तीसरा प्रवचन
एक और असहमति
मेरे प्रिय आत्मन्!मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं और न ही मैंने अपने किसी पिछले जन्म में ऐसे कोई पाप किए हैं कि मुझे राजनीतिज्ञ होना पड़े। इसलिए राजनीतिज्ञ मुझसे परेशान न हों और चिंतित न हों। उन्हें घबड़ाने की और भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं उनका प्रतियोगी नहीं हूं, इसलिए अकारण मुझ पर रोष भी प्रकट करने में शक्ति जाया न करें। लेकिन एक बात जरूर कह देना चाहता हूं, हजारों वर्ष तक भारत के धार्मिक व्यक्ति ने जीवन के प्रति एक उपेक्षा का भाव ग्रहण किया था।
गांधी ने भारत की धार्मिक परंपरा में उस उपेक्षा के भाव को आमूल तोड़ दिया है। गांधी के बाद भारत का धार्मिक व्यक्ति जीवन के और पहलुओं के प्रति उपेक्षा नहीं कर सकता है। गांधी के पहले तो यह कल्पनातीत था कि कोई धार्मिक व्यक्ति जीवन के मसलों पर चाहे वह राजनीति हो, चाहे अर्थ हो, चाहे परिवार हो, चाहे सेक्स हो--इन सारी चीजों पर कोई स्पष्ट दृष्टिकोण दे। धार्मिक आदमी का काम था सदा से जीवन जीना सिखाना नहीं, जीवन से मुक्त होने का रास्ता बताना। धार्मिक आदमी का स्पष्ट कार्य था लोगों को मोक्ष की दिशा में गतिमान करना। लोग किस भांति आवागमन से मुक्त हो सकें, यही धार्मिक दृष्टि की उपदेशना थी। इस उपदेश का घातक परिणाम भारत को झेलना पड़ा।
मोक्ष है, इस जीवन के बाद और जीवन भी हैं, लेकिन यह जीवन भी है और यह जीवन आने वाले जीवनों से जुड़ी हुई अनिवार्य कड़ी है। जो इस जीवन की उपेक्षा करता है, वह आने वाले जीवन के लिए नींव नहीं रखता। वह आने वाले जीवन को भी नष्ट करने का प्रारंभ करता है। इस जीवन के प्रति उपेक्षा नहीं चाहिए। धर्म अब तक उपेक्षा किया था। अब धर्म उपेक्षा नहीं कर सकता है, क्योंकि धर्म की उपेक्षा, इनडिफरेंस का यह परिणाम हुआ कि सारी पृथ्वी अधार्मिक हो गई। यह सारी पृथ्वी के अधार्मिक हो जाने में अधार्मिक लोगों का हाथ नहीं है, इसमें उन धार्मिक लोगों की उपेक्षा है जो जीवन के प्रति पीठ करके खड़े हो गए। अब आने वाले भविष्य में धार्मिक व्यक्ति अगर जीवन के प्रति पीठ करता है, तो उस व्यक्ति को हम पूरे अर्थों में धार्मिक नहीं कह पाएंगे।
गांधी के बाद भारत में एक नया युग प्रारंभ होता है और वह नया युग यह है कि धर्म जीवन के प्रति भी रस लेगा, जीवन के समस्त पहलुओं पर धर्म भी अपना निर्णय देगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति दिल्ली की यात्रा करे, इसका यह अर्थ भी नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति सक्रिय राजनीति में खड़े हो जाएं। लेकिन इसका मतलब यह जरूर है कि धार्मिक व्यक्ति राजनीति के प्रति उपेक्षा ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि राजनीति पूरे जीवन को प्रभावित करती है।
मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं लेकिन आंखें रहते देश को रोज अंधकार में जाते हुए देखना भी असंभव है। उतनी कठोरता, उतनी धार्मिक आदमी की कठोरता और पथरीलापन मैं नहीं जुटा पाता हूं। देश रोज-रोज प्रतिदिन नीचे उतर रहा है। उसकी सारी नैतिकता खो रही है, उसके जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी सत्य है, वह सभी कलुषित हुआ जा रहा है। इसके पीछे जानना और समझना जरूरी है कि कौन सी घटना काम कर रही है। और चूंकि मैंने कहा कि गांधी के बाद एक नया युग प्रारंभ होता है, इसलिए गांधी से ही विचार करना जरूरी है।
गांधी एक धार्मिक व्यक्ति थे, लेकिन गांधी के आस-पास जो लोग इकट्ठे हुए, वे धार्मिक नहीं थे। और इससे हिंदुस्तान के भाग्य के लिए एक खतरा पैदा हो गया। गांधी राजनीतिज्ञ नहीं थे। गांधी के लिए राजनीति आपद-धर्म थी, इमरजेंसी थी। गांधी का मूल व्यक्तित्व धार्मिक था। मजबूरी थी कि वे राजनीति में खड़े थे, लेकिन उस राजनीति में भी उनके प्राणों को वह राजनीति कहीं भी छू नहीं सकी थी। उससे वैसे ही दूर थे जैसा कमल पानी में दूर होता होगा।
लेकिन उनके आस-पास जो लोग इकट्ठे थे, वे राजनीतिज्ञ थे, वे धार्मिक लोग नहीं थे। राजनीति उनका प्राण थी। गांधी के साथ रहने की वजह से धर्म और नीति उनका आपद-धर्म बन गई थी। उनके लिए नैतिकता मजबूरी थी। गांधी के साथ चलना हो तो नैतिकता की मजबूरी उन्हें ढोनी पड़ी। गांधी के लिए राजनीति मजबूरी थी, उनके आस-पास अनुयायियों के लिए, गांधीवादियों के लिए नैतिकता मजबूरी थी। गांधी के लिए राजनीति बाहर-बाहर थी, भीतर नीति थी। उनके अनुयायियों के लिए राजनीति भीतर थी, नीति बाहर-बाहर थी।
फिर जैसे ही सत्ता आई, एक क्रांतिकारी उलट-फेर हो गया। सत्ता आते ही गांधी का जो आपद-धर्म था--राजनीति--वह विलीन हो गया, गांधी शुद्ध नैतिक व्यक्ति रह गए और उनके अनुयायियों का जो आपद-धर्म था--नीति--वह विलीन हो गई, वे शुद्ध राजनीतिज्ञ रह गए। सत्ता के आते ही गांधी शुद्ध नैतिक व्यक्ति रह गए और उनके अनुयायी शुद्ध राजनीतिक व्यक्ति हो गए और उन दोनों के बीच जमीन-आसमान का फासला हो गया। एक इतनी बड़ी खाई हो गई जो आजादी के पहले कभी भी नहीं थी। आजादी के पहले गांधी और गांधी के अनुयायी के बीच खाई बहुत कम थी। झूठी ही सही, लेकिन नैतिकता की एक पर्त थी। और झूठी ही सही, गांधी के आस-पास राजनीति का एक आवरण था। इन दोनों के कारण बीच में एक सेतु था, एक संबंध था। सत्ता आने पर यह सेतु टूट गया और यह सेतु का टूट जाना गांधी को भी दिखाई पड़ गया। और गांधी ने कहाः अब कांग्रेस की कोई भी जरूरत नहीं, उसे लोक-सेवक दल में परिवर्तित हो जाना चाहिए। क्योंकि गांधी की पैनी आंखों को यह दिखाई पड़ना कठिन नहीं हुआ कि अब यह जो राजनीतिक संस्थान खड़ा रह जाएगा, यह मुल्क को नरक की यात्रा करा देगा।
बीस साल में उसने नरक की यात्रा करा दी है। और गांधी को यह भी दिखाई पड़ गया कि मैं एक खोटा सिक्का हो गया हूं, मेरी कोई बात अब सुनता नहीं है। गांधी, जिसकी आवाज हम चालीस वर्षों से सुनते थे, अचानक सत्ता रूपांतरित हो जाने पर, सत्ता हस्तांतरित हो जाने पर अनुभव करने लगा, मेरी कोई आवाज नहीं सुनता है। मैं एक खोटा सिक्का हो गया हूं, मेरा अब चलन नहीं रहा। गांधी ने यह कहा कि पहले मैं एक सौ पच्चीस वर्ष जीना चाहता था, लेकिन अब मेरी जीने की इच्छा भी नहीं रह गई। यह थोड़ा विचारणीय है।
यह गांधीवादी के ऊपर इससे बड़ा और कोई इल्जाम नहीं हो सकता, और कोई बड़ा अपराध नहीं हो सकता है।
गोडसे के ऊपर गांधी को मारने का अपराध छोटा है, इस अपराध के मुकाबले। कि गांधी जिनके साथ लड़े और जिनके लिए लड़े, जीत हो जाने पर गांधी को यह कहना पड़े कि मैं खोटा सिक्का हो गया हूं, मेरी अब कोई सुनता नहीं, अब मुझे ज्यादा जीने की इच्छा नहीं होती। गोडसे ने जो गोली मारी वह तो परमात्मा की इच्छा के बिना गोडसे नहीं मार सकता था। शायद और गांधी को इससे सुंदर मृत्यु मिल भी नहीं सकती थी। लेकिन गांधी के पीछे चलने वाले लोगों ने गांधी को जिस बुरी तरह से निराश और हताश किया, वह आश्चर्यजनक है। और वे ही सारे लोग गांधी के मर जाने के बाद बीस वर्षों से गांधी का जय-जय गान और गांधी का गुणगान कर रहे हैं। वे कहते हैं, गांधी पर विचार नहीं करना, सिर्फ प्रशंसा करनी है।
वे ऐसा क्यों कहते हैं?
