े से हतप्रभ होते हैं, कहते हैं क्षमा करें! मैं कहता हूं: तुम बिल्कुल फिकर मत करो। यह मेरा रोज का ही काम है..सोए लोगों को ही संन्यास देना है। ये बच्चे तो बेचारे सच्चे हैं, सो मजे से सो रहे हैं। बाकी चालबाज हैं, आंख भी खोले हैं और सो भी रहे हैं।
कुछ लोग हैं जिनको आंख खोल कर भी सोने का अभ्यास होता है। एक महिला को तो मैं जानता हूं कि वे आंख खोल कर सो सकती हैं। उनको मैंने आंखें खोले सोए हुए देखा है। जब वे कभी मेरे घर आकर मेहमान होती थीं, तो मैं छोटे बच्चों को डराने के लिए उनका उपयोग करता था कि जब भी वे सोएं, बच्चों को भेजूं कि जरा अंदर जाकर तो देखो क्या हो रहा है। बच्चे देखें कि नींद भी लगी है, घुर्राटा भी चल रहा है..और आंखें भी खुली हैं!
ढब्बू जी को पेंटिंग का शौक था। एक दिन उन्होंने अपने मित्र डाक्टर को पेंटिंग दिखाने के लिए बुलाया। सूर्योदय और सूर्यास्त, वृक्षों और पक्षियों के चित्र देख कर तो डाक्टर पर कोई असर पड़ा नहीं; यद्यपि वे चित्र बहुत खूबसूरत थे। फिर आया एक बूढ़ी दुबली-पतली स्त्री का दृश्य। डाक्टर की आंखें उस पर गड़ी रह गईं। ढब्बू जी को थोड़ी राहत मिली, वे खुशी से बोले: मुझे अपनी बनाई हुई सभी कला कृतियों में यही सर्वश्रेष्ठ लगती है..बुढ़ापे के दुख की कथा, हताशा और पीड़ा चेहरे की झुर्रियों में स्पष्ट झलक आई है। आपका इस चित्र के संबंध में क्या ख्याल है?
डाक्टर ने गंभीर स्वर में अपनी राय पेश कीः आप मानें या न मानें, ढब्बू जी, मुझे तो पूरा विश्वास है, इस बुढ़िया को टी.बी. है।
धर्मदास, तुम्हें नींद की बीमारी है। तुम जब सोते हो, तब तो तुम सोते ही हो; जब तुम जागे हो, तब भी तुम सोए हो। लेकिन कल चर्चा सुन कर..तारी, खुमारी..ये शब्द तुम्हारे कानों में पहंुच गए होंगे नींद में। तुमने सोचा होगा: हो न हो, यह भी खूब रही! हमें तारी लगती रही अब तक और हम नींद समझते रहे!
आदमी को सुंदर-संुदर व्याख्याएं मिल जाएं अपनी बीमारियों की, तो उनको, बीमारियों को ढांक लेने की कोशिश करने में लग जाता है। लोग अपनी विक्षिप्तता को धर्म कह सकते हैं। लोग अपनी मूढ़ता को धर्म बना लेते हैं। लोग अपनी निद्रा को भी समाधि कह सकते हैं। लोग चाहते हैं अच्छे शब्द। अहंकार ऐसा आतुर है!
एक सज्जन हैं, उनको मिर्गी की बीमारी है तो बेहोश हो जाते हैं, मुंह से फसूकर गिरने लगता है। वे मेरे पास आए और कहने लगे कि मैं रामकृष्ण का जीवन पढ़ रहा हूं, तो उसमें ऐसा आता है कि वे भी बेहोश हो जाते थे और मंुह से फसूकर गिरता था, तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि वही अवस्था मेरी भी है और लोग गलती से समझ रहे हैं कि मुझे मिर्गी की बीमारी है!
उनकी आंखें देख कर मुझे लगा कि कैसे सच इनसे कहूं, बड़ी चोट लगेगी। उनका चेहरा बिल्कुल ऐसा, लार टपकी जा रही, कि मैं कह दूं कि हां यही बात है। मगर मैं यह भी तो कैसे कहूं! मगर उनकी उत्सुकता यही है कि अगर मैं कह दूं कि हां तुम्हें भी वही अवस्था आ गई जो रामकृष्ण की थी, तो वे इतने आनंदित होंगे कि उनके आनंद का कोई हिसाब न होगा। फिर वे घोषणा करेंगे दुनिया में कि हां गुरु है अगर कोई सच्चा तो यह।
लोगों को सत्य से प्रयोजन नहीं है। लोगों को सांत्वना मिले, ऐसी बातों से प्रयोजन है, चाहे वह असत्य ही क्यों न हो। और सच यही है कि असत्य से ज्यादा सांत्वना मिलती है सत्य की बजाय। सत्य तो झकझोर देता है। सत्य तो कड़वा लगता है। बुद्ध ने कहा है: सत्य पहले कड़वा लगता है, फिर मीठा। और असत्य पहले मीठा लगता है, फिर कड़वा। असत्य पर शक्कर की पर्त चढ़ाई जा सकती है, सत्य पर नहीं चढ़ाई जा सकती। सत्य तो जैसा है, नग्न, वैसा ही होता है।
