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बुधवार, 14 नवंबर 2018

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

उगती हुई जमीन

एक मित्र ने पूछा कि आप गांधी जी की अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं क्या? और यदि अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं गांधी की, तो क्या आपका विश्वास हिंसा में है?

पहली बात यह कि मेरा विश्वास हिंसा में तनिक भी नहीं है और दूसरी बात यह कि गांधी की अहिंसा में भी विश्वास नहीं करता हूं। गांधी की अहिंसा में भी बहुत अहिंसा नहीं मालूम देती, इसलिए गांधी की अहिंसा बहुत लचर, बहुत कमजोर है। गांधी की अहिंसा मुझे बहुत अधकचरी इसलिए लगती है क्योंकि पूर्ण अहिंसा में मेरी आस्था है। गांधी जी की अहिंसा के वास्तविक अंतराल में झांकने पर मुझे अचंभा सा होता है।
गांधी जी अफ्रीका में बोर युद्ध में स्वयंसेवक की तरह सम्मिलित हुए। बोर अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और गांधी जी गोरों की आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए, जो साम्राज्यशाही प्रयास कर रही थी उस साम्राज्यशाही की ओर से स्वयंसेवक की तरह भरती हुए। गांधी जी पहले महायुद्ध में अंग्रेजों के एजेंट की तरह भारत में लोगों को फौज में भरती करवाने का काम करते रहे। यह बहुत अचंभे की बात मालूम पड़ती है कि पहले महायुद्ध में गांधी ने लोगों को फौज में भरती होने और युद्ध में जूझने की प्रेरणा दी।

पंजाब के गांवों में मुसलमानों ने बगावत कर दी। मुसलमानों को दबाने के लिए अंग्रेजों ने गोरखों की फौज भेज दी थी। अंग्रेजों का न्याय था कि अगर हिंदू किसी गांव में विद्रोह करें तो मुसलमान की सेना की टुकड़ी भेजो और यदि मुसलमानों का गांव विद्रोह करे तो हिंदुओं की टुकड़ी वहां भेजो ताकि

दोनों ही संप्रदायों को आग में झोंक कर, उससे हाथ सेंके जा सकें। गोरखों की टुकड़ी ने एक अदभुत ऐतिहासिक कार्य किया। गोरखों की टुकड़ी ने मुसलमान बस्ती पर, मुसलमान लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। वे बंदूकों को जमीन पर टेक कर खड़े हो गए और उन्होंने कहा, हम अपने भाइयों पर गोली नहीं चलाएंगे। यह बड़ी अदभुत और बड़ी अहिंसात्मक घटना थी। उन टुकड़ियों ने अपनी जान बाजी पर लगा कर गोली चलाने से इनकार कर दिया। उन्होंने जाकर अपनी बंदूकें छावनी में जमा करवा दीं और जाकर समर्पण कर दिया और कहा कि हम गोली चलाने से इनकार करते हैं, चाहे जो भी सजा दी जाए, हम अपने भाइयों पर गोली नहीं चला सकते।
हम तो सोच सकते थे कि गांधी जी इन सैनिकों की प्रशंसा करेंगे। लेकिन गांधी जी ने इन सैनिकों की निंदा की। इंग्लैंड में जब गांधी जी से पूछा गया कि आश्चर्य की बात है कि आपने अहिंसक होते हुए इन सैनिकों की निंदा की, जिन्होंने बंदूकें चलाने से इनकार किया। तो गांधी जी ने क्या कहा, आपको पता है?
गांधी जी ने कहाः मैं सैनिकों को आज्ञाहीनता नहीं सिखा सकता हूं क्योंकि कल जब देश आजाद हो जाएगा और सत्ता हमारे हाथ में आ जाएगी तो इन्हीं सैनिकों के सहारे हमें शासन करना है।
यह किस प्रकार की अहिंसा है? यह थोड़ा विचारना है।
वे सैनिक भी दंग रह गए होंगे। अगर गांधी जी ने इन लोगों की प्रशंसा की होती तो हिंदुस्तान भर का सैनिक यह हिम्मत जुटा सकता था, वह हर हिंदुस्तानी चाहे वह किसी भी संप्रदाय का हो, पर गोली चलाने के लिए इनकार कर देता। लेकिन गांधी जी ने इन सैनिकों की निंदा की, आज्ञाहीनता के आधार पर और कहा कि अहिंसा को तोड़ना उचित नहीं है। सैनिकों का कर्तव्य है कि वे आज्ञा मानें। क्यों? क्योंकि कल जब गांधी जी के लोगों के हाथ में देश जाएगा तो इन्हीं सैनिकों के सहारे शासन चलाना है। अब हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि बाईस वर्ष की आजादी के इतिहास में, गांधी जी के पीछे चलने वाले लोगों के हाथ में जब से सत्ता आई है, शासन का दमन बढ़ता ही गया है, गोलियों और संगीनों के आधार पर शासन चला जा रहा है। ये गोलियां सत्ता के चलाए जाने के काम में लाई जा रही हैं। अब सत्ता गांधीवादियों के हाथ में है। अंग्रेजों ने भी कभी हिंदुस्तान में इतनी गोलियां नहीं चलाई थीं जितनी कि जिसको हम अपना शासन कहते हैं, उन्होंने चलाईं और जिस क्रूरता से गोली चलाई और जितने लोगों की हत्या की!
यह बहुत आश्चर्य की बात है। लेकिन यह भी साथ में समझ लेना जरूरी है कि गांधी जी अहिंसात्मक रूप से जो आंदोलन चलाते थे वह आंदोलन ही दबाव डालने के लिए था और मेरी दृष्टि में जहां दबाव है वहां हिंसा है। चाहे दबाव कहीं से डाला जाए, चाहे आपके घर के सामने आकर अनशन करके बैठ जाऊं और कहूं कि मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानोगे। यह दबाव ही हिंसा है। दबाव मात्र हिंसा है। दबाव डालने के ढंग अहिंसात्मक हो सकते हैं लेकिन दबाव खुद हिंसा है। अगर मैं अपनी बात मनवाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दूं और कहूं कि मैं मर जाऊंगा तो जिसको हम सत्याग्रह कहते हैं और अनशन कहते हैं वह क्या है? वह आत्महत्या की धमकी है और वह धमकी हिंसा है। चाहे दूसरे को मारने की धमकी हो, चाहे अपने को मारने की धमकी हो। धमकी सदा हिंसात्मक है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह धमकी अपने लिए है या दूसरे के लिए है। कई बार यह भी हो सकता है कि मैं आपको मारने के लिए धमकी दूं तो आप मेरा मुकाबला कर सकते हैं, लेकिन जब मैं अपने को मारने की धमकी देता हूं तो आपको निहत्था कर देता हूं, आप मुकाबला नहीं कर सकते हैं। यह हिंसा ज्यादा सूक्ष्म है और बहुत छिपी हुई है। इसका पता चलाना बहुत मुश्किल है।
अगर अहिंसात्मक सत्याग्रह किसी को करना हो तो न तो खबर करनी चाहिए, न जनता को पता चलना चाहिए, न जिस आदमी के हृदय-परिवर्तन के लिए कोशिश कर रहा हूं उसको खबर करनी चाहिए। मौन, एकांत में मैं अपने को शांत करूं और ध्यानस्थ हो जाऊं, समाधि-मग्न हो जाऊं, अपने को पवित्र करूं, प्रार्थना करूं और हृदय में वे विचार भी हों जो दूसरे व्यक्ति को परिवर्तित करते रहें तब तो यह अहिंसा हुई। लेकिन यदि अखबारों में प्रचार हो, भीड़-भाड़ को पता चल जाए, मेरी जान को बचाने वाले लोग खुश हो जाएं और जिस आदमी को बदलना चाहता हूं उसके दरवाजे पर बैठ जाऊं और कहूं कि मैं मर जाऊंगा। यह अहिंसा नहीं है? यह सब हिंसा है, यह हिंसा का ही रूपांतरण है, ये हिंसा के ही श्रेष्ठतम छद्म रूप हैं।