वे भलीभांति जानते हैं कि गांधी की आलोचना शीघ्र ही गांधीवादियों की आलोचना बन जाएगी। इसलिए गांधी की आलोचना मत करो, ताकि पीछे छिपे हुए गांधीवादी की आलोचना संभव न हो सके। गांधी की आड़ में एक खेल चल रहा है। इस खेल को गांधी पर आलोचना और विचार किए बिना नहीं तोड़ा जा सकता। और इसलिए गांधीवादी एकदम भयभीत हो उठा। मैंने थोड़ी सी बातें कहीं और महीने भर से मैं इधर लौटा हूं, तो मुझे पता चला कि महीने भर से सिवाय इसके कोई और बात नहीं है--पत्रों में, चर्चाओं में, घर में, गांवों में, एक ही बात है।
इतनी आतुरता से उसने उत्सुकता क्यों ली है? वह इतनी तीव्रता से मेरे ऊपर क्यों टूट पड़ा?
उसका कारण है। स्पष्ट कारण है। गांधी पर आलोचना अंततः गांधीवादी की आलोचना बन जाएगी। और गांधी तो आलोचना के बाद और निखर कर निकल आएंगे, जैसे सोना आग से निकल आता है। लेकिन गांधीवादी के प्राण निकल जाने वाले हैं। वह नहीं बच सकता है। उसके प्राण को खतरा है, गांधी को कोई खतरा नहीं है। गांधी को क्या खतरा हो सकता है?
गांधी जैसे सच्चे आदमी को खतरे का कोई सवाल नहीं। खतरा आलोचना से सदा झूठे आदमियों को होता है और उन झूठे आदमियों की कतार गांधी के नाम पर खड़ी हो गई है। हमेशा जहां सत्ता होती है, जहां सत्ता होती है, जहां पद होता है वहां बेईमान और चोरों की कतार इकट्ठी हो जाती है। यह हो ही जाएगी।
गांधी के साथ जो लोग थे आजादी की लड़ाई में, वे धीरे-धीरे बिखर कर अलग होते चले गए। नई शकलें पीछे से आनी शुरू हो गईं। ये जो नये लोग आए थे इन नये लोगों को सत्ता से प्रेम था। वे सत्ता के लिए आए थे। और आज देश में राजनीति के नाम पर सिवाय सत्ता की होड़ के और कुछ भी नहीं हो रहा है। उनमें से किसी को इस बात की फिक्र नहीं है कि देश कहां जा रहा है और कहां जाएगा। उनको एक ही बात की फिक्र है कि उनकी सत्ता, उनका पद, उनका सम्मान, उनकी शक्ति किस तरह बनी रहे। वे इसी विचार में चिंतित, लीन और परेशान हैं। सारे देश का क्या हो रहा है इससे कोई सवाल नहीं है बड़ा, बड़ा सवाल अपने-अपने पद को बचा रखने का है।
गांधी ने कभी कल्पना भी न की होगी कि जिस सेना को उसने खड़ा किया था वह इस तरह की धोखेबाज साबित हो सकती है। लेकिन वह धोखेबाज साबित हो गई।
और उसमें भूल, एक भूल गांधी की भी थी, और वह भूल समझ लेना जरूरी है, अन्यथा हम उस भूल को आगे भी दोहरा सकते हैं। वह भूल यह थी कि गांधी ने कभी इस बात की फिक्र न की कि ये जो लोग उनके आस-पास इकट्ठे हैं, इनके जीवन में कोई धार्मिक किरण उतरी है? इनके जीवन में कोई परमात्मा का स्पर्श है? इनके जीवन में सत्य की भी कोई गहरी आकांक्षा पैदा हुई है? इनके जीवन में कोई ध्यान है? कोई समाधि है? इनके जीवन में आत्मा से जुड़ने का कोई मार्ग, कोई द्वार खुल गया है? नहीं, इसकी उन्होंने फिकर नहीं की। वे केवल सत्य और अहिंसा की वैचारिक बातें करते रहे। उनके आस-पास का आदमी सत्य और अहिंसा को विचारपूर्वक स्वीकार करता रहा, लेकिन जो विचारपूर्वक स्वीकार होता है, वह जरूरी रूप से आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो जाता है। विचार बाहर ही रह जाते हैं, भीतर नहीं जाते। भीतर तो निर्विचार जाता है। विचार भीतर नहीं जाता। विचार तो बाहर रह जाता है। गांधी समझाने की कोशिश करते रहे--सत्य अच्छा है, अहिंसा अच्छी है, अपरिग्रह अच्छा है, वह सब समझाते रहे। जो उन्हें अच्छा दिखाई पड़ता था, उन्होंने लोगों को समझाया और जिन्होंने समझा उन्होंने सुना, ठीक समझ में आया और उन्होंने थोड़ा-बहुत उस तरह का आचरण करने का प्रयास भी किया।
लेकिन ध्यान रहे, एक आचरण आत्मा से पैदा होता है, एक आचरण बाहर से थोपा जाता है। जो आचरण बाहर से थोपा जाता है, वह आचरण जब तक हाथ में शक्ति न हो तब तक टिक सकता है, शक्ति के आते ही नष्ट हो जाता है। जो आचरण हम ऊपर से थोपते हैं, इम्पोज्ड जो होता है व्यक्तित्व, अभिनय जो होता है, ऊपर से थोपा हुआ जो होता है, वह प्राणों तक गहरा तो नहीं होता, कपड़ों की तरह बाहर होता है। यह तभी तक हमारे साथ रह सकता है, जब तक इसको टूटने का प्रतिकूल अवसर न मिल जाए। और जैसे ही प्रतिकूल अवसर मिलेगा, यह कचरा बह जाएगा, ये कपड़े बह जाएंगे और भीतर का नंगा आदमी साफ हो जाएगा।
नैतिक आदमी, जो धार्मिक नहीं है सिर्फ नैतिक है, उसके हाथ में सत्ता जाना हमेशा खतरनाक है। सत्ता में जाते ही नीति बह जाएगी और नंगा आदमी प्रकट हो जाएगा। लेकिन गांधी तो धार्मिक व्यक्ति थे, अपने आस-पास विचारपूर्वक जो नैतिक हो गए थे, उन्होंने उन पर ही सारा विश्वास कर लिया। और उस विश्वास के कारण इस देश के साथ एक अनिवार्यरूपेण विश्वासघात हो गया है। आगे भी हम यह भूल कर सकते हैं। यह हमेशा भूल संभव है। क्योंकि धार्मिक और नैतिक आदमी एक जैसे मालूम पड़ते हैं। एक व्यक्ति जिसके प्राणों से अहिंसा उठती हो, और एक व्यक्ति जिसने यह किताबों में पढ़ कर, सदगुरुओं से सुन कर सोच लिया हो कि अहिंसा अच्छी चीज है, मुझे अहिंसा का पालन करना चाहिए। इन दोनों में बुनियादी फर्क होता है। जो आदमी अहिंसा का पालन करता है, उसके भीतर तो हिंसा मौजूद रहती है, नहीं तो पालन करने की कोई जरूरत न हो। पालन हमें उसे ही करना पड़ता है जिसके विपरीत हमारे भीतर मौजूद होता है।
जिस आदमी को ब्रह्मचर्य पालन करना पड़ता है, उसके भीतर कामवासना मौजूद होगी, अन्यथा पालन किस चीज का करेगा?