एक धर्मगुरु अपना व्याख्यान दे रहे थे। मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी गुलजान सामने वाली पंक्ति में ही बैठे हुए थे। तभी धर्मगुरु ने देखा कि मुल्ला की पत्नी तो वहीं बैठे-बैठे ही आंख बंद करके घुर्राटे लेने लगी है। धर्मगुरु ने थोड़ी तो बेचैनी प्रकट की, कसमसाया, फिर भी शांत रहा। पर थोड़ी देर बाद मुल्ला ने अपनी छड़ी उठाई, अपनी टोपी सीधी की और उठ कर चलता बना। धर्मगुरु को यह तो बहुत बुरा लगा कि कोई उठ कर चला जाए। वह तो खैर ठीक कि कोई सो जाए, मगर उठ कर चला जाना किसी का, धर्मगुरु को बहुत अखरा। धर्म-सभा के अंत में उन्होंने मुल्ला की पत्नी से कहा कि देख, तू व्याख्यान के बीच सो गई सो ठीक, मगर तेरे पति को क्या हुआ? मैंने ऐसा क्या कहा कि वह उठ कर ही चला गया?
गुलजान बोलीः महोदय, आप चिंता न करें। दरअसल उन्हें नींद में चलने की आदत है।
धर्मदास, नींद ही होगी। तारी तो साधनी पड़ेगी, साधना करनी होगी। तारी तो तब लगेगी जब दशम द्वार के करीब पहंुचोगे। जब सहस्रदल कमल पहली बार खुलने लगेगा तब तारी लगेगी। और जब खुल जाएगा तो खुमारी। तारी शुरुआत है, खुमारी अंत है। ये समाधि के दो अंगः तारी पहला कदम और खुमारी अंतिम। लेकिन लग सकती है तारी। जब नींद लग सकती है तो तारी भी लग सकती है। जिंदा हो, इत्ता तो पक्का है। जिंदा न होओ तो सो भी नहीं सकते। मुर्दा कहीं सोते हैं! जिंदा हो इतना तो पक्का है; नींद से इतनी खबर मिलती है। नींद लग सकती है तो जागरण भी हो सकता है। नींद में ही जागरण की क्षमता छिपी है। नींद के ही आवरण में जागरण छिपा है। जैसे बीज के खोल के भीतर फूल छिपे हैं।
तो घबड़ाओ मत। मगर झूठे आश्वासन भी मत मांगो। मैं आखिरी आदमी हूं जो तुम्हें कोई आश्वासन दे सकूं। मैं तो कोई अवसर नहीं चूकता, जब कि मैं चोट कर सकूं तो जरूर करता हूं। बिना चोट किए तुम जग नहीं सकते। अब एक बात पक्की है कि इतनी बातें तुमने जग कर सुनी होंगी। यह बात बिल्कुल पक्की है कि धर्मदास अभी नहीं सो सकते। अभी कैसे सोएंगे! अभी तो उनकी जान पर गुजर रही होगी कि यह मारा, कि यह मारा! कि भीतर ही भीतर कह रहे होंगे कि किस दुर्घड़ी में यह प्रश्न पूछ लिया! अभी नहीं सो सकते। अगर अभी सो रहे होओ तो बोलो। अभी नहीं सो सकते। अभी तो बिल्कुल जगे होओगे। अभी तो एकदम जाग गए होओगे। चोट पड़ेगी बार-बार तो जागने लगोगे।
सदगुरु का काम ही यही है कि वह तुम्हारी नींद को तोड़ दे, चाहे यह कितना ही पीड़ादायक, कितना ही कठोर कृत्य क्यों न मालूम पड़े। सदगुरु की करुणा यही है कि अगर उसे कठोर होना पड़े तो कठोर हो।
ले चलेंगे तुम्हें तारी की तरफ। ले चलेंगे तुम्हें खुमारी की तरफ। उसी का तो सारा आयोजन है। तुम्हें डुबो देना है शराब में, खुमारी में! रोआं-रोआं डुबा देना है। तुम्हारे भीतर कोई अणु भी न रह जाए प्यासा। शराब में तुम्हें डुबकी लगवा देनी है। लेकिन जागे बिना यह नहीं हो सकता। जागने की प्रक्रिया सीखो।
धर्मदास, विपस्सना में उतरो, ध्यान करो, होश सम्हालो। धीरे-धीरे! छोटे-छोटे काम होशपूर्वक करने लगो। चलो तो होशपूर्वक बैठो तो होशपूर्वक। कम से कम यहां जब रहो, जब सत्संग में बैठो, तो अपने को झकझोर कर बैठो। नींद आए, तोड़ दो नींद को! और ऐसा नहीं है कि तुम तोड़ना चाहो तो न तोड़ सको।
घर में आग लग जाए, उस रात तुम सो सकते हो? दिन भर के थके-मांदे घर लौटे हो, ऐसा लगता है कि गिरते ही बिस्तर पर सो जाएंगे, और घर में आग लग जाए..फिर रात भर जागे रहोगे। तुम्हारे संकल्प की बात है। तुम्हारे निर्णय की बात है। जागना चाहो, निर्णय करो, संकल्प करो, तो कोई पृथ्वी पर तुम्हें सुला नहीं सकता। और तुम जाग जाओ तो ही परमात्मा की पहचान हो सकती है। सोए-सोए तो जो पहचान होगी, पदार्थ की होगी, परमात्मा की नहीं; देह की होगी, आत्मा की नहीं; व्यर्थ की होगी, सार्थक की नहीं। सोए रहे तो सपनों के जाल में खोए रहोगे..माया। और जागे तो माया समाप्त, सपने समाप्त। तो प्रभात हो गई, भोर हो गया। फिर तुम पंख फैला सकते हो। फिर आकाश में उड़ सकते हो।

