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शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(विचार नहीं, भाव है महत्वपूर्ण)

मेरे प्रिय आत्मन्!
शुक्रिया। ईश्वर के संबंध में मेरे क्या विचार हैं, इस संबंध में बोलने को मुझसे कहा गया है। यह सवाल ही थोड़ा कठिन है। कठिन इसलिए है, कि शायद ईश्वर अकेली एक ऐसी अनुभूति है जिसके संबंध में कोई विचार नहीं हो सकते। और जो विचार रखता होगा ईश्वर के संबंध में, उसका ईश्वर से कोई मिलना नहीं हो सकता।
ईश्वर के संबंध में सोचने का कोई उपाय नहीं है। ईश्वर को हम अपने सोचने का औचित्य, अपने सोचने का विषय नहीं बना सकते। और जब तक हम सोचते हैं, विचार करते हैं, तब तक ईश्वर का हमें कोई पता भी नहीं लग सकता है।

तो पहली तो कठिनाई यह है कि ईश्वर के संबंध में कोई विचार, कोई आइडिया, कोई धारणा, कोई कंसेप्ट नहीं हो सकता है। हैं बहुत धारणाएं--ईसाई की धारणा है, हिंदू की धारणा है, बौद्ध की धारणा है; और बहुत-बहुत लोगों के बहुत विचार हैं। लेकिन कोई भी धारणा परमात्मा तक नहीं पहुंचाती है, न पहुंचा सकती है।
जहां तक मेरा विचार है, वहां तक मैं मौजूद हूं। और जहां तक मैं हूं, वहां तक परमात्मा के होने का अवसर नहीं है। मुझे मिटना पड़े, मुझे खोना पड़े, मुझे समाप्त होना पड़े, तो ही शायद उसे मैं जान पाऊं जिसे हम परमात्मा कहते हैं।


जीसस का एक वचन मुझे याद आता है। जीसस ने कहा हैः जो अपने को बचाएगा, वह अपने को खो देगा। और वे जो अपने को खो देते हैं, अपने को बचा लेते हैं।
ईश्वर के संबंध में भी यह कहा जा सकता है कि जो ईश्वर को जानने चलेगा, उसे अपने को खोना पड़ेगा। अपने सारे विचारों को, अपनी सारी मान्यताओं को, अपने सारे विश्वासों को, अपनी सारी बिलिव्स, सब खो देने पड़ेंगे। और अंततः अपने को भी खो देना पड़ेगा, तो ही वह परमात्मा को जान लेने में समर्थ हो सकता है।
इसलिए मैंने कहा कि यह बात थोड़ी कठिन है। मेरा ईश्वर के संबंध में विचार दो कारणों से कठिन है, एक तो इसलिए कि ईश्वर का कोई विचार नहीं हो सकता और दूसरा इसलिए कि ईश्वर के समक्ष मैं नहीं हो सकता हूं। जहां तक मैं हूं, वहां तक ईश्वर प्रकट नहीं होगा। मुझे मिटना होगा। जैसे बीज मिट जाता है जमीन में, और तब वृक्ष पैदा होता है। बीज बना रहे, तो वृक्ष कभी भी पैदा नहीं होगा। बीज के मिटने से वृक्ष का जन्म है। मनुष्य के मिटने से परमात्मा का प्रारंभ है।
जहां तक मैं हूं, वहां तक उसका कोई पता न चलेगा, क्योंकि मैं ही बाधा हूं, मैं ही बेरियर हूं, मैं ही रुकावट हूं, मेरे कारण ही उसका पता नहीं चल रहा है। वह कहीं दूर नहीं है कि मुझे कोई यात्रा करनी है, उसे खोजने की। वह कहीं छिपा हुआ नहीं है कि मुझे उसे उघाड़ना है। ईश्वर का अर्थ ही यह है, जो है, दैट व्हीज इ.ज, जो है, वह सभी ईश्वर है।
तो मेरे चारों ओर जो है, मेरे भीतर जो है, मेरे बाहर जो है, उस सब टोटेलिटी का, उस समग्र का नाम ही ईश्वर है। इसलिए इंच भर का फासला भी नहीं है, जो मुझे पार करना पड़े। आंख भी खोलने की जरूरत नहीं है उसे जानने को, क्योंकि आंख के भीतर जो है वह भी वही है। प्रकाश की भी जरूरत नहीं है उसे पहचानने को, क्योंकि अंधेरे में जो है, वह भी वही है।
फिर बाधा क्या है?
बुद्ध को जिस दिन पता चला सत्य का या कहें परमात्मा का, तो कुछ लोग उनके पास गए और बुद्ध से उन्होंने पूछा कि आपने क्या जान लिया है, क्या पा लिया है? तो बुद्ध हंसने लगे और उन्होंने कहाः पाया कुछ भी नहीं है, क्योंकि जो मिला ही हुआ था, उसे पाने की बात कहनी ठीक नहीं है। और जाना भी कुछ नहीं, क्योंकि जो जानने वाला था वह वही था, जिसे आज पहचान लिया है। कहा उन्होंने कि पाया कुछ भी नहीं, क्योंकि जो पाया ही हुआ था, जो सदा से मिला ही हुआ था, उसे ही जान लिया है।
फिर बाधा क्या है, फिर अड़चन क्या है, फिर कौन सी चीज रोक लेती है कि हम उसे नहीं जान पाते? यह बहुत मजे की बात है कि हमारे विचार ही बाधा हैं, हम ही बाधा हैं। कोई और बाधा हो तो हम तोड़ दें, कोई दीवाल हो तो हम गिरा दें, कोई द्वार बंद हो तो हम खोल लें, कोई दीया न जला हो तो हम जला दें। कठिनाई यही है कि हम ही बाधा हैं। इसलिए तपश्चर्या करें, प्रार्थना करें, पूजा करें और अगर मैं मौजूद हूं, तो मेरी सारी तपश्चर्या व्यर्थ हो गई, मेरी सारी प्रार्थना व्यर्थ हो गई, मेरी सारी पूजा व्यर्थ हो गई। जहां मैं मौजूद हूं वहां पहुंचना असंभव है, क्योंकि यह खयाल कि मैं हूं, ईश्वर को रोकने वाला खयाल है। जैसे समुद्र की किसी लहर को यह खयाल आ जाए कि मैं हूं, तो उसका यह खयाल ही उसे समुद्र से तोड़ देगा। और अगर कोई लहर यह समझ ले कि मैं हूं तो वह तत्क्षण अलग हो गई है सागर से। फिर सागर को पहचानना मुश्किल हो जाएगा। लहर यह जाने कि मैं नहीं हूं, तो ही जान सकती है कि मैं सागर हूं।