जिस आदमी को सत्य का पालन करना पड़ता है, उसके भीतर झूठ की लहरें उठती रहती हैं।
संयमी आदमी जिसे हम कहते हैं, नैतिक आदमी, वह ऊपर कुछ होता है, भीतर ठीक उलटा होता है। और अगर प्रतिकूल स्थिति आ जाए तो जो भीतर है वही सच्चा साबित होगा, जो बाहर है वह सच्चा साबित होने वाला नहीं है। बाहर बहुत कमजोर चीजें हैं, भीतर असली प्राण हैं।
धार्मिक मनुष्य भीतर से रूपांतरित होता है, नैतिक मनुष्य बाहर से।
इसलिए नैतिक मनुष्य के हाथ में सत्ता पहुंच जाना हमेशा खतरनाक बात होती है।
गांधी एक धार्मिक व्यक्ति थे, गांधीवादी एक नैतिक व्यक्ति हैं। और इस भेद को नहीं समझ पाने के कारण मुल्क एक अनिवार्यरूपेण एक ऐसी गलती में पड़ गया, जिससे छुटकारा होने में बहुत समय लग सकता है।
इस देश को, इस देश के प्राणों को आगे विकसित करने के लिए नीति और धर्म का बुनियादी फासला हमें समझ लेना चाहिए, अन्यथा कल हम जिन्हें फिर शक्ति देंगे, फिर सत्ता देंगे, फिर हम नैतिक आदमियों को सत्ता दे सकते हैं। सत्ता में पहुंचते से हर तरह का नैतिक आदमी चाहे वह किसी पार्टी का हो, इसी तरह का साबित होगा जिस तरह क्रांग्रेस का आदमी साबित हुआ। इसमें फर्क नहीं पड़ेगा। चाहे वह समाजवादी हो, चाहे वह साम्यवादी हो। अगर उसका सारा आचरण ऊपर से थोपा हुआ है और उसके प्राणों से कोई सच्चाई नहीं उठी है, तो वह जाकर सत्ता में पहुंच कर एकदम रूपांतरित हो जाएगा। महल के बाहर वह आदमी बहुत सेवक मालूम होता था, महल के भीतर जाकर बहुत शासक हो जाएगा। महल के बाहर वह कहता था, मैं विनम्र हूं, आपके चरणों का दास हूं। महल के भीतर पहुंच कर वह आपको पहचान नहीं सकेगा कि आप कौन हैं और भीतर कैसे आ गए। यह होगा।
अगर भारत को सच में ही सत्य का, समता का, स्वतंत्रता का एक समाज और एक देश निर्मित करना है तो हमें यह जान लेना जरूरी है कि हिंदुस्तान में जिनके हाथ में सत्ता जानी हो उन लोगों के आमूल व्यक्तित्व के रूपांतरण की दिशा में कुछ काम होना जरूरी है।
गांधी वह काम कर सकते थे। शायद गांधी को खयाल नहीं आ सका। उन्होंने केवल नैतिक शिक्षा दी। साथ में अगर उन्होंने योग की शिक्षा पर भी चिंता की होती, समाधि और ध्यान की भी चिंता की होती, अगर उन्होंने सिर्फ रामधुन न करवाई होती, साथ में समाधि और ध्यान के भी गहरे प्रयोग चालीस वर्ष किए होते, तो इस भारत का भाग्य एक स्वर्णभाग्य बन सकता था। लेकिन वह नहीं हो सका। और आज भी वह नहीं हो रहा है।
मैं कल्पना करता हूं इस देश को एक ऐसी पार्टी की जरूरत है, एक ऐसे व्यक्तियों की जरूरत है, एक ऐसे बड़े आंदोलन की जरूरत है, जो आंदोलन ध्यान और समाधि के मार्ग से सत्ता के द्वार तक पहुंचता हो। तो हम इस देश को सुंदर बना सकेंगे, नहीं तो नहीं सुंदर बना सकते।
भारत की कल्पना बहुत पुरानी है, ऐसे यह है। बहुत बार यूनान में भी प्लेटो ने यह कल्पना की थी कि कब ऐसा समय होगा कि दार्शनिक राज्य कर सकेंगे। गांधी के साथ आशा बंधी थी कि शायद दुनिया में पहली बार दार्शनिकों का राज्य भारत में आ जाएगा। लेकिन गांधी के पीछे आने वाले लोगों ने सारी आशा पर पानी फेर दिया। नहीं, दार्शनिकों का राज्य नहीं बन सका। न बनने का कारण यह है कि हम दार्शनिक ही बनाने में समर्थ न हो पाए--ऐसे लोग जिनके पास अंतर्दृष्टि हो।
अब फिर सत्ता की होड़ चल रही है और सत्ता के बाजार में जितने लोग हैं, उनके पास, किसी के पास कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। उनके पास कोई प्रभु के तरफ जाने वाला मार्ग नहीं है। उनके पास कोई प्रकाश की भीतर किरण नहीं है। बस वे सोच-विचार और सत्ता की होड़ में लगे हैं। और तब आप हैरान हो जाएंगे यह बात जान कर कि आप एक को बदलेंगे दूसरे से और आप बदल भी नहीं पाएंगे और दूसरा भी पहले जैसा सिद्ध होगा, तीसरा भी पहले जैसा सिद्ध होगा।
मैं सुनता था, कोई मुझे कहता था कि अमेरिका में कुछ मनोवैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया। उन्होंने यह अध्ययन किया कि जो लोग एक पति अपने जीवन में अगर आठ स्त्रियों को तलाक दे देता है या एक पत्नी अपने जीवन में आठ पतियों को तलाक देकर बदलती है, तो हर बार उसे पहले से बेहतर पति या पत्नी मिलती है या नहीं?
और अध्ययन से वे अजीब नतीजे पर पहुंचे। वे इस नतीजे पर पहुंचे कि जो पति पहली पत्नी को खोज कर लाता है, दो साल बाद उसे तलाक देता है, दूसरी स्त्री को खोज कर लाता है, महीने दो महीने में पाता है कि उसने फिर पहली जैसी स्त्री ही वापस खोज ली। पत्नी बदलती है पति को जिंदगी में आठ बार, लेकिन हर बार यह अनुभव होता है कि हर आदमी पुराना जैसा ही पति सिद्ध होता है। थोड़े दिन तक नई रौनक रहती है, फिर पुराना आदमी उसके भीतर से प्रकट हो जाता है।
तो मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि यह सवाल व्यक्तियों के बदलने का नहीं है। जब तक एक पत्नी अपने मन को नहीं बदल लेती, तो जिस मन से उसने पहले पति को चुना था उसी मन से वह दूसरे पति को चुनेगी और इस बात की संभावना है कि दूसरा पति भी उन्नीस-बीस पहले पति जैसा ही सिद्ध होगा, क्योंकि चुनाव करने वाला मन वही का वही है। वह आठ पति चुन ले, तो हर बार वह करीब-करीब उन्नीस-बीस एक जैसे पति चुन लेगी। पति तो बदल जाएंगे, लेकिन चुनाव करने वाला मन, चुनाव करने वाला माइंड तो वही है।
अगर हिंदुस्तान के समाज को नई दृष्टि और नया मार्ग देना हो, तो हिंदुस्तान में जो लोग सत्ताधिकारियों को चुनते हैं, उनके मन का बदल जाना जरूरी है, अन्यथा हम रोज पुराने जैसे लोग चुन लेंगे। हम फिर, नये कपड़े होंगे, नई शक्लें होंगी, नया झंडा होगा, नये नारे होंगे, लेकिन हम फिर वही आदमी चुन लेंगे जैसे हमने पहले चुने थे। और जैसे ही सत्ता में वे लोग जाएंगे, वे फिर पुराने आदमी साबित होंगे। उनमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
दो बातें ध्यान रखनी जरूरी हैं। गांधी का नैतिक आंदोलन सफल नहीं हो सका। आजादी मिली, लेकिन आजादी जिस कामना से मांगी गई थी वह कामना असफल हो गई है। स्वतंत्रता मिली, उपलब्ध हुई, लेकिन स्वतंत्रता से हमने जो चाहा था, जो सपना देखा था, वह सपना पूरा नहीं हो पाया।
हां, कुछ लोगों का सपना पूरा हुआ। वृहत्तर भारत का सपना पूरा नहीं हुआ। अंग्रेज पूंजीपति के हाथ से सत्ता भारतीय पूंजीपति के हाथ में चली गई। भारतीय पूंजीपति का सपना जरूर पूरा हुआ। लेकिन भारतीय पूंजीपति भारत नहीं है। गांधी के एक शिष्य पूंजीपति ने, और अब दूसरे पूंजीपति पछताते होंगे कि जब गांधी जिंदा थे तो हमने भी सेवा क्यों न कर ली?
