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गुरुवार, 10 मार्च 2016

जीवन रहस्‍य--(प्रवचन--03)

स्‍वरूप का उदघाटन—(प्रवचन—तीसरा)

मझने में मुश्किल पड़ती है। पहली बात तो यह समझने में मुश्किल पड़ती है कि कहीं जाना नहीं है। यह समझना ही मुश्किल हो जाता है। हमारे चित्त की पूरी की पूरी व्यवस्था ऐसी है कि वह कहता है कहीं चलो, यहां कुछ भी नहीं है। पूरा चित्त ही इस तनाव से बना है कि कहीं चलो, वहां कहीं दूर मंजिल है। चित्त का आधार ही यही है कि मंजिल दूर हो, नहीं तो चित्त गया। क्योंकि मंजिल दूर है तो पाने की कोशिश करनी पड़ती है, सोचना पड़ता है, योजना बनानी पड़ती है, ढंग खोजने पड़ते हैं। और मंजिल दूर है तो आज तो मिल नहीं जाती, कल मिलेगी। इसलिए आज से कल के प्रति तनाव जारी रखना पड़ता है। मन जीता है तनाव में।
और सब तनाव गहरे में कहीं पहुंचने का तनाव है— चाहे वह धन, चाहे यश, चाहे धर्म, चाहे मोक्ष। मन मरा उसी वक्त, जिस वक्त आपने कहा, कहीं नहीं जाना, जाना ही नहीं है कहीं। तो मन के अस्तित्व की सारी आधारशिला हट गई।

और जब तक आप कहीं जाने में लगे हैं, तब तक एक बात पक्की है कि अपने को जानने में नहीं लग सकते। क्योंकि यह दूर ले जाने वाला मन पास नहीं आने देता। और यह दूर ले जाने वाला मन इतना कुशल है कि फिर अगर दूर आप चले जाएं, तो यह कहता है कि पास जाने के लिए भी कोई रास्ता चाहिए।
जैसे एक आदमी यहां सोया रात और उसने सपने में देखा कि वह कलकत्ता चला गया है, तो वह किसी रास्ते से लौटाना पड़ेगा उसे कलकत्ते से यहां वापस? वह गया ही नहीं है! क्योंकि सच बात यह है कि हम जहां हैं वहां से वस्तुत: हम जा ही कैसे सकते हैं? जो हम हैं उससे अन्यथा हम हो कैसे सकते हैं? हम वहीं हैं, सिर्फ हमारा मन चला गया है, सिर्फ कामना चली गई है। मन भी क्या जाएगा! कामना चली गई है, डिजायर चली गई है दूर, हम वहीं खड़े हैं।
अब सवाल कुल इतना है कि जहां हम खड़े हैं, वहीं हम अपनी सारी डिजायर को, सारे विचार को, सारी कामना को वहीं रोक लें जहां हम खड़े हैं, तो जो हम हैं वह हमें पता चल जाए।
तो एक तो यह समझ में नहीं आता साधारणत:, क्योंकि जीवन का सारा अनुभव यह कहता है कि मंजिल दूर है। और आत्मिक अनुभव की बात बिलकुल उलटी है कि मंजिल दूर बिलकुल नहीं है, बिलकुल ही पास है। पास भी नहीं है, तुम ही हो मंजिल। तो जो मंजिल दूर हो उसको जोड्ने के लिए रास्ता चाहिए, विधि चाहिए, मेथड चाहिए, टेक्नीक चाहिए और समय चाहिए। आज तो हो ही नहीं सकता वह, अभी तो हो नहीं सकता, कभी होगा। फिर गुरु चाहिए, फिर बताने वाला गाइड चाहिए, क्योंकि मंजिल आगे है, भविष्य अंधकारपूर्ण है, हम वहां गए नहीं हैं कभी। तो कोई चाहिए जो बताए। भविष्य में मंजिल है तो फिर गुरु अनिवार्य है, शास्त्र अनिवार्य है। गाइड होगा, व्यवस्था होगी, विधि होगी, टेक्नीक होगी।
लेकिन मजे की बात यह है कि मंजिल यहीं है— अभी, इसी वक्त। कहीं जाना नहीं है खोजने, सिर्फ ठहर जाना है। और ठहर वह जाएगा जो खोज बंद कर दे। क्योंकि खोजने वाला मन ठहर कैसे सकता है? वह खोज रहा है, खोज रहा है।
नहीं खोज रहे हैं आप, नो—सीकिंग की एक हालत है। कुछ भी नहीं खोजना है, बस हैं। तो इस क्षण में होगा क्या? इस क्षण में जब आप कहीं दूर नहीं होंगे, तो चेतना वहीं होगी जहां है। और यहां उदघाटन, एक्सप्लोजन होगा।
सभी विधियां इस बात को मान कर चलती हैं कि आप कहीं चले गए हैं या कहीं आपको जाना है। तो विधि मात्र की जो भूल है, वह हमारे जाने वाले मन में लगी हुई है। और जब विधि सीखेंगे तो फिर गुरु चाहिए। फिर सब आएगा पीछे से—सारी गुरुडम आएगी, आश्रम आएगा, संप्रदाय आएगा, अनुयायी आएंगे, वह सब आएगा।
दूसरी मजे की बात है जो खयाल में नहीं आती और वह यह है कि अगर किसी क्षण में कोई व्यक्ति कुछ भी नहीं खोज रहा और कुछ भी नहीं कर रहा, तो भी कहीं तो होगा। होगा तो हां,  न खोजता हो, न करता हो, न सोचता हो, तो भी कहीं होगा। कहां होगा? अपने से अन्यथा होने के सब दरवाजे बंद हैं। न तो वह कुछ कर रहा है कि जिसमें उलझ जाए, न वह कुछ सोच रहा है जिसमें फंस जाए, न वह कुछ खोज रहा है जिसमें वह चला जाए। न खोज रहा है, न सोच रहा है, न कर रहा है— नॉन—डूइंग, नॉन—सीकिंग, नॉन—थिंकिंग। होगा कहां? जाएगा कहां? मिट तो नहीं जाएगा। होगा तो फिर भी।
वह फिर वहीं होगा जहां है। कोई उपाय नहीं रहा उसका, बाहर जाने के दरवाजे गए। ये सब दरवाजे बाहर ले जाने वाले हैं। तब वह किसी स्थिति में, जिस स्थिति में होगा, वह उसका स्वभाव होगा, स्वरूप होगा। उसका उदघाटन करना है। और स्वरूप के उदघाटन के लिए सब मेथड बाधाएं हैं और सब रास्ते बाधाएं हैं, क्योंकि वे दूर ले जाते हैं, कहीं खोज पर ले जाते हैं।
यह एकदम से खयाल में आना अति कठिन मालूम होता है। एक बार खयाल में आ जाए तो इससे ज्यादा सरल कुछ भी नहीं है। लेकिन हमारा जो माइंड है, उसकी पूरी की पूरी व्यवस्था इसी भाषा में सोचने की है—कहा जाना है? क्या पाना है? कैसे जाना है? और जब कोई रास्ता बताता है तो हमारी समझ में पड़ता है कि ठीक बात कही जा रही है—रास्ता होगा, टेल्मीक होगी, पहुंचना होगा।
सत्यानंद जी ने बहुत बढ़िया बात कही पीछे। उन्होंने कहा कि चाहे विधि से और चाहे अ—विधि से, मेथड से, चाहे नो—मेथड से पहुंचना हमको वहीं है, पाना हमको वही है।
अब इसे अगर गौर से देखेंगे तो बहुत मजेदार है यह वक्तव्य, सत्यानंद जी ने जो कहा, बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब क्या होता है? अगर आप यह कहते हैं कि चाहे विधि से और चाहे ना—विधि से, मंजिल तो एक ही है। तो फिर आप विधि खोज ही लेंगे, फिर विधि से आप नहीं बच सकते। क्योंकि विधि जुड़ी है मंजिल के साथ। फिर आप ना—विधि की बात ही नहीं सोच सकते। और मैं यह कह रहा हूं—......इसलिए वे कह सकते हैं कि जो मैंने कहा वही उन्होंने कहा; मैं नहीं कह सकता यह कि जो मैंने कहा वही उन्होंने कहा। वह तो बिलकुल ही उलटा है जो उन्होंने कहा हुआ है। यह मैं नहीं कह सकता यह बात, क्योंकि मैं बात ही और कह रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मेथड से भी पहुंच जाता है कोई, नो—मेथड से भी पहुंच जाता है। मैं यह कह रहा हूं कि मेथड वाला पहुंच ही नहीं सकता, क्योंकि मेथड हमेशा भविष्य की तरफ इंगित करता है, मंजिल की तरफ। नो—मेथड अपनी तरफ इंगित करता है। क्योंकि नो—मेथड में मंजिल का कोई उपाय नहीं है, जाइएगा कहां? रास्ता नहीं है कोई। रास्ता तो कहीं ले जाता है। वह हमेशा कहीं ले जाता है। और यहां कठिनाई यह हो गई है आत्मिक जीवन की कि यहां हमें कहीं जाना नहीं है, जहां हम हैं वहीं एक क्षण को भी हमें हो जाना है। तो किसी भी रास्ते पर हम गए तो हम भटके।
तो इधर लोग तो कहते हैं कि रास्ता पहुंचाता है, और मैं कहता हूं रास्ता मात्र भटकाता है। और सब मामले में बिलकुल ठीक है यह बात कि अगर आपको स्टेशन जाना है तो रास्ते से जाएंगे और बंबई जाना है तो रास्ते से जाएंगे। एक मामले भर में यह बात गलत है, अगर अपने पर आना है तो रास्ते से आप नहीं आ पाएंगे, क्योंकि रास्ते पर चलना ही दूर निकलने की शुरुआत हो गई।
तब क्या करें? तब सवाल यह उठता है करें क्या?
तो मेरा कहना यह है कि हम इस स्थिति को समझें ठीक से। यह पूरी सिचुएशन हमारी समझ में आ जाए कि ऐसा उलझाव है, अगर रास्ता पकड़ा तो भटक गए।