हमारे इस जानने में कि मैं हूं, बाधा है; हमारे इस पहचान लेने में कि मैं नहीं हूं, द्वार खुल जाता है। तो मेरी धारणा, माई आइडिया जैसी कोई चीज नहीं हो सकती! क्योंकि मैं ही नहीं हो सकता हूं। और मैं ही न रहूं तो मेरे विचार का क्या सवाल। इसलिए आदमियों ने जितना विचार किया है ईश्वर के संबंध में, उतना ही ईश्वर को उलझन में डाला हुआ है।
विचारक तो नहीं पहुंचता है, जिसको हम थिंकर कहें, वह तो परमात्मा तक नहीं पहुंचता है। जिसे हम फिलाॅसफी कहें, दर्शन कहें, सोचना कहें, वह तो नहीं पहुंचता है। पहुंचते हैं वे लोग, जो विचार की बाधाओं को भी पीछे छोड़ कर आ जाते हैं, जो विचार के भी पार चले जाते हैं, जो विचार से भी आगे चले जाते हैं। और यह थोड़ी समझने जैसी बात है कि मैं विचार करूंगा, मैं सोचूंगा, मेरा सोचना, मेरा विचारना मुझसे बड़ा कैसे हो सकेगा। मेरा सोचना, मेरा विचारना सदा मुझसे छोटा होगा, मुझसे बड़ा नहीं हो सकता। मैं कितना भी बड़ा विचार करूं, मेरे अहंकार, मेरे ईगो से बड़ा न होगा, क्योंकि मैं ही करूंगा, वह मेरे हाथ का खिलौना होगा।
इसलिए ‘मैं’ सोच कर परमात्मा को कैसे पा सकूंगा। परमात्मा मेरे हाथ का खिलौना नहीं है, बल्कि हम जिसके हाथ के खिलौने हैं, वह परमात्मा है। इसलिए हम विचार करें, सोचें, कांसेप्ट बनाएं, धारणा बनाएं; बना सकते हैं, शास्त्र निर्मित कर सकते हैं, लेकिन वे सब खेल की तरह होंगे। उनका सत्य से कोई संबंध न होगा।
और आदमी ने जितनी धारणाएं बनाई हैं उतना उपद्रव, उतनी परेशानी पैदा हो गई है, क्योंकि सब विचारों के आस-पास पंथ इकट्ठे हो गए हैं, संप्रदाय इकट्ठे हो गए हैं, धर्म इकट्ठे हो गए हैं और हर विचार दूसरे विचार के विरोध में खड़ा हुआ है, क्योंकि विचार कभी भी टोटल नहीं हो सकता, विचार कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता। जब भी विचार खड़ा होगा, किसी के विरोध में खड़ा होगा। सिर्फ निर्विचार, थाॅटलेसनेस टोटल हो सकती है, विचार कभी पूर्ण नहीं हो सकता। अगर मैं परमात्मा के संबंध में एक विचार रखूं, तो वह विचार उन सब लोगों के विरोध में हो जाएगा, जो दूसरा विचार रखते हैं।
समझ लें, कोई आदमी मानता है कि परमात्मा प्रकाश है, अगर कोई कहे, गाॅड इ.ज लाइट, तो फिर अंधेरे का क्या होगा?
एक फकीर हुआ है। उसने कहाः मैंने तो जहां तक समझा, पाया है कि परमात्मा को प्रकाश कहना ठीक नहीं, परमात्मा को परम अंधकार कहना ज्यादा ठीक है, क्योंकि प्रकाश तो आता है और चला जाता है अंधकार सदा है। और प्रकाश को तो हमें बनाना पड़ता है और मिटाना पड़ता है, अंधकार है। अंधकार को न हम बना सकते हैं, और न हम मिटा सकते हैं, अंधकार है। और प्रकाश में तो थोड़ी उत्तेजना है, थोड़ा तनाव है, लेकिन अंधकार परम शांति है। और प्रकाश की तो सीमा है, लेकिन अंधकार असीम है। अगर कोई कहे, परमात्मा प्रकाश है, तो कोई कह सकता है कि परमात्मा अंधकार है। फिर क्या हो?
कैसे होगा, हम परमात्मा की जो भी धारणा बनाएंगे, वह हमारी च्वाइस होगी, वह हमारा चुनाव होगा। और मनुष्य की कोई भी धारणा कभी भी अपनी विरोधी धारणा से मुक्त नहीं हो पाती। हम कोई भी धारणा बनाएंगे, तो वह जो विरोधी धारणा है, वह सदा मौजूद रहेगी। अगर हम कहेंगे, परमात्मा शुभ है, कहेंगे परमात्मा गुडनेस है, तो फिर इविल का क्या होगा, बुराई का क्या होगा! और तब हमें या तो एक दूसरा परमात्मा जिसको हम शैतान कहते हैं, बुराई का परमात्मा ईजाद करना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि वह शैतान है, जो बुरा है। और हमारा परमात्मा अच्छा है और शैतान बुरा है। लेकिन शैतान भी है, तो परमात्मा की स्वीकृति से ही हो सकता है अन्यथा कैसे हो सकता है। और अगर परमात्मा को स्वीकार नहीं है शैतान, तो शैतान कैसे हो सकता है। और अगर हम मानते हों कि परमात्मा के अनचाहे भी शैतान हो सकता है, तब तो परमात्मा से भी बड़ी शक्ति को हमने स्वीकार कर लिया। शैतान और भी बड़ा और शक्तिशाली हो गया।
नहीं, अगर शैतान भी है, अगर इविल भी है, तो परमात्मा की स्वीकृति से ही हो सकता है, क्योंकि उसकी स्वीकृति के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। और परमात्मा बुराई को स्वीकार करे, तो हम कठिनाई में पड़ जाएंगे। इसलिए जो कहता है, परमात्मा गुडनेस है, वह आधे को चुन रहा है, आधे को छोड़ रहा है। और अगर यह बहुत कठिनाई होता कि हम यह मान लें कि परमात्मा दोनों हैं, जो अच्छा है वह भी, जो बुरा है वह भी...वे भी परमात्मा के बेटे हैं, तो हमें थोड़ी कठिनाई शुरू हो जाती है। लेकिन वे दोनों ही परमात्मा के बेटे हैं, जो सूली पर लटकता है वह भी और जो सूली पर लटकाता है वह भी, क्योंकि परमात्मा के बेटे होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