उनके एक शिष्य पूंजीपति ने, भारत जब आजाद हुआ तो मैंने सुना, उनके पास संपत्ति तीस करोड़ की थी। बीस साल आजादी के बाद उनके पास संपत्ति तीन सौ तीस करोड़ की है। बीस वर्षों में तीन सौ करोड़! शास्त्रों में लिखा हैः सत्संग का फल होता है। इससे सिद्ध होता है कि सत्संग का फल होता है।
मुझे पहले शक होता था कि सत्संग से फल होता है कि नहीं। अब शक नहीं होता। तीस करोड़ रुपये से तीन सौ तीस करोड़! बीस वर्ष में! संभवतः दुनिया के इतिहास में किसी एक परिवार ने इतने थोड़े समय में इतना धन संग्रह नहीं किया है। प्रत्येक वर्ष पंद्रह करोड़ रुपया! प्रत्येक महीने सवा करोड़ रुपया! प्रत्येक दिन चार और पांच लाख रुपया! पूरे बीस वर्ष से!
लेकिन वृहत्तर भारत गरीब से गरीब होता चला गया। एक तरफ संपत्ति इकट्ठी होती चली गई है, दूसरी तरफ दीनता और हीनता बढ़ती चली गई है। हिंदुस्तान के गांव में गरीब से पूछो, वह कहता है, कुछ फर्क नहीं पड़ा, इससे तो ब्रिटिश राज्य अच्छा था। कोई नहीं कहना चाहता यह कि गुलामी अच्छी थी, लेकिन जब कोई गरीब कहता है कि इससे तो गुलामी अच्छी थी, तो उसकी पीड़ा हम समझ सकते हैं। गरीब भी स्वतंत्र होना चाहता है। लेकिन स्वतंत्रता उसके लिए कुछ भी नहीं लाई। उसने भी सपने बांधे थे, उसने भी कल्पनाएं की थीं, उसने भी गोली खाई थी, वह भी जेल गया था, लेकिन उसे पता नहीं था कि यह स्वतंत्रता एक तरह के पूंजीपति के हाथ से दूसरी तरह के पूंजीपति के हाथ में रूपांतरित हो जाएगी।
गांधी को भी यह कल्पना नहीं थी। गांधी भी सोचते थे कि पूंजीपति का हृदय-परिवर्तन हो जाएगा। अच्छे आदमी हमेशा अच्छी बातें सोचते हैं, लेकिन सभी अच्छी बातें सही सिद्ध नहीं होती हैं। गांधी भले आदमी थे। भले आदमी को कोई बुरा आदमी नहीं दिखाई पड़ता है।
लेकिन ध्यान रहे, बुरे आदमी को कोई भला आदमी नहीं दिखाई पड़ता है। बुरे आदमी को सब बुरे आदमी दिखाई पड़ते हैं, भले आदमी को सब भले आदमी दिखाई पड़ते हैं। लेकिन दोनों की दृष्टियां अधूरी हैं और गलत हैं। दोनों सब्जेक्टिव दृष्टियां हैं, ऑब्जेक्टिव नहीं हैं। जो है उसको नहीं देखतीं, जो हम देख सकते हैं उसको देखती हैं। गांधी को खयाल था कि हृदय-परिवर्तन हो जाएगा। और गांधीवादी अभी भी कहे चले जाते हैं कि हृदय-परिवर्तन हो जाएगा। लेकिन जरा देखें तो, चालीस वर्ष की मेहनत के बाद गांधी एक पूंजीपति का हृदय-परिवर्तन कर पाए? और अगर खुद गांधी एक पूंजीपति का हृदय-परिवर्तन नहीं कर पाए तो गांधीवादी कितने हजार वर्षों में कर पाएंगे? इसका सोच सकते हैं, विचार कर सकते हैं? गांधी नहीं कर पाए, गांधी जैसा महिमावान व्यक्ति पूंजीपति का हृदय-परिवर्तन नहीं कर पाया, बल्कि पूंजीपति ने उसकी आड़ से भी फायदा उठाने की कोशिश की। तो यह गांधीवादी कैसे हृदय-परिवर्तन कर पाएंगे?
नहीं, यह हृदय-परिवर्तन की बात के पीछे शोषण के तंत्र को चलाए रखने का आयोजन चल रहा है। हृदय-परिवर्तन नहीं होगा। फिर हम चोरों का हृदय-परिवर्तन करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं करते। हम नहीं कहते कि पुलिस नहीं रखेंगे, चोर के लिए दंड नहीं देंगे। हम चोर का हृदय-परिवर्तन करेंगे। नहीं, चोर के हृदय-परिवर्तन की हम फिक्र नहीं करते। हम कहते हैं, कोई चोरी करेगा तो दंड पाएगा, लेकिन शोषक का हम हृदय-परिवर्तन की फिक्र करते हैं। हम कहते हैं, शोषक को दंड नहीं देना है, उसका हृदय-परिवर्तन करना है। और बड़े मजे की बात यह है कि चोर बहुत छोटा चोर है, शोषक बहुत बड़ा चोर है।
मैंने सुना है कि चीन में लाओत्सु एक अदभुत विचारक हुआ। और लाओत्सु एक बार एक राज्य का कानून-मंत्री हो गया था। कानून-मंत्री होते ही पहले दिन अदालत में बैठा तो एक चोर का मुकदमा आया। एक आदमी ने चोरी की थी। चोरी पकड़ गई, सामान पकड़ गया। उस आदमी ने स्वीकार कर लिया कि मैंने चोरी की है। साहूकार भी खड़ा था और कहता था इसे दंड दो, इसने चोरी की है। लाओत्सु ने कहाः दंड जरूर दूंगा और उसने फैसला लिखा, उसने कहा कि छह महीने चोर को सजा और छह महीने साहूकार को भी सजा। साहूकार ने कहाः तुम पागल हो गए हो! दुनिया में कभी साहूकारों को सजा हुई है? जिनकी चोरी हुई उनको सजा दोगे? यह कौन सा कानून है? यह कहां का न्याय है? लाओत्सु ने कहाः जब तक सिर्फ चोरों को सजा मिलती रहेगी, तब तक दुनिया से चोरी बंद नहीं हो सकती, क्योंकि तुमने गांव की सारी संपत्ति एक कोने में इकट्ठी कर ली है। अब गांव में चोरी नहीं होगी तो और क्या होगा। एक आदमी के पास गांव की सारी संपत्ति इकट्ठी हो जाए तो गांव में आदमी कितने दिन तक धर्मात्मा रह सकेंगे? चोरी होगी। चोरी उनकी मजबूरी हो जाएगी। लाओत्सु ने कहा है कि मैं तो छह महीने की सजा चोर को भी दूंगा और छह महीने की सजा तुम्हें भी। क्योंकि चोर पीछे पैदा हुआ है, शोषण पहले है। शोषण पहले है, तब पीछे चोरी है। पूरा हिंदुस्तान चोर होता चला जा रहा है और सारे नेता चिल्लाते हैं कि चोरी नहीं होनी चाहिए, बेईमानी नहीं होनी चाहिए, भ्रष्टाचार नहीं होना चाहिए। भ्रष्टाचार होगा, चोरी होगी, बेईमानी होगी, बढ़ेगी; क्योंकि सबसे बड़ी चोरी और बेईमानी शोषण की जारी है और देश गरीब होता चला जा रहा है। नहीं, गरीब देश चोरी से नहीं बच सकता, बेईमानी से नहीं बच सकता, भ्रष्टाचार से नहीं बच सकता, रिश्वत से नहीं बच सकता।
जब संपत्ति एक तरफ इकट्ठी होती चली जाती हो तो संपत्तिहीन कितने दिन नैतिक हो सकता है, कितने दिन तक धार्मिक हो सकता है। प्राण बचाने को भी उसे अनैतिक होना पड़ता है। और नेता भी भलीभांति जानते हैं कि न चोरी रुकेगी, न बेईमानी रुकेगी। बीस वर्षों में वह रोज बढ़ती चली गई है। बीस वर्षों में हमारा प्रत्येक व्यक्तित्व का सारा महत्वपूर्ण हिस्सा नीचे गिरता चला गया है और हमारा नंगापन प्रकट होता चला गया है। लेकिन वह कहे चला जाता है कि नीति की शिक्षा दो स्कूलों में और कालेजों में, धर्म की शिक्षा दो, गीता पढ़ाओ, राम-नाम जपाओ। लेकिन सब बेईमानी की बातें हैं। गीता पढ़ाने से, राम-नाम जपाने से कोई चोरी बंद नहीं होगी, भ्रष्टाचार बंद नहीं होगा, अनीति बंद नहीं होगी। इस देश में अनीति उस दिन बंद होगी, जिस दिन इस देश में शोषण का तंत्र टूटेगा। उसके पहले अनीति बंद नहीं हो सकती है।