 वे ऐसा ही समझाते हैं— अंदर जाने के लिए भी रास्ता है।

 यह जो कठिनाई है न, असल में मजा यह है कि रास्ता मात्र बाहर जाने का होता है, क्योंकि अंदर तो हम हैं।

 वे ऐसा ही समझाते हैं।

 जो कठिनाई है.. .ऐसा तो है नहीं कि हम बाहर हो गए हैं और अंदर आना है। अगर इसको ठीक से हम समझें तो ऐसा तो हो नहीं गया है कि हम बाहर हैं और हमें अंदर आना है। हम तो अंदर हैं हां,  इसमें कोई उपाय ही नहीं है बाहर होने का। यानी इसमें अगर कोई उपाय भी होता तो फिर उलटा उपाय भी होता। यानी आप क्या करके बाहर हो सकते हैं, मुझे बताइए? आप बाहर हो कैसे सकते हैं? आप जहां भी जाएंगे, भीतर ही होंगे। बाहर जाने का तो कोई उपाय नहीं। लेकिन बाहर की कल्पना भर हो सकती है। आप जा नहीं सकते बाहर।
आप यहां बैठे हैं, आप कलकत्ता नहीं जा सकते; लेकिन कलकत्ता जाने का सपना देख सकते हैं, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। आंख बंद करके आप कलकत्ते जा भी सकते हैं—इस अर्थ में कि विचार चला जाए। आप लेकिन फिर भी यहीं होंगे। आप होंगे यहीं, आप होंगे अपने भीतर ही।
तो समझने की बात यह है कि हम भीतर तो हैं हां,  इसलिए भीतर जाने का सवाल नहीं है। हम बाहर किन—किन रास्तों से चले गए हैं, उन रास्तों को छोड़ देने का सवाल है। जो प्रॉब्लम है असल में, अगर मैं इसी कमरे में बैठा हुआ हूं तो मुझे इसी कमरे में आना नहीं है, सवाल सिर्फ यह है कि मुझे यह कमरा मिट गया है और मुझे कलकत्ता दिखाई पड़ रहा है। तो मैं विचार की किसी यात्रा से कलकत्ता पहुंच गया हूं। हूं इसी कमरे में, लेकिन एक अर्थ में कलकत्ते में हूं यह कमरा मुझे दिखाई ही नहीं पड़ रहा, मैं कलकत्ते की स्टेशन पर खड़ा हुआ हूं वह स्टेशन मुझे दिखाई पड़ रही है। तो मेरे सामने सवाल है कि मैं अपने घर कैसे वापस लौट जाऊं? अगर सच ही मैं कलकत्ता पहुंच गया होता तो कोई ट्रेन पकड़नी पड़ती, कोई कार पकड़नी पड़ती, कोई रास्ता पकड़ना पड़ता। अगर सच ही कलकत्ता पहुंच गया होता तो फिर इस कमरे तक आने के लिए कोई रास्ता पकड़ना ही होता। लेकिन चूंकि मैं सच में पहुंचा नहीं हूं सिर्फ ड्रीम कर रहा हूं इसलिए आने के लिए न कोई रास्ता... और अगर मैंने रास्ता पकड़ा तो और भटकाने वाला होगा, क्योंकि ड्रीम में पकड़े गए रास्तों का क्या मतलब हो सकता है?
सिर्फ सवाल इतना है कि मैं इस तथ्य के प्रति जाग जाऊं कि मैं तो भीतर हूं हां,  सिर्फ मेरा विचार बाहर चला गया है और मैं कभी अपने भीतर के बाहर नहीं गया। तो फिर अब सवाल क्या है?
अब सवाल यह रह गया है कि विचार न जाए। और विचार चला क्यों गया है?
मैंने भेजा है इसलिए चला गया है। और मैंने भेजा इसलिए है कि कलकत्ते में कुछ मिलने को है जो यहां नहीं मिल रहा है, इसलिए चला गया है। कोई आकांक्षा है जो वहां तृप्त होती, यहां तृप्त नहीं हो रही है, इसलिए चला गया है।
विचार चला गया है वासना के वाहन पर बैठ कर और हम वहीं हैं। यानी यह जो बेसिक टुथ अगर खयाल में आ जाए कि हम वहीं हैं, वासना के वाहन पर बैठ कर विचार चला गया है।
समझ लें, एक आदमी यहां बैठा है, कलकत्ते में विचार है। अब वह कहता है, मैं कैसे घर लौटूं? तो उसको हम कहें कि तुम हवाई जहाज पकड़ो और लौट जाओ! तो वह कहां जाएगा? कहां का हवाई जहाज पकड़ेगा? वह जितना कलकत्ता झूठा है, उतना ही कलकत्ते में पकड़ा गया हवाई जहाज होगा। कलकत्ते में वह है ही नहीं आदमी। वह जितना झूठा हवाई जहाज होगा, उतनी झूठी टिकट होगी, उतना ही झूठा हवाई जहाज का पायलट होगा, उतना ही हवाई जहाज तक पहुंचाने वाला गाइड होगा। क्योंकि कलकत्ता में होना चूंकि बुनियादी रूप से झूठा है, इसलिए अब कलकत्ते में जो भी किया जाएगा वह सच तो हो नहीं सकता, वह झूठ ही होगा। और झूठ लौटाने वाला नहीं होता।
इसलिए सवाल सिर्फ इतना है कि हमें यह जानना है.. .यह हमें आना नहीं है अपने भीतर, आते तो हम तब जब हम बाहर चले गए होते। हम भीतर हैं, आना हमें है नहीं, गए हम हैं नहीं, सिर्फ विचार हमारा बाहर चला गया है। विचार न हो जाए, हम फौरन पाएंगे कि हम भीतर हैं। जैसे कि आप बैठे दिवा—स्वप्न में खो गए कि कलकत्ते थे और मैंने आपको आकर हिला दिया, तो आप कलकत्ते में थोड़े ही
जोगे, आप जगेंगे यहां! और कलकत्ते से लौटने के लिए कोई वाहन काम में नहीं आएगा, कोई जरूरत नहीं वाहन की।
यह जो बुनियादी सत्य है कि हम कभी अपने से बाहर गए ही नहीं हैं! हम जिसके बाहर जा सकते हैं, वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। जो हमारा बुनियादी स्वरूप है उससे हम बाहर जा कैसे सकते हैं? लेकिन हम गए हुए मालूम पड़ते हैं। एक तो भूल यह हो गई है कि हम गए हुए मालूम पड़ते हैं, एक झूठ यह हो गया। अब दूसरा झूठ इसमें यह पालना है कि हम लौटें कैसे? तो मेथड, रिलीजन, पूजा, रिचुअल, ये सब हम पकड़ेंगे। ये लौटने के रास्ते हम पकड़ रहे हैं।
अब यह बड़े मजे की बात है कि जिस आदमी का जाना ही भूल भरा है, उसके लौटने की क्या बात है? उस आदमी को सिर्फ इतनी बात के प्रति सजग करना जरूरी है कि तुम कहीं गए ही नहीं हो, अनंत काल से तुम वहीं हो। लेकिन अनंत काल से तुम्हारा चित्त भटक रहा है, कल्पना भटक रही है, ड्रीम में तुम खो रहे हो। तो कृपा करो, थोड़ी देर के लिए ड्रीम मत लो, थोड़ी देर के लिए सोचो मत, थोड़ी देर को वहीं हो जाओ जहां हो। तो तुम पा लोगे, जो पाया ही हुआ है।
इसलिए सवाल मेथड का नहीं है, नो—मेथड का है। क्योंकि मेथड ले जाने वाला है, रास्ता ले जाने वाला है। इसलिए पाथ का सवाल नहीं है, नो—पाथ का सवाल है। गुरु कहीं पहुंचाने वाला है। हमें कहीं पहुंचना ही नहीं है, हम वहीं हैं। कौन गुरु हमको वहां पहुंचा सकता है? इसलिए गुरु की कोई जरूरत नहीं है, इसमें गुरु का कोई सवाल नहीं है। गुरु तो उसी ड्रीम—लैंड का हिस्सा है जिसमें हम भटकने को सच मानते हैं, फिर हम ले जाने वाले को भी सच मानते हैं। फिर उसके चरण को छूते हैं, फिर उसको गुरु मानते हैं। और वह जो हमको ले जा रहा है, वह कहां ले जाएगा हमको? क्योंकि कलकत्ते में हम हैं नहीं।
मेरी जो सारी बात है वह कुल इतनी है कि बीइंग हमारा सदा वहीं है जहां है और चित्त हमारा सदा वहां है जहां हम नहीं हैं। ऐसे चित्त में और हमारे बीच में एक फासला पड़ गया है। यह फासला बिलकुल काल्पनिक है। यह वास्तविक डिस्टेंस अगर होता, तो बिलकुल ही रास्ते की जरूरत पड़ जाती। लेकिन यह फासला बिलकुल झूठा है।
इस फासले को मिटाने के लिए कुछ और करने की जरूरत नहीं, यह जो चित्त के जाने की आदत है, इसको समझने की जरूरत है—कि क्यों, जाता क्यों है बाहर? क्यों जाता है?
जाता है इसलिए कि वहां कुछ मिल जाएगा। फिर एक गुरु आता है, वह कहता है, अगर मोक्ष पाना है.. .तो वह एक नई डिजायर पैदा करवा रहा है। वह यह कह रहा है, मोक्ष वहा है। संसार की चीजें तो यहीं मिल जाएंगी जमीन पर, वह मोक्ष यहां जमीन पर भी नहीं है। वह वहां, सिद्ध—शिला बहुत दूर है उसकी, वहां मोक्ष है। वह तुम्हें पाना है? वहां शांति है, वहां आनंद है, वहां परम अमृत बरस रहा है। आपका लोभ जगा, ग्रीड जगी। हुआ क्या आपके भीतर? आपके भीतर लोभ जगा कि ऐसी शांति मुझे भी चाहिए, ऐसा आनंद मुझे भी चाहिए, यह मोक्ष मुझे भी चाहिए।
और मजा यह है कि लोभ ही आपको बाहर ले जाने का माध्यम था। और आपने कहा, मुझे मोक्ष भी चाहिए, रास्ता बताओ! तो अब मोक्ष बिलकुल अंधेरे की बात है। इसलिए उसमें सब तरह के गुरु चल सकते हैं। उसमें किसी गुरु को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता। क्योंकि उसमें कहीं जाने को कुछ होता, तो उसमें अब तक एक गुरु जीत गया होता, उसमें कोई दिक्कत न थी। क्योंकि कहीं न कहीं हमने एक पक्की बात पकड़ ली होती कि भई यह रास्ता है। जैसे विज्ञान है, उसमें गुरु जीत जाता है एक, बाकी हार जाते हैं। क्योंकि मामला रियलिटी से संबंधित है। अब यह जो मोक्ष की आपकी आकांक्षा जग गई, लोभ जग गया— और शांति चाहिए, आनंद चाहिए, सौंदर्य चाहिए—लोभ जग गया, अब आप चले, और लंबी यात्रा पर निकले।