अगर परमात्मा सब-कुछ है, तो जिसे हम विरोध में बांट लेते हैं, उसे हमें बांटना बंद कर देना होगा। लेकिन तब हमारी बुद्धि कठिनाई में पड़ती है, क्योंकि हमारी बुद्धि सोचना चाहती है, और निर्णय लेना चाहती है। और जब भी बुद्धि निर्णय लेती है, तो सीमाएं बनाती है। वह कहती है, यहां तक स्वीकार करना ठीक है, इसके आगे स्वीकार करना मुश्किल है। तो हम कहते हैं, परमात्मा जीवनदायी है। तो फिर मौत कौन देता है। मौत भी वही देता है। तो हम कहते हैं, परमात्मा परम कृपालु है, तो फिर कठोर कौन होगा।
और हम परमात्मा को अच्छा-अच्छा बना दें, तो बुरे के अस्तित्व का उपाय कहां, फिर बुरा ठहरेगा कहां, रुकेगा कहां? तो फिर हमें झूठी बातें ईजाद करनी पड़ती हैं। शैतान से बड़ा झूठ नहीं है या जो लोग शैतान को ईजाद नहीं करते, वे कहेंगे, माया है, इल्यूजन है, वह कुछ और ही ईजाद करेंगे। लेकिन परमात्मा के अलावा उन्हें कुछ और भी मानना पड़ेगा। और जिसे वह अलावा मानेंगे, उसे परमात्मा के विरोध में मानना पड़ेगा।
ईश्वर की कोई भी धारणा हम बनाने चलेंगे, तो विरोधी धारणा का क्या होगा? और ध्यान रहे धारणा कभी भी विरोधी को आत्मसात नहीं कर पाती। प्रकाश की धारणा में अंधकार आत्मसात नहीं होता। और शुभ की धारणा में अशुभ आत्मसात नहीं होता। अच्छे की धारणा में बुरा बाहर रह जाता है। कोई भी धारणा पूर्ण नहीं हो सकती। इसलिए परमात्मा की कोई धारणा संभव नहीं, क्योंकि परमात्मा पूर्ण है। हमारी सारी धारणाएं उसके द्वार पर गिर कर मर जाती हैं। हमारी सारी धारणाएं, वहां जाकर हमें अनुभव होता है, व्यर्थ हो गईं, मीनिंगलेस हो गईं। क्या हम इसे ऐसा कहें कि परमात्मा एब्सर्ड है। किंगार्ड ने शायद कुछ बहुत करीब की बात कही है। किंगार्ड का खयाल जैसे बहुत करीब पहुंचता है। किगार्ड कहता है कि परमात्मा को, अगर हम एब्सर्ड को स्वीकार कर सकते हों, अगर हम अर्थहीन को स्वीकार कर सकते हों, तो ही हम परमात्मा को समझ पा सकते हैं।
अब अगर परमात्मा बुराई और भलाई, दोनों है, तो बहुत एब्सर्ड हो गया, अर्थहीन हो गया। और अगर परमात्मा मृत्यु और जीवन दोनों है, तो बड़ा व्यर्थ हो गया। और अगर परमात्मा शैतान भी है। और परमात्मा एक तरफ से जीसस को भी पैदा करे और दूसरी तरफ से जीसस को सूली लगाने वालों को भी प्रेरित करे, तो बात बड़ी बेहूदी हो गई। सारा अर्थ खो गया। लेकिन इतनी सामथ्र्य अगर हमारी हो, इस सामथ्र्य का मतलब क्या है, इस सामथ्र्य का मतलब क्या? अगर हम अपनी बुद्धि की कैटेगिरी, वह जो हमारे विचार करने के ढांचे हैं, उनको अगर हम छोड़ कर परमात्मा तक आने की सामथ्र्य रखते हों, तो ही हम उसे समझ पा सकते हैं।
इसलिए उसकी कोई धारणा नहीं हो सकती। और जितनी हमने धारणाएं बनाई हैं, सब बचकानी, सब चाइल्डिश हैं। हमारी सब धारणाएं बहुत छोटी-छोटी, बच्चों के खिलौने हैं। यह ऐसे ही है, जैसे कोई सागर के किनारे पहुंच जाए, एक मुट्ठी पानी सागर का अपने हाथ में ले ले और कहे कि मैंने सागर को अपने हाथ में बांध लिया।
बुद्ध एक जंगल से गुजरते थे। पतझड़ के दिन थे। और सारे वृक्षों के पत्ते जमीन पर गिर रहे थे। रास्ते पत्तों से भर गए थे। सूखे पत्ते जगह-जगह उड़ रहे थे। बुद्ध के एक शिष्य आनंद ने बुद्ध से कहाः आपने तो सब जान लिया और सब बता दिया। तो बुद्ध बहुत हंसने लगे, उन्होंने मुट्ठी भर पत्ते अपने हाथ में उठा लिए, सूखे पत्ते। और उन्होंने कहाः जितना मैंने जाना, वह इस मुट्ठी भर पत्तों जैसा है। और जितना जानने को है, वह इस जंगल में जितने सूखे पत्ते पड़े हैं, शायद उनसे भी ज्यादा है, क्योंकि सूखे पत्ते गिने जा सकेंगे। वह जो जानने को है, उसकी कोई गिनती नहीं हो सकती। और तुमसे जो मैंने कहा है, वह तो इतना भी नहीं है, मुट्ठी भर भी, क्योंकि जब मैं कहने चलता हूं, तो मुट्ठी भर भी नहीं कह पाता। शब्द उसको भी नहीं बता पाते। एकाध पत्ता ही रह जाता है। वह भी पूरा तुम नहीं समझ पाते।
वे ठीक कहते हैं, धारणा मनुष्य की इतनी छोटी बात है और ईश्वर इतना विराट कि हम उसे धारणा में कहीं भी न बांध पाएंगे। आइडिया इतनी छोटी बात है और ट्रूथ इतना बड़ा, कि कोई आइडिया ट्रूथ नहीं हो सकता। लेकिन सभी विचार दावा करते हैं कि हम सत्य हैं और सभी आइडियोलाॅजियां दावा करती हैं कि हमने सत्य को पा लिया है।
इनके ये दावे मनुष्य को बहुत महंगे पड़े। और इसलिए भविष्य में अब कोई दावेदार की जरूरत नहीं है। अब हमें दावेदार नहीं चाहिए, जो कहें कि हमारा विचार ही सत्य है, क्योंकि ये सब दावेदार परमात्मा को खंड-खंड कर देते हैं, टुकड़ा-टुकड़ा कर देते हैं। ये सब दावेदार परमात्मा को एक रंग देना शुरू कर देते हैं। ये कहते हैं, जो रंग हमने दिया है, वही सच्चा परमात्मा है। जो रंग दूसरे ने देखा है, वह सच्चा परमात्मा नहीं है। जब कि सभी रंग उसके हैं।
हमारी कोई भी धारणा उसे प्रकट नहीं कर पाती। और भी आश्चर्य की बात तो यह है कि हम धारणा भी कैसे बना लेते हैं। जो जानते हैं, वे धारणा नहीं बनाते, जो नहीं जानते, वे धारणा बनाते हैं।