लेकिन शोषण के तंत्र को तोड़ने की बात करें तो वह गांधी जी की दुहाई देते हैं। वे कहते हैं, गांधीजी कहते थे, हृदय-परिवर्तन करना होगा। वे कहते हैं कि हम गांधी जी के प्रतिकूल नहीं जा सकते। गांधी जी कहते हैं, हृदय-परिवर्तन करना होगा। गांधी जी भले आदमी थे। वे सोचते थे कि हृदय-परिवर्तन हो जाना चाहिए। वे सोचते थे, जैसा उनका हृदय था, वे सोचते थे, सबका हृदय होगा। ऐसा सबका हृदय नहीं है। हृदय-परिवर्तन नहीं होगा। हृदय-परिवर्तन करना पड़ेगा, होगा नहीं। और करना पड़ने का मतलब यह है कि देश के तंत्र को, देश की व्यवस्था को यह निर्णय लेना होगा कि शोषण हमें समाप्त करना है, किसी भी मूल्य पर समाप्त करना है। जैसे हम चोरी समाप्त करते हैं, बेईमानी को तोड़ने की कोशिश करते हैं, हत्याओं की कोशिश करते हैं रोकने की, उसी तरह हमें शोषण को भी रोकना पड़ेगा। तो यह बंद होगा।
कल ही मैं किसी से यह बात कर रहा था तो उन्होंने कहा कि आपके भी बहुत से पूंजीपति मित्र हैं, उनमें से आपने किसी को बदला अब तक कि नहीं? मैंने उनसे कहा, मैं तो मानता नहीं कि बदला जा सकता है। इसलिए बदलने का सवाल नहीं। फिर मैं यह भी नहीं मानता कि पूंजीपति को बदलना है। पूंजीपति को नहीं बदलना, पूंजीवाद को बदलना है। पूंजीपति को बदलने से क्या होगा? पूंजीपति के बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता। बड़ा तंत्र है पूंजीवाद का, पूंजीपति, कसूर भी नहीं है उसका कोई। मजदूर भी विक्टिम है इस तंत्र का, पूंजीपति भी विक्टिम है इस तंत्र का। वे दोनों ही इसके शिकार हैं, इस बड़े तंत्र के जो पूंजीवाद है। इस बड़े तंत्र के, पूंजीवाद के तंत्र का पूंजीपति भी उतना ही परेशान और पीड़ित हिस्सा है, जितना कि मजदूर और दलित पीड़ित हिस्सा है। एक दलित और पीड़ित है संपत्ति के न होने से; एक पीड़ित और परेशान है संपत्ति के होने से और चारों तरफ निर्धन की कतार जुड़ी होने से। एक आदमी अगर एक गांव में स्वस्थ हो और सारा गांव बीमार हो तो सारा गांव बीमारी से परेशान रहेगा और वह आदमी जो अकेला स्वस्थ रह गया है, स्वास्थ्य से परेशान रहेगा कि कब बीमार न पड़ जाऊं। अब बीमार न पड़ जाऊं। चारों तरफ बीमारी ही बीमारी है और ये बीमार सब मिल कर कहीं मुझे बीमार न कर दें। वह स्वास्थ्य का सुख नहीं ले पाएगा, जहां चारों तरफ टी.बी. और कैंसर और घाव भरे लोग घूम रहे हों।
एक गांव में सारे लोग सड़क पर सो रहे हों और एक आदमी महल बना ले तो महल में आराम से सो सकेगा? कैसे सो सकेगा? द्वार पर पहरेदार रखना पड़ेगा। पहरेदार के ऊपर दूसरा पहरेदार रखना पड़ेगा, क्योंकि पहरेदार भी रात को घुस सकता है महल में और छुरा भोंक सकता है। कैसे सो सकेगा आराम से? और इतनी दीनता, दरिद्रता उसके आस-पास फैल जाए तो उसके चित्त पर कोई परिणाम होगा कि नहीं? वह आदमी है या पत्थर? उसके चित्त में शांति कैसे हो सकेगी? मैं बड़े से बड़े धनपतियों को जानता हूं, वे भी मेरे पास आते हैं और कहते हैं मन को शांत करने का कोई उपाय बताएं? मन बड़ा अशांत रहता है। मन अशांत नहीं रहेगा तो क्या होगा। जहां हमारे चारों तरफ इतना दुख होगा, इतना दारिद्रय होगा, इतनी दीनता होगी, हम कब तक अपने महल में यह विश्वास रख सकेंगे कि सब ठीक चल रहा है? यह कैसे हो सकेगा? और वह नीचे जो बढ़ती हुई दीनता और दरिद्रता है, उसकी लहरें, उसकी आहें, उसका रुदन, उसका उपद्रव रोज महलों से टकराएगा। रोज महलों की दीवालें घबड़ाएंगी कि कब गिर जाएं, कब गिर जाएं। उनको बचाने में उसके प्राण लग जाते हैं। जिसको हम पूंजीपति कहते हैं वह भी पीड़ित है, वह भी विक्टिम है।
पूंजीवाद के दो विक्टिम हैं। एक वे जिनके पास पूंजी नहीं है और एक वे जिनके पास पूंजी है। जिस दिन पूंजीवाद जाएगा उस दिन गरीब गरीबी से मुक्त होगा और अमीर अमीरी से मुक्त होगा। और ये दोनों रोग हैं, ये दोनों ही रोग हैं। इसलिए पूंजीवाद के जाने का मतलब पूंजीपति का अहित नहीं है। पूंजीवाद के जाने पर ही वह जो पूंजीवाद से पीड़ित व्यक्तित्व है वह भी मुक्त होकर मनुष्य का व्यक्तित्व बन सकेगा। जब तक कोई पूंजीपति है, तब तक मनुष्य नहीं हो पाता। तब तक आदमी नहीं हो पाता। तब तक वह खुल नहीं पाता, तब तक वह सहज नहीं हो पाता, तब तक इतने ज्यादा गलत समाज में इतने गलत ढंग से उसे जीना पड़ता है कि वह इतने टेंशन में, इतने तनाव में, इतनी अशांति में जीता है कि वह कैसे सहज हो सकता है? वह सहज नहीं हो पाता।
मैं एक घर में कलकत्ते में ठहरा हुआ था। उस घर में पति और पत्नी के अतिरिक्त कोई भी न था। बस वे दो ही प्राणी थे। बड़ा था महल। सब थी सुविधा। सब कुछ था उनके पास। रात बारह बजे जब मैं थक गया दिन भर के बाद और सोने जाने लगा तो उस घर के गृहपति ने कहा, क्या आप अब सो जाएंगे? मैंने कहा कि अब बारह बज गए, क्या अब भी मैं जागता रहूं? उन्होंने कहाः ठीक है, आप सो जाइए, लेकिन मैं सोचता था थोड़ी देर और बात करते। मैंने कहाः प्रयोजन? कि मुझे रात भर नींद नहीं आती। क्या हो गया तुम्हें, नींद क्यों नहीं आती? इतनी अच्छी गद्दियां तुम्हारे पास हैं। इन पर तो किसी को नींद न भी आ रही हो, जागते आदमी को बिठाल दो, तो नींद आ जाए। इतना अच्छा भोजन तुम्हारे पास है, इतना बड़ा बगीचा तुम्हारे पास है, इतनी ताजी और ठंडी हवा तुम्हारे पास है, तुम्हारी खिड़कियों से आकाश के तारे दिखाई पड़ते हैं, चांद झांकता है, तुम्हें नींद नहीं आती, हुआ क्या है? वे कहने लगे, नींद, नींद मुझे बहुत वर्षों से नहीं आती है। बस दिन-रात चिंता ही चिंता। आज इस फैक्टरी में गड़बड़ है, कल उस फैक्टरी में गड़बड़ है। वहां कम्युनिस्ट उपद्रव कर रहे हैं। वहां सोशलिस्ट उपद्रव कर रहे हैं, वहां ऊपर सरकार गड़बड़ किए चली जाती है, यहां नीचे... सब गड़बड़ ही गड़बड़ है, इस गड़बड़ में कैसे नींद आए?