तो इस जमीन की यात्राएं तो फिर भी वास्तविक हैं, यह एक ऐसी यात्रा पर आप जा रहे हैं जहां बिलकुल अंधा खेल है, जहां गुरु जो कहेगा.. .इसलिए गुरु कहता है, ओबिडियस चाहिए, शक नहीं चाहिए, डाउट नहीं चाहिए। क्योंकि डाउट और ओबिडियंस, अगर ओबिडियस नहीं है और डाउट है, तो आपको गुरु कहीं ले जा नहीं सकता एक इंच। इसलिए पहले इनका इंतजाम करता है—कि शक किया कि भटके, संदेह किया कि गए। आशा पूरी! गुरु जो कहे वह परम सत्य है। तुम जानते नहीं हो, हम जानते हैं। तो हम जो बताते हैं, तुम उस पर शक कैसे कर सकते हो? तुम जानते ही नहीं हो। जब तुम जान लोगे तब ठीक है। हमारे पीछे आओ! अब यह एक अंधेरा रास्ता शुरू हुआ, क्योंकि जहां हम गए नहीं थे, वहां से यह आदमी हमको लौटाने का रास्ता बताने लगा।
एक बात भर अगर ठीक से खयाल में आ जाए तो सवाल सिर्फ इतना है कि हमने जो विचार की किरणें बाहर भेज दी हैं, वे हमारी वापस लौट आएं। और वापस लौटने के लिए भी कुछ होना नहीं है, कि वे लौटेंगी सच में वापस। क्योंकि सच में लौटने की बात नहीं है। सिर्फ कल्पना में हम चले गए हैं। और कल्पना इसलिए चली गई है कि वह लोभ पर सवार हो गई है। और फिर लोभ पर सवार हो रही है—मोक्ष, स्वर्ग, मुक्ति —फिर लोभ पर सवार हो रही है। और इसी लोभ का शोषण कर रहा है गुरु। गुरु जो है वह लोभ का शोषण कर रहा है।
इसलिए जिनकी धन की तृप्ति हो जाएगी, वे फिर धर्म के लोभ में पड़ जाएंगे। क्योंकि अब यह तो मिल गया, अब ठीक है, अब मोक्ष भी चाहिए। वह लोभ का शोषण कर रहा है गुरु। वह कह रहा है कि हम तुम्हें दिलवा देंगे जो चीज तुम्हें चाहिए। और इसीलिए मैं कहता हूं सब गुरुडम भ्रांत है और खतरनाक है। ऐसा नहीं है कि कोई अच्छा गुरु होता है और कोई बुरा होता है, ऐसा नहीं; गुरु मात्र गड़बड़ है।
और दूसरी बात, बहुत सी बातें एकदम से इस खयाल में न आने की बड़ी मुश्किल हो जाती है। अब जैसे कि कोई भी एक टेक्‍नीक है, कोई भी टेक्‍नीक है, करेंगे क्या टेक्‍नीक में? मन कुछ करेगा, कुछ भी करे! अगर राम—राम, राम—राम, राम—राम, राम—राम.. .वही सिखाते हैं कि इसको जपो। अल्लाह वाला है तो अल्लाह, और जीसस वाला है तो जीसस। इसकी कोई फिकर नहीं करते, जो तुम्हारा नाम है वही जपो। उसको जोर से जपते रहो, जपते रहो। इस पूरे जपने की प्रक्रिया में किसी भी एक शब्द पर अगर आदमी का मन ठहरा लिया जाए तो मूच्‍र्छित हो जाता है। हिप्नोसिस की तरकीब ही इतनी है कुल जमा। तो इससे आप अपने पर नहीं आते हैं। कलकत्ता तो चला जाता है, आप अपने पर नहीं लौटते, आप मूर्च्छा में चले जाते हैं। यानी स्वप्न से निद्रा में चले जाते हैं आप, स्वप्न से जागरण में नहीं आते। क्योंकि कोई भी पुनरुक्ति... अब वे बड़ी उलटी बात कर रहे थे.. .कोई भी पुनरुक्ति डल करती है दिमाग को। और इसलिए हम सबका दिमाग धीरे— धीरे डल होता जाता है, क्योंकि हमें चौबीस घंटे पुनरुक्ति करनी पड़ती है— रोज वहां,  रोज वहां,  रोज वही। उससे डलनेस आती चली जाती है। और जो ताजगी है मस्तिष्क की वह खत्म होने लगती है, क्योंकि सब रूटीन हो जाता है।
इसलिए नये का हमें इतना आनंद होता है। आप अगर अहमदाबाद से ऊब गए हैं तो पहलगांव अच्छा लगता है। उसके अच्छे लगने का कारण पहलगांव कम है, अहमदाबाद ने डलनेस पैदा कर दी, रिपीटीशन, रोज—रोज वहां,  उससे आप ऊब गए। लेकिन यहां जो रह रहा है, उसको पहलगांव में कोई आनंद नहीं आ रहा। वह सोच रहा है कि कब अहमदाबाद देख ले, बंबई देख ले, पूना देख ले। और जिस दिन देखेगा, इतना ही आनंदित होगा जितना आप हुए हैं। क्योंकि उसकी यह रूटीन हो गई थी, उसको यह डल हो गया था, अब इसमें कुछ देखने की बात न थी, सब वही था—रोज वही सूरज था, रोज वही चांद था, रोज वही पहाड़ थे, रोज वही दरख्त थे। आपने भी पहले दिन जैसे दरख्त देखे होंगे, आज नहीं देखे होंगे। वह बात गई। अब वह रिपीटीशन हो गया। माइंड डल हो जाता है फिर रिपीटीशन से। ऐसा भी हो सकता है कि इस पहाड़ पर रहने वाला आदमी अब पहाड़ को देखता ही न हो। यह कोई कठिन बात नहीं है। आप भी यहां रह जाएंगे चार—छह महीने तो पहाड़ फिर नहीं दिखाई पड़ेगा और न पौधे दिखाई पड़ेंगे, माइंड डल हो जाएगा, रिपीट हो गई बात।
नये के प्रति माइंड जगता है और पुराने के प्रति डल हो जाता है। फिर, हम जो भी करते हैं, वह सभी तो रिपीटीशन हो जाता है। सभी रिपीटीशन हो जाता है। कुछ भी करेंगे तो रिपीट करेंगे। रिपीटीशन में वह सब डलनेस आ जाएगी।
और मजे की बात यह है कि अगर हम कुछ न करें, सिर्फ हों, तो चूंकि वहां हम कुछ करते ही नहीं, इसलिए रिपीट करने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह अनरिपीटेबल एक्सपीरिएंस है। क्योंकि हम कुछ करते ही नहीं जिसको हम रिपीट कर सकें। कुछ करते तो रिपीट हो सकता था। हम कुछ करते ही नहीं; हम सिर्फ होते हैं। तो एक रिजर्वायर हो जाता है माइंड का। कहीं नहीं जा रहा बाहर। जैसे कोई झरना कहीं नहीं जा रहा, ठहर गया। चारों तरफ बांध है, झरना एक झील बन गया। कहीं जा नहीं रहा, कहीं जाने की कोई बात ही नहीं। शांत झील है, एक लहर भी नहीं है। तो सारी शक्ति, सारी ताजगी, सारा युवापन उस स्थिति में पैदा हो जाएगा। वह युवापन, वह शक्ति, वह डायनेमिक फोर्स क्रिएट करेगी बहुत कुछ, लेकिन तब आप आकुपाइड नहीं होंगे। वह क्रिएट करेगी। वह उसका आटोमेटिक है। जैसे वृक्ष से फूल आ रहा है, ऐसा आपसे भी चीजें आएंगी। लेकिन आप फिर उनको कर नहीं रहे हैं, वे हो रही हैं। और जब हो रही हैं, तब आपके मन का बोझ गया, तब आपके मन पर कोई बोझ नहीं है, कोई भार नहीं है। ऐसी स्थिति में जो अनुभव होगा, वह अनुभव तो मुक्ति का है, निर्भार होने का है।
लेकिन चाहें तो इस तरह की शांति के झूठे अनुभव पैदा कर सकते हैं। और मन की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह झूठे अनुभव प्रोजेक्ट कर सकता है। कोई भी अनुभव, वह चाहे तो प्रोजेक्ट कर सकता है।
केदारनाथ हिमालय में थे कोई तीस वर्ष तक। और तीस वर्ष में उनको पक्का अनुभव हो गया कि भगवान के दर्शन हो गए हैं। भगवान रोज दिखाई पड़ने लगे, बातचीत होने लगी, सब दर्शन हो गया। शक का कोई उपाय भी न था। जब सामने ही भगवान दिखते हों तो अब और क्या संदेह करना! बात होती हो, चीत होती हो। और अकेले थे! फिर वहां से लौटे। लौट कर उन्हें एक, नीचे आकर, क्योंकि जो भगवान उन्हें दिखते थे, उनके पड़ोसी को तो नहीं दिखते थे। तो उन्हें एक शक पकड़ा कि कहीं यह मेरा इल्‍यूजन ही तो नहीं है सिर्फ, यह जो मैं देख रहा हूं? तीस साल निरंतर भूखे—प्यासे, इसी—इसी की धारणा करने से कहीं दिखाई तो नहीं पड़ने लगा? तो उन्होंने कहा कि वह जो अभ्यास करता रहा हूं उसे छोडू कुछ दिन के लिए, और फिर भी अगर ये दिखाई पड़ते रहें तो समझूंगा कि अभ्यासजन्य नहीं हैं, सच में हैं। लेकिन अभ्यास गया कि भगवान गए। वह तो अभ्यासजन्य हैं।
एक सूफी फकीर को मेरे पास लाया गया। तो वह, सबमें भगवान दिखाई पड़ते हैं उसे—पौधे में, पत्थर में—सबमें भगवान दिखाई पड़ते हैं। चलता भी है रास्ते पर तो सब तरफ भगवान को ही देखता हुआ, बड़ा आनंदित! मेरे पास उसे कुछ मुसलमान लेकर आए। उन्होंने कहा कि ये बहुत अदभुत फकीर हैं! सब तरफ भगवान ही भगवान, कण—कण में वही दिखाई पड़ते हैं।
मैंने उनको कहा कि ये आपको अचानक दिखाई पड़े या आपने कोई इंतजाम और योजना की थी? उन्होंने कहा कि अचानक तो कुछ भी नहीं हो सकता। और अचानक का भरोसा भी नहीं किया जा सकता। जैसा अभी महेश जी ने कहा, अचानक का भरोसा भी नहीं किया जा सकता। तो व्यवस्था की मैंने, साधना की, एक—एक चीज में भगवान देखना शुरू किया। फूल दिखे तो मैं कहूं भगवान है। लेकिन वह तीस साल पहले की बात है। फिर निरंतर अभ्यास करते—करते, करते—करते दिखाई पड़ने लगा। अब तो भगवान मुझे सब जगह दिखाई पड़ता है।
तो मैंने उनसे कहा कि आप तीन दिन मेरे पास रुक जाएं और अभ्यास बंद कर दें।
उन्होंने कहा, अभ्यास मैं कैसे बंद कर सकता हूं?
मैंने कहा, अब भी आप अभ्यास बंद नहीं कर सकते, जब कि भगवान दिखाई पड़ने लगा सब तरफ? तो अब भी आपके अभ्यास पर ही निर्भर है उसका दिखाई पड़ना? यानी अभी भी वह दिखाई नहीं पडा है।