अगर हम जीसस से पूछें या बुद्ध से या कृष्ण से कि ईश्वर की क्या धारणा है, तो वे चुप रह जाएंगे। पायलट ने पूछा है जीसस से, सूली देने के पहले पूछा हैः वाॅट इ.ज ट्रूथ, सत्य क्या है। वह यही पूछ रहा है कि तुम्हारी सत्य की धारणा क्या है, तुम किस चीज को सत्य कहते हो, कौन है परमात्मा, क्या है सत्य? तो जीसस ने उत्तर नहीं दिया है, वे चुप रहे। शायद पायलट ने सोचा हो, इसे पता नहीं, शायद पायलट ने सोचा हो, यह कहना नहीं चाहता। पता नहीं पायलट ने क्या सोचा, उसका कोई पता नहीं। लेकिन जीसस का हमें पता है कि पायलट ने पूछा कि सत्य क्या है, तो जीसस चुप रह गए। लेकिन एक ईसाई से पूछे कि सत्य क्या है, चुप न रह जाएगा, एक हिंदू से पूछें सत्य क्या है, चुप न रह जाएगा, एक मुसलमान से पूछें सत्य क्या है, चुप न रह जाएगा। जीसस चुप रह जाते हैं, लेकिन ईसाई चुप नहीं रह पाता। जीसस क्यों चुप रह गए हैं? अगर सत्य को जानते हैं तो कह ही दें।
और यह अंतिम क्षण है कि इससे बेहतर क्षण न होगा बताने का, फिर पूछने का समय भी नहीं है, फिर सूली लगने के करीब है। बता ही दें, अगर उन्हें सत्य पता है। लेकिन जीसस चुप क्यों है, चुप वे इसलिए हैं कि जो बताया जा सकता है, वह सत्य नहीं हो सकता है। जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं हो सकता है। जो शब्द में बंध जाता है, वह सीमित हो जाता है। और जो है वह है असीमित। उसकी कोई सीमा नहीं है। तो जीसस ने भी कहने की कोशिश की है, लेकिन पायलट नहीं समझ पाया और शायद जिन्होंने रिकाॅर्ड की है घटना, वे भी नहीं समझ पाए। जीसस ने आंखों से कहा होगा, चुप रह कर भी कहा है। चुप रह जाना भी कहने का एक ढंग है, मौन हो जाना भी कम्युनिकेट करने की एक व्यवस्था है। बहुत बार हम चुप होके ही कुछ कहते हैं।
अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं, यह कहना भी कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, ऐसा मालूम पड़ता है कि कुछ ठीक नहीं। क्योंकि जो मेरे भीतर उठ रहा है, वह इस शब्द में बंधता नहीं, तो जिससे मैं प्रेम करता हूं, उसका हाथ, हाथ में लेके चुप रह जाता हूं। शायद मौन से पता चल जाए। जिसे हम प्रेम करते हैं, कुछ कहने को नहीं होता, उसे गले लगा लेते हैं। अब हड्डियों से हड्डियां लगें तो प्रेम का क्या अर्थ है। लेकिन शायद उस चुप्पी, सन्नाटे में हृदय के निकट होने से शायद कोई बात अनकही हुई पहुंच जाए, कह दी जाए।
जीसस ने कहा तो जरूर होगा, लेकिन आंख से कहा होगा, चुप रह कर कहा होगा, पायलट सिर्फ शब्द समझता होगा, नहीं समझ पाया होगा। जीसस का मौन भी कुछ कह रहा है।
एक झेन फकीर हुआ है। कोई उसके पास गया है और उस फकीर से उसने पूछा है कि सत्य क्या है बोलो। बहुत दूर से आ रहा हूं, पहाड़ चल कर आ रहा हूं, थक गया हूं, तुम्हें खोजता आ रहा हूं, बोलो सत्य क्या है। वह फकीर आंख खोले बैठा था, उसने आंख भी बंद कर ली। उस आदमी ने हिलाया और उसने कहा कि आंख खोलो, मैं बहुत दूर से आया हूं, मैं बहुत थक गया हूं, मैं जानने आया हूं कि सत्य क्या है। लेकिन वह फकीर जैसे बिलकुल मर ही गया। उसकी न केवल आंख बंद हुई, बल्कि वह गिर ही पड़ा। उस आदमी ने कहाः यह तुम क्या कर रहे हो। मैं सत्य खोजने आया हूं, मैं बहुत दूर से आया हूं, पहाड़ पर चलते-चलते थक गया हूं, और जब मैं आया था, तब भलीभांति बैठे थे। आंख खोले हुए थे, मैंने पूछा, तो तुमने आंख बंद कर ली। मैंने तुम्हें हिलाया तो तुम गिर ही गए। उस फकीर ने आंख खोली, उसने कहा कि मैं तुमसे कहने की कोशिश कर रहा हूं, समझने की कोशिश करो। उसने कहाः एक शब्द तुम नहीं बोले, आंख तुमने बंद कर ली, बैठे थे ठीक, तुम गिर गए। तो उस फष्कष्ीर ने कहाः तुम भी आंख बंद कर लो, जहां-जहां आंख खुली हो, बंद कर लो। जहां-जहां द्वार बाहर की तरफ खुले हों, बंद कर लो, तो शायद जान लो जो तुम पूछने आए हो। और उसने कहाः गिर किसलिए गए। ठीक है, चलो आंख बंद की। उस फकीर ने कहाः गिर इसलिए गया कि तुम्हें भी गिर जाना पड़ेगा, तो ही उसे जान सकते हो। जब तक तुम खड़े हो, जब तक तुम हो, तब तक उसे न जान सकोगे। गिर जाओ, मिट जाओ, खो जाओ तो शायद उसे जान लो। उस आदमी ने कहाः बेकार इतनी मेहनत की, पहाड़ चढ़ कर आया, पसीना-पसीना हो गया, कुछ मतलब की बात कहो। उस फकीर ने कहाः मतलब की बात तो पूरी हो गई। अब बैठो, बेमतलब बातें आगे चल सकती हैं। अब तुम नहीं मानते, तो मैं कुछ कहूंगा, लेकिन कहा हुआ वह नहीं होगा, जो मैं कहना चाहता हूं।
लाओत्सु ने किताब लिखी हैः ताओ तेहकिंग। तो पहला ही वाक्य यह लिखा है कि मुझे मजबूर करते हो, इसलिए कहता हूं, लेकिन जो कहा जाएगा, वह सत्य नहीं होगा। और जो नहीं कहा जा सकता, वह सत्य चारों तरफ मौजूद है, हर घड़ी, हर पल। लेकिन जो लोग किताबों में उलझे हैं, वे उस चारों तरफ मौजूद सत्य की तरफ आंखें कैसे उठाएं। जो धारणाओं में उलझे हैं, जो विचारों में उलझे हैं, जो आइडियोलाॅजिस में उलझे हैं, उनकी आंखें नहीं उठ पातीं।
