अध्याय—(नीन्यानवां)
नौ
दिसंबर 1989 को
निर्वाणो की
मृत्यु की खबर
सुनकर मैं
स्तब्ध रह
जाती हूं।
मुझे याद आता
है कि एक
पुराने
प्रवचन में
मैंने उन्हें
यह कहते सुना
था कि जब सदगुरू
देह त्याग
करता है तो वे
लोग जो उसके
साथ गहरे जुड़े
होते हैं, वे
जीवित नहीं
रहते,' और
ऐसे लोगों में
उन्होंने
निर्वाणो का
नाम लिया था।
मुझे लगता है
कहीं
निर्वाणो की
मृत्यु ने ओशो
के शरीर को तो
किसी तरह
प्रभावित
नहीं किया।
11 दिसंबर 1989
को ओशो के
जन्मदिन पर मैं
बहुत उदास हूं
और उन्हें फूल
भी नहीं भिजवाती।
शाम दर्शन के
समय जब ओशो सब
ओर घूमकर सबको
दोनों हाथ जोड़
नमस्कार कर रहें
हैं तो मेरा
हृदय पीड़ा सै
भरा हुआ है।
जब वे मेरी ओर
देखते है तो
उनके जन्मदिन
के उपहारस्वरूप
मेरी आंखों से
आंसू झर पड़ते
हैं। सत्संग
के दौरान मुझे
महसूस होता है
कि ओशो अपनी
ऊर्जा समेट
रहे हैं और
हमें छोड्कर
जाने की
तैयारी कर रहे
हैं। मेरा मन
मेरे भावों को
पीछे ढकेलकर
कहता है, 'नहीं,
नहीं। वे
हमें इतनी
जल्दी छोड्कर
नहीं जाएंगे।’
एक
शाम ओशो के
डॉक्टर
बुद्धा हॉल
में यह घोषणा
करते हैं कि
सत्संग के समय
कोई व्यक्ति
मंत्रों का
जाप करके ओशो
की ओर
नकारात्मक
ऊर्जा फेंक
रहा है जो कि
उनके नाभि—केंद्र
पर चोट पहुंचा
रही है। वह उस
व्यक्ति से इस
क्रिया को बंद
करने की विनती
करते हैं। कुछ
दिन बाद यह
घोषणा फिर से
दोहराइ जाती
है कि कोई
व्यक्ति काले
जादू का
प्रयोग करके, जानबूझकर
ओशो को नुकसान
पहुंचाने की
कोशिश कर रहा
है। ओशो का
संदेश है कि
वे यह ऊर्जा
उस व्यक्ति पर
वापस फेंक
सकते हैं
लेकिन ऐसा
करना उनका ढंग
नहीं है। उनकी
अपार करुणा
उन्हें ऐसा
नहीं करने
देगी।
ओशो
का शरीर चूंकि
हमारे लिए सबसे
बहुमूल्य है।
हम,
ओशो के
संन्यासी उस
व्यक्ति को
ढूंढ निकालने की
कोशिश करते
हैं। कुछ दिन
तक बैठने की
व्यवस्था को
बदल—बदल कर
देखा जाता है
लेकिन सब
निष्फल हो
जाता। मंत्र—जाए
जारी रहता है
और इस सबके
बावजूद ओशो
बुद्धा हॉल
में बराबर आते
रहते हैं।
एक
शाम मैं पाती
हूं कि मेरी
नियत जगह पर
कोई और बैठा
हुआ है। मैं
उस व्यक्ति से
इस विषय में
पूछती हूं तो
वह बताता है
कि आज बैठने
की व्यवस्था
अलग ढंग से है।
सभी भारतीयों
को एक ओर
बैठना है और
मैं अपनी जगह
चुन सकती हूं।
वह यह भी
बताता है कि
आज सत्संग के
समय हमें अपनी
आंखें खुली
रखनी है। इस
सबके बारे में
पता लगाने, का
पर्याप्त समय
नहीं है। मैं
चौथी पंक्ति
में ओशो के
दाहिनी तरफ
लगभग 45 डिग्री
के कोण पर
अपनी जगह
बनाकर बैठ
जाती हूं।
ओशो
बुद्धा हॉल के
पोडियम पर
प्रवेश करते
हैं। संगीत चल
रहा है और
उनका चेहरा
अत्यन्त
पारदर्शी व प्रकाशमय
लग रहा है।
सबको धीरे—धीरे
हाथ जोड़ कर
नमस्कार कर वे
अपनी कुर्सी
पर बैठ जाते
हैं और अपनी आंखें
बंद कर लेते
हैं। मैं पूरी
आंखें खोलकर
उन्हें अपलक
निहार रही हूं।
उनका चेहरा
प्रकाशपूर्ण
आभा बिखेर रहा
है। कुछ मिनट
बाद संगीत
रुकता है और
चारों ओर गहन शन्ति
छा जाती है।
ओशो धीरे से
अपनी आंखें
खोलते हैं और
अपनी दृष्टि
घुमाते हुए
अपने संभाव्य
बुद्धों को
ध्यानमग्न देखते
हैं। जब वे
अपना चेहरा
मेरी ओर करते
हैं तो एक
क्षण में ही
मेरी खुली आंखें
उनकी आंखों से
जुहूं जाती
हैं। मैं
बिलकुल जम—सी
जाती हूं। भय
की एक लहर मेरे
शरीर में
सिहरन पैदा कर
देती हे और
मेरा शरीर
कंपने लगता है।
ओशो निरन्तर
मेरी आंखों
में देखते
रहते हैं।
मेरा मन
बिलकुल शून्य
हो जाता है और
बस एक यही होश
बना रहता है
कि वे मेरी आंखों
में देख रहे
हैं। मैं यह
नहीं कह सकती
कि यह कितनी
देर तक चलता रहा
शायद दो मिनट, लेकिन
ऐसे लगा जैसे
अनंतकाल हो।
मेरी आंखें
अपने आप ही
बंद हो जाती
हैं और मैं
अपने भीतर गहरे
मौन में डूबती
जाती हूं। जब
मैं अपनी आंखें
खोलती हूं तो
ओशो पोडियम से
जा चुके हैं
और बुद्धा हॉल
करीब—करीब
खाली हे। मैं
अब और नहीं
सोच सकती।
किसी तरह उठकर
मैं अपने शरीर
को अपने कमरे
तक घसीटकर ले
जाती हूं और
बिस्तर पर लेट
जाती हूं। मैं
कुछ समझ नहीं
पाती कि आखिर
हुआ क्या है!
मैं
एक ऐसे छोटे
बच्चे की तरह
रोने लगती हूं
जिसका सब कुछ
खो गया हो और
जो कहीं
बिलकुल अकेला
छूट गया हो।
मैं रोते—रोते
ही सो जाती
हूं।
सुबह
मैं बहुत
तरोताजा और
निर्भार होकर
जागती हूं।
मैं अपनी चाय
तैयार करती
हूं और आंखें
बंद करके जब
धीरे—धीरे चाय
पीने लगती हूं
तो मुझे बोध
होता है कि
मेरे गर्भ में
शून्य जन्मा
है,
जिसका मुझे
पूरा ख्याल
रखना है।
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