 मेटल प्रोजेक्‍शन है?

 हां, प्रोजेक्‍शन है। तो उन्होंने कहा कि नहीं—नहीं, ऐसा नहीं, मुझे तो दिखाई पड़ने लगा है।
तो मैंने कहा, तीन दिन रुक जाएं।
तो वे तीन दिन मेरे पास रुक गए। शायद दूसरे दिन की रात को ही कोई दो बजे रात उन्होंने रोना शुरू किया। तो मैं उठ कर गया, मैंने कहा, क्या हुआ?
वे तो बहुत चिल्लाने लगे कि मेरा सब बर्बाद कर दिया! सब मेरा नष्ट हो गया! और मैं कैसे आदमी के पास आ गया, किन कर्मों के फल की वजह से मैं आपके पास आया। मेरा तो सब खो गया। कोई डेढ़ दिन से अभ्यास नहीं किया तो मुझे कुछ नहीं दिखाई पड़ता। फूल फूल दिखाई पड़ता है, पत्ता पता दिखाई पड़ता है, मेरा सब अनुभव नष्ट हो गया।
मैंने उनको कहा कि जो अनुभव तीस साल साधने से दिखा और डेढ़ दिन न साधने से खो जाए, उस अनुभव का मतलब समझते हैं? वह आपका प्रोजेक्‍शन है, जिसको कांसटेंटली प्रोजेक्ट करते रहो तो ही खड़ा रह सकता है, नहीं तो खड़ा नहीं रह सकता। आपने, जैसे कि हम फिल्म प्रोजेक्ट कर रहे हैं, तो वहां पर्दे पर कुछ है तो है नहीं, वह हम प्रोजेक्ट कर रहे हैं तो है। और एक सेकेंड को यहां प्रोजेक्‍शन का बंद किया काम कि वहां फिल्म नदारद हुई, वहां पर्दा खाली हो गया। जैसे पर्दे पर हम कुछ चीजें देख सकते हैं, वैसे ही मन के पर्दे पर प्रोजेक्ट कर सकते हैं। लेकिन जब तक वह जारी रहेगा, तब तक वे दिखाई पड़ती रहेंगी।
अब मेरा कहना यह है कि वह दिखाई पड़ना चाहिए जो हमारे अभ्यास पर निर्भर न हो। इसलिए मैं सिस्टम का विरोधी हूं क्योंकि सिस्टम हमारी होगी, टेक्‍नीक हमारा होगा।
वह महेश जी ने जो कहा, उन्होंने ठीक कहा कि यह ज्यादा सेफर है, सुरक्षित है, व्यवस्थित है, सब गणित का हिसाब है। इसको ऐसा करोगे तो ऐसा होगा। और यह बिलकुल ठीक कह रहे हैं वे, ऐसा करोगे तो ऐसा होगा।
लेकिन वह जो होगा, वह इस करने पर निर्भर है, वह इसकी बाइ—प्रोडक्ट है। वह ऐसा कर रहे हैं, इसीलिए हो रहा है। यानी यह ऐसा है जैसे कि मैंने शराब पी और मुझे बड़े—बड़े फूल दिखाई पड़ने लगे और मैंने आपसे कहा कि आप भी शराब पीओ तो आपको भी बड़े—बड़े फूल दिखाई पड़ेंगे। अगर न दिखाई पड़े तो मुझसे आप कहना। आपने भी शराब पी है और आपको भी बड़े फूल दिखाई पड़े। और आपने कहा कि बिलकुल ठीक कहते थे, फूल बड़े दिखाई पड़ते हैं, फूल बड़े हैं।
शराब ने अगर फूल बड़े दिखा दिए तो फूल बड़े नहीं होते, शराब सिर्फ आपकी स्टेट ऑफ माइंड को हिप्‍नोटिक कर देती है, कुछ और नहीं होता। सवाल यह नहीं है कि हम क्या देख लें। सवाल यह है कि क्या है? यह सवाल नहीं है कि हम क्या रियलाइज कर लें। सवाल यह है कि व्हाट इज? है क्या असल में? हमें कुछ नहीं रियलाइज करना है, हमें कुछ प्रोजेक्ट नहीं करना, हम कोई पक्का लेकर नहीं जाते कि हमको यह देखना है, यह अनुभव करना है, यह प्रतीति करनी है। पक्का करके जाएंगे तो सब हो जाएगा, क्योंकि माइंड का जाल इतना अदभुत है, खेल इतना अदभुत है कि माइंड सब चीजें दिखला देता है जो आप देखना चाहें। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
तो वह जो दो—तीन उनकी महिलाएं कह रही थीं कि हमको तो हो रहा है, वे ठीक कह रही हैं।