आखिरी प्रश्नः ओशो, मैं राजनीति में हूं, क्या राजनीति छोड़ कर संन्यासी बन जाऊं?

रामेश्वर प्रसाद! राजनीति इतनी आसानी से छोड़ सकोगे? राजनीति में रग-पग गए होओगे। राजनीति भीतर घुस गई होगी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस चुनाव में हार गए होओ, तब सोचा कि चलो संन्यासी हो जाएं। तब संन्यास भी राजनीति ही होगी। और कुछ नहीं..कि चलो अपनी हार को भी जीत का ढंग दे दिया, कि कह दिए कि अंगूर खट्टे हैं! कि अरे जीतना ही कौन चाहता था! कि हमें रस ही नहीं राजनीति में। नहीं तो अचानक तुम यहां आ कैसे गए? जो सत्ता में होते हैं, उनका तो पता ही नहीं चलता फिर।
मुझे पहले भूत-प्रेतों में विश्वास नहीं था, लेकिन अब है: क्योंकि इतने भूतपूर्व मंत्री, इतने भूतपूर्व मुख्यमंत्री, इतने भूतपूर्व उपमंत्री कि लगता है कि भूत-प्रेत भी होते हैं। भूतपूर्व मंत्री आते हैं। मंत्री तो एकदम नदारद हो जाते हैं! तुम जरूर कहीं पछाड़ खा गए, कहीं पिट गए। अब तुम सोच रहे होओगे कि चलो संन्यास...तो कह देंगे कि हमें रस ही नहीं है, हमें कुछ लेना-देना ही नहीं।
कहते हो: ‘मैं राजनीति में हूं, क्या राजनीति छोड़ कर संन्यासी बन जाऊं? ’
अगर तुम्हें संन्यास समझ में आ गया, तो राजनीति छूट गई; छोड़ना नहीं पड़ेगी। और अगर छोड़ना पड़े, तो मैं कहूंगा, अभी मत छोड़ना। क्योंकि जिसे छोड़ना पड़ता है वह कुछ न कुछ बचा रह जाता है। छोड़ना पड़ने में जो चेष्टा करनी पड़ती है, उसमें ही बात बच जाती है।
और फिर इस बार हार गए तो क्या हर्ज है, लगे रहो! कितने ही पीटो, मगर लगे रहो। तो एक न एक दिन घुस ही जाओगे। सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा घुस कर देखें। जूतों-मूतों की फिकर मत करना। ये तो अच्छे लक्षण हैं। यह तो इस बात की खबर है कि जनता तुम्हें पहचानने लगी। खाते ही रहे जूते तो एक न एक दिन तमाशा घुस कर देखोगे। और तमाशा दिल्ली बिना पहंुचे कोई देख सकता नहीं। तमाशा तो सब वहीं है। लगे रहो, इतनी जल्दी क्या हारना! कुछ कला सीखो राजनीति की, अगर हार गए।