मैंने एक मजाक सुना है। मैंने सुना है, एक युवक एक युवती से प्रेम करता था और उसके प्रेम में दीवाना था, लेकिन इतना कमजोर था कि हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था कि विवाह करके उस लड़की को घर ले आए, क्योंकि लड़की का बाप राजी नहीं था। फिर किसी समझदार ज्ञानी ने उसे सलाह दी कि अहिंसात्मक सत्याग्रह क्यों नहीं करता? कमजोर, कायर, वह डरता था। उसको यह बात जंच गई। कायरों को अहिंसा की बात एकदम जंच जाती है--इसलिए नहीं कि अहिंसा ठीक है, बल्कि कायर इतने कमजोर होते हैं कि कुछ और नहीं कर सकते।
गांधी जी की अहिंसा का जो प्रभाव इस देश पर पड़ा वह इसलिए नहीं कि वे लोगों को अहिंसा ठीक मालूम पड़ी। लोग हजारों साल के कायर हैं और कायरों को यह बात समझ में पड़ गई है कि ठीक है, इसमें मरने-मारने का डर नहीं है, हम आगे जा सकते हैं। लेकिन तिलक गांधी जी की अहिंसा से प्रभावित नहीं हो सके, सुभाष भी प्रभावित नहीं हो सके। भगतसिंह फांसी पर लटक गया और हिंदुस्तान में एक पत्थर नहीं फेंका गया उसके विरोध में! आखिर क्यों? उसका कुल कारण यह था कि हिंदुस्तान जन्मजात कायरता में पोषित हुआ है। भगतसिंह फांसी पर लटक रहे थे, गांधी जी वाइसराय से समझौता कर रहे थे और उस समझौते में हिंदुस्तान के लोगों को आशा थी कि शायद भगतसिंह बचा लिया जाएगा, लेकिन गांधी जी ने एक शर्त रखी कि मेरे साथ जो समझौता हो रहा है उस समझौते के आधार पर सारे कैदी छोड़ दिए जाएंगे लेकिन सिर्फ वे ही कैदी जो अहिंसात्मक ढंग के कैदी होंगे। उसमें भगतसिंह नहीं बच सके, क्योंकि उसमें एक शर्त जुड़ी हुई थी कि अहिंसात्मक कैदी ही सिर्फ छोड़े जाएंगे। भगतसिंह को फांसी लग गई। जिस दिन हिंदुस्तान में भगतसिंह को फांसी हुई उस दिन हिंदुस्तान की जवानी को भी फांसी लग गई। उसी दिन हिंदुस्तान को इतना बड़ा धक्का लगा जिसका कोई हिसाब नहीं। गांधी की भीख के साथ हिंदुस्तान का बुढ़ापा जीता, भगतसिंह की मौत के साथ हिंदुस्तान की जवानी मरी। क्या भारतीय युवा पीढ़ी ने कभी इस पर सोचा है?
उस युवक को किसी ने सलाह दी, तू पागल है, तेरे से कुछ और नहीं बन सकेगा, अहिंसात्मक सत्याग्रह कर दे। वह जाकर उस लड़की के घर के सामने बिस्तर लगा कर बैठ गया और कहा कि मैं भूखा मर जाऊंगा, आमरण अनशन करता हूं, मेरे साथ विवाह करो। घर के लोग बहुत घबड़ाए, क्योंकि वह और कुछ धमकी देता तो पुलिस को खबर करते लेकिन उसने अहिंसात्मक आंदोलन चलाया था और गांव के लड़के भी उसका चक्कर लगाने लगे। वह अहिंसात्मक आंदोलन है, कोई साधारण आंदोलन नहीं है और प्रेम में भी अहिंसात्मक आंदोलन होना ही चाहिए।
घर के लोग बहुत घबड़ाए। फिर बाप को किसी ने सलाह दी कि गांव में जाओ, किसी रचनात्मक, किसी सर्वोदयी, किसी समझदार से सलाह लो कि अनशन में क्या किया जा सकता है। बाप गए, हर गांव में ऐसे लोग हैं जिनके पास और कोई काम नहीं है। वे रचनात्मक काम घर बैठे करते हैं। बाप ने जाकर पूछा, हम क्या करें बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। अगर वह छुरी लेकर धमकी देता तो हमारे पास इंतजाम था, हमारे पास बंदूक है, लेकिन वह मरने की धमकी देता है, अहिंसा से। उस आदमी ने कहा, घबड़ाओ मत, रात मैं आऊंगा, वह भाग जाएगा। वह रात को एक बूढ़ी वेश्या को पकड़ लाया, उस वेश्या ने जाकर उस लड़के के सामने बिस्तर लगा दिया और कहा कि आमरण अनशन करती हूं, तुमसे विवाह करना चाहती हूं। वह रात बिस्तर लेकर लड़का भाग गया।
गांधी जी ने अहिंसात्मक आंदोलन के नाम पर, अनशन के नाम पर जो प्रक्रिया चलाई थी, भारत उस प्रक्रिया से बर्बाद हो रहा है। हर तरह की नासमझी इस आंदोलन के पीछे चल रही है। किसी को आंध्र अलग करना हो, तो अनशन कर दो, कुछ भी करना हो, आप दबाव डाल सकते हैं और भारत को टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है, भारत को नष्ट किया जा रहा है। वह एक दबाव मिल गया है आदमी को दबाने का। मर जाएंगे, अनशन कर देंगे, यह सिर्फ हिंसात्मक रूप है, अहिंसा नहीं है। जब तक किसी आदमी को जोर जबरदस्ती से बदलना चाहता हूं चाहे वह जोर जबरदस्ती किसी भी तरह की हो, उसका रूप कुछ भी हो, तब तक मैं हिंसात्मक हूं। मैं गांधी जी की अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं--उसका यह मतलब न लें कि मैं अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं। अखबार यही छपाते हैं कि मैं अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं।
मैं गांधी जी की अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं क्योंकि मैं अहिंसा के पक्ष में हूं। लेकिन उसको मैं अहिंसा नहीं मानता इसलिए मैं पक्ष में नहीं हूं। गांधी जी की अहिंसा चाहे गांधी जी को पता हो या न हो, हिंसा करेगी। यह हिंसा बड़ी सूक्ष्म है। एक आदमी को मार डालना भी हिंसा है और एक आदमी को अपनी इच्छा के अनुकूल ढालना भी हिंसा है। जब एक गुरु दस-पच्चीस शिष्यों की भीड़ इकट्ठी करके उनको ढालने की कोशिश करता है अपने जैसा बनाने की, जैसे कपड़े मैं पहनता हूं वैसे कपड़े पहनो, जब मैं उठता हूं ब्रह्ममुहूर्त में तब तुम उठो, जो मैं करता हूं वही तुम करो--तो हमें पता नहीं है, यह चित्त बड़ी सूक्ष्म हिंसा की बात सोच रहा है। दूसरे आदमी को बदलने की चेष्टा में, दूसरे आदमी को अपने जैसा बनाने की चेष्टा में भी आदमी हिंसा करता है। जब एक बाप अपने बेटे को अपने जैसा बनाने की कोशिश करता है तो बाप को पता है, यह हिंसा है। जब बाप बेटे से कहता है कि तू मेरे जैसा बनना, तो दो बातें काम कर रही हैं। एक तो बाप का अहंकार और दूसरा कि मेरे बेटे को मैं अपने जैसा बना कर छोडूंगा। यह प्रेम नहीं है। सारे गुरु लोगों को अपने जैसा बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। उस प्रयत्न में व्यक्ति हिंसा करता है। जो आदमी अहिंसक है वह कहता है कि तुम अपने ही जैसा बन जाओ, बस यही काफी है, मेरे जैसे बनने की कोई जरूरत नहीं है।