 वे समझते नहीं इल्‍यूजन है? ऐसा वे समझते नहीं,

 नहीं, वे समझ कैसे सकते हैं? वे समझ ही नहीं सकते न। वे समझ इसलिए नहीं सकते, और डर है समझने में, वह जो भय है वह भय यह है कि अगर यह समझा कि इल्‍यूजन है, तो गया यह अभी हाथ से सब। और अभी चला जाएगा उनमें से आधे का तो। आपको खयाल में नहीं है, वह आधे का गया, आज ही रात मुश्किल हो जाएगा उनका सोना। क्योंकि वह एक दफे खयाल भर आ जाए—कि कहीं यह इल्‍यूजन तो नहीं है? यह मैं नहीं कह रहा कि है हां,  मैं इतना ही खयाल दिला दूं कि कहीं इल्‍यूजन तो नहीं है! और इतना खयाल आपको पकड़ जाए, इल्‍यूजन कल सुबह ही नहीं आएगा। क्योंकि वह संदेह जो पड़ गया, वह इल्‍यूजन को काट देता है फौरन। वह कल सुबह ही दिक्कत पड़ जाएगी। गया वह। क्योंकि एक दफा डाउट आ जाए कि यह जो मैं देख रहा हूं है भी? बस!
वह तो अनडाउटिंग माइंड ही इल्‍यूजन क्रिएट कर सकता है। जो शक करता ही नहीं कभी, संदेह करता ही नहीं, वही इल्‍यूजन क्रिएट कर सकता है।
फिर, ये जो, ये इल्‍यूजन, इनके एक्सपीरिएंस, सब फाल्स हो सकते हैं अगर मेंटली प्रोजेक्टेड हैं। जैसे कि वहां अमरीका में और फ्रांस में कुवे का एक मत चलता है। फ्रेंच विचारक था—कुवे। तो वह कहता है, जो सोचो वही हो जाओ। वह कहता है कि अगर तुम बीमार हो, तो तुम सोचो कि मैं स्वस्थ हूं मैं स्वस्थ हूं मैं स्वस्थ हूं तो तुम स्वस्थ हो जाओगे। और बड़े मजे की बात यह है कि बीमारी नहीं मिटती है और आदमी स्वस्थ अनुभव करने लगता है। यानी जो आदमी कल चल नहीं सकता था सड़क पर, वह चलने लगेगा। जो आदमी कल बिस्तर नहीं छोड़ सकता था, बिस्तर छोड़ देगा। ताकत आती हुई मालूम पड़ेगी। वह बीमारी अपनी जगह खड़ी है, बीमारी कहीं गई नहीं। बीमारी अपनी जगह खड़ी रहेगी। और यह आदमी अगर खाट पर ही पड़ा रहता तो शायद बीमारी मिटा सकता था किसी वास्तविक इलाज से। अब यह बीमारी का इलाज भी नहीं करेगा। क्योंकि एक इल्‍यूजन में अब खड़ा हो गया कि मैं स्वस्थ हूं! कौन कहता है कि मैं बीमार हूं? कुवे कहता है, कोई तुमसे कहे कि बीमार हो, तो मानो ही मत। इनकार कर दो उसकी बात को। क्योंकि तुमने माना कि तुम बीमार हो जाओगे।
जरूर ऐसी बीमारियां हैं कि मानने से हो सकती हैं, लेकिन वे झूठी हैं। और ऐसा स्वास्थ्य भी है जो मानने से हो सकता है, वह झूठा है। और असली और नकली स्वास्थ्य में फर्क करना बड़ा मुश्किल है, कि आप माने बैठे हैं कि आप सच में स्वस्थ हैं।
तो मेरा कहना है, फर्क एक है. नकली स्वास्थ्य को आपको मान—मान कर पैदा करना पड़ता है, असली स्वास्थ्य को आपको मान—मान कर पैदा नहीं करना पड़ता। आप न मानो तो भी वह है। असली स्वास्थ्य जो है वह है, आपको मानना नहीं पड़ता। नकली स्वास्थ्य को मान—मान कर पैदा करना पड़ता है।
तो शांति भी पैदा की जा सकती है जो नकली है; स्वास्थ्य भी पैदा किया जा सकता है जो नकली है; प्रकाश भी पैदा किया जा सकता है; भगवान भी पैदा किए जा सकते हैं जो नकली हैं। और नकली का पैदा करना सरल है एकदम, क्योंकि माइंड उसके लिए एकदम राजी हो जाता है। वह माइंड के लिए बड़ा सरल है। असली को जानना कठिन है, क्योंकि उसके जानने के लिए माइंड को विदा करने की जरूरत है। और माइंड हमेशा सिक्योरिटी मांगता है। वह अगर इस कमरे में भी रात सोएगा, तो वह पता लगा लेगा कि सब ताले, दरवाजे बंद हैं, कोई खतरा तो नहीं है।
वह अगर कोई किताब भी पड़ेगा, तो पहले पक्का पता लगा लेगा कि किताब अच्छी है, कोई खराब बातें तो इसमें नहीं लिखी हुई हैं। वह अगर किसी गुरु को पकड़ेगा, तो पहले पचास लोगों से पूछ लेगा कि भई यह गुरु ठीक है, किसी को पहुंचाया है इसने। तो फिर मैं भी इसके पीछे जाऊं। माइंड जो है वह सिक्योरिटी मांगता है। क्योंकि वह डरता है कहीं मर न जाए। और मजा यह है कि अगर आप उसको सिक्योरिटी देते चले जाते हैं सब तरह की, तो वह मजबूत होता चला जाता है, सुरक्षित होता चला जाता है।
संन्यासी का मतलब है. जो कहता है, हम कोई सिक्योरिटी नहीं मांगते, हम इनसिक्योरिटी में जीते हैं। हम नहीं कहते कि कल कुछ मिलेगा कि नहीं मिलेगा। कल सुबह देखेंगे। यह आदमी बुरा है या भला, हम क्यों सोचें? बहुत से बहुत यह होगा कि रात बिस्तर ले जाएगा उठा कर तो ले जाएगा। यह मैं काहे के लिए निर्णय करूं कि यह आदमी कैसा है? हम कुछ सोचते ही नहीं। हम जीते हैं चुपचाप एक—एक क्षण में। इतनी इनसिक्योरिटी में जो जीता है, उसके ही माइंड में एक्सप्लोजन हो सकता है। क्योंकि माइंड फिर जी नहीं सकता, माइंड को मरना पड़ेगा। माइंड को चाहिए थी सुव्यवस्था, वह व्यवस्था खतम हो गई। वह कहता था, खीसे में पैसे लेकर चलो। वह कहता था, बैंक में इंतजाम रखो। वह कहता था, भगवान के पास भी पुण्य की व्यवस्था रखो। सब हिसाब करके रखो ताकि कुछ गड़बड़ न हो जाए। और जितना ज्यादा हिसाब, उतनी मृत चीज उपलब्ध होती है।
वे जो कह रहे थे न कि इतनी सेफ्टी, इतनी......तो बहुत लंबा हो गया था, कुछ बात करने का मतलब न था। वह जितनी सिक्योरिटी, जितनी सेफ्टी, उतना डेड आदमी। और जितनी इनसिक्योरिटी, जितनी जोखिम, जितनी रिस्क, उतना लिविंग आदमी। और मजा यह है कि भगवान के मामले में भी जोखिम लेने की तैयारी न हो, वहां भी हम पक्का ही करके चलें सब, तो फिर, फिर बहुत मुश्किल होगी।
भगवान का मतलब ही यह है, वह जो अननोन हमें चारों तरफ से घेरे हुए है। उसमें तो हमें कूद पड़ना पड़ेगा किनारे को छोड़ कर। किनारा सिक्योर था बिलकुल। वहां कोई खतरा न था। डूबने का कोई डर न था किनारे पर। किनारा बहुत सुरक्षित है। और किनारे पर जो खड़ा है वह जिंदगी भर खड़ा रह सकता है। लेकिन सागर का अनुभव तो उसी को मिलता है जो कूद जाए किनारे से। खतरा है वहां। खतरा है इसलिए जिंदगी है वहां। और हमारा मन चूंइक निरंतर यह मांग करता है कि सब व्यवस्थित, सिस्टेमैटिक होना चाहिए...
और बड़े मजे की बात यह है कि जिंदगी बिलकुल सिस्टेमैटिक नहीं है, जिंदगी बहुत अनार्किक है। और अनार्किक है इसीलिए लिविंग है।
आप फर्क कर लें! एक पत्थर बहुत सिस्टेमैटिक है, एक फूल उतना सिस्टेमैटिक नहीं है। फूल में जिंदगी है। पत्थर कल भी वहीं था, आज भी वहीं है, परसों भी वहीं होगा। और फूल सुबह वहां था, सांझ नहीं है। उसका कोई भरोसा नहीं है। अभी है, जोर की हवा चलेगी, गिर जाएगा। अभी है, सूरज निकलेगा, कुम्हला जाएगा। अभी है, वर्षा आएगी, मिट जाएगा। पत्थर वहीं होगा, पत्थर बहुत सिस्टेमैटिक है। कहना चाहिए, पत्थर बहुत कसिस्टेंट है, जैसा है वैसा ही सदा वहीं बैठा हुआ है। लेकिन पत्थर डेड है इसी अर्थों में। और फूल में एक लिविंग क्वालिटी है।
तो मेरा कहना यह है कि जिस व्यक्ति को जितने गहरे सत्य की तरफ जाना हो, उतने सुरक्षा के इंतजाम छोड़ कर जाना चाहिए। उसे जान लेना चाहिए कि खतरे में मैं जाता हूं। सुरक्षित तो जिंदगी यहीं है, वहां तो खतरा है। लेकिन जो परम खतरे में उतरने की तैयारी करता है, यह खतरे में उतरने की तैयारी ही उसके भीतर ट्रांसफामेंशन बन जाती है। क्योंकि इस खतरे में जाना, बदल जाना है। सब व्यवस्था छोड़ कर, सब सुरक्षा छोड़ कर जो उतर जाता है अनजान में, यह उतरने की तैयारी हां,  यह करेज ही उसके भीतर म्यूटेशन बनता है, उसके भीतर परिवर्तन हो जाता है। और जितनी बड़ी असुरक्षा में जाने को हम तैयार हैं, उतने ही हम वस्तुत: सुरक्षित हो जाते हैं, क्योंकि फिर कोई भय न रहा, फिर कोई डर न रहा।
यह जो सारा हमें लगता है न नाप—जोख कर चलना एक—एक इंच, उन्हीं सब नाप—जोख वालों ने तो स्वर्ग—नरक के नक्‍शे बना दिए हैं, योजन की दूरी बता दी है कि इतनी दूर फलानी जगह, ताकि पक्का रहे, कोई चीज अनजानी न रह जाए। लेकिन कुछ है जो अनजाना है निरंतर। और वही परमात्मा है। वही जीवन है जो अनजाना है। जो मृत है, वह कल उसके बाबत हम सुरक्षित हो सकते हैं। जो जीवित है, वह कल कैसा होगा, कुछ भी कहना मुश्किल है। जीवंत के साथ बड़ी कठिनाई है। और हम सब व्यवस्था जमा कर उसको मार लेते हैं।
और मजे की बात यह है कि जब भी सिस्टम बनाई जाए, तो वह झूठी हो जाती है। झूठी इसलिए हो जाती है कि उसमें कंट्राडिक्यांस बर्दाश्त नहीं किए जा सकते हैं। तो उसमें कंट्राडिक्यांस अलग कर देने पड़ते हैं। यानी वह ऐसा है, जैसे कोई पेंटर एक चित्र बनाए, तो वह काला रंग भी लाता है, सफेद रंग भी लाता है, और सफेद और काले को लाकर चित्र बना देता है। लेकिन वह कंट्राडिक्यान है। फिर एक पेंटर आए, वह कहे, भई, इसमें बहुत कंट्राडिक्यान है। कहीं सफेद, कहीं काला, यह कुछ भरोसे की बात नहीं मालूम पड़ती। या तो काला ही काला हो तो साफ मालूम होता है क्या है; या सफेद ही सफेद हो तो मालूम होता है क्या है। तो वह एक सफेद पेंटिंग बना दे, एक काली पेंटिंग बना दे। वे दो चीजें हो गईं, लेकिन दोनों में कोई पेंटिंग नहीं है। वे दोनों बिलकुल ही साफ—सुथरी हो गईं, विरोधी है ही नहीं उनमें कोई।
जिंदगी पूरे विरोध से मिल कर बनी है। सब चीज में विरोध है। इसलिए जो पूरी जिंदगी को समझने जाएगा, वह सब तरह के विरोधों को स्वीकार करेगा कि वे हैं। वे दोनों हैं वहां। और दोनों हैं और दोनों एक के ही रूप हैं। ऐसा अगर कोई कहेगा तो कट्राडिक्ट्री मालूम पड़ेगा कि यह तो बड़ी उलटी बात हो रही है।