नोट के दम पर वह वोट लेता है
बेचारा कुर्सी के लिए
टमाटर और अंडे
गाली और डंडे
क्या-क्या नहीं सहता है
हूटिंग हो कितनी ही
मंच पर खड़ा रहता है
अपमान से डरता नहीं
हिम्मत से काम लेता है
यह नेता है।

नेता एक साधना है, एक तपश्चर्या है..आधुनिक तप! पुराने तपस्वियों ने क्या खाक किया, जला ली धूनी, बैठ गए राख लगा कर! अरे उसमें कुछ भी लगा नहीं!

नोट के दम पर वह वोट लेता है
बेचारा कुर्सी के लिए
टमाटर और अंडे
गाली और डंडे
क्या-क्या नहीं सहता है
हूटिंग हो कितनी ही
मंच पर खड़ा रहता है
अपमान से डरता नहीं
हिम्मत से काम लेता है
यह नेता है।

कितना ही मारो इसे
मुस्कराए जाता है
पानी नहीं पीता है
रोटी नहीं खाता है
बस यह तो पार्टी का चंदा चबाता है
नई-नई पार्टियां प्रतिदिन बनाता है
पुराना रवैया इसे नहीं भाता है
नये-नये झंडों और
नारों का प्रणेता है
यह नेता है।

पांच साल तक मैट्रिक में
जब पास हो सका नहीं
और न ही कालेज में
दाखिला मिला कहीं
तब यह बेरोजगार बन बैठा गुंडा
धीरे-धीरे यहां तक बढ़ा लिया धंधा
कि न हुआ बी.ए. या एम.ए.
पर देखो बन ही गया
आखिर एम.एल.ए.
आवारा बाप का यह
बिगड़ा हुआ बेटा है
यह नेता है।

बंदर सी सूरत है
कुत्ते की मूरत है
बुद्धि की
अकल की
जरा नहीं जरूरत है
हे प्रभु! यह कैसा महूरत है
देश की नैया यह नालायक खेता है
यह नेता है।

जमे रहो! घबड़ाओ मत! इतनी जल्दी क्या संन्यास की! लेकिन अगर समझ में आ गई हो बात तो फिर यह मत पूछो कि क्या राजनीति छोड़ दूं? मुझसे क्यों पूछते हो? अगर हाथ में सांप पकड़े हो और दिखाई पड़ गया कि सांप है, तो क्या पूछते फिरोगे कि क्या सांप छोड़ दूं? जैसे दिखाई पड़ा वैसे ही छोड़ दोगे। पैर में कांटा गड़ा तो किसी से पूछते फिरते हो कि कांटा निकाल दूं? अरे जैसे ही पता चला, वैसे ही निकालने की कोशिश में लग जाओगे। अगर राजनीति की व्यर्थता दिखाई पड़ गई है, तो क्या पूछना, बात खत्म हो गई! एक परदा गिर गया।
संन्यास का अर्थ यही है: दृष्टि; दर्शन; प्रतीति। मेरे कहे से तुम राजनीति छोड़ दोगे तो तुम यहां राजनीति करोगे। और मैं नहीं चाहता कि यहां राजनीति चले। राजनेता जहां जाएगा वहीं राजनीति चलाएगा। वह जानता ही एक बात है। उसको गणित ही एक आता है..वह हर चीज में से तरकीबें निकाल लेगा।
नहीं, छोड़ने की बात मैं नहीं कहूंगा। हां, अगर तुम्हें दिखाई ही पड़ गया है, अगर मेरी बात तुम्हें सत्य लग रही है; लगता है कि जीवन ध्यान होना चाहिए, सुरति बननी चाहिए, कि जीवन परमात्मा की तलाश होनी चाहिए..तो पूछो मत छोड़ने की बात। बात खत्म हो गई। फिर संन्यास तुम्हारा है। फिर मैं राजी हूं..संन्यास के सारे आशीर्वाद तुम पर बरसा देने को! और तभी तुम संन्यासी हो सकते हो।
राजनीति छोड़ कर नहीं..छूट जाए तो; बोधपूर्वक। चेष्टा कर के त्याग न करना पड़े; सिर्फ समझ काफी है। समझ ही अगर त्याग बने किसी चीज का तो त्याग सच्चा होता है। और अगर समझ के बिना तुम जबरदस्ती कर के त्याग कर दो तो त्याग सच्चा नहीं होता है। पीछे के दरवाजे से सारी बात वापस लौट आती है। फिर वही खेल शुरू हो जाते हैं। ऊपर से राजनीति छोड़ दोगे, भीतर घुमड़ेगी। और भीतर घुमड़े, इससे बाहर ही बेहतर है।
इसलिए रामेश्वर प्रसाद, मेरी सलाह है: समझो, सुनो, गुनो। और अगर मेरी बात सत्य दिखाई पड़ जाए...मैं नहीं कहता मानो; मैं कहता हूं: समझो, गुनो। मैं नहीं कहता विश्वास करो; मैं कहता हूं: अनुभव करो। रुको यहां! ध्यान में डूबो। और अगर लगे यह मार्ग है; यही मार्ग है..ऐसी प्रतीति प्रगाढ़ हो जाए तो गई राजनीति। राजनीति का कचरा कुछ छोड़ना पड़ता है! और जब राजनीति चली जाती है, तब जो शेष रह गया वही संन्यास है।
राजनीति के विकल्प में नहीं संन्यास लेना है। राजनीति चली जाए तो फिर जो शेष रह जाएगा-निर्मल चित्त, राजनीति-मुक्त, कुटिलता से मुक्त, चालबाजी चालाकियों से मुक्त..वही संन्यास है। और चालबाजियां हजार तरह की हैं। कोई राजनीति सिर्फ राजनीति में ही थोड़े ही है। बाजार में भी राजनीति है..धन की। और घर में भी राजनीति है। पति पत्नी पर कब्जा करना चाहता है। पत्नी पति पर कब्जा करना चाहती है। घर-घर में तो राजनीति है। बच्चे तक...बाप-बेटों के बीच राजनीति है। छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि कैसे राजनैतिक चाल चलनी है। मेहमान घर में आ गए, बच्चे उपद्रव करने लगते हैं। पिता जी जल्दी से पांच का नोट निकाल कर पकड़ा देते हैं कि जाओ, सिनेमा देख आओ; कि जाओ घर के बाहर। यही पिता जी से बच्चा पूछ रहा था तीन दिन से कि सिनेमा देख आऊं..डांटते थे कि नहीं, सिनेमा नहीं देखना है। और अब खुद ही कह रहे हैं कि जाओ सिनेमा देख आओ, किसी तरह यहां से टलो। बच्चा राजनीति सीख रहा है। बच्चा जान रहा है कि बाप कौन सी भाषा समझता है।
मेहमान जब घर में हों, उपद्रव मचाओ। पत्नी भी जानती है कि पति कौन सी भाषा समझता है। जिस दिन उसको राजनीति करनी होती है, उस दिन देखो ज्यादा कप-बसी टूटते हैं, बर्तन गिरते हैं, दरवाजे भड़ा-भड़ होते हैं। पति समझ जाता है कि अब अपनी पूंछ दबा लो, अब मामला बिगड़ा जा रहा है।
राजनीति कुछ राजनीति में ही नहीं है; हर जगह राजनीति है। एक जगह से छोड़ोगे, दूसरी जगह प्रकट हो जाएगी। अगर राजनीति की व्यर्थता समझ में आ गई तो सब जगह से विलीन हो जाएगी।