कोई अहिंसात्मक व्यक्ति किसी को अपना अनुयायी नहीं बना सकता है, क्योंकि अनुयायी बनाना सूक्ष्म हिंसा है। कोई अहिंसक व्यक्ति किसी को अपना शिष्य नहीं बना सकता है, क्योंकि गुरु बनने जैसी हिंसा खोजनी दुनिया में बहुत मुश्किल है। लेकिन ये सूक्ष्म हिंसाएं हैं जो दिखाई नहीं देतीं और यह भी ध्यान रहे कि जब कोई आदमी दूसरे के साथ हिंसा करना बंद कर देता है तो हिंसा की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती, हिंसा की प्रवृत्ति स्वयं पर लौट आती है। अपने साथ हिंसा करना शुरू कर देता है। जिसको हम तपश्चर्या कहते हैं, तप कहते हैं, त्याग कहते हैं, सौ में निन्यानबे मौके पर अपने पर लौटी हुई हिंसा के ये दूसरे नाम हैं और कुछ भी नहीं।
एक आदमी दूसरे को सताना चाहता है। अंग्रेजी में एक शब्द सैडिस्ट है, जो आदमी दूसरे को सताना चाहता है उसको वे कहते हैं सैडिस्ट, उसे वे कहते हैं परपीड़नवादी। एक दूसरा शब्द है मैसोचिस्ट, जो आदमी अपने को सताने में लग जाता है उसको कहा जाता है मैसोचिस्ट, आत्मपीड़नवादी। हम दूसरों को सताने वाले को तो हिंसक कहते हैं, लेकिन खुद को सताने वाले को हिंसक नहीं कहते हैं। और मजा यह है कि दूसरे को सताने में तो दुनिया बाधा डाल सकती है पर स्वयं को सताने में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता है। स्वयं को सताने में प्रत्येक आदमी मुक्त है। यह जो तपश्चर्या करने वाले लोग हैं, ये कांटों में खड़े लोग हैं, धूप में खड़े लोग हैं, भूख और उपवास करने वाले लोग हैं--इनकी पूरी कथा आप समझें। इनके आविष्कारों का पता लगाएं कि कैसे-कैसे अपने को सताने के, आत्मपीड़ा के उपाय निकालते हैं। कैसे उनको साधु कहें जो अपनी जननेंद्रिय काट लेते रहे? ऐसे साधु भी रहे हैं जिन्होंने अपनी आंखें फोड़ लीं और अंधे हो गए, और ऐसे साधु भी रहे हैं जो पैर के जूते में कीलें लगाते रहे ताकि पैर में घाव बनते रहें। कमर में पट्टे बांधते रहे और कीलें लगाते रहे ताकि कमर में घाव बनते रहें। शरीर को सब तरह से कोड़े मारने वाले साधुओं की बड़ी जमात रही है। वे कोड़े मारने वाले साधु सुबह से उठ कर कोड़े मार रहे हैं और जो जितने ज्यादा कोड़े मारेगा उतना बड़ा साधु हो जाएगा।
ये सारे के सारे लोग हिंसक लोग हैं, ये अहिंसक लोग नहीं हैं, केवल अंतर इतना है कि इनकी हिंसा दूसरे पर न जाकर स्वयं पर लौट आई है। उसने वापस लौटना प्रारंभ कर दिया है अहिंसा बहुत अदभुत बात है, लेकिन हिंसा से बचना बहुत मुश्किल है। हिंसा को बदल लेना बहुत आसान है, हिंसा नये रूपों में खड़ी हो जाती है। दूसरों को बदलने की चिंता, दूसरों को बदलने का दबाव, दूसरों को अपने जैसा बनाने की सारी कोशिश हिंसा है और दुनिया के सारे गुरुओं को दुनिया के इन सारे लोगों को जो अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी करते हैं, जमातें खड़ी करते हैं, और अपनी शक्ल के आदमी पैदा करते हैं; उन सबको मैं एक कतार में हिंसक मानता हूं। अहिंसक व्यक्ति दूसरी बात है।
अहिंसक का मतलब है ऐसा व्यक्ति, जो किसी पर भी किसी तरह का दबाव डालने की कामना से मुक्त हो गया है, क्योंकि दबाव डाल कर हम दूसरे से श्रेष्ठ हो जाते हैं और आपने कभी खयाल किया है, छुरा बता कर आप दूसरे से श्रेष्ठ नहीं होते लेकिन अनशन करके आप दूसरों से श्रेष्ठ हो जाते हैं।
नीत्शे ने एक बात कही है मजाक में जीसस के खिलाफ। कहा है कि जीसस ने कहा है कि कोई गाल पर तुम्हारे चांटा मारे तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर देना। नीत्शे ने कहा है, इससे ज्यादा अपमान दूसरे आदमी का और क्या हो सकता है? तुमने उसे आदमी ही नहीं माना, अपने बराबर भी नहीं माना। किसी ने चांटा मारा तुम्हारे गाल पर, तुमने दूसरा गाल कर दिया। उस दूसरे आदमी से देवता हो गया, वह जमीन का कीड़ा हो गया। नीत्शे ने मजाक में कहा है कि दूसरे आदमी का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है! और यह हो सकता है कि कोई आदमी प्रेम के कारण दूसरा गाल न करे, सिर्फ इसलिए दूसरा गाल कर दे कि देख लो, तुम हो जमीन के कीड़े, हम हैं फरिश्ते, हम हैं देवता।
दूसरे से ऊंचा होने की तरकीब इतनी बारीक है कि एक आदमी दूसरे से ऊंचा हो सकता है सिंहासन पर बैठ कर और एक आदमी दूसरे से ऊंचा हो सकता है त्याग करके। लेकिन दूसरे से ऊंचा होने की कामना अगर भीतर शेष है तो वह कामना हिंसा में ले जाती है, अहिंसा में नहीं। जब भी हम दूसरे से ऊंचा होने की कामना में संलग्न हो जाते हैं, चाहे हमें ज्ञात हो और ज्ञात न हो, चाहे हमें कांशसली पता हो और चाहे अनकांशस माइंड काम कर रहा हो, चाहे अचेतन मन काम कर रहा हो और हमें पता न हो, लेकिन दूसरे को बदलने की कोशिश में स्वयं ही श्रेष्ठता भीतर अनुभव होनी शुरू हो जाती है।
मैं इस सबके बुनियादी रूप से खिलाफ हूं। मैं मानता हूं कि व्यक्ति प्रार्थना कर सकता है, ध्यान कर सकता है, व्यक्ति अंतस को शुद्ध कर सकता है और उसके अंतस की शुद्धि के कारण उसके चारों तरफ के दबावों में परिवर्तन शुरू हो जाएगा। लेकिन वह परिवर्तन उस व्यक्ति की चेष्टा नहीं है, उस व्यक्ति का प्रयास नहीं है। महावीर और बुद्ध भी अहिंसक थे। गांधी की अहिंसा से मैं उनकी अहिंसा को श्रेष्ठतर और शुद्धतर मानता हूं। गांधी के और बुद्ध के बीच हम कुछ बातें और करें तो पता चलेगा। महावीर और बुद्ध किसी को बदलने के लिए कोई अहिंसक आंदोलन नहीं कर रहे हैं, लेकिन भीतर आत्मा प्रविष्ट हुई है, उसकी किरणें आएंगी और बिना प्रयास के चारों तरफ बदलाहट लानी शुरू करती हैं। अहिंसक आदमी ने दुनिया में पहले भी अपनी हिंसा की किरणें दी हैं लेकिन वे किरणें प्यार करके दी गई हैं और चेष्टा करके नहीं दी गई हैं। वे किरणें उपलब्ध होती हैं। सूरज निकलता है और अंधेरा विलीन हो जाता है। सूरज कोई घोषणा नहीं करता कि अंधेरे को दूर करने मैं आ गया हूं, अंधेरा सावधान!