इसको आप समझ रहे हैं यह आदमी बहुत सुख में है, यह पूंजीपति बहुत सुख में है, तो आप भूल में हैं, बिल्कुल भूल में हैं। संपत्ति सुख ला सकती थी, लेकिन पूंजीवाद के कारण संपत्ति सुख नहीं ला पाती है। संपत्ति उस दिन सुख बनेगी जिस दिन संपत्ति वितरित होगी, समान होगी। संपत्ति उस दिन सुख बन जाएगी। अभी संपत्ति भी दुख है। संपत्तिहीनता तो दुख है ही, संपत्ति भी अभी दुख है। संपत्ति जिस दिन वितरित होगी और समाज में जब दीन-हीन, रुग्ण और अपाहिज का वर्ग विलीन होगा और जब मनुष्य मनुष्य की भांति एक समानता के तल पर खड़ा होगा, तो समाज से बेईमानी मिटेगी, चोरी मिटेगी, गुंडागर्दी मिटेगी, नहीं तो नहीं मिट सकती है। यह सारी की सारी जो व्यवस्था हमें दिखाई पड़ती है, बाई-प्रॉडक्ट है, शोषण की, एक्सप्लायटेशन की। और ऊपर के नेता चिल्लाए चले जाते हैं कि नीति समझाओ बच्चों को। बच्चे कैसे नीति समझेंगे? नहीं समझ सकते हैं। लेकिन वे दलील देते हैं कि गांधीजी कहते थे हृदय-परिवर्तन करना है, इसलिए कोई जोर जबरदस्ती नहीं करनी है। लेकिन तुम हैदराबाद में पुलिस एक्शन ले सकते हो, तुम रजवाड़ों को मिटाने के लिए जोर जबरदस्ती कर सकते हो। तब तुम्हें खयाल नहीं आया कि राजाओं का हृदय-परिवर्तन करना चाहिए। लेकिन शोषण के मामले में एकदम हृदय-परिवर्तन और अहिंसा की ऊंची-ऊंची बातें याद आने लगती हैं।
इसका मतलब है कुछ जरूर। इसका मतलब है, तुम बोलते जरूर हो, वाणी तुम्हारी नहीं है, वाणी शोषक की है जो तुम्हारी पीठ के पीछे खड़ा है और बोल रहा है। यह वाणी तुम्हारी नहीं है गांधीवादियो! यह तुम नहीं बोल रहो हो, तुम्हारी जबान बिकी हुई है, तुम्हारी बुद्धि बिकी हुई है। तुम्हारे पीछे जो खड़ा है वह बोल रहा है और कह रहा है कि अगर यह वाणी नहीं बोले तो अगले इलेक्शन में मुश्किल में पड़ जाओगे। यह दान-धन फिर हमसे नहीं मिलने वाला है। ये पैसे फिर हमसे नहीं मिलेंगे। वह वाणी सत्ता से जो बोल रही है वह संपदाशाली की वाणी है। सत्ता से बोलने वाले के पास अपनी अब कोई जबान नहीं है। और वह अपनी इस झूठी जबान को गांधीवाद का नाम देकर सुंदर, सत्य दिखलाना चाहता है। नहीं, चाहे गांधीजी ने कहा हो, चाहे किसी ने भी कहा हो कि हृदय-परिवर्तन से कुछ होगा, वह नहीं हो सकता है। गांधीजी के चालीस साल का अनुभव यह कहता है कि वह नहीं हो सकता है और अब तो गांधी जैसा व्यक्ति भी हमारे पास नहीं है जो हृदय-परिवर्तन के लिए जोर डाल सके। अब कौन डालेगा, कौन बदलेगा, हृदय-परिवर्तन कैसे बदलेगा?
विनोबा ने इधर कोशिश की थी एक। गांधी के पीछे गांधी से मिलता-जुलता कोई आदमी था, तो वही है। उन्होंने कोशिश की थी। बहुत श्रम किया, लेकिन कोई परिणाम न निकला। कोई परिणाम न निकला। जमीन मिली, दान मिला। इस देश में दान तो हजारों वर्षों से मिलता है। दान कोई नई बात नहीं है। दान भी मिला, जमीन भी मिली, गरीब को थोड़ी-बहुत राहत भी मिली होगी; लेकिन शोषण का तंत्र इस तरह थोड़े ही टूटता है? जिस आदमी ने दान दिया एक तरफ जमीन का, वह जाकर घर फिर योजना बना रहा है कि जितनी जमीन हाथ से निकल गई है, वह जल्दी से कैसे वापस कितनी कमाई कर लूं। इससे शोषण का तंत्र थोड़े ही बदलेगा कि एक आदमी ने दान दिया यहां दस लाख का और जाकर उसने घर योजना बनाई कि अगले वर्ष दस लाख कैसे वापस कमा लूं! उसका हृदय थोड़े ही बदल गया है। रुपये देने से थोड़े ही यह समाज बदलेगा। यह समाज तो बदलेगा इसके तंत्र के बदलने से। इसकी सिस्टम, इसकी व्यवस्था बदलने से।
तो विनोबा ने दस-पंद्रह साल दौड़-धूप करके बेचारे ने पैदल भाग-भाग कर गांव-गांव अपना जीवन नष्ट किया। कोई परिणाम नहीं हुआ। हां, जमीन मिली, और वह सर्वोदयवादी कहते हैं कि वही परिणाम है। देखो, इतनी लाख एकड़ जमीन मिल गई। जमीन के मिलने से कुछ भी होने का नहीं है। इस पूंजीवाद के तंत्र को, शोषण के तंत्र को जमीन के बंट जाने से, कुछ थोड़ी सी जमीन गरीब को मिल जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। बल्कि पूंजीपति, पूंजीशाही और गांधीवादी इससे खुश हैं कि विनोबा ने थोड़ी-बहुत जमीन बांटी। थोड़ा-बहुत दान दिलवाया। उससे गरीब को थोड़ी राहत मिली। राहत मिलने से हिंदुस्तान में आने वाली समाजवादी क्रांति में रुकावट पड़ती है। जितनी राहत मिलती है, उतनी क्रांति में रुकावट पड़ती है। जितना गरीब को ऐसा लगता है कि बहुत अच्छा है, सब ठीक है, किसी तरह चल रहा है, चल जाएगा, थोड़ी जमीन भी मिल गई एक-दो एकड़, अब कुछ हो जाएगा, अब कुछ हो जाएगा। उतना ही वह जो सर्वहारा है, वह जिसके पास कुछ भी नहीं, वह क्रांति करने के लिए तत्पर नहीं हो पाता है। विनोबा ने भला काम किया, लेकिन उन्हें पता नहीं, वे हिंदुस्तान की शोषण की व्यवस्था के हाथ में खेल गए। इसीलिए दिल्ली के सत्ताधीश, करोड़पति, उनके चरणों में जाकर बैठते हैं और नमस्कार कर आते हैं। वह नमस्कार विनोबा को नहीं है, वह नमस्कार क्रांति में पड़ती हुई रुकावट को है।
बीस साल के भूदान-आंदोलन ने भारत की क्रांति में बाधा पहुंचाई, समय को लंबा किया है। शोषण का तंत्र नहीं टूटा, लेकिन शोषण का तंत्र सहने योग्य बन जाए, इसकी थोड़ी सी कोशिश भर हो पाई है और कुछ भी नहीं हो सका है। नहीं, इस तरह के कामों से कुछ भी नहीं हो सकता है। हिंदुस्तान को अपनी पूरी समाजी-व्यवस्था को अनिवार्यरूपेण बदल लेना जरूरी है। और न हृदय-परिवर्तन के लिए प्रतीक्षा करने की जरूरत है, न किसी और बात की प्रतीक्षा करने की जरूरत है। लेकिन सत्ताधिकारी जो सत्ता में है उसके पास अपनी वाणी नहीं है। जब तक इस देश का लोकमत, जब तक इस देश की लोकात्मा, जब तक इस देश के पूरे प्राण इस बात को नहीं समझेंगे कि हम सब चाहे गरीब, चाहे अमीर, एक ही शोषण-तंत्र के परेशान पीड़ित अंग हैं और इस शोषण के तंत्र को हटा देना है तभी कुछ हो सकेगा। सर्वोदय से समाजवाद नहीं आएगा, लेकिन समाजवाद से सर्वोदय आ सकता है। समाजवाद के बाद ही सर्वोदय आ सकता है, क्योंकि सर्वोदय का अर्थ है सबका उदय, सबका हित। सबका हित तभी हो सकता है जब सबका हित समान हो।