रवींद्रनाथ एक किताब पढ़ रहे थे एक रात, एस्थेटिक्स पर एक किताब थी, सौंदर्यशास्त्र पर। पूर्णिमा की रात थी, लेकिन किताब पढ़ने में भूल गए कि पूर्णिमा है। पूरा चांद आकाश में है। बजरे पर थे, नाव पर थे। एक छोटी सी मोमबत्ती जला कर किताब पढ़ते थे। भूल गए कि झील पर हैं। किताब सब भुला देती है। भूल गए कि बाहर चांद बरसता है। झील की सब लहरें चांदी हो गई हैं, सब भूल गए कि बाहर कोई पक्षी गीत गाता है, सब भूल गए कि बाहर रात आधी हो गई, सब सन्नाटा हो गया, सब भूल गए। किताब सब भुला देती है। वह किताब में लगे रहे।
आधी रात थक कर किताब बंद कर दी। फूंक मार कर मोमबत्ती बुझा दी। मोमबत्ती के बुझते ही कुछ अलौकिक घटित हो गया। किताब के बंद होते ही आंख गई उस पर जो था। नाचने लगे उठ कर, मोमबत्ती बुझी तो रंग-रंग से, द्वार-द्वार से, खिड़की-खिड़की से चांद भीतर भर गया। चांद रुका था बाहर, एक छोटी सी मोमबत्ती का प्रकाश भी चांद को रोक सकता है। पीली सी धुआं देती मोमबत्ती थी, लेकिन चांद बाहर ठहर गया। जब अपनी मोमबत्ती जली हो, तो चांद भीतर आए भी क्यों। मोमबत्ती बुझा दी, चांद भीतर आ गया, किरणें नाचने लगीं, ठंडी हवाओं की खबर आई, बाहर पूर्णिमा की रात है, झील है, कोई पक्षी गीत गाता है।
रवींद्रनाथ नाचने लगे और उन्होंने कहाः मैं भी कैसा पागल हूं, सौंदर्य चारों तरफ बरस रहा है और मैं किताब को खोल कर उसमें सौंदर्य खोजने गया था। जहां सिवाय स्याही से खींची गईं रेखाओं के और कुछ भी नहीं। और सौंदर्य चारों तरफ बरस रहा है। फिर उन्होंने कहा, जो किताब बंद की तो बंद ही की, फिर दुबारा सौंदर्य की किताब न खोली, क्योंकि सौंदर्य मौजूद है, उसे किताब में खोजने की कोई भी जरूरत नहीं। परमात्मा भी मौजूद है, जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह सब मौजूद है। जीवन में जो भी सुुदर है वह सब मौजूद है। जीवन में जो भी सत्य है, वह सब मौजूद है। कोई किताब खोलने की जरूरत नहीं है, कि किताब से हम उसे पहचानने जाएंगे। किताब बीच में दीवाल बन जाएगी। कोई विचार करने की जरूरत नहीं है कि हम विचार से उसे समझने जाएंगे, क्योंकि हम विचार से क्या समझेंगे, विचार बाधा बन जाएगा।
एक गुलाब के फूल को समझना हो, तो विचार की क्या जरूरत? और एक चांद की चांदनी को समझना हो, तो विचार की क्या जरूरत है? और एक हृदय के प्रेम को समझना हो, तो विचार की क्या जरूरत है? लेकिन अगर हम प्रेम को भी समझने जाएंगे, पहले हम किताब खोलेंगे कि प्रेम यानी क्या।
और जो आदमी किताब के प्रेम को समझ लेगा, वह शायद हृदय के प्रेम को समझने में असमर्थ हो जाए, तो आश्चर्य नहीं। और अगर हमें गुलाब के फूल को भी पहचानना है, तो पहले हम गुलाब के फूल के संबंध में पढ़ेंगे, सोचेंगे, फिर फूल के पास जाएंगे। हमारा पढ़ा हुआ, सोचा हुआ गुलाब के फूल में दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन यह हमारा प्रोजेक्शन है, यह हम डाल रहे हैं, यह गुलाब के फूल से हममें नहीं आ रहा है, यह हम गुलाब के फूल में डाले चले जा रहे हैं। विचारकों से ज्यादा अंधे आदमी दुनिया में नहीं होते, क्योंकि वे सब जो उनके भीतर हैं, उसे बाहर डाल देते हैं। वे वही देख लेते हैं, जो देखना चाहते हैं, वे वही खोज लेते हैं, जो खोजना चाहते हैं; और उससे वंचित रह जाते हैं, जो है।
अगर हमें वही जानना है, जो है। तो मेरे सारे विचार खो जाने चाहिए। और भी एक बात समझ लेनी जरूरी है, परमात्मा कुछ भी है तो अननोन है, अज्ञात है, मुझे पता नहीं। और जो मुझे पता नहीं है, उसे मैं सोच-विचार कर कैसे पता पा सकूंगा। हम उसी के संबंध में सोच सकते हैं, जो हम जानते हों, जो नोन है। जिसे हमने जान लिया उसके संबंध में हम सोच सकते हैं। लेकिन जिसे हम जानते ही नहीं उस संबंध में हम सोचेंगे कैसे?
सोचना सदा बासा और उधार है, विचार कभी मौलिक और ओरिजिनल नहीं होते, हो भी नहीं सकते। सब विचार बासे होते हैं और सब विचार उधार होते हैं, सब बाॅरोड होते हैं। विचार कभी भी ताजा और नया नहीं होता। विचार सदा बासा और पुराना होता है, जो हम जानते हैं वही होता है। जो हम जानते हैं, उसको हम कितना ही बार-बार सोचें, तो भी जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे हम कैसे पकड़ पाएंगे।
वह जो अननोन है, नोन के घेरे में कैसे पकड़ में आएगा। वह अज्ञात है, वह ज्ञात में कैसे पकड़ा जाएगा। इसलिए विचार करना जुगाली करने से ज्यादा नहीं है। कभी भैंस को दरवाजे पर बैठा हुआ जुगाली करते देखा हो। घास उसने खा लिया है, फिर उसी को निकाल-निकाल कर वह चबाती रहती है।
जिसको हम विचार करना कहते हैं, वह जुगाली है। विचार हमने इकट्ठा कर लिए हैं किताबों से, शास्त्रों से, संप्रदायों से, गुरुओं से, काॅलेजों से, स्कूलों से, चारों तरफ विचारों की भीड़ है, वे हमने इकट्ठे कर लिए हैं, फिर हम उनकी जुगाली कर रहे हैं। हम उन्हीं को चबा रहे हैं बार-बार। लेकिन उससे अज्ञात कैसे हमारे हाथ में आ जाएगा?