अहिंसा कुछ करती नहीं है, अहिंसा से परिवर्तन आता है। अहिंसक परिवर्तन चाहता नहीं। गांधी की अहिंसा में परिवर्तन की चाह बहुत स्पष्ट है इसलिए मैं उसे अहिंसा नहीं मानता हूं। गांधी की अहिंसा में मेरी कोई श्रद्धा, कोई विश्वास नहीं है क्योंकि वह अहिंसा ही मुझे दिखाई नहीं पड़ती। मैं कोई हिंसा का पक्षपाती नहीं हूं, मुझसे ज्यादा हिंसा का दुश्मन खोजना कठिन है, क्योंकि अहिंसा में ही मुझे जहां हिंसा दिखाई पड़ती हो उस हिंसा से मैं राजी नहीं हो सकता हूं।

एक दूसरे मित्र ने इसी संबंध में पूछा है कि आप कहते हैं कि क्रांति अहिंसक ही हो सकती है, लेकिन एक मित्र ने पूछा है कि क्रांति तो सदा हिंसक होती है, अहिंसक क्रांति तो कभी नहीं होती।

जिस क्रांति में हिंसा है उसे मैं क्रांति नहीं कहता। वह क्रांति नहीं है, सिर्फ उपद्रव है। उपद्रव और क्रांति में बहुत फर्क है। जिसके साथ हिंसा जुड़ गई वह क्रांति खतम हो गई। हिंसा से क्रांति खत्म है क्योंकि क्रांति का अंतिम अर्थ क्या है? क्रांति का अंतिम अर्थ हैः आत्मिक-परिवर्तन, हार्दिक-परिवर्तन, लोगों की चेतना का बदल जाना और जब हम लोगों की चेतना को नहीं बदल पाते हैं, जब लोगों की चेतना नहीं बदलती है तब हम हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। लेकिन जो आदमी हिंसा पर उतारू हो जाता है वह लोगों की चेतना बदल सकेगा? इस संबंध में एक करोड़ लोगों की कम से कम हत्या की गई। करोड़ लोगों की हत्या करके भी क्या किसी व्यक्ति की चेतना को बदला जा सका, किसी को रूपांतरित किया जा सका? हिटलर ने भी करीब अस्सी लाख लोगों की हत्या की, लेकिन क्या रूपांतरण हो गया? कौन सी क्रांति हो गई? सामान बांट दिया गया, संपत्ति व्यक्तिगत न रही, जो एक करोड़ लोगों को बिना मारे भी हो सकता था और एक करोड़ लोगों को मारने के कारण जो परिवर्तन हुआ वह इतना तनावपूर्ण है कि जब तक हिंसा ऊपर छाती पर सवार है तभी तक उसको कायम रखा जा सकता है, अन्यथा परिवर्तन विलीन होना शुरू हो जाएगा।
स्टैलिन के जाने के बाद रूस के कदम विकास की तरफ निश्चित रूप से उठे। स्टैलिन के हटते ही जैसे हिंसा कम हुई है। रूस के कदम विकास की तरफ उठे। रूस में जब से व्यक्तिगत संपत्ति का पुनरागमन हुआ, रूस में कारें व्यक्तिगत रूप से रखी जा सकती हैं, जिसकी वहां कल तक कल्पना नहीं थी। मकान भी व्यक्तिगत हो सकता है, तनख्वाहों में भी फर्क पैदा हुए--जैसे ही हिंसा से लाई हुई क्रांति विलीन हो जाएगी। हिंसा से लाई क्रांति जबरदस्ती है और जबरदस्ती कहीं क्रांति लाई जा सकती है? जबरदस्ती थोड़ी-बहुत देर किसी को रोका जा सकता है।
जिस चीज को जबरदस्ती से रोकना पड़ता है उसके खिलाफ लोगों का विद्रोह होना शुरू हो जाता है। अच्छे काम भी अगर जबरदस्ती करवाए जाएं। आप यहां बैठे हैं, आप अपनी मौज से यहां आए हैं और आपको अभी खबर की जाए कि आप दो घंटे तक बाहर नहीं निकल सकते हैं, बस यहां बैठना असंभव हो जाएगा। आदमी के साथ आत्मा है, आदमी की आत्मा दबाव को इनकार करती है और करनी चाहिए चाहे वह दबाव अच्छे के लिए ही क्यों न डाला गया हो। दबाव, दबाव है। आदमी के अच्छे के लिए भी दबाव डालने पर आदमी विद्रोह करता है। आपको पता है, अच्छे मां-बाप अपने बेटों को बिगाड़ने का बुनियादी कारण बनते हैं। पता है आपको क्यों? अच्छे मां-बाप जबरदस्ती बच्चे को अच्छा बनाने की कोशिश करते हैं। दुनिया में कभी किसी को जबरदस्ती अच्छा नहीं बनाया गया है और जो मां-बाप अपने बच्चे को जबरदस्ती अच्छा बनाते हैं वे मां-बाप बच्चों के दुश्मन हैं और अपने बच्चे को बिगाड़ने का काम करते हैं; क्योंकि बच्चे विद्रोह करना शुरू करते हैं। बच्चे के पास जो आत्मा है वह इनकार करना चाहती है जबरदस्ती को और अगर अच्छे के लिए जबरदस्ती की गई तो फिर अच्छे को इनकार करना चाहते हैं क्योंकि जबरदस्ती को इनकार करने से हिंसा शुरू हो जाएगी। क्योंकि कोई भी बात जबरदस्ती से नहीं लाई जा सकती और जबरदस्ती से लाने का मतलब यह है कि लाने वाला बहुत कमजोर है, लोगों को समझा नहीं पाता है, लोगों के हृदय को, मस्तिष्क को राजी नहीं कर पाते हैं। और जब आप लोगों को राजी नहीं कर पाते हैं उनके अच्छे के लिए भी तो फिर आपकी वह अच्छाई बड़ी संतुलित है।
दुनिया में कोई क्रांति हिंसा से नहीं हो सकती है। हां, क्रांति के नाम से हिंसा पलती रही है, लेकिन अब तक कौन सी क्रांति को गई है दुनिया में? ... नहीं हिंसा से क्रांति हो ही नहीं सकती है। क्योंकि क्रांति जबरदस्ती नहीं हो सकती है। क्रांति होगी तो हृदय से होगी। हिंसा तो अति जटिल है और क्रांति अति सरल।
मैं उस क्रांति के पक्ष में हूं जिस क्रांति में दमन नहीं होगा, जिस क्रांति में छाती पर दबाव नहीं होगा, जो क्रांति भीतर से फूल की तरह से खिलेगी और व्यक्तित्व को बदल देगी। मनुष्य में उस क्रांति की प्रतिष्ठा चाहिए है। फ्रांस की क्रांति असफल हो गई क्योंकि वह हिंसा पर खड़ी थी। रूस की क्रांति सफल नहीं हो सकी क्योंकि वह हिंसा पर खड़ी थी। माओ जो क्रांति करवा रहे हैं चीन में वह सफल नहीं होगी, क्योंकि वह हिंसा पर खड़ी है। गांधी की क्रांति जो कि बड़ी अहिंसात्मक दिखाई पड़ती थी वह भी असफल हो गई क्योंकि बुनियाद में उसके हिंसा थी। हम देख रहे हैं अपने मुल्क में, गांधी की क्रांति, जो कि एक तरह से लाख दर्जे बेहतर क्रांति है, माओ से, जिसका कि अहिंसा की तरफ रुख है, झुकाव है, यद्यपि जो अहिंसात्मक नहीं है बुनियाद में, वह भी असफल हो गई है। बाईस साल की आजादी के बाद की दुखद कथा बताती है कि गांधी की क्रांति असफल हो गई है।