अपने पति के नाम का
रोना रोते हुए
एक महिला ने कहा..
सुनो बहन,
इस इनसान के पीछे मैंने
क्या-क्या दुख नहीं सहा!
मैं बीस वर्षों से इसके साथ
जी नहीं,
सड़ रही हूं,
यही समझो कि धीरे-धीरे मर रही हूं!

बोली पड़ोसिन एक आह भरती हुई..
क्यों जी रही हो इस तरह
नरक की आग में जलती हुई?
अरी क्या कहूं तेरी मति को
पगली!
तलाक क्यों नहीं दे देती
अपने दुष्ट पति को?

दहाड़ मार कर रोती हुई महिला चिल्लाई..
हे संतोषी माई!
रक्षा करो मेरे जीवन की
मैं सती हूं, और न सताओ
ये तलाक की बातें मुझे न बताओ
मैं कसम खा कर कहती हूं
खुद के तन-मन की
हे संतोषी माई,
रक्षा करो इस भक्तन की!
अभी तो धीरे-धीरे ही मर रही हूं
किसी तरह जिंदगी गुजार रही हूं
मगर पति को तलाक दे कर
इसे खुशी से फूला देख कर
मैं सदमा सहन न कर पाऊंगी
सच कहती हूं
एक क्षण में मर जाऊंगी!

राजनीति जगह-जगह है। पत्नी तलाक नहीं दे रही, यह मत सोचना कि सती है। और जो पत्नी तुम्हारी चिता पर चढ़ कर सती हो जाए, यह मत सोचना कि सती हो रही है; हो सकता है सिर्फ पीछा कर रही हो कि आगे कहां जाते हो कि देखूं बच कर कहां जाते हो!
मनुष्य जब तक चालबाजी से भरा है तब तक राजनीति से भरा है। जिस दिन तुम्हें समझ में आ जाए, उसी दिन संन्यास है। समझ संन्यास है। प्रज्ञा संन्यास है।

आज इतना ही।  

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