अगर अननोन को जानने की आकांक्षा पैदा हो गई हो, अगर अज्ञात को पहचानने का खयाल आ गया हो, तो वह जो नोन है, उसे विदा कर देना होगा, उसे नमस्कार कर लेना होगा, उससे कहना होगा अलविदा। उससे कहना होगा, तुमसे क्या होगा, तुम जाओ और मुझे खाली छोड़ दो। शायद खालीपन में मैं उसे जान लूं जो मुझे पता नहीं है। लेकिन भरा हुआ मैं तो उसे कभी भी नहीं जान सकता हूं। इसलिए विचारक कभी नहीं जान पाते हैं और जो जान लेते हैं, वे विचारक नहीं हैं। जिसको हम मिस्टिक कहें, जिसको हम संत कहें, वे विचारक नहीं हैं, वे वह आदमी हैं, जिसने कहा कि रहस्य है। अब जानेंगे कैसे, खोजेंगे कैसे, सोचेंगे कैसे, जिसने कहा रहस्य है, मिस्ट्री है, हम अपने को मिस्ट्री में खोए देते हैं। शायद खोने से मिल जाए, जान लें।
छोटी सी कहानी से समझाने की कोशिश करूं।
मैंने सुना है, समुद्र के किनारे मेला भरा हुआ था। बहुत लोग उस मेले में गए। दो नमक के पुतले भी गए हुए हैं। और मेले के किनारे, समुद्र के तट पर खड़े होकर लोग सोच रहे हैं समुद्र की गहराई कितनी है। लेकिन वे किनारे पर खड़े होकर सोच रहे हैं। अब समुद्र की गहराई को उस किनारे पर खड़े होकर सोचने से क्या मतलब? समुद्र कितना गहरा है, यह किनारे पर बैठ कर कैसे सोचा जा सकता है! समुद्र में उतरना पड़ेगा। लेकिन विचार करने वाले हमेशा किनारों पर बैठे रहते हैं, वे कभी उतरते नहीं। उतरना और तरह की बात है, विचार करना और तरह की बात है। विचार करने के लिए किनारे पर बैठे होना ठीक है।
नमक के पुतले भी आए हुए थे। उन्होंने कहाः लोग बहुत सोचते हैं, लेकिन कुछ पता नहीं चलता। कोई कितना बताता है, कोई कितना बताता है। और किनारे पर बैठे लोग विवाद करने लगे हैं और झगड़ा शुरू हो गया है। और किसी की बात न सही सिद्ध होती है, न गलत सिद्ध होता है, क्योंकि समुद्र में कोई गया नहीं है। तो नमक के पुतले ने कहाः मैं कूद कर पता लगा आता हूं कि कितना गहरा है। नमक का पुतला कूद भी सकता है, क्योंकि सागर से उसकी आत्मीयता है। नमक का पुतला है, सागर से ही निकला है, जाने में डर भी क्या है। उस सागर में कूद सकता है। वह कूद गया। सारे लोग किनारे पर खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह निकल आए और बता दे। वो जैसे-जैसे सागर में गहरे जाने लगा, वैसे-वैसे पिघलने लगा। वह नमक का पुतला था। वह सागर में पिघलने लगा, गहरा तो जाने लगा, लेकिन पिघलने लगा। वह गहरा पहुंच भी गया, उसने गहराई का पता भी लगा लिया, लेकिन जब तक पता लगाया, तब तक वह खुद समाप्त हो चुका था।
उसे पता तो चल गया था कि सागर कितना गहरा है, लेकिन लौटने योग्य बचा नहीं कि लौट कर बाहर तट पर लोगों से कह सके कि इतना गहरा है। बहुत लोगों ने प्रतीक्षा की, सांझ होने लगी। उसके मित्र ने कहा कि पता नहीं, मित्र कहां खो गया है। मैं उसका पता लगा आता हूं। वह मित्र जो था नमक का पुतला, वह भी कूद गया। फिर रात घनी हो गई, वह भी नहीं लौटा। वह भी पहुंच गया मित्र के पास। लेकिन जब तक पहुंचा, तब तक खुद खो गया।
फिर सुबह वह मेला उजड़ गया। फिर हर वर्ष वहां मेला भरता है और लोग पूछते हैं, उस आस-पास रहने वाले लोगों से, पुतले वापस तो नहीं लौटे? समुद्र की कितनी गहराई है इसका पता लगाना है? लेकिन वे खुद समुद्र की गहराई में जाने को रा.जी नहीं।
परमात्मा के किनारे बैठ कर कुछ भी पता नहीं चल सकता है। जाना पड़े और कठिनाई यह है कि जो जाता है, वह खो जाता है। जो जाता है, वह लौट कर कहने योग्य नहीं रह जाता। जो जाता है, वहां से मूक होकर लौटता है। जो जाता है वहां, सब खो जाता है उसका। उसकी आंखों से शायद हम पहचान लें। शायद उसके उठने चलने से पहचान लें। शायद उसके जीने से पहचान लें। लेकिन नहीं, हम शब्दों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पहचानते। हम हजारों साल तक शब्दों पर विचार करते रहते हैं।
अब कैसी मजे की बात है, जीसस उन नमक के पुतलों में एक हैं, जो सागर की गहराई तक पहुंच गया है। लेकिन जो लोग थे जीसस के आस-पास, वे न पहचान पाए। वे तो इतना पहचान न पाए कि एक आवारा, एक उपद्रवी, एक रिबेलियस आदमी मालूम होता है, इसकी गर्दन काट दो। तो उन्होंने, उसकी गर्दन काट दी।
अब दो हजार साल से जीसस ने क्या कहा है, इस पर हजारों लोग बैठ कर विचार कर रहे हैं। किताबों पर किताबें लिख रहे हैं, कमेंट्री लिख रहे हैं, विवाद कर रहे हैं कि किसकी कमेंट्री, किसकी टीका ठीक है और विवाद चल रहा है और सारी दुनिया में विचार चल रहा है, जीसस ने क्या कहा है। शब्द पकड़ने वाले हैं हम। लेकिन जीसस जिस सागर में कूदा उस सागर में कूदने की किसी को भी कोई फिकर नहीं है।...जो उसमें कहा है। उसने कहा है कि जीसस वर द लास्ट क्रिश्चियन, जीसस आखिरी ईसाई थे। ठीक ही बात मालूम होती है। कृष्ण भी आखिरी हिंदू होंगे और महावीर भी आखिरी जैन होंगे और बुद्ध आखिरी बुद्ध होंगे, क्योंकि पीछे हम शब्दों की बातों पर विचार करते हैं, किनारे पर बैठ कर कूदता कोई भी नहीं। लेकिन हम भी तरकीबें निकाल लेते हैं। तरकीबें ऐसी, जिनसे ऐसा लगता है कि काम पूरा हो गया। अब मैं देखता हूं एक आदमी जीसस को प्रेम करे, तो वह एक सूली गले में लटका ले। अब बड़े मजे की बात है, सूली गले में नहीं लटकाई जाती, सूली पर गला लटक सकता है। वह जीसस को तो सूली पर लटकाना चाहता है और मैं अगर उनको प्रेम करता हूं तो एक छोटी सी सूली गले में लटका लेता हूं। अब यह नितांत रूखा हो गया है। अपने से रूखा हो गया। सूलियां इन गलों में लटका कर घूमने का कोई मतलब? खिलौने हो जाएंगे। किसी मतलब के न रह जाएंगे।