अभी गरीब और अमीर का हित समान नहीं है। इसलिए सर्वोदय नहीं हो सकता है। उनके हित प्रतिकूल हैं, विरोधी हैं, शत्रु के हित हैं। उनके हित में समानता नहीं है, इसलिए अभी समान हित का उदय नहीं हो सकता। अभी सर्वमंगल नहीं हो सकता है। सर्वोदय से समाजवाद नहीं आएगा। सर्वोदय की जितनी बातें चलेंगी, समाजवाद के आने में उतनी देर होगी। उतना समय जाया होगा। लेकिन समाजवाद आए तो सर्वोदय निश्चित आ जाएगा। सर्वोदय समाजवाद की छाया है। जैसे ही शोषण का तंत्र टूटता है, तब सबका समान हित रह जाता है। तब वर्गीय हित नहीं रह जाते। तब श्रेणीगत हित नहीं रह जाते। तब क्लास इंट्रेस्ट नहीं रह जाता। तब हम सब समान हो जाते हैं और तब इस देश का उदय हो सकता है। इस देश का श्रम भी तभी जागेगा, उत्साह भी तभी जागेगा, प्राण श्रम करने के लिए, सृजन करने के लिए तभी आतुर होंगे जब प्रत्येक को ऐसा मालूम पड़ेगा यह देश हमारा है। अभी प्रत्येक को ऐसा नहीं मालूम पड़ता।
और यह जान कर आप हैरान होंगे कि जब तक प्रत्येक को यह अनुभव न हो जाए कि यह देश हमारा है, दीनतम को यह अनुभव न हो जाए कि देश मेरा है--यह उसे कब अनुभव होगा? यह उसे तभी अनुभव होगा कि देश की जो संपदा है--वह मेरी है। देश की संपदा कुछ लोगों की और देश मेरा, यह बात बड़ी गड़बड़ है। यह नहीं हो सकता। संपदा किन्हीं कुछ लोगों की और देश मेरा! देश का मतलब क्या है? देश का मतलब है, देश की संपदा; देश का मतलब है, देश का सब कुछ। भूमि और आकाश, और हवा, संपत्ति और मनुष्य की शक्ति और सब कुछ। मेरा है यह देश तभी कह सकता हूं बल से, जब इस देश की सारी संपत्ति में भागीदार हूं, समान भागीदार हूं। लेकिन जब मैं समान भागीदार नहीं हूं तो यह देश मेरा कैसा है। यह दस-पांच लोगों का होगा देश। यह सत्ताधारियों का होगा देश। यह दीन का, दरिद्र का देश कैसा है? और इसलिए इस देश में एक देश का भाव पैदा नहीं हो पा रहा है, एक समाज का भाव पैदा नहीं हो पा रहा है। इस देश में एक अटूट एकता पैदा नहीं हो पा रही है। वह नहीं होगी। यह इंटिग्रेशन की सारी बातचीत चलेगी और कुछ भी नहीं होगा। इंटिग्रेशन, एकता, इस देश में समाजवाद का परिणाम होगी। उसके पहले नहीं हो सकती।
ये बातें मैं कहता हूं तो वे कहते हैं कि मैं गांधी जी का दुश्मन हूं। गांधी जी का मैं दुश्मन हूं या दोस्त? अगर गांधी जी की कहीं भी आत्मा होगी तो यह सोचती होगी कि जब आप ताली बजाएं समाजवाद के लिए तो आकाश में अगर वे कहीं भी होंगे तो उन्होंने भी ताली बजाई होगी! आपकी ताली के साथ उनकी ताली रही होगी। और अगर मेरी आवाज उन तक पहुंचती होगी, उन्हें लगता होगा कि मैं कहा रहा हूं कि यह देश तब होगा खुशहाल, जब प्रत्येक व्यक्ति इस देश की संपत्ति का समान मालिक होगा। तो गांधी खुश होंगे या दुखी होंगे? तो मैं गांधी के पक्ष में बोल रहा हूं या विपक्ष में बोल रहा हूं, यह मैं आप पर छोड़ देता हूं। मैं गांधीवादी के विरोध में बोल रहा हूं, गांधी के विरोध में नहीं बोल रहा हूं।
एक बार कराची में एक बड़ी कांफ्रेंस में, कांग्रेस के कुछ लोगों ने गांधी का विरोध किया और काले झंडे दिखाए और उन्होंने काले झंडे दिखा कर नारा लगाया--गांधीवाद मुर्दाबाद। गांधी मंच पर थे, माइक पर थे। उन्होंने उत्तर में कहा कि ध्यान रहे, गांधी मर जाएगा, लेकिन गांधीवाद अमर रहेगा। मैं उनसे कहना चाहता हूं, गलती बात कह दी उन्होंने। मेरा वश होता, लेकिन अब तो कोई उपाय नहीं उनसे शब्द बदलवाने का, लेकिन फिर भी निवेदन तो कर देना चाहिए। मेरा वश होता तो उनसे मैं कहता, लेकिन आज तो कह देना चाहिए। मैं कहना चाहता हूं, गांधी अमर रहेंगे, गांधीवाद नहीं। गांधी अमर रहेंगे, गांधीवाद नहीं। गांधी की प्रतिभा, गांधी का व्यक्तित्व, गांधी की करुणा, गांधी का प्रेम, गांधी की अहिंसा, गांधी का वह महिमामंडित स्वरूप अमर रहेगा, गांधीवाद नहीं। क्योंकि गांधीवाद के अमर रहने का मतलब गांधीवादी का अमर रहना है। गांधीवादी के अमर रहने का मतलब गांधीवादी का अमर रहना है। गांधीवाद की जय नहीं, लेकिन गांधी की जय जरूर। मैं गांधी का शत्रु नहीं हूं, लेकिन गांधीवाद देश को गड्ढे में ले जा रहा है। और गांधीवाद से मुक्त हो जाना अत्यंत आवश्यक है। जितने शीघ्र हम मुक्त हो सकें और जितने शीघ्र हम एक वर्ग-विहीन और शोषण-मुक्त समाज को जन्म दे सकें, उतना हितकर है, उतना उचित है। करोड़ों-करोड़ों वर्ष के भारत का स्वप्न पूरा हो सकेगा।
भारत के ऋषियों ने, भारत के संतों ने, सपना ही यह देखा है कि एक पृथ्वी ऐसी हो जहां सब बंधु हों, लेकिन शोषण से भरी पृथ्वी बंधुओं की पृथ्वी कैसे हो सकती है? एक सपना देखा है कि प्रत्येक आदमी की आत्मा समान है, बराबर है, लेकिन आत्मा समान और बराबर होगी, जब तक शरीर को समान अवसर और सुविधा नहीं मिलती, तब तक आत्मा की समानता का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। आत्मा तभी प्रकट होती है जब शरीर हो। और आत्मा की समानता भी उसी दिन प्रकट होगी जिस दिन शरीर के जगत में समानता की व्यवस्था हो, अन्यथा आत्मा की समानता भी कैसे प्रकट हो सकती है? करोड़ों-करोड़ों वर्ष से जिसने जीवन को सोचा है, जाना है, उसके प्राणों में एक ही प्रार्थना रही है कि सारे लोगों को समान शांति, समान आनंद उपलब्ध हो। लेकिन वह कैसे उपलब्ध होगा? अभी तो जीवन की समान जरूरतें भी उपलब्ध नहीं हैं, जीवन को विकसित करने का समान अवसर भी उपलब्ध नहीं है। कितने गांधी झोपड़ों में मर जाते होंगे और पैदा नहीं हो पाते होंगे। कितने बुद्ध और महावीर शूद्रों के घर में जन्मते होंगे और क ख ग भी नहीं सीख पाते होंगे। कितने ऋषि और मुनि पैदा नहीं हो सके, क्योंकि जहां वे पैदा हुए वहां ज्ञान की कोई खबर, कोई हवा नहीं पहुंच सकी। हजारों वर्ष से भारत में शूद्र हैं। एक शूद्र बुद्ध की हैसियत को उपलब्ध हुआ? एक शूद्र राम बना? एक शूद्र कृष्ण बना? एक शूद्र पतंजलि बना? नहीं बन सका। क्या शूद्र के घर आत्माएं पैदा नहीं होतीं? प्रतिभाएं पैदा नहीं होतीं?