जैसे कि समझ लें कि मैं कहता हूं कि उसे पाने के लिए कुछ भी नहीं करना है। लेकिन जो कुछ भी नहीं कर रहे हैं वे उसे पा लेंगे, यह मैं नहीं कहता। अब यह कट्राडिक्यान मालूम होता है न! यानी मैं यह कहता हूं कि उसे पाने के लिए कुछ भी करना नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो कुछ भी नहीं कर रहे हैं वे उसे पा लेंगे। अब यह बिलकुल कंट्राडिक्ट्री बात है। लेकिन अगर मेरी बात समझ में आए तो समझ में आ जाएगी।
जब मैं कहता हूं नॉट डूइंग एनीथिंग, तो इसका मतलब यह नहीं है कि डूइंग नथिंग। नॉट डूइंग एनीथिंग, इसका यह मतलब नहीं है कि डूइंग नथिंग। फिर तो कोई भी आदमी जो कुछ भी नहीं कर रहे हैं, सड़क पर चल रहे हैं, उनको मिल जाना चाहिए। यह मैं नहीं कह रहा हूं। सड़क पर चलने वाला भी कुछ कर रहा है। जिसको हम कहते हैं कुछ नहीं कर रहा है, वह भी कुछ कर रहा है। मंदिर में बैठा आदमी भी कुछ कर रहा है। संन्यासी भी कुछ कर रहा है। सच में ऐसी दशा में कोई भी नहीं खड़ा हो रहा है, जब कोई कुछ भी नहीं कर रहा है। कोई खड़ा हो जाए, तो पा ले।
लेकिन यह न करना, जैसा मैंने कहा कि बहुत कठिन है। कठिन, इसलिए नहीं कठिन है कि कोई टेक्‍नीक से सरल हो जाएगा। यह कठिन इसलिए है कि हमारी करने की आदत मजबूत है। और टेक्‍नीक इसे सरल नहीं बनाएगा, इसे होने ही नहीं देगा, क्योंकि टेक्‍नीक फिर करने की आदत को मजबूत कर देगा। यह जो मामला है सारा, यानी मैं जो कह रहा हूं कि यह जो न करना है.....जैसे उन्होंने कहा कि न करने को हम टेक्‍नीक के द्वारा करेंगे, तो सरल हो जाएगा, क्योंकि कठिन है।
कठिन मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि वह सरल हो सकता है। कठिन मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारे मन की आदत करने की है, न करने की उसकी आदत नहीं है। और टेक्‍नीक भी करना है। मन उसके लिए राजी हो जाएगा कि चलो, करते हैं। लेकिन करे कोई कितना हां,  करने से न करने पर कैसे पहुंच सकता है? डूइंग नॉन—डूइंग कैसे बन सकती है? वह तो किसी न किसी क्षण उसे जानना पड़ेगा कि डूइंग से नहीं होता। और डूइंग छूट जाएगी तो नॉन—डूइंग शेष रह जाएगी।
यह जो बहुत सारी कठिनाई न करने में ठहरने की है। तो कोई भी करना पकड़ा दिया जाए आपको कि राम—राम जपिए, तो आप ठहर सकते हैं, फिर कोई कठिनाई न रही। लेकिन वह बात ही खत्म हो गई। वह बात ही खत्म हो गई, वह न करने में ठहरना था। फिर कई दफा हमको बड़ी.. .जैसा उन्होंने कहा कि कोई सपना गहरा, कोई उथला। यह सवाल ही नहीं है। जैसे कोई आदमी कहे, एक आदमी ने दो पैसे की चोरी की और एक आदमी ने दो लाख की चोरी की, तो एक की चोरी छोटी और एक की चोरी बड़ी। अगर कोई ठीक से समझेगा तो चोरी छोटी—बड़ी हो सकती है? चोरी करना एक माइंड की बात है! चोर! वह दो पैसे चुराता है कि दो लाख, यह सवाल ही नहीं है बिलकुल। दो पैसे चुराने में जितना चोर होना पड़ता है, उतना ही दो लाख चुराने में भी होना पड़ता है। चोर! जो आंकड़ा है वह दो पैसे और दो लाख का है, चोरी का नहीं है। चोरी करने वाले का जो चित्त है वह बिलकुल समान है—चाहे वह दो पैसे चुराए, चाहे एक कंकड़ चुराए, चाहे दो करोड़ चुराए। कोई यह नहीं कह सकता है कि दो पैसे चुराने वाला छोटा चोर है, दो करोड़ चुराने वाला बड़ा चोर है। बड़े और छोटे चोर होते हैं कहीं? चोर होते हैं। छोटे और बड़े अवसर होते हैं, चोर छोटा—बड़ा नहीं होता। एक को दो पैसे चुराने का अवसर मिला है, एक को दो करोड़ चुराने का अवसर मिला है। चोर का माइंड है एक। चोरी छोटी—बड़ी नहीं होती।
एक आदमी सपना देख रहा है, साधारण सा, हलका—फुलका। एक आदमी बहुत गहरा सपना देख रहा है। ये जो फर्क हैं, ये फर्क इसी तरह के हैं जैसे दो पैसे की चोरी के और लाख की चोरी के। सपना सपना है, नींद नींद है, उसका टूटना टूटना है। इन दोनों के बीच में सच में ही कोई सीढ़ी नहीं है। सोया हुआ आदमी सोया हुआ आदमी है, जागा हुआ जागा हुआ आदमी है। इन दोनों के बीच कोई गैप नहीं है। और जिसमें सीढ़ियां पार करनी हों, कि यह आदमी थोड़ा जग गया है, यह आदमी थोड़ा और जग गया है, यह आदमी थोड़ा और जग गया है, ऐसा नहीं है। जाग जो है, उसकी काटिटी नहीं है कि छोटी—बड़ी हो सके। जाग! आप बिस्तर पर पड़े हैं, बाहर का आदमी कह सकता है कि यह आदमी थोड़ा सा जग गया, करवट बदलता है, आंख खोल कर देखता है। लेकिन आप पूरे जग गए हैं; पड़े रहें, यह दूसरी बात है। जाग ऐसी नहीं है कि थोड़े से जग गए हैं आप। जग गए हैं!
लेकिन आदमी को एकदम से यह बात कठिन मालूम पड़ती है। तो उसे स्टेप्स चाहिए। वह कहता है, सीढ़ियां बता दीजिए। तो पहली सीढ़ी, दूसरी सीढ़ी, तीसरी सीढ़ी, ऐसी सीढ़ियां बताइए। क्योंकि हमारी सामर्थ्य कम है, हम पूरी सीढ़ियों पर नहीं जाते, हम एक पर जाएंगे।
तो आदमी की यह मांग जो है, यह सीढ़ियां पैदा करवा देती है। और सीढ़ियां पैदा करने वाले हैं। जो जरा ही समझ का उपयोग कर सकते हैं, वे पचास सीढ़ियां बना दें। और तब वे सबको तृप्ति दे देते है—कि आप पहली सीढ़ी पर, वह दूसरी सीढ़ी पर, वह तीसरी सीढ़ी पर। सबको तृप्ति भी मिल रही है। लेकिन जहां सीढ़ियां होती ही नहीं हैं, वहां कहां पहली सीढ़ी? कहां दूसरी सीढ़ी? कहां तीसरी सीढ़ी?
अब मेरी दृष्टि में, अनुभूति सीढ़ियां चढ़ने जैसी नहीं है। अनुभूति छत से कूदने जैसी है। उसमें कोई सीढ़ियां होती ही नहीं। कूदा आदमी, बस! लेकिन हमारा मन चढ़ना चाहता है, यह भी ध्यान रखना चाहिए। अहंकार चढ़ने में रस लेता है, उतरने में रस नहीं लेता। अहंकार कहता है, चढ़ाओ कहीं ऊपर— और एक सीढ़ी, और एक सीढ़ी, और एक सीडी। वे सीढ़ियां किसी भी चीज की हों, अहंकार कहता है, ऊपर चढाओ। और इसलिए अहंकार मार्ग पकड़ता, पथ पकड़ता, टेक्‍नीक पकड़ता, गुरु पकड़ता, शास्त्र पकड़ता, सब पकड़ता। और धर्म कहता है, कूद जाओ! चढ़ने का यहां कहां उपाय है? यहां तो बिलकुल उतर जाओ आखिरी जहां उतर सकते हो। और उतरना भी हो सकता था अगर सीढ़ियां होतीं। उतरना है नहीं, क्योंकि सीढ़ियां हैं नहीं; कूद ही सकते हो, छलांग लगा सकते हो।
यह जो छलांग लगाने की हमारी हिम्मत नहीं जुटती है, तो हम कहते हैं, भई यह ज्यादा हो जाता है। तो थोड़ा सिम्पल करो, सरल करो। कोई टेल्मीक, कोई व्यवस्था, कोई विधि, जिसमें हम टुकड़े—टुकड़े में पा लें। एक खंड पहले पा लें, फिर एक खंड फिर पा लेंगे, इंस्टालमेंट में पा लें। वह हमारा खयाल होता है। वह इस्टालमेंट में मिलता नहीं।
और हर आदमी खोज रहा है— शांति खोज रहा है, सुख खोज रहा है, आनंद खोज रहा है। तो किसी आदमी को कहो, खोजो मत। तो वह कहता है, मर गए। क्योंकि जहां वह खड़ा है, वहां तो दुख ही दुख मालूम पड़ रहा है उसे। उसे लगता है कि अगर न खोजूं तो फिर गया; क्योंकि जो मैं हूं वहां तो दुख, चिंता के सिवाय कुछ भी नहीं है। और आप कहते हो, मत खोजो। तो फिर मैं गया। फिर क्या होगा?
लेकिन उसे पता ही नहीं है कि न खोजने की चित्त—दशा क्या है। न खोजने की चित्त—दशा उसने कभी जानी ही नहीं, वह सदा ही खोजता रहा है। कभी खिलौने खोजता था, कभी पदवियां खोजता था, कभी मोक्ष खोजता था। छोटा सा बच्चा खोजना शुरू कर देता है, मरता बुड्डा तक खोजता रहता है। एक क्षण को पता नहीं चलता उसे कि न खोजना क्या है। नो—सीकिंग क्या है। और तब वह कहता है, अगर नहीं खोजा तो गए। तो हम खोज तो रहे ही नहीं थे पहले से।
मेरे पास कोई आता है, वह कहता है, हम आपके पास इसीलिए तो आए कि आप हमें खोज पर लगा दें। खोज तो हम पहले से ही नहीं रहे थे, अगर मिलना होता तो तभी मिल जाता।
मैंने कहा, तुम खोज तो नहीं रहे थे, लेकिन कुछ और खोज रहे थे, यह नहीं खोज रहे थे। न—खोज न थी वह।
यह न—खोज बात ही अलग है। और जैसे ही न—खोज में कोई ठहर जाए, एक्सप्लोजन हो जाता है। वह जो उन्होंने पीछे कहा कि उनका कोई गुरु नहीं है। यह बात ठीक है, मेरा कोई गुरु नहीं है। लेकिन इस वजह से मैं गुरु को इनकार नहीं कर रहा हूं। और न इस वजह से इनकार कर रहा हूं कि चूंकि मैं नहीं बता सकता कि सिस्टम क्या है, इसलिए भी इनकार नहीं कर रहा हूं। सिस्टम बनाने से आसान कोई चीज है दुनिया में? आदमी थोड़ा सोच—विचार जानता हो, सिस्टम बनाने में क्या तकलीफ है? बहुत सरल सी बात है व्यवस्था बना लेना तो। बड़ी बात तो अव्यवस्था में उतरना है। व्यवस्था बनाना तो बड़ी ही सरल बात है। अव्यवस्था में उतरना, अनार्की में उतरना ही बड़ी बात है। और उतने रेवोल्‍यूशन का खयाल नहीं होता।
अब वे जितने लोग थे, उन सबको जो कठिनाई हो रही है, वह कठिनाई बहुत गहरी है। वह कठिनाई यह नहीं है, वे सब डिफेंस में लगे हुए हैं। वह सारा जो पूरा वक्त है, वे एकदम डिफेंस में लगे हुए हैं। क्योंकि गए, अगर यह बात ठीक है, तो यह गुरु और यह साधना और यह जो चल रहा है, यह सब गया। तो वे डिफेंस में लगे हुए हैं पूरे वक्त कि नहीं, यह बात ठीक नहीं हो सकती, यह हम मान नहीं सकते। इसको हम कैसे मान सकते हैं? समझने का सवाल नहीं है। यह डिफेंस चल रहा है पूरे वक्त माइंड में। समझने का सवाल हो तो एकदम से बात दिखाई पड़ जाए। और इसलिए मेरी बात थोड़ी कठिन तो है। थोड़ी कठिन इसीलिए है कि हमारा माइंड जो चाहता है, वह मैं नहीं दे रहा हूं। और वह मैं दे नहीं सकता, क्योंकि उसे देना माइंड को परिपुष्ट करना है, उसे मजबूत करना है। और वह टूटना चाहिए, मजबूत होना नहीं चाहिए।