लेकिन, और जीसस को गले में नहीं लटकानी पड़ती सूली, गला ही सूली में लटक जाता है। वहां सूली खड़ी है और जीसस को उस पर लटक जाना पड़ता है। तो एक तो वह आदमी है, जो सूली पर लटके और एक हम जैसा आदमी है, जो एक छोटी सी सूली बना ले, चांदी की भी बनती है, सोने की भी बनती है, उसको गले में लटका लें। और जो जीसस समुद्र में कूद कर मिट कर पा सके हैं, सूली पर लटक कर पा सके हैं, हम किनारे पर बैठ कर सूली गले में लटका लें और पा लें। तो फिर हमारे पास शब्द रह जाएं। तो फिर हम बैठे विचार करते रहेंगे कि जीसस का ईश्वर से क्या मतलब था, जीसस क्या कहते हैं ईश्वर के संबंध में।
और मैं आपसे कहना चाहूंगा कि जीसस और सबके संबंध में कहते हैं, ईश्वर के संबंध में बिलकुल चुप हैं। और कृष्ण और सब संबंधों में कहते हैं, लेकिन ईश्वर के संबंध में चुप हैं। आज तक ईश्वर के संबंध में जो भी जानता है, उसमें कुछ कहा ही नहीं। हां, जो नहीं जानते, उन्होंने बहुत कहा है। उनके कहने का कोई अंत नहीं है। जो नहीं जानते हैं, वे दिन-रात कह रहे हैं। और जो जानते हैं, वे बिलकुल चुप हैं।
अब यह बड़ी उलझन की बात है। और इस उलझन को अगर हम ठीक से न समझ पाएं, तो इन दो हिस्सों में हम भी विभाजित हो सकते हैं। या तो हम उन लोगों के साथ हो सकते हैं जो चुप रह गए हैं, और जिन्होंने जाना है। या हम उनके साथ हो सकते हैं जिन्होंने नहीं जाना है और बहुत कुछ कहा है।
मुझे तो ऐसा लगता है कि ईश्वर के संबंध में सोचें मत, ईश्वर में डूब जाएं। ईश्वर के संबंध में विचार मत करें, ईश्वर में खो जाएं। ईश्वर में अपने को मिटा दें। और हम मिटा सकते हैं। और हम कितनी भी कोशिश करें, लाख उपाय करें, तब भी हम अलग कहां हो पाते हैं, सिर्फ भ्रम पैदा हो जाता है कि हम अलग हैं।
जैसा कि मैंने कहा कि लहर अपने को सागर से अलग समझ ले। अलग हो नहीं पाती, हो भी नहीं सकती है। लेकिन एक भ्रम में जी सकती है कि मैं अलग हूं। और जब वह भ्रम में जी रही है, तब सागर हंस रहा है कि पागल है। अलग कहां है? अलग कैसे हो सकती है? अलग होने का उपाय नहीं है। यह तो हो सकता है कि सागर बिना लहरों का हो, यह कभी हो सकता कि एक लहर और बिना सागर के हो जाए? लहर तो सागर का एक हिस्सा है।
लेकिन हम भ्रम पाल सकते हैं। और हम सबने भ्रम पाला हुआ है कि हम अलग हैं। उस भ्रम को जो तोड़ देता है, वह ईश्वर में प्रवेश पा जाता है। और ईश्वर निकट है। और तत्काल उपलब्ध है। ऐसा नहीं है, वह कभी दो हजार साल पहले जेरुसलम में उपलब्ध था या पांच हजार साल पहले कुरुक्षेत्र में उपलब्ध था या ढाई ह.जार साल पहले बुद्ध गया में उपलब्ध था। वह अभी और यहीं हम सबको भी उतना ही उपलब्ध है, जैसे श्वास उपलब्ध है। लेकिन हम इतने मजबूत हैं और हम किनारे को इतने जोर से पकड़े हैं कि हम नहीं डूब पाते, हम बाहर ही रह जाते हैं। जो नहीं डूब पाता, वह अभागा है। फिर वह कितने ही शब्द सीख ले और कितने ही सिद्धांत सीख ले, और कितने ही विचार संगृहीत कर ले, नहीं जान पाएगा। जानना हो, तो विचार को छोड़ देना होगा; न जानना हो, तो हम विचारों में खोए रह सकते हैं। न जानना हो, तो हम इतने विचार इकट्ठे कर ले सकते हैं कि जानने का भ्रम भी पैदा हो जाए और जानना भी न हो पाए।
सुकरात मरने के करीब है, तो किसी ने कहा है कि लोग कहते हैं, तुम परम ज्ञानी हो। सुकरात ने कहाः गलत कहते होंगे। पहले जब मैं नहीं जानता था, तो ऐसी भूल मैं भी करता था। मुझसे बड़ा अज्ञानी कोई भी नहीं।
सुकरात कह सकता है, मुझसे बड़ा अज्ञानी कोई भी नहीं है। और जो इतना कहने की हिम्मत जुटा लेता है कि मुझे पता नहीं है, मैं नहीं जानता हूं। न मेरा विचार वहां तक पहुंचता है, न मेरा हाथ वहां तक पहुंचते हैं, न मेरी कोई क्रिया वहां तक पहुंचती है, न मेरी कोई प्रार्थना वहां तक पहुंचती है, मेरा कुछ भी वहां तक नहीं पहुंचता, मैं वहां तक पहुंच ही नहीं पाता हूं। ऐसी हेल्पलेस, ऐसी असहाय अवस्था में जो खड़ा हो जाता है, वह तत्काल डूब जाता है, क्योंकि उसके पास पकड़ने के लिए, क्लीगिंग के लिए कोई सहारा नहीं बचता। न कोई सिद्धांत बचता है, न कोई शास्त्र बचता है, न कोई संप्रदाय, न कोई चर्च, न कोई मंदिर, कुछ उसके पास पकड़ने को सहारा नहीं बचता है। उसके सब सहारे छूट जाते हैं। और जैसे ही सहारा छूट जाता है, आदमी डूब जाता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
मैंने सुना है, एक अमावस की अंधेरी रात में एक आदमी जंगल में खो गया। अंधेरे की रात, जंगल था अनजान, खो गया। रास्ता मिलता न था, टटोल-टटोल कर खोजता था। अचानक...आवाज गूंज कर लौट आती है, पास कोई सुनने वाला नहीं है। दूर तक आंखें फैलाता है, घाटी में कहीं कोई एक दीया भी दिखाई नहीं पड़ता। पता नहीं नीचे कितना गड्ढा है, अगर हाथ छूट गए तो मृत्यु के सिवाय कुछ दिखाई नहीं पड़ता, तो जितनी ताकत है, जितनी सामथ्र्य है, सारी ताकष्त एक ही काम में लगानी है कि रात गुजर जाए और किसी तरह झाड़ी पकड़े रहे। सुबह हो जाए, शायद रास्ते से कोई निकले।