गांधी की क्रांति असफल हो जाती है, क्योंकि मेरा मानना है कि दबाव है, बदलने की तीव्र आकांक्षा है। तो फिर लेनिन और स्टैलिन और माओ की क्रांति कैसे सफल हो सकती है? दुनिया प्रतीक्षा करती थी एक क्रांति की जो क्रांति चेतना की और अहिंसा की क्रांति होती, लेकिन क्रांति की तैयारी में सबसे बड़ी बाधा क्या है? सबसे बड़ी बाधा हिंसा में आस्था है। जिन लोगों की हिंसा में आस्था है वे लोग दुनिया के चित्त को बदलने के अहिंसात्मक विधान में कूदते भी नहीं, विचार भी नहीं करते, चिंता भी नहीं करते। उस दिशा में कोई काम नहीं करते। हमें यह खयाल ही नहीं है। एक गांव में एक हजार लोग, पचास लाख लोगों में से एक हजार लोग भी अगर अहिंसात्मक हों तो पचास लाख लोगों के चित्त में बुनियादी रूपांतरण शुरू हो जाएगा, लेकिन हमें इसका कुछ पता नहीं।
अभी रूस में एक वैज्ञानिक फ्यादोर ने एक प्रयोग किया है। फ्यादोर रूस का एक मनोवैज्ञानिक है और चूंकि प्रयोग रूस में हुआ है इसलिए महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तान में योगी तो बहुत दिन से यह कहता है, लेकिन कोई सुनता नहीं है। हिंदुस्तान का योगी यह कहता है कि विचार इतनी बड़ी शक्ति है कि अगर कोई विचार किसी व्यक्ति के हृदय में पूर्ण संकल्प से स्थापित हो जाए तो चारों तरफ उस विचार की तरेंगे फैलनी शुरू हो जाती हैं और हजारों लोगों को अहिंसा में रूपांतरित कर देती हैं। एक बुद्ध का पैदा होना, एक महावीर का खड़ा होना इतनी बड़ी क्रांति है जिसका कोई हिसाब नहीं, जिसका कि हमें कोई पता नहीं चलता। क्योंकि लाखों लोगों के प्राण-कमल उनकी किरणों से खिलने शुरू हो जाते हैं।
फ्योदोर ने एक प्रयोग किया रूस में विचार-संक्रमण का, टेलीपैथी का, विचार को दूर भेजने का। उसने मास्को में बैठ कर एक हजार मील दूर विचार का संप्रेषण किया। मास्को में बैठा है वह अपनी लेबोरेटरी में और एक हजार मील दूर किसी गांव के बगीचे में, पब्लिक पार्क में दस नंबर की बेंच पर एक आदमी बैठा है, उसके पीछे एक भाई छिप कर बैठे हैं। उन्होंने उठा कर फोन किया कि दस नंबर की बेंच पर एक आदमी आकर बैठा है, आप आपने विचार से प्रभावित करके उसे सुला दें। फ्योदोर एक हजार मील दूर से कामना करता है अपने मन में कि वह जो आदमी दस नंबर की बेंच पर बैठा है वह सो जाए, सो जाए, सो जाए। यहां वह पूर्ण संकल्प से, पूर्ण एकाग्र चित्त से कामना करता है। वह आदमी तीन ही मिनट के भीतर वहां बेंच पर आंख बंद करके सो जाता है। लेकिन हो सकता है, यह संयोग की बात हो। दोपहर तक का थका-मांदा आदमी ऐसे ही सो सकता है। झाड़ियों में छिपे उसके मित्र ने फौरन फोन करके कहा कि यह सो गया है जरूर। तुमने कहा, तीन मिनट में सो जाओ तो तीन मिनट में सो गया। लेकिन यह संयोग भी हो सकता है। अब उसे ठीक पांच मिनट के भीतर उठा दो तो हम समझेंगे।
फ्योदोर फिर सुझाव भेजता है कि उठो, उठो, उठो, जागो, जाग जाओ, ठीक पांच मिनट में जाग जाओ। वह आदमी पांच मिनट में आंख खोल कर बैठ जाता है। मित्र उसके पास जाकर पूछते हैं कि आपको कुछ अजीब सा तो नहीं लगा? वह आदमी कहता है, अजीब सा से मतलब? मैं जब आया तो कुछ विश्राम करने लगा तो जैसे मेरे पूरे प्राण कह रहे हैं कि सो जाओ। मैं रात अच्छी तरह सोया हूं, थका-मांदा नहीं हूं। पूरा व्यक्तित्व कहता है कि सो जाओ। फिर मैं सो गया। लेकिन अभी क्षण भर पहले दूर से एक आवाज आई कि उठो, एकदम जाग जाओ। मैं बहुत हैरान हुआ कि यह क्या हुआ! तो, एक हजार मील दूर भी विचार संक्रमित हो सकता है।
अभी अमरीका की एक प्रयोगशाला में एक और अदभुत प्रयोग हुआ जो मैं आपसे कहना चाहूंगा। वह प्रयोग भी बहुत बहुमूल्य है आने वाले भविष्य में। अंतरिक्ष में किए जाने वाले प्रयोग भी इसके मुकाबले कम मूल्य के सिद्ध होंगे। एटम और हाइड्रोजन के प्रयोग भी कम मूल्य के सिद्ध होंगे। वह प्रयोग बहुत अदभुत है। एक प्रयोगशाला में उन्होंने विचार का चित्र पहली बार लिया था। विचार का चित्र, जो विचार आपके भीतर चलता है उस विचार का, आपका नहीं। एक आदमी को बहुत ठीक से कैमरे के सामने बिठाया गया। बहुत ही संवेदनशील फिल्म लगाई गई है और उस आदमी से कहा गया है कि एक विचार पर सारे चित्त को एकाग्र कर सोचता रह, बस एक ही चित्र पर सोचता रह और उस आदमी ने एक चित्र पर विचार किया, वह आदमी एक छोटे से चित्र पर अंदर विचार करता रहा और उस चित्र को फोटो की फिल्म के भीतर पकड़ लिया। इसका क्या मतलब? इसका मतलब है कि विचार में जो चित्र था भीतर, उसका संप्रेषण, उसकी किरणें, उसकी तरंगें बाहर फिंक रही हैं जो कि फोटो की फिल्म पकड़ सकती थी।
अहिंसात्मक क्रांति का क्या अर्थ है? अहिंसात्मक क्रांति का अर्थ हैः अहिंसात्मक लोग।
थोड़े से भी लोग अहिंसात्मक हों तो उनके व्यक्तित्व से अहिंसा की, प्रेम की, भीतरी परिवर्तन की जो किरण पहुंचेगी वे लाखों के जीवन में क्रांति ले आएंगी, इसका हमें पता भी नहीं होगा। मेरी मान्यता है कि मनुष्य-जाति अहिंसात्मक क्रांति की प्रतीक्षा कर रही है और यह प्रतीक्षा जारी रहेगी जब तक अहिंसात्मक क्रांति नहीं हो जाती है। हम कोई भी हिंसात्मक क्रांति करें, उससे कोई भी परिवर्तन नहीं होगा। जैसे कोई आदमी मुर्दे को मरघट ले जाते हैं। मुर्दे को मरघट ले जाते वक्त अरथी को कंधे पर लेते हैं। रास्ते में एक कंधा थक जाता है तो अरथी उठा कर दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। बस इसी तरह क्रांति में भी फर्क पड़ता है। एक कंधा दुखने लगता है, दूसरे कंधे पर बोझ रख लिया। थोड़ी देर राहत मिलती है। फिर बोझ शुरू हो जाता है। दूसरे कंधे पर बोझ शुरू हो जाता है। अब तक कितनी क्रांतियां हुई हैं, वह अब तक बोझ बदलें हैं, बोझ मिटाया नहीं, आदमी के समाज को रूपांतरित नहीं किया, आदमी के समाज को पुराने गठन में नया ढंग दे दिया है। फिर जिंदगी बड़ी गड़बड़ हो गई, पुरानी जिंदगी आना शुरू हो जाती है। नये सपने देखती है।