 ओशो वह डूइंग और अनडूइंग यह जो आप बात कर रहे है?ं और क्रिया और अक्रिया में आप और जैसा कील और एक्सेल इन तीनों में भीतर से और बाहर से ऐसा लगता है कि जो नॉन—डूइंग है: तो बाहर से कुछ नहीं है? लेकिन सचमुच तो आप ऐसा बोल रहे हैं कि बाहर से मैक्सिमम क्रिया होगी और भीतर से........

 बाहर की क्रिया का कोई संबंध ही नहीं है।

 संबंध ही नहीं है?

हां, संबंध ही नहीं है।

 ओशो लेकिन समझने में जब आप नॉन—डूइंग बोलते हैं तो खयाल ऐसा आ जाता है कि नॉन— डूइंग का मतलब नॉन—डूइंग। इम्प्रेशन ऐसा क्रिएट हो रहा है।

 हां,  समझा मैं, बिलकुल गलत हो जाता है। असल में जो व्यक्ति भीतर जितना डूइंग में उलझा हुआ है, बाहर की उसकी डूइंग उतनी ही कमजोर होगी, क्योंकि उसकी शक्ति तो बंट रही है इस धंधे में, भीतर यह जो दिमाग में चल रहा है।

 ओशो डूइंग कमजोर होगी कि जो मानने की है लेकिन जैसे कील है कील तो बाहर का फिरता ही रहेगा।

 हां—हां, वह तो फिरता ही रहेगा, और तेजी से फिरेगा, मैक्सिमम फिरेगा, पूरा मैक्सिमम फिरेगा। क्योंकि जितना ही आप भीतर नॉन—डूइंग में उतर गए, उतना ही आपके चारों तरफ डूइंग का बहुत तीव्र भाव होगा। और तब आपके लिए डूइंग एक, जिसको हम कहें, एक्सप्रेशन होगा, एक पागल नीड नहीं होगी। आपकी डूइंग, आपके भीतर जो हुआ है, उसको क्रिएट करने, बांटने का एक्सप्रेशन होगा। बहुत रूपों में होगा। वैसा आदमी चौबीस घंटे सक्रिय होगा। लेकिन भीतर बिलकुल निष्क्रिय होगा, भीतर कुछ भी नहीं होगा।

 ओशो लेकिन जब आप नॉन—डूइंग बोलते हैं तब लोग का खयाल हो जाता है कि नॉन—डूइंग में सपने जो देखता है कि क्रिया और के— क्रिया ऐसा ही जरा इम्प्रेशन हो जाता है।

 कई दफा हो जाता है। कई दफा खयाल हो जाता है,, कई दफा खयाल हो जाता है। बाहर की डूइंग से कोई वास्ता ही नहीं है। और मजा यह है कि कई लोग बाहर की डूइंग छोड़ कर भाग जाते हैं और भीतर की डूइंग जारी रखते हैं। लेकिन बाहर तो कोई संन्यासी हो जाता है दुकान छोड़ कर, लेकिन भीतर का काम जारी रखता है। वह जारी रहता है पूरे वक्त। कठिन है, लेकिन एक दफा खयाल में आ जाए।

 ओशो बी स्टिल का क्या खयाल है जीसस का?