लेकिन रात है सर्द, ठंडी है। ठंडी हवाएं उसके हाथों को ठंडा किए दे रही हैं। घड़ी-दो घड़ी में उसके हाथ जम गए हैं। अब उसे ऐसा भी नहीं लगता है कि मेरे हाथ हैं, अब हाथ धीरे-धीरे झाड़ी से छूटने लगे हैं, पकड़ भी नहीं मालूम होती है, क्योंकि हाथ बिलकुल जम गए हैं और पकड़ भी नहीं पा रहे हैं। अब वह घबड़ा रहा है, अब वह चिल्ला रहा है कि मैं मरा, मुझे बचाओ! मैं मरा। लेकिन घाटी में अपनी ही आवाज गूंजती है और कोई भी नहीं। है भी जिंदगी की घाटी ऐसी, कितना ही हम चिल्लाएं, कितने ही चारों तरफ लोग हों, अपनी ही आवाज गूंजती है, कौन सुनने को है। आखिर आधी रात होते-होते उसके हाथ सरकते-सरकते...झाड़ी छूट गई। छोड़ी नहीं है उसने, छूट गई है झाड़ी। लेकिन चमत्कार हुआ है, नीचे कोई गड्ढा ही न था, झाड़ी छोड़ कर वह जमीन पर खड़ा हो गया। तब वह बहुत अपने को कोसने लगा कि मैं भी बहुत पागल हूं, व्यर्थ ही तीन घंटे तक परेशान था, पकड़े था, नीचे जमीन है।
हम सारे लोग भी जब तक कोई सहारा पकड़े हुए हैं, कोई विचार पकड़े हुए हैं, कोई शास्त्र पकड़े हुए हैं और सोच रहे हैं, इसको छोड़ देंगे, तो अंधकार में खो जाएंगे, गड्ढे में गिर जाएंगे, फिर कहां होंगे हम। उन्हें भी पता नहीं है कि जैसे ही हम सत्य छोड़ देते हैं, वह जो, जिसको हम कहें, परम भूमि है, जो अल्टीमेट ग्राउंड है, वह जो परमात्मा है, जब हम सब छोड़ देते हैं, तो हम अचानक पाते हैं कि पकड़ कर हम व्यर्थ ही परेशान थे। सब छोड़ कर हम उसे पा लेते, जो निरंतर हमारे नीचे मौजूद है। जिसे हमने कभी खोया नहीं है।
उस आदमी ने भी कब खोई थी नीचे की जमीन। वह आदमी पूरे वक्त जमीन के करीब था। कौन रोके था उसे? खुद की पकड़ उसे रोके थी। कोई ईसाइयत को पकड़े है, कोई हिंदू धर्म को पकड़े है, कोई कृष्ण को, कोई क्राइस्ट को, कोई न कोई किसी न किसी को पकड़े है जोर से। और चिल्ला रहा है बचाओ, कहीं मैं खो न जाऊं। और नीचे परमात्मा प्रतीक्षा कर रहा है कि तुम कब थकोगे, तुम कब थक जाओगे, कब तुम्हारे हाथ छूट जाएंगे। और जिस दिन आदमी टोटली हेल्पलेस, पूरी तरह असहाय हो सब छोड़ देता है। उस दिन अचानक पाता है, जिसे पुकारा था वह निकट मौजूद है, जिसके लिए चिल्लाए थे, वह दूर न था और जिसे हम खोजते थे, उसे हमने कभी खोया नहीं।
इसलिए जब मुझसे कोई पूछता है कि ईश्वर को कैसे खोजें। तो मैं उससे दूसरा सवाल पूछता हूंः तुमने उसे खोया कैसे? वह कहता हैः मैंने तो खोया नहीं। तो फिर मैं कहता हूंः खोजने का कोई सवाल नहीं है। खोजते उसे हैं, जिसे हम खो देते हों। उसे खोजने का तो कोई सवाल नहीं, जिसे हम खो ही नहीं सकते। ईश्वर का होने का अर्थ है, हमारा होना, बी वेरी बीइंग, वह जो हमारा अस्तित्व है, वही तो परमात्मा है, उसे हम कैसे खो सकते हैं?
जैसे सागर में कोई मछली पूछने लगे दूसरों से कि सागर कहां है। ऐसे ही हम पूछते फिरते हैं; परमात्मा कहां है, परमात्मा कहां है, उसी में जन्मते हैं, उसी में जीते हैं, उसी में होते हैं, उसी में मिटते हैं, वही है हमारी भीतर आने वाली श्वास, वही है हमारी बाहर जाने वाली श्वास, वही है हमारा बचपन, वही है हमारा बुढ़ापा, वही है जन्म, वही है मृत्यु। वह जो सागर का, अस्तित्व का, वह जो एक्झिस्टेंस है, वही है। हम उसे कहां खोजते हैं। लेकिन जब हम पकड़ लेते हैं कुछ। तो जो नीचे मौजूद है, वह मौजूद होते हुए भी खो जाता है। क्लीगिंग, वह जो दिमाग की पकड़ है शब्दों की, शास्त्रों की, सिद्धांतों की, वह परमात्मा से रोक लेती है।
इसलिए मेरी कोई धारणा नहीं है परमात्मा की और न मैं ऐसा सोच पाता हूं कि धारणा से कोई कभी वहां पहुंच सकेगा। और परमात्मा के सामने जाना हो, तो ‘मैं’ की हैसियत में भी वहां नहीं जा सकते हैं। बहुत पहले उसके मंदिर के बाहर ही, जहां हम जूते उतार आते हैं, वहीं अपने को भी उतार आना पड़ता है। और जब हम खाली, एक शून्य की भांति, एक निर्जन एकांत की भांति, जिसके भीतर न कोई विचार है, न खुद का कोई होना है, जिस दिन हम शून्य और खाली उसके मंदिर में प्रविष्ट होते हैं उस दिन हम पाते हैं, उसका मंदिर सब जगह था, हम व्यर्थ ही भटके, खोजे और परेशान हुए। हम व्यर्थ ही हैरान हुए, वह सदा ही उपलब्ध था।
मेरी कोई धारणा नहीं है, क्योंकि उसके सामने मेरे होने का ही कोई अर्थ नहीं है। मेरा कोई विचार नहीं है, क्योंकि विचार से पाने का उसे कोई उपाय नहीं है। डूबना है। डूबने में विचार भी खो जाते हैं, स्वयं भी खो जाता हूं। ईश्वर की धारणा पर सोचना ही मत। और अगर ईश्वर की धारणा पर सोचना हो, तो अनंत जीवनों तक भी सोचते रह सकते हैं, लेकिन कहीं पहुंचेंगे नहीं। और जिस दिन पहुंचना हो, उस दिन सोचना मत। तो एक क्षण में एक क्षण भी बहुत बड़ा है, क्षण के भी शायद एक करोड़वें हिस्से में शायद वह भी बहुत बड़ा है, शायद जरा भी देर नहीं लगती, जरा भी समय नहीं लगता और हम वहां पहुंच जाते हैं।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इस आशा से कि किनारे पर नहीं बैठे रहेंगे और सागर में डूब जाएंगे।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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