अंग्रेजों की कृपा थी कि एक डाक्टर अंबेदकर पहली बार पैदा हुआ एक कीमत का आदमी शूद्रों में। एक आदमी पूरे इतिहास में। यह भी पैदा नहीं होता। इसे मौका मिला इसलिए पैदा हुआ। कितनी आत्माओं को मौके नहीं मिले, जो पैदा हो सकती थीं। कितना अनंत अपकार हुआ है जगत का। कुछ थोड़े से लोग अवसर पाते हैं। उन थोड़े से लोगों के थोड़े से बच्चे आगे बढ़ पाते हैं। शेष बड़ा समाज जीता है, सड़ता है, मर जाता है। उसके जीवन में न कोई ऊंचाई पैदा होती, न कोई शिखर छूता, न कोई संगीत बजता, न कोई प्रभु के मंदिर की घंटी सुनाई पड़ती। यह कब तक चलेगा?
लोग समझते हैं कि समाजवाद धर्म का विरोधी है। गलत है यह बात। समाजवाद से ज्यादा धार्मिक और कोई आंदोलन जगत में नहीं है। लोग समझते हैं कि समाजवाद ईश्वर का विरोधी है। गलत है यह बात। जब जमीन पर पूरी तरह समाजवाद होगा तभी हम पहली दफा ईश्वर की तरफ उठ सकेंगे, ईश्वर की तरफ आंख उठा सकेंगे। समाजवाद के बाद ही धार्मिक जीवन का ठीक-ठीक समुचित विकास हो सकता है। लेकिन गांधी जी के सामने स्वतंत्रता का सवाल बड़ा था। आजादी का सवाल बड़ा था। समाजवाद का सवाल बड़ा नहीं था। स्वभावतः परिस्थिति नहीं थी। गांधी जी के सामने सवाल था कि यह देश परदेशी गुलामी से कैसे मुक्त हो जाए। अगर वे जिंदा रहते तो शायद वे आर्थिक गुलामी से, देशी गुलामी से भी मुक्त करने के लिए कोई प्रयास करते। लेकिन वे जिंदा नहीं रहे। आजादी जरूरी थी उस वक्त। इसलिए उन्होंने जो भी चिंतन और विचार विकसित किया, वह मूलतः स्वतंत्रता को ध्यान में रख कर था। उनका चिंतन समानता को ध्यान में रख कर समुचित रूप से विकसित नहीं हो सका। लेकिन उन पर ही हम रुक जाएंगे या आगे बढ़ेंगे?
स्वतंत्रता आ गई। जैसी भी समझिए, क्लीव, इंपोटेंट, अधूरी, जैसी भी आ गई। अब इस स्वतंत्रता के अवसर का उपयोग क्या हो सकता है? एक ही उपयोग हो सकता है कि समानता भी आए। और ध्यान रहे, जब तक समानता पूरी तरह न आए तब तक स्वतंत्रता सिर्फ धोखा होती है, कामचलाऊ होती है, नाममात्र होती है। क्योंकि जिनके पास पेट में रोटी भी नहीं है, उनके लिए स्वतंत्रता का क्या अर्थ है, क्या उपयोग है, क्या प्रयोजन है? जिनके पास वस्त्र भी नहीं हैं उनके लिए स्वतंत्रता शब्द सुनाई तो पड़ता है, लेकिन उसका कुछ अर्थ प्रकट नहीं होता कि स्वतंत्रता यानी क्या है। जब तक आर्थिक समानता न हो तब तक राजनैतिक स्वतंत्रता आत्मवंचना है, सेल्फ डिसेप्शन है। लेकिन गांधी के सामने वह सवाल न था। हमारे सामने वह सवाल है और हमें गांधी के आगे सोचना होगा, आगे विचार को ले जाना होगा। देश ने एक आजादी की लड़ाई लड़ी थी। अब देश को फिर एक लड़ाई लड़नी है समानता की। नहीं किसी और से लड़नी है, लड़नी है अपने ही तंत्र से, अपने ही शोषण की व्यवस्था से। नहीं किसी व्यक्ति से; समाज की व्यवस्था से।
और यह व्यवस्था बदले, तो ही गांधी की आत्मा प्रसन्न हो सकती है। लेकिन गांधीवादियों ने गांधी को कहां-कहां बिठा रखा है, पता है? पुलिसथाने में, हेड कांस्टेबल के पीछे गांधी की तस्वीर लगी है। पुलिसथाने में बैठा है हेड कांस्टेबल, मां-बहन की गालियां दे रहा है और पीछे राष्ट्रपिता की तस्वीर लगी है। अदालत में जहां सब तरह की बेईमानियां चल रही हैं, रिश्वतखोरियां चल रही हैं वहां गांधी की तस्वीर लगी है। तुमने गांधी को कोई पंचम जॉर्ज समझ रखा है? तुम गांधी के साथ अच्छा सलूक कर रहे हो? तुम गांधी को कहां बिठा दिए हो? लेकिन तुम्हें गांधी से कोई मतलब नहीं। तुम्हें स्वयं से मतलब है। तुम गांधी की तस्वीर खड़ी करके अपने को छिपाने की कोशिश कर रहे हो। लेकिन कितनी देर तक इस देश की जनता को धोखा दिया जा सकेगा? तुम तो नहीं छिप सकोगे। खतरा यह है कि कहीं गांधी का सम्मान समाप्त न हो जाए। तुम नहीं छिप सकोगे, लेकिन कहीं गांधी का सम्मान समाप्त न हो जाए। गांधीवादियों से गांधी को बचा लेना बहुत जरूरी है, अन्यथा गोडसे उनको नहीं मार पाया, गांधीवादी उनको मार डाल सकते हैं।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इस संबंध में जो प्रश्न होंगे, वह कल सुबह आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें