पत्र पाथय—38
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय
माँ,
इधर
पानी पड़ा है।
उसका गीलापन
अभी तक है और
मिट्टी से
सौंधी सुगंध
उठ रही है।
सूरज भी ऊपर
उठ आया है और
गायों का एक
झुंड जंगल जा
रहा है। उनकी
काठ की घटिया
बड़ी मधुर होकर
बज रही हैं।
मैं थोड़ी दूर
तक उन्हें
सुनता रहा हूं।
अब गायें दूर
निकल गई हैं
और घंटियों की
मीठी प्रतिध्वनि
ही बाकी रह गई
है।
इतने
में कुछ लोग
मिलने आए हैं।
पूछ रहे हैं
मृत्यु क्या
है?
मैं
कहता हूं ‘‘जीवन को
हम नहीं जानते
हैं। इसलिए
मृत्यु है।
स्व—विस्मरण
मृत्यु है।
अन्यथा
मृत्यु नहीं
है केवल
परिवर्तन है। ’स्व' को न
जानने से एक
कल्पित स्व
हमने निर्मित
किया है। यही
है हमारा ‘‘मैं’‘—
''अहंकार’‘। यह है नहीं
केवल आसता है।
यह झूठी इकाई
ही मृत्यु मैं
टूटती है।
इनके टूटने से
दुःख होता है
क्योंकि इसी से
हमने अपना
तादात्मय
स्थापित किया
था। जीवन में
ही इस भ्रांति
को पहचान लेना
मृत्यु से बच
जाना है। जीवन
को जान लो और मृत्यु
समाप्त हो
जाती है। जो
है वह अमृत है
जो जानते ही
नित्य, शाश्वत
जीवन उपलब्ध
हो जाता है।
कल एक
सभा में यही
कहा हूं ‘‘स्व—ज्ञात
जीवन है, स्व—विस्मरण
मृत्यु है।
रजनीश
के प्रणाम
10- 2- 1969
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