 जीसस का खयाल बिलकुल वही है जो मैं कह रहा हूं। जीसस यही कह रहे हैं कि बी स्टिल। बी स्टिल का असल में जो मतलब है वह यह है कि कोशिश मत करो स्टिल होने की, जस्ट बी स्टिल!
हां, अगर स्टिल होने की कोशिश करो, तकनीक लगाओ और साधन, प्रोसेस लाओ, तब अभी तो स्टिल नहीं हो, अभी शांत नहीं हो। तो शांत कैसे हो जाओगे? तो शांत होने के लिए कुछ करो और करके तुम शांत हो जाओगे। और मजा यह है कि हम अशांत इसलिए हैं कि हम कुछ कर रहे हैं। यह जो प्रॉब्लम है, इसलिए है।
जीसस जो कहते हैं, बी स्टिल, वे कहते हैं कि बहुत मुश्किल मामला है। महेश जी तो बिलकुल नहीं समझे। वह तो इस जल्दी में बात की है कि किसी तरह मैं उनको समझा दूं कि दोनों एक बात हैं। किसी तरह मैं बता दूं कि ये दोनों बातें एक ही हैं। उस कोशिश में पूरे वक्त उनका मन लगा हुआ था। और उनकी— हमारी बात का तालमेल ही कहां? कोई भी तालमेल नहीं है। यानी इससे ज्यादा उलटी बात ही नहीं हो सकती। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उनको वही पहुंच जाए जो मैं कह रहा हूं।
मगर वह एक तो सब मन में भरा होता है, पूरा का पूरा तैयार है; और उससे अन्यथा को तो बहुत कठिनाई है। और फिर शिष्यों के सामने तो और भी बहुत कठिनाई है। छोटा मामला नहीं है। यह जो बड़ा मकान बना कर आदमी खड़ा होता है न, तो सब गिर जाएगा कि आप जाकर कहते हैं कि मकान है ही नहीं, तो मानने का सवाल ही नहीं है। समझें तो भी समझना भी मुश्किल मामला है। और शब्दों में ऐसा मजा है कि जितनी गहरी बात हो, उतना ही शब्दों में कहना मुश्किल हो जाता है। और जैसे ही कहते हैं, वैसे ही शब्द कट्राडिक्ट्री हो जाता है। अब जैसे बी स्टिल है, अब इसका मतलब कुल इतना ही है।
जीसस के जीवन में एक उल्लेख है। वे एक नाव पर हैं गैलीली नाम की झील में और कुछ मित्र साथ हैं। गैलीली की झील में नाव पर वे सो गए हैं। झील में तूफान आ गया है बहुत जोर से। सारी नाव डूबने के करीब होने लगी है। मित्रों ने उन्हें जगाया कि क्या सो रहे हैं, हम मरे जाते हैं! तो उन्होंने कहा, जाओ, कह दो झील से कि शांत हो जा! और फिर सो गए। उन्होंने कहा, नदी को कहने से तूफान कोई शांत हो जाएगा? कहीं कहने से भी कोई शांत हुआ है? शांत करने के लिए कुछ करना पड़ेगा, जीसस से उन्होंने कहा। जीसस उठे हैं और झील के किनारे गए हैं.. .यह तो पैरेबल है.. .झील के किनारे जाकर उन्होंने कहा कि शांत हो जा! बी स्टिल! और झील शांत हो गई! वे मित्र बड़े चकित हुए। उन्होंने कहा, यह कैसे हुआ सिर्फ कहने से कि शांत हो जा!
यह तो पैरेबल है। यानी मतलब यह है कि हम जिस झील में हैं, जहां हमारी नाव भी डगमगा रही है, डोल रही है, वहां कुछ करना नहीं है, बल्कि यह समझ लेना है कि स्टिलनेस क्या है, तो बी स्टिल की बात हो जाएगी। और जब भी हमने चाहा कि शांत कैसे हों तो यह नई अशांति का सूत्रपात है, और कुछ भी नहीं है। जैसे कहा कि हाउ टु बी स्टिल? तो हमको एक मेथड चाहिए, फिर मेथड में लगें, शांति आएगी। अब यह अशांति का नया सिलसिला है।
अशांति का मतलब क्या है? अशांति का मतलब है कि जहां हम हैं, वहां न होने का हमारा मन है। यह हमारे चित्त की अशांति है, यह टेंशन है। और बी स्टिल का मतलब है कि जहां हो वहीं हो जाओ— बी व्हेयर यू आर। इतना ही मतलब है। अगर शांत हो तो फिर अशांत होओगे कैसे? यानी मतलब यह है कि अशांत होने की तरकीब ही यह है कि जहां हो, वहां मत रहो, हमेशा शुड में जीओ कि वहां होना चाहिए, यह होना चाहिए। तो फिर अशांति होगी। और शुड में जीओ ही मत कि यह होना चाहिए—जो है, है— और चुप हो जाओ, तो उसी वक्त शांत हो जाओगे।
वह समझ में आना सच में ही कठिन है, एकदम कठिन है।

 ओशो हिप्‍नोसिस से जो शांति मिलती है उससे खुश हो जाते हैं कि नहीं?

 कितने दिन? तीन महीने से ज्यादा नहीं, छह महीने से ज्यादा नहीं। छह महीने बाद उनमें से एक आदमी लौटा लाएं! छह महीने बाद दूसरे आ जाएंगे, वह दूसरी बात है। छह महीने से ज्यादा नहीं। क्योंकि हिप्‍नोटिक जो शांति है, वह रूटीन हो जाती है। अगर होने लगी है आपको तो दो महीने के बाद प्रभाव जाता रहता है। रूटीन हो गई कि व्यर्थ हो जाती है। फिर गया वह, फिर उसका कोई मतलब न रहा। वह ट्रिक हो गई और आपको पता हो गया कि बैठ कर ऐसा राम—राम जपने से थोड़ा मन शांत हो जाता है, अब वह रोज होने लगा। पहले दिन आता तो अच्छा लगा, दूसरे दिन कम अच्छा लगा, तीसरे दिन और कम, और चौथे दिन और कम। पच्चीस दिन कोई फिल्म देख लें तो वह बेकार हो गई। ऐसे ही यह भी तीन महीने बाद बेकार हो जाने वाला है। इसलिए होता क्या है, असल में तीन महीने बाद वह खिसक जाएगा, फिर दूसरा कोई हाथ पड़ जाएगा। और दुनिया इतनी बड़ी है, इसलिए कहीं पता चल नहीं पाता इस बात का ठीक—ठीक कि किसको हो गया। वह होने का मामला नहीं है। जो चला गया वह चला गया। दूसरा आ गया है, अब वही बात उसको होने लगी है।
मेरा कहना यह है कि हिप्‍नोटिक ढंग से पैदा की गई शांति चूंकि झूठी है, इसलिए बहुत जल्दी उसका मुलम्मा उतर जाता है। वह दो—तीन—चार महीने में खत्म हो जाती है, उसके बाद फिर आप वहीं के वहीं खड़े हैं। अब आप फिर नया गुरु खोजेंगे। तब भी आपको यह खयाल में न आएगा कि गुरु खोजने में ही गड़बड़ है। इसको छोड़ कर उसके पास चलें, इससे कुछ नहीं थमा। तब एक आश्रम से दूसरे आश्रम जाता है, तीसरे जाता है— एक गुरु, दूसरा गुरु, तीसरा गुरु बदलता रहता है। और हर गुरु उसको टेक्‍नीक बता देता है। उसकी लगता है कि टेक्‍नीक ही गलत है। लेकिन यह खयाल में नहीं आता है कि उसमें कुछ गड़बड़ होगी। मगर यह ध्यान में नहीं रहता है। कोई तरकीब होगी कि उस तक पहुंचा जा सके।

 अच्छा हुआ, गुरु पर बातचीत अच्छी हुई। ऐसे चार—छह किस्म की बात की जरूरत है। चार—छह दिन में और तरफ देखेंगे, एक दिन में तो यह सब मुश्किल हो जाता है न!

 (प्रश्न का ध्वनि— मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

 सवाल यह है कि दो तरह की चीजें होती हैं। या तो ग्रेजुअल प्रोसेस होती है किसी चीज की या एक्सप्लोजन होता है। एक्सप्लोजन का मतलब है. ग्रेजुअल प्रोसेस नहीं, रवोल्‍यूशन नहीं; रेवोत्थूशन! तो ग्रेजुअल प्रोसेस होती है किसी एक चीज की और एक चीज की ग्रेजुअल प्रोसेस नहीं होती। जो चीज हमसे दूर है, उसे तो हमें ग्रेजुअल ही पाना होगा। एक्सप्लोजन का मतलब ही इतना है सिर्फ कि कोई चीज एकदम सडनली हो। और ज्यादा से ज्यादा जो कर सकते हैं वह यह कि होने की स्थिति बन जाए। तो उसके लिए मैं कह रहा हूं कि नॉन—डूइंग माइंड चाहिए।

 कोई चीज मिलेगी?

 मिलने का जो खयाल है न, वही तो हमारे दुख की जड़ है—मिलेगी? मिलेगी?

 (प्रश्न का ध्वनि— मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

होता क्या है कि लोग खोलने को भी एक्ट समझते हैं, क्योंकि शब्द में तो.. .एक आदमी जो बीच में कह रहे थे, वे ठीक कह रहे थे.. .मैं कहता हूं कि मुट्ठी खोलो मत। तुम जो बंद करने की क्रिया कर रहे हो, वह मत करो, तो मुट्ठी खुल जाएगी। खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है और बंद करना एक्ट है। तुम बंद मत करो तो मुट्ठी खुल जाएगी। लेकिन वह कहेगा, नहीं, खुल जाना तो एक क्रिया है। खोलेंगे तभी खुलेगी न। वह जो चूक हो जाती है, शब्दों में बड़ी चूक है। अगर समझने को तैयार हैं तो समझ में आ जाता है, नहीं तो फिर कोई उपाय नहीं है।

आज इतना ही।

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