रूस में क्रांति हुई, शायद सबसे महत्वपूर्ण क्रांति दुनिया की वही है। रूस की क्रांति ऐसी थी कि वर्ग मिटा दिए जाएंगे, क्लासेस नहीं रहेंगे। वर्ग मिटा दिए गए, निश्चित मिटा दिए गए। अमीर आज ऊंचे नहीं, गरीब आज नीचे नहीं, लेकिन नया वर्ग पैदा हो गया--वह कम्युनिस्ट आफिसर, कम्युनिस्ट पार्टी का आदमी और वह जो आदमी कम्युनिस्ट पार्टी का नहीं है, यों दो वर्ग पैदा हो गए। अधिकारी सत्ताधिकारी, और सत्तापूर्ण। कल था धनिक और निर्धन और आज है सत्ताधिकारी, सत्तापूर्ण, उसके बीच स्थापना हुई। वर्ग फिर नये खड़े हो गए। रूस में जो क्रांति हुई उस क्रांति से वर्ग मिटे नहीं, सिर्फ वर्ग बदल गए। पूंजीपति की जगह मैनेजर आ गया। व्यवस्थापकों की क्रांति थी, व्यवस्थापक बदल गए, जहां मालिक था वहां मैनेजर बैठ गया, सत्ताधिकारी बैठ गया; धनी की जगह। और ध्यान रहे, धनी के पास उतनी ताकत कभी नहीं थी जितनी सत्ताधिकारी के पास। धनी के हाथ में लोगों की गर्दन कभी उतनी नहीं थी जितनी कि आज कम्युनिस्ट पार्टी के पास रूस में है--उतनी बिरला के पास थोड़े ही है, न हो सकती है। सत्ता बदल गई, वर्ग बदल गए, नये वर्ग आ गए, क्रांति मर गई, क्रांति का कोई अर्थ न हुआ। फिर कंधा बदल गया।
दुनिया में अब तक क्रांति के नाम पर कंधे बदलते रहे हैं। क्या हम कंधे ही बदलते रहेंगे या सचमुच कोई क्रांति करेंगे? अगर क्रांति करनी है तो हिंसा पर से आस्था छोड़नी ही पड़ेगी, क्योंकि जो आदमी हिंसा करता है वह आदमी जब मालिक हो जाता है तब हिंसा जारी रखता है और उसकी जो हिंसा जारी रहती है और जिस आदमी ने हिंसा की है और उसके हाथ में हिंसा की ताकत है, उस आदमी से ज्यादा हम कभी आशा नहीं रख सकते। वह आदमी हिंसा को छोड़ देगा, हिंसा को बदल देगा? वह आदमी वही रहेगा। रूस में जिन लोगों के हाथ में ताकत आई वे लोग अच्छे थे। क्रांति के पहले सभी लोग अच्छे होते हैं, क्रांति के बाद जब ताकत हाथ में आती है, तब पता चलता है कि कौन आदमी अच्छा है, कौन आदमी बुरा है। संभावना इस बात की है कि स्टैलिन ने लेनिन को जहर देकर मारा और इस बात की संभावना है कि जितने लोग क्रांति के अग्रणी थे धीरे-धीरे करके एक-एक मारे गए। मैक्सिको में जाकर ट्राटस्की की हत्या की गई। जिन लोगों ने क्रांति की थी स्टैलिन ने चुन-चुन कर एक-एक को मारा, क्योंकि अब सत्ता का खिलवाड़ शुरू हो गया।
हिंदुस्तान में कितने अच्छे लोगों ने गांधी के साथ क्रांति की थी। कितने अच्छे और भले लोग मालूम पड़ते थे, एकदम सफेद, धुले हुए मालूम पड़ते थे। लेकिन जब सत्ता हाथ में आई तो पता चला कि वे लोग बदल गए, वे दूसरे आदमी साबित हुए, वे कपड़े ही सफेद थे, वे आदमी भीतर सफेद नहीं थे। क्या हो गया सत्ता के हाथ में आते ही? सत्ता के हाथ में आते ही भीतर का असली आदमी प्रकट होता है। जब तक हाथ में ताकत नहीं होती तब तक असली आदमी प्रकट नहीं होता। अगर आपके पास पैसे पहीं हैं तो आप फिजूल खर्च हैं, इसका कोई पता नहीं चलता। पैसा हो तो पता चलता है कि फिजूल खर्च हैं या नहीं। अगर आपके हाथ में छुरा हो मारने को तब पता चलता है कि आप हिंसक हैं या नहीं। जब हाथ में ताकत नहीं है तब तो सभी लोग अहिंसक होते हैं। अहिंसक का पता चलता है अवसर मिलने पर, हिंसा का अवसर मिलने पर। जिन लोगों के हाथ में इस मुल्क की ताकत गई, ताकत जाने के बाद ही पता चला कि उनके असली तत्व क्या थे। तो जिन लोगों के हाथ में ताकत जाएगी, अगर वे हिंसा के द्वारा ताकत को पहुंचे हैं तब तो उनकी तस्वीर पहले से ही हिंसा की है और बाद में उनकी क्या हालत होगी? अहिंसकों की हालत क्या हो जाती होगी?
नहीं, हिंसा से कोई क्रांति नहीं हो सकती, सिर्फ बोझ बदल जाते हैं, सिर्फ शकल बदल जाती है, नाम बदल जाते हैं, समाज पुराना का पुराना ही जारी रहता है। पांच हजार वर्ष के लंबे प्रयोगों के बाद भी हमें दिखाई नहीं पड़ता कि हिंसा से कोई क्रांति नहीं हो सकी। आगे भी नहीं हो सकेगी और अगर आदमी हिंसा से जाग जाए कि हिंसा से कुछ भी नहीं हो सकता, दबाव से कुछ भी नहीं हो सकता और आदमी की आत्मा प्रेम चाहती है और आदमी की आत्मा रूपांतरित होना चाहती है, लेकिन उन लोगों के द्वारा जो रूपांतरित करने के लिए उत्सुक, आतुर नहीं हैं, जिनका कोई आग्रह नहीं है, जो जीते हुए सत्य हैं, जो जीते हुए प्रेम हैं और उनके जीने के कारण दूसरे में फैलते हैं, उनसे रूपांतरण होता है।
ऐसे रूपांतरण की प्रतीक्षा मनुष्यता को है।
ऐसी क्रांति अहिंसात्मक ही हो सकती है। यह बहुत स्पष्ट रूप से मेरी बात समझ लेना जरूरी है। मैं हिंसा के बिल्कुल विरोध में हूं। हिंसा के कौन पक्ष में हो सकता है? कौन बुद्धिमान, कौन विचारशील व्यक्ति हिंसा के पक्ष में हो सकता है? हिंसा के पक्ष में होने का मतलब है आदमी में बुद्धि नहीं है। क्योंकि लाठी वे ही लोग उठाते हैं जिनके पास बुद्धि नहीं होती है। जिनके पास बुद्धि होती है उन्हें लाठी पर उतरने की जरूरत नहीं पड़ती। जो लोग हाथ की ताकत में और तलवार की ताकत में विश्वास करते हैं, वे मनुष्य से नीचे दर्जे के मनुष्य हैं, उनके भीतर पापी मौजूद है, पशु ही हिंसा में विश्वास करता है। आदमी हिंसा में कैसे विश्वास कर सकता है और पशुओं के हाथ में बहुत बार सत्ता दी गई है और आदमी ने हर बार भोगा है। आगे भी पशुओं के हाथ में सत्ता नहीं जानी चाहिए, पाशविक हाथों में, हिंसात्मक हाथों में सत्ता नहीं जानी चाहिए। इसलिए आदमी जितना सजग हो, जितना अहिंसा के सार को समझे, जितना अहिंसा के रहस्य को समझे, उतना अच्छा है।
अहिंसा का सार है, एक शब्द में--प्रेम, शुद्ध प्रेम। अहिंसा शब्द बहुत गलत है, क्योंकि नकारात्मक है। उससे पता चलता है हिंसा का। वह शब्द अच्छा नहीं है। शब्द है वास्तविक प्रेम। क्योंकि प्रेम पाजिटिव है, प्रेम विधायक है। जब हम कहते हैं अहिंसा, तो उससे मतलब है हिंसा नहीं करेंगे। लेकिन हिंसा नहीं करना है इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि प्रेम करना है। हिंदुस्तान में धार्मिकों की एक लंबी कतार है। वह सब अहिंसा को मानते हैं। उनकी अहिंसा का मतलब है--पानी छान कर पीना, उनकी अहिंसा का मतलब है--रात खाना नहीं खाना है, उनकी अहिंसा का मतलब है--किसी को चोट नहीं पहुंचाना। लेकिन ऐसी अहिंसा बड़ी अहिंसा नहीं है जो कि सिर्फ दूसरे को दुख पहुंचाने से बचती है। असली अहिंसा वही है जो दूसरे को सुख पहुंचाना चाहती है। दूसरे को दुख नहीं पहुंचाना है। यह ठीक है, लेकिन यह काफी नहीं है। वह बहुत लचर, अधकचरी अहिंसा है। दूसरे को सुख पहुंचाना है और क्यों पहुंचाना है? दूसरे को सुख इसलिए कि मोक्ष जाना है, इसलिए कि स्वर्ग पाना है। जो आदमी दूसरे को इसलिए दुख नहीं दे पाता है क्योंकि स्वर्ग जाना है, मोक्ष जाना है, वह आदमी हद दर्जे का चालाक है, वह आदमी हद दर्जे का हिसाबी-किताबी है। उस आदमी को दूसरे से कोई मतलब नहीं है। वह दूसरे को, दूसरे की अहिंसा को सीढ़ियां बना रहा है अपने स्वर्ग जाने की।
मैंने सुना है, चीन के एक गांव में एक बहुत बड़ा मेला लगा हुआ था। एक कुआं था मेले के पास जिस पर पाट नहीं था और एक आदमी भूल से उस कुएं के भीतर गिर गया। वह आदमी जोर-जोर से चिल्लाने लगा। किंतु मेले में बहुत भीड़ थी, कौन उसकी सुनता। एक बौद्ध भिक्षु कुएं के पास पानी पीने को रुका। नीचे से आदमी चिल्लाया कि भिक्षु जी, मुझे बचाइए। उस भिक्षु ने कहाः पागल किस-किस को बचाया जा सकता है, सारा संसार कुएं में पड़ा है। जीवन ही दुख है। भगवान ने कहा है, जीवन दुख का मूल है। हम सभी डूब मरेंगे, हम किसको बचा सकते हैं। उस आदमी ने कहा, ज्ञान की बातें, पहले मुझे निकाल लें, फिर पीछे करना, क्योंकि ज्ञान की बातें कुएं में गिरे आदमी को अच्छी नहीं मालूम पड़तीं। कृपा करो, मुझे बाहर निकालो। भिक्षु ने कहाः पागल, कौन किसको निकाल सकता है। अपना ही अपना सम्हाल ले आदमी तो काफी है, क्योंकि भगवान ने कहा है, कोई किसी का सहारा नहीं है, अपने सहारे रहो। उसने कहा, वह मैं समझता हूं लेकिन अभी मैं अपना सहारा ढूंढ रहा हूं। तैरना नहीं जानता हूं। मुझे किसी तरह बाहर निकाल लो तो तुम्हारा शास्त्र भी सुनूंगा, तुम्हारा प्रवचन भी सुनूंगा। उस भिक्षु ने कहा, शायद तुम्हें पता नहीं कि भगवान ने शास्त्र में यह भी कहा है कि अगर मैं तुझे बचा लूं और कल तू हत्या कर दे, चोरी कर ले, तो मैं भी तेरे कर्म का भागी हो जाऊंगा। मैं अपने रास्ते पर, तू अपने रास्ते पर। भगवान तेरा भला करे।
वह भिक्षु चला गया। शास्त्रों को मानने वाले लोग खतरनाक होते हैं। उनका शास्त्र ही महत्वपूर्ण है, मरता हुआ आदमी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है।
उसके पीछे ही कनफ्यूशियस को मानने वाला एक दूसरा भिक्षु आकर रुका। उसने भी नीचे झांक कर देखा। वह आदमी चिल्लाया कि मुझे बचाओ, मैं मर रहा हूं। बस मेरी स्थिति है, सांसें टूटी जाती हैं, हिम्मत नहीं रखी जाती है। कनफ्यूशियस के शिष्य ने कहा, देख, तेरे गिरने से साबित हो गया कि कनफ्यूशियस ने जो लिखा है वह सही है। उसने लिखा है कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए और जिस कुएं पर पाट नहीं होगी और जिस राज्य में कुएं पर पाट नहीं होती वह राज्य ठीक नहीं है। तू घबड़ा मत, हम आंदोलन करेंगे और कुएं पर पाट बनवा कर रहेंगे। उस आदमी ने कहा कि बनेगा, लेकिन मैं तो गया!
आंदोलन करने वाले को आदमी से कोई मतलब नहीं है। उन्हें आंदोलन से मतलब है। वे आंदोलन करेंगे। और वह जो आदमी डूब रहा है, वह गया। वह बहुत चिल्लाया लेकिन आंदोलनकारी किसी की सुनते हैं? वह जाकर मंच पर खड़ा हो गया और मेले में लोगों को समझाने लगा कि देखो, कनफ्यूशियस ने जो लिखा है ठीक लिखा है। सबूत? वह कुआं सबूत है। हर कुएं पर पाट होना चाहिए। जब तक कुएं पर पाट नहीं है तब तक राज्य सुराज्य नहीं है।
उसके पीछे ही एक ईसाई मिशनरी वहां आया। उसने भी झांक कर देखा। वह आदमी चिल्ला भी नहीं पाया कि उसने अपनी झोली से रस्सी निकाली और कुएं में डाली और कुएं के नीचे गया। उस आदमी को निकाल कर बाहर लाया। उस आदमी ने कहाः आप ही एक भले आदमी मालूम पड़ते हैं। लेकिन आश्चर्य कि आप झोली में रस्सी पहले से ही रखे हुए थे। उसने कहाः हम सब इंतजाम करके निकलते हैं क्योंकि सेवा ही हमारा कार्य है और हमें पहले से पता रहता है कि कोई न कोई तो कुएं में गिरेगा और जीसस ने कहा है कि अगर मोक्ष जाना है, अगर स्वर्ग का राज्य पाना है तो लोगों की सेवा करो। सेवा के बिना कोई मोक्ष नहीं जा सकता। हम मोक्ष की खोज कर रहे हैं। तुमने बड़ी कृपा की जो कि कुएं में गिरे। अपने बच्चों को भी समझा जाना ताकि वे कुएं में गिरते रहें और हमारे बच्चे उनको निकालते रहें।
यह जो आदमी है, यह जो मोक्ष में जाने के लिए लोगों के कुएं में गिरने की प्रतीक्षा कर रहा है, यह आदमी हद दर्जे का पापी है। इन्हें न कोढ़ियों से मतलब है, न बीमारों से। ये सबको सीढ़ियां बना कर अपना मोक्ष खोज रहें हैं। यह आज तक जो लोग अहिंसा की बात करते हैं, उनके लिए अहिंसा भी एक सीढ़ी है। नहीं, अहिंसा जो सीढ़ी बनती है वह अहिंसा नहीं है। अहिंसा शब्द ठीक नहीं है। शब्द तो ठीक है प्रेम, ज्वलंत प्रेम और प्रेम का मतलब है दूसरे को सुख देने की कामना। लेकिन क्यों? इसलिए नहीं कि मोक्ष जाएंगे, इसलिए नहीं कि पुण्य होगा, बल्कि सिर्फ इसलिए कि जो आदमी जितना दूसरे को सुख दे पाता है उतना ही प्रतिक्षण सुखी हो जाता है, तत्क्षण, आगे-पीछे नहीं, कभी भविष्य में नहीं। जो आदमी जितना दूसरे को दुख देता है तत्क्षण उतना ही दुखी हो जाता है। जीवन में जो हम दूसरे के लिए करते हैं वही हम पर वापस लौट आता है। जिंदगी एक बड़ी प्रतिध्वनि है, एक ईको-पॉइंट है।
मैं एक पहाड़ पर गया था। कुछ मित्र मेरे साथ थे। उस पहाड़ पर एक ईको-पॉइंट था जहां आवाज की जाती तो बार-बार वापस लौटती थी हम लोगों के बीच। वहां जो मित्र मेरे साथ थे वे कुत्ते की आवाज करने लगे। सारा पहाड़ कुत्तों की आवाज से गूंज गया। मैंने उनसे कहाः रुको भी। अगर आवाज ही करनी है तो कोयल की करो या कोई गीत गाओ। कुत्ते की आवाज करने से क्या फायदा। वे मित्र गीत गाने लगे प्रेम का। उन्होंने कोयल की आवाज की और पहाड़ियां कोयल की आवाज से गूंज गईं। फिर हम लौटे तो वे मित्र कुछ सोचने लगे और उदास हो गए और रास्ते में कहने लगे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने इशारा किया हो कि यह जो घाटी है, यह जो ईको-पॉइंट है वह भी प्रतीक है जिंदगी का। जिंदगी का ही वह एक रूप है। जिंदगी में भी जो कुत्ते की आवाज फेंकता है, चारों तरफ कुत्ते भोंकने लगते हैं। जिंदगी में भी जो गीत गाता है चारों तरफ गीत की शहनाइयां बजने लगती हैं। जिंदगी में जो हम फेंकते हैं जिंदगी की तरफ वही हम पर वापस लौटना शुरू हो जाता है--हजार-हजार गुना होकर। प्रेम जो जितना बांटता है उतना प्रतिध्वनित होकर उसके ऊपर बरसने लगता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी कर दूंगा।
रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा है, बहुत प्यारा गीत है और उस गीत में लिखा है कि एक भिखमंगा सुबह-सुबह उठा है भीख मांगने के लिए, अपनी झोली निकाल कर कंधे पर डाली है, आज त्यौहार का दिन है और भीख मिलने की आशा है। ऐसा मालूम होता है कि त्यौहारों की ईजाद भिखमंगों ने ही की होगी, खोज उन्होंने की होगी। झोली कंधे पर डाल कर उसने अपनी पत्नी से कुछ अनाज, चावल के दाने झोली में डालने के लिए कहा। जब भी कोई भिखमंगा अपने घर से निकलता है, चालाक भिखमंगा, क्योंकि भिखमंगों में भी नासमझ भिखमंगे होते हैं, समझदार भी होते हैं। सब तरह की दुकानों में समझदार, नासमझ सभी तरह के लोग होते हैं। भिखमंगों की भी एक दुकान है। उसने कुछ दाने घर से डाल लिए हैं और भिखमंगे कुछ दाने डाल कर निकलते हैं ताकि जिसके सामने झोली फैलाएं उसे दिखाई पड़े कि भीख पहले भी दी जा चुकी है। इनकार करने में मुश्किल होती है अगर भीख पहले दी जा चुकी हो, क्योंकि अहंकार को चोट लगती है कि किसी दूसरे आदमी ने दान कर दिया है और अगर हम नहीं करते हैं तो उस आदमी के सामने छोटे हो जाते हैं। इसलिए भिखमंगे पैसे हाथ में बजाते हुए निकलते हैं।
वह भिखमंगा रास्ते पर, राजपथ पर आकर खड़ा ही हुआ था, कुछ सोचता था कि किस दिशा में जाऊं, कि देखा कि सामने से सूरज निकलता है और राजा का स्वर्ण रथ आ रहा है। राजा अपने रथ पर सवार है। सूरज की किरणों में उसका रथ चमक रहा है। भिखमंगे के तो भाग खुल गए। उसने कभी राजा से भीख नहीं मांगी थी। राजाओं से भीख मांगना मुश्किल है, क्योंकि द्वार पर पहरेदार होते हैं, वे भीतर प्रवेश करने नहीं देते। आज तो राजा रास्ते पर मिल गया है, आज तो झोली फैला दूंगा और भीख से छुटकारा जन्म-जन्म के लिए मिल जाएगा। फिर आगे भीख नहीं मांगनी पड़ेगी। इसी सपने में, कल्पना में था और भिखमंगों के पास सिवाय सपने के और कुछ भी नहीं होता। सपने में ही जीना पड़ता है, क्योंकि जिनके पास कुछ भी नहीं है वे सपने में ही जीने का रास्ता खोज लेते हैं। वह महलों में निवास करने लगा सपने में और तभी रथ आकर खड़ा हो गया। सारे सपने टूट गए और हैरान हो गया भिखारी। राजा नीचे उतरा और राजा ने अपनी झोली भिखारी के सामने फैला दी।
भिखारी ने कहाः क्या कर दिया? राजा ने कहाः क्षमा करना। अशोभन है, लेकिन ज्योतिषियों ने कहा है कि राज्य पर खतरा है दुश्मन का और कहा है कि अगर मैं आज त्यौहार के दिन जो पहला आदमी मुझे मिल जाए उससे भीख मांग लूं तो राज्य खतरे से बच सकता है। तुम्हीं पहले आदमी हो, दुखी न होओ, तुमने कभी भिक्षा दी न होगी, इसलिए बड़ी मुश्किल पड़ेगी देने में। लेकिन कुछ भी थोड़ा सा दे दो, इनकार मत कर देना, पूरे राज्य के भाग्य का सवाल है। भिखमंगा कितनी कठिनाई में पड़ गया होगा? उसने हमेशा मांगा था, दिया कभी नहीं था। देने की आदत न थी। झोली में हाथ डालता है और खाली हाथ बाहर निकाल लेता है। इनकार भी कर नहीं सकता। सामने राजा खड़ा है। पूरे राज्य के संकट का सवाल है। हाथ भीतर चला जाता है, मुट्ठी बंधती नहीं। राजा कहता है, इनकार मत कर देना, क्योंकि ज्योतिषियों ने कहा है कि अगर पहले आदमी ने इनकार कर दिया तो संकट निश्चित है। तो एक दाना ही दे दो। भिखारी ने बामुश्किल एक चावल का दाना निकाल कर राजा की झोली में डाल दिया।
राजा अपने रथ पर बैठा और चला गया। धूल उड़ती रह गई। भिखारी के सब कपड़े धूल से भर गए। उलटा मिला तो कुछ भी नहीं, पास से कुछ चला गया। उसका दुख आप जानते हैं? दिन भर भीख मांगी, बहुत मिली उस दिन भीख। इतनी कभी नहीं मिली। लेकिन मन प्रसन्न नहीं हुआ। क्योंकि जो मिलता है उससे प्रसन्न नहीं होता है मन, जो छूट जाता है उससे दुखी होता है। एक दाना खटकता रहा जो दिया था। सबके मन की यही हालत है, क्योंकि सब छोटे-मोटे भिखारी हैं। जो छूट जाता है वह खटकता रहता है, जो मिल जाता है उसका पता नहीं चलता।
भिखारी के मन का लक्षण यह है--जो मिल जाए उसका पता न चले, जो न मिले, जो छूट जाए, उसकी पीड़ा कसकती रहे।
वह घर पहुंचा है रात, झोली पटक दिया, पत्नी तो पागल हो गई। इतना कभी न मिला था। झोली खोलने लगी। पति तो उदास दिखता था। उदास हैं आप? पति ने कहा, तुझे तो पता नहीं है पागल, झोली में थोड़ा कम है। आज थोड़ा देना भी पड़ा है। ऐसा जिंदगी में कभी नहीं किया आज वह करना पड़ा। पत्नी ने झोली खोली, दाने बिखर गए और पति छाती पीट कर रोने लगा। अब तक उदास था, आंसुओं की धारा बहने लगी। पत्नी ने पूछा, क्या हुआ? पति ने नीचे के दाने उठाए और एक दाना सोने का हो गया था। एक चावल का दाना सोने का हो गया है। चिल्लाने लगा कि भूल हो गई, अवसर निकल गया। मैंने अगर सारे दाने दे दिए होते तो सब सोना हो गया होता। लेकिन अब कहां खोजूं उस राजा को, कहां मिलेगा वह रथ। अवसर चूक गया है वह।
मुझे पता नहीं, यह कहानी कहां तक सच है, लेकिन यह मुझे पता है कि जिंदगी के अंत में आदमी ने जो दिया है वही सोने का होकर वापस लौट आता है। जो दिया है वही स्वर्ण का हो जाता है, जो रोक लिया है वही मिट्टी का हो जाता है। प्रेम का अर्थ है--दान, प्रेम का अर्थ है--बांटना। जितना बंट जाता है व्यक्तित्व, आत्मा उतनी ही स्वर्ण की हो जाती है, और जितना अनबंटा रह जाता है व्यक्तित्व, आत्मा उतनी ही मिट्टी हो जाती है।


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